बुधवार, 19 जनवरी 2022

दास = त्राता, दाता और दानी । और आर्य कृषक, दाता और योद्धा ।







"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥ (ऋग्वेद १०/६२/१०
)

अनुवाद-

और दान और रक्षा करने वाले वे दोनों , कल्याण दृष्टि वाले ,गायों से घिरे हुए,  हर प्रकार से गायों की परिचर्या करने  के लिए  यदु और तुर्वसु की हम सब प्रशंसा करते हैं ।१०।

उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । मामहे ॥१०।।

ऋग्वेद ऋचाओं  का वेद है जिसमें ईश्वरीय सत्ताओं का विभिन्न प्राकृतिक और दैवीय रूपों में स्तवन किया गया है। यह एक प्रकार से मुक्तक काव्य की शैली है । 

इसमें ऐतिहासिक पात्रों का वर्णन भी कहीं भी प्रबन्धात्मक शैली में नहीं है । 

इस लिए उपर्युक्त सूक्त में सायण द्वारा जो नौवीं (ninth ) ऋचा के सावर्णि मनु का अन्वय( सम्बन्ध) दसवीं ऋचा से को यदु और तुर्वसु सम्बन्धित करके  किया गया है; वह भी अर्थ की खींच-तान ही करना है।

देखें नवम् ऋचा-

न तम॑श्नोति॒ कश्च॒न दि॒व इ॑व॒ सान्वा॒रभ॑म् ।सा॒व॒र्ण्यस्य॒ दक्षि॑णा॒ वि सिन्धु॑रिव पप्रथे ॥९।।

मूलार्थ- नहीं उनको व्याप्त करता है कोई " स्वर्ग के समान सूर्य से आरम्भ होकर सावर्णि की दक्षिणा सिन्धु के समान विस्तारित होती है।९।

पदपाठ-

न । तम् । अश्नोति । कः । चन । दिवःऽइव । सानु । आऽरभम् ।सावर्ण्यस्य । दक्षिणा । वि । सिन्धुःऽइव । पप्रथे ॥९।

“तं =सावर्णिं मनुं 

“कश्चन =कश्चिदपि 

“आरभम्= आरब्धुं स्वकर्मणा 

“न “अश्नोति =न व्याप्नोति ।

यथा मनुः प्रयच्छति तथान्यो दातुं न शक्नोतीत्यर्थः । कथं स्थितम् ।

 “दिव इव= द्युलोकस्य 

“सानु =समुच्छ्रितं तेजसा कैश्चिदप्यप्रधृष्यमादित्यमिव स्थितम् । आरभम् । ‘ शकि णमुल्कमुलौ ' (पा. सू. ३. ४. १२) इति कमुल्। तस्य 

“सावर्ण्यस्य =मनोरियं गवादिदक्षिणा 

“सिन्धुरिव =स्यन्दमाना नदीव पृथिव्यां 

“पप्रथे= विप्रथते । विस्तीर्णा भवति ॥

 सायण का अर्थ-

कोई भी (व्यक्ति ) अपने कर्म के द्वारा आरम्भ करने के लिए उन सावर्णि मनु को व्याप्त नहीं करता है। अर्थात् जिस प्रकार मनु धन प्रदान करते हैं उस प्रकार धन देने में कोई अन्य समर्थ नहीं होता  वह किस प्रकार स्थित है ? वह द्युलोक को ऊँचे भाग में किसी को भी द्वारा पराजित न होने वाले सूर्य के समान स्थित हैं उन सावर्णि मनु की वह गायों आदि की दक्षिणा वहती हुई नदी के समान पृथ्वी पर फैली है ।

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उत । दासा । परिऽविषे । स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी । गोऽपरीणसा । यदुः । तुर्वः । च । ममहे ॥१०।

और दानी और त्राता वे दोनों चारो और से व्याप्त सौभाग्य शाली  स्मयन दृष्टि से देखने वाले सौभाग्य शाली । गायों से घिरे हुए जो यदु और तुर्वसु हैं-(वैदिक 'मामहे' का लौकिक रूप 'महामहे') -हम उनकी स्तुति अथवा पूजा करते हैं ।१०।

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:

Sanskrit dic-दिश्- "point out, show;-इंगित करना, दिखाना;

" Greek  deiknynai (डिक्निनै)   "to show, to prove," dike "custom, usage;

" Latin dicere डाइसेरे  "speak, tell, say," digitus "finger," 

Old High German zeigon, 

German zeigen "to show,"

 Old English teon "to accuse," tæcan उपदेश- "to teach."

यह इसके अस्तित्व के लिए/साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है:

संस्कृत दिक- "पॉइंट आउट, शो;

" ग्रीक deiknynai "दिखाने के लिए, साबित करने के लिए," डाइक "कस्टम, उपयोग;

"लैटिन डाइसेरे" बोलो, बताओ, कहो," डिजिटस "उंगली,"

ओल्ड हाई जर्मन ज़ीगॉन,

जर्मन ज़ीजेन "दिखाने के लिए,"

पुरानी अंग्रेज़ी तेन "आरोप लगाने के लिए," tæcan "सिखाने के लिए।"

सायण का अन्तर्विरोधी भाष्य-

१-“उत= अपि च 

२"स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ 

३“गोपरीणसा =गोपरीणसौ -गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 

४{“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् }स्थितौ तेनाधिष्ठितौ 

५-“यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी  

६-“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय ( परिविष-का अर्थ सायण ने भोजन किया है जबकि विष्- धातु के अन्य प्रसिद्ध अर्थ भी धातु पाठ मैं हैं-


७-"ममहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् जबकि 'मामहे' क्रिया पद मूल ऋचा नें है जो लौकिक संस्कृत को मह-पूजायाम्-धातु से निष्पन्न आत्मनेपदी उत्तम परुष बहुवचन के 'महामहे'' का वैदिक रूप ''मामहे ही है। अत: कहीं कहीं ऋग्वेद या भाष्य सायण द्वारा सम्यक् और अपेक्षित नहीं हुआ है।

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" अपना-भाष्य"

(स्मद्दिष्टीप्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ स्मद्दिष्टीन् प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसागवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  परीणसा बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासादातारौ दासृ दाने” [भ्वादि०] “दासं दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ 

(उतअपि तस्य ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे) स्तुमहे। ॥१०॥

 सायण का अर्थ-

और भी कल्याण कारी कार्यों का आदेश देने वाले बहुत सी गायों से युक्त दास के समान (राजर्षि मनु के) द्वारा अधिकृत (अधीन) यदु और तुर्वसु नामक दोनों इन सावर्णि मनु के लिए भोजन देते हैं।ऋग्वेद १०/६२/१०

उपर्युक्त ऋचा में सायण का भाष्य अन्तर्विरोध प्रकट करता है । दासा शब्द "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास या अर्थ दानी और रक्षक ( त्राता) है ।


सायण ने अन्यत्र इसी दास का अर्थ उसीकाल क्रम में दास कि अर्थ उपक्षयितुर– विनाशक किया है -

 "य ऋक्षादंहसो मुचद्यो वार्यात्सप्त सिन्धुषु ।वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनमः ॥२७॥ ऋग्वेद ८/२४/२७ दास कि अर्थ "दासस्य= उपक्षपयितुरसुरस्य “ के रूप में उपक्षय= (नाश ) करने वाले असुर से किया है ।

यह भी सत्य नहीं कि असुर कि वैदिक अर्थ विनाशक अथवा नकारात्मक हो ।

(वैदिक निघण्टु में असुर:= १-सोम।२-वरुण।३-मेघ।४-दात्रारिव्याप्त्यम्।५प्रज्ञावान्।६-बलवान्-प्राणवान्। ७-ऋत्विज। अर्थ हैं ।)



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य ऋक्षा॒दंह॑सो मु॒चद्यो वार्या॑त्स॒प्त सिन्धु॑षु।

वध॑र्दा॒सस्य॑ तुविनृम्ण नीनमः॥२७।।

ऋग्वेद ८/२४/२७/

पदपाठ-

यः।ऋक्षात् ।अंहसः।मुचत्।यः।वा।आर्यात्।सप्त। सिन्धुषु।वधः। दासस्य।तुविऽनृम्ण।नीनमः॥२७।।

पूर्वोऽर्धर्चः= परोक्षकृतः।

“यः= इन्द्रः “ऋक्षात् । ऋन् =मनुष्यान् क्षणोति । क्षणोतेरौणादिको डप्रत्ययः । तस्मात् रक्षसो जातात् 

“अंहसः= पापरूपादुपद्रवात् 

"मुचत्= मुञ्चति । राक्षस एनं न बाधते किं पुनस्तं हन्तीत्यर्थः । अपि च

 “यः= इन्द्रः “सप्त “सिन्धुषु गङ्गाद्यासु नदीषु । यद्वा । सप्त सर्पणशीलासु सिन्धुषु । तत्कूलेष्वित्यर्थः ।

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  गङ्गायां घोष इतिवत् । 

तेषु वर्तमानानां  आभीराणां  ( गंगा के किनारे अहीरों की वस्ती)“ (परन्तु सायण ने घोष का नया अर्थ स्त्रोता कर दिया है)  – स्तोतॄणाम् आर्यात् धनादिकं प्रेरयेत् ।' ऋ गतिप्रापणयोः '। आशीर्लिङि ‘गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः' (पा. सू. ७. ४. २९) इति गुणः । ‘बहुलं छन्दसि' इति लिङयप्याडागमः । अथ प्रत्यक्षः। हे "तुविनृम्ण बहुधनेन्द्र ("दासस्य उपक्षपयितुरसुरस्य )

 “वधः हननसाधनमायुधं “नीनमः नमय ॥


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सम्यग्भाष्य-

( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।

२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।

३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 

४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 

पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

यद्यपि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में बहुतायत से श्रेष्ठ अर्थों ते सूचक थे ।जैसे दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान्/ और मेधावान्।

५-स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।

६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।

७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।

आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)

आत्मनेपदी लट् लकार-★(वर्तमान) मह्=पूजायाम् "
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःमहतेमहेतेमहन्ते
मध्यमपुरुषःमहसेमहेथेमहध्वे
उत्तमपुरुषःमहेमहावहेमहामहे

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को न्वत्र॑ मरुतो मामहे व॒: प्र या॑तन॒ सखीँ॒रच्छा॑ सखायः। मन्मा॑नि चित्रा अपिवा॒तय॑न्त ए॒षां भू॑त॒ नवे॑दा म ऋ॒ताना॑म्॥(ऋग्वेद-१.१६५.१३)

पदपाठ-

कः। नु। अत्र॑। म॒रु॒तः॒। म॒म॒हे॒। वः॒। प्र। या॒त॒न॒। सखी॒न्। अच्छ॑। स॒खा॒यः॒। मन्मा॑नि। चि॒त्राः॒। अ॒पि॒ऽवा॒तय॑न्तः। ए॒षाम्। भू॒त॒। नवे॑दाः। मे॒। ऋ॒ताना॑म् ॥ १.१६५.१३

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हे मरुतः युष्मान् अत्र लोके “को "नु खलु मर्त्यः

(मामहे -पूजयामि)" । हे "सखायः सर्वस्य सखिवत्प्रियकारिणः सन्तः "सखीन् हविष्प्रदानेन सखिभूतान् यजमानान् "अच्छ आभिमुख्येन प्राप्तुं “प्र “यातन गच्छत । हे "चित्राः चायनीयाः यूयं "मन्मानि मननीयानि धनानि "अपिवातयन्तः संपूर्णं प्रापयन्तः "भूत भवत । किंच "मे मदीयानाम् "एषाम् “ऋतानाम् अवितथानां “नवेदाः भूत ज्ञातारो भवत ।।

हे (मरुतः)  ! (अत्र) इस स्थान में (वः) तुम लोगों को (कः) कौन (नु) शीघ्र (मामहे) वयं स्तुमहे  हम स्तुति करते हैं। हे (सखायः) मित्रो ! तुम (सखीन्) अपने मित्रों को (अच्छ) अच्छे प्रकार (प्र, यातन) प्राप्त होओ। हे (चित्राः)  चेतनावानों (मन्मानि) मानों में (अपिवातयन्तः) शीघ्र पहुँचाते हुए तुम (मे) मेरे (एषाम्) इन (ऋतानाम्) सत्य व्यवहारों के बीच (नवेदाः) नवेद अर्थात् जिनमें दुःख नहीं है ऐसे (भूत) हूआ ॥ १३ ॥

दास्(भ्वादिः)
परस्मैपदी
लट्(वर्तमान)
एकवचनम्द्विवचनम्बहुवचनम्
प्रथमपुरुषःदासतिदासतःदासन्ति
मध्यमपुरुषःदाससिदासथःदासथ
उत्तमपुरुषःदासामिदासावःदासामः

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मा चिदन्यद्वि शंसत सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित्स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत ॥१॥

अवक्रक्षिणं वृषभं यथाजुरं गां न चर्षणीसहम् ।
विद्वेषणं संवननोभयंकरं मंहिष्ठमुभयाविनम् ॥२॥

यच्चिद्धि त्वा जना इमे नाना हवन्त ऊतये ।
अस्माकं ब्रह्मेदमिन्द्र भूतु तेऽहा विश्वा च वर्धनम्।३॥

वि तर्तूर्यन्ते मघवन्विपश्चितोऽर्यो विपो जनानाम् ।
उप क्रमस्व पुरुरूपमा भर वाजं नेदिष्ठमूतये ॥४॥

महे चन त्वामद्रिवः परा शुल्काय देयाम् ।
न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ॥५॥


वस्याँ इन्द्रासि मे पितुरुत भ्रातुरभुञ्जतः ।
माता च मे छदयथः समा वसो वसुत्वनाय राधसे ॥६॥


क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः ।
अलर्षि युध्म खजकृत्पुरंदर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥७॥


प्रास्मै गायत्रमर्चत वावातुर्यः पुरंदरः ।
याभिः काण्वस्योप बर्हिरासदं यासद्वज्री भिनत्पुरः ॥८॥


ये ते सन्ति दशग्विनः शतिनो ये सहस्रिणः ।
अश्वासो ये ते वृषणो रघुद्रुवस्तेभिर्नस्तूयमा गहि ॥९॥


आ त्वद्य सबर्दुघां हुवे गायत्रवेपसम् ।
इन्द्रं धेनुं सुदुघामन्यामिषमुरुधारामरंकृतम् ॥१०॥


यत्तुदत्सूर एतशं वङ्कू वातस्य पर्णिना ।
वहत्कुत्समार्जुनेयं शतक्रतुः त्सरद्गन्धर्वमस्तृतम् ॥११॥


य ऋते चिदभिश्रिषः पुरा जत्रुभ्य आतृदः ।
संधाता संधिं मघवा पुरूवसुरिष्कर्ता विह्रुतं पुनः ॥१२॥


मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव ।
वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥१३॥


अमन्महीदनाशवोऽनुग्रासश्च वृत्रहन् ।
सकृत्सु ते महता शूर राधसा अनु स्तोमं मुदीमहि ॥१४॥


यदि स्तोमं मम श्रवदस्माकमिन्द्रमिन्दवः ।
तिरः पवित्रं ससृवांस आशवो मन्दन्तु तुग्र्यावृधः ॥१५॥


आ त्वद्य सधस्तुतिं वावातुः सख्युरा गहि ।
उपस्तुतिर्मघोनां प्र त्वावत्वधा ते वश्मि सुष्टुतिम् ॥१६॥


सोता हि सोममद्रिभिरेमेनमप्सु धावत ।
गव्या वस्त्रेव वासयन्त इन्नरो निर्धुक्षन्वक्षणाभ्यः ॥१७॥


अध ज्मो अध वा दिवो बृहतो रोचनादधि ।
अया वर्धस्व तन्वा गिरा ममा जाता सुक्रतो पृण ॥१८॥


इन्द्राय सु मदिन्तमं सोमं सोता वरेण्यम् ।
शक्र एणं पीपयद्विश्वया धिया हिन्वानं न वाजयुम् ॥१९॥


मा त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं गिरा ।
भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥२०॥


मदेनेषितं मदमुग्रमुग्रेण शवसा ।
विश्वेषां तरुतारं मदच्युतं मदे हि ष्मा ददाति नः ॥२१॥


शेवारे वार्या पुरु देवो मर्ताय दाशुषे ।
स सुन्वते च स्तुवते च रासते विश्वगूर्तो अरिष्टुतः ॥२२॥


एन्द्र याहि मत्स्व चित्रेण देव राधसा ।
सरो न प्रास्युदरं सपीतिभिरा सोमेभिरुरु स्फिरम् ॥२३॥


आ त्वा सहस्रमा शतं युक्ता रथे हिरण्यये ।
ब्रह्मयुजो हरय इन्द्र केशिनो वहन्तु सोमपीतये ॥२४॥


आ त्वा रथे हिरण्यये हरी मयूरशेप्या ।
शितिपृष्ठा वहतां मध्वो अन्धसो विवक्षणस्य पीतये ॥२५॥


पिबा त्वस्य गिर्वणः सुतस्य पूर्वपा इव ।
परिष्कृतस्य रसिन इयमासुतिश्चारुर्मदाय पत्यते ॥२६॥


य एको अस्ति दंसना महाँ उग्रो अभि व्रतैः ।
गमत्स शिप्री न स योषदा गमद्धवं न परि वर्जति ॥२७॥


त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ।
त्वं भा अनु चरो अध द्विता यदिन्द्र हव्यो भुवः ॥२८॥


मम त्वा सूर उदिते मम मध्यंदिने दिवः ।
मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥२९॥


स्तुहि स्तुहीदेते घा ते मंहिष्ठासो मघोनाम् ।
निन्दिताश्वः प्रपथी परमज्या मघस्य मेध्यातिथे ॥३०॥


____________________________________(आ यदश्वान्वनन्वतः श्रद्धयाहं रथे रुहम् ।  उत वामस्य वसुनश्चिकेतति यो अस्ति याद्वः पशुः ॥३१॥

(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥

"अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥

"अन्वस्य स्थूरं ददृशे पुरस्तादनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः 
शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं बिभर्षि ॥३४॥


 "सायणभाष्यम्"

          ॥अथाष्टमं मण्डलम्॥

अष्टमे मण्डले दशानुवाकाः । तत्र प्रथमेऽनुवाके पञ्च सूक्तानि । तेषु ‘मा चिदन्यत्' इति चतुस्त्रिंशदृचं प्रथमं सूक्तम् । अत्रानुक्रम्यते–' मा चिच्चतुस्त्रिंशन्मेधातिथिमेध्यातिथी ऐन्द्रं बार्हतं द्विप्रगाथादि द्वित्रिष्टुबन्तमाद्यं द्वृचं प्रगाथोऽपश्यत्स घौरः सन्भ्रातुः कण्वस्य पुत्रतामगात्(बृहद्देवता ६.३५ ) प्लायोगिश्चासङ्गो यः स्त्री भूत्वा पुमानभूत्स मेध्यातिथये दानं दत्त्वा स्तुहि स्तुहीति चतसृभिरात्मानं तुष्टाव पत्नी चास्याङ्गिरसी शश्वती पुंस्त्वमुपलभ्यैनं प्रीतान्त्यया तुष्टाव ' इति । 

अस्यायमर्थः । अस्य सूक्तस्य मेधातिथिमेध्यातिथिनामानौ द्वावृषी तौ च कण्वगोत्रौ ।

 ऋषिश्चानुक्तगोत्रः प्राङ्मत्स्यात् काण्वः' इति परिभाषितत्वात् ।

 आद्यस्य द्वृचस्य तु घोरस्य पुत्रः स्वकीयभ्रातुः कण्वस्य पुत्रतां प्राप्तत्वात् काण्वः प्रगाथाख्य ऋषिः । 

प्लयोगनाम्नो राज्ञः पुत्र आसङ्गाभिधानो राजा देवशापात् स्त्रीत्वमनुभूय पश्चात्तपोबलेन मेधातिथेः प्रसादात् पुमान् भूत्वा तस्मै बहु धनं दत्त्वा स्वकीयमन्तरात्मानं दत्तदानं स्तुहि स्तुहीत्यादिभिश्चतसृभिर्ऋग्भिरस्तौत् । अतस्तासामासङ्गाख्यो राजा ऋषिः । 

अस्यासङ्गस्य भार्याङ्गिरसः सुता शश्वत्याख्या भर्तुः पुंस्त्वमुपलभ्य प्रीता सती स्वभर्तारम् ‘अन्वस्य स्थूरम् ' इत्यनया स्तुतवती । 

अतस्तस्या ऋचः शश्वत्यृषिका । अन्त्ये द्वे त्रिष्टुभौ द्वितीयाचतुर्थ्यौ सतोबृहत्यौ शिष्टा बृहत्यः । कृत्स्नस्य सूक्तस्येन्द्रो देवता । 

‘ स्तुहि स्तुहि' इत्याद्याश्चतस्र आत्मकृतस्य दानस्य स्तूयमानत्वात्तद्देवताकाः । ‘ अन्वस्य ' इत्यस्या आसङ्गाख्यो राजा देवता ।

 'या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायात् । महाव्रते निष्केवल्ये बार्हततृचाशीतावादित एकोनत्रिंशद्विनियुक्ताः।

 तथैव पञ्चमारण्यके सूत्रितं--- ‘मा चिदन्यद्वि शंसतेत्येकया न त्रिंशत् ' (ऐ. आ. ५. २. ४) इति । चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने मैत्रावरुणस्य ‘मा चिदन्यत्' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियः प्रगाथः । सूत्रितं च---' मा चिदन्यद्वि शंसत यच्चिद्धि त्वा जना इम इति स्तोत्रियानुरूपौ ' ( आश्व. श्रौ. ७.४ ) इति । ग्रावस्तोत्रेऽप्याद्या विनियुक्ता । सूत्रितं च- आ तू न इन्द्र क्षुमन्तं मा चिदन्यद्वि शंसत' (आश्व. श्रौ. ५.१२ ) इति । 

उपकरणोत्सर्जनयोः' मण्डलादिहोमेऽप्येषा। सूत्र्यते हि-' मा चिदन्यदाग्ने याहि स्वादिष्ठया ' इति 

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मा । चित् । अन्यत् । वि । शंसत । सखायः । मा । रिषण्यत ।इन्द्रम् । इत् । स्तोत । वृषणम् । सचा । सुते । मुहुः । उक्था । च । शंसत ॥१

हे “सखायः समानख्यानाः स्तोतारः इन्द्रस्तोत्रात् “अन्यत् स्तोत्रं “मा “चित् "वि “शंसत मैवोच्चारयत । “मा “रिषण्यत मा हिंसितारो भवत । अन्यदीयस्तोत्रोच्चारणेन वृथोपक्षीणा मा भवत । "सुते अभिषुते सोमे “वृषणं कामानां वर्षितारम् “इन्द्रमित् इन्द्रमेव हे प्रस्तोत्रादयः “सचा सह संघीभूय “स्तोत स्तुत । हे प्रशास्त्रादयः “उक्था “च उक्थानि शस्त्राणि चेन्द्रविषयाणि यूयं “मुहुः पुनःपुनः “शंसत ॥

पदपाठ-

अवऽक्रक्षिणम् । वृषभम् । यथा । अजुरम् । गाम् । न । चर्षणिऽसहम् ।विऽद्वेषणम् । सम्ऽवनना । उभयम्ऽकरम् । मंहिष्ठम् । उभयाविनम् ॥२

“वृषभं “यथा वृषभमिव “अवक्रक्षिणम् अवकर्षणशीलं शत्रूणां हिंसितारम् “अजुरं जरारहितमहिंसितं वा “गां “न गामिव वृषमिव “चर्षणीसहं चर्षणीनां मनुष्याणां शत्रुभूतानामभिभवितारं “विद्वेषणं विद्वेष्टारं शत्रूणां “संवनना संवननं सम्यक्संभजनीयं स्तोतृभिः “उभयंकरं निग्रहानुग्रहयोरुभयोः कर्तारं “मंहिष्ठं दातृतमम् “उभयाविनं दिव्यपार्थिवलक्षणेनोभयविधधनेनोपेतम् । यद्वा । स्थावरजङ्गमरूपेण द्विप्रकारेण रक्षितव्येनोपेतम् । अथवोभयविधैः स्तोतृभिर्यष्टृभिश्चोपेतम् । एवंविधमिन्द्रमित् स्तोतेत्यन्वयः ॥


चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने ‘ यच्चिद्धि त्वा ' इति प्रशास्तुर्वैकल्पिकोऽनुरूपः प्रगाथः । सूत्रं तूदाहृतम् ।।

पदपाठ-

यत् । चित् । हि । त्वा । जनाः । इमे । नाना । हवन्ते । ऊतये ।अस्माकम् । ब्रह्म । इदम् । इन्द्र । भूतु । ते । ।अहा। विश्वा । च । वर्धनम् ॥३।

“इमे दृश्यमानाः सर्वे “जनाः हे इन्द्र त्वाम् “ऊतये रक्षणाय तर्पणाय वा “नाना पृथक्पृथक् “यच्चित् यद्यपि “हवन्ते स्तुवन्ति । “हि इति पूरणः । तथापि “अस्माकम् “इदं “ब्रह्म स्तोत्रमेव हे “इन्द्र “ते तव “वर्धनं वर्धकं “भूतु भवतु । न केवलमिदानीमेव अपि तु “विश्वा “अहा सर्वाण्यहानि सर्वेष्वहःसु “च इदमेव स्तोत्रं त्वां वर्धयत्वित्यर्थः ॥

वि । तर्तूर्यन्ते । मघऽवन् । विपःऽचितः । अर्यः । विपः । जनानाम् ।उप । क्रमस्व । पुरुऽरूपम् । आ । भर । वाजम् । नेदिष्ठम् । ऊतये ॥४

हे “मघवन् धनवन्निन्द्र “विपश्चितः विद्वांसस्त्वदीयाः स्तोतारः   “अर्यः अभिगन्तारः “जनानां शत्रूणां “विपः वेपयितारः सन्तः “वि “तर्तूर्यन्ते भृशमापदो वितरन्ति अतिक्रामन्ति । तादृशस्त्वम् “उप “क्रमस्व उपगच्छास्मान् । “पुरुरूपं बहुरूपम् नेदिष्ठम् अन्तिकतमं “वाजम् अन्नम् “ऊतये तर्पणाय “आ “भर अस्मभ्यम् ॥


महे । चन । त्वाम् । अद्रिऽवः । परा । शुल्काय । देयाम् ।न । सहस्राय । न । अयुताय । वज्रिऽवः । न । शताय । शतऽमघ ॥५

हे “अद्रिवः वज्रवन्निन्द्र “त्वाम् । “चन इति निपातद्वयसमुदायो विभज्य योजनीयः । “महे च महतेऽपि “शुल्काय मूल्याय न “परा “देयां न विक्रीणानि । हे “वज्रिवः वज्रहस्तेन्द्र “सहस्राय सहस्रसंख्याय च धनाय “न परा देयाम् । “अयुताय दशसहस्राय च शुल्काय “न परा देयाम् । हे “शतामघ बहुधनेन्द्र “शताय । बहुनामैतत् । अपरिमिताय च धनाय “न परा देयां न विक्रीणानि । उक्तसंख्याद्धनादपि त्वं मम प्रियतमोऽसीत्यर्थः ॥ ॥ १० ॥


वस्यान् । इन्द्र । असि । मे । पितुः । उत । भ्रातुः । अभुञ्जतः ।माता । च । मे । छदयथः । समा । वसो इति । वसुऽत्वनाय । राधसे ॥६

हे “इन्द्र त्वं “मे मदीयात् “पितुः जनकादपि “वस्यान् वसीयान् वसुमत्तरः “असि । "उत अपि च “अभुञ्जतः अपालयतो मम “भ्रातुः अपि वसीयस्त्वमधिकोऽसि । हे “वसो वासकेन्द्र “मे मदीया “माता “च त्वं च “समा समौ समानौ सन्तौ । “पुमान् स्त्रिया' (पा. सू. १. २. ६७ ) इति पुंसः शेषः। “छदयथः । अर्चतिकर्मायम्। मां पूजितं कुरुथः । किमर्थम् । “वसुत्वनाय व्यापनाय "राधसे धनाय च । उभयोर्लाभायेत्यर्थः ॥

क्व । इयथ । क्व । इत् । असि । पुरुऽत्रा । चित् । हि । ते । मनः ।अलर्षि । युध्म । खजऽकृत् । पुरम्ऽदर । प्र । गायत्राः । अगासिषुः ॥७

हे इन्द्र “क्व कुत्र देशे "इयथ गतवानसि पुरा । "क्वेत् कुत्र च “असि भवसि । इदानीं वर्तसे । “पुरुत्रा “चिद्धि बहुषु हि यजमानेषु “ते त्वदीयं “मनः संचरति । हे “युध्म युद्धकुशल “खजकृत् युद्धस्य कर्तर्हे “पुरंदर आसुरीणां पुरां दारयितर्हे इन्द्र “अलर्षि आगच्छ । “गायत्राः गानकुशला अस्मदीयाः स्तोतारः “प्र “अगासिषुः प्रगायन्ति स्तुवन्ति । ‘ अलर्षि' इत्येतत् दाधर्त्यादौ (पा. सू. ७. ४. ६५) इयर्तेर्निपात्यते ॥

प्र । अस्मै । गायत्रम् । अर्चत । ववातुः । यः । पुरम्ऽदरः ।याभिः । काण्वस्य । उप । बर्हिः । आऽसदम् । यासत् । वज्री । भिनत् । पुरः ॥८

“अस्मै इन्द्राय “गायत्रं गातव्यं साम गायत्रसंज्ञं वा “प्र “अर्चत प्रगायत । “पुरंदरः पुरां दारयिता "यः इन्द्रः “वावातुः वननीयः संभजनीयः । यद्वा वावातुः संभक्तुः स्तोतुः य इन्द्रः पुरंदरः शत्रुपुराणां दारयिता। “याभिः ऋग्भिः “काण्वस्य कण्वपुत्रस्य मेधातिथेर्मेध्यातिथेश्च “बर्हिः यज्ञम् “उप “आसदम् उपासत्तुमुपगन्तुं “यासत् गच्छेत् "वज्री वज्रयुक्तः सन् । याभिश्च ऋग्भिः स्तूयमानः सन् “पुरः शात्रवीः “भिनत् भिन्द्यात् । तास्वृक्षु गायत्रं साम गायतेत्यर्थः ॥

ये । ते । सन्ति । दशऽग्विनः । शतिनः । ये । सहस्रिणः ।अश्वासः । ये । ते । वृषणः । रघुऽद्रुवः । तेभिः । नः । तूयम् । आ । गहि ॥९

हे इन्द्र "दशग्विनः दशयोजनगामिनः “ये अश्वाः "ते तव “सन्ति विद्यन्ते । “ये चान्ये “शतिनः शतसंख्याकाः “सहस्रिणः सहस्रसंख्याकाः सन्ति । “ये “ते त्वदीयाः “अश्वासः अश्वाः “वृषणः सेचनसमर्था युवानः “रघुद्रुवः शीघ्रगामिनश्च । “तेभिः तैः सर्वैरश्वैः “नः अस्मान् "तूयं क्षिप्रम् “आ “गहि आगच्छ ॥

आ । तु । अद्य । सबःऽदुघाम् । हुवे । गायत्रऽवेपसम् ।इन्द्रम् । धेनुम् । सुऽदुघाम् । अन्याम् । इषम् । उरुऽधाराम् । अरम्ऽकृतम् ॥१०

अनयेन्द्रं धेनुरूपेण वृष्टिरूपेण च निरूपयन् स्तौति । “अद्य इदानीं “धेनुं धेनुरूपम् “इन्द्रं “तु क्षिप्रम् “आ “हुवे आह्वये। कीदृशीं धेनुम् । "सबर्दुघां पयसो दोग्ध्रीं “गायत्रवेपसं प्रशस्यवेगां “सुदुघां सुखेन दोग्धुं शक्याम् । “अन्याम् उक्तविलक्षणाम् “उरुधारां बहूदकधाराम् “इषम् एषणीयां वृष्टिम् । एतद्रूपेण वर्तमानम् "अरंकृतम् अलंकर्तारं पर्याप्तकारिणं वेन्द्रं चाह्वये ॥ ॥ ११ ॥

यत् । तुदत् । सूरः । एतशम् । वङ्कू इति । वातस्य । पर्णिना ।वहत् । कुत्सम् । आर्जुनेयम् । शतऽक्रतुः । त्सरत् । गन्धर्वम् । अस्तृतम् ॥११

“सूरः सूर्यः “एतशम् एतत्संज्ञं राजर्षिं “यत् यदा “तुदत् अव्यथयत् तदानीमेतशं रक्षितुं “वङ्कू वक्रगामिनौ “वातस्य वायोः सदृशौ “पर्णिना पर्णिनौ पतनवन्तावीदृशावश्वौ “शतक्रतुः बहुविधकर्मेन्द्रः "आर्जुनेयम् अर्जुन्याः पुत्रं “कुत्सम् ऋषिं “वहत् अवहत् अनयत् । कुत्सेन सार्धं समानं रथमारुह्यैतशरक्षणायागच्छदित्यर्थः। तथा च निगमान्तरं- प्रैतशं सूर्ये पस्पृधानं सौवश्व्ये सुष्विमावदिन्द्रः' (ऋ. सं. १. ६१. १५) इति । “गन्धर्वं गवां रश्मीनां धर्तारं सूर्यम् “अस्तृतं केनाप्यहिंसितं “त्सरत् अत्सरत् । छद्मगत्यागच्छत् । सूर्येण योद्धं गतवानित्यर्थः ॥

यः । ऋते । चित् । अभिऽश्रिषः । पुरा । जत्रुऽभ्यः । आऽतृदः ।सम्ऽधाता । सम्ऽधिम् । मघऽवा । पुरुऽवसुः । इष्कर्ता । विऽह्रुतम् । पुनरिति ॥१२

"यः इन्द्रः “अभिश्रिषः अभिश्लिषोऽभिश्लेषणात् संधानद्रव्यात् "ऋते “चित् विनापि “जत्रुभ्यः ग्रीवाभ्यः सकाशात् "आतृदः आतर्दनात् आ रुधिरनिःस्रवणात् "पुरा पूर्वमेव “संधिं संधातव्यं तं “संधाता संयोजयिता भवति “मघवा धनवान् “पुरूवसुः बहुधनः स इन्द्रः “विह्रुतं विच्छिन्नं तं “पुनः “इष्कर्ता संस्कर्ता भवति ।।

मा । भूम । निष्ट्याःऽइव । इन्द्र । त्वत् । अरणाःऽइव ।वनानि । न । प्रऽजहितानि । अद्रिऽवः । दुरोषासः । अमन्महि ॥१३

हे "इन्द्र “त्वत् त्वत्तः त्वत्प्रसादात् "निष्ट्याइव। नीचैर्भूता हीना निष्ट्याः । त इव वयं “मा “भूम । तथा “अरणाइव अरमणा दुःखिन इव वयं मा भूम । अपि च "प्रजहितानि प्रक्षीणानि शाखादिभिर्वियुक्तानि “वनानि “न वृक्षजातानीव वयं पुत्रादिभिर्वियुक्ता मा भूम । हे "अद्रिवः वज़वन्निन्द्र “दुरोषासः ओषितुमन्यैर्दग्धुमशक्या दुर्येषु गृहेषु निवसन्तो वा वयम् "अमन्महि त्वां स्तुमः॥

अमन्महि । इत् । अनाशवः । अनुग्रासः । च । वृत्रऽहन् ।सकृत् । सु । ते । महता । शूर । राधसा । अनु । स्तोमम् । मुदीमहि ॥१४

हे “वृत्रहन् वृत्रस्यासुरस्य हन्तरिन्द्र “अनाशवः अशीघ्रा अत्वरमाणाः “अनुग्रासः अनुग्रा अनुद्गूर्णाः “च सन्तो वयं भक्तिश्रद्धापुरःसरं शनैस्त्वाम् "अमन्महीत् स्तुम एव । हे “शूर वीर्यवन्निन्द्र “ते त्वदर्थं “सकृत् एकवारमपि “महता प्रभूतेन “राधसा धनेन हविर्लक्षणेन सह “सु शोभनं “स्तोमं स्तोत्रम् “अनु “मुदीमहि अनुमोदेमहि । अनुब्रवामेत्यर्थः ॥

यदि । स्तोमम् । मम । श्रवत् । अस्माकम् । इन्द्रम् । इन्दवः ।तिरः । पवित्रम् । ससृऽवांसः । आशवः । मन्दन्तु । तुग्र्यऽवृधः ॥१५

अयमिन्द्रः “मम मदीयं स्तोत्रं “यदि “श्रवत् शृणुयात् तदानीं तम् “इन्द्रम् “अस्माकम् अस्मदीयाः “इन्दवः सोमाः "मदन्तु मादयन्तु हर्षयन्तु । कीदृशाः सोमाः। “तिरः तिर्यगवस्थितं “पवित्रं पवनसाधनं दशापवित्रं “ससृवांसः प्राप्तवन्तः । दशापवित्रेण पूता इत्यर्थः । “आशवः शीघ्रं मदजनकाः "तुग्र्यावृधः तुग्र्याभिर्वसतीवर्येकधनाख्याभिरद्भिर्वर्धमानाः ॥ ॥ १२ ॥

आ । तु । अद्य । सधऽस्तुतिम् । ववातुः । सख्युः । आ । गहि ।उपऽस्तुतिः । मघोनाम् । प्र । त्वा । अवतु । अध । ते । वश्मि । सुऽस्तुतिम् ॥१६

हे इन्द्र “वावातुः संभक्तुस्त्वां सेवमानस्य “सख्युः स्तोतुः “सधस्तुतिम् अन्यैर्ऋत्विग्भिः सह क्रियमाणां स्तुतिम् “अद्य इदानीं “तु क्षिप्रम् “आ “गहि आगच्छ । “मघोनां हविष्मतामन्येषामपि यजमानानाम् “उपस्तुतिः स्तोत्रं “त्वा त्वां “प्र “अवतु प्रगच्छतु प्रतर्पयतु वा। “अध अधुना “सुष्टुतिं त्वद्विषयां शोभनां स्तुतिमहमपि “वश्मि कामये ।।

सोत । हि । सोमम् । अद्रिऽभिः । आ । ईम् । एनम् । अप्ऽसु । धावत ।गव्या । वस्त्राऽइव । वासयन्तः । इत् । नरः । निः । धुक्षन् । वक्षणाभ्यः ॥१७

हे अध्वर्यवः “अद्रिभिः ग्रावभिः “सोमं “सोत । हिरवधारणे । अभिषुणुतैव। “एनम् इमम् “अप्सु वसतीवरीषु “आ “धावत । अस्य सोमस्य धवनं कुरुत । अदाभ्यग्रहे हिमादासुत इत्यादिभिर्मन्त्रैर्वसतीवरीष्वाधवनं सोमस्य क्रियते । तत् कुरुतेत्यर्थः । “गव्या गवि भवानि “वस्त्रेव वस्त्राण्याच्छादकानि चर्माणीव मेघान “वासयन्त “इत् आच्छादयन्त एव “नरः नेतार इन्द्रस्यानुचरा मरुतः “वक्षणाभ्यः नदीभ्यो नदीनामर्थाय “निर्धुक्षन् उदकानि निर्दुहन्ति क्षारयन्ति । यत एवमतः कारणादिन्द्रयागाय सोममद्रिभिरभिषुणुतैव । मोदासिषतेत्यर्थः ॥

अध । ज्मः । अध । वा । दिवः । बृहतः । रोचनात् । अधि ।अया । वर्धस्व । तन्वा । गिरा । मम । आ । जाता । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । पृण ॥१८

हे इन्द्र “अध अधुना “ज्मः । जमन्ति गच्छन्त्यस्यामिति ज्मा पृथिवी । तस्याः सकाशात् “अध “वा अपि वा “दिवः अन्तरिक्षात् "बृहतः महतः “रोचनात् नक्षत्रैर्दीप्यमानात् स्वर्गाद्वा आगत्य । अधिः पञ्चम्यर्थानुवादी । “अया अनया “तन्वा ततया विस्तृतया “मम मदीयया “गिरा स्तुत्या “वर्धस्व वृद्धो भव । हे “सुक्रतो शोभनकर्मवन्निन्द्र "जाता जातानस्मदीयान् जनान् “आ “पृण अभिलषितैः फलैरापूरय ॥

इन्द्राय । सु । मदिन्ऽतमम् । सोमम् । सोत । वरेण्यम् ।शक्रः । एनम् । पीपयत् । विश्वया । धिया । हिन्वानम् । न । वाजऽयुम् ॥१९

हे अध्वर्यवः “इन्द्राय इन्द्रार्थं “मदिन्तमं मादयितृतमं “वरेण्यं वरणीयं संभजनीयं “सोमं “सु “सोत अभिषुणुत । कुत इत्यत आह । “शक्रः इन्द्रः “विश्वया “धिया सर्वया क्रिययाग्निष्टोमादिलक्षणया “हिन्वानं प्रीणयन्तं “वाजयुम् अन्नमात्मन इच्छन्तम् “एनं यजमानम् । “न इति संप्रत्यर्थीयः । संप्रति “पीपयत् वर्धयति । अतः कारणात्तस्मा इन्द्राय सोमं सुनुतेत्यर्थः ॥

मा । त्वा । सोमस्य । गल्दया । सदा । याचन् । अहम् । गिरा ।भूर्णिम् । मृगम् । न । सवनेषु । चुक्रुधम् । कः । ईशानम् । न । याचिषत् ॥२०

हे इन्द्र त्वां “सवनेषु यज्ञेषु “सोमस्य “गल्दया गालनेनास्रावणेन “गिरा स्तुत्या च युक्तः “अहं “सदा सर्वदा “याचन् याचमानः सन् “मा “चुक्रुधं मा क्रोधयानि । बहुशो याच्यमाने त्वयि क्रोधो जायते तं सोमस्य गालनेन स्तुत्या चापनयामीत्यर्थः । कीदृशं त्वाम् । “भूर्णिं भर्तारं “मृगं “न सिंहमिव भीमम् । स्वामिन इन्द्रस्य याचने लौकिकन्यायं दर्शयति । लोके “कः वा पुरुषः “ईशानम् ईश्वरं स्वामिनं “न “याचिषत् न याचेत । सर्व एव हि याचते । अतोऽहमपि त्वां स्वामिनं याच इति भावः ॥ ॥ १३ ॥

मदेन । इषितम् । मदम् । उग्रम् । उग्रेण । शवसा 

विश्वेषाम् । तरुतारम् । मदऽच्युतम् । मदे । हि । स्म । ददाति । नः ॥२१।

“मदेन मादयित्रा स्तोत्रा “इषितं प्रेषितं “मदं मदकरं सोमम् “उग्रम् उद्गूर्णं रसम् “उग्रेण उद्गूर्णेनाधिकेन “शवसा बलेन युक्त इन्द्रः पिबत्विति शेषः । पीत्वा च "विश्वेषां सर्वेषां शत्रूणां “तरुतारं तरीतारं जेतारं “मदच्युतं मदस्य शत्रूणां गर्वस्य च्यावयितारं पुत्रं “मदे सोमपानेन जनिते हर्षे सति “नः अस्मभ्यं “ददाति “हि “ष्म ददाति खलु । अतः सोमं पिबत्वित्यर्थः ॥

शेवारे । वार्या । पुरु । देवः । मर्ताय । दाशुषे ।सः । सुन्वते । च । स्तुवते । च । रासते । विश्वऽगूर्तः । अरिऽस्तुतः ॥२२

“शेवारे । शेवं सुखम् । तस्य गमके यज्ञे “दाशुषे चरुपुरोडाशादीनि दत्तवते यजमानाय “पुरु पुरूणि बहूनि वार्याणि वरणीयानि धनानि “देवः दानादिगुणयुक्त इन्द्रः “रासते ददाति । “सः एव “सुन्वते “च सोमाभिषवं कुर्वते च “स्तुवते “च स्तोत्रं कुर्वते च धनानि रासते । कीदृशः सः । “विश्वगूर्तः विश्वेषु सर्वेषु कार्येषुद्यतः स्वतः प्रवृत्तः “अरिष्टुतः अरिभिः प्रेरयितृभिः प्रशस्तः ॥

आ । इन्द्र । याहि । मत्स्व । चित्रेण । देव । राधसा सरः । न । प्रासि । उदरम् । सपीतिऽभिः । आ । सोमेभिः । उरु । स्फिरम् ॥२३

हे "इन्द्र “आ “याहि आगच्छ । हे “देव द्योतमान “चित्रेण दर्शनीयेन "राधसा धनेन सोमलक्षणेन “मत्स्व माद्य । “सपीतिभिः मरुद्भिः सह पीयमानैः “सोमेभिः सोमैः "उरु विस्तीर्णं “स्फिरं वृद्धम् “उदरम् आत्मीयं जठरं "सरो “न सर इव “आ “प्रासि आपूरय । ‘प्रा पूरणे' । आदादिकः ॥

चातुर्विंशिकेऽहनि माध्यंदिने ब्रह्मशस्त्रे ‘ आ त्वा' इति वैकल्पिकः स्तोत्रियस्तृचः । सूत्र्यते हि-'आ त्वा सहस्रमा शतं मम त्वा सूर उदित इति ब्राह्मणाच्छंसिनः' (आश्व. श्रौ. ७.४) इति ॥

आ । त्वा । सहस्रम् । आ । शतम् । युक्ताः । रथे । हिरण्यये ।ब्रह्मऽयुजः । हरयः । इन्द्र । केशिनः । वहन्तु । सोमऽपीतये ॥२४

हे “इन्द्र “त्वा त्वां “सहस्रं सहस्रसंख्याकाः “हरयः त्वदीया अश्वाः “आ “वहन्तु आनयन्त्वस्मद्यज्ञम् । तथा “शतं शतसंख्याकाश्च भवदीया अश्वास्त्वाम् “आ वहन्तु । यद्यपि द्वावेवास्य हरी तथापि तद्विभूतयोऽन्येऽपि बहवोऽश्वाः सन्ति । ननु युगपदनेकैरश्वैः कथं यातुं शक्यत इति अत आह “युक्ताः इति । “हिरण्यये हिरण्मये स्वर्णविकारे । हिरण्यशब्दाद्विकारार्थे विहितस्य मयटः ‘ऋत्व्यवास्त्व इत्यादौ मलोपो निपात्यते । तादृशे “रथे "युक्ताः संबद्धाः । बहूनामश्वानां शीघ्रगमनाय रथे नियुक्तत्वाद्युगपदेव सर्वैरश्वैर्गन्तुं शक्यत इति भावः । कीदृशा हरयः । “ब्रह्मयुजः ब्रह्मणा परिवृढेनेन्द्रेण युक्ताः । यद्वा ब्रह्मणास्मदीयेन स्तोत्रेणास्माभिर्दत्तेन हविषा वा युक्ताः । “केशिनः । केशाः केसराः । तैर्युक्ताः । किमर्थमिन्द्रस्य वहनं तत्राह । “सोमपीतये सोमस्य पानाय । यथास्मदीयं सोमं पिबेत् अत आवहन्त्वित्यर्थः ॥

आ । त्वा । रथे । हिरण्यये । हरी इति । मयूरऽशेप्या ।शितिऽपृष्ठा । वहताम् । मध्वः । अन्धसः । विवक्षणस्य । पीतये ॥२५।

पूर्वं हर्योर्विभूतिरूपा अश्वा इन्द्रमावहन्त्विति प्रार्थितम् । अधुना तावेवेन्द्रमावहतामिति प्रार्थ्यते। “हिरण्यये हिरण्मये “रथे युक्तौ “मयूरशेप्या मयूरशेपौ मयूरवर्णशेपो ययोस्तौ। ‘सुपां सुलुक्' इति विभक्तेर्ड्यादेशः । “शितिपृष्ठा श्वेतपृष्ठौ एवंभूतावश्वौ” हे इन्द्र त्वाम् “आ “वहताम् । किमर्थम् । “मध्वः मधुररसस्य “विवक्षणस्य वक्तुमिष्टस्य स्तुत्यस्य यद्वा वोढव्यस्य प्राप्तव्यस्य “अन्धसः अन्नस्य सोमरूपस्य “पीतये पानार्थम् ॥ ॥ १४ ॥

पिब । तु । अस्य । गिर्वणः । सुतस्य । पूर्वपाःऽइव परिऽकृतस्य । रसिनः । इयम् । आऽसुतिः । चारुः।  मदाय । पत्यते ॥२६

हे “गिर्वणः गीर्भिवननीय स्तुतिभिः संभजनीयेन्द्र “सुतस्य अभिषुतस्य “अस्य सोमस्य । ‘ क्रियाग्रहणं कर्तव्यम्' इति कर्मणः संप्रदानत्वाच्चतुर्थ्यर्थे षष्ठी ॥ इममभिषुतं सोमं “तु क्षिप्रं “पिब । तत्र दृष्टान्तः । “पूर्वपाइव । पूर्वः सर्वेभ्यो देवेभ्यः प्रथमभावी सन् पिबतीति पूर्वपा वायुः । स इवैन्द्रवायवे मुख्ये ग्रहे सर्वेभ्यो देवेभ्यः पूर्वं पिबेत्यर्थः। कीदृशस्य सोमस्य । “परिष्कृतस्य अभिषवादिभिः संस्कृतस्य ॥ ‘ संपर्युपेभ्यः' (पा. सू. ६. १. १३७ ) इति करोतेर्भूषणे सुट् ।' परिनिविभ्यः' (पा. सू. ८. ३. ७० ) इति सुटः षत्वम् ॥ “रसिनः रसवतः । अपि च “इयमासुतिः अयमासवो मदकरः “चारुः शोभनः सोमरसः "मदाय हर्षाय हर्षजननाय “पत्यते संपद्यते । पत्लृ गतौ ' । यद्वा । पत्यतिरैश्वर्यकर्मा । मदाय मदस्य पत्यते ईष्टे । मदोत्पादने शक्त इत्यर्थः ॥

यः । एकः । अस्ति । दंसना । महाम् । उग्रः । अभि । व्रतैः ।गमत् । सः । शिप्री । न । सः । योषत् । आ । गमत् । हवम् । न । परि । वर्जति ॥२७

"यः इन्द्रः “एकः केवलोऽसहाय एव “व्रतैः आत्मीयैः कर्मभिः “अभि “अस्ति शत्रुनभिभवति । यश्च “दंसना कर्मणा “महान् अधिकः अत एव “उग्रः उद्गूर्णबलः शिप्री। शिप्रं शिरस्त्राणम् । प्रशंसायामिनिः । शोभनशिरस्त्राणः । यद्वा । शिप्रे हनू नासिके वा । तद्वान् । “सः इन्द्रः “गमत् गच्छतु प्राप्नोतु सर्वदा । “सः तादृशः “न "योषत् न पृथग्भवतु । न वियुक्तो भवतु ॥ गमेर्यौतेश्च लेट्यागमः । इतश्च लोपः' इतीकारलोपः। गमेः ' बहुलं छन्दसि ' इति शपो लुक् । यौतेः ‘सिब्बहुलम्' इति सिप् । “हवम् अस्मदीयं स्तोत्रं च “आ “गमत् अभिगच्छतु प्राप्नोतु । “न “परि “वर्जति न परिवर्जयतु न परित्यजतु । सर्वदास्मानस्मदीयं स्तोत्रं चेन्द्रः प्राप्नोत्विति यावत् 

त्वम् । पुरम् । चरिष्ण्वम् । वधैः । शुष्णस्य । सम् । पिणक् ।त्वम् । भाः । अनु । चरः । अध । द्विता । यत् । इन्द्र । हव्यः । भुवः ॥२८

हे इन्द्र “त्वं “शुष्णस्य शोषकस्यासुरस्य “चरिष्ण्वं चरणशीलम् ॥ ‘वा छन्दसि' इत्यभिपूर्वत्वस्य विकल्पितत्वाद्यणादेशः ॥ “पुरं निवासस्थानं “वधैः वज्रादिभिरायुधैः “सं “पिणक् समचूर्णयः । अभाङ्क्षीरित्यर्थः । पिनष्टेर्लङि मध्यमैकवचने रूपमेतत् । “अध अपि च “भाः= भासमानः “त्वम् “अनु “चरः तं शुष्णं हन्तुमन्वगच्छः । यद्वा । ....शुष्णस्य पुरभेदनानन्तरं भा दीप्तीस्त्वमनु चरः अन्वगच्छः । प्राप्तवानित्यर्थः । हे “इन्द्र त्वं “यत् यदा “द्विता द्विधा द्विविधैः स्तोतृभिर्यष्टृभिश्च “हव्यः ह्वातव्यः “भुवः भवेः । तदानीं त्वं शुष्णस्य पुरं सं पिणगित्यन्वयः । भवतेर्लेटि सिप्यडागमः । छान्दसः शपो लुक् । ‘भूसुवोस्तिङि' इति गुणप्रतिषेधादुवङ् ॥

चातुर्विशिकेऽहनि माध्यंदिनसवने ब्रह्मशस्त्रे ‘ मम त्वा' इति वैकल्पिकोऽनुरूपस्तृचः । सूत्रं तु पूर्वमुदाहृतम् ॥

मम । त्वा । सूरे । उत्ऽइते । मम । मध्यन्दिने । दिवः ।मम । प्रऽपित्वे । अपिऽशर्वरे । वसो इति । आ । स्तोमासः । अवृत्सत ॥२९

“सूरे सूर्ये "उदिते उदयं प्राप्ते पूर्वाह्णसमये “मम “स्तोमासः स्तोत्राणि हे “(वसो= वासकेन्द्र) त्वाम् “आ “अवृत्सत =आवर्तयन्तु । अस्मदभिमुखं गमयन्तु । तथा “दिवः =दिवसस्य  “मध्यंदिने= मध्याह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु। तथा “प्रपित्वे= प्राप्ते दिवसस्यावसाने सायाह्नेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ।“अपिशर्वरे । शर्वरीं रात्रिमपिगतः कालः अपिशर्वरः । शार्वरे कालेऽपि मदीयाः स्तोमास्त्वामावर्तयन्तु ॥

सूर्योदय होने पर पूर्वान्ह समय पर ये मेरा स्तोत्र हे वसुओ के स्वामी तुझे मेरे सामने लाये तुम्हें हमारे सम्मुख ले आये। तथा दिन को मध्याह्न समय में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें और दिन के अवसान  सायंकाल में भी ये मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सामने लायें। और रात्रि के समय भी मेरे स्तोत्र तुम्हें हमारे सम्मुख ले आयें।२९।

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स्तुहि । स्तुहि । इत् । एते । घ । ते । मंहिष्ठासः । मघोनाम् ।निन्दितऽअश्वः । प्रऽपथी । परमऽज्याः । मघस्य । मेध्यऽअतिथे ॥३०

आसङ्गो राजर्षिर्मेध्यातिथये बहु धनं दत्त्वा तमृषिं दत्तदानस्य स्वस्य स्तुतौ प्रेरयति । हे “मेध्यातिथे यज्ञार्हातिथ एतत्संज्ञर्षे "स्तुहि "स्तुहीत् । पुनःपुनरस्मान् प्रशंसैव। मोदास्व औदासीन्यं मा कार्षीः । “एते “घ एते खलु वयं “मघोनां धनवतां मध्ये “ते तुभ्यं “मघस्य धनस्य “मंहिष्ठासः दातृतमाः । अतोऽस्मान् स्तुहीत्यर्थः । कासौ स्तुतिस्तामाह। “निन्दिताश्वः । यस्य वीर्येण परेषामश्वा निन्दिताः कुत्सिता भवन्ति तादृशः । “प्रपथी । प्रकृष्टः पन्थाः प्रपथः । तद्वान् । सन्मार्गवर्तीत्यर्थः । “परमज्याः उत्कृष्टज्यः । अनेन धनुरादिकं लक्ष्यते । उत्कृष्टायुध इत्यर्थः । यद्वा । परमानुत्कृष्टाञ्छत्रून् जिनाति हिनस्तीति परमज्याः । ज्या वयोहानौ' । अस्मात् ‘आतो मनिन्' इति विच् । एवंभूतोऽहमासङ्ग इति स्तुहीत्यर्थः ॥१५ 

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(आ यदश्वा॒न्वन॑न्वतः श्र॒द्धया॒हं रथे॑ रु॒हम् ।      उ॒त वा॒मस्य॒ वसु॑नश्चिकेतति॒ यो अस्ति॒ याद्व॑: प॒शुः ॥३१। 

ऋग्वेद (८/१/३०)
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(१-“वनन्वतः= वननवतः संभक्तवतः

२-“अश्वान्=तुरगान् "अहं प्रायोगिः 

३-“श्रद्धया आदरातिशयेन युक्तः सन् “यत् यदा हे मेध्यातिथे त्वदीये “रथे

४- “आ “रुहं आरोहयम्।रुहेरन्तर्भावितण्यर्थाल्लुङि ‘ कृमृदृरुहिभ्यः' इति च्लेरङादेशः । तदानीं मामेवं स्तुहि । 

५-“उत अपि च । प्रकृतस्तुत्यपेक्ष एव समुच्चयः ।

 ६-“वामस्य वननीयस्य 

७-“वसुनः धनस्य । पूर्ववत् कर्मणि षष्ठी । ईदृशं धनं “चिकेतति । एष आसङ्गो दातुं जानाति ।

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८- "याद्वः यदुवंशोद्भवः। यद्वा । यदवो मनुष्याः। तेषु प्रसिद्धः।

९- “पशुः । लुप्तमत्वर्थमेतत् । पशुमान् । यद्वा । पशुः पश्यतेः । सूक्ष्मस्य द्रष्टा । 

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१०-“यः आसङ्गः “अस्ति विद्यते एष चिकेततीत्यन्वयः ॥

हे मेधातिथि ! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो ! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । 
यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं ( गाय -महिषी) आदि से युक्त जो आसङ्ग है वह दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।

"उपर्युक्त ऋचा में सङ्ग एक यदुवंशी राजा है जो पशुओं से समन्वित हैं अर्थात यादव सदियों से पशुपालक रहें हैं पशु ही जिनकी सम्पत्ति हुआ करती थे विदित हो कि पशु शब्द ही भारोपीय परिवार में  प्राचीनत्तम शब्द है । पाश (फन्दे) में बाँधने के कारण ही पशु संज्ञा का  विकास हुआ

 ( Etymology of pashu-

From Proto-Indo-Iranian *páćufrom 1-Proto-Indo-European *péḱu (“cattle, livestock”).

2- Cognate with Avestan 𐬞𐬀𐬯𐬎‎ (pasu, “livestock”),

3-Latin pecū (“cattle”), 

4-Old English feoh (“livestock, cattle”),

5- Gothic 𐍆𐌰𐌹𐌷𐌿 (faihu, “cattle”).

पशु शब्द की व्युत्पत्ति★-

प्रोटो-इंडो-ईरानी *पाउ से, प्रोटो-इंडो-यूरोपीय *पेउ ("मवेशी, पशुधन") से।

 अवेस्तान (पसु, "पशुधन"), 

लैटिन पेसी ("मवेशी"),

 पुरानी अंग्रेज़ी फीह ("पशुधन, मवेशी"),

(जर्मनी) गोथिक (faihu, "मवेशी") के साथ संगति।आ

(य ऋज्रा मह्यं मामहे सह त्वचा हिरण्यया ।
एष विश्वान्यभ्यस्तु सौभगासङ्गस्य स्वनद्रथः ॥३२॥

पदपाठ-

यः । ऋज्रा । मह्यम् । मामहे । सह । त्वचा । हिरण्यया ।एषः । विश्वानि । अभि । अस्तु । सौभगा । आसङ्गस्य । स्वनत्ऽरथः ॥३२।

एवमेवं मां स्तुहीत्यासङ्गो मेध्यातिथिं ब्रूते । “यः आसङ्गस्यात्मा “ऋज्रा= गमनशीलानि धनानि। “हिरण्यया =हिरण्मय्या “त्वचा =चर्मणास्तरणेन “सह सहितानि “मह्यं= मेध्यातिथये अभि =सर्वत: अस्तु=भवतु। {“मामहे = स्तुमहे} । मंह्= पूजायाम् । “एषः आसङ्गस्यात्मा “स्वनद्रथः= शब्दायमानरथः सन्  “विश्वानि= व्याप्तानि सौभगानि धनानि शत्रूणां स्वभूतानि “॥

इस प्रकार मेरी स्तुति करो । आसङ्ग मेथातिथि से कहता है। "उस आसङ्ग का चलायवान धन  स्वर्ण-चर्म के विस्तर सहित मुझ मेधातिथि  लिए हो ।  वही आसङ्ग शब्दायवान रथ से युक्त होकर शत्रुओं से सम्पूर्ण सौभाग्य- पूर्ण धनों को विजित करे। इस प्रकार हम स्तुति करते हैं ।३२।

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"अध॒ प्लायो॑गि॒रति॑ दासद॒न्याना॑स॒ङ्गो अ॑ग्ने द॒शभि॑: स॒हस्रै: । अधो॒क्षणो॒ दश॒ मह्यं॒ रुश॑न्तो न॒ळा इ॑व॒ सर॑सो॒ निर॑तिष्ठन् ॥३३।

पदपाठ-

अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३।

(१-“अध =अपि च 

२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 

३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 

४“अन्यान् =दातॄन् “

५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 

६-“अध= अनन्तरम् 

७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 

८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

अनुवाद-

आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 
सेचन करने में समर्थ वे ओजस्वी दश हजार बैल उक्षण:-(Oxen) आसङ्ग राजा से निकलकर  मुझ मेधातिथि में उसी प्रकार समाहित होगये ।
जिस प्रकार तालाब में उत्पन्न तृणविशेष तालाब से निकल कर तालाब से समूह बद्ध होकर  बाहर निकल आते हैं; इन्हीं शब्दों के द्वारा तुम मेरी स्तुति करो ! ऐसा मेधातिथि से कहने वाले राजा आसङ्ग हैं।
 इन ३०-से३३ ऋचाओं में इन चार ऋचाओं के वक्ता आसङ्ग हैं और वही देवता हैं यहाँ  यही भाव उत्पन्न होता है ।३०। 
{प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

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अनु । अस्य । स्थूरम् । ददृशे । पुरस्तात् । अनस्थः । ऊरुः । अवऽरम्बमाणः ।

शश्वती । नारी । अभिऽचक्ष्य । आह । सुऽभद्रम् । अर्य । भोजनम् । बिभर्षि ॥३४

अयमासङ्गो राजा कदाचिद्देवशापेन नपुंसको बभूव । तस्य पत्नी शश्वती भर्तुर्नपुंसकत्वेन खिन्ना सती महत्तपस्तेपे । तेन च तपसा स च पुंस्त्वं प्राप । प्राप्तपुंव्यञ्जनं ते रात्रावुपलभ्य प्रीता शश्वत्व मया तमस्तौत् । “अस्य आसङ्गस्य “पुरस्तात् पूर्वभागे गुह्यदेशे “स्थूरं =स्थूलं वृद्धं सत् पुंव्यञ्जनम् “अनु “ददृशे अनुदृश्यते । “अनस्थः अस्थिरहितः स चावयवः “ऊरुः =उरु=र्विस्तीर्णः “अवरम्बमाणः अतिदीर्घत्वेनावाङ्मुखं लम्बमानः । यद्वा । ऊरुः । सुपां सुलुक्' इति द्विवचनस्य सुः । ऊरू प्रत्यवलंबमानो भवति । { “शश्वती नामाङ्गिरसः सुता “नारी तस्यासङ्गस्य भार्या “अभिचक्ष्य एवंभूतमवयवं निशि दृष्ट्वा हे “अर्य स्वामिन् भर्तः} “सुभद्रम्= अतिशयेन कल्याणं “भोजनं =भोगसाधनं “बिभर्षि= धारयसीति “आह= ब्रूते ॥ ३४ ॥

अनुवाद-व अर्थ-★

ये आसङ्ग नामक राजा कभी देव- शाप से नपुंसकता को प्राप्त हो गये थे। तब उनकी पत्नी शाश्वती ने पति के नपुंसक होने से दु:खी होकर महान तप किया। उसी तप से उसके पति आ संग ने  पुरुषत्व को प्राप्त किया। 
पुरुषत्व प्राप्त कर रात्रि काल में पति के सानिध्य में इस ऋचा से उसकी स्तुति की  तब आसंग के पूर्व भाग ( जननेन्द्रिय) में पुरुषत्व की वृद्धि हुई।अस्थि रहित यह अंग अत्यंत दीर्घ होकर वृद्धि से नीचे की ओर लटक गया (लम्बवान होगया)
यह शाश्वती आंगिरस की सुता थी। और आसंग की भार्या। रात्रि काल में जब जनन अंग को देखकर कहा –हे ! आर्य ! स्वामी ! बहुत ही कल्याण कारी जननेन्द्रय को आप धारण करते हो।३४।

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हे मेधातिथि! प्रयोग( प्लयोग) नाम वाले (गणतान्त्रिक) राजा के  पुत्र मुझ आसङ्ग राजा ने अत्यधिक आदर से समन्वित होकर तुम्हारे रथ में अपने घोड़ों को जोता उस समय तुम मेरी ही स्तुति करो! यह आसङ्ग तुमको प्रार्थनीय धन को देना चाहता है । 
यदुवंश में उत्पन्न और उन यादवों में प्रसिद्ध पशुओं ( गाय -महिषी) आदि से युक्त अथवा सूक्ष्म का दृष्टा जो आसङ्ग है वह दान करना चाहता है ऐसा पूर्वोक्त अर्थ से अन्वय( सम्बन्ध) है।३१।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (
अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !
कृषि करना वैश्य का काम है तो 
कितने किसान अर्थ में क्षत्रिय है ?

श्रीमद्भगवद्गीता शांकर भाष्य
अष्टादश अध्याय पर वर्णित करते हैं ।

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
भाष्य -
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः च गौरक्ष्यं च वाणिज्यं च कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं कृषिः भूमेः विलेखनं गौरक्ष्यं गा रक्षति इति गोरक्षः तद्भावो गौरक्ष्यं पाशुपाल्यं वाणिज्यं वणिक्कर्म क्रयविक्रयादिलक्षणं वैश्यकर्म वैश्यजातेः कर्म वैश्यकर्म स्वभावजम्।

परिचर्यात्मकं शुश्रूषास्वभावं कर्मम शूद्रस्य अपि स्वभावजम्।।44।।
___     
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि 
यवं वृकेण कर्षथः।
ता वामद्य सुमतिभिः शुभस्पती 
अश्विना प्र स्तुवीमहि।६।

पदपाठ-
दशस्यन्ता।मनवे।पूर्व्यम्।दिवि।यवम्।वृकेण। कर्षथः।ता।वाम्।अद्य।सुमतिऽभिः।शुभः।पती इति ।अश्विना।प्र।स्तुवीमहि।६।

हे अश्विनौ 

१-"पूर्व्यं= पुरातनं

 २-“दिवि =द्युलोके स्थितमुदकं 

३-“मनवे =एतन्नामकाय राज्ञे 

४-“दशस्यन्ता दशस्यन्तौ =प्रयच्छन्तौ युवां 

५-“वृकेण= ' वृको लाङ्गलं भवति विकर्तनात्' (निरु. ६.२६) इति यास्कः। तेन लाङ्गलेन 

६-"यवं यवनामकं धान्यं

७- "कर्षथः= पुनश्च तस्मै विलेखनं कुरुथः।

८- “शुभस्पती =उदकस्य पालयितारौ 

हे "अश्विना= अश्विनौ ।

९-“ता =तौ पूर्वोक्तलक्षणयुक्तौ

 १०"वां =युवाम्

११ “अद्य =अस्मिन् यज्ञदिने 

१२“सुमतिभिः =शोभनाभिः स्तुतिभिः प्रकर्षेण

१३ "स्तुवीमहि= वयं स्तुमः ॥

अर्थानुवाद-

हे अश्विनी कुमारों ! द्युलोक (स्वर्ग) में स्थित प्राचीन जल को  मनु नामक राजा को प्रदान करते हुए  जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने लांगल (हल) से यव (जौ) नामक धान्य की खेती की थी। और फिर तुम दोनों ने उस मनु नामक राजा के लिए उस बोये हुए की गुड़ाई की (अर्थात् उन्हें खेती करना सिखाया था।  हे जल के पालक अश्विनी कुमारों ! उन्हीं पूर्वोक्त लक्षण युक्त तुम दोनों की हम इस यज्ञ दिवस पर सुन्दर स्त्रोतों से स्तुति करते हैं।६।

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उप नो वाजिनीवसू यातमृतस्य पथिभिः।
येभिस्तृक्षिं वृषणा त्रासदस्यवं महे क्षत्राय जिन्वथः।७।
  पदपाठ-

उप॑ । नः॒ । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । या॒तम् । ऋ॒तस्य॑ । प॒थिऽभिः॑ । येभिः॑। तृ॒क्षिम्। वृ॒ष॒णा॒ ।त्रा॒स॒द॒स्य॒वम्।म॒हे।क्ष॒त्राय॑ । जिन्व॑थः॥७।

सायण-भाष्य-

१-हे “वाजिनीवसू =अन्नधनवन्तौ।अन्नमेव धनं यथोस्तौ।अश्विनौ

२-"ऋतस्य= सत्यभूतस्य यज्ञस्य 

३-“पथिभिः =मार्गैः 

४-“नः =अस्मान् 

५-“उप “यातम् =आगच्छतम् ।

६-“वृषणा= वृषणौ धनानां सेक्तारौ हे अश्विनौ

७-“त्रासदस्यवं= त्रसदस्योः पुत्रं

८-“तृक्षिम् =एतन्नामकं 

९-"येभिः= यैर्यज्ञमार्गैः

१०"महे =महते 

११-“क्षत्राय =धनाय

१२"जिन्वथः= प्रीणयथ।एवं तैर्मार्गैरस्मान् धनादिभिः प्रीणयितुमागच्छतमित्यर्थः

अर्थानुवाद-

अन्न ही धन है  जिनका ऐसे वह दोनों अश्वनी-कुमार सत्य मार्गों से हमको प्राप्त हों। धन का सेचन (वर्षण) करने वाले हे अश्विनी कुमारों ! त्रसदस्यु के पुत्र तृक्षि नामक राजा को जिन यज्ञ मार्गों से तुम दोनों ने महान धन के लिए प्रसन्न किया था । अर्थात् उसी प्रकार उन यज्ञ मार्गों से धनादि के द्वारा हम्हें प्रसन्न करने के लिए तुम आओ।७।

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एतेषां जातिविहितानां कर्मणां सम्यगनुष्ठितानां स्वर्ग प्राप्तिः फलं स्वभावतः।

‘वर्ण आश्रमाश्च स्वकर्मनिष्ठाः प्रेत्य कर्मफल मनुभूय ततः शेषेण विशिष्टदेशजातिकुलधर्मायुः श्रुतवृत्तसुखमेधसो जन्म प्रतिपद्यन्ते’ [1]
इत्यादिस्मृतिभ्यः पुराणे च वर्णिनाम् आश्रमिणां च लोकफलभेद विशेषस्मरणात्।

कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- आर्यों त  कार्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
परन्तु वैदिक सन्दर्भों में प्रथम तीन आर्यो के कार्य थे ।

वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवरूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।

जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।

क्योंकि ‘अपने कर्मों में तत्पर हुए वर्णाश्रमावलम्बी मरकर, परलोक में कर्मों का फल भोगकर, बचे हुए कर्मफल के अनुसार श्रेष्ठ देश, काल, जाति, कुल, धर्म, आयु, विद्या, आचार, धन, सुख और मेधा आदि से युक्त, जन्म ग्रहण करते हैं’ इत्यादि स्मृति वचन हैं और पुराण में भी वर्णाश्रमियों के लिए अलग-अलग लोक प्राप्तिरूप फलभेद बतलाया गया है।

जब प्रश्न यह बनत है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको मुहय्या कराता है वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?
इसी लिए कोई ब्राह्मण अलावा स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में नही  क्योंकि यह अब शूद्र ही है ।

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ऋ धातु का वर्तमान कालिक अर्थ गति और प्राप्त करना धातु प्रदीप में उपलब्ध है ।
परन्तु (अर् + इण्) अरि:= (शत्रु) और आर(आरि शस्त्र)  शब्द हिंसा मूलक है । संस्कृत भाषा में "अर्" "ऋ"  काम सम्प्रसारित रूप है। परन्तु आज  अर् धातु  लौकिक संस्कृत में उपलब्ध नहीं है।  सम्भव है पुराने जमाने में "अर्" धातु रही वैदिक काल में रही हो  जैसा कि ऋग्वेद के ६/५३/८ में आरं  शब्द (अर्) धातु मूलक है ।

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यां पूषन्ब्रह्मचोदनीमारां बिभर्ष्याघृणे।            तया समस्य हृदयमा रिख किकिरा कृणु ॥८॥

पदपाठ-

याम् । पूषन् । ब्रह्मऽचोदनीम् । आराम् । बिभर्षि । आघृणे ।तया । समस्य । हृदयम् । आ । रिख । किकिरा । कृणु ॥८

हे १-“आघृणे =आगतदीप्ते “पूषन्

२- “ब्रह्मचोदनीं= ब्रह्मणोऽन्नस्य प्रेरयित्रीं -“याम् 

 ३-“आरां =चर्मखण्डनशस्त्रम् ( आरा)

४- “बिभर्षि =हस्ते धारयसि “तया 

५“समस्य= सर्वस्य लुब्धजनस्य 

६“हृदयम्

७ “आ “रिख =आलिख। 

८“किकिरा= किकिराणि कीर्णानि प्रशिथिलानि च

 ९“कृणु =कुरु ॥

लौकिक संस्कृत में यह अर् धातु पीछे  से लुप्त हो गई हो । अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तर, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ "हल चलाना" हो। 

यह भी सम्भव है कि हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो । "ऋ" धातु के उत्तर "यत्"  कृत् प्रत्यय करने से "अर्य " और उसमें तद्धित  " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य" शब्द की सिद्धि होती है। 

विभिन्न भारोपीय भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है। इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है। 

"आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य भी है। पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः"  १/१/१०३ सूत्र इस बात का प्रमाण है।

इंद्रं॒ वर्धं॑तो अ॒प्तुरः॑ कृ॒ण्वंतो॒ विश्व॒मार्यं॑ ।

अ॒प॒घ्नंतो॒ अरा॑व्णः ॥५

इन्द्र॑म् । वर्ध॑न्तः । अ॒प्ऽतुरः॑ । कृ॒ण्वन्तः॑ । विश्व॑म् । आर्य॑म् ।

अ॒प॒ऽघ्नन्तः॑ । अरा॑व्णः ॥५

इन्द्रम् । वर्धन्तः । अप्ऽतुरः । कृण्वन्तः । विश्वम् । आर्यम् ।

अपऽघ्नन्तः । अराव्णः ॥५

“इन्द्रं “वर्धन्तः वर्धयन्तः “अप्तुरः उदकस्य प्रेरकाः “विश्वं सोममस्मदीयकर्मार्थम् “आर्यं भद्रं “कृण्वन्तः कुर्वन्तः "अराव्णः अदातॄन "अपघ्नन्तः विनाशयन्तः । अभ्यर्षन्तीत्युत्तरया संबन्धः ॥ ॥ ३० ॥

 फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पली लिखा है । फिर, वाजस-नेय (१४-२८) और वैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्षों के नाम-ब्रह्मान, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।

प्राचीन वैश्यों का प्रधान काम कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" काः


भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ primordial-Meaning ..

आरम् (आरा )धारण करने वाला वीर …..
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः |

आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology ) संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है— अर् धातु के धातुपाठ मेंतीन अर्थ सर्व मान्य है ।
 १–गमन करना Togo 
२– मारना to kill
 ३– हल (अरम्) चलाना plough…. 

 हल की क्रिया का वाहक हैरॉ (Harrow) शब्द मध्य इंग्लिश में  (Harwe) कृषि कार्य करना ..

प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
'परन्तु ये चरावाहे आभीर ,गुज्जर  और जाटों के पूर्व पुरुष ही थे ।
वर्तमान में हिन्दुस्तान के बड़े किसान भी यही लोग हैं ।
इन्हीं से अन्य राजपूती जनजातियों का विकास भी हुआ।
 इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! 

पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।


 वास्तव में संस्कृत की "अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया-रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है ।

 जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है

 …….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशः Araval तथा Aravalis भी हैं । 

अर्थात् कृषि कार्य भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है ! 
देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य थे ।

 परन्तु आर्य विशेषण पहले असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानीयों का था। 
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों (Druids) की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने यह प्रेरणा ग्रहण की। 


…सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था। 

 देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे ।
 घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे । 
'परन्तु इज़राएल और फलिस्तीन के यहूदियों के अबीर कबीलों के समानान्तरण
ये भी कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे। 
  भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायीयों 'ने गो  का सम्मान करना सुमेरियन लोगों से सीखा 
सुमेरियन भाषाओं में गु (Gu) गाय को कहते हैं ।
यहूदियों के पूर्वज  जिन्हें कहीं ब्रह्मा कहीं एब्राहम भी कहा गया सुमेरियन नायक थे ।
 विष्णु  भी सुमेरियन बैबीलॉनियन देवता हैं ।
यहूदियों का तादात्म्य भारतीय पुराणों में वर्णित यदुवंशीयों से है ।
यहूदियों का वर्णन भी चरावाहों के रूप में मिलता है ।
इसमें अबीर मार्शल आर्ट के जानकार हैं ।
राम कृष्ण गोपाल भण्डारकर जिनका तादात्म्य भारतीय अहीरों से करते हैं ।

….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था . 
अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । 

संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।


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कल्पद्रुमः

आरा, स्त्री, (आङ् + ऋ + अच् + टाप् ।).      चर्म्म-भेदकास्त्रं । तत्पर्य्यायः । चर्म्मप्रभेदिका २ । इत्यमरः ॥ “उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” । इति माघः ।)

अमरकोशः

आरा स्त्री।
चर्मखण्डनशस्त्रम्
समानार्थक:आरा,चर्मप्रभेधिका
2।10।34।2।3
वृक्षादनी वृक्षभेदी टङ्कः पाषाणदारणः। क्रकचोऽस्त्री करपत्रमारा चर्मप्रभेदिका॥
पदार्थ-विभागः : उपकरणम्,आयुधम्

वाचस्पत्यम्

'''आरा'''= स्त्री आ + ऋ--अच्।
१ चर्म्मभेदकास्त्रभेदे।
२ लौहास्त्रे।

'आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृष्टः' अर्थात् अत्यन्त सूक्ष्मरूप वाला जीवात्मा देखा गया है


३ प्रतोदे च “या पूषन् ब्रह्मचोदनीमारां विभर्ष्यामृणे” ऋ॰६/५३/८
“उद्यम्यारामग्रकायोत्थितस्य” माघः।
“आरां प्रतोदम्” मल्लिनाथः।

Apte-

आरा [ārā], See under आर.

Monier-Williams

आरा f. a shoemaker's (awl)आल- or knife

आरा आरा-मुख, etc. See. 2. आर.

Vedic Index of Names and Subjects

'''Ārā,''' a word later Hillebrandt, ''Vedische Mythologie,'' 3, 365. n. 1. known as an ‘awl’ or ‘gimlet,’ occurs in the Rigveda vi. 53. 8. only to designate a weapon of Pūṣan, with whose pastoral character its later use for piercing leather is consistent. ''Cf.'' '''[[वाशी|Vāśī]].'''

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awl ऑल- (n.)

"pointed instrument for piercing small holes in leather, wood, etc.

,Old English æl "awl, piercer," from Proto-Germanic *ælo (source also of Old Norse alr,  

- Dutch aal,  –

Middle Low German al, _

Old High German äla, 

German Ahle), which is of uncertain origin.

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अवल अल- (सं.)"चमड़े, लकड़ी आदि में छोटे-छोटे छेद करने का नुकीला यंत्र।

,"पुरानी अंग्रेज़ी æl" awl, पियर्सर- छेद करने या यन्त्र, " प्रोटो-जर्मेनिक * ælo से (पुराने नॉर्स alr का स्रोत भी,

- डच आल, -

मध्य निम्न जर्मन अल, _

ओल्ड हाई जर्मन अला,

जर्मन अहले), जो अनिश्चित मूल का है।


सारांश यह कि -
आर्य का अर्थ कृषक और "आर्य्य" कृषक-सन्तान हैं। ऋग्वेद में ब्रह्मन् शब्द का एक अर्थ है मन्त्रकर्त्ता। इसी ब्रह्मन् ही से ब्राह्मण शब्द निकला है। ब्रह्मन् अर्थात् मन्त्रकर्त्ता के पुत्र का नाम ब्राह्मण है।  जो भ्रमर की तरह मन्त्र उचारण करे वह बाह्मण है ।

 विश शब्द का एक अर्थ है मनुष्य। इसी विश से वैश्य शब्द की उत्पत्ति है, जिसका अर्थ है मनुष्य-सन्तान। इसी नियम के अनुसार "आर्य्य" शब्द का अर्थ "अर्य्य-पुत्र" अर्थात् कृषक-सन्तान होता है। "आर्य्य" शब्द का अर्थ चाहे कृषक हो, चाहे कृषक सन्तान हो, परिणाम एक ही है। अतएव आदि में "आर्य्य" शब्द कृषक-वाची था।

परन्तु इसमें लज्जा की कोई बात नहीं। कोई समाज ऐसा नहीं जिसमे जीवन धारण करने के लिए न मृगयासक्ति छोड़ कर कृषि करने की ज़रूरत न पड़ी हो और समाज के गौरवशाली महात्माओं ने कृषि न की हो। कोई भी नई बात करने के लिए समाज के मुखिया महात्माओं ही को अग्रगन्ता होना पड़ता है। 

क्योकि ऐसा किये बिना और लोग पुराने पन्थ को छोड़ कर नये पन्थ से जाते संकोच करते हैं। अतएव जिन्होंने कृषिकार्य की उद्भावना पहले पहले की उनको अपने ही हाथ से हल चलाना पड़ा। यही कारण है जो उन्होंने अर्य्य या आर्य्य नाम ग्रहण किया।

वैदिक ऋषि इन्हीं कृषकों के वंशज थे। प्राचीन आर्य्यों की तरह वैदिक मन्त्रकर्त्ता ऋषि भी अपने हाथ से हल चलाते थे।

 इसके प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में "कृष्टी" शब्द अनेक बार

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कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । 

(अग्निपुराण 151/9)


कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !

कृषि करना वैश्य का काम है! 

यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।


मनुस्मृति में वर्णन है कि

वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा ।हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83


ब्राह्मण व क्षत्रिय भी वैश्य के धर्म से निर्वाह करते हुये जहाँ तक सम्भव हो कृषि (खेती) ही न करें  जो कि हल के आधीन है अर्थात् हल आदि के बिना कुछ फल प्राप्त नहीं होता।


अर्थात कृषि कार्य वैश्य  ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।


निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।


परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है। 

इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।


इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार  ने कीनाशों को शूद्र बताया है।


परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा 

सिवाय व्यापार के सायद यही कारण है ।

किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।


और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है 

वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी  अनाज उत्पन्न करता है ।

उस किसान की शान में भी यह  शासन की गुस्ताखी है ।


किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला  सायद दूसरा कोई नहीं  इस संसार में !

परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं !


 फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है  कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के और तब भी किसान और वणिक को  वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत दौंनों को समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने  किसान को शूद्र और वैश्य को हल न पकड़ने का विधान बना डाला और  अन्तत: शूद्र  वर्ण में समायोजित कर दिया है ।


यह आश्चर्य ही है । किसानों को विधान बनाने वाले भी किसान कुी रोटी से पेट भरते हैं  ।


परन्तु गुण कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में  निराधार ही थे ।


किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।


किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है ।

रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है ।


वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्न लगभग शूद्र के स्तर पर ।


यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता  ब्राह्मण की  दृष्टि में निम्न ही है ।

हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले 

 कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ?  विचार कर ले !


श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है । कि


कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥


कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।


वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवरूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।


पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।


परन्तु किसान के लिए यह दुर्भाग्य ही है ।


किसान का जीवन आर्थिक रूप से सदैव से संकट में रहा उसकी फसल का मूल्य व्यापारी ही तय करता है ।

उसके पास कठिन श्रम करने के उपरान्त भी उनका अभाव ही रहा !


परन्तु खाद और बीज का मूल्य भी व्यापारी उच्च दामों पर तय करता है ; और ऊपर से प्राकृतिक आपदा और ईति, के प्रकोप का भी किसान भाजन होता रहता है ।


ईति खेती को हानि पहुँचानेवाले वे उपद्रव है ।    जो किसान का दुर्भाग्य बनकर आते हैं ।

 इन्हें  शास्त्रों में छह प्रकार का बताया गया था :अतिवृष्टिरनावृष्टि: शलभा मूषका: शुका:।प्रत्यासन्नाश्च राजान: षडेता ईतय: स्मृता:।।

(अर्थात् अतिवृष्टि,(अधिक वर्षा) अनावृष्टि(सूखा), टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, पक्षियों की अधिकता तथा दूसरे राजा की चढ़ाई।)

परन्तु अब ईति का पैटर्न ही बदल गया है। 

गाय, नीलगाय और सूअर ।

माऊँ खर पतवार ।

खेती बाड़ी के चक्कर में 

कृषक आज बीमार !!

यद्यपि गायों के लिए कुछ मूर्ख किसान ही दोषी हैं 

जो दूध पीकर गाय दूसरों के नुकसान के लिए छोड़ देते हैं 

परन्तु सब किसान नहीं हर समाज वर्ग में कुछ अपवाद होते ही हैं ।


अब प्रश्न यह बनता है कि जो किसान अन्न और दुग्ध सबको कहें कि   पूरे देश को मुहय्या कराता है; वह वैश्य या शूद्र धर्मी है ?

परन्तु वह शूद्र ही है । फिर भी उसका ही अन्न खाकर पाप नहीं लगता ,?

इसी लिए कोई ब्राह्मण अथवा जो  स्वयं को क्षत्रिय या वणिक मानने वाला उसके अधिकार पाने के समर्थन में साथ नहीं  होता है क्योंकि यह कृषक अब शूद्र ही है ।

और शूद्रों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं होता है 

धर्म शास्त्रों के अनुसार !

भारतीय राजनीति विशेषत: भारतीय जानता पार्टी जो आर. एस. एस . तथा धर्मशास्त्रों की अनुक्रियायों का पालन करना अपना आदर्श मानती है ।

वही लोग किसानों के अधिकार जब्त करने के षड्यंत्र लोकतांत्रिक रूप में बना रहे हैं ।

परन्तु समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार सिद्धांत और नियम भी बदलने चाहिए जोकि बदलते भी हैं  ।

परन्तु रूढ़िवादी समाज इस विचार का विरोधी ही है ।

 यह सर्व विदित है वर्तमान में इस सरकार की नीतियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों के प्रति वफादारी और शूद्रों के प्रति गद्दारी का भाव निहित है ।


सड़क ,घर और अब किसानों की जमीन भी सरकार के अधीन कुछ कूटनीतिपरक नियमों के तहत होगी ।

एसी सरकार की योजना है ।


 वर्तमान केन्द्र सरकार किसानों की कृषि सम्पदा को अपने अधीन करने के लिए एक कपटमूर्त विधेयक लाई थी जिस पर राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद वे कानून भी बन गया है । 


लेकिन किसानों के लिए बने ये कानून है । जो उसकी अस्मिता का संवैधानिक खून ही है  ।


परोक्ष रूप से इन कानूनों से किसानों को नुकसान और निजी खरीदारों व बड़े कॉरपोरेट घरानों को फायदा होगा.

जो सरकार की नीतियों में शरीक है, सामिल है


 किसानों को फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म हो जाएगा। और मजबूर किसान मिट्टी भाव में अपनी उपज व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होगा ।


 देश के करीब 500 अलग-अलग संगठनों ने मिलकर संयुक्त किसान मोर्चे  के बैनर तले संगठित होकर सरकार के काले कानून के  विरोध में लाम बन्द  होकर आन्दोलन जारी कर दियाहैं ।

परन्तु उनके इस आन्दोलन को विरोधी आतंकवादी कारनामा करार दे रहे हैं ।

ये तीन काले कानून ये हैं 

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(1). किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक 2020: इसका उद्देश्य विभिन्न राज्य विधानसभाओं द्वारा गठित कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) द्वारा विनियमित मंडियों के बाहर कृषि उपज की बिक्री की अनुमति देना है.

ताकि मजबूर किसान की फसल का मूल्य मनमाने तरीके व्यापारी तय करेंगे ।


सरकार का कहना है कि किसान इस कानून के जरिये अब (एपीएमसी) मंडियों के बाहर भी अपनी उपज को ऊंचे दामों पर बेच पाएंगे. निजी खरीदारों से बेहतर दाम प्राप्त कर पाएंगे.

परन्तु चालवाजी की भी सरहद पार कर दी यह तो भोले किसान को भरमाकर 

उसे ठगा जाना है क्योंकि विदेश से अनाज आयात या  मंगा कर  भारतीय किसान की  फसल को मूल्य हीन कर दिया जाएगा। ।


लेकिन, सरकारी  दिखावा और दावा मात्र छलाबा है ।


 सरकार ने इस कानून के जरिये( एपीएमसी) मंडियों को एक सीमा में बांध दिया है. एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्केट कमेटी (APMC) के स्वामित्व वाले अनाज बाजार (मंडियों) को उन बिलों में शामिल नहीं किया गया है. 


इसके जरिये बड़े कॉरपोरेट खरीदारों को समझौते के तहत खुली छूट दी गई है. ताकि बिना किसी पंजीकरण और बिना किसी कानून के दायरे में आए हुए वे किसानों की उपज खरीद-बेच सकते हैं.।

परोक्ष रूप से सरकार का समर्थन कॉरपोरेट खरीददारों को रहेगा ।


सरकार धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म कर सकती है, जिस पर सरकार किसानों से अनाज खरीदती है. 


और किसान परेशान और बे शान होकर अपने अस्मिता को खो देगा ।


2. किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक: - इस कानून का उद्देश्य अनुबंध खेती यानी (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग) की अनुुुमति देना है. आप की जमीन को एक निश्चित राशि पर एक पूंजीपति या ठेकेदार किराये पर लेगा और अपने हिसाब से फसल का उत्पादन कर बाजार में बेचेगा.

तब किसान के पास झुनझुना होगा 


और किसान पैसे की तंगी से मजबूर होकर यह करेगा ही और फसल की कीमत तय करने व विवाद की स्थिति का बड़ी कंपनियां लाभ उठाने का प्रयास करेंगी और छोटे किसानों के साथ समझौता नहीं करेंगी किसान खुद बर्बाद हो जाएगा।


तीसरा कानून. (आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक) यह कानून अनाज, दालों, आलू,लहसुन प्याज और खाद्य तिलहन जैसे खाद्य पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति, वितरण को विनियमित (exchanged) करता है. यानी इस तरह के खाद्य पदार्थ आवश्यक वस्तु की सूची से बाहर करने का प्रावधान है. इसके बाद युद्ध व प्राकृतिक आपदा जैसी आपात स्थितियों को छोड़कर भंडारण की कोई सीमा नहीं रह जाएगी.


 इसके चलते कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी. उपज जमा करने के लिए निजी निवेश को छूट होगी और सरकार को पता नहीं चलेगा कि किसके पास कितना स्टॉक है और कहां है ?  

किसान की कृषि सम्पदा का मूल्यांकन निरस्त ही हो जाएगा ।


 नए कानूनों के तहत कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका नुकसान किसानों को ही होगा.


 लेकिन केंद्र सरकार साफ कर चुकी है कि किसी भी कीमत पर कृषि कानून को न तो वापस लिया जाएगा और न ही उसमें कोई फेरबदल किया जाएगा. 


सरकार की यह दमन नीति कानून के तहत काम करेगी 


–  ये सरकारी कानून किसानों के हित में नहीं है और कृषि के निजीकरण को प्रोत्साहन देने वाले हैं. 

 इनसे होर्डर्स( जमा खोरी )और बड़े कॉरपोरेट.(निगमित या समष्टिगत) घरानों को ही फायदा होगा.

किसान मजदूर भी नहीं रहेगा क्योंकि कृषि कार्य नयी तकनीक की मशीनों से ही होगा । 


 होर्डस :- किसी वस्तु की जमाखोरी, नाश या बेचने या बिक्री के लिए उपलब्ध करने से इनकार या किसी सेवा को प्रदान करने से इनकार, यदि ऐसी ज़माखोरी, नाश अथवा इनकार उस या उस जैसी वस्तुओं या सेवाओं की लागत को बढ़ाता है अथवा बढ़ाने की ओर प्रवृत्त करता है।

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यादव योगेश कुमार रोहि

ऋग्वेदः सूक्तं ७.१९
← सूक्तं ७.१८ऋग्वेदः - मण्डल ७
सूक्तं ७.१९
मैत्रावरुणिर्वसिष्ठः।
सूक्तं ७.२० →
दे. इन्द्रः। त्रिष्टुप्।


यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम एकः                      कृष्टीश्च्यावयति प्र विश्वाः।

यः शश्वतो अदाशुषो गयस्य प्रयन्तासि   सुष्वितराय वेदः ॥१॥


त्वं ह त्यदिन्द्र कुत्समावःशुश्रूषमाणस्तन्वा समर्ये।
दासं यच्छुष्णं कुयवं न्यस्मा अरन्धय आर्जुनेयाय शिक्षन् ॥२॥


त्वं धृष्णो धृषता वीतहव्यं प्रावो विश्वाभिरूतिभिः सुदासम् ।
प्र पौरुकुत्सिं त्रसदस्युमावः क्षेत्रसाता वृत्रहत्येषु पूरुम् ॥३॥


त्वं नृभिर्नृमणो देववीतौ भूरीणि वृत्रा हर्यश्व हंसि ।
त्वं नि दस्युं चुमुरिं धुनिं चास्वापयो दभीतये सुहन्तु ॥४॥


तव च्यौत्नानि वज्रहस्त तानि नव यत्पुरो नवतिं च सद्यः ।
निवेशने शततमाविवेषीरहञ्च वृत्रं नमुचिमुताहन् ॥५॥


सना ता त इन्द्र भोजनानि रातहव्याय दाशुषे सुदासे ।
वृष्णे ते हरी वृषणा युनज्मि व्यन्तु ब्रह्माणि पुरुशाक वाजम् ॥६॥


मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टावघाय भूम हरिवः परादै ।
त्रायस्व नोऽवृकेभिर्वरूथैस्तव प्रियासः सूरिषु स्याम ॥७॥

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प्रियास इत्ते मघवन्नभिष्टौ नरो मदेम शरणे सखायः। 
नि तुर्वशं नि याद्वं शिशीह्यतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥८॥


सद्यश्चिन्नु ते मघवन्नभिष्टौ नरःशंसन्त्युक्थशास उक्था ।
ये ते हवेभिर्वि पणीँरदाशन्नस्मान्वृणीष्व युज्याय तस्मै ॥९॥


एते स्तोमा नरां नृतम तुभ्यमस्मद्र्यञ्चो ददतो मघानि ।
तेषामिन्द्र वृत्रहत्ये शिवो भूः सखा च शूरोऽविता च नृणाम् ॥१०॥


नू इन्द्र शूर स्तवमान ऊती ब्रह्मजूतस्तन्वा वावृधस्व ।
उप नो वाजान्मिमीह्युप स्तीन्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥११॥


सायणभाष्यम्

‘यस्तिग्मशृङ्गः' इत्येकादशर्चं द्वितीयं सूक्तं वसिष्ठस्यार्षं त्रैष्टुभमैन्द्रम् । तथा चानुक्रान्तं’ यस्तिग्मशृङ्ग एकादश' इति । आभिप्लविके पञ्चमेऽहन्येतन्निविद्धानम् । सूत्रितं च---‘कया शुभा यस्तिग्मशृङ्ग इति मध्यंदिनः ' ( आश्व. श्रौ. ७. ७ ) इति । विषुवति निष्केवल्यशस्त्रेऽप्येतत्सूक्तम् । सूत्रितं च--’ यस्तिग्मशृङ्गोऽभि त्यं मेषम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ६) इति । महाव्रते निष्केवल्येऽप्येतत् सूक्तम् । सूत्रितं च-’ यस्तिग्मशृङ्गो वृषभो न भीम उग्रो जज्ञे वीर्याय स्वधावान्' (ऐ. आ. ५. २. २ ) इति । आयुष्कामेष्ट्यां ‘मा ते अस्याम्' इतीन्द्रस्य त्रातुर्याज्या । सूत्रितं च – ' मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टौ पाहि नो अग्ने पायुभिः' (आश्व. श्रौ. २. १०) इति ॥

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पदपाठ-

यः । तिग्मऽशृङ्गः । वृषभः । न । भीमः । एकः । कृष्टीः । च्यवयति । प्र । विश्वाः ।यः । शश्वतः । अदाशुषः । गयस्य । प्रऽयन्ता । असि । सुस्विऽतराय । वेदः ॥१।।

“यः= इन्द्रः

 “तिग्मशृङ्गः= तीक्ष्णशृङ्गः

 “वृषभो “ वृषभ 

“भीमः भयंकरः सन् 

“एकः =

 “विश्वाः सर्वान्

 “कृष्टीः  कृषका: 

 “प्र “च्यावयति ।

 “यः चेन्द्रः 

“अदाशुषः अयजमानस्य 

“शश्वतः बहोः 

“गयस्य गृहस्य धनस्य वा । अपहर्ता भवतीति शेष: । हे इन्द्र स त्वं "सुष्वितराय अतिशयेन सोमाभि<वं कुर्वते जनाय "वेदः धनं “प्रयन्ता प्रदाता "असि ॥ तृन्नन्तत्वादत्र षष्ठ्या अभावः । असि इत्यस्याख्यातस्यानुदात्तत्वात् यद्वृत्तयोगाच्चानुदात्तत्वासंभवात् यद्वृत्तयुक्तमाख्यातान्तरमध्याहृत्य योजना कृता ।।

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त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑माव॒ः शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा॑ सम॒र्ये। दासं॒ यच्छुष्णं॒ कुय॑वं॒ न्य॑स्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न् ॥२।।

पदपाठ-

त्वम् । ह । त्यत् । इन्द्र । कुत्सम् । आवः । शुश्रूषमाणः । तन्वा । सऽमर्ये ।दासम् । यत् । शुष्णम् । कुयवम् । नि । अस्मै । अरन्धयः । आर्जुनेयाय । शिक्षन् ॥२।।

हे “इन्द्र “त्वं “ह त्वं खलु “त्यत् तदा "तन्वा =शरीरेण “शुश्रूषमाणः उपचरन् "समर्ेा मर्यैर्मर्त्यैर्योद्धभिः सहिते युद्धे “कुत्सम् "आवः अरक्षः । कदेत्यत्राह । "यत् यदा "आर्जुनेयाय अर्जुन्याः पुत्राय “अस्मै कुत्साय "शिक्षन् धनं प्रयच्छन् "दासं दासनामकमसुरं “शुष्णं च "कुयवं च “नि "अरन्धयः नितरां वशमानयः ॥


पदपाठ-

त्वम् । धृष्णो इति । धृषता । वीतऽहव्यम् । प्र । आवः । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । सुऽदासम् ।

प्र । पौरुऽकुत्सिम् । त्रसदस्युम् । आवः । क्षेत्रऽसाता । वृत्रऽहत्येषु । पूरुम् ॥३।।

हे “धृष्णो =शत्रूणां धर्षकेन्द्र

 "धृषता =धर्षकेण वज्रेण बलेन वा 

"वीतहव्यं= दत्तहविष्कं प्रजनितहविष्कं वा "सुदासं राजानं 

"विश्वाभिः= सर्वाभिः 

“ऊतिभिः= रक्षाभिः 

"प्रावः =प्रकर्षेणारक्षः । किंच 

“वृत्रहत्येषु =युद्धेषु 

"क्षेत्रसाता =क्षेत्रसातौ क्षेत्रस्य भूमेर्भजने निमित्ते पौरुकुत्सिं पुरुकुत्सस्यापत्यं 

“त्रसदस्युं “पूरुं च “प्र “आवः ॥


त्वं नृभि॑र्नृमणो दे॒ववी॑तौ॒ भूरी॑णि वृ॒त्रा ह॑र्यश्व हंसि ।

त्वं नि दस्युं॒ चुमु॑रिं॒ धुनिं॒ चास्वा॑पयो द॒भीत॑ये सु॒हन्तु॑ ॥४

त्वम् । नृऽभिः॑ । नृ॒ऽम॒नः॒ । दे॒वऽवी॑तौ । भूरी॑णि । वृ॒त्रा । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । हं॒सि॒ ।

त्वम् । नि । दस्यु॑म् । चुमु॑रिम् । धुनि॑म् । च॒ । अस्वा॑पयः । द॒भीत॑ये । सु॒ऽहन्तु॑ ॥४

त्वम् । नृऽभिः । नृऽमनः । देवऽवीतौ । भूरीणि । वृत्रा । हरिऽअश्व । हंसि ।

त्वम् । नि । दस्युम् । चुमुरिम् । धुनिम् । च । अस्वापयः । दभीतये । सुऽहन्तु ॥४

हे "नृमणः नृभिर्यज्ञानां नेतृभिः स्तोतृभिर्मननीय स्तोतव्येन्द्र । नृषु मनो यस्येति बहुव्रीहिर्वा । “देववीतौ यज्ञे क्रियमाणे सति संग्रामे वा । देवा विजिगीषवो यस्मिन् वियन्ति गच्छन्तीति संग्रामो देववीतिः। "नृभिः मरुद्भिः सह "भूरीणि बहूनि "वृत्रा वृत्राणि शत्रून् "हंसि मारितवानसि । किंच हे "हर्यश्व इन्द्र “त्वं “दभीतये दभीतिनामकाय राजर्षये । तदर्थमित्यर्थः । “दस्युं “चुमुरिं च “धुनिं च "सुहन्तु सुहन्तुना वज्रेण "नि नितराम् "अस्वापयः । मारितवानसीत्यर्थः ॥


तव॑ च्यौ॒त्नानि॑ वज्रहस्त॒ तानि॒ नव॒ यत्पुरो॑ नव॒तिं च॑ स॒द्यः ।

नि॒वेश॑ने शतत॒मावि॑वेषी॒रह॑ञ्च वृ॒त्रं नमु॑चिमु॒ताह॑न् ॥५

तव॑ । च्यौ॒त्नानि॑ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । तानि॑ । नव॑ । यत् । पुरः॑ । न॒व॒तिम् । च॒ । स॒द्यः ।

नि॒ऽवेश॑ने । श॒त॒ऽत॒मा । अ॒वि॒वे॒षीः॒ । अह॑न् । च॒ । वृ॒त्रम् । नमु॑चिम् । उ॒त । अ॒ह॒न् ॥५

तव । च्यौत्नानि । वज्रऽहस्त । तानि । नव । यत् । पुरः । नवतिम् । च । सद्यः ।

निऽवेशने । शतऽतमा । अविवेषीः । अहन् । च । वृत्रम् । नमुचिम् । उत । अहन् ॥५

हे "वज्रहस्त “तव “च्यौत्नानि बलानि "तानि तादृशानि । "यत् यदा त्वं शम्बरस्य "नव “नवतिं "च “पुरः "सद्यः युगपदेव विदारितवानसीति शेषः । तदा "निवेशने निवेशनार्थं “शततमा शततमीं पुरम् "अविवेषीः व्याप्नोः । "वृत्रं "च "अहन् । "उत अपि च "नमुचिम् “अहन् ॥ ॥ २९ ॥


सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ भोज॑नानि रा॒तह॑व्याय दा॒शुषे॑ सु॒दासे॑ ।

वृष्णे॑ ते॒ हरी॒ वृष॑णा युनज्मि॒ व्यन्तु॒ ब्रह्मा॑णि पुरुशाक॒ वाज॑म् ॥६

सना॑ । ता । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । भोज॑नानि । रा॒तऽह॑व्याय । दा॒शुषे॑ । सु॒ऽदासे॑ ।

वृष्णे॑ । ते॒ । हरी॒ इति॑ । वृष॑णा । यु॒न॒ज्मि॒ । व्यन्तु॑ । ब्रह्मा॑णि । पु॒रु॒ऽशा॒क॒ । वाज॑म् ॥६

सना । ता । ते । इन्द्र । भोजनानि । रातऽहव्याय । दाशुषे । सुऽदासे ।

वृष्णे । ते । हरी इति । वृषणा । युनज्मि । व्यन्तु । ब्रह्माणि । पुरुऽशाक । वाजम् ॥६

हे "इन्द्र "ते तव "रातहव्याय दत्तहव्याय "दाशुषे यजमानाय "सुदासे "ता तानि त्वया दत्तानि “भोजनानि भोग्यानि धनानि “सना सनानि सनातनानि बभूवुरिति शेषः । हे "पुरुशाक बहुकर्मन्निन्द्र "वृष्णे कामानां वर्षित्रे "ते तुभ्यम् । त्वामानेतुमित्यर्थः । "वृषणा वृषणौ “हरी अश्वौ “युनज्मि रथे योजयामि । “ब्रह्माणि अस्मदीयानि स्तोत्राणि "वाजं बलिनं त्वां “व्यन्तु गच्छन्तु ॥


मा ते॑ अ॒स्यां स॑हसाव॒न्परि॑ष्टाव॒घाय॑ भूम हरिवः परा॒दै ।

त्राय॑स्व नोऽवृ॒केभि॒र्वरू॑थै॒स्तव॑ प्रि॒यास॑ः सू॒रिषु॑ स्याम ॥७

मा । ते॒ । अ॒स्याम् । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । परि॑ष्टौ । अ॒घाय॑ । भू॒म॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । प॒रा॒ऽदै ।

त्राय॑स्व । नः॒ । अ॒वृ॒केभिः॑ । वरू॑थैः । तव॑ । प्रि॒यासः॑ । सू॒रिषु॑ । स्या॒म॒ ॥७

मा । ते । अस्याम् । सहसाऽवन् । परिष्टौ । अघाय । भूम । हरिऽवः । पराऽदै ।

त्रायस्व । नः । अवृकेभिः । वरूथैः । तव । प्रियासः । सूरिषु । स्याम ॥७

हे "सहसावन् बलवन् "हरिवः हरिवन्निन्द्र "ते तव "अस्यां स्तोत्रेणास्माभिः क्रियमाणायां “परिष्टौ अन्वेषणायां "परादै परादानाय "अघाय अ(आ?)हन्त्रे वयं "मा "भूम । किंच "नः अस्मान् “अवृकेभिः अबाधैः "वरूथैः । वारयन्त्युपद्रवेभ्य इति वरूथानि रक्षणानि । तैः “त्रायस्व पाहि । “तव "सूरिषु स्तोतृषु मध्ये वयं "प्रियासः प्रियाः स्याम भूयास्म ॥


प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः ।

नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥८

प्रि॒यासः॑ । इत् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नरः॑ । म॒दे॒म॒ । श॒र॒णे । सखा॑यः ।

नि । तु॒र्वश॑म् । नि । याद्व॑म् । शि॒शी॒हि॒ । अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥८

प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः ।

नि । तुर्वशम् । नि । याद्वम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८

हे "मघवन् धनवन्निन्द्र “ते तव "अभिष्टौ अभ्येषणे "नरः स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः प्रियाश्च सन्तः “शरणे "इत् गृह एव “मदेम मोदेम । किंच “अतिथिग्वाय । पूजयातिथीन् गच्छतीत्यतिथिग्वः । तस्मै सुदासे दिवोदासाय वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं शंसनीयं सुखं "करिष्यन् कुर्वन् "तुर्वशं राजानं "नि "शिशीहि वशं कुरु । "याद्वं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥


स॒द्यश्चि॒न्नु ते म॑घवन्न॒भिष्टौ॒ नर॑ः शंसन्त्युक्थ॒शास॑ उ॒क्था ।

ये ते॒ हवे॑भि॒र्वि प॒णीँरदा॑शन्न॒स्मान्वृ॑णीष्व॒ युज्या॑य॒ तस्मै॑ ॥९

स॒द्यः । चि॒त् । नु । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नरः॑ । शं॒स॒न्ति॒ । उ॒क्थ॒ऽशासः॑ । उ॒क्था ।

ये । ते॒ । हवे॑भिः । वि । प॒णीन् । अदा॑शन् । अ॒स्मान् । वृ॒णी॒ष्व॒ । युज्या॑य । तस्मै॑ ॥९

सद्यः । चित् । नु । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । शंसन्ति । उक्थऽशासः । उक्था ।

ये । ते । हवेभिः । वि । पणीन् । अदाशन् । अस्मान् । वृणीष्व । युज्याय । तस्मै ॥९

हे "मघवन् धनवन्निन्द्र "ते तव “नु अद्य "अभिष्टौ अभ्येषणे "ये "नरः “उक्थशासः उक्थानां शंसितारः “उक्था उक्थानि शस्त्राणि "सद्यश्चित् सद्य एव “शंसन्ति । किंच "ते तव "हवेभिः स्तोत्रैः "पणीन् अप्रदानशीलान् वणिजोऽपि “वि “अदाशन् । धनानि विशेषेणादापयन्नित्यर्थः । तान् "अस्मान् "तस्मै "युज्याय सख्याय तत्सख्यमनुवर्तयितुं "वृणीष्व परिगृहाण ॥


ए॒ते स्तोमा॑ न॒रां नृ॑तम॒ तुभ्य॑मस्म॒द्र्य॑ञ्चो॒ दद॑तो म॒घानि॑ ।

तेषा॑मिन्द्र वृत्र॒हत्ये॑ शि॒वो भू॒ः सखा॑ च॒ शूरो॑ऽवि॒ता च॑ नृ॒णाम् ॥१०

ए॒ते । स्तोमाः॑ । न॒राम् । नृ॒ऽत॒म॒ । तुभ्य॑म् । अ॒स्म॒द्र्य॑ञ्चः । दद॑तः । म॒घानि॑ ।

तेषा॑म् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । शि॒वः । भूः॒ । सखा॑ । च॒ । शूरः॑ । अ॒वि॒ता । च॒ । नृ॒णाम् ॥१०

एते । स्तोमाः । नराम् । नृऽतम । तुभ्यम् । अस्मद्र्यञ्चः । ददतः । मघानि ।

तेषाम् । इन्द्र । वृत्रऽहत्ये । शिवः । भूः । सखा । च । शूरः । अविता । च । नृणाम् ॥१०

हे "नृतम नेतृतम "इन्द्र "तुभ्यं "नरां नेतॄणां ये “एते "स्तोमाः संघाः "मघानि मंहनीयानि - हवींषि “ददतः ददन्तः "अस्मद्र्यञ्चः अस्मदभिमुखाः अभूवन्निति शेषः । "तेषां "नृणां "वृत्रहत्ये संग्रामे "शिवः कल्याणकृत् 'भूः भव। "सखा “च भूः । “अविता' रक्षिता “च भूः ॥


नू इ॑न्द्र शूर॒ स्तव॑मान ऊ॒ती ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा॑ वावृधस्व ।

उप॑ नो॒ वाजा॑न्मिमी॒ह्युप॒ स्तीन्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒ः सदा॑ नः ॥११

नु । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । स्तव॑मानः । ऊ॒ती । ब्रह्म॑ऽजूतः । त॒न्वा॑ । व॒वृ॒ध॒स्व॒ ।

उप॑ । नः॒ । वाजा॑न् । मि॒मी॒हि॒ । उप॑ । स्तीन् । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥११

नु । इन्द्र । शूर । स्तवमानः । ऊती । ब्रह्मऽजूतः । तन्वा । ववृधस्व ।

उप । नः । वाजान् । मिमीहि । उप । स्तीन् । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥११

हे "शूर “इन्द्र “नु अद्य "स्तवमानः अस्माभिः स्तूयमानः “ब्रह्मजूतः ब्रह्मणा स्तोत्रेण प्रेरितः “तन्वा शरीरेण ऊत्या रक्षणेन’ “ववृधस्व । अपि च "नः अस्मभ्यं “वाजान् अन्नानि “उप “मिमीहि । प्रयच्छेत्यर्थः । "स्तीन गृहांश्च “उप मिमीहि । स्पष्टमन्यत् ॥ ॥ ३० ॥


वेदार्थस्य प्रकाशेन तमो हार्दं निवारयन् ।

पुमर्थांश्चतुरो देयाद्विद्यातीर्थमहेश्वरः ॥


इति श्रीमद्राजाधिराजपरमेश्वरवैदिकमार्गप्रवर्तकश्रीवीरबुक्कभूपालसाम्राज्यधुरंधरेण सायणाचार्येण विरचिते माधवीये वेदार्थप्रकाशे ऋक्संहिताभाष्ये

पञ्चमाष्टके द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥



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