रविवार, 6 अगस्त 2023

मूर्ति पूजा का विधान और मन्दिर की अवधारणा-








धाम:- शब्द  से तात्पर्य लौकिक जगत में उन सिद्धपीठों से है जहाँ लौकिक
 मान्यताओं के अनुसार किसी ईश्वरीय अवतार ने अपनी तपश्चर्या अथवा साधना पूर्ण की हो । यद्यपि धाम शब्द परब्रह्म के जोतिर्मय स्थान का
 वाचक है। इस लिए इस शब्द का
 वज़न तीर्थ शब्द की अपेक्षा अधिक है।

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मन्दिर :- वह निश्चित स्थान जहाँ अपने इष्ट की प्रतिमा के समक्ष उस निराकार को साकार मानकर उसकी स्तुति की जाए। दूसरा अर्थ उस गृह स्थान से है जहाँ व्यक्ति दिन भर को परिश्रम से थका हुआ विश्राम और शयन करता है।
"मन्द्यते सुप्यतेऽत्र इति मन्दिर = जहाँ पर विश्राम अथवा शयन किया जाए वह मन्दिर है।

यह निम्न व्युत्पत्ति गृह के अर्थ को चरितार्थ करती है। और पूर्व वाली व्युत्पत्ति " मन्दिर शब्द की इस प्रकार है।
"यत्र आत्मनः इष्टस्य मन्द्यते (स्तूयते)  इति मन्दिरम् कथ्यते । अर्थात् जहाँ अपने इष्ट की स्तुति की जाए वह निर्धारित स्थान मन्दिर है।
वैदिक धातु मद्= स्तुति स्वप्न मोद मद(नशा) गति आदि अर्थो की वाचक है।( मन्द् /मदि+ किरच्)=मन्दिर ।
मदि= स्वपने स्तुतौ च +“इषि मदिमुदीति। उणादि सूत्र।१। १५२। 
इति किरच् ) गृहम्। अमर कोश। २।२।५।
“मदि ङ स्वपने जाड्ये मदे मोदे स्तुतौ गतौ नाम्नीति इरः ।
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तीर्थ:- वह पवित्र वा पुण्य स्थान जहाँ धार्मिक भाव से लोग यात्रा, पूजा या स्नान आदि के लिये जाते हों तीर्थ कहलाता है। तीर्थ किसी पवित्र नदी के तीर( किनारे ) पर स्थित होने से सम्बन्धित हुआ करते थे। इसमें संसार सागर से तारण करने का आध्यात्मिक भाव होने से यह तीर्थ कहलाते थे -
प्रस्तुतिकरण:-
यादव योगेश कुमार रोहि-



जिस प्रकार अग्नि में क्वथित बीज (उबला हुआ बीज) अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार तत्व ज्ञान (यथार्थ ज्ञान) की अग्नि में दग्ध (जला हुआ) अहंकार से रहित  संकल्प और उससे उत्पन्न कामनाओं से रहित कर्म भी कभी फल देने वाला नहीं होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता का निम्न श्लोक कर्म फल की सम्यक् व्याख्या करता है।
कहने तात्पर्य है कि संसार के हर कर्म के पीछे इच्छाओं का हाथ है। और इच्छाओं का कारण संकल्प ( मन का दृढ़ निश्चय) और संकल्प का कारण व्यक्ति का अहंकार है। और इस अहंकार के पीछे कारण है व्यक्ति का वह अज्ञान जिसके कारण कभी सत्य का पूर्णरूप से बोध नहीं होता है।
निम्नलिखित श्लोक में कर्म बन्धन से मुक्त होने की विधि का वर्णन है। क्योंकि कर्म बन्धन में
 पड़ा हुआ व्यक्ति द्वन्द्व (दु:ख-सुख) अथवा किस से लगाव -अलगाव आदि परस्पर विरोधी भावों से सदैव समान रूप से प्रभावित रहता है।
यही संसार का अनवरत चक्र गतिशील रहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता दृश्य ( तमाशा) न बनाकर तमाशा देखने वाला बनने की शिक्षा देती है।
श्रीमद्भगवद्गीता का वह श्लोक जिसमें कर्म फल से मुक्त होने की विधि का वर्णन है।

श्रीमद्भगवद्गीता -  4.19  
"यस्य सर्वे समारम्भाः कर्मा: कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं  तमाहुः पण्डितं बुधाः॥ १९॥
शब्दार्थ-
यस्य—जिसके; सर्वे—सभी प्रकार के; समारम्भा:— समान रूप से आरम्भ ; कर्मा: कर्म समूह काम—इच्छा/ ; सङ्कल्प— मन का निश्चय; वर्जिता:—से रहित हैं; ज्ञान— ज्ञान की; अग्नि—अग्नि द्वारा; दग्ध—भस्म हुए; कर्माणम्—जिसका कर्म; तम्—उसको; आहु:—कहते हैं; पण्डितम्—बुद्धिमान्; बुधा:—बोध सम्पन्न ।.
 
भावार्थ--
जिस तत्वज्ञानी व्यक्ति के सभी कर्म -अहंकार जनित संकल्पों के प्रवाहात्मिका रूपा कामनाओं(इच्छाओं)  से रहित हो जाऐं  तो वह कभी भी संसार के कर्मफल का भागी नही होता यदि उससे कोई अप्राकृतिक अथवा उन्मादी कृत्य (कर्म) भी हो जाए तो  प्रायश्चित करने पर उसका शुद्धि करण हो जाता है।

जिस प्रकार अग्नि में क्वथित( उबला हुआ) बीज अंकुरित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में तप्त कर्म रूपी बीज संकल्प और इच्छाओं के रूप में 
अंकुरित नहीं होता है। अन्यथा संसारी लोग अहंकार के गुण संकल्प और संकल्प के प्रवाह इच्छाओं के वशीभूत होकर ही कर्म में प्रवृत होते हैं।
जिनके फल भोग के लिए ही उनका अनेक जीवों के रूप में वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुरूप जन्म होता है।
 

आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है।

श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में  कर्मयोग  का  बड़ा सैद्धान्तिक विवेचन है।

द्वितीय अध्याय में  श्रीकृष्ण ने श्लोक 11 से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर  सांख्ययोग का प्रतिपादन किया ।

तत्पश्चात्  श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए "स्थितप्रज्ञ" सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का स्वाभाविक  प्रतिपादन किया है।

इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48 वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को प्रेरित किया है।

49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत निम्न बताया है। इसी अध्याय के  50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में संलग्न हो जाने के लिए कहा और 51 वें श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है।
यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से निश्चय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ? (मह्यं किं कर्त्तव्यम्)
इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन पुन: कृष्ण से पूछते हैं जिसे तृतीय अध्याय में निर्देशित किया गया है।

               "अथ तृतीयोऽध्यायः।

                 "अर्जुन उवाच"
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।
अनुवाद-आप मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं | इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ ।

                'श्रीभगवानुवाच'
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।
अनुवाद-श्री भगवनान बोलेः हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है | उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है |

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
अनुवाद-मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है!

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
अनुवाद-निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
अनुवाद-जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |

यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
अनुवाद-किन्तु हे  अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।।
अनुवाद-तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।9।।
अनुवाद-यज्ञ के निमित्त किये जाने कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |
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सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।।
अनुवाद-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
अनुवाद-तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें  इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे!

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।।
अनुवाद-यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है |

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।।
अनुवाद-परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
अनुवाद-उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |
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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।।
अनुवाद-इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है !

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।।
अनुवाद-जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे | इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है |

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।21।।
अनुवाद-श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।
अनुवाद-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।।
अनुवाद-क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं |

उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।।
अनुवाद-इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ |

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।।
अनुवाद- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे |

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।।
अनुवाद- परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उन्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे |
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प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।।
अनुवाद-वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है !

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।।
अनुवाद-परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |

प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।।29।।
अनुवाद-प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे |

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
अनुवाद-सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते है| फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।।
अनुवाद-इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं |

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।
अनुवाद-अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |
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                   अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।36।।
अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?

                    'श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद् भवः
महाशनो महापाप्मा विद्धेयनमिह वैरिणम्।।37।।
अनुवाद-श्री भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान !

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।।
अनुवाद-जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है |

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।।
अनुवाद-और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने
वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है !

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।।
अनुवाद-इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब वास स्थान कहे जाते हैं | यह काम( सेक्स प्रवृत्ति) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है |

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मान प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।।
अनुवाद-इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।।
अनुवाद-इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं | इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है |

एवं बुद्धेः परं बुद् ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।।
अनुवाद-इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल |
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अर्थात - इस प्रकार हे अर्जुन ! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।

कठोपनिषद् में रथ " रथी तथा सारथी के उपमान विधान  से शरीर" आत्मा और बुद्धि तत्व  की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है।

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। 3।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। 4।

(कठोपनिषद्-1.3.3-4)

श्रीमद्भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मेविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः |3|
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय सम्पन्न हुआ |

आत्मानं रथिनं विद्धि- आत्मा को रथ समझो !
संसार की कामनाओं में काम ( उपभोग करने की इच्छा-अथवा बुभुक्षा- का समावेश है और ये कामनाऐं अपनी तृप्ति हेतु अनैतिक और पापपूर्ण परिणामों का कारण बनती हैं ।

इसी पाप का परिणाम संसार की यातना और असंख्य पीड़ाऐं हैं  इन कामनाओं का दिशा परिवर्तन आध्यात्मिक कारणों से ही सम्भव है ।

कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का आध्यात्मिक वर्णन है ।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं ।

संबंधित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन सार्थक उपमा  के रूप  हैं !
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 आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।३।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)

इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम –
इंद्रियों पर नियंत्रण का हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख
__________________
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः ।)

मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ की सबारी  करने वाला बताया है

प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन  आध्यात्मिकता प्रधान रहा है। ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा  परन्तु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कर सकें ।

उनकी जीवन-पद्धति प्राय:  आधुनिक काल की  भौतिक पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं।

उनके दर्शन के अनुसार मृत्यु से परे आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के अति चेतन चेतन और अवचेतन आदि स्तरों द्वारा करती हैं ।

मन का संबंध बाहरी जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात्  जननेद्रिय,।

पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्यायित करता है मन के उसी विकल्प को सुख अथवा दुःख के रूप में जाना जाता है ।

इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।

किन विषयों में इंद्रियां विचरण करेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण करेगी  यह मन के उन पर नियंत्रण पर निर्भर करता है ।

इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है परन्तु जब मन के वासनाऐं समाप्त होकर बुद्धि में में ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश होता है।

उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार क्या करना चाहिए है और क्या नहीं करना चाहिए इसका निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों को निर्देशित करता है ।

इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धिरूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
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रथ:शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।
तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।

षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् ।
यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।

इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम् ।२५।

इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।

येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्।
तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।

इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय)



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पुरुष का यह प्रत्‍यक्ष देखने में आने वाला स्‍थूल शरीर रथ के समान है। बुद्धि सारथि है और इन्द्रियों को घोड़े  बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर सारथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग सुगम्य करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं  पुरुष की बुद्धि मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा तय  करती है।२३।

जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्‍य विद्यमान छ: प्रमथनशील इन्द्रिय रुपी अश्वों  की लगाम संभालता है, वही उत्तम सारथी हो सकता है । २४।

सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्‍न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्‍य विजय प्राप्‍त होती है।२५।

जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्‍त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।२६।

सभी मनुष्‍य इन छ: इन्द्रियों के शब्‍द, रस  आदि विषयों में उनसे प्राप्‍त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्‍बन्‍ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्‍यानजनित आनन्‍द का अनुभव करता है ।२७।
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इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत मार्कण्‍डेय समस्‍या पर्व में ब्राह्मण व्‍याध संवाद विषयक दो सौ ग्‍यारहवां अध्‍याय पूरा हुआ

आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही विकसित रूप है ।

आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swḗsa( स्वेसा ) तथा swījēn( स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं।
अर्थात् own, relation प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
1-swēs (a) 2-`own'; swēs n. (b) `property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s `lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum 4-Old English: swǟs `lieb, eigen' 5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter' 6-Old Saxon: swās `lieb' 7-Old High German: { swās ` 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व 9-Old Indian: poss. svá- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau.

संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है। ___________________________________

"स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः । स्वभावस्थे अर्थात्‌ स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ: अर्थात्‌ --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।

योग स्वास्थ्य का साधक है ।

पञ्चम् सदी में रचित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बताया है ।
भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇

"सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कुरु कर्माणि समत्वं योग उच्चते ।।
श्रीमद्भगवत् गीता(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है।

समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है।

भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है । कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ____________________________________ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है । अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸

पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं।
--जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।

यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ।
जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है ।

संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं। योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत् ) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है।👇 ____________________________________use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume,"

पुरानी लैटिन में युति क्रिया है। जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज ( Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । जिससे (युज्+घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । ____________________________________ योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇
योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है ।

योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।

इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।

और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇

१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध। चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है ।

--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।

स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ।

१-संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि (-जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है।

और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं।

ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते ।

वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
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योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ।

नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।

१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है ३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है ४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है ।

पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है । खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।

वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं ।

ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।

भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।

जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।

👂👇👂👂 पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।

यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है। ___________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।

उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।

पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है।

पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है ।
--जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।

वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।

और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है । और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ।

और ज्ञान ही जान है ।
अस्तित्व की पहिचान है ।

कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 __________________________________

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।।
 

( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है । अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
--जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े ।
और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।

एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।

--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है । भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है ।
(प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।

और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं ! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ।

परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेत का अर्थ ही बदल गया !

इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।
प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे ।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था ।

परन्तु उसे हटा दिया गया ।
यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है ।
वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है ।
रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।

और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है।

जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है ।
विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि । वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है।
जब मन में अहं का भाव हो जाय ।

परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है । क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं । जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।

आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात्‌ सच्चिदानन्द। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है ।

और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है ।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है  ___________________________________

पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है ।
वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा ।
क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।।

अर्थात्‌ ये मेरी विभूतियाँ हैं ।
भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"।
अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है ।
और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए  "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में ।
अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है ।

मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात्‌ द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।

द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता?

-जैसे माया और ईश्वर । परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।

वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है।

अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।
मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।

उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों ।

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अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है ।
परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे । यानि शरीर की नीरोग अवस्था ।
परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है  ___________________________________
आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है । आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति" बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं।
क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है ।

अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं । बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया । यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है।

इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।

परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है।

पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा।
क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा।

निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो।
विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक्‌ रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। क्यों जीवन ही कर्म मय है । 👇

"न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।3.5।

कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है ।

अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ; लोक हित के लिए ।
परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है ।

कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ ।

बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये। हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे।

हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया ।
परिचय संपादित करें प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्‍यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्‍न मार्ग। यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था।

हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्‍यों त्‍यों बनाए रखना चाहते थे।

हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे।

हीनयान की साधना अत्‍यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे। हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है।
बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक। इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्-सूत्र में है । वैभाषिक मत की उत्‍पत्ति कश्‍मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था।
सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्‍प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।

थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'।
बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है।

थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं। वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।

जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता।

थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है।

इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ; और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है।

थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था।

बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ ।

वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।

वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में  विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।

‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।

यान( रास्ता) ‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है। वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है ।

सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।
सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं।
इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है। एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।

उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है।

एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।

अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है।
सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।

उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये ।

योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया । दुनिया के करीब २ अरब (२९%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं। दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं।

किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है। भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं। योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है ।

बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना ।
योग सृष्टि के रहस्य को जानने रा सम्यक् विज्ञान है
योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । ___________________________________

यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है। जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं !

सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है।

और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।

.मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ।
जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।
इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है। यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है ।

परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।

वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं। वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है ।
श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇 ___________________________________

दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
-ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा । और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇 ___________________________________
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)   यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात्‌ इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर  तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च  तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है । अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं  वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्"  तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं।

इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।

जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे । इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।

प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें---

 अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’

महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।

ईश्वर सार्वजनिक विषय नहीं है । ईश्वर को मानना भी अपने ऊपर आस्थाओं की चादर डालना है।

उससे केवल मन की उन्मुक्तता और उत्श्रृँखलता पर तो नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु ईश्वर को नहीं जाना जा सकता है।

क्योंकि वह निराकार और अनन्त है।  जन साधारण की बुद्धि से परे इसी लिए ईश्वरीय प्रतीक के रूप में मूर्ति या ईश्वर की कल्पित प्रतिमा की स्थापना की गयी जो वस्तुत श्रद्धा केन्द्रित करने का अवलम्बन मात्र थी ।

"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।39। (श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय-)
 
अनुवाद:- जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।

श्रद्धा से से भी मनस् -शुद्धि द्वारा ज्ञान की ही प्राप्ति होती है।

जन्म और मृत्यु परिवर्तन के ही प्रवाह हैं! न तो आत्मा जन्म ही लेती है और ना ही मरती है।
परन्तु मन जो आत्मा और प्रकृति का मिश्रित रूप है
जागता सोता मरता और जीता है।
ईश्वर आदि ( प्रारम्भ) और अन्त से रहित असीम अस्तित्व है। जिसकी आँशिक अनुभूति तो सम्भव है परन्तु सम्पूर्ण अस्तित्व का दर्शन सम्भव और अनुभूति गद्य नहीं है।
फिर जन साधारण के लिए उसकी व्याख्या भी नहीं की जा सकती है।
अहं( ईगो) जीवन की सत्ता है अहंकार से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का प्रादुर्भाव ही जीवन के लिए उत्तरदायी है।
परन्तु स्व ( स्वयं) रूप ही आत्मा का अस्तित्व बोधक है।

अहं से हम और हम के भाव से स्व (आत्मा) की और जीवन के अग्रसर होने के लिए केवल कृष्ण ने निष्काम (कामना अथवा इच्छा रहित -) कर्म की प्रेरणा दी
अहं जहाँ जीवन को सीमित दायरे में संकुचित और सीमित करता है वहीं स्व का भाव बोध असीम की और अनन्त की अनुभूति का कारण है।

___________    

ज्ञान की स्थिति में मन द्वारा जो संकल्पित कर्म सम्पादित होता है। उसका परिणाम !

और ज्ञान के अभाव में मन द्वारा संकल्पित  सम्पादित कार्य का परिणाम भिन्न भिन्न प्रभाव वाला होता है।

श्रद्धा के  केन्द्रीकरण के आयाम सदैव स्थूल अवलम्बन का आश्रय लेते हैं। यही ईश्वर का साकार मान्य प्रतीक है।

वैदिक काल में भी प्रतिमा शब्द इसी अर्थ में रूढ़ हो गया था।

"कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्।
छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥३॥ ( ऋग्वेद -१०/१३०/३)

“{प्रमा= प्रमाणम्} 
“प्रतिमा = हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते निर्मीयते इति प्रतिमा देवता ।

परन्तु मूर्ति पूजा तो एक श्रद्धा का निमित्ति कारण है। दर-असल ईश्वर को जानना ही श्रेयकर है।

ईश्वरीय सत्ता का आंशिक ज्ञान भी तभी सम्भव है जब अन्त:करण चतुष्टय पूर्णत: दुर्वासना से रहित हो जाए  ! हमारी वासनाओं के आवेग ही मन में लालच की तरंगे पैंदा करते रहते हैं। जो दर्पण को मलिन करती रहती हैं। 

अन्त: करण एक दर्पण के समान स्वच्छ हो जाए तो साधक ईश्वरीय आंशिक सत्ता की तात्विक अनुभूति सहज कर लेता है।  ईश्वर की पूर्ण सत्ता का अनुभव तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर पाता है।  यही ईश्वरीय असमर्थता है। ईश्वर नाम से अभिहित तत्व स्वयं में अपरिमेय है।

उसके अनन्त अस्तित्व तो मापने का  कोई उपमान अथवा मानक  ही नही है।
पूर्ण ईश्वर को किसी ने नहीं देखा उसको जानने के सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं। साधक भी ईश्वरीय" सत्ता का आँशिक अनुभव करता है।

वह ईश्वर अपने आप में पूर्ण " अनन्त और अपरिमेय सत्ता है । 

भारतीय मनीषीयों ने अपने साधना काल में उसकी एक आँशिक झलक अनुभत की थी 
तब यह कहा -

"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

वह ईश्वर अनन्त है, और यह (ब्रह्माण्ड) अनन्त है। अनन्त से अनन्त की प्राप्ति होती है। (तब) अनन्त की अनंतता लेते हुए, भी वह अनंत के रूप में भी अकेला रहता है।

जिस प्रकार गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य को घटाया जाता है तो परिणाम शून्य ही आता है। उसी रूप मे ईश्वरीय अनन्तता को समझा जा सकता है।

इसी लिए उस अनन्त अपरिमेय आत्मिक सत्ता को सजीव और निर्जीव से भी पृथक शून्य ( ∅ ) रूप में  उपमित किया गया जिसमें अनन्त काल तक आप परिक्रमण करते रहो कोई अवरोध नहीं आयेगा- आप जीवन पर्यन्त निरन्तर चलते रहोगे -पर उसका कभी गन्तव्य अवरोध नहीं आयेगा-

हमारे सारे धार्मिक उपक्रम मन के शुद्धि करण के उपाय मात्र हैं। यदि यज्ञ अथवा किसी देवता की पूजा करने से अथवा तीर्थ यात्रा अथवा मन्दिर आदि के  द्वारा  मन न शुद्ध हो सके तो ये सारे उपक्रम व्यर्थ ही हैं।

ईश्वरीय सत्ता के अन्वेषण अथवा अनुभूति के इसलिए साधक को निरन्तर मन के शुद्धि करण हेतु तप "संयम " और योग अभ्यास भी करना चाहिए 
प्राचीन काल में साधक ही साधु संज्ञा के अधिकारी होते थे। 

और सन्त भी  पूजा( साधना ) करने वाले होते थे।
अरबी भाषा में प्रचलित शब्द (सनम) देव मूर्ति का वाचक है। 
दरअसल जब लोग ईश्वरी सत्ता की परिकल्पना करते थे तो वे किसी इमेज के रूप में मूर्ति भी  बनाते थे।

अरब  का यह सनम शब्द हिब्रू" अक्काडियन और अनेक सैमेटिक भाषाओं में कही  सनम- तो कहीं  "सलम आदि रूपों में प्रचलित है। 

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में षण्-(सन्) धातु भ्वादिगणीय है। और दूसरी धातु सल्(शल्,) भी है जो स्तुति गमन और पार होने के अर्थ में प्रचलित है। षन् धातु का 
लट् लकार (वर्तमान) में  रूप निम्नलिखित हैं ।

एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम्
प्रथमपुरुषः सनति सनतः सनन्ति
(वह पूजा करता है/ वे दोनों पूजा करते हैं/ वे सब पूजा करते हैं।

मध्यमपुरुषः सनसि सनथः सनथ
( तू पूजा करता है/ तुम दोनों पूजा करते हो/तुम सब पूजा करते हो/

उत्तमपुरुषः सनामि सनावः सनामः
( मैं पूजा करता हूँ/ हम दोनों पूजा करते हैं/ हम सब पूजा करते हैं/

मूर्तियों या निर्माण निराकार ईश्वर के साकार प्रतीक के विधान के तौर पर जन साधारण के लिए किया गया था।
अरबी में 
 صنم فروش ( सनम-फ़रोस- , " मूर्ति विक्रेता )        (
है।

सेमिटिक मूल का ‘"सनम’ صنم शब्द बनता है स्वाद-नून-मीम ص ن م तीन वर्णो  से मिलकर यह शब्द बनता है।।

इस्लाम से पहले सैमेटिक संस्कृति मूर्तिपूजक थी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति  बुतपरस्ती  के माध्यम से  ही प्रकट होती रही है।

प्रतीक, प्रतिमा, सनम या बुत तब तक निर्गुण-निराकारवादियों को नहीं खटकते जब तक वे धर्म के सर्वोच्च प्रतीक के तौर पर पूजित न हों।
मूर्ति पूजा या विधान जनसाधारण के लिए था।

"सनम" का सन्दर्भ भी प्रतिमा के ऐसे ही रूप का है। कुरान की टीकाओं व अरबी कोशों भी सनम को “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” के तौर पर ही व्याख्यायित किया गया है।

अनेक सन्दर्भों से पता चलता है कि "सनम" का व्युत्पत्तिक आधार हिब्रू भाषा का है और वहाँ से अरबी में दाखिल हुआ।

हिब्रू में यह स-ल-म अर्थात( salem) है  एक स्तुति वाचक शब्द है।

जिसमें बिम्ब, छाया अथवा प्रतिमा का आशय है। इस्लाम से पहले काबा में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी" सनम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। 

चूँकि “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” इस्लाम की मूल भावना के विरुद्ध है इसलिए सनम, सनमक़दा और सनमपरस्ती का उल्लेख इस्लामीय शरीयत  के परवर्ती सन्दर्भों में तिरस्कार के नज़रिये से ही प्रचलित हुआ  है।

प्राचीन सेमिटिक भाषाओं में अक्काद प्रमुख संस्कृति है जिसकी रिश्तेदारी हिब्रू और अरबी से रही है। 

उत्तर पश्चिमी अक्काद और उत्तरी अरबी के शिलालेखों में भी सनम का (‘स-ल-म)’ रूप मिलता है। 
दरअसल न और ल में बदलाव  की प्रवृत्ति भारतीय आर्यभाषाओं में भी होती रही है।

मिसाल के तौर पर पश्चिमी बोलियों में लूण ऊत्तर-पूर्वी बोलियों में नून, नोन हो जाता है। इसी तरह नील, नीला जैसे उत्तर-पूर्वी उच्चार पश्चिम की राजस्थानी या मराठी में जाकर लील, लीलो हो जाते हैं।
यही बात सलम के सनम रूपान्तर में सामने आ रही है।

इस सन्दर्भ में S-l-M से यह भ्रम हो सकता है कि इस्लाम की मूल क्रिया धातु s-l-m और सनम वाला s-l-m भी एक है।

दरअसल इस्लाम वाले स-ल-म में (सीन-लाम-मीम س ل م‎ है ! 

जिसमें सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड सलामती जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है।
अत: सल् ( शल्) पार करना - स्तुति करना आदि अर्थ लेकर संस्कृत धातुपाठ में भी उपस्थित है।

जबकि प्रतिमा के अर्थ वाले स-ल-म का मूल स्वाद-लाम-मीम है।

ख़ास बात यह कि प्राचीन सामी सभ्यता में देवी पूजा का बोलबाला था।

लात, मनात, उज्जा जैसी देवियों की प्रतिमाओं की पूजा प्रचलित थी। इसलिए बतौर सनम अनेक बार इन देवियों की प्रतिमाओं का आशय रहा। 

बाद के दौर में सनम प्रतिमा के अर्थ में रूढ़ हो गया।

इस सिलसिले की दिलचस्प बात ये है कि जहाँ बुत, मूर्ति या प्रतिमा जैसे शब्दों का प्रयोग ‘प्रियतम’ के अर्थ में नहीं होता मगर प्रतिमा के अर्थाधार से उठे शब्द में किस तरह प्रियतम का भाव भी समा गया।

संस्कृत धातु पाठ में सन् - धातु का अर्थ पूजा-करना भी है।

यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ईश्वर आराधना की प्रमुख दो पद्धति रही हैं- पहली है सगुण  अथवा साकार और दूसरी है निर्गुण अथवा निराकार।

सगुण (साकार)  पद्धति में ईश्वर की उपासना करने वाले समूह में भी प्रतिमा, उस परमशक्ति का रूप नहीं है।
जिस प्रतीक को परमशक्ति माना गया, उसकी प्रतिमा को  मात्र  ईश्वर की मानकर पूजा जाता है।

भारतीय पुराणों में ब्राह्मा के चार पुत्र 
सनत" सनत्कुमार" सनातन" सनन्दन " के नामों में भी यह सन् धातु समाविष्ट है।
चारो शब्दों की व्युत्पत्ति " सन्= पूजायां धातु परक है।

सन्त: शब्द के मूल में भी यही सन् धातु समाविष्ट है 
मत्स्यपुराण के अनुसार संत शब्द की निम्न परिभाषा है :

ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:।
सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥
अनुवाद:-
ब्राह्मण ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वही सन्त कहलाते हैं।

मनोज्ञैस्तत्र भावैस्ते सुखिनो ह्युपपेदिरे ।
अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूंस्तथैव च ।१९ ।
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तद्वंतो ये भवंत्युत ।
साजात्याद्ब्रह्मणस्त्वेते तेन सन्तः प्रचक्षते ।२०। 
सन्दर्भ:-
(ब्रह्माण्डपुराण /पूर्वभागः/अध्यायः ३२)

सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ है - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा आदि अर्थ है।

सच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥  
(यथा -रघुःवंश महाकाव्य । १।१०। 

रघुवंशम्-1.10

श्लोकः-" तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥
अनुवाद:-
उस वंश को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले सन्त ही योग्य है। 
सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥

एक अन्य ग्रन्थ विश्वामित्रसंहिता- के अध्याय 27 के श्लोक 42 में "सन्त" की परिभाषा निम्नलिखित है।

एककालं बलेर्हानौ द्विगुणं च बलिं हरेत् ।
कुर्याच्च पूर्ववच्छेषमिति सन्तः प्रचक्षते ॥ 42॥

पहले भारत को बुद्ध के द्वारा जाना गया था परन्तु अब भविष्य में कृष्ण के द्वारा भारत को जाना जाएगा इस्कॉन के द्वारा कृष्ण दर्शन यूरोप में प्रतिष्ठित हो गया

अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ या इस्कॉन (अंग्रेज़ी: International Society for Krishna Consciousness - ISKCON; , को "हरे कृष्ण आन्दोलन" के नाम से भी जाना जाता है। इसे 1966 में न्यूयॉर्क नगर में भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने प्रारम्भ किया था।

ये कायस्थ बंगाली परिवार में जन्में थे।
इनके माता-पिता: श्रीमन गौड़ मोहन डे तथा श्रीमती रजनी डे थे।

डे या डे आमतौर पर बंगाली समुदाय द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपनाम है। डे/डे अंतिम नाम देब/देव या देवा से लिया गया है।

उपनाम मुख्य रूप से बंगाली कायस्थों के साथ जुड़ा हुआ है।

अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदांत प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे।

प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार रोहि- सम्पर्क सूत्र-8077160219




शिवपुराण के विश्वेशर संहिता खंड में ही, सूत जी बताते हैं कि शिवलिंग किस किस धातु से बनाया जा सकता है –पार्थिव द्रव्य से, जलमय द्रव्य से अथवा तेजस द्रव्य से, किसी से भी अपनी रूचि के अनुसार बनाया जा सकता है।

– अब जब यहाँ स्पष्ट है कि पार्थिव द्रव्य से शिवलिंग बनाया जा सकता है तो इसमें क्या खराबी है ? यहाँ तो ऐसा कुछ नहीं है कि इसमें और अन्य शिवलिंग में कोई अंतर अथवा खराबी है, कोई भी अपनी इच्छा से, जैसा सही समझे, शिवलिंग बना ले और पूजे | रामचंद्र जी ने तो बालू का ही शिवलिंग बना लिया था।

केवल आधी लाइन ‘शिवलिंगस्तु शूद्राणाम’ लिखने से, इन्होने ऐसा विचित्र अर्थ कैसे निकाल लिया ? और शूद्र को मूर्ख तो किसी शास्त्र में नहीं लिखा है, किसी व्याकरण की पुस्तक में नहीं पढ़ा गया है फिर ये विचित्र अर्थ इन्होने कैसे कर दिया ?
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मृच्छिला धातुदार्वादि मूर्ता विश्ववरबुद्धयो, क्लिश्यन्तस्तपसा ज्ञानं बिना मोक्षं न यान्ति ते 
अर्थ – जो सोचते हैं कि परम पुरुष मिटटी , पत्थर , धातु या लकड़ी की बनी मूर्ति में सीमित है वे अपने शरीर को तपा कर अनावश्यक पीड़ा पहुंचाते हैं । वे बिना आत्मज्ञान के मोक्ष नहीं पाएंगे ।

अब देखिये, कैसे कुछ शब्दों का हेर-फेर करके, पूरे श्लोक के अर्थ का अनर्थ कर दिया !! इससे इस लेखक के न केवल मूढ़ अपितु धूर्त होने का भी आक्षेप स्पष्ट होता है।

इसके आगे, ये महोदय, श्रीमद्भागवत पुराण से सन्दर्भ देते हैं –
"न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः –
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/उत्तरार्धः/अध्यायः ८४, श्लोक 11 

पर ये इसके आगे की पंक्ति जानबूझ कर नहीं देते हैं जिससे जन साधारण को ये बता सकें कि हमारी बात ही सही है। – जिसमें लिखा है –
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः । ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः |
श्लोक  10.48.31  
शब्दार्थ:-
न—नहीं; हि—निस्सन्देह; अप्-मयानि—जल से बना; तीर्थानि—पवित्र स्थान; न—ऐसा नहीं है; देवा:— देवगण(अर्चा=विग्रह /प्रतिमा)  मृत्— मिट्टी; शिला—तथा पत्थर से; मया:—निर्मित; ते—वे; पुनन्ति—पवित्र बनाते हैं; उरु-कालेन—दीर्घकाल के बाद; दर्शनात्— दर्शन से; एव—केवल; साधव:—साधु जन ।.
अनुवाद
इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि अनेक तीर्थस्थानों में पवित्र नदियाँ होती हैं या कि देवताओं के अर्चाविग्रह मिट्टी तथा पत्थर से बने होते हैं। किन्तु ये सब दीर्घकाल के बाद ही आत्मा को पवित्र करते हैं जबकि सन्त-पुरुषों के दर्शनमात्र से आत्मा पवित्र हो जाती है।
________   
अर्थ – पानी के तीर्थ, तीर्थ नहीं हैं और मिटटी की मूर्तियाँ देवता नहीं हैं क्योंकि वो तो बहुत दिनों बाद ही किसी को पवित्र करती हैं, लेकिन साधु दर्शनमात्र से ही तत्काल सबको पवित्र कर देते हैं।
सीधा सा अर्थ है कि जो ज्ञानी होता है, जो ईश्वर को जानता है, साधु है, वो तो तुरंत ही आपको पवित्र कर देगा पर मूर्तियों और तीर्थों में वो बात नहीं है क्योंकि अनेकों तीर्थों और मूर्तियों के दर्शन के बाद ही आपके पुण्य जागृत होते हैं। तब कहीं ज्ञान प्राप्त होता है।
इसमें एक साधारण उदाहरण दिया है कि ज्ञानी का सानिध्य करना चाहिए पर कुछ चतुर नास्तक लोग, आधी आधी लाइन उठाकर, पाठक को भ्रमित करने पर अधिक यकीन रखते हैं |
                   ॥ भद्र उवाच ॥
तीर्थानि तोयपूर्णानि देवाः पाषाणमृन्मयाः
आत्मस्थं ये न पश्यंति ते न पश्यंति तत्परम्॥२६।
संति तीर्थान्यनेकानि पुण्यान्यायतनानि च॥
पुण्यतोया पवित्रश्च सरितः सागरास्तथा॥
बहुपुण्यप्रदा पृथ्वी स्थानेस्थाने पदेपदे ॥२७॥

यद्यस्ति तव राजेंद्र ज्ञानं ज्ञानवतां वर ॥
विष्णुं जिष्णुं हृषीकेशं शंखिनं गदिनं तथा ॥२८॥
स्कन्दपुराणम्/खण्डः ७ (प्रभासखण्डः)/वस्त्रापथक्षेत्रमाहात्म्यम्/अध्यायः ०१
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तीर्थानि तोयपूर्णानि देवान्पाषाणमृन्मयान् । योगिनो न प्रपद्यन्ते स्वात्मप्रत्ययकारणात्”।। 

यह शिवपुराण के वायुसंहिता, खण्ड-2, अध्याय-39 में श्लोक 29 में बताया गया है कि पानी से भरे हुए तीर्थों तथा पत्थर और मिट्टी के बने हुए देवताओं को योगी लोग ग्रहण नहीं करते, क्योंकि इनको अपनी आत्म में विश्वास होता है ।

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी: कलात्रादिषु। यत् तीर्थबुद्धि: सलिलेन कर्हिचिज्जनेषु अभिज्ञेषु स एव गोखर: ।।

यह भागवतपुराण स्कन्ध- 10, अध्याय-84, श्लोक-13, में वर्णित है । इसका अर्थ है की - जो मनुष्य । तीन धातुओं के बने हुए शरीर को आत्मा समझता है, स्त्री-पुत्र आदि को अपना समझता है, पृथिवी के पत्थर, लकड़ी, धातु आदि की बनी हुई वस्तुओं को पूजा करता है और जलों को तीर्थ मानता है, बुद्धिमानों में उनकी गणना भी नहीं करनी चाहिए, अपितु वह बोझ उठानेवाले बैल और गधे के बराबर है ।

अवेदविहिता पूजा सर्वहानिकरण्डिका ।।
पूजेयमधुना वा ते किमु वा पुरुषक्रमात् ।। ५२ ।।


यह ब्रह्मवैवर्तपुराण, खण्ड -4, अध्याय-21, श्लोक-52 में श्री कृष्णा जी ने नन्द जी से कहा कि यह इन्द्र आदि की पूजा करना वेद-विरुद्ध है ।

यह कुछ अल्प प्रमाण पुराणों से प्रस्तुत किये गए हैं जिनसे यह पता चलता है कि पुराणों के प्रणेता भी किन्हीं क्षेत्र में मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध समझते थे और वेद में एक मात्र निराकार ईश्वर की ही पूजा का विधान है यह सब जानते थे । वेदों में पठित जब ईश्वरीय वाणी से भी लोगों को विश्वास नहीं होता कि मूर्ति-पूजा अथवा जड़ पदार्थ को ईश्वर मान कर पूजा करना उचित नहीं है, तो आइये देखते हैं कि - जिन पुराणों को अपना आदर्श ग्रन्थ मानते हैं आर जिन पुराणों के प्रमाण उपस्थापित करके उनके आधार पर मूर्तिपूजा की सिद्धि करना चाहते हैं, उन्हीं पुराणों में कुछ प्रमाण ढूंढने का प्रयत्न करते हैं, जिनमें यह निर्देश किये गए हैं कि मूर्तिपूजा नहीं करनी चाहिये । जो इन पुराणों को सत्य मानते हैं अथवा स्वीकार करते हैं वे इन प्रमाणों को भी सत्य मानते हुए स्वीकार करेंगे ऐसी आशा है -

"शिवपुराणम्‎  भाग-७ (वायवीयसंहिता)‎ उत्तर भागः                 

               "उपमन्युरुवाच-

श्रीकण्ठनाथं स्मरतां सद्यः सर्वार्थसिद्धयः॥प्रसिद्धयन्तीति मत्वैके तं वै ध्यायन्ति योगिनः॥ ७.२,३९.१

अनुवाद:-

श्री कण्ठनाथ महादेव का स्मरण करने वाले सभी अर्थों की सिद्धि प्राप्त करते हैं और वे प्रसिद्ध हो जाते हैं ऐसा मानकर कि वही एक है सब योगी उसका ही ध्यान करते हैं ।१।

स्थित्यर्थं मनसः केचित्स्थूलध्यानं प्रकुर्वते ॥      स्थूलं तु निश्चलं चेतो भवेत्सूक्ष्मे तु तत्स्थिरम् ॥ ७.२,३९.२

अनुवाद:-

कुछ लोग मन की स्थिरता के लिए स्थूल रूप का ध्यान करते हैं।

जब स्थूल रूप से मन स्थिर हो जाए तो सूक्ष्म रूप का ध्यान करना चाहिए।२।

शिवे तु चिन्तिते साक्षात्सर्वाः सिद्धयन्ति सिद्धयः ॥ मूर्त्यंतरेषु ध्यातेषु शिवरूपं विचिन्तयेत् ॥ ७.२,३९.३

अनुवाद:-

शिव का ध्यान करने से सभी सिद्धयाँ सफल हो जाती हैं।

दूसरी मूर्तियों का अवान्तर ध्यान करने पर भी अन्त में शिव रूप का ही ध्यान करना चाहिए। ३।

लक्षयेन्मनसः स्थैर्यं तत्तद्ध्यायेत्पुनः पुनः ॥ध्यानमादौ सविषयं ततो निर्विषयं जगुः॥ ७.२,३९.४।

जगुः ( गै =शब्दे धातु लिट्लकार अन्य पुरुष बहुवचन।)

अनुवाद:-

मन की स्थिरता को जानकर बारबार उसका ध्यान करें। पहले विषय युक्त और फिर निर्विषय युक्त ध्यान करें।४।

तत्र निर्विषयं ध्यानं नास्तीत्येव सतां मतम् ॥बुद्धेर्हि सन्ततिः काचिद्ध्यानमित्यभिधीयत॥ ७.२,३९.५।

अनुवाद:-

सज्जनों का मत है कि निर्विषय ध्यान कभी होता ही नही है। बुद्धि की निरन्तर श्रृंखला का नाम ही ध्यान है।५।

ते  न निर्विषया बुद्धिः केवलेह प्रवर्तते ॥तस्मात्सविषयं ध्यानं बालार्ककिरणाश्रयम् ॥ ७.२,३९.६।

अनुवाद:-

इस लिए निर्विषय ध्यान संसार में सम्भव नहीं होता है। इससे सविषय ध्यान सूर्य की किरणों के समान आश्रय वाला है।६। 

सूक्ष्माश्रयं निर्विषयं नापरं परमार्थतः॥              यद्वा सविषयं ध्यानं तत्साकारसमाश्रयम् ॥ ७.२,३९.७।

शूक्ष्म आश्रय का ध्यान ही निर्विषय है। इससे अधिक परमार्थ और कोई नहीं है।अथवा सविषय ध्यान साकार के आश्रम वाला है।७।

निराकारात्मसंवित्तिर्ध्यानं निर्विषयं मतम् ॥ निर्बीजं च सबीजं च तदेव ध्यानमुच्यते ॥ ७.२,३९.८।

अनुवाद:-

निराकार आत्मा को जानने का नाम निर्विषय है।वह निर्बीज  हो या सबीज  उस का ही ध्यान कहते हैं।८।

निराकारश्रयत्वेन साकाराश्रयतस्तथा ॥तस्मात्सविषयं ध्यानमादौ कृत्वा सबीजकम् ॥ ७.२,३९.९।

अनुवाद:-साकार के आश्रय से ही निराकार भी आश्रय वाला हो जाता है। अत: पहले बीज सहित साकार का ही ध्यान करें ।९।

निष्कर्ष यह कि  अन्त नें निर्विषय ध्यान करें निर्बीज ध्यान अनन्त से जुड़ कर सभी सिद्धियों को देता है।

इस प्रक्रिया से गुजरने का एक ही उपाय है :- प्राणायाम जिसके तीन अंग हैं आरम्भन- कुम्भक और रेचन- अर्थात् मन को किसी एक साकार बिन्दु पर स्थित कर  श्वाँस को खींचना फिर  कुछ देर रोकना और अन्त में धीरे धीरे छोड़ना ।  इस प्रकार नियमित करने से ही मन का शुद्धि करण और स्थिरीकरण होने लगता है।           

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                  उपमन्यु ने कहा :-

6-9. लेकिन बिना किसी वस्तु के भी बौद्धिक दृष्टि स्वयं ही कार्य करेगी। इसलिए तथ्य यह है - सविष्य ध्यान भगवान पर है जो सूर्य के समान तेजस्वी है। सूक्ष्म रूप का ध्यान निर्विषय है। सविष्य ध्यान का एक निश्चित स्वरूप देखने में आता है। निराकार का ध्यान ही निर्विषय ध्यान है। दोनों को निर्बीज और सबीजा भी कहा जाता है। इसलिए अभ्यासकर्ता को शुरुआत में सविषय या सबीज ध्यान करना चाहिए और अंत में निर्बीज या निर्विषय ध्यान करना चाहिए।

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अन्ते निर्विषयं कुर्यान्निर्बीजं सर्वसिद्धये ॥प्राणायामेन सिध्यंति देव्याः शांत्यादयः क्रमात्॥ ७.२,३९.१०।

शान्तिः प्रशान्तिर्दीप्तिश्च प्रसादश्च ततः परम् ॥शमः सर्वापदां चैव शान्तिरित्यभिधीयते॥ ७.२,३९.११।

तमसो ऽन्तबहिर्नाशः प्रशान्तिः परिगीयते ॥ बहिरन्तःप्रकाशो यो दीप्तिरित्यभिधीयते ॥ ७.२,३९.१२।

स्वस्थता या तु सा बुद्धः प्रसादः परिकीर्तितः ॥कारणानि च सर्वाणि सबाह्याभ्यंतराणि च ॥ ७.२,३९.१३।

बुद्धेः प्रसादतः क्षिप्रं प्रसन्नानि भवन्त्युत ॥      ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं यद्वा ध्यानप्रयोजनम् ॥ ७.२,३९.१४।

एतच्चतुष्टयं ज्ञात्वा ध्याता ध्यानं समाचरेत् ॥ज्ञानवैराग्यसंपन्नो नित्यमव्यग्रमानसः ॥    श्रद्दधानः प्रसन्नात्मा ध्याता सद्भिरुदाहृतः ॥ ७.२,३९.१५

ध्यै चिंतायां स्मृतो धातुः शिवचिंता मुहुर्मुहुः ॥ ७.२,३९.१६

योगाभ्यासस्तथाल्पे ऽपि यथा पापं विनाशयेत् ॥ ध्यायतः क्षणमात्रं वा श्रद्धया परमेश्वरम् ॥ ७.२,३९.१७

अनुवाद:-

क्षणभर श्रद्धा से किया गया परमेश्वर का ध्यान थोड़ा भी योगाभ्यास करने पर पापों का नाश करने वाला होता है।१७।

अव्याक्षिप्तेन मनसा ध्यानमित्यभिधीयते ॥ ७.२,३९.१८

अनुवाद:-

10-13. प्राणायाम से प्राप्त लाभ शांति , प्रशांति, दीप्ति और प्रसाद हैं । जब प्रतिकूलताएं कम हो जाती हैं तो उसे शांति कहा जाता है। प्रशांति बाहरी और आंतरिक दोनों तरह के अज्ञान का विनाश है। बाहरी और आंतरिक रोशनी को दीप्ति कहा जाता है। बुद्धि की सामान्य एवं स्वस्थ अवस्था को प्रसाद कहा जाता है। जब बुद्धि स्वस्थ सामान्य स्थिति में होती है तो आंतरिक और बाह्य इंद्रियाँ भी स्वस्थ और सामान्य स्थिति प्राप्त कर लेती हैं।


14-18. ध्यानी को चार का एहसास होने के बाद ध्यान करना चाहिए: अर्थात। ध्यानकर्ता, ध्यान, ध्यान का उद्देश्य और ध्यान के लाभ। अच्छे लोगों द्वारा परिभाषित ध्यानी को ज्ञान और वैराग्य से भरपूर होना चाहिए। उसका मन कभी भी उत्तेजित नहीं होगा. उसे विश्वास होगा और उसका आत्मा प्रसन्न रहेगा। ध्याई धातु का अर्थ है चिंतन करना। योग के थोड़े से अभ्यास के साथ शिव पर बार-बार चिंतन करने से उस व्यक्ति के पापों का शमन हो जाएगा जो विश्वास और निष्कलंक मन से भगवान का ध्यान करता है।

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बुद्धिप्रवाहरूपस्य ध्यानस्यास्यावलंबनम् ॥ ध्येयमित्युच्यते सद्भिस्तच्च सांबः स्वयं शिवः ॥ ७.२,३९.१९

विमुक्तिप्रत्ययं पूर्णमैश्वर्यं चाणिमादिकम् ॥शिवध्यानस्य पूर्णस्य साक्षादुक्तं प्रयोजनम् ॥ ७.२,३९.२०।

यस्मात्सौख्यं च मोक्षं च ध्यानादभयमाप्नुयात् ॥तस्मात्सर्वं परित्यज्य ध्यानयुक्तो भवेन्नरः ॥ ७.२,३९.२१।

नास्ति ध्यानं विना ज्ञानं नास्ति ध्यानमयोगिनः ॥ध्यानं ज्ञानं च यस्यास्ति तीर्णस्तेन भवार्णवः ॥ ७.२,३९.२२।

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ज्ञानं प्रसन्नमेकाग्रमशेषोपाधिवर्जितम् ॥ योगाभ्यासेन युक्तस्य योगिनस्त्वेव सिध्यति ॥ ७.२,३९.२३।


प्रक्षीणाशेषपापानां ज्ञाने ध्याने भवेन्मतिः ॥ पापोपहतबुद्धीनां तद्वार्तापि सुदुर्लभा ॥ ७.२,३९.२४।


यथावह्निर्महादीप्तः शुष्कमार्द्रं च निर्दहेत् ॥        तथा शुभाशुभं कर्म ध्यानाग्निर्दहते क्षणात् ॥ ७.२,३९.२५।


अत्यल्पो ऽपि यथा दीपः सुमहन्नाशयेत्तमः ॥योगाभ्यासस्तथाल्पो ऽपि महापापं विनाशयेत् ॥ ७.२,३९.२६।

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ध्यायतः क्षणमात्रं वा श्रद्धया परमेश्वरम् ॥ यद्भवेत्सुमहच्छ्रेयस्तस्यांतो नैव विद्यते ॥ ७.२,३९.२७।

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नास्ति ध्यानसमं तीर्थं नास्ति ध्यानसमं तपः ॥नास्ति ध्यानसमो यज्ञस्तस्माद्ध्यानं समाचरेत् ॥ ७.२,३९.२८।

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तीर्थानि तोयपूर्णानि देवान्पाषाणमृन्मयान् ॥योगिनो न प्रपद्यंते स्वात्मप्रत्ययकारणात् ॥ ७.२,३९.२९।

19. बौद्धिक दृष्टि के रूप में ध्यान का विषय ध्येय है और वह स्वयं शिव के साथ शिव है ।

20. मोक्ष और उत्तम अणिमा आदि का अनुभव शिव ध्यान का प्रत्यक्ष फल है।

21. मनुष्य को सब कुछ त्याग कर ध्यान में लग जाना चाहिए क्योंकि ध्यान के अभ्यास से उसे सुख और मोक्ष दोनों प्राप्त होंगे।

22. ध्यान के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती. गैर-योगी को ध्यान नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति के पास ध्यान और ज्ञान दोनों हैं वह संसार सागर से पार हो जाता है।

23. सभी कंडीशनिंग कारकों से रहित स्पष्ट और एकल-केंद्रित ज्ञान केवल एक योगी द्वारा प्राप्त किया जा सकता है जो नियमित रूप से योग का अभ्यास करता है।

24. केवल उन्हीं का मन ज्ञान और ध्यान की ओर प्रवृत्त होता है जिनके पाप पूरी तरह से शांत हो जाते हैं। जिनकी बुद्धि पापों से दूषित हो गई है, उन्हें यह सर्वथा अप्राप्य लगता है।

25. जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि सूखी और गीली दोनों टहनियों को जला देती है, उसी प्रकार ध्यान की अग्नि शुभ और अशुभ दोनों कर्मों को एक-एक करके जला देती है ।

26. जिस प्रकार प्रकाश की थोड़ी सी किरण भी अंधकार को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार योग का थोड़ा सा अभ्यास भी महान पापों को नष्ट कर देता है।

27. जो व्यक्ति एक क्षण के लिए भी विश्वास के साथ भगवान का ध्यान करता है, उसके लाभ की कोई सीमा नहीं है।

28. कोई भी पवित्र केंद्र ध्यान के समान प्रभावशाली नहीं है; इसके समान कोई तपस्या, कोई त्याग नहीं है। इसलिए व्यक्ति को कठिन ध्यान करना चाहिए।

29. योगी न तो जल से भरे पवित्र केंद्रों का सहारा लेते हैं और न ही पत्थर या मिट्टी से बने देवताओं का, क्योंकि उनका विश्वास केवल अपने आत्मा में होता है ।

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योगिनां च वपुः सूक्ष्मं भवेत्प्रत्यक्षमैश्वरम् ॥       यथा स्थूलमयुक्तानां मृत्काष्ठाद्यैः प्रकल्पितम् ॥ ७.२,३९.३०।


यथेहांतश्चरा राज्ञः प्रियाः स्युर्न बहिश्चराः॥ तथांतर्ध्याननिरताः प्रियाश्शंभोर्न कर्मिणः ॥ ७.२,३९.३१।

बहिस्करा यथा लोके नातीव फलभोगिनः।     दृष्ट्वा नरेन्द्रभवने तद्वदत्रापि कर्मिणः ॥ ७.२,३९.३२।

यद्यन्तरा विपद्यन्ते ज्ञानयोगार्थमुद्यतः ॥योगस्योद्योगमात्रेण रुद्रलोकं गमिष्यति ॥ ७.२,३९.३३।

अनुभूय सुखं तत्र स जातो योगिनां कुले ॥ ज्ञानयोगं पुनर्लब्ध्वा संसारमतिवर्तते ॥ ७.२,३९.३४।

जिज्ञासुरपि योगस्य यां गतिं लभते नरः ॥            न तां गतिमवाप्नोति सर्वैरपि महामखैः ॥ ७.२,३९.३५।

द्विजानां वेदविदुषां कोटिं संपूज्य यत्फलम् ॥भिक्षामात्रप्रदानेन तत्फलं शिवयोगिने ॥ ७.२,३९.३६।

यज्ञाग्निहोत्रदानेन तीर्थहोमेषु यत्फलम् ॥ योगिनामन्नदानेन तत्समस्तं फलं लभेत् ॥ ७.२,३९.३७।

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ये चापवादं कुर्वंति विमूढाश्शिवयोगिनाम् ॥श्रोतृभिस्ते प्रपद्यन्ते नरकेष्वामहीक्षयात् ॥ ७.२,३९.३८।

सति श्रोतरि वक्तास्यादपवादस्य योगिनाम् ॥ तस्माच्छ्रोता च पापीयान्दण्ड्यस्सुमहतां मतः ॥    ये पुनः सततं भक्त्या भजंति शवयोगिनः ॥ ७.२,३९.३९।

ते विदन्ति महाभोगानंते योगं च शांकरम् ॥भोगार्थिभिर्नरैस्तस्मात्संपूज्याः शिवयोगिनः ॥ ७.२,३९.४०।

प्रतिश्रयान्नपानाद्यैः शय्याप्रावरणादिभिः ॥योगधर्मः ससारत्वादभेद्यः पापमुद्गरैः ॥७.२,३९.४१।

वज्रतन्दुलवज्ज्ञेयं तथा पापेन योगिनः ॥             न लिप्यंते च तापौघैः पद्मपत्रं यथांभसा ॥ ७.२,३९.४२।

यस्मिन्देशे वसेन्नित्यं शिवयोगरतो मुनिः ॥          सो ऽपि देशो भवेत्पूतः सपूत इति किं पुनः ॥ ७.२,३९.४३।

तस्मात्सर्वं परित्यज्य कृत्यमन्यद्विचक्षणः ॥सर्वदुःखप्रहाणाय शिवयोगं समभ्यसेत् ॥ ७.२,३९.४४।

सिद्धयोगफलो योगी लोकानां हितकाम्यया ॥भोगान्भुक्त्वा यथाकामं विहरेद्वात्र वर्तताम् ॥ ७.२,३९.४५।

अथवा क्षुद्रमित्येव मत्वा वैषयिकं सुखम्      त्यक्त्वा विरागयोगेन स्वेच्छया कर्म मुच्यताम् ॥ ७.२,३९.४६

यस्त्वासन्नां मृतिं मर्त्यो दृष्टारिष्टं च भूयसा ॥         स योगारम्भनिरतः शिवक्षेत्रं समाश्रयेत् ॥ ७.२,३९.४७।

स तत्र निवसन्नेव यदि धीरमना नरः ॥प्राणान्विनापि रोगाद्यैः स्वयमेव परित्यजेत् ॥ ७.२,३९.४८।

कृत्वाप्यनशनं चैव हुत्वा चांगं शिवानले ॥   क्षिप्त्वा वा शिवतीर्थेषु स्वदेहमवगाहनात् ॥ ७.२,३९.४९।

शिवशास्त्रोक्तविधिवत्प्राणान्यस्तु परित्यजेत् ॥ सद्य एव विमुच्येत नात्र कार्या विचारणा ॥ ७.२,३९.५० <

न चासावात्मघातक इति पाठान्तरम्>रोगाद्यैर्वाथ विवशः शिवक्षेत्रं समाश्रितः ॥

म्रियते यदि सोप्येवं मुच्यते नात्र संशयः ॥ ७.२,३९.५१।

यथा हि मरणं श्रेष्ठमुशंत्यनशनादिभिः ॥ शास्त्रविश्रंभधीरेण मनसा क्रियते यतः ॥ ७.२,३९.५२।

शिवनिन्दारतं हत्वा पीडितः स्वयमेव वा ॥यस्त्यजेद्दुस्त्यजान्प्राणान्न स भूयः प्रजायते ॥ ७.२,३९.५३।

शिवनिन्दारतं हंतुमशक्तो यः स्वयं मृतः ॥         सद्य एव प्रमुच्येत त्रिः सप्तकुलसंयुतः ॥ ७.२,३९.५४।

शिवार्थे यस्त्यजेत्प्राणाञ्छिवभक्तार्थमेव वा ॥       न तेन सदृशः कश्चिन्मुक्तिमार्गस्थितो नरः ।७.२,३९.५५।

तस्माच्छीघ्रतरा मुक्तिस्तस्य संसारमंडलात् ॥ एतेष्वन्यतमोपायं कथमप्यवलम्ब्य वा ॥ ७.२,३९.५६।

षडध्वशुद्धिं विधिवत्प्राप्तो वा म्रियते यदि ॥पशूनामिव तस्येह न कुर्यादौर्ध्वदैहिकम् ॥ ७.२,३९.५७

नैवाशौचं प्रपद्येत तत्पुत्रादिविशेषतः ॥ शिवचारार्थमथवा शिवविद्यार्थमेव वा ॥ ७.२,३९.५८

खनेद्वा भुवि तद्देहं दहेद्वा शुचिनाग्निना ॥ ७.२,३९.५८

क्षिपेद्वाप्सु शिवास्वेव त्यजेद्वा काष्ठलोष्टवत् ॥अथैनमपि चोद्दिश्य कर्म चेत्कर्तुमीप्सितम् ॥ ७.२,३९.५९

कल्याणमेव कुर्वीत शक्त्या भक्तांश्च तर्पयेत् ॥   धनं तस्य भजेच्छैवः शैवी चेतस्य सन्ततिः ॥नास्ति चेत्तच्छिवे दद्यान्नदद्यात्पशुसन्ततिः ॥ ७.२,३९. ६०

30. जिस प्रकार मिट्टी या लकड़ी से बना भगवान का स्थूल रूप गैर-योगियों द्वारा देखा जाता है, उसी प्रकार उनके सूक्ष्म रूप को योगियों द्वारा देखा जा सकता है।

31. जिस तरह शाही घराने में, आंतरिक अधिकारी, न कि बाहर के कर्मचारी, राजाओं के पसंदीदा होते हैं, उसी तरह जो लोग आंतरिक ध्यान में लगे होते हैं, वे भगवान शिव के पसंदीदा होते हैं, न कि वे जो पवित्र अनुष्ठान करते हैं।

32. जैसे बाहरी काम करने वालों को राजमहल में सुख नहीं मिलता, वैसे ही कर्मिनों को भी होता है।

33. यदि ज्ञान और योग के लिए प्रयास करने वाले व्यक्ति की बीच में ही मृत्यु हो जाती है, तो वह केवल योग के प्रयास के कारण भी रुद्रलोक जाएगा।

34. वह यहां सुख भोगता है और एक योगी के परिवार में पुनर्जन्म लेता है। ज्ञान और योग या ज्ञान का मार्ग प्राप्त करके वह सांसारिक अस्तित्व से परे हो जाता है।

35.यज्ञ करने से भी वह लक्ष्य प्राप्त नहीं होता जिसे योग विद्या की इच्छा रखने वाला मनुष्य प्राप्त कर लेता है।

36. करोड़ों ब्राह्मणों की पूजा करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल एक शिवयोगी को दान देने से ही प्राप्त हो जाता है।

37. उन्हें पके हुए चावल देने से यज्ञ, अग्निहोत्र , दान और तीर्थयात्रा का लाभ प्राप्त होता है।

38. जो लोग भ्रम के कारण शिवयोगियों का तिरस्कार करते हैं, वे संसार के प्रलय तक सुनने वालों के साथ नरक में कष्ट भोगते हैं।

39-42. कोई श्रोता होने पर ही व्यक्ति योगी की निंदा करता है। अतः सुनने वाला भी पापी है। जो लोग शिवयोगियों की पूजा करते हैं उन्हें यहां सुख मिलता है और इसके बाद मोक्ष मिलता है। इसलिए, शिवयोगियों को उन लोगों द्वारा सम्मानित और सम्मानित किया जाएगा जो सांसारिक सुख चाहते हैं, उन्हें शरण, खाद्य सामग्री और पेय, बिस्तर और कंबल देंगे। योगिक सद्गुण को पापों की लोहे की छड़ों से तोड़ा नहीं जा सकता। यह बहुत मजबूत है और इसे एडामेंटाइन फाइबर से युक्त माना जाएगा। जिस प्रकार कमल के पत्ते पर जल का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार योगियों पर पाप का लेप नहीं लगता।

43. यहां तक ​​कि वह भूमि भी पवित्र और पवित्र है जहां शिवयोग में लगे ऋषि निवास करते हैं, शिवयोगिन की तो बात ही छोड़िए।

44. इसलिए एक चतुर और कुशल व्यक्ति को दुखों को दूर करने के लिए सभी गतिविधियों को त्याग देना चाहिए और शिवयोग का अभ्यास करना चाहिए।

45. जिस योगी ने योग का फल प्राप्त कर लिया है, वह इच्छानुसार सुखों का उपभोग करके खेल-कूद कर सकता है अथवा यहीं रहकर अपेक्षित सेवाएँ करता रहेगा।

46. ​​या वह सांसारिक सुखों को व्यर्थ समझकर उनका त्याग कर दे। वैराग्य के कारण वह संस्कार त्याग दे और मुक्त हो जाए।

47. या बुरे संकेत देखकर और मृत्यु को आसन्न जानकर योग के अभ्यास में लगे योगी को शैव पवित्र केंद्र या मंदिर का सहारा लेना चाहिए। [1]

48. यदि उसमें इतना साहस है तो वह बिना किसी रोग के भी स्वेच्छा से वहां अपना प्राण त्याग देगा।

49-50. जो कोई स्वेच्छा से शैव धर्मग्रंथों के अनुसार उपवास करके, या अपने शरीर को शिव-अग्नि को समर्पित करके, या शैव पवित्र नदियों में डुबकी लगाकर अपना जीवन त्याग देता है, उसे तुरंत मुक्ति मिल जाएगी।

51. यदि वह बीमारियों से पीड़ित है और शैव पवित्र केंद्रों का सहारा लेने के बाद मर जाता है तो भी उसे मुक्ति मिल जाएगी।

52. चूंकि व्रत आदि के माध्यम से इच्छा मृत्यु आत्मविश्वास और भक्ति से भरे मन से मांगी जाती है, इसलिए वे कहते हैं कि यह मृत्यु सराहनीय है।

53. शिव का अनादर करने वाले किसी व्यक्ति की हत्या करने या स्वयं पीड़ित होने के बाद, यदि कोई भक्त अपने जीवन का त्याग कर देता है, जिसे त्यागना आमतौर पर संभव नहीं है, तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता है।

54. जो कोई शिव के अपमान करने वाले को मारने में असमर्थ होकर युद्ध करता है, वह अपने परिवार के सदस्यों के साथ इक्कीस पीढ़ियों तक मुक्त हो जाता है।

55. मोक्ष के मार्ग पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति उस व्यक्ति के बराबर नहीं है जो शिव के लिए या शिव के भक्त के लिए अपना जीवन त्याग देता है।

56-57. अत: सांसारिक क्षेत्र से उसकी मुक्ति शीघ्र हो जाती है। यदि कोई शिवयोगिन छह मार्गों की पवित्रता प्राप्त करने से पहले या बाद में बताए गए साधनों में से किसी एक का सहारा लेने के बाद मर जाता है, तो अंतिम संस्कार नहीं किया जाएगा जैसा कि आम आदमी के लिए किया जाता है।

58-60. उनके वंशज मरणोपरांत प्रदूषण का निरीक्षण नहीं करेंगे। उसके शरीर को जमीन में गाड़ दिया जाएगा या आग में जला दिया जाएगा, या शैव पवित्र जल में बहा दिया जाएगा या लकड़ी के लट्ठे या मिट्टी के ढेले की तरह छोड़ दिया जाएगा। या यदि कोई मरणोपरांत पवित्र संस्कार करना ही है तो इसे कोई शुभ संस्कार होने दें। वंशज भक्तों को प्रसन्न करेंगे। केवल शिव का भक्त ही उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी होगा। यदि उसके बच्चे शैव पंथ में दीक्षित नहीं हुए तो संपत्ति शिव को सौंप दी जाएगी। कोई भी बच्चा इसे नहीं लेगा.

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इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायामुत्तर खण्डे शैवयोगवर्णनं नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः



शिवपुराण में  विभिन्न वर्णों के व्यक्तियों के लिए  लिंग पूजा का विधान:-

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प्रथमं चरलिंगेषु रसलिंगं प्रकथ्यते ।४७।

रसलिंगं ब्राह्मणानां सर्वाभीष्टप्रदं भवेत्बाणलिंगं क्षत्रियाणां महाराज्यप्रदं शुभम् ।४८।

स्वर्णलिंगं तु वैश्यानां महाधनपतित्वदम्।________________

शिलालिंगं तु शूद्राणां महाशुद्धिकरं शुभम्।४९।___________________

स्फाटिकं बाणलिंगं च सर्वेषां सर्वकामदम्स्वीयाभावेऽन्यदीयं तु पूजायां न निषिद्ध्यते ।५०।

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अनुवाद:-

चरलिंगों में सबसे प्रथम रसलिंग का वर्णन किया जाता है।

रसलिंग ब्राह्मणों को उनकी सारी अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है।

शुभकारक बाणलिंग क्षत्रियों को महान् राज्य की प्राप्ति करानेवाला है।

सुवर्णलिंग वैश्यों को महाधनपति का पद प्रदान करानेवाला है।

तथा सुन्दर पत्थर का लिंग शूद्रों को महाशुद्धि देनेवाला है।

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स्फटिकलिंग तथा बाणलिंग सब लोगों को उनकी समस्त कामनाएँ प्रदान करते हैं ।

अपना न हो तो दूसरे का स्फटिक या बाणलिंग भी पूजा के लिये निषिद्ध नहीं है । 

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शिवपुराण-विश्वेश्वर संहिता - १८


नारायणांशान् गोपाञ्श्च गाश्च ये द्वेषयन्ति  मानवाः। दीर्घकालपर्यन्तं अज्ञानतिमिरे च ते भ्रमयन्ति ।।

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