मंगलवार, 22 अगस्त 2023

स्तूप-



हिरण्यस्तूपः सवितर्यथा त्वाङ्गिरसो जुह्वे वाजे अस्मिन् ।
एवा त्वार्चन्नवसे वन्दमानः सोमस्येवांशुं प्रति जागराहम् ॥५॥
ऋग्वेद :-ऋग्वेदः सूक्तं १०.
‌/१४९/५

सायण भाष्य-

हे "सवितः जगत का प्रसव( उत्पादन) कारक "त्वा= त्वाम् ।
"आङ्गिरसः =अङ्गिरसः पुत्रः
 "हिरण्यस्तूपः स्वर्ण का ढ़ेर ( स्टॉक) अथवा हिरण्य स्तूप हैं जिनके वह बहुव्रीहि समास- 
 मम पिता "
अस्मिन् "वाजे= यज्ञे च मेदिनीकोश अथवा अन्ने निमित्तभूते सति "यथा 
"जुह्वे =आहूतवान्
"एव =एवम् "
अर्चन् =एतत्संज्ञोऽहं
"त्वा= त्वाम् "
अवसे= अवनाय रक्षणार्थं
"वन्दमानः =स्तुवन् आह्वयामीति शेषः। 
आहूय च "सोमस्येवांशुं यथा सोमलतां प्रति यजमाना जाग्रति यागपर्यन्तं तद्रक्षणे प्रबुद्धा वर्तन्ते तथा "अहं त्वत्परिचर्यां "प्रति
"जागर= जागर्मि । जागर्तेर्णल्युत्तमैकवचने रूपम्।
अत्र निरुक्तं - ' हिरण्यस्तूपो= हिरण्मयस्तूपो हिरण्यमयः स्तूपोऽस्येति वा । स्तूपः स्त्यायतेः संघातः
"सवितर्यथा त्वाङ्गिरसो जुह्वे वाजेऽन्नैऽस्मिन्नेवं त्वार्चन्नवनाय वन्दमानः सोमस्येवांशुं प्रतिजागर्म्यहम् '(निरुक्त १०. ३३) इति ।।७।। 

यूरोपीय ग्रीक, लैटिन और डच (जर्मन) भाषाओं में स्टम्ब, स्टॉक जैसे शब्द इसी के परिवार के हैं।
 मृदादिस्तूप।  राशीकृतमृत्तिकादिः । इति पुंलिङ्गसंग्रहे अमरःकोश । ३ । ५ । १९ ॥ संघातः । निष्प्रयोजनम् ।  बलम् ।  इति संक्षिप्तसारोणादिवृत्तिः ॥

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यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल, सूक्त 24, छठवां अनुवाक का श्लोक संख्या 7 है।

ऋग्वेदः सूक्तं १.२४

"अबुध्ने राजा वरुणो वनस्योर्ध्वं स्तूपं ददते पूतदक्षः। नीचीना स्थुरुपरि बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः केतवः स्युः ॥७॥

( ऋग्वेद १/२४/७)
"हे मनुष्यों! तुम जो पवित्र बल वाला प्रकाशमान श्रेष्ठ सूर्यलोक या जलसमूह अंतरिक्ष से पृथक् असदृश पड़े आकाश में, जोकि व्यवहारों से सेवने योग्य संसार है,जो ऊपर अपनी (स्तूपः) किरणों को छोड़ता है जिसकी नीचे को गिरती हुई किरणें इस संसार के पदार्थों पर ठहरती हैं । जो इनके बीच में जल और (बुध्नः) मेघादि पदार्थ हैं, और जो किरणें वा प्रज्ञान हैं, ये यथावत् जानो।

- *सायणाचार्य, स्कंदस्वामी का अर्थ*
हम यहां इस मंत्र पर सायणाचार्य व स्कंद स्वामी का भाष्य भी देते हैं:-
सायणाचार्य- (पूतदक्षः) =शुद्धबलः (वरुणः) =राजा (अबुध्ने) =मूलरहिते अंतरिक्षे तिष्ठन् (वनस्य)= वननीयस्य  (स्तूपं)= संघम् (ऊर्ध्वम्)=उपरिदेशे ददते धारयति।
... ऊर्ध्वदेशे वर्तमानस्य वरुणस्य रश्मय इत्याध्याहार्यम्।


सायणाचार्य के भी बहुत पहले स्कंद स्वामी नामक वेद भाष्यकार हुये हैं। उनका अर्थ भी कुछ ऐसा ही है:-

स्कन्दस्वामी-(अबुध्ने) अनाश्रये अनालम्बनेऽ न्तिरिक्षे राजा दीप्त ईश्वरो वा वरुण वनस्य ऊर्ध्वम् स्तूपम् दृश्यते वनम् (निघंटु १/६) इति रश्मि नाम। स्तूप शब्दे संघातम्
.अनाश्रयेऽन्तरिक्षे आदित्यमण्डलोर्ध्वमय स्ताश्च रश्मीन् धारयतीत्यर्थ ,इत्यादि ।"
" आलंबनरहित, बिना आधार वाले अंतरिक्ष में राजा=सूर्य या दीप्तिमान ईश्वर स्थित है। यहां वरुण से स्कंद आदित्यलोक का अर्थ लेते हैं। यहां वनम् से रश्मियों,सूर्यकिरणों का ग्रहण है। स्तूप का अर्थ संघात=समाहार है।
... संक्षेप में, आश्रयरहित अंतरिक्ष में स्थित सूर्यलोक ऊपर की ओर किरणें धारण करता है।"
 *स्तूप शब्द का अर्थ*
पं श्रीराम शर्मा का भी कुछ ऐसा ही अर्थ है। यहां स्कंद स्वामी, सायण,, सब लोग यास्कमुनि रचित निरुक्त के आधार पर "स्तूप का अर्थ संघात=" करते हैं।
(क):-निरुक्तकार ने स्पष्ट लिखा है-
हिरण्यमयः स्तूपः अस्य इति वा ।
स्तूपः स्त्यायतेः संघातः ।
हिरण्यस्तूपः हिरण्यमयः स्तूपः ।
हिरण्यस्तूपः सवितः यथा त्वा अङ्गिरसः जुह्वे वाजे अस्मिन् ।
। । १०.३३ ।
ऋग्वेद 10-149-5 में भी आया है - हिरण्यस्तूपः सवितार्यथा" यहाँ स्तूप शब्द के साथ हिरण्य शब्द है जिसका अर्थ है - सूर्य वा सूर्यकिरण और स्तूप का अर्थ निरूक्तकार करते है - "स्तूपः स्त्यातेः। संघातः - निरूक्त 10-33
अर्थात् स्तूप कहते है संघात को अर्थात् समूह वा ढेर को।
अतः स्तूप का अर्थ बौद्ध विहार नहीं बल्कि समूह है जैसे ईंटों का समूह तो ईटों का स्तूप
रेतों का समूह तो रेतों का स्तूप या टीला
इसी प्रकार यहाँ हिरण्यस्तूप में षष्ठी तत्पुरूष हो कर हिरण्यस्य संघातः इति हिरण्यस्तूप अर्थात् किरणों के समूह या संघात को यहाँ बताया गया है।

लौकिक कोष भी देखें:-
(ख):-वाचस्पत्यम्:-
स्तूप  पु॰ स्तु--पक् पृषो॰ स्तूप--अच् वा।
१ राशोकृते मृत्तिकादो २ संघाते ३ बले ४ निष्प्रयोजने च संक्षिप्त॰।
(ग):-शब्दसागर:-
1. A heap, a pile of earth, &c.
2. A funeral pile.
3. A Bud'dhistic construction for keeping holy relics.
यहां पर स्तूप अर्थ हैं:-
१:- पार्थिव पदार्थों, यथा, मिट्टी आदि का ढेर
२:- चिता की लकड़ियों का समाहार
३:- बौद्ध निर्माण
४:- किसी भी वस्तु का संघात।
इतने अर्थ होने पर केवल बौद्ध स्तूप अर्थ करना पक्षपात है।
 *'बुध्ने' और 'अबुध्ने'*
बुध्नः का अर्थ है- "बुध्नमंतरिक्षं बद्धा धृता आप इति "( निरुक्त १०/३३)
बुध्न का अर्थ है-" अंतरिक्ष में बंधा हुआ।
 जल=मेघ"
बुध्न इति मेघनामसु पठितम्।- बुध्न मेघ के लिये पठित है क्योंकि मेघ ही अंतरिक्ष में जल को बांधकर रखता है।
( निघण्टु १/१२)
तो "अबुध्ने" का अर्थ होगा , जो "मेघादि से परे आश्रयरहित आकाश है" ।
यहां "बुध्ने" "अबुध्ने" का बुद्ध से कोई संबंध नहीं है।
*'बुध्ने' और 'अबुध्ने'* इस मुर्ख का कहना है कि यह वरूण की उपाधि है लेकिन इसे ज्ञात होना चाहिए कि उपाधि अर्थात् विशेषण और कर्त्ता अर्थात् विशेष दोनो में समान विभक्ति होती है , जहां अबुध्ने इन प्रत्यय अन्तर्गत नकारान्त शब्द तृतीया विभक्ति एकवचन है वहीं वरूण शब्द में अकारान्त पुल्लिंग प्रथमा एकवचन है तो अबुध्ने वरूण की उपाधि नहीं ।

बुद्ध और बुध्न् शब्द का धात्वान्तर भी इन मूढों को पता नहीं । बुद्ध शब्द बुध्= बुधिर्- 
बोधने जाग्रतौ च (धातुपाठ .६-५७९) से बना है
बन्ध--नक् बुधादेशः । १ मूले अमरःकोश २ शिवे गरतः ३ अन्तरीक्षे (ऋग्वेद- ४।१९ ।४ 
और बुध्ने शब्द बध, बऩ्धने (धातु. 8-700) से बना है।

यदि बुद्ध और बुध्न समान होते तो धातु भी समान होती तो समान मूल को मान लेते ।


अबुध्न का अर्थ "अबौद्ध" बौद्ध मत को न मानने वाला, कौन से व्याकरण और कोश से किया है?
प्रश्न-वे इस कार्य में पूतदक्ष हैं, उलटने के बाद स्तूप का मुख नीचे और जड़ ऊपर है।
उत्तर: पूतदक्ष की अर्थ है, पवित्र बलरूपी किरणों वाला सूर्य। और यहां किसी कपोलकल्पित वरुण राजा का बौद्ध स्तूप पलटमे का वर्णन नहीं है। जरा बतायें, ये वरुण कौन था,कब हुआ था, इसने कब कितने बौद्ध स्तूप तोड़े?
वेद में वरुण शब्द परमात्मा, सूर्य,शिक्षक आदि यौगिक अर्थों में है, नाकि किसी कपोलकल्पित बौद्ध विरोधी नरण राजा के
प्रश्न-जिसमें बुद्ध वास करते हैं-बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः। आगे के श्लोक में ह्रदय को कष्ट देनेवाले को हराने में समर्थ वरुण का जयगान है।
उत्तर:- "बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः"- का ये अर्थ कि " उसमें बुद्ध " वास करते हैं, कौन से निरुक्त,व्याकरण या भाष्यकार के अनुसार है? या बिना जाने बूझे व्याकरण की टांग तोड़कर झूठ बोलने का अभ्यास है?
यहां बुध्न एषामस्मे अन्तर्निहिताः का अर्थ है -"जिस अबुध्न यानी आकाश में बुध्न=जल को बांधने वाला मेघ, स्थित है"
अगले मंत्र में अत्याचारी को दमन करने वाला परमात्मा या कोई भी धार्मिक राजा- का वर्णन है। किसी व्यक्ति निशेष की चर्चा वेद में नहीं होती।
निष्कर्ष:- वेद में कहीं भी किसी बौद्ध स्तूप का वर्णन नहीं है। केवल किरणों के समूह का वर्णन है। राजेंद्र प्रसाद की एक और गप्प का सरे बाजार में भंडाफोड़ हो गया।

संदर्भित ग्रन्थ एवं पुस्तकें -
1) महाभारत - गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित
2) धातुपाठ - रामलाल कपूर ट्रस्ट से प्रकाशित
3) ऋग्वेदभाष्य - महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत भाष्य
4) निरूक्त - पं. भगवद्दत्त जी
5)ऋग्वेद भाष्य - भाष्यकार सायण, स्कन्द स्वामी 
6) ऋग्वेद भाष्य - भाष्यकार श्रीराम शर्मा आचार्य
7) शब्दकोश - विकी बुक्स से साभार 
नवबौद्ध वरूण वेद स्तूप

ऋग्वेद:-9.96.18 < [सूक्त- 96]
ऋषिमना य ऋषिकृत्स्वर्षाः सहस्रणीथः पदवीः कवीनाम् ।
तृतीयं धाम महिषः सिषासन्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप् ॥१८॥

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ऋग्वेद  10.130.5 < [सूक्त 130]
विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुबिह भागो अह्नः ।
विश्वान्देवाञ्जगत्या विवेश तेन चाकॢप्र ऋषयो मनुष्याः ॥५॥

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