"हिन्दी व्याकरण का सैद्धान्तिक स्वरूप।
"रोहि हिन्दी व्याकरण"
("हिन्दी व्याकरण का मानक स्वरूप-★भाग पञ्चम"
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माहेश्वर सूत्र को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है।
पाणिनि ने वैदिक भाषा (छान्दस्) के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से माहेश्वर सूत्रों का निर्माण किया।
वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को ध्वनि-विभाग के रूप में
(१-(अक्षरसमाम्नाय),
२-नाम(संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण),
३-पद (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द ,
४-आख्यात (क्रिया),
उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों (interrelationship) (का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।)
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अष्टाध्यायी में (३२) पाद हैं जो आठ अध्यायों में समान रूप से विभाजित हैं ।
व्याकरण के इस महद् -ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 सूत्रों में कर दिया है।
जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
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तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
(विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी के समकालिक ही हुआ जो वैदिक भाषा को कुछ परिवर्तित रूप के साथ सैद्धान्तिक रूप से सुरक्षित बनाये रही ।)
उसी समय ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी।
यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई जन साधारण की प्रवृत्तियों के अनुरूप थी।
पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों (भाषा-मूलक तथ्यों) के साथ-साथ स्वयं भी अपने द्वारा निर्मित अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है ; जिनमे शिवसूत्रजाल या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं।
माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति के विषय में अतिश्योक्ति भाव अधिक है।
जैसा कि रूढ़िवादी पुरोहितों ने कल्पना सृजित की कि माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से हुई है। माहेश्वर सूत्रों कि उत्पत्ति को विषय ने इस प्रकार की मान्यता
वस्तुत जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना के अतिरिक्त कुछ नहीं है । रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 👇
(नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्)
अर्थात:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।
इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
" डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।
इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है। 👇
वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में शिव का "ओ३म" स्वरूप भी है ।
उमा शिव की ही शक्ति का रूप है ।
उमा शब्द की व्युत्पत्ति:- (उ= भो मा= ना तपस्यां कृणुतात्।
माता ने पार्वती से कहा उ (अरे!) मा ( नहीं) तपश्या करो । तत्पश्चात् पार्वती को उमा कहा जाने लगा ।
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तां पार्वतीत्याभिजनेन नाम्ना बन्धुप्रियां बन्धुजनो जुहाव । उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ।। १. २६ ।।
श्रीकालिदासकृतौ कुमारसंभवे महाकाव्य उमोत्पत्तिर्नाम प्रथमः सर्गः ।। १. १ ।।
अन्य अनुमानित व्युत्पत्तियाँ-
२-यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव ।
अथवा जो शिव के लिए लक्ष्मी के समान है ।
३-उं शिवं माति मिमीते वा आतोऽनुपसर्गेति कः अजादित्वात् टाप् ।
अथवा जो उं (शिव) का मान करती है
वह उमा है ।
४-अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् )
दुर्गा का विशेषण ।
वस्तुत ये संपूर्ण व्युत्पत्ति आनुमानिक व भिन्न भिन्न प्रकार से होने से असत्य ही हैं ।
५-ओ३म का स्त्रीलिंग रूप ही ओ३मा(उमा) है ।
यद्यपि पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण के सन्दर्भों में जो माहेश्वर सूत्र की रचना की गयी है वह अभी भी संशोधन की अपेक्षा रखता है ।
और इन सूत्रों में अभी और संशोधन- अपेक्षित है। यदि ये सूत्र (भगवाञ्छिव) से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर ( संयुक्त स्वर) (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश तथा चार अन्त:स्थ वर्णों ( य,व,र,ल ) भी न होते ! क्यों कि ये भी तो सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।
जो क्रमश: निम्नलिखित रूप में निर्मित- है।
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१-(इ+अ=य) २-(उ+अ=व) ३-(ऋ+अ=र)
४-(ऌ+अ= ल)
इसके अतिरिक्त "ह" महाप्राण भी ह्रस्व "अ" का घर्षित गत्यात्मक रूप है ;दौनों कण्ठ से उच्चारित हैं।
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(यदि "अ" ह्रस्व स्वर स्पन्दन (धड़कन) है तो "ह" श्वाँस है। दोनों कि परस्पराश्रित सम्बन्ध है । समग्र वर्णमाला में दोनों की अनिवार्य भूमिका है ।)
अन्यथा वर्ग को द्वितीय वर्णों या विकास तो महाप्राण को संयोजन से ही हुआ है । 👇
प्रथम चरण में इनका विकास इस प्रकार है :–
१-(क्+ह्=ख्)
२-(च्+ह् =छ्)
३-(ट्+ह्=ठ्)
४-(त्+ह्=थ्)
५-(प्+ह्=फ्) ।
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द्वित्तीय -चरण: में इनका विकास इस प्रकार है–
♪(क् + नाद युक्त निम्नवाही घर्षण = ग् )
♪( च्+ नाद युक्त निम्नवाही घर्षण = ज् )
♪(ट्+नाद युक्त निम्नवाही घर्षण = ठ् )
♪(त्+ नाद युक्त निम्नवाही घर्षण =द् )
♪(प् +नाद युक्त निम्न वाहीघर्षण =ब् )
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तृतीय -चरण:में इनका विकास इस प्रकार है––
(ग्+ह्=घ्)
(ज्+ह् =झ्)
(ड्+ह्=ढ्)
(द्+ह्=ध्)
(ब्+ह्=भ्) ।
और इन स्पर्श - व्यञ्जनों में जो प्रत्येक वर्ग का अनुनासिक वर्ण ( ञ्" ङ्" ण्" न्" म्" ) है
वह वस्तुत: केवल अनुस्वार का अथवा "म"/ "न"
का स्व-वर्गीय रूप है ।
(यहाँ केवल "न" का रूपान्तरण है ।)
(जब यही "न"वर्स्त्य- मूर्धन्य" हुआ तो लृ के रूप में स्वर बन गया👇👆)
यद्यपि "ऋ" तथा "ऌ" स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित( लुण्ठित) रूप है ।
((न=ल=र) तीनों वर्णों का विकास "अ का पार्श्वविक आलोडित रूप है
जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।)
अंग्रेजी में सभी अनुनासिक वर्ण (An) से अनुवादित हैं।
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अत: स्पर्श व्यञ्जन वर्णों में
(क, च ,ट ,त, प, न, भी मूल वर्ण नहीं हैं । क्यों बहुत से शब्द भाषाओं में इस प्रकार के हैं जो सभी वर्णों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं वैदिक शब्द- स्कम्भ ऋग्वेद १/३४/२ इसका उदाहरण है )
"त्रय स्कम्भास स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥२॥
सायण-भाष्य:- स्कम्भासः स्तम्भविशेषाः
(दूसरा उदाहरण :- "तात- शब्द है जो हिन्दी की उपभाषाओं में काका" चाचा" ताता" पापा" आदि रूपों में विकसित हुआ।)
"ष" और "श" वर्ण तो सकार के क्रमश: टवर्गीय और चवर्गीय रूप होने पर बनते हैं
अंग्रेजी में अथवा यूरोपीय भाषाओं में "तवर्ग का शीतजलवायु के प्रभाव से प्राय: अभाव है ।
अत: अंग्रेजी में केवल "शकार (श)और "षकार (ष)
क्रमश "Sh" और "Sa" का सैद्धान्तिक नादानुवाद होंगे।
"तवर्ग के न होने से "सकार (स) उष्म वर्ण का उच्चारित नहीं होगा।
अब आगे के चरणों में संयुक्त व्यञ्जन वर्णों की व्युत्पत्ति का विवरण प्रस्तुत है ।👇
इसी श्रृंखला में सर्वप्रथम पाणिनीय माहेश्वर सूत्रों का विवरण प्रस्तुत कहते हैं ।
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पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇
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स्वर वर्ण:–अ इ उ -ॠ ॡ ए"ओ ऐ" औ य" व" र" ल" ।
अनुनासिक वर्ण:– ञ म ङ ण न ।
वर्ग के चतुर्थ वर्ण :- झ भ घ ढ ध ।
वर्ग के तृतीय वर्ण:–ज ब ग ड द ।
वर्ग के द्वित्तीय वर्ण:- ख फ छ ठ थ ।
वर्ग के प्रथम वर्ण :- च ट त क प ।
अन्त में ऊष्म वर्ण :- श, ष, स ,
महाप्राण वर्ण :-"ह"
उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है ताकि व्याकरण के विधायक सूत्रों के निर्माण में प्रत्याहारों का प्रयोग सम्यक् रूप से हो सके।
फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप में ग्रहण करते हैं।
(माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।)
प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे यथाक्रम दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्रों में व्यंजन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार ही हैं।
(प्रत्याहार की अवधारणा :- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।)
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर "अच्" प्रत्याहार बनता है।
यह "अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक "च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।
फलतः, हल् = ह" य "व "र," ल, "ञ" म "ङ" ण" न, "झ "भ", घ "ढ" ध," ज "ब "ग "ड "द', ख' फ" छ" ठ "थ" च" ट "त," क "प, "श" ष "स", ह"।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने "इत् की संज्ञा दी है।
अर्थात् इनका प्रयोग नहीं होता है। ___________________________________________
( अ" इ "उ" ऋ "लृ" मूल स्वर हैं परन्तु
"अ" ही मूल स्वर है यही "अ" जब ऊर्ध्वगामी रूप में होता है तो "उ" स्वर के रूप में और जब अधोगामी रूप में होता है तो "इ" स्वर को रूप में ।और अपने ऋजुगामी रूप में तो "अ" ही होता है।)
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"ऋ" और "ऌ" वर्णों के विषय में हम पहले विश्लेषण कर चुके हैं ।
केवल "अ" स्वर से ही सभी स्वरों का प्रस्फुटन हुआ है ।
(परन्तु ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण भी गुण और वृद्धि सन्धि विधायक सूत्रों से हुआ है ।
माहेश्वर सूत्रों में समायोजित करने की इनकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये सभी सन्धि प्रक्रिया से ही निर्मित हैं।
जैसे क्रमश:(अ+ इ = ए(गुणसन्धि)तथा (अ + उ =ओ गुणसन्धि)
संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं ।
अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
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(ऋ" तथा ऌ" स्वर नहीं होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है । )
(जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) है ।)
(इनका विकास भी अनुनासिक"न" वर्ण से हुआ है।)
अब "ह" वर्ण महाप्राण है । जिसका उच्चारण स्थान (काकल) है ।
यह भी "अ" का घर्षित गत्यात्मक
काकलीय रूप है ।
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(तीन स्वर:- अ + इ+ उ । में भी केवल "अ" ही मूल स्वर है ।
छ: व्यञ्जन :-क" च" ट" त" प" न" मूल हैं ।
एक ऊष्म :- "स" मूल है।
पार्श्वविक तथा आलोडित वर्ण " लृ" "ऋ" ही मूल वर्ण हैं ।
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👉👆(परन्तु पाणिनीय मान्यताओं के विश्लेषण स्वरूप मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं ।
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी वर्णों की रचना दर्शायी है ।
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( २२ अच् ( स्वर) :– अ" आ" आ३", इ" ई" ई३", उ"ऊ'ऊ३,'
ए" ए३, ऐ" ऐ३, ओ "ओ३ ,औ" औ३, ऋ" ऋृ ऋृ३, ऌ" ऌ३।)
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२५- हल् ( व्यञ्जन) :- कवर्ग "चवर्ग" टवर्ग" तवर्ग" पवर्ग।
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४ अन्त:स्थ ( Interior / Semi Vowel):-
(य" र" ल" व) ।
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३ ऊष्म वर्ण :– श , ष , स ।
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१ महाप्राण :- "ह"
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१ दु:स्पृष्ट वर्ण है :-ळ ।
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इस प्रकार हलों की संख्या- (३४) है ।
अयोगवाह का पाणिनीय (अक्षरसमाम्नाय) में कहीं वर्णन नहीं है.
जिनमें चार तो शुद्ध अयोगवाह हैं ।
(अनुस्वार ां , ) (विसर्ग ा: ) (जिह्वया मूलीय ≈क) (उपध्मानीय ≈प )
चार यम संज्ञक :- क्क्न, ख्ख्न ,ग्ग्न,घ्घ्न।
इस प्रकार 22
+34+8+= 63 ।
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परन्तु तीन स्वर :– १-उदात्त २-अनुदात्त तथा ३-स्वरित
के सहित पच्चीस हैं ।
पच्चीस स्वर ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
तो इस प्रकार से स्वरों के 110 रूप हो जाते हैं।22×5
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इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25 _________________________________________
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन कवर्ग ।चवर्ग ।टवर्ग ।तवर्ग । पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ ई ऊ ऋृ लृ ) (ए ऐ ओ औ ) ( य' व' र 'ल) ( चन्द्रविन्दु ँ ) अनुस्वार तथा विसर्ग। अनुसासिक के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
★-पाणिनीय शिक्षा में वर्णन है कि "त्रिषष्टि चतु:षष्टीर्वा शम्भुमते मता:"
ल" वर्ण यद्यपि न तो" स्वर ही है और नाही व्यञ्जन वर्ण ही है परन्तु वर्णमाला में ये अन्त:स्थ है ।
(इसका महाप्राण रूप 'ल्ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है।
'ल' स्वर और व्यंजन के मध्य में स्थित होने से ही अंत:स्थ वर्ण है।
"र" देवनागरी वर्णमाला में अंत:स्थ वर्ग का दूसरा व्यंजन है। यह वर्त्स्य, लुंठित-(आलोडित) घोष और अल्पप्राण है। | |
भाषाविज्ञान की दृष्टि से | इसका महाप्राण रूप 'र्+ह' मानक हिंदी में नहीं है परंतु कुछ बोलियों में मिलता है (जैसे- कर्+हाना=कर्हाना, अर्+हा=अर्हा)। |
व्याकरण★- | |
विशेष-★ | 'र' के उच्चारण में जीभ की नोक अग्रभाग को कुछ लुंठित करके (लपेटकर), वर्त्स (अर्थात् ऊपर के मुड़ने को) स्पर्श किया जाता है। |
'र' में प्राय: सभी मात्राएँ और चिह्न सामान्य रूप से जुड़ते हैं। परंतु 'र्' में 'ऋ' की मात्रा नहीं लगती तथा 'उ' और 'ऊ' मिलने पर क्रमश: विशेष रूप 'रु' और 'रू' बनते हैं (रुपया, रूप, रुष्ट, रूठा)। (स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है ; जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है।) |
अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।
वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 _________________________________________
1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।
2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :
(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx),
(ख.) ग्रसनी (pharynx),
(ग.) मुख (mouth),
(घ.) स्वरयंत्र (larynx),
(च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)
(छ. )फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs),
(ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)।
(3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :)
क. जिह्वा (tongue),
ख. दाँत (teeth),
ग. ओठ (lips),
घ. कोमल तालु (soft palate),
च. कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________________________________________
"जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस से नि:सृत होकर जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है,
तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है,
ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।
इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि अवयव करते हैं।
इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं ; जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं।
यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है।
इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।
इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।
श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है।
बोलते समय रज्जुएँ (cords )आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वार(Door) उतना ही संकीर्ण हो जाता है। __________________________________________
स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।)
(इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है।)
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(स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --)
उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है।
यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है।
ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है ।
स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है :👇 ________________________________________
(1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।
2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।
3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है;
और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
(अ" स्वर का उच्चारण तथा ह स्वर का उच्चारण श्रोत समान है ।
कण्ठ तथा काकल ।)
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इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।
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( य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।)
जैसे :- इ+अ = य अ+इ =ए उ+अ = व अ+उ= ओ ______________________________________
५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। स्पर्श व्यञ्जनों सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा "नकार" वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं । ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। आदि में अन्तिम से पूर्व सूत्र में उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार क प्रतिनिधित्व करते हैं ।
जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग- के साथ तालव्य 'श' उष्म वर्ण है ।
टवर्ग -के साथ मूर्धन्य 'ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग- के साथ दन्त्य "स उष्म वर्ण है । ___________________________________
(👇💭 यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है वहाँ तवर्ग का अभाव है ।)
और तवर्ग -का उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।
अतः "श्" वर्ण के लिए "Sh" तथा "ष्" वर्ण के "S" वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं । _________________________________________
१४. हल्।
तथा पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
(इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप हैं । मौलिक रूप में केवल "28" वर्ण हैं । जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं । )
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1. बाह्योष्ठ्य (exo-labial)
2. अन्तःओष्ठ्य (endo-labial)
3. दन्त्य (dental)
4. वर्त्स्य (alveolar)
5. पश्च वर्त्स्य (post-alveolar)
6. प्रतालव्य( prä-palatal )
7. तालव्य (palatal)
8. मृदुतालव्य (velar)
9. अलिजिह्वीय (uvular)
10.ग्रसनी से (pharyngal)
11.श्वासद्वारीय (glottal)
12.उपजिह्वीय (epiglottal)
13.जिह्वामूलीय (Radical)
14.पश्चपृष्ठीय (postero-dorsal)
15.अग्रपृष्ठीय (antero-dorsal)
16.जिह्वापाग्रीय (laminal)
17.जिह्वाग्रीय (apical)
18.उप जिह्विय( sub-laminal) _________________________________________
स्वनविज्ञान के सन्दर्भ में, मुख-गुहा के उन 'लगभग अचल' स्थानों को उच्चारण बिन्दु (articulation point या place of articulation) कहते हैं; जिनको 'चल वस्तुएँ' छूकर जब ध्वनि मार्ग में बाधा डालती हैं तो उन व्यंजनों का उच्चारण होता है।
उत्पन्न व्यञ्जन की विशिष्ट प्रकृति मुख्यतः तीन बातों पर निर्भर करती है-
१- उच्चारण स्थान,
२-उच्चारण विधि और
३-स्वनन (फोनेशन)।
मुख- गुहा में 'अचल उच्चारक' मुख्यतः मुख-गुहा की छत का कोई भाग होता है जबकि 'चल उच्चारक' मुख्यतः जिह्वा, नीचे वाला ओष्ठ (ओठ), तथा श्वाँस -द्वार (ग्लोटिस)आदि हैं।
(इस प्रकार वायु मार्ग में पूर्ण या अपूर्ण अवरोध उपस्थित होता है।)
तब व्यञ्जन ध्वनियाँ प्रादुर्भूत (उत्पन्न) होती हैं ।
हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण---- व्यञ्जनों का वर्गीकरण मुख्य रूप से स्थान और प्रयत्न के आधर पर किया जाता है।
व्यञ्जनों के उत्पन्न होने के स्थान से सम्बन्धित व्यञ्जन को आसानी से पहचाना जा सकता है।
इस दृष्टि से हिन्दी व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- उच्चारण स्थान (ध्वनि वर्ग) उच्चरित ध्वनि--👇
द्वयोष्ठ्य:- ,प , फ, ब, भ, म
दन्त्योष्ठ्य :-, फ़
दन्त्य :-,त, थ, द, ध
वर्त्स्य :-न, स, ज़, र, ल, ळ
मूर्धन्य :-ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष कठोर :-
तालव्य श, च, छ, ज, झ
कोमल तालव्य :-क, ख, ग, घ, ञ, ख़, ग़
पश्च-कोमल-तालव्य:- क़ वर्ण है।
स्वरयन्त्रामुखी:-. ह वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
(ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।)
(काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ ।)
घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं।
शब्द कोशों में इसका अर्थ :-
१. काला कौआ ।
२. कंठ की मणि या गले की मणि ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है- स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का उच्चारण करता है ।
क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ और क़ सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
च, छ, ज, झ को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में रखा जाता है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
(मौखिक व नासिक्य :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियां आती हैं।)
हिन्दी में ङ, ञ, ण, न, म व्यञ्जन नासिक्य हैं।
इनके उच्चारण में श्वासवायु नाक से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है; इन्हें 'पञ्चमाक्षर' भी कहा जाता है।
और अनुनासिक भी -- इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूप हैं ।
परन्तु सभी केवल अपने स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
जैसे :-
(१-कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-अङ्क , सङ्ख, अङ्ग , अङ्घ ।)
(२-चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।)
(३-टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।)
(४-तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।)
(५-पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:- पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ ।)
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इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
(उष्म वर्ण -
उष्म व्यञ्जन :- उष्म का अर्थ होता है- गर्म। जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें उष्म व्यञ्जन कहते है।
वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त" थ" द" ध" न" का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है। जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि-- इसी प्रकार टवर्ग - ट" ठ "ड" ढ" ण" का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं ।
जैसे- जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म वायु से होता हैं।
ये भी चार व्यञ्जन होते है- श, ष, स, ह।
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1- पार्श्विक : इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से निकलती है।
'ल' ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है। जिसे हम पूर्व में कई बार बता चुके हैं ।
अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
हिन्दी में य, व ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
2-लुण्ठित /आलोडित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठते हुए लुढ़कती है।
हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
3- उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें उत्क्षिप्त कहते हैं।
ड़ और ढ़ ऐसे ही व्यञ्जन हैं। जो अंग्रेजी' में क्रमश: (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
(व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।)
(इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।)
(जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।)
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घोष - अघोष
ग, घ, ङ, ! ★-क, ख।
ज,झ, ञ, ★-च, छ।
ड, ढ, ( ड़ ढ़ ) ण,।★- ट ठ ,।
द, ध, न, ★-त, थ
ब, भ, म,★- प, फ
य, र, ल, ★- व, ह
,श, ष, स ।
(प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।)
प्राण का अर्थ है - श्वास-वायु "जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पञ्चम् वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, (ड़, ढ़) - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
(वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।परन्तु नाद या घोष हैं। )
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण शब्द यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है ।
परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)
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(किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।)
शब्दांश :- शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक'।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से देखे जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है। अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं - 'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण बलाघात पर आधारित है ।
कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अंत-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को अक्षर कहा जाता है।
इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है। व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है। अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
अक्षर से स्वर को न तो पृथक् ही किया जा सकता है और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी भाषा में न, र, ल, जैसे एन- N( कहीं कहीं एम-M) भी ,आर-R,एल-L, आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
अनुस्वार के समान उच्चारण करने पर जो रूप होता है वह नाद है ।)
(क) 1. विवार :- जिन वर्णो के उच्चारण के समय स्वरतन्त्रियों के (Vocalchords) दूर-दूर रहने के कारण कण्ठद्वार काकल) खुल रहता है, उसे विवार कहते हैं।
2. श्वास :- उस समय उनसे बाहर निकलने वाली श्वास सदृश होती है। अतः उसे श्वास कहते हैं।
3. अघोष : और उस समय स्वरतन्त्रियों के खुले रहने के कारण जो वर्ण उच्चारण किये जाते हैं, वे विशेष गूंज पैदा
नहीं करते अतः अघोष कहलाते हैं
4. संवार : इसके विपरीत जब स्वरतन्त्रियां (Vocalchords) सट जाती हैं तो उसे संवार कहते हैं।
5. नाद :- उस समय निःश्वास वायु के निकलते समय कम्पन पैदा होता है। अतः उसे नाद कहते
7. अल्पप्राण :- जिन वर्णो के उच्चारण करने में फेफड़े से निकलने वाली वायु (प्राण) का अल्प उपयोग हो उन्हें 'अल्पप्राण' कहते हैं।
8. महाप्राण :- जिनके उच्चारण में वायु का अधिक उपयोग हो उन्हें 'महाप्राण' कहते है।
9. उदात्त :- स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर 'उदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं।
10.स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर ‘अनुदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं अर्थात् स्वर के तीन भेदों में से एक वह स्वर जिस पर बलाघात( जोर) न हो ।
11. 'स्वरित' : स्वरतन्त्रियों के कम्पन की आवृत्ति मिश्रित होने पर स्वर उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार इन वर्गों के बाह्य प्रयत्न संक्षेप में निम्न हैं :-
(1) प्रत्येक वर्ग के प्रथम-द्वितीय वर्ण (क् - ख्, च् - छ्, ट् - ट्, त् - थ्, प् - फ्) श् - ष् - स् (अर्थात् खर्
प्रत्याहारका) का विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न हैं ।
(2) प्रत्येक वर्ग के तीसरे चौथे और पांचवें वर्ण (ग् - घ् ङ्, ज् - झ् - ञ्, ड् - ढ् - ण, द् - ध्- न्, ब्- भू - म्) और अंतस्थ(य्, र्,ल व्) तथा 'ह' का (अर्थात् हश् प्रत्याहारका) संवार, नाद,घोष प्रयत्न हैं
(3) प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण ( क्, च्, ट्, त्, प्) तृतीय वर्ण ( ग्, ज्, इ, द्, ब् ) और पंचम वर्ग (ङ ञ ण न म्) तथा अन्तःरथ ( य् -र् - ल् - व् ) वर्णों का अल्पप्राण प्रयत्न है
(4) इसके विपरीत प्रत्येक वर्ण का द्वितीय वर्ण ख् छ ठ थ् प् तथा चतुर्थ वर्ण (घ झ ढ ध भ) तथा उष्म वर्ण
(श ष, स ह्) का महाप्राण प्रयत्न है ।
"बाह्य प्रयत्न तालिका"
1. खरो विवाराः श्वासाः अघोषश्च ।
2. हशः संवारा नादा घोषाश्च।
3. वर्णानां प्रथम-तृतीय पंचमाः य र ल वश्चाल्पप्राणाः।
4. अन्ये च महा प्राणाः
वर्ण उच्चारण में प्रयत्नों सी भूमिका-
वक्ता को वर्णो के उच्चारण में जो प्रयत्न ( प्रयास) करना पड़ता है, उसे 'प्रयत्न' कहते हैं।1. आभ्यन्तर प्रयत्न 2. बाह्य प्रयत्न।
इन दोनों का सम्बन्ध क्रमशः मुख विवर के भीतरी तथा बाहरी भागों से है।
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"आभ्यन्तर प्रयत्न"
किसी वर्ण के उच्चारण करते समय हमारी जिह्वा को मुख विवर में विद्यमान कण्ठ, तालु आदि भिन्न-भिन्न स्थानों को (स्पर्श करने)अथवा छूने में जो प्रयत्न करना पड़ता है उसे “आभ्यन्तर प्रयत्न" कहते हैं । ये प्रयत्न मुख विवर के भीतर जिह्वा द्वारा किये जाते हैं, इस कारण इन्हें आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं।
1. स्पृष्ट
2. ईषत् स्पृष्ट
3. विवृत
4. ईषत् विवृत्
5. संवृत ।
इनका विवरण इस प्रकार है :-
1. स्पृष्ट :- क् से म् तक कवर्गादि पाँचों वर्गों के 25 वर्गों का स्पृष्ट प्रयत्न है, क्योंकि इनके उच्चारण में जिह्वा का कण्ठ,तालु आदि स्थानों पर पूरी तरह स्पर्श होता है ।
2. ईषत्-स्पृष्ट :- य, र, ल, व् का ईषत्-स्पृष्ट प्रयत्न होता है, क्योंकि इन अन्तःस्थ वर्गों के उच्चारण के समय जिह्वा का कण्ठ, तालु आदि स्थानों पर थोड़ा, थोड़ा (ईषद्) स्पर्श होता है।
3. विवृत :- अकार आदि समस्त स्वर वर्णो का विवृत प्रयत्न होता है । क्योंकि जिह्वा और मुख विवर के उपरी भाग के बीच अधिक से अधिक दूरी रहती है ।
4. ईषत्-विवृत :- श्, ष, स्, ह, वर्णों का ईषद्
श, ष, स्, ह, वर्णों का ईषद् विवृत प्रयत्न है । इन ऊष्म अक्षरों के उच्चारण के समय जिह्वा और मुख विवर( छिद्र) के उपरी भाग की दूरी अपेक्षाकृत कम होती है ।
5. संवृत :- ह्रस्व 'अ' का संवृत प्रयत्न होता है । प्रयोग में हस्व 'अ' संवृत होता है ; परन्तु प्रक्रिया दशा में वह विवृत ही माना जाता है । इसके उच्चारण के समय मुख-विवर बहुत कुछ बन्द सा होता है अतः इसे 'संवृत' कहते हैं ।
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आभ्यन्तर प्रयत्न तालिका-★
बाह्य प्रयत्न-
जिस प्रकार वर्णोच्चारण में मुख-विवर के भीतर जिहा को कण्ठतालु आदि स्थानों को स्पर्श करने अथवा छूने का प्रयत्न करना पड़ता है और उन्हें आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं, उसी प्रकार वर्णोच्चारण के लिए मुख विवर से बाहर श्वासनालिका में विद्यमान स्वरयन्त्र, की तन्त्रियों में भी प्रयत्न अपेक्षित है । उसे 'बाह्य' प्रयत्न कहते हैं
यह बाह्य प्रयत्न तीन कारणों से होता है :-
(क) स्वर तन्त्रियों के कुछ-कुछ दूर रहने या निकट आकर सट जाने से।
(ख) फेफड़ों से निकलकर आने वाली वायु के अधिक या कम होने से।
(ग) स्वर तन्त्रियों के कम्पनों की आवृत्ति या अधिक होने से।
बाह्य प्रयत्न के भेद (११) प्रकार के होते हैं
1. विवार
2. संवार
3. श्वास
4. नाद
5. घोष
6. अघोष
7. अल्पप्राण
8. महाप्राण
9. उदात्त
10.अनुदात्त
11.स्वरित।
क) 1. विवार :- जिन वर्णो के उच्चारण के समय स्वरतन्त्रियों के (Vocalchords) दूर-दूर रहने के कारण कण्ठद्वार( काकल) खुल रहता है, उसे विवार कहते हैं।
2. श्वास :- उस समय उनसे बाहर निकलने वाली श्वास सदृश होती है। अतः उसे श्वास कहते हैं।
3. अघोष : और उस समय स्वरतन्त्रियों के खुले रहने के कारण जो वर्ण उच्चारण किये जाते हैं, वे विशेष गूंज पैदा नहीं करते अतः अघोष कहलाते हैं
5. नाद :- उस समय निःश्वास वायु के निकलते समय कम्पन पैदा होता है। अतः उसे नाद कहते
6. घोष- इस अवस्था में जिन ध्वनियो का गूंज के साथ उच्चारण होता है। उन्हें घोष कहते हैं
अर्थात् स्वर तत्रियों के दूर-दूर रहने पर विवार, श्वास तथा अघोष प्रयत्न होते हैं और उनके सट जाने पर संवार, नाद तथा घोष (या सघोष) प्रयत्न होते हैं
7. (ख) अल्पप्राण :- जिन वर्णो के उच्चारण करने में फेफड़े से निकलने वाली वायु (प्राण) का अल्प उपयोग हो उन्हें 'अल्पप्राण' कहते हैं।
8. महाप्राण :- जिनके उच्चारण में वायु का अधिक उपयोग हो उन्हें 'महाप्राण' कहते है।
9. (ग) उदात्त :- स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर 'उदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं।
स्वरतन्त्रियों में कम्पन की आवृत्ति अधिक होने पर ‘अनुदात्त' स्वर उत्पन्न होते हैं।
11. 'स्वरित' : स्वरतन्त्रियों के कम्पन की आवृत्ति मिश्रित होने पर स्वर उत्पन्न होते हैं।
इस प्रकार इन वर्गों के बाह्य प्रयत्न संक्षेप में निम्न हैं :-
(1) प्रत्येक वर्ग के प्रथम-द्वितीय वर्ण (क् - ख्, च् - छ्, ट् - ट्, त् - थ्, प् - फ्) श् - ष् - स् (अर्थात् खर् -प्रत्याहार का) का विवार, श्वास और अघोष प्रयत्न हैं ।
(2) प्रत्येक वर्ग के तीसरे चौथे और पांचवें वर्ण (ग् - घ् ङ्, ज् - झ् - ञ्, ड् - ढ् - ण, द् - ध्- न्, ब्- भू - म्) और अंतस्थ(य्, र्,ल व्) तथा 'ह' का (अर्थात् हश् प्रत्याहार का) संवार, नाद,घोष प्रयत्न हैं
(3) प्रत्येक वर्ग के प्रथम वर्ण ( क्, च्, ट्, त्, प्) तृतीय वर्ण ( ग्, ज्, इ, द्, ब् ) और पंचम वर्ग (ङ ञ ण न म्) तथा अन्तःरथ ( य् -र् - ल् - व् ) वर्णों का अल्पप्राण प्रयत्न है
(4) इसके विपरीत प्रत्येक वर्ण का द्वितीय वर्ण ख् फ् छ् ठ् थ् तथा चतुर्थ वर्ण ( झ भ घ ढ ध ) तथा उष्म वर्ण (श ष, स ह्) का महाप्राण प्रयत्न है।
(5) स्वरित नियमों पर आघात या कंपन की आवृति से ऊंचे नीचे और मिश्रित स्वर से उच्चरित ध्वनियाँ क्रमशः उदात्त अनुदान्त तथा स्वरित कहलाती है। ये तीनों स्वर केवल अकारादि स्वर वर्णो के होते है, व्यंजन वर्गों के नहीं।
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(ध्वनि उत्पत्ति- सिद्धान्त----- 👇)
मानव एवं अन्य जन्तु ध्वनि को कैसे सुनते हैं?
-- ध्वनि तरंग कर्णपटल का स्पर्श करती है , कान का पर्दा, कान की वह मेकेनिज्म जो ध्वनि को संकेतों में बदल देती है।
श्रवण तंत्रिकाएँ, (पर्पल): ध्वनि संकेत का आवृति स्पेक्ट्रम, तन्त्रिका में गया संकेत) ही शब्द है ।
भौतिक विज्ञान में - ध्वनि (Sound) एक प्रकार का कम्पन या विक्षोभ है जो किसी ठोस, द्रव या गैस से होकर सञ्चारित होती है।
किन्तु मुख्य रूप से उन कम्पनों को ही ध्वनि कहते हैं जो मानव के कान (Ear) से सुनायी पडती हैं।
ध्वनि की प्रमुख विशेषताएँ--- ध्वनि एक यान्त्रिक तरंग है न कि विद्युत-चुम्बकीय तरंग। जबकि (प्रकाश विद्युतचुम्बकीय तरंग है।
ध्वनि के सञ्चरण के लिये माध्यम की जरूरत होती है। ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि का सञ्चरण सम्भव है।
निर्वात में ध्वनि का सञ्चरण नहीं हो सकता।
द्रव, गैस एवं प्लाज्मा में ध्वनि केवल अनुदैर्घ्य–(दीर्घस्य भावः व्यञ् - दीर्घतायाम् ) तरंग (longitudenal wave) के रूप में चलती है जबकि ठोसों में यह अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) के रूप में भी संचरण कर सकती है।
विदित हो कि भौतिकी और रसायन शास्त्र में, प्लाज्मा आंशिक रूप से आयनीकृत एक गैस है, जिसमें इलेक्ट्रॉनों का एक निश्चित अनुपात किसी परमाणु या अणु के साथ बंधे होने के बजाय स्वतंत्र होता है।
प्लाज्मा में धनावेश और ऋणावेश की स्वतंत्र रूप से गमन करने की क्षमता प्लाज्मा को विद्युत चालक बनाती है। जिसके परिणामस्वरूप यह दृढ़ता से विद्युत चुम्बकीय क्षेत्रों से प्रतिक्रिया कर पाता है।
"प्लाज्मा के गुण ठोस, द्रव या गैस के गुणों से काफी विपरीत हैं और इसलिए इसे पदार्थ की एक भिन्न अवस्था माना जाता है।
प्लाज्मा आमतौर पर, एक तटस्थ-गैस के बादलों का रूप ले लेता है, जैसे सितारों में। गैस की तरह प्लाज्मा का कोई निश्चित आकार या निश्चित आयतन नहीं होता जब तक इसे किसी पात्र में बंद न कर दिया जाए लेकिन गैस के विपरीत किसी चुंबकीय क्षेत्र के प्रभाव में यह एक फिलामेंट, पुंज या दोहरी परत जैसी संरचनाओं का निर्माण करता है।
प्लाज्मा की पहचान सबसे पहले एक क्रूक्स नली में १८७९ मे सर विलियम क्रूक्स द्वारा की गई थी उन्होंने इसे “चमकते पदार्थ” का नाम दिया था। क्रूक्स नली की प्रकृति "कैथोड रे" की पहचान इसके बाद ब्रिटिश भौतिक विज्ञानी सर (जे जे थॉमसन) द्वारा १८९७ में द्वारा की गयी। १९२८ में इरविंग लैंगम्युइर ने इसे प्लाज्मा नाम दिया,शायद इसने उन्हें रक्त प्लाविका (प्लाज्मा) की याद दिलाई थी।
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बहुत से वायुयान इससे भी तेज गति से चल सकते हैं उन्हें सुपरसॉनिक विमान कहा जाता है।)
मानव कान लगभग २० हर्ट्स से लेकर २० किलोहर्टस (२०००० हर्ट्स) आवृत्ति की ध्वनि तरंगों को ही सुन सकता है।
बहुत से अन्य जन्तु इससे बहुत अधिक आवृत्ति की तरंगों को भी सुन सकते हैं।
जैसे चमकाधड़ एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने पर ध्वनि का परावर्तन एवं अपवर्तन होता है।
किसी भी तरंग (जैसे ध्वनि) के वेग, तरंगदैर्घ्य और आवृत्ति में निम्नलिखित संबन्ध होता है:-
{\displaystyle \lambda ={\frac {v}{f}}} जहाँ v तरंग का वेग, f आवृत्ति तथा : {\displaystyle \lambda } तरंगदर्ध्य है।
अपश्रव्य (Infrasonic) 20 Hz से कम आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं देती, श्रव्य (sonic) 20 Hz से 20 kHz, के बीच की आवृत्तियों वाली ध्वनि सामान्य मानव को सुनाई देती है।
पराश्रव्य (Ultrasonic) 20 kHz से 1,6 GHz के बीच की आवृत्ति की ध्वनि मानव को सुनाई नहीं पड़ती, अतिध्वनिक (Hypersonic) 1 GHz से अधिक आवृत्ति की ध्वनि किसी माध्यम में केवल आंशिक रूप से ही संचरित (प्रोपेगेट) हो पाती है।
ध्वनि और प्रकाश का सम्बन्ध शब्द और अर्थ के सामान्य या शरीर और आत्मा के समान जैविक सत्ता का आधार है ।
(ध्वनि के विषय में दार्शनिक व ऐैतिहासिक मत - _________
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सृष्टि के प्रारम्भ में ध्वनि का प्रादुर्भाव ओ३म् के रूप में हुआ -ओ३म् शब्द की व्युत्पत्ति---- एक वैश्विक विश्लेषण करते हैं ओ३म् की अवधारणा द्रविडों की सांस्कृतिक अभिव्यञ्जना है; वे नि: सन्देह फॉनिशियन जन-जाति के सहवर्ती अथवा सजातिय बन्धु रहे होंगे ।
क्यों दौनों का सांस्कृतिक समीकरण है ।
द्रविड द्रव (पदार्थ ) अथवा जल तत्व का विद =वेत्ता ( जानकार) द्रव+विद= समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा निर्मित रूप द्रविद -द्रविड है !
ये बाल्टिक सागर के तटवर्ती -संस्कृतियों जैसे प्राचीन फ्रॉञ्च ( गॉल) की सैल्टिक (कैल्टिक) जन-जाति में द्रूयूद (Druid) रूप में हैं ।
कैल्ट जन जाति के धर्म साधना के रहस्य मय अनुष्ठानों में इसी कारण से आध्यात्मिक और तान्त्रिक क्रियाओं को प्रभावात्मक बनाने के लिए ओघम् (ogham) शब्द का दृढता से उच्चारण विधान किया जाता था ! कि उनका विश्वास था !
कि इस प्रकार (Ow- ma) अर्थात् जिसे भारतीय आर्यों ने ओ३म् रूप में साहित्य और कला के ज्ञान के उत्प्रेरक और रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया था वह ओ३म् प्रणवाक्षर नाद- ब्रह्म स्वरूप है।
और उनका मान्यता भी थी.. प्राचीन भारतीय आर्य मान्यताओं के अनुसार सम्पूर्ण भाषा की आक्षरिक सम्पत्ति (syllable prosperity) यथावत् रहती है इसके उच्चारण प्रभाव से ओघम् का मूर्त प्रारूप सूर्य के आकार के सादृश्य पर था।
जैसी कि प्राचीन पश्चिमीय संस्कृतियों की मान्यताऐं भी हैं ...
वास्तव में ओघम् (ogham )से बुद्धि उसी प्रकार नि:सृत होती है . जैसे सूर्य से प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में यही आमोन् रा (ammon- ra) के रूप ने था ..जो वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मय रूप में प्रस्तावित है।
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय अन्तरिक्ष यान - प्रक्षेपण संस्थान के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है।
सैमेटिक -- सुमेरियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में "ओमन् शब्द आमीन के रूप में है ।
तथा रब़ का अर्थ .नेता तथा महान होता हेै ! जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में..रब़ -- ईश्वर का वाचक है .अमोन तथा रा प्रारम्भ में पृथक पृथक थे .. दौनों सूर्य सत्ता के वाचक थे ।
मिश्र की संस्कृति में ये दौनों कालान्तरण में एक रूप होकर अमॉन रॉ के रूप में अत्यधिक पूज्य हुए .. क्यों की प्राचीन मिश्र के लोगों की मान्यता थी कि अमोन -- रॉ.. ही सारे विश्व में प्रकाश और ज्ञान का कारण है, मिश्र की परम्पराओ से ही यह शब्द मैसोपोटामिया की सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं में प्रतिष्ठित हुआ जो क्रमशः यहूदी ( वैदिक यदुः ) के वंशज थे !!
इन्हीं से ईसाईयों में (Amen) तथा अ़रबी भाषा में यही आमीन् !!
(ऐसा ही हो ) होगया है इतना ही नहीं जर्मन आर्य ओ३म् का सम्बोधन (omi /ovin )या के रूप में अपने ज्ञान के देव वॉडेन ( woden) के लिए सम्बोधित करते करते थे जो भारतीयों का बुध ज्ञान का देवता था! इसी बुधः का दूसरा सम्बोधन ouvin ऑविन् भी था यही (woden) अंग्रेजी में (Goden) बन गया था।
जिससे कालान्तर में गॉड(God )शब्द बना है जो फ़ारसी में ख़ुदा के रूप में प्रतिष्ठित हैं ! सीरिया की सुर संस्कृति में यह शब्द ऑवम् ( aovm ) हो गया है ; वेदों में ओमान् शब्द बहुतायत से रक्षक ,के रूप में आया है ।
भारतीय संस्कृति में मान्यता है कि शिव ( ओ३ म) ने ही पाणिनी को ध्वनि समाम्नाय के रूप में चौदह माहेश्वर सूत्रों की वर्णमाला प्रदान की !
जिससे सम्पूर्ण भाषा व्याकरण का निर्माण हुआ । पाणिनी पणि अथवा ( phoenici) पुरोहित थे जो मेसोपोटामिया की सैमेटिक शाखा के लोग थे ! ये लोग द्रविडों से सम्बद्ध थे !
वस्तुत: यहाँ इन्हें द्रुज संज्ञा से अभिहित किया गया था द्रुज जनजाति प्राचीन इज़राएल जॉर्डन लेबनॉन में तथा सीरिया में आज तक प्राचीन सांस्कृतिक मान्यताओं को सञ्जोये हुए है।
द्रुजों की मान्यत थी कि आत्मा अमर है तथा पुनर्जन्म कर्म फल के भोग के लिए होता है ... ठीक यही मान्यता बाल्टिक सागर के तटवर्ति (druid) द्रयूडों पुरोहितों( prophet,s )में प्रबल रूप में मान्य थी !
केल्ट ,वेल्स ब्रिटॉनस् आदि ने इस वर्णमाला को द्रविडों से ग्रहण किया था।
द्रविड अपने समय के सबसे बडे़ द्रव्य -वेत्ता और तत्व दर्शी थे !
जैसा कि द्रविड नाम से ध्वनित होता है द्रविड (द्रव + विद) -- समाक्षर लोप से द्रविड । ...मैं यादव योगेश कुमार "रोहि" भारतीय सन्दर्भ में भी इस शब्द पर कुछ व्याख्यान करता हूँ ! 👇
जो संक्षिप्त ही है ऊँ एक प्लुत स्वर है जो सृष्टि का आदि कालीन प्राकृतिक ध्वनि रूप है जिसमें सम्पूर्ण वर्णमाला समाहित है !
इस ओ३म शब्द के अवशेष एशिया - माइनर की पार्श्ववर्ती आयोनिया ( प्राचीन यूनान ) की संस्कृति में भी प्राप्त हुए है ;।
यूनानी देव संस्कृति के अनुयायी ज्यूस और पॉसीडन ( पूषण ) की साधना के अवसर पर अमोनॉस ( amonos) के रूप में ओमन् अथवा ओ३म् का उच्चारण करते थे !
भारतीय संस्कृति में ओ३म् को उच्चारण काल के आधार पर प्लुत स्वर के रूप मान्य किया गया है। _________________________________________
ओङ्कारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ।
कण्ठं भित्त्वा विनिर्यातौ तस्मात् माङ्गलिकावुभौ॥
इति दुर्गादासः
ये दुर्गा दास निरुक्तकोश की टीका के रचनाकार थे । और महर्षि यास्क कृत निरुक्त दुर्गाचार्य कृत टीका है ।
अर्थात् उपर्युक्त श्लोक का अर्थ है :- कि ओ३म् तथा अथ ये दौनों शब्द ब्रह्मा जी कण्ठ को भेद कर पूर्व काल में या कहें आदि काल में उत्पन्न हुए जो मानव व प्राणी मात्र के लिए कल्याण कारी हैं।
“सिद्धानाञ्चैव सर्व्वेषां वेदवेदान्तयोस्तथा । अन्येषामपि शास्त्राणां निष्ठाऽथोङ्कार उच्यते ॥
प्रणवाद्या यतो वेदा प्रणवे पर्य्यवस्थिताः ।
वाङ्मयं प्रणवः सर्व्वं तस्मात् प्रणवमभ्यसेत्”)
व्याकरण भाषा में ओ३म् अव्यय के रूप में स्वीकृत अनुमतिः का अर्थक है ।
इति विश्वनाथ आचार्य ॥
भाषा व्याकरण में ओ३म के निम्न अर्थ हैं।
उपक्रमः । अङ्गीकारः । (यथा, भागवते ११ । ४ । १५ ।
“ओमित्यादेशमास्थाय नत्वा तं सुरवन्दिनः । उर्व्वशीमप्सरःश्रेष्ठां पुरःस्कृत्य दिवं ययुः)
अपाकृतिः । मङ्गलम् । इति मेदिनी कोश ॥
ओम्, ब्रह्मणो नामविशेषः ।
अर्थात् ओ३म परब्रह्म का नाम विशेष है ।
जैसा कि श्रीमद्भागवत् गीता में देखें---👇
यथा,- ओ३म् तत्सदिति निर्द्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः
स्मृतः ब्राह्मणाश्चैव वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्त्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥
इति श्रीभगवद्गीतायां १७ अध्यायः ॥ अमरकोशः
ओम् अव्यय। अनुमतिः
समानार्थक: शब्द ओम्,एवम्,परमम् 3।4।12।2।3
पक्षान्तरे चेद्यदि च तत्त्वे त्वद्धाञ्जसा द्वयम्. प्राकाश्ये प्रादुराविः स्यादोमेवं परमं मते॥
वाचस्पत्यम् ओ३म् =अव्य॰ अव--मन् (निष्पत्ति)। १ प्रणव, २ आरम्भ, ३ स्वीकार, “ओमित्युक्तवतोऽथ शार्ङ्गिण इति व्याहृत्य वाचंनभः”
महाकविमाघः। ४ अनुमतौ, ५ अपाकृतौ, ६ अस्वीकारे,मङ्गले, ७ शुभे, ८ ज्ञेये, ब्रह्मणि च। अश्च उश्च म्चतेषां समाहारः। विष्णुमहेश्वरब्रह्मरूपत्वात्
९ परमेश्वरे अव्य॰ यथा तस्येश्वरवाचकता तथा पातञ्चलि सूत्रभाष्य :- विवरणेषु दर्शितं यथा “तस्य वाचकः प्रणवः” ।
“वाच्य ईश्वरः प्रणवस्य,किमस्य सङ्केतकृतं वाच्यवाचकत्वम् ?
अथ प्रदीपप्रकाशवद् अवस्थितम् इति।
स्थितोऽस्य वाच्यस्य वाचकेन सहसम्बन्धः सङ्केतस्त्वीश्वरस्य स्थितमेवार्थमभिनयति।
यथावस्थितः पितापुत्रयोः सम्बन्धः, सङ्केतेनावद्योत्यते अयमस्यपिता, अयमस्य पुत्र इति।
सर्गान्तरेष्वपि वाच्यवाचक- वक्त्रपेक्षस्तथैव सङ्केतः क्रियते” ईश्वर तथा औ३म् का सम्बन्ध पिता-पुत्र अथवा वाच्य-वाचक के समान अन्योन्य है ।
ओ३म् वस्तुत सृष्टि की आदिम (प्रारम्भिक) ध्वनि है । यही नाद-ब्रह्म है ।
और संगीत जिसमें स्वरों की प्रधानता है ।
नाद ब्रह्म की उपासना और सृष्टि की आदिम विद्या है । क्यों कि जब नव शिशु का जन्म होता है तो वह नव-जात तत्काल रुदन करता है ।
जो स्वरों का आलापमयी प्रवाह है ।
मनुष्य का संसार में आगमन भी इसी प्रकार होता है । और गमन भी इसी प्रकार ।
जैसे सूर्य से उसका प्रकाश प्राचीन मध्य मिश्र के लीबिया प्रान्त में तथा थीब्ज में भी द्रविड संस्कृति का यही ऑघम शब्द आमोन् रा ( ammon - ra ) जो अन्तरिक्ष वेत्ताओं ने सिद्ध किया कि सूर्य से ओ३म स्वर नि: सृत है ।
और यह वस्तुत: ओ३म् -रवि के तादात्मयी रूप में प्रस्तावित है ।
आधुनिक अनुसन्धानों के अनुसार भी अमेरिकीय यान - प्रक्षेपण संस्थान (नासा) के वैज्ञानिकों ने भी सूर्य में अजस्र रूप से निनादित ओ३म् प्लुत स्वर का श्रवण किया है ।
सुमेरियन एवं सैमेटिक हिब्रू आदि परम्पराओं में रब़ अथवा रब्बी शब्द का अर्थ - नेता तथा महान एवं गुरू होता हेै !
जैसे रब्बी यहूदीयों का धर्म गुरू है .. अरबी भाषा में रब़ --ईश्वर का वाचक है ।
रब्बुल उल् अलामीन मतलब ईश्वर सम्पूर्ण संसार का रक्षक है ।
अमीन शब्द (अरबी:जुबान में ( آمین) या आमीन का शाब्दिक अर्थ है "ऐसा हो सकता है" या "ऐसा है"। मुसलमानों में शब्द आमिन का प्रयोग आमतौर पर उसी शब्द के साथ किया जाता है जिसका अर्थ है
"मुझे जवाब दें", और वाक्यांश "इलाही अमीन"
(अरबी: الهی آمین; अर्थ:- हे मेरे भगवान !
मुझे जवाब दें) आधुनिक काल सैमेटिक परम्पराओं के अनुयायी लोगों के बीच बहुत आम है।
इसका उपयोग अंग्रेजी में अमेन के रूप में किया जाता है (अर्थ: तो यह हो)। वस्तुत: अमेन हिब्रू बाइबिल में वर्णित रूप है ।
शिया शरीयत में, प्रार्थनाओं में कुरान 1 (सूर अल-हम्द) को पढ़ने के बाद अमीन न कहने पर कि प्रार्थना को शरीयती तौर पर अमान्य कर दिया गया है।
हिब्रू परम्पराओं से यह अरब की रबायतों में कायम हुआ हिब्रू में, शब्द अमीन को सबसे पहले "सही" और "सत्य" नामक विशेषण के रूप में उपयोग किया जाता था; लेकिन यशायाह की किताब के मुताबिक इसका उपयोग संज्ञा के रूप में किया जाता था।
यह शब्द फिर हिब्रू में एक invariant ऑपरेटर (अर्थात्, "वास्तव में" और "निश्चित रूप से")के अर्थ में बदल गया।
इसका उपयोग बाइबिल में 30 बार और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के यूनानी अनुवाद में 33 बार किया गया है।
इतिहास की पहली पुस्तक और किंग्स बुक्स की पहली पुस्तक में इस शब्द की घटना से पता चलता है।
कि यह शब्द यहूदी प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों में चौथी शताब्दी ईसा पूर्व से पहले भी इस्तेमाल किया गया था।
प्राचीन यहूदी परम्परा में, इस शब्द का उपयोग शुरुआत या प्रार्थना के अन्त में किया गया था।
यहूदी वैदिक काल में यदु: के वंशजों के रूप में विस्थापित हुए।
प्रार्थनाओं, और भजनों के अन्त में इसकी पुनरावृत्ति प्रासंगिक सामग्रियों की पुष्टि और समर्थन दोनों में थी। ,
और उम्मीद की अभिव्यक्ति थी कि हर कोई (अमेन का उल्लेख करने के दौरान अभ्यास के आशीर्वाद साझा कर सकता है।
"तलमूद और अन्य यहूदी परम्पराओं की अवधि में, यह महत्वपूर्ण था कि विभिन्न स्थितियों में शब्द का उपयोग कैसे किया जाए; और ऐसा माना जाता था कि भगवान किसी भी प्रार्थना के लिए "आमीन" कहता है । जो उसे सम्बोधित किया जाता है।
ईसाई धर्म में---यहूदी परम्पराओं को ईसाई चर्चों में अपना रास्ता मिला।
"अमीन" शब्द का प्रयोग नए नियम में 119 बार किया गया था, जिनमें से 52 मामले यहूदी धर्म में इसका उपयोग कैसे किया जाता है।
नए नियम के माध्यम से, शब्द दुनिया की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में प्रवेश किया।
शब्द, अमीन, जैसा कि नए नियम में प्रयोग किया गया है, उसमें इसके चार अर्थ हैं - पावती और अनुमोदन; एक प्रार्थना में समझौता या भागीदारी, और किसी के प्रतिज्ञा की अभिव्यक्ति।
दिव्य प्रतिक्रिया का अनुरोध, जिसका अर्थ है: "हे भगवान! स्वीकार करें या जवाब दें!"
अर्थात् एवं अस्तु ! एक प्रार्थना या प्रतिज्ञा की पुष्टि, जिसका अर्थ है: "तो यह हो" (आज शब्द को दो अर्थों को इंगित करने के लिए प्रार्थनाओं के अन्त में उपयोग किया जाता है)।
एक विशेषता या यीशु मसीह का नाम ।
अरबी में चूंकि इस्लाम के उद्भव से पहले यहूदी धर्म और नाज़रेन ईसाई धर्म दोनों अरब प्रायद्वीप में उपस्थित लोग इनके अनुयायी थे, इसलिए यह सम्भव है कि मक्का और मदीना समेत अरब, इससे परिचित थे, यद्यपि जाहिल काल की कविताओं में इसका कोई निशान नहीं मिला है।
यह शब्द कुरान में नहीं होता है, लेकिन प्रारम्भिक मुस्लिम इस शब्द से निश्चित रूप से परिचित थे। पैगंबर मुहम्मद ने इस शब्द का प्रयोग किया, लेकिन ऐसा लगता है कि शुरुआती मुस्लिम शब्द के अर्थ के बारे में निश्चित नहीं थे, क्योंकि पैगंबर ने उन्हें एक स्पष्टीकरण और शब्द की व्याख्या दी ।
(यह कहकर कि "अमीन एक है अपने वफादार सेवकों पर दिव्य डाक टिकट ")। और 'अब्द अल्लाह बी। अल-अब्बास ने शब्द का व्याकरणिक विवरण देने की कोशिश की।👇
कुरान के निष्कर्षों में ओ३म् शब्द - शब्द कुरान 10:88 और 89 के उत्थानों में उल्लिखित है।
कुरान के लगभग सभी exegetes के अनुसार, जब पैगंबर मूसा (अलैहिसल्लाम) फिरौन को शाप दिया, वह और उसके भाई, भविष्यवक्ता हारून (अलैहिसल्लाम) , शब्द अमेन उद्धृत किया। प्रार्थना में अमीन का हवाला देते हैं । मिश्र की संस्कृति में "ओ३म" और -रवि दौनों सूर्य से वाचक रहे हैं ।
और भारतीय संस्कृति में भी रवि सूर्य का वाचक इसलिये हुआ क्यों कि :- रविः, पुंल्लिंग रूप व्युत्पत्ति रु धातु से (रूयते स्तूयते इति ।
रु + अच इः ” उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति रवि: ) सूर्य्यः रु धातु के क्रिया रूप - रौति । रुराव । रविता । संरावः । रवः । रावः । रुतम ।। 25 ।। रव = ध्वनि करने से सूर्य का वाचक रवि ।
____________________________________इति !
भाग एक ......
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