बुधवार, 24 मार्च 2021

भाषा उत्पत्ति के सिद्धांत-



भाषा की उत्पति और सिद्धांत
भाषा कि उत्पति  कैसे हुइ यह जानना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण बात है क्योकि भाषा कि उत्पति से हमारे समाज की प्रगति व  विकास यात्रा प्रारम्भ हुई ।
 आज सम्पूर्ण  विश्व की भाषाऐं इतनी परिवर्तित हो चुकी है कि उनके माध्यम से  यदि हम  भाषा उत्पति का सिद्धान्त निर्धारित करेंगे तो यह सम्भव नहीं 
आधुनिक भाषाएँ अपने मूल रूप से बहुत ही दूर आ चुकी है ।  
मूल रूप से इतनी दूर आ चुकी है कि अंतर मापन करना मुश्किल  ही नहीं असम्भव भी है ।
और उनके आधार पर भाषा के मूलरूप को पहचानना मुश्किल है ।

आज हम भाषा उत्पत्ति के विषय पर किए गए अनुमानो पर चर्चा करेंगे जिन्हें सिद्धान्त भी कहते हैं। परन्तु  तथ्य सैद्धांतिक  तब कहलाता है जब वह नियमों के द्वारा सिद्ध होकर एक निश्चित परिणाम को प्राप्त होता हो - 

Ø  दिव्योत्पति सिद्धांत :
भाषाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मत यह है कि संसार की अनेकानेक वस्तुओं की रचना जहाँ भगवान ने की है तो सब भाषाएँ भी भगवान की ही बनाई हुई हैं। कुछ लोग तो  धार्मिक रूढ़िवादी होकर  इसी मत को मानते हैं उनका मानना है कि मनुष्य की पराचेतना किसी अलौकिक सूत्र से बंधी हुई है.।
सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम बहुस्याम.” ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करना चाहिये.यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड उस ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता की संतान हैं.।

इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव. ।
इसलिये ऋग्वेद के एक सूक्त में ऋषियों ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये कहा कि –“ वाणी दैविक शक्ति का वरदान है जो इस संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हुआ है और मनुष्य की चेतना में इसी वाणी ने परिनिष्ठित भाषा का रूप लिया.

दे॒वीं वाच॑मजनयन्त दे॒वास्तां वि॒श्वरू॑पाः प॒शवो॑ वदन्ति ।सा नो॑ म॒न्द्रेष॒मूर्जं॒ दुहा॑ना धे॒नुर्वाग॒स्मानुप॒ सुष्टु॒तैतु॑ ॥११


सायण भाष्य-

एषा माध्यमिका वाक् सर्वप्राण्यन्तर्गता धर्माभिवादिनी भवतीति विभूतिमुपदर्शयति । यां “देवीं द्योतमानां माध्यमिकां “वाचं “देवाः माध्यमिकाः “(अजनयन्त =जनयन्ति“तां वाचं “(विश्वरूपाः =सर्वरूपा) व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च “पशवो “वदन्ति । तत्पूर्वकत्वाद्वाक्प्रवृत्तेः । “सा “वाक् देवी “मन्द्रा मदना स्तुत्या हर्षयित्री वा वृष्टिप्रदानेनास्मभ्यम् (“इषम् =अन्नम् )“ऊर्जं पयोघृतादिरूपं रसं च “दुहाना क्षरन्ती “धेनुः धेनुभूता “सुष्टुता अस्माभिः स्तुता “अस्मान् नेमान् (“उप “ऐतु =उपगच्छतु) । वर्षणायोद्युक्तेत्यर्थः । 

तथा च यास्कः- ‘ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च सा नो मदनान्नं च रसं च दुहाना धेनुर्वागस्मानुपैतु सुष्टुता' (निरु. ११. २९) इति ॥

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। (ऋग्वेद-8.100.11)

अर्थात् देवलोग जिस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं, साधारण जन उसी को बोलते हैं। 

यहाँ पर पशु का अर्थ मनुष्य है। वेद में पशु शब्द मनुष्य-प्रजा का भी वाचक है। 

अथर्ववेद (14.2.25) में वधू के प्रति आशीर्वाद मन्त्र है-----वितिष्ठतां मातुरस्या उपस्थानान्नानारूपाः पशवो जायमानाः।



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सखे॑ विष्णो वित॒रं वि क्र॑मस्व॒ द्यौर्दे॒हि लो॒कं वज्रा॑य वि॒ष्कभे॑ । हना॑व वृ॒त्रं रि॒णचा॑व॒ सिन्धू॒निन्द्र॑स्य यन्तु प्रस॒वे विसृ॑ष्टाः ॥१२।।

हे सखे “विष्णो त्वं “वितरम् अत्यन्तं “वि “क्रमस्व विक्रमं कुरु । हे “द्यौः त्वं "वज्राय वज्रस्य “विष्कभे =विष्कम्भनाय “लोकम् अवकाशं “देहि= प्रयच्छ । हे विष्णो त्वं चाहं चोभौ आवां “वृत्रम् असुरं “हनाव हन्वः । “सिन्धून् वृत्रावष्टब्धा नदीश्च “रिणचाव नयावः । तेऽमी “विसृष्टाः सिन्धवः “इन्द्रस्य “प्रसवे "यन्तु प्रेरणे गच्छन्तु । तमिममर्थं संगृह्य श्लोकैः शौनको दर्शयति-- ‘ त्रीँल्लोकानभिवृत्यैतान् वृत्रस्तस्थौ स्वया त्विषा ॥ तं नाशकद्धन्तुमिन्द्रो' विष्णुमभ्येत्य सोऽब्रवीत् । वृत्रं हनिष्ये तिष्ठस्व विक्रम्याद्य ममान्तिके ॥ उद्यतस्य तु वज्रस्य द्यौर्ददातु ममान्तरम् । तथेति विष्णुस्तच्चक्रे द्यौश्चास्य विवरं ददौ ॥ तदेतदखिलं प्रोक्तं सखे विष्णो इति त्वृचा' (बृहद्दे. ६. १२१-१२४ ) इति ॥ ॥ ५ ॥ 

(ज्यूस का वज्र) नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः       स्म ताम् ।।8।।

    तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफ़लेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।

देवीं वाचमजनयन्त  देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।।10।।
हिंदी अर्थ:
ॐ सभी देवता देवी के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे- हे महादेवि! तुम कौन हो? ।1।
देवी ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप  और असद्रूप जगत उत्पन्न हुआ है।२।

मैं आनंद और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और पंचीकृत जगत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत मैं ही हूँ ।3।
वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा  भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।4।

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्र, अग्नि एवं दोनों अश्विनीकुमारों का भरण पोषण करती हूँ।5।

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। अथ श्री देव्यथर्वशीर्षम ।
ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ।।1।।
साब्रवीत्- अहं ब्रह्म्स्वरुपिणी । मत्तः प्रकृति पुरुशात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ।।2।।
अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पञ्च्भूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।।3।।

वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम् । अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ।।4।।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।। 5।।
अहं सोमं तवष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ।।6।।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते । अहं राष्ट्री सङ्ग्मनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् । अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद । स दैवीं संपदमाप्नोति ।।7।।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवाय
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नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।8।।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफ़लेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।

देवीं वाचमजनयन्त  देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।।10।।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्  ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ।।11।।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो       देवी         प्रचोदयात् ।।12।।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वाजयन्त भद्रा अमृतबन्धवः ।।13।।

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्  ।।14।

एषाऽऽत्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा ।
एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ।।15।।

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ।।16।।

सैपाष्टाै वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः ।
सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च ।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्रजस्तमान्सि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररुपिणी ।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः । सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि ।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ।।
पपापहारिणीं देवीं भक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ।।17।।

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ।।18।।
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ।।19।।

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसन्युक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः ।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ।।20।।

ह्रित्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ।।21।।
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुन्यरूपिणीम् ।।22।।

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका ।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ।।23।।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।।24।।

तां दुर्गा दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ।।25।।

 इदमर्थर्वशीर्षं योऽधीते स पन्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति-शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ।।26।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाश्यति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाश्यति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीय संध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

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Devi Atharva Sheersham Meaning



मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ।6।

देवों को उत्तम हवि  पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिए मैं हविर्द्रव्यों से युक्त धन को धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाश आदि का निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धिवृत्ति में है।  जो इस प्रकार जानता है, दैवी संपत्ति लाभ करता है।7।

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है। बड़े बड़ों को अपने-अपने कर्तव्य में प्रवृत्त करने वाली कल्याणकत्री को सदा नमस्कार है। गुण साम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।8।


उन अग्नि के जैसी वर्ण (रंग) वाली, ज्ञान से जगमगाने वाली, दीप्तिमति, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली देवि ! तुम्हे नमस्कार है।9। 

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशवान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु तुली आनंद दायक और अन्न तथा बल देने वाली वागरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये।10।

काल का भी नाश करने वाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कंदमाता , सरस्वती , देवमाता अदिति और दक्षकन्या , पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं।11।

हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें उस विषय  में प्रवृत्त करें।12।

हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनसे मृत्युरहित देव उत्पन्न हुए।13।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि- इंद्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स- वर्ण, मातरिश्वा- वायु (क), अभ्र (ह), इंद्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल- वर्ण और माया (ह्रीं)- या सर्वात्मिका जगन्माता की मूलविद्या है और वह ब्रह्मस्वरूपिणी है।14।

ये परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये श्री महाविद्या हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार आकर जाता है।15।

भगवती! तुम्हे नमस्कार है। माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो।16।

(मन्त्रदृष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वासु हैं, वही ये एकादश रूद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज और ताम हैं, वही ये ब्रह्म, विष्णु, रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इंद्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करने वाली, भोग-मोक्ष देने वाली , अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगल रूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं।17।

वियत- आकाश (ह) तथा 'ई' कार से युक्त, वीतिहोत्र- अग्नि (र)- सहित, अर्धचंद्र से अलंकृत जो देवी का बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करने वाला है। इस प्रकार एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं)- का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त का शुद्ध है, जो निरातिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान के सागर हैं। (यह मन्त्र देवी का प्रणव माना जाता है। ॐकार के सामान यह मन्त्र भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है) ।18-19।

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू- काम (क्लीं), इसके आगे छठा भोजन अर्थात च, वही वक्त्र अर्थात आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र'- दक्षिण कर्ण (उ) और बिंदु अर्थात अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात 'ऐ' से युक्त (यै)और 'विच्चे' यह नवार्ण मन्त्र उपासकों को आनंद और ब्रह्म सायुज्य देने वाला है।
भावार्थ -[हे चित्स्वरुपिणी महासरस्वती! हे सद रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनंद रूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्या रूप रज्जू की दृढ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो] ।20।

हृतकमल के मध्य में रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र परिधान करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ।21।

महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शांत करने वाली और महान करुना की साक्षात मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।22।

जिसका स्वरुप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिए जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अंत नहीं मिलता- इसीलिए जिसे अनंता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता- इसीलिए जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिनका जन्म समझ में नहीं आता- इसीलिए जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है- इसीलिए जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है- इसीलिए जैसे नैका कहते हैं, वह इसीलिए अज्ञेया, अनंता, अलक्ष्या, अजा, एका, नैका कहाती हैं।23।

सब मन्त्रों में 'मातृका'- मूलाक्षर रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।24।

उन दुर्विज्ञेय, दुराचार नाशक और संसार सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।२५।

इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्शीर्षों के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकार जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तर जप (108 बार) इसकी पुरश्चरण विधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के पसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है।२६।

फलश्रुति- इसका सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन मेंकिये हुए पापों का नाश करता है, प्रातः काल में अध्ययन करने वाला रात्री में किये हुए पापों का नाश करता है। दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाकसिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी (अमृतसिद्धि) योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है।  जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्यानाशिनी ब्रह्मविद्या है।।

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|| Devi Atharvashirsha ||



। अथ श्री देव्यथर्वशीर्षम ।

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ।।1।।
साब्रवीत्- अहं ब्रह्म्स्वरुपिणी । मत्तः प्रकृति पुरुशात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ।।2।।
अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पञ्च्भूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।।3।।

वेदोऽहमवेदोऽहम् । विद्याहमविद्याहम् । अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ।।4।।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।। 5।।
अहं सोमं तवष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ।।6।।

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते । अहं राष्ट्री सङ्ग्मनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् । अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद । स दैवीं संपदमाप्नोति ।।7।।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।

 

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ।।8।।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफ़लेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।

देवीं वाचमजनयन्त  देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।।10।।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्  ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ।।11।।

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो       देवी         प्रचोदयात् ।।12।।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
तां देवा अन्वाजयन्त भद्रा अमृतबन्धवः ।।13।।

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम्  ।।14।।

 

एषाऽऽत्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा ।
एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ।।15।।

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ।।16।।

सैपाष्टाै वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः ।
सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च ।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्रजस्तमान्सि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररुपिणी ।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः । सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि ।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ।।
पपापहारिणीं देवीं भक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ।।17।।

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ।।18।।
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ।।19।।

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसन्युक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः ।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ।।20।।

ह्रित्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ।।21।।
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुन्यरूपिणीम् ।।22।।

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका ।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ।।23।।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।।24।।

तां दुर्गा दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ।।25।।

 इदमर्थर्वशीर्षं योऽधीते स पन्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति-शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः।
दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ।।26।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाश्यति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाश्यति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीय संध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

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Devi Atharva Sheersham Meaning
हिंदी अर्थ:
ॐ सभी देवता देवी के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे- हे महादेवि! तुम कौन हो? ।1।
देवी ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप  और असद्रूप जगत उत्पन्न हुआ है।२।

मैं आनंद और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और पंचीकृत जगत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत मैं ही हूँ ।3।
वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा  भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।4।

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्र, अग्नि एवं दोनों अश्विनीकुमारों का भरण पोषण करती हूँ।5।

 

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिए विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ।6।

देवों को उत्तम हवि  पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिए मैं हविर्द्रव्यों से युक्त धन को धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाश आदि का निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धिवृत्ति में है।  जो इस प्रकार जानता है, दैवी संपत्ति लाभ करता है।7।

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है। बड़े बड़ों को अपने-अपने कर्तव्य में प्रवृत्त करने वाली कल्याणकत्री को सदा नमस्कार है। गुण साम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है। नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।8।

 


उन अग्नि के जैसी वर्ण (रंग) वाली, ज्ञान से जगमगाने वाली, दीप्तिमति, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली देवि ! तुम्हे नमस्कार है।9। 

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशवान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु तुली आनंद दायक और अन्न तथा बल देने वाली वागरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये।10।

काल का भी नाश करने वाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कंदमाता , सरस्वती , देवमाता अदिति और दक्षकन्या , पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं।11।

हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें उस विषय  में प्रवृत्त करें।12।

हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनसे मृत्युरहित देव उत्पन्न हुए।13।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि- इंद्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स- वर्ण, मातरिश्वा- वायु (क), अभ्र (ह), इंद्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल- वर्ण और माया (ह्रीं)- या सर्वात्मिका जगन्माता की मूलविद्या है और वह ब्रह्मस्वरूपिणी है।14।

ये परमात्मा की शक्ति हैं। ये विश्वमोहिनी हैं। पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करने वाली हैं। ये श्री महाविद्या हैं। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार आकर जाता है।15।

भगवती! तुम्हे नमस्कार है। माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो।16।

(मन्त्रदृष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वासु हैं, वही ये एकादश रूद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज और ताम हैं, वही ये ब्रह्म, विष्णु, रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इंद्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करने वाली, भोग-मोक्ष देने वाली , अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगल रूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं।17।

वियत- आकाश (ह) तथा 'ई' कार से युक्त, वीतिहोत्र- अग्नि (र)- सहित, अर्धचंद्र से अलंकृत जो देवी का बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करने वाला है। इस प्रकार एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं)- का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त का शुद्ध है, जो निरातिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान के सागर हैं। (यह मन्त्र देवी का प्रणव माना जाता है। ॐकार के सामान यह मन्त्र भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है) ।18-19।

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू- काम (क्लीं), इसके आगे छठा भोजन अर्थात च, वही वक्त्र अर्थात आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र'- दक्षिण कर्ण (उ) और बिंदु अर्थात अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात 'ऐ' से युक्त (यै)और 'विच्चे' यह नवार्ण मन्त्र उपासकों को आनंद और ब्रह्म सायुज्य देने वाला है।
भावार्थ -[हे चित्स्वरुपिणी महासरस्वती! हे सद रूपिणी महालक्ष्मी! हे आनंद रूपिणी महाकाली! ब्रह्मविद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्या रूप रज्जू की दृढ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो] ।20।

हृतकमल के मध्य में रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र परिधान करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ।21।

महाभय का नाश करने वाली, महासंकट को शांत करने वाली और महान करुना की साक्षात मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ।22।

जिसका स्वरुप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिए जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अंत नहीं मिलता- इसीलिए जिसे अनंता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं पड़ता- इसीलिए जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिनका जन्म समझ में नहीं आता- इसीलिए जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है- इसीलिए जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है- इसीलिए जैसे नैका कहते हैं, वह इसीलिए अज्ञेया, अनंता, अलक्ष्या, अजा, एका, नैका कहाती हैं।23।

सब मन्त्रों में 'मातृका'- मूलाक्षर रूप से रहने वाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।24।

उन दुर्विज्ञेय, दुराचार नाशक और संसार सागर से तारने वाली दुर्गा देवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।२५।

इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्शीर्षों के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष को न जानकार जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तर जप (108 बार) इसकी पुरश्चरण विधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महादेवी के पसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है।२६।

फलश्रुति- इसका सायंकाल में अध्ययन करने वाला दिन मेंकिये हुए पापों का नाश करता है, प्रातः काल में अध्ययन करने वाला रात्री में किये हुए पापों का नाश करता है। दोनों समय अध्ययन करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाकसिद्धि प्राप्त होती है। नयी प्रतिमा पर जप करने से देवता सान्निध्य प्राप्त होता है। प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी (अमृतसिद्धि) योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है।  जो इस प्रकार जानता है, वह महामृत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्यानाशिनी ब्रह्मविद्या है।।

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|| Devi Atharvashirsha ||








संस्कृत को ‘देवभाषा’ कहने में इसी का संकेत मिलता है। इसी प्रकार पाणिनी के व्याकरण ‘अष्टाध्यायी’ के 14 मूल सूत्र महेश्वर के डमरू से निकले माने जाते हैं।
 बौद्ध लोग ‘पालि’ को भी इसी प्रकार मूल भाषा मानते रहे हैं उनका विश्वास है कि भाषा अनादि काल से चली आ रही है। जैन लोग इससे भी आगे बढ़ गए हैं। उनके अनुसार अर्धमागधी केवल मनुष्यों की ही नही अपितु देव, पशु-पक्षी सभी की भाषा है। 
हिब्रू भाषा के कुछ विद्वानों ने बहुत-सी भाषाओं के वे शब्द इकट्ठे किए जो हिबू से मिलते जुलते थे और इस आधार पर यह सिद्ध किया कि हिब्रू ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है।

इस विश्लेषण के अनुसार भाषा की उत्पत्ति का प्रायोजन दैविक माना जाता है लेकिन जैसे-जैसे भाषाविज्ञानियों की खोज आगे बढ़ती गई ; तो इस दैवीय सिद्धांत पर भी  शंकाएँ उठने लगी.जैसे- अनीश्वरवादियों का तर्क है कि यदि मनुष्य को भाषा मिलनी थी जन्म के साथ क्यों नहीं मिली.  क्योंकि अन्य  सभी जीवों को बोलियों का उपहार जन्म के साथ-साथ मिला लेकिन मानव शिशु को जन्म लेते ही भाषा नहीं मिली.
उसने अपने समाज में रहकर धीरे-धीरे भाषागत संस्कारों का विकास किया.
यदि भाषा की दैवी उत्पत्ति हुई होती हो सारे संसार की एक ही भाषा होती तथा बच्चा जन्म से ही भाषा बोलने लगता। 
इससे सिद्ध होता है कि यह केवल अंधविश्वास है कोई ठोस सिद्धान्त नहीं है।
मिस्र के राजा सैमेटिकुस (psammetius), और फ्रेड्रिक द्वित्तीय (1195-1250), स्काटलैंड के जेम्स चतुर्थ (1488-1513) तथा अकबर बादशाह (1556-1605) ने  भी भिन्न-भिन्न प्रयोगों द्वारा छोटे शिशुओं को समाज से पृथक् एकान्त में रखकर देखा कि उन्हें कोई भाषा आती है या नहीं। 

सबसे सफल अकबर का प्रयोग रहा क्योंकि वे दोनों लड़के गूंगे निकले जो समाज से अलग रखे गए थे।

रॉबिन्स क्रूसो का कथन है कि भाषण शक्ति सम्पन्न वह व्यक्ति पशुओं के सहवास के कारण पशुओं की तरह उच्चारण करता था ।
 इससे सिद्ध होता है कि भाषा प्रकृति के द्वारा प्रदत्त कोई उपहार नहीं है।
भाषा में नये-नये शब्दों का आगमन होता रहता है और पुराने शब्द प्रयोग-क्षेत्र से बाहर हो जाते हैं।

निष्कर्ष:-
भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवी सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है। इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव है। इसमें भाषा की उत्पत्ति की समस्या का कोई समाधान नहीं मिलता। 

हाँ, इस सिद्धान्त में यहाँ तक सच्चाई तो है कि बोलने की शक्ति मनुष्य को जन्मजात अवस्था से प्राप्त है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कुछ हद तक इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाय,तब भी दिव्योत्पति सिद्धांत का नियामक नहीं हो सकता.
इसलिये भाषाविज्ञानियों ने अन्य प्रयोजनों पर शोध कार्य जारी रखा और कुछ नये सिद्धांत सामने आये.
भाषा और विचार का नित्य स्वाभाविक तथा अनिवार्य सम्बन्ध है । विचार को भाषा से पृथक नहीं किया जा सकता है । विचार यदि होगे तो वे स्वत: ही भाषा के द्वारा व्यक्त हो जाऐंगे- जन्म से गूँगे व्यक्ति में भी भाषा के अभाव में विचार होते हैं ।यह उसकी क्रियाओं से भी सिद्ध होता है । भाषा कि उत्पत्ति के अनेक सन् पूरक सिद्धान्तों का विकास हुआ जिनमें कुछ परस्पर सन् पूरक रूप में परिबद्ध होकर भाषा सी उत्पत्ति पर प्रकाशन करते हैं ।
★-  सांकेतिक उत्पत्ति वाद अथवा निर्णय सिद्धान्त (Agreement Theory Conventional or Symbolic Origin-
इसे निर्णय-सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के प्रथम प्रतिपादक फ्राँसीसी विचारक रूसो हैं। संकेत सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक अवस्था में मानव ने अपने भावों-विचारों को अपने अंग संकेतों से प्रषित किया होगा बाद में इसमें जब कठिनाई आने लगी तो सभी मनुष्यों ने सामाजिक समझौते के आधार पर विभिन्न भावों, विचारों और पदार्थों के लिए अनेक ध्वन्यात्मक संकेत निश्चित कर लिए। 
यह कार्य सभी मनुष्यों ने एकत्र होकर विचार विनिमय द्वारा किया। इस प्रकार भाषा का क्रमिक गठन हुआ और एक सामाजिक पृष्ठभूमि में सांकेतिक संस्था द्वारा भाषा की उत्पत्ति हुई।

 विश्व भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के पास जब भाषा नहीं थी,तब वह संकेतों से अपनी विचारों की अभिव्यक्ति करता था. 

★-यह संप्रेषण यद्यपि अधूरा होता था तथापि,आंगिक चेष्टाओं के माध्यम से परस्पर परामर्श करने की एक कला विकसित हो रही थी. 

विचार विनियम के लिये यह आंगिक संकेत सूत्र एक नये सिद्धांत के रूप में सामने आया और संकेत के माध्यम से ही भाषाएँ गढ़ी जाने लगी.

भाषाविज्ञानियों का यह मानना है कि जिस समय विश्व की भाषा का कोई मानक स्वरुप स्थिर नहीं हुआ था,उस समय मनुष्य संकेत शैली में ही वैचारिक आदान-प्रदान किया करता था.
इस संकेत सिद्धान्त के आधार पर आगे चलकर ‘रचई’, ‘राय’ तथा जोहान्सन आदि विद्वानों ने 
________________________________
Guessial theory)-आनुमानिक सिद्धांत)
 जो संकेत सिद्धान्त की अपेक्षा कुछ अधिक परिष्कृत होते हुए भी लगभग इसी मान्यता को प्रकट करता है। यह सिद्धान्त यह मान कर चलता है कि इससे पूर्व मानव को भाषा की प्राप्ति नहीं हुई थी। 
यदि ऐसा है तो अन्य भाषाहीन प्राणियों की भाँति मनुष्य को भी भाषा की आवश्यकता का अनुभव नहीं होना चाहिए था। 

यह सिद्धांत अपने आप में कुछ विसंगतिओं को साथ लेकर चलता है.आज के भाषाविज्ञानी इस सिद्धांत के विषय में पहला तर्क यह देता है कि मनुष्य यदि भाषाविहीन प्राणी था तो उसे संकेतों से काम चलाना आ गया. फिर संकेत भाषा कैसे बनी ?
 दूसरा संशय यह भी है कि यदि पहली बार मानव समुदाय में किसी भाषा का विकास करने के लिये कोई महासभा बुलाई तो उसमें संकेतों का मानकीकरण किस प्रकार हुआ ? . 
और अंतिम आशंका इस तत्थ पर की गई कि लोक व्यवहार के लिये जिन संकेतों का प्रयोग किया गया,वे इतने सक्षम नहीं थे कि उससे भाषा की उत्पति हो जाती.
यह तर्कसंगत नहीं है कि भाषा के सहारे के बिना लोगों को एकत्रित किया गया,  भला कैसे ? 
फिर विचार-विमर्श भाषा के माध्यम के अभाव में किस प्रकार सम्भव हुआ?
इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी है परन्तु चीनी आदि भाषाओं के सन्दर्भ में यह सत्य नहीं हैं
जिन वस्तुओं के लिए संकेत निश्चित किये गये उन्हें किस आधार पर एकत्रित किया गया।
संक्षेप में, भाषा के अभाव में यदि इतना बडा निर्णय लिया जा सकता है तो बिना भाषा के सभी कार्य किये जा सकते हैं। 
 अतः भाषा की आवश्यकता कहाँ रही?
इस सिद्धान्त में एक तो कृत्रिम उपायों द्वारा भाषा की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास किया गया है दूसरे यह सिद्धान्त पूर्णतः कल्पना पर आधारित है।
 अतः तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरता।
संकेत सिद्धांत का एक बड़ा महत्व यह है कि इसके द्वारा उच्चरित स्वर व्यंजनों के क्रम का सुनिश्चित किया जा सकता है.

जैसाकि महर्षि पाणिनी ने किया था.भाषावैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पति के संबंध में अपने विचार देते हुये संकेत सिद्धांत की स्थापना की.इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के पास भाषा नहीं थी.

★-  धातु तथा अनुरणन सिद्धान्त/रण रणन सिद्धांत (Root-theory) and BowWow Theory
इस सिद्धान्त के मूल विचारक ‘प्लेटो’ थे। जो एक महान दर्शनिक थे।
 इसके बाद जर्मन प्रोफेसर "हेस" ने अपने एक व्याख्यान में इसका उल्लेख किया था। बाद में उनके शिष्य डॉ॰ स्टाइन्थाल ने इसे मुद्रित करवा कर विद्वानों के समने रखा। 
 मैक्समूलर ने भी पहले इसे स्वीकार किया किन्तु बाद में व्यर्थ कहकर छोड़ दिया।
इस सिद्धान्त के अनुसार संसार की हर चीज की अपनी एक ध्वनि है। यदि हम एक डंडे से एक काठ, लोहे, सोने, कपड़े, कागज आदि पर चोट मारें तो प्रत्येक में से भिन्न प्रकार की ध्वनि निकलेगी।
 प्रारम्भिक मानव में भी ऐसी सहज शक्ति थी। वह जब किसी बाह्य वस्तु के सम्पर्क में आता तो उस पर उससे उत्पन्न ध्वनि की अनुकरण की) छाप पड़ती थी। 
उन ध्वनियों का अनुकरण करते हुए उसने कुछ (400या 500) मूल धातुओं (मूल शब्दों) का निर्माण कर लिया जो वस्तुत:ध्वनि अनुकरण मूलक थे । 

 तब वह इन्हीं धातुओं से नए-नए शब्द बना कर अपना काम चलाने लगा।
भाषा वैज्ञानिकों ने (रणन सिद्धांत) की व्याख्या करते हुये यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक वस्तु के भीतर अव्यक्त ध्वनियाँ रहती है. 

प्लेटो  व मैक्समूलर ने इस सिद्धांत को आधार बनाकर भाषा के जन्म का प्रायोजन सिद्ध किया ।

उदाहरण के लिये किसी भारी वस्तु से किसी दूसरी वस्तु पर आघात किया जाय तो कुछ ध्वनियाँ निकलती है. लकड़ी,पत्थर,ईंट और अलग-अलग धातुएँ, इन सबों में अलग-अलग ध्वनियाँ छिपी होती है ।
और बिना देखे भी मनुष्य आसानी से जान सकता है कि किस वस्तु या किस धातु की कौन सी ध्वनि है।

इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार में ध्वनि आई. फिर धीरे-धीरे उन्हीं ध्वनियों का अनुसरण करते हुये मनुष्य ने उसे प्रतीक रूप में अर्थान्वित किया ।


इस सिद्धान्त के अनुसार आदि मानव में नये-नये धातु बनाने की सहज शक्ति का होना कल्पित किया गया है जिसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं है।
यह सिद्धान्त शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध मान कर चलता है किन्तु यह मान्यता निराधार है।

इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी हैं किन्तु चीनी आदि कुछ भाषाओं के सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है।

★--आज भाषाओं के वैज्ञानिक विवेचन से यह मान्यता बन गई है कि सभी ‘धातुओं’ या मूल शब्दों की परिकल्पना भाषा के बाद व्याकरण-सम्बन्धी विवेचन का परिणाम है।

यह सिद्धान्त भाषा को पूर्ण मानता है जबकि भाषा सदैव परिवर्तन और गतिशील होने के कारण अपूर्ण ही रहती है।
आधुनिक मान्यता के अनुसार भाषा का आरम्भ धातुओं से बने शब्दों से न होकर पूर्ण विचार वाले वाक्यों के द्वारा हुआ होगा।

इस सिद्धांत में शब्द के अर्थ के नैसर्गिक संबंध की व्याख्या की गई है. ।
साथ ही साथ यह प्रमाणित किया गया है कि ध्वनियों से शब्द बने. लेकिन यह सिद्धांत भी अपने आप में अपूर्ण ही  है क्योंकि,संसार की सभी भाषाओं में केवल ध्वनिमूलक शब्द नहीं हैं. हमारे यहाँ प्रत्येक भाषा शब्दों का अक्षर भंडार समेटने की सामर्थ्य रखती है. ।
इसलिये कुछ वस्तुओं-धातुओं के ध्वनि से भाषा की उत्पति संभव नहीं है.
यद्यपि यह सिद्धांत भाषा की। उत्पत्ति में बहुतायत रूप से कारक है । परन्तु अपूर्ण ही है 
अनुरणन सिद्धांत के प्रमुख विचारक यूरोपीय भाषाविद् (हारडर) थे । इनका विचार था कि पशु पक्षियों की ध्वनि सुनकर उनका नामकरण हुआ जैसे कोयल को कूह-कूहकरने से कूकू' कहना चीनी भाषा में बिल्ली को म्याऊँ  म्याऊँ करने से म्याऊँ(Miaou) कहना। संस्कत  में श्रँगाल को हूरव हू हू रव (ध्वनि करने से कहना हू इति रवो यस्य स। =शृँगाल।  इसी प्रकार ( सू--इत्यव्यक्तं शब्दं करोति कृ +अच् ) वराह को सूअर कहते हैं। सूँघना क्रिया भी इसी प्रकार की है ।
 कुक्कुर =कोकते क्विप् कुरति शब्दायते (कुर-शब्दे क कर्म्म० - कूकर( कुत्ता) कूँ कूँ करने से ।
भाषा दी आरम्भिक अवस्था में ध्वनि के अनुकरण पर आधारित ध्वन्यात्मक सिद्धान्त पर शब्दों का निर्माण हुआ -
अतः  परन्तु जब इन सिद्धान्तों से भाषा उत्पत्ति का पूर्ण समाधान नहीं मिला तो एक और नए सिद्धांत का आविष्कार किया गया,जिसे आवेग सिद्धांत कहते हैं.।

★- मनोभाव अभिव्यञ्जकवाद का सिद्धांत :            ( pooh-pooh Theory)
आवेग शब्द का प्रत्यक्ष संबंध मनोवेगों से होता है.मनुष्य के भीतर नाना प्रकार के आवेग पलते रहते हैं.जैसे: सुख-दुःख,क्रोध,घृणा,करूणा,आश्चर्य  आदि .इन सभी मनोभावों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता होती है. इसीलिये संवेदना या अनुभूति के चरण पर पहुँच कर कुछ ध्वनियाँ अपने आप निकल जाती है.जैसे: आह!हाय,! वाह !, आदि.
आवेग सिद्धांत की कुछ त्रुटियाँ हैं.इसमें आवेग या मनोवेग ही प्रमुख है और आवेग या मनोवेग मनुष्य के सहज रूप का संप्रेषण नहीं कर पाता. भाषा को यदि  संप्रेषण का माध्यम माना गया तो उसमें बहुत सारी स्थितियाँ ऐसी है जिसमें सहज अभिव्यक्ति की अपेक्षा होती है.
यदि किसी विचार को संप्रेषित करने की आवश्यकता हो तो आवेग सिद्धांत वहाँ सार्थक नहीं मन जा सकता. 
इस लिये इस सिद्धांत की भी अपनी सीमा रेखा है और आवेग मूलक ध्वनियाँ ही किसी भाषा की संपूर्ण विशेषता का मानक नहीं हो सकती. परन्तु भाषा में शब्दों का निर्माण इस विधि से भी हुआ।

★-  इंगित सिद्धांत :
भाषा वैज्ञानिकों का एक विशेष दल अपने प्रयोगों के आधार पर यह मानता है कि इंगित या अनुकरण से भाषा उत्पन्न हुई है.इंगित को संकेत सिद्धांत के साथ जोड़ा जा सकता है लेकिन भाषावैज्ञानिक के मत में पाषाण काल का मानव ,पशु-पक्षियों के अनुकरण से इंगित से सीखने की आकाक्षां रखता था 
.पशु जल के स्रोत में मुँह लगाकर पानी पीते थे.अपनी प्यास बुझाने हेतु आदि मानव ने उसी क्रिया का अनुकरण किया और उसने दोनों होठों के जुड़ने और खुलने की ध्वनि से "पान" शब्द पाया. 
पीने की क्रिया के साथ होठों से पी की ध्वनि निकलती है इसी से संस्कृत में पा धातु का विकास हुआ । मामा' पापा' अरबी का शरबत' इसी प्रक्रिया के तहत निर्मित हुए।  बहुत से शब्द भाव सादृश्य से भी विकसित हुए जैसे दन्त जो मूलत: अदन्त(अद्-भक्षणे)मूलक है ग्रीक Odont- दमन करने से दन्स दन्त आदि -
इसी प्रकार अनुकरण से अनेक शब्द प्राप्त हुये. लेकिन अनुकरण या दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति बहुत दिनों तक नहीं चली और धीरे-धीरे मनुष्य ने अपनी बुद्धि से नए शब्दों का भी आविष्कार किया तथा भाषा के मामले में संपूर्ण सामर्थ्यवान होता चला गया. वस्तुत इस सिद्धांत में भी ध्वनियों का अनुकरण ही कारक है ।

यही कारण है कि भाषावैज्ञानिकों का आज का विश्लेषण यह निष्पति देता है कि भाषा की उत्पति के लिये सभी सिद्धांतों को मिलाते हुए एक समन्वय सिद्धांत की स्थापना होनी चाहिये. 
१-मनोभावअभिव्यञ्जक वाद २- श्रमपरिहरणमूलकतावाद३-अनुकरणमूलकतावाद४ अनुरणनमूलकतावाद५-तथा प्रतीकवादके अनुसार बहुत से शब्दों का निर्माण हुआ इसके पश्चात भी उपचार से बहुत से शब्दों का विकास हुआ ज्ञात से अज्ञात की व्याख्या के अनुसार जैसे अंग्रेज़ी का पाइप (pipe)  प्रारम्भ में एक मेषपालक के पी-पी करने वाले वाद्य का वाचक था परन्तु उसके खोखले होनो के कारण जब पानी का प्रवाह हुआ तो उसके अर्थ नल के अर्थ को ग्रहण करने लगे इस सिद्धान्त से बहुत से शब्दों का विकास हुआ। Understand-समझना।शब्द भी इसी प्रक्रिया के तहत निर्मित हुआ
प्रचीन काल में जब जिज्ञासु को ज्ञाता से नीचे खड़ा रहना पड़ता था तब वह नम्रता के भाव से कुछ समझ पाता था ( श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्)

यह सच है कि कुछ शब्द दैविक व अलौकिक कारणों से उत्पन्न हुये.कुछ शब्दों के लिये संकेत की शैली प्रायोजन बनी.कहीं भाषा का व्यापक स्वरुप ध्वनि से जुड़कर और भी व्यापक हुआ. कहीं अनुकरण की क्रिया का सहारा लेकर भाषा की यात्रा आगे बढ़ी.कहीं मनोवेगों ने साथ दिया और सबसे अधिक विचारों की परिपक्वता को संप्रेषित करने के लिये मनुष्य की बौद्धिकता ने जीवन की प्रयोगशाला में नये तथा सार्थक शब्दों का निर्माण किया.
अत: भाषा उत्पत्ति का प्रधान कारण ध्वनि अनु करण मूलक ही था । परन्तु सभी कारण सम्पूरक ही थे 


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