बुधवार, 9 अगस्त 2023

यज्ञ और अग्निहोत्र


"यज्ञ का अर्थ और सांस्कृतिक विधान" 

इस बात का कोई उचित प्रमाण नहीं हैं लेकिन सम्पूर्ण वेदों को पढ़ने पर यह विचार सामने आता है। 

            "यज्ञ"

प्राचीन भारतीय आर्यों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य जिसमें प्रायः हवन और पूजन हुआ करता था। यज्ञ देवसंस्कृति के आराधकों की उस अवधारणा का प्रारूप है।

जब वे शीत प्रदेशों में जीवन यापन को उपरान्त शीत-प्रभाव को कम करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अग्नि को ईश्वरीय रूप मान कर उसकी उपासना और सानिध्य प्राप्त करते हुए उसका यजन करते थे।

ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ ऋग्वेद१/१/१॥ 
यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों को बुलानेवाले ऋत्विक् और रत्नधारी अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।

यागः । तत्पर्य्यायः । सवः २ अध्वरः ३ यागः ४ सप्त- तन्तुः ५ मखः ६ क्रतुः ७ । अमरकोश
 ।२।७।१३ ॥
इष्टिः ८ इष्टम् ९ वितानम् १० मन्युः ११ आहवः १२ सवनम् १३ हवः १४ अभिषवः १५ होमः १६ हवनम् १७ महः १८ । इति शब्दरत्नावली ॥ 

यज्ञ पुं।
यज्ञःशब्द को पर्याय वाची अथवा समानार्थी शब्द निम्नलिखित हैं।
समानार्थक:१-यज्ञ,२-सव,३-अध्वर,४--याग,५-सप्ततन्तु,६-मख,७-क्रतु,८-इष्टि,९-वितान,१०-स्तोम,११-मन्यु,१२-संस्तर,१३-स्वरु,१४-सत्र,१५-हव-2।7।13।2।1

उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्याज्ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः॥

अवयव : यज्ञस्थानम्,यागादौ_हूयमानकाष्ठम्,यागे_यजमानः,हविर्गेहपूर्वभागे_निर्मितप्रकोष्टः,यागार्थं_ संस्कृतभूमिः,अरणिः,यागवेदिकायाम्_दक्षिणभागे_स्थिताग्निः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्, हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_ रचितमृगत्वचव्यजनम्,स्रुवादियज्ञपात्राणि, यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः, यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,यज्ञकर्मः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,भोजनशेषः,सोमलताकण्डनम्,अघमर्षणमन्त्रः,
यज्ञोपवीतम्,विपरीतधृतयज्ञोपवीतम्,कण्डलम्बितयज्ञोपवीतम्,यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,यज्ञियतरोः_शाखा,यूपखण्डः
स्वामी : यागे_यजमानः

सम्बन्धि2 : यूपकटकः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्,हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_रचितमृगत्वचव्यजनम्,दधिमिशृतघृतम्,क्षीरान्नम्,देवान्नम्,पित्रन्नम्,यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः,यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अग्नावर्पितम्,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,दानम्,अर्घ्यार्थजलम्

वृत्तिवान् : यजनशीलः
: ब्रह्मयज्ञः, देवयज्ञः, मनुष्ययज्ञः, पितृयज्ञः, भूतयज्ञः, दर्शयागः, पौर्णमासयागः

पदार्थ-विभागः : , क्रिया

मख। याग। विशेष—प्राचीन भारतीय देव        संस्कृतियों के आराधकों नें  यह प्रथा प्रचलित थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई आयोजन समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे। 
इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि के लिये तथा कृषक लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान समारंभ करके स्तुति आदि करते थे। 
इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि  कहते थे।

इन्हीं गृह्यकर्म से  आगे विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था।

और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो '{ब्राह्मण'= मन्त्र-वक्ता} कहलाता था, नियुक्त कर लिया जाता  था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े ब़ड़े यज्ञ किया करते थे। 
जैसे,— वैदिक  देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। धीरे -धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम अथवा विधान पारित होने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुण्ड बनाये जाने लगे। 
ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे। 

आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्ति होने लगी। 
होता-
मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' नाम से जाना जाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था। 

उद्गाता-
दूसरा ऋत्विज् 'उद्गाता'  कहलाता था। जो यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था।

अध्वर्यु-
तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था।

ब्रह्मा-
चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित कहलाता था जो  सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी था; 

और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम की दिशा मानी जाती थी।
और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे।
 इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों  ऋगवेद- यजुर्वेद और सामवेद - का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक शास्त्र बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए। 
इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे। 
इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म धारा से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को 'स्मृति' कहने लगे।
प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है।

 पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्माणों का महत्व भी बढ़ने लगा।

इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी दी जाने लगी।, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और परिणाम स्वरूप भागवत 
 ( सातवत्त )आदि नए सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण कर्मकाण्ड मूलक यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया। 
यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ,  (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि। 

असुर संस्कृति को आराधक  आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे जो 'यश्न' नाम जाने जाते थे।
इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द बना है।
यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार के पुण्योत्सव थे। अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। यज्ञ का एक नाम विष्णु  और अग्नि भी है।
 यज्ञ गुणों को अनुसार सात्विक राज सिर और तामसिक तीन प्रकार हे गये।
वे पांच महायज्ञ हैं (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) बलिवैश्व देव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। वैदिक परंपरा में, यज्ञ (जिसे महायज्ञ के रूप में भी जाना जाता है) आशीर्वाद, समृद्धि, शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए विभिन्न देवताओं या ब्रह्मांडीय शक्तियों को प्रसाद के रूप में किया जाता है। महायज्ञ के दौरान पुजारियों, विद्वानों और भक्तों की भागीदारी के साथ विस्तृत अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं। इन अनुष्ठानों में अक्सर वैदिक मंत्रों का जाप, घी, अनाज और जड़ी-बूटियों जैसी विभिन्न वस्तुओं को पवित्र अग्नि (अग्नि) में चढ़ाना और सटीक पाठ के साथ विशिष्ट क्रियाएं करना शामिल होता है। अनुष्ठान प्राचीन वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करते हुए आयोजित किए जाते हैं। 

माना जाता है कि महायज्ञों का प्रभाव शक्तिशाली और दूरगामी होता है। उन्हें निस्वार्थ सेवा और भक्ति का कार्य माना जाता है और माना जाता है कि वे सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं जो प्रतिभागियों और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा सकते हैं। आधुनिक समय में, महायज्ञ अभी भी भारत और अन्य स्थानों पर जहां हिंदू धर्म का अभ्यास किया जाता है, आयोजित किए जाते हैं। कुछ महायज्ञ विशिष्ट उद्देश्यों जैसे ग्रह निवारण, शांति या विश्व कल्याण के लिए आयोजित किये जाते हैं। अनुष्ठान का पैमाना और जटिलता अवसर और इसमें शामिल प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भिन्न हो सकती है।

राजकुल के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ को महायज्ञ की श्रेणी में रखा जाता था। महायज्ञ के संपादन में 17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यज्ञ के प्रकार निम्नवत है।

1.राजसु यज्ञ या राज्याभिषेक :-

यह राजा के सिंहासन रोहण से संबंधित यज्ञ था। इस यज्ञ के अवसर पर राजा राजकीय वस्त्रों में सुसज्जित होकर पुरोहित से धनुष बाण लेकर स्वयं को राजा घोषित करता था। यह 1 वर्ष तक चलने वाला यज्ञ था बाद के दिनों में इसे सामान्य अभिषेक तक सीमित कर दिया गया। राजसूय का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है राजसुय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को 24000 गाय तक दान में दि जाती थीं।.

2. बाजपेय यज्ञ:-

बाजपेय का शाब्दिक अर्थ है शक्ति का पान। यह शौर्य प्रदर्शन व प्रजा मनोरंजनार्थ किया जाने वाला यज्ञ था। ये लगभग 17 दिनों तक चलता था।

3.अश्वमेघ यज्ञ:-

अश्वमेघ का शाब्दिक अर्थ घोड़े की बलि है । यह राजनीतिक विस्तार हेतु किया जाने वाला यज्ञ था। इस यज्ञ में एक घोड़े को अभिषेक के पश्चात 1 वर्ष तक स्वतंत्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था । विचरण के दौरान घोड़े के साथ 400 योद्धा मार्ग में उसकी रक्षा करते थे। विचरण करने वाले सम्पूर्ण भाग पर राजा का अधिपत्य समझ लिया जाता था । अगर किसी राजा द्वारा उस घोड़े को पकड़ लिया जाता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था। 
वर्ष के समाप्त होने पर उस घोड़े को राजधानी लाया जाता था और उसकी बलि दी जाती थी। 

यह यज्ञ महात्मा बुद्ध के द्वारा तीव्र भर्त्सना के कारण कुछ समय तक बंद रहा, परन्तु पुनः इस परम्परा को पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्रारम्भ किया गया।
इस यज्ञ का परचलन गुप्त एवं प्रारंभिक चालुक्य वंश तक रहा उसके बाद यह बंद हो गया।.

4. अग्निओष्टम यज्ञ :-

इसे अग्निष्टोमा के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख वैदिक यज्ञ (बलि अनुष्ठान) है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं में बहुत महत्व रखता है। यह वैदिक ग्रंथों, विशेषकर यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में वर्णित सबसे पुराने और सबसे विस्तृत अनुष्ठानों में से एक है। अग्निष्टोम यज्ञ एक सोम यज्ञ है, जिसका अर्थ है कि इसमें विशिष्ट वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पवित्र अग्नि (अग्नि) में सोम रस निकालना और चढ़ाना शामिल है। अनुष्ठान आम तौर पर कई दिनों तक चलता है और जटिल समारोहों को करने के लिए कुशल पुजारियों   टीम की आवश्यकता होती है। अग्निष्टोम का केंद्रीय तत्व सोम पौधा है, जो वैदिक अनुष्ठानों में एक पवित्र पौधा है जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें दैवीय गुण हैं और यह भगवान सोम (चंद्र) से जुड़ा है।

 सोम रस को पौधे से निकाला जाता है, अन्य पदार्थों के साथ मिलाया जाता है और अग्नि में आहुति दी जाती है। अनुष्ठान के दौरान प्रतिभागी सोम पीते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका शरीर और दिमाग पर शुद्धिकरण और उन्नत प्रभाव पड़ता है। अग्निष्टोम यज्ञ को अत्यधिक शुभ माना जाता है और माना जाता है कि इससे आध्यात्मिक उत्थान, देवताओं का आशीर्वाद और समृद्धि सहित विभिन्न लाभ मिलते हैं। यह एक जटिल और मांगलिक समारोह है, जिसमें सटीक पाठ, प्रसाद और क्रियाएं शामिल होती हैं, और आमतौर पर विशेष अवसरों पर या विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है। 

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