शनिवार, 19 अगस्त 2023

कृष्ण देव पूजा अथवा यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के विरोधी थे क्योंकि देव- यज्ञ के लिए पशु हिंसा अनिवार्य पूरक क्रिया थी "

"कृष्ण देव पूजा अथवा यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के विरोधी थे क्योंकि देव- यज्ञ के  लिए  पशु  हिंसा अनिवार्य पूरक क्रिया थी "      परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्मात  पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।


इसीलिए कृष्ण देव-संस्कृति के  विद्रोही  पुरुष थे।
उन्होंने वन पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।
इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों  में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇

इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव
( देवों को न मानने वाला ) कहकर सम्बोधित किया गया है 

श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के  कि कृष्ण 
देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ को नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

श्रीमद्भागवतम्
भागवत पुराण   स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास    अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन  श्लोक 13

श्लोक  11.5.13 भागवत पुराण 
"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-
स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।
एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या
इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥
 
शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध  एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह  (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.
 
अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।
किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।
भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है। परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।
  
तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पजा  का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने  निम्नलिखित कथन दिया है—

यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।
हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥
यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।
अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥
भावार्थ:-
इस कथन के अनुसार कभी कभी  किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की संस्तुति करते हैं। 
किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।
आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है?

और इसे आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 
यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।

इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।

किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण  निषेध किया है,

क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।

इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है,

विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कलमा पढकर करते हैं ।
क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है। देवता माँस भक्षी हैं क्या?

यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ को नाम पर पशु वध का निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।
अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।
इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए  स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।
इसका वर्णन गीत गोविन्द कार  जयदेव ने किया है—
"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।
केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥
अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।
अनुवाद:- ★-
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61
विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।

"देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  
वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।   प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।
अनुवाद:-★
कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    

तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।
राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।
अनुवाद:- ★
तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।    
            
तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★
तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।
राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।       
अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।
अनुवाद:-★ 
वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।
वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    
शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।
अनुवाद:- ★
यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।
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इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★
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विचार विश्लेषण-
इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 
जिसके साक्ष्य जहाँ तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।
जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही थी और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।
तब ऐसे कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।
पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में  रोककर निषिद्ध दिया था। 
पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-
जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 
कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।

कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:-  कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।
वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

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यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती 
यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।
यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है। 
अब कृष्ण जिस वस्तु  का समर्थन करते हैं।

मनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।
क्योंकि मनु स्मृति मनु के नाम पर रचित रूढ़िवादी पुरोहित का सम्बल है।
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"यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा ।
यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः । ५.३९ ।

ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ।५.४०।(मनुस्मृति अध्याय पञ्चम- श्लोक संख्या-39-40 )

तुलना करें- मनु स्निमृति के निम्न श्लोक से -

"यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः। भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थमगस्त्यो ह्याचरत् पुरा ॥5.22॥

ब्राह्मण यज्ञ के निमित्त अथवा भृत्यों के रक्षार्थ प्रशस्त पक्षियों का वध कर सकते हैं, इसी कारण से अगस्त्य मुनि ने पहले ऐसा किया है। 

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अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें।

"पाठीनरोहितावाद्यौ नियुक्तौ हव्यकव्ययोः।राजीवान्सिंहतुण्डांश्च सशल्कांश्चैव सर्वशः॥5.16॥

पाठीन, बुआरी और रोहित (रोहू) मछली हव्य-कव्य के लिये प्रशस्त कही गई है। राजीव, सिंह तुण्ड और चायते वाली सब मछलियाँ खाद्य हैं (माँसाहारियों-राक्षसों के लिये, ब्राह्मणों के लिये नहीं)। 

श्वाविधं शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा। भक्ष्यान् पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतः॥5.18॥

पञ्चनखियों सेह, साही, गोह, गेंडा, कछुआ और खरहा तथा एक खुर और दाँत वाले पशुओं में ऊँट को छोड़कर बकरे आदि भक्ष्य हैं, ऐसा कहा गया है। 

बभूवुर्हि पुरोडासा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम्। 

पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च॥5.23॥ 

पहले ऋषियों और ब्राह्मण-क्षत्रियों ने जो यज्ञ किये उनमें भी भक्ष्य पशु-पक्षियों के माँस के पुरोडास हुए हैं। 

प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया। 

यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये ॥5.27॥

मन्त्रों से पवित्र किया हुआ माँस खाना चाहिये। ब्राह्मण को जब माँस खाने की इच्छा हो तो वह एक बार माँस खा सकता है। रुग्ण अवस्था में अन्य आहार से प्रनात्यय होने के भय से खा सकता है। 

ऐसा केवल तभी करना चाहिये जब प्राणरक्षा हेतु यह अत्यावश्यक हो, अन्यथा कदापि नहीं। 

यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः। 

अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते॥5.31॥

यज्ञ के निमित्त माँस-भक्षण की दैवी विधि है। इसके विरुद्ध माँस भक्षण की प्रवृत्ति राक्षसी है। 


क्रीत्वा स्वयं वाऽप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा। 

देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति॥5.32॥

खरीदकर या स्वयं कहीं से लाकर या सौगात की तरह किसी का दिया हुआ माँस देवता और पितरों को अर्पित कर खाने वाला दोषी नहीं होता। 

नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः। 

जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्यस्तैरद्यतेऽवशः॥5.33॥

विधि को जानने वाला ब्राह्मण सुखावस्था में अविधिपूर्वक माँस ने खाये, क्योंकि अविधि से माँस खाने वाले को जन्मान्तर में वे प्राणी खा जाते हैं, जिनका माँस उसने खाया था। 


न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः। यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः॥5.34॥

धन  निमित्त मृग मारने वाले को वैसा पाप नहीं लगता जैसा वृथा माँस खाने वाले को लगता है। 


नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः।  स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम्॥5.35॥

श्राद्ध और मधुपर्क आदि रस्मों-रिवाजों में तथा विधि नियुक्त होने पर जो मनुष्य माँस नहीं खाता, वह इक्कीस जन्म तक पशु होता है। 


असंस्कृतान् पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदाचन। 

मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्यात्शाश्वतं विधिमास्थितः॥5.36॥

ब्राह्मण कभी मन्त्रों से बिना संस्कार किये पशुओं का माँस ने खाये, किन्तु यज्ञ में मन्त्रों से संस्कृत किये पशुओं का माँस खाये। 


यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो हि मारणम्। 

वृथापशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि॥5.38॥

देवतादि के उद्देश्य के बिना वृथा पशुओं को मारने वाला मनुष्य मरने पर उन पशुओं की रोम सँख्या के बराबर जन्म-जन्म में मारा जाता है।

यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वमेव स्वयंभुवा। 

यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः॥5.39॥

स्वयं ब्रह्मा जी ने यज्ञ के लिये और सब यज्ञों की समृद्धि के लिये पशुओं का निर्माण किया है, इसलिये यज्ञ में पशुओं का वध अहिंसा है। 


ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा। 

यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः॥5.40॥

औषधियाँ, पशु, वृक्ष, पक्षी इत्यादि यज्ञ के निमित्त मारे जाने पर तदोपरांत उत्तम योनि में जन्म ग्रहण करते हैं।

मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि। 

अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रैत्यब्रवीन्मनुः॥5.41॥

मधुपर्क, ज्योतिष्टोमादि यज्ञ, पितृकर्म और देवकर्म में ही पशु हिंसा करनी चाहिये, अन्य कहीं नहीं, ऐसा मनु जी ने कहा है। 


एष्वर्थेषु पशून्हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः। 

आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां  गतिम्॥5.42॥

पूर्वोक्त कर्मों में पशु की हिंसा करने वाला वेदज्ञ ब्राह्मण अपनी और उस पशु की उत्तम गति सुनिचित करता है। 

या वेदविहिता हिंसा नियताऽस्मिंश्चराचरे। 

अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ॥5.44॥

जो हिंसा वेद विहित है और इस चराचर जगत में नियम है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिये, क्योंकि धर्म वेद से ही निकला है। 

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। 

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥5.56॥

माँस खाने, मद्य पीने हुए स्त्री प्रसङ्ग करने में दोष नहीं है, क्योंकि प्राणियों की प्रवृति ही ऐसी है। परन्तु इससे निवृत होना महाफलदायी है। 

मनुस्मृति कृष्ण के विचारो अथवा मतों का समर्थन नहीं करती है। अत: मनुस्मृति में लिखे हुए कथन अहीरों के विरुद्ध और उन्हें नीचा सिद्ध करने के लिए ही हैं।


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