सोमवार, 22 मार्च 2021

भाषा की उत्पत्ति का सैद्धान्तिक विवेचन - भाषा" "व्याकरण " भाषाविज्ञान " और इतिहास का सम्पूरक - यापुसहलम्- श्रृँखला-


संस्कृत व्याकरण में सन्धि-विधान और वर्णमाला की व्युत्पत्ति के भाषावैज्ञानिक विश्लेषण के साथ ही पदों का पारिभाषिक विवेचन- प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"

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  "यादव योगेश कुमार "रोहि"

 

"व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्-यन्ते अर्थवत्तया प्रतिपाद्-यन्ते शब्दा येन इति व्याकरणम् 

"जिसके द्वारा अर्थवत्ता के साथ शब्दों की व्युत्पत्ति ( जन्म) प्रतिपादन किया जाता है वह व्याकरण है ।

वि +आ+कृ-करणे + ल्युट् (अन्) = व्याकरणम् ।

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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। 
उसने  अपने विचार ,भावनाओं एवं अनुभुतियों को अभिव्यक्त करने के लिए जिन माध्यमों को  चुना वही भाषा हैं । 

मनुष्य कभी शब्दों से तो कभी संकेतों द्वारा संप्रेषणीयता (Communication) का कार्य सदीयों से करता रहा है। अर्थात् अपने मन के मन्तव्य को दूसरों तक पहुँचाता रहा है । 
किन्तु भाषा उसे ही कहते हैं ,जो बोली और सुनी जाती हो,और बोलने का तात्पर्य मूक मनुष्यों या पशु -पक्षियों का नही ,अपितु बोल सकने वाले मनुष्यों से ही लिया जाता है।
इस प्रकार -"भाषा वह साधन है" जिसके माध्यम से हम अपने विचारों को वाणी का स्वरूप देते हुए आवश्यकता मूलक व्यवहार को साधित करते हैं ।
वस्तुत: यह भाषा हृदय के भाव और मन के विचार दोनों को अभिव्यक्त करने का केवल जैविक साधन है । भाषा की पूर्ण इकाई वाक्य  है अथवा शब्द यह भी विचारणीय है परन्तु निष्कर्ष तो यही निकलता है  कि वाक्य ही भाषा कि समग्र इकाई हैं । वाक्य एक शब्द का भी हो सकता है  और अनेक पदों का भी हो सकता है शिशुओं की भाषा के शब्द भी एक समग्र वाक्य का ही भाव व्यक्त करते हैं । जैसे शिशु जब पा- अथवा माँ कहता है तो इन ध्वनि अनुकरण मूलक शब्दों के उच्चारण से भी प्यास  और भूख जैसे भावों का बोध होता है । भाषा रूपी संसार में शब्द पदों के रूप में परिबद्ध होकर वाक्य रूप में पारिवारिक होकर क्रियाओं के साथ दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करते हैं  शब्द और अर्थ की सत्ता शरीर और आत्मा के सदृश ही है इसी लिए मानव शरीर में श्रवणेन्द्रिय(कान )और चक्ष्वेन्द्रिय (आँख) की स्थिति उच्च व अपनी शक्ति के रूप में आनुपातिक है वाणी मानवीय चेतना के विकास का प्रत्यक्ष प्रतिमान व सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतिमान है । प्राचीन विद्वानों ने वाणी के विषय में उद्गार उत्पन्न किये हैं ★ 👇
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इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथावाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते।१.३।इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि 


अर्थ-★ इस संंसार मेंं शिष्ट और अतिशिष्टों सब की सब।प्रकार सेे लोक यात्रा वाणी के प्रसाद( कृपा) से ही होती है।।                                   ( काव्यादर्श १/३-४)

इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारन्न दीप्यते।।१.४

 अर्थ-★-  इस सम्पूर्ण जगत  तीनों  मेें  अन्धकार ही उत्पन्न होता ; यदि हम सब संसार में शब्दों की ज्योति से प्रकाशित न होते। १.४ ।                             
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मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को प्राय:तीन प्रकार से ही प्रकट करता है-

 १-बोलकर (मौखिक ) २-लिखकर (लिखित) तथा ३-संकेत  (इशारों )के द्वारा सांकेतिक रूप में। 
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 .१-मौखिक भाषा :- मौखिक भाषा में मनुष्य अपने विचारों या  हृदय के भावों को मुख से बोलकर अथवा उच्चारणमयी विधि से प्रकट करते है।

 मौखिक भाषा का प्रयोग तभी होता है,जब श्रोता और वक्ता आमने-सामने हों।
 इस माध्यम का प्रयोग प्राय: फ़िल्म,नाटक,संवाद एवं भाषण आदि के रूप में अधिक सम्यक् रूप से होता है ।

 २-.लिखित भाषा:-भाषा के लिखित रूप में लिखकर या पढ़कर विचारों एवं हृदय-भावों का आदान-प्रदान किया जाता है। वस्ततु: भावों का सम्बन्ध हृदय से है जो केवल प्रदर्शित ही किये जाते हैैं; जबकि विचार आयात और निर्यात भी किये जाते हैं ।लिखकर अथवा मौखिक रूप से ; लिखित रूप भाषा का स्थायी माध्यम होता है।
पुस्तकें इसी माध्यम में भाषा लिखी जाती है।

 ३.सांकेतिक भाषा :- सांकेतिक भाषा यद्यपि भावार्थ वा विचारों की अभिव्यक्ति का स्पष्ट माध्यम तो नहीं है ; 
परन्तु यह भाषा का आदि -प्रारूप अवश्य है । 
स्थूल भाव अभिव्यक्ति के लिए इसका प्रयोग अवश्य ही सम्यक् (पूर्ण) होता है यह प्रथम जैविक भाषा है जिससे चित्रलिपि का विधान हुआ ।

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भाषा और बोली (Language and Dialect) 

♣•भाषा:-(Language)

 भाषा के किसी क्षेत्रीय रूप को बोली कहते है।
 कोई भी बोली विकसित होकर साहित्य की भाषा बन जाती है। 
जब कोई भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन होती है,तो उसके साथ ही लोकभाषा या विभाषा की उपस्थिति भी अनिवार्य होती है ; और
 कालान्तरण में ,यही लोकभाषा  भी फिर परिनिष्ठित एवं उन्नत होकर साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है।
जिसमें व्याकरण भाषा का अनुशासक बनकर उसे एक स्थायित्व प्रदान करता है ।

👇—दूसरे शब्दों में भाषा और बोली को क्रमश: प्रकाश और चमक के अन्तर से भी जान सकते हैं । अथवा सामाजिक रूप में औषधि विक्रेता से चिकित्सक तक का विकास बेलदार से चिनाई मिस्त्री तक का विकास।
भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है । 

"भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है" ।

♣•-बोली:-Patios-

जबकि बोली उपभाषा के रूप में हमारे दैनिक गृह-सम्बन्धी आवश्यकता मूलक व्यवहारों की सम्पादिका है।
जो व्याकरण के नियमों में परिबद्ध नहीं होती है । 
यूरोपीय-भाषावैज्ञानिकों ने बोली के लिए स्पैनिश शब्द( patio)  का प्रयोग किया। यह शब्द स्पैनिश मूल का है  (patio) शब्द का स्पेनिश में प्रारम्भिक अर्थ आँगन' था और माना जाता है कि पुराने शब्द पाटी(pati) (या patu-पटु) का अर्थ चारागाह था |
  - एक घर के पीछे की भूमि जहाँ जानवरों को रात में सुरक्षित रखने के लिए पेटीज (आँगन) का इस्तेमाल किया गया था और आधुनिक समाज के विकसित होने के साथ-साथ एक बाहरी रहने वाले कमरे के रूप में इस शब्द का  परम्परागत रूप से इस्तेमाल किया जाने लगा।  यह निश्चित रूप से, बगीचे के प्रांगण के लिए पारम्परिक रूप भूमध्यसागरीय देशों में  प्रयोग में था।

आधुनिक अंग्रेजी और अमेरिकी उद्यानों में 'आँगन' घर के पास एक पक्का क्षेत्र है, जिसका उपयोग बाहरी बैठने और खाने के लिए  भी किया जाता है उसके लिए भी प्रयोग हुआ । जिसमें एक या दो तरफ को इमारत हो सकती है, लेकिन पारंपरिक स्पैनिश आंगन की तरह एक आंतरिक आंगन होने की संभावना नहीं है। इसी से हिन्दी में (पट्टा) खेत के चमड़े या बानात आदि की बद्धी जो कुत्तों, बिल्लियों के गले में पहनाई जाती है का मूल भी यही है ।

संस्कृत में  पट्ट =(पट्+क्त) नेट् ट वा तस्य नेत्त्वम् का अर्थ नगर  चतुष्पथ या चौराहे को भी कहा गया और भूम्यादिकरग्रहणलेख्यपत्र (पाट्टा) को भी  

 वह भूमि संबंधी अधिकारपत्र जो भूमिस्वामी की ओर से असामी को दिया जाता है और जिसमें वे सब शर्तें लिखी होती हैं जिनपर वह अपनी जमीन उसे देता है। 

वस्तुत: पशुचर-भूमि को पाश्चर (pature) कहा गया जो (patio) शब्द से विकसित हुआ। और पाश में बँधे हुए जानवर को ही पशु कहा गया और पाश शब्द ही अन्‍य रूपान्तरण (पाग) पगाह रूप  में  हिन्दी में आया  और अंग्रेज़ी में इसके समानार्थक (pag) भी है जिसका अर्थ भी बाँधना है ।

वस्तुत: (पेशियों- (patios) गृह, ग्राम,व स्थानीय समाज मे बोली जाने वाली भाषा होती है । भाषा के स्थानीय और प्रान्तीय भेदों के अतिरिक्त ऐसे भेद भी  होते हैं जो एक ही स्थान पर रहने पर भी मनुष्य के भिन्न भिन्न समूहों और वर्गों में पाये जाते हैं। 

उसके लिए भी भाषा शब्द का प्रयोग होता है । एक ही स्थान पर रहने वाले अनेक वर्गों में कुछ अपनी जातिगत और वर्ग गत विशेषताऐं होती हैं जैसे एक ही शहर में रहने वाले  मुसलमान अब्बासी( शाकी) तथा पठान में या ब्राह्मण, कायस्थ और पाशी आदि में अपनी एक बोली होती जो उनके वंशानुगत भाषिक तत्त्वों को आत्मसात् किये होती है । 
इसी बोली की उच्चारण शैली पृथक पृथक होती है । तथा कुछ लोकगीत और (तकियाकलामनुमा) शब्द भी पीढी दर पीढ़ी  भाषाओं के साथ  होते हैं ।
परन्तु इतना  सब होते हुए भी एक समाज या वर्ग दूसरे वर्ग की बातों को यथावत् समझ लेता है । वस्तुत: बोली से तात्पर्य एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत बोली जाने वाली भाषा से ही है ।
आज जो हिन्दी हम बोलते हैं या लिखते हैं ,वह कभी  खड़ी बोली अथवा उपभाषा  थी।, इसके पूर्व रूप ,"शौरसेनी प्राकृत"अथवा 'ब्रज' 'प्राकृत' 'अवधी'और मैथिली' आदि थे ये बोलियाँ भी  कालान्तरण में परिमार्जित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हो जाती हैं। 

विभाषा(Dialect)

विभाषा का क्षेत्रबोली की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत होता है  विभाषा का रूप परिमार्जित, शिष्ट , एवं साहित्य सम्पन्न होता है एक एक विभाषा के अन्तर्गत अनेक बोलियाँ होती हैं जोकि उच्चारण, व्याकरण और शब्द -प्रयोगों की दृष्टि से भिन्न होने पर भी एक ही उपभाषा के अन्तर्गत समाहित कर ली जाती हैं। किन्तु विभाषा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। जैसे व्रज विभाषा की बोली डिंगल पिंगल और खड़ीबोली आदि हैं इस विभाषा गत भिन्नता की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। बोली यहा
 ही समय पाकर कभी कभी विभाषा तथा साहित्यिकभाषा तक का पद प्राप्त कर लेती हैं ।


'डिंगल' राजपूताने की वह राजस्थानी भाषा की शैली जिसमें भाट और चारण काव्य और वंशावली आदि लिखते चले आते हैं यह पश्चिमी राजस्थान मेें प्रसारित  हुई।

पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म भी पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था भरत पुर के आसपास
इस भाषा में चारण परम्परा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।

उद्भव डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी।
डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया।
उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
'पिंगल'  शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से  रहा है।
सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है।
इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा।
यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया।
गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में "भाषा पिंगल दी " कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।

'पिंगल' और 'डिंगल' दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं।
'डिंगल' इससे कुछ भिन्न भाषा-शैली थी।
यह भी चारणों  में ही विकसित हो रही थी।
इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। 'पिंगल' संभवतः 'डिंगल' की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी
और इस पर 'ब्रजभाषा' का अधिक प्रभाव था।
इस शैली को 'अवहट्ठ' और 'राजस्थानी' के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है।

डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है इसका अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वि राजस्थानी का साहित्यिक रूप है।
और इसका अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है।

♣•-हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :-

संसार में अनेक भाषाएँ बोली जाती है।
जैसे -अंग्रेजी,रूसी,जापानी,चीनी,अरबी,हिन्दी ,उर्दू आदि। हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं ।
जैसे -बंगला,गुजराती,मराठी,उड़िया ,तमिल,तेलगु मलयालम आदि। हिन्दी अब भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी भाषा को भारतीय-संविधान में राजभाषा का दर्जा भी दिया गया है। _________________________________________

लिपि (Script):- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है - लेपन या लीपना पोतना आदि अर्थात् जिस प्रकार चित्रों को बनाने के लिए उनको लीप-पोत कर सम्यक् रूप दिया जाता है लैटिन से "scribere=लिखना" से 'Script' शब्द का विकास हुआ है।


लिपि के द्वारा विचारों को साकार रूप से लिपिबद्ध कर भाषायी रूप  दिया जाता है। 
लिपि का अर्थ- लिखित या चित्रित करना ।
ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है,वही लिपि कहलाती हैं।
प्रत्येक भाषा की अपनी -अलग लिपि होती है।
हिन्दी और संस्कृत की लिपि देवनागरी है।

 हिन्दी के अलावा - मराठी,कोंकणी,नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।
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"व्याकरण" ( Grammar)

 •व्याकरण ( Grammar):- व्याकरण वह विधा है; जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना , लिखना व पढ़ना जाना जाता है।
व्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता है। यह  नदी रूपी भाषा के किनारे के समान उसे नियमों में बाँधे रहता है ।  व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देकर उसे शुद्धता प्रदान करता है। इस प्रकार ,हम कह सकते है कि प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है,उस भाषा का  नियम शास्त्र ही व्याकरण हैं जो भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना सिखाता है।
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व्याकरण का यूरोपीय भाषाओं में रूपान्तरण ग्रामर शब्द के द्वारा उद्भासित है ।

 🔜 -प्राचीन ग्रीक (γραμμττική ) में         ( व्याकरणिक , " लेखन में कुशल ") क्रियात्मक रूपों से ग्रामर शब्द की अवधारणा का जन्म हुआ।


लैटिन व्याकरण से, पुरानी फ्रांसीसी में Gramire ( शास्त्रीय भाषा सीखने " ) से  सम्बंधित है,
 वर्तमान  ग्रामर शब्द मध्य अंग्रेजी के Gramer , gramarye , gramery से विकास हुआ।

γράμμα (grámma , " लेखन की रेखा )
से , प्रोटो-इण्डो-यूरोपीय gerbʰ- वैदिक भाषा में गृभ (नक्काशीदार , खरोंच ) से γράφω  ( ग्रैफो से निकला , जिसका अर्थ :–  लिखें ) से सम्बद्ध।

एक भाषा बोलने और लिखने के लिए नियमों और सिद्धांतों की एक प्रणाली का नाम ग्रामर है।

( अनगिनत , भाषाविज्ञान ) के सन्दर्भों में
शब्दों की आन्तरिक संरचना ( morphology ) का अध्ययन और वाक्यांशों और वाक्य ( वाक्यविन्यास ) के निर्माण में शब्दों का उपयोग मान्य है।

एक भाषा के व्याकरण के नियमों का वर्णन करने वाली एक पुस्तक  ही व्याकरण है।

ग्रामर शब्द का भावार्थ है :- वह ग्रन्थ जो एक औपचारिक प्रणाली के द्वारा एक भाषा के वाक्यविन्यास को निर्दिष्ट करता है।

अधिकतर फ्रैंकिश शब्द ग्रिमा( Grima) ( मुखौटा, तथा जादूगर ) से आते हैं ।

जिससे ग्रिमेस शब्द की उत्पत्ति भी है।
एक अन्य स्रोत इतालवी शब्द रिमेस ("rhymes की पुस्तक") भी हो सकता है।
जो अन्ततः एक कठिन "जीवन" अपनाया क्योंकि यह फ्रांस चले गए।

किसी भी तरह से, फ्रांसीसी शब्द grimaire शब्द के साथ मिलकर शब्द (grammaire)या ( ग्रामर Grámma) शब्द बना ।

इसी के समानान्तरण यूरोपीय भाषाओं में Spell शब्द का प्रयोग मन्त्र बोलने के लिए भी होता है और भाषाओं की वर्तनी के लिए भी क्योंकि दौनों की गतिविधियाँ समान हैं ।

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इस शब्द की अवधारणा एक पुरानी वर्तनी, "लैटिन के अध्ययन" और "गहन और गुप्त विज्ञान" के अर्थ में "व्याकरण" के सुझाव से  भी की  है "।

"ग्रीक भाषा में (gramma) शब्द का अर्थ "letter"( वर्ण)है ।

प्राचीन ग्रीक γραμματικός ( व्याकरणिक , " में सीखना और लिखना  ) से पुरानी फ्रांसीसी gramaire से भी अर्वाचीन फ्रांसीसी grimoire में उधार लिया।

"ग्रामर शब्द का प्राचीन अर्थ प्रयोग ,ग्लैमर और व्याकरण दौनो का सन्दर्भित करता था ।

जादू या कीमिया के उपयोग में उसके निर्देशों की एक पुस्तक, विशेष रूप से दैवीय शक्तियों  को बुलाने के लिए भी ग्रामा शब्द रूढ़ रहा है ।

grammar
/ˈɡramə/




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gram:- noun word-forming element,
"that which is written or marked," from Greek gramma
"that which is drawn; a picture, a drawing; that which is written, a character, an alphabet letter, written letter, piece of writing;" in plural, "letters,"

also "papers, documents of any kind," also "learning," from stem of graphein "to draw or write"

(-graphy). Some words with There are from Greek compounds,
others  modern formations.

Alternative -gramme is a French form.। 

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From Middle English gramergramaryegramery, from Old French gramaire (classical learning), from Latin grammatica, from Ancient Greek γραμματική (grammatikḗskilled in writing), from γράμμα (grámmaline of writing), from γράφω (gráphōwrite), from Proto-Indo-European *gerbʰ- (to carve, scratch). Displaced native Old English stæfcræft. -

Proto-Indo-European-

Root 

*gerbʰ-

  1. to carve

Derived terms

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    इसी  ग्रामर का अन्‍य विकसित रूप ग्लैमर भी है जो वर्तमान में सम्मोहक ठाठ-बाट जादू के लिए रूढ़ है  ।

    "प्र यन्ति यज्ञम् विपयन्ति बर्हिःसोमऽमादः  विदथे। दुध्रऽवाचः नि ऊं इति भ्रियन्ते यशसः  गृभात् आ दूरेऽउपब्दः वृषणः नृऽसाचः ॥२।

    (ऋग्वेद ७/२१/२)

    ★-अन्वयार्थ

    -जो (सोममादः) सोम पान कर के उन्मत्त होते है (दुध्रवाचः) दुुुध्र-दुध--बा० रक् दुष्टं वा धारयति =दोषी वाणी वाले। (वृषणः)  साँड़  (नृषाचः)  मनुष्यों से सम्बन्ध करने वाले  (यज्ञम्) यज्ञ को (प्र, यन्ति) प्राप्त होते हैं (विदथे) संग्राम में (बर्हिः) अन्तरिक्ष में (विपयन्ति) विशेषता से जाते हैं (उ) और जो (यशसः) कीर्ति से वा (गृभात्) घर से (आ, भ्रियन्ते) अच्छे प्रकार उत्तमता को धारण करते हैं तथा जिनकी दूर वाणी पहुँचती वे सज्जत्तमता को धारण करते हैं और वे विजय को प्राप्त होते हैं ॥२॥
    "जब सोम पान करके उन्मत्त युद्ध में विजय की इच्छा रखने वाले साँड को यज्ञ में बलि करते थे।
     
    "यज्ञं “प्र "यन्ति यष्टारः “बर्हिः च “विपयन्ति स्तृणन्ति । विपिः स्तरणकर्मा । “विदथे यज्ञे “सोममादः ग्रावाणश्च “दुध्रवाचः दुर्धरवाचः भवन्ति । अपि च “यशसः यशस्विनः "दूरउपब्दः । दूर उपब्दिः शब्दो येषां ते दूरउपब्दः । “नृषाचः । नॄन्नेतॄनृत्विजः सचन्त इति नृषाचः । “वृषणः (ग्रावाणः “गृभात् गृहात् । गृहमध्यमग्रावा)' । तस्मात् । “आ इति चार्थे । “नि “भ्रियन्ते अभिषववेलायां निगृह्यन्ते । “उ इति 

    Etymology Etymology of Glamour (ग्लैमर). 

    From Scots glamer, from earlier Scots gramarye (magic, enchantment, spell).enchantment -  सम्मोहन)

    The Scottish term may either be from Ancient Greek γραμμάριον (grammáriongram), the weight unit of ingredients used to make magic potions, or an alteration of the English word grammar (any sort of scholarship, especially occult learning).

    A connection has also been suggested with Old Norse glámr =(poet. “moon,” name of a ghost) and glámsýni (glamour, illusion, literally glam-sight).

    "व्याकरण वर्ण-विन्यास की सैद्धांतिक विधि कि  सम्पादन और उदात्त अनुदात्त और त्वरित स्वरमान के अनुरूप उच्चारण विधान का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है व्याकरण वर्ण विन्यास के सम्यक् निरूपण की सैद्धांतिक शिक्षा शास्त्र का केन्द्रीय भाव है उचित स्वरमान मन्त्र और साम ( Song) की सिद्धि कारक है और  स्वरों का बलाघात  ही अर्थ का  का निश्चायक है" 

    व्याकरण वर्ण- विन्यास का सम्यक् रूप से सैद्धांतिक विवेचन करने वाला शास्त्र है ।  जो वर्ण- विन्यास और  उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित स्वरमान के अनरूप उच्चारण विधान करने वाला शास्त्र है मन्त्र शक्तिवाग् भी वर्ण-  और उदात्त ,अनुदात्त और स्वरित मान के अनुरूप उच्चारण द्वारा सिद्ध होकर फल देता है । यही संगीत में गायन आधार तत्व है 

     संस्कृत के महानतम व्याकरणविद हुए हैं आचार्य पाणिनी।  जो पणिन् ( फॉनिशियन जनजाति से सम्बन्धित थे विदित हो कि फॉनिशियन लोगों ने संसार को लिपि और भाषाऐं दीं! पाणिनि ने एक श्लोक में उच्चारण की  शुद्धता का महत्व  इस प्रकार समझाया है।

    "मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात्॥'५२। 

    "पाणिनि शिक्षा नवम-खण्ड 52वाँ श्लोक" 

    अर्थात् - स्वर (accent) अथवा वर्ण(Grama) विन्यास से भंग उच्चरित हीनमन्त्र उस अर्थ को नहीं कहता (जिसके लिए उसका उच्चारण किया जाता है) । वह  रूपी वज्र यजमान को नष्ट करता है, जैसे स्वर के अपराध से इन्द्रशत्रु ने किया ।

     "त्वष्टा नाम के असुर ने अपने पुत्र वृत्रासुर की वृद्धि के लिए एक यज्ञ किया था, जिसमें “ 

    "इन्द्रशत्रुर्वधस्व" के  स्थान पर इन्द्र: शत्रुर्वर्धस्व" का उच्चारण कर दिया जिसका  अर्थ हुआ.( इन्द्र शत्रुु की वृद्धि हो) मन्त्र में इन्द्रशत्रु पद का उच्चारण “इन्द्रः शत्रुर्वर्धस्व” पद के रूप में कर दिया गया, जिससे इन्द्र वृत्रासुर का शत्रु (शद्+त्रुन्) = शद्=शातने मारणे च (मारनेवाला), यह अर्थ प्रकट हो गया । फलतः इन्द्र द्वारा वृत्रासुर मारा गया 

    सरल शब्दों में, अशुद्ध उच्चरित मंत्र उस अर्थ को नहीं कहता जिसके लिए उसका उच्चारण किया जाता है। अशुद्ध उच्चारित मंत्र साधक को लाभ के स्थान पर हानि पहुँचा सकता है।

    इसी प्रकार गलत उच्चारण के दुष्प्रभाव के अनेकों उदाहरण हमें शास्त्रों में मिल जाते हैं। 
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    व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-

     यह व्याकरण भाषा के नियमों का विवेचन शास्त्र है । 
     इस व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-
     १.वर्ण -विचार( Orthography) :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।  
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    वर्ण -विचार.-Orthography-👇

    वर्ण विचार (Orthography):–

    वर्ण विचार से तात्पर्य वर्णों के रूप में समावेशित स्वर , व्यञ्जन तथा इनके साथ रहने वाले "अयोगवाह "उत्क्षिप्त तथा सभी -संयुक्त स्वर और व्यञ्जन रूपों के क्रमश: ऊर्ध्व विवेचनाओं से है ।
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    "Ortho" ग्रीक भाषा का शब्द जिसके व्यापक अर्थ हैं :– 1-सीधा ,2-सत्य, 3-सही,4-आयताकार, 5-नियमित, 6-सच्चा, 7-सही, 8-उचित ।
    1-straight, 2-true, 3-correct, 4-rectangular" 5-regular,6-upright, , 7-proper,"
    8-Ortho
    यह शब्द लैटिन में आर्द्वास (arduus) है तो पुरानी आयरिश में आर्द (Old Irish ard "high") जिसका अर्थ होता है :-उच्च ।

    आद्य-भारोपीय  भाषाओं में यह शब्द (Eredh)के रूप में है।
    दूसरा शब्द ग्राफी है --जो ग्रीक भाषा के "graphos" से निर्मित है ।
    ग्रीक ग्राफेन क्रिया "graphein " =to write --जो अन्य यूरोपीय भाषाओं में निम्न प्रकार से है ।👇
    1-Dutch -graaf,
    2-German -graph,
    3-French -graphe,
    4-Spanish -grafo).
    5-संस्कृत में ग्रस् /ग्रह् तथा वैदिक रूप गृभ् है । ______________________________________

    वर्ण, मात्रा और उच्चारण (Gramma ,Diacritic and Pronunciation) के सन्दर्भों में
    वर्ण-विन्यास - वर्तनी (Spelling)  अथवा (हिज्जे) विचारणीय हैं ।

    वर्ण भाषा की उस सबसे छोटी या लघुतम इकाई को कहते हैं, जिसे और खण्डित नहीं किया जा सकता है । जैसे कोई मकान ईंटौं से से बनता है ।
    और ईंटौं से दीवारों के रद्दे बनते हैं ।
    और उन रद्दौं का व्यवस्थित समूह दीवार है।🐶

    जैसे- क्रमश वर्ण ( स्वर तथा व्यञ्जन ) शब्दों का निर्माण करते हैं ।

    और शब्दों का वह व्यवस्थित समूह जो एक क्रमिक व अपेक्षित अर्थ को व्यक्त करता है वह वाक्य कहलाता है।

    जैसे अनेक दीवारें मिलकर मकान या कोई कमरा बनाती हैं ।
    और अनेक वर्ण < शब्द < वाक्यांश <उपवाक्य < वाक्य <गद्यांश या पेराग्राफ बनाते हैं और अनेक गद्यांश ही भाषा हैं ।

    वस्तुतः किसी भी भाषा को बोलने के लिए प्रयुक्त होने वाली उस मूल ध्वनि को ही वर्ण कहते हैं जिसे और तोड़ा नहीं जा सकता ।
    परन्तु भाषा के  विचार अभिव्यक्ति का साधन होने से वर्ण उस अर्थ में भाषा सी इकाई नहीं है क्योंकि ये विचार अभिव्यक्ति नहीं कर सकते हैं । वाक्य ही भाषा कि सार्थक सूक्ष्म इकाई है । जबकि वर्ण भाषा सी भौतिक निर्माण की इकाई है ।
    _________
    वर्णमाला (Alphabet) किसी भी भाषा के वर्णों के उस समूह को वर्णमाला कहते हैं, जिसमें उस भाषा में प्रयुक्त होने वाले सारे स्वर व व्यञ्जन व्यवस्थित क्रम से लिखे होते हैं ।

    अंग्रेज़ी वर्णमाला में निम्नलिखित वर्णों के समावेश हैं स्वर (Vowels) वाउलस् -----
    स्वरों के भेद (Kinds of Vowels) स्वर : अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ ।
    विशेष अ स्वर : अऽ – वर्तुल अ या दीर्घ विलम्बित अर्द्ध विवृत पश्च स्वर अ॑ – प्रश्लेष अ या दीर्घ अर्द्धसंवृत मध्य विशेष आ स्वर :
    ऑ – अर्द्ध विवृत पश्च स्वर आ॑ – प्रश्लेष आ या अर्द्धसंवृत दीर्घ मध्य स्वर ।
    ____
    व्यञ्जन (Consonants) क वर्ग – क् ख् ग् घ् ङ् च वर्ग – च् छ् ज् झ् ञ् ट वर्ग – ट् ठ् ड् ढ् ड़ ढ़ त वर्ग – त् थ् द् ध् न् प वर्ग – प् फ् ब् भ् म् अन्तःस्थ – य् र् ल् व् उष्म व्यञ्जन – स् ह् संयुक्त व्यञ्जन – क्ष त्र ज्ञ श्र

    अंग्रेजी अथवा यूरोपीय भाषाओं तवर्ग न होने के कारण "स"  वर्ण बोलना असम्भव है ।

    "अं अर्थात अनुस्वार और अः अर्थात विसर्ग दोनों को अयोगवाह भी कहते हैं

     क्योंकि ये न तो स्वर हैं और न ही व्यञ्जन ।
    परन्तु अं और अः को पारम्परिक तौर पर स्वरों के वर्ग में शामिल किया जाता रहा है ।
    जो कि क्रमशः अनुनासिक और महाप्राण( ह्) के मात्रात्मक रूपान्तरण हैं ।
    मूलतः इनका प्रयोग तत्सम शब्दों में स्वर के बाद होता है ।
    (घ) अनुस्वार (ं) का प्रयोग ङ् , ञ्, ण् , न् ,म् के बदले में किया जाता है ।


    अष्टाध्यायी -व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 हजार सूत्रों में लिपिबद्ध किया है। 

    परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण नहीं है।

    इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। परन्तु कदाचित् सन्धि विधान के निमित्त पाणिनि मुनि ने माहेश्वर सूत्रों की संरचना की है ।
    यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी न होते  ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।
    इनकी संरचना व व्युत्पत्ति के विषय में नीचे विश्लेषण है 
    ________________________________________
    पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या( 14) है ;
    जो निम्नलिखित हैं: 👇
    __________________________________________
    १. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।

    उपर्युक्त्त (14 )सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से समायोजित किया गया है। पहले दो सूत्रों में मूलस्वर। फिर परवर्ती दोसूत्रों में सन्धि-स्वर फिर अन्त:स्थ वस्तुत: ये अर्द्ध स्वर हैैं तत्पश्चात अनुनासिक वर्ण हैं जो ।अनुस्वार रूपान्तरण हैं  अनुस्वार "म" तथा न " का ही स्वरूप हैै। अत: बहुतायत वर्ण स्वर युुु्क्त ही हैं ।

    पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक वर्ण) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।

    ____  

    ♣•स्वर और व्यञ्जन का मौलिक अन्तर- 

    स्वर और व्यञ्जन का मौलिक भेद उसकी दूरस्थ श्रवणीयता है स्वर में यह दूरस्थ श्रवणीयता अधिक होती है व्यञ्जन की अपेक्षा स्वर दूर तक सुनाई देता है । दूसरा मौलिक अन्तर स्वर में नाद प्रवाहिता अधिक होती है।

    स्वर का आकार उच्चारण समय पर अवलम्बित है तथा इनके उच्चारण में जिह्वा के और अन्तोमुखीय अंगों का परस्पर स्पर्श और घर्षण भी  नहीं होता है । जबकि व्यञ्जनों के उच्चारण में न्यूनाधिक अन्तोमुखीय अंगों को घर्षण करते हुए भी निकलती है जिसके आधार पर उन व्यञ्जनों को  अल्पप्राण और महाप्राण नाम दिया जाता है । स्वर तन्त्रीयों में उत्पन्न नाद को ही स्वर माना जाता है  स्वर सभी ही नाद अथवा घोष होते हैं। जबकि व्यञ्जनों में कुछ ही नाद यक्त। होते हैं जिनमें स्वर का अनुपात अधिक होता है । कुछ व्यञ्जन प्राण अथवा श्वास से उत्पन्न होते हैं । 

    "स्वर की परम्परागत परिभाषा- स्वतो राजन्ते  भासन्ते इति स्वरा: " जो स्वयं प्रकाशित होता है।स्वतन्त्र रूप से उच्चरित ध्वनि स्वर है; जिसको उच्चारण करने में किसी की सहायता नहीं ली जाती है । परन्तु स्वर की वास्तविक परिभाषा यही है कि स्वर वह है जिसके उच्चारण काल में श्वास कहीं कोई अवरोध न हो और व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण काल में कहीं न कहीं अवरोध अवश्य हो। जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन। कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी  स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+  त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात्  स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।


    _______   

    जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन।कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी  स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+  त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात्  स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।

    _______________________________________

    माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
    प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे  दर्शाया गया है।
    इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
    प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र  अन्त:स्थ  व व्यञ्जन  वर्णों की गणना की गयी है।
    संक्षेप में स्वर वर्णों को अच्  अन्त:स्थ एवं  व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।

    अच् एवं हल् भी प्रत्याहार ही हैं।
    प्रत्याहार की अवधारणा :---

    प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्य गृह्यन्ते वर्णां अनेन (प्रति + आ + हृ--करणे + घञ् प्रत्यय )-जिसके द्वारा संक्षिप्त करके वर्णों  को ग्रहण किया जाता है ।
     प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
    अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

    आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

    उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।

    यह अच् प्रत्याहार अपने आदि वर्ण ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी  वर्णो का बोध कराता है।
    अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
    इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि वर्ण 'ह' को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम वर्ण (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
    फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
    उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
    (ण् क्  च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है अत: ये गिनेे नहीं जाऐंगे।
    इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
    अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
    ________________________________
    अ'इ'उ ऋ'लृ मूल स्वर । 
    ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
    जैसे क्रमश: अ+ इ = ए  तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में  गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇

    । अ इ उ । ये मूल स्वर भी मूल स्वर "अ" ह्रस्व से विकसित इ और उ स्वर हैं ।  और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल

    'अ' स्वर के उदात्तगुणी ( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
    तथाअनुदात्तगुणी (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं ।

    और मूल स्वरों में अन्तिम दो 'ऋ तथा 'ऌ स्वर न होकर क्रमश "पार्श्वविक" (Lateral)तथा "आलोडित अथवा उच्छलित ( bouncing  )" रूप हैं ।

    जो उच्चारण की दृष्टि से  क्रमश: मूर्धन्य तथा वर्त्स्य  ( दन्तमूलीय रूप ) हैं ।
    अब "ह" वर्ण  का विकास  भी इसी ह्रस्व 'अ' से महाप्राण के रूप में हुआ है ।
    जिसका उच्चारण स्थान  काकल है ।👉👆👇

    ★ कवर्ग-क'ख'ग'घ'ड॒॰। से चवर्ग- च'छ'ज'झ'ञ का विकास जिस प्रकार ऊष्मीय करण व तालु घर्षण  के द्वारा हुआ।   फिर तवर्ग से शीत जलवायु के प्रभाव से टवर्ग का विकास हुआ ।  परन्तु  चवर्ग के "ज'  स का धर्मी तो ख' ष' मूर्धन्य का धर्मी है और 'क वर्ण का  त'वर्ण में जैसे वैदिक स्कम्भ का स्तम्भ  और अनुनासिक न' का ल' मे परिवर्तन है । जैसे ताता-दादा- चाचा-काका एक ही शब्द के चार विकसित रूपान्तरण हैं ।

    इ हुआ स प्रकार मूलत: ध्वनियों के प्रतीक तो (28)ही हैं 
    परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी  ध्वनि वर्णों की रचना दर्शायी है । जो इन्हीं का विकसित रूप  है ।

    ______________

    स्वर- मूल केवल पाँच हैं- (अइउऋऌ) ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक  ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
    इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
    क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
    _________________________
    और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
    १-कवर्ग । २-चवर्ग  । ३-टवर्ग ।४-तवर्ग ।५- पवर्ग। = 25।
    तेरह  (13) स्फुट वर्ण ( आ' ई 'ऊ' ऋृ'  लृ )  (ए' ऐ 'ओ 'औ )
    ( य व र ल)  (  चन्द्रविन्दु ँ )
    अनुस्वार ( —ं-- )तथा विसर्ग( :) अनुसासिक और महाप्राण ('ह' )के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।

    पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा  वर्णा शम्भुमते मता: ।

    निस्सन्देह "काकल"  कण्ठ का ही पार्श्ववर्ती भाग है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक व सजातिय बन्धु हैं।
    जैसा कि संस्कृत व्याकरण में कहा भी गया है  ।
    (अ 'कु 'ह विसर्जनीयीनांकण्ठा: )
    अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।

    _________________________________________
    अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण का ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
    अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
    अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
    य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
    क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ-- स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण हैं
    ये  अन्तस्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्यक्षर  या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
    जैसे :-  इ+अ = य   अ+इ =ए
                उ+अ = व  अ+उ= ओ
       _________________________________________    

    स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का ही प्रतिनिधित्व करते  हैं ।

    स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक (ञ'म'ङ'ण'न) अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं ।

    ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
    ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.

    खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
    शषसर्।  १४. हल्।

    उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः अंग्रेज़ी में (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं क्यों कि वहाँ यूरोप की शीतप्रधान जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त- सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की  उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वाय्वीय ही है जो भारतीय जलवायु का गुण है । उष्म  (श, ष, स,) वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः "श्" वर्ण  के लिए  (Sh) तथा "ष्" वर्ण के  (SA) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।

    तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर यूरोपीय भाषा अंग्रेजी में पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।

     _____________

    जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
    यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है ।
    टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
    तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है ।
    ___________________________________👇💭

    यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है ;वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
    अतः (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं ।

    केवल टवर्ग( ट'ठ'ड'ढ'ण) से काम चलता है
    क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।

    अतः "श्" वर्ण  के लिए  (Sh) तथा "ष्" वर्ण के ( S) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।
    _________________________________________
    अब पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में दो 'ह'  वर्ण होने का तात्पर्य है कि एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
    इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप में हैं । वे
    मौलिक रूप में केवल (28) वर्ण हैं ।
    जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं ।

    _____________________________

    स्वरयन्त्रामुखी:-  "ह" वर्ण है ।
    "ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का विकास होता है ।
    जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं।
    "ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
    काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि  जहाँ से "ह" का उच्चारण होता है ।

    उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇

    उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-

    ________________________________________

    स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा उनके खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
    विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का स्पपर्श  करता है ।
    (क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ) और अरबी प्रभाव से युक्त क़ (Qu) ये सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।

    ________________________________________

    (च, छ, ज, झ) को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में समायोजित कर लिया गया है।

    इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।

    _____________________

    मौखिक(Oral) व नासिक्य(Nasal) :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं।
    हिन्दी में( ङ, ञ, ण, न, म)  व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नासिका से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर'  व अनुनासिक भी कहा जाता है।
    --
    इनके स्थान पर हिन्दी में अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
    वस्तुत: ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूपान्तरण मात्र हैं ।
    परन्तु सभी केवल  स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।

    ___________________________________

    जैसे :- 
    कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
    अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
    चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
    चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
    टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
    कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
    तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
    तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध ।
    पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
    पम्प , गुम्फन , अम्बा,  दम्भ ।
    ________________________________________     

    इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं। 

    उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन: उष्म का अर्थ होता है- "गर्म" जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें ही उष्म व्यञ्जन कहते है।  

    इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन केवल मौखिक हैं।


    वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
    तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
    और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
    जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
    इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण  टवर्ग के साथ आता है ये सभी सजातिय हैं।
    जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
    चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं  और अपने चवर्ग के साथ इनका प्रयोग है।
    जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
    इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।  

    ___________________________________

    उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म- वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन ही होते है- श, ष, स, ह।

    _____________________________________

    पार्श्विक- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से एक साथ  निकलती है।

    ★''  भी ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। 

    ★अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।

    ★हिन्दी में (य,  और व) ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।

    ★लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में '' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।

    ★उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें  ऊपर को फैंके हुुुए- उत्क्षिप्त  (Thrown) /(flap) वर्ण कहते हैं ।

     ड़ और ढ़ भी ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
    जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।

    ______________________________________

    घोष और अघोष वर्ण---

    व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
    इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
    विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
    जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।

    दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
    स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों  में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।

    _________________________________________
    घोष   —  अघोष
    ग, घ, – ङ,क, ख।
    ज,झ, – ञ,च, छ।
    ड, ढ, –ण, ड़, ढ़,ट, ठ।
    द, ध, –न,त, थ।
    ब, भ, –म, प, फ।
    य,  र, –ल, व, ह ,श, ष, स ।

    _________________________________________

    प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
    प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
    जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
    पाँचों वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।

    हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
    वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
    क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
    वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है ।
    परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । अर्थात जिसका अक्षर न हो वह अक्षर है ।

    (अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)
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    भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को  भी कहते  हैं।
    किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
    शब्दांश :- शब्द के वह अंश (खण्ड)होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ ही बदल जाती हैं।

    उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक' ये तीन झटकों में बोला जाता है।
    यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से सुने जा सकते हैं।
    लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
    अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं -

    'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

    यह क्रिया उच्चारण क्रिया बलाघात पर आधारित है ,

    कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. ।

    कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे- 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।

     कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अन्त-अर-राष-ट्रीय')।

    एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को "अक्षर"(syllable) कहा जाता है।

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    इस. उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की  इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।

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    ★-व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

    ★-अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।

    ★-अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है; और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

    ★-उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

    ★-यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। 

    ★-इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

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    कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

    ★-अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,)  जैसे- एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ भी स्वरयुक्त उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

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    ★-कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
    अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,)  जैसे एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

    अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।

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    (Vowels)-स्वराः स्वर्-धातु-आक्षेपे । इति कविकल्पद्रुमः ॥-(अदन्त-चुरा०-पर०-सक०-सेट्   वकारयुक्तः रेफोपधः ।  स्वरयत्यतिरुष्टोऽपि न कञ्चन परिग्रहम् - इति हलायुधः  जिसके प्रक्षेपण (उछलने में ओष्ठ भी कोई परिग्रह नहीं करते वह स्वर है ।

    (Consonants) - व्यंजनानि-सह स्वरेण विशेषेण अञ्जति इति व्यञ्जन- 

    जो स्वरों की सहायता से विशेष रूप से प्रकट होता है वह व्यञ्जन हैं । व्यञ्जन (३३) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर(१३) 

    अयोगवाह : अनुस्वार (Nasal) (अं) और विसर्गः (Colon) ( अः) अनुनासिक (Semi-Nasal) चन्द्र-बिन्दु:-(ँ) इसका उच्चारण वाक्य और मुख दौंनो के सहयोग से होता है।

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    (द्विस्‍वर-Dipthongs)-एक साथ उच्‍चरित दो स्‍वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्‍वर, संधि-स्‍वर, संयुक्त स्‍वर जैसे शब्‍द जैसे 'Fine' में (आइ) की ध्वनि है | (ए ,ऐ ,ओ , औ) ये भी द्विस्‍वर हैं। 

     
    मात्रा:-💮
    स्वरों की मात्राएँ शब्द निर्माण की प्रक्रिया में जब किसी स्वर का प्रयोग किसी व्यंजन के साथ मिलाकर किया जाता है, तो स्वर का स्वरूप बदल जाता है ।

    स्वर के इस बदले हुए स्वरूप को
    ही मात्रा कहते हैं ।
    अंगिका के स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं ।

    मात्रा को स्वरों का विशिष्ट चिन्ह (Diacritic) भी कहते हैं।

    अ – कोई मात्रा नहीं आ – ा इ – ि ई – ी उ – ु ऊ – ू ए – े ऐ – ै ओ – ो औ – ौ अं – ं अः – ः अऽ – ़ऽ अ॑ – ॑ ऑ – ॉ आ॑ – 

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     Dependent (मात्रा)- व्यञ्जन वर्णों के साथ स्वरों का परवर्तित रूप मात्रा है। ( ा, ि, ी, ु, ू, ृ, ॄ, े, ै, ो,ौ ) मूल स्वर- अ, इ, उ, ऋ, ऌ  ।
    _____________
    Dipthongs:-
    two vowel sounds that are pronounced together to make one sound, for example the aI sound in ‘fine’
    (द्विस्‍वर:-)एक साथ उच्‍चरित दो स्‍वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्‍वर, संधि-स्‍वर, संयुक्त स्‍वर जैसे शब्‍द ‘fine’ में (आइ) की ध्वनि  ए , ऐ , ओ  , औ ।

    ह्रस्वाः- अ , इ , उ , ऋ , ऌ , 

    दीर्घाः- आ , ई , ऊ , ॠ , ए , ऐ , ओ , औ 

    स्पर्श –     २५.  व्यञ्जन ।    
                                      
    खर- अथवा कर्कश— वर्ग का प्रथम और द्वितीय वर्ण (खफछठथचटतकपशषस)और श'स'ष'।

     हश्/मृदु  - वर्ग के तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा ह'य'व'र'ल ञम।                       

    अनुनासिकाः : Nasal -वर्ग के पञ्चम वर्ण।
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     Guttural/Gorgical:-कण्ठय-  क्   ख्  ग्   घ्  ड्•।।

      Palatal:- तालव्य  —  च्   छ्    ज्     झ्     ञ् ।।

     Cerebrals:- मूर्धन्य—  ट्     ठ्    ड्    ढ्     ण् ।।

     Dentals:- दन्त्य —   त्     थ्      द्    ध्     न् ।।

     Labials:- ओष्ठय  —   प्      फ्   ब्   भ्     म् ।।_______________________________________

                                                                         
     (ऊष्म-वर्ण)- Sibilant Consonants:-(श्  ष्  स् )  
     
     अर्द्ध स्वर  :-(Sami Vowels-  )  य्   व्  र्   ल् ।

    Combined Consonants-संयुक्त व्यञ्जन = द्य, त्र , क्ष , ज्ञ. श्र. ।
    ______________
    ★-व्याख्या –"सम्यक् कृतम् इति संस्कृतम्"।
    सम् उपसर्ग के पश्चात् कृ धातु के मध्य सेट् (स्)आगम हुआ तब शब्द बना "संस्कार" भूतकालिक कर्मणि कृदन्त में हुआ संस्कृतम्।संस्कृतम् भाषा :– संस्कृत की लिपि देवनागरी।  


                   (उच्चारण -स्थान)

    १- ह्रस्व Short– २-दीर्घ long– 

    ३-प्लुत longer – (स्वर) 
    ____________________________________

    ★- विवार:- कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ङ् ह्‚

     Mute Consonants -मूक व्यञ्जन ( --ं-) (:)= विसर्ग ) 
     
    ★-स्पर्श व्यञ्जन तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ञ् य्‚ श् ) 

     ★-मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्) 

     ★-दन्तः (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्) 

     ★-ओष्ठः – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ - उपध्मानीय :प्‚ :फ्) 

     ★-नासिका  – (म्‚ ञ्‚ण्‚ ङ्, न् ) 

    ★-कण्ठतालुः – (ए‚ ऐ ) 

    ★-कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ) 

    ★-औष्ठकण्ठ्य – (व)

     ★-जिह्वामूलम् – (जिह्वामूलीय क्' ख्) 

    ★-नासिका – अनुस्वार (—ं--) अनुस्वार(: )

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    संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं। ऋग्वेद पद्यमय है

    इस लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर ज्यादा भार देना और किन पर कम।
     उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को ‘मात्रा’ द्वारा दर्शाया जाता है।

     🌸↔   जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रावधि १-गुना होती है।
     अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं। 

     🌸↔ जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रावधि( २)गुना होती है। आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं।

     🌸↔  प्लुत वर्णों का उच्चारण अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रावधि (३)- गुना होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की ३ मात्रा होगी।
     वैसे हि ‘वाक्पटु’ इस शब्द में ‘वाक्’ की ३ मात्रा होती है। 
    वेदों में जहाँ (३)संख्या लिखी होती है , उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है। जैसे ओ३म् ।
    दूर से किसी के सम्बोधन में प्लुत स्वर का प्रयोग होता है 

     🌸↔ संयुक्त वर्णों का उच्चारण उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए। 

     पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी २ मात्रा हो जाती है; और पूर्व वर्ण यदि दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी ३ मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है। 
     ये अयोगवाह परिवार के सदस्य है ।
      🌸↔  अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी २ मात्रा होती है।

     परन्तु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई अन्तर नहीं पडता।
     🌸↔  ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘।‘ है, और दीर्घ मात्रा का ‘ऽ‘।  
    🌸↔  पद्य रचनाओं में, छन्दों के चरण का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरू मान लिया जाता है। 
     समझने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है।

      नीचे दिये गये उदाहरण देखिए : राम = रा (२) + म (१) = ३  अर्थात्‌ “राम” शब्द की मात्रा (३) हुई।

     वनम् = व (१) + न (१) + म् (०) = २ वर्ण विन्यास – 

     १. राम = र् +आ + म् + अ , २.  सीता = स् + ई +त् +आ, ३. कृष्ण = क् +ऋ + ष् + ण् +अ ।

     माहेश्वर सूत्र  को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को  ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पदों अर्थात् (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।
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    अष्टाध्यायी में ३२ पाद (चरण) हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं।

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     व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० हजार सूत्रों में किया है। 

     जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।
     तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।
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    विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ ।

     तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।

     यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। 
    व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। 
     पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं। 

    जो हिन्दी वर्ण माला का  भी आधार है ।
     माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है।
    जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।
    रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 
     👇  

    नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥ 

     क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण से व्युत्पन्न स्वर ही हैं। इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण है । 
     अर्थात्:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

     इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।
     " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।
     इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।

     वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में  शिव का ओ३म स्वरूप भी है। 
    उमा शिव की ही शक्ति का रूप है , उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ भो मा तपस्यां कुरुवति ।
     यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” । (ओ अब तपस्या मा- मत कर ) पार्वती की माता ने उनसे कहा -
     इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)। 

     यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव । 
     उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः ।
     अजादित्वात् टाप् । अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् ) 
    _______________________________________
    दुर्गा का विशेषण है उमा ।
     परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है।
     परन्तु इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। 

    यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल) भी न होते ! 

    ________________________________________

     पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 __________________________________________ 

    प्रत्याहार -विधायक -सूत्र  

    १.अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।



    यथा—

    अण्‌ 

    ऋक्‌ 

    अक्‌ 

    एङ्‌ 

    एच्‌ 

    झष्‌ 

    जश्‌ 

    अच्‌ औ (सर्वे स्वराः)

    हल्‌ सर्वाणि व्यञ्जनानि

    अल्‌ सर्वे वर्णाः (सर्वे स्वराः सर्वाणि व्यञ्जनानि)


    अवधेयम्

    स्वराः

    ऋ  एषु प्रत्येकम्‌ अष्टादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः (ह्रस्वःदीर्घःप्लुतःउदात्तःअनुदात्तःस्वरितःअनुनासिकःअननुनासिकः च |

    अर्थात् (अइउऋ) इनमें प्रत्येक के रूप हैं अठारह. ह्रस्वदीर्घप्लुतउदात्त अनुदात्त स्वरितःअनुनासिकःअननुनासिकः।

    _______________________________________________

    १--ह्रस्व-(अ) २-।दीर्घ-(आ)। ३-प्लुत-४-(आऽ) और५- उदात्त-(—अ)' ६-अनुदात्त-( अ_  )'तथा ७- स्वरित - (अ–) ८-अनुनासिक -(अँ)'और ९-अननुनासिक- (अं)

    ___________

     3 x 3 x 2 = 18 |) यथा अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारःअननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारःअनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-उकारःअननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः तदा पुनः अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारःइत्यादीनि रूपाणि |

    हिन्‍दी :-१-अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः

    २-अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः,

     ३-अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व उकारः,

    ४- अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः 

    और फिर  दुबारा

    ५- अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः,

    ऌ अयं द्वादशानां प्रतिनिधिः (यतः अस्य वर्णस्य दीर्घरूपं नास्ति | अर्थात ् इस 'लृ' स्वर के बारह रूप होते हैं ।

     2 x 3 x 2 = 12 |)

    औ एषु प्रत्येकम्‌ द्वादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः  एषां ह्रस्वरूपं नास्ति | 2 x 3 x 2 = 12 |) अर्थात् इनमें प्रत्येक के बारह रूप होते हैं। इसका छोटा( ह्रस्व) रूप नहीं होता है ।


    __________________________________________
    तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) इ के रूप में हैं । 
    ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।
    ________________________________________
     उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। 
    फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। 

    माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे  दर्शाया गया है।

     इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र हल् वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।

    "परन्तु अन्तस्थ हल् तो हो सकते व्यञ्जन वर्ण नहीं ।क्योंकि इनकी संरचना स्वरों के संक्रमण से ही हुई है । और व्यञ्जन अर्द्ध मात्रा के होते हैं "

     प्रत्याहार की अवधारणा :--- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

     आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

     उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।

     यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।

     अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ। इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। 

    फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह। उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क्  च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। 

    इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है ।
    अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। ________________________________ 

    अ'इ'उ' ऋ'लृ' मूल स्वर हैं परन्तु (ए ,ओ ,ऐ,औ ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ और ये संयुक्त स्वर ही हैं 

    _____________________
    जैसे क्रमश: अ इ = (ए)  तथा अ उ = (ओ) संयुक्त स्वरों के रूप में  गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं । 

    👇 । अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ तथा उ' स्वर भी केवल अ' स्वर के अधोगामी अनुदात्त और ऊर्ध्वगामी उदात्त ( ऊर्ध्वगामी रूप हैं ।।


     👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 
    👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' । 
    तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं । 
    ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।
     जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य 
    ( दन्तमूलीय रूप ) है । अब 'ह' वर्ण महाप्राण है । 
    जिसका उच्चारण स्थान  काकल है । जो ह्रस्व स्वर (अ) से विकसित हुआ है ।

     "अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल । 


     👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 

    परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतुर्षष्ठी वर्णों की रचना दर्शायी है । 

     स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है। 

    अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।
     वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 _________________________________________

     1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं। 

     2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :- 
    ___________________________
    (क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx), (ख.) ग्रसनी  (pharynx), ग. मुख (mouth), (घ.) स्वरयंत्र (larynx), (च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus) (छ.) फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs), (ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)। 
    ______________________
     3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं : 
    (क.) जिह्वा (tongue), (ख.) दाँत (teeth), (ग.) ओठ (lips), (घ.) कोमल तालु (soft palate), (च.) कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________________________________________

     स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :- जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस में जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।

    विशेष— संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाश:स्थ अग्नि और मरुत् (वायु) के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। पण्डित दामोदर ने संगीतदर्पण मे लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त  देहज अग्नि  पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंथिकृत प्राण को प्रेरित करती है।  
    अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। और नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है। 

    संगीत दामोदर में नाद तीन प्रकार का माना गया है—प्राणिभव, अप्राणिभव और उभयसंभव।
    जो सुख आदि अंगों से उत्पन्न किया जाता है वह प्राणिभव, जो वीणा आदि से निकलता है वह अप्राणिभव और जो बाँसुरी से निकाला जाता है वह उभय-संभव है। 

    नाद के बिना गीत, स्वर, राग आदि कुछ भी संभव नहीं। ज्ञान भी उसके बिना नहीं हो सकता।
     अतः नाद परज्योति वा ब्रह्मरुप है और सारा जगत् नादात्मक है। इस दृष्टि से नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत। 
    अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। हठयोग दीपिका में लिखा है कि जिन मूढों को तत्वबोध न हो सके वे नादोपासना करें।  
    अंन्तस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। आँख, कान, नाक, मुँह सबका व्यापार बंद कर दे। अभ्यास की अवस्था में पहले तो मेघगर्जन, भेरी आदि की सी गंभीर ध्वनि सुनाई पडे़गी, फिर अभ्यास बढ़ जाने पर क्रमशः वह सूक्ष्म होती जायगी। इन नाना प्रकार की ध्वनियों में से जिसमें चित्त सबसे अधिक रमे उसी में रमावे। इस प्रकार करते करते नादरूपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा।
     व्याकरण में नाद वर्ण जिन वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है।  अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। सानुनासिक स्वर। अर्धचंद्र। 

     ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

     इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।
     इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।
     स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं। 

     यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।
     देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है। इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।
     इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

    इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है। 
     स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)---- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।
    श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है। बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।
     जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। __________________________________________
     स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लम्बाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।
    स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं। इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है  और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है। _________________________________________

    स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन अथवा आकारीय भेद आ जाता है। ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है । स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है नि:सन्देह 'काकल'  'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। 
     जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है  कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 
     अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
     अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇


      ________________________________________ 

    1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है। 

     2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है। 

     3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।
     "अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल । 

    _________________________________________

     नि:सन्देह 'काकल'  'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। 
     जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है  कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 
     अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।
     अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । _________________________________________ 


    २.शब्द -विचार (Morphology) :- 

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    २.शब्द -विचार (Morphology) :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं हिंदी भाषा में शब्दों के भेद निम्नलिखित चार आधारों पर किए जा सकते हैं :-
    1- उत्पत्ति के आधार पर 2- अर्थ के आधार पर नंबर 3- प्रयोग के आधार पर और नंबर 4- बनावट के आधार पर.

    "उत्पत्ति के आधार पर आधार भेद"

    🌸↔उत्पत्ति के आधार पर( Based on Origin ) उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के पाँच भेद निर्धारित किये जैसे हैं । 


    (क) ~ तत्सम शब्द Original Words :-  संस्कृत भाषा के मूलक शब्द जो  हिन्दी में यथावत् प्रयोग किये जाते हैं । मुखसेविका । म्रक्षण । लावणी । अग्नि, क्षेत्र, वायु, ऊपर, रात्रि, सूर्य आदि। 

     (ख) ~ तद्भव शब्द Modified Words:-जो शब्द संस्कृत भाषा के मूलक रूप से परिवर्तित हो गये हैं मुसीका ।माखन ।लौनी । जैसे-आग (अग्नि), खेत (क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि। 

     (ग) ~  देशज शब्द Native Words :- जो शब्द लौकिक ध्वनि-अनुकरण मूलक अथवा भाव मूलक हों जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं।
     जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि। 'झाड़ू' 'लोटा' ,हुक्का, आदि । 

     (घ) ~  विदेशी शब्द Foreign Words:-जो शब्द विदेशी भाषाओं से आये हुए हैं ।
     विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं।

     ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं।
     जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि।
     ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।

     अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल , फोटो, डाक्टर स्कूल आदि। 

     फारसी- अनार, चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।

     अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर,रिश्वत,औरत,कैदी,मालिक, गरीब आदि। 

     तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर 
    आदि।
    पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि। 

     फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि। 

     चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।

     यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।

     जापानी- रिक्शा आदि।

     डच-बम आदि।

     (ग)~  संकर शब्द( mixed words) :- जो शब्द अंग्रेजी और हिन्दी आदि भाषाओं के योग से बने हों ।
     (रेल + गाड़ी ) (लाठी+चार्ज) आदि ... 

     🌸↔अर्थ के आधार पर (Based on meaning) 
     (क) सार्थक शब्द (meaningful Words) :- इनके भी चार भेद हैं :- 1- एकार्थी 2- अनेकार्थी 3- पर्यायवाची 4- विलोम शब्द । 

     (ख) निरर्थक शब्द (meaningless Words):- ये शब्द मनुष्य की गेयता-मूलक तुकान्त प्रवृत्ति के द्योतक हैं । जैसे:- चाय-वाय ।पानी-वानी इत्यादि

    "प्रयोग के आधार पर शब्द भेद" 🌸↔प्रयोग के आधार पर( Based on usage) 


     (क ) अविकारी शब्द lndeclinableWords:- क्रिया-विशेषण, सम्बन्ध बोधक , समुच्यबोधक, और विस्मयादिबोधक ।
     अविकारी शब्द : जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। 
    जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं। 

     🌸↔ विकारी शब्द (Declinable words) :- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, और क्रिया' ।
     विकारी शब्द :- जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। 
    जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे, हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं। _____________________________________

    "बनावट  के आधार पर शब्द भेद" 🌸-बनावट के आधार पर(Based on Construction):- (क) रूढ़ शब्द :- Traditional words


     (ख) यौगिक शब्द :-Compound Words 

     (ग) योगरूढ़ शब्द:-(CompoundTraditionalWords) व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित भेद हैं- रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ़।

     - रूढ़-जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं।
     जैसे-कल, पर।

     - यौगिक-जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों, वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।  

    -योगरूढ़- वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। 
     जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है।
     अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। 
     इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है। 
     बच्चा समाज में सामाजिक व्यवहार में आ रहे शब्दों के अर्थ कैसे ग्रहण करता है, इसका अध्ययन भारतीय भाषा चिन्तन में गहराई से हुआ है और अर्थग्रहण की प्रक्रिया को शक्ति के नाम से कहा गया है।

     "शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सान्निध।।

    इस प्रकरण में केवल वाक्य विचार पर विशद् विवेचन  किया जाता है।

    ________________________________________


    "Syntax -वाक्यविचार"  Syn = समान।Greek( tassein "to arrange,"  "व्यवस्था करना 

    (Syntax):-इसमें वाक्य निर्माण,उनके विचार भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार करके उसके स्थान अनु रूप स्थापित किया जाता है।


     वाक्य विचार(Syntax) की परिभाषा:- वह शब्द समूह जिससे पूरी बात समझ में आ जाये, 'वाक्य' कहलाता हैै।
     दूसरे शब्दों में- विचार को पूर्णता से प्रकट करनेवाली एक क्रिया से युक्त पद-समूह को 'वाक्य' कहते हैं।

     सरल शब्दों में- सार्थक शब्दों का व्यवस्थित समूह जिससे अपेक्षित अर्थ प्रकट हो, वाक्य कहलाता है। 
     जैसे- विजय खेल रहा है, बालिका नाच रही हैैै। 

    वाक्य के भाग:

    वाक्य के भाग:- वाक्य के दो भाग होते है- 

    "१-उददेशय-Subject-

    "२-विधेय-Predicte-

    (1) उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।

     इसके अन्तर्गत कर्ता और संज्ञाओं का समावेश होता 
     सरल शब्दों में- जिसके बारे में कुछ बताया जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैं। जैसे-: सौम्या पाठ पढ़ती है।
     मोहन दौड़ता है। 

    इस वाक्य में सौम्या और मोहन के विषय में बताया गया है। अतः ये उद्देश्य है।
     इसके अन्तर्गत कर्ता और कर्ता का विस्तार आता है।
     जैसे- 'परिश्रम करने वाला व्यक्ति' सदा सफल होता है।
     इस वाक्य में कर्ता (व्यक्ति) का विस्तार 'परिश्रम करने वाला' है।
     उद्देश्य के भाग- (parts of  Subject) उद्देश्य के दो भाग होते है- (i) कर्ता (Subject) (ii) कर्ता का विशेषण या कर्ता से संबंधित शब्द। 

     (2) विधेय (Predicate):- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाता है, उसे विधेय कहते है।
     जैसे- सौम्या पाठ पढ़ती है। 
     इस वाक्य में 'पाठ पढ़ती' है विधेय है; क्योंकि यह बात  सौम्या (उद्देश्य )के विषय में कही गयी है। 

     दूसरे शब्दों में- वाक्य के कर्ता (उद्देश्य) को अलग करने के बाद वाक्य में जो कुछ भी शेष रह जाता है, वह विधेय कहलाता है। 

     इसके अन्तर्गत विधेय का विस्तार आता है।
     जैसे:-  'नीली नीली आँखों वाली लड़की 'अभी-अभी एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर गई' ।

     इस वाक्य में विधेय (गई) का विस्तार 'अभी-अभी' एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर' है।

     विशेष:-आज्ञासूचक वाक्यों में विधेय तो होता है किन्तु उद्देश्य छिपा होता है।
     जैसे- वहाँ जाओ। खड़े हो जाओ। 

    इन दोनों वाक्यों में जिसके लिए आज्ञा दी गयी है; वह उद्देश्य अर्थात् 'वहाँ न जाने वाला '(तुम) और 'खड़े हो जाओ' (तुम या आप) अर्थात् उद्देश्य दिखाई नहीं पड़ता वरन् छिपा हुआ है। 

    विधेय के भाग-(Part of Predicate)- विधेय के छ: भाग होते हैं"

    (i)- क्रिया verb 

    (ii)- क्रिया के विशेषण Adverb 

    (iii) -कर्म Object 

    (iv)- कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द 

    (v)- पूरक Complement 

    (vi)-पूरक के विशेषण। 


     नीचे की तालिका से उद्देश्य तथा विधेय सरलता से समझा जा सकता है- वाक्य.  १-उद्देश्य +  विधेय. गाय + घास खाती है- सफेद गाय हरी घास खाती है। सफेद -कर्ता विशेषण गाय -कर्ता [उद्देश्य] हरी - विशेषण कर्म घास -कर्म [विधेय] खाती है- क्रिया [विधेय] __________________________________________ 

    "वाक्य के भेद"  - रचना के आधार पर वाक्य के तीन भेद होते हैं- "There are three kinds of Sentences Based on Structure.

     (i)साधरण वाक्य (Simple Sentence) (ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence) (iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)


     👇(i)साधरण वाक्य या सरल वाक्य:-जिन वाक्य में एक ही "समापिका क्रिया" होती है, और एक कर्ता होता है, वे साधारण वाक्य कहलाते है।

     दूसरे शब्दों में- जिन वाक्यों में केवल एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय होता है, उन्हें साधारण वाक्य या सरल वाक्य कहते हैं। इसमें एक 'उद्देश्य' और एक 'विधेय' रहते हैं। जैसे:- सूर्य चमकता है', 'पानी बरसता है। इन वाक्यों में एक-एक उद्देश्य, अर्थात कर्ता और विधेय, अर्थात् क्रिया हैं। 
     अतः, ये साधारण या सरल वाक्य हैं। 

     (ii)मिश्रित वाक्य:-जिस वाक्य में एक से अधिक वाक्य मिले हों किन्तु एक "प्रधान उपवाक्य" (Princeple Clouse ) तथा शेष "आश्रित उपवाक्य" (Sub-OrdinateClouse) हों, वह मिश्रित वाक्य कहलाता है।
     दूसरे शब्दों में- जिस वाक्य में मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक या अधिक समापिका क्रियाएँ हों, उसे 'मिश्रित वाक्य' कहते हैं।
     जैसे:- 'वह कौन-सा मनुष्य है,(जिसने)महाप्रतापी राजा चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम न सुना हो ।
     दूसरे शब्दों मेें- जिन वाक्यों में एक प्रधान (मुख्य) उपवाक्य हो और अन्य आश्रित (गौण) उपवाक्य हो तथा जो आपस में 'कि'; 'जो'; 'क्योंकि'; 'जितना'; 'उतना'; 'जैसा'; 'वैसा'; 'जब'; 'तब'; 'जहाँ'; 'वहाँ'; 'जिधर'; 'उधर'; 'अगर/यदि'; 'तो'; 'यद्यपि'; 'तथापि'; आदि से मिश्रित (मिले-जुले) हों उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं। 
     इनमे एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अतिरिक्त एक से अधिक "समापिका क्रियाएँ " होती हैं। जैसे:- मैं जनता हूँ "कि" तुम्हारे वाक्य अच्छे नहीं बनते।
     "जो" लड़का कमरे में बैठा है वह मेरा भाई है। 
     यदि परिश्रम करोगे "तो" उत्तीर्ण हो जाओगे।
     'मिश्र वाक्य' के 'मुख्य उद्देश्य' और 'मुख्य विधेय' से जो वाक्य बनता है, उसे 'मुख्य उपवाक्य' और दूसरे वाक्यों को आश्रित उपवाक्य' कहते हैं।

     पहले को 'मुख्य वाक्य' और दूसरे को 'सहायक वाक्य' भी कहते हैं।
     सहायक वाक्य अपने में पूर्ण या सार्थक नहीं होते, परन्तु मुख्य वाक्य के साथ आने पर उनका अर्थ पूर्ण रूप से निकलता हैं।
     ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, उसमें 'वह कौन-सा मनुष्य है' मुख्य वाक्य है और शेष 'सहायक वाक्य'; क्योंकि वह मुख्य वाक्य पर आश्रित है।

     (iii)संयुक्त वाक्य :- जिस वाक्य में दो या दो से अधिक उपवाक्य मिले हों, परन्तु सभी वाक्य प्रधान हो तो ऐसे वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते हैं। 
     दूसरे शब्दो में- जिन वाक्यों में दो या दो से अधिक सरल वाक्य योजकों (और, एवं, तथा, या, अथवा, इसलिए, अतः, फिर भी, तो, नहीं तो, किन्तु, परन्तु, लेकिन, पर आदि) से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है। सरल शब्दों में- जिस वाक्य में साधारण अथवा मिश्र वाक्यों का मेल "संयोजक अवयवों "द्वारा होता है, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं।
     जैसे:- 'वह सुबह गया और 'शाम को लौट आया। प्रिय बोलो 'परन्तु 'असत्य नहीं। उसने बहुत परिश्रम किया 'किन्तु' सफलता नहीं मिली। संयुक्त वाक्य उस वाक्य-समूह को कहते हैं, जिसमें दो या दो से अधिक सरल वाक्य अथवा मिश्र वाक्य अव्ययों द्वारा संयुक्त हों ।
     इस प्रकार के वाक्य लम्बे और आपस में उलझे होते हैं। 

     👇 जैसे:-'मैं ज्यों ही रोटी खाकर लेटा कि पेट में दर्द होने लगा, और दर्द इतना बढ़ा कि तुरन्त डॉक्टर को बुलाना पड़ा।' इस लम्बे वाक्य में संयोजक 'और' है, जिसके द्वारा दो मिश्र वाक्यों को मिलाकर संयुक्त वाक्य बनाया गया। 
     इसी प्रकार 'मैं आया और वह गया' इस वाक्य में दो सरल वाक्यों को जोड़नेवाला संयोजक 'और' है।
     यहाँ यह याद रखने की बात है कि संयुक्त वाक्यों में प्रत्येक वाक्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखता है, वह एक-दूसरे पर आश्रित नहीं होता, केवल संयोजक अव्यय उन स्वतन्त्र वाक्यों को मिलाते हैं। इन मुख्य और स्वतन्त्र वाक्यों को व्याकरण में 'समानाधिकरण' उपवाक्य "भी कहते हैं। _________________________________________

    वाक्य के भेद-अर्थ के आधार पर ( Kinds of Sentences -based on meaning )

    -अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇  

     वाक्य के भेद- अर्थ के आधार पर । Kinds of Sentences -based on meaning अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇
     

    1- स्वीकारात्मक वाक्य (Affirmative Sentence)

    2-निषेधात्मक वाक्य (Negative Sentence)

    3-प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)

    4-आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)

    5-संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)

    6-विस्मयादिबोधक वाक्य - (Exclamatory Sentence)

     7-विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)

    8-इच्छावाचक वाक्य (illative Sentence)


    ______________________

      (i)सरल वाक्य :-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है। 

     जैसे:- राम ने रावण को मारा। सीता खाना बना रही है।

     (ii) निषेधात्मक वाक्य:-जिन वाक्यों में किसी काम के न होने या न करने का बोध हो उन्हें निषेधात्मक वाक्य कहते है। जैसे:- आज वर्षा नही होगी।
     मैं आज घर नहीं जाऊँगा। 

     (iii)प्रश्नवाचक वाक्य:-वे वाक्य जिनमें प्रश्न पूछने का भाव प्रकट हो, प्रश्नवाचक वाक्य कहलाते हैं।
     जैसे:- राम ने रावण को क्यों मारा ? तुम कहाँ रहते हो ?

     (iv) आज्ञावाचक वाक्य :-जिन वाक्यों से आज्ञा प्रार्थना, उपदेश आदि का ज्ञान होता है, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते है। 
    जैसे:- । परिश्रम करो। बड़ों का सम्मान करो।

     (v) संकेतवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से शर्त (संकेत) का बोध होता है , अर्थात् एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया पर निर्भर होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं।
     जैसे:- यदि तुम परिश्रम करोगे तो अवश्य सफल होगे। पिताजी अभी आते तो अच्छा होता। अगर वर्षा होगी तो फसल भी होगी। 

     (vi)विस्मयादि-बोधक वाक्य:-जिन वाक्यों में आश्चर्य, शोक, घृणा आदि का भाव ज्ञात हो उन्हें विस्मयादि-बोधक वाक्य कहते हैं।
     जैसे- (१)वाह ! तुम आ गये। (२)हाय ! मैं लूट गया। 

     (vii) विधानवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों में क्रिया के करने या होने की सूचना मिले, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते है। जैसे- मैंने दूध पिया। वर्षा हो रही है। राम पढ़ रहा है। 

     (viii) इच्छावाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से इच्छा, आशीष एवं शुभकामना आदि का भाव होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।
     जैसे- 
    (१)तुम्हारा कल्याण हो। 
    (२)आज तो मैं केवल फल खाऊँगा।
     (३)भगवान तुम्हें लम्बी आयु दे।
     वाक्य के अनिवार्य "तत्व " दार्शनिकों के मतानुसार- वाक्य में निम्नलिखित छ: तत्व अनिवार्य है- _______________________________________ 
    (1)Significance (2) Eligibility (3) Aspiration (4) Proximity (5) Grade (6) Unrequited
     ________________________ 

    (1) सार्थकता (2) योग्यता (3) आकांक्षा (4) निकटता (5) पदक्रम (6) अन्वय-

      
    (1) सार्थकता- वाक्य में सार्थक पदों का प्रयोग होना चाहिए निरर्थक शब्दों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।
     बावजूद इसके कभी-कभी निरर्थक से लगने वाले पद भी भाव अभिव्यक्ति करने के कारण वाक्यों का गठन कर बैठते है।
     जैसे- तुम बहुत बक-बक कर रहे हो।
     चुप भी रहोगे या नहीं ? इस वाक्य में 'बक-बक' निरर्थक-सा लगता है; परन्तु अगले वाक्य से अर्थ समझ में आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

     (2) योग्यता - वाक्यों की पूर्णता के लिए उसके पदों, पात्रों, घटनाओं आदि का उनके अनुकूल ही होना चाहिए। अर्थात् वाक्य लिखते या बोलते समय निम्नलिखित बातों पर निश्चित रूप से ध्यान देना चाहिए-
    👇 (a) पद प्रकृति-विरुद्ध नहीं हो : हर एक पद की अपनी प्रकृति (स्वभाव/धर्म) होती है।
     यदि कोई कहे मैं आग खाता हूँ। हाथी ने दौड़ में घोड़े को पछाड़ दिया।
     उक्त वाक्यों में पदों की "प्रकृतिगत योग्यता" की कमी है। आग खायी नहीं जाती।
     हाथी घोड़े से तेज नहीं दौड़ सकता।
     इसी जगह पर यदि कहा जाय- मैं आम खाता हूँ। 
     घोड़े ने दौड़ में हाथी को पछाड़ दिया।
     तो दोनों वाक्यों में 'योग्यता' आ जाती है। 

     (b) बात- समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि के विरुद्ध न हो : वाक्य की बातें समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि सम्मत होनी चाहिए; ऐसा नहीं कि जो बात हम कह रहे हैं, वह इतिहास आदि के विरुद्ध है। 
    जैसे- दानवीर कर्ण द्वारका के राजा थे।
     महाभारत 25 दिन तक चला। भारत के उत्तर में श्रीलंका है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के परमाणु परस्पर मिलकर कार्बनडाई ऑक्साइड बनाते हैं। 

     (3) आकांक्षा- आकांक्षा का अर्थ है- इच्छा। एक पद को सुनने के बाद दूसरे पद को जानने की इच्छा ही 'आकांक्षा' है। यदि वाक्य में आकांक्षा शेष रह जाती है तो उसे अधूरा वाक्य माना जाता है;  क्योंकि उससे अर्थ पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाता है।
     जैसे- यदि कहा जाय। 'खाता है' तो स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि क्या कहा जा रहा है- किसी के भोजन करने की बात कही जा रही है या बैंक (Bank) के खाते के बारे में ?

     (4) निकटता- बोलते तथा लिखते समय वाक्य के शब्दों में परस्पर निकटता का होना बहुत आवश्यक है, रूक-रूक कर बोले या लिखे गए शब्द वाक्य नहीं बनाते।
     अतः वाक्य के पद निरन्तर प्रवाह में पास-पास बोले या लिखे जाने चाहिए वाक्य को स्वाभाविक एवं आवश्यक बलाघात आदि के साथ बोलना पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है। 

     (5) पदक्रम - वाक्य में पदों का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। 'सुहावनी है रात होती चाँदनी' इसमें पदों का क्रम व्यवस्थित न होने से इसे वाक्य नहीं मानेंगे।

     इसे इस प्रकार होना चाहिए- 'चाँदनी रात सुहावनी होती है'। (6) अन्वय - अन्वय का अर्थ है- मेल। वाक्य में लिंग, वचन, पुरुष, काल, कारक आदि का क्रिया के साथ ठीक-ठीक मेल होना चाहिए; जैसे- 'बालक और बालिकाएँ गई', इसमें कर्ता और क्रिया का अन्वय ठीक नहीं है। अतः शुद्ध वाक्य होगा 'बालक और बालिकाएँ गए'। ________________________________________ 
     

    "वाक्य- विग्रह -Analysis"👇 वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं।

     इसे 'वाक्य-विभाजन' या 'वाक्य-विश्लेषण' भी कहा जाता है। सरल वाक्य का विग्रह करने पर एक उद्देश्य और एक विधेय बनते है।

    👇 संयुक्त वाक्य में से योजक को हटाने पर दो स्वतन्त्र उपवाक्य (यानी दो सरल वाक्य) बनते हैं। 
     मिश्र वाक्य में से योजक को हटाने पर दो अपूर्ण उपवाक्य बनते है।

    👇 सरल वाक्य= 1 उद्देश्य + 1 विधेय संयुक्त वाक्य= सरल वाक्य + सरल वाक्य मिश्र वाक्य= प्रधान उपवाक्य + आश्रित उपवाक्य 1:-Simple Sentence = 1 Objective + 1 Remarkable 2:-Joint (Compound) sentence = simple sentence + simple sentence 3:-Mixed (Complexs)entence = principal clause + dependent clause _________________________________________

    "वाक्य का रूपान्तर

    "वाक्य का रूपान्तरण-- (Transformation of Sentences) किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं।

     हम किसी भी वाक्य को भिन्न-भिन्न वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते हैं और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार या परिवर्तन नहीं आयेगा। हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।


    👇 सरल वाक्य:- हर तरह के संकटो से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ। संयुक्त वाक्य:- संकटों ने उसे हर तरह से घेरा, (किन्तु) वह निराश नहीं हुआ। मिश्र वाक्य:- यद्यपि वह हर तरह के संकटों से घिरा था, (तथापि) निराश नहीं हुआ। वाक्य परिवर्तन करते समय एक बात विशेषत: ध्यान में रखनी चाहिए कि वाक्य का मूल अर्थ किसी भी हालत में विकृत ( परिवर्तित )न हो जाय। यहाँ कुछ और उदाहरण देकर विषय को स्पष्ट किया जाता है-

    👇 (क) सरल वाक्य से मिश्र वाक्य <>👇
     1-सरल वाक्य- उसने अपने मित्र का मकान खरीदा।
     मिश्र वाक्य- उसने उस मकान को खरीदा, जो उसके मित्र का था। 

     2-सरल वाक्य- अच्छे लड़के परिश्रमी होते हैं। मिश्र वाक्य- जो लड़के अच्छे होते है, वे परिश्रमी होते हैं। 

     3-सरल वाक्य- लोकप्रिय विद्वानों का सम्मान सभी करते हैं। मिश्र वाक्य- जो विद्वान लोकप्रिय होते हैं, उसका सम्मान सभी करते हैं। (ख) सरल वाक्य से संयुक्त वाक्य<>
    👇 1- सरल वाक्य- अस्वस्थ रहने के कारण वह परीक्षा में सफल न हो सका। संयुक्त वाक्य- वह अस्वस्थ था और इसलिए परीक्षा में सफल न हो सका। 

     2-सरल वाक्य- सूर्योदय होने पर कुहासा जाता रहा।
     संयुक्त वाक्य- सूर्योदय हुआ और कुहासा जाता रहा।
     3-सरल वाक्य- गरीब को लूटने के अतिरिक्त उसने उसकी हत्या भी कर दी। संयुक्त वाक्य- उसने न केवल गरीब को लूटा, बल्कि उसकी हत्या भी कर दी। 
     (ग) मिश्र वाक्य से सरल वाक्य<>

    👇 1-मिश्र वाक्य- उसने कहा कि मैं निर्दोष हूँ। सरल वाक्य- उसने अपने को निर्दोष घोषित किया। 
     2-मिश्र वाक्य- मुझे बताओ कि तुम्हारा जन्म कब और कहाँ हुआ था। सरल वाक्य- तुम मुझे अपने जन्म का समय और स्थान बताओ। 
     3-मिश्र वाक्य- जो छात्र परिश्रम करेंगे, उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी। सरल वाक्य- परिश्रमी छात्र अवश्य सफल होंगे। 

    (घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य–><


    👇 कर्तृवाचक वाक्य- लड़का रोटी खाता है। कर्मवाचक वाक्य- लड़के से रोटी खाई जाती है।
     कर्तृवाचक वाक्य- तुम व्याकरण पढ़ाते हो। 
    जैसे कर्मवाचक वाक्य- तुमसे व्याकरण पढ़ाया जाता है। कर्तृवाचक वाक्य- मोहन गीत गाता है। कर्मवाचक वाक्य- मोहन से गीत गाया जाता है। 
     (ड़) विधिवाचक से निषेधवाचक वाक्य👇

     विधिवाचक वाक्य- वह मुझसे बड़ा है। 
     निषेधवाचक- मैं उससे बड़ा नहीं हूँ।
     विधिवाचक वाक्य- अपने देश के लिए हर एक भारतीय अपनी जान देगा। निषेधवाचक वाक्य- अपने देश के लिए कौन भारतीय अपनी जान न देगा ? वाक्य रचना के कुछ सामान्य नियम

    दास

    ़👇 ''व्याकरण-सिद्ध पदों को मेल के अनुसार " यथाक्रम" रखने को ही 'वाक्य-रचना' कहते है।'' 
     वाक्य का एक पद दूसरे से लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि का जो संबंध रखता है, उसे ही 'मेल' कहते हैं। जब वाक्य में दो पद एक ही लिंग-वचन-पुरुष-काल और नियम के हों तब वे आपस में (मेल, समानता या सादृश्य) रखने वाले कहे जाते हैं। निर्दोष वाक्य लिखने के कुछ नियम हैं। 

    👇 इनकी सहायता से शुद्ध वाक्य लिखने का प्रयास किया जा सकता है। सुन्दर वाक्यों की रचना के लिए निर्देश:-
    👇 (क) क्रम (order), (ख) अन्वय (co-ordination) और (ग) प्रयोग (using) से सम्बद्ध कुछ सामान्य नियमों का ज्ञान आवश्यक है। 
     (क) क्रम:-👇 किसी वाक्य के सार्थक शब्दों को यथास्थान रखने की क्रिया को 'क्रम' अथवा 'पदक्रम' कहते हैं। 
    इसके कुछ सामान्य नियम इस प्रकार हैं-
     (i) हिंदी वाक्य के आरम्भ में 'कर्ता, मध्य में 'कर्म' और अन्त में 'क्रिया' होनी चाहिए। जैसे- मोहन ने भोजन किया। यहाँ कर्ता 'मोहन', कर्म 'भोजन' और अन्त में किया 'क्रिया' है। 
    (ii) उद्देश्य या कर्ता के विस्तार को कर्ता के पहले और विधेय या क्रिया के विस्तार को विधेय के पहले रखना चाहिए।

    👇 जैसे-अच्छे लड़के धीरे-धीरे पढ़ते हैं। 
     (iii) कर्ता और कर्म के बीच अधिकरण, अपादान, सम्प्रदान और करण कारक क्रमशः आते हैं। 
    जैसे- मोहन ने घर में (अधिकरण) आलमारी से (अपादान) राम के लिए (सम्प्रदान) हाथ से (करण) पुस्तक निकाली।
     (iv) सम्बोधन आरम्भ में आता है। जैसे- हे प्रभु, मुझ पर दया करें।
     (v) विशेषण विशेष्य या संज्ञा के पहले आता है। 
    जैसे- मेरी नीली कमीज कहीं खो गयी। 
    (vi) क्रियाविशेषण क्रिया के पहले आता है। जैसे- वह तेज दौड़ता है। 
    (vii) प्रश्रवाचक पद या शब्द उसी संज्ञा के पहले रखा जाता है, जिसके बारे में कुछ पूछा जाय। 
     जैसे- क्या बालक सो रहा है ? 

    टिप्पणी- यदि संस्कृत की तरह हिन्दी में वाक्य रचना के साधारण क्रम का पालन न किया जाय, तो इससे कोई क्षति अथवा अशुद्धि नहीं होती। 
    फिर भी, उसमें विचारों का एक तार्किक क्रम ऐसा होता है, जो एक विशेष रीति के अनुसार एक-दूसरे के पीछे आता है। 
    (ख) अन्वय (मेल) 'अन्वय' में लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार वाक्य के विभित्र पदों (शब्दों) का एक-दूसरे से सम्बन्ध या मेल दिखाया जाता है।
     यह मेल कर्ता और क्रिया का, कर्म और क्रिया का तथा संज्ञा और सर्वनाम का होता हैं। कर्ता और क्रिया का मेल (i) यदि कर्तृवाचक वाक्य में कर्ता विभक्ति रहित है, तो उसकी क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होंगे। जैसे- करीम किताब पढ़ता है। सोहन मिठाई खाता है। रीता घर जाती है।👇 __________________________________________ ⬇☣⬇🌸 (ii) यदि वाक्य में एक ही लिंग, वचन और पुरुष के अनेक विभक्ति रहित कर्ता हों और अन्तिम कर्ता के पहले 'और' संयोजक आया हो, तो इन कर्ताओं की क्रिया उसी लिंग के बहुवचन में होगी जैसे-👇 
    मोहन और सोहन सोते हैं। आशा, उषा और पूर्णिमा स्कूल जाती हैं। 
    (iii) यदि वाक्य में दो भिन्न लिंगों के कर्ता हों और दोनों द्वन्द्वसमास के अनुसार प्रयुक्त हों तो उनकी क्रिया पुल्लिंग बहुवचन में होगी। 
    जैसे- नर-नारी गये। राजा-रानी आये। स्त्री-पुरुष मिले। माता-पिता बैठे हैं।
     (iv) यदि वाक्य में दो भिन्न-भिन्न विभक्ति रहित एकवचन कर्ता हों और दोनों के बीच 'और' संयोजक आये, तो उनकी क्रिया पुल्लिंग और बहुवचन में होगी। जैसे:- राधा और कृष्ण रास रचते हैं। बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते हैं। 
    (v) यदि वाक्य में दोनों लिंगों और वचनों के अनेक कर्ता हों, तो क्रिया बहुवचन में होगी और उनका लिंग अन्तिम कर्ता के अनुसार होगा। जैसे-👇
     १-एक लड़का, दो बूढ़े और अनेक लड़कियाँ आती हैं। २-एक बकरी, दो गायें और बहुत-से बैल मैदान में चरते हैं। (vi) यदि वाक्य में अनेक कर्ताओं के बीच विभाजक समुच्चयबोधक अव्यय 'या' अथवा 'वा' रहे तो क्रिया अन्तिम कर्ता के लिंग और वचन के अनुसार होगी। जैसे- ३-घनश्याम की पाँच दरियाँ वा एक कम्बल बिकेगा। ४-हरि का एक कम्बल या पाँच दरियाँ बिकेंगी। ५-मोहन का बैल या सोहन की गायें बिकेंगी। 
    (vii) यदि उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और अन्यपुरुष एक वाक्य में कर्ता बनकर आयें तो क्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार होगी। जैसे-👇 
    १-वह और हम जायेंगे। २-हरि, तुम और हम सिनेमा देखने चलेंगे। ३-वह, आप और मैं चलूँगा।

     🌸↔विद्वानों का मत है कि वाक्य में पहले मध्यमपुरुष प्रयुक्त होता है, उसके बाद अन्यपुरुष और अन्त में उत्तमपुरुष; जैसे- तुम, वह और मैं जाऊँगा। 
     कर्म और क्रिया का मेल 
     (i) यदि वाक्य में कर्ता 'ने' विभक्ति से युक्त हो और कर्म की 'को' विभक्ति न हो, तो उसकी क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार ही होगी। जैसे- पिपासा ने पुस्तक पढ़ी। हमने लड़ाई जीती। उसने गाली दी। मैंने रूपये दिये। तुमने क्षमा माँगी। 

     (ii) यदि कर्ता और कर्म दोनों विभक्ति चिह्नों से युक्त हों, तो क्रिया सदा एकवचन पुल्लिंग और अन्यपुरुष में होगी। जैसे- मैंने कृष्ण को बुलाया। तुमने उसे देखा। स्त्रियों ने पुरुषों को ध्यान से देखा। 

     (iii) यदि कर्ता 'को' प्रत्यय से युक्त हो और कर्म के स्थान पर कोई क्रियार्थक संज्ञा आए तो क्रिया सदा पुल्लिंग, एकवचन और अन्यपुरुष में होगी। जैसे- तुम्हें (तुमको) पुस्तक पढ़ना नहीं आता। अलिका को रसोई बनाना नहीं आता। 
     उसे (उसको) समझ कर बात करना नहीं आता।

     (iv) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक विभक्ति रहित कर्म एक साथ आएँ, तो क्रिया उसी लिंग में बहुवचन में होगी। जैसे-

    👇 श्याम ने बैल और घोड़ा मोल लिए। तुमने गाय और भैंस मोल ली।
     (v) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक-अप्राणिवाचक अप्रत्यय कर्म एक साथ एकवचन में आयें, तो क्रिया भी एकवचन में होगी। 
     जैसे- मैंने एक गाय और एक भैंस खरीदी। सोहन ने एक पुस्तक और एक कलम खरीदी। मोहन ने एक घोड़ा और एक हाथी बेचा।

     (vi) यदि वाक्य में भित्र-भित्र लिंग के अनेक प्रत्यय कर्म आयें और वे 'और' से जुड़े हों, तो क्रिया अन्तिम कर्म के लिंग और वचन में होगी। जैसे-
    👇 मैंने मिठाई और पापड़ खाये। उसने दूध और रोटी खिलाई। संज्ञा और सर्वनाम का मेल- 
     (i) सर्वनाम में उसी संज्ञा के लिंग और वचन होते हैं, जिसके बदले वह आता है; परन्तु कारकों में भेद रहता है।
     जैसे- शेखर ने कहा कि मैं जाऊँगा। 
    शीला ने कहा कि मैं यहीं रूकूँगी। 

     (ii) सम्पादक, ग्रन्थ कार, किसी सभा का प्रतिनिधि और बड़े-बड़े अधिकारी अपने लिए 'मैं' की जगह 'हम' का प्रयोग करते हैं। जैसे- हमने पहले अंक में ऐसा कहा था। हम अपने राज्य की सड़कों को स्वच्छ रखेंगे।

     (iii) एक प्रसंग में किसी एक संज्ञा के बदले पहली बार जिस वचन में सर्वनाम का प्रयोग करे, आगे के लिए भी वही वचन रखना उचित है। 
     जैसे- 
    🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तुमने हमारी पुस्तक लौटा दी हैं।
     मैं तुमसे बहुत नाराज नहीं हूँ। 

     (अशुद्ध वाक्य है।) पहली बार अंकित के लिए 'मैं' का और संजय के लिए 'तू' का प्रयोग हुआ है तो अगली बार भी 'तुमने' की जगह 'तूने', 'हमारी' की जगह 'मेरी' और 'तुमसे' की जगह 'तुझसे' का प्रयोग होना चाहिए :
    👇 
     🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तूने मेरी पुस्तक लौटा दी है। मैं तुझसे बहुत नाराज नहीं हूँ। 
     (शुद्ध वाक्य) 

     (iv) संज्ञाओं के बदले का एक सर्वनाम वही लिंग और वचन लगेंगे जो उनके समूह से समझे जाएँगे। जैसे- शरद और संदीप खेलने गए हैं; परन्तु वे शीघ्र ही आएँगे। श्रोताओं ने जो उत्साह और आनंद प्रकट किया उसका वर्णन नहीं हो सकता।

     (v) 'तू' का प्रयोग अनादर और प्यार के लिए भी होता है। 

    जैसे-👇 रे नृप बालक, कालबस बोलत तोहि न संभार। 
    धनुही सम त्रिपुरारिधनु विदित सकल संसार।।
     (गोस्वामी तुलसीदास) 

     तोहि- तुझसे अरे मूर्ख ! तू यह क्या कर रहा है ?(अनादर के लिए) अरे बेटा, तू मुझसे क्यों रूठा है ? (प्यार के लिए) तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूँ। 

     (vi) मध्यम पुरुष में सार्वनामिक शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने लिए किसी संज्ञा के बदले ये प्रयुक्त होते हैं-

    👇 (a) पुरुषों के लिए : महाशय, महोदय, श्रीमान्, महानुभाव, हुजूर, हुजुरेवाला, साहब, जनाब इत्यादि।

     (b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, महाशया, महोदया, देवी, बीबीजी मुसम्मात सुश्री आदि।

     (vii) आदरार्थ अन्य पुरुष में 'आप' के बदले ये शब्द आते हैं- 
    (a) पुरुषों के लिए : श्रीमान्, मान्यवर, हुजूर आदि। 

     (b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, देवी आदि। 
     संबंध और संबंधी में मेल 

    (1) संबंध के चिह्न में वही लिंग-वचन होते हैं, जो संबंधी के। जैसे- रामू का घर श्यामू की बकरी 

     (2) यदि संबंधी में कई संज्ञाएँ बिना समास के आए तो संबंध का चिह्न उस संज्ञा के अनुसार होगा, जिसके पहले वह रहेगा। जैसे- मेरी माता और पिता जीवित हैं।
     (बिना समास के) मेरे माता-पिता जीवित है।
     (समास होने पर) क्रम-संबंधी कुछ अन्य बातें 

     (1) प्रश्नवाचक शब्द को उसी के पहले रखना चाहिए, जिसके विषय में मुख्यतः प्रश्न किया जाता है। जैसे- वह कौन व्यक्ति है ? वह क्या बनाता है ? 

     (2) यदि पूरा वाक्य ही प्रश्नवाचक हो तो ऐसे शब्द (प्रश्नसूचक) वाक्यारंभ में रखना चाहिए। जैसे- क्या आपको यही बनना था ?

     (3) यदि 'न' का प्रयोग आदर के लिए आए तो प्रश्नवाचक का चिह्न नहीं आएगा और 'न' का प्रयोग वाक्य में अन्त में होगा। जैसे- आप बैठिए न। आप मेरे यहाँ पधारिए न। 

     (4) यदि 'न' क्या का अर्थ व्यक्त करे तो अन्त में प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए और 'न' वाक्यान्त में होगा। 


    जैसे-👇 वह आज-कल स्वस्थ है न ? आप वहाँ जाते हैं न ? (5) पूर्वकालिक क्रिया मुख्य क्रिया के पहले आती है। जैसे-

    👇 वह खाकर विद्यालय जाता है। शिक्षक पढ़ाकर घर जाते हैं। 
     (6) विस्मयादिबोधक शब्द प्रायः वाक्यारम्भ में आता है। जैसे- वाह ! आपने भी खूब कहा है। ओह ! यह दर्द सहा नहीं जा रहा है। 
     (ग) वाक्यगत प्रयोग- वाक्य का सारा सौन्दर्य पदों अथवा शब्दों के समुचित प्रयोग पर आश्रित है। 
     पदों के स्वरूप और औचित्य पर ध्यान रखे बिना शिष्ट और सुन्दर वाक्यों की रचना नहीं होती। 

    प्रयोग-सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश निम्नलिखित हैं-

    👇 कुछ आवश्यक निर्देश:– 
     (i) एक वाक्य से एक ही भाव प्रकट हो। 

     (ii) शब्दों का प्रयोग करते समय व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का पालन हो। 

     (iii) वाक्यरचना में अधूरे वाक्यों को नहीं रखा जाये। 

     (iv) वाक्य-योजना में स्पष्टता और प्रयुक्त शब्दों में शैली-सम्बन्धी शिष्टता हो। 

     (v) वाक्य में शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हो। तात्पर्य यह कि वाक्य में सभी शब्दों का प्रयोग एक ही काल में, एक ही स्थान में और एक ही साथ होना चाहिए। 

     (vi) वाक्य में ध्वनि और अर्थ की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

     (vii) वाक्य में व्यर्थ शब्द न आने पायें। 

     (viii) वाक्य-योजना में आवश्यकतानुसार जहाँ-तहाँ मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हो। 
     
    (ix) वाक्य में एक ही व्यक्ति या वस्तु के लिए कहीं 'यह' और कहीं 'वह', कहीं 'आप' और कहीं 'तुम', कहीं 'इसे' और कहीं 'इन्हें', कहीं 'उसे' और कहीं 'उन्हें', कहीं 'उसका' और कहीं 'उनका', कहीं 'इनका' और कहीं 'इसका' प्रयोग नहीं होना चाहिए। 

     (x) वाक्य में पुनरुक्तिदोष नहीं होना चाहिए। शब्दों के प्रयोग में औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।

     (xi) वाक्य में अप्रचलित शब्दों का व्यवहार नहीं होना चाहिए। __________________________________________ 

    "परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है"

     (xii) परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है। 
     परन्तु फिर भी इसका प्रयोग कर सकते है । यह वाक्य अशुद्ध है- उसने कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं है। इसमें 'उसे' के स्थान पर 'मुझे' होना चाहिए। 

     अन्य ध्यातव्य बातें (1) 'प्रत्येक', 'किसी', 'कोई' का प्रयोग- ये सदा एकवचन में प्रयुक्त होते है, बहुवचन में प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- प्रत्येक- प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है।
     प्रत्येक पुरुष से मेरा निवेदन है। कोई- मैंने अब तक कोई काम नहीं किया। कोई ऐसा भी कह सकता है।
     किसी- किसी व्यक्ति का वश नहीं चलता। किसी-किसी का ऐसा कहना है। किसी ने कहा था। 

     टिप्पणी- 'कोई' और 'किसी' के साथ 'भी' अव्यय का प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- कोई भी होगा, तब काम चल जायेगा। यहाँ 'भी' अनावश्यक है। कोई संस्कृत 'कोऽपि' का तद्भव है। ' कोई' और 'किसी' में 'भी' का भाव वर्तमान है। 

     (2) 'द्वारा' का प्रयोग- किसी व्यक्ति के माध्यम (through) से जब कोई काम होता है, तब संज्ञा के बाद 'द्वारा' का प्रयोग होता है; वस्तु (संज्ञा) के बाद 'से' लगता है। 

    जैसे- सुरेश द्वारा यह कार्य सम्पत्र हुआ। युद्ध से देश पर संकट छाता है। 

     (3) 'सब' और 'लोग' का प्रयोग- सामान्यतः दोनों बहुवचन हैं। पर कभी-कभी 'सब' का समुच्चय-रूप में एकवचन में भी प्रयोग होता है।

     जैसे- तुम्हारा सब काम गलत होता है। यदि काम की अधिकता का बोध हो तो 'सब' का प्रयोग बहुवचन में होगा। जैसे- सब यही कहते हैं। हिंदी में 'सब' समुच्चय और संख्या- दोनों का बोध कराता है। 

    👇 'लोग' सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जैसे- लोग अन्धे नहीं हैं। लोग ठीक ही कहते हैं। कभी-कभी 'सब लोग' का प्रयोग बहुवचन में होता है। 

    'लोग' कहने से कुछ व्यक्तियों का और 'सब लोग' कहने से अनगिनत और अधिक व्यक्तियों का बोध होता है। 
    जैसे- सब लोगों का ऐसा विचार है। सब लोग कहते है कि गाँधीजी महापुरुष थे। 

     (4) व्यक्तिवाचक संज्ञा और क्रिया का मेल- यदि व्यक्तिवाचक संज्ञा कर्ता है, तो उसके लिंग और वचन के अनुसार क्रिया के लिंग और वचन होंगे।

     जैसे- काशी सदा भारतीय संस्कृति का केन्द्र रही है। यहाँ कर्ता (काशी) स्त्रीलिंग है। पहले कलकत्ता भारत की राजधानी था। यहाँ कर्ता (कलकत्ता) पुल्लिंग है। उसका ज्ञान ही उसकी पूँजी था। यहाँ कर्ता पुल्लिंग है।

     (5) समयसूचक समुच्चय का प्रयोग- ''तीन बजे हैं। आठ बजे हैं।'' इन वाक्यों में तीन और आठ बजने का बोध समुच्चय में हुआ है।

     (6) 'पर' और 'ऊपर' का प्रयोग- 'ऊपर' और 'पर' व्यक्ति और वस्तु दोनों के साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु 'पर' सामान्य ऊँचाई का और 'ऊपर' विशेष ऊँचाई का बोधक है। जैसे- पहाड़ के ऊपर एक मन्दिर है।

     इस विभाग में मैं सबसे ऊपर हूँ। हिंदी में 'ऊपर' की अपेक्षा 'पर' का व्यवहार अधिक होता है। जैसे- मुझ पर कृपा करो। छत पर लोग बैठे हैं। गोपाल पर अभियोग है। मुझ पर तुम्हारे एहसान हैं। 

     (7) 'बाद' और 'पीछे' का प्रयोग- यदि काल का अन्तर बताना हो, तो 'बाद' का और यदि स्थान का अन्तर सूचित करना हो, तो 'पीछे' का प्रयोग होता है।

     जैसे- उसके बाद वह आया- काल का अन्तर। 
     मेरे बाद इसका नम्बर आया- काल का अन्तर। गाड़ी पीछे रह गयी- स्थान का अन्तर। मैं उससे बहुत पीछे हूँ- स्थान का अन्तर। 

    (क) नए, नये, नई, नयी का शुद्ध प्रयोग- जिस शब्द का अन्तिम वर्ण 'या' है उसका बहुवचन 'ये' होगा। 'नया' मूल शब्द है, इसका बहुवचन 'नये' और स्त्रीलिंग 'नयी' होगा। 

     (ख) गए, गई, गये, गयी का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'गया' है। उपरिलिखित नियम के अनुसार 'गया' का बहुवचन 'गये' और स्त्रीलिंग 'गयी' होगा। 

     (ग) हुये, हुए, हुयी, हुई का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'हुआ' है, एकवचन में। इसका बहुवचन होगा 'हुए'; ' हुये' नहीं 'हुए' का स्त्रीलिंग 'हुई' होगा; 'हुयी' नहीं। 

     (घ) किए, किये, का शुद्ध प्रयोग- 'किया' मूल शब्द है; इसका बहुवचन 'किये' होगा। 

     (ड़) लिए, लिये, का शुद्ध प्रयोग- दोनों शुद्ध रूप हैं।
     किन्तु जहाँ अव्यय व्यवहृत होगा वहाँ 'लिए' आयेगा; जैसे- मेरे लिए उसने जान दी।

     क्रिया के अर्थ में 'लिये' का प्रयोग होगा; क्योंकि इसका मूल शब्द 'लिया' है।

     (च) चाहिये, चाहिए का शुद्ध प्रयोग- 'चाहिए' अव्यय है। अव्यय विकृत नहीं होता। इसलिए 'चाहिए' का प्रयोग शुद्ध है; 'चाहिये' का नहीं। 'इसलिए' के साथ भी ऐसी ही बात है। _________________________________________

          _________________________________               

    -ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥

     ऊकालो ऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥
    संस्कृत विवृत्ति:-उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः॑ वां काल इव कालो यस्य सो ऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात्।
    स प्रत्येकमुदात्तादि भेदेन त्रिधा।

    व्याख्यायित:- १-(उ) २-(ऊ) ३-(ऊ 'उ/ (उ३) यह तीनों उकारें व: कहलाती है !

    इन तीनों के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके समान ही उपचारण काल वाले स्वरों की क्रमश हृस्व , दीर्घ और प्लुत संज्ञा होती है।

    ये इस हृस्व ,दीर्घ , तथा प्लुत संज्ञा उदात्त ,अनुदात्त ,और स्वरित भेद से तीन प्रकार की होती हैं ।
    फिर अनुनासिक और निरानुनासिक
    दो और भेद होते हैं ।
    __________________________________________
    अब विचार करते हैं वर्णों की मात्राओं पर👇

    अर्थात् एकमात्रा वाला ह्रस्व स्वर होता है ;
    और दीर्घ मात्रा वाला स्वर दीर्घ तथा तीन मात्रा वाला स्वर प्लुत समझना चाहिए  परन्तु व्यंजएकमात्रो भवेध्रस्व: द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।
    न तो अर्थ मात्रा का होता है ।

    त्रिमात्रक:प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनाञ्चार्धमात्रक।।१।

    उच्चारण स्थान की दृष्टि से भेद 👇

    अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।

    इचुयशानां तालु:।

    ऋटुरषाणां मूर्धा ।

    लृतुलसानां दन्ताः ।

    उपूपध्मानायानामोष्ठौ ।

     नासिका च ।

    एदैतोःञमङणनानां कण्ठ -तालु ।

    ओदौतोः कण्ठोष्ठं ।

    वकारस्य दन्तोष्ठं ।

    जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलं ।

    नासिकानुस्वारस्य ।

    कण्ठ, तालु , मूर्धा , दन्त , ओष्ठ और नासिका - ये
    मुख्य उच्चारण स्थान हैं ।

    यदि  पाणिनी के व्याकरण (अष्टाध्यायी ) के ये
    सूत्र याद कर लें 
    ये छोटे सूत्र ये हैं :

    अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः - अ , आ , ' क' वर्ग के
    अक्षर ( क-ख-ग-घ- ङ ) , ह और विसर्ग (:)
    इनका उच्चारण स्थान कंठ होता है ।

    इचुयशानां तालु - इ , ई , ' च ' वर्ग के अक्षर (च -छ -ज -
    झ -ञ ), य और श - इनका उच्चारण स्थान तालु
    होता है ।

    ऋटुरषाणां मूर्धा - ऋ, ' ट' वर्ग के अक्षर ( ट- ठ- ड -
    ढ- ण) र और ष - ये मूर्धा से बोले जाते हैं ।

    ॡतुलसानां दन्ताः - ॡ , 'त ' वर्ग के अक्षर (त - थ-
    द-ध - न) और स - ये दान्तों से उच्चारित होते हैं -
    जब तक हमारी जिह्वा दांतों को नहीं छूती , ये वर्ण
    नहीं बोले जा सकते ।

    उपूपध्मानायानामोष्ठौ - उ, ऊ 'प ' वर्ग के
    अक्षर ( प-फ - ब -भ -म ) और बाँसुरी ( ध्मा)
    की आवाज - ये सब ओठों से उच्चारित होते हैं।

    ञमङणनानां नासिका च - ङ , ञ , ण, न, म - ये
    अपने - अपने वर्ग के अतिरिक्त
    नासिका द्वारा भी उच्चारित होते हैं ।

    यदि अपने नाक को हम उंगलियों से दबा कर ये
    अक्षर बोलें तो ध्वनि नहीं निकलेगी ।

    वकारस्य कण्ठोष्ठं - ' व' शब्द कंठ और ओंठों से
    बोला जाता है ।
    हमारी जिह्वा उच्चारण में विशेष योग देती है,
    फिर भी ’ जिह्वा’ या जीभ
    को महर्षि पाणिनि ने कोई जगह
    नहीं दी क्योंकि अकेली जीभ कोई शब्द
    नहीं निकाल सकती  यह एक यन्त्र वत्स है ! ..
    .....
    ध्वनि भाषा की लघुतम और
    अनिवार्य इकाई है । इसके वर्गीकरण का विशेष
    महत्व बनता है -

    तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः ।
    स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्न अनुदात्तुदानतः ।💐↔
    (अष्टाध्यायी - 9.10)

    वर्णों के भेद तीन प्रकार के होते हैं –

    1-कालकृत -2-उच्चारण-स्थानकृत 3-नासिका कृत ।जिन वर्णों के उच्चारण स्थान और प्रयत्न समान हों वही सवर्ण या सजातीय होते हैं ।

    जिनमें तीन प्रमुख है-
    (1)स्थान
    (2) प्रयत्न
    (3) करण

    (1) स्थान के आधार पर ध्वनियों का वर्गी करण-

    (१-) कण्ठ्य - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।
    (अ, ह, कवर्ग और विसर्ग:)

    (२-) तालव्य - इचुयशानां तालु । (इ, य, श, चवर्ग)

    (३-) मूर्धन्य - ऋटुरषाणां मूर्धा । (ऋ, ष, टवर्ग)

    (४-) दन्त्य - लृतुलसानां दन्ताः । (ल, स, तवर्ग)

    (५-) ओष्ठ्य - उपुपमाध्मीयानामौष्ठौ ।
    (उ,पवर्ग)

    (६-)- दन्त्योष्ठ्य - वकारस्य दन्त्योष्ठम् ।

    (७-)उभयोष्ठ्य - घ़, ब़, भ़, म़, व़ ।

    (८-) जिह्वामूलीय - जिह्वामूलीयस्य

    जिह्वामूलम् ।

    (2) प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण


    प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः
    यत्नो द्विविधा - आभ्यान्तरो बाह्यश्च ।

    (क) आभ्यान्तर प्रयत्न -
    (1) स्पृष्ट (स्पर्श्य) - क से म तक । (25 वर्ण)

    (2) ईषत्स्पृष्ट (अन्तस्थ) - यणोऽन्तस्थाम् ।(य, व,
    र, ल ।)

    (3) विवृत (स्वर) - अच स्वराः । ( स्वर)

    (4) ईषत्विवृत (उष्म) - शल उष्मणः । (श, ष, स, ह ।)

    (5) संवृत - ह्रस्व अ वर्ण ।

    (ख) बाह्य प्रयत्न -
    (1) विवार -खरो विवाराः  श्वासा अघोषाश्च ।
    ( वर्ग के प्रथम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

    (2) श्वास -खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
    ( वर्ग के प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

    💐↔(3) अघोष -
    खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।
    ( वर्ग के
    प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

    (4) संवार - हशः संवारा नादा घोषाश्च ।
    (वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र,
    ल, व)

    💐↔(5) नाद - हशः संवारा नादा घोषाश्च । (वर्ग
    के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)

    वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है। 
    अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। 
    सानुनासिक स्वर।

    (6) घोष - हशः संवारा नादा घोषाश्च

    (वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)
    शब्दों के उच्चारण में ११ बाह्य प्रयत्नों में से एक । इस प्रयत्न से वर्ण बोले जाते हैं—ग, घ, ज, झ, ल, ढ द, ध, ब, भ, ङ, ञ ण, न म, य, र, ल, व, और ह ।

    (7) अल्पप्राण - वर्गानां प्रथम तृतीय पञ्चम
    यणश्चाल्पप्राणाः । (वर्ग के प्रथम, तृतीय,
    पञ्चम वर्ण तथा य, र, ल, व)

    (8) महाप्राण- वर्गानाम् द्वितीय
    चतुर्थ श''ष'स'कारश्च महाप्राणाः ।
     (वर्ग के द्वितीय चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स)
    (9) उदात्त - स्वर
    (10) अनुदात्त - स्वर
    (11) स्वरित - स्वर

    कण्ठ ,-तालु और मूर्धा आदि वर्णों के उच्चारण-स्थान के ऊर्ध्व अथवा ऊपरी भाग से जो शब्द या स्वर उच्चरित होते हैं उनकी उदात्त संज्ञा होती है।

    जैसे 'इ' का उच्चारण-स्थान -तालु है- और जब 'इ' स्वर का उच्चारण -तालु के ऊपरी भाग से होगा तो 'इ' स्वर उदात्त संज्ञक होगा । और  यदि इस 'इ' स्वर का उच्चारण-तालु के नीचे के भाग से होगा तो'इ'स्वर अनुदात्त संज्ञक होगा।
    _____________

    वास्तव में जैसे हारमॉनियम में स्वरों का दबता -उछलता क्रम जिन्हें कोमल और शुद्ध रूप भी कहते हैं। और यदि ये दोनौं मध्यम स्थिति में हों तो स्वरित संज्ञक होते हैं ।

    यह कहे गये स्वर नौ प्रकार के होते हैं ; क्योंकि कि प्रत्येक स्वर पहले हृस्व दीर्घ तथा प्लुत के भेद से तीन प्रकार का होता है- ।

    तत्पश्चात् स्थान के आधार पर इन तीनों के तीन तीन भेद और होते हैं
    उदात्त , अनुदात्त और स्वरित इस प्रकार स्वर के नौ प्रकार हुए ।

    इसके भी पश्चात भी पुन: नौं स्वरों में प्रत्येक के मुख के साथ नासिका के संयोजन वियोजन भेद से अनुनासिक तथा अननुनासिक (निरानुनासिक)दो भेद और हो जाने से  स्वर के  अठारह भेद होते हैं ।

    इन स्वरों में  " लृ " स्वर के बारह भेद ही होते हैं क्योंकि कि इनका दीर्घ नहीं होता ।इसी प्रकार एच् ( एऐओऔ)
    सन्धि स्वर भी बारह प्रकार के होते हैं । 
    क्योंकि इनमें हृस्व स्वर नहीं होते हैं ।
    _____________________________

    पाणिनि के अनुसार इस अ' स्वर का उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-

    • (१) सानुनासिक :
    ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
    दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
    प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित
    • (२) निरनुनासिक :
    ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरित
    दीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरित
    प्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित

    हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ और अ से व्यक्त किया जा सकता है। 

    _________

    अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
    मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | एचामपि द्वादश,तेषां ह्रस्वाभावात् | 

    ___________________

    (अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)

     - मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||

    मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् |एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् |

    _______

      मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।

        वास्तव में वर्णों का उच्चारण तो मुख से ही होता है किंतु ङ्, ञ्, ण्, न्, म् आदि वर्ण और अनुनासिक (अँ, इॅं, उॅं आदि) तथा अनुस्वार (अं, इं, उं आदि) के उच्चारण में नासिका (नाक) की भी सहायता चाहिए | 

    नासिका की सहायता से मुख से उच्चारित होने वाले ऐसे वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं |

     जो अनुनासिक नहीं है, वे अननुनासिक या निरनुनासिक कहलाते हैं |  

     ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक ये अचों (स्वरों) में रहने वाले धर्म है | 

    अपवाद के रूप में (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये व्यंजन होते हुए भी इन्हें अनुनासिक कहा जाता है |  इसी प्रकार (यॅं, वॅं, लॅं) भी अनुनासिक माने जाते हैं और (य्, व्, ल्) के रूप में निरनुनासिक भी हैं | जहाॅं पर अनुनासिक का व्यवहार होगा वहां पर अनुनासिक अच् और (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये समझे जाते हैं |

     इस संबंध में आगे यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा आदि सूत्रों का प्रसंग देखना चाहिए। 

      तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |

    अर्थ • इस प्रकार से (अ, इ, उ और ऋ )इन चार वर्णों के अट्ठारह-अट्ठारह भेद हुए।

       लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | लृ के दीर्घ न होने से 12 भेद होते हैं।

       एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् | एचों का ह्रस्व नहीं होता है, इसलिए 12 ही भेद होते हैं।

       पहले अच् अर्थात्-( अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ) ये वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के कारण प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले हो गए किंतु लृ की दीर्घ मात्रा नहीं है, इसलिए लृ के ह्रस्व और प्लुत दो ही भेद हुए |

     इसी प्रकार एच् अर्थात् ( ए, ओ, ऐ, औ )का ह्रस्व नहीं होता, अतः एच् के दीर्घ और प्लुत ही दो-दो भेद हो गए | शेष अ, इ, उ, ऋ ये चारों वर्ण ह्रस्व भी हैं, दीर्घ भी होते हैं और प्लुत भी होते हैं, इसलिए यह तीन-तीन भेद वाले माने जाते हैं।

      इस प्रकार से दो एवं तीन भेद वाले प्रत्येक अच् वर्ण उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से पुनः तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं | 

    जैसे प्रत्येक ह्रस्व अच् उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का, ।

    दीर्घ अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का ।

    और प्लुत अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार के हो जाने से कुछ अच् छः प्रकार के और कुछ (9) प्रकार के हो गए | 

     (6) प्रकार के इसलिए कि जिन वर्णों में ह्रस्व या दीर्घ नहीं थे वे दो-दो प्रकार के थे, इसलिए अब उदात्तादि स्वरों के कारण छः-छः प्रकार के हो गए |

     जिन अच् वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों हैं वे उदात्तादि स्वरों के कारण नौ-नौ प्रकार के हो गए | इस प्रकार से अभी तक अचों के 6 या 9 प्रकार के भेद सिद्ध हुए।

      वे ही वर्ण पुनः अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ये 12 और 18 प्रकार के भेद वाले हो जाते हैं | 

    इसके पहले जो 6 प्रकार के थे, वे 12 प्रकार के एवं जो 9 प्रकार के थे, वे 18 प्रकार के हो जाते हैं।

     अनुनासिक पक्ष के छः और नौ भेद तथा अननुनासिक पक्ष के भी छः और नौ भेद होते हैं | 

    इस प्रकार से अ, इ, उ, ऋ के अट्ठारह-अट्ठारह भेद तथा लृ, ए, ओ, ऐ, औ के 12-12 भेद सिद्ध हुए | य्-व्-ल् ये वर्ण अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।

    इस विषय को तालिका के माध्यम से समझते हैं-

    ह्रस्व-अ, इ, उ, ऋ, लृ

    दीर्घ-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ

    प्लुत-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ

    (क)-1. ह्रस्व उदात्त अनुनासिक

    2. दीर्घ उदात्त अनुनासिक

    3. प्लुत उदात्त अनुनासिक

    (ख)1-. ह्रस्व उदात्त अननुनासिक

    2- दीर्घ उदात्त अननुनासिक

    3-. प्लुत उदात्त अननुनासिक

    (ग)1. ह्रस्व अनुदात्त अनुनासिक

    2-. दीर्घ अनुदात्त अनुनासिक

    3- प्लुत अनुदात्त अनुनासिक

    (घ)1-. ह्रस्व स्वरित अननुनासिक

    2. दीर्घ स्वरित अननुनासिक

    3. प्लुत स्वरित अननुनासिक

    ________ 
    करण के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण -
    मुखगह्वर में स्थित इन्द्रियाँ ही करण हैं ।
    स्थान और करण का भेद मूलतः जङ़ता और
    गतिशीलता है ।

    यद्यपि स्थान और करण
    दोनों ही वागेन्द्रियाँ हैं, किन्तु भेद चल और
    अचल का है ।

    स्थान स्थिर होता है और करण
    अस्थिर एवं गतिशील ।
    करण में निम्न
    इन्द्रियों का समावेश होता है - अधरोष्ठ,
    जिह्वा, कोमल तालु, स्वर तंत्री ।...
    ______________________

    क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है। एक बार बोल कर देखिये |
    च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
    एक बार बोल कर देखिये |
    ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।

    __________
    त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ( जिह्वा )जीभ दांतों से स्पर्श करती है ।
    _______________________   

    स्वर-सन्धि-विधायक-सूत्र  सन्धि-प्रकरण 

     १-दीर्घस्वर सन्धि-।

    २- गुण स्वर सन्धि-।

    ३-वृद्धि स्वर सन्धि-।

    ४-यण् स्वर सन्धि-।

    ५-अयादि स्वर सन्धि-। 

    ६-पूर्वरूप सन्धि-।  

     ७-पररूपसन्धि-।     

     ८-प्रकृतिभाव सन्धि-।

    • स्वर संधि – अच् संधि-विधान
    1. दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:
    2. गुण संधि – आद्गुण:
    3. वृद्धि संधि – वृद्धिरेचि
    4. यण् संधि – इकोयणचि
    5. अयादि संधि – एचोऽयवायाव:
    6. पूर्वरूप संधि – एड॰: पदान्तादति
    7. पररूप संधि – एडि॰ पररूपम्
    8. प्रकृतिभाव संधि – ईदूद्ऐदद्विवचनम् प्रग्रह्यम्

    ____________________

    __

    १-दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:, संस्कृत व्याकरणम्

    दीर्घ स्वर संधि-

    दीर्घ संधि का सूत्र( अक: सवर्णे दीर्घ:) होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है। 

    संस्कृत में स्वर संधियाँ मुुख्यत: आठ प्रकार की होती है। 

    दीर्घसंधि, गुण संधि, वृद्धिसंधि, यण् -संधि, अयादिसंधि, पूर्वरूप संधि, पररूपसंधि, प्रकृतिभाव संधि आदि ।

    इस पृष्ठ पर हम दीर्घ संधि का अध्ययन करेंगे !

    दीर्घ संधि के चार नियम होते हैं!

    सूत्र-(अक: सवर्णे दीर्घ:) अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद उसका सवर्ण आये तो दोनों मिलकर दीर्घ बन जाते हैं। ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई और ऊ, ॠ हो जाते हैं। जैसे –

    (क) अ/आ + अ/आ = आ

    अ + अ = आ –> धर्म + अर्थ = धर्मार्थ
    अ + आ = आ –> हिम + आलय = हिमालय
    अ + आ =आ–> पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
    आ + अ = आ –> विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
    आ + आ = आ –> विद्या + आलय = विद्यालय

    (ख) इ और ई की संधि= ई

    इ + इ = ई –> रवि + इंद्र = रवींद्र ; मुनि + इंद्र = मुनींद्र
    इ + ई = ई –> गिरि + ईश = गिरीश ; मुनि + ईश = मुनीश
    ई + इ = ई –> मही + इंद्र = महींद्र ; नारी + इंदु = नारींदु
    ई + ई = ई –> नदी + ईश = नदीश ; मही + ईश = महीश .

    (ग) उ और ऊ की संधि =ऊ

    उ + उ = ऊ –> भानु + उदय = भानूदय ; विधु + उदय = विधूदय
    उ + ऊ = ऊ –> लघु + ऊर्मि = लघूर्मि ; सिधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
    ऊ + उ = ऊ –> वधू + उत्सव = वधूत्सव ; वधू + उल्लेख = वधूल्लेख
    ऊ + ऊ = ऊ –> भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ; वधू + ऊर्जा = वधूर्जा

    (घ) ऋ और ॠ की संधि=ऋृ

    ऋ + ऋ = ॠ –> पितृ + ऋणम् = पित्रणम्

    प्रश्न - स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 

    उत्तर-  दो स्वरों के मेल से जो विकार या रूप परिवर्तन होता है , उसे स्वर सन्धि कहते हैं ।   जैसे - 
    हिम + आलय  = हिमालय (अ +आ = आ )  [ म् +अ = म ] 'म' में 'अ' स्वर जुड़ा हुआ है 
    विद्या = आलय = विद्यालय (आ +आ = आ ) 
    पो  + अन    =  पवन (ओ  +अ  = अव ) 
    [यहाँ पर प्+ओ +अन ( प् +अव् (ओ के स्थान पर )+अन )
    प्+अव = पव  
    पव +अन = पवन ]

    प्रश्न - स्वर सन्धि के कितने  प्रकार हैं ? 

    उत्तर - स्वर संधि के प्रमुख पाँच प्रकार हैं - 
    1. दीर्घ स्वर संधि 
    2. गुण स्वर संधि 
    3. वृद्धि स्वर संधि 
    4. यण् स्वर संधि 
    5. अयादि स्वर संधि    

    प्रश्न - दीर्घ स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए । 

    उत्तर - जब दो सवर्ण स्वर आपस में मिलकर दीर्घ हो जाते हैं , तब दीर्घ स्वर संधि होता है ।  यदि     'अ'  'आ'  'इ ' 'ई' 'उ' 'ऊ'  और 'ऋ' के बाद हृस्व या दीर्घ स्वर आए  तो दोनों मिलकर क्रमशः 'आ' 'ई' 'ऊ' और ऋ हो जाते हैं  अर्थात दीर्घ हो जाते हैं ।  

    अ + अ = 
    उ + उ = 
    अ + आ = 
    उ + ऊ = 
    आ + आ =
    ऊ + उ = 
    आ + अ = 
    ऊ + ऊ = 
    इ + इ  = 
    ऋ + ऋ = 
    इ + ई = 
    दीर्घ स्वर संधि के नियम
    ई + ई = 
    ई + इ = 
    जैसे -
     ( अ + अ  = आ ) 
    ज्ञान + अभाव  = ज्ञानाभाव   
    स्व + अर्थी  =  स्वार्थी  
    देव + अर्चन  =  देवार्चन  
    मत +  अनुसार  =  मतानुसार 
    राम + अयन  =  रामायण 
    काल + अन्तर  =  कालान्तर 
    कल्प + अन्त  =  कल्पान्त 
    कुश  +  अग्र  =  कुशाग्र 
    कृत  + अन्त  =  कृतान्त 
    कीट  + अणु  =  कीटाणु 
    जागृत  + अवस्था  =  जागृतावस्था
    देश  + अभिमान  =  देशाभिमान 
    देह  + अन्त  =  देहान्त  
    कोण  + अर्क  =  कोणार्क 
    क्रोध + अन्ध  = क्रोधान्ध 
    कोष  + अध्यक्ष  =  कोषाध्यक्ष
    ध्यान + अवस्था   = ध्यानावस्था 
    मलय +अनिल  = मलयानिल 
    स + अवधान = सावधान  
    ______________________
    ( अ + आ  = आ ) 
    परम + आत्मा  = परमात्मा  
    घन  + आनन्द  =  घनानन्द 
    चतुर + आनन  = चतुरानन 
    परम +  आनंद  =  परमानंद 
    पर + आधीनता = पराधीनता 
    पुस्तक  +  आलय  = पुस्तकालय 
    हिम +  आलय  = हिमालय 
    एक  +  आकार  =  एकाकार 
    एक  +  आध  =  एकाध 
    एक  + आसन =  एकासन 
    कुश  + आसन  =  कुशासन 
    कुसुम  +  आयुध  =  कुसुमायुध 
    कुठार  +  आघात  =  कुठाराघात 
    खग +आसन  =  खगासन
    भोजन + आलय = भोजनालय 
    भय + आतुर = भयातुर 
    भाव + आवेश  = भावावेश 
    मरण + आसन्न  = मरणासन्न 
    फल + आगम  = फलागम 
    रस + आस्वादन = रसास्वादन 
    रस + आत्मक = रसात्मक 
    रस + आभास = रसाभास 
    राम + आधार = रामाधार 
    लोप + आमुद्रा = लोपामुद्रा 
    वज्र + आघात = वज्राघात 
    स + आश्चर्य = साश्चर्य 
    साहित्य +आचार्य = साहित्याचार्य 
    सिंह + आसन = सिंहासन 
    ________________
    ( आ + अ   = आ )
    विद्या + अर्थी  =  विद्यार्थी    
    भाषा + अन्तर = भाषान्तर 
    रेखा + अंकित = रेखांकित 
    रेखा + अंश = रेखांश 
    लेखा + अधिकारी = लेखाधिकारी 
    विद्या +अर्थी = विद्यार्थी 
    शिक्षा +अर्थी = शिक्षार्थी 
    सभा + अध्यक्ष = सभाध्यक्ष 
    सीमा + अन्त = सीमान्त 
    आशा + अतीत = आशातीत 
    कृपा + आचार्य = कृपाचार्य 
    कृपा + आकाँक्षी = कृपाकाँक्षी 
    तथा + आगत = तथागत 
    महा + आत्मा = महात्मा 
    ___________________
    ( आ + आ  = आ ) 
    मदिरा + आलय  = मदिरालय 
    महा + आशय = महाशय 
    महा +आत्मा = महात्मा 
    राजा + आज्ञा = राजाज्ञा 
    लीला+ आगार = लीलागार 
    वार्ता +आलाप = वार्तालाप 
    विद्या +आलय = विद्यालय 
    शिला + आसन = शिलासन 
    शिक्षा + आलय = शिक्षालय 
    क्षुधा + आतुर = क्षुधातुर 
    क्षुधा +आर्त = क्षुधार्त 
    _______________________
     ( इ + इ  = ई  ) 
    कवि + इन्द्र  = कवीन्द्र
    मुनि + इंद्र  = मुनींद्र  
    रवि + इंद्र = रवींद्र   
    अति + इव = अतीव  
    अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय 
    गिरि +  इंद्र = गिरीन्द्र
    प्रति + इति = प्रतीत 
    हरि  + इच्छा = हरीच्छा 
    फणि + इन्द्र  = फणीन्द्र 
    यति + इंद्र = यतीन्द्र 
    अति + इत  = अतीत 
    अभि + इष्ट = अभीष्ट 
    प्रति + इति = प्रतीति 
    प्रति + इष्ट = प्रतीष्ट
    प्रति + इह = प्रतीह    
    ___________________ 
     ( इ  + ई  = ई ) 
    गिरि + ईश  = गिरीश   
    मुनि + ईश  = मुनीश 
    रवि + ईश  = रवीश 
    हरि + ईश = हरीश 
    कपि+ ईश = कपीश 
    कवी + ईश = कवीश 
    ________________________
     ( ई + ई  = ई ) 
    सती + ईश  = सतीश             
    मही + ईश्वर  = महीश्वर  
    रजनी + ईश = रजनीश 
    ________________________
    ( ई + इ  = ई ) 
    मही + इंद्र   = महीन्द्र   
    ___________________
    ( उ + उ  = ऊ )         
    गुरु + उपदेश = गुरूपदेश      
    भानु + उदय  = भानूदय  
    विधु + उदय = विधूदय  
    सु + उक्ति = सूक्ति 
    लघु + उत्तरीय = लघूत्तरीय   
    ____________________
      उ  +  = ऊ )
    लघु + ऊर्मि = लघूर्मि   
    __________
    ( ऊ + उ = ऊ )
    वधू  + उत्सव = वधूत्सव  
    ____________
     ( ऊ + ऊ = ऊ )   
    भू  + ऊर्जा  = भूर्जा            
    भू + ऊर्ध्व  = भूर्ध्व 
     ( ऋ + ऋ = ऋृ ) 
    पितृ + ऋण  = पितृण  
    मातृ + ऋण  = मातृण  ।
    ________________________________

    गुण_सन्धि:

    सूत्र- अदेङ् गुणः ( 1/1/2 )

    सूत्रार्थ—यह सूत्र गुण संज्ञा करने वाला सूत्र है । यह सूत्र गुण संज्ञक वर्णों को बताता है ।

    (अत् एङ् च गुणसञ्ज्ञः स्यात्)

    ह्रस्व अकार और एङ् ( अ, ए, ओ ) वर्ण  गुण संज्ञक वर्ण है।

    व्याख्या :-अ या आ के साथ इ या ई के मेल से ‘ए’ , अ या आ के साथ उ या ऊ के मेल से ‘ओ’ तथा अ या आ के साथ ऋ के मेल से ‘अर्’ बनता है ।
    यथा :–
    १.अ/आ + इ/ई = ए
    सुर + इन्द्र: = सुरेन्द्र: ,तरुण+ईशः= तरुणेश:
    रामा +ईशः = रमेशः ,स्व + इच्छा = स्वेच्छा,
    नेति = न + इति, भारतेन्दु:= भारत + इन्दु:
    नर + ईश: = नरेश: , सर्व + ईक्षण: = सर्वेक्षण:
    प्रेक्षा = प्र + ईक्षा ,महा + इन्द्र: = महेन्द्र:
    यथा +इच्छा = यथेच्छा ,राजेन्द्र: = राजा + इन्द्र:
    यथेष्ट = यथा + इष्ट:, राका + ईश: = राकेश:
    द्वारका +ईश: = द्वारकेश:, रमेश: = रमा + ईश:
    मिथिलेश: = मिथिला + ईश:।

    _________
    २.अ/आ + उ/ऊ = ओ
    पर+उपकार: = परोपकारः, सूर्य + उदय: = सूर्योदय:
    प्रोज्ज्वल: = प्र + उज्ज्वल: ,
    सोदाहरण: = स +उदाहरण:
    अन्त्योदय: = अन्त्य + उदय: ,जल + ऊर्मि: = जलोर्मि:
    समुद्रोर्मि: = समुद्र + ऊर्मि:, जलोर्जा = जल + ऊर्जा
    महा + उदय:= महोदय: ,यथा+उचित = यथोचित:
    शारदोपासक: = शारदा + उपासक:
    महोत्सव: = महा + उत्सव:
    गंगा + ऊर्मि: = गंगोर्मि: ,महोरू: = महा + ऊरू:।

    ________
    ३.अ /आ + ऋ = अर्
    देव + ऋषि: = देवर्षि: ,शीत + ऋतु: = शीतर्तु:
    सप्तर्षि: = सप्त + ऋषि: ,उत्तमर्ण:= उत्तम + ऋण:
    महा + ऋषि: = महर्षि: ,राजर्षि: = राजा + ऋषि: आदि 

    प्रश्न - गुण स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।  

    उत्तर -  यदि  'अ'  या 'आ' के बाद 'इ' या 'ई'   'उ' या 'ऊ'  और ऋ आए तो दोनों मिलकर क्रमशः 'ए' 'ओ'  और अर  हो जाता है । इस मेल को गुण स्वर संधि कहते हैं । 

    अ + इ = ए
     +  = ओ
      + इ = ए
      +   = 
    अ + ई = ए
     + = अर 
     + ई = ए
     +  = अर्
     +  = ओ


    गुण स्वर संधि के नियम
    जैसे -
    ( अ  + इ = ए ) 
    देव + इन्द्र  = देवेन्द्र   
    सुर + इंद्र = सुरेंद्र 
    भुजग + इन्द्र  = भुजगेन्द्र 
    बाल + इंद्र = बालेन्द्र
    मृग + इंद्र = मृगेंद्र 
    योग + इंद्र = योगेंद्र 
    राघव +इंद्र  = राघवेंद्र 
    विजय + इच्छा = विजयेच्छा 
    शिव + इंद्र = शिवेंद्र 
    वीर + इन्द्र = वीरेन्द्र 
    शुभ + इच्छा = शुभेच्छा 
    ज्ञान + इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रिय 
    खग + ईश = खगेश 
    खग = इंद्र = खगेन्द्र 
    गज + इंद्र = गजेंद्र 

    ( आ  + इ = ए ) 
    महा + इंद्र = महेंद्र 
    यथा + इष्ट  = यथेष्ट 
    रमा + इंद्र = रमेंद्र 
     राजा + इंद्र = राजेंद्र 

    ( अ + ई  = ए ) 
    गण + ईश  = गणेश         
    ब्रज + ईश = ब्रजेश  
    भव + ईश  = भवेश
    भुवन + ईश्वर  = भुवनेश्वर 
    भूत + ईश = भूतेश 
    भूत + ईश्वर  = भूतेश्वर 
    रमा + ईश  = रमेश 
    राम + ईश्वर = रामेश्वर 
    लोक +ईश = लोकेश 
    वाम + ईश्वर = वामेश्वर 
    सर्व + ईश्वर = सर्वेश्वर 
    सुर + ईश = सुरेश
    ज्ञान + ईश =ज्ञानेश 
    ज्ञान+ईश्वर = ज्ञानेश्वर 
    उप + ईच्छा = उपेक्षा 
    एक + ईश्वर = एकेश्वर 
    कमल +ईश = कमलेश  

    ( आ + ई  = ए ) 
    महा + ईश  = महेश 
    रमा + ईश  = रमेश  
    राका + ईश = राकेश  
    लंका + ईश्वर = लंकेश्वर 
    उमा = ईश = उमेश     
       
    ( अ + उ = ओ )
    वीर + उचित = वीरोचित 
    भाग्य + उदय = भाग्योदय   
    मद + उन्मत्त  = मदोन्मत्त 
    सूर्य + उदय  = सूर्योदय  
    फल + उदय  = फलोदय   
    फेन + उज्ज्वल  = फेनोज्ज्वल 
    यज्ञ +  उपवीत  = यज्ञोपवीत 
    लोक + उक्ति = लोकोक्ति 
    लुप्त + उपमा = लुप्तोपमा  
     लोक+उत्तर = लोकोत्तर  
    वन + उत्सव = वनोत्सव 
    वसंत +उत्सव = वसंतोत्सव 
    विकास + उन्मुख = विकासोन्मुख 
    विचार + उचित = विचारोचित 
    षोड्श + उपचार = षोड्शोपचार 
    सर्व + उच्च = सर्वोच्च 
    सर्व + उदय = सर्वोदय 
    सर्व + उत्तम = सर्वोत्तम 
    हर्ष + उल्लास = हर्षोल्लास 
    हित + उपदेश = हितोपदेश
    आत्म +उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग 
    आनन्द + उत्सव = आनन्दोत्सव 
    गंगा + उदक = गंगोदक  

    ( अ  + ऊ  = ओ )
    समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि 
    ( आ  + ऊ  = ओ )
    गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि 

    ( आ + उ = ओ )
    महा + उत्सव  = महोत्सव 
    महा + उदय = महोदय 
    महा = उपदेश = महोपदेश 
    यथा + उचित  = यथोचित 
    लम्बा + उदर = लम्बोदर 
    विद्या + उपार्जन = विद्योपार्जन  

    ( अ + ऋ = अर् ) 
    देव + ऋषि  = देवर्षि        
    ब्रह्म +  ऋषि = ब्रह्मर्षि 
    सप्त + ऋषि = सप्तर्षि 

     ( आ + ऋ = अर् ) 
    महा + ऋषि  = महर्षि 
    राजा + ऋषि  = राजर्षि    ।
    ________________

    वृद्धिरेचि-वृद्धि_स्वर_सन्धि

    वृद्धि हो जाती है  आत् ( अ'आ) के  बाद ऐच् (एऐओऔ) से परे अच् ( स्वर) होने पर।
    अर्थात् आ, ऐ, और औ वर्ण वृद्धि संज्ञक वर्ण है ।
    _____

    वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच्  अचि।


     वृद्धि_स्वर_संधि*
    सूत्र :- (वृद्धिरेचि) ।
    वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच्  अचि।
    वृद्धि हो जाती है  आत् ( अ'आ) के  बाद ऐच् (एऐओऔ) से परे अच् ( स्वर) होने पर।
    अर्थात् आ, ऐ, और औ वर्ण वृद्धि संज्ञक वर्ण है ।

    व्याख्या :- अ या आ के परे यदि ए या ऐ रहे तो (ऐ) और ओ या औ रहे तो (औ) हो जाता है।
    १.अ/आ + ए/ऐ =ऐ
    २.अ/आ + ओ/औ = औ
    यथा :-
    अद्यैव = अद्य + एव
    मतैक्यम्= मत + ऐक्यम्
    पुत्रैषणा = पुत्र + एषणा
    सदैव =सदा + एव
    तदैव=तदा+एव
    वसुधैव= वसुधा + एव
    एकैक:= एक + एक:
    महैश्वर्यम्= महा + ऐश्वर्यम्
    गंगौघ:= गंगा + ओघ:
    महौषधि:= महा +औषधि:
    महौजः = महा +ओजः *आदि* ।

    प्रश्न - वृद्धि स्वर सन्धि  किसे कहते  हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 

    उत्तर- यदि 'अ' या 'आ' के बाद 'ए' या 'ऐ' रहे तो 'ऐ'  एवं  'ओ' और 'औ' रहे तो 'औ' बन जाता है ।  इसे वृध्दि स्वर सन्धि कहते हैं ।  जैसे -

     + ए  = ऐ
     +  = 
     +   = ऐ
     +   = ऐ
      + ओ = औ
     + ओ = औ
     + औ = औ
     + औ = औ

    वृद्धि स्वर संधि के नियम
    ( अ + ए  = ऐ ) 
    एक + एक  =  एकैक   
    ( अ + ऐ = ऐ )      
    मत + ऐक्य  = मतैक्य 
    हित + ऐषी = हितैषी 
     ( आ + ए  = ऐ ) 
    तथा + एव  = तथैव         
    सदा  + एव  = सदैव 
    वसुधा +एव = वसुधैव   
    ( आ + ऐ  = ऐ )       
    महा + ऐश्वर्य  = महैश्वर्य  
    ( अ  + ओ = औ ) 
    दन्त + ओष्ठ = दँतौष्ठ 
    वन + ओषधि = वनौषधि
    परम + ओषधि = परमौषधि   
    ( आ + ओ = औ )   
    महा + ओषधि  = महौषधि  
    गंगा + ओध = गंगौध 
    महा + ओज  = महौज 
    ( आ + औ = औ ) 
    महा + औषध   = महौषध   ।

    _________   
    यण_संधि 
    3- सम्प्रसारण संज्ञा 
    सूत्र—इग्यणः सम्प्रसारणम् ( 1/1/45 )
    सूत्रार्थ—यण् का अर्थात् य,र,ल,व के स्थान पर इक् अर्थात् इ,उ,ऋ,लृ हो जाना सम्प्रसारण कहलाता है ।

    जहाँ-जहाँ भी सम्प्रसारण का उच्चारण हो , वहाँ-वहाँ यण् के स्थान पर इक् होना समझा जाय।

    उदाहरण— वच् धातु   में 'व'  वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।
     (वच्+रक्त= उक्त)
     (यज् + क्त =  इष्ट)
     (वह् + क्त= ऊढ़)

    उदाहरण— वच् धातु   में 'व'  वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।

     (यज्+क्त=इष्ट)

    (वच्+रक्त= उक्त)

     (वह् + क्त= ऊढ़)

    वह-प्रापणे ज्ञानार्थत्वात्  कर्त्तरि क्त (वह् +क्त)


    *सूत्र:- इको_यणचि।*
    *इक्- इ, उ ,ऋ ,लृ*
    | | | |
    *यण्- य, व ,र , ल*
    *व्यख्या:-*
    (क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ /ई का ‘य्’ हो जाता है।
    #यथा:-
    यदि + अपि = यद्यपि,
    इति + आदि:= इत्यादि:
    प्रति +एकम् = प्रत्येकं 
    नदी + अर्पणम् = नद्यर्पणम्
    वि + आसः = व्यासः
    देवी + आगमनम् = देव्यागमनम्।
    (ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ/ ऊ का ‘व्’ हो जाता है।
    यथा:-
    अनु + अय:= अन्वय:
    सु + आगतम् = स्वागतम्
    अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
    (ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ का ‘र्’ हो जाता है।
    यथा:-
    मातृ+आदेशः = मात्रादेशः
    पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
    धातृ + अंशः = धात्रंशः
    (घ) लृ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर लृ का 'ल'हो जाता है ।
    यथा:- लृ +आकृति:=लाकृतिः *आदि।*

    प्रश्न - यण  स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 

    उत्तर - यदि 'इ' या 'ई', 'उ' या 'ऊ'  और ऋ के बाद कोई भिन्न स्वर आये तो 'इ' और 'ई' का 'य' , 'उ' और 'ऊ' का 'व'  तथा ऋ का 'र' हो जाता है । इसे यण स्वर संधि कहते हैं । 

     +  = य
     +  = या
     +   = ये
     +   = यु
     +  = या
     +   = यू 
      +    = यै
     + अ  = 
    उ + आ  = वा
     + आ  = वा
     + ई   = वी 
     + इ    = वि
       +     = वे
      +    = वै 
      +   = 
     +  = रा
      + इ   = रि


    यण स्वर संधि के कुछ नियम
    जैसे -
    ( इ + अ = य )
    यदि + अपि = यद्यपि 
    वि +अर्थ = व्यर्थ 
    आदि + अन्त = आद्यंत 
    अति +अन्त = अत्यन्त 
    अति + अधिक = अत्यधिक 
    अभि + अभागत = अभ्यागत 
    गति + अवरोध = गत्यवरोध 
    ध्वनि + अर्थ = ध्वन्यर्थ 
    ( इ + ए  = ये )  
    प्रति + एक  = प्रत्येक 
    (इ +आ = या  )         
    अति + आवश्यक  = अत्यावश्यक 
    वि + आपक = व्यापक   
    वि + आप्त = व्याप्त
    वि+आकुल = व्याकुल 
    वि+आयाम = व्यायाम 
    वि + आधि  = व्याधि 
    वि+ आघात = व्याघात 
    अति +आचार = अत्याचार  
    इति + आदि = इत्यादि 
    गति + आत्मकता  = गत्यात्मकता 
    ध्वनि + आत्मक = ध्वन्यात्मक 
    (ई +आ = या  ) 
    सखी + आगमन = सख्यागमन      
     ( इ + उ  = यु  ) 
    अति + उत्तम  = अत्युत्तम 
    वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
    अभि + उदय = अभ्युदय 
    ऊपरि + उक्त = उपर्युक्त 
    प्रति + उत्तर = प्रत्युत्तर  
     ( इ + ऊ  = यू  )  
    वि + ऊह = व्यूह  
    नि + ऊन = न्यून 
     ( ई  + ऐ   = यै ) 
    देवी + ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य    
    ( उ + अ  = व ) 
    अनु + अव  = अन्वय  
    मनु + अन्तर  = मन्वन्तर   
    सु + अल्प = स्वल्प 
    सु + अच्छ = स्वच्छ          
     ( उ + आ  = वा ) 
    सु   + आगत   = स्वागत       
    मधु + आचार्य  = मध्वाचार्य 
    मधु + आसव  = मध्वासव 
    लघु + आहार = लघ्वाहार 
    ( उ + इ    = वि ) 
    अनु + इति  = अन्विति 
    ( उ + ई   = वी  ) 
    अनु + वीक्षण = अनुवीक्षण 
     ( ऊ + आ  = वा ) 
    वधू +आगमन = वध्वागमन
     ( उ   + ए    = वे ) 
    अनु + एषण = अन्वेषण 
     ( ऊ  + ऐ   = वै ) 
    वधू +ऐश्वर्य = वध्वैश्वर्य 
    ( ऋ  + अ  = र ) 
    पितृ +अनुमति = पित्रनुमति 
    ( ऋ  + आ  = रा ) 
    मातृ  + आनंद  = मात्रानन्द 
    मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा  
     ( ऋ  + इ   = रि ) 
    मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा  ।

    ______ 

    अयादि सन्धि -अयादि_सन्धि: -

    सूत्र:-एचोऽयवायावः।

    व्याख्या:-*ए, ऐ, ओ, औ के परे अन्य किसी स्वर के मेल पर ‘ए’ के स्थान पर ‘अय्’; ‘ऐ’ के स्थान
    पर ‘आय्’; ओ के स्थान पर ‘अव्’ तथा ‘औ’ के स्थान पर ‘आव्’ हो जाता है ।
    ___________________
    ए ऐ ओ औ।
    | | | |
    अय् आय् अव् आव्
    ____________________

             -🌿★-🌿 


    🌿 *उदाहरणानि :-*
    शे + अनम् = शयनम् - (ए + अ = अय् +अ)
    ने + अनम् = नयनम् - (ए + अ = अय्+अ)
    चे + अनम् = चयनम् - (ए + अ = अय्अ)
    शे + आनम् = शयानम् - (ए + आ = अय्अ)
    नै + अक: = नायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
    गै + अक: = गायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
    गै + इका = गायिका - (ऐ + इ = आय्अ)
    पो + अनम् = पवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
    भो + अनम् =भवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
    पो + इत्र: = पवित्रः - ( ओ + इ = अव्इ)
    पौ + अक: = पावक: - (औ + अ = आव्अ)
    शौ + अक: = शावक: - (औ + अ = आव्अ)
    भौ + उक: = भावुकः - (औ +उ= आव् उ)
    धौ + अक: = धावक: - (औ + अ = आव्अ)
    आदि ।

    प्रश्न - अयादि संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए । 

    उत्तर - यदि 'ए' 'ऐ' 'ओ' 'औ' के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो 'ए' का 'अय्', 'ऐ' का 'आय्' , 'ओ' का अव्  तथा 'औ' का 'आव्' हो जाता है । इस परिवर्तन को अयादि सन्धि कहते हैं । 

       + अ  = अय्
     + अ = आय् 
      + इ   = आयि
    ओ  + अ  = अव् 
      + इ  = अव्
     + ई  = अवी
     + अ  = आव्
     + इ   = आवि
     + उ  = आवु


    अयादि स्वर संधि के कुछ नियम
    जैसे - 
    ( ए  + अ  =अय) 
    ने + अन  =  नयन 
    शे +अन = शयन   
    ( ऐ  + अ  = आय )       
    नै  + अक  = नायक  
    शै +अक = शायक 
    गै + अक = गायक 
    गै + अन = गायन  
     ( ऐ  + इ   = आयि  ) 
    नै + इका = नायिका 
    गै + इका = गायिका      
    ( ओ  + अ  = अव ) 
    पो + अन   = पवन          
    भो + अन = भवन 
    श्रो + अन = श्रवण 
    भो + अति = भवति 
    ( ओ  + इ  = अव ) 
    पो + इत्र = पवित्र  
    ( ओ + ई  = अवी  ) 
    गो  + ईश  = गवीश 
    ( औ + अ  = आव ) 
    सौ  + अन   =  सावन      
    रौ + अन = रावण 
    सौ + अक = शावक 
    श्रौ अन = श्रावण 
    धौ + अक = धावक 
    पौ + अक = पावक 
    पौ + अन = पावन
    शौ + अक = शावक 
    ( औ + इ   = आवि ) 
    नौ + इक = नाविक 
    ( औ + उ  = आवु ) 
    भौ + उक = भावुक 

    _______________________________________

    पूर्वरूप सन्धि — एङ: पदान्तादति)- संस्कृत व्याकरणम्

    पूर्वरूप सन्धि का सूत्र -(एङ पदान्तादति) होता है। यह  स्वर संधि के भागो में से एक है। 

    सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है 

      नियम-

    नियम - पद( क्रिया पद आख्यातिक) अथवा नामिकपद के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं; वह लग जाता है ।

    पूर्वरूप  संधि के उदाहरण

    • ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
    • ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
    • ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम् 
    • ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र

    (यह सन्धि आयदि सन्धि का अपवाद भी होती है)।
    क्योंकि यहाँ केवल पदान्तों की सन्धि का विधान है    जबकि अयादि में धातु अथवा उपसर्ग आदि अपद रूपों के अन्त में अयादि सन्धि का विधान है ।

     नामिकपदरूप- बालके+ सर्वनामपदरूप-अस्मिन् =बालकेऽस्मिन्
    जबकि निम्न सन्धियों में अपद(धातु और प्रत्यय रूप होने से पूर्व रूप सन्धि नहीं हुई है।        
    धातु रूप -ने  + प्रत्यय रूप-अनम् =नयनम्
    धातु रूप -सौ  + प्रत्यय रूप- अन्   = सावन      
    धातु रूप -रौ +  प्रत्यय रूप- अन् = रावण 
    धातु रूप - सौ +प्रत्यय रूप- अक: = शावक: 
    धातु रूप - श्रौ प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण 
    धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप-  अक: = धावक: 
    धातु रूप - पौ +  प्रत्यय रूप- अक := पावक: 
    धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप-  अन् = पावन
    धातु रूप -शौ +. प्रत्यय रूप- अक: = शावक: 
    __________
    यदि यहाँ पदों की सन्धि नहीं होती तो पूर्वरूप का विधान ही होगा। क्यों कि 'धातु और 'प्रत्यय अथवा उपसर्ग पद नहीं होते हैं । विशेषत: सन्धि का आधार पूर्व पद ही है क्यों कि -
    _________________

     यहाँ दोनों पद हैं ।

    १-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।
    =तावागच्छताम् 
    ______________________________

    २-बालको + अवदत् -बालक बोला।

    =बालकोऽवदत् 

    _________
    ★-स:+अथ।
    सोऽथ -वह अब।
    ★-सोऽहम्-वह  मैं हूँ।
    पूर्वरूप सन्धि केवल पदान्त में  'एकार अथवा 'ओकार होने पर ही होती है । अन्यथा नहीं -
    _________

    विशेष -धातुओं से ल्युट् प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसका ‘यु’ भाग शेष रह है तथा ‘ल’ और ‘ट्’ का लोप हो जाता है। ‘यु’ के स्थान पर ‘अन’ आदेश हो जाता है। ‘अन’ ही धातुओं के साथ जुड़ता है। (कृत् प्रत्यय) ल्युट् – प्रत्ययान्त शब्द’ प्रायः नपुंसकलिङ्ग में होते हैं
    __________

    पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।


    हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।

    सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है


    सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है 

    _______________________________________________

    पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--

    पररूप संधि का सूत्र" एडि पररूपम् "होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है। संस्कृत में स्वर संधियां आठ प्रकार की होती है। दीर्घ संधि, गुण संधि, वृद्धि संधि, यण् संधि, अयादि संधि, पूर्वरूप संधि, पररूप संधि, प्रकृति भाव संधि।
    इस पृष्ठ पर हम पररूप संधि का विश्लेषण करेंगे !

    पररूप संधि के नियम

    नियम -  यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से  क्रिया के आदि में होता  है। 

    पररूप संधि के उदाहरण

    • प्र + एजते = प्रेजते 
    • उप + एषते = उपेषते 
    • परा + ओहति = परोहति 
    • प्र + ओषति = प्रोषति 
    • उप + एहि = उपेहि

    यह संधि -वृद्धि संधि का अपवाद भी होती है।
    क्योंकि यहाँ पूर्व पद में उपसर्ग और उत्तर पद में क्रियापद होता है ।

    जबकि वृद्धि सन्धि में केवल प्र उपसर्ग के पश्चात ऋच्छति = में (प्र+ऋ) प्रार्च्छति।  उप+ ऋ)-उपार्च्छति यहाँ पर रूप सन्धि का पूर्व पद उपसर्ग होते हुए भी वृद्धि सन्धि हो जाती है ।

    पर रूप सन्धि केवल अकारान्त उपसर्ग होने पर केवल ए-आदि अथवा ओ-आदि क्रिया पदों में ही होती है । अन्यथा वृद्धि सन्धि होगी।
     जैसे प्र+एजते= प्रेजते। उप +ओषति=उपोषति। आदि रूप में पर रूप सन्धि ही है ।
    मम+एव=ममैव। (प्र+ऋच्छति)= प्रार्च्छति।

    जबकि पूर्वरूप सन्धि का विधान अपदान्त रूपों में ही होता है । और वह भी दो ह्रस्व अ' स्वरों के मध्य में विसर्ग (:) आने पर पूर्व स्वर को ओ' और पश्चात्‌ 
    (ऽ) ये प्रश्लेष चिन्ह लगता है ।
    _______________

     प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-

    . प्रकृति भाव सन्धि –

    सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)

    ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।

    • मुनी + इमौ = मुनीइमौ
    • कवी + आगतौ = कवीआगतौ
    • लते + इमे = लतेइमे
    • विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
    • अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
    • कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
    • नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
    • वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः


    1. स्वर संधि - अच् संधि
      1. दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
      2. गुण संधि - आद्गुण:
      3. वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि
      4. यण् संधि - इकोऽयणचि
      5. अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
      6. पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
      7. पररूप संधि - एडि पररूपम्
      8. प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्
    _____________________

    💐वृत्ति अनचि च  8|4|47


    यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-

     💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।

      💐- कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।


    सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108

    सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्


    _____________________________
    सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
    अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)
    अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
    सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
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    सूत्रच्छेदःअनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)
    अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)
    अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
    सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
    सूत्रार्थः
    अचः परस्य यरः अनचि परे विकल्पेन द्वित्वं भवति ।

    "अनच्" इत्युक्ते "न अच्" । स्वरात् परस्य यर्-वर्णस्य अग्रे स्वरः नास्ति चेत् विकल्पेन द्वित्वं भवति इत्यर्थः । यथा -👇

    वृत्ति:-अच: परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वम्।
    अर्थ:- अच् से परे
    ______
    यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है- परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।

    (1) "कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।

    2) "मति + अत्र" अस्मिन् यण्-सन्धौ इकारस्य यणादेशे कृते "मत्य् + अत्र" इति स्थिते अनेन सूत्रेण तकारस्य विकल्पेन द्वित्वं कृत्वा "मत्यत्र, मत्त्यत्र" एते द्वे रूपे सिद्ध्यतः ।

    अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम् 


    यणो मयो द्वे वाच्ये । अस्य वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -
    अ) (यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - यण्-वर्णात् परस्य मय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - उल्क्का, वाल्म्मिकी ।

    (ब) (यणः इति षष्ठी , मयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - मय्-वर्णात् परस्य यण्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - दध्य्यत्र, मध्व्वत्र ।

    (2) शरः खयः द्वे वाच्ये । अस्यापि वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -
    अ) (शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - शर्-वर्णात् परस्य खय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - स्थ्थाली, स्थ्थाता ।
    ब) (शरः इति षष्ठी , खयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - खय्-वर्णात् परस्य शर्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - क्ष्षीरम्, अप्स्सरा ।

    अवसाने च - अवसाने परे हल्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वम् भवति । यथा - रामात्, रामात्त् ।

    ज्ञातव्यम् -
    1. अस्मिन् सूत्रे निर्दिष्टः स्थानी "यर्" वर्णः अस्ति । यर्-प्रत्याहारे हकारम् विहाय अन्यानि सर्वाणि व्यञ्जनानि समावेश्यन्ते । अतः हकारस्य अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।

    2. यर्-प्रत्याहारे वस्तुतः रेफः समाविष्टः अस्ति, परन्तु अचो रहाभ्यां द्वे 8|4|46 अचः परः रेफः आगच्छति चेत् तस्मात् परस्य यर्-वर्णस्य द्वित्वं भवति । अतः अचः परस्य रेफस्य अपि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।
    3. एकस्य वर्णस्य स्थाने यदा वर्णद्वयं विधीयते, तदा द्वित्वं भवति इति उच्यते । तत्र कोऽपि वर्णः "पूर्ववर्णः" तथा कोऽपि वर्णः "अनन्तरम् आगतः" नास्ति । अतः द्वित्वे कृते "नूतनरूपेण प्रवर्तितः वर्णः कः" तथा "पूर्वं विद्यमानः वर्णः कः" इति प्रश्नः एव अयुक्तः अस्ति । द्वित्व

    4. "कृष्ष्ण" इत्यत्र पुनः अनचि च 8|4|47 इत्यनेन षकारस्य द्वित्वं कर्तुम् शक्यते वा? एवं कुर्मश्चेत् अनन्तकालयावत् द्वित्त्वमेव भवेत् इति दोषः उद्भवति । अस्य परिहारार्थम् लक्ष्ये लक्षं सकृदेव प्रवर्तते

    अस्याः परिभाषायाः प्रयोगः क्रियते । "लक्ष्य" इत्युक्ते स्थानी । "लक्ष" इत्युक्ते सूत्रम् । "सकृतम्" इत्युक्ते एकवारम् । अतः अनया परिभाषया एतत् ज्ञायते, यत् एकस्मिन् स्थले (इत्युक्ते एकस्य स्थानिनः विषये) कस्यचन सूत्रस्य एकवारमेव प्रयोगः भवितुम् अर्हति । अतःअनचि च 8|4|47 इत्यनेन एकवारं द्वित्वं भवति चेत् पुनः तस्मिन् एव स्थानिनि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न भवति ।

    काशिकावृत्तिः
    अचः इति वर्तते, यरः इति च। अनच्परस्य अच उत्तरस्य यरो द्वे वा भवतः। दद्ध्यत्र। मद्ध्वत्र। अचः इत्येव, स्मितम्। ध्मातम्।

    यणो मयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। केचिदत्र यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति व्याचक्षते। तेषाम् उल्क्का, वल्म्मीकः इत्युदाहरणम्। अपरे तु मयः इति पञ्चमी, यणः इति षष्ठी इति। तेषाम् दध्य्यत्र, मध्व्वत्र इत्युदाहरणम्। शरः खयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। अत्र अपि यदि शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी, तदा स्त्थाली, स्त्थाता इति उदाहरणम्। अथवा खय उत्तरस्य शरो द्वे भवतः। वत्स्सः। इक्ष्षुः। क्ष्षीरम्। अप्स्सराः। अवसाने च यरो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क, वाक्। त्वक्क्, त्वक्। षट्ट्, षट्। तत्त्, तत्।

    अचः परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वेन सुध्ध्य् उपास्य इति जाते॥
    महाभाष्यम्
    अनचि च ।। द्विर्वचने यणो मयः।। द्विर्वचने यणो मय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदि यण इति पञ्चमी मय इति षष्ठी उल्क्का वल्म्मीकमित्युदाहरणम्।। अथ मय इति पञ्चमी यण इति षष्ठी दध्य्यत्र मध्व्यत्रेत्युदाहरणम्?।।शरःखयः।। शरःखय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदिशर इति पञ्जमीखयःथ्द्य;ति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्जमी शर इति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्चमी शर इति षष्ठी, वत्स्स(र)ः क्ष्षीरम् अपस्सरा इत्युदाहरणम्। ।। अवसाने च।। अवसाने च द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क्। वाक्। त्वक्क् त्वक्। स्रुक्क्स्रुक्।। तत्तर्हि वक्तव्यम्?।। न वक्तव्यम्

      नायं प्रसज्यप्रतिषेधः-अचि नेति।। किं तर्हि?।। पर्युदासोऽयं यदन्यदच इति।।

    सूत्रच्छेदःवान्तः (प्रथमैकवचनम्) , यि (सप्तम्येकवचनम्) , प्रत्यये (सप्तम्येकवचनम्)
    अनुवृत्तिःएचः  6|1|78 (षष्ठ्येकवचनम्)
    अधिकारःसंहितायाम्  6|1|72
    _______________________
    💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचो८यवायावो वान्तो यि प्रत्यय"

     💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"

    सम्पूर्णसूत्रम् एचोयवायावो यि-प्रत्यये वान्तः
    संहियाताम्
     

     वृत्ति—


     :-यकारादौ प्रत्यये परे ओदौतोरव् आव् एतौ स्त:। गत्यम् ।नाव्यम् ।
    ________       

     अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।

    जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्


    सूत्रार्थः-

    ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।
    अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर ओ औ के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
    जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
    सूत्रार्थः-
    ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।
    ______
    अस्मिन् सूत्रे यद्यपि "एच्" इत्यस्य अनुवृत्तिः क्रियते, तथापि आदेशः "वान्तः" (= वकारान्तः) अस्ति, अतः केवलं ओकार-औकारयोः विषये एव अस्य सूत्रस्य प्रयोगः भवति ।

    यदि ओकारात् / औकारात् परः यकारादि-प्रत्ययः आगच्छति, तर्हि ओकारस्य स्थाने अव्-आदेशः तथा औकारस्य स्थाने आव्-आदेशः विधीयते ।

     यथा -

    👇


    (1) गो + यत् [गोपसोर्यत् 4|3|160 इत्यनेन यत्-प्रत्ययः]
    → गव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]
    → गव्य

    (2) नौ + यत् [नौवयोधर्मविषमूल... 4|4|91 इति यत्-प्रत्ययः]
    → नाव् + यत् [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति औकारस्य आव्-आदेशः]
    → नाव्य

    (3) बभ्रु + यञ् [मधुबभ्र्वोर्ब्राह्मणकौशिकयोः 4|1|106 इति यञ्-प्रत्ययः]
    → बाभ्रु + यञ् [तद्धितेष्वचामादेः 7|2|117 इति आदिवृद्धिः ]
    → बाभ्रो + यञ् [ओर्गुणः 6|4|146 इत्यनेन गुणः]
    → बाभ्रव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]
    → बाभ्रव्य

    अत्र वार्तिकद्वयं ज्ञातव्यम् । एतौ द्वौ अपि वार्तिकौ "यूति" शब्दस्य विषये वदतः । "यूति" इति शब्दः ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च 3|3|97 अनेन सूत्रेण निपात्यते । यद्यपि अयं शब्दः प्रत्ययः नास्ति, "गो + यूति" इत्यत्र कासुचन स्थितिषु गो-शब्दस्य ओकारस्य अवादेशं कृत्वा "गव्यूति" इति रूपं सिद्ध्यति । अस्यैव विषये एते द्वे वार्तिके वदतः -

    1. गोर्यूतौ छन्द स्युपसङ्ख्यानम् । इत्युक्ते, वेदेषु "यूति"-शब्दे परे गो-शब्दस्य ओकारस्य स्थाने अव्-इति वान्तादेशः भवति । यथा - "आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम्" (ऋग्वेदः - 3.62.16) - अत्र "गव्यूति" इति शब्दः प्रयुक्तः अस्ति । अत्र गव्यूति इत्युक्ते गावः यस्मिन् भूमौ चरन्ति सा ।

    2. अध्वपरिमाणे च । इत्युक्ते, मार्गपरिमाणम् (= अन्तरस्य गणना) दर्शयितुम् "गो + युति" इत्यस्य लौकिकसंस्कते अपि वान्तादेशः क्रियते । यथा - "गव्यूतिमात्रम् अध्वानं गतः" (सः केवलं "एकगव्युति" अन्तरं गतवान् - इत्यर्थः । अद्यतनपरिमाणे 4 गव्युतिः = 1 योजनम् = 9.09 miles = 14.6 Km).

    ज्ञातव्यम् - "गो + युति" इत्यत्र ओकारस्य अव्-आदेशे कृते लोपः शाकल्यस्य 8|3|19 इत्यनेन प्राप्तः वैकल्पिकः यकारलोपः न भवति । (अस्मिन् विषये भाष्ये किमपि उक्तम् नास्ति । कौमुद्यां दीक्षितः प्रश्लेषस्य आधारं स्वीकृत्य अस्य स्पष्टीकरणं दातुम् प्रयतते । परन्तु अस्मिन् विषये शास्त्रे भिन्नानि मतानि सन्ति ।)
    _____________ 
    An ओकार and an औकार are respectively converted to अव् and आव् when followed by a यकारादि प्रत्यय.
    काशिकावृत्तिः

    अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम् ।। वार्तिक अक्षौहिणी सैना –
    अक्ष शब्द के अन्तिम "अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि का आदेश हो जाता है- ।
    तब रूप बनेगा अक्ष+ ऊहिनी =अक्षौहिणी ।


    वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।

    अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -
    गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।
    द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

    💐↔"। वान्तो यि प्रत्यय"

    अर्थात्:- यकारादि प्रत्यय परे होने पर 'ओ' औ' के स्थान पर क्रमश:अव् और आव् हो जाता है।

    नो + यम् =नाव्यम् ।  इस स्थिति में नो के ओकार को यकारादि  "वान्तो यि प्रत्यये " सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परे होने से अव् आदेश हुआ।
    न्+ ओ+ यम् = परस्पर संयोजन के पश्चात "नव्यम्" रूप बना।

    इसी प्रकार नौ + यम् इस स्थिति में नौ के औकार को "वान्तो यि प्रत्यये "सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परेे होने से आव् आदेश हुआ । परस्पर संयोजन के पश्चात "नाव्यम्" रूप बना।
    ____________
    काशिका-वृत्तिः

    अचो रहाभ्यां द्वे ८।४।४६

    यरः इति वर्तते। अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ ताभ्याम् उत्तरस्य यरो द्वे भवतः। अर्क्कः मर्क्कः। ब्रह्म्मा। अपह्न्नुते। अचः इति किम्? किन् ह्नुते। किम् ह्मलयति।
    ____________________
    लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

    अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५

    अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः। गौर्य्यौ। (न समासे)। वाप्यश्वः॥
    __________________
    सिद्धान्त-कौमुदी

    अचो रहाभ्यां द्वे २६९, ८।४।४५

    अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः । हर्य्यनुभवः । नह्य्यस्ति ॥

    न्यासः

    अचो रहाभ्यां द्वे। , ८।४।४५

    "अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ" इति। एतेनाच इति रहोर्विशेषणमिति दर्शयति। "आन्यामुत्तरस्य यरः" इति। अनेनापि रहौ यर्विशेषणमिति। "बर्क्कः" इति। "अर्च पूजायाम्()" (धा।प।२०४),धञ्(), "चजोः कुधिण्णयतोः" ७।३।५२ इति कुत्वम्()। "मर्क्कः" इति। मर्चिः सौत्रो दातुः, तस्मात्? इण्()भीकापाशस्यर्तिमर्चिभ्यः कन्()" (द।उ।३।२१) इति कन्(), "चोः कुः" ८।२।३० इति कुत्वम्()। अत्राकारादुत्तरो रेफः, तस्मादपि परः ककारो यरिति। "ब्राहृआ" इति। अत्राप्यकारादेवाच्च उत्तरो हकारः, तस्मादपि परो मकारो यरिति। "अपह्तुते" इति। अत्राप्यकारादुत्तरो हकारः, पूर्ववच्छपो लुक्(), तस्मात्? परस्य नकारस्य द्विर्वचनम्()। "किन्()ह्नुते" इति। अत्राच उत्तरो हकारो न भवतति नकारो न द्विरुच्यते। "किम्()ह्रलयति" इति। "ह्वल ह्रल सञ्चलने" (धा।पा।८०५,८०६), हेतुमण्णिच। "ज्वलह्वलह्रलनमामनुपसर्गाद्वा" ["ज्वलह्नलह्वल"--प्रांउ।पाठः] (धा।पा।८१७ अनन्तरम्()) इति मित्त्वम्(), "मितां ह्यस्वः" ६।४।९२ इति ह्यस्वत्वम्()॥
    _______________
    -बाल मनोरमा
    अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५

    अचो रहाभ्यां द्वे। यरोऽनुनासिक इत्यतो यर इति षष्ठ()न्तं वेति चानुवर्तते। अच इति दिग्योगे पञ्चमी। "पराभ्या"मिति शेषः। रहाभ्यामित्यपि पञ्चमी। "परस्ये"ति शेषः। तदाह--अचः पराभ्यामित्यादिना। हय्र्यनुभव इति। हरेरनुभव इति विग्रहः। हरि-अनुभव इति स्थिते रेफादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। अथ हकारात्परस्योदाहरति--न ह्य्यस्तीति। नहि--अस्तीति स्थिते हकारादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। इहोभयत्र यकारस्य अचः परत्वाऽभावादच्परकत्वाच्च द्वित्वमप्राप्तं विधीयते। अत्राऽनचि चेति रेफहकारयोर्द्वित्वं न भवति। द्वित्वप्रकरणे रहाभ्यामिति रेफत्वेन हकारत्वेन च साक्षाच्छ()तेन निमित्तभावेन तयोर्यर्शब्दबोधितकार्यभाक्त्वबाधात्, "श्रुतानुमितयोः श्रुतं बलीय" इति न्यायात्। हर्? य्? य् अनुभवः, नह् य् य् अस्ति इति स्थिते।
    ______________
    तत्त्व-बोधिनी

    अचो रहाभ्यां द्वे ।।, ८।४।४५

    ★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।

    _______
    वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
    अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -
    गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।
    द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

    सूत्रच्छेदःएति-एधति-ऊठ्सु (सप्तमीबहुवचनम्)
    अनुवृत्तिःआत्  6|1|87  (पञ्चम्येकवचनम्) , एचि  6|1|88 (सप्तम्येकवचनम्) , वृद्धिः  6|1|88 (प्रथमैकवचनम्)
    अधिकारःसंहितायाम्  6|1|72> एकः पूर्वपरयोः  6|1|84
    सम्पूर्णसूत्रम् आत् एचि एति-एधति-ऊठ्सु एकः पूर्वपरयोः वृद्धिः
    सूत्रार्थः
    अवर्णात् परस्य इण्-धातोः एध्-धातोः एच्-वर्णे परे तथा ऊठ्-शब्दे परे पूर्वपरयोः एकः वृद्धि-आदेशः भवति ।
    यदि अकारात् / आकारात् परः -
    (1) इण्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा
    (2) एध्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा
    (3) "ऊठ्" अयम् शब्दः आगच्छति, तर्हि -
    पूर्वपरयोः स्थाने एकः वृद्धि-एकादेशः भवति ।

    उदाहरणानि -

    (1) उप + एति → उपैति ।
    एत्येधत्यूठ्सु।।6/1/87।।–वृद्धि: एचि एति एधते ' ऊठसु"
    वृत्ति-अवर्णादेजाधोरेत्येधत्योरूठि च परे वृद्धिरेकादेश:स्यात्।पररूप गुणापवाद: उपैति।उपैधते।प्रष्ठौह:।।एजाद्यो: किम्?उपेत: ।मा भवान् प्रेदिधत्।
    अर्थ-अ वर्ण से परे यदि एच् प्रत्याहार आदि में वाली 'इण्' तथा एड्• धातु हो अथवा ऊठ हो तो पूर्व एवं पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है ।यथा उपैति।उपैधते प्रष्ठौह:।
    ________
    उपैति –उप+ एति इस विग्रह दशा में अ के पश्चात एजादि 'ए' परे है अत: एडि्•पररूपम् से पर रूप होता है परन्तु उसका अपवाद करके ' एत्येधत्यूठसु' इस सूत्र से पूर्व 'अ और 'ए  के स्थान पर 'ऐ वृद्धि होगयी तत्पश्चात परस्पर संयोजन के बाद उपैति सन्धि-का का पद सिद्ध होता है ।

    उपैधते–उप+एधते ,इस अवस्थाओं में अ' के पश्चात ए' परे होने के कारण प्राप्त था।
    किन्तु उसका बाधन कर 'एत्येधत्यूठसु' सूत्र द्वारा अ+ए के स्थान पर ऐ वृद्धि एकादेश होता है उप–अ+ए+धते=उप +ऐ+धते ।उपैधते ।संयोजन के उपरीन्त हुआ।
    __________
    प्रष्ठौह–प्रष्ठ+ऊह: इस विग्रह दशा में प्रष्ठ में अन्तिम वर्ण अकार है उससे परे ऊह का ऊकार है । अत: इस स्थान पर अ+ ऊ के स्थान पर आद्गुण: प्राप्त था परन्तु उसे बाध कर एत्येधत्यूठसु' सूत्र से अ+ ऊ के स्थान पर औ वृद्धि एकादेश होता है।प्रष्ठ+अ+ऊ+ह: = प्रष्ठ् +औ+ह: परस्पर संयोजन करने पर प्रष्ठौह: सन्धि-का रूप हुआ।

    उपसर्गाद् ऋति धातौ।।6/1/91। अर्थात् उपसर्गाद् ऋति परे वृद्धि: एकादेश ।
    वृत्ति–अवर्णान्तादुपसर्गाद् ऋकारादौ धातौ परे वृद्धिरेकादेश: स्यात् । प्रार्च्छति । उपार्च्छति

    प्रार्च्छति – प्र+ ऋच्छति विग्रह पद  में प्र' उपसर्ग में अ' अन्त में है ।उससे परे ऋ है ।
    अत: उपसर्गाद् ऋति परे ऋति धातौ' सूत्र से परे (अ+ऋ+ च्छति ) इस स्थिति में पूर्व एवं पर अ+ऋ=आर् वृद्धि हुई। प् +र् +आर्+ च्छति संयोजन करने पर प्रार्च्छति सन्धि पद सिद्ध होगा ।

    अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम्।। वार्तिक
    अक्षौहिणी सेना।
    अर्थ:-अक्ष शब्द के अन्तिम अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है।
    ___________

    💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’) 

    ★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है। 

    सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’  ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।

    • शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)
    • पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)
    • मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)
    • कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)
    • सार + अंग = सारंग
    • सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त
    • हलस् + ईषा = हलीषा
    • कुल + अटा = कुलटा

    • _______________________

    -★-अचोन्तयादि टि।। (1/1/64)

    वृत्ति:- अचां मध्ये योन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।

    ★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।

    जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।


    (27)अचोन्तयादि टि ।। 1/1/64 ।
    वृत्ति:- अचां मध्ये यो ८न्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
    अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।

    (28) शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ।।वार्तिक।
    वृत्ति:- तच्च टे शकन्धु: ।कर्कन्धु: । कुलटा। मनीषा ।आकृतिगणो८यम् ।मार्तण्ड:।
    अर्थ:-शकन्धु आदि शब्दों में ( उनकी सिद्धि के अनुरूप) पररूप कहना चाहिए वह पररूप टि ' और अच् ' के स्थान पर समझना चाहिए । यथा

    शकन्धु:-शक +अन्धु: । इस विग्रह दशा में शक् शब्द के अन्तिम क में अ' स्वर वर्ण है  वह टि' है तथा अन्धु: का अकार परे है । यहाँ (अ+अ)=अ पररूप प्रस्तुत वार्तिक से हुआ। परस्पर संयोजन करने पर
    (शक्+ अ+अ+न्धु: ) शकन्धु: सन्धि पद बनेगा  इसी प्रकार कर्कन्धु: बनेगा ।यह दीर्घ स्वर सन्धि का अपवाद है।

    मनीषा:- मनस् +ईषा  इस अवस्था में ' अचो८न्यादि टि ' सूत्र से मनस् की मन् +(अस् ) टि को ईषा के ई के स्थान पर' शकन्ध्वादिषु पररूप वाच्यम् ' वार्तिक से ई पररूप एकादेश होता है ।( मन् + अस् + ई+ई +षा ) परस्पर संयोजन करने पर मनीषा पद बना ।

    ओम् च आङ् च ओमाङौ, तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः॥

    अर्थः॥

    ओमि आङि च परतः अवर्णात् पूर्वपरयोः स्थाने पररूपमेकादेशः भवति, संहितायां विषये॥


    💐↔


    कन्या + ओम् = कन्योम् इत्यवोचत्। आ + ऊढा = ओढा, अद्य + ओढा = अद्योढा, कदोढा, तदोढा॥
    _______________
    काशिका-वृत्तिः

    ओमाङोश् च ६।१।९५

    आतित्येव। अवर्णान्तातोमि आङि च परतः पूर्वपरयोः स्थाने पररूपम् एकादेशो भवति। का ओम् इत्यवोचत्, कोम् इत्यवोचत्। योम् इत्यवोचत्। आगि खल्वपि आ ऊढा ओढा। अद्य ओढा अद्योढा। कदा ओढा कदोढा। तदा ओढा तदोढा। वृद्धिरेचि ६।१।८५ इत्यस्य पवादः। इह तु आ ऋश्यातर्श्यात्, अद्य अर्श्यातद्यर्श्यातिति अकः सवर्णे दीर्घत्वं बाधते।
    ___________
    लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

    ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२

    ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात्। शिवायोंं नमः। शिव एहि॥
    ____________
    सिद्धान्त-कौमुदी

    ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२

    ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात् । शिवायों नमः । शिव एहि । शिवेहि ॥

    ________________________________________
    अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।।   

    अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच्  पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।

    👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता  है।
    यथा :-गौर+ यो  इस विग्रह दशा में -गौर  की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।
    द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।
    💐↔ 

    👇वृत्ति–अच्  पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।
    👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता  है।
    यथा :-गौर+ यो  इस विग्रह दशा में -गौर  की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।
    द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

    💐↔

     अचः किम्? "ह्लुते" इत्यादौ नकारस्य माभूत्।

    8|4|44   SK 112  शात्‌  
    सूत्रच्छेदःशात् (पञ्चम्येकवचनम्)
    अनुवृत्तिःश्चुः  8|4|40 (प्रथमैकवचनम्) , न  8|4|42 (अव्ययम्) , तोः  8|4|43 (षष्ठ्येकवचनम्)
    अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108
    सम्पूर्णसूत्रम्शात् तोः श्चुः न
    सूत्रार्थः
    शकारात् परस्य तवर्गीयवर्णस्य श्चुत्वम् न भवति ।
    शकारात् परः तवर्गीयवर्णः आगच्छति चेत् स्तोः श्चुना श्चुः 8|4|41 इत्यनेन निर्दिष्टस्य श्चुत्वस्य अनेन सूत्रेण निषेधः उच्यते ।
    यथा - प्रच्छँ (ज्ञीप्सायाम्) धातोः यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् 3|3|90 अनेन नङ्-प्रत्ययः भवति -
    प्रच्छ् + नङ्
    → प्रश् + न [च्छ्वोः शूडनुनासिके च 6|4|19 इति च्छ्-इत्यस्य नकारादेशः]
    → प्रश्न । श्चुना
    यह श्चुत्व सन्धि-का अपवाद है- ।

    _______

    अयोगवाह-

    अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...


    जिनका  चौदह माहेश्वर-सूत्रो में योग नहीं है वह फिर भी वहन करते हैं षत्व' णत्व'आदि कार्यों को पूरा करता है अथवा(वाह् + अच्)= वाह करता है 
    वह अयोह वाह है ।
    ______________

    वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क   :ख   :प   :फ   ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।


    __________________________________

    व्यञ्जन-सन्धि का विधान

    व्यञ्जन सन्धि -

    प्रतिपादन -💐↔👇
    शात् ८।४।४४ ।।
    वृत्तिः-शात्‌ परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्।।
    विश्न: । प्रश्न।
    व्याख्यायित :-शकार के परवर्ती तवर्ग के स्थान पर चवर्ग नहीं होता है ।
    आशय यह कि शकार (श्  वर्ण) से परे तवर्ग ( त थ द ध न ) के स्थान पर स्तो: श्चुनाश्चु: से जो चवर्ग हो सकता है- वह इस सूत्र शात्‌ के कारण नहीं होगा।
    अत: यह सूत्र " श्चुत्वं विधि का अपवाद " है-।
    __________________________________________
    काशिका-वृत्तिः

    शात् ८।४।४४

    तोः इति वर्तते। शकारादुत्तरस्य तवर्गस्य यदुक्तं तन् न भवति। प्रश्नः। विश्नः।

    न्यासः

    ______________

    💐↔शात् ६३/ ८/४४३ 

    "विश्नः, प्रश्नः" इति।

    "विच्छ गतौ" (धा।पा।१४२३) "प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्()" (धा।पा।१४१३), पूर्ववन्नङ्(), "च्छ्वोः शूडनुनासिके च" ६।४।१९ इति च्छकारस्य शकारः। यद्यपि "प्रश्ने चासन्नकाले" ३।२।११७ इति निपतनादेव शात्परस्य तदर्गस्य चुत्वं न भवतीत्यैषोऽर्थो लभ्यते, तथापि मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवपरीहारार्थमिदमारभ्यते। अथ वा"अवाधकान्यपि निपातनानि भवन्ति"
    (पु।प।वृ।१९) इत्युक्तम्()।
    _______________________________________
    यद्येतन्नारभ्यते, प्रश्ञः, विश्ञ इत्यपि रूपं सम्भाव्येत॥
    यदि यह अपवाद नियम नहीं होता तो प्रश्न  का रूप प्रश्ञः और विश्न का रूप विश्ञ होता  

    _________________________________________
    लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

    💐↔शात् ६३, ८।४।४३

    शात्परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात्। विश्नः। प्रश्नः॥

    सिद्धान्त-कौमुदी

    शात् ६३, ८।४।४३

    शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।
    ____________________________________

    💐↔न पदान्ताट्टोरनाम् ।।8/4/42 ।।

    वृत्ति:-पदान्ताट्टवर्गात्परस्या८नाम: स्तो: ष्टुर्न स्यात्।
    पदान्त में  टवर्ग होने पर भी  ष्टुत्व सन्धि का विधान नहीं होता है ।👇
    अर्थात् – पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द  के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।

    पदान्त का विपरीत धात्वान्त /मूलशब्दान्त है ।

    आशय यह है कि यदि पदान्त  में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम शब्द के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् "स"  के  स्थान पर "ष" और वर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा जैसे 👇

    षट् सन्त: ।
    षट् ते ।पदान्तात् किम् ईट्टे ।
    टे: किम् ? सर्पिष्टम् ।

    व्याख्या :- पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द  के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।

    आशय यह है कि यदि पदान्त  में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् स के  स्थान पर ष और तवर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा ।

    अर्थात् षट् नाम = "षण्णाम "तो हो जाएगा क्यों कि यह संज्ञा पद है।

    प्रस्तुत सूत्र "ष्टुत्व सन्धि का अपवाद है " ।

    यथा:-षट्+ सन्त: यहाँ पर पूर्व पदान्त में टवर्ग का "ट" है तथा इसके परे सकार होने से "ष्टुनाष्टु: सूत्र से ष्टुत्व प्राप्त था।
    परन्तु प्रस्तुत सूत्र से उसे बाध कर ष्टुत्व कार्य निषेध कर दिया।
    परिणाम स्वरूप "षट् सन्त:"  रूप बना रहा।
    अब यहाँ समस्या यह है कि वर्तमान सूत्र में पदान्त टवर्ग किस  प्रयोजन से कहा ?
    यदि टवर्ग मात्र कहते तो क्या प्रयोजन की सिद्धि नहीं थी।
    इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि पदान्त न कहते तो (ईडते) ईट्टे :- मैं स्तुति करता हूँ। के प्रयोग में अशुद्धि हो जाती ।
    ईड् + टे इस विग्रह अवस्था में ष्टुत्व का निषेध नहीं होता।और तकार को टकार होकर ईट्टे रूप बना यह क्रिया पद है।

    एक अन्य तथ्य यह भी है कि इस सूत्र में तवर्ग का ग्रहण क्यों हुआ है
    मात्रा न' पदान्तानाम् कहते तो क्या हानि थी? इसका समाधान यह है कि यदि टवर्ग का ग्रहण नहीं किया जाता तो  पद के अन्त में षकार से परे भी स्तु को ष्ठु होने का निषेध हो जाता।
    षट् षण्टरूप बन जाता ।

    ५:-अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम्।।

    वृत्ति -षष्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।

    काशिका-वृत्तिः

    न पदान्ताट् टोरनाम् ८।४।४२

    पदान्ताट् टवर्गादुत्तरस्य स्तोः ष्टुत्वं न भवति नाम् इत्येतद् वर्जयित्वा। श्वलिट् साये। मधुलिट् तरति। पदान्तातिति किम्? ईड स्तुतौ ईट्टे। टोः इति किम्? सर्पिष्टमम्। अनाम् इति किम्? षण्णाम्।
    अत्यल्पम् इदम् उच्यते। अनाम्नवतिनगरीणाम् इति वक्तव्यम्। षण्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।

    वृत्ति:-षष्णाम ।षष्णवति:।षण्णगर्य:।

    व्याख्या:- पद के अन्त में तवर्ग से परे नाम ,नवति, और नगरी शब्दों के नकार को त्यागकर स ' तथा तवर्ग को  षकार और टवर्ग हो ।

    आशय यह कि पाणिनि मुनि ने 'न' पदान्ताट्टोरनाम् सूत्र में केवल नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से अलग किया गया था।
    अत: नवति और नगरी शब्दों में ष्टुत्व निषेध प्राप्त होने से दोष पूर्ण सिद्धि  होती थी ।

    इस दोष का निवारण करने के लिए वार्तिक कार कात्यायन ने वार्तिक बनाया। कि नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त नहीं करना चाहिए अपितु नवति और नगरी शब्दों को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त कर देना चाहिए अतएव नाम नवति और नगरी आदि शब्दों में तो ष्टुत्व विधि होनी चाहिए।
    ______________________________________

    (तो:षि- 8/4/53 )

     तो: षि। 8/4/53 ।

    वृत्ति:- तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है।इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा ।

    "तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: 

    ★-यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है। इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा" 


    💐↔पूर्व सवर्ण सन्धि:- उद: परयो: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य 8/4/61..

    वृत्ति:- उद: परयो: स्थास्तम्भो पूर्वसवर्ण: ।
    स्था और स्तम्भ को उद् उपसर्ग से परे हो जाने पर पूर्व- सवर्ण होता है।

    उत् + स्थान = उत्थान ।
    कपि + स्थ = कपित्थ ।
    अश्व + स्थ =अश्वत्थ ।
    तद् + स्थ = तत्थ । 


    काशिका-वृत्तिः

    उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१

    सवर्णः इति वर्तते। उदः उत्तरयोः स्था स्तम्भ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति। उत्थाता। उत्थातुम्। उत्थातव्यम्। स्तम्भेः खल्वपि उत्तम्भिता।
    उत्तम्भितुम्। उत्तम्भितव्यम्। स्थास्तम्भोः इति किम्? उत्स्नाता।
    उदः पूर्वसवर्नत्वे स्कन्देश् छन्दस्युपसङ्ख्यानम्।
    अग्ने दूरम् उत्कन्दः।
     रोगे च इति वक्तव्यम्। उत्कन्दको नाम रोगः। कन्दतेर् वा धात्वन्तरस्य एतद् रूपम्।

    काशिका-वृत्तिः

    काशिका-वृत्तिः

    झयो हो ऽन्यतरस्याम् ८।४।६२

    झयः उत्तरस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाग्घसति, वाघसति। स्वलिड् ढसति, श्वलिड् हसति। अग्निचिद् धसत्। अग्निचिद् हसति। सोमसुद् धसति, सोमसुद् हसति। त्रिष्टुब् भसति, त्रिष्टुब् हसति। झयः इति किम्? प्राङ् हसति। भवान् हसति।

    न्यासः

    झयो होऽन्यतरस्याम्?। , ८।४।६१

    "वाग्धसति" इत्यादावुदाहरणे हकारस्य महाप्राणस्यान्तरतम्यात्? तादृश एव घकारादयो वर्गचतुर्था भवन्ति। अन्यतरस्यांग्रहणं पूर्वविध्योर्नित्यत्वज्ञापनार्थम्()॥

    लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

    झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१

    झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः। नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः। वाग्घरिः, वाघरिः॥

    सिद्धान्त-कौमुदी

    ★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१

    ★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१

    झयः परस्य हस्य पूर्वसवर्णो वा स्यात् । घोषवति नादवतो महाप्राणस्य संवृतकण्ठस्य हस्य तादृशो वर्गचतुर्थं एवादेशः । वाग्घरिः । वाग्घरिः ।।

    अर्थात् झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, (८।४।६१)
    वृत्ति:- झय: परस्य हस्य वा पूर्व सवर्ण:
    नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्ग चतुर्थ:
    वाग्घरि : वाग्हरि:।
    व्याख्या:- झय्  (झ् भ् घ् ढ् ध् ज्  ब्  ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प् ) प्रत्याहार के वर्ण के पश्चात यदि 'ह' वर्ण आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण आदेश हो जाता है ।उसका आशय यह है कि यदि वर्ग का प्रथम , द्वितीय ,तृत्तीय , तथा चतुर्थ वर्ण के बाद 'ह'
    आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण हो जाता है । अर्थात् गुणकृत यत्नों के सादृश्य से समान आदेश होगा।

    यह पूर्व सवर्ण विधायक सूत्र है यथा–वाक् +'हरि : इस दशा में 'झलांजशो८न्ते' सूत्र से ककार को गकार जश् हुआ तब वाग् + 'हरि रूप बनेगा। फिर  झयो होऽन्यतरस्याम्  सूत्र से वाघरि रूप बना।

    काशिका-वृत्तिः

    शश्छो ऽटि ८।४।६३

    झयः इति वर्तते, अन्यतरस्याम् इति च। झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतः छकरादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाक् छेते, वाक् शेते। अग्निचिच् छेते, अग्निचित् शेते। सोमसुच् छेते, सोमसुत् शेते। श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते। त्रिष्टुप् छेते, त्रिष्टुप् शेते। छत्वममि इति वक्तव्यन्। किं प्रयोजनम्? तच्छ्लोकेन, तच्छ्मश्रुणा इत्येवम् अर्थम्।

    न्यासः
    __________________________________________

    ↔💐↔शश्छोऽटि। , ८।४।६२( छत्व सन्धि )
    वृत्ति:- झय: परस्य शस्य छो वा८टि।
    तद् + शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य टकार :-
    तच्छिव: तश्चिव:।
    व्याख्या:-झय् ( झ् भ् घ् ढ् ध् ज्  ब्  ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प ) के वर्ण से परे यदि शकार आये तथा उससे भी परे अट्( अ इ उ ऋ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र )
    प्रत्याहार आये तो विकल्प से शकार को छकार हो जाता है अर्थात् शर्त यह है कि पदान्त झय् प्रत्याहार वर्ण से परे शकार आये तो उसे विकल्प से छकार हो जाएगा यदि अट् परेे होगा तब ।

    प्रयोग:- यह सूत्र छत्व सन्धि का विधायक सूत्र है यथा तद् + शिव = तच्छिव  तद् + शिव इस विग्रह अवस्था में सर्वप्रथम "स्तो: श्चुना श्चु:" सूत्र प्रवृत्त होता है – तज् +शिव:।तत्पश्चात "खरि च" सूत्र प्रवृत्त होता है तथा शकार से भी परे अट् "इ" है ।
    अतएव प्रस्तुत सूत्र द्वारा विकल्प से शकार को छकार हो जाएगा।  तद्+ शिव =तच्छिव ।विकल्प भाव में तच्शिव: रूप बनेगा।
    इसी सन्दर्भों में कात्यायन ने एक वार्तिक पूरक के रूप में जोड़ा है 
    छत्वममीति वाच्यम्( वार्तिक)"
    वृत्ति:-  तच्छलोकेन।
    व्याख्या:-यह वार्तिक है इसका आशय है कि पदान्त झय् प्रत्याहार के वर्ण से परे शकार को छकार अट् प्रत्याहार परे होने की अपेक्षा अम् प्रत्याहार ( अ,इ,उ,ऋ,ऌ,ए,ओ,ऐ,औ,ह,य,व,र,ल,ञ् म् ड्• ण्  न् ) परे होने पर छत्व होना चाहिए 
    पाणिनि मुनि द्वारा कथित "शश्छोऽटि" सूत्र से तच्छलोकेन आदि की सिद्धि नहीं हो कही थी अतएव इनकी सिद्धि के लिए कात्यायन ने यह वार्तिक बनाया।

    प्रयोग:- यह सूत्र पूरक सूत्र है । इसके द्वारा पाणिनि द्वारा छूटे शब्दों की सिद्धि की जाती है ।

    "छत्वममीति धक्तव्यण्()" इति। अमि परतश्छत्वं भवतीत्येतदर्थरूपं व्याख्येयमित्यर्थः। तत्रेदं व्याख्यानम्()--"शश्छः" इति योगविभागः क्रियते, तेनाट्प्रत्याहारेऽसन्निविष्टे लकारादावपि भविष्यति, अतोऽटीत्यतिप्रसङ्गनिरासार्थो द्वितीयो योगः--तेनाट()एव परभूते, नान्यनेति। योगवभागकरणसामथ्र्याच्चाम्प्रत्याहारान्तर्गतेऽनट()दि क्वचिद्भवत्येव। अन्यथा योगविभागकरणमनर्थकं स्यात्()। अमीति नोक्तम्(), वैचित्र्यार्थम्()। अत्र "वा पदान्तस्य" ८।४।५८ इत्यतः पदान्तग्रहणमनुवत्र्तते, झयो विशेषणार्थम्()। तेन "शि तुक्()" ८।३।३१ इत्यत्र तुकः पूर्वान्तकरणं छत्वार्थमुपपन्नं भवति; "डः सि धुट्()" (८।३।२९) इत्यतो धुङ्ग्रहणानुवृत्तेः परस्या सिद्धत्वात्? पूर्वान्तकरणमनर्थकं स्यात्()॥

    लघु-सिद्धान्त-कौमुदी-

    शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२

    झयः परस्य शस्य छो वाटि। तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तच्शिवः। (छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन॥

    सिद्धान्त-कौमुदी

    शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२

    पदान्ताज्झयः परस्य शस्य छो वा स्यादटि । दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते--।

    बाल-मनोरमा

    शश्छोऽटि १२१, ८।४।६२

    शश्छोऽटि। "झय" इति पञ्चम्यन्तमनुवर्तते। "श" इति षष्ठ()एकवचनम्। तदाह--झयः परस्येति। "तद्-शिव" इति स्थिते दकारस्य चुत्वेन जकारे कृते जकारस्य चकार इत्यन्वयः।

    तत्त्व-बोधिनी

    शाश्छोऽटि ९६, ८।४।६२

    शाश्छोऽटि। इह पदान्तादित्यनुवत्र्य "पदान्ताज्झय" इति व्याख्येयम्, तेनेह न, "मध्वश्चोतन्त्यभितो विरप्शम्"। विपूर्वाद्रपेरौणादिकः शः।

    छत्वममीति। "शश्छोऽटी"ति सूत्रं "शश्छोऽमी"ति पठनीयमित्यर्थः। तच्छ्लोकेनेति। "तच्छ्मश्रुणे"त्याद्यप्युदाहर्तव्यम्॥

    काशिका-वृत्तिः
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    ★-मो राजि समः क्वौ ८।३।२५।

    मो राजि समः क्वौ ८।३।२५
    वृत्ति:- क्विवन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् ।
    राज+ क्विप् = राज् ।
    सम् के मकार को मकार ही होता है  यदि क्विप् प्रत्ययान्त  राज् परे होता है ।आशय यह कि अनुस्वारः नहीं होता ।

    प्रयोग:- यह अनुस्वार का निषेध करता है- अतएव अपवाद सूत्र है ।यथा सम्+ राट् = यहाँ सम के मकार को को क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु का राट् है अतएव अनुस्वार नहीं होगा तथा सम्राट् रूप बनेगा ।
    वस्तुत राज् का राड् तथा राट् रूप राज् के "र" वर्ण का संक्रमण रूप है ।

    समो मकारस्य मकारः आदेशो भवति राजतौ क्विप्प्रत्ययान्ते परतः। सम्राट्। साम्राज्यम्। मकारस्य मकारवचनम् अनुस्वारनिवृत्त्यर्थम्। राजि इति किम्? संयत्। समः इति किम्? किंराट्। क्वौ इति किम्? संराजिता। संराजितुम्। संराजितव्यम्।

    खरवसानयोर्विसर्जनीय: 8/3/15
    वृत्ति:-खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
    व्याख्या :- पद के अन्त में "र" वर्ण ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों "र" हो तथा उससे परे "खर"  प्रत्याहार का वर्ण हो अथवा "र" ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों में "र" वर्ण को विसर्ग हो जाता है;यथा संर + स्कर्त्ता =सं : स्कर्त्ता : ।

    _____________________________________

    💐↔षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई। स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

    शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

    _______

    परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
    परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

    _______

    💐↔षत्व विधान सन्धिइक्कु हयण्सि षत्व :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) ह तथा यण्प्रत्याहार के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  किसी स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

    _________        

    शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।
    'हरि+ सु = हरिषु । भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।

     :- परन्तु  आ स्वरों के बाद 'स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है ।

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    💐↔णत्व विधान सन्धि

    :- रषऋनि  नस्य णत्वम भवति। अर्थात् मूर्धन्य टवर्गीय रषऋ से परे 'न' वर्ण हो तो 'न'वर्ण का 'ण वर्ण हो जाता है।
    यदि र ष और ऋ तथा न के बीच में स्वर कवर्ग पवर्ग य् व् र् ल्  और ह् और अनुस्वार भी आ जाए तो भी 'न '  को 'ण'' हो जाता है । जैसे रामे + न = रामेण । मृगे+ न = मृगेण ।
    परन्तु पद के अन्त वाले 'न'को ण नहीं होता है ।जैसे रिपून् ।रामान्। गुरून्। इत्यादि ।
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    💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-

    💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
    यदि विसर्ग के बाद "क" "ख" "प" "फ" वर्ण आऐं
    तो विसर्गों (:) के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । 

    अर्थात् विसर्ग यथावत् ही रहते हैं । क्यों कि इन वर्गो के सकार नहीं होते हैं -

     परन्तु इण्को: सूत्र कुछ सन्धियों में षकार हो जाता है ।

    जैसे-
    कवि: + खादति = कवि: खादति ।
    बालक: + पतति = बालक: पतति ।
    गुरु : + पाठयति  = गुरु: पाठयति ।
    वृक्ष: + फलति = वृक्ष: फलति ।                          मन:+ कामना=मन: कामना।

    यदि विसर्ग से पहले "अ " स्वर हो और विसर्ग के बाद भी "अ" स्वर वर्ण हो । विसर्ग के स्थान पर 'ओ' हो जाता है।यह पूर्वरूप सन्धि विधायक सूत्र है
    इसमें "अ" स्वर वर्ण के स्थान पर प्रश्लेष(ऽं अथवा ८ ) का चिह्न लगाते हैं ।।

    बाल: + अस्ति = __ ।
    मूर्ख: + अपि   = मूर्खो८पि।
    शिव: + अर्च्य: =शिवो८र्च्य: ।
    क: +अपि = को८पि ।

    _____________________________

    सूत्रम्- 
    खरवसानयोर्विसर्जनीय: ।।08/03/15।।
    खरि अवसाने च पदान्‍तस्‍य रेफस्‍य विसर्ग: । 

    व्‍याख्‍या - 
    पदस्‍य अन्तिम 'र्'कारस्‍य अनन्‍तरं खर् (वर्गणां 1, 2, श, ष, स) वर्णा: भवन्‍तु अथवा अवसानं (किमपि न) भवतु चेत् 'र्'कारस्‍य विसर्ग: (:) भवति ।

    हिन्‍दी - 
    पद के अन्तिम र् से परे यदि खर् प्रत्‍याहार के वर्ण (वर्ग के प्रथम और द्वितीय अक्षर तथा स, श, ष) हों अथवा कि कुछ भी न हो तो 'र्'कार के स्‍थान पर विसर्ग (:) परिवर्तन होता है ।

    वार्तिकम् - संपुकानां सो वक्‍तव्‍य: ।।

    व्‍याख्‍या - सम्, पुम्, कान् च शब्‍दानां विसर्गस्‍य स्‍थाने 'स्'कार: भवति ।

    उदाहरणम् - 
    सम् + स्‍कर्ता = संस्‍स्‍कर्ता (सँस्‍स्‍कर्ता) ।।

    हिन्‍दी - 
    सम्, पुम् और कान् शब्‍दों के विसर्ग के स्‍थान पर 'स्'कार होता है ।
    इति
    ________________________________________


    💐↔ 

    विसर्गस्यलोप -💐↔विसर्ग का लोप ।

    -विसर्गस्यलोप - परन्तु यदि विसर्ग से पहले "अ" स्वर वर्ण हो और विसर्ग के बाद "अ" स्वर वर्ण के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वर ( आ, इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,) हो तो विसर्गों का सन्धि करने पर  लोप हो जाता है ।

    जैसे-•

    सूर्य: + आगच्छति = सूर्य आगच्छति।
    बालक: + आयाति = बालक आयाति।
    चन्द्र: + उदेति = चन्द्र उदेति।

    💐↔यदि विसर्गों के पूर्व "अ" हो और बाद में किसी वर्ग का तीसरा ,चौथा व पाँचवाँ वर्ण अथवा अन्त:स्थ वर्ण ( य,र,ल,व) अथवा 'ह' वर्ण हो  तो पूर्व वर्ती "अ"  और विसर्ग से मिलकर 'ओ' बन जाता है। जैसे 👇
    बाल:+ गच्छति = बालोगच्छति।
    श्याम:+ गच्छति। = श्यामोगच्छति।
    मूर्ख: + याति = मूर्खो याति।
    धूर्त: + हसति = धूर्तो हसति।
    कृष्ण: + नमति =कृष्णो नमति।
    लोक: + रुदति= लोको रुदति।
    __________________________________________
    💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व 'आ' और बाद में कोई स्वर वर्ण.(अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )अथवा वर्ग का तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ण और कोई अन्त:स्थ (य,र,ल,व)अथवा'ह'वर्ण हो तो विसर्गों का लोप हो जाता है।

    जैसे- 👇

    पुरुषा: +आयान्ति = पुरुषा आयान्ति।
    बालका: + गच्छन्ति = बालका गच्छन्ति।
    नरा: + नमन्ति =नरा नमन्ति।

    विशेष:-देवा:+अवन्ति= देवा अवन्ति फिर पूर्वरूप देवा८वन्ति रूप-

    ___________________       

    💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व ( 'इ'  'ई ' उ ' ऊ 'ऋ 'ऋृ 'ए ' ऐ 'ओ 'औ ')आदि में से कोई स्वर हो और विसर्ग के बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा व पाँचवाँ अथवा कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ  (य,र,ल,व )  अथवा 'ह' महाप्राण वर्ण हो तो विसर्ग का ( र् ) वर्ण बन जाता है।

    यदि "अ"तथा "आ" स्वरों को छोड़कर कोई अन्य स्वर -(इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )के पश्चात्  विसर्ग(:)हो तथा विसर्ग के पश्चात कोई भी स्वर(अ,आ,इ,ई,उ,ऋ,ऋृ,ऌ,ऊ,ए,ऐओ,औ) अथवा कोई वर्ग का तीसरा,चौथा,-(झ-भ-घ-ढ-ध) पाँचवाँ वर्ण-(ञ-म-ङ-ण-न) अथवा कोई अन्त:स्थ-(य-र-ल-व) और "ह" वर्ण हो तो विसर्ग का रेफ(र्) हो जाता है । और सजुष् शब्द के ष् वर्ण का र् (रेफ)वर्ण हो जाता है। यह नियम "ससजुषोरु:" सूत्र का विधायक है ।

    'हरि: + आगच्छति = हरिरागच्छति। (हरिष्+)

    कवि: + गच्छति =  कविर्गच्छति। (कविष्+)

    गुरो: + आदेश: = गुरोरादेश: । (गुरोष्+)

    गौष्+इयम्=गौरियम्। (गौर्+)

    हरे:+ दर्शनम्।=हरेर्दर्शनम्। (हरेष्+)

    पितुष्+आज्ञया=पितुराज्ञया।(पितु:+)

    दुष्+लभ्।=दुर्लभ। (दु:+)

    नि:+जन:=निर्जन: ।( निष्+जन:)

    निष् +दय:=निर्दय:।(नि:)

    दुष्+आराध्य:=दुराराध्य:।

    निष्+आश्रित:=निराश्रित:।

    कविष्+हसति=कविर्हसति।

    मुनिष्+आगत:=मुनिरागत:।

    मुनिष्+इव=मुनिरिव।

    प्रभोष्+आज्ञा=प्रभोराज्ञा।

    विधेष्+आज्ञा=विधेराज्ञा।

    रवेष्+दर्शनम्=रवेर्दर्शनम्।

    इन्दोष्+उदय:=इन्दोरुदय।

    तयोष्+आज्ञा=तयोराज्ञा।

    धेनुष्+एषा =धेनुरेषा।

    हरिष् +याति=हरिर्याति।

    कविष्+अयम् =कविरयम्।

    मन:+ कामना= मनस्कामना।

    पुर:+ कार= पुरस्कार ।

    _______

    विशेष-इण् -

    (इण्=इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ ,
    औ,ह्, य्,व, र्, ल्)
     कु(क,ख,ग,घ,ङ्,)से परे "सकार" का "षकार" आदेश हो जाता है इण्को:आदेशप्रत्ययो:८/३५७/५९) इण्को (८-३-५७)-आदेशप्रत्ययो: (८-३-५९) । तस्मात् इण्को परस्य (१) अपदान्तस्य आदेशस्य (२) प्रत्यय अवयवश्च "स: स्थाने मूर्धन्य " आदेश: भवति।(सिद्धान्त कौमुदी)
    इण्को: ।५७। वि०-इण्को:५।१। स० इण् च कुश्च एतयो: समाहार:-इण्कु तस्मात् -इण्को: (समाहारद्वन्द्व:)।
    संस्कृत-अर्थ-इण्कोरित्यधिकारो८यम् आपादपरिसमाप्ते:।इतो८ग्रे यद् वक्ष्यति इण: कवर्गाच्च परं तद् भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति आदेशप्रत्ययो: ८/३/५९/इति उदाहरण :- सिषेव ।सुष्वाप। अग्निषु। वायुषु। कर्तृषु ।गीर्षु ।धूर्षु ।वाक्षु ।त्वक्षु ।
    हिन्दी अर्थ:- इण्को: इण् कु- (क'ख'ग'घ'ड॒॰)तृतीय पाद की समाप्ति पर्यन्त पाणिनि मुनि इससे आगे और परे जो कहेंगे वह इण् और कवर्ग से परे होता है ऐसा जानें जैसाकि आचार्य पाणिनि कहेंगे आदेशप्रत्ययो:८/३/५९/ इण् और कवर्ग से परे आदेश और प्रत्यय के सकार का मूर्धन्य षकार हो जाता है ।

    __________

    पूर्वम्: ८।२।६५अनन्तरम्: ८।२।६७
    प्रथमावृत्तिः
    सूत्रम्॥ ससजुषो रुः॥ ८।२।६६

    पदच्छेदः॥ स-सजुषोः ६।२ रुः १।१ पदस्य ६।१ ८।१।१६

    समासः॥

    सश्च सजुष च स-सजुषौ तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः
    अर्थः॥

    स-कारान्तस्य पदस्य सजुष् इत्येतस्य च रुः भवति
    उदाहरणम्॥

    सकारान्तस्य - अग्निरत्र, वायुरत्र। सजुषः - सजूरृषिभिः, सजूर्देवेभिः।
    काशिका-वृत्तिः

    ससजुषो रुः ८।२।६६
    सकारान्तस्य पदस्य सजुषित्येतस्य च रुः भवति। सकारान्तस्य अग्निरत्र। वायुरत्र।
    सजुषः सजूरृतुभिः। सजूर्देवेभिः। जुषेः क्विपि सपूर्वस्य रुपम् एतत्।
    लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
    समजुषो रुः १०५, ८।२।६६

    पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात्॥
    सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः।

    न्यासः
    ससजुषो रुः। , ८।२।६६
    "सजूः" इति। "जुषी प्रीतिसेवनयोः" (धा।पा।१२८८), सह जषत इति क्विप्(), उपपदसमासः, "सहस्य सः संज्ञायाम्()" ६।३।७७ इति सभावः।
    रुत्वे कृते "र्वोरुपधायाः" ८।२।७६ इति दीर्घः। सजुवो ग्रहणमसकारान्तार्थम्()। योगश्चायं जश्त्वापवादः॥

    बाल-मनोरमा
    ससजुषो रुः १६१, ८।२।६६
    ससजुषो रुः। ससजुषो रु रिति छेदः। "रो रि"इति रेफलोपः।
    सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः। रुविधौ उकार इत्।
    तत्फलं त्वनुपदमेव वक्ष्यते। "स" इति सकारो विविक्षितः।
    अकार उच्चारणार्थः। पदस्येत्यधिकृतं सकारेण सजुष्शह्देन च विशेष्यते। ततस्त दन्तविधिः।
    सकारान्तं सजुष्()शब्दान्तं च यत् पदं तस्य रुः स्यादित्यर्थः।
    सच "अलोऽन्त्ये"त्यन्त्यस्य भवति।
    तत्फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति।
    सजुष्()शब्दस्य चेति। सजुष्शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य । ततश्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्()शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य षकारस्येत्यर्थः। ततस्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्शब्दान्तं यत्पद"मिति तदन्तविधिना परमसजूरित्यत्र नाव्याप्तिः।
    न च सजूरित्यत्राव्याप्तिः शङ्क्या, व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वात्।
    व्यपदेशिवद्भावो।ञप्रातिपदिकेन" इति "ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिर्न" इति च पारिभाषाद्वयं "प्रत्ययग्रहणे यस्मा"दितिविषयं, नतु येन विधिरितिविषयमिति "असमासे निष्कादिभ्यः" इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। ननु शिवसिति सकारस्य "झलाञ्जशोन्ते" इति जश्त्वेन दकारः स्यात्, जश्त्वं प्रति रुत्वस्य परत्वेऽपि असिद्धत्वादित्यत आह--जश्त्वापवाद इति। तथा च रुत्वस्य निरवकाशत्वान्नासिदधत्वमिति भावः। तदुक्तं भाष्ये "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति विप्रतिषेधोऽभावादुत्तरस्ये"ति , "अपवादो वचनप्रामाण्यादि"ति च।

    तत्त्व-वोधिनी
    ससजुषो रुः १३२, ८।२।६६
    ससजुषो रुः। "पदस्ये"त्यनुवृतं ससजूभ्र्यां विशेष्यते, विशेषणेन तदन्तविधिः। न च सजूःशब्दांशे "ग्रहणवता प्रतिपदिकेन तदन्तविधिर्ने"ति निषेधः शङ्क्यः, तस्य प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। सान्तं सजुष्शब्दान्तं च यत्पदं तस्य रुः स्यात्स चाऽलोन्त्यस्य। एवं स्थिते फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति। सजुष्शब्दस्येति।

    तदन्तस्य पदस्येत्यर्थः। तेन "सुजुषौ" "सजुष" इत्यत्रापि नातिव्याप्तिः। नच "सजू"रित्यत्राऽव्याप्तिः, "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिदिकेने"ति निषेधादिति वाच्यं, तस्यापि प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। अतएव "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेने"ति "ग्रहणवते"ति च परिभाषाद्वयमपि प्रत्ययविधिविषयकमिति "दिव उ"त्सूत्रे हरदत्तेनोक्तम्। कैयटहरदत्ताभ्यामिति तु मनोरमायां स्थितम्। तत्र कैयटेनानुक्तत्वात्कैयटग्रहणं प्रमादपतिततमिति नव्याः। केचित्तु "दिव उ"त्सूत्रं यस्मिन्निति बहुव्रीहिरयं, सूत्रसमुदायश्चान्यपदार्थः। तथाच "दिव उ"त्सूत्रशब्देन "द्वन्द्वे चे"ति सूत्रस्यापि क्रोटीकारात्तत्र च कैयटेनोक्तत्वान्नोक्तदोष इति कुकविकृतिवत्क्लेशेन मनोरमां समर्थयन्ते।

    ________________________

    अधुना अपवादत्रयं वक्तव्यम्‌—

    १. रेफान्तानि अव्ययानि

    प्रातः इच्छति → प्रात इच्छति = दोषः

    “प्रात इच्छति" तु अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्‌ अनुसृत्य भवति स्म, परन्तु अत्र दोषः |

    प्रातः इच्छति → प्रातरिच्छति = साधु

    अत्र नियमः यत्‌ यत्र रेफान्तानि अव्ययानि सन्ति, तत्र केवलं भाट्टसूत्रेषु प्रथमसूत्रं कार्यं करोति | 

    अन्यत्र सर्वत्र रेफः एव आदिष्टः | 

    अतः रेफान्त-अव्ययानां कृते सूत्राणि २ -५ इत्येषां स्थाने रेफः एव भवति |

    प्रातः तिष्ठति → प्रातस्तिष्ठति = साधु

    इदं उदाहरणं प्रथमसूत्रेण (विसर्जनीयस्य सः खरि कखपफे तु विसर्गः इत्यनेन) प्रवर्तते; अन्यत्र सर्वत्र रेफः |

    अव्ययस्य अन्ते विसर्गः अस्ति चेत्‌, तस्य अव्ययस्य प्रातिपदिकं ज्ञेयम्‌ | रेफान्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति चेत्‌, तर्हि तद्‌ अव्ययम्‌ अपवादभूतम्‌ अस्ति इति धेयम्‌ |

     यथा प्रातः इत्यस्य प्रातिपदिकं प्रातर्‍; पुनः इत्यस्य प्रातिपदिकं पुनर्‍; अन्तः इत्यस्य प्रातिपदिकम्‌ अन्तर् | इमानि अव्ययानि रेफान्तानि अतः अपवादभूतानि | परन्तु प्रातिपदिकं रेफान्तं नास्ति चेत्‌, तर्हि सामान्यैः सूत्रैः क्रमः प्रवर्तते | यथा "अतः" रेफान्तं नास्ति |

    अतः इच्छति → "अतरिच्छति" = दोषः

    अतः इच्छति → अत इच्छति = साधु (अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्‌)

    ____________________

    २- एषः सः

    सः तिष्ठति → सस्तिष्ठति = दोष:

    एषः सः इति द्वि पदे विशेषे | तयोः कृते चतुर्थसूत्रेण अति उत्वं भवति | अन्यत्र सर्वत्र लोप एव |

    सः तिष्ठति → स तिष्ठति = साधु

    अतः पञ्चमे सोपाने यथा बालः इत्यादयः लघु-अकारान्तशब्दाः, एषः-सः इति द्वयोरपि अत्र विसर्गलोपः 

    एषः इच्छति → एष इच्छति*

    एषः आगच्छति → एष आगच्छति*

    *यथा पञ्चमे सोपाने, अत्रापि अन्यः विकल्पः अस्ति 'एषयिच्छति', 'एषयागच्छति' | 

    भोभगोअघोअपूर्वस्य योशि (८.३.१७), लोपः शाकल्यस्य (८.३.१९) इति सूत्राभ्याम्‌ | अयं विकल्पः विरलतया उपयुज्यते |

    धेयं यत्‌ एषः सः इति द्वयोः पदयोः कृते अतः परस्य विसर्जनीयस्य अति हशि च उत्वम् इति सूत्रेण अति उत्वं भवति, परन्तु हशि उत्वं न भवति अपि तु लोप एव |

    सः गच्छति → सो गच्छति = दोषः

    सः गच्छति → स गच्छति = साधु

    अत्‌ परे अस्ति चेत्‌, तर्हि अति उत्वं भवति—

    सः अपि → सोऽपि = साधु

    'सः एषः' इति यथा, तथा 'यः' नास्ति | 'यः' इति शब्दस्य यथासामान्यं भाट्टसूत्रेषु सूत्र-१,४,५ इत्येषां साधारणरूपाणि | यस्तिष्ठति | यो गच्छति | य इच्छति |

    ____________________

    ३. रेफः + रेफः = पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च

    हरिः रमते → हरिर्रमते = दोषः

    रेफस्य रेफे परे पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च | उदाहरणे, पूर्वं यः इकारः अस्ति, तस्य दीर्घत्वं भवति | इ → ई इति |

    हरिः रमते → इचः परस्य विसर्जनीयस्य रेफः अखरि इत्यनेन → हरिर्‍ + रमते → रेफस्य लोपः, पूर्वदीर्घत्वम्‌ → हरी + रमते → हरीरमते |

    तथैव पुनः रमते → रेफान्तम्‌ अव्ययम् अतः विसर्गसन्धौ रेफादेशः → पुनर्‍ + रमते → पुना + रमते → पुनारमते |

    पुनः रेफान्तम्‌ अव्ययम्‌ अतः अत्रापि रेफः आयाति; रेफस्य रेफे परे रेफलोपः पूर्वदीर्घत्वं च इति धेयम्‌ |

    इति विसर्गसन्धेः समग्रं चिन्तनम्‌ समाप्तम्‌ | इदं च लौकिकं चिन्तनं, व्यावहारिकं चिन्तन्तम्‌ | सम्प्रति यावत्‌ परिशीलितं व्यवहारे, तत्‌ शास्त्रीयरीत्या कथं सिध्यति इति जानीयाम |

    यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।

    • रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति
    • सुतः + एव = सुतेव
    • सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति
    • अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च
    • नराः + ददन्ति = नराददन्ति
    • देवाः + अत् = देवात्
    • ____________________
    • सूत्र – ससजुषोरूः

    यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।

    • मुनिः + अत्र = मुनिरत्र
    • रविः + उदेति = रविरुदेति
    • निः + बलः = निर्बलः
    • कविः + याति = कविर्याति
    • धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति
    • नौरियम् = नौः + इयम्
    • गौरयम् = गौ + अयम्
    • श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा
    ____________________

    4. सूत्र – रोरि

    यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।

    • निर् + रसः = नीरसः
    • निर् + रवः = नीरवः
    • निर् + रजः = नीरजः
    • प्रातारमते = प्रातर् + रमते
    • गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य
    • अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय
    • शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति
    • हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति
    • ____________________

    5. सूत्र- द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः

      रेफाकार अथाव ढ़कार से परे यदि ढ़कार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला अण्-(अइउ) स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।

    • लिढ़् + ढः = लीढ़ः
    • लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्
    • अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः
    • लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः
    ____________________

    6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स

    यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में

    • च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।
    • त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।
    • ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।
    • कः + चौरः = कश्चौरः
    • बालकः + चलति = बालकश्चलति
    • कः + छात्रः = कश्छात्रः
    • रामः + टीकते = रामष्टीकते
    • धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः
    • मनः + तापः = मनस्तापः
    • नमः + ते = नमस्ते
    • रामः + तरति = रामस्तरति
    • पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त
    ____________________

    7. सूत्र- वाशरि

    यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।

    • दुः + शासन = दुःशासन/ दुश्शासन
    • बालः + शेते = बालःशेते/ बालश्शेते
    • देवः + षष्ठः = देवःषष्ठः/ देवष्षष्ठः
    • प्रथर्मः + सर्गः = प्रथर्मःसर्ग/ प्रथर्मस्सर्गः
    • निः + सन्देह = निःसंदेह/ निस्सन्दह


    ____________________________________

    एष: और स: के विसर्ग का नियम-💐↔

    एष: और स: के विसर्ग का नियम – एष: और स: के विसर्गों का लोप हो जाता है  यदि इन विसर्गों के बाद कोई व्यञ्जन वर्ण  जैसेेे. :-
    स: + कथयति = स कथयति।
    एष: + क:= एष क:।

    _______________

    नियम-र्(अथवा) विसर्ग (:) के स्थान पर र् के पश्चात यदि र् आता है तो प्रथम र् का लोप होकर उस र् से पूर्व आने वाले स्वर - (अइउ) की दीर्घ हो जाता है। 



    है

    💐↔रोरि ,ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घो८ण: – अर्थ:- "र से र' वर्ण परे होने पर पूर्व 'र लोप होकर(अ,इ,उ) स्वरों का दीर्घ स्वर हो जाता है।
    यदि विसर्ग के बाद र् आ


    ता है  तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग का लोप हो जाने के कारण उससे पहले आने वाले ( अ , इ, उ, का दीर्घ रूप आ,ई,ऊ हो जाता है।

    जैसे- 

    अन्त:+राष्ट्रीय=अन्ताराष्ट्रीय।अन्तर्+

    पुनः + रमते = पुनारमते । पुनर्+
    कवि: + राजते =कवीराजते ।कविर्+
    'हरि+रम्य= हरी रम्य।हरिर्+
    शम्भु: + राजते = शम्भूराजते । शम्भुष्+। शम्भुर्+

    👇जश्त्व सन्धि विधान :- 
    "पदान्त जश्त्व सन्धि"💐↔झलां जशो८न्ते।
    जब पद ( क्रियापद) या (संज्ञा पद) अन्त में  वर्गो के पहले, दूसरे,तीसरे,और चौथे वर्ण के बाद कोई भी स्वर या वर्ग का  वर्ण हो जाता है तब "पदान्त जश्त्व सन्धि" होती है ।
    अर्थात् पद के अन्त में वर्गो का पहला , दूसरा, तीसरा , और चौथे वर्ण आये अथवा कोई भी स्वर , अथवा कोई अन्त:स्थ आये परन्तु केवल ऊष्म वर्ण  न आयें तो वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्= जबगडदश्) हो जाता है।

    उदाहरण (Example):-
    जगत् + ईश = जगदीश: ।
    वाक् + दानम्= वाग्दानम्।
    वाक् + ईश : = वागीश ।
    अच्+ अन्त = अजन्त ।
    एतत् + दानम्= एतद् दानम् ।
    तत्+एवम् =तदेवम् ।                                               जगत् +नाथ=जगद्+नाथ=जगन्नाथ ।

    💐↔अपादान्त जश्त्व सन्धि - जब अपादान्त  में। अर्थात् (धात्वान्त) अथवा मूूूूल शब्दान्त  में वर्गो के पहले दूसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा अन्त:स्थ ( य,र,ल,व ) में से कोई वर्ण हो तो पहले वर्ण को उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है ।

    उदाहरण( Example )
    लभ् + ध : = लब्ध: । (धातुु रूप)
    उत् + योग = उद्योग :। (उपसर्ग रूप)
    पृथक् +भूमि = पृथग् भूमि: । (मूलशब्द)
    महत् + जीवन = महज्जीवनम्।(मूलशब्द)
    सम्यक् + लाभ = सम्यग् लाभ :।(मूलशब्द)
    क्रुध् + ध: = क्रुद्ध:।(धातुु रूप)

    _________________________   

    प्रत्यय लगे हुए वाक्य में प्रयुक्त शब्द अथवा क्रिया  रूप पद कहलाते हैं ।

    ये क्रिया पद और  संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि आठ प्रकार के होते हैं ।

    • संज्ञा
    • सर्वनाम
    • विशेषण और
    • क्रिया।

    2. अविकारी-जो शब्द प्रयोगानुसार परिवर्तित नहीं होते, वे शब्द ‘अविकारी शब्द’ कहलाते हैं। धीरे-धीरे, तथा, अथवा, और, किंतु, वाह !, अच्छा ! ये सभी अविकारी शब्द हैं। इनके भी मुख्य रूप से चार भेद हैं :

    • क्रियाविशेषण
    • समुच्चयबोधक
    • संबंधबोधक और
    • विस्मयादिबोधक।

    (विभक्त्यन्तशब्दभेदे “सुप्तिङन्तं पदम्” ) ।

    ______________________________________

    चर्त्व सन्धि विधान-( खरि च)
    "झय् का चय् हो जाता है झय् से परे खर् होने पर "।
    परिभाषा:- जब वर्ग के पहले, दूसरे , तीसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का पहला  दूसरा वर्ण अथवा ऊष्म वर्ण श्  ष्  स्  हो तो पहले वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पहला वर्ण जाता है तब "चर्त्व सन्धि होती" है ।

    लभ् + स्यते  = लप्स्यते ।
    उद् + स्थानम् = उत्थानम् ।
    उद् + पन्न:=उत्पन्न:।
    युयुध्+ सा = युयुत्सा ।
    एतत् + कृतम् = एतत् कृतम्।
    तत् + पर: =तत्पर: ।

    _________________________________________

    'छत्व सन्धि' विधान:- सूत्र-।शश्छोऽटि।

    शश्छोऽटि (..६३) = पदान्तस्य झयः- ( झभघढधजबगडदखफछठथचटतकप) उत्तरस्य शकारस्य अटि-(अइउऋऌएओऐऔहयवर) परे छकारादेशो भवति अन्यतरस्याम्‌ 
    अन्वयार्थ:-शः षष्ठ्यन्तंछः प्रथमान्तम्‌अटि सप्तम्यन्तंत्रिपदमिदं सूत्रम्‌-।

    छत्व सन्धि विधान :- 

    अर्थ-•यदि पूर्व पद के अन्त में पाँचों वर्गों के  प्रथम, द्वितीय तृतीय और चतुर्थ) का कोई वर्ण हो और उत्तर पद के पूर्व (आदि) में शिकार '(श) और इस श' के पश्चात कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ  ल" को छोड़कर महाप्राण 'ह'-(य'व'र' ह)हो तो श वर्ण का छ वर्ण भी हो जाता है । 

    वैसे भी तवर्ग का चवर्ग श्चुत्व सन्धि रूप में (स्तो: श्चुना श्चु:) सूत्र हो जाता है  ।
    परिभाषा:- यदि त् अथवा न् वर्ण के बाद  "श"  वर्ण आए और "श" के बाद कोई स्वर अथवा कोई अन्त:स्थ (य, र , व , ह )वर्ण हो तो
    'श' वर्ण को विकल्प से छकार (छ) हो जाता है  और स्तो: श्चुना श्चु: - सूत्र के नियम से 'त्' को 'च्'  और 'न्' को 'ञ्' हो जाता है जैसे :- 

    सत् +शास्त्र = सच्छास्त्र ।

    धावन् + शशक: = धावञ्छशक: ।

    श्रीमत्+शंकर=श्रीमच्छङ्कर।

    १- तत्+शिव= त् के बाद श्  तथा श के बाद 'इ स्वर आने पर श' के स्थान पर 'छ्' वर्ण हो जाता है । रूप होगा सन्धि का तत्छिव  (तत् + छिव) तत्पश्चात ्( श्चुत्व सन्धि) करने पर बनेगा रूप तच्+ छिव (तत्छिव).             

    २-एतत्+शान्तम्= त् के बाद श् और श् के बाद 'आ' स्वर आने से  श्'  के स्थान पर छ्' वर्ण हो जाता है। रूप बनेगा एतत् +छान्तम्- तत्पश्चात श्चुत्व सन्धि से आगामी रूप होगा (एतच्छान्तम्)

    ३-तत् +श्व: पूर्व पद के अन्त में त्  और उसके पश्चात उत्तर पद के प्रारम्भ में श्' और उसके बाद अन्त:स्थ 'व' आने पर श्' के स्थान पर छ' (श्चुत्व सन्धि) से हो जाता है ।  तत् + शव: + तत्छव: फिर श्चुत्व सन्धि) से तच्छ्व: रूप होगा।

           (- प्रत्याहार-)

       *********************************

    ........माहेश्वर सूत्र कुल १४ हैं, इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र ( १.१.१४ ) "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" ( ८.४.४७ ) से बनता है । इस प्रकार कुल ४३ प्रत्याहार हो जाते हैं।

    प्रश्न : ----- "प्रत्याहार" किसे कहते हैं ?

    उत्तर : ----- "प्रत्याहार" संक्षेप करने को कहते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ७१ वें सूत्र " आदिरन्त्येन सहेता " ( १-१-७१ ) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि मुनिने निर्देश किया है।

    आदिरन्त्येन सहेता ( १-१-७१ ) :- ( आदिः + अन्त्येन इता + सह )

    ........आदि वर्ण अन्तिम इत् वर्ण के साथ मिलकर “ प्रत्याहार ” बनाता है । जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए सभी वर्णों का समष्टि रूप में बोध कराता है।

    ........जैसे "अण्" कहने से अ, इ, उ तीन वर्णों का ग्रहण होता है, "अच्" कहने से "अ" से "च्" तक सभी स्वरों का ग्रहण होता है। "हल्" कहने से सारे व्यञ्जनों का ग्रहण होता है।

    इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैं --

    (०१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (०२) आदि अक्षरों के अनुसार।

    इनमें से अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी से अनुसार है।

    _________________________               

    अन्तिम अक्षर के अनुसार ४३ प्रत्याहार सूत्र सहित

    (क.) अइउण् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।

    ........(०१) " अण् " ----- उरण् रपरः । ( १.१.५० 

    (ख.) ऋलृक् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(०२) " अक् " ----- अकः सवर्णे दीर्घः ।                ( ६.१.९७ ), 

    ........(०३) " इक् " ----- इको गुणवृद्धी । ( १.१.३ ), 

    ........(०४) " उक् " ----- उगितश्च । ( ४.१.६ )

    (ग) एओङ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।

    ........(०५) " एङ् " ----- एङि पररूपम् । ( ६.१.९१ )

    (घ) ऐऔच् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(०६) " अच् " ----अचोSन्त्यादि टि । ( १.१.६३ ), 

    .......(०७) " इच् " --- इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च । (६.३.६६ ), 

    ........(०८) " एच् " ----- एचोSयवायावः । ( ६.१.७५ ), 

    ........(०९) " ऐच् " ----- वृद्धिरादैच् । ( १.१.१ ),

    (ङ) हयवरट् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 

    ........(१०) " अट् " ----- शश्छोSटि । ( ८.४.६२ 

    (च) लण् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(११) " अण् " ----- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः । (१.१.६८ ), 

    ........(१२) " इण् " ----- इण्कोः । ( ८.३.५७ ), 

    ........(१३) " यण् " ----- इको यणचि । ( ६.१.७४ )


    (छ) ञमङणनम् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(१४) " अम् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ), 

    ........(१५) " यम् " ----- हलो यमां यमि लोपः ।               ( ८.४.६३ ), 

    ........(१६) " ङम् " ----- ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् । ( ८.३.३२ ), 

    ........(१७) " ञम् " ----- ञमन्ताड्डः । ( उणादि सूत्र — १.१.१४ )


    (ज) झभञ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 

    ........(१८) " यञ् " ----- अतो दीर्घो यञि ।                   ( ७.३.१०१ )


    (झ) घढधष् ----- इससे दो प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(१९) "झष् " और 

    ........(२०) " भष् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )


    (ञ) जबगडदश् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(२१) " अश् " ----- भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि । ( ८.३.१७ ), 

    ........(२२) " हश् " ----- हशि च । ( ६.१.११० ) 

    ........(२३) " वश् " ----- नेड् वशि कृति । ( ७.२.८ ), 

    ........(२४) " झश् ", 

    ........(२५) " जश् " ----- झलां जश् झशि ।                 ( ८.४.५२ ), 

    ........(२६) " बश् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )

    (ट) खफछठथचटतव् --- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 

    ........(२७) " छव् " ----- नश्छव्यप्रशान् । ( ८.३.७ )


    (ठ) कपय् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(२८) " यय् " ---- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः ।    ( ८.४.५७ ), 

    ........(२९) " मय् " ----- मय उञो वो वा । ( ८.३.३३ ), 

    ........(३०) " झय् " ----- झयो होSन्यतरस्याम् । ( ८.४.६१ ), 

    ........(३१) " खय् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ), 

    ........(३२) " चय् " ----चयो द्वितीयः शरि पौषकरसादेः । (वार्तिकः--- ८.४.४७ ),


    (ड) शषसर् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(३३) " यर् " ----- यरोSनुनासिकेSनुनासिको वा । ( ८.४.४४ ), 

    ........(३४) " झर् " ----- झरो झरि सवर्णे । ( ८.४.६४ ), 

    ........(३५) " खर् " ----- खरि च । ( ८.४.५४ ), 

    ........(३६) " चर् " ----- अभ्यासे चर्च । ( ८.४.५३ ), 

    ........(३७) " शर् " ----- वा शरि । ( ८.३.३६ ),

    (ढ) हल् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।

    ........(३८) " अल् " ----- अलोSन्त्यात् पूर्व उपधा ।  (१.१.६४ ), 

    ........(३९) " हल् " ----- हलोSनन्तराः संयोगः ।  (१.१.५७ ), 

    ........(४०) " वल् " ----- लोपो व्योर्वलि । ( ६.१.६४ ), 

    ........(४१) " रल् " ----- रलो व्युपधाद्धलादेः सश्च ।  (१.२.२६ ), 

    ........(४२) " झल् " ----- झलो झलि । ( ८.२.२६ 

    ........(४३) " शल् " ----- शल इगुपधादनिटः क्सः । ( ३.१.४५ )

    आदि वर्ण के अनुसार ४३ प्रत्याहार

    ........(क) अकार से ८ प्रत्याहारः---(१) अण्, (२) अक्, (३) अच्, (४) अट्, (५) अण्, (६) अम्, (७) अश्, (८) अल्,


    ........(ख) इकार से तीन प्रत्याहारः--(९) इक्, (१०) इच्, (११) इण्,

    ........(ग) उकार से एक प्रत्याहारः--(१२) उक्,

    ........(घ) एकार से दो प्रत्याहारः---(१३) एङ्, (१४) एच्,

    ........(ङ) ऐकार से एकः---(१५) ऐच्,

    ........(च) हकार से दो---(१६) हश्, (१७) हल्,

    ........(छ) यकार से पाँच---(१८) यण्, (१९) यम्, (२०) यञ्, (२१) यय्, (२२) यर्,

    ........(ज) वकार से दो---(२३) वश्, (२४) वल्,

    ........(झ) रेफ से एक---(२५) रल्,

    ........(ञ) मकार से एक---(२६) मय्,

    ........(ट) ङकार से एक---(२७) ङम्,

    ........(ठ) झकार से पाँच---(२८) झष्, (२९) झश्, (३०) झय्, (३१) झर्, (३२) झल्,

    ........(ड) भकार से एक---(३३) भष्,

    ........(ढ) जकार से एक--(३४) जश्,

    ........(ण) बकार से एक---(३५) बश्,

    ........(त) छकार से एक---(३६) छव्,

    ........(थ) खकार से दो---(३७) खय्, (३८) खर्,

    ........(द) चकार से एक---(३९) चर्,

    ........(ध) शकार से दो---(४०) शर्, (४१) शल्,

    इसके अतिरिक्त 

    ........(४२) ञम्--- एक उणादि का और 

    ........(४३) चय्---एक वार्तिक का, 

    कुल ४३ प्रत्याहार हुए।

    _____________________________________________________

    १-अक्अ,  इ , उ, ऋ , लृ 

    २-अच्अ,  इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ
    , ऐ , औ 
    ३-अट्अ,  इ , उ, ऋ , लृ , ए ,
    ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व्,र्, 
    ४-अण्अ , इ , उ 
    ५-अण्अ,  इ , उ, ऋ , लृ , ए ,
    ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व, र्, ल्
    ६-अम्स्वर , ह्, य्,व, र्, ल्,
    ञ्,म्,ङ्,ण्,न्
    ७-अल्सभी वर्ण 
    ८-अश्स्वर, ह्, य्,व, र्, ल्,वर्गों के
     3,4,5,वर्ण।
    ९-इक् इ , उ, ऋ , लृ
    १०-इच्इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ ,
     ऐ , औ 
    ११-इण्इ , उ, ऋ , लृ , ए ,
    ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्
    १२-उक्उ, ऋ,लृ 
    १३-एङ्ए,ओ 
    १४-एच्ए , ओ , ऐ , औ 
    १५-ऐच्ऐ , औ 
    १६-खय्
    वर्गों के 1,2 वर्ण।
     

    १७-खर्-वर्गों के प्रथम-
    ( और द्वितीय और महाप्राण
     सहित उष्मवर्ण) खफछठथचटतकपशषसह) 

    १८-ङम्ङ् , ण्, न्
    १९-चय्च्, ट्, त, क्, प्
    { वर्गों के प्रथम वर्ण }
    १९-चर्वर्गों के प्रथम वर्ण, श्, ष्, स्
    २०-छव्छ् , ठ् , थ् , च् , ट् , त्, व्
    २१-जश्ज्, ब्, ग्, ड्, द्
    २२-झय्वर्गों के 1, 2, 3, 4 
    २३-झर्वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स्
    २४-झल्वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स्,ह 
    २५-झश्वर्गों के 3, 4 वर्ण।
    २६-झष्वर्गों के चतुर्थ वर्ण
     { झ्, भ्, घ्, ढ्, ध् }
    २७-बश्ब्, ग्, ड्, द्
    २८-भष्झ् के अलावा वर्गों के चतुर्थ
    वर्ण 
    २९-मय्ञ् को छोड़कर वर्गों के
    1, 2, 3, 4, 5 
    ३०-यञ्य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 5 , झ्, भ् 
    ३१-यण्य्, व्, र्, ल्
    ३२-यम्य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ङ्, ण्, न्
    ३३-यय्य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 
    ३४-यर्य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 , श्, ष्, स्
    ३५-रल्य् , व् के अलावा सभी
    व्यञ्जन 
    ३६-वल्य् ,  के अतिरिक्त सभी
     व्यञ्जन वर्ण। 
    ३७-वश्व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 वर्ण। 
    ३८-शर्श्, ष्, स्
    ३९-शल्श्, ष्, स्, ह { ऊष्म वर्ण }
    ४०-हल्सभी व्यञ्जन 
    ४१-हश्ह, य्, व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 
    ४२-ञम्ञ्, म्, ङ्, ण्, न् 

    इण् प्रत्याहार दो हैं

    प्रस्तुति-करण-यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्कसूत्र --8077160219

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