बुधवार, 12 जनवरी 2022

वर्णमाला की व्युत्पत्ति का ध्वनिवैज्ञानिक विवेचन-


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माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है।
पाणिनि ने वैदिक भाषा (छान्दस्) के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से माहेश्वर सूत्रों का निर्माण किया।


वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप में 

(१-(अक्षरसमाम्नाय),
२-नाम(संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण),
३-पद (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द ,
४-आख्यात (क्रिया),
उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों (interrelationship) 
           (का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।)

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अष्टाध्यायी में (३२) पाद हैं जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभाजित हैं ।
व्याकरण के इस महद् -ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में कर दिया है।
जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।

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तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।

(विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी के समकालिक ही हुआ जो वैदिक भाषा को कुछ परिवर्तित रूप के साथ सैद्धान्तिक रूप से सुरक्षित बनाये रही ।)

उसी समय ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी।
यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई जन साधारण की प्रवृत्तियों के अनुरूप थी।

पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों (भाषा-मूलक तथ्यों) के साथ-साथ स्वयं भी अपने द्वारा निर्मित अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है ; जिनमे शिवसूत्रजाल या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।

माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति के विषय में अतिश्योक्ति भाव अधिक है।

जैसा कि रूढ़िवादी पुरोहितों ने कल्पना सृजित की कि माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से हुई है। माहेश्वर सूत्रों कि उत्पत्ति को विषय ने इस प्रकार की मान्यता 

वस्तुत जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना के अतिरिक्त कुछ नहीं  है । रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 👇

(नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्)

अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
" डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।

इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। 👇

वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का "ओ३म" स्वरूप भी है ।

उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।
उमा शब्द की व्युत्पत्ति:- (उ= भो मा= ना तपस्यां  कृणुतात्।
माता ने पार्वती से कहा उ (अरे!) मा ( नहीं) तपश्या करो । तत्पश्चात् पार्वती को उमा कहा जाने लगा ।

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तां पार्वतीत्याभिजनेन नाम्ना बन्धुप्रियां बन्धुजनो जुहाव । उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ।। १. २६ ।।

श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्य उमोत्पत्तिर्नाम प्रथमः सर्गः ।। १. १ ।।

अन्य अनुमानित व्युत्पत्तियाँ-

२-यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव ।
अथवा जो शिव के लिए लक्ष्मी के समान है ।

३-उं शिवं माति मिमीते वा आतोऽनुपसर्गेति कः अजादित्वात् टाप् ।

अथवा जो उं (शिव) का मान करती है
वह उमा है ।

४-अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् )
दुर्गा का विशेषण ।
वस्तुत ये संपूर्ण व्युत्पत्ति आनुमानिक व भिन्न भिन्न प्रकार से होने से असत्य ही हैं ।

५-ओ३म का स्त्रीलिंग रूप ही ओ३मा(उमा) है ।

यद्यपि पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण के सन्दर्भों में जो माहेश्वर सूत्र की रचना की गयी है वह अभी भी संशोधन की अपेक्षा रखता है ।

और इन सूत्रों में  अभी और संशोधन- अपेक्षित है। यदि ये सूत्र (भगवाञ्छिव) से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर)  (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश तथा  चार अन्त:स्थ वर्णों ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी तो सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।

जो क्रमश: निम्नलिखित रूप में निर्मित- है।

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१-(इ+अ=य) २-(उ+अ=व) ३-(ऋ+अ=र)

४-(ऌ+अ= ल)

इसके अतिरिक्त "" महाप्राण भी ह्रस्व "" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं। 

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(यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है।                                            दोनों कि परस्पराश्रित सम्बन्ध है ।           समग्र वर्णमाला में  दोनों की अनिवार्य भूमिका है ।)

(केवल वर्ग के प्रथम  वर्ण  ( क"च"ट"त"प) ही (सघोष) अथवा (नादित) होकर अपने वर्ग के तृतीय वर्ण के  रूप में उद्भासित होते हैं यही इनका उत्पत्ति विकास क्रम है।)

अन्यथा वर्ग को द्वितीय वर्णों या विकास तो महाप्राण को संयोजन से ही हुआ है । 👇

प्रथम चरण में इनका विकास इस प्रकार है :–

१-(क्+ह्=ख्) 

२-(च्+ह् =छ्) 

३-(ट्+ह्=ठ्)

४-(त्+ह्=थ्) 

५-(प्+ह्=फ्) ।

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द्वित्तीय -चरण: में इनका विकास इस प्रकार है–

♪(क् + नाद युक्त निम्नवाही घर्षण = ग्  )

♪( च्+ नाद युक्त निम्नवाही घर्षण = ज् )

♪(ट्+नाद युक्त निम्नवाही घर्षण = ठ् )

♪(त्+ नाद युक्त निम्नवाही घर्षण =द् )

♪(प् +नाद युक्त निम्न वाहीघर्षण =ब् )

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तृतीय -चरण:में इनका विकास इस प्रकार है–

(ग्+ह्=घ्) 

(ज्+ह् =झ्) 

(ड्+ह्=ढ्)

(द्+ह्=ध्) 

(ब्+ह्=भ्) ।

और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ्" ङ्" ण्" न्" म्"  ) है
वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न"
का स्व-वर्गीय रूप है ।

(यहाँ केवल "" का रूपान्तरण है ।)

(जब यही "न"वर्स्त्य- मूर्धन्य" हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆)

यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित( लुण्ठित) रूप है ।

((न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास "अ का पार्श्वविक आलोडित रूप है
जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।)


अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं।

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अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में

(क, च ,ट ,त, प, भी  मूल वर्ण नहीं हैं । क्यों बहुत से शब्द भाषाओं में इस प्रकार के हैं जो सभी वर्णों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं वैदिक शब्द- स्कम्भ ऋग्वेद १/३४/२ इसका उदाहरण है )

"त्रय स्कम्भास स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥

"ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश: टवर्गीय और चवर्गीय रूप होने पर बनते हैं 

अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में "तवर्ग का शीतजलवायु के प्रभाव से प्राय: अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल "शकार (श)और "षकार (ष)
क्रमश "Sh"  और "Sa" का सैद्धान्तिक नादानुवाद होंगे।

"तवर्ग के न होने से "सकार (स) उष्म वर्ण का उच्चारित नहीं होगा।

अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण  प्रस्तुत है ।👇

इसी श्रृंखला में सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं ।

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पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇

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(१.अइउण्।  २. ॠॡक्।  ३. एओङ्। ४ . ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।  ८.  झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्।  ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।)

स्वर वर्ण:–अ इ उ -ॠ ॡ ए"ओ ऐ" औ य" व" र" ल"  ।

अनुनासिक वर्ण:– ञ म ङ ण न ।

वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध  ।

वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द ।

वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ ।

वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प ।

अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स ,

महाप्राण  वर्ण :-"ह"

 उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है ताकि व्याकरण के विधायक सूत्रों के निर्माण में प्रत्याहारों का प्रयोग सम्यक् रूप से हो सके।

फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप में ग्रहण करते हैं।

(माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।)

प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे यथाक्रम दर्शाया गया है।

इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।

प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्रों में व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है।

संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार  ही हैं।

(प्रत्याहार की अवधारणा :- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।)

अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

(आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।)

उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर "अच्" प्रत्याहार बनता है।

यह "अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक "च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।

(अतः, अच् = अ" इ" उ" ॠ" ॡ" ए" ऐ" ओ" औ"।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।)

फलतः, हल् = ह" य "व "र," ल, "ञ" म "ङ" ण" न, "झ "भ", घ "ढ" ध," ज "ब "ग "ड "द', ख' फ" छ" ठ "थ" च" ट "त," क "प, "श" ष "स", ह"।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने "इत् की संज्ञा दी है।

(इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु ही किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |

अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। ___________________________________________

( अ" इ "उ" ऋ "लृ" मूल स्वर हैं परन्तु
"अ" ही मूल स्वर है यही "अ" जब ऊर्ध्वगामी रूप में 
होता है तो "उ" स्वर के रूप में और जब अधोगामी रूप में  होता है तो "इ" स्वर को रूप में  ।और अपने ऋजुगामी रूप में तो  "अ" ही होता है।)

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"ऋ" और "ऌ" वर्णों के विषय में हम पहले विश्लेषण कर चुके हैं ।

केवल "अ" स्वर से ही सभी स्वरों का प्रस्फुटन हुआ है ।

(परन्तु ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण भी गुण और वृद्धि सन्धि विधायक सूत्रों से  हुआ है ।
माहेश्वर सूत्रों में समायोजित करने की इनकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये सभी सन्धि प्रक्रिया से ही निर्मित हैं।

जैसे क्रमश:(अ+ इ = ए(गुणसन्धि)तथा (अ + उ =ओ गुणसन्धि)
संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।

अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇

(। अ। इ ।उ । और ये परवर्ती ।इ। तथा ।उ। जो स्वर भी केवल ।अ। स्वर के उदात्त(ऊर्ध्वगामी )।उ । तथा (अधोगामी) ।इ धाराओ के रूप में हैं ।)

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(ऋ" तथा ऌ" स्वर नहीं होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है । )

(जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।)

(इनका विकास भी अनुनासिक"न" वर्ण से हुआ है।)

अब "ह" वर्ण महाप्राण है । जिसका उच्चारण स्थान (काकल) है ।
यह भी "अ" का घर्षित गत्यात्मक
काकलीय रूप है ।


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(तीन स्वर:- अ + इ+ उ । में भी केवल "अ" ही मूल स्वर है ।
छ: व्यञ्जन :-क" च" ट" त" प" न"  मूल हैं ।
एक ऊष्म :- "स" मूल है।
पार्श्वविक तथा आलोडित  वर्ण
 लृ"  "ऋ" ही मूल वर्ण हैं ।

 ये पार्श्वविक तथा आलोडित वर्ण "न" अनुनासिक के क्रमश वर्त्स्य  और मूर्धन्य रूप है ।
मूल वर्ण तो आठ ही हैं ।)


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👉👆(परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप  मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।

परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।

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( २२ अच् ( स्वर) :– अ" आ" आ३", इ" ई" ई३", उ"ऊ'ऊ३,'
ए" ए३, ऐ" ऐ३, ओ "ओ३ ,औ" औ३,  ऋ" ऋृ ऋृ३, ऌ" ऌ३।)

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२५- हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग "चवर्ग" टवर्ग" तवर्ग" पवर्ग।

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४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):-
(य" र" ल" व) ।

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३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।

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१ महाप्राण :- "ह"

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१ दु:स्पृष्ट वर्ण है :-ळ ।

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इस प्रकार हलों की संख्या- (३४) है ।

अयोगवाह का पाणिनीय (अक्षरसमाम्नाय) में कहीं वर्णन नहीं है.
जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।

(अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: )  (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प )

चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न।
इस प्रकार 22
+34+8+= 63 ।

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परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित
के सहित पच्चीस हैं ।

पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5

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इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।

क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 _________________________________________

और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य' व' र 'ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग। अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।

★-पाणिनीय शिक्षा में वर्णन है कि "त्रिषष्टि चतु:षष्टीर्वा शम्भुमते मता:" 

ल" वर्ण यद्यपि न तो" स्वर ही है और नाही  व्यञ्जन वर्ण ही है  परन्तु वर्णमाला में ये अन्त:स्थ है ।

 (भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह "ल" वर्त्स्य (दन्तमूलीय ), घोष, पार्श्विक और अल्पप्राण है। जब ल" वर्ण अनुनासिक होता है तो "न" वर्ण क रूप में परिवर्तित हो जाता है ।)

(इसका महाप्राण रूप 'ल्ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है।

 जैसे- अल्हड़।विशेष संस्कृत में विद्यमान 'लृ' लुणठित वर्ण हिन्दी में नहीं हैं और संस्कृत में यह यण्- संधि नियमानुसार 'ल' में बदल जाता है। )

'ल' स्वर और व्यंजन के मध्य में स्थित होने से ही अंत:स्थ वर्ण है। 


र.jpg

"र" देवनागरी वर्णमाला में अंत:स्थ वर्ग का दूसरा व्यंजन है। यह वर्त्स्य, लुंठित-(आलोडित) घोष और अल्पप्राण है।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसका महाप्राण रूप 'र्+ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है (जैसे- कर्+हाना=कर्हाना, अर्+हा=अर्हा)।
व्याकरण★-
विशेष-★




'र' के उच्चारण में जीभ की नोक अग्रभाग को कुछ लुंठित करके (लपेटकर), वर्त्स (अर्थात् ऊपर के मुड़ने को) स्पर्श किया जाता है।

'र' में प्राय: सभी मात्राएँ और चिह्न सामान्य रूप से जुड़ते हैं। परंतु 'र्' में 'ऋ' की मात्रा नहीं लगती तथा '' और '' मिलने पर क्रमश: विशेष रूप 'रु' और 'रू' बनते हैं (रुपया, रूप, रुष्ट, रूठा)।

(स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है ; जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।)

अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।

वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 _________________________________________

 1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।

2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx),

(ख.) ग्रसनी (pharynx),

(ग.) मुख (mouth),

(घ.) स्वरयंत्र (larynx),

(च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)

(छ. )फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),

(ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)।

(3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :)

क. जिह्वा (tongue),

ख. दाँत (teeth),

ग. ओठ (lips),

घ. कोमल तालु (soft palate),

च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________________________________________

"दार्शनिक सिन्द्धान्तों के अनुसार 👇
♪ स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :

"जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस से नि:सृत होकर जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है,
तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है,

(जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं,
जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।)

ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि अवयव करते हैं।

इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं ; जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।

यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।

देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।
इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।

इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।

(स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)–श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।)

श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।

बोलते समय रज्जुएँ (cords )आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वार(Door) उतना ही संकीर्ण हो जाता है। __________________________________________

(स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है। 

स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।)

(इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है।)


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(स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --)

 उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।

यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।

ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।
स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇 ________________________________________

(1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।

2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।

3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है;
और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।

(अ" स्वर का उच्चारण तथा ह स्वर का उच्चारण श्रोत समान है ।
कण्ठ तथा काकल ।)

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(नि: सन्देह काकल कण्ठ का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है । अकुह विसर्जनीयीनांकण्ठा ।अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•)तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇👇👇👇👇)

(अ-<हहहहह.... ।)

अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। 

इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।

अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।

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य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।)

(क्यों कि अन्त:का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ Interist वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्याक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇)

जैसे :-  इ+अ = य   अ+इ =ए        उ+अ = व  अ+उ= ओ    ______________________________________ 

५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा "नकार" वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। आदि में अन्तिम से पूर्व सूत्र में    उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।

जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।

यहाँ क्रमश चवर्ग- के साथ तालव्य 'श' उष्म वर्ण है ।

टवर्ग -के साथ मूर्धन्य 'ष उष्म वर्ण है ।

तथा तवर्ग- के साथ दन्त्य "स उष्म वर्ण है । ___________________________________

(👇💭 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है ।)

(अतः त" थ" द" ध"  तथा "स" वर्णो को नहीं लिख सकते हैं । क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है ।)

और तवर्ग -का  उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।

अतः "श्" वर्ण  के लिए  "Sh" तथा "ष्" वर्ण के  "S" वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।

तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं । _________________________________________

 १४. हल्।

 तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।

(इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं । मौलिक रूप में केवल "28" वर्ण हैं । जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं । )

 _________________________________________

 1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)

2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)

3. दन्त्य  (dental)

4. वर्त्स्य  (alveolar)

5. पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)

6. प्रतालव्य( prä-palatal )

7. तालव्य (palatal)

8. मृदुतालव्य (velar)

9. अलिजिह्वीय (uvular)

10.ग्रसनी से (pharyngal)

11.श्वासद्वारीय (glottal)

12.उपजिह्वीय (epiglottal)

13.जिह्वामूलीय (Radical)

14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)

15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)

16.जिह्वापाग्रीय (laminal)

17.जिह्वाग्रीय (apical)

18.उप जिह्विय( sub-laminal) _________________________________________

स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख-गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।

उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है-

१- उच्चारण स्थान, 

२-उच्चारण विधि और 

३-स्वनन (फोनेशन)।

मुख- गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुख-गुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि  हैं।

(व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण में वायु निर्बाध गति से न निकलकर मुख के किसी भाग:- (तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि) से या तो पूर्ण अवरुद्ध होकर आगे बढ़ती है या संकीर्ण मार्ग से घर्षण करते हुए या पार्श्व मार्ग से निकलती है ।)

(इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।)

तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत (उत्पन्न) होती हैं ।
हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण---- व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।

इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇

द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म 

दन्त्योष्ठ्य :-,  फ़ 

दन्त्य :-,त, थ, द, ध 

वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ 

मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष कठोर :-

तालव्य श, च, छ, ज, झ 

कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़

पश्च-कोमल-तालव्य:-  क़ वर्ण है।

स्वरयन्त्रामुखी:-.  ह वर्ण है ।

"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं।

(ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।)

(काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ ।)

घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं।
शब्द कोशों में इसका अर्थ :-
१. काला कौआ ।

२. कंठ की मणि या गले की मणि ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇

उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।

विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।

क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।

च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।

इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।

(मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।)

हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म  व्यञ्जन नासिक्य हैं।

इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है; इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
और अनुनासिक भी  -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।

वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।

परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
जैसे :-  

(१-कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-अङ्क , सङ्ख, अङ्ग , अङ्घ ।)

(२-चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।)

(३-टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।)

(४-तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध ।)

(५-पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा,  दम्भ ।) 

________________________________________

इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।

(उष्म वर्ण - 
उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।

वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।

तवर्ग - त" थ" द" ध" न" का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।

और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट" ठ "ड" ढ" ण" का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।

जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।

जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।

उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
_____________________________________

1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।

'ल' ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। जिसे हम पूर्व में कई बार बता चुके हैं ।

 अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।

हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।

2-लुण्ठित /आलोडित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठते हुए लुढ़कती है।

हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।

3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश: (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।

(घोष और अघोष वर्ण– 

(व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।)

(इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।)

(जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।)

(दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।)

 _________________________________________ 

घोष - अघोष 

ग, घ,   ङ, ! ★-क, ख।

 ज,झ, ञ, ★-च, छ।

 ड, ढ,  ( ड़ ढ़ ) ण,।★- ट ठ ,।

द, ध, न, ★-त, थ 

ब, भ,  म,★- प, फ 

य,  र,  ल, ★- व, ह 

,श, ष, स ।

(प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।)

प्राण का अर्थ है - श्वास-वायु  "जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।

पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।

 हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, (ड़, ढ़) - व्यञ्जन महाप्राण हैं।

(वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।परन्तु नाद या घोष हैं। )

क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।

वर्ण शब्द यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है । 

परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।) 

___________________________________________

(भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को कहते हैं।)

(किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।)

शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो  शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।

उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।

यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।

लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है। अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।

कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।

कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।

इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।

अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। 

अंग्रेजी भाषा में न, र, ल,  जैसे एन- N( कहीं कहीं  एम-M) भी  ,आर-R,एल-L, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।

नाद में तीन गुण अनिवार्य हैं)

१-तारत्व, प्रकम्पन, झंकृति।
१-तारत्व, =Pitch of voice,।
२-प्रकम्पन, =vibration।
३-झंकृति=ding-dong।
अनुस्वारवदुचार्य्ये अर्द्धचन्द्राकृतिवर्णभेदे ब्रह्मस्वरूपघोषभेदे वर्णविशेष- व्यञ्जके वाह्यप्रयत्नभेदे कण्ठमन्ये तु घोषाःस्युःसंवृता  नादमागिनः”(पाणिनीय शिक्षा)“

अनुस्वार के समान उच्चारण करने पर जो रूप होता है वह नाद है ।)




नाद की दृष्टि से वर्णों का मुख्यतः दो भेद है-

1.      घोष व्यंजन
2.     अघोष व्यंजन
जिन व्यंजन वर्णों के उच्चारण में स्वर तंत्रियाँ झंकृत होती हैं, उन्हें घोष  व्यंजन कहते है तथा जिनके उच्चारण में स्वर तंत्रिया में झंकृत नहीं होती उन्हें अघोष व्यंजन कहते है।

टिप्पणी:- घोष व्यंजनों के उच्चारण में नाद का उपयोग होता है जबकि अघोष व्यंजनों के उच्चारण में केवल श्वाँस का प्रयोग होता है।

घोष व्यंजन के अन्तर्गत- प्रत्येक वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवा वर्ण होता है ।

और इसके अतिरिक्त प्रत्येक अंतःस्थ वर्ण और ‘ह’ महाप्राण भी समाविष्ट होता है।

अघोष व्यंजन के अन्तर्गत- प्रत्येक वर्ग का पहला और दूसरा वर्ग तथा तीनों ऊष्मज (श"ष"स) वर्ण है।

__________________    
(वर्ण-विचार)-(Phonology)-
 
उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण★-

व्यंजनों का उच्चारण करते समय हवा मुख के अलग-अलग भागों से टकराती है। उच्चारण- अंगों के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है :

(i) कंठ्य ( कण्ठ से उच्चारित वर्ण-) - क, ख, ग, घ, ङ

(ii) तालव्य (कोमल तालु से उच्चारित वर्ण) - च, छ, ज, झ, ञ, य, श

(iii) मूर्धन्य (कोमल तालु के अगले भाग मूर्द्धा भाग से उच्चारित वर्ण)- ट, ठ, ड, ढ, ण,(ड़, ढ़,)ष

(iv) दंत्य (दाँतों से उच्चारित वर्ण)-त, थ, द, ध, न

(v) वर्त्स्य (दाँतों के मूल से उच्चारित वर्ण ) - स, ज, र, ल

(vi) ओष्ठय (दोनों होंठों से) - प, फ, ब, भ, म

(vii)ओष्ठकण्ठ्य (निचले होंठ व ऊपरी दाँतों से) - व, 

(viii)स्वर यंत्र काकल से उच्चारित वर्ण-ह

श्वास (प्राण-वायु) की मात्रा के आधार पर वर्ण-भेद-
प्राण का अर्थ है- वायु। व्यंजनों का उच्चारण करते समय बाहर आने वाली श्वास-वायु की मात्रा
के आधार पर व्यंजनों के दो भेद हैं-
 (1) अल्पप्राण (2) महाप्राण

(1) अल्पप्राण व्यंजन:- जिन वर्णों के उच्चारण में वायु की सामान्य मात्रा रहती है और विसर्ग (:)जैसी ध्वनि बहुत ही कम होती है।                           वे अल्पप्राण कहलाते हैं।

 अर्थात् जिन व्यंजनों के उच्चारण से मुख से कम श्वास ( प्राण) निकलती है, वे अल्प प्राण कहलाते हैं।
______           
प्रत्येक वर्ग का- पहला, तीसरा और पाँचवाँ वर्ण अल्पप्राण व्यंजन हैं।
जैसे-
क, ग, ङ;।
च ज, ञ;।
ट, ड, ण; ।
त, द, न; ।
प, ब, म,।
__________________________________
अन्तःस्थ (य, र, ल, व ) भी अल्पप्राण ही परन्तु घोष हैं।

(2) महाप्राण व्यंजन :-जिन व्यंजनों के उच्चारण में श्वास-वायु अल्पप्राण की तुलना में कुछ अधिक निकलती है और 'विसर्ग (:)' जैसी ध्वनि होती है, उन्हें महाप्राण कहते हैं।
सरल शब्दों में- जिन व्यंजनों के उच्चारण में अधिक वायु मुखार बिन्दु से निकलती है, वे महाप्राण कहलाते हैं।

प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा समस्त ऊष्म वर्ण महाप्राण हैं।

जैसे- ख, घ; छ, झ; ठ, ढ; थ, ध; फ, भ और श, ष, स, ह।
संक्षेप में अल्पप्राण वर्णों की अपेक्षा महाप्राणों में प्राणवायु का उपयोग अधिक श्रमपूर्वक करना पड़ता हैं।
____________________________________

घोष और अघोष व्यंजन--
घोष का अर्थ है नाद या गूँज। वर्णों के उच्चारण में होने वाली ध्वनि की गूँज या नाद के आधार पर वर्णों के दो भेद हैं- घोष और अघोष।

(1) घोष या सघोष व्यंजन:- नाद की दृष्टि से जिन व्यंजन वर्णों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियाँ झंकृत होती हैं, वे घोष कहलाते हैं।
दूसरे शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में कण्ठ के कम्पन से गूँज-सी होती है, उन्हें घोष या सघोष कहते हैं।

जैसे- ग, घ, ड़, ज, झ, ञ, ड, ढ, ण, द, ध, न, ब, भ, म, य, र, ल, व (वर्गों के अंतिम तीन वर्ण और अंतस्थ व्यंजन) तथा सभी स्वर घोष हैं।

घोष ध्वनियों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियाँ आपस में मिल जाती हैं और वायु आघात करते हुए बाहर निकलती है। फलतः झंकृति पैदा होती है।

(2)अघोष व्यंजन:- नाद की दृष्टि से जिन व्यंजन वर्णों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियाँ झंकृत नहीं होती हैं, वे अघोष कहलाते हैं।

दूसरे शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में कम्पन नहीं होता, उन्हें अघोष कहते हैं।
जैसे- क, ख, च, छ, ट, ठ, त, थ, प, फ (वर्गों के पहले दो वर्ण) तथा श, ष, स अघोष परन्तु महाप्राण हैं ।

अघोष वर्णों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियाँ परस्पर नहीं मिलतीं। फलतः, वायु, आसानी से निकल जाती है।
______________
संयुक्त व्यंजन, द्वित्व व्यंजन,संयुक्ताक्षर-
संयुक्त व्यंजन:- जो व्यंजन दो या दो से अधिक व्यंजनों के संयोग से बनते हैं, वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।


ये संख्या में पाँच हैं :
क्ष = क् + ष् + अ =( क्ष)

त्र = त् + र् + अ = (त्र )

ज्ञ = ज् + ञ् + अ = (ज्ञ )

श्र = श् + र् + अ = (श्र)

द्य = द्+ य्+ अ.  =  ( द्य)

कुछ लोग ज् + ञ = ज्ञ का उच्चारण 'ग्य' करते हैं ;जोकि सैद्धांतिक दृष्टि से गलत है ।
संयुक्त व्यंजन में पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है।

द्वित्व व्यंजन:- जब शब्द में एक ही वर्ण दो बार मिलकर प्रयुक्त हो तब उसे द्वित्व व्यंजन कहते हैं।
जैसे- लल्ला  में 'ल' और मिट्टी में 'ट' का द्वित्व प्रयोग है।

द्वित्व व्यंजन में भी पहला व्यंजन स्वर रहित तथा दूसरा व्यंजन स्वर सहित होता है परन्तु दौनों व्यञ्जन एक ही होते हैं।

संयुक्ताक्षर:- जब एक स्वर रहित व्यंजन अन्य स्वर सहित व्यंजन से मिलता है, तब वह संयुक्ताक्षर कहलाता हैं।

जैसे- क् + त = क्त = संयुक्त
स् + थ = स्थ = स्थान
स् + व = स्व = स्वाद
द् + ध = द्ध = शुद्ध

यहाँ दो अलग-अलग व्यंजन मिलकर कोई नया व्यंजन नहीं बनाते।

वर्णों की मात्राएँ
व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिन स्वरमूलक चिह्नों का व्यवहार होता है, उन्हें 'मात्राएँ' कहते हैं। अर्थात स्वरों का बदला हुआ रूप जो व्यञ्जनों से जुड़ता है मात्रा कहलाता है ।

दूसरे शब्दो में- स्वरों के व्यंजन में मिलने के रूपों को ही 'मात्रा' कहते हैं, क्योंकि मात्राएँ तो स्वरों की होती हैं।
ये मात्राएँ दस है; जैसे-ा िी े, ैो ौ ु ू इत्यादि। ये मात्राएँ केवल व्यंजनों में लगती हैं; जैसे- का, कि, की, कु, कू, कृ, के, कै, को, कौ इत्यादि।
 स्वर वर्णों की ही हस्व-दीर्घ (छंद में लघु-गुरु) मात्राएँ होती हैं, जो व्यंजनों में लगने पर उनकी मात्राएँ हो जाती हैं। हाँ, व्यंजनों में लगने पर स्वर उपयुक्त दस रूपों के हो जाते हैं।

हलंत
हलंत- व्यंजनों (हलों )के नीचे जब एक तिरछी रेखा ( ् ) लगाई जाय, तब उसे हलंत कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- कोई व्यंजन स्वर से रहित है, यह संकेतित करने के लिए उसके नीचे एक तिरछी रेखा ( ् ) खींच देते हैं। इसे हलंत कहते हैं।

प्रायः इसका उपयोग उसी स्थिति में किया जाता है जब ऐसा वर्ण शब्द के अंत में आए। जैसे- अर्थात् ।  शब्द के बीच में प्रयुक्त वर्ण को भी हलंत किया जा सकता है। जैसे- 'विद्या' को 'विद्‍या (विद् या)' भी लिखा जा सकता हैं।
'हलंत' लगाने का अर्थ है कि व्यंजन में स्वरवर्ण का बिलकुल अभाव है या व्यंजन आधा है ।

हिन्दी के नये वर्ण:हिन्दी वर्णमाला में पाँच नये व्यंजन- क्ष, त्र, ज्ञ, ड़ और ढ़ - जोड़े गये हैं।
 किन्तु, इनमें प्रथम तीन स्वतंत्र न होकर संयुक्त व्यंजन हैं, जिनका खण्ड किया जा सकता हैं। जैसे- क्+ष =क्ष; त्+र=त्र; ज्+ञ=ज्ञ।

अतः क्ष, त्र और ज्ञ की गिनती स्वतंत्र वर्णों में नहीं होती। ड और ढ के नीचे बिन्दु लगाकर दो नये अक्षर ड़ और ढ़ बनाये गये हैं।  ये उत्क्षिप्त व्यञ्जन हैं।

यहाँ ड़-ढ़ में 'र' की ध्वनि मिली हैं। इनका उच्चारण साधारणतया मूर्द्धा से होता हैं। 

किन्तु कभी-कभी जीभ का अगला भाग उलटकर मूर्द्धा में लगाने से भी वे उच्चरित होते हैं।

हिन्दी में अरबी-फारसी की ध्वनियों को भी अपनाने की चेष्टा हैं। 
व्यंजनों के नीचे बिन्दु (क़ ख़ ) नुक्ता) लगाकर इन नयी विदेशी ध्वनियों को बनाये रखने की चेष्टा की गयी हैं। जैसे- क़लम, खै़र, ज़रूरत।
 
____________
 
वर्णों का उच्चारण-स्थान-
कोई भी वर्ण मुँह के भित्र-भित्र भागों से बोला जाता हैं।
 इन्हें उच्चारण-स्थान कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- भिन्न-भिन्न वर्णों का उच्चारण करते समय मुख के जिस भाग पर विशेष बल पड़ता है, उसे उस वर्ण का उच्चारण-स्थान कहते हैं।
 (१)अ-कु-ह-विसर्जनीयानां कण्ठः)-★
-अकार (अ, आ), कु= कवर्ग ( क, ख, ग, घ, ङ् ), हकार (ह्), और विसर्जनीय (:) का उच्चारण स्थान कंठ और जीभ का निचला भाग  "कंठ्य"  है।


(२) इ-चु-य-शानां तालु। 
-इकार (इ, ई ) , चु= चवर्ग ( च, छ, ज, झ, ञ ), यकार (य) और शकार (श) इनका “ तालु और जिह्वा से  / तालव्य ” उच्चारण स्थान है।  


(३) ऋ-टु-र-षाणां मूर्धा। 
-ऋकार (ऋ), टु = टवर्ग ( ट, ठ, ड, ढ, ण ), रेफ (र) और षकार (ष) इनका “ मूर्धा और जीभ / मूर्धन्य ” उच्चारण स्थान है। 


(४) लृ-तु-ल-सानां दन्ता: ।
-लृकार (लृ), तु = तवर्ग ( त, थ, द, ध, न ), लकार (ल) और सकार (स) इनका उच्चारण स्थान “दाँत और जीभ / दंत्य ” है।


(५) उ-पु-उपध्मानीयानाम् ओष्ठौ ।
- उकार (उ, ऊ), पु = पवर्ग ( प, फ, ब, भ, म ) और उपध्मानीय इनका उच्चारण स्थान "दोनों होंठ / ओष्ठ्य ” है। 


(६) ञ-म-ङ-ण-नानां नासिका च ।
- ञकार (ञ), मकार (म), ङकार (ङ), णकार (ण), नकार (न), अं  इनका उच्चारण स्थान “नासिका” है ।  


(७) ऐदैतौ: कण्ठ-तालु ।
- ए और ऐ का उच्चारण स्थान “कंठ तालु और जीभ / कंठतालव्य” है।


(८) ओदौतौ: कण्ठोष्ठम् ।
- ओ और औ का उच्चारण स्थान “कंठ, जीभ और होंठ / कंठोष्ठ्य” है। 
  

(९) ‘व’ कारस्य दन्तोष्ठम् ।
-वकार का उच्चारण स्थान “दाँत, जीभ और होंठ / दंतोष्ठ्य” है ।

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(१०) जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम् ।
-जिह्वामूलीय का उच्चारण स्थान “ जिह्वामूल” है 
(११) अनुस्वारस्य नासिका ।
-अनुस्वार का उच्चारण स्थान “ नासिका ” है ।

(१२) क, ख इति क-खाभ्यां प्राग् अर्ध-विसर्गसद्दशो जिह्वा-मूलीय: ।
-क, ख से पूर्व अर्ध विसर्ग सद्दश “ जिह्वामूलीय ” कहलाते है ।

(१३) प, फ इति प-फाभ्यां प्राग् अर्ध-विसर्ग-सद्दश उपध्मानीय: ।
-प, फ के आगे पूर्व अर्ध विसर्ग सद्दश  “ उपध्मानीय ” कहलाते है ।

१४) अं , अ: इति अच् परौ अनुस्वार-विसर्गौ ।
-अनुस्वार और विसर्ग “ अच् ” से परे होते है; जैसे — अं , अ: ।

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जैसे- च्, छ्, ज् झ् - के उच्चारण में तालु पर अधिक बल पड़ता है, अतः ये वर्ण तालव्य कहलाते हैं।

मुख के छह भाग हैं- कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त, ओष्ठ और नासिका। 
हिन्दी के सभी वर्ण इन्हीं से अनुशासित और उच्चरित होते हैं। चूँकि उच्चारण-स्थान भित्र भिन्न हैं, इसलिए वर्णों की उन्हीं को अनुसार निम्नलिखित श्रेणियाँ बन गई हैं-

कण्ठ्य- कण्ठ और निचली जिह्वा के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- अ, आ, कवर्ग, ह और विसर्ग। (अकुहविसर्जनीया; कण्ठा)

तालव्य- तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- इ, ई, चवर्ग, य और श। (इचुयशानां तालु)। 

मूर्द्धन्य- मूर्द्धा और जीभ के स्पर्शवाले वर्ण- टवर्ग, र, ष।(ऋ-टु-र-षाणां मूर्धा)। 

दन्त्य- दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- तवर्ग, ल, स। (लृतुलसानां दन्ता: )।

ओष्ठ्य- दोनों ओठों के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- उ, ऊ, पवर्ग।(उपुउपध्मानीयानाम् ओष्ठौ) ।

कण्ठतालव्य- कण्ठ और तालु में जीभ के स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ए, ऐ।

कण्ठोष्ठय- कण्ठ द्वारा जीभ और ओठों के कुछ स्पर्श से बोले जानेवाले वर्ण- ओ और औ।

ओष्ठ कण्ठ्य- - व।

नासिक्य- ङ, ञ, ण, न, म।ञ-म-ङ-ण-नानां नासिका च ।

अलीजिह्न- काकलीय- (ह)।

स्वरवर्णो का उच्चारण-
'अ' का उच्चारण- यह कण्ठ्य ध्वनि हैं। इसमें व्यंजन मिला रहता हैं।
 जैसे- क्+अ=क।
 जब यह किसी व्यंजन में नहीं रहता, तब उस व्यंजन के नीचे हल् का चिह्न लगा दिया जाता हैं।
हिन्दी के प्रत्येक शब्द के अन्तिम 'अ' लगे वर्ण का उच्चारण हलन्त-जैसा होता हैं। 
जैसे- नमक्, रात्, दिन्, मन्, रूप्, पुस्तक्, किस्मत् इत्यादि ।

इसके अतिरिक्त, यदि अकारान्त शब्द का अन्तिम वर्ण संयुक्त हो, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- सत्य, ब्रह्म, खण्ड, धर्म इत्यादि।

इतना ही नहीं, यदि इ, ई या ऊ के बाद 'य' आए, तो अन्त्य 'अ' का उच्चारण पूरा होता हैं। जैसे- प्रिय, आत्मीय, राजसूय आदि।

'ऐ' और 'औ' का उच्चारण- 'ऐ' का उच्चारण कण्ठ और तालु से और 'औ' का उच्चारण कण्ठ और ओठ के स्पर्श से होता हैं।

 संस्कृत की अपेक्षा हिन्दी में इनका उच्चारण भित्र होता हैं। जहाँ संस्कृत में 'ऐ' का उच्चारण 'अइ' और 'औ' का उच्चारण 'अउ' की तरह होता हैं, वहाँ हिन्दी में इनका उच्चारण क्रमशः 'अय' और 'अव' के समान होता हैं।

अतएव, इन दो स्वरों की ध्वनियाँ संस्कृत से भित्र हैं। जैसे-

संस्कृत में हिन्दी में
श्+अ+अ+इ+ल्+अ- शैल (अइ) ऐसा- अयसा (अय)
क्+अ+अ+उ+त्+उ+क्+अ- कौतुक (अउ) 
व्यंजनों का उच्चारण
'व' और 'ब' का उच्चारण- 'व' का उच्चारणस्थान दन्तोष्ठ हैं, अर्थात दाँत और ओठ के संयोग से 'व' का उच्चारण होता है और 'ब' का उच्चारण दो ओठों के मेल से होता हैं।

हिन्दी में इनके उच्चारण और लिखावट पर पूरा ध्यान नहीं दिया जाता। 

परिणाम यह होता हैं कि लिखने और बोलने में भद्दी भूलें हो जाया करती हैं। 
'वेद' को 'बेद' और 'वायु' को 'बायु' कहना अशुद्ध लगता हैं।


'ड़' और 'ढ़' का उच्चारण- हिन्दी वर्णमाला के ये दो नये वर्ण हैं, जिनका संस्कृत में अभाव हैं। हिन्दी में 'ड' और 'ढ' के नीचे बिन्दु लगाने से इनकी रचना हुई हैं। 

वास्तव में ये वैदिक वर्णों (क) और (क्ह )के विकसित रूप हैं। 

इनका प्रयोग शब्द के मध्य या अन्त में होता हैं। इनका उच्चारण करते समय जीभ झटके से ऊपर जाती है, इन्हें उत्क्षिप्त= (ऊपर फेंका हुआ) व्यंजन कहते हैं।
जैसे- सड़क, हाड़, गाड़ी, पकड़ना, चढ़ाना, गढ़ अलीगढ़।

श-ष-स का उच्चारण- ये तीनों उष्म व्यंजन हैं, क्योंकि इन्हें बोलने से साँस की ऊष्मा चलती हैं। ये संघर्षी व्यंजन हैं।

'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है और हवा दोनों बगलों (पार्श्वों ) में स्पर्श करती हुई निकल जाती है, पर 'ष' के उच्चारण में जिह्ना मूर्द्धा को स्पर्श करती हैं। अतएव 'श' तालव्य वर्ण है और 'ष' मूर्धन्य वर्ण।

 हिन्दी में अब 'ष' का उच्चारण 'श' के समान होता हैं। 'ष' वर्ण उच्चारण में नहीं है, पर लेखन में हैं। सामान्य रूप से 'ष' का प्रयोग तत्सम शब्दों में होता है; जैसे- अनुष्ठान, विषाद, निष्ठा, विषम, कषाय इत्यादि।

'श' और 'स' के उच्चारण में भेद स्पष्ट हैं।
 जहाँ 'श' के उच्चारण में जिह्ना तालु को स्पर्श करती है, वहाँ 'स' के उच्चारण में जिह्ना दाँत को स्पर्श करती है। 
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अंश (भाग)- अंस (कन्धा) । शकल (खण्ड)- सकल (सारा) । शर (बाण)- सर (तालाब) । शंकर (महादेव)- संकर (मिश्रित) । श्र्व (कुत्ता)- स्व (अपना) । शान्त (धैर्ययुक्त)- सान्त (अन्तसहित)।

'ड' और 'ढ' का उच्चारण- इसका उच्चारण शब्द के आरम्भ में, द्वित्व में और हस्व स्वर के बाद अनुनासिक व्यंजन के संयोग से होता है।

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वर्ण, वर्णमाला की परिभाषा-
वर्ण(Phonology)- वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं, जिसके खंड या टुकड़े नहीं किये जा सकते।
इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं- वह सबसे छोटी ध्वनि जिसके और टुकड़े नहीं किए जा सकते, वर्ण कहलाती है।

दूसरे शब्दों में- भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि है। और इस ध्वनि को वर्ण कहते है।
जैसे- अ, ई, व, च, क, ख् इत्यादि।

वर्ण भाषा की सबसे छोटी इकाई है, इसके और खंड नहीं किये जा सकते।
उदाहरण द्वारा मूल ध्वनियों को यहाँ स्पष्ट किया जा सकता है। कलम और बलम में छ: छ: मूल ध्वनियाँ हैं । क्+अ+ ल्+अ+म+अ। =कलम
ब्+अ+ल्+अ+म्+अ=बलम।

'इन्हीं अखंड मूल ध्वनियों को वर्ण कहते हैं। हर वर्ण की अपनी लिपि होती है। लिपि को वर्ण-संकेत भी कहते हैं। हिन्दी में 52 से 53 तक वर्ण हैं।

वर्णमाला(Alphabet)- वर्णों के समूह को वर्णमाला कहते हैं।
इसे हम ऐसे भी कह सकते है, किसी भाषा के समस्त वर्णो के समूह को वर्णमाला कहते हैै।

प्रत्येक भाषा की अपनी वर्णमाला होती है।
हिंदी- अ, आ, क, ख, ग.....
अंग्रेजी- A, B, C, D, E....

वर्ण के भेद-
हिंदी भाषा में वर्ण दो प्रकार के होते है- (1)स्वर (vowel) (2) व्यंजन (Consonant)

(1) स्वर (vowel) :- वे वर्ण जिनके उच्चारण में किसी अन्य वर्ण की सहायता की आवश्यकता नहीं होती, स्वर कहलाता है।

दूसरे शब्दों में- जिन वर्णों के उच्चारण में फेफ़ड़ों की वायु बिना रुके (निर्बाध गति से) मुख से निकल जाए, उन्हें स्वर कहते हैं।

इसके उच्चारण में कंठ, तालु होठ का उपयोग होता है।

हिंदी वर्णमाला में 13 स्वर है
जैसे- अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ  ऋ ॠ ऌ ।

स्वर के भेद-
स्वर के दो भेद होते है-
(i) मूल स्वर (ii) संयुक्त स्वर

(i) मूल स्वर:- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ

(ii) संयुक्त स्वर:- ऐ (अ + ए) और औ (अ + ओ)

मूल स्वर के भेद-
मूल स्वर के तीन भेद होते है-
(i) ह्रस्व स्वर (ii) दीर्घ स्वर (iii)प्लुत स्वर

(i)ह्रस्व स्वर(Short Vowels):- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय (एक गुना) लगता है उन्हें ह्स्व स्वर कहते है।
ह्स्व स्वर चार होते है- अ इ उ ऋ।

'ऋ' की मात्रा (ृ) के रूप में लगाई जाती है तथा उच्चारण 'रि' की तरह होता है।

(ii)दीर्घ स्वर(Long Vowels):- वे स्वर जिनके उच्चारण में ह्रस्व स्वर से (दोगुना) समय लगता है, वे दीर्घ स्वर कहलाते हैं।


दीर्घ स्वर सात होते है- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

दीर्घ स्वर दो शब्दों के योग से बनते है।
जैसे- आ= (अ + अ)
ई= (इ + इ)
ऊ= (उ + उ)
ए= (अ + इ)
ऐ= (अ + ए)
ओ= (अ + उ)
औ= (अ + ओ)

(iii)प्लुत स्वर:- वे स्वर जिनके उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक  (तीनगुना)३-समय यानी तीन मात्राओं का समय लगता है, प्लुत स्वर कहलाते हैं।
सरल शब्दों में- जिस स्वर के उच्चारण में तिगुना समय लगे, उसे 'प्लुत' कहते हैं। ओ३म्।

इसका चिह्न (ऽ) है। इसका प्रयोग अकसर दूर से पुकारते समय किया जाता है। जैसे- सुनोऽऽ, राऽऽम, ओऽऽम्।
हिन्दी में साधारणतः प्लुत का प्रयोग नहीं होता। वैदिक भाषा में प्लुत स्वर का प्रयोग अधिक हुआ है। इसे 'त्रिमात्रिक' (३) स्वर भी कहते हैं।

अयोगवाह-
हिंदी वर्णमाला में ऐसे वर्ण जिनकी गणना न तो स्वरों में और न ही व्यंजनों में की जाती हैं। उन्हें अयोगवाह कहते हैं।

अं, अः अयोगवाह कहलाते हैं। वर्णमाला में इनका स्थान स्वरों के बाद और व्यंजनों से पहले होता है। (अं )को अनुस्वार तथा (अः) को विसर्ग कहा जाता है।

अयोगवाह तीन प्रकार के होते हैं-
(1) अनुनासिक (ँ)
(2) अनुस्वार (ं)
(3) विसर्ग (ः)


(1)चन्द्र बुन्दु (ँ)- जिस ध्वनि के उच्चारण में वायु नाक और मुख दोनों से निकलती है उसे अनुनासिक कहते हैं।
जैसे- गाँव, दाँत, आँगन, साँचा इत्यादि।

(2)अनुस्वार (ं)- जिस वर्ण के उच्चारण में हवा केवल नाक से निकलती है। उसे अनुस्वार कहते हैं। ये स्वर को अनु पीछे लगने पर अनुस्वार कहते है।
जैसे- अंगूर, अंगद, कंकन।

(3)विसर्ग (ः)- जिस ध्वनि के उच्चारण में 'ह' की तरह होता है। उसे विसर्ग कहते हैं।
जैसे- मनः कामना, पयःपान, अतः, स्वतः, दुःख इत्यादि।
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टिप्पणी- अनुस्वार और विसर्ग न तो स्वर हैं, न व्यंजन; किन्तु ये स्वरों के सहारे चलते हैं। स्वर और व्यंजन दोनों में इनका उपयोग होता है। जैसे- अंगद, रंग। 
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अनुस्वार और अनुनासिक में अन्तर-
अनुनासिक (चन्द्र बिन्दु) के उच्चारण में नाक से बहुत कम साँस निकलती है और मुँह से अधिक, जैसे- आँसू, आँत, गाँव, चिड़ियाँ इत्यादि।

पर अनुस्वार के उच्चारण में नाक से अधिक   और मुख से कम.साँस निकलती है , जैसे- अंक, अंश, पंच, अंग इत्यादि।

अनुनासिक स्वर की विशेषता है, अर्थात् अनुनासिक स्वरों पर चन्द्रबिन्दु लगता है। लेकिन, अनुस्वार एक व्यंजन ध्वनि है।

अनुस्वार की ध्वनि प्रकट करने के लिए वर्ण पर बिन्दु लगाया जाता है। 

तत्सम शब्दों में अनुस्वार लगता है और उनके तद्भव रूपों में चन्द्रबिन्दु लगता है; जैसे- अंगुष्ठ से अँगूठा, दन्त से दाँत, अन्त्र से आँत।
स्वरों की मात्राएँ (Vowel Signs)
'अ' के अतिरिक्त शेष स्वर जब व्यंजनों के साथ प्रयुक्त किए जाते हैं तो उनकी मात्राएँ ही लगती हैं। 'अ' की मात्रा नहीं होती।

 अ से रहित व्यंजनों को हलंत लगाकर दिखाया जाता है। यथा- क्, ख्, ग् आदि। 'अ' लगने पर हलंत का चिह्न हट जाता है। क् + अ=क, ख् + अ=ख आदि।

विभिन्न स्वरों की मात्राएँ और शब्दों में उनका प्रयोग देखिए-

स्वर मात्रा शब्द-प्रयोग
अ - -
आ ा राम
इ ि दिन
ई ी तीर
ऋ ृ कृषक
उ ु गुलाब
ऊ ू फूल
ए े केला
ऐ ै मैना
ओ ो कोमल
औ ौ सौरभ
अं को बिन्दु ( ं ) तथा अः को विसर्ग ( ः) के रूप में लिखा जाता है।

(2) व्यंजन (Consonant):- जिन वर्णो को बोलने के लिए स्वर की सहायता लेनी पड़ती है उन्हें व्यंजन कहते है।
दूसरे शब्दो में- व्यंजन उन वर्णों को कहते हैं, जिनके उच्चारण में स्वर वर्णों की सहायता ली जाती है।
जैसे- क, ख, ग, च, छ, त, थ, द, भ, म इत्यादि।

'क' से विसर्ग ( : ) तक सभी वर्ण व्यंजन हैं। प्रत्येक व्यंजन के उच्चारण में 'अ' की ध्वनि छिपी रहती है। 'अ' के बिना व्यंजन का उच्चारण सम्भव नहीं। जैसे- ख्+अ=ख, प्+अ =प। व्यंजन वह ध्वनि है, जिसके उच्चारण में भीतर से आती हुई वायु मुख में कहीं-न-कहीं, किसी-न-किसी रूप में, बाधित होती है। 
स्वरवर्ण स्वतंत्र और व्यंजनवर्ण स्वर पर आश्रित है। 
क् से ह् तक हिन्दी वर्णमाला में कुल 33 व्यंजन हैं।
_______    
व्यंजन के प्रकार
व्यंजन तीन प्रकार के होते है-
(1)स्पर्श व्यंजन(Mutes)
(2)अन्तःस्थ व्यंजन(Semivowels)
(3)उष्म या संघर्षी व्यंजन(Sibilants)

(1)स्पर्श व्यंजन(Mutes) :- स्पर्श का अर्थ होता है -छूना।
 जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जीभ मुँह के किसी भाग जैसे- कण्ठ, तालु, मूर्धा, दाँत, अथवा होठ का स्पर्श करती है, उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते है।

सरल शब्दों में- जिन व्यंजन वर्णो का उच्चारण करते समय वायु की टकराहट, कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ को छूती हुई निकले वो स्पर्श व्यंजन कहलाते है।

दूसरे शब्दो में- ये कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त और ओष्ठ स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं। इसी से इन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं।

इन्हें हम 'वर्गीय व्यंजन' भी कहते है; क्योंकि ये उच्चारण-स्थान की अलग-अलग एकता लिए हुए वर्गों में विभक्त हैं।
ये 25 व्यंजन होते है-

(1)कवर्ग- क ख ग घ ङ ये कण्ठ का स्पर्श करते है।

(2)चवर्ग- च छ ज झ ञ ये तालु का स्पर्श करते है।

(3)टवर्ग- ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़) ये मूर्धा का स्पर्श करते है।

(4)तवर्ग- त थ द ध न ये दाँतो का स्पर्श करते है।

(5)पवर्ग- प फ ब भ म ये होठों का स्पर्श करते है।

(2)अन्तःस्थ व्यंजन(Semivowels) :- 'अन्तः' का अर्थ होता है- 'मध्य स्थ का अर्थ स्थित रहने वाले ।

सरल शब्दों में- जिन वर्गो का उच्चारण वर्णमाला के बीच अर्थात (स्वरों और व्यंजनों) के बीच होता हो, वे अंतस्थ: व्यंजन कहलाते है।

अन्तः = मध्य/बीच, स्थ = स्थित। इन व्यंजनों का उच्चारण स्वर तथा व्यंजन के मध्य का-सा होता है। 
उच्चारण के समय जिह्वा मुख के किसी भाग को स्पर्श नहीं करती।

ये व्यंजन चार होते है- य, र, ल, व।
 इनका उच्चारण जीभ, तालु, दाँत और ओठों के परस्पर सटाने से होता है, किन्तु कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता। अतः ये चारों अन्तःस्थ व्यंजन 'अर्द्धस्वर' कहलाते हैं। 
परन्तु 'र और ल" एक ही सिक्के के दो भाग हैं जैसे-
वैदिक सरिर- लौकिक सलिल।
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(3)उष्म या संघर्षी व्यंजन(Sibilants) :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय हवा मुँह के विभिन्न भागों से टकराये और साँस में गर्मी पैदा कर दे, उन्हें उष्म व्यंजन कहते है।

दूसरे शब्दो में- जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय वायु किसी स्थान विशेष पर घर्षण करती हुई या रगड़ती हुई बाहर निकले जिससे गर्मी पैदा हो। उसे उष्म व्यंजन कहते हैं।

ऊष्म = गर्म। इन व्यंजनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़ खाकर ऊष्मा पैदा करती है यानी उच्चारण के समय मुख से गर्म हवा निकलती है।

उष्म व्यंजनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यंजन होते है- श, ष, स, ह।


जैसे-  ढाका, ढकना, ढोल- शब्द के आरम्भ में।
गड्ढा, खड्ढा- द्वित्व में।
डंड, पिंड, चंडू, मंडप- हस्व स्वर के पश्चात, अनुनासिक व्यंजन के संयोग पर।

 
प्रयत्न-
वर्णों का उच्चारण करते समय विभिन्नउच्चारण-अवयव किस स्थिति और गति में हैं, इसका अध्ययन 'प्रयत्न' के अंतर्गत किया जाता है। प्रयत्न के आधार पर हिन्दी वर्णों का वर्गीकरण प्रायः निम्नलिखित रूप में किया गया है।

( अ ) स्वर:- (i) जिह्वा का कौन-सा अंश उच्चारण में उठता है, इस आधार पर स्वरों के भेद निम्नलिखित हैं-
अग्र : इ, ई, ए, ऐ।
मध्य : अ।
पश्च : आ, उ, ऊ, ओ, औ

(ii) होठों की स्थिति गोलाकार होती है या नहीं, इस आधार पर स्वरों के भेद निम्नलिखित हैं-
१-वृत्तमुखी : उ, ऊ, ओ, औ
२-अवृत्तमुखी : अ, आ, इ, ई, ए, ऐ

( आ ) व्यंजन:- प्रयत्न के आधार पर हिन्दी व्यंजनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-

(i) स्पर्शी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में फेफ़ड़ों से आई वायु किसी अवयव को स्पर्श करके निकले, उन्हें स्पर्शी कहते हैं।
क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ स्पर्शी व्यंजन हैं।

(ii) संघर्षी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में वायु संघर्षपूर्वक निकले, उन्हें संघर्षी कहते हैं।
श, ष, स, ह आदि व्यंजन संघर्षी हैं।

(iii) स्पर्श-संघर्षी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्पर्श का समय अपेक्षाकृत अधिक होता है और उच्चारण के बाद वाला भाग संघर्षी हो जाता है, वे स्पर्श संघर्षी कहलाते हैं।
च, छ, ज, झ स्पर्श-संघर्षी व्यंजन हैं।

(iv) नासिक्य : जिन व्यंजनों के उच्चारण में वायु मुख्यतः नाक से निकले, उन्हें नासिक्य कहते हैं।
ङ, ञ, ण, न, म व्यंजन नासिक्य हैं।
_______________     

(v) पार्श्विक : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ तालु को छुए किन्तु पार्श्व (बगल) में से हवा निकल जाए, उन्हें पार्श्विक व्यंजन कहते हैं।
दूसरे शब्दों में- जिनके उच्चारण में जिह्वा का अगला भाग मसूड़े को छूता है और वायु पार्श्व आस पास से निकल जाती है, 
वे पार्श्विक कहलाते हैं। हिन्दी में केवल 'ल' व्यंजन पार्श्विक है।

(vi) प्रकंपी : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा को दो तीन बार कंपन करना पड़ता है, वे प्रकंपी कहलाते हैं।
हिन्दी में 'ऱ' व्यंजन प्रकंपी है।

(vii) उत्क्षिप्त : जिन व्यंजनों के उच्चारण में जीभ के अगले भाग को थोड़ा ऊपर उठाकर झटके से नीचे फेंकते हैं, उन्हें उत्क्षिप्त व्यंजन कहते हैं।
ड़, ढ़, व्यंजन उत्क्षिप्त हैं।

(viii) संघर्षहीन या अर्ध-स्वर : जिन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बिना किसी संघर्ष के बाहर निकल जाती है वे संघर्षहीन ध्वनियाँ कहलाती हैं।
य, व "व्यंजन संघर्षहीन या अर्ध-स्वर हैं।

अक्षर- (syllable) 
शब्दांश -छोटा भाग
अथवा उच्चारण-इकाई
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व्याकरण में ध्वनि की उस छोटी-से-छोटी इकाई को अक्षर कहते हैं जिसका उच्चारण एक झटके से होता है।.   
अक्षर में व्यंजन एकाधिक हो सकते हैं किन्तु स्वर प्रायः एक ही होता है। 
हिन्दी में एक अक्षर वाले शब्द भी हैं और अनेक अक्षरों वाले भी। 
उदाहरण देखिए-

१-आ, खा, जो, तो (एक अक्षर वाले शब्द)
२-मित्र, गति, काला, मान (दो अक्षरों वाले शब्द)
३-कविता, बिजली, कमान (तीन अक्षरों वाले शब्द)
४-अजगर, पकवान, समवेत (चार अक्षरों वाले शब्द)
५-मनमोहन, जगमगाना (पाँच अक्षरों वाले शब्द)
छः या उससे अधिक अक्षरों वाले शब्दों का प्रयोग बहुत कम होता है।
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बलाघात-Stress
शब्द का उच्चारण करते समय किसी एक अक्षर पर दूसरे अक्षरों की तुलना में कुछ अधिक बल दिया जाता है। जैसे- 'जगत' में ज और त की तुलना में 'ग' पर अधिक बल है। 
इसी प्रकार 'समान' में 'मा' पर अधिक बल है। इसे बलाघात कहा जाता है।

शब्द में बलाघात का अर्थ पर प्रभाव नहीं पड़ता। वाक्य में बलाघात से अर्थ में परिवर्तन आ जाता है। उदाहरण के लिए एक वाक्य देखिए-

राम मोहन के साथ मुम्बई जाएगा।
इस वाक्य में भिन्न-भिन्न शब्दों पर बलाघात से निकलने वाला अर्थ कोष्ठक में दिया गया है-
राम सोहन के साथ मुम्बई जाएगा। (राम जाएगा, कोई और नहीं)
राम सोहन के साथ मुम्बई जाएगा। (सोहन के साथ जाएगा किसी और के साथ नहीं)
राम सोहन के साथ मुम्बई जाएगा। (मुम्बई जाएगा, कहीं और नहीं)
राम सोहन के साथ मुम्बई जाएगा। (निश्चय ही जाएगा)
यह अर्थ केवल उच्चारण की दृष्टि से है, लिखने में यह अंतर लक्षित नहीं हो सकता।
_____________________
बलाघात दो प्रकार का होता है– (1) शब्द बलाघात (2) वाक्य बलाघात।

(1) शब्द बलाघात– प्रत्येक शब्द का उच्चारण करते समय किसी एक अक्षर पर अधिक बल दिया जाता है।
जैसे– गिरा में ‘रा’ पर।
हिन्दी भाषा में किसी भी अक्षर पर यदि बल दिया जाए तो इससे अर्थ भेद नहीं होता तथा अर्थ अपने मूल रूप जैसा बना रहता है।

(2) वाक्य बलाघात– हिन्दी में वाक्य बलाघात सार्थक है। एक ही वाक्य मेँ शब्द विशेष पर बल देने से अर्थ में परिवर्तन आ जाता है।

 जिस शब्द पर बल दिया जाता है वह शब्द विशेषण शब्दों के समान दूसरों का निवारण करता है। जैसे– 'रोहित ने बाजार से आकर खाना खाया।'

उपर्युक्त वाक्य मेँ जिस शब्द पर भी जोर दिया जाएगा, उसी प्रकार का अर्थ निकलेगा। जैसे– 'रोहित’ शब्द पर जोर देते ही अर्थ निकलता है कि रोहित ने ही बाजार से आकर खाना खाया। 'बाजार' पर जोर देने से अर्थ निकलता है कि रोहित ने बाजार से ही वापस आकर खाना खाया। 

इसी प्रकार प्रत्येक शब्द पर बल देने से उसका अलग अर्थ निकल आता है। 
शब्द विशेष के बलाघात से वाक्य के अर्थ में परिवर्तन आ जाता है।

शब्द बलाघात का स्थान निश्चित है किन्तु वाक्य बलाघात का स्थान वक्ता पर निर्भर करता है, वह अपनी जिस बात पर बल देना चाहता है, उसे उसी रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
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अनुतान-sustenance-

जब हम किसी ध्वनि का उच्चारण करते हैं तो उसका एक 'सुर' होता है। जब एकाधिक ध्वनियों से बने शब्द, वाक्यांश या वाक्य का प्रयोग करते हैं तो सुर के उतार-चढ़ाव से एक सुरलहर बन जाती है इसे अनुतान कहते हैं।
 एक ही शब्द को विभिन्न अनुतानों में उच्चरित करने से उसका अर्थ बदल जाता है। 
उदाहरण के लिए 'सुनो' शब्द लें। विभिन्न अनुतानों में इसका अर्थ अलग-अलग होगा।

सामान्य कथन (नेताजी का भाषण ध्यान से सुनो।)
आग्रह या मनुहार के अर्थ में (मेरी बात तो सुनो!)
क्रोध के अर्थ में (अपनी ही हाँके जाते हो, कुछ दूसरों की भी सुनो।)

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(क) 1. विवार :- जिन वर्णो के उच्चारण के समय स्वरतन्त्रियों के (Vocalchords) दूर-दूर रहने के कारण कण्ठद्वार काकल) खुल रहता है, उसे विवार कहते हैं।

 विवार का सामानय अर्थ-=फैलाना  अर्थात् वर्ण के उच्चारण में होनेवाला कंठ का फैलाव एक आभ्यंतर प्रयत्न जो संवार प्रयत्न के विपरीत होता है।

उदाहरण— अल्पप्राण, महाप्राण, विवार, संवार, बाह्म, आभ्यंतर प्रयत्नादिक अक्षरोच्चारणों की एवं उदात्तानुदात्त स्वारितादिक स्वरोच्चारों की शुद्धता कितनी महत्वपूर्ण मानी जाती थी यह प्राचीन काल के व्याकरण मूलक विश्लेषणों से विदित होती है।


2. श्वास :- उस समय उनसे बाहर निकलने वाली श्वास सदृश होती है। अतः उसे श्वास कहते हैं।

3. अघोष : और उस समय स्वरतन्त्रियों के खुले रहने के कारण जो वर्ण उच्चारण किये जाते हैं, वे विशेष गूंज पैदा
नहीं करते अतः अघोष कहलाते हैं

4. संवार : इसके विपरीत जब स्वरतन्त्रियां (Vocalchords) सट जाती हैं तो उसे संवार कहते हैं।

5. नाद :- उस समय निःश्वास वायु के निकलते समय कम्पन पैदा होता है। अतः उसे नाद कहते

6. घोष- इस अवस्था में जिन ध्वनियो का गूंज के साथ उच्चारण होता है; उन्हें घोष कहते हैं
अर्थात् स्वर तत्रियों के दूर-दूर रहने पर विवार, श्वास तथा अघोष प्रयत्न होते हैं और उनके सट जाने पर संवार, नाद तथा घोष (या सघोष) प्रयत्न होते हैं

7.  अल्पप्राण :- जिन वर्णो के उच्चारण करने में फेफड़े से निकलने वाली वायु (प्राण) का अल्प उपयोग हो उन्हें 'अल्पप्राण' कहते हैं।

8. महाप्राण :- जिनके उच्चारण में वायु का अधिक उपयोग हो उन्हें 'महाप्राण' कहते है।

9.  उदात्त :- स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर 'उदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं।
वेद के स्वरों के उच्चारण का एक भेद जो तालु आदि के ऊपरी भाग की सहायता से होता है वह स्वर जिस पर उच्चारण काल में बलाघात( जोर)  होता है  ।

10.स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर ‘अनुदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं अर्थात्  स्वर के तीन भेदों में से एक  वह स्वर जिस पर बलाघात( जोर) न हो ।

11. 'स्वरित' : स्वरतन्त्रियों के कम्पन की आवृत्ति मिश्रित होने पर स्वर उत्पन्न होते हैं।
उच्चारण के अनुसार स्वर के तीन भेदों में से एक। वह स्वर जिसमें उदात्त और अनुदात्त दोनों गुण हैं। 
वह स्वर जिसका उच्चारण न बहुत जोर से हो ओर न बहुत धीरे से मध्यम रूप से उच्चरित स्वर।

इस प्रकार इन वर्गों के बाह्य प्रयत्न संक्षेप में निम्न हैं :-
(1) प्रत्येक वर्ग के प्रथम-द्वितीय वर्ण (क् - ख्, च् - छ्, ट् - ट्, त् - थ्, प् - फ्) श् - ष् - स् (अर्थात् खर्
प्रत्याहारका) का विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न हैं ।

(2) प्रत्येक वर्ग के तीसरे चौथे और पांचवें वर्ण (ग् - घ् ङ्, ज् - झ् - ञ्, ड् - ढ् - ण, द् - ध्- न्, ब्- भू - म्) और अंतस्थ(य्, र्,ल व्) तथा 'ह' का (अर्थात् हश् प्रत्याहारका) संवार, नाद,घोष प्रयत्न हैं

(3) प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण ( क्, च्, ट्, त्, प्) तृतीय वर्ण ( ग्, ज्, इ, द्, ब् ) और पंचम वर्ग (ङ ञ ण न म्) तथा अन्तःरथ ( य् -र् - ल् - व् ) वर्णों का अल्पप्राण प्रयत्न है

(4) इसके विपरीत प्रत्येक वर्ण का द्वितीय वर्ण ख् छ ठ थ् प् तथा चतुर्थ वर्ण (घ झ ढ ध भ) तथा उष्म वर्ण
(श ष, स ह्) का महाप्राण प्रयत्न है ।

(5) स्वरित नियमों पर आघात या कंपन की आवृति से ऊंचे नीचे और मिश्रित स्वर से उच्चरित ध्वनियाँ क्रमशः उदात्त अनुदान्त तथा स्वरित कहलाती है। 
ये तीनों स्वर केवल अकारादि स्वर वर्णो के होते है, व्यंजन वर्गों के नहीं। 

इनका प्रयोग विशेष रूप से वैदिक भाषा में होता है। लौकिक संस्कृत भाषा में नहीं। 

लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण में बाह्य प्रयत्नों में मुख्य उपयोग घोष अघोष तथा अल्प प्राण महाप्राण का है, शेष का नहीं। व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग- सन्धि के समझने में ये चारों प्रयत्न आवश्यक हैं ।




"बाह्य प्रयत्न तालिका"
1. खरो विवाराः श्वासाः अघोषश्च ।
2. हशः संवारा नादा घोषाश्च।
3. वर्णानां प्रथम-तृतीय पंचमाः य र ल वश्चाल्पप्राणाः।
4. अन्ये च महा प्राणाः

 प्रयत्न-★-वर्णों के उच्चारण में होने वाली क्रिया।  विशेष—उच्चारण प्रयत्न दो प्रकार का होता है—आभ्यंतर और बाह्य। 
ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वागिंद्रिय की क्रिया को आभ्यंतर प्रयत्न कहते हैं और ध्वनि के अंत की क्रिया को बाह्य प्रयत्न कहते हैं।

 आभ्यंतर प्रयत्न के अनुसार वर्णों के चार भेद हैं—(१) विवृत—जिनके उच्चारण में वगिंद्रिय खुली रहती है, जैसे,  सभी स्वर वर्ण। 

(२) स्पृष्ट—जिनके उच्चारण में वागिंद्रिय का द्वार बंद रहता है, जैसे, 'क' से 'म' तक २५ व्यंजन। (३) ईषत् विवृत—जिनके उच्चारण में वागिंद्रिय कुछ खुली रहती है, जैसे य र ल व। (४) ईषत् स्पृष्ट—श ष स ह। ब्राह्य प्रयत्न के अनुसार दो भेद हैं अघोष और घोष। अघोष वर्णों के उच्चारण में केवल श्वास का उपयोग होता है। कोई नाद नहीं होता, जैसे— क ख, च छ, ट ढ त, थ, प, फ, श, ष और स। घोष वर्णों के उच्चारण में केवल नाँद का उपयोग होता है—शेष व्यंजन और सब स्वर।


 वर्ण उच्चारण में प्रयत्नों सी भूमिका-

वक्ता को वर्णो के उच्चारण में जो प्रयत्न ( प्रयास) करना पड़ता है, उसे 'प्रयत्न' कहते हैं।
 यह दो प्रकार का होता है :-
1. आभ्यन्तर प्रयत्न 2. बाह्य प्रयत्न। 
इन दोनों का सम्बन्ध क्रमशः मुख विवर के भीतरी तथा बाहरी भागों से है।
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"आभ्यन्तर प्रयत्न"
किसी वर्ण के उच्चारण करते समय हमारी जिह्वा को मुख विवर में विद्यमान कण्ठ, तालु आदि भिन्न-भिन्न स्थानों को (स्पर्श करने)अथवा छूने  में जो प्रयत्न करना पड़ता है उसे “आभ्यन्तर प्रयत्न" कहते हैं । ये प्रयत्न मुख विवर के भीतर जिह्वा द्वारा किये जाते हैं, इस कारण इन्हें आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं।
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भेद :- आभ्यन्तर प्रयत्न पाँच प्रकार के हैं :-
1. स्पृष्ट
2. ईषत् स्पृष्ट
3. विवृत
4. ईषत् विवृत्
5. संवृत ।

इनका विवरण इस प्रकार है :-
1. स्पृष्ट :- क् से म् तक कवर्गादि पाँचों वर्गों के 25 वर्गों का स्पृष्ट प्रयत्न है, क्योंकि इनके उच्चारण में जिह्वा का कण्ठ,तालु आदि स्थानों पर पूरी तरह स्पर्श होता है ।

2. ईषत्-स्पृष्ट :- य, र, ल, व् का ईषत्-स्पृष्ट प्रयत्न होता है, क्योंकि इन अन्तःस्थ वर्गों के उच्चारण के समय जिह्वा का कण्ठ, तालु आदि स्थानों पर थोड़ा, थोड़ा (ईषद्) स्पर्श होता है।

3. विवृत :- अकार आदि समस्त स्वर वर्णो का विवृत प्रयत्न होता है । क्योंकि जिह्वा और मुख विवर के उपरी भाग के बीच अधिक से अधिक दूरी रहती है ।

4. ईषत्-विवृत :- श्, ष, स्, ह, वर्णों का ईषद्
श, ष, स्, ह, वर्णों का ईषद् विवृत प्रयत्न है । इन ऊष्म अक्षरों के उच्चारण के समय जिह्वा और मुख विवर( छिद्र) के उपरी भाग की दूरी अपेक्षाकृत कम होती है ।

5. संवृत :- ह्रस्व 'अ' का संवृत प्रयत्न होता है । प्रयोग में हस्व 'अ' संवृत होता है ; परन्तु प्रक्रिया दशा में वह विवृत ही माना जाता है । इसके उच्चारण के समय मुख-विवर बहुत कुछ बन्द सा होता है अतः इसे 'संवृत' कहते हैं ।
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आभ्यन्तर प्रयत्न तालिका-★

बाह्य प्रयत्न-
जिस प्रकार वर्णोच्चारण में मुख-विवर के भीतर जिहा को कण्ठतालु आदि स्थानों को स्पर्श करने अथवा छूने का प्रयत्न करना पड़ता है और उन्हें आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं, उसी प्रकार वर्णोच्चारण के लिए मुख विवर से बाहर श्वासनालिका में विद्यमान स्वरयन्त्र, की तन्त्रियों में भी प्रयत्न अपेक्षित है । उसे 'बाह्य' प्रयत्न कहते हैं

यह बाह्य प्रयत्न तीन कारणों से होता है :-
(क) स्वर तन्त्रियों के कुछ-कुछ दूर रहने या निकट आकर सट जाने से।
(ख) फेफड़ों से निकलकर आने वाली वायु के अधिक या कम होने से।
(ग) स्वर तन्त्रियों के कम्पनों की आवृत्ति या अधिक होने से।

बाह्य प्रयत्न के भेद  (११) प्रकार के होते हैं
1. विवार
2. संवार
3. श्वास
4. नाद
5. घोष
6. अघोष
7. अल्पप्राण
8. महाप्राण
9. उदात्त
10.अनुदात्त
11.स्वरित।

क) 1. विवार :- जिन वर्णो के उच्चारण के समय स्वरतन्त्रियों के (Vocalchords) दूर-दूर रहने के कारण कण्ठद्वार( काकल) खुल रहता है, उसे विवार कहते हैं।

2. श्वास :- उस समय उनसे बाहर निकलने वाली श्वास सदृश होती है। अतः उसे श्वास कहते हैं।

3. अघोष : और उस समय स्वरतन्त्रियों के खुले रहने के कारण जो वर्ण उच्चारण किये जाते हैं, वे विशेष गूंज पैदा नहीं करते अतः अघोष कहलाते हैं

4. संवार : इसके विपरीत जब स्वरतन्त्रियां (Vocalchords) सट जाती हैं तो उसे संवार कहते हैं।

5. नाद :- उस समय निःश्वास वायु के निकलते समय कम्पन पैदा होता है। अतः उसे नाद कहते

6. घोष- इस अवस्था में जिन ध्वनियो का गूंज के साथ उच्चारण होता है। उन्हें घोष कहते हैं
अर्थात् स्वर तत्रियों के दूर-दूर रहने पर विवार, श्वास तथा अघोष प्रयत्न होते हैं और उनके सट जाने पर संवार, नाद तथा घोष (या सघोष) प्रयत्न होते हैं

7. (ख) अल्पप्राण :- जिन वर्णो के उच्चारण करने में फेफड़े से निकलने वाली वायु (प्राण) का अल्प उपयोग हो उन्हें 'अल्पप्राण' कहते हैं।

8. महाप्राण :- जिनके उच्चारण में वायु का अधिक उपयोग हो उन्हें 'महाप्राण' कहते है।

9. (ग) उदात्त :- स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर 'उदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं।
स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर ‘अनुदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं।

11. 'स्वरित' : स्वरतन्त्रियों के कम्पन की आवृत्ति मिश्रित होने पर स्वर उत्पन्न होते हैं।

इस प्रकार इन वर्गों के बाह्य प्रयत्न संक्षेप में निम्न हैं :-
(1) प्रत्येक वर्ग के प्रथम-द्वितीय वर्ण (क् - ख्, च् - छ्, ट् - ट्, त् - थ्, प् - फ्) श् - ष् - स् (अर्थात् खर् -प्रत्याहार का) का विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न हैं ।

(2) प्रत्येक वर्ग के तीसरे चौथे और पांचवें वर्ण (ग् - घ् ङ्, ज् - झ् - ञ्, ड् - ढ् - ण, द् - ध्- न्, ब्- भू - म्) और अंतस्थ(य्, र्,ल व्) तथा 'ह' का (अर्थात् हश् प्रत्याहार का) संवार, नाद,घोष प्रयत्न हैं

(3) प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण ( क्, च्, ट्, त्, प्) तृतीय वर्ण ( ग्, ज्, इ, द्, ब् ) और पंचम वर्ग (ङ ञ ण न म्) तथा अन्तःरथ ( य् -र् - ल् - व् ) वर्णों का अल्पप्राण प्रयत्न है

(4) इसके विपरीत प्रत्येक वर्ण का द्वितीय वर्ण ख् फ् छ् ठ् थ् तथा चतुर्थ वर्ण ( झ भ घ ढ ध ) तथा उष्म वर्ण (श ष, स ह्) का महाप्राण प्रयत्न है।

(5) स्वरित नियमों पर आघात या कंपन की आवृति से ऊंचे नीचे और मिश्रित स्वर से उच्चरित ध्वनियाँ क्रमशः उदात्त अनुदान्त तथा स्वरित कहलाती है। ये तीनों स्वर केवल अकारादि स्वर वर्णो के होते है, व्यंजन वर्गों के नहीं।
 इनका प्रयोग विशेष रूप से वैदिक भाषा में ऋचाओं को गायन में होता था लौकिक संस्कृत भाषा में नहीं होता था। 

लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण में बाह्य प्रयत्नों में मुख्य उपयोग घोष, अघोष ,तथा अल्प प्राण, महाप्राण का है, शेष का नहीं।
व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग- सन्धि के समझने में ये चारों प्रयत्न सहायक हैं। अत: माहेश्वर सूत्रों का अवश्य अध्ययन करें -




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(ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 👇)

मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं?
-- ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।

श्रवण तंत्रिकाएँ,  (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है ।

 भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।

किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।

ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युत-चुम्बकीय तरंग। जबकि (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।

ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।

द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य–(दीर्घस्य भावः व्यञ् - दीर्घतायाम् ) तरंग  (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।

 विदित हो कि भौतिकी और रसायन शास्त्र में, प्लाज्मा आंशिक रूप से आयनीकृत एक गैस है, जिसमें इलेक्ट्रॉनों का एक निश्चित अनुपात किसी परमाणु या अणु के साथ बंधे होने के बजाय स्वतंत्र होता है। 

प्लाज्मा में धनावेश और ऋणावेश की स्वतंत्र रूप से गमन करने की क्षमता प्लाज्मा को विद्युत चालक बनाती है। जिसके परिणामस्वरूप यह दृढ़ता से विद्युत चुम्बकीय क्षेत्रों से प्रतिक्रिया कर पाता है।

प्लाज्मा दीप

"प्लाज्मा  के गुण  ठोस, द्रव या गैस के गुणों से काफी विपरीत हैं और इसलिए इसे पदार्थ की एक भिन्न अवस्था माना जाता है। 

प्लाज्मा आमतौर पर, एक तटस्थ-गैस के बादलों का रूप ले लेता है, जैसे सितारों में। गैस की तरह प्लाज्मा का कोई निश्चित आकार या निश्चित आयतन नहीं होता जब तक इसे किसी पात्र में बंद न कर दिया जाए लेकिन गैस के विपरीत किसी चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव में यह एक फिलामेंट, पुंज या दोहरी परत जैसी संरचनाओं का निर्माण करता है।

प्लाज़्मा ग्लोब एक सजावटी वस्तु होती है, जिसमें एक कांच के गोले में कई गैसों के मिश्रण में इलेक्ट्रोड द्वारा गोले तक कई रंगों की किरणें चलती दिखाई देती हैं।

प्लाज्मा की पहचान सबसे पहले एक क्रूक्स नली में १८७९ मे सर विलियम क्रूक्स द्वारा की गई थी उन्होंने इसे “चमकते पदार्थ” का नाम दिया था। क्रूक्स नली की प्रकृति "कैथोड रे" की पहचान इसके बाद ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी सर (जे जे थॉमसन) द्वारा १८९७ में द्वारा की गयी। १९२८ में इरविंग लैंगम्युइर ने इसे प्लाज्मा नाम दिया,शायद इसने उन्हें रक्त प्लाविका (प्लाज्मा) की याद दिलाई थी।

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(अनुदैर्घ्य तरंग:--- जिस माध्यम में ध्वनि का सञ्चरण होता है यदि उसके कण ध्वनि की गति की दिशा में ही कम्पन करते हैं तो उसे अनुदैर्घ्य तरंग कहते हैं!)


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(अनुप्रस्थ तरंग:- जब माध्यम के कणों का कम्पन ध्वनि की गति की दिशा के लम्बवत होता है तो उसे अनुप्रस्थ तरंग कहते है।)



(सामान्य ताप व दाब(NTP) पर वायु में ध्वनि का वेग लगभग- 343 मीटर प्रति सेकेण्ड होता है।

बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।)

मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।

जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है।

(माइक्रोफोन ध्वनि को विद्युत उर्जा में बदलता है; लाउडस्पीकर विद्युत उर्जा को ध्वनि उर्जा में बदलता है।


किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-

{\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।

(आवृत्ति के अनुसार वर्गीकर---

अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।

पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।

ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।

(ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत - _________

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सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ -ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति---- एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे ।

क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !

ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में  द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।

कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि  उनका विश्वास था !

कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।

और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था।

जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ...

वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।

आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।

सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में "ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।

तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ।

मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है,  मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!

इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !!
(ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था।

जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है । 

भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !

जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ! ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !

वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था द्रुज जनजाति प्राचीन इज़राएल  जॉर्डन लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है।

द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा पुनर्जन्म कर्म फल के भोग के लिए होता है ...    ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति (druid) द्रयूडों  पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप  में मान्य  थी !

केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था।

द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य -वेत्ता और तत्व दर्शी थे !
जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड  (द्रव + विद) -- समाक्षर लोप से द्रविड  । ...मैं यादव योगेश कुमार "रोहि" भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ ! 👇

जो संक्षिप्त ही है ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !

इस ओ३म शब्द के अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है ;।

यूनानी देव संस्कृति के अनुयायी ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !

भारतीय संस्कृति में ओ३म् को  उच्चारण काल के आधार पर प्लुत स्वर के रूप मान्य किया गया है। _________________________________________

ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मात् माङ्गलिकावुभौ॥
इति दुर्गादासः 

ये दुर्गा दास निरुक्तकोश की टीका के रचनाकार थे । और महर्षि यास्क कृत निरुक्त दुर्गाचार्य कृत टीका है ।

अर्थात् उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है :- कि ओ३म् तथा अथ ये दौनों शब्द ब्रह्मा जी कण्ठ को भेद कर पूर्व काल में या कहें आदि काल में उत्पन्न हुए जो मानव व प्राणी मात्र के लिए कल्याण कारी हैं।

  “सिद्धानाञ्चैव सर्व्वेषां वेदवेदान्तयोस्तथा । अन्येषामपि शास्त्राणां निष्ठाऽथोङ्कार उच्यते ॥

प्रणवाद्या यतो वेदा प्रणवे पर्य्यवस्थिताः ।
वाङ्मयं प्रणवः सर्व्वं तस्मात् प्रणवमभ्यसेत्”)

व्याकरण भाषा में ओ३म् अव्यय के रूप में स्वीकृत अनुमतिः का अर्थक है ।
इति विश्वनाथ आचार्य ॥

भाषा व्याकरण में ओ३म के निम्न अर्थ हैं।
उपक्रमः । अङ्गीकारः । (यथा, भागवते ११ । ४ । १५ ।

“ओमित्यादेशमास्थाय नत्वा तं सुरवन्दिनः । उर्व्वशीमप्सरःश्रेष्ठां पुरःस्कृत्य दिवं ययुः)
अपाकृतिः । मङ्गलम् । इति मेदिनी कोश ॥
ओम्, ब्रह्मणो नामविशेषः ।

अर्थात् ओ३म परब्रह्म का नाम विशेष है ।
जैसा कि श्रीमद्भागवत् गीता में देखें---👇

यथा,- ओ३म् तत्सदिति निर्द्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः
स्मृतः ब्राह्मणाश्चैव वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।

प्रवर्त्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥
इति श्रीभगवद्गीतायां १७ अध्यायः ॥ अमरकोशः
ओम् अव्यय।  अनुमतिः

समानार्थक: शब्द ओम्,एवम्,परमम्  3।4।12।2।3
पक्षान्तरे चेद्यदि च तत्त्वे त्वद्धाञ्जसा द्वयम्. प्राकाश्ये प्रादुराविः स्यादोमेवं परमं मते॥

वाचस्पत्यम् ओ३म् =अव्य॰ अव--मन् (निष्पत्ति)।  १ प्रणव,  २ आरम्भ,  ३ स्वीकार,  “ओमित्युक्तवतोऽथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचंनभः”
महाकविमाघः।  ४ अनुमतौ,  ५ अपाकृतौ,  ६ अस्वीकारे,मङ्गले,  ७ शुभे,  ८ ज्ञेये, ब्रह्मणि च। अश्च उश्च म्चतेषां समाहारः। विष्णुमहेश्वरब्रह्मरूपत्वात् 
९ परमेश्वरे अव्य॰ यथा तस्येश्वरवाचकता तथा पातञ्चलि सूत्रभाष्य :- विवरणेषु दर्शितं यथा  “तस्य वाचकः प्रणवः” ।

  “वाच्य ईश्वरः प्रणवस्य,किमस्य सङ्केतकृतं वाच्यवाचकत्वम् ?

अथ प्रदीपप्रकाशवद् अवस्थितम् इति।
स्थितोऽस्य वाच्यस्य वाचकेन सहसम्बन्धः सङ्केतस्त्वीश्वरस्य स्थितमेवार्थमभिनयति।

यथावस्थितः पितापुत्रयोः सम्बन्धः, सङ्केतेनावद्योत्यते अयमस्यपिता, अयमस्य पुत्र इति।

सर्गान्तरेष्वपि वाच्यवाचक- वक्त्रपेक्षस्तथैव सङ्केतः क्रियते”  ईश्वर तथा औ३म् का सम्बन्ध पिता-पुत्र अथवा वाच्य-वाचक के समान अन्योन्य है ।

ओ३म्  वस्तुत सृष्टि की आदिम (प्रारम्भिक) ध्वनि है । यही नाद-ब्रह्म है ।

और संगीत जिसमें स्वरों की प्रधानता है ।

नाद ब्रह्म की उपासना और सृष्टि की आदिम विद्या है । क्यों कि जब नव शिशु का जन्म होता है तो वह नव-जात तत्काल रुदन करता है ।
जो स्वरों का आलापमयी प्रवाह है ।

मनुष्य का संसार में आगमन भी इसी प्रकार होता है । और गमन भी इसी प्रकार ।

जैसे सूर्य से उसका प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में भी द्रविड संस्कृति का यही ऑघम शब्द  आमोन् रा ( ammon - ra ) जो अन्तरिक्ष वेत्ताओं ने सिद्ध किया कि सूर्य से ओ३म स्वर नि: सृत  है ।

और यह वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मयी रूप में प्रस्तावित है ।

आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय यान - प्रक्षेपण संस्थान (नासा) के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।

सुमेरियन एवं सैमेटिक हिब्रू आदि परम्पराओं  में  रब़ अथवा रब्बी शब्द का अर्थ - नेता तथा महान एवं गुरू होता हेै !


जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में रब़ --ईश्वर का वाचक है ।

रब्बुल उल् अलामीन मतलब ईश्वर सम्पूर्ण संसार का रक्षक है ।

अमीन शब्द (अरबी:जुबान में ( آمین) या आमीन का शाब्दिक अर्थ है "ऐसा हो सकता है" या "ऐसा है"। मुसलमानों में शब्द आमिन का प्रयोग आमतौर पर उसी शब्द के साथ किया जाता है जिसका अर्थ है
"मुझे जवाब दें", और वाक्यांश "इलाही अमीन"
(अरबी: الهی آمین; अर्थ:- हे मेरे भगवान !

मुझे जवाब दें) आधुनिक काल सैमेटिक परम्पराओं के अनुयायी लोगों के बीच बहुत आम है।

इसका उपयोग अंग्रेजी में अमेन के रूप में किया जाता है (अर्थ: तो यह हो)। वस्तुत: अमेन हिब्रू बाइबिल में वर्णित रूप है ।

शिया  शरीयत  में, प्रार्थनाओं में कुरान 1 (सूर अल-हम्द) को पढ़ने के बाद अमीन न कहने पर  कि प्रार्थना को शरीयती तौर पर अमान्य कर दिया गया है।

हिब्रू परम्पराओं से यह अरब की रबायतों में कायम हुआ हिब्रू में, शब्द अमीन को सबसे पहले "सही" और "सत्य" नामक विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था; लेकिन यशायाह की किताब के मुताबिक इसका उपयोग संज्ञा के रूप में किया जाता था।

यह शब्द फिर हिब्रू में एक invariant ऑपरेटर (अर्थात्, "वास्तव में" और "निश्चित रूप से")के अर्थ में बदल गया।
इसका उपयोग बाइबिल में 30 बार और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के यूनानी अनुवाद में 33 बार किया गया है।
इतिहास की पहली पुस्तक और किंग्स बुक्स की पहली पुस्तक में इस शब्द की घटना से पता चलता है।

कि यह शब्द यहूदी प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों में चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भी इस्तेमाल किया गया था।

 प्राचीन यहूदी परम्परा में, इस शब्द का उपयोग शुरुआत या प्रार्थना के अन्त में किया गया था।

यहूदी वैदिक काल में यदु: के वंशजों के रूप में विस्थापित हुए।

प्रार्थनाओं, और भजनों के अन्त में इसकी पुनरावृत्ति प्रासंगिक सामग्रियों की पुष्टि और समर्थन दोनों में थी। , 

और उम्मीद की अभिव्यक्ति थी कि हर कोई (अमेन का उल्लेख करने के दौरान अभ्यास के आशीर्वाद साझा कर सकता है।

"तलमूद और अन्य यहूदी परम्पराओं की अवधि में, यह महत्वपूर्ण था कि विभिन्न स्थितियों में शब्द का उपयोग कैसे किया जाए; और ऐसा माना जाता था कि भगवान किसी भी प्रार्थना के लिए "आमीन" कहता है । जो उसे सम्बोधित किया जाता है।

ईसाई धर्म में---यहूदी परम्पराओं को ईसाई चर्चों में अपना रास्ता मिला। 

"अमीन" शब्द का प्रयोग नए नियम में 119 बार किया गया था, जिनमें से 52 मामले यहूदी धर्म में इसका उपयोग कैसे किया जाता है।

 नए नियम के माध्यम से, शब्द दुनिया की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में प्रवेश किया।
शब्द, अमीन, जैसा कि नए नियम में प्रयोग किया गया है, उसमें इसके  चार अर्थ हैं - पावती और अनुमोदन; एक प्रार्थना में समझौता या भागीदारी, और किसी के प्रतिज्ञा की अभिव्यक्ति।
दिव्य प्रतिक्रिया का अनुरोध, जिसका अर्थ है: "हे भगवान! स्वीकार करें या जवाब दें!"
अर्थात् एवं अस्तु ! एक प्रार्थना या प्रतिज्ञा की पुष्टि, जिसका अर्थ है: "तो यह हो" (आज शब्द को दो अर्थों को इंगित करने के लिए प्रार्थनाओं के अन्त में उपयोग किया जाता है)।

एक विशेषता या यीशु मसीह का नाम ।
अरबी में चूंकि इस्लाम के उद्भव से पहले यहूदी धर्म और नाज़रेन ईसाई धर्म दोनों अरब प्रायद्वीप में उपस्थित लोग इनके अनुयायी थे, इसलिए यह सम्भव है कि मक्का और मदीना समेत अरब, इससे परिचित थे, यद्यपि जाहिल काल की कविताओं में इसका कोई निशान नहीं मिला है।

यह शब्द कुरान में नहीं होता है, लेकिन प्रारम्भिक मुस्लिम इस शब्द से निश्चित रूप से परिचित थे। पैगंबर मुहम्मद ने इस शब्द का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शुरुआती मुस्लिम शब्द के अर्थ के बारे में निश्चित नहीं थे, क्योंकि पैगंबर ने उन्हें एक स्पष्टीकरण और शब्द की व्याख्या दी ।

(यह कहकर कि "अमीन एक है अपने वफादार सेवकों पर दिव्य डाक टिकट ")। और 'अब्द अल्लाह बी। अल-अब्बास ने शब्द का व्याकरणिक विवरण देने की कोशिश की।👇

कुरान के निष्कर्षों में ओ३म् शब्द - शब्द कुरान 10:88 और 89 के उत्थानों में उल्लिखित है।

कुरान के लगभग सभी exegetes के अनुसार, जब पैगंबर मूसा (अलैहिसल्लाम) फिरौन को शाप दिया, वह और उसके भाई, भविष्यवक्ता हारून (अलैहिसल्लाम) , शब्द अमेन उद्धृत किया। प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हैं । मिश्र की संस्कृति में "ओ३म" और -रवि  दौनों सूर्य से वाचक रहे हैं ।

और भारतीय संस्कृति में भी रवि सूर्य का वाचक इसलिये हुआ  क्यों कि :- रविः, पुंल्लिंग रूप व्युत्पत्ति रु धातु से  (रूयते स्तूयते इति ।
रु + अच इः ” उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति रवि: ) सूर्य्यः रु धातु के क्रिया रूप  - रौति । रुराव । रविता । संरावः । रवः । रावः । रुतम ।। 25 ।। रव = ध्वनि करने से सूर्य का वाचक रवि ।
____________________________________इति   ! 

प्रस्तुति-करण एवम् शोथ-प्रबन्ध :-यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम :-आज़ादपुर पत्रालय:- -पहाड़ीपुर जनपद :- अलीगढ़ ( उ०प्र० ) सम्पर्क-सूत्र 8077160219...

भाग एक ......

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