शनिवार, 8 जनवरी 2022

राम के द्वारा "सुरापान करते हुए" वर्णन करके राम के भगवान माने जाने को वाल्मीकि रामायणकार ने अमान्य करदिया है।

सीतामादाय हस्तेन मधु मैरेयकं शुचि।।            पाययामास ककुस्त्थ: शचीमिव पुरंदर:।।१८।।

सीताम्=सीता को । आदाय= लाकर ।हस्तेन=हाथ के द्वारा। मधु= मदिरा । मैरेयक= कामोत्पादक। शुचि= शृङ्गाररस अमरःकोश। पाययामास= पिलाई। ककुस्त्थ:=राम । शचीम् इव पुरन्दर= शचि को जैसे इन्द्र पिलाता है ।

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अर्थ:- जैसे पुरन्दर इन्द्र अपनी पत्नी शचि को  मैरेयक  नामक मधु (सुरा ) का पान कराते हैं उसी प्रकार ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने अपने हाथ से लाकर काम अथवा श्रृँगाररस उत्पन्न करने हेतु सीता को  मैरेयक नामक मधु (सुरा) का पान कराया।१८।

विदित हो कि 'मधुशाला' सामासिक पद में मधु शराब कि वाचक है न कि सुधा-( शहद) कि ...
और फिर इन्द्र देवों का राजा अहिल्या जैसी साध्वी को साथ भी व्यभिचार सी इच्छा क्रियान्वित करता है तो यह विचारणीय ही है ।
स्वयं वाल्मीकि रामायण को बाल काण्ड नें सुरा पीने वाले को सुर" ( देव) कहा है ।

वाल्मीकि रामायण-
बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
 सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 

“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”

 सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्‍चासुरा: स्मृता:॥ ३८।
(वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड)
उक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. 

चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे। 

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
 प्रसंग ( समुद्र मंथन.) विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं ।

और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ।

.... "असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
 ('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई. 

वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
 इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी" के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है.।

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ये तो सर्वविदित ही है कि इन्द्र सुरा और सुन्दरियों के रूपरस का  पान करता रहता था। 
इन्द्र एक व्यभिचारी देव था।

राम की इन्द्र चरित्र से तुलना करना भी उनके भगवान होने पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है ।

परन्तु रामायण लिखने वाले लोगों ने तत्कालीन पुष्यमित्र कालीन संस्कृति को राम के चरित्र पर आरोपित करके क्या राम के आदर्श-रूप को नष्ट नहीं किया ?
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विशेष:-

 मैरेयकं-(मारं कामं जनयतीति इति मैरेयकं (मार +ढक् ) निपातनात् साधुः ) सेक्स उत्पन्न करने वाली  मद्यविशेषः ही मैरेयक है  । देखें  अमरःकोश । २। १० ।

प्रश्न चिन्ह तो बाल्मीकि के नाम पर रामायण लिखने वालों ने लगाया अन्यथा ईसा से 563  वर्ष पूर्व जन्म लेने वाले बुद्ध को राम के समकालीन क्यों बता दिया ? ।

कुछ लोगों का कहना है। कि हमने लेख में अयोध्या कांड (109/34) का जो श्लोक उद्धृत किया है उस का अर्थ सही नहीं किया है. 

उस में 'बुद्धः' शब्द का अर्थ 'बुद्धि मान' है, 'महात्मा बुद्ध' नहीं है , क्योंकि राम महात्मा बुद्ध से पहले हो चुके थे.

विवादास्पद श्लोक इस प्रकार है:

'यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि'
यहाँ जा बालि ऋषि और राम काम संवाद है ।

राम जा बालि ऋषि से कहते हैं-'जैसे चोर है वैसे ही बुद्ध है. तथागत (बुद्ध) नास्तिक है.' अपने इस अर्थ को सही सिद्ध करने के लिए  पुराने और नए टीकाकारों के अर्थ यहां प्रस्तुत है:

(1) 15वीं सदी की गोविंदराज ने 'रामायणभूषण' नामक संस्कृत टीका में
उक्त स्थल की व्याख्या करते हुए लिखा है:

"तथागतम् बुद्धतुल्यम्

अर्थात तथागत का अर्थ है-बुद्ध जैसे.
 परन्तु फिर भी टीका कार या यह तर्क रखने पर भी बुद्ध की पूर्व कालिक स्थिति ही यहाँ सिद्ध होती है।

(2) 18वीं सदी के प्रथम चरण में हुए व्याकरण के महापंडित नागेश भट्ट ने
'रामायण तिलक' नामक संस्कृत टीका में लिखा है।

बौद्धादयो राज्ञश्चोरवद् दंड्याः इत्याह यथा हीति बुद्धो बुद्धमतानुसारी यथा चोरवद् दंड्यः इति हि प्रसिद्धम्'.

अर्थात बौद्धमत को मानने वालों को राजा यह चोर की तरह दंड दे. बुद्ध का अर्थ है-बौद्ध को मानने वाला ही हुआ।.

(3) गीता प्रेस, गोरखपुर से हिंदी टीका सहित छपी वाल्मीकिरामायण' में उक्त
श्लोक की टीका में लिखा है: 'जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी)
बुद्ध (बौद्ध मत का अनुयायी) भी दंडनीय है।

 तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहां इसी कोटि में समझो.' (श्री मद्वाल्मीकिरामायण, संवत 2017, पृष्ठ संख्या 468-69).

इन प्राचीन और अर्वाचीन टीकाकारों के अतिरिक्त डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी,
चंद्रशेखर पांडेय " आदि विद्वानों ने अपनी कृतियों क्रमशः, हिंदी साहित्य की भूमिका' और संस्कृत साहित्य का इतिहास' में यही अर्थ लिखा है.

 ऐसे में यह कहना सरासर गलत है।
 
इस श्लोक में प्रयुक्त 'बुद्ध' शब्द का अर्थ 'बुद्धिवाला है।' यह अर्थ किसी भी टीका में उपलब्ध नहीं है और न ही 'बुद्धि वाला' अर्थ करने से श्लोक के अर्थ का कोई सिरपैर बनता है भावान्वय ही होता है.

 आलोच्य श्लोक निःसंदेह महात्मा बुद्ध की ओर संकेत करता है.

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