संस्कृत व्याकरण में सन्धि-विधान और वर्णमाला की व्युत्पत्ति के भाषावैज्ञानिक विश्लेषण के साथ ही पदों का पारिभाषिक विवेचन- प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"
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"यादव योगेश कुमार "रोहि"
"संस्कृत-वर्णमाला-में सन्धि-विधान और वर्णों की-उत्पत्ति-प्रक्रिया-का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण "
भाषा की उत्पत्ति•
"आज हम भाषा उत्पत्ति के विषय पर किए गए अनुमानों पर चर्चा करेंगे जिन्हें सिद्धान्त रूप में परिणति किया गया।
"परन्तु तथ्य सैद्धांतिक तब कहलाता है जब वह नियमों के द्वारा सिद्ध होकर एक निश्चित परिणाम को प्राप्त होता हो "
★-दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त-"The principle of divine origin"
"दे॒वीं वाच॑मजनयन्त दे॒वास्तां वि॒श्वरू॑पाः प॒शवो॑ वदन्ति। सा नो॑ म॒न्द्रेष॒मूर्जं॒ दुहा॑ना धे॒नुर्वाग॒स्मानुप॒ सुष्टु॒तैतु॑ ॥११।।★-
सायण भाष्य-(ऋग्वेद-8.100.11)
एषा माध्यमिका वाक् सर्वप्राण्यन्तर्गता धर्माभिवादिनी भवतीति विभूतिमुपदर्शयति ।
यां “देवीं =द्योतमानां माध्यमिकां =“वाचं “देवाः माध्यमिकाः “(अजनयन्त =जनयन्ति“तां वाचं “(विश्वरूपाः =सर्वरूपा) व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च “पशवो “वदन्ति । तत्पूर्वकत्वाद्वाक्प्रवृत्तेः । “सा “वाक् देवी “मन्द्रा= मदना स्तुत्या हर्षयित्री वा वृष्टिप्रदानेनास्मभ्यम् (“इषम् =अन्नम् )“ऊर्जं पयोघृतादिरूपं रसं च “दुहाना क्षरन्ती “धेनुः =धेनुभूता “सुष्टुता (अस्माभिः स्तुता “=अस्मान् नेमान् ) (“उप “ऐतु =उपगच्छतु) । वर्षणायोद्युक्तेत्यर्थः ।
तथा च यास्कः- ‘ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च सा नो मदनान्नं च रसं च दुहाना धेनुर्वागस्मानुपैतु सुष्टुता' (निरु. ११. २९) इति ॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। (ऋग्वेद-8.100.11)
अर्थात् देवलोग जिस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं, साधारण जन उसी को बोलते हैं।
यहाँ पर पशु का अर्थ मनुष्य है। वेद में पशु शब्द मनुष्य-प्रजा का भी वाचक है।
अथर्ववेद (14.2.25) में वधू के प्रति आशीर्वाद मन्त्र में पशु का अर्थ मनुष्य है--
वि तिष्ठन्तां मातुरस्या उपस्थान् नानारूपाः पशवो जायमानाः ।
सुमङ्गल्युप सीदेममग्निं संपत्नी प्रति भूषेह देवान् ॥२५॥
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तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोैभा॥१।
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहंदधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।२।
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्।३॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तंब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्।५।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥६॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे
ततो वितिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि।७।
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि ।विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥
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★-सांकेतिक उत्पत्ति वाद अथवा निर्णय सिद्धान्त (Agreement Theory Conventional or Symbolic Origin-
(Guessial theory)-आनुमानिक सिद्धांत)
"वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥१.१॥
★-हाव-भाव सिद्धांत-(gesture-theory ) :
हाव-भाव दिखलाना भी भाषा कि उत्पत्ति में सहायक हैै। यह सांकेतिक सिद्धान्त है।
भारोपीय भाषा परिवार-
इस समय संसार की भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है, पहली अवस्था में है।
इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिलालेख, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है।
मेसोपोटेमिया- ( प्रचीन ईरान और ईराक) की पुरानी भाषा ‘सुमेरीय’ तथा इटली की प्राचीन भाषा ‘एत्रस्कन’ इसी तरह की भाषाएँ हैं।
दूसरी अवस्था में ऐसी भी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है।
जैसे बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं।
तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। जैसे ग्रीक, अरबी, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं।
वर्गीकरण के आधार-
भाषा के वर्गीकरण के मुखयतः दो आधार हैं–
आकृति -मूलक और अर्थतत्व-मूलक
आकृतिमूलक और अर्थतत्त्व सम्बन्धी वर्गीकरण मुख्य भेद है ।
प्रथम के अन्तर्गत शब्दों की आकृति अर्थात् शब्दों और वाक्यों की रचनाशैली की समानता देखी जाती है। और दूसरे में अर्थतत्त्व की समानता रहती है। इनके अनुसार भाषाओं के वर्गीकरण की दो पद्धतियाँ होती हैं–आकृतिमूलक और पारिवारिक या ऐतिहासिक। ऐतिहासिक वर्गीकरण के आधारों में आकृतिमूलक समानता के अतिरिक्त निम्निलिखित समानताएँ भी होनी चाहिए।
१-भौगोलिक समीपता - भौगोलिक दृष्टि से प्रायः समीपस्थ भाषाओं में समानता और दूरस्थ भाषाओं में असमानता पायी जाती है।
इस आधार पर संसार की भाषाएँ अफ्रीका, यूरेशिया, प्रशांतमहासागर और अमरीका के खंड़ों में विभाजित की गयी हैं।
किन्तु यह आधार बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि दो समीपस्थ भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं जैसे संस्कृत और तमिल भाषाऐं।
और दो दूरस्थ भाषाएँ परस्पर समान। जैसे ग्रीक और संस्कृत ।
भारत की हिन्दी और मलयालम दो भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं किन्तु भारत और इंग्लैंड जैसे दूरस्थ देशों की संस्कृत और अंग्रेजी एक ही परिवार की भाषाएँ हैं।
२- शब्दानुरूपता- समान शब्दों का प्रचलन जिन भाषाओं में रहता है उन्हें एक कुल के अन्तर्गत रखा जाता है। यह समानता भाषा-भाषियों की समीपता पर आधारित है और यह दो तरह से सम्भव होती है।
★-जैसे-एक ही समाज, जाति अथवा परिवार के व्यक्तियों द्वारा शब्दों के समान रूप से व्यवहृत होते रहने से भी समानता आ जाती है।
★-इसके अतिरिक्त जब भिन्न देश अथवा जाति के लोग सभ्यता और साधनों के विकसित हो जाने पर राजनीतिक अथवा व्यावसायिक उद्देश्य के हेतु से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो शब्दों के आदान-प्रदान द्वारा उनमें समानता आ जाती है।
पारिवारिक वर्गीकरण के लिए प्रथम प्रकार की अनुरूपता ही आवश्यक होती है।
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क्योंकि ऐसे शब्द भाषा के मूल शब्द होते हैं। इनमें भी नित्यप्रति के कौटुम्बिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्द ही अधिक उपयोगी होते हैं।
इस आधार में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि अन्य भाषाओं से आये हुए शब्द भाषा के विकसित होते रहने से मूल शब्दों में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनको पहचान कर अलग करना कठिन हो जाता है।
इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है।
३- ध्वनिसाम्य- प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती है और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की ।क़,। ख़। फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है।
अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक बना देती हैं।
आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं। परन्तु तवर्ग का रूपान्तरण ही तट वर्ग के रूप में है । जो फौनिशियन ताओ(𐤕 ) का ही रूप है । फोनिशियन लोग वैदिक सूक्तों में वर्णित पणि: लोग ही थे । ऋग्वेद मे देवों की कि किया सरमा और सैमेटिक फोनिशियनों का वर्ण पणि रूप में है ।
सरमा-पणि संवाद सूक्त-
सरमा-पणि-संवाद सूक्त ऋग्वेद के 10वें मंडल का 108 वां सूक्त है। इसके ऋषि पणि हैं और देवता सरमा, पणि हैं। छन्द त्रिष्टुप एवं स्वर धैवत है।
"इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।
अतिऽस्कदः । भियसा । तम् । नः । आवत् । तथा । रसायाः । अतरम् । पयांसि ॥२।
ऋग्वेद १०/१०८/१-२
आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रेषित देवशुनी सरमा ने पणियों से दूती बनकर संवाद किया।
देखें-सायण भाष्य - अनया तान् सरमा प्रत्युवाच । हे “पणयः एतन्नामका असुराः। सरमा “इन्द्रस्य “दूतीः ।
‘ सुपां सुलुक्' इति प्रथमैकवचनस्य सुश्छान्दसः । अहम् “इषिता तेनैव प्रेषिता सती “चरामि । युष्मदीयं स्थानमागच्छामि । किमर्थम् । “वः युष्मदीयान् युष्मदीये पर्वतेऽधिष्ठापितान् “महः महतः “निधीन् बृहस्पतेर्गोनिधीन “इच्छन्ती कामयमाना सती चरामि । किंच “अतिष्कदः ॥ ‘ स्कन्दिर्गतिशोषणयोः '। भावे क्विप् । अतिष्कन्दनादतिक्रमणाज्जातेन “भियसा भयेन “तत् नदीजलं “नः । पूजायां बहुवचनम् । माम् “आवत् अरक्षत् । “तथा तेन प्रकारेण “रसायाः नद्याः “पयांसि उदकानि “अतरं तीर्णवत्यस्मि ॥
पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण ( गाय खोजने के लिए )को भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आख्यान है। आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है।
वे उसे शीघ्रगामिनी होने से "सरमा" मानते हैं।
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पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है। पणि शब्द पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है।
यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवह्रियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं ।
वह जो वाणिज्य के द्वारा अपनी जीविका का निर्वाह करता हो। रोजगार करनेवाला। वैश्य। बनिया।
ऋग्वेद -१/११२/११ पर वणिज् शब्द भी देखें यही यूनानी प्यूनिक है ।-
वणिज शब्द भी है । । परस्मैपदीय धातु वण्=शब्द भी इन्हीं पहियों के द्वारा भाषा -वाणी के अर्थ में प्रसिद्ध हुई ।ग्रीक और फ्रेंच में 'Phone' शब्द भी फौनेशियन से सम्बद्ध है ।
पद पाठ-
याभिः ।सुदानू इति सुऽदानू । औशिजाय । वणिजे । दीर्घऽश्रवसे । मधु । कोशः । अक्षरत् ।
कक्षीवन्तम् । स्तोतारम् । याभिः । आवतम् । ताभिः । ऊं इति । सु । ऊतिऽभिः । अश्विना । आ । गतम् ॥११।
सायण भाष्य- उशिक्संज्ञा दीर्घतमसः पत्नी तस्याः पुत्रो दीर्घश्रवा नाम कश्चिदृषिरनावृष्टयां जीवनार्थमकरोत् `वाणिज्यम् । स च वर्षणार्थमश्विनौ तुष्टाव । तौ च अश्विनौ मेघं प्रेरितवन्तौ। अयमर्थः पूर्वार्धे प्रतिपाद्यते । हे सुदानू शोभनदानावश्विनौ "औशिजाय उशिक्पुत्राय "वणिजे वाणिज्यं कुर्वते दीर्घश्रवसे एतत्संज्ञाय ऋषये “याभिः युष्मदीयाभिः ऊतिभिः हेतुभूताभिः "कोशः मेघः "मधु माधुर्योपेतं वृष्टिजलम् "अक्षरत् असिञ्चत् युष्मत्प्रसादादपेक्षिता वृष्टिर्जातेत्यर्थः । अपि च उशिजः पुत्रं "स्तोतारं कक्षीवन्तम् एतत्संज्ञमृर्षि "याभिः ऊतिभिः "आवतम् अरक्षतम् । “ताभिः सर्वाभिः “ऊतिभिः सहास्मानप्यागच्छतम् ॥ कक्षीवन्तम् । कक्ष्या रज्जुरश्वस्य । तया युक्तः कक्षीवान् । ‘आसन्दीवदष्ठीवच्चक्रीवत्कक्षीवत्' इति निपातनात् मतुपो वत्वम् । संप्रसारणम् ॥
इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती सरमा भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी देवों की कुत्ता है ।
४- व्याकरणगत समानता- भाषा के वर्गीकरण का व्याकरणिक आधार सबसे अधिक प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण, शब्दों से पदों की रचना प्रक्रिया तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है।
यह साम्य-वैषम्य भी सापेक्षिक होता है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं।
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Etymology- Origin of 'T' class characters-
'T' letter is derived From the Etruscan letter 𐌕 (t, “te”),it is too from the Ancient Greek letter Τ (T, “tau”),
it is too derived from the Phoenician letter 𐤕 (t, “taw”), and it is too from the Egyptian hieroglyph 𓏴.
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"वस्तुत: टवर्ग शीत जलवायु के प्रभाव का ही तवर्गीय का रूपान्तरण है । और तवर्ग वैदिक कालिक कवर्ग का रूपान्तरण "
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Stambha,''' ‘pillar,’ is found in the [[काठक|Kāṭhaka]] Saṃhitā, xxx. 9; xxxi. 1. and often in the Sūtras. Earlier Skambha Rv. i. 34, 2;
"त्रयः । पवयः । मधुऽवाहने । रथे । सोमस्य । वेनाम् । अनु । विश्वे । इत् । विदुः ।त्रयः । स्कम्भासः । स्कभितासः । आऽरभे । त्रिः । नक्तम् । याथः । त्रिः । ऊं इति । अश्विना । दिवा ॥२।(ऋ०१/३५/२)
"मधुवाहने मधुरद्रव्याणां नानाविधखाद्यादीनां वहनेन युक्तेऽश्विनोः संबन्धिनि “रथे "पवयः वज्रसमाना दृढाश्चक्रविशेषाः “त्रयः त्रिसंख्याकाः सन्ति । “इत् इत्थं चक्रत्रयसद्भावप्रकारं “विश्वे सर्वे देवाः “सोमस्य चन्द्रस्य "वेनां कमनीयां भार्यामभिलक्ष्य यात्रायां “विदुः जानन्ति । यदा सोमस्य वेनया सह विवाहस्तदानीं नानाविधखाद्ययुक्तं चक्रत्रयोपेतं प्रौढं रथमारुह्य अश्विनौ गच्छत इति सर्वे देवा जानन्तीत्यर्थः। तस्य रथस्योपरि (“स्कम्भासः स्तम्भविशेषाः) “त्रयः त्रिसंख्याकाः स्कभितासः स्थापिताः। किमर्थम् । “आरभे आरब्धुम् अवलम्बितुम् । यदा रथस्त्वरया याति तदानीं पतनभीतिनिवृत्त्यर्थं हस्तालम्बनभूताः स्तम्भा इत्यर्थः । हे “अश्विना युवां तादृशेन रथेन “नक्तं रात्रौ “त्रिः “याथः त्रिवारं गच्छथः। तथा “दिवा दिवसेऽपि “त्रिः याथः । रात्रावहनि च रथमारुह्य पुनःपुनः क्रीडथ इत्यर्थः ॥ मधुवाहने। मधु वाह्यतेऽनेनेति मधुवाहनः। करणे ल्युट्। विदुः । वेत्तेर्लटि ‘विदो लटो वा' इति झेः उसादेशः। स्कम्भासः। ‘ष्टभि स्कभि गतिप्रतिबन्धे'। स्कम्भन्ते प्रतिबद्धा भवन्तीति स्कम्भाः । पचाद्यच् । स्कभितासः। स्कम्भुः सौत्रो धातुः । अस्मात् निष्ठायां यस्य विभाषा' इति इट्प्रतिषेधे प्राप्ते ' ग्रसितस्कभित° ' इत्यादिना इडागमो निपातितः । आरभे । ‘रभ राभस्वे'। अस्मात् आङ्पूर्वात् संपदादिलक्षणो भावे क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम्
(फोनिशियन लिपि और भाषा) - (वर्णमाला की उत्पत्ति)
(चीनी में: Chinese字母表 字母表(लियू यू द्वारा अनुवादित)
भारोपीय भाषाओं की मूल वर्णमाला को मिस्र में या उसके आसपास रहने वाले एक सेमिटिक लोगों ने विकसित किया था।
फ़ोनीशिया का प्रभाव पूरे भूमध्य सागर क्षेत्र में समुद्री व्यापार के ज़रिये फैल गया ) द्वारा उपयोग किए गए हैं।
'एलेफ (।)= यह वर्ण बैल के सिर की छवि के रूप में शुरू हुआ। संस्कृत का अलक =माथा। ।शेष यह एक स्वर से पहले एक ग्लोटल स्टॉप का प्रतिनिधित्व करता है। यूनानी, स्वर प्रतीकों की आवश्यकता, इसे अल्फा (ए. A) के लिए इस्तेमाल किया । रोमनों ने इसे ए a के रूप में इस्तेमाल किया । | ||
बेथ =, घर, एक ईख आश्रय (लेकिन जो ध्वनि एच के लिए खड़ा था) के एक अधिक आयताकार मिस्र के अल्फ़ाबेटिक ग्लिफ़ से प्राप्त हो सकता है। यूनानियों ने इसे बीटा (बी) कहा, और इसे रोमन के रूप में बी पास किया गया । | ||
गिमेल= , ऊंट, मूल रूप से बूमरैंग-जैसे फेंकने वाली छड़ी की छवि हो सकता है। यूनानियों ने इसे (गामा (gam) कहा। Etruscans - जिनके पास कोई ध्वनि नहीं थी - ने k ध्वनि के लिए इसका उपयोग किया, और इसे रोमन के लिए C के रूप में पारित किया । उन्होंने इसे G के रूप में दोहरा कर्तव्य बनाने के लिए इसमें एक छोटी पट्टी जोड़ी । | ||
दलेथ ,= दरवाजा, मूल रूप से एक मछली हो सकता है! यूनानियों ने इसे डेल्टा (Δ) में बदल दिया , और इसे रोमन को डी Dxके रूप में पारित कर दिया । | ||
वह खिड़की का मतलब हो सकता है, लेकिन मूल रूप से एक आदमी का प्रतिनिधित्व किया, हमें उठाया हथियारों के साथ सामना करना, बाहर बुलाना या प्रार्थना करना। यूनानियों ने इसका उपयोग स्वर एप्सिलॉन (ई, "सरल ई") के लिए किया था। रोमन लोगों ने इसे ई के रूप में इस्तेमाल किया । | ||
वाव ,™ हुक, मूल रूप से एक गदा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यूनानियों ने waw के एक संस्करण का उपयोग किया, जो कि हमारे F जैसा दिखता था, जिसे उन्होंने डिगामा कहा, संख्या 6 के लिए। इसका उपयोग Etruscans द्वारा v के लिए किया गया था, और उन्होंने इसे रोमन के रूप में F के रूप में पारित किया । यूनानियों एक दूसरा संस्करण था - upsilon (Υ) - जो वे अपने वर्णमाला के वापस करने के लिए ले जाया गया। रोमनों ने वी (B )के लिए अपसिलॉन के एक संस्करण का उपयोग किया , जिसे बाद में (यू )भी लिखा जाएगा , फिर वाई के रूप में ग्रीक रूप अपनाया । 7 वीं शताब्दी में इंग्लैंड, डब्ल्यू - "डबल-यू" - बनाया गया था। | ||
ज़ायिन का मतलब तलवार या किसी और तरह का हथियार हो सकता है। यूनानियों ने इसका उपयोग जेटा (जेड) के लिए किया था। रोमनों ने इसे बाद में जेड के रूप में अपनाया , और इसे अपनी वर्णमाला के अंत में रखा। | ||
H. (eth) , बाड़, एक "गहरा गला" (ग्रसनी) व्यंजन था। यूनानियों ने इसे स्वर एटा (एच) के लिए इस्तेमाल किया था, लेकिन रोमियों ने एच ऑ(H)के लिए इसका इस्तेमाल किया । | ||
टेथ ने मूल रूप से एक धुरी का प्रतिनिधित्व किया हो सकता है। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल थीटा (Θ) के लिए किया था, लेकिन रोमन, जिनके पास था(च) साउंड नहीं था, ने इसे गिरा दिया। | ||
हाथ, योध , पूरे हाथ के प्रतिनिधित्व के रूप में शुरू हुआ। यूनानियों के लिए इसके बारे में एक अति सरलीकृत संस्करण इस्तेमाल किया जरा (Ι)। रोमन ने इसे I के रूप में उपयोग किया , और बाद में J के लिए एक भिन्नता जोड़ी । | ||
हाथ के खोखले या हथेली वाले कप को यूनानियों ने कप्पा (के k) के लिए अपनाया था और इसे रोम के लोगों को के k। | ||
ऑम स्टिक या बकरी की तस्वीर के रूप में लैमेड शुरू हुआ। यूनानियों के लिए यह प्रयोग किया जाता लैम्ब्डा (Λ)। रोमनों ने इसे एल(L) में बदल दिया । | ||
मेम , पानी, ग्रीक म्यू (एम) बन गया । रोमन ने इसे एम (M) के रूप में रखा । | ||
नन , मछली, मूल रूप से एक साँप या ईल थी। यूनानियों के लिए यह प्रयोग किया जाता nu (एन), और के लिए रोमन एन( N)। | ||
सेमख , जिसका अर्थ मछली भी होता है, अनिश्चित उत्पत्ति का है। यह मूल रूप से एक तम्बू खूंटी या किसी प्रकार के समर्थन का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह कई पवित्र नक्काशियों में देखे गए मिस्र के djed स्तंभ के लिए एक मजबूत समानता है। यूनानियों ने इसे xi (Ξ) के लिए इस्तेमाल किया और ची (X) के लिए इसका एक सरलीकृत रूपांतर किया । रोमन केवल एक्स(x) के रूप में भिन्नता रखते थे । | ||
'आयिन , आई, एक और "गहरा गला" व्यंजन था। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल ओमिक्रॉन (ओ, "लिटिल ओ") के लिए किया था। उन्होंने ओमेगा ("," बिग ओ ") के लिए इसका एक रूपांतर विकसित किया , और इसे अपनी वर्णमाला के अंत में रखा। रोमनों ने ओ (O)के लिए मूल रखा । | ||
पीई , मुंह, मूल रूप से एक कोने के लिए एक प्रतीक हो सकता है। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल पीआई (ks) के लिए किया था। रोमनों ने एक तरफ को बंद कर दिया और इसे पी(p) में बदल दिया । | ||
Sade , s और sh के बीच की ध्वनि, अनिश्चित उत्पत्ति की है। यह मूल रूप से एक पौधे के लिए एक प्रतीक हो सकता है, लेकिन बाद में मछली के हुक जैसा दिखता है। यूनानियों ने इसका उपयोग नहीं किया, हालांकि एक विषम भिन्नता संपी (did) के रूप में दिखाई देती है, जो 900 के लिए एक प्रतीक है। Etruscans ने अपनी श ध्वनि के लिए M के आकार में इसका उपयोग किया था, लेकिन रोमन को इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। | ||
बंदर, Qoph , मूल रूप से एक गाँठ का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह कश्मीर के समान ध्वनि के लिए इस्तेमाल किया गया था, लेकिन आगे मुंह में वापस। यूनानियों ने इसका उपयोग केवल संख्या 90 (,) के लिए किया था, लेकिन Etruscans और रोमन ने इसे Q के लिए रखा । | ||
आरएच (पी) के लिए रेज , सिर, का उपयोग यूनानियों द्वारा किया गया था । रोमन ने इसे अपने P से अलग करने के लिए एक रेखा जोड़ी और इसे R बना दिया । | ||
शिन , दांत, मूल रूप से एक धनुष का प्रतिनिधित्व कर सकता है। हालाँकि, यह पहली बार sh उच्चारण किया गया था, यूनानियों ने इसे सिग्मा ( first ) के लिए उपयोग किया था । रोमन ने इसे एस बनाने के लिए गोल किया । | ||
Taw , चिह्न, के लिए यूनानियों द्वारा इस्तेमाल किया गया था ताऊ (टी)। रोमन ने इसका उपयोग टी के लिए किया था । |
ग्रीक अक्षर phi (Φ) पहले से ही अब तुर्की में अनातोलियों के बीच आम था।
★- हाल ही में, यह माना जाता था कि ये फोनिशियन यहूदियों के साथ ये लोग सिनाई रेगिस्तान में रहते थे और 1700 के ई.पू. में अपनी वर्णमाला का उपयोग करना शुरू कर दिया था।
In Chinese: 字母表的起源 (translated by Liu Yu)
The original alphabet was developed by a Semitic people living in or near Egypt.* They based it on the idea developed by the Egyptians, but used their own specific symbols. It was quickly adopted by their neighbors and relatives to the east and north, the Canaanites, the Hebrews, and the Phoenicians. The Phoenicians spread their alphabet to other people of the Near East and Asia Minor, as well as to the Arabs, the Greeks, and the Etruscans, and as far west as present day Spain. The letters and names on the left are the ones used by the Phoenicians. The letters on the right are possible earlier versions. If you don't recognize the letters, keep in mind that they have since been reversed (since the Phoenicians wrote from right to left) and often turned on their sides!
'aleph,अलिफ- the ox, began as the image of an ox's head. It represents a glottal stop before a vowel. The Greeks, needing vowel symbols, used it for alpha (A). The Romans used it as A. | ||
Bethबेथ-, the house, may have derived from a more rectangular Egyptian alphabetic glyph of a reed shelter (but which stood for the sound h). The Greeks called it beta (B), and it was passed on to the Romans as B. | ||
Gimel,जिमेल- the camel, may have originally been the image of a boomerang-like throwing stick. The Greeks called it gamma (Γ). The Etruscans -- who had no g sound -- used it for the k sound, and passed it on to the Romans as C. They in turn added a short bar to it to make it do double duty as G. | ||
Daleth, दलेथ-the door, may have originally been a fish! The Greeks turned it into delta (Δ), and passed it on to the Romans as D. | ||
He may have meant window, but originally represented a man, facing us with raised arms, calling out or praying. The Greeks used it for the vowel epsilon (E, "simple E"). The Romans used it as E. | ||
Waw, the hook, may originally have represented a mace. The Greeks used one version of waw which looked like our F, which they called digamma, for the number 6. This was used by the Etruscans for v, and they passed it on to the Romans as F. The Greeks had a second version -- upsilon (Υ)-- which they moved to to the back of their alphabet. The Romans used a version of upsilon for V, which later would be written U as well, then adopted the Greek form as Y. In 7th century England, the W -- "double-u" -- was created. | ||
Zayin may have meant sword or some other kind of weapon. The Greeks used it for zeta (Z). The Romans only adopted it later as Z, and put it at the end of their alphabet. | ||
H.eth, the fence, was a "deep throat" (pharyngeal) consonant. The Greeks used it for the vowel eta (H), but the Romans used it for H. | ||
Teth may have originally represented a spindle. The Greeks used it for theta (Θ), but the Romans, who did not have the th sound, dropped it. | ||
Yodh, the hand, began as a representation of the entire arm. The Greeks used a highly simplified version of it for iota (Ι). The Romans used it as I, and later added a variation for J. | ||
Kaph, the hollow or palm of the hand, was adopted by the Greeks for kappa (K) and passed it on to the Romans as K. | ||
Lamedh began as a picture of an ox stick or goad. The Greeks used it for lambda (Λ). The Romans turned it into L. | ||
Mem, the water, became the Greek mu (M). The Romans kept it as M. | ||
Nun, the fish, was originally a snake or eel. The Greeks used it for nu (N), and the Romans for N. | ||
Samekh, which also meant fish, is of uncertain origin. It may have originally represented a tent peg or some kind of support. It bears a strong resemblance to the Egyptian djed pillar seen in many sacred carvings. The Greeks used it for xi (Ξ) and a simplified variation of it for chi (X). The Romans kept only the variation as X. | ||
'ayin, the eye, was another "deep throat" consonant. The Greeks used it for omicron (O, "little O"). They developed a variation of it for omega (Ω, "big O"), and put it at the end of their alphabet. The Romans kept the original for O. | ||
Pe, the mouth, may have originally been a symbol for a corner. The Greeks used it for pi (Π). The Romans closed up one side and turned it into P. | ||
Sade, a sound between s and sh, is of uncertain origin. It may have originally been a symbol for a plant, but later looks more like a fish hook. The Greeks did not use it, although an odd variation does show up as sampi (Ϡ), a symbol for 900. The Etruscans used it in the shape of an M for their sh sound, but the Romans had no need for it. | ||
Qoph, the monkey, may have originally represented a knot. It was used for a sound similar to k but further back in the mouth. The Greeks only used it for the number 90 (Ϙ), but the Etruscans and Romans kept it for Q. | ||
Resh, the head, was used by the Greeks for rho (P). The Romans added a line to differentiate it from their P and made it R. | ||
Shin, the tooth, may have originally represented a bow. Although it was first pronounced sh, the Greeks used it sideways for sigma (Σ). The Romans rounded it to make S. | ||
Taw, the mark, was used by the Greeks for tau (T). The Romans used it for T. |
The Greek letter phi (Φ) was already common among the Anatolians in what is now Turkey. Psi (Ψ) appears to have been invented by the Greeks themselves, perhaps based on Poseidon's trident. For comparison, here is the complete Greek alphabet:
★-Until recently, it was believed that these people lived in the Sinai desert and began using their alphabet in the 1700's bc. In 1998, archeologist John Darnell discovered rock carvings in southern Egypt's "Valley of Horrors" that push back the origin of the alphabet to the 1900's bc or even earlier. Details suggest that the inventors were Semitic people working in Egypt, who thereafter passed the idea on to their relatives further east.
फ़ोनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं।
माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।[1]सन्दर्भ
इसका विकास क़रीब 1050 ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया।
वर्णमाला-
फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।
अक्षर | नाम | अर्थ-- | ब्राह्मी | देवनागरी | बराबरी के अक्षर | |||||||
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
इब्रानी | सिरियैक | अरबी-फ़ारसी | यूनानी | लातिनी | रूसी | |||||||
अल्फ़ अलिफ | बैल | अ | א | ܐ | ﺍ | α | a | а | ||||
बॅतबेथ | घर | ब | ב | ܒ | ﺏ | Β, β | B, b | Б, б | ||||
गम्ल– | ऊँट(Camel) | ग | ג | ܓ | گ | Γ, γ | G, g | Г, г और Ґ, ґ | ||||
दॅल्त– | द्वार | द | ד | ܕ | د, ذ | Δ, δ | D, d | Д, д | ||||
हे– | खिड़की | ह | ה | ܗ | هـ | Ε, ε | E, e | Е, е, Є, є, Э, э | ||||
वाउ– | काँटा / खूँटा | व | ו | ܘ | و | Ϝ, ϝ, Υ, υ | F, f, U, u, V, v, Y, y, W, w | Ѵ, ѵ, У, у, Ў, ў | ||||
ज़ई– | हथियार | ज़ | ז | ܙ | ﺯ | Ζ, ζ | Z, z | Ж, ж, З, з | ||||
ख़ॅत– | दीवार | ख़ | ח | ܚ | خ, ح | Η, η | H, h | И, и, Й, й | ||||
तॅथ़– | पहिया | थ़ | ט | ܛ | ظ, ط | Θ, θ | Ѳ, ѳ | |||||
योद– | हाथ | य | י | ܝ | ي | Ι, ι | I, i, J, j | І, і, Ї, ї, Ј, ј | ||||
काफ़– | हथेली | क | כך | ܟ | ﻙ | Κ, κ | K, k | К, к | ||||
लम्द– | (पशुओं का) अंकुश | ल | ל | ܠ | ﻝ | Λ, λ | L, l | Л, л | ||||
मेम– | पानी | म | מם | ܡ | ﻡ | Μ, μ | M, m | М, м | ||||
नुन– | सर्प | न | נן | ܢ | ﻥ | Ν, ν | N, n | Н, н | ||||
सॅम्क– | मछली | स | ס | ܣ / ܤ | س | Ξ, ξ और शायद Χ, χ | शायद X, x | Ѯ, ѯ और शायद Х, х | ||||
अईन– | आँख (iye) | 'अ | ע | ܥ | ع, غ | Ο, ο, Ω, ω | O, o | О, о | ||||
पे– | मुँह | प | פף | ܦ | ف | Π, π | P, p | П, п | ||||
त्सादे– | शिकार | ष | צץ | ܨ | ص, ض | Ϻ, ϻ | C, c | Ц, ц, Ч, ч, Џ, џ | ||||
क़ोफ़– | बन्दर(कपि) | क़ | ק | ܩ | ﻕ | Ϙ, ϙ, शायद Φ, φ, Ψ, ψ | Q, q | Ҁ, ҁ, शायद Ф, ф, Ѱ, ѱ | ||||
रोश– | सिर | र | ר | ܪ | ﺭ | Ρ, ρ | R, r | Р, р | ||||
शिन– | दांत | श | ש | ܫ | ش | Σ, σ, ς | S, s | С, с, Ш, ш, Щ, щ | ||||
तऊ– | चिन्ह | त | ת | ܬ |
वर्गीकरण की प्रक्रिया-
वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं।
फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं।
"वैदिक ,अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक ,लैटिन, लिथुआनिया ,रशियन,तथा जर्मन आदि भाषाओं की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और व्याकरण रचना-पद्धति में काफी समानता है।
अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है।
परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है।
भारोपीय भाषा- परिवार में (शतम् )और( केन्टुम) ऐसे ही सजातीय वर्ग हैं।
वर्गों का विभाजन शाखाओं में हुआ है।जैसे शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ भाषाओं की प्रमुख शाखाएँ हैं।
शाखाओं को उपशाखा में भी बाँटा गया है। भाषा वैज्ञानिक "गिरयर्सन" ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को आन्तरिक (भीतरी) और बाह्य (बाहरी )उपशाखा में विभक्त किया है।
अतः ये उपशाखाऐं भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं।
इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है।
इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता।
"वर्गीकरण-
उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की और आकर्षित हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है।
इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर "फेडरिख मूलर " इन परिवारों की संख्या 100 तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर "राइस महोदय विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं।
किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं।
"मुख्य भाषा-परिवार-
दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का वर्णन नीचे है :
भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार (भारोपीय भाषा परिवार)
(Indo-European Languages family)
यह समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि
वैदिक-ग्रीक-लैटिन- संस्कृत- अंग्रेज़ी,रूसी, प्राचीन फारसी, हिन्दी, पंजाबी, जर्मन, नेपाली - ये अनेक भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। इसे 'भारोपीय भाषा-परिवार' भी कहते हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (४५%) भारोपीय भाषा बोलते हैं।
"संस्कृत, ग्रीक और लैटिन जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है।
लेकिन अरबी एक बिल्कुल विभिन्न परिवार से संबंध रखती है। जो सेमेटिक है इस परिवार की प्राचीन भाषाएँ बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक (end-inflecting) थीं।
भारोपीय इसी समूह को पहले आर्य-परिवार भी कहा जाता था। परन्तु आर्य्य शब्द सैमेटिक भाषाओं में एल अथवा अलि के पूूूूूर्व रूप वैदिक अरि से विकसित है।
चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार-
(The Sino - Tibetan Languages Family)
विश्व में जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी भाषा मन्दारिन (उत्तरी चीनी भाषा) इसी परिवार से संबंध रखती है। चीन और तिब्बत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अलावा बर्मी भाषा भी इसी परिवार की है। इनकी स्वरलहरीयाँ एक ही अनुनासिक्य है।
एक ही शब्द अगर ऊँचे या नीचे स्वर में बोला जाय तो शब्द का अर्थ बदल जाता है।
इस भाषा परिवार को'नाग भाषा परिवार'या
ड्रैगन नाम दिया गया है।और इसे'एकाक्षर परिवार'भी कहते हैं।
कारण कि इसके मूल शब्द प्राय: एकाक्षर भी होते हैं।
ये भाषाएँ कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, नेपाल,
सिक्किम, पश्चिम बंगाल, भूटान, अरूणाचल प्रदेश,
आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और मिजोरम
में बोली जाती हैं।
सामी-हामी भाषा-परिवार या अफ़्रीकी-एशियाई भाषा-परिवार-
(The Afro - Asiatic family or Semito-Hamitic family)
इसकी प्रमुख भाषाओं में आरामी, असूरी, सुमेरी, अक्कादी और कनानी वग़ैरह शामिल थीं लेकिन आजकल इस समूह की प्रसिद्धतम् भाषाएँ अरबी और इब्रानी ही हैं।
मध्य अफ्रीका में रहने वाले अगर लोग सैमेटिक और भारतीय अजरबैजान की आभीर तथा अवर जन जा य इ से भी सम्बद्ध थे । अफ्रीका नामकरण अगर शब्द से हुआ
इनकी भाषाओं में मुख्यतः तीन धातु-अक्षर होते हैं और बीच में स्वर घुसाकर इनसे क्रिया और संज्ञाएँ बनायी जाती हैं (अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ)।
इन भाषाओं तथा लिपियों के जनक फौनिशियन लोग थे।
"द्रविड़ भाषा-परिवार-
(The Dravidian languages Family)
भाषाओं का द्रविड़ी परिवार इस लिहाज़ से बड़ा दिलचस्प है कि हालाँकि ये भाषाएँ भारत के दक्षिणी प्रदेशों में बोली जाती हैं लेकिन उनका उत्तरी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं से कोई संबंध नहीं है (संस्कृत से ऋण उधार शब्द लेने के अलावा)।
____________________________________
परन्तु सत्य पूछा जाय तो ये द्रविड प्राचीन फ्रांस के द्रयूड (Druid) ही थे और इनकी भाषाओं में बहुत से पारिवारिक शब्द आज भी मिलते है । इस पर शोध अपेक्षित है । magan=son शब्द द्रविड ( तमिल ) और ड्रूयड(Druid) केल्टिक में समान है ।
भारत में यह भाषा परिवार नर्मदा और गोदावरी नदियों से कन्याकुमारी अन्तरीप तक फैला है ।इसके अतिरिक्त श्रीलंका बलोचिस्तान विहार प्रदेश में भी इन भाषाओं को बोलने वाले मिल जाते हैं । यह परिवार तमिल भी कहलाता है वाक्य तथा स्वर के कारण यह परिवार यूराल-अल्टाई परिवार के निकट पहुँच जाता है । इस परिवार की भाषाएँ तुर्की आदि की भाँतिअश्लिष्ट अन्त:योगात्मक हैं-२मूल शब्द या धातु में प्रत्यय जुड़ते हैं ।३-प्रत्यय की स्पष्ट सत्ता रहती है ।४-प्रत्ययों के कारण प्रकृति में कोई विकार नहीं होता।५-निर्जीवशब्द नपुँसक लिंग को माने जाते हैं । वचन दो ही होते हैं । इन भाषाओं में कर्म वाच्य नहीं होता है । मूर्धन्य ध्वनियों की प्रधानता है । गणना दश पर आधारित है । इस परिवार में मुख्य चौदह भाषाएँ समायोजित हैं जिनका चार विभागों में विभाजन है १-द्रविडपरिवार२-आन्ध्रपरिवार३-मध्यवर्तीवर्ग४-ब्राहुईवर्ग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ-कन्नड़-तमिल-तुलु-कोडगु-टुडा-मलयालम-तेलुगु-गोंड-कोंड-कुई-कोलामी-कुरुख-माल्टो-।
का अभाव होता है । तमिऴ द्राविड़ भाषा परिवार की प्राचीनतम भाषा मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति के सम्बंध में अभी तक यह निर्णय नहीं हो सका है कि किस समय इस भाषा का प्रारम्भ हुआ।
विश्व के विद्वानों ने संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि भाषाओं के समान तमिऴ को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिऴ भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है।
तमिऴ भाषा में उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर यह निर्विवाद निर्णय हो चुका है कि तमिऴ भाषा ईसा से कई सौ वर्ष पहले ही सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित हो गई थी।
मुख्य रूप से यह भारत के दक्षिणी राज्य तमिऴ नाडु, श्री लंका के तमिल बहुल उत्तरी भागों, सिंगापुर और मलेशिया के भारतीय मूल के तमिऴों द्वारा बोली जाती है। भारत, श्रीलंका और सिंगापुर में इसकी स्थिति एक आधिकारिक भाषा के रूप में है। इसके अतिरिक्त यह मलेशिया, मॉरिशस, वियतनाम, रियूनियन इत्यादि में भी पर्याप्त संख्या में बोली जाती है। लगभग ७ करोड़ लोग तमिऴ भाषा का प्रयोग मातृ-भाषा के रूप में करते हैं। यह भारत के तमिऴ नाड़ु राज्य की प्रशासनिक भाषा है और यह पहली ऐसी भाषा है जिसे २००४ में भारत सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया।
तमिऴ द्रविड़ भाषा परिवार और भारत की सबसे प्राचीन भाषाओं में गिनी जाती है।
इस भाषा का इतिहास कम से कम ३००० वर्ष पुराना माना जाता है। प्राचीन तमिऴ से लेकर आधुनिक तमिऴ में उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुयी है। तमिऴ साहित्य कम से कम पिछ्ले दो हज़ार वर्षों से अस्तित्व में है। जो सबसे आरंभिक शिलालेख पाए गए है वे तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास के हैं। तमिऴ साहित्य का आरंभिक काल, संघम साहित्य, ३०० ई॰पू॰ – ३०० ईस्वीं का है।
इस भाषा के नाम को "तमिल" या "तामिल" के रूप में हिन्दी भाषा-भाषी उच्चारण करते हैं। तमिऴ भाषा के साहित्य तथा निघण्टु में तमिऴ शब्द का प्रयोग 'मधुर' अर्थ में हुआ है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत भाषा के द्राविड़ शब्द से तमिऴ शब्द की उत्पत्ति मानकर द्राविड़ > द्रविड़ > द्रमिड > द्रमिल > तमिऴ आदि रूप दिखाकर तमिऴ की उत्पत्ति सिद्ध की है, किन्तु तमिऴ के अधिकांश विद्वान इस विचार से सर्वथा असहमत हैं।
"गठन-
तमिऴ, हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के विपरीत लिंग-विभेद प्रमुख नहीं होता है।
देवनागरी वर्णमाला के कई अक्षरों के लिये तमिल में एक ही वर्ण का प्रयोग होता है, यथा –
देवनागरी- | तमिल |
---|---|
क, ख, ग, घ | -க |
च, छ, ज, झ- | ச |
ट, ठ, ड, ढ | -ட |
त, थ, द, ध | -த |
प, फ, ब, भ | -ப |
तमिऴ भाषा में कुछ और वर्ण होते हैं जिनका प्रयोग सामान्य हिंदी में नहीं होता है।
उदाहरणार्थ: ள-ळ, ழ-ऴ, ற-ऱ, ன-ऩ।
"लेखन प्रणाली-
तमिऴ भाषा वट्ट एऴुत्तु लिपि में लिखी जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसमें स्पष्टतः कम अक्षर हैं।
देवनागरी लिपि की तुलना में (यह तुलना अधिकांश भारतीय भाषाओं पर लागू होती है) इसमें हृस्व ए (ऎ) तथा हृस्व ओ (ऒ) भी हैं।
प्रत्येक वर्ग (कवर्ग, चवर्ग आदि) का केवल पहला और अंतिम अक्षर उपस्थित है,।
बीच के अक्षर नहीं हैं जबकि(अन्य द्रविड भाषाओं तेलुगु, कन्नड, मलयालम में ये अक्षर उपस्थित हैं)।
"र" और "ल" के अधिक तीव्र रूप भी हैं। वहीं न का कोमलतर रूप भी है।
श, ष एक ही अक्षर द्वारा निरूपित हैं। तमिऴ भाषा की एक विशिष्ट (प्रतिनिधि)
ध्वनि ழ (देवनागरी समकक्ष – ऴ, नया जोडा गया) है, जो स्वयं तमिऴ शब्द में प्रयुक्त है (தமிழ் ध्वनिशः – तमिऴ्)।
तमिऴ में वर्गों के बीच के अक्षरों की ध्वनियाँ भी प्रथम अक्षर से निरूपित की जाती हैं, परंतु यह प्रतिचित्रण (mapping) कुछ नियमों के अधीन है।
'तमिऴ-हिन्दी-
संख्याएँ-
- ऒऩ्ऱु = एक
- इरंडू = दो
- मूऩ्ऱु = तीन
- नाऩ्गु = चार
- ऐन्दु = पाँच
- आऱु = छे
- एऴु = सात
- (ऎट्टु = आठ)
- ऒऩ्पदु = नौ
- पत्तु = दस
तमिऴ स्वर-
तमिऴ स्वर | देवनागरी | प के साथ प्रयोग |
---|---|---|
அ | अ | ப (प) |
ஆ | आ | பா (पा) |
இ | इ | பி (पि) |
ஈ | ई | பீ (पी) |
உ | उ | பு (पु) |
ஊ | ऊ | பூ (पू) |
எ | ऎ (हृस्व) | பெ (पॆ) |
ஏ | ए (दीर्ध) | பே (पे) |
ஐ | ऐ | பை (पै/पई) |
ஒ | ऒ (हृस्व) | பொ (पॊ) |
ஓ | ओ (दीर्ध) | போ (पो) |
ஔ | औ | பௌ (पौ/पऊ) |
विसर्ग: அஃ (अः)
व्यंजन-
तमिऴ व्यंजन | देवनागरी में लिप्यंतरण |
---|---|
க் | क् |
ங் | ङ् |
ச் | च् |
ஞ் | ञ् |
ட் | ट् |
ண் | ण् |
த் | त् |
ந் | न् |
ப் | प् |
ம் | म् |
ய் | य् |
ர் | र् |
ல் | ल् |
வ் | व् |
ழ் | ऴ् |
ள் | ळ् |
ற் | ऱ् |
ன் | ऩ् |
मात्राएँ -
क+मात्रा | तुल्य देवनागरी |
---|---|
க | क |
கா | का |
கி | कि |
கீ | की |
கு | कु |
கூ | कू |
கெ | कॆ (हृस्व उचारण) |
கே | के (दीर्घ उच्चारण) |
கை | कै |
கொ | कॊ (हृस्व उचारण) |
கோ | को (दीर्घ उच्चारण) |
கௌ | कौ |
ग्रन्थ लिपि के लिए-
व्यंजन | तुल्य देवनागरी |
---|---|
ஜ் | ज् |
ஶ் | श् |
ஷ் | ष् |
ஸ் | स् |
ஹ் | ह् |
க்ஷ் | क्ष् |
ஸ்ரீ | श्री |
तमिऴ अंक एवं संख्याएँ-
देवनागरी | ० | १ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | १०० | १०० |
---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|---|
तमिऴ | ௦ | ௧ | ௨ | ௩ | ௪ | ௫ | ௬ | ௭ | ௮ | ௯ | ௰ | ௱ | ௲ |
तमिऴ लिपि का इतिहास
स्वर | |||
---|---|---|---|
हृस्व | दीर्घ | अन्य | |
அ (अ) | ஆ (आ) | ||
இ (इ) | ஈ (ई) | ||
உ (उ) | ஊ (ऊ) | ||
எ (ऎ) | ஏ (ए) | तमिऴ में एक हृस्व 'ए' स्वर है | |
ஐ (ऐ) | |||
ஒ (ऒ) | ஓ (ओ) | तमिऴ में एक हृस्व 'ओ' स्वर है | |
ஔ (औ) | |||
அஃ (अः) | |||
- (अं) | तमिऴ में यह अक्षर नहीं है |
व्यंजन | टिप्पणियाँ | ||||
---|---|---|---|---|---|
க (क) | - (ख) | - (ग) | - (घ) | ங (ङ) | 'ख', 'ग' और 'घ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ச (च) | - (छ) | - (ज) | - (झ) | ஞ (ञ) | 'छ', 'ज' और 'झ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ட (ट) | - (ठ) | - (ड) | - (ढ) | ண (ण) | 'ठ', 'ड' और 'ढ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
த (त) | - (थ) | - (द) | - (ध) | ந (न) | 'त', 'द' और 'ध' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ப (प) | - (फ) | - (ब) | - (भ) | ம (म) | 'फ', 'ब' और 'भ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता |
ய (य) | ர (र) | ல (ल) | வ (व) | ||
ழ (ऴ) | ள (ळ) | हिंदी में इन ध्वनियों का उपयोग नहीं होता. | |||
ற (ऱ) | ன (ऩ) | हिंदी में इन ध्वनियों का उपयोग नहीं होता. | |||
- (श) | - (ष) | - (स) | - (ह) | तमिऴ में इन ध्वनियों का उपयोग ग्रंथ लिपि के कुछ अक्षरों द्वारा लिखा जाता है. |
निम्नलिखित अक्षर ग्रंथ लिपि से उधार और संस्कृत मूल के शब्दों के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है:
- ஜ (ज)
- ஶ (श)
- ஷ (ष)
- ஸ (स)
- ஹ (ह)
- க்ஷ (क्ष)
- ஸ்ரீ (श्री)
_____________________________________________________________
इसलिए मित्रों ! उर्दू या हिंदी का अंग्रेज़ी या जर्मन भाषा से तो कोई रिश्ता निकल सकता है लेकिन मलयालम भाषा से नहीं। प्राचीन फ्राँस की गॉल भाषाओंं से है परन्तु जर्मनी भाषाओं से साम्य नहीं है । जैसे केल्टिक जर्मन से भिन्न है । केल्टिक जनजातियां कालान्तर में लैटिन वर्ग की भाषा फ्राँसी बोलने लगीं -
दक्षिणी भारत और श्रीलंका में द्रविड़ी समूह की कोई 26 भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन उनमें ज़्यादा मशहूर तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ हैं। ये अन्त-अश्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ हैं।
"यूराल-अल्टाई परिवार "
प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम – ‘तूरानी’, ‘सीदियन’, ‘फोनी-तातारिक’ और ‘तुर्क-मंगोल-मंचू’ कुल आदि भी हैं। फिनो-तातारिक स्कीथियन और तू रानी नाम भी हुए परन्तु तुर्की से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारोपीय परिवार के वाद ये दूसरे नम्बर पर है ये भाषाएँ तुर्की , हंगरी और फिनलेण्डसे लेकर औरबोत्सक सागर तक और भूमध्य सागर से उत्तरी सागर तक फैली हुईं है । यह भाषा परिवार भाषा कि पारस्परिक समानता के कारण दो वर्गों में विभाजित है ।
एक यूराल परिवार और दूसरा अल्टाई परिवार-
___________________________
जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानी है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है।
ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं।
प्रत्ययों के योग से शब्द-निर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताऐं होती हैं।
स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि(मक प्रत्यय) यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
(लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा। ।
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"भारत और यूरोप के भाषा-परिवार-
यह यूरेशिया (यूरोप-एशिया)का ही नहीं अपितु विश्व का महत्वपूर्ण ' साहित्यव लिपि सम्पन्न प्राचीनतम परिवार है । इस परिवार की भाषाएँ - भारत-ईरान-आर्मीनिया तथा सम्पूर्ण यूरोप अमेरिका-दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका आधुनिक ऑस्ट्रेलिया आदि में बोली जाती हैं इसके भाषा-भाषी सर्वाधिक हैं । प्रारम्भिक काल में भारतीय संस्कृत और जर्मन भाषाओं की शाब्दिक और व्याकरण या समानता के कारण इण्डो-जर्मनिक रखा गया परन्तु इस परिवार में केल्टिक परि परिवार की भाषाएँ भी थी जो जो जर्मनी वर्ग की भाषाओं से सम्बन्धित नहीं हैं । फिर इण्डो-जर्मनिक उचित इन होने से फिर इसका नाम इण्डो-कैल्टिक रखा गया । भारोपीय भाषा परिवार के अनेक नाम रखे गये जैसे नूह के पुत्र जैफ( याफ्त-अथवा याफ्स) के नाम पर जैफाइट - काकेशस पर्वत के आधार पर काकेशियन, आर्य, और अन्त: में इण्डो-यूरोपियन नाम प्रसिद्ध रहा ।
१-कैल्टिक शाखा- २-जर्मन शाखा- ३-इटालिक (लैटिन) शाखा ४-ग्रीक शाखा ५-तोखारी( तुषार जनजाति से सम्बन्धित) ६-अल्बेनियन. ७-लैटो-स्लाविक शाखा८-आर्मेनियन शाखा ९-इण्डो-ईरानी शाखा ।
केंतुम् वर्ग–Centum-
1. केल्टिक - आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इस शाखा के बोलने वाले मध्य यूरोप, उत्तरी इटली, फ्रांस अब आयरलैण्ड, वेल्स, स्काटलैंड, मानद्वीप और ब्रिटेनी तथा कार्नवाल के ही कुछ भागों में इसका क्षेत्र शेष रह गया हैजब ग्रीस उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।
4. ग्रीक - इस शाखा में कुछ भौगोलिक कारणों से बहुत पहले से छोटे-छोटे राज्य और उनकी बहुत-सी बोलियाँ हो गई हैं। इसके प्राचीन उदाहरण महाकवि 'होमर के 'इलियड' और 'ओडिसी' महाकाव्यों में मिलते हैं। इनका समय एक हज़ार ई. पू. माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है। ग्रीक भाषा बहुत-सी बातें में वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। जब ग्रीक उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।एट्टिक बोली का लगभग चार सौ ई. पू. में बोलबाला था, अत: यही भाषा यहाँ की राज्य भाषा हुई। आगे चलकर इसका नाम ‘कोइने’ हुआ और यह शुद्ध एट्टिक से धीरे-धीरे कुछ दूर पड़ गई और एशिया माइनर तक इसका प्रचार हुआ। उधर मिस्र आदि में भी यह जा पहुंची और स्वभावत: सभी जगह की स्थानीय विशेषताएँ इसमें विकसित होने लगीं।
सतम् वर्ग-Satam-
-शतम् वर्ग-★
"भारोपीय परिवार की सतम् वर्ग की शाखाओं को इस प्रकार दिखाया जा सकता है-
(1). इलीरियन - इस शाखा को ‘अल्बेनियन’ या ‘अल्बेनी’ भी कहते हैं। अल्बेनियन के बोलने वाले अल्बेनिया तथा कुछ ग्रीस में हैं। इसके अन्तर्गत बहुत सी बोलियाँ हैं, जिनके घेघ और टोस्क दो वर्ग बनाये जा सकते हैं। घेघ का क्षेत्र उत्तर में और टोस्क का दक्षिण में है। अल्बेनियन साहित्य लगभग 17वीं सदी से आरम्भ होता है। इसमें कुछ लेख 5वीं सदी में भी मिलते हैं। इधर इसने तुर्की, स्लावोनिक, लैटिन और ग्रीक आदि भाषाओं से बहुत शब्द लिए हैं। अब यह ठीक से पता चलाना असंभव-सा है कि इसके अपने पद कितने हैं। इसका कारण यह है कि ध्वनि-परिवर्तन के कारण बहुत घाल-मेल हो गया है। बहुत दिनों तक विद्वान् इसे इस परिवार की स्वतंत्र शाखा मानने को तैयार नहीं थे किन्तु जब यह किसी से भी पूर्णत: न मिल सकी तो इसे अलग मानना ही पड़ा
(2). बाल्टिक - इसे लैट्टिक भी कहते हैं। इसमें तीन भाषाएँ आती हैं। इसका क्षेत्र उत्तर-पूरब में है। यह रूस के पश्चिमी भाग में लेटिवियाव राज्य की भाषा है।
(3).आर्मेनियन या आर्मीनी - इसे कुछ लोग आर्य परिवार की ईरानी भाषा के अन्तर्गत रखना चाहते हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि इसका शब्द-समूह ईरानी शब्दों से भरा है। पर, ये शब्द केवल उधार लिये हुए हैं।
5वीं सदी में ईरान के युवराज आर्मेनिया के राजा थे, अत: ईरानी शब्द इस भाषा में अधिक आ गये। तुर्की और अरबी शब्द भी इसमें काफ़ी हैं। इस प्रकार आर्य और आर्येतर भाषाओं के प्रभाव इस पर पड़े हैं। इसके व्यंजन आदि संस्कृत से मिलते हैं। जैसे फ़ारसी ‘दह’ और संस्कृत ‘दशन्’ के भाँति 10 के लिए इसमें ‘तस्न’ शब्द है। दूसरी ओर हस्व स्वर ए और ओॉ आदि इसमें अत: इसे आर्य और ग्रीक के बीच में कहा जाता है।
आर्मेनियन के प्रधान दो रूप हैं। एक का प्रयोग एशिया में होता है और दूसरे का यूरोप में। इसका क्षेत्र कुस्तुनतुनिया तथा कृष्ण सागर के पास है। एशिया वाली बोली का नाम अराराट है और यूरोप में बोली जाने वाली का स्तंबुल।
हिन्दी ईरानी या भारत ईरानी -
भारत-ईरानी शाखा भारोपीय परिवार की एक शाखा है। इस शाखा में भारत की आर्य भाषाएँ हैं, दूसरी तरफ ईरान क्षेत्र की भाषाएँ हैं जिनमें फ़ारसी प्रमुख है। इन दोनों को एक वर्ग में रखने का भाषा वैज्ञानिक आधार यही है कि दोनों भाषाओं में काफ़ी निकटता है। क्या दोनों उपशाखाओं की भाषाएँ बोलने वाले कभी एक थे और बाद में उनकी भाषाओं में अधिक अंतर आने लगा? ईरान के निवासी भी आर्य थे। ईरान शब्द ही ‘आर्यों का’ (आर्याणम्) का बदला हुआ रूप लगता है। प्राचीन ईरानी भाषा ‘अवेस्ता’ में आर्य का रूप ‘ऐर्य’ था। यह संबंध काल्पनिक नहीं है, प्राचीन युग में भारत और ईरान में धर्म का स्वरूप तो विपरीत ही था। परन्तु भाषाई रूप एक था, दोनों की भाषाओं (अवेस्ता और संस्कृत) में बहुत समानता थी। क्या ये लोग किसी तीसरी जगह से आकर इन दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग बस गये थे? इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि भारत और ईरान के आर्य एक ही मूल के नहीं थे। भारत-ईरानी शाखा की तीन उपशाखाएँ मानी जाती थी।
- भारतीय आर्य भाषाएँ
- भारत' ईरानी' दरद
- ईरानी
- भारतीय आर्य भाषाएँ
- भारत' ईरानी' दरद
- ईरानी
"भारोपीय परिवार का महत्व-
विश्व के भाषा परिवारों में भारोपीय का सर्वाधिक महत्व हैं। यह विषय, निश्चय ही सन्देह एवं विवाद से परे हैं। इसके महत्व के अनेक कारणों में से सर्वप्रथम, तीन प्रमुख कारण यहाँ उल्लेख है-१-विश्व में इस परिवार के भाषा-भाषियों की संख्या सर्वाधिक है।
२-विश्व में इस परिवार का भौगोलिक विस्तार भी सर्वाधिक है।
३-विश्व में सभ्यता, संस्कृति, साहित्य तथा सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विकास की दृष्टि से भी इस परिवार की प्रगति सर्वाधिक हुई है।
४-‘तुलनात्मक भषाविज्ञान’ की नींव का आधार भारोपीय परिवार ही है।
५-भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिये यह परिवार प्रवेश-द्वार है।
६-विश्व में किसी भी परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना नहीं हुआ है, जितना कि इस परिवार की भाषाओं का हुआ है।
७-भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए इस परिवार में सभी सुविधाएँ हैं। जैसे- (क) व्यापकता, (ख) स्पष्टता, तथा (ग) निश्चयात्मकता।
८-प्रारम्भ से ही इस परिवार की भाषाओं का भाषा की दृष्टि से, विवेचन होता रहा है, जिससे उनका विकासक्रम स्पष्ट होता है।
९-संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि इस परिवार की भाषाओं का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है, जो प्राचीन काल से आज तक इन भाषाओं के विकास का ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करता है और जिसके कारण इस परिवार के अध्ययन में निश्चयात्मकता रहती है।
१०-अपने राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से भी यह परिवार महत्वपूर्ण है। कारण, प्राचीनकाल में भारत ने तथा आधुनिक काल में यूरोप ने विश्व के अन्य अनेक भू-भागों पर आधिपत्य प्राप्त करके अपनी भाषाओं का प्रचार तथा विकास किया है।
इस प्रकार उपर्युक्त तथा अन्य अनेक कारणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि विश्व के भाषा-परिवारों में ‘भारोपीय परिवार’ का महत्व निस्सन्देह सर्वाधिक है।
परिभाषा-इस भाषा परिवार की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं । १- भारोपीय भाषाएँ क्लिष्ट योगात्मक बहिर्मुखी विभक्ति प्रधान होती हैं परन्तु आज ये भाषाएँ अयोगात्मकता की ओर उन्मुख हो रही हैं धातुएँ डेढ़ अक्षर (१+१/२) की होती हैं जैसे -गम् ' go (v.)
Old English gan "to advance, walk; depart, go away; happen, take place; conquer; observe, practice, exercise,"
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from West Germanic *gaian (source also of Old Saxon,
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Old Frisian gan,
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Middle Dutch gaen,
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Dutch gaan,
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Old High German gan, German gehen),
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from PIE (proto iindo- europion (मूलभारोपीय)- root *ghē- "to release, let go; be released"
(source also of गम्यते " by goen,"
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Greek kikhano "I reach, meet with"), but there does not seem to be general agreement on a list of cognates .
"नाम शब्द का सम्बन्ध ज्ञनाम से है -संस्कृत में अन्य धातु णमँ(नम्)=प्रह्वत्वे शब्द च' अर्थात नमन करना और शब्द करना
"अनिश्चित परिवार की भाषाऐं जिनमें भारोपीय सूत्र विद्यमान हैं"। इस वर्ग के अन्तर्गत विश्व की उन भाषाओं का समावेश है" जिनमें मूल भारोपीय तथा अन्य भाषा-मूलक तत्व धूमिल ही हैं। जैसे पूर्वी इटली के मध्य तथा वहीं के उत्तरी प्रान्तों में बोली जाने वाली (एट्रस्कन-भाषा)है ।
दूसरी सुमेरियन भाषा है - परन्तु सुमेरियन भाषा में ही भारोपीय और सैमेटिक भाषाओं के आधार तत्व विद्यमान हैं ।
जैसे नवी, अरि,अप्सु,जैसे शब्द सुमेरियन भाषा में भी है । तुर्फरी-जुर्फरी ये शब्द सुमेरियन ही हैं ।
सृ॒ण्ये॑व ज॒र्भरी॑ तु॒र्फरी॑तू नैतो॒शेव॑ तु॒र्फरी॑ पर्फ॒रीका॑ । उ॒द॒न्य॒जेव॒ जेम॑ना मदे॒रू ता मे॑ ज॒राय्व॒जरं॑ म॒रायु॑।।६।। ( ऋ० १०/१०६/६/)
मितज्ञु जन-जाति वेदों में वर्णित हैं।भारतीयों में प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक तथ्यों का एक मात्र श्रोत ऋग्वेद के (2,3,4,5,6,7)मण्डल हैं ।
आर्य समाज के विद्वान् भले ही वेदों में इतिहास न मानते हों। क्योंकि उनके अर्थ पूर्वाग्रह से ग्रस्त धातु अथवा यौगिक है । जो किसी भी माइथोलॉजी के लिए असंगत है । वेदों इतिहास न देखना और उन्हें पूर्ण रूपेण ईश्वरीय ज्ञान कहना महातामस् ही है । यह मत पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित ही है। यह यथार्थ की असंगत रूप से व्याख्या करने की चेष्टा है परन्तु हमारी मान्यता इससे सर्वथा विपरीत ही है ।
व्यवस्थित मानव सभ्यता के प्रथम प्रकाशक के रूप में ऋग्वेद के कुछ सूक्त साक्ष्य के रूप में हैं । सच्चे अर्थ में ऋग्वेद प्राप्त सुलभ पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों का ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ भी है ।
ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के पिच्यानबे वें सूक्त की ऋचा बारह में (7/95/12 ) में मितन्नी जन-जाति का उल्लेख मितज्ञु के रूप में वर्णित है ।
-★ऋग्वेद में 'मितज्ञु जनजाति का वर्णन जो सुमेरियन 'मितन्नी- जन जाति के रूप में हैं ।
पदपाठ-' उत।स्या। नः। सरस्वती।जुषाणा। उप । श्रवत्।सुऽभगा।यज्ञे ।अस्मिन् । मितज्ञुऽभिः । नमस्यैः । इयाना । राया। युजा । चित् । उत्ऽतरा । सखिऽभ्यः ॥ ४ ॥
सायण भाष्य-★मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा) प्रह्व:=प्रहूयते इति स्तोता-नम्र अर्थ सायण ने किया है जो कि असंगत ही है क्योंकि कि सायण ने भी सुमेरियन संस्कृति से अनभिज्ञ होने के कारण ही मितज्ञु शब्द का यह अर्थ किया है । यह खींच तान करके किया गया यौगिक अर्थ है।
"उत अपि च "(जुषाणा =प्रीयमाणा) "(सुभगा= शोभनधना)(स्या सा =“सरस्वती)(नः=अस्माकम्)“(अस्मिन् “यज्ञे “उप “श्रवत् ।= अस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोतु) । कीदृशी सा। “
मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा)= प्रह्वैर्जानुभिः “(नमस्यैः =नमस्कारैर्देवैः) “इयाना उपगम्यमाना । चिच्छब्दश्चार्थे । “युजा नित्ययुक्तेन (“राया =धनेन )च (संगता =“सखिभ्यः) ("उत्तरा =उत्कृष्टतरा) । ईदृश्यस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोत्वित्यन्वयः ॥
"उतस्यान: सरस्वती जुषाणो उप श्रवत्सुभगा:यज्ञे अस्मिन् मितज्ञुभि: नमस्यैरि याना राया यूजा:चिदुत्तरा सखिभ्य: ।
ऋग्वेद-(7/95/4
ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ भी है । वैदिक सन्दर्भों में वर्णित मितज्ञु जन-जाति के सुमेरियन पुरातन कथाओं में मितन्नी कहा है ।अब यूरोपीय इतिहास कारों के द्वारा मितन्नी जन-जाति के विषय में उद्धृत तथ्य --मितानी हित्ताइट शब्द है जिसे हनीगलबाट भी कहा जाता है । मिस्र के ग्रन्थों में अश्शूर या नाहरिन में, उत्तरी सीरिया में एक तूफान-स्पीकिंग राज्य और समु्द्र से दक्षिण पूर्व अनातोलिया था ।(1500 से 1300) ईसा पूर्व में मिट्टीनी अमोरियों बाबुल के हित्ती विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई और अप्रभावी अश्शूर राजाओं की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक बिजली निर्वात बनाया।
"ऋग्वेद में जिन जन-जातियाें का विवरण है; वो धरा के उन स्थलों से सम्बद्ध हैं जहाँ से विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताऐं पल्लवित , अनुप्राणित एवम् नि:सृत हुईं । भारत की प्राचीन धर्म प्रवण जन-जातियाँ स्वयं को कहीं देव संस्कृति की उपासक तो कहीं असुर संस्कृति की उपासक मानती थीं -जैसे देव संस्कृति के अनुयायी भारतीय आर्य तो असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानी आर्य थे।
मितानी का राज्य ई०पू०1500 - 1300 ईसा पूर्व तक
जिसकीव
राजधानी
वसुखानी
भाषा हुर्रियन
(Hurrion)
अब समस्या यह है कि आर्य शब्द को कुछ पाश्चात्य इतिहास कारों ने पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर जन-जातियों का विशेषण बना दिया । वस्तुत आर्य्य शब्द जन-जाति सूचक उपाधि नहीं था।यह तो केवल जीवन क्षेत्रों में यौद्धिक वृत्तियों का द्योतक व विशेषण था ।आर्य शब्द का प्रथम प्रयोग ईरानीयों के लिए तो सर्व मान्य है ही परन्तु कुछ इतिहास कार इसका प्रयोग मितन्नी जन-जाति के हुर्री कबींले के लिए स्वीकार करते हैं । परन्तु मेरा मत है कि हुर्री शब्द ईरानी शब्द हुर-(सुर) का ही विकसित रूप है।क्यों कि ईरानीयों की भाषाओं में संस्कृत "स" वर्ण "ह" रूप में परिवर्तित हो जाता है । सुर अथवा देव स्वीडन ,नार्वे आदि स्थलों से सम्बद्ध थे । परन्तु वर्तमान समय में तुर्की "जो मध्य-एशिया या अनातोलयियो के रूप है । की संस्कृतियों में भी देव संस्कृति के दर्शन होते है।
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्ध इत्थ्य , दएव,यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4 उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं इसके विपरीत ईरानी धर्म में असुर' दस्यु, दास , तथा वृत्र' पूज्य हैं ।
"भारोपीय परिवार-भारोपीय भाषा परिवार की दो प्रधान शाखाएँ हैं ।(Ahura Mazda)- अवेस्ता एजैन्द में असुर महत् ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । और देव दुष्ट तथा बुरी शक्तियों का वाचक है ।
"Daeva-देवा-दुष्ट और Asur-असुर -श्रेष्ठ और शक्तिशाली ईश्वर का वाचक है ।
Ahura Mazdah ("Lord Wisdom") was the supreme god, he who created the heavens and the Earth, and another son of (Zurvan). As leader of the Heavenly Host, the (Amesha Spentas), he battles Ahriman and his followers to rid the world of evil, darkness and deceit. His symbol is the winged disc. _____ | |
Ahurani | असुराणी- यह वरुण की पत्नी है जो स्वास्थ्य चिकित्सा और जल की देवी हैं । Ahurani is a water goddess from ancient Persian mythology. She watches over rainfall as well as standing water. She was invoked for health, healing, prosperity, and growth. She is either the wife or the daughter of the great god of creation and goodness, Ahura Mazda. Her name means "She who belongs to Ahura". |
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"Div या देव ( फ़ारसी : Dīv (دیو )ईरानी की पौराणिक कथाओं में देव दुष्ट प्राणी हैं , और जो आर्मेनिया , तुर्क देशों और अल्बानिया सहित आसपास की संस्कृतियों में फैले हुए हैं । मुहावरों या ओग्रेसियों की तुलना में, उनके पास एक मानव के समान एक शरीर है, लेकिन विशाल, दो सींगों के साथ, एक मानव मांस, शक्तिशाली क्रूर और पत्थर के दिल के साथ एक सूअर की तरह दांतों वाला। उनके शारीरिक आकार के बावजूद, जैसे जिन्न और श्यातिन (दुष्ट आत्माओं के कब्जे और पागलपन का कारण बताए गए हैं। उनके प्राकृतिक विरोधी पेरी हैं ,
शाहनाम - दि अकवन ने रुस्तम को समुद्र में फेंक दिया
मूल-देव शायद से ही शुरू अवेस्तन daeva , में बुराई के सिद्धांत के द्वारा बनाई गई बुरी आत्मााओं
"jorastrianism , Ahriman के दौरान इस्लामी अवधि, (daeva) के विचार देव की धारणा के लिए बदल दिया; शारीरिक आकार में राक्षसी जीव, लंबे दांत और पंजे के साथ, अक्सर पश्चिमी ओग्रे की तुलना में । [Translations ] कुरान के पहले अनुवादों का फारसी भाषा में अनुवाद कुरान के दुष्ट जिन्न को देव के रूप में परिवर्तित करता प्रतीत होता है , दोनों अलग-अलग प्रकार के जीवों के कुछ भ्रमों की ओर ले जाता है। बाद में उन्हें इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य के बीच कई संस्कृतियों द्वारा अनुकूलित किया गया ।
इस्लाम-
"अलीक़ुली - किंग सोलोमन और देेेव=दुष्ट - वाल्टर W62494B - पूर्ण पृष्ठ
' देवदूत या पेरी को पकड़ने वाला देव
टीका-
तबरी के अनुसार , दुर्भावनापूर्ण देवता पूर्व- जीव प्राणियों की एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हैं, जो परोपकारी पेरिस से पहले हैं , जिन्हें वे एक निरंतर लड़ाई लड़ते हैं। हालाँकि, सभी एक्सटेगेट्स इससे सहमत नहीं हैं। इस्लामिक दार्शनिक अल-रज़ी ने अनुमान लगाया कि देव दुष्ट मृतकों की आत्मा हैं, उनकी मृत्यु के बाद देव में बदल गए।
लोक-साहित्य-
फ़ारसी लोककथाओं में, देवों को जानवरों के सिर और खुरों के साथ सींग वाले पुरुषों की तरह देखा जाता है। कुछ सांप का रूप लेते हैं या कई सिर वाले अजगर हालाँकि,शेपशिफ्टर्स के रूप में , वे लगभग हर दूसरे रूप को भी ले सकते हैं। वे रात के दौरान डरते हैं, जिस समय वे जागते हैं, क्योंकि यह कहा जाता है कि अंधेरा उनकी शक्ति को बढ़ाता है। गुलाम हुसैन सा'दी की (अहल-ए-हवा -(हवा के लोग), विभिन्न प्रकार के अलौकिक जीवों के बारे में कई लोककथाओं पर चर्चा करते हुए, उन्हें द्वीपों या रेगिस्तान में रहने वाले लंबे जीवों के रूप में वर्णित करते हैं और उन्हें छूकर मूर्तियों में बदल सकते हैं।
★-अर्मेनियाई पौराणिक कथाएँ-
में अर्मेनियाई पौराणिक कथाओं और कई विभिन्न अर्मेनियाई लोक कथाओं, देव (में अर्मेनियाई- դեւ) एक वस्तु के रूप में और विशेष रूप से एक दुर्भावनापूर्ण भूमिका में दोनों प्रकट होता है,और एक अर्द्ध दिव्य मूल है। देव अपने कंधों पर एक विशाल सिर के साथ एक बहुत बड़ा है, और मिट्टी के कटोरे जितना बड़ा है।उनमें से कुछ की केवल एक आंख हो सकती है। आमतौर पर, ब्लैक एंड व्हाइट देव होते हैं। हालांकि, वे दोनों या तो दुर्भावनापूर्ण या दयालु हो सकते हैं।
व्हाइट देव में मौजूद है होव्हान्नेस टुमैनयान (की कहानी "Yedemakan Tzaghike" Եդեմական Ծաղիկը), के रूप में "स्वर्ग का फूल" अनुवाद। कथा में, देव फूल के संरक्षक हैं।जुश्कापरिक, वुश्पकारिक या गधा-पाइरिका एक और चिरामिक प्राणी है जिसका नाम आधा-आसुरी और आधा-पशु होने का संकेत देता है, या एक पायरिका-जो एक महिला देव है जिसमें प्रचंड प्रवृत्ति है - जो एक गधे के रूप में प्रकट हुई और खंडहर में रहती थी।
★-फारसी की पौराणिक कथा-
"तुर्की सियाह क़लम नृत्य देवों का चित्रण-
शैतान शब्द स्वयं सुमेरियन ' भारतीय और यूरोपीय आयोनियन संस्कृतियों को मूलत: एक रूपता में दर्शाता है।_____________________
"शैतान भी कभी सन्त था हिब्रू भाषा में शब्द (לְשָׂטָ֣ן) (शैतान) अथवा सैतान (שָׂטָן ) का अरबी भाषा में शय्यतन(شيطان) रूपान्तरण है । जो कि प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में "त्रैतन तथा अवेस्ता ए जन्द़ में "थ्रएतओन"के रूप में है ।
परन्तु अर्वाचीन पहलवी , तथा फारसी भाषाओं में "सेहतन" के रूप में विकसित है ।
यही शब्द ग्रीक पुरातन कथाओं में त्रिटोन है आज विचार करते हैं इसके प्रारम्भिक व परिवर्तित सन्दर्भों पर-
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-"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट है ।
"त्रैतनु त्रीणि तनूनि यस्य स: इति त्रैतनु"-अर्थात् तीन शरीर हैं जिसके वह त्रैतन है ।
परन्तु यह शब्द आरमेनियन , असीरियन आदि सेमैेटिक भाषाओं में भी अपने पौराणिक रूपों विद्यमान है ।
यह शय्यतन अथवा शैतान शब्द मानव संस्कृतियों की उस एक रूपता को अभिव्यञ्जित करता है ; जो प्रकाशित करती है ; कि प्रारम्भिक दौर में संस्कृतियाँ समान थीं ।
सेमैेटिक, हैमेटिक , ईरानी तथा यूनानी और भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायी कभी एक स्थान पर सम्मिलित हुए थे ।
"शैतान शब्द आज अपने जिस अर्थ मूलक एवं वर्णमूलक रूप में विन्यस्त है वह निश्चित ही उसका परिवर्तित और विकसित रूप है सैमेटिक भाषाओं हिब्रू अ़रबी आदि में विद्यमान शैतान (शय्यतन शब्द ऋग्वेद के त्रैतन का रूपान्तरण है "-
जो ईरानी ग्रन्थ 'अवेस्ता ए जेन्द' में 'थ्रेतॉन–(Traetaona) के रूप में है ; और यहीं से यह
शैतान रूप में परिवर्तित हो गया है ।
-क्यों कि ? " त्रि " तीन का वाचक संस्कृत शब्द फारसी में "सिह" के रूप में है ।जैसे संस्कृत 'त्रितार -वाद्य यन्त्र को फारसी भाषा में 'सितार' कहा जाता है । इसी भाषायी पद्धति से वैदिक 'त्रैतन - 'सैतन और फिर सैतान /शय्यतन रूप परिवर्तित हो जाता है ।
-सितार शब्द की व्युपत्ति -हिन्दी सितार ( सितार ) / उर्दू ستار ( sitār ) का सम्बन्ध , फारसी भाषा के سهتار ( se-târ) "सि -तार" से है जिसका शाब्दिक अर्थ है ; " तीन -तार " ) वस्तुत यह तीन ही वायरों से बनता है ।
'सितार( संगीत ) एक हिन्दुस्तानी / भारतीय शास्त्रीय तारों वाला वाद्य- यन्त्र -
"व्युत्पत्ति और इतिहास "-सितार नाम फारसी भाषा से आता है سیتار (sehtar) سیہ seh अर्थ तीन और تار तार का अर्थ स्ट्रिंग है। एक समान उपकरण, 'सितार' का उपयोग इस दिनों ईरान और अफगानिस्तान में किया जाता है, और मूल फारसी नाम का अभी भी उपयोग किया जाता है।
दोनों यन्त्र तुर्की "टैनबूर "तानपूरा से अधिकतर व्युत्पन्न होते हैं, जो एक लंबे, वीणा जैसा यन्त्र है जिसमें कोई "Tembûr और (sehtar) सेह-तार दोनों को पूर्व इस्लामीयत से फारस में इस्तेमाल किया गया था ;
और आज भी तुर्की में यह उपयोग किया जाता है।
वैकल्पिक रूप से, रुद्र वीणा नामक एक पुराना भारतीय उपकरण कुछ महत्वपूर्ण मामलों में सितार जैसा दिखता है।
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-ऋग्वेद में मण्डल 1 अध्याय 22 तथा सूक्त 158 पर देखें 👇
★-न मा गरन् नद्यो मातृतमा दासा यदींसुसमुब्धमवाधु: शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध।५।। ऋग्वेद-१/१५८/५- दीर्घ तमामामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगेअपामर्थ यतीनां ब्रह्मा भवति सारथि।६।।
ऋग्वेद-१/१५८/६
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-ऋषि - दीर्घ तमा । देवता -अश्विनौ। छन्द- त्रिष्टुप, अनुष्टुप -अर्थ व अनुवाद★
हे ! अश्निद्वय ! मातृ रूपी नदीयों का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्युओं ने मुझे इस युद्ध में बाँध कर फैंक दिया ।
"त्रैतन दास ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ।5।
ममता का दीर्घतमा दश वर्ष पश्चात् वृद्ध हुआ ।
कर्म फल की इच्छा से स्तुति करने वाले स्तोता (ब्रह्मा) रथ युक्त हुए।6।
"ऋग्वेद मण्डल-1 सूक्त 158 -ऋचा-5-6
"न । मा । गरन् । नद्यः । मातृऽतमाः । दासाः । यत् । ईम् । सुऽसमुब्धम् । अवऽअधुः ।
शिरः । यत् । अस्य । त्रैतनः । विऽतक्षत् । स्वयम् । दासः । उरः । अंसौ । अपि । ग्धेतिग्ध ॥५।।
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“नद्यः नदनशीला: "मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः “मा मां दीर्घतमसं “गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥
गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां “सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४)
इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् ।
किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥
हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः।
ऋग्वेद में ही अन्यत्र - त्रितोनु के विषय में वर्णन है ।
"अस्य त्रितोन्वोजसा वृधानो विपा वराहम यो अग्रयाहन् ।।6।
(ऋग्वेद 10/99/6)
अर्थात् इस त्रितोनु ने ओज के द्वारा लोह समान तीक्ष्ण नखों से वराह को मार डाला था ।
आरण्वासो युयुधयोन सत्वनं त्रितं नशन्त प्रशिषन्त इष्टये
(ऋग्वेद 10/115/4 )
त्रातन -दैत्य विशेष त्रित अप्त्यस्य (ऋग्वेद 1/124/5)
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१४६६ । ६७ पृ० एकतशब्दोक्ते आप्त्ये
१- देवभेदे ब्रह्मणो मानसपुत्ररूपे २- ऋषिभेदे च त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानः तायड ।त्रिषु विस्त्रीर्णतमे ३- प्रख्यातकीर्त्तौ च त्रि० ।“यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्द्दयत्” ऋ० १। १८७।१।
त्रित ऋभुक्षा: ,सविता चनो दधे८पां नपादाशहेमा धिया शमि ।6।ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 3 सूक्त 31 ऋचा 6.
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.हे अन्तरिक्ष के देवता अहि, सूर्य, त्रित इन्द्र और सविता हमको अन्न दें ।
.त्रितो न यान् पञ्च होतृनभिष्टय आववर्त दवराञ्चक्रियावसे ।14।
अभीष्ट सिद्धि के निमित्त प्राण, अपान, समान,ध्यान, और उदान । इन पाँच होताओं को त्रित द्वारा सञ्चालित करते हैं ।
ऋग्वेद मण्डल 1 अध्याय 4 सूक्त 34 ऋचा 14
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"मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तम् मे अस्य रोदसी ।8।
अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभि:आतिता।
त्रितस्यद् वेद आप्त्य: स जामित्ववाय रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ।9।_______________________________________
दो सौतिनों द्वारा पति को सताए जाने के समान कुँए की दीवारे मुझे सता रही हैं। हे इन्द्र ! चूहा द्वारा अपने शिश्न को चबाने के समान मेरे मन की पीड़ा मुझे सता रही है। हे रोदसी मेरे दु:ख को समझो ! इन सूर्य की सात किरणों से मेरा पैतृक सम्बन्ध है। इस बात को आप्त्य-(जल)का पुत्र त्रित जानता है । इस लिए वह उन किरणों की स्तुति करता है। हे रोदसी मेरे दु :ख को समझो।
ऋग्वेद के अन्य संस्करणों में क्रम संख्या भिन्न है
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"शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दासः” ऋ०१।१५८८ । ५ । “त्रैतन एतन्नामको दासोऽत्यन्तनिर्घृणः”
★- भाष्य व सरलीकरण-
"अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्त्रुरुतय: इन्द्रो यद् वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद् वलस्य परिधीरिव त्रित: ।।5।
अभिमुख गमन करने वाली नदीयों के समान वृत्र से युद्ध करने वाले इन्द्र और उसके सहायक मरुतों को सोम का आनन्द प्राप्त हुआ ।
तब सोम पान से साहस में बढ़े हुए इन्द्र ने वल की परिधि के समान त्रित को भेद दिया ।
ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 10 सूक्त 54 का 5 वाँ सूक्त ।
"ऋग्वेद के कतिपय स्थलों पर त्रित तथा पूषण को साथ साथ दर्शाया है ।
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन
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त्रिते देवता अमृजतैत देनस्त्रित एनन्मनुयेषु ममृजे ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे ताँ देवा
ब्रह्मणानाशयन्तु।१।
मरीचीर्धूमान प्रविशानु पाप्मन्नु दारान् गच्छोतवानीहारान् नदी नाम फेनानाँ अनुतान् विनश्य भ्रूण हिन्दुस्तान पूषन् दुरितानि मृक्ष्व द्वादशधानिहितं
त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यै नसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तांते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ।
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"देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया । त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।हे परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।
इसे मन्त्र शक्ति से दूर भगा हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर । हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा । त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है। हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !
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अवेस्ता ए जन्द़ में "इन्दर (इन्द्र) वेन्दीदाद् 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का बताया गया है ।
इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्.धइत्थ्य , दएव,
यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4
उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं
इसके विपरीत असुर दस्यु, दास , तथा वृत्र पूज्य हैं ।
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"(thraetaona )थ्रेतॉन ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में वर्णित देव है। इसका सामञ्जस्य वैदिक त्रित -आपत्या के साथ है ।
अवेस्ता में 'यम' को 'यिमा (Yima) के रूप में महिमा- मण्डित किया गया है ।
अवेस्ता में अज़िदाहक को मार डाला जाता है ।
भारतीय वैदिक सन्दर्भों में १-एकत: २-द्वित:और ३-त्रित:
के विषय में अनेक रूपक हैं ।👇
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"त्रित: कूपे८वहितो देवान् हवत ऊतये । तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु वित्तं मे अस्य रोदसी ।
(ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 16 सूक्त 105 ऋचा 17)
"कुए में गिरे हुए त्रित ने रक्षार्थ देवाह्वान किया ;तब उसे बृहस्पति (ज्यूस) ने सुना और पाप रूप कुऐ से उसे निकाला। हे रोदसी मेरे दु:ख को सुनो त्रित इस प्रकार आकाश और पृथ्वी से प्रार्थनाकरता है ।
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यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट 2।
असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन ____________________
"यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित ने जोड़ा इन्द्र ने इस पर प्रथम वार सवारी की ।गन्धर्व ने इस की रास पकड़ी ; हे देवताओं तुमने इसे सूर्य से प्राप्त किया हे अश्व तू यम रूप है।सूर्य रूप है ;और गोपनीय नियम वाला त्रित है ।यही इसका रहस्यवादी सिद्धान्त है ।
मण्डल(1) सूक्त(163) ऋचा संख्या(2-3)
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"त्रित को वैदिक सन्दर्भों में चिकित्सा का देवता मान लिया गया । अंग्रेजी भाषा में प्रचलित ट्रीट (Treat )शब्द वस्तुत त्रित मूलक है अवेस्ता ए जेन्द़ में त्रिथ चिकित्सक का वाचक है ।तथा त्रैतन का रूप थ्रैतान फारसी रूप फरीदून प्रद्योन /प्रद्युम्न - चिकित्सक का वाचक है।
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अवेस्ता में वर्णित है कि
"यो ज़नत अजीम् दहाकँम् थ्रित फ़नँम थ्रिक मँरँधँम् क्षृवश् अषीम् हजृडृ़.र यओक्षीम् अश ओड्. हैम दएवीम् द्रुजँम् अघँम् । गएथाव्यो द्रवँतँन् यॉम् ओजस्तँ माँम् द्रुजँम् फ्रच कँरँ तत् अड.गरो मइन्युश् अओइयॉम् अरत्वइतीम् गएथाँम् मइकॉई अषहे गएथनाम् ।।
...(यस्न 9,8 अवेस्ता )--___________________
"अर्थात् जिस थ्रएतओन जिसे वैदिक सन्दर्भों में (त्रैतन) या त्रित कहा है । वह आप्त्य का पुत्र है ।उसने अज़िदाहक (अहि दास) को मारा था। जो अहि तीन जबड़ो वाला ,तीन खोपड़ियों वाला, छ: आँखों वालाहजार युक्तियों वाला बहुत ही शक्तिशाली है । धूर्त ,पापी ,जीवित प्राणीयों को धोखा देने वाला था । जिस बलशाली को अंगिरा मइन्यु ने सृष्टि के विरोधी रूप में अश (सत्य) की सृष्टि के विनाश के लिए निर्मित किया था वस्तुत उपर्युक्त कथन अहि दास के लिए है ।
प्रस्तुत सन्दर्भ में (त्रिक मूर्धम् ) की तुलना ऋग्वेद के उस स्थल से कर सकते हैं । जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है । (ऋग्वेद-10/1/8 देखें👇
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स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रे त्रित-आप्त्यो अभ्यध्यत्
त्रीशीर्षाणं सप्त रश्मिं जघन्वान् (ऋग्वेद-10/1/8)
👇जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी अहि और त्रित एक दूसरे के शत्रुओं के रूप में हैं। जिस प्रकार अहि को मार कर त्रित ऋग्वेद में गायों को स्वतन्त्र करते हैं।👇
उसी प्रकार अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन सय्यतन द्वारा अज़िदाहक को मार कर दो युवतियों को स्वतन्त्र करने की बात कही गयी है ।
ऋग्वेद में ये सन्दर्भ इन ऋचाओं में वर्णित है-
👉 १३२, १३ १८५९।३३२।६ तथा
३६।८।४ ।१७।१।६।
👇अतः यह सन्दर्भ अ़हि (अज़ि) वृत्र (व्रथ्र) या वल (इबलीश)(evil)के साथ गोओं ,ऊषस् या आप: सम्बन्धी देव शास्त्रीय भूमिका का द्योतन करता है ऋग्वेद १३२/१८७/१ तथा १/५२/५
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नॉर्स पुरा-कथाओं में (Thridi) थ्रिडी ओडिइन का पुराना नाम जिसका साम्य त्रिता के साथ है।
👇और ट्रिथ- समुद्र के लिए एक पुराने आयरिश नाम भी है । ध्वन्यात्मक रूप से इसका साम्य वैदिक त्रित से है । ट्राइटन "Triton"(Τρίτων ) पॉसीडॉन एवं एम्फीट्रीट का पुत्र एक यूनानी समुद्र का देवता है । जिसका ध्वन्यात्मक साम्य वैदिक त्रिता को रूप में है । वैदिक और ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के सन्दर्भ समानार्थक रूप में विद्यमान हैं !
(THRIDI)-नॉर्स ज्ञान का देवता इसे "Þriðji" के रूप में भी जाना जाता है । यह एक और अजीब ऋषि है । वह हर और जफरहर के साथ रहस्यमय-तीन(त्रिक)का तीसरा सदस्य है।
उनका नाम 'तीसरा' है और जब बैठने की व्यवस्था और स्थिति की बात आती है तो वह तीसरे स्थान पर होता है। लेकिन वह अपने सहयोगियों के रूप में स्पुल के थ्रूडिंग के बारे में उतना ही जानता है। थ्रिडी तथ्य और फिगर
नाम: "THRIDI" उच्चारण: जल्द ही आ रहा है । वैकल्पिक नाम: Þriðji स्थान: स्कैंडिनेविया प्रभारी: ज्ञान
देव: ज्ञान
विली (वल ) और वी (वायु)
"ओडिन, विली और वी 19 वीं शताब्दी के चित्रों में लोरेन्ज़ फ्रॉलीच द्वारा ब्रह्मांड बनाते हैं विली और वी (क्रमशः "विली-ए" और "वेय (वायु)", भगवान ओडिन के दो भाई हैं, जिनके साथ उन्होंने ब्रह्मांड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई। मध्ययुगीन आइसलैंडिक विद्वान स्नोरी स्टर्लुसन हमें बताता है कि ओडिन, विली और वी पहले सत्य थे जो अस्तित्व में थे। उनके माता-पिता प्रोटो-गॉड बोर और विशालकाय बेस्टला थे।
तीन भाइयों ने विशाल यमिर को मार डाला, जो अस्तित्व में आया था, और ब्रह्मांड को अपनी शव से बना दिया।
जबकि स्नोरी आम तौर पर एक विशेष रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं है, इस विशेष जानकारी को पूर्व-ईसाई नोर्स विचारों के प्रामाणिक खाते के रूप में स्वीकार करने के अच्छे कारण हैं, यह देखते हुए कि यह अन्य सबूतों के साथ कितना अच्छा है, जिसे हम नीचे देखेंगे।
विली और वी भी एक अन्य कहानी में शामिल हैं जो हमारे पास आ गया है: जब ओडिन अस्थायी रूप से एस्सार से , अस्सी देवताओं के दिव्य गढ़ को "अमानवीय" जादू का अभ्यास करने के लिए निर्वासित कर दिया गया था, विली और वी अपनी पत्नी फ्रिग के साथ सो गए थे।
दुर्भाग्यवश, घटनाओं की इस श्रृंखला में उनकी भूमिका के बारे में और अधिक जानकारी नहीं है।पुराने नोर्स साहित्य में 'विली और 'वी के अन्य स्पष्ट संदर्भ ओडिन के भाई के रूप में विली के उत्तीर्ण होने तक सीमित हैं।
स्माररी के प्रोज एडडा में हहर ("हाई"), जफरहरर ("जस्ट एज़ हाई"), और Þriði ("तीसरा"), जिनकी नाममात्र कथाओं में भूमिका पूरी तरह से व्यावहारिक है, ओडिन, विली, और वी,
लेकिन यह संभावना है कि वे ओडिन तीन अलग-अलग रूपों के तहत हैं, क्योंकि ओल्ड नर्स कविता में अन्य तीन नाम ओडिन पर लागू होते हैं।
विली और वी के बारे में सबसे अधिक आकर्षक जानकारी उनके नामों में मिल सकती है। पुराने नर्स में , विली का अर्थ है "विल,"और वे का अर्थ "मंदिर"है और यह उन शब्दों के साथ निकटता से निकटता से संबंधित है जो पवित्र के साथ करना है, और विशेष रूप से पवित्र हैं।
दिलचस्प बात यह है कि ओडिन, विली और वी के प्रोटो-जर्मनिक नाम क्रमशः * वुंडानाज़ , * वेल्जोन , और * विक्सन थे । यह अलगाव शायद ही संयोगपूर्ण हो सकता है, और सुझाव देता है कि त्रैमासिक समय उस समय की तारीख है जब प्रोटो-जर्मन भाषा बोली जाती थी - लगभग 800 ईस्वी में वाइकिंग एज शुरू होने से पहले, और संभवतः सहस्राब्दी या दो से कम नहीं उस तारीख से पहले।
यद्यपि वे केवल वाइकिंग एज से साहित्य में स्पोराडिक रूप से वर्णित हैं और इसके तुरंत बाद, विली और वी नर्स और अन्य जर्मन लोगों के लिए कम से कम जर्मनिक जनजातियों के समय, और संभवतः बाद में भी प्रमुख महत्व के देवताओं के रूप में होना चाहिए। जर्मन अल्पसंख्यक सक्रिय उपयोग में हजारों सालों के इतने बड़े अनुपात में केवल मामूली महत्व का कोई पौराणिक आंकड़ा बरकरार रखा नहीं गया था, जिसके दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किए थे। तथ्य यह है कि विली और वी ओडिन के भाइयों के रूप में डाले जाते हैं, शायद इस समय के अधिकांश में सबसे ज्यादा जर्मनिक देवता, उनके ऊंचे स्तर का एक और सुझाव है।
दरअसल, ओडिन, विली, और वी - क्रमशः प्रेरणा, चेतना का इरादा, और पवित्र - तीन सबसे बुनियादी ताकतों या विशेषताओं हैं जो अराजकता से किसी भी ब्रह्मांड को अलग करते हैं। इसलिए यह तीन देवताओं थे जो मूल रूप से ब्रह्मांड बनाते थे, और निश्चित रूप से इसके निरंतर रखरखाव और समृद्धि के सबसे आवश्यक स्तंभों में से तीन बने रहे।
उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश। एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ। 362।
अर्थात् थ्रिडी ज्ञान का नॉर्स देवता है ।_____________________
ग्रीक पौराणिक कथाओं में ट्रिटॉन Triton , (Τρίτων) एक मर्मन , समुद्र का देवता है जो वस्तुत वैदिक त्रैतन का प्रतिरूप है ।
"यूनानी पुराणों में त्रैतन (Triton) समुद्र के देवता, पोसीडॉन और उसकी पत्नी अम्फिट्राइट (Amphitrite)का पुत्र था। जिन्हें वैदिक सन्दर्भों में क्रमश: पूषन् तथा आप्त्य कहा गया है।
वेदों में पूषण देखें -👇____________
"यस्य ते पूषन् त्सख्ये पिपन्यव: कृत्वा चित् सन्तोऽवसा बभ्रुज्रिरे ।तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे ।
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"पॉसीडॉन (Poseidon) यूनानी पुरा-कथाओं के अनुसार समुद्र और जल का देवता है । जो सूर्य के रूप में भी प्रकट होता है ।
शैतान का प्रारम्भिक रूप एक सन्त अथवा ईश्वरीय सत्ता के रूप में थी यह तथ्य स्वयं ऋग्वेद में भी विद्यमान हैं ।👇
ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन- अथर्ववेद ६/११३ और ११४ सूक्त)
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👇"त्रिते देवा अमृजतैतदेनस्त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥१॥ (6./113/1-अथर्ववेद)
मरीचीर्धूमान् प्र विशानु पाप्मन्न् उदारान् गछोत वा नीहारान् ।
नदीनं फेनामनु तान् वि नश्य भ्रूणघ्नि पूषन् दुरितानि मृक्ष्व ॥२॥ (6./113/2-अथर्ववेद)
द्वादशधा निहितं त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यैनसानि ।
ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तां ते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ॥३॥(6./113/3-अथर्ववेद)
"यद्देवा देवहेडनं देवासश्चकृम वयम् आदित्यास्तस्मान् नो युयमृतस्य ऋतेन मुञ्चत ॥१॥
(अथर्ववेद 6/114/1)
ऋतस्य ऋतेनादित्या यजत्रा मुञ्चतेह नः ।
यज्ञं यद्यज्ञवाहसः शिक्षन्तो नोपशेकिम ॥२॥
(अथर्ववेद 6/114/2)
मेदस्वता यजमानाः स्रुचाज्यानि जुह्वतः ।
अकामा विश्वे वो देवाः शिक्षन्तो नोप शेकिम ॥३॥
(अथर्ववेद 6/114/3)
[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है [ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इन्द्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है [ऋ.९.३२.२.१०,.८.७-८]
त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ सम्बन्ध था, ऐसा प्रतीत होता है [ऋ.२.११.१९] ।
-त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है [ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं [ऋ. ५.४१.४] । त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है [ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की [ऋ.१.१०५.१७]
भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा [ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है ।
"एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे ।
त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये ।
तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की
[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बन्धु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे [श. ब्रा.१.२.१.१-२];[तै.ब्रा ३.२.८.१०-११] ।
-महाभारत में, त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है ।गौतम को "एकत, द्वित तथा त्रित नामक पुत्र थे ।
यह सब ज्ञाता थे । परन्तु कनिष्ठ त्रित तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था । इन्हें विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था एक बार त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की । गौऐं ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था । दोनों भाई गौओं को हॉंकते हुए पीछे जा रहे थे इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी । त्रित निःशंक मन से जा रहा था।
इतने में सामने से एक भेडिया आया ।
उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा, तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा ।
"इसने काफी चिल्लाहट मचाई । परंतु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया । भेडिया का डर तो था ही ।जल-हीन, धूलि-युक्त तथा घास से भरे कुएं में गिरने के बाद, त्रित ने सोचा कि, ‘मृत्यु भय से मैं कुए में गिरा इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’। इस विचार से, कुएँ में लटकनेवाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया ।देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया ।
उनकी सन्तति को इसने बन्दर, रीछ आदि बना दिया ।
"बलराम जब त्रित के कूप के पास आया, उस समय उसे यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी [म.श.३५];[ भा.१०.७८]
आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है [स्कंद.७.१.२५७] ।
यूनानी महाकाव्य इलियड में वर्णित त्रेतन (Triton)एक समुद्र का देवता है ।जो पॉसीडन(Poisidon ) तथा एम्फीट्रीट(Amphitrite) का पुत्र है।
"Triton is the a minor seafood Son of the Poisson & Amphitrite " he is the messenger of sea "
"त्रेतन की कथा पारसीयों के धर्म - ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द़ में थ्रेतॉन के रूप में वर्णित है इनके धर्म-ग्रन्थों में थ्रेतॉन अथव्यय से अजि-दहाक वैदिक अहिदास की लड़ाई हुई यूनानी महाकाव्यों में अहि (Ophion) के रूप में है ।ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों में त्रेतन समुद्र तथा समुद्र का देवता है । वस्तुत: तीनों लोकों में तनने के कारण तथा समुद्र की यात्रा में नाविकों का कारण करने से होने के कारण इसके यह नाम मिला ।
वेद तथा ईरानी संस्कृति में त्रेतन तथा त्रित को चिकित्सा का देवता माना गया ----
"यत् सोमम् इन्द्र विष्णवि यद् अघ त्रित आपत्यये---अथर्व०(२०/१५३/५ )
अंगेजी भाषा में प्रचलित शब्द( Treat )लैटिन "Tractare तथा Trahere के रूप संस्कृत भाषा के "त्रातर्" से साम्य रखते है ।
बाद में इसका पद सोम ने ले लिया जिसे ईरानी आर्यों ने साम के रूप में वर्णित किया है।
परवर्ती वैदिक तालीम संस्कृति में त्रेतन को दास तथा वाम -मार्गीय घोषित कर दिया गया था ।
देखें---
यथा न मा गरन् नद्यो मातृतमा दास अहीं समुब्धम बाधु: ।
शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध ।।
ऋग्वेद--१/१५८/५
-अर्थात्--हे अश्वनि द्वय माता रूपी समुद्र का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्यु ने युद्ध में बाँध कर मुझे फैंक दिया .
त्रेतन ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ..
वेदों की ये ऋचाऐं संकेत करती हैं कि देव संस्कृति के अनुयायी आर्य इस समय सुमेरियन" बैबीलॉनियन आदि संस्कृतियों के सानिध्य में थे। क्योंकि सुमेरियन संस्कृति में त्रेतन को शैतान के रूप में वर्णित किया गया है।
यही से यह त्रेतन पूर्ण रूप से हिब्रू" ईसाई तथा इस्लामीय संस्कृतियों में नकारात्मक तथा अवनत अर्थों को ध्वनित करता है। यहूदी पुरातन कथाओं में ये तथ्य सुमेरियन संस्कृति से ग्रहण किये गये ।
तब सुमेरियन" बैवीलॉनियन" असीरियन तथा फॉनिशियन संस्कृतियों के सानिध्य में ईरानी आर्य थे ।
असीरियन संस्कृति से प्रभावित होकर ही ईरानी आर्यों ने असुर महत् ( अहुर-मज्द़ा)को महत्ता दी निश्चित रूप से यह शब्द यूनानीयों तथा भारतीय आर्यों में समान है। संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द त्रि -(तीन ) फ़ारसी में सिह (सै)हो गया फ़ारसी में जिसका अर्थ होता है =(तीन)
जैसे संस्कृत भाषा का शब्द त्रितार (एक वाद्य) फ़ारसी में सिहतार हो गया है । इसी प्रकार त्रितान, सिहतान हो गया है । क़ुरान शरीफ़ में शय्यतन शब्द का प्रयोग हुआ है। जो फारसी सिहतान का रूपांतरण है।
ऋग्वेद में एक स्थान पर त्रेतन के मूल रूप त्रित का वर्णन इस प्रकार हुआ है । कि जब देवों ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित में ही स्थापित कर दिया तो त्रित- त्रेतन हो गया । अनिष्ट उत्पादन जिसकी प्रवृत्ति बन गयी ।
देखिए-- त्रित देव "अमृजतैतद् एन: त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे" --- अथर्ववेद --६/२/१५/१६
-अर्थात् त्रित ने स्वयं को पाप रूप में सूर्योदय के ' लेते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित कर दिया वस्तुत: त्रेतन पहले देव था
हिब्रू परम्पराओं में शैतान /सैतान को अग्नि से उत्पन्न माना है ।और ऋग्वेद में भी त्रित अग्नि का ही पुत्र है ।
-अग्नि ने यज्ञ में गिरे हुए हव्य को धोने के लिए जल से तीन देव बनाए --एकत ,द्वित तथा त्रित जल (अपस्) से उत्पन्न ये आप्त्य हुए जिसे होमर के महाकाव्यों में (Amphitrite)...कहा गया है ।अर्थात् इस तथ्य को उद्धृत करने का उद्देश्यय ही है कि वेदों का रहस्य असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों के विश्लेषण कर के ही उद्घाटित होगा _____________________
बाइबिल में शैतान का वर्णन - इस प्रकार है ।👇
परमेश्वर के द्वारा शैतान को एक पवित्र स्वर्गदूत के रूप में रचा गया था।
(यशायाह- 14:12 सम्भवत: शैतान को गिरने से पहले लूसीफर का नाम देता है।
यहेजकेल 28:12-14 उल्लेख करता है कि शैतान को एक करूब के रूप में रचा गया था, जो कि स्वर्गदूतों में सबसे उच्च प्राणी के रूप में दिखाई देता हुआ जान पड़ता था ।
-वह अपनी सुन्दरता और पद के कारण घमण्ड से भर गया और परमेश्वर से भी ऊँचे सिहांसन पर विराजमान होना चाहता था (यशायाह 14:13-14; यहेजकेल 28:15;1 तिमुथियुस 3:6)। यही शैतान का घमण्ड उसके पतन का कारण बना। यशायाह 14:12-15 में दिए हुए कथनानुसार " उसके पाप के कारण, परमेश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया।
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-शैतान इस संसार का हाकिम और वायु की शाक्ति का राजकुमार बन गया (यूहन्ना 12:31; 2 कुरिन्थियों 4:4; इफिसियों 2:2)।
वह दोष लगाने वाला है (प्रकाशितवाक्य 12:10), परीक्षा में डालने वाला है (मत्ती 4:3; 1 थिस्सलुनीकियों 3:5), और धोखा देने वाला है (उत्पत्ति 3; 2 कुरिन्थियों 4:4; प्रकाशितवाक्य 20:3)। उसका नाम ही "शत्रु" है या वह जो "विरोध करता" है। उसके एक और पद, इबलीस है, जिसका अर्थ "निन्दा करने वाला" है।" हांलाकि उसे स्वर्ग से निकाल बाहर किया है, परन्तु वो अभी भी अपने सिहांसन को परमेश्वर से ऊपर लगाना चाहता है। जो कुछ परमेश्वर करता है उस सब की वो नकल, यह आशा करते हुए करता है कि वह संसार की अराधना को प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर के राज्य के विरोध में लोगों को उत्साहित करता है।
"शैतान ही सभी तरह की झूठी शिक्षाओं और संसार के धर्मों के पीछे अन्तिम स्त्रोत है।_____________________
"शैतान परमेश्वर और परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के विरोध में अपनी शाक्ति में कुछ और सब कुछ करेगा। परन्तु फिर भी, शैतान का गंतव्य –आग की झील में अनन्तकाल के लिए डाल दिए जाने के द्वारा मुहरबन्द कर दिया गया है (प्रकाशित वाक्य 20:10)।___________________
"इय्योब नामक काव्य ग्रन्थ में शैतान एक पारलौकिक सत्व है जो ईश्वर के दरबार में इय्योब पर पाखंड का आरोप लगाता है। यहूदियों के निर्वासनकाल के बाद (छठी शताब्दी ई. पू.) शैतान एक पतित देवदूत है जो मनुष्यों को पाप करने के लिए प्रलोभन देता है। बाइबिल के उत्तरार्ध में शैतान बुराई की समष्टिगत अथवा व्यक्तिगत सत्ता का नाम है।उसको पतित देवदूत, ईश्वर का विरोधी, दुष्ट, प्राचीन सर्प, परदार साँप (ड्रैगन), गरजनेवाला सिंह, इहलोक का नायक आदि कहा गया है।
त्रैतन-★†
अनुवाद-जहाँ मसीह अथवा उनके शिष्य जाते, वहाँ शैतान अधिक सक्रिय बन जाता क्योंकि मसीह उसको पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे। किंतु मसीह की वह विजय संसार के अंत में ही पूर्ण हो पाएगी (दे. कयामत)। इतने में शैतान को मसीह और उसके मुक्तिविधान का विरोध करने की छुट्टी दी जाती है। दुष्ट मनुष्य स्वेच्छा से शैतान की सहायता करते हैं। संसार के अंत में जो ख्राीस्त विरोधी (ऐंटी क्राइस्ट) प्रकट होगा वह शैतान की कठपुतली ही है।उस समय शैतान का विरोध अत्यंत सक्रिय रूप धारण कर लेगा किंतु अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा। ईसा पर अपने विश्वास के कारण ईसाई शैतान के सफलतापूर्वक विरोध करने में समर्थ समझे जाते हैं। बाइबिल के उत्तरार्द्ध तथा चर्च की शिक्षा के अनुसार शैतान प्रतीकात्मक शैली की कल्पना मात्र नहीं है; पतित देवदूतों का अस्तित्व असंदिग्ध है। दूसरी ओर वह निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा एक सृष्ट सत्व मात्र है जो ईश्वर के मुक्तिविधान का विरोध करते हुए भी किसी भी तरह से ईश्वर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।
"ग्रीक कवि हेसियोड के अनुसार, ट्राइटन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहते था।
कभी-कभी वह विशिष्ट नहीं था लेकिन कई ट्राइटनों में से एक था। एक मछली की पूँछ के साथ, वह अपने कमर के लिए मानव के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया था। ट्राइटन की विशेषता एक मुड़कर सीशेल- (मछली) थी, जिस पर उसने स्वयं को शान्त होने या लहरों को बढ़ाने के लिए उड़ा दिया।___________________
अनुवाद-(Poseidon)पोसीडोन, ग्रीक धर्म में, समुद्र के देवता (और आम तौर पर पानी), भूकम्प और घोड़े के रूप वह है।(Amphitrite)एम्फिट्राइट, यूनानी पौराणिक कथाओं में समुद्र की देवी, भगवान पोसीडॉन की पत्नी ।ग्रीक : Τρίτων Tritōn ) एक पौराणिक ग्रीक देवता , समुद्र के दूत है । वह क्रमशः समुद्र के देवता और देवी क्रमश: पोसीडोन और एम्फिट्राइट का पुत्र है।और उसके पिता के लिए हेराल्ड है । उन्हें आम तौर पर एक मर्मन के रूप में दर्शाया जाता है जिसमें ओवीड [1 के अनुसार, मानव और पूंँछ, मुलायम पृष्ठीय पंख, स्पाइनी पृष्ठीय पंख, गुदा फिन, श्रोणि पंख और मछली के कौडल फिन का ऊपरी शरीर होता है। ट्रिटॉन की विशेषता एक मुड़ता हुआ शंख खोल था, जिस पर उसने शांत होने या लहरों को बढ़ाने के लिए तुरही की तरह स्वयं को उड़ा दिया। इसकी आवाज इतनी शोक थी, कि जब जोर से उड़ाया गया, तो उसने दिग्गजों को उड़ान भर दिया, जिसने इसे एक अंधेरे जंगली जानवर की गर्जना की कल्पना की। शायद 'सूकर के सादृश्य पर --हेसियोड के थेसिस के अनुसार, ट्रिटॉन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहता था; होमर एगे से पानी में अपना आसन रखता है त्रिटोनियन झील" ले जाया गया तब से उसका नाम त्रिटोनियन हुआ।, ट्राइटोनिस झील , जहां ट्राइटन, स्थानीय देवता ने डायोडोरस सिकुलस द्वारा " लीबिया पर शासक" _______________
ट्राइटन पल्लस के पिता थे और देवी एथेना के लिए पालक माता-पिता थे।दो देवी के बीच एक विचित्र लड़ाई के दौरान गलती से एथेना ने पल्लस की हत्या कर दी थी। ट्राइटन को कभी-कभी ट्राइटोन , समुद्र के डेमोनों में गुणा किया जा सकता है ।_____________________
"जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, वेल्श शब्द twrch त्रुच का मतलब है "जंगली सूअर, हॉग, तिल है " तो 'Twrch Trwyth का अर्थ है "सूअर Trwyth"। इसका आयरिश संज्ञान ट्रायथ, स्वाइन का राजा (पुरानी आयरिश: ट्रायथ टॉर्राइड) या लेबर गैबला इरेन में वर्णित टोरक ट्रायथ हो सकता है।को सनस कॉर्माइक में ओल्ड आयरिश ओआरसी ट्रेथ "ट्रायथ्स सूअर" के रूप में भी रिकॉर्ड किया गया है। "राहेल ब्रॉमविच" ने भ्रष्टाचार के रूप में ट्रविथ के रूप में इस रूप का सम्मान किया।प्रारंभिक पाठ हिस्टोरिया ब्रितोनम में, सूअर को ट्रिनट या ट्रॉइट कहा जाता है, जो वेल्श ट्र्वाइड से लैटिनिकरण की संभावना है।प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में एम्फिट्राइट ( æ m f ɪ t r aɪ t iː / ;ग्रीक रूप Ἀμφιτρίτη )
एक समुद्री देवी और पोसीडोन की पत्नी यह समुद्र जगत् की साम्राज्ञी थी। ओलंपियन पंथ के प्रभाव में, वह केवल पोसीडोन की पत्नी बन गई और समुद्र के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के लिए कवियों द्वारा इसे वर्णित कर दिया गया।
रोमन पौराणिक कथाओं में , तुलनात्मक रूप से मामूली आकृति, नेप्च्यून की पत्नी, साल्शिया , खारे पानी की देवी थी। जो संस्कृत शब्द सार अथवा सर से साम्य रखता है ।_____________________
पौराणिक कथाओं का सन्दर्भ में -"बिस्ली ओथेका" के मुताबिक, एम्फिट्राइट हेरियस की थीगनी के अनुसार, न्यूरियस और टेरीस (और इस प्रकार एक महासागर ) के अनुसार, नेरियस और डोरिस (और इस प्रकार एक नेरीड ) की बेटी थी, जो वास्तव में उसे नीरिड्स और महासागर से सम्बंधित करती हैं । ।दूसरों ने उसे समुद्र के व्यक्तित्व ( नमकीन पानी ) कहा। एम्फिट्राइट की संतान में सील और डॉल्फ़िन शामिल थे। पोसीडॉन और एम्फिट्राइट का एक बेटा था, ट्राइटन जो एक मर्मन था,
और एक बेटी, रोडोस (यदि यह रोडो वास्तव में हेलिया पर पोसीडॉन(सुमेरियन -पिक्स-नु-वैदिक-विष्णु) द्वारा नहीं पैदा किया गया था या अन्य लोगों के रूप में (Asopus ) की बेटी नहीं थी) तो भी इनके साम्य सूत्र भारतीयों के सरस्वती , राधा , पूषन्, त्रैतन आदि पौराणिक पात्रों से हैं ।________________________________________
बिब्लियोथेका (3.15.4) में पोसीडॉन और एम्फिट्राइट की एक बेटी भी बेंथेशेइक नाम का उल्लेख करती है ।
एम्फिट्राइट कुरिंथ से एक पिनएक्स पर एक ट्राइडेंट (575-550 ईसा पूर्व)
एम्फिट्राइट होमरिक महाकाव्यों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं है: "खुले समुद्र में, एम्फिट्राइट के ब्रेकर्स में" ( ओडिसी iii.101), "एम्फिट्राइट moaning" सभी गिनती के पीछे संख्याओं में मछलियों को पोषण "( ओडिसी xii.119)।
वह थियिसिस के साथ अपने होमरिक एपिथेट हेलोसिडेन ("समुद्री-पोषित") को कुछ अर्थों में साझा करती है, समुद्र- नीलम दोहराए जाते हैं।
"प्रतिनिधित्व और पंथ :-
यद्यपि एम्फिट्राइट यूनानी संस्कृति में नहीं दिखता है, एक पुरातन अवस्था में वह उत्कृष्ट महत्व का था, क्योंकि होमरिक हिमन से डेलियन अपोलो में, वह ह्यूग जी। एवलिन-व्हाइट के अनुवाद में अपोलो के बीच में दिखाई देती है, "सभी प्रमुख देवियों, दीओन और रिया और इकेनिया और थीम्स और जोर से चिल्लाते हुए एम्फिट्राइट ; " हाल ही के अनुवादकों [9] एक अलग पहचान के रूप में "Ichnae" के इलाज के बजाय "Ichnaean थीम्स" प्रस्तुत करने में सर्वसम्मति से हैं। बैकचलाइड्स के एक टुकड़े के अनुसार, उनके पिता पोसीडॉन के पनडुब्बी हॉल में इनस नेरस की बेटियों को तरल पैर के साथ नृत्य और "अगस्त, बैल आंखों वाले एम्फिट्राइट" को देखा, जिन्होंने उन्हें अपनी शादी की पुष्पांजलि के साथ पुष्पित किया। जेन एलेन हैरिसन ने काव्य उपचार में मान्यता प्राप्त एम्फिट्राइट के शुरुआती महत्व की एक प्रामाणिक गूंज: "पोसीडॉन के लिए अपने बेटे को पहचानना बहुत आसान होता था मिथक पौराणिक कथाओं के शुरुआती स्तर से संबंधित है जब पोसीडोन अभी तक भगवान का देवता नहीं था समुद्र, या, कम से कम, कोई बुद्धिमान सर्वोच्च नहीं - एम्फिट्राइट और नेरीड्स ने अपने नौकरों के साथ ट्राइटन्स के साथ शासन किया। यहां तक कि इतने देर हो चुकी है कि इलियड एम्फिट्राइट अभी तक 'नेप्च्यूनी उक्सर' नहीं है [नेप्च्यून की पत्नी] "हाउस ऑफ नेप्च्यून और एम्फिट्राइट, हरक्यूलिनियम , इटली में एक दीवार पर एक रोमन मोज़ेक एम्फिट्राइट, "तीसरा जो [समुद्र] घेरता है", समुद्र और उसके प्राणियों के प्रति अपने अधिकार में पूरी तरह से सीमित था कि वह पूजा के उद्देश्यों या कार्यों के लिए लगभग अपने पति से कभी जुड़ी नहीं थी कला के अलावा, जब उसे समुद्र को नियंत्रित करने वाले भगवान के रूप में स्पष्ट रूप से माना जाता था।
,एक अपवाद एम्फिट्राइट की पंथ छवि हो सकती है कि पौसानीस ने कुरिंथ के इस्तहमस में पोसीडोन के मंदिर में देखा अपने छठे ओलंपियन ओडे में पिंडार ने पोसीडॉन की भूमिका को "समुद्र के महान देवता, एम्फिट्राइट के पति, सुनहरे स्पिंडल की देवी" के रूप में पहचाना।
बाद के कवियों के लिए, एम्फिट्राइट बस समुद्र के लिए एक रूपक बन गया: साइप्रॉप्स (702) और ओविड , मेटामोर्फोस , (i.14) में यूरिपिड्स।
यूस्टैथीस ने कहा कि पोसीडॉन ने पहली बार नरेक्स में अन्य नेरेड्स के बीच नृत्य किया, और उसे ले जाया गया। लेकिन मिथक के एक और संस्करण में, वह समुद्र के सबसे दूर के सिरों पर एटलस की प्रगति से भाग गई, वहां पोसीडॉन के डॉल्फ़िन ने उसे समुद्र के द्वीपों के माध्यम से खोजा, और उसे ढूंढकर, पोसीडोन की तरफ से दृढ़ता से बात की, अगर हम हाइजिनस पर विश्वास कर सकते हैं और तारों के बीच नक्षत्र डेल्फीनस के रूप में रखा जा रहा है।
"पूषण बारह आदित्यों में से एक हैं
"आदित्याश्च द्वादश यथोक्तं विष्णुधर्मोत्तरे भारते च “घाता मित्रोऽर्य्यमा रुद्रो वरुणः सूर्य्यएव च भगो विवस्वान् पूषा च सविता दशमः स्मृतः एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुर्द्वादश उच्यते” इति (विष्णुधर्मोत्तरपुराण)
ऋ० १० । ५ । ५ । में वर्णन है
"स्वसॄ॒ररु॑षीर्वावशा॒नो वि॒द्वान्मध्व॒ उज्ज॑भारा दृ॒शे कम् । अ॒न्तर्ये॑मे अ॒न्तरि॑क्षे पुरा॒जा इ॒च्छन्व॒व्रिम॑विदत्पूष॒णस्य॑ ॥
(पूर्व काल में जब बहिन ही पत्नी रूप में थी )( ऋ० १ । ८२ । ६ )हिब्रू शब्द לְשָׂטָ֣ן, शैतान , मूसा द्वारा तौरेत में उपयोग किया जाता है (लगभग 1500 ईसा पूर्व में) विरोधी का मतलब है और मानव व्यवहार का वर्णन करने वाले सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है।एक नाम के रूप में यह बाइबिल की कई हिब्रू किताबों में होता है और उसके बाद यूनानी अक्षरों (σαταν), शैतान में लिप्यंतरित किया जाता है, और इसके बाद 40 ई०सन् और 90 ईस्वी के बीच लिखे गए नए नियम के लेखन में वर्णनात्मक नाम के रूप में उपयोग किया जाता है।
"वेदों की शब्दावली और देव सूची के बहुतायत अँश सुमेरियन और बाबुली संस्कृति के रूपों की साम्य रखता है ।
विष्णु का सुमेरियन संस्कृति में वर्णन-82 Number. ( INDO-SUMERIAN SEALS DECIPHERED) भारतीय तथा सुमेरियन सील ( उत्कीर्ण )तथ्यों पर.. अर्थ-वत्ता पूर्ण विश्लेषण)
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डैगन ( फोनीशियन भाषा में तो दागुन ; हिब्रू : भाषा में और डेओजोगोन , तिब्बती भाषा में दागान रूपान्तरण है वस्तुत यह एक मेसोपोटामियन (सुमेरियन) और प्राचीन कनानी देवता है।
ऐसा लगता है कि इसे एब्ला , अश्शूर (असुर), उगारिट और एमोरियों जन-जातियों में एक प्रजनन देवता के रूप में मान्यता दी गई ।
दागोन का प्रारम्भिक क्षेत्र प्राचीन मेसोपोटामिया और प्राचीन कनान देश ही है ।
इसकी माता शाला या अशेरा और पिता "एल" के रूप में स्वीकृत किया गया हैं।
"शाला अनाज की प्राचीन सुमेरियन देवी और करुण- भावना की प्रतिमूर्ति थी।
अनाज और करुणा के प्रतीकों ने सुमेर की पौराणिक कथाओं में कृषि के महत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए गठबंधन किया है, ।
और यह विश्वास है कि एक प्रचुर मात्रा में फसल देवताओं की करुणा का ही कार्य था। कुछ
परम्पराऐं शाला को प्रजनन देवता और दागोन (विक्सनु )की पत्नी के रूप में पहचानती हैं!
या तूफान देवता हदाद के पत्नी को इश्तर भी कहा जाता है।
प्राचीन चित्रणों में, वह शेर के सिर से सजाए गए डबल-हेड मैस या स्किमिटार रखती है।
कभी-कभी उसे एक या दो शेरों के ऊपर पैदा होने के रूप में चित्रित किया जाता है।
बहुत शुरुआती समय से, वह नक्षत्र कन्या से जुड़ी हुई है और उसके साथ जुड़े प्रतीकवाद के निवासी, वर्तमान समय के लिए नक्षत्र के प्रतिनिधित्व में बने रहे हैं।
जैसे अनाज के कान, भले ही देवता का नाम संस्कृति से संस्कृति में बदल गया हो।
भारतीय पुराणों में श्री कृषि की अधिष्ठात्री देवी और विष्णु की पत्नी के रूप में वर्णित है ।
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शिल्--क = शिला ।
गृहीतशस्यात् क्षेत्रात्कणशोमञ्जर्य्या दानरूपायां ।
१ वृत्तौ उञ्छशब्दे १०७० पृष्ठ दृश्यम् ।
२ पाषाणे
३ द्वाराधःस्थितकाष्ठखण्डे च (गोवराट) स्त्री अमरः ।
४ स्तम्भशीर्षे
५ मनःशिलायां स्त्री मेदि० ६ कर्पूरे राजनि० ।
अर्थात् शिला का अर्थ अन्न जो खेतों में से बीना जाता है
वीनस पर एक पर्वत शाला मॉन्स का नाम उसके नाम पर रखा गया है।
जो कि वैदिक शब्द अरि-(ईश्वर) तथा स्त्री के प्रतिरूप हैं यद्यपि स्त्री ही कालान्ततरण में श्री के रूप में उचित हुआ ।
जिसे ईष्टर भी कहा गया ।
अथिरत (सम्भवतः) हिब्रू बाइबल में उन्हें अश्दोद और गाजा में कहीं और मंदिरों के साथ पलिश्तियों फलिस्तीनियों के राष्ट्रीय देवता के रूप में उल्लेख किया गया है।
श्री' स्त्री या अशेरा प्रजनन , कृषि प्रेम आदि की अधिष्ठात्री देवी हैं ।
और अरि लौकिक संस्कृतियों में एल हो गया ।
"मछली" के लिए एक कनानी शब्द के साथ एक लंबे समय से चलने वाला संगठन (जैसा कि हिब्रू में : दाग , तिब्ब । / Dɔːg / ), शायद लौह युग में वापस जा रहा है, ने "मछली-देवता" के रूप में एक व्याख्या की है, और अश्शूर कला में " मर्मन- (मत्स्य मानव) के " प्रारूपों का सहयोग (जैसे 1840 के दशक में ऑस्टेन हेनरी लेर्ड द्वारा पाया गया "डैगन" शब्द में
यद्यपि, भगवान का नाम "अनाज (सेरियस)" के लिए एक शब्द से अधिक सम्भवतः प्राप्त हुआ था, जिसमें यह सुझाव दिया गया था कि वह प्रजनन और कृषि से जुड़ा हुआ था।
इसी प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन (पिस्क-नु) के बराबर माना जाता है, और " जल के बड़ी मछली (-गोड) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा।
और ऐसा प्रतीत होता है कि "शुरुआती अवतार" के लिए विष्णु के इस शुरुआती "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी सूर्य-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है। ।
वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल रूप पीश या पीस अभी भी संस्कृत में पिसीर "(मछली) के रूप में जीवित है। "यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है !
इस संकेत को" वृद्धि हुई मछली "(कुआ-गनु, अर्थात, खाद-गानू, बी, 6925) कहा जाता है, जिसमें उल्लेखनीय रूप से सुमेरियन व्याकरणिक शब्द बंदू जिसका अर्थ है "वृद्धि" जैसा कि संयुक्त संकेतों पर लागू होता है, संस्कृत व्याकरणिक शब्द गत के साथ समान रूप से होता है।
विसारः, पुं० रूप (विशेषेण सरतीति विसार। सृ गतौ + “व्याधिमत्स्यबलेष्विति वक्तव्यम् ” ३ । ३ । १७ ।
इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् ) मत्स्यः (मछली)।
इति अमर कोश ॥
विसार शब्द ऋग्वेद में आया है ।
जो मत्स्य का वाचक है ।👇
ऋग्वेदे । १ । ७९ । १ । “हिरण्यकेशो रजसो
विसारेऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥
“रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥)
अमरकोशः में विसार का उल्लेख है ।
विसार पुं० ( मत्स्यः )
समानार्थक:पृथुरोमन्,झष,मत्स्य,मीन,वैसारिण,
अण्डज,विसार,शकुली,अनिमिष
1।10।17।2।1
पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः।
विसारः शकुली चाथ गडकः शकुलार्भकः॥
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क्यों कि रोमन संस्कृति में श्री (सिरी) कृषि अनाज और प्यार की रोमन देवी थी!
जैसे एक मां अपने बच्चे के लिए सहन करती है 'बर कष्ट वैसे ही यह देवी है।
वह शनि (क्रोनॉस) और ओपीएस की बेटी थी,
बृहस्पति की बहन,
और Proserpine की मां। ...
वह मानव जाति की अपनी सेवा के लिए उन्हें फसल का उपहार देने में प्रिय थीं,
श्रीः, स्त्री, (श्रयतीति । श्रि + “क्विप्वचिप्रच्छीति " उणादि सूत्र २ । ५७ । इति क्विप् दीर्घश्च )
लक्ष्मीः (यथा, विष्णुपुराणे । १ । ८ । १३ ।
“श्रियञ्च देव देवस्य पत्नी नारायणस्य च या
देवता डेगन पहले मारी ग्रंथों में और व्यक्तिगत अमोरेत नामों में 2500 ईसा पूर्व के मौजूदा रिकॉर्ड में प्रकट होता है ।
जिसमें मेसोपोटामियन देवताओं इलु ( Ēl ), दगन और अदद विशेष रूप से आम हैं।
कम से कम 2300 ईसा पूर्व से एब्ला (मार्डिक को बताएें जो बाद में मोलोक या मालिक हुआ ।
भारतीयों में ये मृडीक है ) 🐩में, डगन शहर के देवता के प्रमुख थे, जिनमें 200 देवताओं शामिल थे और बीई - डिंगिर - डिंगिर , "देवताओं के भगवान" और बेकलम , "भूमि के भगवान" ।
उनकी पत्नी को केवल बेलातु, "लेडी" के नाम से जाना जाता था। ईमुल नामक एक बड़े मंदिर परिसर में दोनों की पूजा की गई, "हाउस ऑफ द स्टार"।
इब्ला की एक पूरी तिमाही और उसके द्वारों में से एक का नाम दगन के नाम पर रखा गया था। दगन को टीलू माटाइम , "भूमि का ओस" और बीकानाना , संभवतः " कनान के भगवान" कहा जाता है।
उन्हें कई शहरों के स्वामी कहा जाता था: तुट्टुल , इरिम, मा-ने, ज़राद, उगाश, सिवाद और सिपिशु के। डगन का कभी-कभी सुमेरियन ग्रंथों में उल्लेख किया जाता है लेकिन बाद में असीरो-बेबीलोनियन शिलालेखों में एक शक्तिशाली और युद्ध के संरक्षक के रूप में प्रमुख बन जाता है।
कभी-कभी एनिल के साथ समान होता है।
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डगन की पत्नी कुछ स्रोतों में देवी शाला (जिसे अदद की पत्नी भी कहा जाता था और कभी-कभी निनिल के साथ पहचाना जाता था )।
अन्य ग्रन्थों में, उनकी पत्नी अशेरा है ।
अपने प्रसिद्ध कानून संहिता के प्रस्ताव में, राजा हम्मुराबी ने खुद को "अपने निर्माता" दगान की मदद से फरात के साथ बस्तियों का उपद्रव कहा।
सीडर माउंटेन से नारम-पाप के अभियान के बारे में एक शिलालेख ( एएनईटी , पृष्ठ 268) से संबंधित है: " नारम-पाप ने अरमान और इब्ला को देवता के 'हथियार' के साथ मार डाला जो अपने राज्य को बढ़ाता है।
" 18 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , मारी की अदालत में एक अधिकारी और नहर (बाइबिल शहर नाहोर) ( एएनईटी , पी) के एक अधिकारी ने इटुर-असडू द्वारा लिखित, 18 वीं शताब्दी ईसा पूर्व , मारि के राजा जिमरी -लिम को लिखे एक पत्र में एक दिलचस्प प्रारंभिक सन्दर्भ दिया।
यह "शाका से आदमी" का सपना बताता है जिसमें डैगन दिखाई देता था। सपने में, डैगन ने ज़िमरी-लिम की यमीनाइट्स के राजा को त्यागने में विफलता पर ज़िमरी-लिम की विफलता पर टेकका में दगान को अपने कर्मों की एक रिपोर्ट लाने में विफलता पर दोष डाला । डैगन ने वादा किया कि जब ज़िमरी-लिम ने ऐसा किया है: "मेरे पास मछुआरे के थूक पर यमीनाइट्स [कोओ] के राजा होंगे, और मैं उन्हें आपके सामने रखूंगा।
" 1300 ईसा पूर्व के आसपास उगारिट में , डैगन के पास एक बड़ा मंदिर था और पिता-देवता और Ēl के बाद, और बाईल इपान (वह भगवान हैडु या हदाद / अदद) के बाद पैंथन में तीसरा स्थान मिला था।
यूसुफ फोंटेनेरोस ने पहली बार दिखाया कि, जो भी उनकी गहरी उत्पत्ति, यूगारिट डैगन में कभी-कभी एल के साथ पहचाना गया था, यह बताते हुए कि क्यों डगन , जो उगारिट में एक महत्वपूर्ण मंदिर था, रास शामरा पौराणिक ग्रंथों में इतनी उपेक्षित है, जहां डैगन का पूरी तरह से उल्लेख किया गया है भगवान हदाद (बाल) के पिता के रूप में गुजरते हुए, लेकिन एला , एल की बेटी, बाल की बहन है।
और क्यों यूगारिट में एल का कोई मंदिर नहीं दिखाई दिया। यह संदेह है कि डैगन "एल और अथिरत के सत्तर पुत्र" में से एक था ।
जिसने बाद में हदाद (बाल) को निकाल दिया जो आखिरकार एल की परिषद के दूसरे चरण में खुद को मजबूर करने का प्रयास करेगा (हालांकि वह अन्ततः असफल हो जाएगा इस प्रयास में) कभी-कभी मेसोपोटामियन शाही नामों में डेगन का इस्तेमाल किया जाता था। इसिन के पूर्व-बेबीलोनियन राजवंश के दो राजा इददीन-दगन (सी। 1 974-1954 ईसा पूर्व ) और इश्मे-दगन (सी। 1 9 53-19 35 ईसा पूर्व ) थे। उत्तरार्द्ध का नाम बाद में दो अश्शूर राजाओं द्वारा उपयोग किया गया: इश्मे-दगन
आई (सी। 1782-1742 ईसा पूर्व ) और इश्मे-डगन II (सी। 1610-1594 ईसा पूर्व )।
लौह युग की विचारों का प्रकाशन-
9 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के अश्शूर सम्राट अशरसाइरपाल द्वितीय ( एएनईटी , पृष्ठ 558) का स्टीर अशरसिरपाल को अनु और दगन के पसंदीदा के रूप में संदर्भित करता है।
एक अश्शूर कविता में, डगन मृतकों के न्यायाधीश के रूप में नर्गल और मिशारू के बगल में दिखाई देते हैं।
देर से बेबीलोनियन पाठ उन्हें ईश्वर के भगवान के सात बच्चों के अंडरवर्ल्ड जेल वार्डर बनाता है।
सीदोन (5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के राजा एश्मुनजार के कर्कश पर फोनीशियन शिलालेख
(एएनईटी, पृष्ठ 662) से संबंधित है: "इसके अलावा, राजाओं के भगवान ने हमें दागोन की शक्तिशाली भूमि डोर और जोपा दिया, जो कि मैदान के मैदान में हैं शेरोन , मैंने किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के अनुसार। " संचुनीथोन ने स्काई यूरेनस (वरुण) और पृथ्वी के दोनों पुत्र क्रोनस के भाई दागोन को बताया, लेकिन वास्तव में हदाद के पिता नहीं थे। स्काई को अपने बेटे castl द्वारा डाला जाने से पहले हदद (डेमारस) एक उपनगरीय पर "स्काई" द्वारा पैदा हुआ था, जहां गर्भवती उपनगरीय दागोन को दिया गया था।
तदनुसार, इस संस्करण में डैगन हदाद के आधे भाई और सौतेले पिता हैं।
बीजान्टिन एटिमोलॉजिक मैगनम ने डैगन को फोएनशियन क्रोनस के रूप में सूचीबद्ध किया है। हिब्रू बाइबिल में देगॉन ।
17 9 3 में फिलिप जेम्स डी लॉउथबर्ग द्वारा डैगन के विनाश का चित्रण।
हिब्रू बाइबिल में , दागोन विशेष रूप से पलिश्तियों का देवता आशेर ( यहोशू 1 9 .27) के गोत्र में बेथ-दगोन में मंदिरों के साथ गाजा ( न्यायाधीश 16.23) में मंदिरों के साथ है, जो जल्द ही सैमसन द्वारा अपने अंतिम कार्य के रूप में मंदिर को नष्ट करने के बाद बताता है )। अश्दोद में स्थित एक और मंदिर,
1 शमूएल 5: 2-7 में और फिर 1 मैकबीबी के रूप में देर से 10.83; 11.4 में उल्लेख किया गया था।
राजा शाऊल का सिर डैगन के एक मंदिर में प्रदर्शित किया गया था।
यहूदा में बेथ-दगोन के नाम से जाना जाने वाला दूसरा स्थान भी था (यहोशू 15.41)। पहली शताब्दी के यहूदी इतिहासकार जोसेफस ने जेरिको के ऊपर डैगन नामक एक जगह का उल्लेख किया ।
जेरोम ने डायस्पोलिस और जामिया के बीच कैफेडोगो का उल्लेख किया।
नब्बलस के दक्षिण-पूर्व में एक आधुनिक बीट देजन भी है। इनमें से कुछ उपनिवेशवादियों को भगवान के बजाय अनाज के साथ करना पड़ सकता है।
1 शमूएल 5.2-7 में यह लेख बताता है कि कैसे पलिश्तियों ने वाचा का सन्दूक पकड़ा और अश्दोद में दागोन के मंदिर में ले जाया गया।
अगली सुबह अश्दोदी लोगों ने सन्दूक के सामने प्रोस्टेट झूठ बोलते हुए डैगन की छवि पाई।
उन्होंने छवि को सीधे सेट किया, लेकिन फिर अगले दिन की सुबह उन्हें पता चला कि यह जहाज के सामने सजग हो गया है, लेकिन इस बार सिर और हाथों से कटा हुआ, मिप्टन पर झूठ बोलने पर "थ्रेसहोल्ड" या "पोडियम" के रूप में अनुवाद किया गया।
खाता गूढ़ शब्द राक दागोन निसार 'अलायव के साथ जारी है, जिसका अर्थ है शाब्दिक रूप से "केवल डैगन उसे छोड़ दिया गया था।" ( सेप्टुआजिंट , पेशीता , और तर्गम "डैगन" या "डैगन का शरीर" के रूप में "डैगन" प्रस्तुत करते हैं, संभवतः उनकी छवि के निचले भाग का जिक्र करते हैं।) इसके बाद हमें बताया जाता है कि न तो याजक और न ही किसी ने कभी अश्दोद में दागोन के मिप्टन पर "आज तक" कदम उठाए। "हमारे पास सफन्या 1:9 में रीति-रिवाज की स्थायीता के उल्लेखनीय सबूत हैं, जहां पलिश्तियों को 'थ्रेसहोल्ड' पर छलांग लगाने वाले, या अधिक सही तरीके से वर्णित किया गया है।
इस कहानी को दुरा-यूरोपोस सभास्थल के भित्तिचित्रों पर चित्रित किया गया है जो कि महायाजक हारून और सुलैमान मंदिर के चित्रण के विपरीत है। मार्नस संपादित करें गाजा के पोर्फीरी का विटा , गाजा के महान देवता का उल्लेख करता है, जिसे मारनास ( अरामाईक मार्न "भगवान") कहा जाता है, जिसे बारिश और अनाज के देवता के रूप में माना जाता था और अकाल के खिलाफ बुलाया जाता था।
गाजा का मार्न हैड्रियन के समय के सिक्का पर दिखाई देता है।
उन्हें गाजा में क्रेटन ज़ियस, ज़ियस क्रेटगेजेन्स के साथ पहचाना गया था। ऐसा लगता है कि मार्नस डैगन की हेलेनिस्टिक अभिव्यक्ति थी। उनके मंदिर, मार्नियन - मूर्तिपूजा के आखिरी जीवित महान पंथ केंद्र- रोमन सम्राट के आदेश के अनुसार रोमन सम्राट के आदेश के अनुसार 402 में स्वर्गीय रोमन साम्राज्य में उत्पीड़न के दौरान जला दिया गया था। अभयारण्य के फ़र्श-पत्थरों पर चलने से मना कर दिया गया था। बाद में ईसाईयों ने सार्वजनिक बाजार को रोकने के लिए इनका उपयोग किया। मछली-देवता परंपरा संपादित करें खोराबाद से "ओन्स" राहत "मछली" व्युत्पत्ति 1 9वीं और 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में छात्रवृत्ति स्वीकार की गई थी। इसने अश्शूर और फोएनशियन कला (जैसे जूलियस वेल्हौसेन , विलियम रॉबर्टसन स्मिथ ) में " मर्मन " प्रारूप के साथ सहयोग किया,
और बेरॉसस (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा वर्णित बेबीलोनियन ओन्स (Ὡάννης) के चित्र के साथ। "मछली" व्युत्पत्ति पर संदेह डालने वाला पहला श्मोकेल (1 9 28) था, जिसने सुझाव दिया कि जबकि डेगन मूल रूप से "मछली देवता" नहीं था, समुद्री कनानियों ( फोएनशियन ) के बीच "मछली" के साथ सहयोग से प्रभावित होगा ।
भगवान की iconography।
Fontenrose (1 9 57: 278) अभी भी सुझाव देता है कि बेरॉसोस ओडाकॉन , भाग आदमी और भाग मछली, शायद डेगन का एक गड़बड़ संस्करण था। डैगन को ओन्स के साथ भी समझा गया था। दाग / दाग मछली के साथ संबंध 11 वीं शताब्दी के यहूदी बाइबिल कमेंटेटर राशी द्वारा किया जाता है ।
13 वीं शताब्दी में, डेविड किम्ही ने 1 शमूएल 5.2-7 में अजीब वाक्य की व्याख्या की कि "केवल डैगन को छोड़ दिया गया था" जिसका अर्थ है "केवल मछली का रूप ही छोड़ा गया था", और कहा:
"ऐसा कहा जाता है कि डैगन , उसकी नाभि से नीचे, एक मछली (जहां उसका नाम, दागोन) था, और उसकी नाभि से, एक आदमी के रूप में, जैसा कि कहा जाता है, उसके दो हाथों काट दिया गया था। " 1 शमूएल 5.2-7 का सेप्टुआजिंट टेक्स्ट कहता है कि दागोन की छवि के हाथ और सिर दोनों टूट गए थे। लोकप्रिय संस्कृति मे लोकप्रिय संस्कृति में डैगन सेमिटिक देवता डैगन लोकप्रिय संस्कृति के कई कार्यों में दिखाई दिया है। उल्लेखनीय उदाहरणों में जॉन मिल्टन की महाकाव्य कविताओं सैमसन एगोनिस्ट्स और पैराडाइज लॉस्ट , डैगन और द शैडो ओवर इनसमाउथ द्वारा एचपी लवक्राफ्ट , फ्रेड चैपल द्वारा डैगन , जॉर्ज एलियट द्वारा मिडिलमार्क और किंग ऑफ किंग्स: मालाची मार्टिन द्वारा डेविड ऑफ़ द डेविड का एक उपन्यास शामिल है ।।
यह भी देखें देखें लोकप्रिय संस्कृति में डैगन मेरिद नोट्स संपादित करें ^ सुमेरियन साहित्य का इलेक्ट्रॉनिक टेक्स्ट कॉर्पस ^ न्यायाधीशों पर कॉलेजों और कॉलेजों के लिए कैम्ब्रिज बाइबिल 16:23। ^ जोसेफ Fontenrose, "डैगन और एल" ओरिएंन्स 10 .2 (दिसंबर 1 9 57), पीपी 277-279। ^ Fontenrose 1 9 57: 277। ^ ( 1 इतिहास 10: 8-10 ) ^ प्राचीन काल 12.8.1; युद्ध 1.2.3 ^ 1 सैमुअल 5 पर पुल्पिट कमेंटरी , 24 अप्रैल 2017 को एक्सेस किया गया। ^ आरए स्टीवर्ट मैकलिस्टर, द पलिश्ती (लंदन) 1 9 14, पी। 112 (भ्रम।)। ^ एच। श्मोक्सेल, डेर गॉट डगन (बोर्न-लीपजिग) 1 9 28। ^ 1 शमूएल 5: 2 पर राशी की टिप्पणी ^ श्मोक्ल 1 9 28 द्वारा नोटिस, फॉन्टेनरोस 1 9 57: 278 में उल्लेख किया गया। संदर्भ संपादित करें एएनईटी = प्राचीन निकट पूर्वी ग्रंथों , तीसरे संस्करण। पूरक के साथ (1 9 6 9)। प्रिंसटन: प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 0-691-03503-2 । सौवे, सी, डैगन , द कैथोलिक एनसाइक्लोपीडिया (1 9 08) एटाना में "डैगन" : एनसाइक्लोपीडिया बाइबिलिका वॉल्यूम आईए-डी: दबरह-डेविड (पीडीएफ)। फेलियू, लुइइस (2003)। कांस्य युग सीरिया , ट्रांस में भगवान डगन । विल्फ्रेड जीई वाटसन। लीडेन: ब्रिल अकादमिक प्रकाशक। आईएसबीएन 90-04-13158-2 । फ्लेमिंग, डी। (1 99 3)। "प्राचीन सीरिया में बाल और डगन ", Zeitschrift फर Assyriologie und Vorderasiatische Archäologie 83, पीपी 88-98। मैथिया, पाओलो (1 9 77)। एब्ला: एक साम्राज्य फिर से खोजा गया। लंदन: होडर एंड स्टौटन। आईएसबीएन 0-340-22974-8 । पेटीनाटो, जियोवानी (1 9 81)। एब्ला के अभिलेखागार। न्यूयॉर्क: दोबारा। आईएसबीएन 0-385-13152-6 । गायक, आई। (1 99 2)। "पलिश्तियों के देवता दगान की एक छवि के लिए।" सीरिया 69: 431-450। इस आलेख में अब सार्वजनिक डोमेन में प्रकाशन से टेक्स्ट शामिल है: चिश्ल्म, ह्यूग, एड। (1911)। " डेगन "। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका । 7 (11 वां संस्करण)। कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस। बाहरी लिंक संपादित करें विकिमीडिया कॉमन्स में डेगन से संबंधित मीडिया है। ब्रिटानिका ऑनलाइन विश्वकोष प्राचीन मेसोपोटामियन देवताओं और देवियों यहूदी विश्वकोष: डैगन
1531 (ईसा पूर्व लघु कालक्रम)में शहर के हिताइट शेख के बाद उन्होंने बेबीलोनिया पर नियंत्रण प्राप्त किया , और पहले बाबुल में और बाद में (दुर-कुरिगालज़ू) में वंश की स्थापना की ।
कस्साई एक छोटे सैन्य अभिजात वर्ग के सदस्य थे, लेकिन कुशल शासक और स्थानीय रूप से लोकप्रिय थे,
और उनके ५०० साल के शासनकाल ने बाद के बेबीलोनियन संस्कृति के विकास के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया।
ये (Kassites) लोग रथ और घोड़े पूजा की जाती है, पहले इस समय बेबिलोनिया में प्रयोग में आया।
(Kassite) भाषा है जिसे वर्गीकृत नहीं किया गया । परन्तु ये शोध कार्य अपेक्षित है । उनकी भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा समूह से संबंधित थी , जिसका परिवर्तित ही सेमिटिक या अन्य एफ्रो-एशियाटिक भाषाओं हैं ।
हालांकि कुछ भाषाविदों ने एक लिंक का प्रस्ताव दिया है एशिया माइनर की हुरो-उरार्टियन भाषाओं में कुछ आंकड़ों के अनुसार, कसाई लोग हुरियन जनजाति थे।
हालांकि, कसाईयों का आगमन भारत-यूरोपीय लोगों के समकालीन ही है जब यूरोपीय से जुड़ा हुआ है।
कई कस्सी नेता और देवता इंडो-यूरोपीय नामों से ऊबते हैं, और यह संभव है कि वे एक इंडो- मितानी के समान यूरोपीय अभिजात वर्ग , जिसने एशिया माइनर के हुरो-उरर्तियन बोलने वाले हुरियानों (-सुर-सर्व) पर शासन किया से सम्बद्ध
इतिहास-
स्वर्गीय कांस्य युग
मूल-
Kassites की मूल मातृभूमि अच्छी तरह से स्थापित नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि यह अब ईरान के लोरेस्टन प्रांत के ज़ाग्रोस पर्वत में स्थित है । हालांकि, Kassites थे की तरह Elamites , Gutians और Manneans जो उन्हें-भाषायी पहले असंबंधित को ईरानी -speaking लोगों को जो एक सहस्राब्दी बाद में क्षेत्र पर हावी के लिए आया था। [१३] [१४] वे पहली बार इतिहास के इतिहास में १] वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिए, जब उन्होंने सामसु-इलूना के शासनकाल के ९ वें वर्ष में बेबीलोनिया पर आक्रमण किया (१–४ ९ -१ BC१२ ईसा पूर्व)हम्बुराबी ।
के प्रमाण वर्तमान ग्रंथों की कमी के कारण अल्प हैं।
एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार :
(Kassite Gods-
कई कासाइट देवों के नाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं में हैं ।
कुछ नामों को संस्कृत में देवताओं के नामों के साथ
निकट से पहचाना जा सकता है , विशेष रूप से Kassite Suriash (संस्कृत सूर्यास:); मरुतास: (संस्कृत, )
द मार्ट्स); और संभवतः शिमालिया
(भारत में हिमालय पर्वत)।
Kassite तूफान देवता Buriash (Uburiash,
या Burariash) के साथ पहचान की गई है ।
ग्रीक भगवान बोरेअस, उत्तरी हवा के भगवान।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार ,
ईश्वर के कुछ 30 नाम ज्ञात हैं, ।
इनमें से अधिकांश शब्द 14 वीं और 13 वीं शताब्दी
ईसा पूर्व के मेसोपोटामियन ग्रंथों में पाए जाते हैं।
बुगाश-(भग ), संभवतः एक देवता
का नाम, यह भी एक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
Buriash, Ubriash, या Burariash,
एक तूफान देवता, (= ग्रीक बोरेअस)
Duniash, एक देवता
Gidar, बेबीलोन अदार करने के लिए इसी
हाला, एक देवी, अदार / Nusku की पत्नी शाला देख
Harbe, सब देवताओं का मंदिर के स्वामी, एक पक्षी
का प्रतीक , बेल, एनिल्ल या अनु हरदाश से संबंधित
, संभवतः एक भगवान।______________________________________
हुडा का नाम , जो बेबीलोन के वायुदेव
इंद्रेश का नाम है।
संभवतः संस्कृत इंद्रास:
कमुल्ला का, जो बेबीलोनियन
ईश्वर काशू का नाम है, (कासु) एक देवता, जिसका नाम
पूर्वजन्म है। कसाई राजाओं का।
Maruttash, या Muruttash, (संभवत: वैदिक मरुतास:
Maruts , एक बहुवचन रूप के समान)
Miriash, एक देवी (पृथ्वी की?), शायद अगले एक
Mirizir, एक देवी, Belet के समान, बेबीलोनियन देवी
बेल्टिस, अर्थात ईशर = शुक्र ग्रह; 8 नुकीले स्टार।
ननई, या नन्ना, संभवतः एक बेबीलोनियन नाम, देवी इश्तार
(वीनस स्टार) के साथ एक शिकारी के रूप में, एक सिंहासन पर एक महिला के रूप में कुदुरुस के रूप में दिखाई दिया।
शाह, एक सूर्य देवता, बेबीलोनियन शमाश के लिए,
और संभवतः संस्कृत साही के लिए।
शाला, एक देवी, जो जौ के डंठल के प्रतीक हैं, जिसे हल
शिहू भी कहा जाता है।
,मर्दुक शिमलिया के नामों में से एक
,पहाड़ों की देवी, हिमालय का एक रूप,
सेमल, शुमलिया शिपक, एक चाँद भगवान
शुगाब, अंडरवर्ल्ड के
देवता, बेबीलोनियन नैगर्ल शुगुर के लिए,।
बाबुलोन मर्दुक शुमालिया के लिए, पर्च पर एक पक्षी
का प्रतीक देवी, देखें। राजाओं
शुक्मुना के निवेश से जुड़े दो देवता , एक देवता ,
जो एक पक्षी का प्रतीक है , जो एक राजा थे,
जो कि दो राजाओं के निवेश से जुड़े थे, जो कि
बाबुलियन शमश के समान थे, और संभवतः
वैदिक यज्ञ के लिए, एक सूर्य देव भी थे,
लेकिन यह हो सकता है स्टार सिरिअस होना चाहिए,
जो एक प्रतीक के रूप में एक तीर है, जो एक देवता
तुर्गु है
ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास में इल्या गेर्शेविच ने तर्क दिया है
कि कई नामों में 'अंत' (-) की राख का अर्थ 'पृथ्वी' है,
हालांकि यह बहुत ही सामान्य नाममात्र की विलक्षण है
जो कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं में देखी गई है: PIE -os> संस्कृत-ए, एवेस्टन-ए, ग्रीक -ओस, लैटिन -सु, जर्मनिक -s, स्लाविक--, बाल्टिक -स।
यह आमतौर पर एक मर्दाना अंत के रूप में समझा जाता है, हालांकि यह लैटिन देवी वीनस और पैक्स के नाम पर होता है। इसके अलावा, यह बहुत कम संभावना है
कि 'पृथ्वी' शब्द का अर्थ बुरीश, स्टॉर्म गॉड, या शुरीश, एक सूर्य देवता के नामों का एक घटक होगा।
वर्तमान तर्क यह है कि कसाईयों की वास्तविक भाषा एक इंडो-यूरोपियन भाषा नहीं थी,
हालाँकि उनके देवताओं के नामों पर आधारित थी,
यह कुछ हद तक असंभव है।
प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व हेय रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी।।।।।भारोपीय भाषा परिवारों के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिक यह अवधारणा अभिव्यक्त करते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भी ये भाषाएँ दो उपभाषाओं अथवा वि भाषाओं में विभाजित थी इसी कारण इन भाषाओं से नि:सृत भाषाओं में ध्वनियों के भेद दिखाई देते हैं ।
1531 (ईसा पूर्व लघु कालक्रम)में शहर के हिताइट शेख के बाद उन्होंने बेबीलोनिया पर नियंत्रण प्राप्त किया , और पहले बाबुल में और बाद में (दुर-कुरिगालज़ू) में वंश की स्थापना की ।
कस्साई एक छोटे सैन्य अभिजात वर्ग के सदस्य थे, लेकिन कुशल शासक और स्थानीय रूप से लोकप्रिय थे,
और उनके ५०० साल के शासनकाल ने बाद के बेबीलोनियन संस्कृति के विकास के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया।
ये (Kassites) लोग रथ और घोड़े पूजा की जाती है, पहले इस समय बेबिलोनिया में प्रयोग में आया।
(Kassite) भाषा है जिसे वर्गीकृत नहीं किया गया । परन्तु ये शोध कार्य अपेक्षित है । उनकी भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा समूह से संबंधित थी , जिसका परिवर्तित ही सेमिटिक या अन्य एफ्रो-एशियाटिक भाषाओं हैं ।
हालांकि कुछ भाषाविदों ने एक लिंक का प्रस्ताव दिया है एशिया माइनर की हुरो-उरार्टियन भाषाओं में कुछ आंकड़ों के अनुसार, कसाई लोग हुरियन जनजाति थे।
हालांकि, कसाईयों का आगमन भारत-यूरोपीय लोगों के समकालीन ही है जब यूरोपीय से जुड़ा हुआ है।
कई कस्सी नेता और देवता इंडो-यूरोपीय नामों से ऊबते हैं, और यह संभव है कि वे एक इंडो- मितानी के समान यूरोपीय अभिजात वर्ग , जिसने एशिया माइनर के हुरो-उरर्तियन बोलने वाले हुरियानों (-सुर-सर्व) पर शासन किया से सम्बद्ध
इतिहास-
स्वर्गीय कांस्य युग
मूल-
Kassites की मूल मातृभूमि अच्छी तरह से स्थापित नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि यह अब ईरान के लोरेस्टन प्रांत के ज़ाग्रोस पर्वत में स्थित है । हालांकि, Kassites थे की तरह Elamites , Gutians और Manneans जो उन्हें-भाषायी पहले असंबंधित को ईरानी -speaking लोगों को जो एक सहस्राब्दी बाद में क्षेत्र पर हावी के लिए आया था। [१३] [१४] वे पहली बार इतिहास के इतिहास में १] वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिए, जब उन्होंने सामसु-इलूना के शासनकाल के ९ वें वर्ष में बेबीलोनिया पर आक्रमण किया (१–४ ९ -१ BC१२ ईसा पूर्व)हम्बुराबी ।
के प्रमाण वर्तमान ग्रंथों की कमी के कारण अल्प हैं।
एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार :
(Kassite Gods-
कई कासाइट देवों के नाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं में हैं ।
कुछ नामों को संस्कृत में देवताओं के नामों के साथ
निकट से पहचाना जा सकता है , विशेष रूप से Kassite Suriash (संस्कृत सूर्यास:); मरुतास: (संस्कृत, )
द मार्ट्स); और संभवतः शिमालिया
(भारत में हिमालय पर्वत)।
Kassite तूफान देवता Buriash (Uburiash,
या Burariash) के साथ पहचान की गई है ।
ग्रीक भगवान बोरेअस, उत्तरी हवा के भगवान।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार ,
ईश्वर के कुछ 30 नाम ज्ञात हैं, ।
इनमें से अधिकांश शब्द 14 वीं और 13 वीं शताब्दी
ईसा पूर्व के मेसोपोटामियन ग्रंथों में पाए जाते हैं।
बुगाश-(भग ), संभवतः एक देवता
का नाम, यह भी एक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
Buriash, Ubriash, या Burariash,
एक तूफान देवता, (= ग्रीक बोरेअस)
Duniash, एक देवता
Gidar, बेबीलोन अदार करने के लिए इसी
हाला, एक देवी, अदार / Nusku की पत्नी शाला देख
Harbe, सब देवताओं का मंदिर के स्वामी, एक पक्षी
का प्रतीक , बेल, एनिल्ल या अनु हरदाश से संबंधित
, संभवतः एक भगवान।______________________________________
हुडा का नाम , जो बेबीलोन के वायुदेव
इंद्रेश का नाम है।
संभवतः संस्कृत इंद्रास:
कमुल्ला का, जो बेबीलोनियन
ईश्वर काशू का नाम है, (कासु) एक देवता, जिसका नाम
पूर्वजन्म है। कसाई राजाओं का।
Maruttash, या Muruttash, (संभवत: वैदिक मरुतास:
Maruts , एक बहुवचन रूप के समान)
Miriash, एक देवी (पृथ्वी की?), शायद अगले एक
Mirizir, एक देवी, Belet के समान, बेबीलोनियन देवी
बेल्टिस, अर्थात ईशर = शुक्र ग्रह; 8 नुकीले स्टार।
ननई, या नन्ना, संभवतः एक बेबीलोनियन नाम, देवी इश्तार
(वीनस स्टार) के साथ एक शिकारी के रूप में, एक सिंहासन पर एक महिला के रूप में कुदुरुस के रूप में दिखाई दिया।
शाह, एक सूर्य देवता, बेबीलोनियन शमाश के लिए,
और संभवतः संस्कृत साही के लिए।
शाला, एक देवी, जो जौ के डंठल के प्रतीक हैं, जिसे हल
शिहू भी कहा जाता है।
,मर्दुक शिमलिया के नामों में से एक
,पहाड़ों की देवी, हिमालय का एक रूप,
सेमल, शुमलिया शिपक, एक चाँद भगवान
शुगाब, अंडरवर्ल्ड के
देवता, बेबीलोनियन नैगर्ल शुगुर के लिए,।
बाबुलोन मर्दुक शुमालिया के लिए, पर्च पर एक पक्षी
का प्रतीक देवी, देखें। राजाओं
शुक्मुना के निवेश से जुड़े दो देवता , एक देवता ,
जो एक पक्षी का प्रतीक है , जो एक राजा थे,
जो कि दो राजाओं के निवेश से जुड़े थे, जो कि
बाबुलियन शमश के समान थे, और संभवतः
वैदिक यज्ञ के लिए, एक सूर्य देव भी थे,
लेकिन यह हो सकता है स्टार सिरिअस होना चाहिए,
जो एक प्रतीक के रूप में एक तीर है, जो एक देवता
तुर्गु है
ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास में इल्या गेर्शेविच ने तर्क दिया है
कि कई नामों में 'अंत' (-) की राख का अर्थ 'पृथ्वी' है,
हालांकि यह बहुत ही सामान्य नाममात्र की विलक्षण है
जो कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं में देखी गई है: PIE -os> संस्कृत-ए, एवेस्टन-ए, ग्रीक -ओस, लैटिन -सु, जर्मनिक -s, स्लाविक--, बाल्टिक -स।
यह आमतौर पर एक मर्दाना अंत के रूप में समझा जाता है, हालांकि यह लैटिन देवी वीनस और पैक्स के नाम पर होता है। इसके अलावा, यह बहुत कम संभावना है
कि 'पृथ्वी' शब्द का अर्थ बुरीश, स्टॉर्म गॉड, या शुरीश, एक सूर्य देवता के नामों का एक घटक होगा।
वर्तमान तर्क यह है कि कसाईयों की वास्तविक भाषा एक इंडो-यूरोपियन भाषा नहीं थी,
हालाँकि उनके देवताओं के नामों पर आधारित थी,
यह कुछ हद तक असंभव है।
प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व हेय रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी।।।।।भारोपीय भाषा परिवारों के सम्बन्ध में भाषा वैज्ञानिक यह अवधारणा अभिव्यक्त करते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भी ये भाषाएँ दो उपभाषाओं अथवा वि भाषाओं में विभाजित थी इसी कारण इन भाषाओं से नि:सृत भाषाओं में ध्वनियों के भेद दिखाई देते हैं ।
"जैसे ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं में प्राचीन मूल भारोपीय भाषाओं के–प्राचीन चवर्ग –
(च'छ'ज'झ'ञ) ने कवर्ग- (क'ख'ग'घ'ड॒॰) का रूप ग्रहण कर लिया है । तथा
संस्कृत और ईरानी भाषाओं में वही चवर्ग घर्षक-ऊष्म–(स'श'ष'ह) उदाहरण-के लिया लैटिन में केण्टम्, अक्टो,डिक्टो, पिक्टो– रूप संस्कृत में क्रमश: शतम्'अष्टौ'दिष्ट: पिष्ट यूरोपीय मूर्धन्य ऊष्म वर्गीय मिलते हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में संस्कृत अष्ट के रूपांतरण★-
eighte, earlier ehte (c. 1200), from Old English –eahta, æhta,
from Proto Germanic *akhto .
(source also of Old Saxon -ahto,
Old Frisian -ahta,
Old Norse- atta,
Swedish -åtta,
Dutch -acht,
Old High German -Ahto,
German -acht,
Gothic -ahtau),
from PIE *okto(u) "eight"
(source also of Sanskrit- astau,
Avestan -ashta,
Greek -okto,
Latin- octo,
Old Irish- ocht-n,
Breton -eiz,
Old Church Slavonic- osmi, Lithuanian aštuoni).
From the Latin word come Italian- otto,
Spanish -ocho,
Old French-oit,
Modern French –huit
यूरोपीय दिश्-अतिसर्जनेे-
(दिशति-त्यागता है )१. भाग्य । २. उपदेश । ३. दारुहरिद्रा । ४. काल । ५.
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit dist- "
" Greek deiknynai "to show, to prove," dike "custom, usage;" Latin dicere "speak, tell, say," digitus "finger," Old High German zeigon, German zeigen "to show," Old English teon "to accuse," tæcan "to teach."
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संस्कृत द्वारा प्रदान किया गया है दृश्-दिश्–dic-"इंगित करना, दिखाएं" यूनानी(deiknynai )"साबित करने के लिए," (dike)"कस्टम, उपयोग?"
लैटिन(dicere "बोलना, बताना), (कहना),"
digitus "उंगली," पुरानी उच्च जर्मन zeigon, जर्मन zeigen "दिखाने के लिए," पुरानी अंग्रेजी teon "दोष लगाने के लिए," (tæcan)- "शिक्षा देने के लिए।"
पिजि पिञ्ज् =वर्णे- पिङ्क्ते । पिञ्जाते । पिपिञ्जे । पिञ्जरः । पिङ्गलः । पिङ्गली ।। 18 ।।
Sanskrit pimsati "to carve, hew out, cut to measure, adorn;" Greek pikros "bitter, sharp, pointed, piercing, painful," poikilos "spotted, pied, various;" Latin pingere "to embroider, tattoo, paint, picture;" Old Church Slavonic pila "file, saw," pegu "variegated," pisati "to write;" Lithuanian piela "file," piešiu, piešti "to write;" Old High German fehjan "to adorn."
शतम्-Proto-Germanic *hunda-ratha- (source also of Old Frisian hundred, Old Saxon hunderod, Old Norse hundrað, German hundert); first element is Proto-Germanic *hundam "hundred" (cognate with Gothic hund, Old High German hunt), from PIE *km-tom "hundred," reduced from *dkm-tom- (source also of Sanskrit satam, Avestan satem, Greek hekaton, Latin centum, Lithuanian šimtas, Old Church Slavonic suto, Old Irish cet, Breton kant "hundred"), suffixed form of root *dekm- "ten."
दश-१-Sanskrit dasa,२- Avestan dasa, ३-Armenian tasn,४- Greek deka, ५-Latin decem (source of Spanish diez,६- French dix),७- Old Church Slavonic deseti, ८-Lithuanian dešimt, ९-Old Irish deich, १०-Breton dek,११- Welsh deg, १२-Albanian djetu, १३-Old English ten, १४-Old High German zehan, १५-Gothic taihun "ten."
संख्या वाची शब्द भारोपीय भाषाओं में समान हैं ।
(सतम् भारोपीय भाषा वर्ग) †★
1-संस्कृत- शतम् ।
3-रूसी - स्ततो ।
4-बुल्गारियन सुतो ।
5-लिथुऑनियन-स्विजम्तास ।
6-प्राकृत-सर्द ।
7-हिन्दी-"सौ ।
8-फारसी-सद ।
†★केण्टुम् भारोपीय भाषा-वर्ग-
1-ग्रीक- Hekaton
2-लैटिन-Centum
-3-इटालियन-Cento
4-फ्रेच-cent
5-केल्टिक-caint(कैण्ट)
6-गैलिक-क्युड
7-तोखारी-कन्ध
8-गॉथिक-खुँद
इस सतम् और केण्टुम् वर्ग की विशेषता यूरोपीय भाषा वैज्ञानिक अस्कोली ने प्रस्तुत की- इसके पश्चात वान-ब्राडेक ने यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया-
इन वर्गों में प्रथम सतम् पूर्वीय तथा एशिया की भाषाओं का है ।
तथा दूसरा केण्टुम वर्ग हिट्टाइट को छोड़कर यूरोपीय भाषाओं का है ।
संस्कृत, ग्रीक, तथा लिथुआनिया की उप भाषा (Samogitian) में आज तक एकवचन- द्विवचन और बहुवचन मिलते हैं ।
Not to be confused with Samoyedic languages.-
(Samogitian: žemaitiu kalba or sometimes žemaitiu rokunda or žemaitiu ruoda; Lithuanian: žemaičių tarmė) is an Eastern Baltic variety spoken mostly in Samogitia (in the western part of Lithuania)
It is sometimes treated as a dialect[3] of Lithuanian, but is considered a separate language by some linguists outside Lithuania.
Its recognition as a distinct language is increasing in recent years,[4] and attempts have been made to standardize it.[5]
Samogitian language
žemaitiu kalba
(Native to Lithuania)
Region -Samogitia
Native speakers < 500,000 (2009) Recently-
(Language family Indo-European)
Balto-Slavic
Eastern Baltic
Lithuanian
Samogitian language
(Writing system Latin script)
The Samogitian dialect should not be confused with the interdialect of the Lithuanian language as spoken in the Duchy of Samogitia before Lithuanian became a written language, which later developed into one of the two variants of written Lithuanian used in the Grand Duchy of Lithuania based on the so-called middle dialect of the Kėdainiai region.
________________
This was called the Samogitian- (Žemaitian) language; the term "Lithuanian language" then referred to the other variant, which had been based on the eastern Aukštaitian dialects centred around the capital Vilnius; Samogitian was generally used in the Samogitian Diocese while Lithuanian was generally used in the Vilna Diocese.
This Samogitian language was based on western Aukštaitian dialects and is unrelated to what is today called the Samogitian dialect; it is instead the direct ancestor of the modern Lithuanian literary language.
"History- इतिहास-
The Samogitians and Lithuanians in the context of the other Baltic tribes, around 1200 Century.
The Samogitian language, heavily influenced by Curonian, originated from the East Baltic proto-Samogitian dialect which was close to Aukštaitian dialects.
During the 5th century, Proto-Samogitians migrated from the lowlands of central Lithuania, near Kaunas, into the Dubysa and Jūra basins, as well as into the Samogitian highlands.
They displaced or assimilated the local, Curonian-speaking Baltic populations. Further north, they displaced or assimilated the indigenous, Semigallian speaking peoples. Assimilation of Curonians and Semigallians gave birth to the three Samogitian subdialects: "Dounininkų", "Donininkų" and "Dūnininkų."
________________________
In the 13th century, Žemaitija became a part of the Baltic confederation called (Lietuva -(Lithuania), which was formed by Mindaugas. Lithuania conquered the coast of the Baltic sea from the Livonian order. ★-
The coast was populated by Curonians, but became a part of Samogitia.
From the 13th century onwards, Samogitians settled within the former Curonian lands, and intermarried with that population over the next three hundred years.
The Curonians had a huge cultural influence upon Samogitian and Lithuanian culture, but they were ultimately assimilated by the 16th century. Its dying language has enormously influenced the dialect, in particular phonetics.
The earliest writings in Samogitian language appeared in the 19th century.
"Phonology-(ध्वनि विज्ञान)-
Samogitian and its subdialects preserved many features of the Curonian language, for example:
widening of proto-Baltic short i (i → ė sometimes e)
widening of proto-Baltic short u (u → o)
retraction of ė in northern sub-dialects (ė → õ) (pilkas → pėlks põlks)
preservation of West Baltic diphthong ei (standard Lithuanian i.e. → Samogitian ėi)
no t' d' palatalization to č dž (Latvian š, ž)
specific lexis, like cīrulis (lark), pīle (duck), leitis (Lithuanian) etc.
retraction of stress
shortening of ending -as to -s like in Latvian and Old Prussian (Proto-Indo-European o-stem)
as well as various other features not listed here.
The earliest writings in the Samogitian language appeared in the 19th century.
Grammar-(व्याकरण)-
_________
The Samogitian language is highly inflected like standard Lithuanian, in which the relationships between parts of speech and their roles in a sentence are expressed by numerous flexions.
★-There are two grammatical genders in Samogitian – feminine and masculine.
★-Relics of historical neuter are almost fully extinct while in standard Lithuanian some isolated forms remain.
★-Those forms are replaced by masculine ones in Samogitian.
Samogitian stress is mobile but often retracted at the end of words, and is also characterised by pitch accent.
Samogitian has a broken tone like the Latvian and Danish languages. The circumflex of standard Lithuanian is replaced by an acute tone in Samogitian.
It has five noun and three adjective declensions.
Noun declensions are different from standard Lithuanian .
There are only two verb conjugations.
All verbs have present, past, past iterative and future tenses of the indicative mood, subjunctive (or conditional) and imperative moods (both without distinction of tenses) and infinitive.
The formation of past iterative is different from standard Lithuanian.
________
★-There are three numbers in Samogitian:
1-singular, 2-dual.and 3-plural
Dual is almost extinct in standard Lithuanian.
The third person of all three numbers is common.
Samogitian as the standard Lithuanian has a very rich system of participles, which are derived from all tenses with distinct active and passive forms,
and several gerund forms.
Nouns and other declinable words are declined in eight cases:
1-nominative,
2-genitive,
3-dative,
4-accusative,
5-instrumental,
6-locative (inessive),
7-vocative and
8-illative.
___
Literature- साहित्य-
The earliest writings in Samogitian dialect appear in the 19th century. Famous authors writing in Samogitian:
Józef Arnulf Giedroyć [pl] also called Giedraitis (1754–1838) Bishop of Samogitia from 1801, champion of education and patron of Lithuanian literature, published the first translation of the New Testament into Samogitian or Język żmudzki in 1814. It was subsequently revised a number of times.
Silvestras Teofilis Valiūnas [lt] and his heroic poem “Biruta”, first printed in 1829.
“Biruta” became a hymn of Lithuanian student emigrants in the 19th century.
Simonas Stanevičius (Sėmuons Stanevėčios) with his famous book “Šešės pasakas” (Six fables) printed in 1829.
Simonas Daukantas (Sėmuons Daukonts in Samogitian), he was the first Lithuanian historian writing in Lithuanian (actually in its dialect).
His famous book – “Būds Senovės Lietuviu Kalnienu ir Zamaitiu” (Customs of ancient Lithuanian highlanders and Samogitians) was printed in 1854.
Motiejus Valančius (Muotiejos Valončios or Valontė) and one of his books “Palangos Juzė” (Joseph of Palanga), printed in 1869.
There are no written grammar books in Samogitian because it is considered to be a dialect of Lithuanian, but there were some attempts to standardise its written form.
Among those who have tried are Stasys Anglickis [lt], Pranas Genys [lt], Sofija Kymantaitė-Čiurlionienė, B. Jurgutis, Juozas Pabrėža [lt]. Today, Samogitian has a standardised writing system but it still remains a spoken language, as nearly everyone writes in their native speech.
_________________
Differences from Standard Lithuanian -
Samogitian differs from Standard Lithuanian in phonetics, lexicon, syntax and morphology.
Phonetic differences from standard Lithuanian are varied, and each Samogitian subdialect (West, North and South) has different reflections.
Standard Lithuanian ~ Samogitian
Short vowels:
i ~ short ė, sometimes e (in some cases õ);
u ~ short o (in some cases u);
Long vowels and diphthongs:
ė ~ ie;
o ~ uo;
ie ~ long ė, ėi, ī (y) (West, North and South);
uo ~ ō, ou, ū (West, North and South);
ai ~ ā ;
ei, iai ~ ē;
ui ~ oi;
oi (oj) ~ uo;
ia ~ ė;
io ~ ė;
Nasal diphthongs:
an ~ on (an in south-east);
un ~ on (un in south-east);
ą ~ an in south-eastern, on in the central region, ō / ou in the north;
unstressed ią ~ ė;
ę (e) ~ en in south-eastern, ėn in the central region and õ, ō or ėi in the north;
ū ~ ū (in some cases un, um);
ų in stressed endings ~ un and um;
unstressed ų ~ o;
y ~ ī (y), sometimes in;
[clarification needed]
i from ancient *ī ~ ī;
u from ancient *ō (Lithuanian uo) ~ ō / ou / ū (West / North / South)
i from ancient *ei (Lithuanian ie) ~ long ė / ėi / ī (West / North / South)
Postalveolar consonants
č ~ t (also č under Lithuanian influence);
dž ~ d (also dž under Lithuanian influence);
The main difference between Samogitian and standard Lithuanian is verb conjugation. The past iterative tense is formed differently from Lithuanian (e.g., in Lithuanian the past iterative tense, meaning that action which was done in the past repeatedly, is made by removing the ending -ti and adding -davo (mirti – mirdavo, pūti – pūdavo), while in Samogitian, the word liuob is added instead before the word).
The second verb conjugation is extinct in Samogitian, it merged with the first one.
The plural reflexive ending is -muos instead of expected -mies which is in standard Lithuanian (-mės) and other dialects. Samogitian preserved a lot of relics of athematic conjugation which did not survive in standard Lithuanian. The intonation in the future tense third person is the same as in the infinitive, in standard Lithuanian it shifts. The subjunctive conjugation is different from standard Lithuanian. Dual is preserved perfectly while in standard Lithuanian it has been completely lost.
The differences between nominals are considerable too.
The fifth noun declension has almost become extinct, it merged with the third one.
The plural and some singular cases of the fourth declension have endings of the first one (e.g.: singular nominative sūnos, plural nom. sūnā, in standard Lithuanian: sg. nom. sūnus, pl. nom. sūnūs). The neuter of adjectives is extinct (it was pushed out by adverbs, except šėlt 'warm', šalt 'cold', karšt 'hot') while in standard Lithuanian it is still alive. Neuter pronouns were replaced by masculine.
The second declension of adjectives is almost extinct (having merged with the first declension)—only singular nominative case endings survived. The formation of pronominals is also different from standard Lithuanian.
Other morphological differences-Samogitian also has many words and figures of speech that are altogether different from typically Lithuanian ones, e.g., kiuocis 'basket' (Lith. krepšys, Latvian ķocis), tevs 'thin' (Lith. plonas, tęvas, Latvian tievs), rebas 'ribs' (Lith. šonkauliai, Latvian ribas), a jebentas! 'can't be!' (Lith. negali būti!).
Subdialects
Map of the sub-dialects of the Lithuanian language (Zinkevičius and Girdenis, 1965).
Western Samogitian sub-dialectNorthern Samogitian :
Sub-dialect of Kretinga
Sub-dialect of Telšiai
Southern Samogitian :
Sub-dialect of Varniai
Sub-dialect of Raseiniai
Samogitian is also divided into three major subdialects: Northern Samogitian (spoken in Telšiai and Kretinga regions), Western Samogitian (was spoken in the region around Klaipėda, now nearly extinct, – after 1945, many people were expelled and new ones came to this region) and Southern Samogitian (spoken in Varniai, Kelmė, Tauragė and Raseiniai regions).
Historically, these are classified by their pronunciation of the Lithuanian word Duona, "bread." They are referred to as Dounininkai (from Douna), Donininkai (from Dona) and Dūnininkai (from Dūna).
Political situation -
The Samogitian dialect is rapidly declining: it is not used in the local school system and there is only one quarterly magazine and no television broadcasts in Samogitian. There are some radio broadcasts in Samogitian (in Klaipėda and Telšiai). Local newspapers and broadcast stations use standard Lithuanian instead. There is no new literature in Samogitian either, as authors prefer standard Lithuanian for its accessibility to a larger audience. Out of those people who speak Samogitian, only a few can understand its written form well.
Migration of Samogitian speakers to other parts of the country and migration into Samogitia have reduced contact between Samogitian speakers, and therefore the level of fluency of those speakers.
There are attempts by the Samogitian Cultural Society to stem the loss of the dialect. The council of Telšiai city put marks with Samogitian names for the city at the roads leading to the city, while the council of Skuodas claim to use the language during the sessions. A new system for writing Samogitian was created.[citation needed]
Writing system -
The first use of a unique writing system for Samogitian was in the interwar period, however it was neglected during the Soviet period, so only elderly people knew how to write in Samogitian at the time Lithuania regained independence. The Samogitian Cultural Society renewed the system to make it more usable.
The writing system uses similar letters to standard Lithuanian, but with the following differences:
There are no nasal vowels (letters with ogoneks: ą, ę, į, ų).
There are three additional long vowels, written with macrons above (as in Latvian): ā, ē, ō.
Long i in Samogitian is written with a macron above: ī (unlike standard Lithuanian where it is y).
The long vowel ė is written like ė with macron: Ė̄ and ė̄. Image:E smg.jpg In the pre-Unicode 8-bit computer fonts for Samogitian, the letter 'ė with macron' was mapped on the code of the letter õ. From this circumstance a belief sprang that 'ė with macron' could be substituted with the character õ. It is not so, however. In fact, if the letter 'ė with macron' is for some reason not available, it can be substituted with the doubling of the macron-less letter, that is, 'ėė'.
The letter õ is used to represent a vowel characteristic of Samogitian that does not exist in Standard Lithuanian; the unrounded back vowel /ɤ/. This is a rather new innovation which alleviates the confusion between the variations in pronunciation of the letter ė. The letter ė can be realised as a close-mid front unrounded vowel /e/ (Žemaitėjė) or as an unrounded back vowel /ɤ/ (Tėn) or (Pėlks) → Tõn, Põlks. The addition of this new letter distinguishes these 2 vowels sounds previously represented as a single letter.
There are two additional diphthongs in Samogitian that are written as digraphs: ou and ėi. (The component letters are part of the standard Lithuanian alphabet.)
As previously it was difficult to add these new characters to typesets, some older Samogitian texts use double letters instead of macrons to indicate long vowels, for example aa for ā and ee for ē; now the Samogitian Cultural Society discourages these conventions and recommends using the letters with macrons above instead. The use of double letters is accepted in cases where computer fonts do not have Samogitian letters; in such cases y is used instead of Samogitian ī, the same as in standard Lithuanian, while other long letters are written as double letters. The apostrophe might be used to denote palatalization in some cases; in others i is used for this, as in standard Lithuanian.
A Samogitian computer keyboard layout has been created.[citation needed] -सन्दर्भ अपेक्षित है
Samogitian alphabet:
Letter
Name A a
[ā] Ā ā
[ėlguojė ā] B b
[bė] C c
[cė] Č č
[čė] D d
[dė] E e
[ē] Ē ē
[ėlguojė ē]
Letter
Name Ė ė
[ė̄] Ė̄ ė̄
[ėlguojė ė̄] F f
[ėf] G g
[gė, gie] H h
[hā] I i
[ī] Ī ī
[ėlguojė ī] J j
[jot]
Letter
Name K k
[kā] L l
[ėl] M m
[ėm] N n
[ėn] O o
[ō] Ō ō
[ėlguojė ō] Õ õ
[õ] P p
[pė] R r
[ėr]
Letter
Name S s
[ės] Š š
[ėš] T t
[tė] U u
[ū] Ū ū
[ėlguojė ū] V v
[vė] Z z
[zė, zet] Ž ž
[žė, žet].
Samples
English Samogitian Lithuanian Latvian Latgalian Old Prussian
Samogitian žemaitiu kalba žemaičių tarmė žemaišu valoda žemaišu volūda zemātijiskan bliā
English onglu kalba anglų kalba angļu valoda ongļu volūda ēngliskan bilā
Yes Je, Ja, Jo, Noje, Tēp Taip(Jo in informal speech) Jā Nuj Jā
No Ne Ne Nē Nā Ni
Hello! Svēks Sveikas Sveiks Vasals Kaīls
How are you? Kāp gīvenė?/ Kāp ī? Kaip gyveni / laikaisi / einasi? Kā tev iet? Kai īt? Kāigi tebbei ēit?
Good evening! Lab vakar! Labas vakaras! Labvakar! Lobs vokors! Labban bītan!
Welcome [to...] Svēkė atvīkė̄! Sveiki atvykę Laipni lūdzam Vasali atguojuši Ebkaīlina
Good night! Labanaktis Labos nakties / Labanakt! Ar labu nakti Lobys nakts! Labban naktin!
Goodbye! Sudieu, võsa gera Viso gero / Sudie(vu) / Viso labo! Visu labu Palicyt vasali Sandēi
Have a nice day! Geruos dėinuos! Geros dienos / Labos dienos! Jauku dienu! Breineigu dīnu Mīlingis dēinas
Good luck! Siekmies! Sėkmės! Veiksmi! Lai lūbsīs! Izpalsnas
Please Prašau Prašau Lūdzu Lyudzams Madli
Thank you Diekou Ačiū / Dėkui / Dėkoju Paldies Paļdis Dīnkun
You're welcome Prašuom Prašom Lūdzu! Lyudzu! Madli!
I'm sorry Atsėprašau/ Atlēskāt Atsiprašau / Atleiskite Atvaino (Piedod) Atlaid Etwinūja si
Who? Kas? Kas? Kas? (Kurš?) Kas? Kas?
When? Kumet? Kada / Kuomet? Kad? Kod? Kaddan?
Where? Kor? Kur? Kur? Kur? Kwēi?
Why? Kudie / Diukuo? Kodėl / Dėl ko? Kādēļ? (Kāpēc?) Dieļ kuo? Kasse paggan?
What's your name? Kuoks tava vards? Koks tavo vardas? / Kuo tu vardu? Kāds ir tavs vārds? (Kā tevi sauc?) Kai tevi sauc? Kāigi assei bīlitan? / Kāigi assei tū bīlitan?
Because Tudie / Diutuo Todėl / Dėl to Tādēļ (Tāpēc) Dieļ tuo Beggi
How? Kāp? Kaip? Kā? Kai? Kāi? / Kāigi?
How much? Kėik? Kiek? Cik daudz? Cik daudzi? Kelli?
I do not understand. Nesopronto/Nasopronto Nesuprantu Nesaprotu Nasaprūtu Niizpresta
I understand. Soprontu Suprantu Saprotu Saprūtu Izpresta
Help me! Ratavuokėt! Padėkite / Gelbėkite! Palīgā! Paleigā! Pagalbsei!
Where is the toilet? Kor īr tolets? Kur yra tualetas? Kur ir tualete? Kur irā tualets? Kwēi ast tualetti?
Do you speak English? Ruokounaties onglėškā? (Ar) kalbate angliškai? Vai runājat angliski? Runuojit ongliski? Bīlai tū ēngliskan?
I don't speak Samogitian. Neruokoujous žemaitėškā. Žemaitiškai nekalbu Es nerunāju žemaitiski As narunuoju žemaitiski As nibīlai zemātijiskan
The check, please. (In restaurant) Sāskaita prašītiuo Prašyčiau sąskaitą / Sąskaitą, prašyčiau / Sąskaitą, prašau, pateikite Rēķinu, lūdzu! Lyudzu, saskaitu Rekkens, madli
_______________________________________
References
Learn more
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^ "Request for New Language Code Element in ISO 639-3" (PDF). ISO 639-3 Registration Authority. 2009-08-11.
^ Samogitian dialect at Ethnologue (21st ed., 2018)
^ "Lithuania". ethnologue.com. Retrieved 19 April 2018.
^ "Dr. Juozas Pabrėža: "Stipriausia kalba Lietuvoje yra žemaičių"". santarve.lt. Retrieved 19 April 2018.
^ László Marácz; Mireille Rosello, eds. (2012). Multilingual Europe, Multilingual Europeans. BRILL. p. 177. ISBN 9789401208031.
^ Dziarnovič, Alieh (2014–2015). "In Search of a Homeland: "Litva/Lithuania" and "Rus'/Ruthenia" in the Contemporary Belarusian Historiography" (PDF). Belarusian Political Science Review. 3: 90–121. ISSN 2029-8684. Retrieved 27 February 2019.
Samogitian (Samogitian: žemaitiu kalba या कभी कभी žemaitiu rokunda या žemaitiu ruoda ;
लिथुआनियाई : Žemaičių tarmė ) एक है पूर्वी बाल्टिक विविधता में ज्यादातर बोली जाने वाली Samogitia (के पश्चिमी भाग में लिथुआनिया )।
यह कभी-कभी लिथुआनियाई की एक बोली [3] के रूप में माना जाता है,
लेकिन लिथुआनिया के बाहर कुछ भाषाविदों द्वारा एक अलग भाषा माना जाता है। एक विशिष्ट भाषा के रूप में इसकी मान्यता हाल के वर्षों में बढ़ रही है, और इसे मानकीकृत करने का प्रयास किया गया है।
सामोगी भाषा
žemaitiu कलाबा
के मूल निवासी लिथुआनिया
क्षेत्र संयोगिता
देशी वक्ता <500,000 (2009) [1]
भाषा परिवार भारोपीय
बाल्टो-स्लाव
पूर्वी बाल्टिक
लिथुआनियाई
सामोगी भाषा
(Samogitian- बोली के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए interdialect लिथुआनियाई भाषा का में बोली जाने वाली के रूप में Samogitia की डची से पहले लिथुआनियाई एक लिखित भाषा है,।
जो बाद की लिखित लिथुआनियाई में इस्तेमाल दो वेरिएंट में से एक के रूप में विकसित हो गया लिथुआनिया के ग्रैंड के आधार पर तथाकथित मध्य बोली कादैनी क्षेत्र है ।
इसे समोगिटियन (itianemaitian) भाषा कहा जाता था; यह शब्द "लिथुआनियाई भाषा का है " तब दूसरे संस्करण के लिए संदर्भित होता है, जो राजधानी विल्नियस के आसपास केंद्रित पूर्वी Aukštaitian बोलियों पर आधारित था।; सामोगियन का उपयोग आम तौर पर सामोगियन सूबा में किया जाता था जबकि लिथुआनिया में आम तौर पर विल्ना डायोसेसी में इस्तेमाल किया जाता था।
यह समोगियन भाषा पश्चिमी औक्टाटिशियन बोलियों पर आधारित थी और जिसे आज की समोगियनियन बोली कहा जाता है, से असंबंधित है; इसके बजाय यह आधुनिक लिथुआनियाई साहित्यिक भाषा का प्रत्यक्ष पूर्वज है। [६]
इतिहास -
समोगिटियन और लिथुआनियाई अन्य बाल्टिक जनजातियों के संदर्भ में, लगभग 1200
Samogitian भाषा, भारी से प्रभावित Curonian , से उत्पन्न पूर्व बाल्टिक आद्य Samogitian बोली जो के करीब था Aukštaitian बोलियों ।
_______
5 वीं शताब्दी के दौरान, प्रोटो-Samogitians केंद्रीय लिथुआनिया की तराई से पलायन के पास, कौनास में, Dubysa और जुरा घाटियों, साथ ही में Samogitian हाइलैंड्स ।
उन्होंने स्थानीय, क्यूरोनियन बोलने वाले बाल्टिक आबादी को विस्थापित या आत्मसात कर लिया ।
इसके अलावा उत्तर में, उन्होंने विस्थापित, सेमीगैलियन बोलने वाले लोगों को आत्मसात किया ।
क्यूरोनियन और सेमीग्लियंस के आत्मसात ने तीन सामोगियन उप- प्रजातियों को जन्म दिया: "डी ou नाइनिन्को", "डी ओ निन्निको" और "डी ų निन्निको।"
13 वीं सदी में, Žemaitija बाल्टिक संघ कहा जाता है का एक हिस्सा बन Lietuva (लिथुआनिया), जिसके द्वारा बनाई गई थी मिंडोगस ।
लिथुआनिया ने बाल्टिक सागर के तट को लिवोनियन आदेश से जीत लिया
इस तट से बसा हुआ था Curonians , लेकिन का एक हिस्सा बन Samogitia ।
13 वीं शताब्दी के बाद से, सामोगियन लोग पूर्व क्यूरोनियन भूमि के भीतर बस गए, और अगले सौ वर्षों में उस आबादी के साथ अंतर्जातीय विवाह किया।
क्यूरोनियन लोगों का समोगियनियन और लिथुआनियाई संस्कृति पर बहुत बड़ा सांस्कृतिक प्रभाव था, लेकिन अंततः 16 वीं शताब्दी तक उन्हें आत्मसात कर लिया गया। इसकी मरने वाली भाषा ने विशेष रूप से ध्वन्यात्मकता में, बोली को काफी प्रभावित किया है।
समोगिटियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
ध्वनि विज्ञान-
Samogitian और इसके उपविभागों ने उदाहरण के लिए क्यूरोनियन भाषा की कई विशेषताओं को संरक्षित किया:
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट आई का चौड़ीकरण (i →-कभी-कभी ई)
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट यू (यू → ओ) का चौड़ीकरण
उत्तरी उप-बोलियों में ė की वापसी
पश्चिम बाल्टिक डिप्थॉन्ग ईई का संरक्षण (मानक लिथुआनियाई यानी → समोगिटियन Westi)
कोई टी 'डी' पैलेटाइज़ेशन č dž (लातवियाई š, ž) के लिए
विशिष्ट लेक्सिस, जैसे सिरुलिस (लार्क), पाइले (बतख), लिटिस (लिथुआनियाई) आदि।
काल की वापसी
लातवियाई और पुराने प्रशिया की तरह एंड-टू-एस को छोटा करना ( प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ओ-स्टेम )
साथ ही विभिन्न अन्य सुविधाएँ यहाँ सूचीबद्ध नहीं हैं।
समोगियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
व्याकरण -
समोगिटियन भाषा मानक लिथुआनियाई की तरह अत्यधिक उपेक्षित है , जिसमें भाषण के कुछ हिस्सों और एक वाक्य में उनकी भूमिकाओं के बीच के संबंध कई लचीलेपन द्वारा व्यक्त किए जाते हैं।
______________
सामोगियन में दो
लिंग हैं - स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। ऐतिहासिक भाषाओं के अवशेष के मानक लिथुआनियाई की परिधि को समोगिटियन में एक तीव्र स्वर से बदल दिया जाता है।
यह पांच है स्त्रीलिंग और तीन विशेषण( declensions) । संज्ञा के मानक लिथुआनियाई से अलग हैं।
केवल दो क्रिया संयुग्मन हैं। सभी क्रियाओं में वर्तमान , अतीत , अतीत पुनरावृत्त होते हैं
नपुंसक के लगभग पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं जबकि मानक लिथुआनियाई में कुछ अलग-थलग रूप बने हुए हैं।
उन रूपों को समोगियन में मर्दाना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। समोगिटियन काल गतिशील है लेकिन अक्सर शब्दों के अंत में पीछे हट जाता है, और यह पिच तीव्र स्वर उच्चारण द्वारा भी विशेषता है ।
( Samogitian )में लातवी और डेनिश की तरह एक टूटी हुई टोन (स्वर) है और यह भविष्य काल की है ।
पिछले पुनरावृत्तियों का गठन मानक लिथुआनियाई से अलग है।
समोगेशियन-(Samogitian) में तीन वचन हैं:।
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१-एकवचन ,द्विवचन और बहुवचन में से द्विवचन का मानक लिथुआनियाई में लगभग अब विलुप्त है।
Number-वचन-
Nouns, adjectives, and pronouns also vary as to number. They can be singular, dual (referring to two people or things),[11] or plural (referring to two or more):
ὁ θεός (ho theós) "the god" (singular)
τὼ θεώ (tṑ theṓ) "the two gods" (dual)
οἱ θεοί (hoi theoí) "the gods" (plural)
As can be seen from the above examples, the difference between singular, dual, and plural is generally shown in Greek by changing the ending of the noun, and the article also changes for different numbers.
The dual number is used for a pair of things, for example τὼ χεῖρε (tṑ kheîre) "his two hands",[12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν (toîn duoîn teikhoîn) "of the two walls".[13] It is, however, not very common; for example, the dual article τώ (tṓ) is found no more than 90 times in the comedies of Aristophanes, and only 3 times in the historian Thucydides.[14] There are special verb endings for the dual as well.
वचन -
संज्ञा, विशेषण और सर्वनाम भी संख्या के अनुसार भिन्न होते हैं।
वे एकवचन हो सकते हैं , दोहरी (द्विवचन )(दो लोगों या चीजों का जिक्र), [11]
या बहुवचन (दो या अधिक का संदर्भ देते हुए):
ὁ god ( हो दीस ) "द गॉड" (एकवचन)
τὼ two ( tṑ ṑ ) "दो देवता" (दोहरी)
οἱ θεοί ( होई theoí ) "देवताओं" (बहुवचन)
जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से देखा जा सकता है, एकवचन, दोहरे और बहुवचन के बीच का अंतर आमतौर पर ग्रीक में संज्ञा के अंत को बदलकर दिखाया जाता है, और लेख भी विभिन्न संख्याओं के लिए बदलता है।
दोहरी संख्या द्विवचन , चीजों की एक जोड़ी के लिए प्रयोग किया जाता है, उदाहरण के लिए τὼ χεῖρε ( करने के लिए kheîre ,) "अपने दो हाथों" [12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν ( Toin duoîn teikhoîn ) "दो दीवारों के"। [१३] हालांकि, यह बहुत सामान्य नहीं है; उदाहरण के लिए, दोहरी लेख τώ ( करने के लिए ) नहीं पाया जाता है की हास्य की तुलना में अधिक 90 बार Aristophanes इतिहासकार में, और केवल 3 बार थूसाईंडाईड्स । [१४] दोहरे के लिए विशेष क्रिया अंत भी हैं।
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तीनों वचनों (नंबरों) का तीसरा व्यक्ति आम है। मानक लिथुआनियाई के रूप में समोगिटियन भाषा के पास प्रतिभागियों की एक बहुत समृद्ध प्रणाली है, जो सभी काल से अलग सक्रिय और निष्क्रिय रूपों और कई गेरुंड( Gerun)-(क्रियार्थक संज्ञा)
"जैसे ग्रीक लैटिन आदि भाषाओं में प्राचीन मूल भारोपीय भाषाओं के–प्राचीन चवर्ग –
(च'छ'ज'झ'ञ) ने कवर्ग- (क'ख'ग'घ'ड॒॰) का रूप ग्रहण कर लिया है । तथा
संस्कृत और ईरानी भाषाओं में वही चवर्ग घर्षक-ऊष्म–(स'श'ष'ह) उदाहरण-के लिया लैटिन में केण्टम्, अक्टो,डिक्टो, पिक्टो– रूप संस्कृत में क्रमश: शतम्'अष्टौ'दिष्ट: पिष्ट यूरोपीय मूर्धन्य ऊष्म वर्गीय मिलते हैं ।
यूरोपीय भाषाओं में संस्कृत अष्ट के रूपांतरण★-
eighte, earlier ehte (c. 1200), from Old English –eahta, æhta,
from Proto Germanic *akhto .
(source also of Old Saxon -ahto,
Old Frisian -ahta,
Old Norse- atta,
Swedish -åtta,
Dutch -acht,
Old High German -Ahto,
German -acht,
Gothic -ahtau),
from PIE *okto(u) "eight"
(source also of Sanskrit- astau,
Avestan -ashta,
Greek -okto,
Latin- octo,
Old Irish- ocht-n,
Breton -eiz,
Old Church Slavonic- osmi, Lithuanian aštuoni).
From the Latin word come Italian- otto,
Spanish -ocho,
Old French-oit,
Modern French –huit
यूरोपीय दिश्-अतिसर्जनेे-
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit dist- "
" Greek deiknynai "to show, to prove," dike "custom, usage;" Latin dicere "speak, tell, say," digitus "finger," Old High German zeigon, German zeigen "to show," Old English teon "to accuse," tæcan "to teach."
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संस्कृत द्वारा प्रदान किया गया है दृश्-दिश्–dic-"इंगित करना, दिखाएं" यूनानी(deiknynai )"साबित करने के लिए," (dike)"कस्टम, उपयोग?"
लैटिन(dicere "बोलना, बताना), (कहना),"
digitus "उंगली," पुरानी उच्च जर्मन zeigon, जर्मन zeigen "दिखाने के लिए," पुरानी अंग्रेजी teon "दोष लगाने के लिए," (tæcan)- "शिक्षा देने के लिए।"
- पिङ्क्ते । पिञ्जाते । पिपिञ्जे । पिञ्जरः । पिङ्गलः । पिङ्गली ।। 18 ।।
Sanskrit pimsati "to carve, hew out, cut to measure, adorn;" Greek pikros "bitter, sharp, pointed, piercing, painful," poikilos "spotted, pied, various;" Latin pingere "to embroider, tattoo, paint, picture;" Old Church Slavonic pila "file, saw," pegu "variegated," pisati "to write;" Lithuanian piela "file," piešiu, piešti "to write;" Old High German fehjan "to adorn."
शतम्-Proto-Germanic *hunda-ratha- (source also of Old Frisian hundred, Old Saxon hunderod, Old Norse hundrað, German hundert); first element is Proto-Germanic *hundam "hundred" (cognate with Gothic hund, Old High German hunt), from PIE *km-tom "hundred," reduced from *dkm-tom- (source also of Sanskrit satam, Avestan satem, Greek hekaton, Latin centum, Lithuanian šimtas, Old Church Slavonic suto, Old Irish cet, Breton kant "hundred"), suffixed form of root *dekm- "ten."
दश-१-Sanskrit dasa,२- Avestan dasa, ३-Armenian tasn,४- Greek deka, ५-Latin decem (source of Spanish diez,६- French dix),७- Old Church Slavonic deseti, ८-Lithuanian dešimt, ९-Old Irish deich, १०-Breton dek,११- Welsh deg, १२-Albanian djetu, १३-Old English ten, १४-Old High German zehan, १५-Gothic taihun "ten."
संख्या वाची शब्द भारोपीय भाषाओं में समान हैं ।
(सतम् भारोपीय भाषा वर्ग) †★
1-संस्कृत- शतम् ।
3-रूसी - स्ततो ।
4-बुल्गारियन सुतो ।
5-लिथुऑनियन-स्विजम्तास ।
6-प्राकृत-सर्द ।
7-हिन्दी-"सौ ।
8-फारसी-सद ।
†★केण्टुम् भारोपीय भाषा-वर्ग-
1-ग्रीक- Hekaton
2-लैटिन-Centum
-3-इटालियन-Cento
4-फ्रेच-cent
5-केल्टिक-caint(कैण्ट)
6-गैलिक-क्युड
7-तोखारी-कन्ध
8-गॉथिक-खुँद
इस सतम् और केण्टुम् वर्ग की विशेषता यूरोपीय भाषा वैज्ञानिक अस्कोली ने प्रस्तुत की- इसके पश्चात वान-ब्राडेक ने यह वर्गीकरण प्रस्तुत किया-
इन वर्गों में प्रथम सतम् पूर्वीय तथा एशिया की भाषाओं का है ।
तथा दूसरा केण्टुम वर्ग हिट्टाइट को छोड़कर यूरोपीय भाषाओं का है ।
संस्कृत, ग्रीक, तथा लिथुआनिया की उप भाषा (Samogitian) में आज तक एकवचन- द्विवचन और बहुवचन मिलते हैं ।
Not to be confused with Samoyedic languages.-
(Samogitian: žemaitiu kalba or sometimes žemaitiu rokunda or žemaitiu ruoda; Lithuanian: žemaičių tarmė) is an Eastern Baltic variety spoken mostly in Samogitia (in the western part of Lithuania)
It is sometimes treated as a dialect[3] of Lithuanian, but is considered a separate language by some linguists outside Lithuania.
Its recognition as a distinct language is increasing in recent years,[4] and attempts have been made to standardize it.[5]
Samogitian language
žemaitiu kalba
(Native to Lithuania)
Region -Samogitia
Native speakers < 500,000 (2009) Recently-
(Language family Indo-European)
Balto-Slavic
Eastern Baltic
Lithuanian
Samogitian language
(Writing system Latin script)
The Samogitian dialect should not be confused with the interdialect of the Lithuanian language as spoken in the Duchy of Samogitia before Lithuanian became a written language, which later developed into one of the two variants of written Lithuanian used in the Grand Duchy of Lithuania based on the so-called middle dialect of the Kėdainiai region.
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This was called the Samogitian- (Žemaitian) language; the term "Lithuanian language" then referred to the other variant, which had been based on the eastern Aukštaitian dialects centred around the capital Vilnius; Samogitian was generally used in the Samogitian Diocese while Lithuanian was generally used in the Vilna Diocese.
This Samogitian language was based on western Aukštaitian dialects and is unrelated to what is today called the Samogitian dialect; it is instead the direct ancestor of the modern Lithuanian literary language.
"History- इतिहास-
The Samogitians and Lithuanians in the context of the other Baltic tribes, around 1200 Century.
The Samogitian language, heavily influenced by Curonian, originated from the East Baltic proto-Samogitian dialect which was close to Aukštaitian dialects.
During the 5th century, Proto-Samogitians migrated from the lowlands of central Lithuania, near Kaunas, into the Dubysa and Jūra basins, as well as into the Samogitian highlands.
They displaced or assimilated the local, Curonian-speaking Baltic populations. Further north, they displaced or assimilated the indigenous, Semigallian speaking peoples. Assimilation of Curonians and Semigallians gave birth to the three Samogitian subdialects: "Dounininkų", "Donininkų" and "Dūnininkų."
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In the 13th century, Žemaitija became a part of the Baltic confederation called (Lietuva -(Lithuania), which was formed by Mindaugas. Lithuania conquered the coast of the Baltic sea from the Livonian order. ★-
The coast was populated by Curonians, but became a part of Samogitia.
From the 13th century onwards, Samogitians settled within the former Curonian lands, and intermarried with that population over the next three hundred years.
The Curonians had a huge cultural influence upon Samogitian and Lithuanian culture, but they were ultimately assimilated by the 16th century. Its dying language has enormously influenced the dialect, in particular phonetics.
The earliest writings in Samogitian language appeared in the 19th century.
"Phonology-(ध्वनि विज्ञान)-
Samogitian and its subdialects preserved many features of the Curonian language, for example:
widening of proto-Baltic short i (i → ė sometimes e)
widening of proto-Baltic short u (u → o)
retraction of ė in northern sub-dialects (ė → õ) (pilkas → pėlks põlks)
preservation of West Baltic diphthong ei (standard Lithuanian i.e. → Samogitian ėi)
no t' d' palatalization to č dž (Latvian š, ž)
specific lexis, like cīrulis (lark), pīle (duck), leitis (Lithuanian) etc.
retraction of stress
shortening of ending -as to -s like in Latvian and Old Prussian (Proto-Indo-European o-stem)
as well as various other features not listed here.
The earliest writings in the Samogitian language appeared in the 19th century.
Grammar-(व्याकरण)-
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The Samogitian language is highly inflected like standard Lithuanian, in which the relationships between parts of speech and their roles in a sentence are expressed by numerous flexions.
★-There are two grammatical genders in Samogitian – feminine and masculine.
★-Relics of historical neuter are almost fully extinct while in standard Lithuanian some isolated forms remain.
★-Those forms are replaced by masculine ones in Samogitian.
Samogitian stress is mobile but often retracted at the end of words, and is also characterised by pitch accent.
Samogitian has a broken tone like the Latvian and Danish languages. The circumflex of standard Lithuanian is replaced by an acute tone in Samogitian.
It has five noun and three adjective declensions.
Noun declensions are different from standard Lithuanian .
There are only two verb conjugations.
All verbs have present, past, past iterative and future tenses of the indicative mood, subjunctive (or conditional) and imperative moods (both without distinction of tenses) and infinitive.
The formation of past iterative is different from standard Lithuanian.
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★-There are three numbers in Samogitian:
1-singular, 2-dual.and 3-plural
Dual is almost extinct in standard Lithuanian.
The third person of all three numbers is common.
Samogitian as the standard Lithuanian has a very rich system of participles, which are derived from all tenses with distinct active and passive forms,
and several gerund forms.
Nouns and other declinable words are declined in eight cases:
1-nominative,
2-genitive,
3-dative,
4-accusative,
5-instrumental,
6-locative (inessive),
7-vocative and
8-illative.
___
Literature- साहित्य-
The earliest writings in Samogitian dialect appear in the 19th century. Famous authors writing in Samogitian:
Józef Arnulf Giedroyć [pl] also called Giedraitis (1754–1838) Bishop of Samogitia from 1801, champion of education and patron of Lithuanian literature, published the first translation of the New Testament into Samogitian or Język żmudzki in 1814. It was subsequently revised a number of times.
Silvestras Teofilis Valiūnas [lt] and his heroic poem “Biruta”, first printed in 1829.
“Biruta” became a hymn of Lithuanian student emigrants in the 19th century.
Simonas Stanevičius (Sėmuons Stanevėčios) with his famous book “Šešės pasakas” (Six fables) printed in 1829.
Simonas Daukantas (Sėmuons Daukonts in Samogitian), he was the first Lithuanian historian writing in Lithuanian (actually in its dialect).
His famous book – “Būds Senovės Lietuviu Kalnienu ir Zamaitiu” (Customs of ancient Lithuanian highlanders and Samogitians) was printed in 1854.
Motiejus Valančius (Muotiejos Valončios or Valontė) and one of his books “Palangos Juzė” (Joseph of Palanga), printed in 1869.
There are no written grammar books in Samogitian because it is considered to be a dialect of Lithuanian, but there were some attempts to standardise its written form.
Among those who have tried are Stasys Anglickis [lt], Pranas Genys [lt], Sofija Kymantaitė-Čiurlionienė, B. Jurgutis, Juozas Pabrėža [lt]. Today, Samogitian has a standardised writing system but it still remains a spoken language, as nearly everyone writes in their native speech.
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Differences from Standard Lithuanian -
Samogitian differs from Standard Lithuanian in phonetics, lexicon, syntax and morphology.
Phonetic differences from standard Lithuanian are varied, and each Samogitian subdialect (West, North and South) has different reflections.
Standard Lithuanian ~ Samogitian
Short vowels:
i ~ short ė, sometimes e (in some cases õ);
u ~ short o (in some cases u);
Long vowels and diphthongs:
ė ~ ie;
o ~ uo;
ie ~ long ė, ėi, ī (y) (West, North and South);
uo ~ ō, ou, ū (West, North and South);
ai ~ ā ;
ei, iai ~ ē;
ui ~ oi;
oi (oj) ~ uo;
ia ~ ė;
io ~ ė;
Nasal diphthongs:
an ~ on (an in south-east);
un ~ on (un in south-east);
ą ~ an in south-eastern, on in the central region, ō / ou in the north;
unstressed ią ~ ė;
ę (e) ~ en in south-eastern, ėn in the central region and õ, ō or ėi in the north;
ū ~ ū (in some cases un, um);
ų in stressed endings ~ un and um;
unstressed ų ~ o;
y ~ ī (y), sometimes in;
[clarification needed]
i from ancient *ī ~ ī;
u from ancient *ō (Lithuanian uo) ~ ō / ou / ū (West / North / South)
i from ancient *ei (Lithuanian ie) ~ long ė / ėi / ī (West / North / South)
Postalveolar consonants
č ~ t (also č under Lithuanian influence);
dž ~ d (also dž under Lithuanian influence);
The main difference between Samogitian and standard Lithuanian is verb conjugation. The past iterative tense is formed differently from Lithuanian (e.g., in Lithuanian the past iterative tense, meaning that action which was done in the past repeatedly, is made by removing the ending -ti and adding -davo (mirti – mirdavo, pūti – pūdavo), while in Samogitian, the word liuob is added instead before the word).
The second verb conjugation is extinct in Samogitian, it merged with the first one.
The plural reflexive ending is -muos instead of expected -mies which is in standard Lithuanian (-mės) and other dialects. Samogitian preserved a lot of relics of athematic conjugation which did not survive in standard Lithuanian. The intonation in the future tense third person is the same as in the infinitive, in standard Lithuanian it shifts. The subjunctive conjugation is different from standard Lithuanian. Dual is preserved perfectly while in standard Lithuanian it has been completely lost.
The differences between nominals are considerable too.
The fifth noun declension has almost become extinct, it merged with the third one.
The plural and some singular cases of the fourth declension have endings of the first one (e.g.: singular nominative sūnos, plural nom. sūnā, in standard Lithuanian: sg. nom. sūnus, pl. nom. sūnūs). The neuter of adjectives is extinct (it was pushed out by adverbs, except šėlt 'warm', šalt 'cold', karšt 'hot') while in standard Lithuanian it is still alive. Neuter pronouns were replaced by masculine.
The second declension of adjectives is almost extinct (having merged with the first declension)—only singular nominative case endings survived. The formation of pronominals is also different from standard Lithuanian.
Other morphological differences-Samogitian also has many words and figures of speech that are altogether different from typically Lithuanian ones, e.g., kiuocis 'basket' (Lith. krepšys, Latvian ķocis), tevs 'thin' (Lith. plonas, tęvas, Latvian tievs), rebas 'ribs' (Lith. šonkauliai, Latvian ribas), a jebentas! 'can't be!' (Lith. negali būti!).
Subdialects
Map of the sub-dialects of the Lithuanian language (Zinkevičius and Girdenis, 1965).
Western Samogitian sub-dialectNorthern Samogitian :
Sub-dialect of Kretinga
Sub-dialect of Telšiai
Southern Samogitian :
Sub-dialect of Varniai
Sub-dialect of Raseiniai
Samogitian is also divided into three major subdialects: Northern Samogitian (spoken in Telšiai and Kretinga regions), Western Samogitian (was spoken in the region around Klaipėda, now nearly extinct, – after 1945, many people were expelled and new ones came to this region) and Southern Samogitian (spoken in Varniai, Kelmė, Tauragė and Raseiniai regions).
Historically, these are classified by their pronunciation of the Lithuanian word Duona, "bread." They are referred to as Dounininkai (from Douna), Donininkai (from Dona) and Dūnininkai (from Dūna).
Political situation -
The Samogitian dialect is rapidly declining: it is not used in the local school system and there is only one quarterly magazine and no television broadcasts in Samogitian. There are some radio broadcasts in Samogitian (in Klaipėda and Telšiai). Local newspapers and broadcast stations use standard Lithuanian instead. There is no new literature in Samogitian either, as authors prefer standard Lithuanian for its accessibility to a larger audience. Out of those people who speak Samogitian, only a few can understand its written form well.
Migration of Samogitian speakers to other parts of the country and migration into Samogitia have reduced contact between Samogitian speakers, and therefore the level of fluency of those speakers.
There are attempts by the Samogitian Cultural Society to stem the loss of the dialect. The council of Telšiai city put marks with Samogitian names for the city at the roads leading to the city, while the council of Skuodas claim to use the language during the sessions. A new system for writing Samogitian was created.[citation needed]
Writing system -
The first use of a unique writing system for Samogitian was in the interwar period, however it was neglected during the Soviet period, so only elderly people knew how to write in Samogitian at the time Lithuania regained independence. The Samogitian Cultural Society renewed the system to make it more usable.
The writing system uses similar letters to standard Lithuanian, but with the following differences:
There are no nasal vowels (letters with ogoneks: ą, ę, į, ų).
There are three additional long vowels, written with macrons above (as in Latvian): ā, ē, ō.
Long i in Samogitian is written with a macron above: ī (unlike standard Lithuanian where it is y).
The long vowel ė is written like ė with macron: Ė̄ and ė̄. Image:E smg.jpg In the pre-Unicode 8-bit computer fonts for Samogitian, the letter 'ė with macron' was mapped on the code of the letter õ. From this circumstance a belief sprang that 'ė with macron' could be substituted with the character õ. It is not so, however. In fact, if the letter 'ė with macron' is for some reason not available, it can be substituted with the doubling of the macron-less letter, that is, 'ėė'.
The letter õ is used to represent a vowel characteristic of Samogitian that does not exist in Standard Lithuanian; the unrounded back vowel /ɤ/. This is a rather new innovation which alleviates the confusion between the variations in pronunciation of the letter ė. The letter ė can be realised as a close-mid front unrounded vowel /e/ (Žemaitėjė) or as an unrounded back vowel /ɤ/ (Tėn) or (Pėlks) → Tõn, Põlks. The addition of this new letter distinguishes these 2 vowels sounds previously represented as a single letter.
There are two additional diphthongs in Samogitian that are written as digraphs: ou and ėi. (The component letters are part of the standard Lithuanian alphabet.)
As previously it was difficult to add these new characters to typesets, some older Samogitian texts use double letters instead of macrons to indicate long vowels, for example aa for ā and ee for ē; now the Samogitian Cultural Society discourages these conventions and recommends using the letters with macrons above instead. The use of double letters is accepted in cases where computer fonts do not have Samogitian letters; in such cases y is used instead of Samogitian ī, the same as in standard Lithuanian, while other long letters are written as double letters. The apostrophe might be used to denote palatalization in some cases; in others i is used for this, as in standard Lithuanian.
A Samogitian computer keyboard layout has been created.[citation needed] -सन्दर्भ अपेक्षित है
Samogitian alphabet:
Letter
Name A a
[ā] Ā ā
[ėlguojė ā] B b
[bė] C c
[cė] Č č
[čė] D d
[dė] E e
[ē] Ē ē
[ėlguojė ē]
Letter
Name Ė ė
[ė̄] Ė̄ ė̄
[ėlguojė ė̄] F f
[ėf] G g
[gė, gie] H h
[hā] I i
[ī] Ī ī
[ėlguojė ī] J j
[jot]
Letter
Name K k
[kā] L l
[ėl] M m
[ėm] N n
[ėn] O o
[ō] Ō ō
[ėlguojė ō] Õ õ
[õ] P p
[pė] R r
[ėr]
Letter
Name S s
[ės] Š š
[ėš] T t
[tė] U u
[ū] Ū ū
[ėlguojė ū] V v
[vė] Z z
[zė, zet] Ž ž
[žė, žet].
Samples
English Samogitian Lithuanian Latvian Latgalian Old Prussian
Samogitian žemaitiu kalba žemaičių tarmė žemaišu valoda žemaišu volūda zemātijiskan bliā
English onglu kalba anglų kalba angļu valoda ongļu volūda ēngliskan bilā
Yes Je, Ja, Jo, Noje, Tēp Taip(Jo in informal speech) Jā Nuj Jā
No Ne Ne Nē Nā Ni
Hello! Svēks Sveikas Sveiks Vasals Kaīls
How are you? Kāp gīvenė?/ Kāp ī? Kaip gyveni / laikaisi / einasi? Kā tev iet? Kai īt? Kāigi tebbei ēit?
Good evening! Lab vakar! Labas vakaras! Labvakar! Lobs vokors! Labban bītan!
Welcome [to...] Svēkė atvīkė̄! Sveiki atvykę Laipni lūdzam Vasali atguojuši Ebkaīlina
Good night! Labanaktis Labos nakties / Labanakt! Ar labu nakti Lobys nakts! Labban naktin!
Goodbye! Sudieu, võsa gera Viso gero / Sudie(vu) / Viso labo! Visu labu Palicyt vasali Sandēi
Have a nice day! Geruos dėinuos! Geros dienos / Labos dienos! Jauku dienu! Breineigu dīnu Mīlingis dēinas
Good luck! Siekmies! Sėkmės! Veiksmi! Lai lūbsīs! Izpalsnas
Please Prašau Prašau Lūdzu Lyudzams Madli
Thank you Diekou Ačiū / Dėkui / Dėkoju Paldies Paļdis Dīnkun
You're welcome Prašuom Prašom Lūdzu! Lyudzu! Madli!
I'm sorry Atsėprašau/ Atlēskāt Atsiprašau / Atleiskite Atvaino (Piedod) Atlaid Etwinūja si
Who? Kas? Kas? Kas? (Kurš?) Kas? Kas?
When? Kumet? Kada / Kuomet? Kad? Kod? Kaddan?
Where? Kor? Kur? Kur? Kur? Kwēi?
Why? Kudie / Diukuo? Kodėl / Dėl ko? Kādēļ? (Kāpēc?) Dieļ kuo? Kasse paggan?
What's your name? Kuoks tava vards? Koks tavo vardas? / Kuo tu vardu? Kāds ir tavs vārds? (Kā tevi sauc?) Kai tevi sauc? Kāigi assei bīlitan? / Kāigi assei tū bīlitan?
Because Tudie / Diutuo Todėl / Dėl to Tādēļ (Tāpēc) Dieļ tuo Beggi
How? Kāp? Kaip? Kā? Kai? Kāi? / Kāigi?
How much? Kėik? Kiek? Cik daudz? Cik daudzi? Kelli?
I do not understand. Nesopronto/Nasopronto Nesuprantu Nesaprotu Nasaprūtu Niizpresta
I understand. Soprontu Suprantu Saprotu Saprūtu Izpresta
Help me! Ratavuokėt! Padėkite / Gelbėkite! Palīgā! Paleigā! Pagalbsei!
Where is the toilet? Kor īr tolets? Kur yra tualetas? Kur ir tualete? Kur irā tualets? Kwēi ast tualetti?
Do you speak English? Ruokounaties onglėškā? (Ar) kalbate angliškai? Vai runājat angliski? Runuojit ongliski? Bīlai tū ēngliskan?
I don't speak Samogitian. Neruokoujous žemaitėškā. Žemaitiškai nekalbu Es nerunāju žemaitiski As narunuoju žemaitiski As nibīlai zemātijiskan
The check, please. (In restaurant) Sāskaita prašītiuo Prašyčiau sąskaitą / Sąskaitą, prašyčiau / Sąskaitą, prašau, pateikite Rēķinu, lūdzu! Lyudzu, saskaitu Rekkens, madli
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References
Learn more
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^ "Request for New Language Code Element in ISO 639-3" (PDF). ISO 639-3 Registration Authority. 2009-08-11.
^ Samogitian dialect at Ethnologue (21st ed., 2018)
^ "Lithuania". ethnologue.com. Retrieved 19 April 2018.
^ "Dr. Juozas Pabrėža: "Stipriausia kalba Lietuvoje yra žemaičių"". santarve.lt. Retrieved 19 April 2018.
^ László Marácz; Mireille Rosello, eds. (2012). Multilingual Europe, Multilingual Europeans. BRILL. p. 177. ISBN 9789401208031.
^ Dziarnovič, Alieh (2014–2015). "In Search of a Homeland: "Litva/Lithuania" and "Rus'/Ruthenia" in the Contemporary Belarusian Historiography" (PDF). Belarusian Political Science Review. 3: 90–121. ISSN 2029-8684. Retrieved 27 February 2019.
Samogitian (Samogitian: žemaitiu kalba या कभी कभी žemaitiu rokunda या žemaitiu ruoda ;
लिथुआनियाई : Žemaičių tarmė ) एक है पूर्वी बाल्टिक विविधता में ज्यादातर बोली जाने वाली Samogitia (के पश्चिमी भाग में लिथुआनिया )।
यह कभी-कभी लिथुआनियाई की एक बोली [3] के रूप में माना जाता है,
लेकिन लिथुआनिया के बाहर कुछ भाषाविदों द्वारा एक अलग भाषा माना जाता है। एक विशिष्ट भाषा के रूप में इसकी मान्यता हाल के वर्षों में बढ़ रही है, और इसे मानकीकृत करने का प्रयास किया गया है।
सामोगी भाषा
žemaitiu कलाबा
के मूल निवासी लिथुआनिया
क्षेत्र संयोगिता
देशी वक्ता <500,000 (2009) [1]
भाषा परिवार भारोपीय
बाल्टो-स्लाव
पूर्वी बाल्टिक
लिथुआनियाई
सामोगी भाषा
(Samogitian- बोली के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए interdialect लिथुआनियाई भाषा का में बोली जाने वाली के रूप में Samogitia की डची से पहले लिथुआनियाई एक लिखित भाषा है,।
जो बाद की लिखित लिथुआनियाई में इस्तेमाल दो वेरिएंट में से एक के रूप में विकसित हो गया लिथुआनिया के ग्रैंड के आधार पर तथाकथित मध्य बोली कादैनी क्षेत्र है ।
इसे समोगिटियन (itianemaitian) भाषा कहा जाता था; यह शब्द "लिथुआनियाई भाषा का है " तब दूसरे संस्करण के लिए संदर्भित होता है, जो राजधानी विल्नियस के आसपास केंद्रित पूर्वी Aukštaitian बोलियों पर आधारित था।; सामोगियन का उपयोग आम तौर पर सामोगियन सूबा में किया जाता था जबकि लिथुआनिया में आम तौर पर विल्ना डायोसेसी में इस्तेमाल किया जाता था।
यह समोगियन भाषा पश्चिमी औक्टाटिशियन बोलियों पर आधारित थी और जिसे आज की समोगियनियन बोली कहा जाता है, से असंबंधित है; इसके बजाय यह आधुनिक लिथुआनियाई साहित्यिक भाषा का प्रत्यक्ष पूर्वज है। [६]
इतिहास -
समोगिटियन और लिथुआनियाई अन्य बाल्टिक जनजातियों के संदर्भ में, लगभग 1200
Samogitian भाषा, भारी से प्रभावित Curonian , से उत्पन्न पूर्व बाल्टिक आद्य Samogitian बोली जो के करीब था Aukštaitian बोलियों ।
_______
5 वीं शताब्दी के दौरान, प्रोटो-Samogitians केंद्रीय लिथुआनिया की तराई से पलायन के पास, कौनास में, Dubysa और जुरा घाटियों, साथ ही में Samogitian हाइलैंड्स ।
उन्होंने स्थानीय, क्यूरोनियन बोलने वाले बाल्टिक आबादी को विस्थापित या आत्मसात कर लिया ।
इसके अलावा उत्तर में, उन्होंने विस्थापित, सेमीगैलियन बोलने वाले लोगों को आत्मसात किया ।
क्यूरोनियन और सेमीग्लियंस के आत्मसात ने तीन सामोगियन उप- प्रजातियों को जन्म दिया: "डी ou नाइनिन्को", "डी ओ निन्निको" और "डी ų निन्निको।"
13 वीं सदी में, Žemaitija बाल्टिक संघ कहा जाता है का एक हिस्सा बन Lietuva (लिथुआनिया), जिसके द्वारा बनाई गई थी मिंडोगस ।
लिथुआनिया ने बाल्टिक सागर के तट को लिवोनियन आदेश से जीत लिया
इस तट से बसा हुआ था Curonians , लेकिन का एक हिस्सा बन Samogitia ।
13 वीं शताब्दी के बाद से, सामोगियन लोग पूर्व क्यूरोनियन भूमि के भीतर बस गए, और अगले सौ वर्षों में उस आबादी के साथ अंतर्जातीय विवाह किया।
क्यूरोनियन लोगों का समोगियनियन और लिथुआनियाई संस्कृति पर बहुत बड़ा सांस्कृतिक प्रभाव था, लेकिन अंततः 16 वीं शताब्दी तक उन्हें आत्मसात कर लिया गया। इसकी मरने वाली भाषा ने विशेष रूप से ध्वन्यात्मकता में, बोली को काफी प्रभावित किया है।
समोगिटियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
ध्वनि विज्ञान-
Samogitian और इसके उपविभागों ने उदाहरण के लिए क्यूरोनियन भाषा की कई विशेषताओं को संरक्षित किया:
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट आई का चौड़ीकरण (i →-कभी-कभी ई)
प्रोटो-बाल्टिक शॉर्ट यू (यू → ओ) का चौड़ीकरण
उत्तरी उप-बोलियों में ė की वापसी
पश्चिम बाल्टिक डिप्थॉन्ग ईई का संरक्षण (मानक लिथुआनियाई यानी → समोगिटियन Westi)
कोई टी 'डी' पैलेटाइज़ेशन č dž (लातवियाई š, ž) के लिए
विशिष्ट लेक्सिस, जैसे सिरुलिस (लार्क), पाइले (बतख), लिटिस (लिथुआनियाई) आदि।
काल की वापसी
लातवियाई और पुराने प्रशिया की तरह एंड-टू-एस को छोटा करना ( प्रोटो-इंडो-यूरोपीय ओ-स्टेम )
साथ ही विभिन्न अन्य सुविधाएँ यहाँ सूचीबद्ध नहीं हैं।
समोगियन भाषा में सबसे पहला लेखन 19 वीं शताब्दी में दिखाई दिया।
व्याकरण -
समोगिटियन भाषा मानक लिथुआनियाई की तरह अत्यधिक उपेक्षित है , जिसमें भाषण के कुछ हिस्सों और एक वाक्य में उनकी भूमिकाओं के बीच के संबंध कई लचीलेपन द्वारा व्यक्त किए जाते हैं।
______________
सामोगियन में दो
लिंग हैं - स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। ऐतिहासिक भाषाओं के अवशेष के मानक लिथुआनियाई की परिधि को समोगिटियन में एक तीव्र स्वर से बदल दिया जाता है।
यह पांच है स्त्रीलिंग और तीन विशेषण( declensions) । संज्ञा के मानक लिथुआनियाई से अलग हैं।
केवल दो क्रिया संयुग्मन हैं। सभी क्रियाओं में वर्तमान , अतीत , अतीत पुनरावृत्त होते हैं
नपुंसक के लगभग पूरी तरह से विलुप्त हो चुके हैं जबकि मानक लिथुआनियाई में कुछ अलग-थलग रूप बने हुए हैं।
उन रूपों को समोगियन में मर्दाना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाता है। समोगिटियन काल गतिशील है लेकिन अक्सर शब्दों के अंत में पीछे हट जाता है, और यह पिच तीव्र स्वर उच्चारण द्वारा भी विशेषता है ।
( Samogitian )में लातवी और डेनिश की तरह एक टूटी हुई टोन (स्वर) है और यह भविष्य काल की है ।
पिछले पुनरावृत्तियों का गठन मानक लिथुआनियाई से अलग है।
समोगेशियन-(Samogitian) में तीन वचन हैं:।
_______________________________________
१-एकवचन ,द्विवचन और बहुवचन में से द्विवचन का मानक लिथुआनियाई में लगभग अब विलुप्त है।
Number-वचन-
Nouns, adjectives, and pronouns also vary as to number. They can be singular, dual (referring to two people or things),[11] or plural (referring to two or more):
ὁ θεός (ho theós) "the god" (singular)
τὼ θεώ (tṑ theṓ) "the two gods" (dual)
οἱ θεοί (hoi theoí) "the gods" (plural)
As can be seen from the above examples, the difference between singular, dual, and plural is generally shown in Greek by changing the ending of the noun, and the article also changes for different numbers.
The dual number is used for a pair of things, for example τὼ χεῖρε (tṑ kheîre) "his two hands",[12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν (toîn duoîn teikhoîn) "of the two walls".[13] It is, however, not very common; for example, the dual article τώ (tṓ) is found no more than 90 times in the comedies of Aristophanes, and only 3 times in the historian Thucydides.[14] There are special verb endings for the dual as well.
वचन -
संज्ञा, विशेषण और सर्वनाम भी संख्या के अनुसार भिन्न होते हैं।
वे एकवचन हो सकते हैं , दोहरी (द्विवचन )(दो लोगों या चीजों का जिक्र), [11]
या बहुवचन (दो या अधिक का संदर्भ देते हुए):
ὁ god ( हो दीस ) "द गॉड" (एकवचन)
τὼ two ( tṑ ṑ ) "दो देवता" (दोहरी)
οἱ θεοί ( होई theoí ) "देवताओं" (बहुवचन)
जैसा कि ऊपर के उदाहरणों से देखा जा सकता है, एकवचन, दोहरे और बहुवचन के बीच का अंतर आमतौर पर ग्रीक में संज्ञा के अंत को बदलकर दिखाया जाता है, और लेख भी विभिन्न संख्याओं के लिए बदलता है।
दोहरी संख्या द्विवचन , चीजों की एक जोड़ी के लिए प्रयोग किया जाता है, उदाहरण के लिए τὼ χεῖρε ( करने के लिए kheîre ,) "अपने दो हाथों" [12] τοῖν δυοῖν τειχοῖν ( Toin duoîn teikhoîn ) "दो दीवारों के"। [१३] हालांकि, यह बहुत सामान्य नहीं है; उदाहरण के लिए, दोहरी लेख τώ ( करने के लिए ) नहीं पाया जाता है की हास्य की तुलना में अधिक 90 बार Aristophanes इतिहासकार में, और केवल 3 बार थूसाईंडाईड्स । [१४] दोहरे के लिए विशेष क्रिया अंत भी हैं।
__________
तीनों वचनों (नंबरों) का तीसरा व्यक्ति आम है। मानक लिथुआनियाई के रूप में समोगिटियन भाषा के पास प्रतिभागियों की एक बहुत समृद्ध प्रणाली है, जो सभी काल से अलग सक्रिय और निष्क्रिय रूपों और कई गेरुंड( Gerun)-(क्रियार्थक संज्ञा)
तथा यह.( Ing ) का रूपान्तरण है .) शतृ-प्रत्यय का अत् शेष रहता है । अर्थात् श् और ऋ हट जाते है । जैसेः–पठ् शतृ पठत्
इसका अर्थः— रहा है, रहे हैं, रही है । जैसे वह पढता हुआ जा रहा हैः—स पठन् गच्छति ।
(2.) यह वर्तमान काल में होता है । जैसे—पुल्लिंग में पठन् बनता है, जिसका अर्थ पढता हुआ है ।
(3.) इसका केवल परस्मैपद-धातुओं के साथ प्रयोग होता है । जैसेः—लिख् शतृ लिखत्(लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे –3.2.123) उभयपदी धातुओं के साथ भी इसका प्रयोग होता है, जैसेः—पच्-शतृ–पचत् ।
(4.) इसे “सत्-प्रत्यय” भी कहा जाता है ।(तौ सत्—3.2.127)
(5.) कभी कभार इसका भविष्यत् काल में भी प्रयोग होता है, जैसेः—–करिष्यन्तं देवदत्तं पश्य। करने वाले देवदत्त को देखो ।(लृटः सद्वा—3.3.14)
(6.) इसका विशेषण के रूप में प्रयोग होता है, जैसेः—पढने वाले देवदत्त को देखो—पठिष्यन्तं देवदत्तं पश्य । या पठन्तं देवदत्तं पश्य–पढते हुए देवदत्त को देखो ।
इसमें विशेष यह है कि विशेष्य के अनुसार विशेषण का लिंग, वचन, विभक्ति, पुरुष आदि बदल जाते हैं ।
(7.) जो धातु जिस गण की हो, उस गण का विकरण भी धातु के साथ प्रयोग होता है, जैसेः–पठ्-शप्-शतृः—पठत्
पठ् धातु भ्वादिगण की है, तो शप् विकरण का प्रयोग हुआ ।
इसी प्रकार दिवादिगण की धातु के साथ श्यन्, स्वादि से श्नु आदि।
(8.) शतृ-प्रत्यय से बने शब्दों के रूप भी चलते हैं ।
(क) पुल्लिंग में पठन् बनता है, इसका रूप भवत् (आप) के अनुसार चलता है ।
इसी पठन् का रूप देखेंः—
पठन्——पठन्तौ——-पठन्तः
पठन्तम्—–पठन्तौ—–पठतः
पठता——पठद्भ्याम्—–पठद्भिः
पठते——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठतोः———-पठताम्
पठति——–पठतोः——–पठत्सु
हे पठन्——हे पठन्तौ——हे पठन्तः
(ख) स्त्रीलिंग में नदी के अनुसार इसका रूप चलता हैः—
पठन्ती——पठन्त्यौ——-पठन्त्यःपठन्तीम्—–पठन्त्यौ—–पठन्तीः
पठन्त्या——पठन्तीभ्याम्—–पठद्भिः
पठन्त्यै——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्त्योः———-पठन्तीनाम्
पठन्त्याम्——–पठन्त्योः———पठन्तीषु
हे पठन्ति——हे पठन्त्यौ——हे पठन्त्यः
(ग) नपुंसकलिंग में पठत् का रूप जगत् के अनुसार चलेगाः—
पठत्—–पठन्ती——पठन्ति
पठत्—-पठन्ती——-पठन्ति
शेष पुल्लिंग के अनुसार ही चलेगा ।
(9.) शतृ-प्रत्यय वाले शब्द उगित् होते है, अर्थात् इसका ऋ का लोप हो जाता है, ऋ उक् प्रत्याहार में आता है, अतः ऋ का लोप होने से यह उगित् है। उगितश्च—4.1.6 सूत्र से स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय आता है और तब यह ईकारान्त शब्द बन जाता है, जिससे स्त्रीलिंग में इसका रूप नदी के अनुसार चलता है ।
(10.) स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग में नुम् प्रत्यय होता है, जिसका न् शेष रहता है —(शप्श्यनोर्नित्यम्—7.1.81 और आच्छीनद्योनुम्—7.1.80)
भ्वादि. दिवादि., चुरादि. और तुदादिगण की धातु के लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन के रूप में अन्त में ई जोड देते हैंं, जैसेः—गच्छन्ति—गच्छन्ती, पठन्ती,, पिबन्ती,,, दीव्यन्ती,,, तुदन्ती आदि।
अदादि. स्वादि. क्र्यादि. तनादि. जुहोत्यादिगण की धातुओं में लट् लकार प्र. पु. बहुवचन के रूप में केवल ई लगेगा, नुम् नहीं होगा, अतः न् नहीं दिखेगाः–
रुदती, शृण्वती, क्रीणती, कुर्वती, ददती आदि
(11.) किसी धातु से शृ-प्रत्ययान्त शब्द बनाने की सरल उपाय यह है कि जिस धातु का, लट् लकार के प्र. पु. के एकवचन में जो रूप बनता है, उसके “ति” भाग को को “त्” कर दो और यथास्थान “नुम्” का “न्” जोड दो । जैसेः—भू का भवति—शतृ से भवत् (नपुं. ) पु. में भवन्, तथा स्त्री. में भवन्ती बनेगा ।
(12.) शतृ-प्रत्यय भी दो वाक्यों को जोडता है । वाक्य में इसका प्रथम क्रिया के साथ प्रयोग होता है। जैसेः—
सः पठति । सः गच्छति । वह पढते हुए जाता हैः—सः पठन् गच्छति ।
(13.) वाक्य में प्रथम क्रिया के जो शतृ प्रत्यय जुडता है, वह वर्तमान कालिक ही होता है, किन्तु दूसरी क्रिया किसी भी काल में हो सकती है, जैसेः—
वह पढते हुए जाता हैः–स पठन् गच्छति ।
वह पढते हुए जा रहा थाः—व पठन् अगच्छत् ।
वह पढते हुए जाएगा—स पठन् गमिष्यति ।
अभ्यास हेतु कुछ वाक्यः—
(1.) सः गृहं गच्छन् अस्ति ।
(2.) वह पुस्तक पढता हुआ जा रहा हैः—सः पुस्तकं पठन् गच्छति ।
(3.) वह खाते हुए देख रहा है—स खादन् पश्यति ।
(4.) वे दोनों घर जाते हुए हैं—तौ गृहं गच्छन्तौ स्तः।
(5.) वे सब घर जाते पढ रहे थे—-ते गृहं गच्छन्तः पठन्ति स्म ।
(6.) लडकियाँ खेलती हुईं गा रही हैं—बालाः क्रीडन्त्यः गायन्ति ।
(7.) घर जाते हुए मुझे देखो—गृहं गच्छन्तं माम् पश्य ।
(8.) यह पुस्तक पढते हुए मोहन को दे दोः—इदं पुस्तकं पठते मोहनाय देहि ।
(9.) वृक्ष से गिरते हुए फलों को देखो—-वृक्षात् पतन्ति फलानि पश्य ।
(10.) जाती हुई बुढिया हँस रही है—-गच्छन्ती वृद्धा हसति ।
(11.) घर जाती हुई लडकियों से शिक्षिका ने कहा —गहं गच्छन्तीः बालिकाः शिक्षिका अकथयत् ।
(12.) खिलते हुए पुष्पों को सुँघो—विकसन्ति पुष्पाणि जिघ्र ।
(13.) माता धमकाती हुई पुत्री से कहा—जननी तर्जयन्ती पुत्रीम् अकथयत् ।
(14.) रोते हुए बालक को बोलो—रुदन्तं बालकं ब्रूहि ।
(15.) ब्राह्मण को दान देते राजा को देखो—ब्राह्मणाय दानं यच्छन्तं नृपं पश्य ।
(16.) दौडते हुए बालक को बोलो—धावन्तं बालकं वद ।
(17.) खेलते हुए बालकों के साथ तुम भी खेलो—खेलद्भिः (क्रीडद्भिः) बालकैः सह त्वमपि क्रीड (खेल) ।
(18.) खाते हुए मत बोलो—खादन् मा वद ।
(19.) काम करती हुई माता ने पुत्री से पूछा—-कार्यं कुर्वती माता पुत्रीम् अपृच्छत् ।
(20.) जागती पुत्री परीक्षा के लिए पढ रही है—जाग्रती पुत्री परीक्षायै (परीक्षार्थम्) पठति ।
'
.) शतृ-प्रत्यय का अत् शेष रहता है । अर्थात् श् और ऋ हट जाते है । जैसेः–पठ् शतृ पठत्
इसका अर्थः— रहा है, रहे हैं, रही है । जैसे वह पढता हुआ जा रहा हैः—स पठन् गच्छति ।
(2.) यह वर्तमान काल में होता है । जैसे—पुल्लिंग में पठन् बनता है, जिसका अर्थ पढता हुआ है ।
(लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे –3.2.123) उभयपदी धातुओं के साथ भी इसका प्रयोग होता है, जैसेः—पच्-शतृ–पचत् ।
(4.) इसे “सत्-प्रत्यय” भी कहा जाता है ।(तौ सत्—3.2.127)
(5.) कभी कभार इसका भविष्यत् काल में भी प्रयोग होता है, जैसेः—–करिष्यन्तं देवदत्तं पश्य। करने वाले देवदत्त को देखो ।(लृटः सद्वा—3.3.14)
(6.) इसका विशेषण के रूप में प्रयोग होता है, जैसेः—पढने वाले देवदत्त को देखो—पठिष्यन्तं देवदत्तं पश्य । या पठन्तं देवदत्तं पश्य–पढते हुए देवदत्त को देखो ।
इसमें विशेष यह है कि विशेष्य के अनुसार विशेषण का लिंग, वचन, विभक्ति, पुरुष आदि बदल जाते हैं ।
(7.) जो धातु जिस गण की हो, उस गण का विकरण भी धातु के साथ प्रयोग होता है, जैसेः–पठ्-शप्-शतृः—पठत्
पठ् धातु भ्वादिगण की है, तो शप् विकरण का प्रयोग हुआ ।
इसी प्रकार दिवादिगण की धातु के साथ श्यन्, स्वादि से श्नु आदि।
(8.) शतृ-प्रत्यय से बने शब्दों के रूप भी चलते हैं ।
(क) पुल्लिंग में पठन् बनता है, इसका रूप भवत् (आप) के अनुसार चलता है ।
इसी पठन् का रूप देखेंः—
पठन्——पठन्तौ——-पठन्तः
पठन्तम्—–पठन्तौ—–पठतः
पठता——पठद्भ्याम्—–पठद्भिः
पठते——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठद्भ्याम्——-पठद्भ्यः
पठतः——-पठतोः———-पठताम्
पठति——–पठतोः——–पठत्सु
हे पठन्——हे पठन्तौ——हे पठन्तः
(ख) स्त्रीलिंग में नदी के अनुसार इसका रूप चलता हैः—
पठन्तीम्—–पठन्त्यौ—–पठन्तीः
पठन्त्या——पठन्तीभ्याम्—–पठद्भिः
पठन्त्यै——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्तीभ्याम्——-पठन्तीभ्यः
पठन्त्याः——-पठन्त्योः———-पठन्तीनाम्
पठन्त्याम्——–पठन्त्योः———पठन्तीषु
हे पठन्ति——हे पठन्त्यौ——हे पठन्त्यः
(ग) नपुंसकलिंग में पठत् का रूप जगत् के अनुसार चलेगाः—
पठत्—–पठन्ती——पठन्ति
पठत्—-पठन्ती——-पठन्ति
शेष पुल्लिंग के अनुसार ही चलेगा ।
(9.) शतृ-प्रत्यय वाले शब्द उगित् होते है, अर्थात् इसका ऋ का लोप हो जाता है, ऋ उक् प्रत्याहार में आता है, अतः ऋ का लोप होने से यह उगित् है। उगितश्च—4.1.6 सूत्र से स्त्रीलिंग में ङीप् प्रत्यय आता है और तब यह ईकारान्त शब्द बन जाता है, जिससे स्त्रीलिंग में इसका रूप नदी के अनुसार चलता है ।
(10.) स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग में नुम् प्रत्यय होता है, जिसका न् शेष रहता है —(शप्श्यनोर्नित्यम्—7.1.81 और आच्छीनद्योनुम्—7.1.80)
भ्वादि. दिवादि., चुरादि. और तुदादिगण की धातु के लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन के रूप में अन्त में ई जोड देते हैंं, जैसेः—गच्छन्ति—गच्छन्ती, पठन्ती,, पिबन्ती,,, दीव्यन्ती,,, तुदन्ती आदि।
अदादि. स्वादि. क्र्यादि. तनादि. जुहोत्यादिगण की धातुओं में लट् लकार प्र. पु. बहुवचन के रूप में केवल ई लगेगा, नुम् नहीं होगा, अतः न् नहीं दिखेगाः–
रुदती, शृण्वती, क्रीणती, कुर्वती, ददती आदि
(11.) किसी धातु से शृ-प्रत्ययान्त शब्द बनाने की सरल उपाय यह है कि जिस धातु का, लट् लकार के प्र. पु. के एकवचन में जो रूप बनता है, उसके “ति” भाग को को “त्” कर दो और यथास्थान “नुम्” का “न्” जोड दो । जैसेः—भू का भवति—शतृ से भवत् (नपुं. ) पु. में भवन्, तथा स्त्री. में भवन्ती बनेगा ।
(12.) शतृ-प्रत्यय भी दो वाक्यों को जोडता है । वाक्य में इसका प्रथम क्रिया के साथ प्रयोग होता है। जैसेः—
सः पठति । सः गच्छति । वह पढते हुए जाता हैः—सः पठन् गच्छति ।
(13.) वाक्य में प्रथम क्रिया के जो शतृ प्रत्यय जुडता है, वह वर्तमान कालिक ही होता है, किन्तु दूसरी क्रिया किसी भी काल में हो सकती है, जैसेः—
वह पढते हुए जाता हैः–स पठन् गच्छति ।
वह पढते हुए जा रहा थाः—व पठन् अगच्छत् ।
वह पढते हुए जाएगा—स पठन् गमिष्यति ।
अभ्यास हेतु कुछ वाक्यः—
(1.) सः गृहं गच्छन् अस्ति ।
(2.) वह पुस्तक पढता हुआ जा रहा हैः—सः पुस्तकं पठन् गच्छति ।
(3.) वह खाते हुए देख रहा है—स खादन् पश्यति ।
(4.) वे दोनों घर जाते हुए हैं—तौ गृहं गच्छन्तौ स्तः।
(5.) वे सब घर जाते पढ रहे थे—-ते गृहं गच्छन्तः पठन्ति स्म ।
(6.) लडकियाँ खेलती हुईं गा रही हैं—बालाः क्रीडन्त्यः गायन्ति ।
(7.) घर जाते हुए मुझे देखो—गृहं गच्छन्तं माम् पश्य ।
(8.) यह पुस्तक पढते हुए मोहन को दे दोः—इदं पुस्तकं पठते मोहनाय देहि ।
(9.) वृक्ष से गिरते हुए फलों को देखो—-वृक्षात् पतन्ति फलानि पश्य ।
(10.) जाती हुई बुढिया हँस रही है—-गच्छन्ती वृद्धा हसति ।
(11.) घर जाती हुई लडकियों से शिक्षिका ने कहा —गहं गच्छन्तीः बालिकाः शिक्षिका अकथयत् ।
(12.) खिलते हुए पुष्पों को सुँघो—विकसन्ति पुष्पाणि जिघ्र ।
(13.) माता धमकाती हुई पुत्री से कहा—जननी तर्जयन्ती पुत्रीम् अकथयत् ।
(14.) रोते हुए बालक को बोलो—रुदन्तं बालकं ब्रूहि ।
(15.) ब्राह्मण को दान देते राजा को देखो—ब्राह्मणाय दानं यच्छन्तं नृपं पश्य ।
(16.) दौडते हुए बालक को बोलो—धावन्तं बालकं वद ।
(17.) खेलते हुए बालकों के साथ तुम भी खेलो—खेलद्भिः (क्रीडद्भिः) बालकैः सह त्वमपि क्रीड (खेल) ।
(18.) खाते हुए मत बोलो—खादन् मा वद ।
(19.) काम करती हुई माता ने पुत्री से पूछा—-कार्यं कुर्वती माता पुत्रीम् अपृच्छत् ।
(20.) जागती पुत्री परीक्षा के लिए पढ रही है—जाग्रती पुत्री परीक्षायै (परीक्षार्थम्) पठति ।
Etymology - "संस्कृत मे शतृ कृदन्त प्रत्यय का अत्( अन्य) रूप -
The Modern English -ing ending, which is used to form both gerunds and present participles of verbs (i.e. in noun and adjective uses), derives from two different historical suffixes.
The gerund (noun) use comes from Middle English -ing, which is from Old English -ing, -ung (suffixes forming nouns from verbs). These in turn are from Proto-Germanic *-inga-, *-unga-,[1] *-ingō, *-ungō, which Vittore Pisani [it] derives from Proto-Indo-European *-enkw-.[2] This use of English -ing is thus cognate with the -ing suffix of Dutch, West Frisian, the North Germanic languages, and with German -ung.
The -ing of Modern English in its participial (adjectival) use comes from Middle English -inge, -ynge, supplanting the earlier -inde, -ende, -and, from the Old English present participle ending -ende. This is from Proto-Germanic *-andz, from the Proto-Indo-European *-nt-. This use of English -ing is cognate with Dutch and German -end, Swedish -ande, -ende, Latin -ans, -ant-, Ancient Greek -ον (-on), and Sanskrit शतृ ( अन्) -an . -inde, -ende, -and later assimilated with the noun and gerund suffix -ing. Its remnants, however, are still retained in a few verb-derived words such as friend, fiend, and bond (in the sense of "peasant, vassal").
The standard pronunciation of the ending -ing in modern English is "as spelt", namely /ɪŋ/, with a velar nasal consonant (the typical ng sound also found in words like thing and bang); some dialects, e.g. in Northern England, have /ɪŋg/ instead. However, many dialects use, at least some of the time and in some cases exclusively, an ordinary n sound instead (an alveolar nasal consonant), with the ending pronounced as /ɪn/ or /ən/. This may be denoted in eye dialect writing with the use of an apostrophe to represent the apparent "missing g"; for example runnin' in place of running. For more detail see g-dropping.
आईएनजी (ing )एक है प्रत्यय में से एक बनाने के लिए इस्तेमाल विभक्ति के रूपों अंग्रेज़ी क्रिया ।
इस क्रिया रूप का उपयोग एक वर्तमान कृदन्त के रूप में किया जाता है, एक गेरुंड के रूप में, और कभी-कभी एक स्वतंत्र संज्ञा या विशेषण के रूप में । प्रत्यय सुबह (evening) और छत , और ब्राउनिंग जैसे नामोंमें भी पाया जाता है।
व्युत्पत्ति और उच्चारण करें
आधुनिक अंग्रेजी आईएनजी न खत्म होने वाली है, जो दोनों gerunds और क्रियाओं के वर्तमान participles के रूप में प्रयोग किया जाता है (यानी में संज्ञा और विशेषण का उपयोग करता है), दो अलग अलग ऐतिहासिक प्रत्यय से व्युत्पन्न।
Gerund (संज्ञा) इस्तेमाल से आता है मध्य अंग्रेजी आईएनजी , जिसमें से है पुरानी अंग्रेज़ी आईएनजी , -ung (प्रत्यय क्रियाओं से संज्ञाओं के गठन)। बदले में ये से हैं आद्य-युरोपीय * -inga- , * -unga- , [1] * -ingō , * -ungō , जो Vittore Pisani [ यह ] से व्युत्पन्न प्रोटो-इंडो-यूरोपीय * -enkw- । [2] अंग्रेजी का यह प्रयोग आईएनजी इस प्रकार है सजातीय साथ आईएनजी के प्रत्यय डच , पश्चिम फ़्रिसियाई, उत्तरी जर्मेनिक भाषाओं , और साथ जर्मन -ung ।
आईएनजी अपने में आधुनिक अंग्रेजी का कृदंत (विशेषण) उपयोग मध्य अंग्रेजी से आता है -inge , -ynge , पहले supplanting -inde , -ende , -और , पुरानी अंग्रेज़ी वर्तमान कृदंत से खत्म होने वाली -ende । यह प्रोटो-जर्मेनिक * -एंडज से है, प्रोटो-इंडो-यूरोपियन * -nt- से । अंग्रेजी का यह प्रयोग आईएनजी डच और जर्मन के साथ सजातीय है अंत , स्वीडिश -ande , -ende , लैटिन -ans , -ant- , प्राचीन यूनानी -ον ( ऑन ), और संस्कृत -ant । -inde , -ende , -और बाद में संज्ञा और gerund प्रत्यय के साथ आत्मसात -ing । इसके अवशेष, हालांकि, अभी भी कुछ क्रिया-व्युत्पन्न शब्दों जैसे कि दोस्त , पैशाचिक , और बंधन ("किसान, वासल" के अर्थ में) को बरकरार रखे हुए हैं ।
मानक के उच्चारण समाप्त होने आईएनजी आधुनिक अंग्रेजी में है "की वर्तनी के रूप में", अर्थात् / ɪŋ / , के साथ एक वेलर नेसल व्यंजन (विशिष्ट एनजी ध्वनि भी जैसे शब्दों में पाया बात और धमाके ); उत्तरी इंग्लैंड में कुछ बोलियाँ, जैसे / insteadg / के बजाय। हालाँकि, कई बोलियाँ कम से कम कुछ समय और कुछ मामलों में विशेष रूप से, एक साधारण n ध्वनि के बजाय (एक वायुकोशीय अनुनासिक व्यंजन), अंत के साथ उच्चारण के रूप में / usen / या / /n / । इसे आंखों की बोली में दर्शाया जा सकता हैस्पष्ट "लापता जी " का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक एपोस्ट्रोफ के उपयोग के साथ लेखन ; उदाहरण के लिए रनिंग के स्थान पर रनरिन ' । अधिक विवरण के लिए जी- ड्रॉपिंग देखें ।
"व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्-यन्ते अर्थवत्तया प्रतिपाद्-यन्ते शब्दा येन इति व्याकरणम्
वि +आ+कृ-करणे + ल्युट् (अन्) = व्याकरणम् ।
इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथावाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते।१.३।इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि
इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारन्न दीप्यते।।१.४
मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को प्राय:तीन प्रकार से ही प्रकट करता है-
भाषा और बोली (Language and Dialect)
♣•भाषा:-(Language)
"भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है" ।
♣•-बोली:-Patios-
आधुनिक अंग्रेजी और अमेरिकी उद्यानों में 'आँगन' घर के पास एक पक्का क्षेत्र है, जिसका उपयोग बाहरी बैठने और खाने के लिए भी किया जाता है उसके लिए भी प्रयोग हुआ । जिसमें एक या दो तरफ को इमारत हो सकती है, लेकिन पारंपरिक स्पैनिश आंगन की तरह एक आंतरिक आंगन होने की संभावना नहीं है। इसी से हिन्दी में (पट्टा) खेत के चमड़े या बानात आदि की बद्धी जो कुत्तों, बिल्लियों के गले में पहनाई जाती है का मूल भी यही है ।
संस्कृत में पट्ट =(पट्+क्त) नेट् ट वा तस्य नेत्त्वम् का अर्थ नगर चतुष्पथ या चौराहे को भी कहा गया और भूम्यादिकरग्रहणलेख्यपत्र (पाट्टा) को भी
वह भूमि संबंधी अधिकारपत्र जो भूमिस्वामी की ओर से असामी को दिया जाता है और जिसमें वे सब शर्तें लिखी होती हैं जिनपर वह अपनी जमीन उसे देता है।
वस्तुत: पशुचर-भूमि को पाश्चर (pature) कहा गया जो (patio) शब्द से विकसित हुआ। और पाश में बँधे हुए जानवर को ही पशु कहा गया और पाश शब्द ही अन्य रूपान्तरण (पाग) पगाह रूप में हिन्दी में आया और अंग्रेज़ी में इसके समानार्थक (pag) भी है जिसका अर्थ भी बाँधना है ।
विभाषा(Dialect)
'डिंगल' राजपूताने की वह राजस्थानी भाषा की शैली जिसमें भाट और चारण काव्य और वंशावली आदि लिखते चले आते हैं यह पश्चिमी राजस्थान मेें प्रसारित हुई।
पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म भी पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था भरत पुर के आसपास
इस भाषा में चारण परम्परा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।
उद्भव डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी।
डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया।
उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
'पिंगल' शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से रहा है।
सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है।
इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा।
यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया।
गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में "भाषा पिंगल दी " कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।
'पिंगल' और 'डिंगल' दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं।
'डिंगल' इससे कुछ भिन्न भाषा-शैली थी।
यह भी चारणों में ही विकसित हो रही थी।
इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। 'पिंगल' संभवतः 'डिंगल' की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी
और इस पर 'ब्रजभाषा' का अधिक प्रभाव था।
इस शैली को 'अवहट्ठ' और 'राजस्थानी' के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है।
डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है इसका अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वि राजस्थानी का साहित्यिक रूप है।
और इसका अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है।
♣•-हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :-
लिपि (Script):- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है - लेपन या लीपना पोतना आदि अर्थात् जिस प्रकार चित्रों को बनाने के लिए उनको लीप-पोत कर सम्यक् रूप दिया जाता है लैटिन से "scribere=लिखना" से 'Script' शब्द का विकास हुआ है।
"व्याकरण" ( Grammar)
🔜 -प्राचीन ग्रीक (γραμμττική ) में ( व्याकरणिक , " लेखन में कुशल ") क्रियात्मक रूपों से ग्रामर शब्द की अवधारणा का जन्म हुआ।
"ग्रीक भाषा में (gramma) शब्द का अर्थ "letter"( वर्ण)है ।
"ग्रामर शब्द का प्राचीन अर्थ प्रयोग ,ग्लैमर और व्याकरण दौनो का सन्दर्भित करता था ।
जादू या कीमिया के उपयोग में उसके निर्देशों की एक पुस्तक, विशेष रूप से दैवीय शक्तियों को बुलाने के लिए भी ग्रामा शब्द रूढ़ रहा है ।
From Middle English gramer, gramarye, gramery, from Old French gramaire (“classical learning”), from Latin grammatica, from Ancient Greek γραμματική (grammatikḗ, “skilled in writing”), from γράμμα (grámma, “line of writing”), from γράφω (gráphō, “write”), from Proto-Indo-European *gerbʰ- (“to carve, scratch”). Displaced native Old English stæfcræft. -
Proto-Indo-European-
Root
*gerbʰ-
- to carve
Derived terms
- *gérbʰ-e-ti (thematic root present)
- Germanic: *kerbaną (see there for further descendants)
- *gr̥bʰ-é-ti (tudati-type thematic present)
- *gr̥bʰ-tó-s
- Unsorted formations:
"प्र यन्ति यज्ञम् विपयन्ति बर्हिःसोमऽमादः विदथे। दुध्रऽवाचः नि ऊं इति भ्रियन्ते यशसः गृभात् आ दूरेऽउपब्दः वृषणः नृऽसाचः ॥२।
★-अन्वयार्थ
Etymology Etymology of Glamour (ग्लैमर).
From Scots glamer, from earlier Scots gramarye (“magic, enchantment, spell”).enchantment - सम्मोहन)
The Scottish term may either be from Ancient Greek γραμμάριον (grammárion, “gram”), the weight unit of ingredients used to make magic potions, or an alteration of the English word grammar (“any sort of scholarship, especially occult learning”).
A connection has also been suggested with Old Norse glámr =(poet. “moon,” name of a ghost) and glámsýni (“glamour, illusion”, literally “glam-sight”).
"व्याकरण वर्ण-विन्यास की सैद्धांतिक विधि कि सम्पादन और उदात्त अनुदात्त और त्वरित स्वरमान के अनुरूप उच्चारण विधान का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है व्याकरण वर्ण विन्यास के सम्यक् निरूपण की सैद्धांतिक शिक्षा शास्त्र का केन्द्रीय भाव है उचित स्वरमान मन्त्र और साम ( Song) की सिद्धि कारक है और स्वरों का बलाघात ही अर्थ का का निश्चायक है"
व्याकरण वर्ण- विन्यास का सम्यक् रूप से सैद्धांतिक विवेचन करने वाला शास्त्र है । जो वर्ण- विन्यास और उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित स्वरमान के अनरूप उच्चारण विधान करने वाला शास्त्र है मन्त्र शक्तिवाग् भी वर्ण- और उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित मान के अनुरूप उच्चारण द्वारा सिद्ध होकर फल देता है । यही संगीत में गायन आधार तत्व है
"मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥'५२।
"पाणिनि शिक्षा नवम-खण्ड 52वाँ श्लोक"
अर्थात् - स्वर (accent) अथवा वर्ण(Grama) विन्यास से भंग उच्चरित हीनमन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता (जिसके लिए उसका उच्चारण किया जाता है) । वह रूपी वज्र यजमान को नष्ट करता है, जैसे स्वर के अपराध से इन्द्रशत्रु ने किया ।
"इन्द्रशत्रुर्वधस्व" के स्थान पर इन्द्र: शत्रुर्वर्धस्व" का उच्चारण कर दिया जिसका अर्थ हुआ.( इन्द्र शत्रुु की वृद्धि हो) मन्त्र में इन्द्रशत्रु पद का उच्चारण “इन्द्रः शत्रुर्वर्धस्व” पद के रूप में कर दिया गया, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का शत्रु (शद्+त्रुन्) = शद्=शातने मारणे च (मारनेवाला), यह अर्थ प्रकट हो गया । फलतः इन्द्र द्वारा वृत्रासुर मारा गया
इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं।
व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
वर्ण -विचार.-Orthography-👇
परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण नहीं है।
इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। परन्तु कदाचित् सन्धि विधान के निमित्त पाणिनि मुनि ने माहेश्वर सूत्रों की संरचना की है ।
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी न होते ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।
इनकी संरचना व व्युत्पत्ति के विषय में नीचे विश्लेषण है
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पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या( 14) है ;
जो निम्नलिखित हैं: 👇
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१. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
उपर्युक्त्त (14 )सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से समायोजित किया गया है। पहले दो सूत्रों में मूलस्वर। फिर परवर्ती दोसूत्रों में सन्धि-स्वर फिर अन्त:स्थ वस्तुत: ये अर्द्ध स्वर हैैं तत्पश्चात अनुनासिक वर्ण हैं जो ।अनुस्वार रूपान्तरण हैं अनुस्वार "म" तथा न " का ही स्वरूप हैै। अत: बहुतायत वर्ण स्वर युुु्क्त ही हैं ।
पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक वर्ण) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।
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♣•स्वर और व्यञ्जन का मौलिक अन्तर-
स्वर और व्यञ्जन का मौलिक भेद उसकी दूरस्थ श्रवणीयता है स्वर में यह दूरस्थ श्रवणीयता अधिक होती है व्यञ्जन की अपेक्षा स्वर दूर तक सुनाई देता है । दूसरा मौलिक अन्तर स्वर में नाद प्रवाहिता अधिक होती है।
स्वर का आकार उच्चारण समय पर अवलम्बित है तथा इनके उच्चारण में जिह्वा के और अन्तोमुखीय अंगों का परस्पर स्पर्श और घर्षण भी नहीं होता है । जबकि व्यञ्जनों के उच्चारण में न्यूनाधिक अन्तोमुखीय अंगों को घर्षण करते हुए भी निकलती है जिसके आधार पर उन व्यञ्जनों को अल्पप्राण और महाप्राण नाम दिया जाता है । स्वर तन्त्रीयों में उत्पन्न नाद को ही स्वर माना जाता है स्वर सभी ही नाद अथवा घोष होते हैं। जबकि व्यञ्जनों में कुछ ही नाद यक्त। होते हैं जिनमें स्वर का अनुपात अधिक होता है । कुछ व्यञ्जन प्राण अथवा श्वास से उत्पन्न होते हैं ।
"स्वर की परम्परागत परिभाषा- स्वतो राजन्ते भासन्ते इति स्वरा: " जो स्वयं प्रकाशित होता है।स्वतन्त्र रूप से उच्चरित ध्वनि स्वर है; जिसको उच्चारण करने में किसी की सहायता नहीं ली जाती है । परन्तु स्वर की वास्तविक परिभाषा यही है कि स्वर वह है जिसके उच्चारण काल में श्वास कहीं कोई अवरोध न हो और व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण काल में कहीं न कहीं अवरोध अवश्य हो। जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन। कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+ त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात् स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।
जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन।कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+ त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात् स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।
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माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र अन्त:स्थ व व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् अन्त:स्थ एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।
अच् एवं हल् भी प्रत्याहार ही हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :---
प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्य गृह्यन्ते वर्णां अनेन (प्रति + आ + हृ--करणे + घञ् प्रत्यय )-जिसके द्वारा संक्षिप्त करके वर्णों को ग्रहण किया जाता है ।
प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।
यह अच् प्रत्याहार अपने आदि वर्ण ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी वर्णो का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि वर्ण 'ह' को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम वर्ण (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
(ण् क् च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है अत: ये गिनेे नहीं जाऐंगे।
इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
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अ'इ'उ ऋ'लृ मूल स्वर ।
ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
जैसे क्रमश: अ+ इ = ए तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇
। अ इ उ । ये मूल स्वर भी मूल स्वर "अ" ह्रस्व से विकसित इ और उ स्वर हैं । और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल
'अ' स्वर के उदात्तगुणी ( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
तथाअनुदात्तगुणी (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं ।
और मूल स्वरों में अन्तिम दो 'ऋ तथा 'ऌ स्वर न होकर क्रमश "पार्श्वविक" (Lateral)तथा "आलोडित अथवा उच्छलित ( bouncing )" रूप हैं ।
जो उच्चारण की दृष्टि से क्रमश: मूर्धन्य तथा वर्त्स्य ( दन्तमूलीय रूप ) हैं ।
अब "ह" वर्ण का विकास भी इसी ह्रस्व 'अ' से महाप्राण के रूप में हुआ है ।
जिसका उच्चारण स्थान काकल है ।👉👆👇
★ कवर्ग-क'ख'ग'घ'ड॒॰। से चवर्ग- च'छ'ज'झ'ञ का विकास जिस प्रकार ऊष्मीय करण व तालु घर्षण के द्वारा हुआ। फिर तवर्ग से शीत जलवायु के प्रभाव से टवर्ग का विकास हुआ । परन्तु चवर्ग के "ज' स का धर्मी तो ख' ष' मूर्धन्य का धर्मी है और 'क वर्ण का त'वर्ण में जैसे वैदिक स्कम्भ का स्तम्भ और अनुनासिक न' का ल' मे परिवर्तन है । जैसे ताता-दादा- चाचा-काका एक ही शब्द के चार विकसित रूपान्तरण हैं ।
इ हुआ स प्रकार मूलत: ध्वनियों के प्रतीक तो (28)ही हैं
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी ध्वनि वर्णों की रचना दर्शायी है । जो इन्हीं का विकसित रूप है ।
______________
स्वर- मूल केवल पाँच हैं- (अइउऋऌ) ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
_________________________
और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
१-कवर्ग । २-चवर्ग । ३-टवर्ग ।४-तवर्ग ।५- पवर्ग। = 25।
तेरह (13) स्फुट वर्ण ( आ' ई 'ऊ' ऋृ' लृ ) (ए' ऐ 'ओ 'औ )
( य व र ल) ( चन्द्रविन्दु ँ )
अनुस्वार ( —ं-- )तथा विसर्ग( :) अनुसासिक और महाप्राण ('ह' )के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।
पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा वर्णा शम्भुमते मता: ।
निस्सन्देह "काकल" कण्ठ का ही पार्श्ववर्ती भाग है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक व सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में कहा भी गया है ।
(अ 'कु 'ह विसर्जनीयीनांकण्ठा: )
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
_________________________________________
अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण का ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ-- स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण हैं
ये अन्तस्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्यक्षर या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
जैसे :- इ+अ = य अ+इ =ए
उ+अ = व अ+उ= ओ
_________________________________________
स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का ही प्रतिनिधित्व करते हैं ।
स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक (ञ'म'ङ'ण'न) अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.
खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
शषसर्। १४. हल्।
उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः अंग्रेज़ी में (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं क्यों कि वहाँ यूरोप की शीतप्रधान जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त- सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वाय्वीय ही है जो भारतीय जलवायु का गुण है । उष्म (श, ष, स,) वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के (SA) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।
तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर यूरोपीय भाषा अंग्रेजी में पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।
जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है ।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है ।
___________________________________👇💭
यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है ;वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं ।
केवल टवर्ग( ट'ठ'ड'ढ'ण) से काम चलता है
क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।
अतः "श्" वर्ण के लिए (Sh) तथा "ष्" वर्ण के ( S) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही हैं ।
_________________________________________
अब पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में दो 'ह' वर्ण होने का तात्पर्य है कि एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप में हैं । वे
मौलिक रूप में केवल (28) वर्ण हैं ।
जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं ।
_____________________________
स्वरयन्त्रामुखी:- "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का विकास होता है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह" वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि जहाँ से "ह" का उच्चारण होता है ।
उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का वर्गीकरण--👇
उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-
________________________________________
स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा उनके खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का स्पपर्श करता है ।
(क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ) और अरबी प्रभाव से युक्त क़ (Qu) ये सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।
________________________________________
(च, छ, ज, झ) को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में समायोजित कर लिया गया है।
इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।
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मौखिक(Oral) व नासिक्य(Nasal) :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं।
हिन्दी में( ङ, ञ, ण, न, म) व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नासिका से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर' व अनुनासिक भी कहा जाता है।
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इनके स्थान पर हिन्दी में अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत: ये सभीे प्रत्येक वर्ग के पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूपान्तरण मात्र हैं ।
परन्तु सभी केवल स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "न" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।
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जैसे :-
कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
कण्टक, कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन, अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
पम्प , गुम्फन , अम्बा, दम्भ ।
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इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं।
उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन: उष्म का अर्थ होता है- "गर्म" जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें ही उष्म व्यञ्जन कहते है।
इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन केवल मौखिक हैं।
वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण टवर्ग के साथ आता है ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
चवर्ग -च छ ज झ ञ का तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं और अपने चवर्ग के साथ इनका प्रयोग है।
जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।
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उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म- वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन ही होते है- श, ष, स, ह।
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पार्श्विक- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से एक साथ निकलती है।
★'ल' भी ऐसी ही पार्श्विक ध्वनि है।
★अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।
★हिन्दी में (य, और व) ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।
★लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में 'र' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।
★उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें ऊपर को फैंके हुुुए- उत्क्षिप्त (Thrown) /(flap) वर्ण कहते हैं ।
ड़ और ढ़ भी ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।
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घोष और अघोष वर्ण---
व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।
दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।
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घोष — अघोष
ग, घ, – ङ,क, ख।
ज,झ, – ञ,च, छ।
ड, ढ, –ण, ड़, ढ़,ट, ठ।
द, ध, –न,त, थ।
ब, भ, –म, प, फ।
य, र, –ल, व, ह ,श, ष, स ।
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प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पाँचों वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।
हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है ।
परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । अर्थात जिसका अक्षर न हो वह अक्षर है ।
(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)
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भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को भी कहते हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश (खण्ड)होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ ही बदल जाती हैं।
उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक' ये तीन झटकों में बोला जाता है।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से सुने जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं -
'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।
यह क्रिया उच्चारण क्रिया बलाघात पर आधारित है ,
कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. ।
कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे- 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।
कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अन्त-अर-राष-ट्रीय')।
एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को "अक्षर"(syllable) कहा जाता है।
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इस. उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।
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★-व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।
★-अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।
★-अक्षर से स्वर को न तो पृथक् ही किया जा सकता है; और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।
★-उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।
★-यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा।
★-इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।
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कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
★-अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,) जैसे- एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ भी स्वरयुक्त उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
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★-कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,) जैसे एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।
(Vowels)-स्वराः स्वर्-धातु-आक्षेपे । इति कविकल्पद्रुमः ॥-(अदन्त-चुरा०-पर०-सक०-सेट् वकारयुक्तः रेफोपधः । स्वरयत्यतिरुष्टोऽपि न कञ्चन परिग्रहम् - इति हलायुधः जिसके प्रक्षेपण (उछलने में ओष्ठ भी कोई परिग्रह नहीं करते वह स्वर है ।
(Consonants) - व्यंजनानि-सह स्वरेण विशेषेण अञ्जति इति व्यञ्जन-
जो स्वरों की सहायता से विशेष रूप से प्रकट होता है वह व्यञ्जन हैं । व्यञ्जन (३३) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर(१३)
अयोगवाह : अनुस्वार (Nasal) (अं) और विसर्गः (Colon) ( अः) अनुनासिक (Semi-Nasal) चन्द्र-बिन्दु:-(ँ) इसका उच्चारण वाक्य और मुख दौंनो के सहयोग से होता है।
(द्विस्वर-Dipthongs)-एक साथ उच्चरित दो स्वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्वर, संधि-स्वर, संयुक्त स्वर जैसे शब्द जैसे 'Fine' में (आइ) की ध्वनि है | (ए ,ऐ ,ओ , औ) ये भी द्विस्वर हैं।
संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं। ऋग्वेद पद्यमय है
अष्टाध्यायी में ३२ पाद (चरण) हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं।
विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ ।
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल) भी न होते !
प्रत्याहार -विधायक -सूत्र
१.अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।
यथा—
अण् = अ, इ, उ
ऋक् = ऋ, ऌ
अक् = अ, इ, उ, ऋ, ऌ
एङ् = ए, ओ
एच् = ए, ओ, ऐ, औ
झष् = झ, भ, घ, ढ, ध
जश् = ज, ब, ग, ड, द
अच् = अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ (सर्वे स्वराः)
हल् = सर्वाणि व्यञ्जनानि
अल् = सर्वे वर्णाः (सर्वे स्वराः + सर्वाणि व्यञ्जनानि)
अवधेयम्—
स्वराः
अ, इ, उ, ऋ = एषु प्रत्येकम् अष्टादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः (ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः; उदात्तः, अनुदात्तः, स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः च |
अर्थात् (अइउऋ) इनमें प्रत्येक के रूप हैं अठारह. ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत; उदात्त अनुदात्त स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः।
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१--ह्रस्व-(अ) २-।दीर्घ-(आ)। ३-प्लुत-४-(आऽ) और५- उदात्त-(—अ)' ६-अनुदात्त-( अ_ )'तथा ७- स्वरित - (अ–) ८-अनुनासिक -(अँ)'और ९-अननुनासिक- (अं)
___________
3 x 3 x 2 = 18 |) यथा अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः, अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः, अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-उकारः, अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः तदा पुनः अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः, इत्यादीनि रूपाणि |
हिन्दी :-१-अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः,
२-अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः,
३-अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व उकारः,
४- अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः
और फिर दुबारा
५- अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः,
ऌ = अयं द्वादशानां प्रतिनिधिः (यतः अस्य वर्णस्य दीर्घरूपं नास्ति | अर्थात ् इस 'लृ' स्वर के बारह रूप होते हैं ।
2 x 3 x 2 = 12 |)
ए, ओ, ऐ, औ = एषु प्रत्येकम् द्वादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः एषां ह्रस्वरूपं नास्ति | 2 x 3 x 2 = 12 |) अर्थात् इनमें प्रत्येक के बारह रूप होते हैं। इसका छोटा( ह्रस्व) रूप नहीं होता है ।
"परन्तु अन्तस्थ हल् तो हो सकते व्यञ्जन वर्ण नहीं ।क्योंकि इनकी संरचना स्वरों के संक्रमण से ही हुई है । और व्यञ्जन अर्द्ध मात्रा के होते हैं "
अ'इ'उ' ऋ'लृ' मूल स्वर हैं परन्तु (ए ,ओ ,ऐ,औ ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ और ये संयुक्त स्वर ही हैं
👇 । अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ तथा उ' स्वर भी केवल अ' स्वर के अधोगामी अनुदात्त और ऊर्ध्वगामी उदात्त ( ऊर्ध्वगामी रूप हैं ।।
"अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल ।
स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन अथवा आकारीय भेद आ जाता है। ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है । स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है नि:सन्देह 'काकल' 'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह" ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं । अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇
२.शब्द -विचार (Morphology) :-
"उत्पत्ति के आधार पर आधार भेद"
🌸↔उत्पत्ति के आधार पर( Based on Origin ) उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के पाँच भेद निर्धारित किये जैसे हैं ।
"प्रयोग के आधार पर शब्द भेद" 🌸↔प्रयोग के आधार पर( Based on usage)
"बनावट के आधार पर शब्द भेद" 🌸-बनावट के आधार पर(Based on Construction):- (क) रूढ़ शब्द :- Traditional words
(Syntax):-इसमें वाक्य निर्माण,उनके विचार भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार करके उसके स्थान अनु रूप स्थापित किया जाता है।
वाक्य के भाग:
वाक्य के भाग:- वाक्य के दो भाग होते है-
"१-उददेशय-Subject-
"२-विधेय-Predicte-
(1) उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।
विधेय के भाग-(Part of Predicate)- विधेय के छ: भाग होते हैं"
(i)- क्रिया verb
(ii)- क्रिया के विशेषण Adverb
(iii) -कर्म Object
(iv)- कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द
(v)- पूरक Complement
(vi)-पूरक के विशेषण।
"वाक्य के भेद" - रचना के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते हैं- "There are three kinds of Sentences Based on Structure.
(i)साधरण वाक्य (Simple Sentence) (ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence) (iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)
वाक्य के भेद-अर्थ के आधार पर ( Kinds of Sentences -based on meaning )
-अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇
1- स्वीकारात्मक वाक्य (Affirmative Sentence)
2-निषेधात्मक वाक्य (Negative Sentence)
3-प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)
4-आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)
5-संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)
6-विस्मयादिबोधक वाक्य - (Exclamatory Sentence)
7-विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)
8-इच्छावाचक वाक्य (illative Sentence)
______________________
(i)सरल वाक्य :-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है।
(1) सार्थकता (2) योग्यता (3) आकांक्षा (4) निकटता (5) पदक्रम (6) अन्वय-
"वाक्य- विग्रह -Analysis"👇 वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं।
"वाक्य का रूपान्तर'
"वाक्य का रूपान्तरण-- (Transformation of Sentences) किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं।
हम किसी भी वाक्य को भिन्न-भिन्न वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते हैं और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार या परिवर्तन नहीं आयेगा। हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।
(घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य–><
दास
"परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है"
-ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥
व्याख्यायित:- १-(उ) २-(ऊ) ३-(ऊ 'उ/ (उ३) यह तीनों उकारें व: कहलाती है !
त्रिमात्रक:प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनाञ्चार्धमात्रक।।१।
(2) प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण
वास्तव में जैसे हारमॉनियम में स्वरों का दबता -उछलता क्रम जिन्हें कोमल और शुद्ध रूप भी कहते हैं। और यदि ये दोनौं मध्यम स्थिति में हों तो स्वरित संज्ञक होते हैं ।
पाणिनि के अनुसार इस अ' स्वर का उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-
- (१) सानुनासिक :
- ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
- दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
- प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
- (२) निरनुनासिक :
- ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
- दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
- प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ२ और अ३ से व्यक्त किया जा सकता है।
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अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | एचामपि द्वादश,तेषां ह्रस्वाभावात् |
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(अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)
- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् |एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् |
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मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।
वास्तव में वर्णों का उच्चारण तो मुख से ही होता है किंतु ङ्, ञ्, ण्, न्, म् आदि वर्ण और अनुनासिक (अँ, इॅं, उॅं आदि) तथा अनुस्वार (अं, इं, उं आदि) के उच्चारण में नासिका (नाक) की भी सहायता चाहिए |
नासिका की सहायता से मुख से उच्चारित होने वाले ऐसे वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं |
जो अनुनासिक नहीं है, वे अननुनासिक या निरनुनासिक कहलाते हैं |
ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक ये अचों (स्वरों) में रहने वाले धर्म है |
अपवाद के रूप में (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये व्यंजन होते हुए भी इन्हें अनुनासिक कहा जाता है | इसी प्रकार (यॅं, वॅं, लॅं) भी अनुनासिक माने जाते हैं और (य्, व्, ल्) के रूप में निरनुनासिक भी हैं | जहाॅं पर अनुनासिक का व्यवहार होगा वहां पर अनुनासिक अच् और (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये समझे जाते हैं |
इस संबंध में आगे यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा आदि सूत्रों का प्रसंग देखना चाहिए।
तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |
अर्थ • इस प्रकार से (अ, इ, उ और ऋ )इन चार वर्णों के अट्ठारह-अट्ठारह भेद हुए।
लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | लृ के दीर्घ न होने से 12 भेद होते हैं।
एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् | एचों का ह्रस्व नहीं होता है, इसलिए 12 ही भेद होते हैं।
पहले अच् अर्थात्-( अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ) ये वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के कारण प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले हो गए किंतु लृ की दीर्घ मात्रा नहीं है, इसलिए लृ के ह्रस्व और प्लुत दो ही भेद हुए |
इसी प्रकार एच् अर्थात् ( ए, ओ, ऐ, औ )का ह्रस्व नहीं होता, अतः एच् के दीर्घ और प्लुत ही दो-दो भेद हो गए | शेष अ, इ, उ, ऋ ये चारों वर्ण ह्रस्व भी हैं, दीर्घ भी होते हैं और प्लुत भी होते हैं, इसलिए यह तीन-तीन भेद वाले माने जाते हैं।
इस प्रकार से दो एवं तीन भेद वाले प्रत्येक अच् वर्ण उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से पुनः तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं |
जैसे प्रत्येक ह्रस्व अच् उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का, ।
दीर्घ अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का ।
और प्लुत अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार के हो जाने से कुछ अच् छः प्रकार के और कुछ (9) प्रकार के हो गए |
(6) प्रकार के इसलिए कि जिन वर्णों में ह्रस्व या दीर्घ नहीं थे वे दो-दो प्रकार के थे, इसलिए अब उदात्तादि स्वरों के कारण छः-छः प्रकार के हो गए |
जिन अच् वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों हैं वे उदात्तादि स्वरों के कारण नौ-नौ प्रकार के हो गए | इस प्रकार से अभी तक अचों के 6 या 9 प्रकार के भेद सिद्ध हुए।
वे ही वर्ण पुनः अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ये 12 और 18 प्रकार के भेद वाले हो जाते हैं |
इसके पहले जो 6 प्रकार के थे, वे 12 प्रकार के एवं जो 9 प्रकार के थे, वे 18 प्रकार के हो जाते हैं।
अनुनासिक पक्ष के छः और नौ भेद तथा अननुनासिक पक्ष के भी छः और नौ भेद होते हैं |
इस प्रकार से अ, इ, उ, ऋ के अट्ठारह-अट्ठारह भेद तथा लृ, ए, ओ, ऐ, औ के 12-12 भेद सिद्ध हुए | य्-व्-ल् ये वर्ण अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।
इस विषय को तालिका के माध्यम से समझते हैं-
ह्रस्व-अ, इ, उ, ऋ, लृ
दीर्घ-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ
प्लुत-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ
(क)-1. ह्रस्व उदात्त अनुनासिक
2. दीर्घ उदात्त अनुनासिक
3. प्लुत उदात्त अनुनासिक
(ख)1-. ह्रस्व उदात्त अननुनासिक
2- दीर्घ उदात्त अननुनासिक
3-. प्लुत उदात्त अननुनासिक
(ग)1. ह्रस्व अनुदात्त अनुनासिक
2-. दीर्घ अनुदात्त अनुनासिक
3- प्लुत अनुदात्त अनुनासिक
(घ)1-. ह्रस्व स्वरित अननुनासिक
2. दीर्घ स्वरित अननुनासिक
3. प्लुत स्वरित अननुनासिक
स्वर-सन्धि-विधायक-सूत्र सन्धि-प्रकरण
१-दीर्घस्वर सन्धि-।
२- गुण स्वर सन्धि-।
३-वृद्धि स्वर सन्धि-।
४-यण् स्वर सन्धि-।
५-अयादि स्वर सन्धि-।
६-पूर्वरूप सन्धि-।
७-पररूपसन्धि-।
८-प्रकृतिभाव सन्धि-।
- स्वर संधि – अच् संधि-विधान
- दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:
- गुण संधि – आद्गुण:
- वृद्धि संधि – वृद्धिरेचि
- यण् संधि – इकोयणचि
- अयादि संधि – एचोऽयवायाव:
- पूर्वरूप संधि – एड॰: पदान्तादति
- पररूप संधि – एडि॰ पररूपम्
- प्रकृतिभाव संधि – ईदूद्ऐदद्विवचनम् प्रग्रह्यम्
__
१-दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:, संस्कृत व्याकरणम्
दीर्घ स्वर संधि-
दीर्घ संधि का सूत्र( अक: सवर्णे दीर्घ:) होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है।
संस्कृत में स्वर संधियाँ मुुख्यत: आठ प्रकार की होती है।
दीर्घसंधि, गुण संधि, वृद्धिसंधि, यण् -संधि, अयादिसंधि, पूर्वरूप संधि, पररूपसंधि, प्रकृतिभाव संधि आदि ।
दीर्घ संधि के चार नियम होते हैं!
सूत्र-(अक: सवर्णे दीर्घ:) अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद उसका सवर्ण आये तो दोनों मिलकर दीर्घ बन जाते हैं। ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई और ऊ, ॠ हो जाते हैं। जैसे –
(क) अ/आ + अ/आ = आ
अ + अ = आ –> धर्म + अर्थ = धर्मार्थ
अ + आ = आ –> हिम + आलय = हिमालय
अ + आ =आ–> पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
आ + अ = आ –> विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
आ + आ = आ –> विद्या + आलय = विद्यालय
(ख) इ और ई की संधि= ई
इ + इ = ई –> रवि + इंद्र = रवींद्र ; मुनि + इंद्र = मुनींद्र
इ + ई = ई –> गिरि + ईश = गिरीश ; मुनि + ईश = मुनीश
ई + इ = ई –> मही + इंद्र = महींद्र ; नारी + इंदु = नारींदु
ई + ई = ई –> नदी + ईश = नदीश ; मही + ईश = महीश .
(ग) उ और ऊ की संधि =ऊ
उ + उ = ऊ –> भानु + उदय = भानूदय ; विधु + उदय = विधूदय
उ + ऊ = ऊ –> लघु + ऊर्मि = लघूर्मि ; सिधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
ऊ + उ = ऊ –> वधू + उत्सव = वधूत्सव ; वधू + उल्लेख = वधूल्लेख
ऊ + ऊ = ऊ –> भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ; वधू + ऊर्जा = वधूर्जा
(घ) ऋ और ॠ की संधि=ऋृ
ऋ + ऋ = ॠ –> पितृ + ऋणम् = पित्रणम्
प्रश्न - स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
हिम + आलय = हिमालय (अ +आ = आ ) [ म् +अ = म ] 'म' में 'अ' स्वर जुड़ा हुआ है
विद्या = आलय = विद्यालय (आ +आ = आ )
पो + अन = पवन (ओ +अ = अव )
[यहाँ पर प्+ओ +अन ( प् +अव् (ओ के स्थान पर )+अन )
प्+अव = पव
पव +अन = पवन ]
प्रश्न - स्वर सन्धि के कितने प्रकार हैं ?
- दीर्घ स्वर संधि
- गुण स्वर संधि
- वृद्धि स्वर संधि
- यण् स्वर संधि
- अयादि स्वर संधि
प्रश्न - दीर्घ स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए ।
अ + अ = आ | उ + उ = ऊ |
अ + आ = आ | उ + ऊ = ऊ |
आ + आ =आ | ऊ + उ = ऊ |
आ + अ = आ | ऊ + ऊ = ऊ |
इ + इ = ई | ऋ + ऋ = ऋ |
इ + ई = ई | दीर्घ स्वर संधि के नियम |
ई + ई = ई | |
ई + इ = ई |
( अ + अ = आ )
स्व + अर्थी = स्वार्थी
देव + अर्चन = देवार्चन
मत + अनुसार = मतानुसार
राम + अयन = रामायण
काल + अन्तर = कालान्तर
कल्प + अन्त = कल्पान्त
कुश + अग्र = कुशाग्र
कृत + अन्त = कृतान्त
कीट + अणु = कीटाणु
जागृत + अवस्था = जागृतावस्था
देश + अभिमान = देशाभिमान
देह + अन्त = देहान्त
कोण + अर्क = कोणार्क
क्रोध + अन्ध = क्रोधान्ध
कोष + अध्यक्ष = कोषाध्यक्ष
ध्यान + अवस्था = ध्यानावस्था
मलय +अनिल = मलयानिल
स + अवधान = सावधान
______________________
( अ + आ = आ )
घन + आनन्द = घनानन्द
चतुर + आनन = चतुरानन
परम + आनंद = परमानंद
पर + आधीनता = पराधीनता
पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
हिम + आलय = हिमालय
एक + आकार = एकाकार
एक + आध = एकाध
एक + आसन = एकासन
कुश + आसन = कुशासन
कुसुम + आयुध = कुसुमायुध
कुठार + आघात = कुठाराघात
खग +आसन = खगासन
भोजन + आलय = भोजनालय
भय + आतुर = भयातुर
भाव + आवेश = भावावेश
मरण + आसन्न = मरणासन्न
फल + आगम = फलागम
रस + आस्वादन = रसास्वादन
रस + आत्मक = रसात्मक
रस + आभास = रसाभास
राम + आधार = रामाधार
लोप + आमुद्रा = लोपामुद्रा
वज्र + आघात = वज्राघात
स + आश्चर्य = साश्चर्य
साहित्य +आचार्य = साहित्याचार्य
सिंह + आसन = सिंहासन
( आ + अ = आ )
भाषा + अन्तर = भाषान्तर
रेखा + अंकित = रेखांकित
रेखा + अंश = रेखांश
लेखा + अधिकारी = लेखाधिकारी
विद्या +अर्थी = विद्यार्थी
शिक्षा +अर्थी = शिक्षार्थी
सभा + अध्यक्ष = सभाध्यक्ष
सीमा + अन्त = सीमान्त
आशा + अतीत = आशातीत
कृपा + आचार्य = कृपाचार्य
कृपा + आकाँक्षी = कृपाकाँक्षी
तथा + आगत = तथागत
महा + आत्मा = महात्मा
( आ + आ = आ )
मदिरा + आलय = मदिरालय
महा + आशय = महाशय
महा +आत्मा = महात्मा
राजा + आज्ञा = राजाज्ञा
लीला+ आगार = लीलागार
वार्ता +आलाप = वार्तालाप
विद्या +आलय = विद्यालय
शिला + आसन = शिलासन
शिक्षा + आलय = शिक्षालय
क्षुधा + आतुर = क्षुधातुर
क्षुधा +आर्त = क्षुधार्त
( इ + इ = ई )
मुनि + इंद्र = मुनींद्र
रवि + इंद्र = रवींद्र
अति + इव = अतीव
अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय
गिरि + इंद्र = गिरीन्द्र
प्रति + इति = प्रतीत
हरि + इच्छा = हरीच्छा
फणि + इन्द्र = फणीन्द्र
यति + इंद्र = यतीन्द्र
अति + इत = अतीत
अभि + इष्ट = अभीष्ट
प्रति + इति = प्रतीति
प्रति + इष्ट = प्रतीष्ट
प्रति + इह = प्रतीह
( इ + ई = ई )
गिरि + ईश = गिरीश
मुनि + ईश = मुनीश
रवि + ईश = रवीश
हरि + ईश = हरीश
कपि+ ईश = कपीश
कवी + ईश = कवीश
( ई + ई = ई )
मही + ईश्वर = महीश्वर
रजनी + ईश = रजनीश
( ई + इ = ई )
( उ + उ = ऊ )
विधु + उदय = विधूदय
सु + उक्ति = सूक्ति
लघु + उत्तरीय = लघूत्तरीय
( उ + ऊ = ऊ )
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि
( ऊ + उ = ऊ )
वधू + उत्सव = वधूत्सव
( ऊ + ऊ = ऊ )
भू + ऊर्जा = भूर्जा
भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व
( ऋ + ऋ = ऋृ )
मातृ + ऋण = मातृण ।
गुण_सन्धि:
सूत्र- अदेङ् गुणः ( 1/1/2 )
सूत्रार्थ—यह सूत्र गुण संज्ञा करने वाला सूत्र है । यह सूत्र गुण संज्ञक वर्णों को बताता है ।
(अत् एङ् च गुणसञ्ज्ञः स्यात्)
ह्रस्व अकार और एङ् ( अ, ए, ओ ) वर्ण गुण संज्ञक वर्ण है।
व्याख्या :-अ या आ के साथ इ या ई के मेल से ‘ए’ , अ या आ के साथ उ या ऊ के मेल से ‘ओ’ तथा अ या आ के साथ ऋ के मेल से ‘अर्’ बनता है ।
यथा :–
१.अ/आ + इ/ई = ए
सुर + इन्द्र: = सुरेन्द्र: ,तरुण+ईशः= तरुणेश:
रामा +ईशः = रमेशः ,स्व + इच्छा = स्वेच्छा,
नेति = न + इति, भारतेन्दु:= भारत + इन्दु:
नर + ईश: = नरेश: , सर्व + ईक्षण: = सर्वेक्षण:
प्रेक्षा = प्र + ईक्षा ,महा + इन्द्र: = महेन्द्र:
यथा +इच्छा = यथेच्छा ,राजेन्द्र: = राजा + इन्द्र:
यथेष्ट = यथा + इष्ट:, राका + ईश: = राकेश:
द्वारका +ईश: = द्वारकेश:, रमेश: = रमा + ईश:
मिथिलेश: = मिथिला + ईश:।
_________
२.अ/आ + उ/ऊ = ओ
पर+उपकार: = परोपकारः, सूर्य + उदय: = सूर्योदय:
प्रोज्ज्वल: = प्र + उज्ज्वल: ,
सोदाहरण: = स +उदाहरण:
अन्त्योदय: = अन्त्य + उदय: ,जल + ऊर्मि: = जलोर्मि:
समुद्रोर्मि: = समुद्र + ऊर्मि:, जलोर्जा = जल + ऊर्जा
महा + उदय:= महोदय: ,यथा+उचित = यथोचित:
शारदोपासक: = शारदा + उपासक:
महोत्सव: = महा + उत्सव:
गंगा + ऊर्मि: = गंगोर्मि: ,महोरू: = महा + ऊरू:।
________
३.अ /आ + ऋ = अर्
देव + ऋषि: = देवर्षि: ,शीत + ऋतु: = शीतर्तु:
सप्तर्षि: = सप्त + ऋषि: ,उत्तमर्ण:= उत्तम + ऋण:
महा + ऋषि: = महर्षि: ,राजर्षि: = राजा + ऋषि: आदि
प्रश्न - गुण स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
अ + इ = ए | आ + उ = ओ |
आ + इ = ए | आ + ऊ = ओ |
अ + ई = ए | अ + ऋ= अर |
आ + ई = ए | आ + ऋ = अर् |
अ + उ = ओ | |
गुण स्वर संधि के नियम |
( अ + इ = ए )
सुर + इंद्र = सुरेंद्र
भुजग + इन्द्र = भुजगेन्द्र
बाल + इंद्र = बालेन्द्र
मृग + इंद्र = मृगेंद्र
योग + इंद्र = योगेंद्र
राघव +इंद्र = राघवेंद्र
विजय + इच्छा = विजयेच्छा
शिव + इंद्र = शिवेंद्र
वीर + इन्द्र = वीरेन्द्र
शुभ + इच्छा = शुभेच्छा
ज्ञान + इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रिय
खग + ईश = खगेश
खग = इंद्र = खगेन्द्र
गज + इंद्र = गजेंद्र
( आ + इ = ए )
महा + इंद्र = महेंद्र
यथा + इष्ट = यथेष्ट
रमा + इंद्र = रमेंद्र
राजा + इंद्र = राजेंद्र
( अ + ई = ए )
ब्रज + ईश = ब्रजेश
भव + ईश = भवेश
भुवन + ईश्वर = भुवनेश्वर
भूत + ईश = भूतेश
भूत + ईश्वर = भूतेश्वर
रमा + ईश = रमेश
राम + ईश्वर = रामेश्वर
लोक +ईश = लोकेश
वाम + ईश्वर = वामेश्वर
सर्व + ईश्वर = सर्वेश्वर
सुर + ईश = सुरेश
ज्ञान + ईश =ज्ञानेश
ज्ञान+ईश्वर = ज्ञानेश्वर
उप + ईच्छा = उपेक्षा
एक + ईश्वर = एकेश्वर
कमल +ईश = कमलेश
( आ + ई = ए )
महा + ईश = महेश
राका + ईश = राकेश
लंका + ईश्वर = लंकेश्वर
उमा = ईश = उमेश
वीर + उचित = वीरोचित
भाग्य + उदय = भाग्योदय
मद + उन्मत्त = मदोन्मत्त
फल + उदय = फलोदय
फेन + उज्ज्वल = फेनोज्ज्वल
यज्ञ + उपवीत = यज्ञोपवीत
लोक + उक्ति = लोकोक्ति
लुप्त + उपमा = लुप्तोपमा
वन + उत्सव = वनोत्सव
वसंत +उत्सव = वसंतोत्सव
विकास + उन्मुख = विकासोन्मुख
विचार + उचित = विचारोचित
षोड्श + उपचार = षोड्शोपचार
सर्व + उच्च = सर्वोच्च
सर्व + उदय = सर्वोदय
सर्व + उत्तम = सर्वोत्तम
हर्ष + उल्लास = हर्षोल्लास
हित + उपदेश = हितोपदेश
आत्म +उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग
आनन्द + उत्सव = आनन्दोत्सव
गंगा + उदक = गंगोदक
( अ + ऊ = ओ )
समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि
( आ + ऊ = ओ )
गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि
( आ + उ = ओ )
महा + उत्सव = महोत्सव
महा + उदय = महोदय
महा = उपदेश = महोपदेश
यथा + उचित = यथोचित
लम्बा + उदर = लम्बोदर
विद्या + उपार्जन = विद्योपार्जन
( अ + ऋ = अर् )
ब्रह्म + ऋषि = ब्रह्मर्षि
सप्त + ऋषि = सप्तर्षि
( आ + ऋ = अर् )
राजा + ऋषि = राजर्षि ।
वृद्धिरेचि-वृद्धि_स्वर_सन्धि
वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच् अचि।
व्याख्या :- अ या आ के परे यदि ए या ऐ रहे तो (ऐ) और ओ या औ रहे तो (औ) हो जाता है।
१.अ/आ + ए/ऐ =ऐ
२.अ/आ + ओ/औ = औ
यथा :-
अद्यैव = अद्य + एव
मतैक्यम्= मत + ऐक्यम्
पुत्रैषणा = पुत्र + एषणा
सदैव =सदा + एव
तदैव=तदा+एव
वसुधैव= वसुधा + एव
एकैक:= एक + एक:
महैश्वर्यम्= महा + ऐश्वर्यम्
गंगौघ:= गंगा + ओघ:
महौषधि:= महा +औषधि:
महौजः = महा +ओजः *आदि* ।
प्रश्न - वृद्धि स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
अ + ए = ऐ | अ + ऐ = ऐ |
आ + ए = ऐ | आ + ऐ = ऐ |
अ + ओ = औ | आ + ओ = औ |
अ + औ = औ | आ + औ = औ |
वृद्धि स्वर संधि के नियम |
एक + एक = एकैक
( अ + ऐ = ऐ )
मत + ऐक्य = मतैक्य
हित + ऐषी = हितैषी
( आ + ए = ऐ )
वसुधा +एव = वसुधैव
( आ + ऐ = ऐ )
( अ + ओ = औ )
दन्त + ओष्ठ = दँतौष्ठ
वन + ओषधि = वनौषधि
परम + ओषधि = परमौषधि
( आ + ओ = औ )
गंगा + ओध = गंगौध
महा + ओज = महौज
( आ + औ = औ )
उदाहरण— वच् धातु में 'व' वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।
(यज्+क्त=इष्ट)
(वच्+रक्त= उक्त)
(वह् + क्त= ऊढ़)
वह-प्रापणे ज्ञानार्थत्वात् कर्त्तरि क्त (वह् +क्त)
*इक्- इ, उ ,ऋ ,लृ*
| | | |
*यण्- य, व ,र , ल*
*व्यख्या:-*
(क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ /ई का ‘य्’ हो जाता है।
#यथा:-
यदि + अपि = यद्यपि,
इति + आदि:= इत्यादि:
प्रति +एकम् = प्रत्येकं
नदी + अर्पणम् = नद्यर्पणम्
वि + आसः = व्यासः
देवी + आगमनम् = देव्यागमनम्।
(ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ/ ऊ का ‘व्’ हो जाता है।
यथा:-
अनु + अय:= अन्वय:
सु + आगतम् = स्वागतम्
अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
(ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ का ‘र्’ हो जाता है।
यथा:-
मातृ+आदेशः = मात्रादेशः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
धातृ + अंशः = धात्रंशः
(घ) लृ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर लृ का 'ल'हो जाता है ।
यथा:- लृ +आकृति:=लाकृतिः *आदि।*
प्रश्न - यण स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।
इ + अ = य | इ + आ = या |
इ + ए = ये | इ + उ = यु |
ई + आ = या | इ + ऊ = यू |
ई + ऐ = यै | उ + अ = व |
उ + आ = वा | ऊ + आ = वा |
उ + ई = वी | उ + इ = वि |
उ + ए = वे | ऊ + ऐ = वै |
ऋ + अ = र | ऋ + आ = रा |
ऋ + इ = रि | |
यण स्वर संधि के कुछ नियम |
( इ + अ = य )
यदि + अपि = यद्यपि
वि +अर्थ = व्यर्थ
आदि + अन्त = आद्यंत
अति +अन्त = अत्यन्त
अति + अधिक = अत्यधिक
अभि + अभागत = अभ्यागत
गति + अवरोध = गत्यवरोध
ध्वनि + अर्थ = ध्वन्यर्थ
(इ +आ = या )
वि + आपक = व्यापक
वि + आप्त = व्याप्त
वि+आकुल = व्याकुल
वि+आयाम = व्यायाम
वि + आधि = व्याधि
वि+ आघात = व्याघात
अति +आचार = अत्याचार
इति + आदि = इत्यादि
गति + आत्मकता = गत्यात्मकता
ध्वनि + आत्मक = ध्वन्यात्मक
(ई +आ = या )
सखी + आगमन = सख्यागमन
( इ + उ = यु )
वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
अभि + उदय = अभ्युदय
ऊपरि + उक्त = उपर्युक्त
प्रति + उत्तर = प्रत्युत्तर
( इ + ऊ = यू )
वि + ऊह = व्यूह
नि + ऊन = न्यून
( ई + ऐ = यै )
देवी + ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य
( उ + अ = व )
मनु + अन्तर = मन्वन्तर
सु + अल्प = स्वल्प
सु + अच्छ = स्वच्छ
( उ + आ = वा )
मधु + आचार्य = मध्वाचार्य
मधु + आसव = मध्वासव
लघु + आहार = लघ्वाहार
( उ + इ = वि )
अनु + इति = अन्विति
( उ + ई = वी )
अनु + वीक्षण = अनुवीक्षण
( ऊ + आ = वा )
वधू +आगमन = वध्वागमन
( उ + ए = वे )
अनु + एषण = अन्वेषण
( ऊ + ऐ = वै )
वधू +ऐश्वर्य = वध्वैश्वर्य
( ऋ + अ = र )
पितृ +अनुमति = पित्रनुमति
( ऋ + आ = रा )
मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा
( ऋ + इ = रि )
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा ।
______
अयादि सन्धि -अयादि_सन्धि: -
सूत्र:-एचोऽयवायावः।
व्याख्या:-*ए, ऐ, ओ, औ के परे अन्य किसी स्वर के मेल पर ‘ए’ के स्थान पर ‘अय्’; ‘ऐ’ के स्थान
पर ‘आय्’; ओ के स्थान पर ‘अव्’ तथा ‘औ’ के स्थान पर ‘आव्’ हो जाता है ।
___________________
ए ऐ ओ औ।
| | | |
अय् आय् अव् आव्
____________________
-🌿★-🌿
🌿 *उदाहरणानि :-*
शे + अनम् = शयनम् - (ए + अ = अय् +अ)
ने + अनम् = नयनम् - (ए + अ = अय्+अ)
चे + अनम् = चयनम् - (ए + अ = अय्अ)
शे + आनम् = शयानम् - (ए + आ = अय्अ)
नै + अक: = नायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + अक: = गायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + इका = गायिका - (ऐ + इ = आय्अ)
पो + अनम् = पवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
भो + अनम् =भवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
पो + इत्र: = पवित्रः - ( ओ + इ = अव्इ)
पौ + अक: = पावक: - (औ + अ = आव्अ)
शौ + अक: = शावक: - (औ + अ = आव्अ)
भौ + उक: = भावुकः - (औ +उ= आव् उ)
धौ + अक: = धावक: - (औ + अ = आव्अ)
आदि ।
प्रश्न - अयादि संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए ।
ए + अ = अय् | ऐ + अ = आय् |
ऐ + इ = आयि | ओ + अ = अव् |
ओ + इ = अव् | ओ + ई = अवी |
औ + अ = आव् | औ + इ = आवि |
औ + उ = आवु | |
अयादि स्वर संधि के कुछ नियम |
ने + अन = नयन
शे +अन = शयन
( ऐ + अ = आय )
शै +अक = शायक
गै + अक = गायक
गै + अन = गायन
( ऐ + इ = आयि )
नै + इका = नायिका
गै + इका = गायिका
( ओ + अ = अव )
भो + अन = भवन
श्रो + अन = श्रवण
भो + अति = भवति
( ओ + इ = अव )
पो + इत्र = पवित्र
( ओ + ई = अवी )
गो + ईश = गवीश
( औ + अ = आव )
रौ + अन = रावण
श्रौ + अन = श्रावण
धौ + अक = धावक
पौ + अक = पावक
पौ + अन = पावन
शौ + अक = शावक
नौ + इक = नाविक
( औ + उ = आवु )
भौ + उक = भावुक
पूर्वरूप सन्धि — एङ: पदान्तादति)- संस्कृत व्याकरणम्
नियम-
नियम - पद( क्रिया पद आख्यातिक) अथवा नामिकपद के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं; वह लग जाता है ।पूर्वरूप संधि के उदाहरण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
- ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम्
- ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र
(यह सन्धि आयदि सन्धि का अपवाद भी होती है)।
धातु रूप -रौ + प्रत्यय रूप- अन् = रावण
धातु रूप - श्रौ + प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण
धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप- अक: = धावक:
धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप- अन् = पावन
यहाँ दोनों पद हैं ।
१-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।=तावागच्छताम् ______________________________
२-बालको + अवदत् -बालक बोला।
=बालकोऽवदत्
पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।
सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही प्रभाव है
पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--
पररूप संधि के नियम
नियम - यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से क्रिया के आदि में होता है।पररूप संधि के उदाहरण
- प्र + एजते = प्रेजते
- उप + एषते = उपेषते
- परा + ओहति = परोहति
- प्र + ओषति = प्रोषति
- उप + एहि = उपेहि
प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-
. प्रकृति भाव सन्धि –
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
- स्वर संधि - अच् संधि
- दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
- गुण संधि - आद्गुण:
- वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि
- यण् संधि - इकोऽयणचि
- अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
- पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
- पररूप संधि - एडि पररूपम्
- प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्
💐★वृत्ति अनचि च 8|4|47
यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-
💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।
💐- कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।
सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा 8|4|45 (अव्ययम्) , यरः 8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे 8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः 8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम् 8|2|1> संहितायाम् 8|2|108
सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम्
💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"
वृत्ति—
अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
👇
वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।
💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’)
★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’ ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
- शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)
- पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)
- मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)
- कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)
- सार + अंग = सारंग
- सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त
- हलस् + ईषा = हलीषा
- कुल + अटा = कुलटा
- _______________________
-★-अचोऽन्तयादि टि।। (1/1/64)
वृत्ति:- अचां मध्ये योऽन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।
जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच् पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है।यथा :-गौर+ यो इस विग्रह दशा में -गौर की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।💐↔
अयोगवाह-
अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...
वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क :ख :प :फ ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
व्यञ्जन-सन्धि का विधान
व्यञ्जन सन्धि -
प्रतिपादन -💐↔👇
।शात् ८।४।४४ ।।
वृत्तिः-शात् परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्।।
विश्न: । प्रश्न।
व्याख्यायित :-शकार के परवर्ती तवर्ग के स्थान पर चवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह कि शकार (श् वर्ण) से परे तवर्ग ( त थ द ध न ) के स्थान पर स्तो: श्चुनाश्चु: से जो चवर्ग हो सकता है- वह इस सूत्र शात् के कारण नहीं होगा।
अत: यह सूत्र " श्चुत्वं विधि का अपवाद " है-।
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काशिका-वृत्तिः
शात् ८।४।४४
तोः इति वर्तते। शकारादुत्तरस्य तवर्गस्य यदुक्तं तन् न भवति। प्रश्नः। विश्नः।
न्यासः
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💐↔शात् ६३/ ८/४४३
"विश्नः, प्रश्नः" इति।
"विच्छ गतौ" (धा।पा।१४२३) "प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्()" (धा।पा।१४१३), पूर्ववन्नङ्(), "च्छ्वोः शूडनुनासिके च" ६।४।१९ इति च्छकारस्य शकारः। यद्यपि "प्रश्ने चासन्नकाले" ३।२।११७ इति निपतनादेव शात्परस्य तदर्गस्य चुत्वं न भवतीत्यैषोऽर्थो लभ्यते, तथापि मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवपरीहारार्थमिदमारभ्यते। अथ वा"अवाधकान्यपि निपातनानि भवन्ति"
(पु।प।वृ।१९) इत्युक्तम्()।
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यद्येतन्नारभ्यते, प्रश्ञः, विश्ञ इत्यपि रूपं सम्भाव्येत॥
यदि यह अपवाद नियम नहीं होता तो प्रश्न का रूप प्रश्ञः और विश्न का रूप विश्ञ होता
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लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
💐↔शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात्। विश्नः। प्रश्नः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।
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💐↔न पदान्ताट्टोरनाम् ।।8/4/42 ।।
वृत्ति:-पदान्ताट्टवर्गात्परस्या८नाम: स्तो: ष्टुर्न स्यात्।
पदान्त में टवर्ग होने पर भी ष्टुत्व सन्धि का विधान नहीं होता है ।👇
अर्थात् – पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
पदान्त का विपरीत धात्वान्त /मूलशब्दान्त है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम शब्द के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् "स" के स्थान पर "ष" और वर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा जैसे 👇
षट् सन्त: ।
षट् ते ।पदान्तात् किम् ईट्टे ।
टे: किम् ? सर्पिष्टम् ।
व्याख्या :- पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् स के स्थान पर ष और तवर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा ।
अर्थात् षट् नाम = "षण्णाम "तो हो जाएगा क्यों कि यह संज्ञा पद है।
प्रस्तुत सूत्र "ष्टुत्व सन्धि का अपवाद है " ।
यथा:-षट्+ सन्त: यहाँ पर पूर्व पदान्त में टवर्ग का "ट" है तथा इसके परे सकार होने से "ष्टुनाष्टु: सूत्र से ष्टुत्व प्राप्त था।
परन्तु प्रस्तुत सूत्र से उसे बाध कर ष्टुत्व कार्य निषेध कर दिया।
परिणाम स्वरूप "षट् सन्त:" रूप बना रहा।
अब यहाँ समस्या यह है कि वर्तमान सूत्र में पदान्त टवर्ग किस प्रयोजन से कहा ?
यदि टवर्ग मात्र कहते तो क्या प्रयोजन की सिद्धि नहीं थी।
इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि पदान्त न कहते तो (ईडते) ईट्टे :- मैं स्तुति करता हूँ। के प्रयोग में अशुद्धि हो जाती ।
ईड् + टे इस विग्रह अवस्था में ष्टुत्व का निषेध नहीं होता।और तकार को टकार होकर ईट्टे रूप बना यह क्रिया पद है।
एक अन्य तथ्य यह भी है कि इस सूत्र में तवर्ग का ग्रहण क्यों हुआ है
मात्रा न' पदान्तानाम् कहते तो क्या हानि थी? इसका समाधान यह है कि यदि टवर्ग का ग्रहण नहीं किया जाता तो पद के अन्त में षकार से परे भी स्तु को ष्ठु होने का निषेध हो जाता।
षट् षण्टरूप बन जाता ।
५:-अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम्।।
वृत्ति -षष्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
काशिका-वृत्तिः
न पदान्ताट् टोरनाम् ८।४।४२
पदान्ताट् टवर्गादुत्तरस्य स्तोः ष्टुत्वं न भवति नाम् इत्येतद् वर्जयित्वा। श्वलिट् साये। मधुलिट् तरति। पदान्तातिति किम्? ईड स्तुतौ ईट्टे। टोः इति किम्? सर्पिष्टमम्। अनाम् इति किम्? षण्णाम्।
अत्यल्पम् इदम् उच्यते। अनाम्नवतिनगरीणाम् इति वक्तव्यम्। षण्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
वृत्ति:-षष्णाम ।षष्णवति:।षण्णगर्य:।
व्याख्या:- पद के अन्त में तवर्ग से परे नाम ,नवति, और नगरी शब्दों के नकार को त्यागकर स ' तथा तवर्ग को षकार और टवर्ग हो ।
आशय यह कि पाणिनि मुनि ने 'न' पदान्ताट्टोरनाम् सूत्र में केवल नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से अलग किया गया था।
अत: नवति और नगरी शब्दों में ष्टुत्व निषेध प्राप्त होने से दोष पूर्ण सिद्धि होती थी ।
इस दोष का निवारण करने के लिए वार्तिक कार कात्यायन ने वार्तिक बनाया। कि नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त नहीं करना चाहिए अपितु नवति और नगरी शब्दों को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त कर देना चाहिए अतएव नाम नवति और नगरी आदि शब्दों में तो ष्टुत्व विधि होनी चाहिए।
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(तो:षि- 8/4/53 )
तो: षि। 8/4/53 ।
वृत्ति:- तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है।इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा ।
"तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ:
★-यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है। इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा"
💐↔पूर्व सवर्ण सन्धि:- उद: परयो: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य 8/4/61..
वृत्ति:- उद: परयो: स्थास्तम्भो पूर्वसवर्ण: ।
स्था और स्तम्भ को उद् उपसर्ग से परे हो जाने पर पूर्व- सवर्ण होता है।
उत् + स्थान = उत्थान ।
कपि + स्थ = कपित्थ ।
अश्व + स्थ =अश्वत्थ ।
तद् + स्थ = तत्थ ।
काशिका-वृत्तिः
उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१
सवर्णः इति वर्तते। उदः उत्तरयोः स्था स्तम्भ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति। उत्थाता। उत्थातुम्। उत्थातव्यम्। स्तम्भेः खल्वपि उत्तम्भिता।
उत्तम्भितुम्। उत्तम्भितव्यम्। स्थास्तम्भोः इति किम्? उत्स्नाता।
उदः पूर्वसवर्नत्वे स्कन्देश् छन्दस्युपसङ्ख्यानम्।
अग्ने दूरम् उत्कन्दः।
रोगे च इति वक्तव्यम्। उत्कन्दको नाम रोगः। कन्दतेर् वा धात्वन्तरस्य एतद् रूपम्।
काशिका-वृत्तिः
काशिका-वृत्तिः
झयो हो ऽन्यतरस्याम् ८।४।६२
झयः उत्तरस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाग्घसति, वाघसति। स्वलिड् ढसति, श्वलिड् हसति। अग्निचिद् धसत्। अग्निचिद् हसति। सोमसुद् धसति, सोमसुद् हसति। त्रिष्टुब् भसति, त्रिष्टुब् हसति। झयः इति किम्? प्राङ् हसति। भवान् हसति।
न्यासः
झयो होऽन्यतरस्याम्?। , ८।४।६१
"वाग्धसति" इत्यादावुदाहरणे हकारस्य महाप्राणस्यान्तरतम्यात्? तादृश एव घकारादयो वर्गचतुर्था भवन्ति। अन्यतरस्यांग्रहणं पूर्वविध्योर्नित्यत्वज्ञापनार्थम्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः। नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः। वाग्घरिः, वाघरिः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य पूर्वसवर्णो वा स्यात् । घोषवति नादवतो महाप्राणस्य संवृतकण्ठस्य हस्य तादृशो वर्गचतुर्थं एवादेशः । वाग्घरिः । वाग्घरिः ।।
अर्थात् झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, (८।४।६१)
वृत्ति:- झय: परस्य हस्य वा पूर्व सवर्ण:
नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्ग चतुर्थ:
वाग्घरि : वाग्हरि:।
व्याख्या:- झय् (झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प् ) प्रत्याहार के वर्ण के पश्चात यदि 'ह' वर्ण आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण आदेश हो जाता है ।उसका आशय यह है कि यदि वर्ग का प्रथम , द्वितीय ,तृत्तीय , तथा चतुर्थ वर्ण के बाद 'ह'
आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण हो जाता है । अर्थात् गुणकृत यत्नों के सादृश्य से समान आदेश होगा।
यह पूर्व सवर्ण विधायक सूत्र है यथा–वाक् +'हरि : इस दशा में 'झलांजशो८न्ते' सूत्र से ककार को गकार जश् हुआ तब वाग् + 'हरि रूप बनेगा। फिर झयो होऽन्यतरस्याम् सूत्र से वाघरि रूप बना।
काशिका-वृत्तिः
शश्छो ऽटि ८।४।६३
झयः इति वर्तते, अन्यतरस्याम् इति च। झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतः छकरादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाक् छेते, वाक् शेते। अग्निचिच् छेते, अग्निचित् शेते। सोमसुच् छेते, सोमसुत् शेते। श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते। त्रिष्टुप् छेते, त्रिष्टुप् शेते। छत्वममि इति वक्तव्यन्। किं प्रयोजनम्? तच्छ्लोकेन, तच्छ्मश्रुणा इत्येवम् अर्थम्।
न्यासः
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↔💐↔शश्छोऽटि। , ८।४।६२( छत्व सन्धि )
वृत्ति:- झय: परस्य शस्य छो वा८टि।
तद् + शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य टकार :-
तच्छिव: तश्चिव:।
व्याख्या:-झय् ( झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प ) के वर्ण से परे यदि शकार आये तथा उससे भी परे अट्( अ इ उ ऋ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र )
प्रत्याहार आये तो विकल्प से शकार को छकार हो जाता है अर्थात् शर्त यह है कि पदान्त झय् प्रत्याहार वर्ण से परे शकार आये तो उसे विकल्प से छकार हो जाएगा यदि अट् परेे होगा तब ।
प्रयोग:- यह सूत्र छत्व सन्धि का विधायक सूत्र है यथा तद् + शिव = तच्छिव तद् + शिव इस विग्रह अवस्था में सर्वप्रथम "स्तो: श्चुना श्चु:" सूत्र प्रवृत्त होता है – तज् +शिव:।तत्पश्चात "खरि च" सूत्र प्रवृत्त होता है तथा शकार से भी परे अट् "इ" है ।
अतएव प्रस्तुत सूत्र द्वारा विकल्प से शकार को छकार हो जाएगा। तद्+ शिव =तच्छिव ।विकल्प भाव में तच्शिव: रूप बनेगा।
इसी सन्दर्भों में कात्यायन ने एक वार्तिक पूरक के रूप में जोड़ा है
" छत्वममीति वाच्यम्( वार्तिक)"
वृत्ति:- तच्छलोकेन।
व्याख्या:-यह वार्तिक है इसका आशय है कि पदान्त झय् प्रत्याहार के वर्ण से परे शकार को छकार अट् प्रत्याहार परे होने की अपेक्षा अम् प्रत्याहार ( अ,इ,उ,ऋ,ऌ,ए,ओ,ऐ,औ,ह,य,व,र,ल,ञ् म् ड्• ण् न् ) परे होने पर छत्व होना चाहिए
पाणिनि मुनि द्वारा कथित "शश्छोऽटि" सूत्र से तच्छलोकेन आदि की सिद्धि नहीं हो कही थी अतएव इनकी सिद्धि के लिए कात्यायन ने यह वार्तिक बनाया।
प्रयोग:- यह सूत्र पूरक सूत्र है । इसके द्वारा पाणिनि द्वारा छूटे शब्दों की सिद्धि की जाती है ।
"छत्वममीति धक्तव्यण्()" इति। अमि परतश्छत्वं भवतीत्येतदर्थरूपं व्याख्येयमित्यर्थः। तत्रेदं व्याख्यानम्()--"शश्छः" इति योगविभागः क्रियते, तेनाट्प्रत्याहारेऽसन्निविष्टे लकारादावपि भविष्यति, अतोऽटीत्यतिप्रसङ्गनिरासार्थो द्वितीयो योगः--तेनाट()एव परभूते, नान्यनेति। योगवभागकरणसामथ्र्याच्चाम्प्रत्याहारान्तर्गतेऽनट()दि क्वचिद्भवत्येव। अन्यथा योगविभागकरणमनर्थकं स्यात्()। अमीति नोक्तम्(), वैचित्र्यार्थम्()। अत्र "वा पदान्तस्य" ८।४।५८ इत्यतः पदान्तग्रहणमनुवत्र्तते, झयो विशेषणार्थम्()। तेन "शि तुक्()" ८।३।३१ इत्यत्र तुकः पूर्वान्तकरणं छत्वार्थमुपपन्नं भवति; "डः सि धुट्()" (८।३।२९) इत्यतो धुङ्ग्रहणानुवृत्तेः परस्या सिद्धत्वात्? पूर्वान्तकरणमनर्थकं स्यात्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी-
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
झयः परस्य शस्य छो वाटि। तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तच्शिवः। (छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
पदान्ताज्झयः परस्य शस्य छो वा स्यादटि । दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते--।
बाल-मनोरमा
शश्छोऽटि १२१, ८।४।६२
शश्छोऽटि। "झय" इति पञ्चम्यन्तमनुवर्तते। "श" इति षष्ठ()एकवचनम्। तदाह--झयः परस्येति। "तद्-शिव" इति स्थिते दकारस्य चुत्वेन जकारे कृते जकारस्य चकार इत्यन्वयः।
तत्त्व-बोधिनी
शाश्छोऽटि ९६, ८।४।६२
शाश्छोऽटि। इह पदान्तादित्यनुवत्र्य "पदान्ताज्झय" इति व्याख्येयम्, तेनेह न, "मध्वश्चोतन्त्यभितो विरप्शम्"। विपूर्वाद्रपेरौणादिकः शः।
छत्वममीति। "शश्छोऽटी"ति सूत्रं "शश्छोऽमी"ति पठनीयमित्यर्थः। तच्छ्लोकेनेति। "तच्छ्मश्रुणे"त्याद्यप्युदाहर्तव्यम्॥
काशिका-वृत्तिः
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★-मो राजि समः क्वौ ८।३।२५।
मो राजि समः क्वौ ८।३।२५
वृत्ति:- क्विवन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् ।
राज+ क्विप् = राज् ।
सम् के मकार को मकार ही होता है यदि क्विप् प्रत्ययान्त राज् परे होता है ।आशय यह कि अनुस्वारः नहीं होता ।
प्रयोग:- यह अनुस्वार का निषेध करता है- अतएव अपवाद सूत्र है ।यथा सम्+ राट् = यहाँ सम के मकार को को क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु का राट् है अतएव अनुस्वार नहीं होगा तथा सम्राट् रूप बनेगा ।
वस्तुत राज् का राड् तथा राट् रूप राज् के "र" वर्ण का संक्रमण रूप है ।
समो मकारस्य मकारः आदेशो भवति राजतौ क्विप्प्रत्ययान्ते परतः। सम्राट्। साम्राज्यम्। मकारस्य मकारवचनम् अनुस्वारनिवृत्त्यर्थम्। राजि इति किम्? संयत्। समः इति किम्? किंराट्। क्वौ इति किम्? संराजिता। संराजितुम्। संराजितव्यम्।
खरवसानयोर्विसर्जनीय: 8/3/15
वृत्ति:-खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या :- पद के अन्त में "र" वर्ण ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों "र" हो तथा उससे परे "खर" प्रत्याहार का वर्ण हो अथवा "र" ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों में "र" वर्ण को विसर्ग हो जाता है;यथा संर + स्कर्त्ता =सं : स्कर्त्ता : ।
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💐↔षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न कोई। स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है
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परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है
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💐↔षत्व विधान सन्धिइक्कु हयण्सि षत्व :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) ह तथा यण्प्रत्याहार के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न किसी स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
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शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।
'हरि+ सु = हरिषु । भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
:- परन्तु आ स्वरों के बाद 'स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है ।
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💐↔णत्व विधान सन्धि
:- रषऋनि नस्य णत्वम भवति। अर्थात् मूर्धन्य टवर्गीय रषऋ से परे 'न' वर्ण हो तो 'न'वर्ण का 'ण वर्ण हो जाता है।
यदि र ष और ऋ तथा न के बीच में स्वर कवर्ग पवर्ग य् व् र् ल् और ह् और अनुस्वार भी आ जाए तो भी 'न ' को 'ण'' हो जाता है । जैसे रामे + न = रामेण । मृगे+ न = मृगेण ।
परन्तु पद के अन्त वाले 'न'को ण नहीं होता है ।जैसे रिपून् ।रामान्। गुरून्। इत्यादि ।
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💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
यदि विसर्ग के बाद "क" "ख" "प" "फ" वर्ण आऐं
तो विसर्गों (:) के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।
अर्थात् विसर्ग यथावत् ही रहते हैं । क्यों कि इन वर्गो के सकार नहीं होते हैं -
परन्तु इण्को: सूत्र कुछ सन्धियों में षकार हो जाता है ।
जैसे-
कवि: + खादति = कवि: खादति ।
बालक: + पतति = बालक: पतति ।
गुरु : + पाठयति = गुरु: पाठयति ।
वृक्ष: + फलति = वृक्ष: फलति । मन:+ कामना=मन: कामना।
यदि विसर्ग से पहले "अ " स्वर हो और विसर्ग के बाद भी "अ" स्वर वर्ण हो । विसर्ग के स्थान पर 'ओ' हो जाता है।यह पूर्वरूप सन्धि विधायक सूत्र है
इसमें "अ" स्वर वर्ण के स्थान पर प्रश्लेष(ऽं अथवा ८ ) का चिह्न लगाते हैं ।।
बाल: + अस्ति = __ ।
मूर्ख: + अपि = मूर्खो८पि।
शिव: + अर्च्य: =शिवो८र्च्य: ।
क: +अपि = को८पि ।
_____________________________
खरवसानयोर्विसर्जनीय: ।।08/03/15।।
खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या -
पदस्य अन्तिम 'र्'कारस्य अनन्तरं खर् (वर्गणां 1, 2, श, ष, स) वर्णा: भवन्तु अथवा अवसानं (किमपि न) भवतु चेत् 'र्'कारस्य विसर्ग: (:) भवति ।
वार्तिकम् - संपुकानां सो वक्तव्य: ।।
व्याख्या - सम्, पुम्, कान् च शब्दानां विसर्गस्य स्थाने 'स्'कार: भवति ।
उदाहरणम् -
सम् + स्कर्ता = संस्स्कर्ता (सँस्स्कर्ता) ।।
हिन्दी -
सम्, पुम् और कान् शब्दों के विसर्ग के स्थान पर 'स्'कार होता है ।
इति
💐↔
विसर्गस्यलोप -💐↔विसर्ग का लोप ।
-विसर्गस्यलोप - परन्तु यदि विसर्ग से पहले "अ" स्वर वर्ण हो और विसर्ग के बाद "अ" स्वर वर्ण के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वर ( आ, इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,) हो तो विसर्गों का सन्धि करने पर लोप हो जाता है ।
जैसे-•
सूर्य: + आगच्छति = सूर्य आगच्छति।
बालक: + आयाति = बालक आयाति।
चन्द्र: + उदेति = चन्द्र उदेति।
💐↔यदि विसर्गों के पूर्व "अ" हो और बाद में किसी वर्ग का तीसरा ,चौथा व पाँचवाँ वर्ण अथवा अन्त:स्थ वर्ण ( य,र,ल,व) अथवा 'ह' वर्ण हो तो पूर्व वर्ती "अ" और विसर्ग से मिलकर 'ओ' बन जाता है। जैसे 👇
बाल:+ गच्छति = बालोगच्छति।
श्याम:+ गच्छति। = श्यामोगच्छति।
मूर्ख: + याति = मूर्खो याति।
धूर्त: + हसति = धूर्तो हसति।
कृष्ण: + नमति =कृष्णो नमति।
लोक: + रुदति= लोको रुदति।
__________________________________________
💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व 'आ' और बाद में कोई स्वर वर्ण.(अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )अथवा वर्ग का तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ण और कोई अन्त:स्थ (य,र,ल,व)अथवा'ह'वर्ण हो तो विसर्गों का लोप हो जाता है।
जैसे- 👇
पुरुषा: +आयान्ति = पुरुषा आयान्ति।
बालका: + गच्छन्ति = बालका गच्छन्ति।
नरा: + नमन्ति =नरा नमन्ति।
विशेष:-देवा:+अवन्ति= देवा अवन्ति फिर पूर्वरूप देवा८वन्ति रूप-
___________________
💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व ( 'इ' 'ई ' उ ' ऊ 'ऋ 'ऋृ 'ए ' ऐ 'ओ 'औ ')आदि में से कोई स्वर हो और विसर्ग के बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा व पाँचवाँ अथवा कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ (य,र,ल,व ) अथवा 'ह' महाप्राण वर्ण हो तो विसर्ग का ( र् ) वर्ण बन जाता है।
यदि "अ"तथा "आ" स्वरों को छोड़कर कोई अन्य स्वर -(इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )के पश्चात् विसर्ग(:)हो तथा विसर्ग के पश्चात कोई भी स्वर(अ,आ,इ,ई,उ,ऋ,ऋृ,ऌ,ऊ,ए,ऐओ,औ) अथवा कोई वर्ग का तीसरा,चौथा,-(झ-भ-घ-ढ-ध) पाँचवाँ वर्ण-(ञ-म-ङ-ण-न) अथवा कोई अन्त:स्थ-(य-र-ल-व) और "ह" वर्ण हो तो विसर्ग का रेफ(र्) हो जाता है । और सजुष् शब्द के ष् वर्ण का र् (रेफ)वर्ण हो जाता है। यह नियम "ससजुषोरु:" सूत्र का विधायक है ।
'हरि: + आगच्छति = हरिरागच्छति। (हरिष्+)
कवि: + गच्छति = कविर्गच्छति। (कविष्+)
गुरो: + आदेश: = गुरोरादेश: । (गुरोष्+)
गौष्+इयम्=गौरियम्। (गौर्+)
हरे:+ दर्शनम्।=हरेर्दर्शनम्। (हरेष्+)
पितुष्+आज्ञया=पितुराज्ञया।(पितु:+)
दुष्+लभ्।=दुर्लभ। (दु:+)
नि:+जन:=निर्जन: ।( निष्+जन:)
निष् +दय:=निर्दय:।(नि:)
दुष्+आराध्य:=दुराराध्य:।
निष्+आश्रित:=निराश्रित:।
कविष्+हसति=कविर्हसति।
मुनिष्+आगत:=मुनिरागत:।
मुनिष्+इव=मुनिरिव।
प्रभोष्+आज्ञा=प्रभोराज्ञा।
विधेष्+आज्ञा=विधेराज्ञा।
रवेष्+दर्शनम्=रवेर्दर्शनम्।
इन्दोष्+उदय:=इन्दोरुदय।
तयोष्+आज्ञा=तयोराज्ञा।
धेनुष्+एषा =धेनुरेषा।
हरिष् +याति=हरिर्याति।
कविष्+अयम् =कविरयम्।
मन:+ कामना= मनस्कामना।
पुर:+ कार= पुरस्कार ।
_______
(इण्= | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्) |
__________
पूर्वम्: ८।२।६५अनन्तरम्: ८।२।६७
प्रथमावृत्तिः
सूत्रम्॥ ससजुषो रुः॥ ८।२।६६
पदच्छेदः॥ स-सजुषोः ६।२ रुः १।१ पदस्य ६।१ ८।१।१६
समासः॥
सश्च सजुष च स-सजुषौ तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः
अर्थः॥
स-कारान्तस्य पदस्य सजुष् इत्येतस्य च रुः भवति
उदाहरणम्॥
सकारान्तस्य - अग्निरत्र, वायुरत्र। सजुषः - सजूरृषिभिः, सजूर्देवेभिः।
काशिका-वृत्तिः
ससजुषो रुः ८।२।६६
सकारान्तस्य पदस्य सजुषित्येतस्य च रुः भवति। सकारान्तस्य अग्निरत्र। वायुरत्र।
सजुषः सजूरृतुभिः। सजूर्देवेभिः। जुषेः क्विपि सपूर्वस्य रुपम् एतत्।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
समजुषो रुः १०५, ८।२।६६
पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात्॥
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः।
न्यासः
ससजुषो रुः। , ८।२।६६
"सजूः" इति। "जुषी प्रीतिसेवनयोः" (धा।पा।१२८८), सह जषत इति क्विप्(), उपपदसमासः, "सहस्य सः संज्ञायाम्()" ६।३।७७ इति सभावः।
रुत्वे कृते "र्वोरुपधायाः" ८।२।७६ इति दीर्घः। सजुवो ग्रहणमसकारान्तार्थम्()। योगश्चायं जश्त्वापवादः॥
बाल-मनोरमा
ससजुषो रुः १६१, ८।२।६६
ससजुषो रुः। ससजुषो रु रिति छेदः। "रो रि"इति रेफलोपः।
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः। रुविधौ उकार इत्।
तत्फलं त्वनुपदमेव वक्ष्यते। "स" इति सकारो विविक्षितः।
अकार उच्चारणार्थः। पदस्येत्यधिकृतं सकारेण सजुष्शह्देन च विशेष्यते। ततस्त दन्तविधिः।
सकारान्तं सजुष्()शब्दान्तं च यत् पदं तस्य रुः स्यादित्यर्थः।
सच "अलोऽन्त्ये"त्यन्त्यस्य भवति।
तत्फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति।
सजुष्()शब्दस्य चेति। सजुष्शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य । ततश्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्()शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य षकारस्येत्यर्थः। ततस्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्शब्दान्तं यत्पद"मिति तदन्तविधिना परमसजूरित्यत्र नाव्याप्तिः।
न च सजूरित्यत्राव्याप्तिः शङ्क्या, व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वात्।
व्यपदेशिवद्भावो।ञप्रातिपदिकेन" इति "ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिर्न" इति च पारिभाषाद्वयं "प्रत्ययग्रहणे यस्मा"दितिविषयं, नतु येन विधिरितिविषयमिति "असमासे निष्कादिभ्यः" इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। ननु शिवसिति सकारस्य "झलाञ्जशोन्ते" इति जश्त्वेन दकारः स्यात्, जश्त्वं प्रति रुत्वस्य परत्वेऽपि असिद्धत्वादित्यत आह--जश्त्वापवाद इति। तथा च रुत्वस्य निरवकाशत्वान्नासिदधत्वमिति भावः। तदुक्तं भाष्ये "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति विप्रतिषेधोऽभावादुत्तरस्ये"ति , "अपवादो वचनप्रामाण्यादि"ति च।
तत्त्व-वोधिनी
ससजुषो रुः १३२, ८।२।६६
ससजुषो रुः। "पदस्ये"त्यनुवृतं ससजूभ्र्यां विशेष्यते, विशेषणेन तदन्तविधिः। न च सजूःशब्दांशे "ग्रहणवता प्रतिपदिकेन तदन्तविधिर्ने"ति निषेधः शङ्क्यः, तस्य प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। सान्तं सजुष्शब्दान्तं च यत्पदं तस्य रुः स्यात्स चाऽलोन्त्यस्य। एवं स्थिते फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति। सजुष्शब्दस्येति।
तदन्तस्य पदस्येत्यर्थः। तेन "सुजुषौ" "सजुष" इत्यत्रापि नातिव्याप्तिः। नच "सजू"रित्यत्राऽव्याप्तिः, "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिदिकेने"ति निषेधादिति वाच्यं, तस्यापि प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। अतएव "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेने"ति "ग्रहणवते"ति च परिभाषाद्वयमपि प्रत्ययविधिविषयकमिति "दिव उ"त्सूत्रे हरदत्तेनोक्तम्। कैयटहरदत्ताभ्यामिति तु मनोरमायां स्थितम्। तत्र कैयटेनानुक्तत्वात्कैयटग्रहणं प्रमादपतिततमिति नव्याः। केचित्तु "दिव उ"त्सूत्रं यस्मिन्निति बहुव्रीहिरयं, सूत्रसमुदायश्चान्यपदार्थः। तथाच "दिव उ"त्सूत्रशब्देन "द्वन्द्वे चे"ति सूत्रस्यापि क्रोटीकारात्तत्र च कैयटेनोक्तत्वान्नोक्तदोष इति कुकविकृतिवत्क्लेशेन मनोरमां समर्थयन्ते।
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अधुना अपवादत्रयं वक्तव्यम्—
१. रेफान्तानि अव्ययानि
प्रातः इच्छति → प्रात इच्छति = दोषः
“प्रात इच्छति" तु अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम् अनुसृत्य भवति स्म, परन्तु अत्र दोषः |
प्रातः इच्छति → प्रातरिच्छति = साधु
अत्र नियमः यत् यत्र रेफान्तानि अव्ययानि सन्ति, तत्र केवलं भाट्टसूत्रेषु प्रथमसूत्रं कार्यं करोति |
अन्यत्र सर्वत्र रेफः एव आदिष्टः |
अतः रेफान्त-अव्ययानां कृते सूत्राणि २ -५ इत्येषां स्थाने रेफः एव भवति |
प्रातः तिष्ठति → प्रातस्तिष्ठति = साधु
इदं उदाहरणं प्रथमसूत्रेण (विसर्जनीयस्य सः खरि कखपफे तु विसर्गः इत्यनेन) प्रवर्तते; अन्यत्र सर्वत्र रेफः |
अव्ययस्य अन्ते विसर्गः अस्ति चेत्, तस्य अव्ययस्य प्रातिपदिकं ज्ञेयम् | रेफान्तं प्रातिपदिकम् अस्ति चेत्, तर्हि तद् अव्ययम् अपवादभूतम् अस्ति इति धेयम् |
यथा प्रातः इत्यस्य प्रातिपदिकं प्रातर्; पुनः इत्यस्य प्रातिपदिकं पुनर्; अन्तः इत्यस्य प्रातिपदिकम् अन्तर् | इमानि अव्ययानि रेफान्तानि अतः अपवादभूतानि | परन्तु प्रातिपदिकं रेफान्तं नास्ति चेत्, तर्हि सामान्यैः सूत्रैः क्रमः प्रवर्तते | यथा "अतः" रेफान्तं नास्ति |
अतः इच्छति → "अतरिच्छति" = दोषः
अतः इच्छति → अत इच्छति = साधु (अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्)
____________________
२- एषः सः
सः तिष्ठति → सस्तिष्ठति = दोष:
एषः सः इति द्वि पदे विशेषे | तयोः कृते चतुर्थसूत्रेण अति उत्वं भवति | अन्यत्र सर्वत्र लोप एव |
सः तिष्ठति → स तिष्ठति = साधु
अतः पञ्चमे सोपाने यथा बालः इत्यादयः लघु-अकारान्तशब्दाः, एषः-सः इति द्वयोरपि अत्र विसर्गलोपः
एषः इच्छति → एष इच्छति*
एषः आगच्छति → एष आगच्छति*
*यथा पञ्चमे सोपाने, अत्रापि अन्यः विकल्पः अस्ति 'एषयिच्छति', 'एषयागच्छति' |
भोभगोअघोअपूर्वस्य योशि (८.३.१७), लोपः शाकल्यस्य (८.३.१९) इति सूत्राभ्याम् | अयं विकल्पः विरलतया उपयुज्यते |
धेयं यत् एषः सः इति द्वयोः पदयोः कृते अतः परस्य विसर्जनीयस्य अति हशि च उत्वम् इति सूत्रेण अति उत्वं भवति, परन्तु हशि उत्वं न भवति अपि तु लोप एव |
सः गच्छति → सो गच्छति = दोषः
सः गच्छति → स गच्छति = साधु
अत् परे अस्ति चेत्, तर्हि अति उत्वं भवति—
सः अपि → सोऽपि = साधु
'सः एषः' इति यथा, तथा 'यः' नास्ति | 'यः' इति शब्दस्य यथासामान्यं भाट्टसूत्रेषु सूत्र-१,४,५ इत्येषां साधारणरूपाणि | यस्तिष्ठति | यो गच्छति | य इच्छति |
____________________
३. रेफः + रेफः = पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च
हरिः रमते → हरिर्रमते = दोषः
रेफस्य रेफे परे पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च | उदाहरणे, पूर्वं यः इकारः अस्ति, तस्य दीर्घत्वं भवति | इ → ई इति |
हरिः रमते → इचः परस्य विसर्जनीयस्य रेफः अखरि इत्यनेन → हरिर् + रमते → रेफस्य लोपः, पूर्वदीर्घत्वम् → हरी + रमते → हरीरमते |
तथैव पुनः रमते → रेफान्तम् अव्ययम् अतः विसर्गसन्धौ रेफादेशः → पुनर् + रमते → पुना + रमते → पुनारमते |
पुनः रेफान्तम् अव्ययम् अतः अत्रापि रेफः आयाति; रेफस्य रेफे परे रेफलोपः पूर्वदीर्घत्वं च इति धेयम् |
इति विसर्गसन्धेः समग्रं चिन्तनम् समाप्तम् | इदं च लौकिकं चिन्तनं, व्यावहारिकं चिन्तन्तम् | सम्प्रति यावत् परिशीलितं व्यवहारे, तत् शास्त्रीयरीत्या कथं सिध्यति इति जानीयाम |
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।
- रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति
- सुतः + एव = सुतेव
- सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति
- अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च
- नराः + ददन्ति = नराददन्ति
- देवाः + अत् = देवात्
- ____________________
सूत्र – ससजुषोरूः
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।
- मुनिः + अत्र = मुनिरत्र
- रविः + उदेति = रविरुदेति
- निः + बलः = निर्बलः
- कविः + याति = कविर्याति
- धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति
- नौरियम् = नौः + इयम्
- गौरयम् = गौ + अयम्
- श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा
4. सूत्र – रोरि
यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।
- निर् + रसः = नीरसः
- निर् + रवः = नीरवः
- निर् + रजः = नीरजः
- प्रातारमते = प्रातर् + रमते
- गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य
- अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय
- शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति
- हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति
- ____________________
5. सूत्र- द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः
रेफाकार अथाव ढ़कार से परे यदि ढ़कार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला अण्-(अइउ) स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।
- लिढ़् + ढः = लीढ़ः
- लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्
- अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः
- लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः
6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में
- च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।
- त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।
- ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।
- कः + चौरः = कश्चौरः
- बालकः + चलति = बालकश्चलति
- कः + छात्रः = कश्छात्रः
- रामः + टीकते = रामष्टीकते
- धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः
- मनः + तापः = मनस्तापः
- नमः + ते = नमस्ते
- रामः + तरति = रामस्तरति
- पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त
7. सूत्र- वाशरि
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।
- दुः + शासन = दुःशासन/ दुश्शासन
- बालः + शेते = बालःशेते/ बालश्शेते
- देवः + षष्ठः = देवःषष्ठः/ देवष्षष्ठः
- प्रथर्मः + सर्गः = प्रथर्मःसर्ग/ प्रथर्मस्सर्गः
- निः + सन्देह = निःसंदेह/ निस्सन्दह
____________________________________
एष: और स: के विसर्ग का नियम-💐↔
एष: और स: के विसर्ग का नियम – एष: और स: के विसर्गों का लोप हो जाता है यदि इन विसर्गों के बाद कोई व्यञ्जन वर्ण जैसेेे. :-
स: + कथयति = स कथयति।
एष: + क:= एष क:।
_______________
है |
💐↔रोरि ,ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घो८ण: – अर्थ:- "र से र' वर्ण परे होने पर पूर्व 'र लोप होकर(अ,इ,उ) स्वरों का दीर्घ स्वर हो जाता है।
यदि विसर्ग के बाद र् आ
ता है तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग का लोप हो जाने के कारण उससे पहले आने वाले ( अ , इ, उ, का दीर्घ रूप आ,ई,ऊ हो जाता है।
जैसे-
अन्त:+राष्ट्रीय=अन्ताराष्ट्रीय।अन्तर्+
पुनः + रमते = पुनारमते । पुनर्+
कवि: + राजते =कवीराजते ।कविर्+
'हरि+रम्य= हरी रम्य।हरिर्+
शम्भु: + राजते = शम्भूराजते । शम्भुष्+। शम्भुर्+
👇जश्त्व सन्धि विधान :-
"पदान्त जश्त्व सन्धि"💐↔झलां जशो८न्ते।
जब पद ( क्रियापद) या (संज्ञा पद) अन्त में वर्गो के पहले, दूसरे,तीसरे,और चौथे वर्ण के बाद कोई भी स्वर या वर्ग का वर्ण हो जाता है तब "पदान्त जश्त्व सन्धि" होती है ।
अर्थात् पद के अन्त में वर्गो का पहला , दूसरा, तीसरा , और चौथे वर्ण आये अथवा कोई भी स्वर , अथवा कोई अन्त:स्थ आये परन्तु केवल ऊष्म वर्ण न आयें तो वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्= जबगडदश्) हो जाता है।
उदाहरण (Example):-
जगत् + ईश = जगदीश: ।
वाक् + दानम्= वाग्दानम्।
वाक् + ईश : = वागीश ।
अच्+ अन्त = अजन्त ।
एतत् + दानम्= एतद् दानम् ।
तत्+एवम् =तदेवम् । जगत् +नाथ=जगद्+नाथ=जगन्नाथ ।
💐↔अपादान्त जश्त्व सन्धि - जब अपादान्त में। अर्थात् (धात्वान्त) अथवा मूूूूल शब्दान्त में वर्गो के पहले दूसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा अन्त:स्थ ( य,र,ल,व ) में से कोई वर्ण हो तो पहले वर्ण को उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है ।
उदाहरण( Example )
लभ् + ध : = लब्ध: । (धातुु रूप)
उत् + योग = उद्योग :। (उपसर्ग रूप)
पृथक् +भूमि = पृथग् भूमि: । (मूलशब्द)
महत् + जीवन = महज्जीवनम्।(मूलशब्द)
सम्यक् + लाभ = सम्यग् लाभ :।(मूलशब्द)
क्रुध् + ध: = क्रुद्ध:।(धातुु रूप)
_________________________
प्रत्यय लगे हुए वाक्य में प्रयुक्त शब्द अथवा क्रिया रूप पद कहलाते हैं ।
ये क्रिया पद और संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि आठ प्रकार के होते हैं ।
- संज्ञा
- सर्वनाम
- विशेषण और
- क्रिया।
2. अविकारी-जो शब्द प्रयोगानुसार परिवर्तित नहीं होते, वे शब्द ‘अविकारी शब्द’ कहलाते हैं। धीरे-धीरे, तथा, अथवा, और, किंतु, वाह !, अच्छा ! ये सभी अविकारी शब्द हैं। इनके भी मुख्य रूप से चार भेद हैं :
- क्रियाविशेषण
- समुच्चयबोधक
- संबंधबोधक और
- विस्मयादिबोधक।
(विभक्त्यन्तशब्दभेदे “सुप्तिङन्तं पदम्” ) ।
______________________________________
चर्त्व सन्धि विधान-( खरि च)
"झय् का चय् हो जाता है झय् से परे खर् होने पर "।
परिभाषा:- जब वर्ग के पहले, दूसरे , तीसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का पहला दूसरा वर्ण अथवा ऊष्म वर्ण श् ष् स् हो तो पहले वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पहला वर्ण जाता है तब "चर्त्व सन्धि होती" है ।
लभ् + स्यते = लप्स्यते ।
उद् + स्थानम् = उत्थानम् ।
उद् + पन्न:=उत्पन्न:।
युयुध्+ सा = युयुत्सा ।
एतत् + कृतम् = एतत् कृतम्।
तत् + पर: =तत्पर: ।
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'छत्व सन्धि' विधान:- सूत्र-।शश्छोऽटि।
छत्व सन्धि विधान :-
अर्थ-•यदि पूर्व पद के अन्त में पाँचों वर्गों के प्रथम, द्वितीय तृतीय और चतुर्थ) का कोई वर्ण हो और उत्तर पद के पूर्व (आदि) में शिकार '(श) और इस श' के पश्चात कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ ल" को छोड़कर महाप्राण 'ह'-(य'व'र' ह)हो तो श वर्ण का छ वर्ण भी हो जाता है ।
वैसे भी तवर्ग का चवर्ग श्चुत्व सन्धि रूप में (स्तो: श्चुना श्चु:) सूत्र हो जाता है ।
परिभाषा:- यदि त् अथवा न् वर्ण के बाद "श" वर्ण आए और "श" के बाद कोई स्वर अथवा कोई अन्त:स्थ (य, र , व , ह )वर्ण हो तो
'श' वर्ण को विकल्प से छकार (छ) हो जाता है और स्तो: श्चुना श्चु: - सूत्र के नियम से 'त्' को 'च्' और 'न्' को 'ञ्' हो जाता है जैसे :-
सत् +शास्त्र = सच्छास्त्र ।
धावन् + शशक: = धावञ्छशक: ।
श्रीमत्+शंकर=श्रीमच्छङ्कर।
१- तत्+शिव= त् के बाद श् तथा श के बाद 'इ स्वर आने पर श' के स्थान पर 'छ्' वर्ण हो जाता है । रूप होगा सन्धि का तत्छिव (तत् + छिव) तत्पश्चात ्( श्चुत्व सन्धि) करने पर बनेगा रूप तच्+ छिव (तत्छिव).
२-एतत्+शान्तम्= त् के बाद श् और श् के बाद 'आ' स्वर आने से श्' के स्थान पर छ्' वर्ण हो जाता है। रूप बनेगा एतत् +छान्तम्- तत्पश्चात श्चुत्व सन्धि से आगामी रूप होगा (एतच्छान्तम्)
३-तत् +श्व: पूर्व पद के अन्त में त् और उसके पश्चात उत्तर पद के प्रारम्भ में श्' और उसके बाद अन्त:स्थ 'व' आने पर श्' के स्थान पर छ' (श्चुत्व सन्धि) से हो जाता है । तत् + शव: + तत्छव: फिर श्चुत्व सन्धि) से तच्छ्व: रूप होगा।
(- प्रत्याहार-)
*********************************
........माहेश्वर सूत्र कुल १४ हैं, इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र ( १.१.१४ ) "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" ( ८.४.४७ ) से बनता है । इस प्रकार कुल ४३ प्रत्याहार हो जाते हैं।
प्रश्न : ----- "प्रत्याहार" किसे कहते हैं ?
उत्तर : ----- "प्रत्याहार" संक्षेप करने को कहते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ७१ वें सूत्र " आदिरन्त्येन सहेता " ( १-१-७१ ) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि मुनिने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता ( १-१-७१ ) :- ( आदिः + अन्त्येन इता + सह )
........आदि वर्ण अन्तिम इत् वर्ण के साथ मिलकर “ प्रत्याहार ” बनाता है । जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए सभी वर्णों का समष्टि रूप में बोध कराता है।
........जैसे "अण्" कहने से अ, इ, उ तीन वर्णों का ग्रहण होता है, "अच्" कहने से "अ" से "च्" तक सभी स्वरों का ग्रहण होता है। "हल्" कहने से सारे व्यञ्जनों का ग्रहण होता है।
इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैं --
(०१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (०२) आदि अक्षरों के अनुसार।
इनमें से अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी से अनुसार है।
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अन्तिम अक्षर के अनुसार ४३ प्रत्याहार सूत्र सहित
(क.) अइउण् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(०१) " अण् " ----- उरण् रपरः । ( १.१.५०
(ख.) ऋलृक् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।
........(०२) " अक् " ----- अकः सवर्णे दीर्घः । ( ६.१.९७ ),
........(०३) " इक् " ----- इको गुणवृद्धी । ( १.१.३ ),
........(०४) " उक् " ----- उगितश्च । ( ४.१.६ )
(ग) एओङ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(०५) " एङ् " ----- एङि पररूपम् । ( ६.१.९१ )
(घ) ऐऔच् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।
........(०६) " अच् " ----अचोSन्त्यादि टि । ( १.१.६३ ),
.......(०७) " इच् " --- इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च । (६.३.६६ ),
........(०८) " एच् " ----- एचोSयवायावः । ( ६.१.७५ ),
........(०९) " ऐच् " ----- वृद्धिरादैच् । ( १.१.१ ),
(ङ) हयवरट् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(१०) " अट् " ----- शश्छोSटि । ( ८.४.६२
(च) लण् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।
........(११) " अण् " ----- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः । (१.१.६८ ),
........(१२) " इण् " ----- इण्कोः । ( ८.३.५७ ),
........(१३) " यण् " ----- इको यणचि । ( ६.१.७४ )
(छ) ञमङणनम् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।
........(१४) " अम् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ),
........(१५) " यम् " ----- हलो यमां यमि लोपः । ( ८.४.६३ ),
........(१६) " ङम् " ----- ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् । ( ८.३.३२ ),
........(१७) " ञम् " ----- ञमन्ताड्डः । ( उणादि सूत्र — १.१.१४ )
(ज) झभञ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(१८) " यञ् " ----- अतो दीर्घो यञि । ( ७.३.१०१ )
(झ) घढधष् ----- इससे दो प्रत्याहार बनते हैं ।
........(१९) "झष् " और
........(२०) " भष् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )
(ञ) जबगडदश् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।
........(२१) " अश् " ----- भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि । ( ८.३.१७ ),
........(२२) " हश् " ----- हशि च । ( ६.१.११० )
........(२३) " वश् " ----- नेड् वशि कृति । ( ७.२.८ ),
........(२४) " झश् ",
........(२५) " जश् " ----- झलां जश् झशि । ( ८.४.५२ ),
........(२६) " बश् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )
(ट) खफछठथचटतव् --- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।
........(२७) " छव् " ----- नश्छव्यप्रशान् । ( ८.३.७ )
(ठ) कपय् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।
........(२८) " यय् " ---- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः । ( ८.४.५७ ),
........(२९) " मय् " ----- मय उञो वो वा । ( ८.३.३३ ),
........(३०) " झय् " ----- झयो होSन्यतरस्याम् । ( ८.४.६१ ),
........(३१) " खय् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ),
........(३२) " चय् " ----चयो द्वितीयः शरि पौषकरसादेः । (वार्तिकः--- ८.४.४७ ),
(ड) शषसर् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।
........(३३) " यर् " ----- यरोSनुनासिकेSनुनासिको वा । ( ८.४.४४ ),
........(३४) " झर् " ----- झरो झरि सवर्णे । ( ८.४.६४ ),
........(३५) " खर् " ----- खरि च । ( ८.४.५४ ),
........(३६) " चर् " ----- अभ्यासे चर्च । ( ८.४.५३ ),
........(३७) " शर् " ----- वा शरि । ( ८.३.३६ ),
(ढ) हल् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।
........(३८) " अल् " ----- अलोSन्त्यात् पूर्व उपधा । (१.१.६४ ),
........(३९) " हल् " ----- हलोSनन्तराः संयोगः । (१.१.५७ ),
........(४०) " वल् " ----- लोपो व्योर्वलि । ( ६.१.६४ ),
........(४१) " रल् " ----- रलो व्युपधाद्धलादेः सश्च । (१.२.२६ ),
........(४२) " झल् " ----- झलो झलि । ( ८.२.२६
........(४३) " शल् " ----- शल इगुपधादनिटः क्सः । ( ३.१.४५ )
आदि वर्ण के अनुसार ४३ प्रत्याहार
........(क) अकार से ८ प्रत्याहारः---(१) अण्, (२) अक्, (३) अच्, (४) अट्, (५) अण्, (६) अम्, (७) अश्, (८) अल्,
........(ख) इकार से तीन प्रत्याहारः--(९) इक्, (१०) इच्, (११) इण्,
........(ग) उकार से एक प्रत्याहारः--(१२) उक्,
........(घ) एकार से दो प्रत्याहारः---(१३) एङ्, (१४) एच्,
........(ङ) ऐकार से एकः---(१५) ऐच्,
........(च) हकार से दो---(१६) हश्, (१७) हल्,
........(छ) यकार से पाँच---(१८) यण्, (१९) यम्, (२०) यञ्, (२१) यय्, (२२) यर्,
........(ज) वकार से दो---(२३) वश्, (२४) वल्,
........(झ) रेफ से एक---(२५) रल्,
........(ञ) मकार से एक---(२६) मय्,
........(ट) ङकार से एक---(२७) ङम्,
........(ठ) झकार से पाँच---(२८) झष्, (२९) झश्, (३०) झय्, (३१) झर्, (३२) झल्,
........(ड) भकार से एक---(३३) भष्,
........(ढ) जकार से एक--(३४) जश्,
........(ण) बकार से एक---(३५) बश्,
........(त) छकार से एक---(३६) छव्,
........(थ) खकार से दो---(३७) खय्, (३८) खर्,
........(द) चकार से एक---(३९) चर्,
........(ध) शकार से दो---(४०) शर्, (४१) शल्,
इसके अतिरिक्त
........(४२) ञम्--- एक उणादि का और
........(४३) चय्---एक वार्तिक का,
कुल ४३ प्रत्याहार हुए।
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१-अक् | अ, इ , उ, ऋ , लृ |
२-अच् | अ, इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ |
३-अट् | अ, इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व्,र्, |
४-अण् | अ , इ , उ |
५-अण् | अ, इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व, र्, ल् |
६-अम् | स्वर , ह्, य्,व, र्, ल्, ञ्,म्,ङ्,ण्,न् |
७-अल् | सभी वर्ण |
८-अश् | स्वर, ह्, य्,व, र्, ल्,वर्गों के 3,4,5,वर्ण। |
९-इक् | इ , उ, ऋ , लृ |
१०-इच् | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ |
११-इण् | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल् |
१२-उक् | उ, ऋ,लृ |
१३-एङ् | ए,ओ |
१४-एच् | ए , ओ , ऐ , औ |
१५-ऐच् | ऐ , औ |
१६-खय् | वर्गों के 1,2 वर्ण। |
१७-खर्- | वर्गों के प्रथम- ( और द्वितीय और महाप्राण सहित उष्मवर्ण) खफछठथचटतकपशषसह) |
१८-ङम् | ङ् , ण्, न् |
१९-चय् | च्, ट्, त, क्, प् { वर्गों के प्रथम वर्ण } |
१९-चर् | वर्गों के प्रथम वर्ण, श्, ष्, स् |
२०-छव् | छ् , ठ् , थ् , च् , ट् , त्, व् |
२१-जश् | ज्, ब्, ग्, ड्, द् |
२२-झय् | वर्गों के 1, 2, 3, 4 |
२३-झर् | वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स् |
२४-झल् | वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स्,ह |
२५-झश् | वर्गों के 3, 4 वर्ण। |
२६-झष् | वर्गों के चतुर्थ वर्ण { झ्, भ्, घ्, ढ्, ध् } |
२७-बश् | ब्, ग्, ड्, द् |
२८-भष् | झ् के अलावा वर्गों के चतुर्थ वर्ण |
२९-मय् | ञ् को छोड़कर वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 |
३०-यञ् | य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 5 , झ्, भ् |
३१-यण् | य्, व्, र्, ल् |
३२-यम् | य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ङ्, ण्, न् |
३३-यय् | य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 |
३४-यर् | य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 , श्, ष्, स् |
३५-रल् | य् , व् के अलावा सभी व्यञ्जन |
३६-वल् | य् , के अतिरिक्त सभी व्यञ्जन वर्ण। |
३७-वश् | व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 वर्ण। |
३८-शर् | श्, ष्, स् |
३९-शल् | श्, ष्, स्, ह { ऊष्म वर्ण } |
४०-हल् | सभी व्यञ्जन |
४१-हश् | ह, य्, व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 |
४२-ञम् | ञ्, म्, ङ्, ण्, न् |
इण् प्रत्याहार दो हैंप्रस्तुति-करण-यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्कसूत्र --8077160219 |
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वर्णविभागः
वर्णाः द्विविधम् । स्वराः व्यञ्जनानि च इति ।
अर्थ:-(वर्ण दो प्रकार के होते हैं स्वर और व्यञ्जन)
स्वराः
अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ - इत्येते नव स्वराः । तेषु अ, इ, उ, ऋ - स्वराणां दीर्घरूपाणि सन्ति - आ, ई, ऊ, ॠ । अतः स्वराः त्रयोदश । अ, इ, उ, ऋ, लृ - एते पञ्च ह्रस्वस्वराः ।
अन्ये दीर्घस्वराः। एतेषु- (ए, ऐ, ओ, औ )- एते संयुक्तस्वराः सन्ध्य्क्षराणि इति वा निर्दिश्यन्ते । स्वराणाम् उच्चारणाय स्वीक्रियमाणं कालमितिम् अनुसृत्य स्वराः ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः इति त्रिधा विभक्ताः सन्ति ।
एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घम् उच्यते । त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनं त्वर्धमात्रकम् ॥१।
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येषां स्वराणाम् उच्चारणाय एकमात्रकालः भवति ते ह्रस्वाः स्वराः । उदाहरण।- (अ, इ)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालः भवति ते दीर्घाः स्वराः । उदाहरण - (आ, ई)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालाद् अपेक्षया अधिकः कालः भवति ते प्लुताः स्वराः । उदाहरण।। - (आऽ, ईऽ)
संयुक्ताक्षरं / सन्ध्यक्षरं नाम स्वरद्वयेन अक्षरद्वयेन सम्पन्नः स्वरः अक्षरम् वा । उदाहरण । - (ए = अ + इ) अथवा अ + ई /आ + इ / आ + ई ।
ऐ = अ + ए / आ + ए, । ओ=अ + उ / अ + ऊ / आ + उ / आ + ऊ, औ = अ + ओ / आ + औ
व्यञ्जनानि-
उपरि दर्शितेषु माहेश्वरसूत्रेषु पञ्चमसूत्रतः अन्तिमसूत्रपर्यन्तं व्यञ्जनानि उक्तानि । व्यञ्जनानि (३३) । तानि वर्गीयव्यञ्जनानि अवर्गीयव्यञ्जनानि इति द्विधा । क्-तः म्-पर्यन्तं वर्गीयव्यञ्जनानि । अन्यानि अवर्गीव्यञ्जनानि ।
वर्गीयव्यञ्जनानि-
२-तालव्यः -च् छ् ज् झ् ञ् - एते चवर्गः - तालव्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा तालव्यस्थानं स्पृशति।
३-मूर्धन्यः-ट् ठ् ड् ढ् ण् - एते टवर्गः - मूर्धन्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे मूर्धायाः स्थाने भारः भवति।
४-दन्त्यः-त् थ् द् ध् न् - एते तवर्गः - दन्त्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा दन्तान् स्पृशति।
५-औष्ठ्य। प् फ् ब् भ् म् -औष्ठौ एते पवर्गः एतेषाम् उच्चारणावसरे परस्परं स्पृशतः।
- _________________________
१-कण्ठ्यः - क् ख् ग् घ् ङ् - एते कवर्गः - कण्ठ्यः - एतेषाम् उच्चारणस्थानं कण्ठः।
वर्गीयव्यञ्जनेषु प्रतिवर्गस्य आदिमवर्णद्वयं खर्वर्णाः / कर्कशव्यञ्जनानि ।
(वर्ग के प्रारम्भिक दो वर्ण खर अथवा-
कर्कश वर्ण होते हैं )
अन्तिमवर्णद्वयं हश्वर्णाः / मृदु व्यञ्जनानि ।
(अन्तिम दो वर्ण ही अथवा मृदु होते हैं )
अवर्गीयव्यञ्जनानि-
- (य् र् ल् व्) - अन्तस्थवर्णाः
- (श् ष् स् ह् )- ऊष्मवर्णाः
अवर्गीयव्यञ्जनेषु श् ष् स् - एते कर्कशव्यञ्जनानि । अवशिष्टानि मृदुव्यञ्जनानि ।
प्रतिवर्गस्य प्रथमं तृतीयं पञ्चमं च व्यञ्जनं य् र् ल् व् च अल्पप्राणाः ।
अर्थ: •प्रत्येक वर्ग का प्रथम तृतीय पञ्चम व्यञ्जन और अन्त:स्थ अल्पप्राण होते हैं ।।
अवशिष्टाः महाप्राणाः ।अर्थ• अवशेेेष ( बचे हुए) वर्ण महाप्राण हैं ।
प्रत्येकस्य वर्गस्य पञ्चमं व्यञ्जनं (ङ् ञ् ण् न् म्) अनुनासिकम् इति उच्यते । कण्ठादिस्थानं नासिका - इत्येतेषां साहाय्येन अनुनासिकाणाम् उच्चारणं भवति ।
अनुस्वारः, विसर्गः👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
(अं) अम् इत्येषः अनुस्वारः । अस्य चिह्नमस्ति उपरिलिख्यमानः बिन्दुः । अः इत्येषः विसर्गः । अस्य चिह्नमस्ति वर्णस्य पुरतः लिख्यमानं बिन्दुद्वयम् । क् ख् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः जिह्वामूलीयः इति कथ्यते ।
प् फ् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः उपध्मानीयः इति कथ्यते ।
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