रम् धातुना सह कृदन्त-घञ् प्रत्ययं संयोज्य राम-प्रातिपदिक शब्द:।
(रम् धातु से कृदन्त घञ् प्रत्यय लगाकर राम शब्द की निष्पत्ति) राम प्रातिपदिक है ;परन्तु राम: एक पद है।
़धातुं, प्रत्ययं, प्रत्ययान्तं च विहाय अन्येषां सार्थकशब्दानां प्रातिपदिकसंज्ञा भवति ।
(हिन्दी - धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्त को छोडकर अन्य सार्थक शब्दों की प्रातिपदिक संज्ञा होती है अर्थात् उक्त को छोडकर अन्य को प्रातिपदिक कहते हैं ।
प्रातिपदिकम् (व्याकरणे
क्रियापदानां मूलं धातुः तद्वत् नामपदानां मूलं प्रातिपदिकम् इत्युच्यते।
धातुं, प्रत्ययं, प्रत्ययान्तं च विहाय अन्येषां सार्थकशब्दानां प्रातिपदिकसंज्ञा भवति ।
"अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपदिकम्" इति सूत्रे) =अर्थवत् अधातु अप्रत्यय प्रातिपदिकम्
अर्थात् अर्थसहितं किन्तु धातुः नास्ति प्रत्यय अपि नास्ति। राम: इत्यस्य शब्दस्य प्रातिपदिकम् अस्ति राम इति।
(पदानां बीजं भवति प्रातिपदिकम्)।
एकः वर्ण अपि अर्थपूर्णः सन् शब्दो भवितुमर्हति यथा ‘ अ ‘ इति विष्णुपर्यायः ।शक्तं पदं इति खलु तत्र प्रातिपदिकस्य तथा प्रत्ययस्य योजनेन शक्तिं प्राप्यते।।
प्रातिपदिकम् (व्याकरणे
विद्वान् कीदृग् वचो ब्रूते?
को रोगी? कश्च नास्तिकः?
कीदृक्चन्द्रं न पश्यन्ति?
सूत्रं तत् पाणिनेर्वद ॥
इति काचन प्रहेलिका प्रसिद्धा।
★"अर्थवदधातुरप्रत्ययःप्रातिपदिकम्"★ इत्युत्तरम्
१-(विद्वान्) (कीदृग्) वचो ब्रूते ? अर्थवत्।
२-को (रोगी) ? अधातुः (धातुहीनः) ।
३- कश्च नास्तिकः? अप्रत्ययः (प्रत्ययो विश्वासस्तवद् हीन: ) ।
४-कीदृक्चन्द्रं न पश्यन्ति ? प्रातिपदिकम् (प्रतिपत्तिथौ वर्तमानम्) । तच्चतुर्योगात् पूर्वोक्तं पाणिनिसूत्रम्।
लोके प्रातिपदिकशब्दस्य बहवोर्थाः सन्ति। प्रतिपदिति शब्दात् "कालाट्ठञ्" इति सूत्रेण निष्पन्नः प्रातिपदिकशब्दस्त्रिलिङ्गी प्रतिपत्तिथिजातार्थप्रतिपत्तिकरः । तयैव निष्पत्त्या वह्निशब्देपि शक्तिरस्ति शब्दस्यास्य । वैयाकरणास्तु प्रत्ययहीनस्य नामशब्दस्य नाम वदन्ति प्रातिपदिकमिति नपुंसकलिङ्गि। पदं पदं प्रति सम्बन्धात्तस्य तादृङ् नाम। तल्लक्षणं च पाणिनिना सूत्रद्वयेनोक्तम् – *"अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्"" "कृत्तद्धितसमासाश्च"* इति ।तत्र प्रथमेन धात्वन्यः प्रत्ययहीनोर्थवाञ्च्छब्द आम्नातः। धातोस्तिङ्भिन्नप्रत्यययोजनेन निष्पन्नाः पठनगत्यादिशब्दाः, नामशब्देभ्यः प्रत्यययोजनेन निष्पन्ना दाशरथ्यादयो नामान्तरशब्दाः, अनेकपदयोजनानन्तरं सुब्लोपेन निष्पन्ना राजपुरुषादयः समस्तशब्दाश्च द्वितीयेन सूत्रेण प्रातिपदिकसंज्ञया सङ्गृह्यन्ते। "अपदं न प्रयोक्तव्यम्" इति विधिः। अतश्च केवलप्रातिपदिकस्य प्रयोगो निषिद्धः । किं तर्हि?
"सुप्तिङन्तं पदम्"। प्रातिपदिकात् प्रकृतेः सुप्प्रत्यययानां नामशब्दानां धातोः प्रकृतेस्तिङ्प्रत्ययानां च योजनेनार्थवन्ति पदानि सम्भवन्ति।
प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे स्वौजस्-प्रत्ययास्तद्भिन्नार्थेष्वमादयश्च युज्यन्ते। एवमर्थवन्ति पदानि प्रयोगार्हाणि सम्भवन्ति।
संस्कृत- में मूल शब्द या मूल धातु का प्रयोग वाक्यों में नहीं होता है वहाँ मूल शब्द को प्रातिपदिक कहते हैं। परन्तु जब प्रातिपदिक में सुप् और तिङ् प्रत्यय लगाते हैं तो उनकी पद संज्ञा बन जाती है।
किन्तु हर मूल शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा (प्रातिपदिक नाम) नहीं होता है। प्रातिपदिक संज्ञा करने के लिए महर्षि पाणिनि ने दो सूत्र लिखे हैं –
___________________________________
(१)-अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् –
अर्थात्- वैसे शब्द की प्रातिपदिक संज्ञा होती है जो अर्थवान् (सार्थक) हो, किन्तु धातु या प्रत्यय नहीं हों।
(२) -कृत्तद्धितसमासाश्चर -
—कृत्प्रत्ययान्त (धातु के अन्त में जहाँ ‘तव्यत्’, ‘अनीयर’, ‘ण्वुल्(अक)’, ‘तृच’ आदि कृत्प्रत्यय लगे हों) तथा तद्वितप्रत्ययान्त (शब्द के अन्त में जहाँ ‘घञ्’, ‘अण्’ आदि तद्धित प्रत्यय हों) तथा समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
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इन प्रातिपदिकसंज्ञक शब्दों के अन्त में सु, औ, जस् आदि (२१) सुप् विभक्तियाँ लगती हैं, तब वह सुबन्त होता है और उसकी पदसंज्ञा होती है।
इन पदों का ही वाक्यों में प्रयोग होता है, क्योंकि जो पद नहीं होता है उसका प्रयोग वाक्यों में नहीं होता है – ‘अपदं न प्रयुञ्जीत’।
संस्कृत भाषा में सात विभक्तियाँ होती हैं तथा प्रत्येक विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में अलग-अलग रूप होने पर २१ रूप होते हैं।७×३=२१।
ये सुप् कहे जाते हैं। सुप में ‘सु’ से आरम्भ कर ‘प्’ तक २१ प्रत्यय (विभक्ति) हैं।
जिस वर्ण अथवा वर्ण समूह को शब्द के अन्त में जोड़कर नये शब्दों या निर्माण करते हैं; उसे प्रत्यय कहते हैं।
जिन प्रत्ययों को धातुओं(शब्द अथवा क्रिया के मूल रूप) )से जोड़कर उनसे "विशेषण" अव्यय और क्रिया विशेषण" बनाए जाते हैं, उन्हें कृत-प्रत्यय कहते हैं, तथा इस प्रकार कृत्-प्रत्ययों से बनने वाले "विशेषण या अव्यय और क्रियाविशेषण" कृदन्त कहलाते हैं।
(कृदन्त प्रत्ययों के द्वारा -
१-अपूर्ण वर्तमान काल, (जिसमें "शतृ" अथवा "शानच्" प्रत्यय द्वारा निर्मित कृदन्तपद "क्रियाविशेषण" की भूमिका का ही निर्वहन करते हैं।)
२-पूर्वकालिक क्रियात्मक कृदन्त,
३-कर्म वाच्य आदि प्रकार के वाक्य बनाए जाते हैं।
कृदन्त के प्रमुख प्रकार निम्न हैं-
- १-पूर्वकालिक क्रियात्मक कृन्दत।
- २-वर्तमानकालिक क्रियात्मक कृदन्त।
- ३-भूतकालिक क्रियात्मक कृदन्त।
- ४-हेतुवाचक कृदन्त।
- ५-विधिवाचक कृदन्त।
पूर्वकालिक क्रियात्मक कृदन्त-★,
जब काई क्रिया पहले हो चुकी हो और उसके बाद दूसरी क्रिया हो, तब पहल होने वाली क्रिया को पूर्वाकालिक.( (Absolutive Verb)-निरपेक्ष क्रिया Antecedent verb) क्रिया कहते हैं।
पूर्वकालिक क्रिया को बतलाने के लिए पूर्वकालिक कृदन्त का प्रयोग करते हैं।
इसका प्रयोग (अव्यय) की तरह होता है। अतः इसके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
(" क्त्वा और ल्यप् पूर्वकालिक कृदन्त के उदाहरण है। ये ‘करके’ के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
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अनुबन्ध = शब्द का अर्थ है (बंध या सातत्य अथवा संबंध जोड़नेवाला)
व्याकरण में एक सांकेतिक अक्षर जो किसी शब्द के (स्वर या विभक्ति में किसी विशेषता का द्योतक हो, जिसके साथ वह जुड़ा हुआ हो।
पाणिनि ने जिसे "इत्" कहा है उसका व्याकरण में प्राचीन नाम अनुबंध या इत् है जिसका प्रयोग व्याकरणिक वर्णन में एकरूपता लाने के लिए किया जाता है।
प्रातिपदिकों से प्रत्ययों कें अनुबंध में दोनों के योग से नए शब्द की रचना होती है जिसका अर्थ बदल जाता है, यथा स्त्रीलिंग बनाने के लिए
"" इसी प्रकार -
अश्व+टाप्=अश्वा,
बाल+टाप्=बाला,
वत्स+टाप्=वत्सा।
२-(ङीप् तथा "ङीष्" प्रत्यय का "ई" अंश अनुबंध से पुल्लिंग शब्दों में स्त्रीत्व का बोध कराता है, यथा-
इसी तरह "पच्" में "ल्युट्" प्रत्यय के अनुबंध में ल्, ट् व्यंजन ध्वनियाँ लुप्त हो जाती है, "उ" बदलकर "अन" आदेश बन जाता है, यथा पच्+ल्युट् =पचनम्।
एक ही अर्थ की प्रतीति होने पर भी यह शब्द नपुंसक लिङ में होता हैं। भिन्न प्रत्यय के अनुबंध से लिंगपरिवर्तन हो जाता है।
जैसे-★
- ज्ञा + क्त्वा= ज्ञात्वा
इसमें ‘क’ अनुबंध है, इसलिए जुड़ते समय इसका लोप हो गया। क्त्वा प्रत्यय-‘क्त्वा’ प्रत्यय जोड़ते समय धातु में केवल ‘त्वा’ जुड़ता है।
जैसे-
त्वा जोड़ते समय कुछ धातुओं में ‘इकार’ (इ या ई की मात्रा) भी जुड़ता है।
जैसे-
जैसे-
जैसे-
" हेतुवाचक "तुमुन्" कृदन्त प्रत्यय-‘करने के लिए’ या ‘ करने को’ के अर्थ में ‘तुमुन्’ प्रत्यय जोड़ते हैं। ‘तुमुन्’ जोड़ते समय प्रायः ‘तुम’ ही धातुओं में जुड़ता है। ये शब्द अव्यय होते हैं। इनके अंत में ‘म्’ रहता है।
जैसे-
‘("तुमुन्=करने के लिए)
जैसे-
- सः खेलितुं इच्छति। = वह खेलना चाहता है।/ वह खेलने के लिए इच्छा करता है ।
- सः खेलितुं शक्नोति। = वह खेल सकता है।
- __________________________________
- (विधिवाचक कृदन्त-)‘चाहिए’ अथवा ‘योग्य’ के अर्थ को प्रकट करने के लिए धातु में- (अनीयर, या तव्यत् या यत्) -प्रत्यय लगाकर विधिवाचक कृदन्त बनाते हैं। यह विशेषण होता है।
अतः इसका लिंग, वचन और कारक विशेष्य के अनुसार रहता है।
जैसे-
(भूतकालिक कृदन्त-(क्त और क्त्वतु) प्रत्यय भूतकालिक कृदन्त हैं।
‘क्त’ प्रत्यय-धातुओं के साथ कर्तृवाच्य (Active Voice) में तथा भूतकालिक कृदन्त(past participle )का प्रयोग भूतकाल की क्रिया के स्थान पर किया जा सकता है।
इसका लिंग, कारक और वचन कर्ता के समान होता है। धातु में ‘क्त’ प्रत्यय जोड़ते समय प्रायः केवल ‘त’ शेष रहता है।
जैसे-
‘क्त’ प्रत्यय से युक्त शब्द के रूप पुल्लिंग में ‘देव’ शब्द के समान, स्त्रीलिंग में ‘माला’ शब्द के समान और नपुंसकलिंग में ‘जल’ शब्द के समान होते हैं। इनका वाक्यों में प्रयोग निम्नानुसार होता है।
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रामः गतः। = राम गया।
सीता गता। = सीता गई।
बालकौ गतौ। = दो बालक गये।
बालिकाः गताः। = सभी बालिका गईं।
जैसे-
इनका वाक्यों में प्रयोग निम्नानुसार होता है-
- हरीश: ग्रामात् आगतवान्। = हरीश गाँव से आया।
- मार्जार: मूषक हतवान्। = बिल्लोटे ने चूहे को मार डाला।
विशेषणरूप में प्रयोग = (गतवन्तं)/गतं रामं शोचति = ( विशेषण- गए हुए राम को )शोक करता है।
(ख)कर्मवाच्य में (क्त) प्रत्यय =
यदि (क्त) प्रत्ययान्त शब्द क्रिया के रूप में प्रयुक्त है, तब कर्त्ता में तृतीया, कर्म में प्रथमा तथा क्तान्त क्रिया शब्द के लिङ्ग-वचन-विभक्ति कर्म के अनुसार होंगे, और यदि क्तान्त शब्द के विशेषण होने पर उसके लिङ्ग-वचन-विभक्ति विशेष्य के अनुसार होंगे।)
अहं पाठं लिखामि = मैं पाठ लिखता हूं। (कतृवाच्य)
मया पाठः लिखितः = मेरे द्वारा पाठ लिखा गया। (कर्म वाच्य)
रामः रोटिकां खादति = राम रोटी खाता है।
रामेण रोटिका खादिता = राम के द्वारा रोटी खाई गई।
चित्रकारः चित्रं करोति = चित्रकार चित्र बनाता है।
चित्रकारेण चित्रं कृतम् = चित्रकार के द्वारा चित्र किया गया।
(करता हुआ, करते हुए’ आदि अर्थ के लिए धातु में शतृ या शानच् प्रत्यय लगाए जाते हैं।
शतृ प्रत्यय-शतृ प्रत्यय-शतृ प्रत्यय का सदैव परस्मैपदी क्रिया पद को रूप में धातुओं में जुड़कर प्रयोग होता है। धातु के साथ जुड़ते समय केवल ‘अत्’ शेष रहता है। इनके रूप "अत्" अंत वाले शब्दों के समान चलते हैं।
जैसे-
शानच् प्रत्यय आत्मनेदी धातुओं में जोड़े जाते हैं। धातु के साथ जुड़ते समय (शानच् )का केवल ‘आन्’ या ‘मान’ शेष रहता है।
जैसे-
शतृ के समान यह भी शानच् प्रत्यय युक्त क्रिया पद भी विशेषण होता है। अतः इसका लिंग, वचन और कारक "विशेष्य" के अनुसार रहता है।
पुल्लिंग में इसकी कारक रचना "देव के समान, स्त्रीलिंग में "लता के समान तथा नपुंसकलिंग में "फल के समान होती है।
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इससे भाववाचक संज्ञा पद बनाए जाते हैं। ये पद स्त्रीलिंगी होते हैं। धातु के साथ जुड़ते समय (क्तिन्) का केवल ‘ति’ शेष बचता है।
जैसे-
संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और अव्यय-पदों में जिन "प्रत्ययों" के योग से नये शब्द बनाए जाते हैं, उन्हें तद्धित प्रत्यय कहते हैं।
प्रत्यय के साथ कोष्टक में दिए गए शब्द ही प्रायः शब्दों के साथ जुड़ते हैं।
जैसे-
1. अण् (कारः) प्रत्यय-कुंभ + कारः = कुंभकारः
(इसी प्रकार भाष्यकारः ग्रन्थकारः)
2. तत् (ता) प्रत्यय-भाव के अर्थ में
सुन्दर + तल् = सुन्दरता – गुरु + तल् = गुरुता।
3. तरप् (तर) प्रत्यय-जब दो में से एक को गुण में दूसरे से अधिक या कम बतलाना हो, तो ‘तरप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है।
यह "विशेषण" की उत्तरावस्था ( तुलनात्मक अवस्था )है। इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘तर’ जुड़ता है।
अल्प + तरप् = अल्पतरः (से थोड़ा)
लघु + तरप् = लघुतरः (से छोटा)
स्थूल + तरप् = स्थूलतरः (से मोटा)
कृश + तरप् = कृशतरः (से दुबला)
दूर + तरप् = दूरतरः (से दूर)
4. तमप् (तम) प्रत्यय-जब अनेक में से एक के गुण को सबसे अधिक या कम बतलाना हो, तो ‘तमप्’ प्रत्यय जोड़ा जाता है। यह विशेषण की उत्तमावस्था है। इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘तुम’ जुड़ता है।
जैसे-
अल्प + तमप् = अल्पतमः (सबसे थोड़ा)
लघु + तमप् = लघुतमः (सबसे छोटा)
स्थूल + तमप = स्थूलतमः (सबसे मोटा)
कृश + तमप् = कृशतमः (सबसे दुबला)
दूर + तमप् = दूरतमः (सबसे दूर)
5. मतुप् (मत्, वत्) प्रत्यय-वह इसमें है या वह इसका है-इस अर्थ में मतुप का प्रयोग होता है। मतुप् के पहले ‘अ’ स्वर रहने पर ‘म’ का ‘व’ हो जाता है।
इसमें धातु में जोड़ते समय केवल ‘मान्’ जुड़ता है।
जैसे-
अंशु + मतुप् = अंशुमान् (किरणों वाला)
बुद्धि + मतुप् = बुद्धिमान् (बुद्धि वाला)
बल + मतुप् = बलवान् (बल वाला)
गुण + मतुप् = गुणवान् (गुण वाला)
जैसे-
बल + इनि = बली (बलवान)
गुण + इनि = गुणी (गुणवान)
स्त्री प्रत्यय
टाप् (आ) और ङीप् (ई), इका, ई ङीष् (ई), डीन् (ई) प्रत्यय लगाकर रत्रीलिंग शब्द बनाए जाते हैं।
1. अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में टाप् (आ) प्रत्यय लगाकर
पंडित + टाप् (आ) = पंडिता
अज + टाप् (आ) = अजा
2. पुल्लिंग शब्दों के अंत में अक हो, तो इका हो जाता है।
जैसे-
बालक = बालिका, गायक = गायिका
3. ऋकारान्त पुल्लिंग शब्दों में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
अभिनेतृ + ङीप् (ई) = अभिनेत्री
कर्तृ + ङीप् (ई) = की
4. व्यंजनांत पुल्लिंग शब्दों के अंत में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
तपस्विन् = तपस्विनी,
श्रीमत् = श्रीमती
स्वामिन् = स्वामिनी
5. उकारांत गुणवाचक पुल्लिंक शब्दों और षित् आदि वाले शब्दों के अंत में ङीप् (ई) प्रत्यय लगाकर
नर्तकः = नर्तकी,
रजकः = रजकी
6. नु, नर आदि पुल्लिंग शब्दों के अंत में छीन् (ई) प्रत्यय लगाकर
नृ (ना) + ङीन् = नारी,
नर (नरः) + ङीन् = नारी
ब्राह्मण + ङीन् = ब्राह्मणी
अभ्यास-★
1. निम्नलिखित में कृत प्रत्यय पहचानिए-
गत्वा, कृत्वा, दृष्टवा, पठितम्, पुष्टवा, कोपितुम्, नत्वा, नेतुम्, याचितुम्।
2. निम्नलिखित में धातु और प्रत्यय अलग-अलग कीजिए-
पठितुम्, करणीयम्, दृष्टवा, पठित्वा, त्यक्तवा, जितुम्, विस्मृत्य, उपकृत्य।
3. निम्नलिखित उपसर्गयुक्त धातुओं में ल्यप् प्रत्यय जोड़िए-
प्र + पा,
- वि + जि,
- प्र + नृत्,
- सम् + भाष,
- प्र + भाष,
- प्र + नश्,
- प्र + स्था,
- प्र + नम्,
- वि + स्मृ,
- सम् + कृत,
- सम् + भू,
- प्र + हस्,
- सम् + भ्रम्,
- वि + हृ,
- वि + लिख,
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