सोमवार, 28 अगस्त 2023

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय -83 से 86 तक यादवों का यज्ञ के बहाने से अनेक क्षत्रियों तथा असुरों को जीतने का वर्णन -

हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय -83 श्लोक 1-21
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ब्रह्मदत्त के यज्ञ में वसुदेव-देवकी का आगमन, दैत्यों द्वारा ब्रह्मदत्त की कन्‍याओं का अपहरण और प्रद्युम्न द्वारा उनकी रक्षा, नारद जी के कहने से दैत्यों का क्षत्रिय नरेशों को अपने पक्ष में मिलाना तथा श्रीकृष्‍ण का षट्पुर में आगमन"
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वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी समय चारों वेदों और छहों अंगों के ज्ञाता एक ब्राह्मण, जिनका नाम ब्रह्मदत्त था, एक वर्ष तक चालू रहने वाले यज्ञ की दीक्षा में दीक्षित हुए। ब्रह्मदत्त याज्ञवल्‍क्‍य के शिष्‍य, धर्म सम्बन्‍धी गुणों से सम्पन्‍न तथा शुक्‍ल यजुर्वेद-वाजसनेय संहिता के अध्‍येता थे। उनका घर भी षट्पुर में ही था। उन्‍होंने कभी बुद्धिमान वसुदेव जी का अश्वमेध यज्ञ कराया था। 

वे मुनि सेवित श्रेष्‍ठ नदी आवर्ता के पवित्र तट पर यज्ञ करते थे। करुनन्‍दन! द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मदत्त महात्मा वसुदेव जी के सहपाठी, सखा, उपाध्‍याय और अध्वर्यु भी थे। प्रभो! इसीलिये जैसे इन्‍द्र बृहस्‍पति के यहाँ जाते हैं, उसी प्रकार देवकी सहित वसुदेव जी वहाँ षट्पुर में रहकर यज्ञ करने वाले ब्रह्मदत्त के यहाँ निमन्त्रित होकर गये थे। ब्रह्मदत्त का यज्ञ बहुत-से अन्‍न और प्रचुर दक्षिणा से सम्पन्‍न था। दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ महात्मा उस यज्ञ का सेवन करते थे। भरतनन्‍दन! वह यज्ञ बुद्धिमान वसुदेव जी के अनुरूप समृद्धि से युक्‍त था। उसमें मैं, मेरे गुरु व्‍यास जी, याज्ञवल्‍क्‍य मुनि, सुमन्तु, जैमिनि, धैर्यशील जाबलि (या जाबालि) तथा देवल आदि महर्षि भी उपस्थि‍त थे।

उस यज्ञ में धर्मपरायणा देवकी देवी जगत्स्रष्‍टा भगवान वासुदेव के प्रभाव से इस पृथ्‍वी पर सबको मनोवांछित पदार्थ दान करती थीं।

जब वह यज्ञ चलने लगा, उस समय षट्पुर में रहने वाले निकुम्भ आदि दैत्य, जो वर पाकर घमंड में भरे रहते थे, वहाँ आकर ब्रह्मदत्त से बोले- 'हमारे लिये भी यज्ञ का भाग निकाला जाय, हम लोग इस यज्ञ में सोमरस का पान करेंगे। यजमान ब्रह्मदत्त हमें अपनी कन्‍याएं दें। हमने सुना है कि इन महात्मा के बहुत-सी रूपवती कन्‍याएं हैं। उन सबको बुलाकर सब प्रकार से हमारे लिये दान कर देना चाहिये। ब्रह्मदत्त जी हमें उत्तमोत्तम रत्न प्रदान करें। (तभी ये यहाँ यज्ञ कर सकते हैं) अन्‍यथा इन्‍हें यज्ञ नहीं करना चाहिये। यह हम आज्ञा देते हैं।' यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने उन बड़े-बड़े असुरों से कहा- ‘असुर शिरोमणियों! पुरातन वेद में असुरों के लिये यज्ञ भाग देने का विधान नहीं है; फिर मैं यज्ञ में आप लोगों को सोमरस कैसे दे सकता हूँ? 

यहाँ वेद के विस्‍तृत अर्थ को जानने वाले श्रेष्‍ठ मुनि बैठे हैं, इनसे पूछ लीजिए। मुझे अपनी जिन कन्‍याओं का दान करना था, उनका मानसिक संकल्‍प मैंने कर दिया (वे दूसरों को दी जा चुकी हैं), अब उन्‍हें अन्‍तर्वेदी में योग्‍य वरों के हाथ में सौंप देना है। इसमें संशय नहीं है। अब रही रत्नों की बात, उन्‍हें मैं आप लोगों को तभी दूँगा, जब आप सान्‍त्वनापूर्वक बात करें, इस बात को आप अच्‍छी तरह सोच-समझ लें।

बलपूर्वक मांगने पर मैं कुछ नहीं दूँगा; क्‍योंकि भगवान देवकीनन्‍दन की शरण ले चुका हूँ (वे ही मेरी रक्षा करेंगे)। यह उत्तर सुनकर षट्पुर में निवास करने वाले निकुम्भ आदि पापी असुर रोष में भर गये। उन्‍होंने यज्ञमण्‍डप को तहस-नहस कर दिया और ब्रह्मदत्त की कन्‍याओं को हर लिया। यज्ञमण्‍डप में वह लूट मची हुई देख वसुदेव ने महात्मा श्रीकृष्‍ण, बलदेव और गद का चिन्‍तन किया। 

श्रीकृष्‍ण को तो सब बात ज्ञात ही थी। उन्‍होंने प्रद्युम्न से कहा- ‘बेटा! जाओ और माया द्वारा ब्रह्मदत्त की कन्‍याओं की शीघ्र रक्षा करो। प्रभो! तब तक मैं यादव वीरों की सेना के साथ षट्पुर को चल रहा हूँ। महाबली कामस्‍वरूप वरी प्रद्युम्न पिता की आज्ञा का पालन करने वाले थे। वे तत्काल षट्पुर की ओर चल दिये और पलक मारते-मारते वहाँ पहुँचकर उन महाबली बुद्धिमान वीर ने उन कन्‍याओं का माया द्वारा अपहरण कर लिया।

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 22-46 का हिन्दी अनुवाद:-

रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न ने मायामयी दूसरी कन्‍याओं का निर्माण करके उन्‍हें असुरों के पास छोड़ दिया था। फिर उन धर्मात्‍मा ने अपनी पितामही देवकी से कहा- 'दादी जी! आप भय न करें। नरेश्‍वर! ब्रह्मदत्‍त की पुत्रियां दैत्‍यों के लिये दुष्‍प्राप्‍य थीं। वे मायामयी कन्‍याओं का ही अपहरण करके षट्पुर में जा घुसे और अपनी सफलता पर संतुष्‍ट हुए। राजन! इधर शास्‍त्रीय विधि के अनुसार वहाँ यज्ञकर्म का सम्‍पादन होने लगा। जो विशिष्‍ट एवं बहुगुण सम्‍पन्‍न कार्य था, वह सब सम्‍पन्‍न हुआ। भारत! इसी बीच में वहाँ बहुत से राजा आये, जिन्‍हें बुद्धिमान ब्रह्मदत्‍त पहले से ही यज्ञ में पधारने के लिये निमन्‍त्रण दे रखा था।
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जरासंध, दन्‍तवक्‍त्र, शिशुपाल, पाण्‍डव, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने गणों सहित मालवनरेश, रुक्मी, आह्वृती, नी, धर्म, अवन्‍ती के विन्‍द और अनुविन्‍द, शल्य, शकुनि, दूसरे वीर नरेश, सुदृढ़ आयुध धारण करने वाले दूसरे महामनस्‍वी वीर नरेश वहाँ पधारे थे। भरतनन्‍दन! उन्‍हें षट्पुर से थोड़ी ही दूर पर ठहराया गया। 

उन सबको वहाँ उपस्थित देख साधु-महात्‍मा श्रीमान नारदजी ने सोचा, यहाँ यादवों तथा दूसरे क्षत्रियों में संघर्ष होगा।

 इस युद्ध में मैं ही कारण बनूँगा; अत: उसके लिये अभी से प्रयत्‍न आरम्‍भ करता हूँ। ऐसा सोचकर वे निकुम्‍भ के घर में गये। निकुम्‍भ तथा दूसरे-दूसरे दानवों ने वहाँ इनकी बड़ी आवभगत की। धर्मात्‍मा नारद जी वहाँ एक आसन पर बैठकर निकुम्‍भ से इस प्रकार बोले- 'तुम लोग यादवों के साथ विरोध करके यहाँ कैसे निश्चिन्‍त बैठे हुए हो

अरे भाई! जो ब्रह्मदत्‍त हैं, वे ही श्रीकृष्‍ण हैं; क्‍योंकि वे ब्रह्मदत्‍त उन श्रीकृष्‍ण के पिता वसुदेव के मित्र हैं। बुद्धिमान ब्रह्मदत्‍त के पांच सौ भार्याएं हैं, जिन्‍हें वे वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये उनकी आराधना करके प्राप्‍त कर सके थे। 

उनकी स्त्रियों में दो सौ वैश्‍य-कन्‍याएं और एक सौ शूद्रों की कन्‍याएं थीं। उन सब ने धर्मज्ञों में श्रेष्‍ठ बुद्धिमान दुर्वासा की सेवा की थी। उससे प्रसन्‍न होकर उन पुण्‍यकर्मा मुनि ने उन्‍हें वर दिया। राजन! उन बुद्धिमान मुनि के वरदान से ब्रह्मदत्‍त की प्रत्‍येक स्‍त्री के एक-एक पुत्र और एक-एक कन्‍या हुई।
 उनकी वे सारी कन्‍याएं अनुपम रूपवती हैं। वीर असुर! उनकी वे कन्‍याएं पतियों के साथ शयन करते समय प्रत्‍येक संगम के अवसर पर कुमारी कन्‍याओं के समान कमनीय हो जाती हैं। वे परम सुन्‍दरी कन्‍याएं अपने शरीर से सब प्रकार के फूलों की सुगन्ध प्रकट करती हैं, सदा युवावस्‍था में ही स्थित रहती हैं और सब-की-सब पतिव्रताएं हैं। दैत्‍यकुमार! वे सब अप्‍सराओं के समान गुणवती हैं और बुद्धिमान दुर्वासा के वरदान से संगीत और नृत्‍य के गुणों को प्रकट करना जानती हैं। उनके सभी पुत्र रूप-सौन्‍दर्य से सम्‍पन्‍न तथा शास्‍त्रार्थ में कुशल हैं और क्रमश: सभी यथावत रूप से अपने-अपने वर्ण धर्म में स्थित रहते हैं।
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 बुद्धिमान ब्रह्मदत्त ने प्राय: उन सब कन्‍याओं का विवाह मुख्‍य-मुख्‍य यदुवंशियों के साथ कर दिया है। केवल एक सौ शेष रह गयी थीं, जिन्‍हें तुम हर लाये हो।

वीर! उनके लिये भी तुम्‍हें सर्वथा यादवों के साथ युद्ध करना होगा। अत: तुम अपनी सहायता के लिये युक्तिपूर्वक यहाँ आये हुए राजाओं को अपने पक्ष में कर लो। ब्रह्मदत्‍त की पुत्रियों के लिये उन महामनस्‍वी नरेशों की सहायता प्राप्‍त करने के उद्देश्‍य से तुम उन्‍हें नाना प्रकार के रत्‍न भेंट करो। जो राजा यहाँ आयें, उन सबका आतिथ्‍य-सत्‍कार करो। नारद जी के ऐसा कहने पर असुरों ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर वैसा ही किया। उन भक्‍त वत्‍सल नरेशों ने पांच सौ कन्‍याएं और नाना प्रकार के रत्‍न पाकर उन्‍हें यथोचित रीति से आप में बांट लिया। केवल पांचों पाण्‍डवों को छोड़कर और सबने कन्‍याओं और रत्‍नों का भाग ग्रहण किया था। महात्‍मा नारद जी ने पलक मारते-मारते वहाँ पहुँचकर वीर पाण्‍डवों को उनका भाग लेने से रोक लिया था।


हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्र्यशीतितम अध्याय: श्लोक 47-56 का हिन्दी अनुवाद:-

राजन ! रत्‍न और कन्‍या पाकर वे भूपाल शिरोमणि बहुत संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने असुरों से कहा- 'आप लोग समस्‍त मनोवांछित भोगों से सम्‍पन्‍न तथा स्‍वयं आकाश में विचरने वाले हैं तो भी आपने न्‍यायोचित रीति से हमारा सत्‍कार किया है; अत: बताइये, यह क्षत्रिय समूह आप लोगों को क्‍या दे? 

आप जैसे दिव्‍य वीरों ने पहले-पहल क्षत्रिय-समाज का पूजन किया है।' यह सुनकर हर्ष में भरे हुए देववैरी निकुम्‍भ ने क्षत्रियों के यथार्थ माहात्‍म्‍य का बारम्‍बार वर्णन करके उस समय उनसे इस प्रकार कहा- श्रेष्‍ठ नरेशों ! हमारा अपने शत्रुओं के साथ युद्ध होने वाला है।

उसमें आप लोग सब प्रकार से हमें सहायता प्रदान करें, यह हमारी इच्‍छा है। प्रभो ! जिनके पास क्षीण हो गये थे, उन क्षत्रियों में से वीर पाण्‍डवों को छोड़कर अन्‍य सबने ‘एवमस्‍तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्‍वीकार कर ली।

पाण्‍डव नारद जी से सारी बात सुन चुके थे, इसलिये वे उनसे अलग रहे।  कुरूनन्‍दन ! वे सब क्षत्रिय युद्ध के लिये उद्यत हो वहीं डेरा डालकर डटे रहे। इधर ब्रह्मदत्त की पत्नियां यज्ञशाला में प्रविष्‍ट हुईं और उधर से सेना सहित भगवान श्रीकृष्‍ण भी षट्पुर में आ पहुँचे।

नरेश्‍वर ! महादेव जी के वचन को मन-ही-मन स्‍मरण करके द्वारका में राजा उग्रसेन को बिठाकर भगवान् श्रीकृष्‍ण वहाँ आये थे।
 
भगवान जनार्दन देव उस सेना के साथ आकर षट्पुर वासियों के हित की कामना से यज्ञमण्‍डप से थोड़ी ही दूर पर उत्‍तम कल्‍याणमय प्रदेश में वसुदेव की आज्ञा से छावनी डालकर ठहर गये। श्रीमान भगवान श्रीकृष्‍ण ने वहाँ विधिपूर्वक रक्षक सैनिकों के दल तैनात कर दिये, जिसके कारण किसी अवांछनीय व्‍यक्ति को उधर से आने के लिये मार्ग नहीं मिल पाता था। साथ ही उन्‍होंने अपने पुत्र प्रद्युम्न को सब ओर से घूम-फिरकर सेना की देखभाल करने के लिये नियुक्‍त कर दिया था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में षट्पुरवध के प्रसंग में श्रीकृष्‍ण का षट्पुरगमनविषयक तिरासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।
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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद:-

श्रीकृष्‍ण द्वारा यादव-सेना की युद्ध के‍ लिये नियुक्ति, दानवों का निष्‍क्रमण, निकुम्‍भ द्वारा कुछ यादव वीरों का गुफा में बंदी होना, श्रीकृष्‍ण के द्वारा दानव-सैनिकों का संहार, प्रद्युम्न द्वारा राजसैनिकों का गुफा में अवरोध तथा ब्रह्मदत्‍त को सान्‍त्‍वना
वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुरुश्रेष्‍ठ! जब सूर्योदय हुए दो ही घड़ी बीती थी और लोगों के नेत्र निर्मल हो गये थे, उस समय बलभद्र, श्रीकृष्‍ण और सात्यकि- ये तीनों गरुड़ पर सवार हुए। उन सबने अपने हाथों में गोधा चर्म के बने हुए दस्‍ताने बांध रखे थे और कवच धारण करके युद्ध के लिये इच्‍छुक थे। उन्‍होंने सबसे पहले, जिसे रुद्रदेव ने वर दिया था और जो उन्‍हीं के वचन से पुण्‍यमयी हो गयी थी, उस आवर्ता नाम वाली गंगा में स्‍नान करके सुरश्रेष्‍ठ बिल्‍वोदकेश्‍वर देव को नमस्‍कार किया था (इसके बाद वे युद्ध की व्‍यवस्‍था में लगे थे। सबको मान देने वाले, सत्‍पुरुषों के आश्रयभूत श्रीकृष्‍ण ने सबसे आगे प्रद्युम्न को सेना की रक्षा के लिये उसके ऊपरी भाग आकाश में स्‍थापित किया। यज्ञ मण्‍डप की रक्षा के लिये पाण्‍डवों को नियुक्‍त किया तथा शेष सेना को गुफा के द्वार पर नियुक्‍त करके भगवान श्रीहरि ने जयन्‍त और प्रवर को स्‍मरण किया। भरतनन्‍दन! वे दोनों वहाँ आ पहुँचे और स्‍वयं ही आकर उन्‍होंने भगवान का दर्शन किया तत्‍पश्‍चात भगवान् श्रीकृष्‍ण ने उन दोनों को प्रद्युम्न की भाँति आकाश में ही (ऊपर की ओर से सेना की रक्षा के लिये) नियुक्‍त कर दिया।

तदनन्तर श्रीकृष्‍ण के कहने से युद्ध का डंका बजाया गया। शंख, मुरज तथा अन्‍य बाजे भी बज उठे। साम्ब और गद ने यादव-सेना का मकरव्‍यूह बनाया। सारण, उद्धव, भोज, वैतरण, धर्मात्‍मा अनाधृष्टि, पृथु, विपृथु, कृतवर्मा, दंष्‍ट्र तथा शत्रुमर्दन निचक्षु- ये सब उस व्‍यूह के अग्रभाग में खड़े थे। धर्मात्‍मा सनतकुमार और चारूदेष्‍ण- ये दोनों अनिरुद्ध के साथ रहकर सेना के पृष्‍ठभाग की रक्षा करने लगे। 

अपने कुल की वृद्धि करने वाले नरेश ! रथों, घोड़ों, मनुष्‍यों और हाथियों से भरी हुई शेष यादव सेना व्‍यूह के मध्‍य भाग में खड़ी थी। तदनन्‍तर षट्पुर से भी रणदुर्मद दानव निकले। उनमें से कुछ मेघ के समान गम्‍भीर शब्‍द करने वाले गदहों और हाथियों पर आरूढ़ थे। 

भरतनन्‍दन! कितने ही दैत्‍य वेगशाली मगरों, शिशुमारों (सूँसों), भैंसों, गेंडों, ऊँटों और कछुओं पर भी सवार थे। कितनों के पास इन्‍हीं वाहनों से जुते हुए रथ थे। उन रथों से सम्‍पन्‍न हुए। वे दैत्‍य अपने हाथों में नाना प्रकार के आयुध लिये हुए थे। वे किरीट, मुकुट या पगड़ी तथा अंगदों (भुजबंदों)- से अलंकृत थे। उनके साथ बारम्‍बार नान प्रकार के बाजे बज रहे थे। उन बाजों की आवाज में रथ के नेमियों (पहियों)- की घर्घराहट भी मिली हुई थी। वहाँ जोर-जोर से शंख बजाये जाते थे, जो महान मेघों की गर्जना के समान गंभीर ध्‍वनि प्रकट करते थे।

जनेश्‍वर! युद्ध के लिये उद्यत हुई उन असुर सेनाओं में सबसे आगे निकुम्‍भ निकला, मानो देवताओं के आगे इन्‍द्र चल रहे हों। वे उत्‍कट बलशाली दानव नाना प्रकार से सिंहनाद करते, बारम्‍बार गर्जते तथा आकाश और पृथ्‍वी को गुँजाते हुए बढ़ने लगे। जनमेजय! राजाओं की सेना भी असुरों की सहायता के लिये निश्‍चय करके चेदिराज शिशुपाल के नेतृत्‍व में युद्ध के लिये तैयार हो गयी। 

पुरुषसिंह! दुर्योधन आदि सौ भाई चेदिराज शिशुपाल के छोटे भाईयों से आगे चल रहे थे। ये सब-के-सब गन्‍धर्वनगराकार रथों द्वारा युद्ध के लिये खड़े थे। वीर! राजा द्रुपद के रथ बड़े कठोर (दु:सह) घरघराहट का शब्‍द करते थे। रुक्मी और आह्वृति- ये दोनों युद्ध के समान अपने सुन्‍दर धनुष हिलाने लगे।


हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद:-

शल्य, शकुनि, राजा भगदत्त, जरासंध, त्रिगर्तराज सुशर्मा और उत्‍तर सहित राजा विराट- ये वीर नरेश विजय की अभिलाषा रखकर निकुम्‍भ की प्रधानता में युद्ध के लिये उद्यत हुए थे। 

जैसे महान् असुर देवताओं के साथ जूझना चाहते हैं, उसी प्रकार ये सब नरेश यादवों के साथ युद्ध करने की इच्‍छा रखते थे। तब निकुम्‍भ समरांगण में विषधर सर्पों के समान भयंकर बाणों द्वारा भैमों (यादवों)- की भयानक दिखायी देने वाली सेना का मर्दन करना आरम्‍भ किया। यादव-सेनापति अनाधृष्टि निकुम्‍भ के इस पराक्रम को नहीं सहन कर सके। उन्‍होंने शिला या शान पर तेज किये हुए विचित्र पंख वाले घोर बाण समूहों द्वारा उस असुर को कुचल डाला। उस असुर-सेनापति का न तो रथ दिखायी देता था, न घोड़े, न ध्‍वज और न स्‍वयं निकुम्‍भ ही। वे सब-के-सब बाणों से ढक गये थे। तब मायावी असुरों में श्रेष्‍ठ वीर निकुम्‍भ ने सब ओर चक्‍कर लगाकर अपनी माया द्वारा भैमशिरोमणि (यादव श्रेष्‍ठ) अनाधृष्टि को स्‍तम्भित कर दिया। 

स्‍तम्भित करके वह वीर अनाधृष्टि को षट्पुर नाम वाली गुफा में उठा ले गया और वहाँ बंद करके माया बल का आश्रय लेने वाला वीर निकुम्‍भ पुन: युद्ध भूमि में लौट आया। अब की बार युद्धस्‍थल में पुन: मायाबल का आश्रय लेने वाला निकुम्‍भ कृतवर्मा, चारूदेष्ण, भोज वैतरण, सनत्‍कुमार, जाम्‍बवती पुत्र ऋक्ष, निशठ, उल्‍मुक तथा दूसरे-दूसरे बहुत से भोजवंशियों को उठा ले गया।

जनेश्‍वर! घोर यादव वीरों को षट्पुर नाम वाली गुफा में ले जाते समय उस असुर की देह दिखायी नहीं देती थी; क्‍योंकि वह उसकी माया से आच्‍छादित थी। भीमवंशियों का वह घोर संहार देखकर शत्रुओं का भय बढ़ाने वाले भगवान श्रीकृष्‍ण, बलराम और सात्‍यकि कुपित हो उठे। कामावतार प्रद्युम्न को विशेष क्रोध हुआ शत्रुवीरों का संहार करने वाले साम्‍ब, दुर्धर्ष वीर अनिरुद्ध तथा दूसरे बहुत-से भीमवंशी यादव भी रोष में भर गये। नरेश्‍वर ! शारंगधनुष धारण करने वाले श्रीकृष्‍ण अपने उस धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ा दी और जैसे अग्नि तिनकों में प्रवेश करती हो, उसी प्रकार वे दानवों पर धनुष से बाण बरसाने लगे। उन भगवान गोविन्‍ददेव को वहाँ देखकर सब दानव उन्‍हीं पर टूट पड़े; ठीक वैसे ही, जैसे कालपाश से पीड़ित हुए पतिंगे जलती हुई आग में कूद पड़ते हैं। वे सहस्‍त्रों शतघ्नी, परिघ, अग्नितुल्‍य त्रिशूल तथा प्रज्‍वलित हुए फरसे चलाने लगे।

पर्वतों के शिखर, वृक्ष, भयंकर बड़ी-बड़ी शिलाएं, मतवाले हाथी, रथ और घोड़े- इन सबको उठा-उठाकर भगवान श्रीकृष्‍ण पर फेंकने लगे। परंतु जगत का हित करने वाले महातेजस्‍वी भगवान नारायण हरि ने हँसते हुए से अग्निरूप होकर अपनी बाणमयी लपटों से उन सबको जलाकर भस्‍म कर दिया। जैसे धीर सांड़ शरद् ऋतु की वर्षा को चुपचाप सहन करता है, उसी प्रकार शत्रुओं का दमन करने वाले यदुश्रेष्‍ठ श्रीकृष्‍ण दैत्‍यों की बाण वर्षा को धैयपूर्वक सहन करते रहे। परंतु जैसे बालू के बने हुए सेतु (पुल) मेघों द्वारा की गयी वर्षा का वेग नहीं सह सकते, उसी प्रकार वे असुर नारायण (श्रीकृष्‍ण) के धनुष से छूटे हुए बाणों को नहीं सह सके। भारत! जैसे मुँह बाये हुए सिंह के सामने बैल नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार वे बड़े-बड़े असुर श्रीकृष्‍ण के सम्‍मुख खड़े नहीं रह सके। नारायण के भय से पीड़ित हो उनके द्वारा मारे जाते हुए वे असुर जीवन का आशा का भार वहन करते हुए आकाश में उड़ चले।


हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 42-68 का हिन्दी अनुवाद:-

 प्रभो! आकाश में गये हुए उन असुरों को जयन्‍त और प्रवर प्रज्‍वलित अग्रशिखा के समान भयंकर बाणों द्वारा मार गिराते थे। उन असुरों के कटे हुए सिर वृक्ष-शिखर से टूटकर गिरे हुए तालफलों के समान पृथ्‍वी पर गिरने लगे। वीर! दैत्‍यों की कटी हुई भुजाएं पृथ्‍वी पर काल के मारे हुए पांच मुख वाले सर्पों के समान गिर रही थीं। 

तदनन्‍तर गद, सारण, अनिरुद्ध, साम्ब तथा अन्‍य वीरों के साथ, जिन्‍हें निकुम्भ ने पहले अपनी गुफा में नहीं घुसाया था, वीर धर्मात्‍मा रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न घोर मायामयी गुफा की सृष्टि करके समस्‍त क्षत्रिय नरेशों के समुदाय को, जो उस गुफा से निकलने के मार्ग को नहीं देख पाता था, उसमें फेंक देने के लिये उद्यत हो गये। नरेश्‍वर! बलवान वीर श्रीकृष्‍णकुमार ने युद्ध के मुहाने पर विजय के लिये प्रयत्‍न करते हुए कर्ण को वेगपूर्वक पटककर उसके उछल-कूद मचाने या छटपटाने पर भी पकड़ लिया और गरजकर उसे घोर मायामयी गुफा में फेंकने का विचार किया। 
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भारत ! इसी तरह उन्‍होंने राजा दुर्योधन, विराट, द्रुपद, शकुनि, शल्य, नील, भीष्म, राजा विन्‍द और अनुविन्‍द तथा जरासंध को, त्रिगर्त, मालव एवं महाबली वासन्‍त्‍यगणों को और अस्‍त्रज्ञान में निपुण धृष्टद्युम्न आदि पांचाल वीरों को भी पकड़ लिया।

फिर अपने मामा आह्वृति और रुक्मी को एवं राजा शिशुपाल और भगदत्‍त को सम्‍बोधित करके कहा।

‘नरेश्‍वरों ! हमारे साथ आप लागों का जो सम्‍बन्‍ध और गुरुत्‍व है, उसका मैं आदर करता हूँ, वहाँ फेंकने के लिये बुद्धिमान शूलपाणि भगवान बिल्‍वोदकेश्वर ने मुझे आज्ञा दी है। 
उन्‍होंने कहा है कि तुम सब राजाओं को गुफा में फेंक दो। महामनस्‍वी निकुम्‍भ ने शाम्‍बरी माया का आश्रय लेकर जिन यादवों को गुफा में डाल रखा है, 

उन्‍हें मैं सर्वथा छुड़ा लूँगा।' उनके ऐसा कहने पर सेनापति राजा शिशुपाल ने अपने बाणों द्वारा उन भैमों (यादवों) तथा विशेषत: प्रद्युम्न को पीड़ित कर दिया। तब रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्‍न ने बिल्‍वोदकेश्‍वर को नमस्‍कार करके महाबली राजा शिशुपाल को बांधना आरम्‍भ किया। तत्‍पश्‍चात रुद्रदेव के पार्षदों में श्रेष्‍ठ नन्दी ने एक सहस्र पाश लेकर महाबली रुक्मिणीकुमार वीर प्रद्युम्‍न से कहा- 'यदुनन्‍दन! बिल्‍वोदकेश्‍वर ने तुम्‍हें यह संदेश दिया है कि मैंने जैसा तुमसे कहा है, उसके अनुसार तुम रात में सब कार्य करो। यदुनन्‍दन! कन्‍याओं और रत्‍नों पर लुभाये हुए इन राजाओं को पाशों से बांधकर फिर इन्‍हें मुक्‍त करने में तुम्‍हीं प्रमाण हो- तुम्‍हीं चाहो तो इन्‍हें छोड़ सकते हो। वीर महाबाहो! तुम इन असुरों को नि:शेष कर डालो- इनमें से एक को भी जीवित न छोड़ो। तुम्‍हें जनार्दन से भी ऐसा ही कहना चाहिये’। पृथ्‍वीपते! कुरुनन्‍दन! तदनन्‍तर उत्‍तम बल धारण करने वाले प्रद्युम्‍न ने भगवान शंकर के दिये हुए पाशों से राजा भगदत्‍त, शिशुपाल, आह्वृति, रुक्‍मी तथा शेष अन्‍य नरेशों को भी बांधा और उन सबको मायामयी गुफा में ले आये। रुक्मिणीकुमार ने फुफकारते हुए सर्पों के समान लम्बी सांस खींचते हुए राजाओं को बाँधकर डाल दिया और अपने पुत्र अनिरुद्ध को उनका रक्षक नियुक्‍त कर दिया। भारत! यदुनन्‍दन प्रद्युम्‍न ने उनमें से किसी को भी बिना बांधे नहीं छोड़ा। फिर उनके क्षत्रिय-सेनापतियों, कोषाध्‍यक्षों तथा हाथी, घोड़ों और रथ के समूहों को भी अपने अधीन कर लिया। प्रभो! तत्‍पश्‍चात अव्‍यग्र (शान्‍त) भाव से स्थित हो वे असुरों को मार डालने के लिये उद्यत हो गये और संनद्ध रहकर द्विजश्रेष्‍ठ ब्रह्मदत्‍त से बोले- 'ब्रह्मन्! आप निर्भय हो अपना यज्ञकर्म चालू रखें। देखिये, अर्जुन आपकी रक्षा में खड़े हैं। द्विजश्रेष्ठ! पाण्‍डव जिसके रक्षक हों, उसे न तो देवताओं से, न असुरों से और न नागों से ही भय ही प्राप्‍त हो सकता है। असुरों ने आपकी पुत्रियों का मन से भी स्‍पर्श नहीं किया है। आप यज्ञमण्‍डप में देखिये, मैंने माया द्वारा उन्‍हें छिपाकर वहीं रख छोड़ा है’। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में षट्पुरवधविषयक चौरासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।
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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
निकुम्‍भ का जयन्‍त से पराजित होकर भगवान श्रीकृष्‍ण के साथ युद्ध करना, श्रीकृष्‍ण का अर्जुन को निकुम्‍भ का चरित्र बताना, आकाशवाणी की प्रेरणा से सुदर्शन चक्र द्वारा निकुम्‍भ का वध करना और ब्रह्मदत्‍त को षट्पुर नगर देकर 
द्वारका को प्रस्‍थान करना।
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वैशम्‍पायन जी कहते हैं- प्रजानाथ! जनमेजय! जब अनुचरों सहित सब भूपाल गुफा में बंद कर दिये गये, तब असुरों पर मोह छा गया। श्रीकृष्‍ण, बलराम आदि रणदुर्मद यादवों द्वारा सब ओर से मारे जाते हुए वीर असुर सम्‍पूर्ण दिशाओं की ओर पलायन करने लगे। 
यह देख दानवश्रेष्‍ठ निकुम्‍भ रोष में भरकर उनसे बोला- ‘अरे! तुम लोग मोहवश अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भय से पीड़ित और विह्वल होकर क्‍यों भागे जा रहे हो? प्रतिज्ञा हीन होकर भागे जाने वाले तथा पहले बदला लेने का निश्‍चय करके भी युद्ध में अपने भाई-बन्‍धुओं का ऋण उतारे बिना पीठ दिखाने वाले तुम लोग किन लोकों में जाओगे? समरांगण में निर्दयतापूर्वक जूझने वाले शत्रुओं को जीतकर इस लोक में उत्‍तम फल (राज्‍य आदि) का उपभोग प्राप्‍त होगा अथवा रण में मारे जाने पर शूरवीर को स्‍वर्गलोक में सुखदायक निवास सुलभ होगा। हे दैत्‍यों! भागकर घर जाकर किसका मुँह देखोगे (अथवा किसे मुँह दिखाओगे)? धिक्‍कार है, धिक्‍कार है।

क्‍यों? क्‍यों तुम्‍हें लज्‍जा नहीं आती?’ नरेश्वर! निकुम्‍भ के ऐसा कहने पर वे असुर लज्जित होकर लौट पड़े और दुगुने वेग से यादवों के साथ युद्ध करने लगे।

राजन! नाना प्रकार के अस्‍त्र-शस्‍त्रों द्वारा युद्ध कुशल योद्धाओं के उस समरोत्‍सव में जो दैत्‍य यज्ञमण्‍डप की ओर जाते थे, उन्‍हें अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव तथा धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मार डालते थे। 
जो लोग आकाश में जाते थे, उन्‍हें इन्‍द्रकुमार जयन्‍त और द्विजश्रेष्‍ठ प्रवर काल के गाल में भेज देते थे। फिर तो वहाँ वर्षा में बढ़ी हुई नदी के समान एक खून की नदी बह चली। असुरों के रक्‍त ही उसके जल थे। उनके सिर के केश ही उसमें सवार और घास के समान प्रतीत होते थे। रथ के पहिये उसमें कछुए- जैसे लगते थे और रथ भंवर के समान प्रतीत होते थे। हाथियों की लाशें पर्वतों की चट्टानों के समान उसकी शोभा बढ़ाती थीं। ध्‍वज और भाले तटवर्ती वृक्षों के समान उसे आच्‍छादित किये हुए थे। योद्धाओं का गरजना और चीखना ही उसका कलकल नाद था। वह नदी श्रीकृष्‍ण रूपी पर्वत से प्रकट हुई थी और भीरू पुरुषों के हृदय में भय उत्‍पन्‍न करती थी। रक्‍त के बुलबुले ही उसमें फेन थे और तलवारें ही मछलियों और तरंगों के समान प्रतीत हाेती थीं। निकुम्‍भ अपने उन शत्रुओं को बढ़ता हुआ और समस्‍त सहायकों को मारा गया देख अपने बल से ही ऊपर को उछला।

भारत! ऊपर गये हुए रणकर्कश निकुम्‍भ को जयन्‍त और प्रवर ने अपने वज्रतुल्‍य बाणों द्वारा रोका। तब दुर्जय वीर निकुम्‍भ दांतों से ओठ दबाकर लौटा। उसने प्रवर पर परिघ से प्रहार किया। इससे वह पृथ्‍वी पर गिर पड़ा। पृथ्‍वी पर गिरे हुए इन प्रवर को इन्‍द्रकुमार जयन्‍त ने अपनी दोनों भुजाओं से उठाकर हृदय से लगा लिया और जब उन्‍हें मालूम हुआ कि प्रवर जीवित हैं, तब वे उन्‍हें छोड़कर उस असुर की ओर दौड़े। निकुम्‍भ पर धावा करके जयन्‍त ने उसे खड्ग से मारा। तब उस दैत्‍य ने भी जयन्‍त पर परिघ से प्रहार किया। इन्‍द्रकुमार ने युद्ध स्‍थल में निकुम्‍भ के शरीर को प्राय: क्षत-विक्षत कर दिया। उनके द्वारा मारे जाते हुए उस महान असुर ने उस समय मन-ही-मन सोचा कि मुझे श्रीकृष्‍ण के साथ युद्ध करना चाहिये, क्‍योंकि वे मेरे बन्‍धु-बान्‍धवों के घातक एवं वैरी हैं। मैं युद्ध में इन्‍द्रकुमार के साथ लड़कर अपने लिये कौन-सी ख्‍याति प्राप्‍त करूँगा।


हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 20-42 का हिन्दी अनुवाद:-
ऐसा निश्चय करके वह महाबली असुर वहीं अन्‍तर्धान हो गया और युद्ध के लिये उस स्‍थान पर गया, जहाँ महाबली श्रीकृष्‍ण विराजमान थे। उसे वहाँ गया हुआ देख बलनाशन इन्‍द्र ऐरावत की पीठ पर बैठकर वह युद्ध देखने के लिये आये। उस समय वे देवताओं के साथ बहुत प्रसन्‍न थे। धर्मात्‍मा इन्‍द्र ने ‘साधु-साधु (वाह-वाह)’ कहकर संतुष्‍ट हो अपने पुत्र जयन्‍त को हृदय से लगा लिया और मूर्च्‍छा दूर हो जाने पर प्रवर से भी गले मिले। उस समय रणदुर्जय जयन्‍त की युद्ध में विजय देखकर इन्‍द्र की आज्ञा से देवताओं की दुन्‍दुभियां बजने लगी। निकुम्‍भ ने देखा, युद्ध में जिन पर विजय पाना अत्‍यन्‍त कठिन है, वे श्रीकृष्‍ण यज्ञ मण्‍डप से थोड़ी ही दूर पर अर्जुन के साथ खड़े हैं। फिर तो उसने बड़े जोर से सिंहनाद करके अत्‍यन्‍त भयंकर परिघ द्वारा पक्षिराज गरुड़, बलराम और सात्‍यकि पर प्रहार किया। तत्‍पश्‍चात उस पराक्रमी असुर ने श्रीकृष्‍ण, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव तथा श्रीकृष्‍ण कुमार साम्ब और प्रद्युम्न पर भी प्रहार किया।

भरतनन्‍दन! वह शीघ्रकारी दैत्‍य माया द्वारा युद्ध कर रहा था; इसलिये सम्‍पूर्ण शस्‍त्रों के ज्ञान में कुशल वे समस्‍त वीर उसे देख नहीं पाते थे। जब वे उस असुर को नहीं देख सके, तब भगवान् श्रीकृष्‍ण ने प्रमथगणों के स्‍वामी बिल्‍वोदकेश्‍वर देव का स्‍मरण किया। फिर तुरंत ही अत्‍यंत तेजस्‍वी बिल्‍वोदकेश्‍वर के प्रभाव से उन सबने मायावियों में श्रेष्‍ठ निकुम्‍भ को देखा। उसका शरीर कैलास-शिखर के समान विशाल था। वह इस प्रकार खड़ा था, मानो सबको ग्रस लेगा। वह अपने बन्‍धु-बान्‍धवों का नाश करने वाले वैरी श्रीकृष्‍ण को युद्ध के लिये ललकार रहा था। उस समय जिनके गाण्‍डीव धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ी हुई थी, उन अर्जुन ने रथ का भेदन करने वाले बाणों द्वारा उसके परिघ और अंगों पर बारम्‍बार प्रहार किया। नरेश्‍वर! अर्जुन के वे सभी बाण जो शिला पर तेज किये गये थे, उसके परिघ और अंगों से टकराकर टूटकर अथवा मुड़कर पृथ्‍वी पर गिर पड़े। भरतनन्‍दन! उन दिव्यास्त्र युक्‍त बाणों को निष्‍फल हुआ देख वीर अर्जुन ने श्रीकृष्‍ण से पूछा- ‘यह क्‍या हुआ? देवकीनन्‍दन! मेरे वज्रतुल्‍य बाण पर्वतों को भी विदीर्ण कर डालते हैं (परंतु यहाँ निष्‍फल हो गये) यह क्‍या बात है? इस विषय में मुझे महान आश्‍चर्य हो रहा है’।

भारत! तब श्रीकृष्‍ण ने हँसते हुए-से कहा- ‘कुन्‍तीनन्‍दन! यह निकुम्‍भ एक महान भूत है। इसका परिचय विस्‍तारपूर्वक सुनो। पूर्वकाल में इस दुर्जय देवद्रोही महान् असुर ने उत्तर-कुरु में जाकर एक लाख वर्षों तक तपस्‍या की थी। तब भगवान शिव ने इसे इच्‍छानुसार वर मांगने के लिये आज्ञा दी। उस समय इसने महादेव जी से तीन रूप मांगे, जो देवताओं और असुरों के लिये अवध्‍य हो। तब महान देव भगवान् वृषभध्‍वज ने इससे कहा- महान असुर! यदि तुम मेरा, ब्राह्मणों का अथवा भगवान विष्‍णु का अप्रिय करोगे तो श्रीहरि के हाथ से मारे जाओगे। दूसरे किसी के द्वारा नहीं; क्‍योंकि मैं और विष्‍णु दोनों ब्राह्मणों के हितैषी हैं। उनके परम आश्रय हैं। पाण्‍डुनन्‍दन! वही यह तीन शरीर धारण करने वाला अत्‍यन्‍त प्रमथनशील दानव है, जो वरदान पाकर मदमत्‍त हो उठा है। यह सम्‍पूर्ण शस्‍त्रों द्वारा अवध्‍य है। भानुमती के अपहरण के समय मैंने इसके एक शरीर को नष्‍ट कर दिया था। यह अवध्‍य षट्पुर इस दुरात्‍मा का दूसरा शरीर है। तथा इसका एक तपस्‍वी शरीर दितिदेवी की सेवा में संलग्‍न रहता है। जिससे यह षट्पुर में निवास करता है, वह इसका घोर शरीर दूसरा ही है।


हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद
वीर! यह सब निकुम्भ का चरित्र मैंने कह सुनाया। अब तुम इसके वध के लिये जल्‍दी करो। यह कथा पीछे होती रहेगी’। श्रीकृष्‍ण और अर्जुन इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि वह रणदुर्जय असुर उस षट्पुर नाम वाली गुफा में जा घुसा। कुरुनन्‍दन! उसके जाने के मार्ग का अनुसंधान करके भगवान् मधुसूदन भी उस घोर, दुर्जय षट्पुर नाम वाली गुफा में घुस गये। वहाँ चन्‍द्रमा और सूर्य का प्रकाश नहीं था। वह गुफा अपने ही तेज से प्रकाशित होती और वहाँ के निवासियों को सुख-दु:ख, गर्मी-सर्दी आदि प्रदान करती थी। नरेश्‍वर! उस गुफा में प्रवेश करके भगवान श्रीकृष्‍ण ने निकुम्भ द्वारा बंदी बनाये गये यादव नरेशों को देखा; फिर वे उस घोर असुर निकुम्भ के साथ युद्ध करने लगे। महात्‍मा श्रीकृष्‍ण की अनुमति से बलराम आदि समस्‍त यादव वीर भी उस समय उनके पीछे-पीछे उस गुफा में जा घुसे तथा समस्‍त पाण्‍डव भी एक साथ ही उसमें घुस आये। निकुम्भ तो श्रीकृष्‍ण के साथ युद्ध करने लगा।

इधर श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से रुक्मिणीनन्‍दन प्रद्युम्न उन सब यादवों को छुड़ा लाये, जिन्‍हें निकुम्भ ने पहले ही बंदी बना लिया था। प्रद्युम्न द्वारा छुड़ाये गये वे समस्‍त वीर प्रसन्‍नचित्‍त हो निकुम्भ का वध करने की इच्‍छा से उस स्‍थान पर गये, जहाँ भगवान श्रीकृष्‍ण युद्ध कर रहे थे। तब वे राजा को प्रद्युम्न द्वारा कैद किये गये थे, उन काम स्‍वरूप प्रद्युम्न से बार-बार कहने लगे- ‘वीर! हमें मुक्‍त कर दो।’ तब प्रतापी वीर रुक्मिणीकुमार ने उन सबको छोड़ दिया। वे समस्‍त वीर नरेश अपना मुँह नीचे किये चुपचाप खड़े थे। उनकी श्री नष्‍ट हो गयी थी। वे उस समय लज्‍जा में डूबे हुए थे। पापहारी भगवान् गोविन्‍द विजय के लिये प्रयत्‍न करने वाले अपने घोर शत्रु निकुम्भ ने परिघ द्वारा भगवान श्रीकृष्‍ण बड़े जोर का आघात किया तथा श्रीकृष्‍ण ने भी गदा द्वारा निकुम्भ को बारम्बार गहरी चोट पहुँचायी। तब एक-दूसरे के द्वारा अच्‍छी तरह किये गये प्रहारों से आहत होकर वे दोनों ही मूर्च्छित हो गये। इससे पाण्‍डवों और यादवों को अत्‍यन्‍त व्‍यथित हुआ देख वहाँ खड़े हुए मुनिगण श्रीकृष्‍ण के हित की कामना से ‘जप’ करने लगे तथा उन्‍होंने वेदोक्‍त स्‍तुतियों द्वारा परमात्‍मा श्रीकृष्‍ण का स्‍तवन किया। तब भगवान केशव सजग हो उठे, मानो उनमें पुन: प्राण लौट आये हों। तदनन्‍तर वह दानव भी होश में आ गया। फिर वे दोनों वीर युद्ध के लिये उद्यत हो गये।

भारत! वे दोनों रणोन्‍मत्‍त वीर सांड़ों के समान हँकड़ते, हाथियों के समान चिग्‍घाड़ते और भेड़ियों के समान दहाड़ते हुए क्रोधपूर्वक परस्‍पर प्रहार करने लगे। नरेश्‍वर! उस समय आकाशवाणी ने भगवान श्रीकृष्‍ण से कहा- ‘जनार्दन! यह देवताओं और ब्राह्मणों के लिये कण्‍टकरूप है। तुम अपने चक्र द्वारा इसको नष्‍ट कर दो’। यह बात स्‍वयं भगवान बिल्‍वोदकेश्‍वरदेव ने कही थी। फिर उन्‍होंने इस प्रकार कहा- ‘महाबली श्रीकृष्‍ण! तुम (इस दैत्‍य को मारकर) महान धर्म और विशाल यश प्राप्‍त करो’। तब ‘जो आज्ञा’ कहकर सत्‍पुरुषों के आश्रय दाता जगदीश्‍वर श्रीकृष्‍ण ने भगवान बिल्‍वोदकेश्‍वर को नमस्‍कार किया और दैत्‍यकुल का विनाश करने वाले सुदर्शन चक्र को निकुम्भ पर छोड़ दिया। श्रीकृष्‍ण के हाथ से छूटे हुए सूर्यमण्‍डल के समान तेजस्‍वी चक्र ने उत्‍तम कुण्‍डलों से अलंकृत निकुम्भ का मस्‍तक काट डाला। कान्तिमान कुण्‍डलों से अलंकृत उसका वह मस्‍तक पृथ्‍वी पर गिर पड़ा, मानो मेघ के दर्शन से उन्‍मत्‍त हुआ कोई मोर पर्वत के शिखर से धरती पर आ गिरा हो।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 64-79 का हिन्दी अनुवाद:-
नरव्‍याघ्र! जगत को त्रास देने वाले उस निकुम्‍भ के मारे जाने पर सर्वव्‍यापी देव बिल्‍वोदकेश्‍वर बहुत संतुष्‍ट हुए। आकाश से इन्‍द्र की बरसायी हुई फूलों की वृष्टि होने लगी। उस देवशत्रु का नाश हो जाने पर देवताओं की दुन्‍दुभियां बजने लगी। सम्‍पूर्ण जगत आनन्‍दमय हो गया। ऋषि-मुनियों को विशेष प्रसन्‍नता हुई! भगवान श्रीकृष्‍ण ने यादव वीरों को भी बारम्‍बार सान्‍त्‍वना देकर भगवान ने विचित्र रत्‍न और श्रेष्‍ठ वस्‍त्र प्रदान किये। गद के बड़े भाई श्रीकृष्‍ण ने प्रसन्नचित्त होकर पाण्‍डवों को छ: हजार अश्‍वयुक्‍त रथ भेंट किये। नगर की वृद्धि करने वाले भगवान् गरुड़ध्‍वज ने वह षट्पुर नामक श्रेष्‍ठ नगर ब्रह्मदत्त नामक ब्राह्मण को दे दिया। यज्ञ समाप्‍त होने पर शंख, चक्र, गदा धारण करने वाले महाबली भगवान् श्रीकृष्‍ण ने उन क्षत्रियों और पाण्‍डवों को विदा करके श्रीबिल्‍वोदकेश्‍वर के लिये एक सामूहिक उत्‍सव किया, जिसमें फलों के गूदे, दाल तथा अन्‍यान्‍य व्‍यंजनों से युक्‍त बहुत-सा अन्न लोगों को खिलाया गया। अपने मन को वश में रखने वाले मल्‍लप्रिय भगवान श्रीकृष्‍ण ने युद्धकुशल मल्‍लों को लड़वाकर उन्‍हें बहुत-सा धन और वस्‍त्र दिये। तदनन्‍तर महाबली श्रीकृष्‍ण अपने माता-पिता तथा अन्‍य यादवों के साथ ब्रह्मदत्‍त को प्रणाम करके द्वारकापुरी को चले गये। मार्ग में दूसरे लोगों का प्रणाम स्‍वीकार करते हुए वीर श्रीकृष्‍ण ने हृष्‍ट-पुष्‍ट मनुष्‍यों से भरी हुई तथा पुष्‍पों के बिछाये जाने से विचित्र पथ वाली रमणीय पुरी द्वारका में प्रवेश किया।

जो चक्रपाणि भगवान श्रीकृष्‍ण के इस षट्पुरवध रूप विजयसूचक चरित्र को सुनता अथवा पढ़ता है, वह युद्ध में विजय पाता है। (इसके श्रवण अथवा पठन से) पुत्रहीन को पुत्र और निर्धन को धन मिलता है। रोगी रोग से और बंदी बन्‍धन से छुटकारा पाता है। भारत! यह प्रसंग पुंसवन और गर्भाधन में सहायक कहा गया है (अर्थात इसके श्रवण से पत्‍नी के गर्भाधान होता है ओर उस गर्भ से पुत्र की उत्‍पत्ति होती है) यदि श्राद्धों में इसका सम्‍यक रूप से पाठ किया जाय तो यह उसके फल को अक्षय बनाने वाला माना गया है। भारत में जिनका बल विख्‍यात है तथा जो देवताओं से भी श्रेष्‍ठ हैं, उन महात्‍मा श्रीकृष्‍ण की इस विजय गाथा का जो मनुष्‍य यहाँ से परमगति को प्राप्‍त होता है। मणि और सुवर्ण के आभूषण धारण करने से जिनके हाथ-पैरों की विचित्र शोभा होती है, जिनमें सूर्य के तेज आदि गुण उनसे भी बहुत अधिक मात्रा में विद्यमान हैं, जो शत्रुओं के नाशक तथा सबके आदिरक्षक हैं, चारों समुद्र जिनके शयनागार हैं तथा जो वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध- इन चार व्‍यूहों के रूप में विद्यमान हैं, वे जगत् के अन्‍तर्यामी पुरुष सहस्‍त्रों नामों वाले श्रीकृष्‍ण नित्‍य विजयशील हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में षट्पुर वध के प्रसंग में पचासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।
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सर्वस्व-सार है।'

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में अन्‍धक वध विषयक छियासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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