यदूनां प्रथमो बन्धुस्त्वं हि सर्व महीक्षिताम् ।
अत: प्रभृति संग्रामान् द्रक्ष्यसे चेदिसत्तम।।93।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व)
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संस्कृत के महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के प्रथम सर्ग के ४५वें श्लोक में अहीरों को ही घोष कहा है
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नवनीत लेेेकर उन उपस्थित वयोवृद्ध घोषों (आभीरों) से राजा मार्ग वन और विविध वृक्षों के विषय में पूछते हुए आगे बढ़ता है ।४५।
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हैयङ्गवीन= एक दिन पहले के दूध के मक्खन से बनाया हुआ ताजा घी होता है (मक्खन)
पूर्व में उनका मूल नाम केवल दम: था ;
क्यों कि उनके पिता ने इच्छा प्रकट की कि पुत्र शत्रुओं का दमन करने वाला हो !
हैयङ्गवीनमिति =ह्यस्तनगोदोहोद्भवं घृतं हैयङ्गवीनम् – ह्यः पूर्वेद्युर्भवम् तत्तु हैयङ्गवीनं यद्ध्यो गोदोहोद्भवं घृतम् इत्यमरः ।
हैयङ्गवीनं संज्ञायाम् इति निपातः ।
तत् सद्योघृतमादाय उपस्थितान् घोषवृद्धान्, आभीरवृद्धान् ( घोष: आभीर:)
वन्यानां मार्गशाखिनां नामधेयानि पृच्छन्तौ ।
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जब यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था ; तब कालान्तरण में हमारे दादा दमघोष भी हुए
पूर्व में उनका मूल नाम केवल दम: था ;
क्यों कि उनके पिता ने इच्छा प्रकट की कि पुत्र शत्रुओं का दमन करने वाला हो !
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जब यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था ; तब कालान्तरण में हमारे दादा दमघोष भी हुए बाद में हैहयवंश के यादव होने के कारण उनके नाम के साथ परम्परागत गत रूप से आयात "गोपालन वृत्ति मूलक गोष: शब्द सम्पृक्त हो गया जो लौकिक संस्कृत में घोष: रूप में विकसित हुआ " गोपालन करने के कारण ही वृत्ति मूलक विशेषण के रूप में यादवों को गोप अथवा घोष: कहते हैं ।
दादा जी का दूसरा लोक- प्रसिद्ध नाम हुआ -
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"श्रुतश्रवस्"
श्रुतं श्रवो यशोऽस्य श्रुतश्रवस् शिशुपालपितरि “निर्वर्त्यतेऽरिः क्रियया स श्रुतश्रवसः सुतः” इति माघः ।
और श्रुतश्रवा दमघोष की पत्नी का नाम भी था श्रुतश्रवस् श्रुतश्रवा का पुल्लिंग रूप है।
क्यों की लोक- में उनका यश: सबके द्वारा सुना गया था ।
सहस्रबाहु जो हैहय वंश के यादव सम्राट थे उन्होंने भी पूर्वजों से आगत गोपालन वृत्ति को श्रद्धान्वित होकर किया ।
सोमवंशसमुत्पन्नो ययातिर्नाम पार्थिवः ।।
तस्यापि( संहतः ) पुत्रो बभूव पृथिवीपतिः ।। ८ ।।
सहस्रजित्सुतस्तस्य नभजित्तस्य चात्मजः ।।
तस्यापि हैहयः पुत्रः कुन्तिस्तस्यापि चात्मजः ।। ९ ।।
तस्यापि संहतः पुत्रो महिष्मांऽस्तस्य चात्मजः ।।
माहिष्मती कृता येन नगरी सुमनोहरा ।। 1.23.१० ।।
भद्रश्रेण्यः सुतस्तस्य दुर्मदस्तस्य चात्मजः ।।
कनकस्तत्सुतो राजा कृतवीर्यस्तदात्मजः ।।१ १।।
अर्जुनस्तनयस्तस्य सप्तद्वीपेश्वरोऽभवत्।।
दत्तात्रेयोऽथ भगवान्विष्णुरूपानुरूपधृक्।।१२।।
____ (पशुपाल सहस्र बाबू)___________
देशाननुचरन्योगात्सदा पश्यति तस्करान्।।
स एव पशुपालोभूत्क्षेत्रपालः स एव च।१८।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्जुनोऽभवत् ।।
स तु बाहुसहस्रेण ज्याघातकठिनत्वचा ।। १९ ।।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनेव भास्करः ।।
राक्षसा निर्जितास्तेन तेन बद्धश्च रावणः ।। 1.23.२०
जित्वा भोगवती तेन कर्कोटकसुता हृता ।।
तस्य बाहुसहस्रेण क्षोभ्यमाणे महोदधौ ।।
भवन्ति लीना निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः ।। २१ ।।
मन्दरक्षोभचकिता अमृतोत्पादशङ्किताः ।।
नतनिश्चलमूर्धानो भवन्ति च महोरगाः ।। २२ ।।
दशयज्ञसहस्राणि तेनेष्टानि महीक्षिता ।।
द्वीपे द्वीपे महाराज धर्मज्ञेन महात्मना ।। २३ ।।
सर्वे यज्ञा महाराज तस्यासन्भूरिदक्षिणाः।
सर्वे काञ्चनवेदीकाः सर्वे यूपैश्च काञ्चनैः।२४।।
द्विजानां परिवेष्टारस्तस्य यज्ञेषु देवताः ।।
स्वयमासन्महाराज स्वयं भागहरास्तथा ।२५।।
तस्य यज्ञे जगौ गाथा नारदस्सुमहत्तपाः ।।
न नूनं कार्तवीर्यस्य गतिं यास्यन्ति पार्थिवाः।२६ ।।
यज्ञैर्दानैस्तपोभिर्वा विक्रमेण श्रुतेन वा ।। २७ ।।
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पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स महीपतिः ।।
सप्तद्वीपेश्वरः सम्राट् चक्रवर्त्ती बभूव ह ।।२८।।
तस्य राज्ञस्तु वसुधा बहुपार्थिवसङ्कुला ।।
भाराक्रान्ता विलुलिता बभूव पृथिवीपते।।२९।।
तस्य राज्ञो गतातङ्कैर्बहुपुत्रैर्नरोत्तम ।।
तेजोयुक्तैः समाकीर्णा वसुधा वसुधाधिप ।। 1.23.३० ।।
बहुनागाश्वसंकीर्णा बहुगोकुलसङ्कुला ।।
न शक्ता नृपते सोढुं तेजस्तदतिमानुषम् ।। ३१ ।।
ज्वालावलिवपुः श्रान्ता खिन्ना नाकमुपागता।३२।।
एवं प्रभावे नरदेवनाथे पृथ्वीं समग्रां परिपाल्यमाने।
भारेण सन्ना पृथिवी जगाम महेन्द्रलोकं मुनिदेवजुष्टम् ।३३।
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देखें- श्रीविष्णुधर्मोत्तरे प्रथमखण्डे मार्कण्डेयवज्रसंवादेऽर्जुनोपाख्यानं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।। २३ ।।
रावण को विजित करने वाला भी सहस्र बाबू था !
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनेव भास्करः ।।
राक्षसा निर्जितास्तेन तेन बद्धश्च रावणः ।1.23.२० ।
इति श्रीविष्णुधर्मोत्तरे प्रथमखण्डे मार्कण्डेयवज्रसंवादेऽर्जुनोपाख्यानं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ।। २३ ।।
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अन्य पुराणों ब्रह्म पुराण आदि में भी वर्णन है।
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इसी ब्रह्म पुराण में आगे वर्णन है कि यदु के पाँच पुत्र हुए !
1-सहस्राद 2-पयोद 3- क्रोष्टा 4-नील और 5-अञ्जिक सहस्राद के तीन पुत्र हुए 'हैहय' 'हय' और वेणुहय और इसी हैहय वंश में कृतवीर्य का पुत्र सहस्रार्जुन हुआ •👇
प्रचेतसः सुचेतास्तु कीर्त्तितास्तुर्वसोर्मया।
बभूवुस्ते यदोः पुत्राः पञ्च देवसुतोपमाः॥ १३.१५३ ॥
सहस्रादः पयोदश्च क्रोष्टा नीलोऽञ्जिकस्तथा।
सहस्रादस्य दायादास्त्रयःपरमधार्म्मिकाः।१३.१५४ ॥
हैहयस्च हयश्चैव राजा वेणुहयस्तथा।
हैहयस्याभवत् पुत्रो धर्म्मनेत्र इति श्रुतः॥ १३.१५५ ॥
धर्म्मनेत्रस्य कार्त्तस्तु साहञ्जस्तस्य चात्मजः।
साहञ्जनी नाम पुरी तेन राज्ञा निवेशिताः॥ १३.१५६ ॥
आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्।
भद्रश्रेण्यस्य दायादो दुर्दमो नाम विश्रुतः॥१३.१५७॥
दुर्दमस्य सुतो धीमान्कनको नाम नामतः।
कनकस्य तु दायादाश्चत्वारो लोकविश्रुताः॥१३.१५८॥
कुतवीर्य्यः कृतौजाश्च कृतधन्वा तथैव च।
कृताग्निस्तु चतुर्थोऽभूत् कृतवीर्य्यादथार्ज्जुनः।१३.१५९॥
योऽसौ बाहुसहस्रेण सप्तद्वीपेस्वरोऽभवत्।
जिगाय पृथिवीमेको रथेनादित्यवर्च्चसा॥ १३.१६० ॥
स हि वर्षायुतं तप्त्वा तपः पमदुश्चरम्।
दत्तमाराधयामास कार्त्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्॥ १३.१६१ ॥
तस्मै दत्तो वरन् प्रादाच्चतुरो भूरितेजसः।
पूर्व्वं बाहुसहस्रं तु प्रार्थितं सु महद्वरम्॥१३.१६२॥
अधर्म्मोऽधीयमानस्य सद्भिस्तत्र निवारणम्।
उग्रेण पृथिवीं जित्वा धर्म्मेणैवानुरञ्जनम्॥ १३.१६३ ॥
संग्रामात् सुबहून् जित्वा हत्वा चारीन् सहस्रशः।
संग्रामे वर्त्तमानस्य वधं चाभ्यधिकाद्रणे॥१३.१६४॥
तस्य बाहुसहस्रं तु युध्यतः किल भो द्विजाः।
योगाद्योगीश्वरस्येव प्रादुर्भवति मायया॥१३.१६५॥
तनेयं पृथिवी सर्र्वा सप्तद्वीपा सपत्तना।
ससमुद्रा सनगरा उग्रेण विधिना जिता॥ १३.१६६
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बाद में हैहय-वंश के यादव होने के कारण उनके नाम के पश्चात् घोष विशेषण भी संपृक्त हो गया
तब नाम हुआ दम घोष !
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घोष शब्द वैदिक काल से गोपों का विशेषण या पर्याय रहा है।
पुराणों में कृष्ण और बलराम आदि को भी घोष कहा गया है ।
गर्ग संहिता में कृष्ण को घोष कहा है ।
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रथारुढस्ततोऽक्रूरः क्षणान्नन्दपुरं गतः । घोषेषु सबलं कृष्णमागच्छंतं ददर्श ह ॥१०॥
(गर्ग संहिता -मथुरा खण्ड -तृतीय अध्याय)
रथ पर सवार अक्रूर उसके बाद नन्द गाँव गये कुछ क्षणों में ही उन्होंने घोषों में बलवान कृष्ण को आते हुए देखा ! सबल पद के साथ कृष्ण या प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ बल ( बलभद्र) के साथ कृष्ण अर्थ हो सकता था परन्तु क्रिया पद आगच्छतं=आते हुए को । एक वचन रूप में शतृ प्रत्ययान्त है ।
घोषयोषिदनुगीतवैभवं कोमलस्वरितवेणुनिःस्वनम् ॥
सारभूतमभिरामसंपदां धाम तामरसलोचनं भजे ॥११॥
उपरोक्त श्लोक में घोष युवतियों का वर्णन किया है|
इति श्रीगर्गसंहितायां (हय )अश्वमेधखण्डे
रासक्रीडायां पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४५॥
शैलानां भूषणं घोषो घोषाणां भूषणं वनम् ।
वनानां भूषणं गावस्ताश्चास्माकं परा गतिः।१७।।
श्लेष युक्त - शैलों का भूषण घोष(गायों का गोष्ठ और गोप है ) और घोषों का श्रृंगार वन हैं ।और वन की भूषण गायें वे गायें ही हम लोगों की परम गति हैं ।१७।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व के अष्टम अध्याय का 17वाँ श्लोक-
और ये गोप वंशगत रूप से यादव
( यदोर्गोत्रापत्यमण् इति यादव:)
अर्थात् यदु के वंशज यादव हैं।
और इनकी वीरता ने इन्हें अभीर बना दिया ।
और यह आभीर शब्द भी वीर शब्द से
विकसित होता है ।
दादा जी का दूसरा लोक- प्रसिद्ध नाम हुआ "श्रुतश्रवस्"
क्यों लोक- में उनका यश: सबको द्वारा सुना गया था ।
वैदिक शब्द कोश में श्रवस् शब्द का अर्थ धनम् । इति निघण्टुः ।२। १०॥
और भागवत पुराण में यशः भी किया गया है । यथा भागवते । ४ । १७ । ६
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ऋग्वेद में यदु और तुर्वशु को प्राचीनत्तम विश्व का सबसे बडा गोप कहा :- जो करोड़ो गायों से घिरे हुए हैं ।👇
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"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा । यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में "दासा" शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है।
क्योंकि वैदिक भाषा(छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप -
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं
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गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है।
वैदिक काल में ही यदु को "दास" सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित करने की कुत्सित चेष्टा की।
और वैदिक सन्दर्भ में " दास " का अर्थ असुर अथवा देव संस्कृति का विद्रोही ही है ।
सेवक या भक्त नहीं जैसा कि आधुनिक समय में हुआ है
कदाचित् ब्राह्मणों को ये जन-श्रुतियाँ पश्चिमीय एशिया के मिथकों से प्राप्त हुईं !
क्यों कि कनानी संस्कृतियों तथा फोएनशियन सैमेटिक संस्कृतियों में यहुदह् (Yahuda)
का वर्णन इसी प्रकार हुआ है ।
--जो यहूदियों का आदि पुरुष यदु: है ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये उपर्युक्त ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
प्रशंसात्मक रूप में कभी नहीं हुआ
एक दो ऋचाओं में बाद में यदुवंशीयों के वर्चस्व को जान कर यदु और तुरवसु की प्रशंसात्मक कर दी गयी है ।
दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
:-जो एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है।
---जो वर्तमान में दाहिस्तान "Dagestan" को आबाद करने वाले हैं।
दाहिस्तान( Dagestan) वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
तुर्को के आदि-पूर्वज तुर्वशु थे।
विदित हो कि यहूदी प्राचीन पश्चिमीय एशिया में कनान ,फलिस्तीन, सीरिया, अराम आदि देशों के ये सबसे बड़े चरावाहे थे।
और चरावाहे आर्य्य ही थे जिसमें अबीर, बीर, अवर ,अफर, आयबेरिया, आभीर ,वीर नाम ध्वनित हैं ।
पश्चिमीय एशिया के इतिहास कारों ने यहूदियों के रूप में "गुजर" जन-जाति का भी उल्लेख किया है ।
सैमेटिक तथा सुमेरियन संस्कृति में "गु" गाय को ही कहा गया है ।
इसी से पश्चिमी एशिया में गोर्सी, गोर्जी तथा वैदिक रूप गोषन् लौकिक घोष: आदि रूप विकसित हुए ।
"गा चारयति इति गौश्चर: जश्त्व सन्धि विधान से गौश्चर से गुर्जर शब्द विकसित हुआ ।
अब ये लोग भारत में यादवों के रूप में थे ।
ऐसा अनेक विद्वान लिखते हैं।
पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने यहुदह् "Yahuda" को यदु: से एकरूपता स्थापित की ।
और यह घोष शब्द किसी वंश का सूचक पहले कभी नहीं था केवल गोप का वाचक था ।
हाँ यह घोष यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।
वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था।
यादवों ने वर्ण व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं किया
यह वैदिक ऋचाओं में प्रतिध्वनित ही है ।
यद्यपि यादवों की निर्भीक यौद्धा प्रवृत्ति के कारण ईसा० पूर्व द्वितीय सदी के ग्रन्थों में ( आ-समन्तात् भियं-भयं रीति ददाति इति आभीर ...
आभीरः, पुं, (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः ।) गोपः । इत्यमरः ॥ आहिर इति भाषा ।
अमरकोशः
आभीर पुं।
गोपालः
समानार्थक:गोप,गोपाल,गोसङ्ख्य,गोधुक्,आभीर,वल्लव,गोविन्द,गोप , गौश्चर, गोषन्, घोष: ।
2।9।57।2।5
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥
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जैसे राजा के पुत्र होने से हम राजपुत्र तो हो सकते हैं
और राजकुमार ही राजा की वैध सन्तानें मानी जाती थीं
यदु का वंश सदीयों से पश्चिमी एशिया में शासन करता रहा 'परन्तु भारतीय पुरोहितों ने भले ही यदु को क्षत्रिय वर्ण में समाहित 'न किया हो तो भी हम स्वयं को राजा यदु की सन्तति मानने के कारण से राजपुत्र या राजकुमार मानते हैं।
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'परन्तु बात राजपूत समाज की बात आती है तो हम राजपूत इस लिए नहीं बन सकते क्यों कि राजपूत शब्द ही पञ्चम- षष्ठम सदी की पैदाइश है ।
और यह शब्द राजपुत्र या राजकुमार की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत को पुराणों में करणी जाति की कन्या से उत्पन्न राजा की अवैध सन्तान माना गया है ।
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिनकी स्मृति में राजपूतों ने करणी सेना का गठन कर लिया है ।
करणी एक चारण कन्या थी
और चारण और भाट जनजातियाँ ही बहुतायत से राजपूत हो गये हैं ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
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शूद्रायां क्षत्रियादुभ: क्रूरकर्मो प्रजायते ।
शास्त्रविद्यासु कुशल संग्रामे कुशलो भवेत् ।
तथा वृत्या सजीवैद्य शूद्र धर्मां प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद : ।
हिन्दी अनुवाद:-👇
क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है ।
यह भयानक शस्त्र-विद्या और रण में चतुर और शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र-वृत्ति से अपनी जीविका चलाने वाला होता है ।
(सह्याद्रि खण्ड स्कन्द पुराण अध्याय- 26 )
दूसरे ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में इस प्रकार वर्णन है।👇
< ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (खण्डः 1 -(ब्रह्मखण्डः)
← (अध्यायः 10 श्लोक 111
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
1/10।। 111
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति भी है ।
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क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
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हम घोष 'लोग' यादव हैं अहीर है गोपाल है वीर हैं
शत्रु का दमन करने वाला होने से हमारे दादा का मूल नाम दम था ;और घोष वे इसलिए कहलाए क्यों कि
वे गोपालक थे और वंशमूलक रूप में यादव थे ।
हाँ यह घोष शब्द सनातन काल से यादवों की गोपालन वृत्ति मूलक उपाधि या विशेषण अवश्य था।
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वैदिक काल में ई०पू० सप्तम् सदी में यह गोष:( गौषन् ) के रूप में था ।
और घोष रूप में तो यह ई०पू० पञ्चम् सदी में हो गया था ।
क्यों कि हैहय वंशी यादव राजा दमघोष से पहले भी घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है ।
इस विषय में वेद प्रमाण हैं; उसमे भी ऋग्वेद और उसमें भी इसके लिए चतुर्थ और षष्ठम मण्डल महत्वपूर्ण श्रोत हैं।
मध्यप्रदेश में "घोष" यद्यपि यादवों का प्राचीनत्तम विशेषण है।
जो गोपालन की प्राचीन वृत्ति ( व्यवसाय) से सम्बद्ध है
परन्तु आज ये लोग दुर्भाग्य संस्कृत भाषा को न जानने के कारण अपने प्राचीनत्तम इतिहास को भी भूल गये हैं।
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घोषी यदुवंशी अहीरों का एक प्रसिद्ध और स्वतंत्र खानदान(शाखा)है जिनका ठिकाना मुख्यतः पश्चिमी यूपी का ब्रज क्षेत्र, मध्यप्रदेश, अफ़ग़ानिस्तान, पंजाब, सिंध है।
घोषी यादवों में लगभग 225 से ज़्यादा गोत्र आते हैं।
घोषी अहीरों की ब्रज क्षेत्र में कई ज़मीदारी और रियासतें
रही हैं।
'घोषी' शब्द की उत्पत्ति पर विस्तृत रूप से प्रकाशन हो चुका है ।
यदुवंशियों के प्रसिद्ध चेदि राजवंश के महाराजा दमघोष भगवान कृष्ण के बुआ के पुत्र युवराज शिशुपाल के पिता थे।
चेदि जनपद आज के बुंदेलखंड के इलाके को कहा जाता था।
घोषी अहीरों को ठाकुर, संवाई आदि की भी पदवी है और ये "घोषी ठाकुर" नाम से प्रसिद्ध हैं।
ब्रज के घोषी अहीरों की परम्परा है ;
घोषी यादवों ने अपनी क्षत्रिय परम्परा आज भी बरकरार रखी है एवं इनकी विवाह कार्यक्रमों मे गौड़ ब्राह्मण फेरों की रस्म सम्पन्न करवाते है।
घोषियों मे खाप प्रथा व वंशानुगत चौधरी प्रथा का भी प्रचलन है, यदि किसी चौधरी का कोई वैध उत्तराधिकारी नही होता है तो उसके मरणोपतरान्त उसकी विधवा किसी दत्तक पुत्र को उसका वंशज घोषित करती है,
दत्तक पुत्र न चुने जाने की स्थिति मे पंचों द्वारा योग्य उत्तराधिकारी का चयन होता है।
यह यहूदियों में भी विद्यमान थी।
मध्य प्रदेश में घोसी अहीरों के गोत्र-
चंदेल गोत्र, मेहर गोत्र , पोहिया गोत्र, भृगुदेव गोत्र, रोहिणी गोत्र( बलराम जी के वंशज), गुरेलवंशी अही,
पंवार गोत्र, गढवाल गोत्र, राधेय गोत्र(राधारानी के वंशज),
अत्रि गोत्र, नागवंशी गोत्र, अत्रेय, पंवार गोत्र, सिकेरा गोत्र,
बाबरिया गोत्र (पांडू पुत्र अर्जुन के प्रपौत्र राजा जनमेजय के वंशज), रौंधेला गोत्र, सौंधेले, हवेलिया,
वितिहोत्र गोत्र ( सम्राट सहस्त्रार्जुन के वंशज), प्रद्यौत गोत्र, बिलौन गोत्र, वेद, फाटक गोत्र (मथुरा नरेश ) आदि प्रसिद्ध हैं ।
यदुवंशी अहीर राजा दिगपाल के वंशज जिन्होंने (शिकोहाबाद जिला फीरोजाबाद उत्तर प्रदेश) में सम्मोहन चौरासी जागीर स्थापित करी थी।),
धूमर आदि 200 से ज्यादा गोत्र पाए जाते हैं घोषियों में।
लेकिन मध्यप्रदेश के घोषी अब यादव संघ से दूर होने लगे हैं एवं इसका मुख्य कारण है।
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भारत के यादव समाज के संगठनों द्वारा मध्यप्रदेश के घोषी अहीर भाईयों की उपेक्षा ।
ऐसे ही राजस्थान के जोधपुर के आसपास कई चंद्रवंशी घोषी अहीरों के ठिकाने आबाद थे लेकिन अब ये अग्निवंशी चौहानों और राठौड़ों में सम्मिलित हो गए हैं।
अहीर एक शुद्ध आर्य चंद्रवंशी क्षत्रिय नस्ल है ।
चौहान गुर्जरों का गौत्र था ।
लेकिन लगता है राजनीति के चक्कर में ये नेता दुसरी बिरादरी के लोगों को हमसे जोड़ हमारी शुद्ध आर्य क्षत्रिय नस्ल को बरबाद करके ही मानेंगे।
यद्यपि गूजर और जाटों जैसे संघों में भी हमारे घोसी 'लोग' समायोजित हैं ।
जो अब अपने को गुर्जर या जाट लिखते हैं ।
घोष शब्द गोसेवा से सम्बद्ध है ।
🐆🐅
इन्हें नहीं पता कि गोषन् शब्दः ही
पौराणिक काल में "घोष " बन गया जबकि वैदिक
सन्दर्भों में यह गोष: ही है ।
दर-असल उसमें इनका भी कोई दोष नहीं है
क्यों कि
कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी काल में अपने उसी मूल यथावत्-रूप में नहीं रह पाता है।
परिवर्तन का यह सिद्धान्त संसार की प्रत्येक वस्तु पर लागू है ।
जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है।
नि:सन्देह वह इसका मूल रूप नहीं होता ।
वह बहुतायत बदला हुआ रूप होता है
क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी,
श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है।
और अल्पज्ञता ही है ।
और इस परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया भी स्वाभाविक ही है ।
देखो ! जैसे👇
आप नवीन वस्त्र और उसीका अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! चीथड़ा हो जाता है जानते हो ।
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घोष: शब्द के जिस रूप को लोगों ने सुना तो उन्होनें
(घुष् ध्वनौ धातु की कल्पना कर डाली )
और अर्थ कर दिया कि --जो गायें को आवाज देकर बुलाता है 'वह घोष है।
परन्तु -जब घोष शब्द ही अपने इस मूल रूप में नहीं है- तो यह व्युत्पत्ति भी अभाषा-वैज्ञानिक ही है ।
परन्तु घोष शब्द मूलत: गोष: है --जो ऋग्वेद में गोष:गोषन् और बहुवचन गोषा रूप में गोपालकों का ही वाचक है ।
देखें--नीचे ऋग्वेद के उद्धरण👇
गोष: (गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु)
अर्थात् --जो गाय की सेवा करता है ।
गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सिद्धान्त कौमुदीय धृता श्रुतिः 👇
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नूनं न॑ इन्द्राप॒राय॑ च स्या॒ भवा॑ मृळी॒क उ॒त नो॑ अ॒भिष्टौ॑। इ॒त्था गृ॒णन्तो॑ म॒हिन॑स्य॒ शर्म॑न्दि॒वि ष्या॑म॒ पार्ये॑ गो॒षत॑माः ॥५॥___________________
पद पाठ-
नू॒नम्। नः॒। इ॒न्द्र॒। अ॒प॒राय॑। च॒। स्याः॒। भव॑। मृ॒ळी॒कः। उ॒त। नः॒। अ॒भिष्टौ॑। इ॒त्था। गृ॒णन्तः॑। म॒हिन॑स्य। शर्म॑न्। दि॒वि। स्या॒म॒। पार्ये॑। गो॒सऽत॑माः ॥५॥
(ऋग्वेद मण्डल:6 सूक्त:33 ऋचा 5 )
अन्वय -हे (इन्द्र) ! (नः) =हम लोगों के (मृळीकः) सुखकारक (भवा) बनिए और (उत) भी (अपराय) अन्य के लिये (नूनम्) निश्चय कर सुखकारक (स्याः) होइए- और (नः) हम लोगों के (अभिष्टौ) अपेक्षितौं (च) भी प्रवृत्त हूजिये (इत्था) इस कारण से (गृणन्तः) स्तुति करते हुए (गोषतमाः) गायों को अत्यन्त सेवनेवाले हम लोग (महिनस्य) बड़े आप के (पार्ये) पूर्ण करने के लिए (दिवि) स्वर्ग के (शर्मन्) गृह में (स्याम) होवें ॥५॥
(ऋग्वेद ६ । ३३ । ५ । )
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देवता: इन्द्र: ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
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"प्र ते॑ ब॒भ्रू वि॑चक्षण॒ शंसा॑मि गोषणो नपात्। माभ्यां॒ गा अनु॑ शिश्रथः ॥२२॥
ऋग्वेद - मण्डल:-4 सूक्त:-32 ऋचा:22 |
अन्वयार्थ -हे (गोषणः) =गां सनोति सेवयति पूजयति वा गो+सन् =गोषन्+अच् कर्तरि गोष:– गौ की पूजा करने वाले (विचक्षण)= दृष्टा /ज्ञाता ! जो (बभ्रू) कपिला गो की मैं (प्र, शंसामि) प्रशंसा करता हूँ वे (ते) आपके शिक्षक होवें (आभ्याम्) इनके साथ आप (नपात्) नहीं गिरनेवाले होते हुए (गाः) गायों को (मा) मत (अनु, शिश्रथः) शिथिल करते हैं ॥२२॥
प्र ते बभ्रू विचक्षण शंसामि गोषणो नपात् ।
माभ्यां गा अनु शिश्रथः ॥२२॥
ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।👇
सायण भाष्य:-प्र ते॑ ब॒भ्रू वि॑चक्षण॒ शंसा॑मि गोषणो नपात्
माभ्यां॒ गा अनु॑ शिश्रथः ॥२२
प्र । ते॒ । ब॒भ्रू इति॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ । शंसा॑मि । गो॒ऽस॒नः॒ । न॒पा॒त् ।
मा । आ॒भ्या॒म् । गाः । अनु॑ । शि॒श्र॒थः॒ ॥२२
हे “विचक्षण प्राज्ञेन्द्र “ते त्वदीयौ “बभ्रू बभ्रुवर्णावश्वौ “प्र “शंसामि प्रकर्षेण स्तौमि" ।
हे “गोषनः गवां सनितः हे “नपात् न पातयितः
स्तोतॄनविनाशयितः।
किंतु पालयितरित्यर्थः ।
हे इन्द्र त्वम् “आभ्यां त्वदीयाभ्यामश्वाभ्यां “गा “अनु अस्मदीया गा लक्षीकृत्य “मा “शिश्रथः विनष्टा मा कार्षीः गावोऽश्वदर्शनात् विश्लिष्यन्ते ।
तन्मा भूदित्यर्थः ।।
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उपर्युक्त ऋचा में गोष: शब्द गोपोंं का वाचक है।
जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में वर्णित है।
शब्दों का शारीरिक परिवर्तन भी होता है ।
लौकिक भाषाओं में यह घोष: हो गया।
तब भी इसकी आत्मा (अर्थ) अपरिपर्वतित रहा।
आज कुछ घोष लोग अपने को यादव भले ही न मानें परन्तु इतिहास कारों ने उन्हें यादवों की ही गोपालक जन-जाति स्वीकार किया है।
वैसे भी दमघोष से पहले भी घोष शब्द हैहय वंशी यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है
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पुराणों में वर्णित हैहय भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था।
जैसे-
यदु के चार पुत्र थे –
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा,
(III) नल और (IV) रिपु.
हैहय वंश यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था।
शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय.
और इस हैहय वंश में राजा दमघोष हुए ।
परन्तु कालान्तरण में
ब्राह्मण वाद की रूढ़िवादी परम्पराओं की विकट छायाओं आच्छादित होकर हम अपना इतिहास भूल गये।
इन्हें अपने घोसी लोगों को कोई पूछे कि ठाकुर उपाधि तुर्को और मुगलों की उतरन( Used clothes) है।
--जो तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में जमींदारों या सामन्तों की उपाधि थी ।
संस्कृत भाषा या किसी शास्त्र में तो ठाकुर शब्द है ही नहीं
यह नवम सदी से बारहवीं सदी में हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रविष्ट हुआ
जब देश पर तुर्को और मुगलों का शासन था ।
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हम राजपूत भी नहीं बनना चाहते हैं क्यों कि राजपूत करणी कन्या के अवैध सम्बन्धों से उत्पन्न राजा की सन्तानें है ।
--जो तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में जमींदारों या सामन्तों की उपाधि थी ।
संस्कृत भाषा या किसी शास्त्र में तो ठाकुर शब्द है ही नहीं यह बारहवीं सदी में हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रविष्ट हुआ
जब देश पर तुर्को और मुगलों की शासन था ।
प्रथम तुर्की आक्रान्ता सुबक्तगीन 977 ईस्वी में गजनी से भारत में प्रवेश करता है।
तब अपने सामन्तों की ताक्वुर tekvur उपाधि
किसी भूखण्ड या प्रान्त के संरक्षक या मुखिया के तौर पर निश्चित करता है ।
मध्यप्रदेश के घोष --जो स्वयं को ठाकुर तो मानते हैं परन्तु अहीर या यादव नहीं मानते ।
घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा।
--जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में गोष: के रूप में है जिसका अर्थ है ।
गां सनोति सेवयति इति गोष: --जो गाय की सेवा पूजा करता है 'वह गोप !
अब कुछ हमारे घोष समाज के लोग कहने लगे है कि घोष और घोसी अलग हैं
जो कि अज्ञानता जनक है ।
पुनरावलोकन करें ...
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घोष यादव उपसमुदाय है ।
वे अपने पराक्रम से क्षत्रिय तो हैं और मजूमदार होने से ठाकुर भी 'परन्तु राजपूत नहीं हैं ।
क्योंकि कि इस लिए 👇
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ जातिभास्कर में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया कि ब्रह्मवैवर्तपुराणम् ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः१० ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
श्लोक संख्या १११
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
1/10।।111
ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ; और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है ।👇
( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
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और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।
विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
चारण, भाट , लोधी (लुब्धक( लोहितिन्) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇
< ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १० श्लोक संख्या १११।
"क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराणम्-1/10/१११)
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति है ।
क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ।चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और उत्तराधिकार में जिन्हें कुछ जाती लें प्राप्त हुईं ।
उत्तर प्रदेश के जो अहीर जाति से सम्बन्धित घोसी जो स्वयं को यादव लिखते हैं।
यादव एक वंश मूलक विशेषण है । जबकि अहीर एक जनजाति या नस्ल(phylum) से सम्बन्धित नाम है। और यादव एक वंश (clan) है।
घोषी ही यादवों का गोपी समानार्थक विशेषण है उत्तर प्रदेश में यादवो का इतना जलवा है तीन तीन बार मुलायम सिंह को बनवाया और पिछडे वर्ग का भारत भर में शंखनाद किया बिहार में भी घोसी है वहां राय मंडल यादव घोसी है पर वहां के बड़े-बड़े नेताओं ने एक राय होकर यादव लिखने का निर्णय किया हरियाणा में राव लिखते हैं यादव लिखते हैराजस्थान में भी यादव लिखते हैं दिल्ली में भी यादव लिखते है छत्तीसगढ़ में यादव सबसे पिछड़े हैं यादव शब्द बड़ा ब्रांड यादवो में जब संपर्क करें कब पता चलता है कि कौन है यदुवंशी है चंद्रवंशी है नंदवंशी है कमरिया है डढोर
है नेपाल मैं यादव लिखती है पर उसमें कुछ घोषी भी है असम में जो घोषी है उसमें कुछ कायस्थ कुछ यादव घोषी है इंदौर मिनी मुंबई है वहां यादवो से जब संपर्क किया तो उसमें विवाद है कुछ दिल्ली वाले यादव है कुछ हरियाणा से आए हुए हैं कुछ बिहार से आये हुई है और मध्य प्रदेश के और जब संपर्क किया गया तो यादव भी नहीं थे वह एस सी थे करण था दबगई हम लोग त्रिशंकु की तरह फसे भोपाल होशंगाबाद शाजापुर सीहोर में अग्निवंशी है वह घोसी राजपूत लिखते ग्रुप को बड़े ढेर धैर्य संयम से चलाना होगा धीरे धीरे जहां-जहां भी घोसी है वह निकल कर बाहर आएंगे
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स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड मे अध्याय २६ में
वर्णित है ।
"शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।47।
तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते । राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद:।।48।
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कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है
जो क्रूरकर्मा शस्त्र वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं ।
ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं ।
ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने जातिभास्कर ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या १९७ पर राजपूतों की उत्पत्ति का एेसा वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत)
"वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” इति (पराशरःस्मृति )
अर्थ- पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
पर चारणों का वृषलत्व कम है ।
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।
चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं; कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी होता है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
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"सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।[7][8]-
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सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...
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[7] "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009
[8] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.
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विशेष:-
उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है ।
कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गयी
जिसमें कुछ चारण भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो गया।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है
जिसमें अनेक जन-जातियों का समायोजन है ।
जैसे
चारण, भाट , लोधी( लुब्धी–लुब्धक) कुशवाह ( कृषिवाह) बघेले आदि और कुछ गुर्जर जाट और अहीरों से भी राजपूतों का उदय हुआ ।
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'परन्तु बहुतायत से चारण और भाट या भाटी बंजारों का समूह ही राजपूतों में विभाजित है ।
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घोष शब्द ही प्राकृत भाषाओं में घोसी बन गया है
जबकि घोष भी वैदिक गोष: का लौकिक रूपान्तरण है
जिनका अर्थ गोसेवक अथवा गोप ही होता है.
वृष्णि वंशी यादव उद्धव को 'ब्रजभाषा के कवि सूरदास आदि ने घोष कहा ।
यादवों का एक विशेषण है घोष -👇
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"आयो घोष बड़ो व्यापारी लादि खेप गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी||
फाटक दैकर हाटक मांगत, भोरै निपट सुधारी धुर ही तें खोटो खायो है, लए फिरत सिर भारी ||
इनके कहे कौन डहकावै ,ऐसी कौन अजानी ।अपनों दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप को पानी ||
ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ|
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ ||
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वह गोपियाँ उद्धव नामक घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं ।
घोष शब्द यद्यपि गौश्चर: अथवा गोष: का परवर्ती तद्भव रूप है परन्तु इसे भी संस्कृत में मान्य कर दिया गया ।
और इसकी घुष् धातु से व्युत्पत्ति कर दी गयी ।
--जो पूर्ण रूपेण असंगत व अज्ञानता जनित व्याकरणिक और भाषा विज्ञान के नियम के विरुद्ध ही है ।👇
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घोष: (घोषति शब्दायते इति ।
घोषः, पुंल्लिङ्ग (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् ।
घुषिर् विशब्दने + “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१। इति घञ् )
आभीरपल्ली (अहीरों का गाँव)
अर्थात् जहाँ गायें रम्हाती या आवाज करती हैं 'वह स्थान घोष है ।
वस्तुत यह काल्पनिक सामयिक व्युत्पत्ति मात्र है ।
(यथा, रघुःवंश महाकाव्य । १ । ४५ ।
“हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ”
द्वितीय व्युत्पत्ति गोप अथवा आभीर के रूप में है 👇
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घोषति शब्दायते इति । घुष् + कर्त्तरि अच् ।)
गोपालः । (घुष् + भावे घञ् ) ध्वनिकारक।
(यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः ।
कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।
(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुज
महाकृती )
अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका ।
बंगाल में कायस्थों का एक समुदाय घोष कहलाता है ।
__________________________________________
👇
'ब्रजभाषा के कवियों ने घोष या अहीर यादवों को ही कहा है ।👇
उदाहरण —प्रात समै हरि को जस गावत
उठि घर घर सब घोषकुमारी ।
(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुंल्लिङ्ग [संज्ञा] [ आभीर] १. अहीर । ग्वाल
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रसखान ने अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 👇
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या लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख,
नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों,
ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम,
करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस,
सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,
अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,
पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,
छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
नीचे देखें---👇
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ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
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अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
(उद्धृत अंश)👇
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक नवम अध्याय।
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आयो
तत: क्रमेण घोष: स प्राप्त वृन्दावनं वनम्।
निवेश विपुल चक्र वहां चैव हि चाय च ।।२०।
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तदनंर क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह घोष ( गोपसमूह और गायों का वाडा़ )वृन्दावन आ पहुँचा और गायों के हित के लिए बहुत दूर तक फैलकर वास गया ।२०।
(हरिवंश पुराण विष्णु पर्व नवम्बर अध्याय )
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ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ;
क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
और घोष भी गोपों का प्राचीन विशेषण है ।👇
द्रोण नन्दो८भवद् भूमौ, यशोदा साधरा स्मृता ।
कृष्ण ब्रह्म वच: कर्तु, प्राप्त घोषं पितु: पुरात् ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः
शापेन गोपालत्वमापतुः। यथाह
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
गोषा -गां सनोति सन--विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ ।
अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषाशब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
गोषन् (गोष: )गां सनोति सन--विच् ६ त० “सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्बपदात् वा षत्वम् । गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” ऋ० ४ । ३२ । २२ ।
अहीरों की वस्ती या अहीरों को ही घोष कहा जाता है ।
आभीरपल्ली । (यथा, रघुःवंश । १ । ४५ । “हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥
घोष= गोपालः ।
(यथा, मनुः । ७ । २२५ ।
“तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः )
कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ ।
घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुजमहाकृती ॥”)
अमरकोशः
व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं ।
संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका ।
वस्तुत: ये कायस्थ जो आज घोष लिखते हैं पश्चिमी बंगाल की गोपों की शाखा थी जिसे किसी कार्यमें स्थित होने से कायस्थ कहा ऐसा समाजशास्त्रीयों का विचार है।
उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुं० [सं०] [ आभीर]
अहीर । ग्वाल । गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे (राम चरित मानस । ७ । १३० )
तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है ।
कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ
( पाप )रूप देखें -
"नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा ।
निर्मल मन अहीर निज दासा-
(राम चरित मानस, ७ ।११७ )
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विशेष—इतिहासकारों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी।
इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है ।
कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
वे आगे चलकर आर्यों में घुलमिल गए ।
इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी ।
य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव ।
ग्वालों की बस्ती ।
२. एक देश का नाम ।
३. एत छन्द जिसमें ११ ।
मात्राएँ होती है और अन्तत में जगण होता है ।
जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ ।
गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार ।
गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है ।
संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । ग्वाला ।
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"रसखान अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं ।
"या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
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हरिवंश पुराण (विष्णुपर्व) में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
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"ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
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अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक नवम अध्याय।
जाट संघ जिसमे भी कुछ यदुवंशीयों का समावेश है ।
और गुज्जर लोगों में भी संघ है ।
जिसमें कुछ यदुवंशी और कुछ रघुवंशी और कुछ हूण और कुषाण तुषार भी अपने को कहते हैं
गूजरों और जाटों तथा अहीरों मे घोसी गोत्र केवल यदुवंशीयों का है ।
दमघोष संज्ञा पुं० [सं०] चोदि देश के प्रसिद्ध राजा शिशुपाल के पिता का चाम जो दमयंती के भाई थे । इनका दूसरा नाम श्रुतश्रुवा भी है ।
राजा शिशुपाल - चेदि गोत्री जाट, जिसने बुन्देलखण्ड पर राज किया था ।
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सन्दर्भ ↑ Hawa Singh Sangwan: Asli Lutere Koun/Part-I,p.61।
चेदि जनपद बुन्देलखण्ड में था चेदि जाट गोत्र भी है।
उस समय वहां पर चन्द्रवंशी शिशुपाल राज्य करता था। ययातिपुत्र यदु के पुत्र करोक्षत्री की परम्परा में शूरसेन राजा हुआ।
उसकी पुत्री श्रुतश्रवा का विवाह चेदिराज दमघोष से हुआ जिनसे शिशुपाल नामक पुत्र हुआ।
नकुल ने चेदि नरेश की पुत्री करेणुमती से विवाह किया था ।
References
↑ Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter III, Page 290
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