महाभारतम्-01-आदिपर्व-142
← आदिपर्व-141 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-142 वेदव्यासः | आदिपर्व-143 → |
द्रोणेनास्त्रशिक्षायां कुरुपाण्डवानां शिष्यत्वेनाङ्गीकारः।। 1 ।।
विद्याभ्याससमाप्त्यनन्तरं बहुशः परीक्षितस्यार्जुनस्य द्रोणाचार्याद्विशेषशिक्षाप्राप्तिः।। 2 ।।
मृण्मयद्रोणप्रतिमाराधनेन एकलव्यस्य धनुर्वेदप्रतिभानं।। 3 ।।
मृगयार्थं गतेषु कुरुपाण्डवेषु एकलव्येन बाणैः शुनो मुखपूरणम्।। 4 ।।
अर्जुनप्रार्थनया द्रोणेनैकलव्यं प्रतिगम्य गुरुदक्षिणात्वेन दक्षिणाङ्गुष्ठ याचनम्।। 5 ।।
एकलव्येन दक्षिणाङ्गुष्ठस्य छित्वा दानम्।। 6 ।।
द्रोणेन शिष्यपरीक्षा।। 7 ।।
शिष्यपरीक्षायां युधिष्ठिरा दीनां निराकरणम्।। 8 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-142-1x |
प्रतिजग्राह तं भीष्मो गुरुं पाण्डुसुतैः सह। पौत्रानादाय तान्सर्वान्वसूनि विविधानि च।। | 1-142-1a 1-142-1b |
शिष्य इति ददौ राजन्द्रोणाय विधिपूर्वकम्। तदा द्रोणोऽब्रवीद्वाक्यं भीष्मं बुद्धिमतां वरम्।। | 1-142-2a 1-142-2b |
कृपस्तिष्ठति चाचार्यः शस्त्रज्ञः प्राज्ञसंमतः। मयि तिष्ठति चेद्विप्रो वैमनस्यं गमिष्यति।। | 1-142-3a 1-142-3b |
युष्मान्किंचिच्च याचित्वा धनं संगृह्य हर्षितः। स्वमाश्रमपदं राजन्गमिष्यामि यथागतम्।। | 1-142-4a 1-142-4b |
एवमुक्ते तु विप्रेन्द्रं भीष्मः प्रहरतां वरः। अब्रवीद्द्रोणमाचार्यमुख्यं शस्त्रविदां वरम्।। | 1-142-5a 1-142-5b |
कृपस्तिष्ठतु पूज्यश्च भर्तव्यश्च मया सदा। त्वं गुरुर्भव पौत्राणामाचार्यस्त्वं मतो मम। प्रतिगृह्णीष्व पुत्रांस्त्वमस्त्रज्ञान्कुरु वै सदा।।' | 1-142-6a 1-142-6b 1-142-6c |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-7x |
ततः संपूजितो द्रोणो भीष्मेण द्विपदां वरः। विशश्राम महातेजाः पूजितः कुरुवेश्मनि।। | 1-142-7a 1-142-7b |
विश्रान्तेऽथ गुरौ तस्मिन्पौत्रानादाय कौरवान्। शिष्यत्वेन ददौ भीष्मो वसूनि विविधानि च।। | 1-142-8a 1-142-8b |
गृहं च सुपरिच्छन्नं धनधान्यसमाकुलम्। भारद्वाजाय सुप्रीतः प्रत्यपादयत प्रभुः।। | 1-142-9a 1-142-9b |
स ताञ्शिष्यान्महेष्वासः प्रतिजग्राह कौरवान्। पाण्डवान्धार्तराष्ट्रांश्च द्रोणो मुदितमानसः।। | 1-142-10a 1-142-10b |
प्रतिगृह्य च तान्सर्वान्द्रोणो वचनमब्रवीत्। रहस्येकः प्रतीतात्मा कृतोपसदनांस्तथा।। | 1-142-11a 1-142-11b |
द्रोण उवाच। | 1-142-12x |
कार्यं मे काङ्क्षितं किंचिद्धृदि संपरिवर्तते। कृतास्त्रैस्तत्प्रदेयं मे तदेतद्वदतानघाः।। | 1-142-12a 1-142-12b |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-13x |
तच्छ्रुत्वा कौरवेयास्ते तूष्णीमासन्विशांपते। अर्जुनस्तु ततः सर्वं प्रतिजज्ञे परन्तप।। | 1-142-13a 1-142-13b |
ततोऽर्जुनं तदा मूर्ध्नि समाघ्राय पुनः पुनः। प्रीतिपूर्वं परिष्वज्य प्ररुरोद मुदा तदा।। | 1-142-14a 1-142-14b |
`अश्वत्थामानमाहूय द्रोणो वचनमब्रवीत्। सखायं विद्धि ते पार्थं मया दत्तः प्रगृह्यताम्।। | 1-142-15a 1-142-15b |
साधुसाध्विति तं पार्थः परिष्वज्येदमब्रवीत्। अद्यप्रभृति विप्रेन्द्र परवानस्मि धर्मतः।। | 1-142-16a 1-142-16b |
शिष्योऽहं त्वत्प्रसादेन जीवामि द्विजसत्तम। इत्युक्त्वा तु तदा पार्थः पादौ जग्राह पाण्डवः'।। | 1-142-17a 1-142-17b |
ततो द्रोणः पाण्डुपुत्रानस्त्राणि विविधानि च। ग्राहयामास दिव्यानि मानुषाणि च वीर्यवान्।। | 1-142-18a 1-142-18b |
राजपुत्रास्तथा चान्ये समेत्य भरतर्षभ। अभिजग्मुस्ततो द्रोणमस्त्रार्थे द्विजसत्तमम्।। | 1-142-19a 1-142-19b |
वृष्णयश्चान्धकाश्चैव नानादेश्याश्च पार्थिवाः। सूतपुत्रश्च राधेयो गुरुं द्रोणमियात्तदा।। | 1-142-20a 1-142-20b |
स्पर्धमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रोऽत्यमर्षणः। दुर्योधनं समाश्रित्य सोऽवमन्यत पाण्डवान्।। | 1-142-21a 1-142-21b |
अभ्ययात्स ततो द्रोणं धनुर्वेदचिकीर्षया। शिक्षाभुजवलोद्योगैस्तेषु सर्वेषु पाण्डवः।। | 1-142-22a 1-142-22b |
अस्त्रविद्यानुरागाच्च विशिष्टोऽभवदर्जुनः। तुल्येष्वस्त्रप्रयोगेषु लाघवे सौष्टवेषु च।। | 1-142-23a 1-142-23b |
सर्वेषामेव शिष्याणां बभूवाभ्यधिकोऽर्जुनः। ऐन्द्रिमप्रतिमं द्रोण उपदेशेष्वमन्यत।। | 1-142-24a 1-142-24b |
एवं सर्वकुमाराणामिष्वस्त्रं प्रत्यपादयत्। कमण्डलुं च सर्वेषां प्रायच्छच्चिरकारणात्।। | 1-142-25a 1-142-25b |
पुत्राय च ददौ कुम्भमविलम्बनकारणात्। यावत्ते नोपगच्छ्ति तावदस्मै परां क्रियाम्।। | 1-142-26a 1-142-26b |
द्रोण आचष्ट पुत्राय कर्म तज्जिष्णुरौहत। ततः स वारुणास्त्रेण पूरयित्वा कमण्डलुम्।। | 1-142-27a 1-142-27b |
सममाचार्यपुत्रेण गुरुमभ्येति फाल्गुनः। आचार्यपुत्रात्तस्मात्तु विशेषोपचयेऽपृथक्।। | 1-142-28a 1-142-28b |
न व्यहीयत मेधावी पार्थोऽप्यस्त्रविदां वरः। अर्जुनः परमं यत्नमातिष्ठद्गुरुपूजने।। | 1-142-29a 1-142-29b |
अस्त्रे च परमं योगं प्रियो द्रोणस्य चाभवत्। तं दृष्ट्वा नित्यमुद्युक्तमिष्वस्त्रं प्रति फाल्गुनम्।। | 1-142-30a 1-142-30b |
आहूय वचनं द्रोणो रहः सूदमभाषत। अन्धकारेऽर्जुनायान्नं न देयं ते कदाचन। न चाख्येयमिदं चापि मद्वाक्यं विजयेत्वया।। | 1-142-31a 1-142-31b 1-142-31c |
ततः कदाचिद्भुञ्जाने प्रववौ वायुरर्जुने। तेन तत्र प्रदीपः स दीप्यमानो विलोपितः।। | 1-142-32a 1-142-32b |
भुक्त एव तु कौन्तेयो नास्यादन्यत्र वर्तते। हस्तस्तेजस्विनस्तस्य अनुग्रहणकारणात्।। | 1-142-33a 1-142-33b |
तदभ्यासकृतं मत्वा रात्रावपि स पाण्डवः। योग्यां चक्रे महाबाहुर्धनुषा पाण्डुनन्दनः।। | 1-142-34a 1-142-34b |
तस्य ज्यातलनिर्घोषं द्रोणः शुश्राव भारत। उपेत्य चैनमुत्थाय परिष्वज्येदमब्रवीत्।। | 1-142-35a 1-142-35b |
द्रोण उवाच। | 1-142-36x |
प्रयतिष्ये तथा कर्तुं यथा नान्यो धनुर्धरः। त्वत्समो भविता लोके सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 1-142-36a 1-142-36b |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-37x |
ततो द्रोणोऽर्जुनं भूयो हयेषु च गजेषु च। रथेषु भूमावपि च रणशिक्षामशिक्षयत्।। | 1-142-37a 1-142-37b |
गदायुद्धेऽसिचर्यायां तोमरप्रासशक्तिषु। द्रोणः संकीर्णयुद्धे च शिक्षयामास कौरवान्।। | 1-142-38a 1-142-38b |
तस्य तत्कौशलं श्रुत्वा धनुर्वेदजिघृक्षवः। सजानो राजपुत्राश्च समाजग्मुः सहस्रशः।। | 1-142-39a 1-142-39b |
`तान्सर्वाञ्शिक्षयामास द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।' ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः। एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह।। | 1-142-40a 1-142-40b 1-142-40c |
न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्। शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया।। | 1-142-41a 1-142-41b |
`द्रोण उवाच। | 1-142-42x |
शिष्योऽसि मम नैषादे प्रयोगे बलत्तरः। निवर्तस्व गृहानेव अनुज्ञातोऽसि नित्यशः।। | 1-142-42a 1-142-42b |
वैशंपायन उवाच।' | 1-142-43x |
स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः। अरण्यमनुसंप्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम्।। | 1-142-43a 1-142-43b |
तस्मिन्नाचार्यवृत्तिं च परमामास्थितस्तदा। इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं नियममास्थितः।। | 1-142-44a 1-142-44b |
परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च। विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः।। | 1-142-45a 1-142-45b |
`लाघवं चास्त्रयोगं च नचिरात्प्रत्यपद्यत।' अथ द्रोणाभ्यनुज्ञाताः कदाचित्कुरुपाण्डवाः। रथैर्विनिर्ययुः सर्वे मृगयामरिमर्दनाः।। | 1-142-46a 1-142-46b 1-142-46c |
तत्रोपकरणं गृह्य नरः कश्चिद्यदृच्छया। राजन्ननुजगामैकः श्वानमादाय पाण्डवान्।। | 1-142-47a 1-142-47b |
तेषां विचरतां तत्र तत्तत्कर्मचिकीर्षया। श्वाचरन्स पथा क्रीडन्नैषादिं प्रति जग्मिवान्।। | 1-142-48a 1-142-48b |
स कृष्णमलदिग्धाङ्गं कृष्णाजिनजटाघरम्। नैषादिं श्वा समालक्ष्य भषंस्तस्थौ तदन्तिके।। | 1-142-49a 1-142-49b |
तदा तस्याथ भषतः शुनः सप्त शरान्मुखे। लाघवं दर्शन्नस्त्रे मुमोच युगपद्यथा।। | 1-142-50a 1-142-50b |
स तु श्वा शरपूर्णास्यः पाण्डवानाजगाम ह। तं दृष्ट्वा पाण्डवा वीराः परं विस्मयमागताः।। | 1-142-51a 1-142-51b |
लाघवं शब्धवेधित्वं दृष्ट्वा तत्परमं तदा। प्रेक्ष्य तं व्रीडिताश्चासन्प्रशशंसुश्च सर्वशः।। | 1-142-52a 1-142-52b |
तं ततोऽन्वेषमाणास्ते वने वननिवासिनम्। ददृशुः पाण्डवा राजन्नस्यन्तमनिशं शरान्।। | 1-142-53a 1-142-53b |
न चैनमभ्यजानंस्ते तदा विकृतदर्शनम्। तथैनं परिपप्रच्छ्रुः को भवान्कस्य वेत्युत।। | 1-142-54a 1-142-54b |
एकलव्य उवाच। | 1-142-55x |
निषादाधिपतेर्वीरा हिरण्यधनुषः सुतम्। द्रोणशिष्यं च मां वित्त धुर्वेदकृतश्रमम्।। | 1-142-55a 1-142-55b |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-56x |
ते तमाज्ञाय तत्त्वेन पुनरागम्य पाण्डवाः। यथा वृत्तं वने सर्वं द्रोणायाचख्युरद्भुतम्।। | 1-142-56a 1-142-56b |
कौन्तेयस्त्वर्जुनो राजन्नेकलव्यमनुस्मरन्। रहो द्रोणं समासाद्य प्रणयादिदमब्रवीत्।। | 1-142-57a 1-142-57b |
नन्वहं परिरभ्यैकः प्रीतिपूर्वमिदं वचः। भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्विशिष्टो भविष्यति।। | 1-142-58a 1-142-58b |
अथ कस्मान्मद्विशिष्टो लोकादपि च वीर्यवान्। अन्योऽस्ति भवतः शिष्यो निषादाधिपतेः सुतः। | 1-142-59a 1-142-59b |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-60x |
मुहूर्तमिव तं द्रोणश्चिन्तयित्वा विनिश्चयम्। सव्यसाचिनमादाय नैषादिं प्रति जग्मिवान्।। | 1-142-60a 1-142-60b |
ददर्श मलदिग्धाङ्गं जटिलं चीरवाससम्। एकलव्यं धनुष्पाणिमस्यन्तमनिशं शरान्।। | 1-142-61a 1-142-61b |
एकलव्यस्तु तं दृष्ट्वा द्रोणमायान्तमन्तिकात्। अभिगम्योपसंगृह्य जगाम शिरसा महीम्।। | 1-142-62a 1-142-62b |
पूजयित्वा ततो द्रोणं विधिवत्स निषादजः। निवेद्य शिष्यमात्मानं तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः।। | 1-142-63a 1-142-63b |
ततो द्रोणोऽब्रवीद्राजन्नेकलव्यमिदं वचः। यदि शिष्योऽसि मे वीर वेतनं दीयतां मम।। | 1-142-64a 1-142-64b |
एकलव्यस्तु तच्छ्रुत्वा प्रीयमाणोऽब्रवीदिदम्। किं प्रयच्छामि भगवन्नाज्ञापयतु मां गुरुः।। | 1-142-65a 1-142-65b |
न हि किंचिददेयं मे गुरवे ब्रह्मवित्तम। | 1-142-66a |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-66x |
तमब्रवीत्त्वयाङ्गुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति।। | 1-142-66b |
एकलव्यस्तु तच्छ्रुत्वा वचो द्रोणस्य दारुणम्। प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्सत्ये च नियतः सदा।। | 1-142-67a 1-142-67b |
तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानसः। छित्त्वाऽविचार्य तं प्रादाद्द्रोणायाङ्गुष्ठमात्मनः।। | 1-142-68a 1-142-68b |
ततः शरं तु नैषादिरङ्गुलीभिर्व्यकर्षत। न तथा च स शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप।। | 1-142-69a 1-142-69b |
ततोऽर्जुनः प्रीतमना बभूव विगतज्वरः। द्रोणश्च सत्यवागासीन्नान्योऽभिभविताऽर्जुनं।। | 1-142-70a 1-142-70b |
द्रोणस्य तु तदा शिष्यौ गदायोग्यौ बभूवतुः। दुर्योधनश्च भीमश्च सदा संरब्धणानसौ।। | 1-142-71a 1-142-71b |
अश्वत्थामा रहस्येषु सर्वेष्वभ्यधिकोऽभवत्। तथाऽतिपुरुषानन्यान्त्सारुकौ यमजावुभौ।। | 1-142-72a 1-142-72b |
युधिष्ठिरो रथश्रेष्ठः सर्वत्र तु धनञ्जयः। प्रथितः सागरान्तायां रथयूथपयूथपः।। | 1-142-73a 1-142-73b |
बुद्धियोगबलोत्साहः सर्वास्त्रेषु च निष्ठितः। अस्त्रे गुर्वनुरागे च विशिष्टोऽभवदर्जुनः।। | 1-142-74a 1-142-74b |
तुल्येष्वस्त्रोपदेशेषु सौष्ठवेन च वीर्यवान्। एकः सर्वकुमाराणां बभूवातिरथोऽर्जुनः।। | 1-142-75a 1-142-75b |
प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनञ्जयम्। धार्तराष्ट्रा दुरात्मानो नामृष्यन्त परस्परम्।। | 1-142-76a 1-142-76b |
तांस्तु सर्वान्समानीय सर्वविद्यास्त्रशिक्षितान्। द्रोणः प्रहरणज्ञाने जिज्ञासुः पुरुषर्षभः।। | 1-142-77a 1-142-77b |
कृत्रिमं भासमारोप्य वृक्षाग्रे शिल्पिभिः कृतम्। अविज्ञातं कुमाराणां लक्ष्यभूतमुपादिशत्।। | 1-142-78a 1-142-78b |
द्रोण उवाच। | 1-142-79x |
शीघ्रं भन्तः सर्वेऽपि धनूंष्यादाय सर्वशः। भासमेतं समुद्दिश्य तिष्ठध्वं सन्धितेषतः।। | 1-142-79a 1-142-79b |
मद्वाक्यसमकालं तु शिरोऽस्य विनिपात्यताम्। एकैकशो नियोक्ष्यामि तथा कुरुत पुत्रकाः।। | 1-142-80a 1-142-80b |
वैशंपायन उवाच। | 1-142-81x |
ततो युधिष्ठिरं पूर्वमुवाचाङ्गिरसां वरः। संधत्स्व बामं दुर्धर्ष मद्वाक्यान्ते विमुञ्चतम्।। | 1-142-81a 1-142-81b |
ततो युधिष्ठिरः पूर्वं धनुर्गृह्य परन्तपः। तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः।। | 1-142-82a 1-142-82b |
ततो विततधन्वानं द्रोणस्तं कुरुनन्दनम्। स मुहूर्तादुवाचेदं वचनं भरतर्षभ।। | 1-142-83a 1-142-83b |
पश्यसि त्वं द्रुमाग्रस्थं भासं नरवरात्मज। पश्यामीत्येवमाचार्यं प्रत्युवाच युधिष्ठिरः।। | 1-142-84a 1-142-84b |
स मुहूर्तादिव पुनर्द्रोणस्तं प्रत्यभाषत। अथ वृक्षमिमं मां वा भ्रातॄन्वाऽपि प्रपश्यसि।। | 1-142-85a 1-142-85b |
तमुवाच स कौन्तेयः पश्याम्येनं नवस्पतिम्। भन्तं च तथा भ्रातॄन्भासं चेति पुनःपुनः।। | 1-142-86a 1-142-86b |
तमुवाचापसर्पेति द्रोणोऽप्रीतमना इव। नैतच्छक्यं त्वया वेद्धुं लक्ष्यमित्येव कुत्सयन्।। | 1-142-87a 1-142-87b |
ततो दुर्योधनादींस्तान्धार्तराष्ट्रान्महायशाः। तेनैव क्रमयोगेन जिज्ञासुः पर्यपृच्छत।। | 1-142-88a 1-142-88b |
अन्यांश्च शिष्यान्भीमादीन्राज्ञश्चैवान्यदेशजान्। यदा च सर्वे तत्सर्वं पश्याम इति कुत्सिताः।। | 1-142-89a 1-142-89b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 142 ।। गीता प्रर।।। र। रे र रर एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 56-70 का हिन्दी अनुवाद वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब द्रोणाचार्य ने उससे कहा- ‘तुम मुझे दाहिने हाथ का अंगूठा दे दो’। द्रोणाचार्य का यह दारुण वचन सुनकर सदा सत्य पर अटल रहने वाले एकलव्य ने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा करते हुए पहले की ही भाँति प्रसन्नमुख और उदारचित्त रहकर बिना कुछ सोच-विचार किये अपना दाहिना अंगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया। द्रोणाचार्य निषादनन्दन एकलव्य को सत्यप्रतिज्ञ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने संकेत से उसे यह बता दिया कि तर्जनी और मध्यमा के संयोग से बाण पकड़कर किस प्रकार धनुष की डोरी खींचनी चाहिये। तब से वह निषादकुमार अपनी अंगुलियों द्वारा ही बाणों का संधान करने लगा। राजन्! उस अवस्था में वह उतनी शीघ्रता से बाण नहीं चला पाता था, जैसे पहले चलाया करता था। इस घटना से अर्जुन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी भारी चिन्ता दूर हो गयी। द्रोणाचार्य का भी यह कथन सत्य हो गया कि अर्जुन को दूसरा कोई पराजित नहीं कर सकता। उस समय द्रोण के दो शिष्य गदा युद्ध में सुयोग्य निकले- दुर्योधन और भीमसेन। ये दोनों सदा एक दूसरे के प्रति मन में क्रोध (स्पर्द्धा) से भरे रहते थे। अश्वत्थामा धनुर्वेद के रहस्यों की जानकारी में सबसे बढ़-चढ़कर हुआ। नकुल और सहदेव दोनों भाई तलवार की मूठ पकड़कर युद्ध करने में अत्यन्त कुशल हुए। वे इस कला में अन्य सब पुरुषों से बढ़-चढ़कर थे। युधिष्ठिर रथ पर बैठकर युद्ध करने में श्रेष्ठ थे। परंतु अर्जुन सब प्रकार की युद्ध-कला में सबसे बढ़कर थे। वे समुद्र पर्यन्त सारी पृथ्वी में रथ यूथपतियों के भी यूथपति के रूप में प्रसिद्ध थे। बुद्धि, मन की एकग्रता, बल और उत्साह के कारण वे सम्पूर्ण अस्त्रविद्याओं में प्रवीण हुए। अस्त्रों के अभ्यास तथा गुरु के प्रति अनुराग में भी अर्जुन का स्थान सबसे ऊंचा था। यद्यपि सबको समान रूप से अस्त्रविद्या का उपदेश प्राप्त होता था तो भी पराक्रमी अर्जुन अपनी विशिष्ट प्रतिभा के कारण अकेले ही समस्त कुमारों में अतिरथी हुए। धृतराष्ट्र के पुत्र बड़े दुरात्मा थे। वे भीमसेन को बल में अधिक और अर्जुन को अस्त्रविद्या में प्रवीण देखकर परस्पर सहन नहीं कर पाते थे। जब सम्पूर्ण धनुर्विद्या तथा अस्त्र-संचालन की कला में वे सभी कुमार सुशिक्षित हो गये, तब नरश्रेष्ठ द्रोण ने उन सबको एकत्र करके उनके अस्त्र ज्ञान की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने कारीगरों से एक नकली गीध बनवाकर वृक्ष के अग्रभाग पर रखवा दिया। राजकुमारों को इसका पता नहीं था। आचार्य ने उसी गीध को बींधने योग्य लक्ष्य बताया। द्रोण बोले- तुम सब लोग इस गीध को बींधने के लिये शीघ्र ही धनुष लेकर उस पर बाण चढ़ाकर खड़े हो जाओ। फिर मेरी आज्ञा मिलने के साथ ही इसका सिर काट गिराओ। पुत्रो! मैं एक-एक को बारी-बारी से इस कार्य में नियुक्त करूंगा; तुम लोग बताये अनुसार कार्य करो। एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 71-79 का हिन्दी अनुवाद वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर अंगिरा गोत्र वाले ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ आचार्य द्रोण ने सबसे पहले युधिष्ठिर से कहा- “दुर्धर्षवीर! तुम धनुष पर बाण-चढ़ाओ और मेरी आज्ञा मिलते ही उसे छोड़ दो’। तब शत्रुओं को संताप देने वाले युधिष्ठिर गुरु की आज्ञा से प्रेरित हो सबसे पहले धनुष लेकर गीध को बींधने के लिये लक्ष्य बनाकर खड़े हो गये। भरतश्रेष्ठ! तब धनुष तानकर खड़े हुए कुरुनन्दन युधिष्ठिर से दो घड़ी बाद आचार्य द्रोण ने इस प्रकार कहा- ‘राजकुमार! वृक्ष की शिखा पर बैठे हुए इस गीध को देखो।’ तब युधिष्ठिर ने आचार्य को उत्तर दिया- ‘भगवन्! मैं देख रहा हूं’। मानो दो घड़ी और बिताकर द्रोणाचार्य फिर उनसे बोले। द्रोण ने कहा- क्या तुम इस वृक्ष को, मुझ को अथवा अपने भाइयों का भी देखते हो? यह सुनकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर उनसे इस प्रकार बोले- ‘हां, मैं इस वृक्ष को, आपको, अपने भाइयों तथा गीध को भी बारंबार देख रहा हूं’। उनका उत्तर सुनकर द्रोणाचार्य मन-ही-मन अप्रसन्न- से हो गये और उन्हें झिड़कते हुए बोले- ‘हट जाओ यहाँ से, तुम इस लक्ष्य को नहीं बींध सकते’। तदनन्तर महायशस्वी आचार्य ने उसी क्रम से दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र पुत्रों को भी उनकी परीक्षा लेने के लिये बुलाया और उन सबने उपर्युक्त बातें पूछीं। उन्होंने भीम आदि अन्य शिष्यों तथा दूसरे देश के राजाओं से भी, जो वहाँ शिक्षा पा रहे थे, वैसा ही प्रश्न किया। प्रश्न के उत्तर में सभी (युधिष्ठिर की भाँति ही) कहा- ‘हम सब कुछ देख हैं।’ यह सुनकर आचार्य ने उन सबको झिड़ककर हटा दिया। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में आचार्य द्रोण के द्वारा शिष्यों की परीक्षा से सम्बंध रखने वाला एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व) महाभारत: आदि पर्व: द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-22 का हिन्दी अनुवाद मनुष्यों पर तुम्हें इस अस्त्र का प्रयोग किसी भी दशा में नहीं करना चाहिये। यदि किसी अल्प तेज वाले पुरुष पर इसे चलाया गया तो यह उसके साथ ही समस्त संसार को भस्म कर सकता है। तात! यह अस्त्र तीनों लोकों में असाधारण बताया गया है। तुम मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर इस अस्त्र को धारण करो और मेरी यह बात सुनो। वीर! यह कोई अमानव शत्रु तुम्हें युद्ध में पीड़ा देने लगे तो तुम उसका वध करने के लिये इस अस्त्र का प्रयोग कर सकते हो’। तब अर्जुन ने ‘तथास्तु’ कहकर वैसा ही करने की प्रतिज्ञा की और हाथ जोड़कर उस उत्तम अस्त्र को ग्रहण किया। उस समय गुरु द्रोण ने अर्जुन से पुन: यह बात कही- ‘संसार में दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान धनुर्धर न होगा’। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में द्रोणाचार्य का ग्राह से छुटकारा नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें