सोमवार, 7 अगस्त 2023

यज्ञ और हिंसा -




शब्दार्थ-
(अस्मिन् चराचरे) इस जंगम स्थावर लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म उत्पन्न हुआ है।

वह हत्या जो वेद द्वारा अनुमोदित है, इस चर और अचर प्राणियों की दुनिया में शाश्वत है: इसे बिल्कुल भी हत्या नहीं माना जाना चाहिए; चूँकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ।(44)

मेधातिथि की टिप्पणी ( मनुभाष्य ):
वेदों में प्राणियों की हत्या का जो विधान किया गया है, वह इस चराचर और स्थावर प्राणियों के संसार में अनादि काल से चला आ रहा है । दूसरी ओर, जो तंत्र और अन्य हिंसा कार्यों में निर्धारित है वह आधुनिक है, और गलत प्रेरणा पर आधारित है। इसलिए केवल पहले वाले को ही 'कोई हत्या नहीं ' माना जाना चाहिए; और यह इस कारण से है कि इसमें दूसरी दुनिया के संदर्भ में कोई पाप शामिल नहीं है। जब इस हत्या को 'कोई हत्या नहीं' कहा जाता है।

तो यह केवल इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए है, न कि इसके स्वरूप को ध्यान में रखते हुए (जो निश्चित रूप से हत्या का रूप है )।
अब प्रश्न बनता है।
“चूंकि दोनों कृत्य समान रूप से हत्या करने वाले होंगे ; उनके प्रभाव में अंतर कैसे हो सकता है ? ”

इसका उत्तर है—'क्योंकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ';—क्या वैध (सही) है और क्या अवैध (गलत) है इसका प्रतिपादन वेद से हुआ; मानवीय अधिकारी बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। और वास्तव में, वेद यह घोषित करता हुआ पाया जाता है कि कुछ मामलों में, हत्या कल्याण के लिए अनुकूल है। न ही रूप की कोई पूर्ण पहचान है (दोनों प्रकार की हत्याओं के बीच); क्योंकि सबसे पहले तो यह अंतर है कि, जहां एक बलिदान को पूरा करने के लिए किया जाता है, वहीं दूसरा पूरी तरह से व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए किया जाता है; और दूसरी बात आशय में भी अंतर है, अर्थात सामान्य हत्या या तो मांस खाने की इच्छा रखने वालों के द्वारा की जाती है, या उस प्राणी द्वारा (मारे गए प्राणी) से घृणा करने वाले द्वारा की जाती है, जबकि वैदिक हत्या इसलिए की जाती है क्योंकि मनुष्य सोचता है कि 'यह 'शास्त्रों द्वारा आदेश दिया गया है।'
आर्यसमाजीयों का मानना है। कि 
यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अध्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो।
 उसका यही प्रमाण है कि विश्वामित्र ने हिंसा के भय से अपने यज्ञ में स्वयम् राक्षसों को नहीं मारा वरन् रक्षा के निमित्त रामचन्द्र को बुलाया।

स्कन्दपुराणम्/खण्डः ३ (ब्रह्मखण्डः)/धर्मारण्य खण्डः/अध्यायः ३६

                    "नारद उवाच"
अतः परं किमभवत्तन्मे कथय सुव्रत ।।
पूर्वं च तदशेषेण शंस मे वदताम्बर ।। १ ।।
स्थिरीभूतं च तत्स्थानं कियत्कालं वदस्व मे ।।
केन वै रक्ष्यमाणं च कस्याज्ञा वर्तते प्रभो ।। २ ।।
                    ।। ब्रह्मोवाच ।।
त्रेतातो द्वापरांतं च यावत्कलिसमागमः ।।
तावत्संरक्षणे चैको हनूमान्पवनात्मजः ।। ३ ।।
समर्थो नान्यथा कोपि विना हनुमता सुत ।।
लंका विध्वंसिता येन राक्षसाः प्रबला हताः ।।४।।
स एव रक्षते तत्र रामादेशेन पुत्रक ।।
द्विजस्याज्ञा प्रवर्तेत श्रीमातायास्तथैव च ।। ५ ।।
दिनेदिने प्रहर्षोभूज्जनानां तत्र वासिनाः ।।
पठंति स्म द्विजास्तत्र ऋग्युजुःसामलक्षणान्।६ ।।
अथर्वणमपि तत्र पठंति स्म दिवानिशम् ।।
वेदनिर्घोषजः शब्दस्त्रैलोक्ये सचराचरे ।। ७ ।।
उत्सवास्तत्र जायंते ग्रामेग्रामे पुरेपुरे ।।
नाना यज्ञाः प्रवर्तंते नानाधर्मसमाश्रिताः ।। ८ ।।
           ।। युधिष्ठिर उवाच ।।
कदापि तस्य स्थानस्य भंगो जातोथ वा न वा ।।
दैत्यैर्जितं कदा स्थानमथवा दुष्टराक्षसैः ।। ९ ।।
            ।। व्यास उवाच ।।
साधु पृष्टं त्वया राजन्धर्मज्ञस्त्वं सदा शुचिः ।।
आदौ कलियुगे प्राप्ते यद्दत्तं तच्छृणुष्व भोः ।। 3.2.36.१० ।।
लोकानां च हितार्थाय कामाय च सुखाय च ।।
यज्ञं च कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणु भूपते ।।११।।
इदानीं च कलौ प्राप्त आमो नामा वभूव ह ।।
कान्यकुब्जाधिपः श्रीमान्धर्मज्ञो नीतितत्परः ।१२।
शांतो दांतः सुशीलश्च सत्यधर्मपरायणः ।।
द्वापरांते नृपश्रेष्ठ अनागमे कलौ युगे ।। १३ ।।
भयात्कलिविशेषेण अधर्मस्य भयादिभिः ।।
सर्वे देवाः क्षितिं त्यक्त्वा नैमिषारण्यमाश्रिताः ।। १४ ।।
रामोपि सेतुबंधं हि ससहायो गतो नृप ।। १५ ।।
             ।। युधिष्ठिर उवाच ।।
कीदृशं हि कलौ प्राप्ते भयं लोके सुदुस्तरम् ।।
यस्मिन्सुरैः परित्यक्ता रत्नगर्भा वसुन्धरा ।। १६ ।।
               ।। व्यास उवाच ।। 
शृणुष्व कलिधर्मास्त्वं भविष्यंति यथा नृप ।।
असत्यवादिनो लोकाः साधुनिन्दापरायणाः ।१७।
दस्युकर्मरताः सर्वे पितृभक्तिविवर्जिताः ।।
स्वगोत्रदाराभिरता लौल्यध्यानपरायणाः ।। १८ ।।
ब्रह्मविद्वेषिणः सर्वे परस्परविरोधिनः ।।
शरणागतहंतारो भविष्यंति कलौ युगे ।। १९ ।।
वैश्याचाररता विप्रा वेदभ्रष्टाश्च मानिनः ।।
भविष्यंति कलौ प्राप्ते संध्यालोपकरा द्विजाः ।। 3.2.36.२० ।।

शांतौ शूरा भये दीनाः श्राद्धतर्पणवर्जिताः ।।
असुराचारनिरता विष्णुभक्तिविवर्जिताः ।। २१ ।।

परवित्ताभिलाषाश्च उत्कोच ग्रहणे रताः ।।
अस्नातभोजिनो विप्राः क्षत्रिया रणवर्जिताः ।२२।
भविष्यंति कलौ प्राप्ते मलिना दुष्टवृत्तयः ।।
मद्यपानरताः सर्वेप्यया ज्यानां हि याजकाः ।। २३ ।।
भर्तृद्वेषकरा रामाः पितृद्वेषकराः सुताः ।।
भ्रातृद्वेषकराः क्षुद्रा भविष्यंति कलौ युगे।२४।
गव्यविक्रयिणस्ते वै ब्राह्मणा वित्ततत्पराः ।।
गावो दुग्धं न दुह्यंते संप्राप्ते हि कलौ युगे ।। २५ ।।
फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।
कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
विषविक्रयकर्त्तारो रसविक्रयकारकाः ।
वेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।
नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।
एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।
न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।
बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
जिह्मवृत्तिपराः सर्वे वेदनिंदापरायणाः।
यतिनिंदापराश्चैव च्छद्मकाराः परस्परम् । 3.2.36.३०।
स्पर्शदोषभयं नैव भविष्यति कलौ युगे ।
क्षत्रिया राज्यहीनाश्च म्लेच्छो राजा भविष्यति ।३१।
विश्वासघातिनः सर्वे गुरुद्रोहरतास्तथा ।।
मित्रद्रोहरता राजञ्छिश्नोदरपरायणाः ।। ३२ ।।
एकवर्णा भविष्यंति वर्णाश्चत्वार एव च ।।
कलौ प्राप्ते महाराज नान्यथा वचनं मम ।३३।
एतच्छ्रुत्वा गुरोरेव कान्यकुब्जाधिपो बली
राज्यं प्रकुरुते तत्र आमो नाम्ना हि भूतले। ३४।
सार्वभौमत्वमापन्नः प्रजापालनतत्परः ।
प्रजानां कलिना तत्र पापे बुद्धिरजायत।३५।
वैष्णवं धर्ममुत्सज्य बौद्धधर्ममुपागताः ।
प्रजास्तमनुवर्तिन्यः क्षपणैः प्रतिबोधिताः।३६।
तस्य राज्ञो महादेवी मामानाम्न्यतिविश्रुता।
गर्भं दधार सा राज्ञो सर्वलक्षणसंयुता ।३७।
संपूर्णे दशमे मासि जाता तस्याः सुरूपिणी।
दुहिता समये राज्ञ्याः पूर्णचन्द्रनिभानना।३८।
रत्नगंगेति नाम्ना सा मणिमाणिक्यभूषिता।
एकदा दैवयोगेन देशांतरादुपागतः ।३९।
नाम्ना चैवेंद्रसूरिर्वै देशेस्मिन्कान्यकुब्जके।
षोडशाब्दा च सा कन्या नोपनीता नृपात्मजा।3.2.36.४०।
दास्यांतरेण मिलिता इन्द्रसूरिश्च जीविकः।
शाबरीं मंत्रविद्यां च कथयामास भारत।४१।
एकचित्ताभवत्सा तु शूलिकर्मविमोहिता ।
ततः सा मोहमापन्ना तत्तद्वाक्यपरायणा।४२।
क्षपणैर्बोधिता वत्स जैनधर्मपरायणा ।
ब्रह्मावर्ताधिपतये कुंभीपालाय धीमते ।४३।
रत्नगंगां महादेवीं ददौ तामिति विक्रमी।।
मोहेरेकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहितः । ४४ ।
धर्मारण्यं समागत्य राजधानी कृता तदा ।।
देवांश्च स्थापयामास जैनधर्मप्रणीतकान्।४५।
सर्वे वर्णास्तथाभूता जैन धर्मसमाश्रिताः ।।
ब्राह्मणा नैव पूज्यंते न च शांतिकपौष्टिकम् ।४६।
न ददाति कदा दानमेवं कालः प्रवर्तते ।।
लब्धशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम् ।। ४७ ।।
समाकुलितचित्तास्ते नृपमामं समाययुः ।।
कान्यकुब्जस्थितं शूरं पाखण्डैः परिवेष्टितम् ।४८।
कान्यकुब्जपुरं प्राप्य कतिभिर्वासरैर्नृप ।।
गंगोपकण्ठे न्यवसञ्छ्रांतास्ते मोढवाडवाः।४९।
चारैश्च कथितास्ते च नृपस्याग्रे समागताः ।।
प्रातराकारिता विप्रा आगता नृपसंसदि ।। 3.2.36.५० ।।
प्रत्युत्थानाभिवादादीन्न चक्रे सादरं नृपः ।।
तिष्ठतो ब्राह्मणान्सर्वान्पर्यपृच्छदसौ ततः ।। ५१ ।।
किमर्थमागता विप्राः किंस्वित्कार्यं ब्रुवंतु तत् ।। ५२ ।।
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इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मखण्डे धर्मारण्य माहात्म्ये हनुमत्समागमो नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः।।३६।।

                   नारद ने कहा :
1-2. हे धर्मात्मा, कृपया मुझे बताएं कि उसके बाद क्या हुआ। प्रारंभ में, हे उत्कृष्ट वक्ता, इसे पूरा कहो। वह पवित्र स्थान कब तक स्थिर रहा? इसकी सुरक्षा किसके द्वारा की जा रही थी? हे प्रभु, वहां किसका प्रभुत्व सर्वोच्च था?

                    ब्रह्मा ने कहा :
3-5. त्रेता से लेकर द्वापर के अंत तक , कलि के आगमन तक , पवन-देवता, हनुमान के पुत्र , अकेले ही इसकी रक्षा करने में सक्षम थे। हे पुत्र, यह हनुमान के अलावा किसी के लिए संभव नहीं था जिनके द्वारा लंका का विनाश किया गया और शक्तिशाली राक्षसों का वध किया गया। (अब) राम के आदेश पर वे ही रक्षक हैं , प्रिय पुत्र। वहां ब्राह्मण और श्रीमाता का प्रभुत्व है ।

6-8. वहां रहने वाले लोगों का आनंद दिन-ब-दिन बढ़ता गया। ब्राह्मण ऋक, यजुस् और साम वेदों का पाठ करते थे । वे दिन-रात अथर्ववेद का भी उच्च स्वर से पाठ करते थे। वैदिक मंत्रोच्चार से निकलने वाली ध्वनि ने जंगम और स्थावर प्राणियों सहित तीनों लोकों को भर दिया। हर गाँव और शहर में उत्सव मनाया गया। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों पर आधारित विभिन्न प्रकार के यज्ञ जारी रहे।

                    युधिष्ठिर ने कहा :
9. क्या पवित्र स्थान को कभी कोई विनाश हुआ या नहीं? क्या वह स्थान दैत्यों या दुष्ट राक्षसों द्वारा कब्जा कर लिया गया था?

                       व्यास ने कहा :
10 हे राजा, तू ने ठीक ही पूछा है। आप सदैव पवित्र और धर्म के ज्ञाता हैं । कलियुग के आरंभ में क्या हुआ सुनो। [1]

11. समस्त लोकों के कल्याण, संतुष्टि और सुख के लिए मैं एक विशेष यज्ञ का वर्णन करूंगा । हे राजा, सब सुनो।

12-13. अब, जब कलि युग का आगमन आसन्न था, द्वापर के अंत में, जब कलि अभी शुरू नहीं हुआ था, अमा नाम का एक राजा था जो कान्यकुब्ज का शासक बन गया । [2] हे श्रेष्ठ राजा, वह तेजस्वी, धर्म का ज्ञाता, शांत, संयमी, न्याय के प्रति उत्सुक, अच्छे आचरण वाला तथा सत्य और धर्मपरायणता के प्रति समर्पित था।

14-15. अधर्म के तीव्र भय के कारण, कलियुग के विशेष आक्रमण के कारण, सभी देवताओं ने पृथ्वी पर अपना-अपना स्थान त्याग दिया और नैमिष वन का सहारा लिया। हे राजन, राम ने भी उचित सहायता से पुल का निर्माण पूरा किया।

                      युधिष्ठिर ने कहा :
16. कलि के आगमन पर पूरे विश्व में किस प्रकार का भय व्याप्त हो गया कि उस पर काबू पाना बहुत कठिन हो गया और पृथ्वी (गर्भ में रत्न धारण करने वाली) को सुरों ने त्याग दिया ?

                     व्यास ने कहा :
17-19. कलियुग की मुख्य विशेषताओं को सुनो जो प्रकट होंगी, [3] हे राजा।

लोग झूठ बोलनेवाले होंगे। वे अच्छे लोगों की निंदा करने में लगे रहेंगे। उन सभी को डाकू जैसी गतिविधियों के लिए दिया जाएगा। वे अपने माता-पिता के प्रति भक्ति से रहित हो जायेंगे। वे अपने रिश्तेदारों की पत्नियों के प्रति यौन प्रवृत्त होंगे। उनकी सोच वासना से भरी होगी. वे ब्राह्मणों से घृणा करेंगे। ये सभी एक दूसरे के विरोधी होंगे. 
कलियुग में लोग उन लोगों के विनाशक (शोषक) होंगे जो उनकी शरण लेंगे।

20-21. ब्राह्मण वैश्यों का कार्य अपना लेंगे : वे वेदों के मार्ग से भटक जायेंगे ; वे घमंडी हैं. जब कलि आयेगी, तो ब्राह्मण संध्या प्रार्थना करना बंद कर देंगे।

जब शांति होती है, तो वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वे बहादुर हों; जब ख़तरा होता है तो वे निराश हो जाते हैं। वे श्राद्ध और तर्पण की उपेक्षा करते हैं । आसुरी आचरण में लिप्त होकर, वे विष्णु की भक्ति से वंचित हो गए हैं ।

22-25. लोग दूसरे लोगों के धन के लालची होते हैं। वे रिश्वत लेने में लगे रहते हैं. ब्राह्मण बिना स्नान किये ही भोजन करते हैं। क्षत्रिय युद्ध से बचते हैं । जब कलि आता है, तो सभी लोग अपने आचरण में गंदे और दुष्ट हो जाते हैं। सभी शराब पीने के आदी हो जाते हैं. पुजारी उन लोगों की ओर से यज्ञ करते हैं जो इस तरह के प्रदर्शन के लिए पात्र नहीं हैं। स्त्रियाँ पतियों से घृणा करती हैं; बेटे अपने माता-पिता से नफरत करते हैं। कलियुग में सभी मूर्ख लोग अपने ही भाइयों से बैर करने लगेंगे। धन इकट्ठा करने के लिए उत्सुक, ब्राह्मण दूध उत्पादों के विक्रेता बन जाएंगे। जब वास्तव में कलियुग आ गया है, तो गायें दूध नहीं देतीं।
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फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।
कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
विषविक्रयकर्त्तारो रसविक्रयकारकाः ।
वेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।

नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।
एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।

न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।
बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
अनुवाद:-
.वृक्षों पर कभी फल नहीं लगेंगे, हे भरत के वंशज ! कलियुग में लोग अपनी बेटियों, गायों और बकरियों, जहर, शराब और यहां तक ​​कि वेदों के भी विक्रेता बन जाएंगे। एक महिला ग्यारह वर्ष के बाद गर्भधारण करेंगी । सभी लोग चंद्र पखवाड़े में ग्यारहवें दिन उपवास करने से बचते हैं। ब्राह्मण तीर्थ यात्रा नहीं करेंगे. वे बहुत अधिक खायेंगे; वे खूब सोएंगे.२६-२८।
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30-33. सभी कपटपूर्ण कार्यों में लगे रहेंगे, वेदों और वैरागियों से भी घृणा करेंगे। वे एक दूसरे को धोखा देंगे. कलियुग में (अभद्र साथियों से) सम्पर्क का भय नहीं रहेगा। क्षत्रियों से उनका राज्य छीन लिया जाएगा और म्लेच्छ राजा बन जाएंगे। सभी विश्वास तोड़ने वाले बन जायेंगे और सभी बड़ों को परेशान करने में लगे रहेंगे। हे राजा, वे विश्वासघाती मित्र होंगे और लोलुपता और कामवासना में लिप्त होंगे। हे महान राजा, कलि के आगमन पर सभी चार जातियाँ एक जाति में मिल जाएंगी। मेरी बातें कभी अन्यथा नहीं हो सकतीं.

34-38. सीधे अपने गुरु से यह सुनकर, कान्यकुब्ज के अमा नामक शक्तिशाली शासक ने राज्य पर शासन करना जारी रखा। वह सम्राट बन गया और प्रजा की रक्षा में तत्पर रहने लगा। कलि के आगमन के कारण प्रजा पाप करने की ओर प्रवृत्त हो गयी।

क्षपानस [4] (बौद्ध भिक्षुकों) द्वारा उकसाए जाने और उनके निर्देशों का पालन करते हुए, प्रजा ने अपना वैष्णव पंथ छोड़ दिया और बौद्ध [5] जीवन शैली अपना ली।

उस राजा की सबसे वरिष्ठ रानी, ​​जो मामा के नाम से प्रसिद्ध थी और सभी अच्छे गुणों से युक्त थी। जब दसवाँ महीना पूरा हुआ, तो सर्वसुन्दर गुणों से सम्पन्न तथा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख वाली एक कन्या उत्पन्न हुई।

39-45. वह रत्नागांगा नाम से जानी जाती थी। वह रत्नों से सुसज्जित रहती थी। एक बार संयोग से इन्द्रसूरि नाम का एक भिक्षुक कान्यकुब्ज राज्य में आया। सोलह साल की उक्त लड़की, राजकुमारी को अभी तक धार्मिक पंथ में दीक्षित नहीं किया गया था, उसे एक नौकरानी द्वारा गुप्त रूप से इंद्रसूरि में ले जाया गया था।

हे भरत के वंशज, उन्होंने उसे शाबरी मंत्र विद्या की दीक्षा दी । त्रिशूलधारी भिक्षुक की गतिविधि से मोहित होकर, वह एकाग्रता के साथ इसमें भाग लेने लगी। तब वह और अधिक मोहित हो गई और प्रत्येक कथन को उत्सुकता से समझने लगी (अनुसरण करने लगी)। क्षपणों द्वारा निर्देश दिए जाने पर, हे प्रिय, वह जैन पंथ के प्रति समर्पित हो गई। 
महान पराक्रमी राजा ने राजकुमारी रत्नांगा को ब्रह्मावर्त के स्वामी, बुद्धिमान कुम्भीपाल को दे दिया । भाग्य से भ्रमित होकर, राजा ने विवाह के समय मोहेरका को उसे (दामाद को) दे दिया। वह धर्मारण्य आये और अपनी राजधानी स्थापित की। उन्होंने जैन पंथ में वर्णित देवताओं की विधिवत स्थापना की। [6]

46-52. सभी विभिन्न जातियों को जैन पंथ में परिवर्तित कर दिया गया। ब्राह्मणों का सम्मान नहीं किया जाता था। शांतिका और पौष्टिका जैसे कोई धार्मिक संस्कार नहीं किए गए। कभी कोई दान-पुण्य नहीं करता था। ऐसे ही समय बीतता गया.

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< स्कन्दपुराणम्‎ | खण्डः २ (वैष्णवखण्डः)‎ | वासुदेवमाहात्म्यम्
                   स्कन्द उवाच ।।
भाविधर्मविपर्यासकालवेगवशोऽथ सः ।।
नाहं क्षमिष्य इत्युक्त्वा कैलासं प्रययौ मुने ।। १ ।।
त्रैलोक्याच्छ्रीरपि तदा समुद्रेन्तर्द्धिमाययौ ।।
इन्द्रं विहायाप्सरसः सर्वशः श्रियमन्वयुः ।। २ ।।
तपः शौचं दया सत्यं पादः सद्धर्मऋद्धयः ।।
सिद्धयश्च बलं सत्त्वं सर्वतः श्रियमन्वयुः ।। ३ ।।
गजादीनि च यानानि स्वर्णाद्याभूषणानि च ।।
चिक्षिपुर्मणिरत्नानि धातूपकरणानि च ।। ४ ।।
अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः ।।
न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् ।। ५ ।।
नवापि निधयो नष्टाः कुबेरस्यापि मन्दिरात ।।
इन्द्रः सहामरगणैरासीत्तापससन्निभः ।। ६ ।।
सर्वाणि भोगद्रव्याणि नाशमीयुस्त्रिलोकतः ।।
देवा दैत्या मनुष्याश्च सर्वे दारिद्यपीडिताः ।। ७ ।।
कान्त्या हीनस्ततश्चन्द्रः प्रापाम्बुत्वं महोदधौ।।
अनावृष्टिर्महत्यासीद्धान्यबीजक्षयंकरी ।। ८ ।।
क्वान्नं क्वान्नेति जल्पन्तः क्षुत्क्षामाश्च निरोजसः ।।
त्यक्त्वा ग्रामान्पुरश्चोषुर्वनेषु च नगेषु च ।।९।।
क्षुधार्त्तास्ते पशून्हत्वा ग्राम्यानारण्यकांस्तथा ।।
पक्त्वाऽपक्त्वापि वा केचित्तेषां मांसान्यभुञ्जत ।। 2.9.9.१० ।।
विद्वांसो मुनयश्चाऽथ ये वै सद्धर्मचारिणः ।।
म्रियमाणाः क्षुधाऽथापि नाश्नन्त पललानि तु ।११।
तदा तु वृद्धा ऋषयस्तान्दृष्ट्वाऽनशनादृतान् ।।
मनुभिः सह वेदोक्तमापद्धर्ममबोधयन् ।। १२ ।।
मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।।
परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।। १३ ।।
अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।।
बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।।
या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।।
उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्।। १५ ।।
प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।।
भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।।१६।।
ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः ।।
चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।।१७।।
गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।।
चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।।१८।।
विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे ।।
स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये ।। १९।।
महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।।
निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् ।। 2.9.9.२० ।।
केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः ।।
मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे ।।२१।।
स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।।
निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।। २२ ।।
सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।।
नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः ।।२३।
ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।
उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।
इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।।
धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् ।। २५ ।।
अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।।
अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि ।। २६ ।।
दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः ।।
तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।। २७ ।।
विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि ।।
मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८ ।
ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे ।।
आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।। २९।
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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।
बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।
कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।।
आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।। ३१ ।।
ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः ।।
यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।। ३२ ।।
तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।।
कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।।
तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।। ३३ ।।
एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।।
आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।।
यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये हिंस्रयज्ञप्रवृत्तिहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः।९।
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यह स्कंद पुराण के वैष्णव-खंड के वासुदेव-महात्म्य का नौवां अध्याय है।

अध्याय 9 - हिंसा से जुड़े यज्ञों की उत्पत्ति
अभिभावक: धारा 9 - वासुदेव-माहात्म्य
                   स्कंद ने कहा :
हे ऋषि, काल के प्रभाव से भविष्य में धर्म की विकृति हो गई , उन्होंने ( दुर्वासा ने ) कहा, "मैं माफ नहीं करूंगा" और कैलास चले गए ।१।
देवी श्री भी फिर तीनों लोकों से समुद्र में लुप्त हो गईं। एक शरीर में सभी दिव्य युवतियों ने इंद्र को छोड़ दिया और श्री का अनुसरण किया।२।
तपस्या, पवित्रता, दया, सत्य, पद (?), सच्चा धर्म, समृद्धि, अलौकिक शक्तियाँ, शक्ति, सत्व (अच्छाई का गुण) - इन सभी ने श्री का अनुसरण किया।३।
वाहन, हाथी आदि, सोने आदि के आभूषण, बहुमूल्य पत्थर आदि तथा धातु के औजार कम हो गये।४।

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अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः ।
न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् ।५ ।
 कुछ ही समय में खाद्य पदार्थ, पौधे, जड़ी-बूटियाँ, तेल, चिकने पदार्थ कम हो गये। दूध देने वाले पशुओं, जिनमें गाय, भैंस प्रमुख थीं, के थनों में दूध उत्पन्न नहीं होता था।५।
कुबेर के भवन से नौ निधियाँ भी गायब हो गईं इन्द्र अनेक देवताओं सहित तपस्वी बन गये।६।
तीनों लोकों में भोग-विलास की सभी सामग्रियां समाप्त हो गईं। देवता, दैत्य और मनुष्य दरिद्रता से पीड़ित थे।७
चन्द्रमा अपनी मनोहर कान्ति से रहित हो गया, और समुद्र के जल के समान हो गया। वहाँ एक भयानक सूखा पड़ा जिससे मक्के के बीज और दाने पूरी तरह बर्बाद हो गये।८
बार-बार चिल्लाना 'खाना कहां है?' भूख से क्षीण और शक्तिहीन लोगों ने गांवों और कस्बों को छोड़ दिया और जंगलों और पहाड़ों का सहारा लिया।९
भूख से व्याकुल होकर उन में से कुछ ने जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं को मार डाला, और उनका पका या कच्चा मांस खाया।१०
सच्चे धर्म का पालन करने वाले विद्वान पुरुष और साधु भूख से मरने के बावजूद भी मांस नहीं खाते थे।११
उन्हें व्रत और उपवास करते देखकर मनु सहित वृद्ध ऋषियों ने उन्हें वेदों द्वारा प्रतिपादित विपरीत परिस्थितियों में पालन किये जाने वाले धर्म की शिक्षा दी ।१३
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मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।।
परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।।१३।।
जिन ऋषियों की इन्द्रियाँ भूख के कारण भ्रमित हो गई थीं, उनमें से अधिकांश ने वेदों की विकृत व्याख्या की।१३।
अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।।
बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।।
उन्होंने अज जैसे शब्द का अर्थ बकरी के समान लिया और उपदेश दिया, “हे ब्राह्मणों , (पशु) बलि करो।१४।
या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।।
उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्।। १५ ।।
वेदों द्वारा विहित हिंसा ( हिंसा ) कोई दोष या पाप उत्पन्न करने वाली हिंसा नहीं है [2] । इसलिए, देवताओं और पितरों के नाम पर शुभ (बलि देने वाले) जानवरों को मार डालो । १५।
प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।।
भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।।१६।।
अपने इच्छित किसी भी जानवर के मांस को जल छिड़क कर नैवेद्य के रूप में देवताओं और पितरों को समर्पित करने के बाद उसका आनंद लें । परन्तु अपने लिये जानवरों को मत मारो।”।१६।
ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः ।।
चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।।१७।।
तब देवताओं, ऋषियों, राजाओं और उनके द्वारा सिखाए गए मनुष्यों ने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार यज्ञ किए, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पूरी तरह से हरि के प्रति समर्पित थे।१७।
गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।।
चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।।१८।।
उन्होंने गो- मेध (बैल-बलि), अश्वमेध (घोड़ा-बलि) जैसे बलिदान किए और बलिदान जिनमें मानव-बलि प्रमुख थी और बलिदान के बाद बचे हुए मांस का आनंद लेते थे।१८।
विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे ।।
स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये ।। १९।।
"अनुवाद:कुछ लोगों ने खोए हुए धन के लिये यज्ञ किया। कुछ ने स्त्रियों (पत्नियों), पुत्रों और घर को प्राप्त करने के लिए और कुछ ने अपने पेशे की (समृद्धि) के लिए प्रदर्शन किया।१९।

महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।।
निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् ।। 2.9.9.२० ।।
"अनुवाद: जो लोग बड़े-बड़े यज्ञ करने में असमर्थ थे, उन्होंने कई बार श्राद्ध में अपने पितरों के लिए पशुओं को मारकर खाया और दूसरों से भी ऐसा करवाया।२०।
केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः ।।
मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे ।।२१।।
"अनुवाद: समुद्र के किनारे या नदियों के किनारे रहने वाले कुछ लोग जाल से मछलियाँ पकड़ते और उनका (मछली) भक्षक बन जाते।२१।

स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।।
निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।। २२ ।।
हे ऋषि ! उन्होंने विशिष्ट अतिथियों के लिए उन जानवरों को मार डाला, जिनमें गाय (बैल) और बकरियां प्रमुख थीं।२२।

सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।।
नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः ।।२३।
 उस समय धन, मकान आदि के अभाव में तथा धर्मों के परस्पर मिश्रण के कारण एक ही जाति के व्यक्तियों में विवाह का नियम नहीं चलता था।२३।

ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।
उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।
 समय (और नई प्रवृत्तियों) की मांगों के अनुसार, अपनी जाति के विस्तार और निरंतरता के लिए, ब्राह्मणों ने क्षत्रियों ( और अन्य जातियों) की बेटियों से शादी की और क्षत्रियों और अन्य लोगों ने ब्राह्मणों की बेटियों से शादी की।२४।

इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।।
धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् ।२५।
इस प्रकार उस महान आपदा में, हिंसा से जुड़े बलिदान शुरू किए गए। धर्म ने स्वयं देवी श्री का अनुसरण किया (समुद्र के तल तक), जबकि धर्म का एक अंश बना रहा।२५।
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अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि ।२६।
अधर्म अपने परिणामों सहित तीनों लोकों में व्याप्त हो गया और थोड़े ही समय में फल-फूल गया। बुद्धिमान और विद्वान लोगों द्वारा इसकी जाँच करना अत्यंत कठिन था।२६।

दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः ।।
तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।।२७ ।।
 उन गरीबी से त्रस्त लोगों से असंख्य बच्चे पैदा हुए और उनके परिवारों का विस्तार दुनिया में बहुत बढ़ गया।२७।

विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि ।।
मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८ ।
 उनमें से जो लोग विद्वान बन गये, उन्होंने इसे (अर्थात अधर्म, तत्कालीन प्रचलित प्रथाओं को) वास्तविक धर्म माना और तदनुसार ग्रंथ लिखे।२८।

ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे ।।
आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।। २९।
. परंपरा की शक्ति से वे ग्रंथ कालान्तर में प्रामाणिक बन गये। पहले त्रेता युग में धर्म ने इतना बुरा मोड़ ले लिया।
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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।
बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।
उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।

कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।।
आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।। ३१ ।।
हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।
ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः ।।
यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।। ३२ ।।
तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।

तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।।
कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।।
तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।। ३३ ।।
फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।

एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।।
आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।

इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।।
यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।
इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।
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फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1]:
कुबेर की नौ निधियाँ निम्नलिखित हैं: पद्म, महापद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुंद, नंद, नील और खरवा। उन्हें कुबेर या लक्ष्मी के अनुचर के रूप में भी जाना जाता है।

[2]:
मीमांसक, पंचरात्रिक यानी रामानुज जैसे वैष्णवों का यही रुख रहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि पुराण-लेखक इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि तथाकथित नर-मेधा में कभी भी मनुष्यों की हत्या नहीं की गई । एबी कीथ और अन्य जैसे पश्चिमी विद्वान ने विशेष रूप से बताया है कि यह नृ-यज्ञ या मनुष्य-यज्ञ 'अतिथियों का सम्मान' है। विवरण के लिए केन, एचडी, एच.ii, अध्याय XXI, पीपी. 749-56 देखें।


वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है – या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे। 
अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।।
 योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५) अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता। दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

 गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।। 
अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।


यज्ञ में पशुबलि की सनातन परंपरा
क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतति द्विजः .
-मनु. 3, 55 तथा व्यासस्मृति 

"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:।
मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।
 (व्यासस्मृति अध्याय तृतीय)
अर्थात यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है.


ऐसी ही बात कूर्मपुराण (2,17,40) में कही गई है.

विष्णुधर्मोत्तरपुराण (1,40,49-50) में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्राद्ध में भोजन करने वालों की पंक्ति में परोसे गए मांस का भक्षण नहीं करता, वह नरक में जाता है.
(देखें, धर्मशास्त्रों का इतिहास, जिल्द 3 , पृ. 1244)
महाभारत में गौओं के मांस के हवन से राज्य को नष्ट करने का ज़िक्र मिलता है। दाल्भ्य की कथा में आता है-
श्लोक  9.41.11-12  
 स तूत्कृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः ॥ ११॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा ।
अनुवाद
 वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे ॥११॥

"यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तम
एतान् पशून् नय क्षिप्रं ब्रह्मबंधो यदीच्छसि
स तूतकृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा.
अवाकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम्
बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमं स्थितः.
स तैरेव जुहावस्य राष्ट्रं मांसैर्महातपाः ..
तस्मिंस्तु विधिवत् सत्रे संप्रवृत्ते सुदारूणे .
अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव .
-(महाभारत , शाल्यपर्व , 41,8-9 व 11-14)

           "वैशम्पायन उवाच
ब्रह्मयोनिभिराकीर्णं जगाम यदुनन्दनः
यत्र दाल्भ्यो बको राजन्पश्वर्थं सुमहातपाः
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं वैचित्रवीर्यिणः ।१।
तपसा घोररूपेण कर्शयन्देहमात्मनः
क्रोधेन महताविष्टो धर्मात्मा वै प्रतापवान् ।२।
पुरा हि नैमिषेयाणां सत्रे द्वादशवार्षिके
वृत्ते विश्वजितोऽन्ते वै पाञ्चालान्नृषयोऽगमन् ।३।
तत्रेश्वरमयाचन्त दक्षिणार्थं मनीषिणः
बलान्वितान्वत्सतरान्निर्व्याधीनेकविंशतिम् ।४।
तानब्रवीद्बको वृद्धो विभजध्वं पशूनिति
पशूनेतानहं त्यक्त्वा भिक्षिष्ये राजसत्तमम् ।५।
एवमुक्त्वा ततो राजन्नृषीन्सर्वान्प्रतापवान्
जगाम धृतराष्ट्रस्य भवनं ब्राह्मणोत्तमः ।६।
स समीपगतो भूत्वा धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्
अयाचत पशून्दाल्भ्यः स चैनं रुषितोऽब्रवीत् ।७।
यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तम
एतान्पशून्नय क्षिप्रं ब्रह्मबन्धो यदीच्छसि ।८।
ऋषिस्त्वथ वचः श्रुत्वा चिन्तयामास धर्मवित्
अहो बत नृशंसं वै वाक्यमुक्तोऽस्मि संसदि ।९।
चिन्तयित्वा मुहूर्तं च रोषाविष्टो द्विजोत्तमः
मतिं चक्रे विनाशाय धृतराष्ट्रस्य भूपतेः ।१०।
स उत्कृत्य मृतनां वै मांसानि द्विजसत्तमः
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा ।११।
अवकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम्
बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमास्थितः
स तैरेव जुहावास्य राष्ट्रं मांसैर्महातपाः ।१२।
तस्मिंस्तु विधिवत्सत्रे सम्प्रवृत्ते सुदारुणे
अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव ।१३।
छिद्यमानं यथानन्तं वनं परशुना विभो
बभूवापहतं तच्चाप्यवकीर्णमचेतनम् ।१४।
दृष्ट्वा तदवकीर्णं तु राष्ट्रं स मनुजाधिपः
बभूव दुर्मना राजंश्चिन्तयामास च प्रभुः ।१५।
मोक्षार्थमकरोद्यत्नं ब्राह्मणैः सहितः पुरा
अथासौ पार्थिवः खिन्नस्ते च विप्रास्तदा नृप ।१६।

(महाभारत शल्यपर्व अध्याय ४०)

अर्थात इन मृत गौओं को यदि ले जाना चाहते हो तो ले जाओ.
दाल्भ्य ने उन मृत गौओं का मांस काट काट कर सरस्वती के किनारे अवाकीर्ण नामक तीर्थस्थल पर अग्नि जला कर हवन किया.
विधिपूर्वक यज्ञ के संपन्न होने पर राजा धृतराष्ट्र का राज्य क्षीण हो गया.

श्री महाभारत -(शल्य पर्व ) अध्याय 41:  श्लोक 28-30
    _______________________
"धृतराष्ट्रोऽपि धर्मात्मा स्वस्थचेता महामनाः ।
स्वमेव नगरं राजन् प्रतिपेदे महर्द्धि मत् ।२८।

"तत्र तीर्थे महाराज बृहस्पतिरुदारधीः ।
असुराणामभावाय भवाय च दिवौकसाम् ।२९।

"मांसैरभिजुहावेष्टिमक्षीयन्त ततोऽसुराः ।
दैवतैरपि सम्भग्ना जितकाशिभिराहवे।३०।

अनुवाद:- राजन्! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थचित्त हो अपने समृद्धिशाली नगर को ही लौट आये।

महाराज! उसी तीर्थमें उदारबुद्धि बृहस्पति ने असुरोंके विनाश और देवताओंकी उन्नतिके लिये मांसोंद्वारा आभिचारिक यज्ञका अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्धमें विजय से सुशोभित होनेवाले देवताओं ने उन्हें मार भगाया ॥ २९-३०॥
_________________________
 
श्रुत्वैतानृषयो धर्मान्स्नातकस्य यथोदितान् ।
इदं ऊचुर्महात्मानं अनलप्रभवं भृगुम् । । ५.१ । ।

एवं यथोक्तं विप्राणां स्वधर्मं अनुतिष्ठताम् ।
कथं मृत्युः प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो । ५.२ । 

स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः ।
श्रूयतां येन दोषेण मृत्युर्विप्रान्जिघांसति । ५.३ । 

अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात् ।
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ् जिघांसति ।५.४।

लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च ।
अभक्ष्याणि द्विजातीनां अमेध्यप्रभवानि च ।५.५।

लोहितान्वृक्षनिर्यासान्वृश्चनप्रभवांस्तथा ।
शेलुं गव्यं च पेयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत् । ५.६ ।

वृथा कृसरसंयावं पायसापूपं एव च ।
अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि हवींषि च ।५.७ । 

अनिर्दशाया गोः क्षीरं औष्ट्रं ऐकशफं तथा ।
आविकं संधिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः।५.८ ।

आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना ।
स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि ।५.९ ।

दधि भक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम् ।
यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः ।५.१०।

क्रव्यादाञ् शकुनान्सर्वांस्तथा ग्रामनिवासिनः ।
अनिर्दिष्टांश्चैकशफांष्टिट्टिभं च विवर्जयेत् ।५.११।

कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम् ।
सारसं रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके ।५.१२।

प्रतुदाञ् जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान् ।
निमज्जतश्च मत्स्यादान्सौनं वल्लूरं एव च ।५.१३।

बकं चैव बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम् ।
मत्स्यादान्विड्वराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः ५.१४।

यो यस्य मांसं अश्नाति स तन्मांसाद उच्यते ।
मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्मान्मत्स्यान्विवर्जयेत् । ५.१५ ।

पाठीनरोहितावाद्यौ नियुक्तौ हव्यकव्ययोः ।
राजीवान्सिंहतुण्डाश्च सशल्काश्चैव सर्वशः ।५.१६।

न भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान् ।
भक्ष्येष्वपि समुद्दिष्टान्सर्वान्पञ्चनखांस्तथा । । ५.१७ । ।

श्वाविधं शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा ।
भक्ष्यान्पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतह् ।५.१८ । ।

छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम् ।
पलाण्डुं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद्द्विजः। ५.१९ ।

अमत्यैतानि षड्जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत् ।
यतिचान्द्रायाणं वापि शेषेषूपवसेदहः।५.२०।

संवत्सरस्यैकं अपि चरेत्कृच्छ्रं द्विजोत्तमः ।
अज्ञातभुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विषेशतः ।५.२१।

यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थं अगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।५.२२।

बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् ।
पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ।५.२३।

यत्किं चित्स्नेहसंयुक्तं भक्ष्यं भोज्यं अगर्हितम् ।
तत्पर्युषितं अप्याद्यं हविःशेषं च यद्भवेत् ।५.२४।

चिरस्थितं अपि त्वाद्यं अस्नेहाक्तं द्विजातिभिः ।
यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया ।५.२५।

एतदुक्तं द्विजातीनां भक्ष्याभक्ष्यं अशेषतः ।
मांसस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने ।५.२६ ।

प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया ।
यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानां एव चात्यये ।५.२७।

प्राणस्यान्नं इदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् ।५.२८ ।

चराणां अन्नं अचरा दंष्ट्रिणां अप्यदंष्ट्रिणः ।
अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः ।५.२९ ।

नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि ।
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च । । ५.३० । ।

यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।
अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते । । ५.३१ । ।

क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतं एव वा ।
देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति । । ५.३२ । ।

नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः ।
जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेतस्तैरद्यतेऽवशः । । ५.३३ । ।

न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः ।
यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः ।५.३४ । 

नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् । । ५.३५ । ।

असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदा चन ।
मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिं आस्थितः। ५.३६।

कुर्याद्घृतपशुं सङ्गे कुर्यात्पिष्टपशुं तथा ।
न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुं इच्छेत्कदा चन।५.३७ । 

यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् ।
वृथापशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।५.३८।

यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा ।
यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।५.३९।

ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।५.४०।

मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि ।
अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः।५.४१ ।

एष्वर्थेषु पशून्हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः ।
आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमं गतिम् ।५.४२।

गृहे गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः ।
नावेदविहितां हिंसां आपद्यपि समाचरेत् ।५.४३ । 

या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।
अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ । । ५.४४।

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
स जीवांश्च मृतश्चैव न क्व चित्सुखं एधते । । ५.४५ । ।

यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति ।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखं अत्यन्तं अश्नुते । । ५.४६ । ।

यद्ध्यायति यत्कुरुते रतिं बध्नाति यत्र च ।
तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किं चन । । ५.४७ । ।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसं उत्पद्यते क्व चित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् । । ५.४८ । ।

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् । । ५.४९ । ।

न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् ।
न लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते । । ५.५० । ।

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः । । ५.५१ । ।

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुं इच्छति ।
अनभ्यर्च्य पितॄन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् । । ५.५२ । ।

वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् । । ५.५३ । ।

फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः ।
न तत्फलं अवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् । । ५.५४ । ।

मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः । । ५.५५ । ।

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । । ५.५६ । ।

प्रेतशुद्धिं प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च ।
चतुर्णां अपि वर्णानां यथावदनुपूर्वशः । । ५.५७ । ।

दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते ।
अशुद्धा बान्धवाः सर्वे सूतके च तथोच्यते । । ५.५८

दशाहं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।
अर्वाक्संचयनादस्थ्नां त्र्यहं एकाहं एव वा । । ५.५९ । ।

सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते ।
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने । । ५.६० । ।

यथेदं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।
जननेऽप्येवं एव स्यान्निपुणं शुद्धिं इच्छताम् । । ५.६१ । ।

सर्वेषां शावं आशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम् ।
सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः । । ५.६२[६१ं] । ।

निरस्य तु पुमाञ् शुक्रं उपस्पृस्यैव शुध्यति ।
बैजिकादभिसंबन्धादनुरुन्ध्यादघं त्र्यहम् । । ५.६३[६२ं] । ।

अह्ना चैकेन रात्र्या च त्रिरात्रैरेव च त्रिभिः ।
शवस्पृशो विशुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः । । ५.६४[६३ं] । ।

गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् ।
प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति । । ५.६५[६४ं] । ।

रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशुध्यति ।
रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला । । ५.६६[६५ं] । ।

नृणां अकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता ।
निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते । । ५.६७[६६ं] । ।

ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः ।
अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयनादृते । । ५.६८[६७ं] । ।

नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्योदकक्रिया ।
अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहं एव तु । । ५.६९[६८ं] । ।

नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया ।
जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापि कृते सति । । ५.७०[६९ं] । ।

सब्रह्मचारिण्येकाहं अतीते क्षपणं स्मृतम् ।
जन्मन्येकोदकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते । । ५.७१[७०ं] । ।

स्त्रीणां असंस्कृतानां तु त्र्यहाच्छुध्यन्ति बान्धवाः ।
यथोक्तेनैव कल्पेन शुध्यन्ति तु सनाभयः । । ५.७२[७१ं] । ।

अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम् ।
मांसाशनं च नाश्नीयुः शयीरंश्च पृथक्क्षितौ । । ५.७३[७२ं] । ।

संनिधावेष वै कल्पः शावाशौचस्य कीर्तितः ।
असंनिधावयं ज्ञेयो विधिः संबन्धिबान्धवैः । । ५.७४[७३ं] । ।

विगतं तु विदेशस्थं शृणुयाद्यो ह्यनिर्दशम् ।
यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत् । । ५.७५[७४ं] । ।

अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् ।
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति । । ५.७६[७५ं] । ।

निर्दशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च ।
सवासा जलं आप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः । । ५.७७[७६ं] । ।

बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते ।
सवासा जलं आप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति । । ५.७८[७७ं] । ।

अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी ।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम् । । ५.७९[७८ं] । ।

त्रिरात्रं आहुराशौचं आचार्ये संस्थिते सति ।
तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रं इति स्थितिः । । ५.८०[७९ं] । ।

श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् ।
मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च । । ५.८१[८०ं] । ।

प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः ।
अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नं अनूचाने तथा गुरौ । । ५.८२[८१ं] । ।

शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति । । ५.८३[८२ं] । ।

न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः ।
न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत् । । ५.८४[८३ं] । ।

दिवाकीर्तिं उदक्यां च पतितं सूतिकां तथा ।
शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति । । ५.८५[८४ं] । ।

आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने ।
सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः । । ५.८६[८५ं] । ।

नारं स्पृष्ट्वास्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति ।
आचम्यैव तु निःस्नेहं गां आलभ्यार्कं ईक्ष्य वा । । ५.८७[८६ं] । ।

आदिष्टी नोदकं कुर्यादा व्रतस्य समापनात् ।
समाप्ते तूदकं कृत्वा त्रिरात्रेणैव शुध्यति । । ५.८८[८७ं] । ।

वृथासंकरजातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम् ।
आत्मनस्त्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया । । ५.८९[८८ं] । ।


त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ।।9/94
यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है।
 

टिप्पणी :
ये चार (9/92-95) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. विषयविरोध- मनु के (9/1, 103) में विषय का निर्देश करने वाले श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय स्त्री-पुरुषों के संयोग-वियोगकालीन धर्मों के कथन का है । किन्तु स्वयंवर विवाह करने वाली कन्या का पिता, माता तथा भाई के धन को लेने पर चोर के समान दोष (92) ऋतुमती कन्या का हरण= लेने वाला पिता को शुल्क न देवें (93) विवाह की वर-वधू की आयु का निर्धारण (94) इत्यादि बातों का वर्णन प्रस्तुत विषय़ से भिन्न होने से विषय़-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने स्वयंवर-विवाह का ही विधान किया है और विवाह में माता-पिता आदि कन्या को अलंकारादि से भूषित करे, यह मनु ने (3/55,59) में विधान किया है किन्तु इस 9/92 में पितृ-ग्रह से मिलने वाले आभूषणों को लेने वाली कन्या को चोर कहना पूर्वोक्त विधान से विरुद्ध है । (ख) 93-94 श्लोकों में विवाह के लिये वर-वधू की आयु का निर्धारण मनु के विधान से विपरीत है । इन श्लोकों में कन्या के ऋतुमती होने पर पिता का स्वामित्व समाप्त होना माना है, परन्तु 9/90 श्लोक में मनु ने ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष तक विवाह का निषेध किया है और विवाह की आयु वर की 30 वर्ष और कन्या की 12 वर्ष, वर की 24 वर्ष और कन्या की आठ वर्ष मनु के (3/1-2) विधान से विरुद्ध है । मनु ने (4/1) में आयु के द्वितीय भाग को विवाह के लिये लिखा है । अतः वर-वधू का युवावस्था में विवाह करना चाहिये । 8 अथवा 12 वर्ष की कन्या युवति नहीं होती । ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद कन्या के विवाह का विधान किया है । (9/90) । अतः कन्या के विवाह की आयु का निर्धारण इन श्लोकों में मनु की मान्यता से विरुद्ध है ।
[
महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 1-13 नवाधिकद्विशततक (209)
अध्‍याय: वन पर्व (मार्कण्‍डेयसमस्‍या पर्व) महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद:-

 धर्म की सूक्ष्‍मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल तथा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मार्कण्‍डेय जी कहते हैं- सम्‍पूर्ण धर्मात्‍माओं में श्रेष्‍ठ युधिष्ठिर! तदनन्‍तर धर्मव्‍याध ने विप्रवर कौशिक से पुन: कुशलतापूर्वक कहना आरम्‍भ किया। व्‍याध बोला- वृद्ध पुरुषों का कहना है कि ‘धर्म के विषय में केवल वेद ही प्रमाण है।' यह ठीक है, तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्‍म है। उसके अनन्‍त भेद और अनेक शाखाएं हैं। (वेद के अनुसार सत्‍य धर्म और असत्‍य अधर्म है, परंतु) यदि किसी के प्राणों पर संकट आ जाये अथवा कन्‍या आदि का विवाह तै करना हो तो ऐसे अवसरों पर प्राणरक्षा आदि के लिये झूठ बोलने की आवश्‍यकता पड़ जाये, तो वहाँ असत्‍य से ही सत्‍य का फल मिलता है।


इसके विपरीत (यदि सत्‍यभाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां) सत्‍य से ही असत्‍य का फल मिलता है, जिससे परिणाम में प्राणियों का अत्यन्‍त हित होता हो, वह वास्‍तव में सत्‍य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो या दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्‍य होने पर भी वास्‍तव में असत्‍य एवं अधर्म है।[1] इस प्रकार विचार करके देखिये, धर्म की गति कितनी सूक्ष्‍म है। सज्‍जनशिरोमणे! मनुष्‍य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्‍य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है। मूर्ख मानव संकट की दशा में पड़ने पर देवताओं को बहुत कोसता है, उनकी भरपेट निन्‍दा करता है; किंतु वह यह नहीं समझता कि यह अपने ही कर्मों के दोष का परिणाम है। द्विजश्रेष्‍ठ! मूर्ख, शठ और चंचल चित्त वाला मनुष्‍य सदा ही भ्रमवंश सुख में दु:ख और दु:ख में सुख बुद्धि कर लेता है। उस समय बुद्धि, उत्तम नीति (शिक्षा) तथा पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते। यदि पुरुषार्थजनित कर्म का फल पराधीन न होता, तो जिसकी जो इच्‍छा होती, उसी को वह प्राप्‍त कर लेता। किंतु बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान मनुष्‍य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं, तो भी वे इच्‍छानुसार फल की प्राप्ति से वंचित ही देखे जाते हैं तथा दूसरा मनुष्‍य, जो निरन्‍तर जीवों की हिंसा के लिये उद्यत रहता है और सदा लोगों को ठगने में ही लगा रहता है, वह सुखपूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है। कोई बिना उद्योग किये चुपचाप बैठा रहता है और लक्ष्‍मी उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती है और कोई सदा काम करते रहने पर भी अपने उचित वेतन से भी वंचित रह जाता है (ऐसा देखा जाता है)। कितने ही दीन मनुष्‍य पुत्र की कामना रखकर देवताओं को पूजते और कठिन तपस्‍या करते हैं, तो भी उनके द्वारा गर्भ में स्‍थापित तथा दस मास तक माता के उदर में पालित होकर जो पुत्र पैदा होते हैं, वे कुलांगार निकल जाते हैं और दूसरे बहुत-से ऐसे भी हैं, जो अपने पिता के द्वारा जोड़कर रखे हुए धन-धान्‍य तथा भोग-विलास के प्रचुर साधनों के साथ पैदा होते हैं और उनकी प्राप्ति भी उन्‍हीं मांगलिक कृत्‍यों के अनुष्‍ठान से होती है। टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें↑ कर्णपर्व के उनहत्तरवें अध्याय में 46वें से 53वें श्लोकों में एक कथा आती है। कौशिक नाम का तपस्वी ब्राह्मण था। उसने यह व्रत ले लिया कि मैं सदा सत्य बोलूँगा। एक दिन कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के लिए उसके आश्रम के पास के वन में घुस गये। खोज करते हुए लुटेरों ने सत्यवादी कौशिक से पूछा। उनके पूछने पर कौशिक ने सत्य बात कह दी। पता लग जाने पर उन निर्दयी डाकुओं ने उन लोगों को पकड़कर मार डाला। इस प्रकार सत्य बोलने के कारण लोगों की हिंसा हो जाने से उस पाप के फलस्वरूप कौशिक को नरक में जाना पड़ा। संबंधित लेख [

: मार्कण्डेय उवाच। 3-212-1x
स तु विप्रमथोवाच धर्मव्याधो युधिष्ठिर।
यदहं ह्याचरे कर्म घोरमेतदसंशयम् ।। 3-212-1a
3-212-1b
विधिस्तु बलवान्ब्रह्मन्दुस्तरं हि पुरा कृतम्।
पुरा कृतस् पापस्य कर्मदोषो भवत्ययम् ।। 3-212-2a
3-212-2b
दोपस्यैतस्य वै ब्रह्मन्विघाते यत्नवानहम्।
विधिना हि हते पूर्वं निमित्तं घातको भवेत् ।। 3-212-3a
3-212-3b
निमित्तभूता हि वयं कर्मणोऽस्य द्विजोत्तम ।। 3-212-4a
येषां हतानां मांसानि विक्रीणीमो वयं द्विज।
तेषामपि भवेद्धर्म उपयोगेन भक्षणात्।
देवतातिथिभृत्यानां पितृणां चापि पूजनात् ।। 3-212-5a
3-212-5b
3-212-5c
ओषध्यो वीरुधश्चैव पशवो मृगपक्षिणः।
अन्नाद्यभूता लोकस्य इत्यपि श्रूयते श्रुतिः ।। 3-212-6a
3-212-6b
आत्ममांसप्रसादेन शिबिरौशीनरो नृपः।
स्वर्गं सुदुर्लभं प्राप्तः क्षमावान्द्विजसत्तम ।। 3-212-7a
3-212-7b
राज्ञो महानसे पूर्वं रन्तिदेवस्य वै द्विज।
[द्वे सहस्रे तु पच्छेते पशूनामन्वहं तदा।]
अहन्यहनि पच्येते द्वे सहस्रे गवां तथा ।। 3-212-8a
3-212-8b
3-212-8c
स मासं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः।
अतुला कीर्तिरभवन्नृपस्य द्विजसत्तम ।। 3-212-9a
3-212-9b
चातुर्मास्ये च पशवो वध्यन्त इति नित्यशः।
अग्नयो मांसकामाश्चइत्यपि श्रूयते श्रुतिः ।। 3-212-10a
3-212-10b


ADHYAY : 5 MANTRA : 39
 "यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः 
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यह प्रक्षिप्त श्लोक है और मनु स्मृति का भाग नहीं है .

यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः

_________
यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन्वध्यन्ते सततं द्विजैः।
संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुवन् ।।
3-212-11

आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः ।युद्धमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्मुखाः ॥

यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन् हन्यन्ते सततं द्विजैः ।    संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुवन् ॥

अनुवाद:-“युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक स्वर्ग प्राप्त होते हैं ।।

जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गये पशुओं को होती है।” अतः धर्म के लिए युद्धभूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें निहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है ।और यज्ञ में बलि दिये गये पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकास प्रक्रिया के ही तुरन्त मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है 

_________
 

श्री महाभारत    पर्व 9: शल्य पर्व    अध्याय 41: अवाकीर्ण और यायात तीर्थकी महिमाके प्रसंगमें दाल्भ्यकी कथा और ययातिके यज्ञका वर्णन  

श्लोक 1-3:  वैशम्पायनजी कहते हैं—राजन्! ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति करानेवाले उस तीर्थसे प्रस्थित होकर यदुनन्दन बलरामजी ‘अवाकीर्ण’ तीर्थमें गये, जहाँ आश्रममें रहते हुए महातपस्वी धर्मात्मा एवं प्रतापी दलभपुत्र बकने महान् क्रोधमें भरकर घोर तपस्याद्वारा अपने शरीरको सुखाते हुए विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रका होम कर दिया था ॥ १-२ ॥
 
श्लोक 3-6:  पूर्वकालमें नैमिषारण्यनिवासी ऋषियोंने बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले एक सत्रका आरम्भ किया था। जब वह पूरा हो गया, तब वे सब ऋषि विश्वजित् नामक यज्ञके अन्तमें पांचाल देशमें गये। वहाँ जाकर उन मनस्वी मुनियोंने उस देशके राजासे दक्षिणाके लिये धनकी याचना की ॥ राजन्! वहाँ महर्षि योंने पांचालोंसे इक्कीस बलवान् और नीरोग बछड़े प्राप्त किये। तब उनमेंसे दल्भपुत्र बकने अन्य सब ऋषियोंसे कहा—‘आपलोग इन पशुओंको बाँट लें। मैं इन्हें छोड़कर किसी श्रेष्ठ राजासे दूसरे पशु माँग लूँगा’ ॥ ५ ॥
 
श्लोक 6-7:  नरेश्वर! उन सब ऋषियोंसे ऐसा कहकर वे प्रतापी उत्तम ब्राह्मण राजा धृतराष्ट्रके घरपर गये ॥ ६ ॥
 
श्लोक 7-9:  निकट जाकर दल्भ्यने कौरवनरेश धृतराष्ट्रसे पशुओंकी याचना की। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र कुपित हो उठे। उनके यहाँ कुछ गौएँ दैवेच्छासे मर गयी थीं। उन्हींको लक्ष्य करके राजाने क्रोधपूर्वक कहा—‘ब्रह्मबन्धो! यदि पशु चाहते हो तो इन मरे हुए पशुओंको ही शीघ्र ले जाओ’ ॥ ७-८ ॥
 
श्लोक 9-10:  उनकी वैसी बात सुनकर धर्मज्ञ ऋषिने चिन्तामग्न होकर सोचा—‘अहो! बड़े खेदकी बात है कि इस राजाने भरी सभामें मुझसे ऐसा कठोर वचन कहा है’ ॥ ९ ॥
 
श्लोक 10-11:  दो घड़ीतक इस प्रकार चिन्ता करके रोषमें भरे हुए द्विजश्रेष्ठ दाल्भ्यने राजा धृतराष्ट्रके विनाशका विचार किया ॥१०॥
 
श्लोक 11- 12:  श्लो  वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे ।११। 
श्लोक 12-13:  महाराज! सरस्वतीके अवाकीर्णतीर्थमें अग्नि प्रज्वलित करके महातपस्वी दल्भपुत्र बक उत्तम नियमका आश्रय ले उन मृत पशुओंके मांसोंद्वारा ही उनके राष्ट्रका हवन करने लगे ॥ १२-१३ ॥
 
श्लोक 14:  राजन् ! वह भयंकर यज्ञ जब विधिपूर्वक आरम्भ हुआ, तबसे धृतराष्ट्रका राष्ट्र क्षीण होने लगा ॥ १४ ॥
 
श्लोक 15-16:  प्रभो! जैसे बड़ा भारी वन कुल्हाड़ीसे काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उस राजाका राज्य क्षीण होता हुआ भारी आफतमें फँस गया, वह संकटग्रस्त होकर अचेत हो गया ॥ १५ ॥
 
श्लोक 16-17:  राजन्! अपने राष्ट्रको इस प्रकार संकटमग्न हुआ देख वे नरेश मन-ही-मन बहुत दुःखी हुए और गहरी चिन्तामें डूब गये। फिर ब्राह्मणोंके साथ अपने देशको संकटसे बचानेका प्रयत्न करने लगे ॥ १६-१७ ॥
 
श्लोक 18:  अनघ! जब किसी प्रकार भी वे भूपाल अपने राष्ट्रका कल्याण-साधन न कर सके और वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता ही चला गया, तब राजा और उन ब्राह्मणोंको बड़ा खेद हुआ ॥ १८ ॥
 
श्लोक 19:  नरेश्वर जनमेजय! जब धृतराष्ट्र अपने राष्ट्रको उस विपत्तिसे छुटकारा दिलानेमें समर्थ न हो सके, तब उन्होंने प्राश्निकों (प्रश्न पूछनेपर भूत, वर्तमान और भविष्यकी बातें बतानेवालों)-को बुलाकर उनसे इसका कारण पूछा ॥ १९ ॥
 
श्लोक 20:  तब उन प्राश्निकोंने कहा—‘आपने पशुके लिये याचना करनेवाले बक मुनिका तिरस्कार किया है; इसलिये वे मृत पशुओंके मांसोंद्वारा आपके इस राष्ट्रका विनाश करनेकी इच्छासे होम कर रहे हैं ॥ २० ॥
 
श्लोक 21:  ‘उनके द्वारा आपके राष्ट्रकी आहुति दी जा रही है; इसलिये इसका महान् विनाश हो रहा है। यह सब उनकी तपस्याका प्रभाव है, जिससे आपके इस देशका इस समय महान् विलय होने लगा है ॥ २१ ॥
 
श्लोक 22:  ‘भूपाल! सरस्वतीके कुंजमें जलके समीप वे मुनि विराजमान हैं, आप उन्हें प्रसन्न कीजिये।’ तब राजाने सरस्वतीके तटपर जाकर बक मुनिसे इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥
 
श्लोक 23-24:  भरतश्रेष्ठ! वे पृथ्वीपर माथा टेक हाथ जोड़कर बोले—‘भगवन्! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मुझ दीन, लोभी और मूर्खतासे हतबुद्धि हुए अपराधीके अपराधको क्षमा कर दें। आप ही मेरी गति हैं। आप ही मेरे रक्षक हैं। आप मुझपर अवश्य कृपा करें’ ॥ २३-२४ ॥
 
श्लोक 25:  राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार शोकसे अचेत होकर विलाप करते देख उनके मनमें दया आ गयी और उन्होंने राजाके राज्यको संकटसे मुक्त कर दिया ॥ २५ ॥
 
श्लोक 26-27:  ऋषि क्रोध छोड़कर राजापर प्रसन्न हुए और पुनः उनके राज्यको संकटसे बचानेके लिये आहुति देने लगे ॥ इस प्रकार राज्यको विपत्तिसे छुड़ाकर राजासे बहुत-से पशु ले प्रसन्नचित्त हुए महर्षि दाल्भ्य पुनः नैमिषारण्यको ही चले गये ॥ २७ ॥
 
श्लोक 28-30:  राजन्! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थचित्त हो अपने समृद्धिशाली नगरको ही लौट आये ॥ महाराज! उसी तीर्थमें उदारबुद्धि बृहस्पतिजीने असुरोंके विनाश और देवताओंकी उन्नतिके लिये मांसोंद्वारा आभिचारिक यज्ञका अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्धमें विजयसे सुशोभित होनेवाले देवताओंने उन्हें मार भगाया ॥ २९-३० ॥
 
श्लोक 31-32:  पृथ्वीनाथ! महायशस्वी महाबाहु बलरामजी उस तीर्थमें भी ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक हाथी, घोड़े, खच्चरियोंसे जुते हुए रथ, बहुमूल्य रत्न तथा प्रचुर धन-धान्यका दान करके वहाँसे यायात तीर्थमें गये ॥ ३१-३२ ॥
 
श्लोक 33:  महाराज! वहाँ पूर्वकालमें नहुषनन्दन महात्मा ययातिने यज्ञ किया था, जिसमें सरस्वतीने उनके लिये दूध और घीका स्रोत बहाया था ॥ ३३ ॥
 
श्लोक 34:  पुरुषसिं ह भूपाल ययाति वहाँ यज्ञ करके प्रसन्नतापूर्वक ऊर्ध्वलोकमें चले गये और वहाँ उन्हें बहुत-से पुण्यलोक प्राप्त हुए ॥ ३४ ॥
 
श्लोक 35-36:  शक्तिशाली राजा ययाति जब वहाँ यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनकी उत्कृष्ट उदारताको दृष्टिमें रखकर और अपने प्रति उनकी सनातन भक्ति देख सरस्वतीने उस यज्ञमें आये हुए ब्राह्मणोंको, जिसने अपने मनसे जिन-जिन भोगोंको चाहा, वे सभी मनोवांछित भोग प्रदान किये ॥ ३५ ॥
 
श्लोक 36-37:  राजाके यज्ञमण्डपमें बुलाकर आया हुआ जो ब्राह्मण जहाँ कहीं ठहर गया, वहीं उसके लिये सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वतीने पृथक्-पृथक् गृह, शय्या, आसन, षड् रस भोजन तथा नाना प्रकारके दानकी व्यवस्था की ॥ ३६-३७ ॥
 
श्लोक 38:  उन ब्राह्मणोंने यह समझकर कि राजाने ही वह उत्तम दान दिया है, अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा ययातिको शुभाशीर्वाद दे उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ॥ ३८ ॥
 
श्लोक 39:  उस यज्ञकी सम्पत्तिसे देवता और गन्धर्व भी बड़े प्रसन्न हुए थे। मनुष्योंको तो वह यज्ञ- वैभव देखकर महान् आश्चर्य हुआ था ॥ ३९ ॥
 
श्लोक 40:  तदनन्तर महान् धर्म ही जिनकी ध्वजा है और जिनकी पताकापर ताड़का चिह्न सुशोभित है, वे महात्मा, कृतात्मा, धृतात्मा तथा जितात्मा बलरामजी, जो प्रतिदिन बड़े- बड़े दान किया करते थे, वहाँसे वसिष्ठापवाह नामक तीर्थमें गये, जहाँ सरस्वतीका वेग बड़ा भयंकर है ॥ ४० ॥

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