शनिवार, 27 मार्च 2021

भाषाविज्ञान और इतिहास सम्पूरक-


"भाषा - उत्पत्ति का सैद्धान्तिक विवेचन-

    (शनिवार, 20 मार्च 2021)

संस्कृत व्याकरण में सन्धि-विधान और वर्णमाला की व्युत्पत्ति के भाषावैज्ञानिक विश्लेषण के साथ ही पदों का पारिभाषिक विवेचन- प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"

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             "यादव योगेश कुमार "रोहि"

"संस्कृत-वर्णमाला-में सन्धि-विधान और वर्णों की-उत्पत्ति-प्रक्रिया-का भाषावैज्ञानिक विश्लेषण "

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भाषा की उत्पत्ति

भाषा कि उत्पत्ति  कैसे हुई ? यह जानना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण बात है; क्योंकि भाषा कि उत्पत्ति से हमारे समाज की प्रगति व  विकास यात्रा प्रारम्भ हुई  ।

आज सम्पूर्ण  विश्व की भाषाऐं इतनी परिवर्तित हो चुकी हैं कि उनके माध्यम से  यदि हम  भाषा की उत्पत्ति का सिद्धान्त निर्धारित करेंगे तो यह सम्भव नहीं आधुनिक भाषाएँ अपने मूल रूप से बहुत ही दूर आ चुकी हैं ।  मूल रूप से इतनी दूर आ चुकी है कि अन्तर मापन करना मुश्किल  ही नहीं असम्भव भी है । और उनके आधार पर भाषा के मूलरूप को पहचानना भी मुश्किल है ।

"आज हम भाषा उत्पत्ति के विषय पर किए गए अनुमानो पर चर्चा करेंगे जिन्हें सिद्धान्त रूप में परिणति किया गया ।  परन्तु तथ्य सैद्धांतिक  तब कहलाता है जब वह नियमों के द्वारा सिद्ध होकर एक निश्चित परिणाम को प्राप्त होता हो " 

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★-दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त-The principle of divine origin"

भाषाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन मत यह है कि संसार की अनेकानेक वस्तुओं की रचना भगवान ने की है परन्तु तर्क बुद्धि इसे सहजता से स्वीकार नहीं करती है । 

साधारण धर्मावलम्बीयों का  विचार है कि सब भाषाएँ  भगवान की ही बनाई हुई हैं।  वस्तुत: जो लोग तो धार्मिक रूढ़िवादी होकर  इसी मत को मानते हैं उनका मानना है कि मनुष्य की पराचेतना किसी अलौकिक सूत्र से बंधी हुई है। उसी के प्रभाव से भाषा विकसित हुई है ।

सम्पूर्ण सृष्टि के जन्म के विषय में एक अध्यात्मिक सूत्र सामने रखा गया है….”एकोऽहम् बहुस्याम.”  एक से मैं बहुत हो जाऊँ"" ईश्वर ने यह कामना की कि मैं अकेला हूँ इसलिए स्वंय को बहुतों में विभक्त करूँ .यही कारण है कि यह अखिल ब्रह्मांड के  ईश्वर का विशाल दर्पण है और हम सब उस परमपिता की संतान हैं .।

इस भावबोध के जगते ही मनुष्य सामुदायिक जीवन यापन का बोध और भी विकसित हुआ क्योंकि संयुक्त रूप से जीवन यापन में एक सुरक्षा का बोध है और विकास का अनुभव. ।

इसलिये ऋग्वेद के एक सूक्त में ऋषियों ने अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुये कहा कि –“ वाणी दैविक शक्ति का वरदान है जो इस संसार के सभी प्राणियों को प्राप्त हुआ है और मनुष्य की चेतना में इसी वाणी ने परिनिष्ठित भाषा का रूप लिया.

"दे॒वीं वाच॑मजनयन्त दे॒वास्तां वि॒श्वरू॑पाः प॒शवो॑ वदन्ति। सा नो॑ म॒न्द्रेष॒मूर्जं॒ दुहा॑ना धे॒नुर्वाग॒स्मानुप॒ सुष्टु॒तैतु॑ ॥११।।★-  

सायण भाष्य-(ऋग्वेद-8.100.11)

एषा माध्यमिका वाक् सर्वप्राण्यन्तर्गता धर्माभिवादिनी भवतीति विभूतिमुपदर्शयति ।

 यां “देवीं द्योतमानां माध्यमिकां =“वाचं “देवाः माध्यमिकाः “(अजनयन्त =जनयन्ति“तां वाचं “(विश्वरूपाः =सर्वरूपा) व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च “पशवो “वदन्ति । तत्पूर्वकत्वाद्वाक्प्रवृत्तेः । “सा “वाक् देवी “मन्द्रा मदना स्तुत्या हर्षयित्री वा वृष्टिप्रदानेनास्मभ्यम् (“इषम् =अन्नम् )“ऊर्जं पयोघृतादिरूपं रसं च “दुहाना क्षरन्ती “धेनुः धेनुभूता “सुष्टुता (अस्माभिः स्तुता “=अस्मान् नेमान् ) (“उप “ऐतु =उपगच्छतु) । वर्षणायोद्युक्तेत्यर्थः । 

तथा च यास्कः- ‘ देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च सा नो मदनान्नं च रसं च दुहाना धेनुर्वागस्मानुपैतु सुष्टुता' (निरु. ११. २९) इति ॥

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।। (ऋग्वेद-8.100.11)

अर्थात् देवलोग जिस दिव्य वाणी को प्रकट करते हैं, साधारण जन उसी को बोलते हैं। 

यहाँ पर पशु का अर्थ मनुष्य है। वेद में पशु शब्द मनुष्य-प्रजा का भी वाचक है। 

अथर्ववेद (14.2.25) में वधू के प्रति आशीर्वाद मन्त्र में पशु का अर्थ मनुष्य है--

वि तिष्ठन्तां मातुरस्या उपस्थान् नानारूपाः पशवो जायमानाः ।
सुमङ्गल्युप सीदेममग्निं संपत्नी प्रति भूषेह देवान् ॥२५॥

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तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः ।।9।।

देवीं वाचमजनयन्त  देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।।10।।

(देव्युपनिषद से उद्धृत उपरोक्त मन्त्र भी भाषा के दैवीय सिद्धांत का प्रतिपादन ऋग्वेद के समान ही करता है )।

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              । अथ श्री देव्यथर्वशीर्षम ।

       । दुर्गा शप्तशती में  अथर्ववेद से संग्रहीत है ।

 सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुःकासि त्वं महादेवीति ।1।

 साब्रवीत्- अहं ब्रह्म्स्वरुपिणी मत्तः प्रकृति  पुरुशात्मकं जगत्  शून्यं चाशून्यं च ।।2।।

अहमानन्दानानन्दौ  अहं विज्ञानाविज्ञाने अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये अहं पञ्च्भूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ।।3।।

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम् । अजाहमनजाहम् ।अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ।।4।।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ।। 5।।

हिन्दी अनुवाद :

सभी देवता देवी के समीप गए और नम्रता से पूछने लगे- हे महादेवि! तुम कौन हो ? ।1।

देवी ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप  और असद्रूप जगत उत्पन्न हुआ है।२।

मैं आनंद और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और पंचीकृत जगत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत मैं ही हूँ ।3।

वेद और अवेद मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा  भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ।4।

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्र, अग्नि एवं दोनों अश्विनीकुमारों का भरण पोषण करती हूँ।5।

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ऋग्वेद के दशम मण्डल के १२५वें सूक्त में अदिति रूप में दुर्गा देवी का ही वर्णन हैं । देखें निम्न ऋचाऐं

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोैभा॥१।

अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहंदधामि द्रविणं हविष्मतेसुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।२।

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्।३॥

मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं शृणोत्युक्तम् ।अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥४॥

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तंब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्।५।

अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश॥६॥

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वितिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि।७।

अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥८॥

ऋग्वेद-१०/१२५/१

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संस्कृत को ‘देवभाषा’ कहने में इसीलिए भी  संकेत मिलता है। इसी प्रकार पाणिनी के व्याकरण ‘अष्टाध्यायी’ के 14 मूल सूत्र महेश्वर के डमरू से निकले माने जाते हैं जोकि वास्तव में श्रद्धा प्रवणता ही है ।

बौद्ध लोग ‘पालि’ को भी इसी प्रकार मूल भाषा मानते रहे हैं उनका विश्वास है कि भाषा अनादि काल से चली आ रही है। जैन लोग इससे भी आगे बढ़ गए हैं।

उनके अनुसार अर्धमागधी केवल मनुष्यों की ही नहीं अपितु देव, पशु-पक्षी सभी की भाषा है। 

हिब्रू भाषा के कुछ विद्वानों ने बहुत-सी भाषाओं के वे शब्द इकट्ठे किए जो हिब्रू से मिलते जुलते थे ;और इस आधार पर यह सिद्ध किया कि हिब्रू ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है।

इस विश्लेषण के अनुसार भाषा की उत्पत्ति का प्रायोजन दैविक माना जाता है लेकिन जैसे-जैसे भाषाविज्ञानियों की खोज आगे बढ़ती गई ; तो इस दैवीय सिद्धांत पर भी  शंकाएँ उठने लगी.जैसे-  अनीश्वरवादियों का तर्क है कि यदि मनुष्य को भाषा मिलनी थी जन्म के साथ क्यों नहीं मिली

क्योंकि अन्य सभी जीवों को बोलियों का उपहार जन्म के साथ-साथ मिला लेकिन मानव शिशु को जन्म लेते ही भाषा नहीं मिली.

उसने अपने समाज में रहकर ही धीरे-धीरे भाषागत संस्कारों का विकास व आत्मसात् किया.

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यदि भाषा की दैवी उत्पत्ति हुई होती हो सारे संसार की एक ही भाषा होती तथा बच्चा जन्म से ही भाषा बोलने लगता। 

इससे सिद्ध होता है कि यह केवल अन्विश्वास है कोई ठोस सिद्धान्त नहीं है।

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मिस्र के राजा सैमेटिकुस (psammetius), और फ्रेड्रिक द्वित्तीय (1195-1250), स्काटलैंड के जेम्स चतुर्थ (1488-1513) तथा अकबर बादशाह (1556-1605) ने  भी भिन्न-भिन्न प्रयोगों द्वारा छोटे शिशुओं को समाज से पृथक् एकान्त में रखकर देखा कि उन्हें कोई भाषा आती है या नहीं। 

सबसे सफल अकबर का प्रयोग रहा क्योंकि वे दोनों लड़के गूंगे निकले जो समाज से अलग रखे गए थे।

रॉबिन्स क्रूसो का कथन है कि भाषण शक्ति सम्पन्न वह व्यक्ति पशुओं के सहवास के कारण पशुओं की तरह उच्चारण करता है ।

इससे सिद्ध होता है कि भाषा प्रकृति के द्वारा प्रदत्त कोई उपहार नहीं है।

भाषा में नये-नये शब्दों का आगमन होता रहता है और पुराने शब्द प्रयोग-क्षेत्र से कालान्तरण में बसा घात शून्य होकर बाहर हो जाते हैं।

अत: भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दैवी सिद्धान्त  पूर्ण रूपेण तर्कसंगत नहीं है। इसमें वैज्ञानिक या प्राकृतिक विकासवादी दृष्टिकोणो का अभाव होने से इसमें भाषा की उत्पत्ति की समस्या का कोई समाधान नहीं मिलता। 

हाँ, इस सिद्धान्त में यहाँ तक सच्चाई तो है कि बोलने की शक्ति मनुष्य को जन्मजात अवस्था से प्राप्त है। जो अन्य प्राणीयों में नहीं है।

 निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि कुछ सीमा तक इस सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाय,तब भी दिव्योत्पत्ति सिद्धांत पूर्ण  निर्णायक नहीं हो सकता.

इसलिये भाषाविज्ञानियों ने अन्य प्रयोजनों पर शोध कार्य जारी रखा और परिणाम स्वरूप कुछ नये सिद्धांत सामने आये.

 यह भी सत्भाय है कि भाषा और विचार का नित्य स्वाभाविक तथा अनिवार्य सम्बन्ध है ; विचार को भाषा से पृथक नहीं किया जा सकता है । विचार यदि होंगे तो वे स्वत: ही भाषा के द्वारा व्यक्त हो जाऐंगे- जन्म से गूँगे व्यक्ति में भी भाषा के अभाव में विचार होते हैं वस्तुुत: यह गूूँगापन तो उसके मानसिक विकृति के कारण ही प्रारब्ध वश ही है।

 वैसे भी उसकी क्रियाओं से भी सिद्ध होता है कि भाषा विचारों की अभिव्यञ्जिका है ।

भाषा कि उत्पत्ति के अनेक सम्पूरक सिद्धान्तों का विकास हुआ जिनमें कुछ परस्पर सम्पूरक रूप में परिबद्ध होकर भाषा की उत्पत्ति पर प्रकाशन करते हैं ।

★-सांकेतिक उत्पत्ति वाद अथवा निर्णय सिद्धान्त (Agreement Theory Conventional or Symbolic Origin-

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इसे निर्णय-सिद्धान्त भी कहते हैं। इस सिद्धान्त के प्रथम प्रतिपादक फ्राँसीसी विचारक रूसो हैं। संकेत सिद्धान्त के अनुसार प्रारम्भिक अवस्था में मानव ने अपने भावों-विचारों को अपने अंग संकेतों से प्रषित किया होगा बाद में इसमें जब कठिनाई आने लगी तो सभी मनुष्यों ने सामाजिक समझौते के आधार पर विभिन्न भावों, विचारों और पदार्थों के लिए अनेक ध्वन्यात्मक संकेत निश्चित कर लिए। 

यह कार्य सभी मनुष्यों ने एकत्र होकर विचार विनिमय द्वारा किया। इस प्रकार भाषा का क्रमिक गठन हुआ और एक सामाजिक पृष्ठभूमि में सांकेतिक संस्था द्वारा भाषा की उत्पत्ति हुई।

विश्व -भाषाविज्ञानी यह स्वीकार करते हैं कि मनुष्य के पास जब भाषा नहीं थी,तब वह संकेतों से अपनी विचारों की अभिव्यक्ति करता था. 

★-यह सम्प्रेषण यद्यपि अधूरा होता था तथापि,आंगिक चेष्टाओं के माध्यम से परस्पर परामर्श करने की एक कला विकसित हो रही थी. 

विचार विनियम के लिये यह आंगिक संकेत सूत्र एक नये सिद्धांत के रूप में सामने आया और संकेत के माध्यम से ही भाषाएँ गढ़ी जाने लगी.

भाषाविज्ञानियों का यह मानना है कि जिस समय विश्व की भाषा का कोई मानक स्वरुप स्थिर नहीं हुआ था,उस समय मनुष्य संकेत शैली में ही वैचारिक आदान-प्रदान किया करता था. पशु पक्षियों में यह प्राय: देखा भी जाता है ।

इस संकेत सिद्धान्त के आधार पर आगे चलकर ‘रचई’, ‘राय’ तथा जोहान्सन आदि विद्वानों ने कृत्रिम भाषा निर्माण पर कुछ कार्य किया।

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(Guessial theory)-आनुमानिक सिद्धांत)

(Guessial theory)-आनुमानिक सिद्धांत)

 जो संकेत सिद्धान्त की अपेक्षा कुछ अधिक परिष्कृत होते हुए भी लगभग इसी मान्यता को प्रकट करता है। यह सिद्धान्त यह मान कर चलता है कि इससे पूर्व मानव को भाषा की प्राप्ति नहीं हुई थी। 

यदि ऐसा है तो अन्य भाषाहीन प्राणियों की भाँति मनुष्य को भी भाषा की आवश्यकता का अनुभव नहीं होना चाहिए था। 

यह सिद्धांत अपने आप में कुछ विसंगतिओं को साथ लेकर चलता है। आज के भाषाविज्ञानी इस सिद्धांत के विषय में पहला तर्क यह देते हैं कि मनुष्य यदि भाषाविहीन प्राणी था तो उसे संकेतों से काम चलाना आ गया. तो फिर संकेत भाषा कैसे बनी ?

 दूसरा तर्क यह भी है कि यदि पहली बार मानव समुदाय में किसी भाषा का विकास करने के लिये कोई महासभा बुलाई तो उसमें संकेतों का मानकीकरण किस प्रकार हुआ ? . 

और अंतिम आशंका इस तथ्य पर की गई कि लोक व्यवहार के लिये जिन संकेतों का प्रयोग किया गया,वे इतने सक्षम नहीं थे कि उससे भाषा की उत्पत्ति हो जाती.

यह तर्कसंगत नहीं है कि भाषा के सहारे के बिना लोगों को एकत्रित किया गया, भला कैसे ? 

फिर विचार-विमर्श भाषा के माध्यम के अभाव में किस प्रकार सम्भव हुआ ? यह भी तर्क संगत नहीं ।

इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी हैं परन्तु चीनी आदि भाषाओं के सन्दर्भ में यह सत्य नहीं हैं

जिन वस्तुओं के लिए संकेत निश्चित किये गये उन्हें किस आधार पर एकत्रित किया गया।

संक्षेप में, भाषा के अभाव में यदि इतना बडा निर्णय लिया जा सकता है तो बिना भाषा के सभी कार्य किये जा सकते हैं। 

अतः भाषा की आवश्यकता कहाँ रही?

इस सिद्धान्त में एक तो कृत्रिम उपायों द्वारा भाषा की उत्पत्ति सिद्ध करने का प्रयास किया गया है दूसरे यह सिद्धान्त पूर्णतः कल्पना पर आधारित है।

जैसे मनुष्य के पूर्वज वानर को बताकर मनुष्यों का बन्दर  से विकसित होना भी असम्भव ही है फिर तो बन्दर भी मनुष्य बन जाते परन्तु बन्दर आज भी हैं ।वे मनुष्य क्यों नही बने

 

संकेत सिद्धांत का एक बड़ा महत्व यह है कि इसके द्वारा उच्चरित स्वर व्यंजनों के क्रम का सुनिश्चित किया जा सकता है.

जैसाकि महर्षि पाणिनी ने किया था.भाषावैज्ञानिकों ने भाषा की उत्पति के संबंध में अपने विचार देते हुये संकेत सिद्धांत की स्थापना की. इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य के पास भाषा नहीं थी.

★- धातु तथा अनुरणन सिद्धान्त/रण रणन सिद्धांत (Root-theory) and BowWow Theory

इस सिद्धान्त के मूल विचारक ‘प्लेटो’ थे। जो एक महान दर्शनिक थे। प्लेटो (428/427 ईसापूर्व - 348/347 ईसापूर्व), या अफ़्लातूनयूनान का प्रसिद्ध दार्शनिक था।  ये सुकरात (Socrates) के शिष्य तथा अरस्तू (Aristotle) के गुरू थे।

प्लेटो  के बाद जर्मन प्रोफेसर "हेस" ने अपने एक व्याख्यान में इसका उल्लेख किया था। बाद में उनके शिष्य डॉ॰ स्टाइन्थाल ने इसे मुद्रित करवाकर विद्वानों के समक्ष रखा। 

मैक्समूलर ने भी पहले इसे स्वीकार किया किन्तु बाद में पूर्ण सत्य  न मानकर छोड़ दिया।

इस सिद्धान्त के अनुसार संसार की हर चीज की अपनी एक ध्वनि है। यदि हम एक डंडे से एक काठ, लोहे, सोने, कपड़े, कागज आदि पर चोट मारें तो प्रत्येक में से भिन्न प्रकार की ध्वनि निकलेगी।

प्रारम्भिक मानव में भी ऐसी सहज शक्ति थी। वह जब किसी बाह्य वस्तु के सम्पर्क में आता तो उस पर उससे उत्पन्न ध्वनि की अनुकरण की) छाप पड़ती थी। 

उन ध्वनियों का अनुकरण करते हुए उसने कुछ (400 या 500) मूल धातुओं (मूल शब्दों) का निर्माण कर लिया जो वस्तुत:ध्वनि अनुकरण मूलक अवधारणा थी । 

तब वह इन्हीं धातुओं से नए-नए शब्द बना कर अपना काम चलाने लगा।

भाषा वैज्ञानिकों ने (रणन सिद्धांत) की व्याख्या करते हुये यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक वस्तु के भीतर अव्यक्त ध्वनियाँ रहती है. 

प्लेटो  व मैक्समूलर ने इस सिद्धांत को आधार बनाकर भाषा के जन्म का प्रायोजन सिद्ध किया ।

उदाहरण के लिये किसी भारी वस्तु से किसी दूसरी वस्तु पर आघात किया जाय तो कुछ ध्वनियाँ निकलती है. लकड़ी,पत्थर,ईंट और अलग-अलग धातुएँ, इन सबों में अलग-अलग ध्वनियाँ छिपी होती है ।

और बिना देखे भी मनुष्य आसानी से जान सकता है कि किस वस्तु या किस धातु की कौन सी ध्वनि है।

इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार में ध्वनि आई ; फिर धीरे-धीरे उन्हीं ध्वनियों का अनुसरण करते हुये मनुष्य ने उसे प्रतीक रूप में अर्थान्वित भी किया ।

यह सिद्धान्त शब्द और अर्थ में स्वाभाविक सम्बन्ध मान कर चलता है 

इस सिद्धान्त के अनुसार सभी भाषाएँ धातुओं से बनी हैं किन्तु चीनी आदि कुछ भाषाओं के सम्बन्ध में यह सत्य नहीं है। फिर भी यह सिद्धांत सबसे सशक्त व भाषाओं का प्रारम्भिक कारक है ।

★--आज भाषाओं के वैज्ञानिक विवेचन से यह मान्यता बन गई है कि सभी ‘धातुओं’ या मूल शब्दों की परिकल्पना भाषा के बाद व्याकरण-सम्बन्धी विवेचन का परिणाम है। जैसे संस्कृत अथवा मूल भारोपीय भाषा में है ।

पाणिनि के अष्टाध्यायी के अन्त में (परिशिष्ट) धातुओं एवं उपसर्ग तथा प्रत्ययों की सूची दी हुई है। इसे 'धातुपाठ' कहते हैं। इसमें लगभग २००० धातुएं हैं। इसमें वेदों में प्राप्त होने वाली लगभग ५० धातुएं नहीं हैं। यह धातुपाठ मूल १० वर्गों में हैं- । जिनसे सभी कृदन्त व तद्धित शब्दों का निर्माण हुआ है; वस्ततु: इनमें भी भाव सादृश्य से बहुत सी धातुओं का विकास कालान्तरण मेें  हुुआ।

यह सिद्धान्त भाषा को पूर्ण मानता है जबकि भाषा सदैव परिवर्तन और गतिशील होने के कारण अपूर्ण ही रहती है।

आधुनिक मान्यता के अनुसार भाषा का आरम्भ धातुओं से बने शब्दों से न होकर पूर्ण विचार वाले वाक्यों के द्वारा हुआ होगा।

इस सिद्धांत में शब्द के अर्थ के नैसर्गिक संबंध की व्याख्या की गई है. ।

"वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।

जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥१.१॥

- रघुवंशमहाकाव्यम् (कालिदास)

अर्थ- मैं शब्द और अर्थ की सिद्धि के निमित्त शब्द और अर्थ के समान  परस्पर मिले हुए जगत् के माता पिता पार्वती और शिव को प्रणाम करता हूँ ॥१.१॥

अर्थात् - वाणी और अर्थ जैसे पृथक् रूप होते हुए भी एक ही हैं उसी प्रकार पार्वती और शिव कथन मात्र से भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। 

वाणी और अर्थ सदैव एक दूसरे से सम्पृक्त रहते हैं।

साथ ही साथ यह प्रमाणित किया गया है कि ध्वनियों से शब्द बने. लेकिन यह सिद्धांत भी अपने आप में अपूर्ण ही  है क्योंकि,संसार की सभी भाषाओं में केवल ध्वनिमूलक शब्द नहीं हैं. हमारे यहाँ प्रत्येक भाषा शब्दों का अक्षर भंडार समेटने की सामर्थ्य रखती है. ।

इसलिये कुछ वस्तुओं-धातुओं के ध्वनि से भाषा की उत्पति संभव नहीं है.

यद्यपि यह सिद्धांत भाषा की। उत्पत्ति में बहुतायत रूप से कारक है । परन्तु अपूर्ण ही है 

अनुरणन सिद्धांत के प्रमुख विचारक यूरोपीय भाषाविद् (हारडर) थे । इनका विचार था कि पशु पक्षियों की ध्वनि सुनकर उनका नामकरण हुआ जैसे कोयल को कूह-कूहकरने से कूकू' कहना चीनी भाषा में बिल्ली को म्याऊँ  म्याऊँ करने से म्याऊँ(Miaou) कहना। संस्कत  में श्रँगाल को हूरव हू-हू रव (ध्वनि करने से कहना हू इति रवो यस्य स। = श्रृँगाल।  इसी प्रकार ( सूकर-सू--इत्यव्यक्तं शब्दं करोति कृ +अच् ) वराह को सूअर कहते हैं। सूँघना क्रिया भी इसी प्रकार की है ।

 कुक्कुर =कोकते क्विप् कुरति शब्दायते (कुर-शब्दे क कर्म्म०-कूकर( कुत्ता) कूँ- कूँ करने से ।

भाषा की आरम्भिक अवस्था में ध्वनि के अनुकरण पर आधारित ध्वन्यात्मक सिद्धान्त पर ही शब्दों का निर्माण हुआ -

अतः परन्तु जब इन सिद्धान्तों से भाषा उत्पत्ति का पूर्ण समाधान नहीं मिला तो एक और नए सिद्धांत का आविष्कार किया गया,जिसे आवेग सिद्धांत कहते हैं.।

★- मनोभाव अभिव्यञ्जकवाद का सिद्धांत :            ( pooh-pooh Theory)

आवेग शब्द का प्रत्यक्ष संबंध मनोवेगों से होता है.मनुष्य के भीतर नाना प्रकार के आवेग पलते रहते हैं.जैसे: सुख-दुःख,क्रोध,घृणा,करूणा,आश्चर्य  आदि .इन सभी मनोभावों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता होती है. इसीलिये संवेदना या अनुभूति के चरण पर पहुँच कर कुछ ध्वनियाँ अपने आप निकल जाती है.जैसे: आह!हाय,! वाह !, आदि.

आवेग सिद्धांत की कुछ त्रुटियाँ हैं.इसमें आवेग या मनोवेग ही प्रमुख है और आवेग या मनोवेग मनुष्य के सहज रूप का संप्रेषण नहीं कर पाता. भाषा को यदि  संप्रेषण का माध्यम माना गया तो उसमें बहुत सारी स्थितियाँ ऐसी है जिसमें सहज अभिव्यक्ति की अपेक्षा होती है.

यदि किसी विचार को संप्रेषित करने की आवश्यकता हो तो आवेग सिद्धांत वहाँ सार्थक नहीं मन जा सकता. 

इस लिये इस सिद्धांत की भी अपनी सीमा रेखा है और आवेग मूलक ध्वनियाँ ही किसी भाषा की संपूर्ण विशेषता का मानक नहीं हो सकती.परन्तु भाषा में शब्दों का निर्माण इस विधि से भी हुआ।

★-हाव-भाव सिद्धांत-(gesture-theory ) :

हाव-भाव दिखलाना भी भाषा कि उत्पत्ति में सहायक हैै। यह सांकेतिक सिद्धान्त है ।

भाषा वैज्ञानिकों का एक विशेष दल अपने प्रयोगों के आधार पर यह मानता है कि इंगित या हाव-भाव प्रदर्शन से भाषा उत्पन्न हुई है. पशुओं तथा पक्षीयों में यह भाव -अभिव्यक्ति का जन्मजात गुण विद्यमान है  यह भाव-संकेत सिद्धांत के साथ जोड़ा जा सकता है लेकिन भाषावैज्ञानिकों के मत में पाषाण काल का मानव ,पशु-पक्षियों के अनुकरण से इंगित से सीखने की आकाक्षां रखता ही था 

पशु जल के स्रोत में मुँह लगाकर पानी पीते थे. अपनी प्यास बुझाने हेतु आदि मानव ने उसी क्रिया का अनुकरण किया और उसने दोनों होठों के जुड़ने और खुलने की ध्वनि से "पान" शब्द  को पाया. 

पीने की क्रिया के साथ होठों से पी की ध्वनि निकलती है इसी से संस्कृत में "पा" धातु का विकास हुआ ।  मामा' पापा' तथा अरबी का शरबत' इसी प्रक्रिया के तहत निर्मित हुए। 

बहुत से शब्द भाव सादृश्य से भी विकसित हुए जैसे दन्त जो मूलत: अदन्त(अद्-भक्षणे)मूलक है ग्रीक Odont- दमन करने से दन्स दन्त आदि -

इसी प्रकार अनुकरण से अनेक शब्द प्राप्त हुये. लेकिन अनुकरण या दूसरे पर निर्भर रहने की प्रवृति बहुत दिनों तक नहीं चली और धीरे-धीरे मनुष्य ने अपनी बुद्धि से नए शब्दों का भी आविष्कार किया तथा भाषा के मामले में वह संपूर्ण सामर्थ्यवान होता चला गया. 

वस्तुत: इस सिद्धांत में भी ध्वनियों का अनुकरण ही कारक है ।

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यही कारण है कि भाषावैज्ञानिकों का आज का विश्लेषण यह निष्पति देता है कि भाषा की उत्पति के लिये सभी सिद्धांतों को मिलाते हुए एक समन्वय सिद्धांत की स्थापना होनी चाहिये. 

१-मनोभावअभिव्यञ्जक वाद २- श्रमपरिहरणमूलकतावाद३-अनुकरणमूलकतावाद४ अनुरणनमूलकतावाद५-तथा प्रतीकवादके अनुसार बहुत से शब्दों का निर्माण हुआ इसके पश्चात भी उपचार से बहुत से शब्दों का विकास हुआ ज्ञात से अज्ञात की व्याख्या के अनुसार जैसे अंग्रेज़ी का पाइप (pipe)  प्रारम्भ में एक मेषपालक के पी-पी करने वाले वाद्य का वाचक था परन्तु उसके खोखले होनो के कारण जब पानी का प्रवाह हुआ तो उसके अर्थ नल के अर्थ को ग्रहण करने लगे इस सिद्धान्त से बहुत से शब्दों का विकास हुआ। Understand-समझना।  

शब्द भी इसी प्रक्रिया के तहत निर्मित हुआ

प्रचीन काल में जब जिज्ञासु को ज्ञाता से नीचे खड़ा रहना पड़ता था तब वह नम्रता के भाव से कुछ समझ पाता था ( श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्)

यह सच है कि कुछ शब्द दैविक व अलौकिक कारणों से उत्पन्न हुये.कुछ शब्दों के लिये संकेत की शैली प्रायोजन बनी.कहीं भाषा का व्यापक स्वरुप ध्वनि से जुड़कर और भी व्यापक हुआ. 

कहीं अनुकरण की क्रिया का सहारा लेकर भाषा की यात्रा आगे बढ़ी.

कहीं मनोवेगों ने साथ दिया और सबसे अधिक विचारों की परिपक्वता को संप्रेषित करने के लिये मनुष्य की बौद्धिकता ने जीवन की प्रयोगशाला में नये तथा सार्थक शब्दों का निर्माण किया.

अत: भाषा उत्पत्ति का प्रधान कारण ध्वनि-अनुकरण मूलक ही था ;परन्तु सभी कारण सम्पूरक ही थे 

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भारोपीय भाषा परिवार-

इस समय संसार की भाषाओं की तीन अवस्थाएँ हैं। विभिन्न देशों की प्राचीन भाषाएँ जिनका अध्ययन और वर्गीकरण पर्याप्त सामग्री के अभाव में नहीं हो सका है, पहली अवस्था में है।

 इनका अस्तित्व इनमें उपलब्ध प्राचीन शिलालेख, सिक्कों और हस्तलिखित पुस्तकों में अभी सुरक्षित है।

 मेसोपोटेमिया- ( प्रचीन ईरान और ईराक) की पुरानी भाषा ‘सुमेरीय’ तथा इटली की प्राचीन भाषा ‘एत्रस्कन’ इसी तरह की भाषाएँ हैं। 

दूसरी अवस्था में ऐसी भी आधुनिक भाषाएँ हैं, जिनका सम्यक् शोध के अभाव में अध्ययन और विभाजन प्रचुर सामग्री के होते हुए भी नहीं हो सका है।

 जैसे बास्क, बुशमन, जापानी, कोरियाई, अंडमानी आदि भाषाएँ इसी अवस्था में हैं।

तीसरी अवस्था की भाषाओं में पर्याप्त सामग्री है और उनका अध्ययन एवं वर्गीकरण हो चुका है। जैसे ग्रीकअरबीफारसीसंस्कृतअंग्रेजी आदि अनेक विकसित एवं समृद्ध भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं।

वर्गीकरण के आधार- 

भाषा के वर्गीकरण के मुखयतः दो आधार हैं–

आकृति -मूलक और अर्थतत्व-मूलक 

आकृतिमूलक और अर्थतत्त्व सम्बन्धी वर्गीकरण मुख्य भेद है ।

प्रथम के अन्तर्गत शब्दों की आकृति अर्थात् शब्दों और वाक्यों की रचनाशैली की समानता देखी जाती है। और दूसरे में अर्थतत्त्व की समानता रहती है। इनके अनुसार भाषाओं के वर्गीकरण की दो पद्धतियाँ होती हैं–आकृतिमूलक और पारिवारिक या ऐतिहासिक। ऐतिहासिक वर्गीकरण के आधारों में आकृतिमूलक समानता के अतिरिक्त निम्निलिखित समानताएँ भी होनी चाहिए।

१-भौगोलिक समीपता - भौगोलिक दृष्टि से प्रायः समीपस्थ भाषाओं में समानता और दूरस्थ भाषाओं में असमानता पायी जाती है।

 इस आधार पर संसार की भाषाएँ अफ्रीका, यूरेशिया, प्रशांतमहासागर और अमरीका के खंड़ों में विभाजित की गयी हैं।

 किन्तु यह आधार बहुत अधिक वैज्ञानिक नहीं है। क्योंकि दो समीपस्थ भाषाएँ एक-दूसरे से भिन्न हो सकती हैं जैसे संस्कृत और तमिल भाषाऐं।

और दो दूरस्थ भाषाएँ परस्पर समान। जैसे ग्रीक और संस्कृत ।

भारत की हिन्दी और मलयालम दो भिन्न परिवार की भाषाएँ हैं किन्तु भारत और इंग्लैंड जैसे दूरस्थ देशों की संस्कृत और अंग्रेजी एक ही परिवार की भाषाएँ हैं।

२- शब्दानुरूपता- समान शब्दों का प्रचलन जिन भाषाओं में रहता है उन्हें एक कुल के अन्तर्गत रखा जाता है। यह समानता भाषा-भाषियों की समीपता पर आधारित है और यह  दो तरह से सम्भव होती है।

 ★-जैसे-एक ही समाज, जाति अथवा परिवार के व्यक्तियों द्वारा शब्दों के समान रूप से व्यवहृत होते रहने से भी समानता आ जाती है। 

★-इसके अतिरिक्त जब भिन्न देश अथवा जाति के लोग सभ्यता और साधनों के विकसित हो जाने पर राजनीतिक अथवा व्यावसायिक उद्देश्य के हेतु से एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो शब्दों के आदान-प्रदान द्वारा उनमें समानता आ जाती है। 

पारिवारिक वर्गीकरण के लिए प्रथम प्रकार की अनुरूपता ही आवश्यक  होती है। 

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क्योंकि ऐसे शब्द भाषा के मूल शब्द होते हैं। इनमें भी नित्यप्रति के कौटुम्बिक जीवन में प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा, सर्वनाम आदि शब्द ही अधिक उपयोगी होते हैं। 

इस आधार में सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि अन्य भाषाओं से आये हुए शब्द भाषा के विकसित होते रहने से मूल शब्दों में ऐसे घुलमिल जाते हैं कि उनको पहचान कर अलग करना कठिन हो जाता है।

इस कठिनाई का समाधान एक सीमा तक अर्थगत समानता है। क्योंकि एक परिवार की भाषाओं के अनेक शब्द अर्थ की दृष्टि से समान होते हैं और ऐसे शब्द उन्हें एक परिवार से सम्बन्धित करते हैं। इसलिए अर्थपरक समानता भी एक महत्त्वपूर्ण आधार है।

३- ध्वनिसाम्य- प्रत्येक भाषा का अपना ध्वनि-सिद्धान्त और उच्चारण-नियम होता है। यही कारण है कि वह अन्य भाषाओं की ध्वनियों से जल्दी प्रभावित नहीं होती है और जहाँ तक हो सकता है उन्हें ध्वनिनियम के अनुसार अपनी निकटस्थ ध्वनियों से बदल लेती है। जैसे फारसी की  ।क़,। ख़। फ़ आदि ध्वनियाँ हिन्दी में निकटवर्ती क, ख, फ आदि में परिवर्तित होती है।

 अतः ध्वनिसाम्य का आधार शब्दावली-समता से अधिक विश्वसनीय है। वैसे कभी-कभी एक भाषा के ध्वनिसमूह में दूसरी भाषा की ध्वनियाँ भी मिलकर विकसित हो जाती हैं और तुलनात्मक निष्कर्षों को भ्रामक बना देती हैं। 

आर्य भाषाओं में वैदिक काल से पहले मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं थी, किन्तु द्रविड़ भाषा के प्रभाव से आगे चलकर विकसित हो गयीं। परन्तु तवर्ग का रूपान्तरण ही तट वर्ग के रूप में है । जो फौनिशियन ताओ(𐤕 ) का ही रूप है । फोनिशियन लोग वैदिक सूक्तों में वर्णित पणि: लोग ही थे । ऋग्वेद मे देवों की कि किया सरमा और सैमेटिक फोनिशियनों का वर्ण पणि रूप में है ।

सरमा-पणि संवाद सूक्त-

सरमा-पणि-संवाद सूक्त ऋग्वेद के 10वें मंडल का 108 वां सूक्त है। इसके ऋषि पणि हैं और देवता सरमा, पणि हैं। छन्द त्रिष्टुप एवं स्वर धैवत है।

"इन्द्रस्य दूतीरिषिता चरामि मह इच्छन्ती पणयो निधीन्वः ।

अतिऽस्कदः । भियसा । तम् । नः । आवत् । तथा । रसायाः । अतरम् । पयांसि ॥२।

पणय:=फॉनिशी लोग-

ऋग्वेद १०/१०८/१-२

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आचार्य यास्क का कथन है कि इन्द्र द्वारा प्रेषित देवशुनी सरमा ने पणियों से दूती बनकर संवाद किया।

देखें-सायण भाष्य - अनया तान् सरमा प्रत्युवाच । हे “पणयः एतन्नामका असुराः। सरमा “इन्द्रस्य “दूतीः ।

‘ सुपां सुलुक्' इति प्रथमैकवचनस्य सुश्छान्दसः । अहम् “इषिता तेनैव प्रेषिता सती “चरामि । युष्मदीयं स्थानमागच्छामि । किमर्थम् । “वः युष्मदीयान् युष्मदीये पर्वतेऽधिष्ठापितान् “महः महतः “निधीन् बृहस्पतेर्गोनिधीन “इच्छन्ती कामयमाना सती चरामि । किंच “अतिष्कदः ॥ ‘ स्कन्दिर्गतिशोषणयोः '। भावे क्विप् । अतिष्कन्दनादतिक्रमणाज्जातेन “भियसा भयेन “तत् नदीजलं “नः । पूजायां बहुवचनम् । माम् “आवत् अरक्षत् । “तथा तेन प्रकारेण “रसायाः नद्याः “पयांसि उदकानि “अतरं तीर्णवत्यस्मि ॥

पणियों ने देवों की गाय चुरा ली थी। इन्द्र ने सरमा को गवान्वेषण ( गाय खोजने के लिए )को भेजा था। यह एक प्रसिद्ध आख्यान है। आचार्य यास्क द्वारा सरमा माध्यमिक देवताओं में पठित है।

 वे उसे शीघ्रगामिनी होने से "सरमा" मानते हैं।

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पणयः- ऋग्वेद में 16 बार प्रयुक्त बहुवचनान्त पणयः शब्द तथा चार बार एकवचनान्त पणि शब्द का प्रयोग है। पणि शब्द पण् व्यवहारे स्तुतौ च धातु से अच् प्रत्यय करके पुनः मतुबर्थ में अत इनिठनौ से इति प्रत्यय करके सिद्ध होता है।

यः पणते व्यवहरति स्तौति स पणिः अथवा कर्मवाच्य में पण्यते व्यवह्रियते सा पणिः’’। अर्थात् जिसके साथ हमारा व्यवहार होता है और जिसके बिना हमारा जीवन व्यवहार नहीं चल सकता है, उसे पणि कहते हैं ।

वह जो वाणिज्य के द्वारा अपनी जीविका का निर्वाह करता हो। रोजगार करनेवाला। वैश्य। बनिया।

ऋग्वेद -१/११२/११ पर वणिज् शब्द भी देखें यही यूनानी प्यूनिक है ।- 

वणिज शब्द भी है । ।  परस्मैपदीय धातु वण्=शब्द भी इन्हीं पहियों के द्वारा  भाषा -वाणी के अर्थ में प्रसिद्ध हुई ।ग्रीक और फ्रेंच में 'Phone' शब्द भी फौनेशियन से सम्बद्ध है ।

पद पाठ-

याभिः ।सुदानू इति सुऽदानू । औशिजाय । वणिजे । दीर्घऽश्रवसे । मधु । कोशः । अक्षरत् ।

कक्षीवन्तम् । स्तोतारम् । याभिः । आवतम् । ताभिः । ऊं इति । सु । ऊतिऽभिः । अश्विना । आ । गतम् ॥११।

सायण भाष्य- उशिक्संज्ञा दीर्घतमसः पत्नी तस्याः पुत्रो दीर्घश्रवा नाम कश्चिदृषिरनावृष्टयां जीवनार्थमकरोत् `वाणिज्यम् । स च वर्षणार्थमश्विनौ तुष्टाव । तौ च अश्विनौ मेघं प्रेरितवन्तौ। अयमर्थः पूर्वार्धे प्रतिपाद्यते । हे सुदानू शोभनदानावश्विनौ "औशिजाय उशिक्पुत्राय "वणिजे वाणिज्यं कुर्वते दीर्घश्रवसे एतत्संज्ञाय ऋषये “याभिः युष्मदीयाभिः ऊतिभिः हेतुभूताभिः "कोशः मेघः "मधु माधुर्योपेतं वृष्टिजलम् "अक्षरत् असिञ्चत् युष्मत्प्रसादादपेक्षिता वृष्टिर्जातेत्यर्थः । अपि च उशिजः पुत्रं "स्तोतारं कक्षीवन्तम् एतत्संज्ञमृर्षि "याभिः ऊतिभिः "आवतम् अरक्षतम् । “ताभिः सर्वाभिः “ऊतिभिः सहास्मानप्यागच्छतम् ॥ कक्षीवन्तम् । कक्ष्या रज्जुरश्वस्य । तया युक्तः कक्षीवान् । ‘आसन्दीवदष्ठीवच्चक्रीवत्कक्षीवत्' इति निपातनात् मतुपो वत्वम् । संप्रसारणम् ॥

इन्द्र के बार-बार सूचना देने पर भी पणियों ने इन्द्र की गायों को नहीं छोड़ा और जिससे प्रजा व्याकुल होने लगी, जब इन्द्र ने दूती सरमा भेजी। दूती को यहाँ पर देवशुनी सरमा कहा गया है। सरति गच्छति सर्वत्र इति सरमा, देवानां सुनी सूचिका दूती वा देवसूनी सरमा कही गई है। इस प्रकार देवशुनी देवों की कुत्ता है ।

४- व्याकरणगत समानता- भाषा के वर्गीकरण का व्याकरणिक आधार सबसे अधिक प्रामाणिक होता है। क्योंकि भाषा का अनुशासन करने के कारण यह जल्दी बदलता नहीं है। व्याकरण की समानता के अन्तर्गत धातु, धातु में प्रत्यय लगाकर शब्द-निर्माण, शब्दों से पदों की रचना प्रक्रिया तथा वाक्यों में पद-विन्यास के नियम आदि की समानता का निर्धारण आवश्यक है।

यह साम्य-वैषम्य भी सापेक्षिक होता है। जहाँ एक ओर भारोपीय परिवार की भाषाएँ अन्य परिवार की भाषाओं से भिन्न और आपस में समान हैं वहाँ दूसरी ओर संस्कृत, फारसी, ग्रीक आदि भारोपीय भाषाएँ एक-दूसरे से इन्हीं आधारों पर भिन्न भी हैं।

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Etymology- Origin of 'T' class characters-

'T' letter is derived From the Etruscan letter 𐌕 (t, “te”),it is too from the Ancient Greek letter Τ (T, “tau”),

 it is too derived from the Phoenician letter 𐤕‎ (t, “taw”), and it is too from the Egyptian hieroglyph 𓏴.

वस्तुत: टवर्ग शीत जलवायु के प्रभाव का ही तवर्ग का रूपान्तरण है । और तवर्ग वैदिक कालिक कवर्ग 

Stambha,''' ‘pillar,’ is found in the [[काठक|Kāṭhaka]] Saṃhitā, xxx. 9;
xxxi. 1. and often in the Sūtras. Earlier Skambha Rv. i. 34, 2;

त्रयः । पवयः । मधुऽवाहने । रथे । सोमस्य । वेनाम् । अनु । विश्वे । इत् । विदुः ।

त्रयः । स्कम्भासः । स्कभितासः । आऽरभे । त्रिः । नक्तम् । याथः । त्रिः । ऊं इति । अश्विना । दिवा ॥२।ऋ०१/३५/२   । 

"मधुवाहने मधुरद्रव्याणां नानाविधखाद्यादीनां वहनेन युक्तेऽश्विनोः संबन्धिनि “रथे "पवयः वज्रसमाना दृढाश्चक्रविशेषाः “त्रयः त्रिसंख्याकाः सन्ति । “इत् इत्थं चक्रत्रयसद्भावप्रकारं “विश्वे सर्वे देवाः “सोमस्य चन्द्रस्य "वेनां कमनीयां भार्यामभिलक्ष्य यात्रायां “विदुः जानन्ति । यदा सोमस्य वेनया सह विवाहस्तदानीं नानाविधखाद्ययुक्तं चक्रत्रयोपेतं प्रौढं रथमारुह्य अश्विनौ गच्छत इति सर्वे देवा जानन्तीत्यर्थः। तस्य रथस्योपरि (“स्कम्भासः स्तम्भविशेषाः) “त्रयः त्रिसंख्याकाः स्कभितासः स्थापिताः। किमर्थम् । “आरभे आरब्धुम् अवलम्बितुम् । यदा रथस्त्वरया याति तदानीं पतनभीतिनिवृत्त्यर्थं हस्तालम्बनभूताः स्तम्भा इत्यर्थः । हे “अश्विना युवां तादृशेन रथेन “नक्तं रात्रौ “त्रिः “याथः त्रिवारं गच्छथः। तथा “दिवा दिवसेऽपि “त्रिः याथः । रात्रावहनि च रथमारुह्य पुनःपुनः क्रीडथ इत्यर्थः ॥ मधुवाहने। मधु वाह्यतेऽनेनेति मधुवाहनः। करणे ल्युट्। विदुः । वेत्तेर्लटि ‘विदो लटो वा' इति झेः उसादेशः। स्कम्भासः। ‘ष्टभि स्कभि गतिप्रतिबन्धे'। स्कम्भन्ते प्रतिबद्धा भवन्तीति स्कम्भाः । पचाद्यच् । स्कभितासः। स्कम्भुः सौत्रो धातुः । अस्मात् निष्ठायां यस्य विभाषा' इति इट्प्रतिषेधे प्राप्ते ' ग्रसितस्कभित° ' इत्यादिना इडागमो निपातितः । आरभे । ‘रभ राभस्वे'। अस्मात् आङ्पूर्वात् संपदादिलक्षणो भावे क्विप् । कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् 

(फोनिशियन लिपि और भाषा) - (वर्णमाला की उत्पत्ति)

(चीनी में: Chinese字母表 字母表(लियू यू द्वारा अनुवादित)

भारोपीय भाषाओं की मूल वर्णमाला को मिस्र में या उसके आसपास रहने वाले एक सेमिटिक लोगों ने विकसित किया था।

 इसको पड़ोसियों और रिश्तेदारों द्वारा पूरब और उत्तर, कनानी, इब्रानियों और फोनीशियन के लिए जल्दी से अपनाया गया था।  

फोनीशियन ने निकट पूर्व और एशिया माइनर के अन्य लोगों के साथ-साथ अरबों, यूनानियों, और इट्रस्केन्स के लोगों और वर्तमान समय के स्पेन तक पश्चिम में अपनी वर्णमाला का प्रसार किया। 

बाईं ओर से  अक्षर और नाम  (  फ़ोनीशिया- मध्य-पूर्व के उर्वर अर्धचंद्र के पश्चिमी भाग में भूमध्य सागर के तट के साथ-साथ स्थित एक प्राचीन सभ्यता थी।

 समुद्री व्यापार के ज़रिये यह 1550 से 300 ईसा-पूर्व के काल में भूमध्य सागर के दूर​-दराज़ इलाक़ों में फैल ग​ई। उन्हें प्राचीन यूनानी और रोमन लोग "जमुनी-रंग के व्यापारी" कहा करते थे क्योंकि रंगरेज़ी में इस्तेमाल होने वाले म्यूरक्स घोंघे से बनाए जाने वाले जामुनी रंग केवल इन्ही से मिला करता था। इन्होने जिस वर्ण-माला को इजाद किया उसपर विश्व की सारी प्रमुख अक्षरमालाएँ आधारित हैं।

 कई भाषावैज्ञानिकों का मानना है कि देवनागरी-सहित भारत की सभी वर्णमालाएँ इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं।

फ़ोनीशिया का प्रभाव पूरे भूमध्य सागर क्षेत्र में समुद्री व्यापार के ज़रिये फैल गया ) द्वारा उपयोग किए गए हैं।

 दाईं ओर के अक्षर पहले के संस्करणों में संभव हैं। 

यदि आप अक्षरों को नहीं पहचानते हैं, तो ध्यान रखें कि वे उलट दिए गए हैं (जब से Phoenicians ने दाएं से बाएं लिखा है) और अक्सर अपने पक्ष में बदल जाते हैं!

'एलेफ (।)= यह वर्ण बैल के सिर की छवि के रूप में शुरू हुआ।  संस्कृत का अलक =माथा। ।शेष यह एक स्वर से पहले एक ग्लोटल स्टॉप का प्रतिनिधित्व करता है। यूनानी, स्वर प्रतीकों की आवश्यकता, इसे अल्फा (ए. A) के लिए इस्तेमाल किया । रोमनों ने इसे ए a के रूप में इस्तेमाल किया ।

 बेथ =, घर, एक ईख आश्रय (लेकिन जो ध्वनि एच के लिए खड़ा था) के एक अधिक आयताकार मिस्र के अल्फ़ाबेटिक ग्लिफ़ से प्राप्त हो सकता है। यूनानियों ने इसे बीटा (बी) कहा, और इसे रोमन के रूप में बी पास किया गया ।

गिमेल= , ऊंट, मूल रूप से बूमरैंग-जैसे फेंकने वाली छड़ी की छवि हो सकता है। यूनानियों ने इसे (गामा (gam) कहा। 
Etruscans - जिनके पास कोई ध्वनि नहीं थी - ने k ध्वनि के लिए इसका उपयोग किया, और इसे रोमन के लिए C के रूप में पारित किया । उन्होंने इसे G के रूप में दोहरा कर्तव्य बनाने के लिए इसमें एक छोटी पट्टी जोड़ी ।

दलेथ ,= दरवाजा, मूल रूप से एक मछली हो सकता है! यूनानियों ने इसे डेल्टा (Δ) में बदल दिया , और इसे रोमन को डी Dxके रूप में पारित कर दिया ।

वह खिड़की का मतलब हो सकता है, लेकिन मूल रूप से एक आदमी का प्रतिनिधित्व किया, हमें उठाया हथियारों के साथ सामना करना, बाहर बुलाना या प्रार्थना करना। यूनानियों ने इसका उपयोग स्वर एप्सिलॉन (ई, "सरल ई") के लिए किया था। रोमन लोगों ने इसे ई के रूप में इस्तेमाल किया ।

वाव ,™ हुक, मूल रूप से एक गदा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यूनानियों ने waw के एक संस्करण का उपयोग किया, जो कि हमारे F जैसा दिखता था, जिसे उन्होंने डिगामा कहा, संख्या 6 के लिए। इसका उपयोग Etruscans द्वारा v के लिए किया गया था, और उन्होंने इसे रोमन के रूप में F के रूप में पारित किया । यूनानियों एक दूसरा संस्करण था - upsilon (Υ) - जो वे अपने वर्णमाला के वापस करने के लिए ले जाया गया। रोमनों ने वी (B )के लिए अपसिलॉन के एक संस्करण का उपयोग किया , जिसे बाद में (यू )भी लिखा जाएगा , फिर वाई के रूप में ग्रीक रूप अपनाया । 7 वीं शताब्दी में इंग्लैंड, डब्ल्यू - "डबल-यू" - बनाया गया था।

ज़ायिन का मतलब तलवार या किसी और तरह का हथियार हो सकता है। यूनानियों ने इसका उपयोग जेटा (जेड) के लिए किया था। रोमनों ने इसे बाद में जेड के रूप में अपनाया , और इसे अपनी वर्णमाला के अंत में रखा।

H. (eth) , बाड़, एक "गहरा गला" (ग्रसनी) व्यंजन था। यूनानियों ने इसे स्वर एटा (एच) के लिए इस्तेमाल किया था, लेकिन रोमियों ने एच ऑ(H)के लिए इसका इस्तेमाल किया ।

टेथ ने मूल रूप से एक धुरी का प्रतिनिधित्व किया हो सकता है। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल थीटा (Θ) के लिए किया था, लेकिन रोमन, जिनके पास था(च) साउंड नहीं था, ने इसे गिरा दिया।

हाथ, योध , पूरे हाथ के प्रतिनिधित्व के रूप में शुरू हुआ। यूनानियों के लिए इसके बारे में एक अति सरलीकृत संस्करण इस्तेमाल किया जरा (Ι)। रोमन ने इसे I के रूप में उपयोग किया , और बाद में J के लिए एक भिन्नता जोड़ी ।

हाथ के खोखले या हथेली वाले कप को यूनानियों ने कप्पा (के k) के लिए अपनाया था और इसे रोम के लोगों को के k।

ऑम स्टिक या बकरी की तस्वीर के रूप में लैमेड शुरू हुआ। यूनानियों के लिए यह प्रयोग किया जाता लैम्ब्डा (Λ)। रोमनों ने इसे एल(L) में बदल दिया ।

मेम , पानी, ग्रीक म्यू (एम) बन गया । रोमन ने इसे एम (M) के रूप में रखा ।

नन , मछली, मूल रूप से एक साँप या ईल थी। यूनानियों के लिए यह प्रयोग किया जाता nu (एन), और के लिए रोमन एन( N)।

सेमख , जिसका अर्थ मछली भी होता है, अनिश्चित उत्पत्ति का है। यह मूल रूप से एक तम्बू खूंटी या किसी प्रकार के समर्थन का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह कई पवित्र नक्काशियों में देखे गए मिस्र के djed स्तंभ के लिए एक मजबूत समानता है। यूनानियों ने इसे xi (Ξ) के लिए इस्तेमाल किया और ची (X) के लिए इसका एक सरलीकृत रूपांतर किया । रोमन केवल एक्स(x) के रूप में भिन्नता रखते थे ।

'आयिन , आई, एक और "गहरा गला" व्यंजन था। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल ओमिक्रॉन (ओ, "लिटिल ओ") के लिए किया था। उन्होंने ओमेगा ("," बिग ओ ") के लिए इसका एक रूपांतर विकसित किया , और इसे अपनी वर्णमाला के अंत में रखा। रोमनों ने ओ (O)के लिए मूल रखा ।

पीई , मुंह, मूल रूप से एक कोने के लिए एक प्रतीक हो सकता है। यूनानियों ने इसका इस्तेमाल पीआई (ks) के लिए किया था। रोमनों ने एक तरफ को बंद कर दिया और इसे पी(p) में बदल दिया ।

Sade , s और sh के बीच की ध्वनि, अनिश्चित उत्पत्ति की है। यह मूल रूप से एक पौधे के लिए एक प्रतीक हो सकता है, लेकिन बाद में मछली के हुक जैसा दिखता है। यूनानियों ने इसका उपयोग नहीं किया, हालांकि एक विषम भिन्नता संपी (did) के रूप में दिखाई देती है, जो 900 के लिए एक प्रतीक है। Etruscans ने अपनी श ध्वनि के लिए M के आकार में इसका उपयोग किया था, लेकिन रोमन को इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी।

बंदर, Qoph , मूल रूप से एक गाँठ का प्रतिनिधित्व कर सकता है। यह कश्मीर के समान ध्वनि के लिए इस्तेमाल किया गया था, लेकिन आगे मुंह में वापस। यूनानियों ने इसका उपयोग केवल संख्या 90 (,) के लिए किया था, लेकिन Etruscans और रोमन ने इसे Q के लिए रखा ।

आरएच (पी) के लिए रेज , सिर, का उपयोग यूनानियों द्वारा किया गया था । रोमन ने इसे अपने P से अलग करने के लिए एक रेखा जोड़ी और इसे R बना दिया ।

शिन , दांत, मूल रूप से एक धनुष का प्रतिनिधित्व कर सकता है। हालाँकि, यह पहली बार sh उच्चारण किया गया था, यूनानियों ने इसे सिग्मा ( first ) के लिए उपयोग किया था । रोमन ने इसे एस बनाने के लिए गोल किया ।

Taw , चिह्न, के लिए यूनानियों द्वारा इस्तेमाल किया गया था ताऊ (टी)। रोमन ने इसका उपयोग टी के लिए किया था ।

ग्रीक अक्षर phi (Φ) पहले से ही अब तुर्की में अनातोलियों के बीच आम था। 

साई (the) प्रतीत होता है कि खुद यूनानियों द्वारा आविष्कार किया गया था, 

शायद यह पोसिडॉन के त्रिशूल पर आधारित है। तुलना के लिए, यहां पूरा ग्रीक वर्णमाला है:


★- हाल ही में, यह माना जाता था कि ये फोनिशियन यहूदियों के साथ ये लोग सिनाई रेगिस्तान में रहते थे और 1700 के ई.पू. में अपनी वर्णमाला का उपयोग करना शुरू कर दिया था।

 1998 में, पुरातत्वविद् जॉन डारनेल ने दक्षिणी मिस्र के "वैरर्स की घाटी" में रॉक नक्काशी की खोज की, जो कि 1900 ईसा पूर्व या उससे भी पहले वर्णमाला के मूल को पीछे धकेलती है। 

 विवरण बताते हैं कि वर्णमाला के  आविष्कारक मिस्र में काम करने वाले सेमिटिक लोग थे, जो बाद में अपने रिश्तेदारों को पूर्व में इस विचार को पारित कर दिया।

The Origin of the Alphabet

In Chinese: 字母表的起源 (translated by Liu Yu)

The original alphabet was developed by a Semitic people living in or near Egypt.*  They based it on the idea developed by the Egyptians, but used their own specific symbols.  It was quickly adopted by their neighbors and relatives to the east and north, the Canaanites, the Hebrews, and the Phoenicians.  The Phoenicians spread their alphabet to other people of the Near East and Asia Minor, as well as to the Arabs, the Greeks, and the Etruscans, and as far west as present day Spain.  The letters and names on the left are the ones used by the Phoenicians.  The letters on the right are possible earlier versions. If you don't recognize the letters, keep in mind that they have since been reversed (since the Phoenicians wrote from right to left) and often turned on their sides!

'aleph,अलिफ- the ox, began as the image of an ox's head.  It represents a glottal stop before a vowel.  The Greeks, needing vowel symbols, used it for alpha (A).  The Romans used it as A.

Bethबेथ-, the house, may have derived from a more rectangular Egyptian alphabetic glyph of a reed shelter (but which stood for the sound h). The Greeks called it beta (B), and it was passed on to the Romans as B.

Gimel,जिमेल- the camel, may have originally been the image of a boomerang-like throwing stick.  The Greeks called it gamma (Γ).  The Etruscans -- who had no g sound -- used it for the k sound, and passed it on to the Romans as C.  They in turn added a short bar to it to make it do double duty as G.

Daleth, दलेथ-the door, may have originally been a fish!  The Greeks turned it into delta (Δ), and passed it on to the Romans as D.

He may have meant window, but originally represented a man, facing us with raised arms, calling out or praying.  The Greeks used it for the vowel epsilon (E, "simple E").  The Romans used it as E.

Waw, the hook, may originally have represented a mace.  The Greeks used one version of waw which looked like our F, which they called digamma, for the number 6.  This was used by the Etruscans for v, and they passed it on to the Romans as F.   The Greeks had a second version -- upsilon (Υ)-- which they moved to to the back of their alphabet.  The Romans used a version of upsilon for V, which later would be written U as well, then adopted the Greek form as Y.  In 7th century England, the W -- "double-u" -- was created.

Zayin may have meant sword or some other kind of weapon.  The Greeks used it for zeta (Z). The Romans only adopted it later as Z, and put it at the end of their alphabet.

H.eth, the fence, was a "deep throat" (pharyngeal) consonant.  The Greeks used it for the vowel eta (H), but the Romans used it for H.

Teth may have originally represented a spindle.  The Greeks used it for theta (Θ), but the Romans, who did not have the th sound, dropped it.

Yodh, the hand, began as a representation of the entire arm.  The Greeks used a highly simplified version of it for iota (Ι).  The Romans used it as I, and later added a variation for J.

Kaph, the hollow or palm of the hand, was adopted by the Greeks for kappa (K) and passed it on to the Romans as K.

Lamedh began as a picture of an ox stick or goad. The Greeks used it for lambda (Λ).  The Romans turned it into L.

Mem, the water, became the Greek mu (M).  The Romans kept it as M.

Nun, the fish, was originally a snake or eel.  The Greeks used it for nu (N), and the Romans for N.

Samekh, which also meant fish, is of uncertain origin.  It may have originally represented a tent peg or some kind of support.  It bears a strong resemblance to the Egyptian djed pillar seen in many sacred carvings.  The Greeks used it for xi (Ξ) and a simplified variation of it for chi (X).  The Romans kept only the variation as X.

'ayin, the eye, was another "deep throat" consonant.  The Greeks used it for omicron (O, "little O").  They developed a variation of it for omega (Ω, "big O"), and put it at the end of their alphabet.  The Romans kept the original for O.

Pe, the mouth, may have originally been a symbol for a corner.  The Greeks used it for pi (Π).  The Romans closed up one side and turned it into P.

Sade, a sound between s and sh, is of uncertain origin.  It may have originally been a symbol for a plant, but later looks more like a fish hook.  The Greeks did not use it, although an odd variation does show up as sampi (Ϡ), a symbol for 900.  The Etruscans used it in the shape of an M for their sh sound, but the Romans had no need for it.

Qoph, the monkey, may have originally represented a knot.  It was used for a sound similar to k but further back in the mouth.  The Greeks only used it for the number 90 (Ϙ), but the Etruscans and Romans kept it for Q.

Resh, the head, was used by the Greeks for rho (P).  The Romans added a line to differentiate it from their P and made it R.

Shin, the tooth, may have originally represented a bow.  Although it was first pronounced sh, the Greeks used it sideways for sigma (Σ).  The Romans rounded it to make S.

Taw, the mark, was used by the Greeks for tau (T).  The Romans used it for T.

The Greek letter phi (Φ) was already common among the Anatolians in what is now Turkey. Psi (Ψ) appears to have been invented by the Greeks themselves, perhaps based on Poseidon's trident.  For comparison, here is the complete Greek alphabet:

★-Until recently, it was believed that these people lived in the Sinai desert and began using their alphabet in the 1700's bc.  In 1998, archeologist John Darnell discovered rock carvings in southern Egypt's "Valley of Horrors" that push back the origin of the alphabet to the 1900's bc or even earlier.  Details suggest that the inventors were Semitic people working in Egypt, who thereafter passed the idea on to their relatives further east.

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फ़ोनीशियाई वर्णमाला फ़ोनीशिया की सभ्यता द्वारा अविष्कृत वर्णमाला थी जिसमें हर वर्ण एक व्यंजन की ध्वनि  बनता था। क्योंकि फ़ोनीशियाई लोग समुद्री सौदागर थे इसलिए उन्होंने इस अक्षरमाला को दूर-दूर तक फैला दिया और उनकी देखा-देखी और सभ्यताएँ भी अपनी भाषाओँ के लिए इसमें फेर-बदल करके इसका प्रयोग करने लगीं।

 माना जाता है के आधुनिक युग की सभी मुख्य अक्षरमालाएँ इसी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की संताने हैं। देवनागरी सहित, भारत की सभी वर्णमालाएँ भी फ़ोनीशियाई वर्णमाला की वंशज हैं।[1]सन्दर्भ

[1] Richard Salomon, "Brahmi and Kharoshthi", in The World's Writing Systems

 इसका विकास क़रीब 1050 ईसा-पूर्व में आरम्भ हुआ था और प्राचीन यूनानी सभ्यता के उदय के साथ-साथ अंत हो गया।

राजा किलामुवा द्वारा जारी किया गया फ़ोनीशियाई में एक फ़रमान

एश्मुन धार्मिक स्थल पर राजा बोदशतार्त द्वारा लिखित पंक्तियाँ

तूनिशिया से मिली फ़ोनीशियाई में लिखी बाल हम्मोन और तनित नामक देवताओं की प्रार्थना

फ़ोनीशियाई वर्णमाला-

वर्णमाला-

फ़ोनीशियाई वर्णमाला के हर अक्षर का नाम फ़ोनीशियाई भाषा में किसी वस्तु के नाम पर रखा गया है। अंग्रेज़ी में वर्णमाला को "ऐल्फ़ाबॅट" बोलते हैं जो नाम फ़ोनीशियाई वर्णमाला के पहले दो अक्षरों ("अल्फ़" यानि "बैल" और "बॅत" यानि "घर") से आया है।

अक्षरनामअर्थ--ब्राह्मीदेवनागरी

बराबरी के अक्षरइब्रानी
सिरियैक

अरबी-फ़ारसीयूनानीलातिनीरूसीअल्फ़ 

अलिफ

बैलअאܐﺍ‎αaаबॅत

बेथ

घरबבܒﺏ‎Β, βB, bБ, бगम्ल–ऊँट(Camel)गגܓگ‎Γ, γG, gГ, г और Ґ, ґदॅल्त–द्वारदדܕد‎, ذ‎Δ, δD, dД, дहे–खिड़कीहהܗهـ‎Ε, εE, eЕ, е, Є, є, Э, эवाउ–काँटा / खूँटावוܘو‎Ϝ, ϝ, Υ, υF, f, U, u, V, v, Y, y, W, wѴ, ѵ, У, у, Ў, ўज़ई–हथियारज़זܙﺯ‎Ζ, ζZ, zЖ, ж, З, зख़ॅत–दीवारख़חܚخ‎, ح‎Η, ηH, hИ, и, Й, йतॅथ़–पहियाथ़טܛظ‎, ط‎Θ, θѲ, ѳयोद–हाथयיܝي‎Ι, ιI, i, J, jІ, і, Ї, ї, Ј, јकाफ़–हथेलीकכךܟﻙ‎Κ, κK, kК, кलम्द–(पशुओं का) अंकुशलלܠﻝ‎Λ, λL, lЛ, лमेम–पानीमמםܡﻡ‎Μ, μM, mМ, мनुन–सर्पनנןܢﻥ‎Ν, νN, nН, нसॅम्क–मछलीसסܣ / ܤس‎Ξ, ξ और शायद Χ, χशायद X, xѮ, ѯ और शायद Х, хअईन–आँख (iye)'अעܥع‎, غ‎Ο, ο, Ω, ωO, oО, оपे–मुँहपפףܦف‎Π, πP, pП, пत्सादे–शिकारषצץܨص‎, ض‎Ϻ, ϻC, cЦ, ц, Ч, ч, Џ, џक़ोफ़–बन्दर(कपि)क़קܩﻕ‎Ϙ, ϙ, शायद Φ, φ, Ψ, ψQ, qҀ, ҁ, शायद Ф, ф, Ѱ, ѱरोश–सिररרܪﺭ‎Ρ, ρR, rР, рशिन–दांतशשܫش‎Σ, σ, ςS, sС, с, Ш, ш, Щ, щतऊ–चिन्हतתܬ

वर्गीकरण की प्रक्रिया-

वर्गीकरण करते समय सबसे पहले भौगोलिक समीपता के आधार पर संपूर्ण भाषाएँ यूरेशिया, प्रशांतमहासागर, अफ्रीका और अमरीका खंडों अथवा चक्रों में विभक्त होती हैं। 

फिर आपसी समानता रखनेवाली भाषाओं को एक कुल या परिवार में रखकर विभिन्न परिवार बनाये जाते हैं। 

"वैदिक ,अवेस्ता, फारसी, संस्कृत, ग्रीक ,लैटिन, लिथुआनिया ,रशियन,तथा जर्मन आदि भाषाओं  की तुलना से पता चला कि उनकी शब्दावली, ध्वनिसमूह और व्याकरण रचना-पद्धति में काफी समानता है। 

अतः भारत और यूरोप के इस तरह की भाषाओं का एक भारतीय कुल बना दिया गया है।

 परिवारों को वर्गों में विभक्त किया गया है। 

भारोपीय भाषा- परिवार में (शतम् )और( केन्टुम) ऐसे ही  सजातीय वर्ग हैं। 

वर्गों का विभाजन शाखाओं में हुआ है।जैसे शतम् वर्ग की ‘ईरानी’ और ‘भारतीय आर्य’ भाषाओं की प्रमुख शाखाएँ हैं। 

शाखाओं को उपशाखा में भी बाँटा गया है। भाषा वैज्ञानिक "गिरयर्सन" ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को आन्तरिक (भीतरी) और बाह्य (बाहरी )उपशाखा में विभक्त किया है। 

अतः ये उपशाखाऐं भाषा-समुदायों और समुदाय भाषाओं में बँटते हैं। 

इस तरह भाषा पारिवारिक-वर्गीकरण की इकाई है। इस समय भारोपीय परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना हो चुका है कि यह पूर्ण प्रक्रिया उस पर लागू हो जाती है। 

इन नामों में थोड़ी हेर-फेर हो सकता है, किन्तु इस प्रक्रिया की अवस्थाओं में प्रायः कोई अन्तर नहीं होता।

वर्गीकरण-

उन्नीसवीं शती में ही विद्वानों का ध्यान संसार की भाषाओं के वर्गीकरण की और आकर्षित हुआ और आज तक समय-समय पर अनेक विद्वानों ने अपने अलग-अलग वर्गीकरण प्रस्तुत किये हैं; किन्तु अभी तक कोई वैज्ञानिक और प्रामाणिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं हो सका है। 

इस समस्या को लेकर भाषाविदों में बड़ा मतभेद है। यही कारण है कि जहाँ एक ओर "फेडरिख मूलर " इन परिवारों की संख्या 100 तक मानते हैं वहाँ दूसरी ओर "राइस महोदय विश्व की समस्त भाषाओं को केवल एक ही परिवार में रखते हैं।

किन्तु अधिकांश विद्वान् इनकी संख्या बारह या तेरह मानते हैं।

मुख्य भाषा-परिवार-

दुनिया भर में बोली जाने वाली क़रीब सात हज़ार भाषाओं को कम से कम दस परिवारों में विभाजित किया जाता है जिनमें से प्रमुख परिवारों का वर्णन नीचे है :

विश्व के प्रमुख भाषा-परिवार

भारत-यूरोपीय भाषा-परिवार (भारोपीय भाषा परिवार)

(Indo-European Languages family)

 हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार-

यह समूह भाषाओं का सबसे बड़ा परिवार है और सबसे महत्वपूर्ण भी है क्योंकि 

वैदिक-ग्रीक-लैटिन- संस्कृतअंग्रेज़ी,रूसीप्राचीन फारसीहिन्दीपंजाबीजर्मननेपाली - ये अनेक भाषाएँ इसी समूह से संबंध रखती हैं। इसे 'भारोपीय भाषा-परिवार' भी कहते हैं। विश्व जनसंख्या के लगभग आधे लोग (४५%) भारोपीय भाषा बोलते हैं।

"संस्कृत,  ग्रीक और लैटिन  जैसी शास्त्रीय भाषाओं का संबंध भी इसी समूह से है।  

लेकिन अरबी एक बिल्कुल विभिन्न परिवार से संबंध रखती है। जो सेमेटिक है  इस परिवार की प्राचीन भाषाएँ बहिर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक (end-inflecting) थीं। 

भारोपीय इसी समूह को पहले आर्य-परिवार भी कहा जाता था। परन्तु आर्य्य शब्द सैमेटिक भाषाओं में एल अथवा  अलि के पूूूूूर्व रूप वैदिक अरि  से विकसित है।

 चीनी-तिब्बती भाषा-परिवार-

(The Sino - Tibetan  Languages Family)

विश्व में जनसंख्या के अनुसार सबसे बड़ी भाषा मन्दारिन (उत्तरी चीनी भाषा) इसी परिवार से संबंध रखती है।  चीन और तिब्बत में बोली जाने वाली कई भाषाओं के अलावा बर्मी भाषा भी इसी परिवार की है। इनकी स्वरलहरीयाँ एक ही अनुनासिक्य है। 

एक ही शब्द अगर ऊँचे या नीचे स्वर में बोला जाय तो शब्द का अर्थ बदल जाता है।

इस भाषा परिवार को'नाग भाषा परिवार'या ड्रैगन नाम दिया गया है।और इसे'एकाक्षर परिवार'भी कहते हैं।कारण कि इसके मूल शब्द प्राय: एकाक्षर भी होते हैं।ये भाषाएँ कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, नेपाल,सिक्किम, पश्चिम बंगाल, भूटान, अरूणाचल प्रदेश, आसाम, नागालैंड, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा और मिजोरम में बोली जाती हैं।

सामी-हामी भाषा-परिवार या अफ़्रीकी-एशियाई भाषा-परिवार-

(The Afro - Asiatic family or Semito-Hamitic family)

इसकी प्रमुख भाषाओं में आरामीअसूरीसुमेरीअक्कादी और कनानी वग़ैरह शामिल थीं लेकिन आजकल इस समूह की प्रसिद्धतम् भाषाएँ अरबी और इब्रानी ही हैं। 

मध्य अफ्रीका में रहने वाले अगर लोग सैमेटिक और भारतीय अजरबैजान की आभीर  तथा अवर जन जा य इ से भी सम्बद्ध थे । अफ्रीका नामकरण अगर शब्द से हुआ

 इनकी भाषाओं में मुख्यतः तीन धातु-अक्षर होते हैं और बीच में स्वर घुसाकर इनसे क्रिया और संज्ञाएँ बनायी जाती हैं (अन्तर्मुखी श्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ)।

इन भाषाओं तथा लिपियों के जनक फौनिशियन लोग थे।

द्रविड़ भाषा-परिवार-

(The Dravidian languages Family)

भाषाओं का द्रविड़ी परिवार इस लिहाज़ से बड़ा दिलचस्प है कि हालाँकि ये भाषाएँ भारत के दक्षिणी प्रदेशों में बोली जाती हैं लेकिन उनका उत्तरी क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषाओं से कोई संबंध नहीं है (संस्कृत से ऋण उधार शब्द लेने के अलावा)।

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परन्तु सत्य पूछा जाय तो ये द्रविड प्राचीन फ्रांस के द्रयूड (Druid) ही थे और इनकी भाषाओं में बहुत से पारिवारिक शब्द आज भी मिलते है । इस पर शोध अपेक्षित है । magan=son शब्द द्रविड ( तमिल ) और ड्रूयड(Druid) केल्टिक में समान है ।

भारत में यह भाषा परिवार नर्मदा और गोदावरी नदियों से कन्याकुमारी अन्तरीप तक फैला है ।इसके अतिरिक्त श्रीलंका बलोचिस्तान विहार प्रदेश में भी इन भाषाओं को बोलने वाले मिल जाते हैं । यह परिवार तमिल भी कहलाता है वाक्य तथा स्वर के कारण यह परिवार यूराल-अल्टाई परिवार के निकट पहुँच जाता है । इस परिवार की भाषाएँ तुर्की आदि की भाँतिअश्लिष्ट अन्त:योगात्मक हैं-२मूल शब्द या धातु में  प्रत्यय जुड़ते हैं ।३-प्रत्यय की स्पष्ट सत्ता रहती है ।४-प्रत्ययों के कारण प्रकृति में कोई विकार नहीं होता।५-निर्जीवशब्द नपुँसक लिंग को माने जाते हैं । वचन दो ही होते हैं । इन भाषाओं में कर्म वाच्य नहीं होता है । मूर्धन्य ध्वनियों की प्रधानता है । गणना दश पर आधारित है । इस परिवार में मुख्य चौदह भाषाएँ समायोजित हैं जिनका चार विभागों में विभाजन है १-द्रविडपरिवार२-आन्ध्रपरिवार३-मध्यवर्तीवर्ग४-ब्राहुईवर्ग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ-कन्नड़-तमिल-तुलु-कोडगु-टुडा-मलयालम-तेलुगु-गोंड-कोंड-कुई-कोलामी-कुरुख-माल्टो-।

 का अभाव होता है । तमिऴ द्राविड़ भाषा परिवार की प्राचीनतम भाषा मानी जाती है। इसकी उत्पत्ति के सम्बंध में अभी तक यह निर्णय नहीं हो सका है कि किस समय इस भाषा का प्रारम्भ हुआ। 

विश्व के विद्वानों ने संस्कृतग्रीकलैटिन आदि भाषाओं के समान तमिऴ को भी अति प्राचीन तथा सम्पन्न भाषा माना है। अन्य भाषाओं की अपेक्षा तमिऴ भाषा की विशेषता यह है कि यह अति प्राचीन भाषा होकर भी लगभग २५०० वर्षों से अविरत रूप से आज तक जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवहृत है। 

तमिऴ भाषा में उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर यह निर्विवाद निर्णय हो चुका है कि तमिऴ भाषा ईसा से कई सौ वर्ष पहले ही सुसंस्कृत और सुव्यवस्थित हो गई थी।

मुख्य रूप से यह भारत के दक्षिणी राज्य तमिऴ नाडुश्री लंका के तमिल बहुल उत्तरी भागों, सिंगापुर और मलेशिया के भारतीय मूल के तमिऴों द्वारा बोली जाती है। भारत, श्रीलंका और सिंगापुर में इसकी स्थिति एक आधिकारिक भाषा के रूप में है। इसके अतिरिक्त यह मलेशिया, मॉरिशसवियतनामरियूनियन इत्यादि में भी पर्याप्त संख्या में बोली जाती है। लगभग ७ करोड़ लोग तमिऴ भाषा का प्रयोग मातृ-भाषा के रूप में करते हैं। यह भारत के तमिऴ नाड़ु राज्य की प्रशासनिक भाषा है और यह पहली ऐसी भाषा है जिसे २००४ में भारत सरकार द्वारा शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया।

तमिऴ द्रविड़ भाषा परिवार और भारत की सबसे प्राचीन भाषाओं में गिनी जाती है। 

इस भाषा का इतिहास कम से कम ३००० वर्ष पुराना माना जाता है। प्राचीन तमिऴ से लेकर आधुनिक तमिऴ में उत्कृष्ट साहित्य की रचना हुयी है। तमिऴ साहित्य कम से कम पिछ्ले दो हज़ार वर्षों से अस्तित्व में है। जो सबसे आरंभिक शिलालेख पाए गए है वे तीसरी शताब्दी ईसापूर्व के आसपास के हैं। तमिऴ साहित्य का आरंभिक काल, संघम साहित्य, ३०० ई॰पू॰ – ३०० ईस्वीं का है।

इस भाषा के नाम को "तमिल" या "तामिल" के रूप में हिन्दी भाषा-भाषी उच्चारण करते हैं। तमिऴ भाषा के साहित्य तथा निघण्टु में तमिऴ शब्द का प्रयोग 'मधुर' अर्थ में हुआ है। कुछ विद्वानों ने संस्कृत भाषा के द्राविड़ शब्द से तमिऴ शब्द की उत्पत्ति मानकर द्राविड़ > द्रविड़ > द्रमिड > द्रमिल > तमिऴ आदि रूप दिखाकर तमिऴ की उत्पत्ति सिद्ध की है, किन्तु तमिऴ के अधिकांश विद्वान इस विचार से सर्वथा असहमत हैं।

गठन-

तमिऴ, हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के विपरीत लिंग-विभेद प्रमुख नहीं होता है।

देवनागरी वर्णमाला के कई अक्षरों के लिये तमिल में एक ही वर्ण का प्रयोग होता है, यथा –

देवनागरी-तमिलक, ख, ग, घ-கच, छ, ज, झ-சट, ठ, ड, ढ-டत, थ, द, ध-தप, फ, ब, भ-ப

तमिऴ भाषा में कुछ और वर्ण होते हैं जिनका प्रयोग सामान्य हिंदी में नहीं होता है। 

उदाहरणार्थ: ள-ळ, ழ-ऴ, ற-ऱ, ன-ऩ।

लेखन प्रणाली-

तमिऴ भाषा वट्ट एऴुत्तु लिपि में लिखी जाती है। अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में इसमें स्पष्टतः कम अक्षर हैं। 

देवनागरी लिपि की तुलना में (यह तुलना अधिकांश भारतीय भाषाओं पर लागू होती है) इसमें हृस्व ए (ऎ) तथा हृस्व ओ (ऒ) भी हैं।

प्रत्येक वर्ग (कवर्ग, चवर्ग आदि) का केवल पहला और अंतिम अक्षर उपस्थित है,।

बीच के अक्षर नहीं हैं  जबकि(अन्य द्रविड भाषाओं तेलुगु, कन्नड, मलयालम में ये अक्षर उपस्थित हैं)। 

"र" और "ल" के अधिक तीव्र रूप भी हैं। वहीं न का कोमलतर रूप भी है।

 श, ष एक ही अक्षर द्वारा निरूपित हैं। तमिऴ भाषा की एक विशिष्ट (प्रतिनिधि) 

ध्वनि ழ (देवनागरी समकक्ष – ऴ, नया जोडा गया) है, जो स्वयं तमिऴ शब्द में प्रयुक्त है (தமிழ் ध्वनिशः – तमिऴ्)।

तमिऴ में वर्गों के बीच के अक्षरों की ध्वनियाँ भी प्रथम अक्षर से निरूपित की जाती हैं, परंतु यह प्रतिचित्रण (mapping) कुछ नियमों के अधीन है।

तमिऴ-हिन्दी-

संख्याएँ-

ऒऩ्ऱु = एकइरंडू = दोमूऩ्ऱु = तीननाऩ्गु = चारऐन्दु = पाँचआऱु = छेएऴु = सात(ऎट्टु = आठ)ऒऩ्पदु = नौपत्तु = दस

तमिऴ स्वर-

तमिऴ स्वरदेवनागरीप के साथ प्रयोगஅப (प)ஆபா (पा)இபி (पि)ஈபீ (पी)உபு (पु)ஊபூ (पू)எ (हृस्व)பெ (पॆ)ஏ (दीर्ध)பே (पे)ஐபை (पै/पई)ஒ (हृस्व)பொ (पॊ)ஓ (दीर्ध)போ (पो)ஔபௌ (पौ/पऊ)

विसर्ग: அஃ (अः)

व्यंजन-तमिऴ व्यंजनदेवनागरी में लिप्यंतरणக்क्ங்ङ्ச்च्ஞ்ञ्ட்ट्ண்ण्த்त्ந்न्ப்प्ம்म्ய்य्ர்र्ல்ल्வ்व्ழ்ऴ्ள்ळ्ற்ऱ्ன்ऩ्

मात्राएँ -क+मात्रातुल्य देवनागरीககாकाகிकिகீकीகுकुகூकूகெकॆ (हृस्व उचारण)கேके (दीर्घ उच्चारण)கைकैகொकॊ (हृस्व उचारण)கோको (दीर्घ उच्चारण)கௌकौ

ग्रन्थ लिपि के लिए-व्यंजनतुल्य देवनागरीஜ்ज्ஶ்श्ஷ்ष्ஸ்स्ஹ்ह्க்ஷ்क्ष्ஸ்ரீश्री

तमिऴ अंक एवं संख्याएँ-देवनागरी०१२३४५६७८९१०१००१००तमिऴ௦௧௨௩௪௫௬௭௮௯௰௱௲

तमिऴ लिपि का इतिहासस्वर
हृस्वदीर्घअन्य (अ) (आ) (इ) (ई) (उ) (ऊ) (ऎ) (ए)तमिऴ में एक हृस्व 'ए' स्वर है (ऐ) (ऒ) (ओ)तमिऴ में एक हृस्व 'ओ' स्वर है (औ)அஃ (अः)- (अं)तमिऴ में यह अक्षर नहीं हैव्यंजनटिप्पणियाँ (क)- (ख)- (ग)- (घ) (ङ)'ख', 'ग' और 'घ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता (च)- (छ)- (ज)- (झ) (ञ)'छ', 'ज' और 'झ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता (ट)- (ठ)- (ड)- (ढ) (ण)'ठ', 'ड' और 'ढ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता (त)- (थ)- (द)- (ध) (न)'त', 'द' और 'ध' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता (प)- (फ)- (ब)- (भ) (म)'फ', 'ब' और 'भ' इन ध्वनियों के लिए तमिऴ में अलग से कोई लिपिचिह्न उपयोग नहीं किया जाता (य) (र) (ल) (व) (ऴ) (ळ)हिंदी में इन ध्वनियों का उपयोग नहीं होता. (ऱ) (ऩ)हिंदी में इन ध्वनियों का उपयोग नहीं होता.- (श)- (ष)- (स)- (ह)तमिऴ में इन ध्वनियों का उपयोग ग्रंथ लिपि के कुछ अक्षरों द्वारा लिखा जाता है.

निम्नलिखित अक्षर ग्रंथ लिपि से उधार और संस्कृत मूल के शब्दों के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है:

 (ज)


 (श)


 (ष)


 (स)


 (ह)


க்ஷ (क्ष)


ஸ்ரீ (श्री)

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इसलिए  मित्रों ! उर्दू या हिंदी का अंग्रेज़ी या जर्मन भाषा से तो कोई रिश्ता निकल सकता है लेकिन मलयालम भाषा से नहीं।  प्राचीन फ्राँस की गॉल भाषाओंं से है परन्तु  जर्मनी भाषाओं से साम्य नहीं है । जैसे केल्टिक  जर्मन से भिन्न है । केल्टिक जनजातियां कालान्तर में लैटिन वर्ग की भाषा फ्राँसी बोलने लगीं -

दक्षिणी भारत और श्रीलंका में द्रविड़ी समूह की कोई 26 भाषाएँ बोली जाती हैं लेकिन उनमें ज़्यादा मशहूर तमिलतेलुगुमलयालम और कन्नड़ हैं। ये अन्त-अश्लिष्ट-योगात्मक भाषाएँ हैं।

"यूराल-अलटाई परिवार  "

यूराल-अतलाई कुल - यह परिवार यूराल और अल्टाई पर्वतों के निकट है ।

प्रमुख भाषाओं के आधार पर इसके अन्य नाम – ‘तूरानी’, ‘सीदियन’, ‘फोनी-तातारिक’ और ‘तुर्क-मंगोल-मंचू’ कुल आदि  भी हैं।  फिनो-तातारिक स्कीथियन और तू रानी  नाम भी हुए परन्तु तुर्की से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है । भारोपीय परिवार के वाद ये दूसरे नम्बर पर है ये भाषाएँ तुर्की , हंगरी और फिनलेण्डसे लेकर औरबोत्सक सागर तक और भूमध्य सागर से उत्तरी सागर तक फैली हुईं है । यह भाषा  परिवार भाषा कि पारस्परिक समानता के कारण दो वर्गों में विभाजित है ।

एक यूराल परिवार  और दूसरा अल्टाई परिवार-

यूराल नामक उपपरिवार में फिनी-उग्री- समोयेदी तथा अल्टाई परिवार में तुर्की, मंगोली और तुगूजी नामक भाषा समूहों की गणना की जाती है । इन दोनों ही उपपरिवारों में धातु-ध्वनि और शब्द-समूहों की दृष्टि से अल्प भेद होने पर भी पर्याप्त साम्य मिलता है ।

१-इस परिवार की भाषाएँ पर-प्रत्यय प्रधान अश्लिष्ट अन्त योगात्मक हैं २-दौनों परिवारों की भाषा में स्वर अनुरूपता मिलती है३-शब्दों में सम्बन्ध वाचक प्रत्यय संयुक्त किया जाता है ।-४-इस परिवार समस्त धातुओं अव्यय के समान हैं । इस परिवार में फिनिश भाषा प्राचीनतम साहित्य सम्पन्न है । तुर्की की लिपि अब अरबी के स्थान पर रोमन है ।

 इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है, किन्तु मुख्यतः साइबेरिया, मंचूरिया और मंगोलिया में हैं। प्रमुख भाषाएँ–तुर्की या तातारी, किरगिज, मंगोली और मंचू है,।

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जिनमे सर्व प्रमुख तुर्की है। साहित्यिक भाषा उस्मानी है। तुर्की पर अरबी और फारसी का बहुत अधिक प्रभाव था किन्तु आजकल इसका शब्दसमूह बहुत कुछ अपना है। 

ध्वनि और शब्दावली की दृष्टि से इस कुल की यूराल और अल्ताई भाषाएँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। इसलिए कुछ विद्वान् इन्हें दो पृथक् कुलों में रखने के पक्ष में भी हैं, किन्तु व्याकरणिक साम्य पर निस्सन्देह वे एक ही कुल की भाषाएँ ठहरती हैं। 

प्रत्ययों के योग से शब्द-निर्माण का नियम, धातुओं की अपरिवर्तनीयता, धातु और प्रत्ययों की स्वरानुरूपता आदि एक कुल की भाषाओं की मुख्य विशेषताऐं होती हैं।

 स्वरानुरूपता से अभिप्राय यह है कि(मक प्रत्यय) यज्धातु में लगने पर यज्मक् किन्तु साधारणतया विशाल आकार और अधिक शक्ति की वस्तुओं के बोधक शब्द पुंल्लिंग तथा दुर्बल एंव लघु आकार की वस्तुओं के सूचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।

 (लिखना) में यज् के अनुरूप रहेगा, किन्तु सेव् में लगने पर, सेवमेक (तुर्की), (प्यार करना) में सेव् के अनुरूप मेक हो जायगा। ।

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भारत और यूरोप के भाषा-परिवार- 

यह यूरेशिया (यूरोप-एशिया)का ही नहीं अपितु विश्व का महत्वपूर्ण ' साहित्यव लिपि सम्पन्न प्राचीनतम परिवार है । इस परिवार की भाषाएँ - भारत-ईरान-आर्मीनिया तथा सम्पूर्ण यूरोप अमेरिका-दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका आधुनिक ऑस्ट्रेलिया आदि में बोली जाती हैं  इसके भाषा-भाषी सर्वाधिक हैं । प्रारम्भिक काल में भारतीय संस्कृत और जर्मन भाषाओं की शाब्दिक और व्याकरण या समानता के कारण इण्डो-जर्मनिक रखा गया  परन्तु इस परिवार में केल्टिक परि परिवार की भाषाएँ भी थी जो  जो जर्मनी वर्ग की भाषाओं से सम्बन्धित नहीं हैं ‌। फिर इण्डो-जर्मनिक उचित इन होने से फिर इसका नाम इण्डो-कैल्टिक रखा गया  । भारोपीय भाषा परिवार के  अनेक नाम रखे गये जैसे नूह के पुत्र जैफ( याफ्त-अथवा याफ्स) के नाम पर जैफाइट - काकेशस पर्वत के आधार पर काकेशियन, आर्य, और अन्त: में इण्डो-यूरोपियन नाम प्रसिद्ध रहा ।

भारोपीय परिवार की भाषाओं को ‘सप्तम्’ और ‘केंतुम्’ दो वर्गों में रक्खा गया है।  इसके अतिरिक्त इसी के उप परिवार हैं भारोपीय की अन्य शाखाएँ भी हैं

१-कैल्टिक शाखा- २-जर्मन शाखा- ३-इटालिक (लैटिन) शाखा ४-ग्रीक शाखा ५-तोखारी( तुषार जनजाति से सम्बन्धित) ६-अल्बेनियन. ७-लैटो-स्लाविक शाखा८-आर्मेनियन शाखा ९-इण्डो-ईरानी शाखा ।

★-केण्टुम् वर्ग और शतम् वर्ग-★

केंतुम् वर्ग–Centum-

1. केल्टिक - आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इस शाखा के बोलने वाले मध्य यूरोप, उत्तरी इटली, फ्रांस अब आयरलैण्ड, वेल्स, स्काटलैंड, मानद्वीप और ब्रिटेनी तथा कार्नवाल के ही कुछ भागों में इसका क्षेत्र शेष रह गया है

2. जर्मनिक - यूरोप की दो प्रमुख भाषाएँ अंग्रेज़ी और जर्मनी इसी वर्ग की भाषाएँ हैं। इस शाखा की उत्तरी उपशाखा में स्वीडन, डेनमार्क और नार्वे की भाषाएँ (स्वीडिश, डेनिश और नार्वीजियन) आती हैं। अंग्रेज़ी पश्चिमी उपशाखा की ही भाषा थी, जिसका व्यवहार आंग्ल और सैक्सन नामक जातियाँ करती थीं। इन्होंने इंग्लैंड पर आक्रमण कर उसपर आधिपत्य किया। इसी कारण पुरानी अंग्रेज़ी को एंग्लो-सैक्सन भी कहा जाता था। डच, जर्मन इस शाखा की अन्य प्रमुख भाषाएँ हैं। पूर्वी उपशाखा में पुरानी भाषा गाथिक का नाम उल्लेखनीय है, जिसमें पाँचवीं शताब्दी के लेख मिलते हैं। यह उपशाखा लुप्तप्राय हैं।

3. लैटिन - इसका नाम इटाली भी है। इसको सबसे पुरानी भाषा लैटिन है, जो आज रोमन कैथलिक सम्प्रदाय की धार्मिक भाषा है। आरम्भ में लैटिन शाखा का प्रधान क्षेत्र इटली में था। 

4. ग्रीक - इस शाखा में कुछ भौगोलिक कारणों से बहुत पहले से छोटे-छोटे राज्य और उनकी बहुत-सी बोलियाँ हो गई हैं। इसके प्राचीन उदाहरण महाकवि होमर के इलियड और ओडिसी महाकाव्यों में मिलते हैं। इनका समय एक हज़ार ई. पू. माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है। ग्रीक भाषा बहुत-सी बातें में वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। 

जब ग्रीस उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।

4. ग्रीक - इस शाखा में कुछ भौगोलिक कारणों से बहुत पहले से छोटे-छोटे राज्य और उनकी बहुत-सी बोलियाँ हो गई हैं। इसके प्राचीन उदाहरण महाकवि होमर के 'इलियड' और 'ओडिसी' महाकाव्यों में मिलते हैं। इनका समय एक हज़ार ई. पू. माना जाता है। ये दोनों महाकाव्य अधिक दिन तक मौखिक रूप में रहने के कारण अपने मूल रूप में आज नहीं मिलते, फिर भी उनसे ग्रीक के पुराने रूप का कुछ पता तो चल ही जाता है। ग्रीक भाषा बहुत-सी बातें में वैदिक संस्कृत से मिलती-जुलती है। 

जब ग्रीक उन्नति पर था होमरिक ग्रीक का विकसित रूप ही साहित्य में प्रयुक्त हुआ। उसकी बोलियाँ भी उसी समय अलग-अलग हो गई।

एट्टिक बोली का लगभग चार सौ ई. पू. में बोलबाला था, अत: यही भाषा यहाँ की राज्य भाषा हुई। आगे चलकर इसका नाम ‘कोइने’ हुआ और यह शुद्ध एट्टिक से धीरे-धीरे कुछ दूर पड़ गई और एशिया माइनर तक इसका प्रचार हुआ। उधर मिस्र आदि में भी यह जा पहुंची और स्वभावत: सभी जगह की स्थानीय विशेषताएँ इसमें विकसित होने लगीं।

सतम् वर्ग-Satam-

शतम् वर्ग-★

भारोपीय परिवार की सतम् वर्ग की शाखाओं को इस प्रकार दिखाया जा सकता है-

1. इलीरियन - इस शाखा को ‘अल्बेनियन’ या ‘अल्बेनी’ भी कहते हैं। अल्बेनियन के बोलने वाले अल्बेनिया तथा कुछ ग्रीस में हैं। इसके अन्तर्गत बहुत सी बोलियाँ हैं, जिनके घेघ और टोस्क दो वर्ग बनाये जा सकते हैं। घेघ का क्षेत्र उत्तर में और टोस्क का दक्षिण में है। अल्बेनियन साहित्य लगभग 17वीं सदी से आरम्भ होता है। इसमें कुछ लेख 5वीं सदी में भी मिलते हैं। इधर इसने तुर्की, स्लावोनिक, लैटिन और ग्रीक आदि भाषाओं से बहुत शब्द लिए हैं। अब यह ठीक से पता चलाना असंभव-सा है कि इसके अपने पद कितने हैं। इसका कारण यह है कि ध्वनि-परिवर्तन के कारण बहुत घाल-मेल हो गया है। बहुत दिनों तक विद्वान् इसे इस परिवार की स्वतंत्र शाखा मानने को तैयार नहीं थे किन्तु जब यह किसी से भी पूर्णत: न मिल सकी तो इसे अलग मानना ही पड़ा

2. बाल्टिक - इसे लैट्टिक भी कहते हैं। इसमें तीन भाषाएँ आती हैं।  इसका क्षेत्र उत्तर-पूरब में है। यह रूस के पश्चिमी भाग में लेटिवियाव राज्य की भाषा है। 

3.आर्मेनियन या आर्मीनी - इसे कुछ लोग आर्य परिवार की ईरानी भाषा के अन्तर्गत रखना चाहते हैं। इसका प्रधान कारण यह है कि इसका शब्द-समूह ईरानी शब्दों से भरा है। पर, ये शब्द केवल उधार लिये हुए हैं।  

5 वीं सदी में ईरान के युवराज आर्मेनिया के राजा थे, अत: ईरानी शब्द इस भाषा में अधिक आ गये। तुर्की और अरबी शब्द भी इसमें काफ़ी हैं। इस प्रकार आर्य और आर्येतर भाषाओं के प्रभाव इस पर पड़े हैं। इसके व्यंजन आदि संस्कृत से मिलते हैं। जैसे फ़ारसी ‘दह’ और संस्कृत ‘दशन्’ के भाँति 10 के लिए इसमें ‘तस्न’ शब्द है। दूसरी ओर हस्व स्वर ए और ओॉ आदि इसमें अत: इसे आर्य और ग्रीक के बीच में कहा जाता है।

आर्मेनियन के प्रधान दो रूप हैं। एक का प्रयोग एशिया में होता है और दूसरे का यूरोप में। इसका क्षेत्र कुस्तुनतुनिया तथा कृष्ण सागर के पास है। एशिया वाली बोली का नाम अराराट है और यूरोप में बोली जाने वाली का स्तंबुल।

हिन्दी ईरानी या भारत ईरानी -

भारत-ईरानी शाखा भारोपीय परिवार की एक शाखा है। इस शाखा में भारत की आर्य भाषाएँ हैं, दूसरी तरफ ईरान क्षेत्र की भाषाएँ हैं जिनमें फ़ारसी प्रमुख है। इन दोनों को एक वर्ग में रखने का भाषा वैज्ञानिक आधार यही है कि दोनों भाषाओं में काफ़ी निकटता है। क्या दोनों उपशाखाओं की भाषाएँ बोलने वाले कभी एक थे और बाद में उनकी भाषाओं में अधिक अंतर आने लगा? ईरान के निवासी भी आर्य थे। ईरान शब्द ही ‘आर्यों का’ (आर्याणम्) का बदला हुआ रूप लगता है। प्राचीन ईरानी भाषा ‘अवेस्ता’ में आर्य का रूप ‘ऐर्य’ था। यह संबंध काल्पनिक नहीं है, प्राचीन युग में भारत और ईरान में धर्म का स्वरूप तो विपरीत ही था। परन्तु भाषाई रूप एक था, दोनों की भाषाओं (अवेस्ता और संस्कृत) में बहुत समानता थी। क्या ये लोग किसी तीसरी जगह से आकर इन दोनों क्षेत्रों में अलग-अलग बस गये थे? इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि भारत और ईरान के आर्य एक ही मूल के नहीं थे। भारत-ईरानी शाखा की तीन उपशाखाएँ मानी जाती थी। 

भारतीय आर्य भाषाएँ 


भारत' ईरानी' दरद


ईरानी


भारोपीय परिवार का महत्व-

विश्व के भाषा परिवारों में भारोपीय का सर्वाधिक महत्व हैं। यह विषय, निश्चय ही सन्देह एवं विवाद से परे हैं। इसके महत्व के अनेक कारणों में से सर्वप्रथम, तीन प्रमुख कारण यहाँ उल्लेख है-

विश्व में इस परिवार के भाषा-भाषियों की संख्या सर्वाधिक है।


विश्व में इस परिवार का भौगोलिक विस्तार भी सर्वाधिक है।


विश्व में सभ्यता, संस्कृति, साहित्य तथा सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक विकास की दृष्टि से भी इस परिवार की प्रगति सर्वाधिक हुई है।


‘तुलनात्मक भषाविज्ञान’ की नींव का आधार भारोपीय परिवार ही है।


भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिये यह परिवार प्रवेश-द्वार है।


विश्व में किसी भी परिवार की भाषाओं का अध्ययन इतना नहीं हुआ है, जितना कि इस परिवार की भाषाओं का हुआ है।


भाषाओं के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए इस परिवार में सभी सुविधाएँ हैं। जैसे- (क) व्यापकता, (ख) स्पष्टता, तथा (ग) निश्चयात्मकता। 


प्रारम्भ से ही इस परिवार की भाषाओं का भाषा की दृष्टि से, विवेचन होता रहा है, जिससे उनका विकासक्रम स्पष्ट होता है।


संस्कृत, ग्रीक, लैटिन आदि इस परिवार की भाषाओं का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है, जो प्राचीन काल से आज तक इन भाषाओं के विकास का ऐतिहासिक साक्ष्य प्रस्तुत करता है और जिसके कारण इस परिवार के अध्ययन में निश्चयात्मकता रहती है।


अपने राजनीतिक प्रभाव की दृष्टि से भी यह परिवार महत्वपूर्ण है। कारण, प्राचीनकाल में भारत ने तथा आधुनिक काल में यूरोप ने विश्व के अन्य अनेक भू-भागों पर आधिपत्य प्राप्त करके अपनी भाषाओं का प्रचार तथा विकास किया है। 


इस प्रकार उपर्युक्त तथा अन्य अनेक कारणों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि विश्व के भाषा-परिवारों में ‘भारोपीय परिवार’ का महत्व निस्सन्देह सर्वाधिक है।

परिभाषा-इस भाषा परिवार की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं । १- भारोपीय भाषाएँ क्लिष्ट योगात्मक बहिर्मुखी विभक्ति प्रधान होती हैं परन्तु आज ये भाषाएँ अयोगात्मकता की ओर उन्मुख हो रही हैं धातुएँ डेढ़ अक्षर (१+१/२) की होती हैं जैसे -गम् ' go (v.)

Old English gan "to advance, walk; depart, go away; happen, take place; conquer; observe, practice, exercise," 

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from West Germanic *gaian (source also of Old Saxon, 

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Old Frisian gan, 

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Middle Dutch gaen,

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 Dutch gaan,

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Old High German gan, German gehen),

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 from PIE (proto iindo- europion (मूलभारोपीय)- root *ghē- "to release, let go; be released"

 (source also of  गम्यते " by goen,"

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Greek kikhano "I reach, meet with"), but there does not seem to be general agreement on a list of cognates . 

 

संस्कृत में अन्य धातु णमँ(नम्)=प्रह्वत्वे शब्द च' अर्थात नमन करना और शब्द करना 

It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by:

1-Sanskrit -nama; 

2-Avestan- nama; 

3-Greek -onomaonyma

4-Latin -nomen; 

5-Old Church Slavonic -ime, genitive imene; 

6-Russian -imya; 

7-Old Irish -ainm; 

8-Old Welsh -anu "name;" 

9-Old English -nama, noma, 

10-Old High German -namo,

11-Old Norse- nafn, 

12-Gothic- namo "name."

भारोपीय भाषाओं में शाब्दिक समानता मुख्यतः है ।

प्रत्यय कृदन्त और तद्धितान्त हैं जिनके सहयोग से अनेक शब्दों का निर्माण होता है । इस परिवार में विभिन्न अर्थ सम्बन्धों के प्रकाशन को लिए विभक्ति होती हैं । समास इन भाषाओं में संक्षेप कारण का अद्भुत तत्व है । समास कर देने पर पदों की विभक्ति का लोप हो जाता है । कभी कभी समास युक्त शब्द का अर्थ भी बदल जाता है । भारोपीय भाषाएँ प्रत्यय बहुल हैं क्योंकि ये अनेक स्थानों पर जन्मी हैं।

"अनिश्चित परिवार की भाषाऐं जिनमें भारोपीय सूत्र विद्यमान हैं" । 

इस वर्ग के अन्तर्ग विश्व की उन भाषाओं का समावेश है" 

 जिनमें मूल भारोपीय तथा अन्य भाषा-मूलक तत्व धूमिल ही हैं। जैसे पूर्वी इटली के मध्य तथा वहीं के उत्तरी प्रान्तों में बोली जाने वाली (एट्रस्कन-भाषा)है । दूसरी सुमेरियन भाषा है - परन्तु सुमेरियन भाषा में ही भारोपीय और सैमेटिक भाषाओं के आधार तत्व विद्यमान हैं ।  जैसे नवी, अरि,अप्सु,जैसे शब्द सुमेरियन भाषा में भी है । तुर्फरी-जुर्फरी ये शब्द सुमेरियन ही हैं ।

सृ॒ण्ये॑व ज॒र्भरी॑ तु॒र्फरी॑तू नैतो॒शेव॑ तु॒र्फरी॑ पर्फ॒रीका॑ । उ॒द॒न्य॒जेव॒ जेम॑ना मदे॒रू ता मे॑ ज॒राय्व॒जरं॑ म॒रायु॑।।६।। ( ऋ० १०/१०६/६/)

इसके अतिरिक्त आलिगी-विलगी शब्द भी सन मेरियन अलाय बलाय के रूप हैं ।

मितानी भाषा और जनजाति" -

मितज्ञु जन-जाति वेदों में वर्णित हैं।भारतीयों में प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक तथ्यों का एक मात्र श्रोत ऋग्वेद के (2,3,4,5,6,7)मण्डल हैं ।

आर्य समाज के विद्वान् भले ही वेदों में इतिहास न मानते हों। क्योंकि उनके अर्थ पूर्वाग्रह से ग्रस्त धातु अथवा यौगिक है । जो किसी भी माइथोलॉजी के लिए असंगत है ।  वेदों इतिहास  न देखना और उन्हें पूर्ण रूपेण ईश्वरीय ज्ञान कहना महातामस् ही है ।  यह मत पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित ही है। यह यथार्थ की असंगत रूप से व्याख्या करने की चेष्टा है परन्तु हमारी मान्यता इससे सर्वथा विपरीत ही है ।

व्यवस्थित मानव सभ्यता के प्रथम प्रकाशक के रूप में  ऋग्वेद के कुछ सूक्त साक्ष्य के रूप में हैं । सच्चे अर्थ में  ऋग्वेद प्राप्त सुलभ  पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों का ऐैतिहासिक दस्ताबेज़  भी है ।

ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के पिच्यानबे वें सूक्त की ऋचा बारह में (7/95/12 ) में  मितन्नी जन-जाति का उल्लेख मितज्ञु के रूप में वर्णित है ।

-★ऋग्वेद में 'मितज्ञु जनजाति का वर्णन जो सुमेरियन 'मितन्नी-  जन जाति के रूप में हैं ।

 पदपाठ- उत।स्या। नः। सरस्वती।जुषाणा। उप । श्रवत्।सुऽभगा।यज्ञे ।अस्मिन् ।     मितज्ञुऽभिः । नमस्यैः । इयाना । राया। युजा । चित् । उत्ऽतरा । सखिऽभ्यः ॥ ४ ॥

सायण भाष्य-★मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा) प्रह्व:=प्रहूयते इति स्तोता-नम्र अर्थ सायण ने किया है जो कि असंगत ही है क्योंकि कि सायण ने भी सुमेरियन संस्कृति से अनभिज्ञ होने के कारण ही मितज्ञु शब्द का यह अर्थ किया है । यह खींच तान करके किया गया यौगिक अर्थ है।

प्रह्व: =प्रहूयते इति ।  प्र + ह्वे + “ सर्व्वनिघृष्वरिष्वेति । “  उणा० १ ।  १५३ ।  इति वन् । आलोपश्च । )  नम्रः ।

 इत्युणादिकोषः ॥  (यथा   रघुः ।  १६ ।  ८० । “ विभूषणप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशाम्पतिस्तम् । सौपर्णमस्त्रं प्रतिसञ्जहार प्रह्वेष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः ॥ “  ) आसक्तिः ।  इति हेमचन्द्रः ।  ३ ।  ४९ ॥ 

"उत अपि च "(जुषाणा =प्रीयमाणा) "(सुभगा= शोभनधना) “(स्या सा =“सरस्वती) “(नः =अस्माकम् )“(अस्मिन् “यज्ञे “उप “श्रवत् ।= अस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोतु) । कीदृशी सा। “

मितज्ञुभि:-तृतीया बहुवचन रूप अर्थात मितज्ञु ओं के द्वारा)= प्रह्वैर्जानुभिः “(नमस्यैः =नमस्कारैर्देवैः) “इयाना उपगम्यमाना । चिच्छब्दश्चार्थे । “युजा नित्ययुक्तेन (“राया =धनेन )च (संगता =“सखिभ्यः) ("उत्तरा =उत्कृष्टतरा) । ईदृश्यस्मदीयाः स्तुतीरुपशृणोत्वित्यन्वयः ॥

प्रहूयते इति ।  प्र + ह्वे + “ सर्व्वनिघृष्वरिष्वेति । “  उणा० १ ।  १५३ ।  इति वन् । आलोपश्च । )  नम्रः ।  इत्युणादिकोषः ॥  (यथा   रघुः ।  १६ ।  ८० । “ विभूषणप्रत्युपहारहस्तमुपस्थितं वीक्ष्य विशाम्पतिस्तम् । सौपर्णमस्त्रं प्रतिसञ्जहार प्रह्वेष्वनिर्बन्धरुषो हि सन्तः ॥ “  ) आसक्तिः ।  इति हेमचन्द्रः ।  ३ ।  ४९ ॥

मितज्ञु का सायण द्वारा किया गया अर्थ- "आह्वान करने वाला स्तोता अथवा नम्र अर्थ असंगत ही है क्योंकि जब पणियों(फोनिशियों ) का ऋग्वेद में वर्णन है तो उनके सहवर्ती मितज्ञु(मितन्नीयों का क्यों नहीं

"उतस्यान: सरस्वती जुषाणो उप श्रवत्सुभगा:

यज्ञे अस्मिन् मितज्ञुभि: नमस्यैरि याना राया यूजा:

चिदुत्तरा सखिभ्य: ।

ऋग्वेद-(7/95/4

ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ भी है । वैदिक सन्दर्भों में वर्णित मितज्ञु जन-जाति के सुमेरियन पुरातन कथाओं में मितन्नी कहा है ।अब यूरोपीय इतिहास कारों के द्वारा मितन्नी जन-जाति के विषय में  उद्धृत तथ्य --मितानी  हित्ताइट शब्द है जिसे हनीगलबाट भी कहा जाता है । मिस्र के ग्रन्थों में अश्शूर या नाहरिन में, उत्तरी सीरिया में एक तूफान-स्पीकिंग राज्य और समु्द्र से दक्षिण पूर्व अनातोलिया था ।(1500 से 1300) ईसा पूर्व में मिट्टीनी अमोरियों  बाबुल के हित्ती विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई और अप्रभावी अश्शूर राजाओं की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक बिजली निर्वात बनाया।

"ऋग्वेद में जिन जन-जातियाें का विवरण है; वो धरा के उन स्थलों से सम्बद्ध हैं जहाँ से विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताऐं  पल्लवित , अनुप्राणित एवम् नि:सृत हुईं । भारत की प्राचीन धर्म प्रवण जन-जातियाँ स्वयं को कहीं देव संस्कृति की उपासक तो कहीं असुर संस्कृति की उपासक मानती थीं -जैसे देव संस्कृति के अनुयायी भारतीय आर्य तो असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानी आर्य थे।

मितानी का राज्य ई०पू०1500  - 1300 ईसा पूर्व तक

जिसकीव

राजधानी

वसुखानी

भाषा हुर्रियन

(Hurrion)

मितानी अथवा मतन्नी जन-जाति का वर्णन हिब्रू बाइबिल तथा ऋग्वेद में भी मितज्ञु रूप में हुआ है ।

अब समस्या यह है कि आर्य शब्द को कुछ पाश्चात्य इतिहास कारों ने पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर जन-जातियों का विशेषण बना दिया । 

वस्तुत आर्य्य शब्द जन-जाति सूचक उपाधि नहीं था।

यह तो केवल जीवन क्षेत्रों में यौद्धिक वृत्तियों का द्योतक व विशेषण था ।

आर्य शब्द का प्रथम प्रयोग ईरानीयों के लिए तो सर्व मान्य है ही परन्तु कुछ इतिहास कार इसका प्रयोग मितन्नी जन-जाति के हुर्री कबींले के लिए स्वीकार करते हैं ।

परन्तु मेरा मत है कि हुर्री शब्द ईरानी शब्द हुर-(सुर) का ही विकसित रूप है।

क्यों कि ईरानीयों की भाषाओं में संस्कृत "स" वर्ण "ह" रूप में परिवर्तित हो जाता है ।

सुर अथवा देव स्वीडन ,नार्वे आदि स्थलों से सम्बद्ध थे । परन्तु वर्तमान समय में तुर्की "जो  मध्य-एशिया या अनातोलयियो के रूप है । की संस्कृतियों में भी देव संस्कृति के दर्शन होते है।

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ईरानी धर्म ग्रन्थ "अवेस्ता ए जन्द़" में "इन्दर (इन्द्र) वेन्दीदाद् 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का प्रतिरूप बताया गया है। 

इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्ध इत्थ्य , दएव,यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4 उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं इसके विपरीत ईरानी धर्म में असुर' दस्यु, दास , तथा वृत्र' पूज्य हैं ।

"भारोपीय परिवार-भारोपीय भाषा परिवार की दो प्रधान शाखाएँ हैं ।(Ahura Mazda)- अवेस्ता एजैन्द में असुर महत् ईश्वरीय सत्ता का वाचक है । और देव दुष्ट तथा बुरी शक्तियों का वाचक है ।

Daeva-देवा-दुष्ट और Asur-असुर -श्रेष्ठ और शक्तिशाली ईश्वर का वाचक है ।

Daeva = One of the Daevas, Aesma Daeva ("madness") is the demon of lust and anger, wrath and revenge. 

He is the personification of violence, a lover of conflict and war.

Together with the demon of death, Asto Vidatu, he chases the souls of the deceased when they rise to heaven. 

His eternal opponent is Sraosa

देवा = दाएवाओं में से एक, आइस्मा देवा ("पागलपन") वासना और क्रोध, तीव्र रोष, तेज़ गु़स्‍सा या क्रोधोन्‍माद  और बदला का दानव है।

वह हिंसा, लड़ाई और युद्ध का प्रेमी है।

मृत्यु के दानव, एस्टो विदतु के साथ, वह स्वर्ग जाने पर मृतक की आत्माओं का पीछा करता है।

उनका शाश्वत प्रतिद्वंदी सरोसा है

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Ahura Mazda-★- असुर-महत्(वरुण) का वाचक है ।

Ahura Mazdah ("Lord Wisdom") was the supreme god, he who created the heavens and the Earth, and another son of (Zurvan). As leader of the Heavenly Host, the (Amesha Spentas), he battles Ahriman and his followers to rid the world of evil, darkness and deceit. 
 His symbol is the winged disc.
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Ahuraniअसुराणी- यह वरुण की पत्नी है जो स्वास्थ्य चिकित्सा और जल की देवी हैं ।
Ahurani is a water goddess from ancient Persian mythology. She watches over rainfall as well as standing water. She was invoked for health, healing, prosperity, and growth. She is either the wife or the daughter of the great god of creation and goodness, Ahura Mazda. Her name means "She who belongs to Ahura".

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Div या देव ( फ़ारसी : Dīv (دیو )ईरानी की पौराणिक कथाओं में देव दुष्ट प्राणी हैं , और जो आर्मेनिया , तुर्क देशों  और अल्बानिया  सहित आसपास की संस्कृतियों में फैले हुए हैं । मुहावरों या ओग्रेसियों की तुलना में, उनके पास एक मानव के समान एक शरीर है, लेकिन विशाल, दो सींगों के साथ, एक मानव मांस, शक्तिशाली क्रूर और पत्थर के दिल के साथ एक सूअर की तरह दांतों वाला।  उनके शारीरिक आकार के बावजूद, जैसे जिन्न और श्यातिन (दुष्ट आत्माओं के कब्जे और पागलपन का कारण बताए गए हैं। उनके प्राकृतिक विरोधी पेरी हैं , 

शाहनाम - दि अकवन ने रुस्तम को समुद्र में फेंक दिया

मूल-

देव शायद से ही शुरू अवेस्तन daeva , में बुराई के सिद्धांत के द्वारा बनाई गई बुरी आत्मााओं- 

Zorastrianism , 

Ahriman  के दौरान इस्लामी अवधि, (daeva) के विचार देव की धारणा के लिए बदल दिया; शारीरिक आकार में राक्षसी जीव, लंबे दांत और पंजे के साथ, अक्सर पश्चिमी ओग्रे की तुलना में । [Translations ] कुरान के पहले अनुवादों का फारसी भाषा में अनुवाद कुरान के दुष्ट जिन्न को देव के रूप में परिवर्तित करता प्रतीत होता है , दोनों अलग-अलग प्रकार के जीवों के कुछ भ्रमों की ओर ले जाता है। बाद में उन्हें इस्लामिक ओटोमन साम्राज्य के बीच कई संस्कृतियों द्वारा अनुकूलित किया गया ।

इस्लाम-

`अलीक़ुली - किंग सोलोमन और दो दानव - वाल्टर W62494B - पूर्ण पृष्ठ

देवदूत या पेरी को पकड़ने वाला देव

टीका-

तबरी के अनुसार , दुर्भावनापूर्ण देवता पूर्व- जीव प्राणियों की एक लंबी श्रृंखला का हिस्सा हैं, जो परोपकारी पेरिस से पहले हैं , जिन्हें वे एक निरंतर लड़ाई लड़ते हैं। हालाँकि, सभी एक्सटेगेट्स इससे सहमत नहीं हैं। इस्लामिक दार्शनिक अल-रज़ी ने अनुमान लगाया कि देव दुष्ट मृतकों की आत्मा हैं, उनकी मृत्यु के बाद देव में बदल गए। 

लोक-साहित्य-

फ़ारसी लोककथाओं में, देवों को जानवरों के सिर और खुरों के साथ सींग वाले पुरुषों की तरह देखा जाता है। कुछ सांप का रूप लेते हैं या कई सिर वाले अजगर  हालाँकि,

 शेपशिफ्टर्स के रूप में , वे लगभग हर दूसरे रूप को भी ले सकते हैं। वे रात के दौरान डरते हैं, जिस समय वे जागते हैं,  क्योंकि यह कहा जाता है कि अंधेरा उनकी शक्ति को बढ़ाता है। गुलाम हुसैन सा'दी की (अहल-ए-हवा -(हवा के लोग), विभिन्न प्रकार के अलौकिक जीवों के बारे में कई लोककथाओं पर चर्चा करते हुए, उन्हें द्वीपों या रेगिस्तान में रहने वाले लंबे जीवों के रूप में वर्णित करते हैं और उन्हें छूकर मूर्तियों में बदल सकते हैं। 

★-अर्मेनियाई पौराणिक कथाएँ-

में अर्मेनियाई पौराणिक कथाओं और कई विभिन्न अर्मेनियाई लोक कथाओं, देव (में अर्मेनियाई- դեւ) एक वस्तु के रूप में और विशेष रूप से एक दुर्भावनापूर्ण भूमिका में दोनों प्रकट होता है,और एक अर्द्ध दिव्य मूल है। देव अपने कंधों पर एक विशाल सिर के साथ एक बहुत बड़ा है, और मिट्टी के कटोरे जितना बड़ा है।उनमें से कुछ की केवल एक आंख हो सकती है। आमतौर पर, ब्लैक एंड व्हाइट देव होते हैं। हालांकि, वे दोनों या तो दुर्भावनापूर्ण या दयालु हो सकते हैं।

व्हाइट देव में मौजूद है होव्हान्नेस टुमैनयान (की कहानी "Yedemakan Tzaghike"  

Եդեմական Ծաղիկը), के रूप में "स्वर्ग का फूल" अनुवाद। कथा में, देव फूल के संरक्षक हैं।

जुश्कापरिक, वुश्पकारिक या गधा-पाइरिका एक और चिरामिक प्राणी है जिसका नाम आधा-आसुरी और आधा-पशु होने का संकेत देता है, या एक पायरिका-जो एक महिला देव है जिसमें प्रचंड प्रवृत्ति है - जो एक गधे के रूप में प्रकट हुई और खंडहर में रहती थी।

★-फारसी की पौराणिक कथा-

तुर्की सियाह क़लम नृत्य देवों का चित्रण-

-★- जिस प्रकार भारतीय पुराणों में असुरों को नकारात्मक व    हेय  रूप में वर्णन किया गया है उसी प्रकार ईरानी  तथा अशीरियन देवों को दुष्ट व व्यभिचारी रूप में वर्णन किया गया है 

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शैतान शब्द स्वयं सुमेरियन ' भारतीय और यूरोपीय आयोनियन संस्कृतियों को मूलत: एक रूपता में दर्शाता है।_____________________

शैतान भी कभी सन्त था हिब्रू भाषा में शब्द (לְשָׂטָ֣ן) (शैतान) अथवा सैतान  (שָׂטָן ) का अरबी भाषा में शय्यतन(شيطان)‎ रूपान्तरण है । जो कि प्राचीन वैदिक सन्दर्भों में "त्रैतन तथा अवेस्ता ए जन्द़ में "थ्रएतओन"के रूप में है । 

परन्तु अर्वाचीन पहलवी , तथा फारसी भाषाओं में "सेहतन" के रूप में विकसित है ।

यही शब्द ग्रीक पुरातन कथाओं में त्रिटोन है ।आज विचार करते हैं इसके प्रारम्भिक व परिवर्तित सन्दर्भों पर-

___________________

"त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति"

त्रितॉन शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट है ।

"त्रैतनु त्रीणि तनूनि यस्य स: इति त्रैतनु"-अर्थात् तीन शरीर हैं जिसके वह त्रैतन है ।

परन्तु यह शब्द आरमेनियन , असीरियन आदि सेमैेटिक भाषाओं में भी अपने पौराणिक रूपों विद्यमान है ।

यह शय्यतन अथवा शैतान शब्द मानव संस्कृतियों की उस एक रूपता को अभिव्यञ्जित करता है ; 

जो प्रकाशित करती है ; कि प्रारम्भिक दौर में संस्कृतियाँ समान थीं ।

सेमैेटिक, हैमेटिक , ईरानी तथा यूनानी और भारत में आगत देव संस्कृतियों के अनुयायी कभी एक स्थान पर सम्मिलित हुए थे ।

शैतान शब्द आज अपने जिस अर्थमूलक एवं वर्णमूलक रूप में विन्यस्त है । वह निश्चित रूप से इसका परिवर्तित रूप है ।

शैतान शब्द ऋग्वेद में "त्रैतन" के रूप में है ;

जो ईरानी ग्रन्थ 'अवेस्ता ए जेन्द' में 'थ्रेतॉन–(Traetaona) के रूप में है ; और यहीं से यह

शैतान रूप में परिवर्तित हो गया है ।

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क्यों कि ? " त्रि " तीन का वाचक संस्कृत शब्द फारसी में "सिह" के रूप में है ।

जैसे संस्कृत 'त्रितार -वाद्य यन्त्र को फारसी भाषा में  'सितार' कहा जाता है । 

इसी भाषायी पद्धति से वैदिक 'त्रैतन - 'सैतन और  फिर सैतान /शय्यतन रूप  परिवर्तित हो जाता है ।

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सितार शब्द की व्युपत्ति -

हिन्दी सितार ( सितार ) / उर्दू ستار ( sitār ) का सम्बन्ध , फारसी भाषा के  سهتار ( se-târ) "सि -तार" से है  जिसका शाब्दिक अर्थ है ; " तीन -तार " ) वस्तुत यह तीन ही वायरों से बनता है ।

सितार( संगीत ) एक हिन्दुस्तानी / भारतीय शास्त्रीय तारों वाला वाद्य- यन्त्र -"व्युत्पत्ति और इतिहास "-सितार नाम फारसी भाषा से आता है سیتار (sehtar) سیہ seh अर्थ तीन और تار तार का अर्थ स्ट्रिंग है। एक समान उपकरण, 'सितार' का उपयोग इस दिनों ईरान और अफगानिस्तान में किया जाता है, और मूल फारसी नाम का अभी भी उपयोग किया जाता है।

दोनों यन्त्र तुर्की "टैनबूर "तानपूरा से अधिकतर व्युत्पन्न होते हैं, जो एक लंबे, वीणा जैसा यन्त्र है जिसमें कोई  "Tembûr और (sehtar) सेह-तार दोनों को पूर्व इस्लामीयत से फारस में इस्तेमाल किया गया था ;

और आज भी तुर्की में यह उपयोग किया जाता है। 

वैकल्पिक रूप से, रुद्र वीणा नामक एक पुराना भारतीय उपकरण कुछ महत्वपूर्ण मामलों में सितार जैसा दिखता है।

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ऋग्वेद में  मण्डल 1 अध्याय 22  तथा सूक्त 158 पर देखें 👇

★-नमा करने नदियों मातृतमा दासी यदींसुसमुब्धमबाधु: शिरोमणि यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दास करो अंसावपिग्ध।५।। ऋग्वेद-१/१५८/५-

दीर्घ तमामामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगेअपामर्थ यतीनां ब्रह्मा भवति सारथि।६।।

ऋग्वेद-१/१५८/६

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ऋषि - दीर्घ तमा । देवता -अश्विनौ। छन्द- त्रिष्टुप, अनुष्टुप -

अर्थ व अनुवाद

हे ! अश्निद्वय ! मातृ रूपी नदीयों का जल भी मुझे न डुबो सके । दस्युओं ने मुझे इस युद्ध में बाँध कर फैंक दिया ।

"त्रैतन दास  ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ।5।

ममता का दीर्घ तमा दश वर्ष पश्चात् वृद्ध हुआ । 

कर्म फल की इच्छा से स्तुति करने वाले स्तोता (ब्रह्मा) रथ युक्त हुए ।6।

ऋग्वेद मण्डल-1 सूक्त 158 -ऋचा-5-6

न । मा । गरन् । नद्यः । मातृऽतमाः । दासाः । यत् । ईम् । सुऽसमुब्धम् । अवऽअधुः ।

शिरः । यत् । अस्य । त्रैतनः । विऽतक्षत् । स्वयम् । दासः । उरः । अंसौ । अपि । ग्धेतिग्ध ॥५।।

“नद्यः नदनशीला: "मातृतमाः मातृवज्जगतां हितकारिण्य आपः “मा मां दीर्घतमसं “गरन् न गिरेयुः निमग्नं मा कुर्युः ॥ ‘ गॄ निगरणे '। लेटि व्यत्ययेन शप् ॥ 

गिरणप्राप्तिं दर्शयति । “यत् यस्मात् “दासाः अस्मदुपक्षपयितारो मदीयगर्भदासाः “ईम् एनं दीर्घतमसं मां “सुसमुब्धं सुष्ठु संकुचितसर्वाङ्गम् ॥ ‘स्वती पूजायाम्' (पा. म. २. २. १८. ४) 

इति प्रादिसमासे अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् ॥ “अवाधुः अवाङ्मुखमपातयन् । 

किंच "अस्य मम “शिरः सः “त्रैतनः एतन्नामकः “दासः अत्यन्तनिर्घृणः सन् “यत् यस्मात् “वितक्षत् विविधं तष्टवान् तस्मात् स दासः “स्वयं स्वकीयमेव शिरस्तक्षतु । न केवलं शिर एव अपि तु मदीयम् “उरः वक्षःस्थलम्' “अंसौ च “ग्ध हतवान् विदारितवानित्यर्थः ॥ 

हन्तेर्लुङि छान्दसमेतद्रूपम् ॥ ततः स्वकीयमुरः अंसावपि स्वशस्त्रेणैव तथा कृतवान् । तद्युवयोर्माहात्म्यमिति भावः।

ऋग्वेद में ही अन्यत्र - त्रितोनु के विषय में वर्णन है ।

अस्य त्रितोन्वोजसा वृधानो विपा वराहम यो अग्रयाहन् ।।6। ऋग्वेद 10/99/6

अर्थात् इस त्रितोनु ने ओज के द्वारा लोह समान तीक्ष्ण नखों से वराह को मार डाला था ।

आरण्वासो युयुधयोन सत्वनं त्रितं नशन्त प्रशिषन्त इष्टये 

ऋग्वेद 10/115/4 

त्रातन -दैत्य विशेष 

त्रित अप्त्यस्य (ऋग्वेद 1/124/5)

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१४६६ । ६७ पृ० एकतशब्दोक्ते आप्त्ये 

१- देवभेदे ब्रह्मणो मानसपुत्ररूपे 

२- ऋषिभेदे च त्रिषु क्षित्यादिस्थानेषु तायमानः तायड ।

त्रिषु विस्त्रीर्णतमे 

३- प्रख्यातकीर्त्तौ च त्रि० ।

“यस्य त्रितो व्योजसा वृत्रं विपर्वमर्द्दयत्” 

ऋ० १। १८७।१।

______

त्रित ऋभुक्षा: ,सविता चनो दधे८पां नपादाशहेमा धिया शमि ।6।

ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 3 सूक्त 31 ऋचा 6

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हे अन्तरिक्ष के देवता अहि, सूर्य, त्रित इन्द्र और सविता हमको अन्न दें ।

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त्रितो न यान् पञ्च होतृनभिष्टय आववर्त दवराञ्चक्रियावसे ।14।

अभीष्ट सिद्धि के निमित्त प्राण, अपान, समान,ध्यान, और उदान । इन पाँच होताओं को त्रित द्वारा सञ्चालित करते हैं ।

ऋग्वेद मण्डल 1 अध्याय 4 सूक्त 34 ऋचा 14

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मूषो न शिश्ना व्यदन्ति माध्य: स्तोतारं ते शतक्रतो वित्तम् मे अस्य रोदसी ।8।

अमी ये सप्त रश्मयस्तत्रा मे नाभि:आतिता।

त्रितस्यद् वेद आप्त्य: स जामित्ववाय 

रेभति वित्तं मे अस्य रोदसी ।9।_______________________________________

दो सौतिनों द्वारा पति को सताए जाने के समान कुँए की दीवारे मुझे सता रही हैं। हे इन्द्र ! चूहा द्वारा अपने शिश्न को चबाने के समान मेरे मन की पीड़ा मुझे सता रही है। हे रोदसी मेरे दु:ख को समझो ! इन सूर्य की सात किरणों से मेरा पैतृक सम्बन्ध है। 

इस बात को आप्त्य-(जल)का पुत्र त्रित जानता है । इस लिए वह उन किरणों की स्तुति करता है। हे रोदसी मेरे दु :ख को समझो।

ऋग्वेद के अन्य संस्करणों में क्रम संख्या भिन्न है 

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“शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत् स्वयं दासः”

ऋ०१।१५८८ । ५ । 

“त्रैतन एतन्नामको दासोऽत्यन्तनिर्घृणः” 

★- भाष्य व सरलीकरण-

अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे सस्त्रुरुतय: 

इन्द्रो यद् वज्री धृषमाणो अन्धसा भिनद् वलस्य परिधीरिव त्रित: ।।5।

अभिमुख  गमन करने वाली नदीयों के समान  वृत्र से युद्ध करने वाले  इन्द्र और उसके सहायक मरुतों को  सोम का आनन्द प्राप्त हुआ ।

तब सोम पान से साहस में बढ़े हुए इन्द्र ने वल की परिधि के समान त्रित को भेद दिया ।

ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 10 सूक्त 54 का 5 वाँ सूक्त ।

ऋग्वेद के कतिपय स्थलों पर  त्रित तथा पूषण को साथ साथ दर्शाया है ।

ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन

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त्रिते देवता अमृजतैत देनस्त्रित एनन्मनुयेषु ममृजे ।

ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे ताँ देवा 

ब्रह्मणानाशयन्तु।१।

मरीचीर्धूमान प्रविशानु पाप्मन्नु दारान्  गच्छोतवानीहारान् नदी नाम फेनानाँ अनुतान् विनश्य भ्रूण हिन्दुस्तान पूषन् दुरितानि मृक्ष्व द्वादशधानिहितं 

त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यै नसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तांते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ।

_________

अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया । 

त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।

हे  परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।

इसे मन्त्र शक्ति से दूर भगा 

हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर  अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर ।

हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।

त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।

वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है। 

हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !

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अवेस्ता ए जन्द़ में "इन्दर (इन्द्र) वेन्दीदाद् 10,9 (अवेस्ता) में मानव विरोधी और दुष्ट प्रवृत्तियों का बताया गया है ।

इसी प्रकार सोर्व (सुर:) तरोमइति , अएम्प तथा तऊर्वी , द्रुज , नओड्.धइत्थ्य , दएव,

यस्न संख्या-(27,1,57,18,यस्त 9,4 

उपर्युक्त उद्धरणों में इन्द्र , देव आदि शब्द हैं जिन्हें ईरानी आर्य बुरा मानते हैं 

इसके विपरीत असुर दस्यु, दास , तथा वृत्र पूज्य हैं ।

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(thraetaona )थ्रेतॉन  ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में वर्णित देव है। इसका सामञ्जस्य वैदिक

त्रित -आपत्या के साथ है 

अवेस्ता में यम को यिमा (Yima) के रूप में महिमा- मण्डित किया गया है ।

अवेस्ता में अज़िदाहक को मार डाला जाता है । 

भारतीय वैदिक सन्दर्भों में १-एकत: २-द्वित:और  ३-त्रित: 

के विषय में अनेक रूपक हैं ।👇

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त्रित: कूपे८वहितो देवान् हवत ऊतये ।

तच्छुश्राव बृहस्पति: कृण्वन्नंहूरणादुरु 

वित्तं मे अस्य रोदसी ।

(ऋग्वेद मण्डल 1अध्याय 16 सूक्त 105 ऋचा 17)

कुए में गिरे हुए त्रित ने रक्षार्थ  देवाह्वान किया ;

तब उसे बृहस्पति (ज्यूस) ने सुना और पाप रूप कुएें से उसे निकाला। हे रोदसी मेरे दु:ख को सुनो  त्रित इस प्रकार आकाश और पृथ्वी से प्रार्थनाकरता है ।

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यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो  अध्यतिष्ठत् ।

गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात् सूरादश्वं वसवो निरतष्ट 2।

असि यमो अस्यादित्यो अर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन 

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यम के द्वारा दिए गये इस अश्व को त्रित ने जोड़ा 

इन्द्र ने इस पर प्रथम वार सवारी की ।

गन्धर्व ने इस की रास पकड़ी ; हे देवताओं तुमने इसे सूर्य से प्राप्त किया 

हे अश्व तू यम रूप है।

सूर्य रूप है ;और गोपनीय नियम वाला त्रित है ।

यही इसका रहस्यवादी सिद्धान्त है ।

मण्डल 1अध्याय 22सूक्त 

163 ऋचा संख्या 2-3

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त्रित को वैदिक सन्दर्भों में चिकित्सा का देवता मान लिया गया । अंग्रेजी भाषा में प्रचलित ट्रीट (Treat )

शब्द वस्तुत त्रित मूलक है  अवेस्ता ए जेन्द़ में  

त्रिथ  चिकित्सक का वाचक है ।

तथा त्रैतन का रूप थ्रैतान फारसी रूप फरीदून प्रद्योन /प्रद्युम्न - चिकित्सक का वाचक है।

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अवेस्ता में वर्णित है कि ----

यो ज़नत अजीम् दहाकँम् थ्रित फ़नँम थ्रिक मँरँधँम् 

क्षृवश् अषीम् हजृडृ़.र  यओक्षीम् अश ओड्. हैम दएवीम् द्रुजँम् अघँम् ।

गएथाव्यो द्रवँतँन् यॉम् ओजस्तँ माँम्  द्रुजँम्  फ्रच कँरँ तत् अड.गरो मइन्युश् अओइयॉम् अरत्वइतीम् गएथाँम् मइकॉई अषहे गएथनाम् ।।

...(यस्न 9,8 अवेस्ता )---___________________

अर्थात् जिस थ्रएतओन जिसे वैदिक सन्दर्भों में (त्रैतन) या त्रित कहा है । वह  अाप्त्य का पुत्र है ।

उसने अज़िदाहक (अहि दास) को मारा था। 

जो अहि तीन जबड़ो वाला ,तीन खोपड़ियों वाला, छ: आँखों वाला

हजार युक्तियों वाला बहुत ही शक्तिशाली है । धूर्त ,पापी , जीवित प्राणीयों को धोखा देने वाला था । 

जिस बलशाली को अड्.गरा मइन्यु ने सृष्टि के विरोधी रूप में अश (सत्य) की सृष्टि के विनाश के लिए  निर्मित किया था 

वस्तुत उपर्युक्त कथन अहि दास के लिए है ।

प्रस्तुत सन्दर्भ में (त्रिक मूर्धम् ) की तुलना  ऋग्वेद के उस स्थल से कर सकते  हैं । जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है । (ऋग्वेद-10/1/8 देखें👇

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स पित्र्याण्यायुधानि विद्वानिन्द्रे त्रित-आप्त्यो अभ्यध्यत् 

त्रीशीर्षाणं सप्त रश्मिं जघन्वान् (ऋग्वेद-10/1/8)

जहाँ इन्द्र के द्वारा प्रेरित त्रित-आप्त्य (थ्रअेतओन) विश्व रूप और तीन शिर वाले वृत्र या अहि का नाश करता है 

इसके अतिरिक्त अन्य स्थलों पर भी अहि और त्रित एक दूसरे के शत्रुओं के रूप में हैं। 

जिस प्रकार अहि को मार कर त्रित ऋग्वेद में गायों को स्वतन्त्र करते हैं।👇

✍✍✍✍

उसी प्रकार अवेस्ता ए जन्द़ में थ्रएतओन  सय्यतन द्वारा अज़िदाहक को मार कर दो युवतियों को स्वतन्त्र करने की बात कही गयी है । 

ऋग्वेद में ये सन्दर्भ इन ऋचाओं में वर्णित है-

👉 १३२, १३ १८५९।३३२।६ तथा

३६।८।४ ।१७।१।६।

अतः यह सन्दर्भ अ़हि (अज़ि) वृत्र (व्रथ्र) या वल (इबलीश)(evil)के साथ गोओं ,ऊषस् या आप: 

सम्बन्धी देव शास्त्रीय भूमिका का द्योतन करता है  ऋग्वेद १३२/१८७/१ तथा १/५२/५ 

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नॉर्स  पुरा-कथाओं में (Thridi) थ्रिडी  ओडिइन का पुराना  नाम जिसका साम्य त्रिता के साथ है।

और ट्रिथ- समुद्र के लिए एक पुराने आयरिश नाम भी है । ध्वन्यात्मक रूप से इसका साम्य वैदिक त्रित से है । 

ट्राइटनTriton(Τρίτων ) पॉसीडॉन एवं एम्फीट्रीट का पुत्र एक यूनानी  समुद्र का देवता है ।

जिसका ध्वन्यात्मक साम्य वैदिक त्रिता को रूप में है 

वैदिक और ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता के सन्दर्भ समानार्थक रूप में विद्यमान हैं !

(THRIDI)-

नोर्स ज्ञान का देवता 

इसे "Þriðji" के रूप में भी जाना जाता है

यह एक और अजीब ऋषि है ।

वह हर और जफरहर के साथ रहस्यमय-तीन(त्रिक)का तीसरा सदस्य है।

उनका नाम 'तीसरा' है और जब बैठने की व्यवस्था और स्थिति की बात आती है तो वह तीसरे स्थान पर होता है। लेकिन वह अपने सहयोगियों के रूप में स्पुल के थ्रूडिंग के बारे में उतना ही जानता है।

थ्रिडी तथ्य और फिगर

नाम: THRIDI 

उच्चारण: जल्द ही आ रहा है 

वैकल्पिक नाम: Þriðji 

स्थान: स्कैंडिनेविया 

प्रभारी: ज्ञान 

भगवान: ज्ञान

विली (वल ) और वी (वायु)

ओडिन, विली और वी 19 वीं शताब्दी के चित्रों में लोरेन्ज़ फ्रॉलीच द्वारा ब्रह्मांड बनाते हैं

विली और वी (क्रमशः "विली-ए" और "वेय (वायु)", भगवान ओडिन  के दो भाई हैं, जिनके साथ उन्होंने ब्रह्मांड के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई।

मध्ययुगीन आइसलैंडिक विद्वान स्नोरी स्टर्लुसन हमें बताता है कि ओडिन, विली और वी पहले सत्य थे जो अस्तित्व में थे।  उनके माता-पिता प्रोटो-गॉड बोर और विशालकाय बेस्टला थे।

तीन भाइयों ने विशाल यमिर को मार डाला, जो अस्तित्व में आया था, और ब्रह्मांड को अपनी शव से बना दिया। 

जबकि स्नोरी आम तौर पर एक विशेष रूप से विश्वसनीय स्रोत नहीं है, इस विशेष जानकारी को पूर्व-ईसाई नोर्स विचारों के प्रामाणिक खाते के रूप में स्वीकार करने के अच्छे कारण हैं, यह देखते हुए कि यह अन्य सबूतों के साथ कितना अच्छा है, जिसे हम नीचे देखेंगे।

विली और वी भी एक अन्य कहानी में शामिल हैं जो हमारे पास आ गया है: जब ओडिन अस्थायी रूप से एस्सार से , अस्सी देवताओं के दिव्य गढ़ को "अमानवीय" जादू का  अभ्यास करने के लिए निर्वासित कर दिया गया था, विली और वी अपनी पत्नी फ्रिग के साथ सो गए थे।

दुर्भाग्यवश, घटनाओं की इस श्रृंखला में उनकी भूमिका के बारे में और अधिक जानकारी नहीं है।

पुराने नोर्स साहित्य में विली और वी के अन्य स्पष्ट संदर्भ ओडिन के भाई के रूप में विली के उत्तीर्ण होने तक सीमित हैं।

स्माररी के प्रोज एडडा में हहर ("हाई"), जफरहरर  ("जस्ट एज़ हाई"), और Þriði ("तीसरा"), जिनकी नाममात्र कथाओं में भूमिका पूरी तरह से व्यावहारिक है, ओडिन, विली, और वी,

लेकिन यह संभावना है कि वे ओडिन तीन अलग-अलग रूपों के तहत हैं, क्योंकि ओल्ड नर्स कविता में अन्य तीन नाम ओडिन पर लागू होते हैं। 

विली और वी के बारे में सबसे अधिक आकर्षक जानकारी उनके नामों में मिल सकती है। पुराने नर्स में , विली का अर्थ है "विल,"

और वे का अर्थ "मंदिर"है और यह उन शब्दों के साथ निकटता से निकटता से संबंधित है जो पवित्र के साथ करना है, और विशेष रूप से पवित्र हैं।

दिलचस्प बात यह है कि ओडिन, विली और वी के प्रोटो-जर्मनिक नाम क्रमशः * वुंडानाज़ , * वेल्जोन ,  और * विक्सन थे । 

यह अलगाव शायद ही संयोगपूर्ण हो सकता है, और सुझाव देता है कि त्रैमासिक समय उस समय की तारीख है जब प्रोटो-जर्मन भाषा बोली जाती थी - लगभग 800 ईस्वी में वाइकिंग एज शुरू होने से पहले, और संभवतः सहस्राब्दी या दो से कम नहीं उस तारीख से पहले।

यद्यपि वे केवल वाइकिंग एज से साहित्य में स्पोराडिक रूप से वर्णित हैं और इसके तुरंत बाद, विली और वी नर्स और अन्य जर्मन लोगों के लिए कम से कम जर्मनिक जनजातियों के समय, और संभवतः बाद में भी प्रमुख महत्व के देवताओं के रूप में होना चाहिए। जर्मन अल्पसंख्यक सक्रिय उपयोग में हजारों सालों के इतने बड़े अनुपात में केवल मामूली महत्व का कोई पौराणिक आंकड़ा बरकरार रखा नहीं गया था, जिसके दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किए थे। तथ्य यह है कि विली और वी ओडिन के भाइयों के रूप में डाले जाते हैं, शायद इस समय के अधिकांश में सबसे ज्यादा जर्मनिक देवता, उनके ऊंचे स्तर का एक और सुझाव है।

दरअसल, ओडिन, विली, और वी - क्रमशः प्रेरणा, चेतना का इरादा, और पवित्र - तीन सबसे बुनियादी ताकतों या विशेषताओं हैं जो अराजकता से किसी भी ब्रह्मांड को अलग करते हैं। इसलिए यह तीन देवताओं थे जो मूल रूप से ब्रह्मांड बनाते थे, और निश्चित रूप से इसके निरंतर रखरखाव और समृद्धि के सबसे आवश्यक स्तंभों में से तीन बने रहे।

नोर्स पौराणिक कथाओं और धर्म पर अधिक जानकारी के लिए खोज रहे हैं? हालांकि यह साइट विषय पर अंतिम ऑनलाइन परिचय प्रदान करती है, मेरी पुस्तक द वाइकिंग स्पिरिट नोर्स पौराणिक कथाओं और धर्म काल के लिए अंतिम परिचय प्रदान करती है। मैंने 10 बेस्ट नॉर्स मिथोलॉजी बुक्स  की एक लोकप्रिय सूची भी लिखी है, जिसे आप शायद अपने पीछा में सहायक पाएंगे।

उत्तरी पौराणिक कथाओं का शब्दकोश। एंजेला हॉल द्वारा अनुवादित। पृष्ठ। 362।

अर्थात् थ्रिडी ज्ञान का नॉर्स देवता है ।_____________________

ग्रीक पौराणिक कथाओं में ट्रिटॉन Triton , (Τρίτων) एक मर्मन , समुद्र का देवता है जो वस्तुत वैदिक त्रैतन का प्रतिरूप है ।

यूनानी पुराणों में  त्रैतन  (Triton) समुद्र के देवता, पोसीडॉन और उसकी पत्नी अम्फिट्राइट (Amphitrite)का पुत्र था।

जिन्हें वैदिक सन्दर्भों में क्रमश: पूषन् तथा आप्त्य कहा गया है।

वेदों में पूषण देखें -👇

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यस्य ते पूषन् त्सख्ये पिपन्यव: कृत्वा चित् 

सन्तो८वसा बभ्रुज्रिरे ।

तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं  राय ईमहे ।

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हे पूषा ! शीघ्र गामी मनुष्य को मार्ग में उचित दिशा बताने के समान तुम्हें स्तोत्र में प्रेरणा करता हूँ । जिससे तुम हमारे शत्रुओं को दूर करो। मेैं तुम्हारा आह्वान करता हूँ । तुम मुझे युद्ध में बलवान बनाओ।

पॉसीडॉन (Poseidon) यूनानी पुरा-कथाओं के अनुसार समुद्र और जल का देवता है । जो सूर्य के रूप में भी प्रकट होता है ।

शैतान का प्रारम्भिक रूप एक सन्त अथवा ईश्वरीय सत्ता के रूप में थी । यह तथ्य स्वयं ऋग्वेद में भी विद्यमान हैं ।👇

ऋषि-अथर्वा । देवता - पूषण -त्रैतन के पाप का वर्णन- _____________________

त्रिते देवता अमृजतैत देनस्त्रित एनन्मनुयेषु ममृजे ।

ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे ताँ देवा 

ब्रह्मणानाशयन्तु।१।

मरीचीर्धूमान प्रविशानु पाप्मन्नु दारान्  गच्छोतवानीहारान् नदी नाम फेनानाँ अनुतान् विनश्य भ्रूण हिन्दुस्तान पूषन् दुरितानि मृक्ष्व द्वादशधानिहितं 

त्रितस्यापमृष्टं मनुष्यै नसानि ततो यदि त्वा ग्राहिरानशे तांते देवा ब्रह्मणा नाशयन्तु ।

अर्थात् देवताओं ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित के मन में स्थापित किया । 

त्रित ने इस पाप को सूर्योदय के पश्चात् सोते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित किया।

हे परिविते ! तुझे जो पाप देवी प्राप्त हुई है ।

इसे मन्त्र

शक्ति से दूर भगा ।

हे परिवेदन में उत्पन्न पाप तू परिवित्ति त्याग कर  अग्नि और सूर्य के प्रकाश में प्रविष्ट हो । तू धूप में , मेघ के आवरण या कुहरे में प्रवेश कर ।

हे पाप तू नदीयों के फेन में समा जा ।

त्रित का वह पाप बारह स्थानों में स्थापित किया गया।

वही पाप मनुष्यों में प्रविष्ट हो जाता है। 

हे मनुष्य यदि तू पिशाची के द्वारा प्रभावित हुआ है तो उसके प्रभाव को पूर्वोक्त देवता और ब्राह्मण इस मन्त्र द्वारा शमन करें !

सम्भवतया  देवताओं के द्वारा त्रित में पाप के स्थापित किए जाने के कारण वह देव विरोधी हो गया ।

त्रैतनु अथवा त्रैतन या त्रित सभी एक ही सत्ता के रूप हैं _____________________

एक ऋषि तथा देवता । 

परंतु निरुक्त में इसे एक द्रष्टा कहा है [नि.४.६] । 

इन्द्र ने त्रित के लिये अर्जुन का वध किया

[ऋ..२.११.२०] । त्रित ने त्रिशीर्ष का [ऋ.१०.८.८] , एवं त्वष्ट्रपुत्र विश्वरुप का वध किया [ऋ.१०.८.९] । मरुतों ने युद्ध में त्रित का सामर्थ्य नष्ट नहीं होने दिया [ऋ.८.७.२४]  

त्रित ने सोम दे कर सूर्य को तेजस्वी बनाया 

[ऋ.९.३७.४] । त्रित तथा त्रित आप्त्य, एक ही होने का संभव है ।

त्रिंत को आप्त्य विशेषण लगाया गया है । 

इसका अर्थ सायण ने उदकपुत्र किया है [ऋ.९.४७.१५] । यह अनेक सूक्तों का द्रष्टा है [ऋ.१.१०५,८.४७,६.३३,३४,१०२,१०.१-७] । एक स्थान पर इसने अग्नि की प्रार्थना की है कि, मरुदेश के प्याऊ के समान पूरुओं को धन से तुष्ट करते हो 

[ऋ.१०४] । त्रित शब्द इंद्र के लिये उपयोग में लाया गया है [ऋ.१.१८७.२] । उसी प्रकार इन्द्र के भक्त के रुप में भी इसका उल्लेख है [ऋ.९.३२.२.१०,.८.७-८]  

त्रित तथा गृत्समद कुल का कुछ सम्बन्ध था, ऐसा प्रतीत होता है [ऋ.२.११.१९] ।

त्रित को विभूवस का पुत्र कहा गया है [ऋ.१०.४६.३] । त्रित अग्नि का नाम हैं [ऋ. ५.४१.४] । त्रित की वरुण तथा सोम के साथ एकता दर्शाई है [ऋ.८.४१.६,९.९५.४] । एक बार यह कुएँ में गिर पडा । वहॉं से छुटकारा हो, इस हेतु से इसने ईश्वर की प्रार्थना की । यह प्रार्थना बृहस्पति ने सुनी तथा त्रित की रक्षा की [ऋ.१.१०५.१७] 

भेडियों के भय से ही त्रित कुएँ में गिरा होगा [ऋ.१.१०५.१८] । इसी ऋचा के भाष्य में, सायण ने शाटयायन ब्राह्मण की एक कथा का उल्लेख किया है । एकत, द्वित तथा त्रित नामक तीन बंधु थे ।

त्रित पानी पीने के लिये कुएँ में उतरा । तब इसके भाईयों ने इसे कुएँ में धक्का दे कर गिरा दिया, तथा कुँआ बंद करके चले गये । 

तब मुक्ति के लिये, त्रित ने ईश्वर की प्रार्थना की 

[ऋ.१.१०५] । यह तीनों बन्धु अग्नि के उदक से उत्पन्न हुएँ थे [श. ब्रा.१.२.१.१-२];[तै.ब्रा ३.२.८.१०-११] ।

महाभारत में, त्रित की यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गयी है ।

गौतम को एकत, द्वित तथा त्रित नामक पुत्र थे । यह सब ज्ञाता थे । 

परन्तु कनिष्ठ त्रित तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण, सर्वत्र पिता के ही समान उसका सत्कार करना पडता था । इन्हें विशेष द्रव्य भी प्राप्त नहीं होता था ।

एक बार त्रित की सहायता से यज्ञ पूर्ण कर के, इन्होंने काफी गौए प्राप्त की । 

गौए ले कर जब ये सरस्वती के किनारे जा रहे थे, तब त्रित आगे था ।

दोनों भाई गौओं को हॉंकते हुए पीछे जा रहे थे 

इन दोनों को गौओं का हरण करने की सूझी । 

त्रित निःशंक मन से जा रहा था ।

इतने में सामने से एक भेडिया आया । 

उससे रक्षा करने के हेतु से त्रित बाजू हटा, तो सरस्वती के किनारे के एक कुएँ में गिर पडा । 

इसने काफी चिल्लाहट मचाई । 

परंतु भाईयों ने सुनने पर भी, लोभ के कारण, इसकी ओर ध्यान नहीं दिया ।

भेडिया का डर तो था ही ।

जलहीन, धूलियुक्त तथा घास से भरे कुएं में गिरने के बाद, त्रित ने सोचा कि, ‘मृत्यु भय से मैं कुए में गिरा  इसलिये मृत्यु का भय ही नष्ट कर डालना चाहिये’।

इस विचार से, कुएँ में लटकनेवाली वल्ली को सोम मान कर इसने यज्ञ किया ।

देवताओं ने सरस्वतीं के पानी के द्वारा इसे बाहर निकाला

आगे वह कूप ‘त्रित-कूप’ नामक तीर्थ स्थल हो गया घर वापस जाने पर, शाप के द्वारा इसने भाईयों को भेडिया बनाया ।

उनकी सन्तति को इसने बन्दर, रीछ आदि बना दिया । बलराम जब त्रित के कूप के पास आया, उस समय उसे यह पूर्वयुग की कथा सुनाई गयी [म.श.३५];

[ भा.१०.७८]

 आत्रेय राजा के पुत्र के रुप में, त्रित की यह कथा अन्यत्र भी आई है [स्कंद.७.१.२५७] ।

यूनानी महाकाव्य इलियड में वर्णित त्रेतन (Triton)

एक समुद्र का देवता है ।

जो पॉसीडन(Poisidon ) तथा एम्फीट्रीट(Amphitrite) का पुत्र है ।

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  Triton is the a minor seafood Son of the Poisson & Amphitrite " he is the messenger of sea 

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त्रेतन की कथा पारसीयों के धर्म - ग्रन्थ अवेस्ता ए जेन्द़ में थ्रेतॉन के रूप में वर्णित है इनके धर्म-ग्रन्थों में थ्रेतॉन अथव्यय से अजि-दहाक वैदिक अहिदास की लड़ाई हुई 

यूनानी महाकाव्यों में अहि  (Ophion) के रूप में है ।

ऋग्वेद के प्रारम्भिक सूक्तों में त्रेतन समुद्र तथा समुद्र का देवता है । 

वस्तुत: तीनों लोकों में तनने के कारण तथा समुद्र की यात्रा में नाविकों का कारण करने से होने के कारण 

इसके यह नाम मिला ..

वेद तथा ईरानी संस्कृति में त्रेतन  तथा त्रित को चिकित्सा का देवता माना गया ----

    यत् सोमम् इन्द्र विष्णवि यद् अघ त्रित आपत्यये---अथर्व०२०/१५३/५ 

अंगेजी भाषा में प्रचलित शब्द( Treat )

लैटिन Tractare तथा Trahere के रूप संस्कृत भाषा के त्रा -- तर् से साम्य रखते है ।

बाद में इसका पद सोम ने ले लिया जिसे ईरानी आर्यों ने साम के रूप में वर्णित किया है ।

परवर्ती वैदिक तालीम संस्कृति में  त्रेतन को  दास तथा वाम -मार्गीय घोषित कर दिया गया था ।

देखें--- 

यथा न मा गरन् नद्यो मातृतमा 

दास अहीं समुब्धम बाधु: ।

शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत 

स्वयं दास उरो अंसावपिग्ध ।।

ऋग्वेद--१/१५८/५ 

अर्थात्--हे अश्वनि द्वय माता रूपी समुद्र का जल  भी मुझे न डुबो सके ।

दस्यु ने युद्ध में बाँध  कर मुझे फैंक दिया .

त्रेतन ने जब मेरा शिर काटने की चेष्टा की तो वह स्वयं ही कन्धों से आहत हो गया ..

वेदों की ये ऋचाऐं संकेत करती हैं कि आर्य इस समय सुमेरियन बैबीलॉनियन आदि संस्कृतियों के सानिध्य में थी । 

क्योंकि सुमेरियन संस्कृति में त्रेतन को शैतान के रूप में वर्णित किया गया है ।

यही से यह त्रेतन पूर्ण रूप से हिब्रू ईसाई तथा इस्लामीय संस्कृतियों में नकारात्मक तथा अवनत अर्थों को ध्वनित करता है।

यहूदी पुरातन कथाओं में ये तथ्य सुमेरियन संस्कृति से ग्रहण किये गये ।

तब सुमेरियन बैवीलॉनियन असीरियन तथा फॉनिशियन संस्कृतियों के सानिध्य में ईरानी आर्य थे ।

असीरियन संस्कृति से प्रभावित होकर ही ईरानी आर्यों ने असुर महत् ( अहुर-मज्द़ा)को महत्ता दी निश्चित रूप से यह शब्द यूनानीयों तथा भारतीय आर्यों में समान है ।

संस्कृत भाषा में प्रचलित शब्द त्रि -(तीन ) फ़ारसी में सिह (सै)हो गया ..

फ़ारसी में जिसका अर्थ होता है ---तीन ..

जैसे संस्कृत भाषा का शब्द त्रितार (एक वाद्य)

फ़ारसी में सिहतार हो गया है ।

इसी प्रकार त्रितान, सिहतान हो गया है ।

क़ुरान शरीफ़ मे शय्यतन शब्द का प्रयोग हुआ है ।

ऋग्वेद में एक स्थान पर त्रेतन के मूल रूप त्रित का वर्णन इस प्रकार हुआ है ।

कि जब देवों ने परिवित्ति में होने वाले पाप को त्रित में ही स्थापित कर दिया  तो त्रित त्रेतन हो गया ।

अनिष्ट उत्पादन जिसकी प्रवृत्ति बन गयी ।

 देखिए-- त्रित देव अमृजतैतद् एन: त्रित एनन् मनुष्येषु ममृजे --- अथर्ववेद --६/२/१५/१६

अर्थात् त्रित ने स्वयं को पाप रूप में सूर्योदय के ' लेते रहने वाले मनुष्यों में स्थापित कर दिया 

वस्तुत: त्रेतन पहले देव था 

हिब्रू परम्पराओं में शैतान /सैतान को अग्नि से उत्पन्न माना है ।और ऋग्वेद में भी त्रित अग्नि का ही पुत्र है ।

अग्नि ने यज्ञ में गिरे हुए हव्य को  धोने के लिए जल से तीन देव बनाए --एकत ,द्वित तथा त्रित 

जल (अपस्) से उत्पन्न ये आप्त्य हुए जिसे होमर के महाकाव्यों में (Amphitrite)...

कहा गया है ।

अर्थात् इस तथ्य को उद्धृत करने का उद्देश्ययही है कि वेदों का रहस्य असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों के विश्लेषण कर के ही उद्घाटित होगा 

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बाइबिल में शैतान का वर्णन - इस प्रकार है ।👇

परमेश्वर के द्वारा शैतान को एक पवित्र स्वर्गदूत के रूप में रचा गया था।

यशायाह 14:12 सम्भवत: शैतान को गिरने से पहले लूसीफर का नाम देता है।

यहेजकेल 28:12-14 उल्लेख करता है कि शैतान को एक करूब के रूप में रचा गया था, जो कि स्वर्गदूतों में सबसे उच्च प्राणी के रूप में दिखाई देता हुआ जान पड़ता था ।

वह अपनी सुन्दरता और पद के कारण घमण्ड से भर गया और परमेश्वर से भी ऊँचे सिहांसन पर विराजमान होना चाहता था (यशायाह 14:13-14; यहेजकेल 28:15;1 तिमुथियुस 3:6)। 

यही शैतान का घमण्ड उसके पतन का कारण बना। यशायाह 14:12-15 में दिए हुए कथनानुसार " उसके पाप के कारण, परमेश्वर ने उसे स्वर्ग से निकाल दिया।

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शैतान इस संसार का हाकिम और वायु की शाक्ति का राजकुमार बन गया (यूहन्ना 12:31; 2 कुरिन्थियों 4:4; इफिसियों 2:2)।

वह दोष लगाने वाला है (प्रकाशितवाक्य 12:10), परीक्षा में डालने वाला है (मत्ती 4:3; 1 थिस्सलुनीकियों 3:5), और धोखा देने वाला है (उत्पत्ति 3; 2 कुरिन्थियों 4:4; प्रकाशितवाक्य 20:3)। 

उसका नाम ही "शत्रु" है या वह जो "विरोध करता" है। उसके एक और पद, इबलीस है, जिसका अर्थ "निन्दा करने वाला" है।" 

हांलाकि उसे स्वर्ग से निकाल बाहर किया है, परन्तु वो अभी भी अपने सिहांसन को परमेश्वर से ऊपर लगाना चाहता है। जो कुछ परमेश्वर करता है उस सब की वो नकल, यह आशा करते हुए करता है कि वह संसार की अराधना को प्राप्त कर लेगा और परमेश्वर के राज्य के विरोध में लोगों को उत्साहित करता है।

शैतान ही सभी तरह की झूठी शिक्षाओं और संसार के धर्मों के पीछे अन्तिम स्त्रोत है।

शैतान परमेश्वर और परमेश्वर का अनुसरण करने वालों के विरोध में अपनी शाक्ति में कुछ और सब कुछ करेगा। परन्तु फिर भी, शैतान का गंतव्य –आग की झील में अनन्तकाल के लिए डाल दिए जाने के द्वारा मुहरबन्द कर दिया गया है 

(प्रकाशित वाक्य 20:10)।

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इय्योब नामक काव्य ग्रन्थ में शैतान एक पारलौकिक सत्व है जो ईश्वर के दरबार में इय्योब पर पाखंड का आरोप लगाता है। यहूदियों के निर्वासनकाल के बाद (छठी शताब्दी ई. पू.) शैतान एक पतित देवदूत है जो मनुष्यों को पाप करने के लिए प्रलोभन देता है।

बाइबिल के उत्तरार्ध में शैतान बुराई की समष्टिगत अथवा व्यक्तिगत सत्ता का नाम है।

उसको पतित देवदूत, ईश्वर का विरोधी, दुष्ट, 

प्राचीन सर्प, परदार साँप (ड्रैगन), गरजनेवाला सिंह, इहलोक का नायक आदि कहा गया है। 

त्रैतन-★†

जहाँ मसीह अथवा उनके शिष्य जाते, वहाँ शैतान अधिक सक्रिय बन जाता क्योंकि मसीह उसको पराजित करेंगे और उसका प्रभुत्व मिटा देंगे।

किंतु मसीह की वह विजय संसार के अंत में ही पूर्ण हो पाएगी (दे. कयामत)। इतने में शैतान को मसीह और उसके मुक्तिविधान का विरोध करने की छुट्टी दी जाती है। दुष्ट मनुष्य स्वेच्छा से शैतान की सहायता करते हैं। संसार के अंत में जो ख्राीस्त विरोधी (ऐंटी क्राइस्ट) प्रकट होगा वह शैतान की कठपुतली ही है।

उस समय शैतान का विरोध अत्यंत सक्रिय रूप धारण कर लेगा किंतु अंततोगत्वा वह सदा के लिए नर्क में डाल दिया जाएगा। ईसा पर अपने विश्वास के कारण ईसाई शैतान के सफलतापूर्वक विरोध करने में समर्थ समझे जाते हैं।

बाइबिल के उत्तरार्ध तथा चर्च की शिक्षा के अनुसार शैतान प्रतीकात्मक शैली की कल्पना मात्र नहीं है; पतित देवदूतों का अस्तित्व असंदिग्ध है। दूसरी ओर वह निश्चित रूप से ईश्वर द्वारा एक सृष्ट सत्व मात्र है जो ईश्वर के मुक्तिविधान का विरोध करते हुए भी किसी भी तरह से ईश्वर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता।

ग्रीक कवि हेसियोड के अनुसार, ट्राइटन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहते था। 

कभी-कभी वह विशिष्ट नहीं था लेकिन कई ट्राइटनों में से एक था। 

एक मछली की पूँछ के साथ, वह अपने कमर के लिए मानव के रूप में प्रतिनिधित्व किया गया था। 

ट्राइटन की  विशेषता एक मुड़कर सीशेल (मछली) थी, जिस पर उसने स्वयं को शान्त होने या लहरों को बढ़ाने के लिए उड़ा दिया।___________________

Poseidon

पोसीडोन, ग्रीक धर्म में, समुद्र के देवता (और आम तौर पर पानी), भूकम्प और घोड़े के रूप वह है।

( Amphitrite )

एम्फिट्राइट, यूनानी पौराणिक कथाओं में समुद्र की देवी, भगवान पोसीडॉन की पत्नी ।

ग्रीक : Τρίτων Tritōn  ) एक पौराणिक ग्रीक देवता , समुद्र के दूत है । 

वह क्रमशः समुद्र के देवता और देवी क्रमश: पोसीडोन और एम्फिट्राइट का पुत्र है।

और उसके पिता के लिए हेराल्ड है । उन्हें आम तौर पर एक मर्मन के रूप में दर्शाया जाता है जिसमें ओवीड [1 के अनुसार, मानव और पूंँछ, मुलायम पृष्ठीय पंख, स्पाइनी पृष्ठीय पंख, गुदा फिन, श्रोणि पंख और मछली के कौडल फिन का ऊपरी शरीर होता है।

ट्रिटॉन की  विशेषता एक मुड़ता हुआ शंख  खोल था, जिस पर उसने शांत होने या लहरों को बढ़ाने के लिए तुरही की तरह स्वयं को उड़ा दिया। 

इसकी आवाज इतनी शोक थी, कि जब जोर से उड़ाया गया, तो उसने दिग्गजों को उड़ान भर दिया, जिसने इसे एक अंधेरे जंगली जानवर की गर्जना की कल्पना की। 

सायद सूकर के सादृश्य पर --

हेसियोड के थेसिस  के अनुसार,  ट्रिटॉन अपने माता-पिता के साथ समुद्र की गहराई में एक सुनहरे महल में रहता था; होमर एगे से पानी में अपना आसन रखता है  त्रिटोनियन झील" ले जाया गया तब से उसका नाम  त्रिटोनियन हुआ।

, ट्राइटोनिस झील , जहां ट्राइटन, स्थानीय देवता ने डायोडोरस सिकुलस द्वारा " लीबिया पर शासक" _______________

ट्राइटन पल्लस के पिता थे और देवी एथेना के लिए पालक माता-पिता थे।

दो देवी के बीच एक विचित्र लड़ाई के दौरान गलती से एथेना ने पल्लस की हत्या कर दी थी।

ट्राइटन को कभी-कभी ट्राइटोन , समुद्र के डेमोनों में गुणा किया जा सकता है ।

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जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, वेल्श शब्द twrch त्रुच  का मतलब है "जंगली सूअर, हॉग, तिल है " तो 'Twrch Trwyth का अर्थ है "सूअर Trwyth"। इसका आयरिश संज्ञान ट्रायथ, स्वाइन का राजा (पुरानी आयरिश: ट्रायथ  टॉर्राइड) या लेबर गैबला इरेन में वर्णित टोरक ट्रायथ हो सकता है।

को सनस कॉर्माइक में ओल्ड आयरिश ओआरसी ट्रेथ "ट्रायथ्स सूअर" के रूप में भी रिकॉर्ड किया गया है। 

राहेल ब्रॉमविच ने भ्रष्टाचार के रूप में ट्रविथ के रूप में फॉर्म का सम्मान किया।

प्रारंभिक पाठ हिस्टोरिया ब्रितोनम में, सूअर को ट्रिनट या ट्रॉइट कहा जाता है, जो वेल्श ट्र्वाइड से लैटिनिकरण की संभावना है।

प्राचीन ग्रीक पौराणिक कथाओं में ,

एम्फिट्राइट ( æ m f ɪ t r aɪ t iː / ; ग्रीक रूप Ἀμφιτρίτη ) 

एक समुद्री देवी और पोसीडोन की पत्नी यह  समुद्र जगत्  की साम्राज्ञी थी। ओलंपियन पंथ के प्रभाव में, वह केवल पोसीडोन की पत्नी बन गई और समुद्र के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के लिए कवियों द्वारा इसे वर्णित कर दिया गया। 

रोमन पौराणिक कथाओं में , तुलनात्मक रूप से मामूली आकृति, नेप्च्यून की पत्नी, साल्शिया , खारे पानी की देवी थी। जो संस्कृत शब्द सार अथवा सर से साम्य रखता है ।

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पौराणिक कथाओं का सन्दर्भ में ---

बिस्ली ओथेका के मुताबिक, एम्फिट्राइट हेरियस की थीगनी के अनुसार, न्यूरियस और टेरीस (और इस प्रकार एक महासागर ) के अनुसार, नेरियस और डोरिस (और इस प्रकार एक नेरीड ) की बेटी थी, जो वास्तव में उसे नीरिड्स और महासागर ।

दूसरों ने उसे समुद्र के व्यक्तित्व ( नमकीन पानी ) कहा। एम्फिट्राइट की संतान में सील  और डॉल्फ़िन शामिल थे।

पोसीडॉन और एम्फिट्राइट का एक बेटा था, ट्राइटन जो एक मर्मन था, और एक बेटी, रोडोस  (यदि यह रोडो वास्तव में हेलिया पर पोसीडॉन द्वारा नहीं पैदा किया गया था या अन्य लोगों के रूप में (Asopus )की बेटी नहीं थी) तो भी इनके साम्य सूत्र भारतीयों के सरस्वती , राधा , पूषन्, त्रैतन आदि पौराणिक पात्रों से हैं ।________________________________________

बिब्लियोथेका (3.15.4) में पोसीडॉन और एम्फिट्राइट की एक बेटी भी बेंथेशेइक नाम का उल्लेख करती है ।

एम्फिट्राइट कुरिंथ से एक पिनएक्स पर एक ट्राइडेंट (575-550 ईसा पूर्व)

एम्फिट्राइट होमरिक महाकाव्यों में पूरी तरह से व्यक्त नहीं है: "खुले समुद्र में, एम्फिट्राइट के ब्रेकर्स में" ( ओडिसी iii.101), "एम्फिट्राइट moaning" सभी गिनती के पीछे संख्याओं में मछलियों को पोषण "( ओडिसी xii.119)।

वह थियिसिस  के साथ अपने होमरिक एपिथेट हेलोसिडेन ("समुद्री-पोषित")  को कुछ अर्थों में साझा करती है, समुद्र- नीलम दोहराए जाते हैं।

प्रतिनिधित्व और पंथ 

यद्यपि एम्फिट्राइट यूनानी संस्कृति में नहीं दिखता है, एक पुरातन अवस्था में वह उत्कृष्ट महत्व का था, क्योंकि होमरिक हिमन से डेलियन अपोलो में, वह ह्यूग जी। एवलिन-व्हाइट के अनुवाद में अपोलो के बीच में दिखाई देती है, "सभी प्रमुख देवियों, दीओन और रिया और इकेनिया और थीम्स और जोर से चिल्लाते हुए एम्फिट्राइट ; " हाल ही के अनुवादकों [9] एक अलग पहचान के रूप में "Ichnae" के इलाज के बजाय "Ichnaean थीम्स" प्रस्तुत करने में सर्वसम्मति से हैं। बैकचलाइड्स के एक टुकड़े के अनुसार, उनके पिता पोसीडॉन के पनडुब्बी हॉल में इनस नेरस की बेटियों को तरल पैर के साथ नृत्य और "अगस्त, बैल आंखों वाले एम्फिट्राइट" को देखा, जिन्होंने उन्हें अपनी शादी की पुष्पांजलि के साथ पुष्पित किया। जेन एलेन हैरिसन ने काव्य उपचार में मान्यता प्राप्त एम्फिट्राइट के शुरुआती महत्व की एक प्रामाणिक गूंज: "पोसीडॉन के लिए अपने बेटे को पहचानना बहुत आसान होता था ... मिथक पौराणिक कथाओं के शुरुआती स्तर से संबंधित है जब पोसीडोन अभी तक भगवान का देवता नहीं था समुद्र, या, कम से कम, कोई बुद्धिमान सर्वोच्च नहीं - एम्फिट्राइट और नेरीड्स ने अपने नौकरों के साथ ट्राइटन्स के साथ शासन किया। यहां तक ​​कि इतने देर हो चुकी है कि इलियड एम्फिट्राइट अभी तक 'नेप्च्यूनी उक्सर' नहीं है [नेप्च्यून की पत्नी] "।

हाउस ऑफ नेप्च्यून और एम्फिट्राइट, हरक्यूलिनियम , इटली में एक दीवार पर एक रोमन मोज़ेक

एम्फिट्राइट, "तीसरा जो [समुद्र] घेरता है", समुद्र और उसके प्राणियों के प्रति अपने अधिकार में पूरी तरह से सीमित था कि वह पूजा के उद्देश्यों या कार्यों के लिए लगभग अपने पति से कभी जुड़ी नहीं थी कला के अलावा, जब उसे समुद्र को नियंत्रित करने वाले भगवान के रूप में स्पष्ट रूप से माना जाता था। एक अपवाद एम्फिट्राइट की पंथ छवि हो सकती है कि पौसानीस ने कुरिंथ के इस्तहमस में पोसीडोन के मंदिर में देखा 

अपने छठे ओलंपियन ओडे में पिंडार ने पोसीडॉन की भूमिका को "समुद्र के महान देवता, एम्फिट्राइट के पति, सुनहरे स्पिंडल की देवी" के रूप में पहचाना। बाद के कवियों के लिए, एम्फिट्राइट बस समुद्र के लिए एक रूपक बन गया: साइप्रॉप्स (702) और ओविड , मेटामोर्फोस , (i.14) में यूरिपिड्स।

यूस्टैथीस ने कहा कि पोसीडॉन ने पहली बार नरेक्स में अन्य नेरेड्स के बीच नृत्य किया,  और उसे ले जाया गया।  लेकिन मिथक के एक और संस्करण में, वह समुद्र के सबसे दूर के सिरों पर एटलस की प्रगति से भाग गई,  वहां पोसीडॉन के डॉल्फ़िन ने उसे समुद्र के द्वीपों के माध्यम से खोजा, और उसे ढूंढकर, पोसीडोन की तरफ से दृढ़ता से बात की, अगर हम हाइजिनस  पर विश्वास कर सकते हैं और तारों के बीच नक्षत्र डेल्फीनस के रूप में रखा जा रहा है। 

पूषल्यु । कुमारानुचरमातृभेदे भा० शा० ४७ अ० । पूष्णः पृथिव्याः इदम् अण् वेदे न वृद्धिः नोपधा लोपः । पार्थिवे पदार्थे त्रि० ऋ० १० । ५ । ५ ।

पूष् + कनिन् । १ सूर्य्ये आदित्यभेदे भा० आ० ६ श्लो० ङौ तु पूष्णि पूषणि पूषि ।

२- पृथिव्यां स्त्री निघण्टुः । 

पूषणा शब्देदृश्यम् । 

अयमन्तोदात्तः। स्वार्थे क  

तत्रार्थे । 

पूषा अस्त्यस्य मतुप् वेदे नुट् णत्वम् । पूषण्वत् सूर्य्य- युक्ते पृथिवीयुक्ते च त्रि० । ऋ० १ । ८२ । ६ । भा०

हिब्रू शब्द לְשָׂטָ֣ן, शैतान , मूसा द्वारा तौरेत में उपयोग किया जाता है (लगभग 1500 ईसा पूर्व में) विरोधी का मतलब है और मानव व्यवहार का वर्णन करने वाले सामान्य शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है।

एक नाम के रूप में यह बाइबिल की कई हिब्रू किताबों में होता है और उसके बाद यूनानी अक्षरों σαταν, शैतान  में लिप्यंतरित किया जाता है, और इसके बाद 40ई०सन्  और 9 0 ईस्वी के बीच लिखे गए नए नियम के लेखन में वर्णनात्मक नाम के रूप में उपयोग किया जाता है।

व्याकरण की परिभाषा- 

 

1531 (ईसा पूर्व लघु कालक्रम)में शहर के हिताइट शेख के बाद उन्होंने बेबीलोनिया पर नियंत्रण प्राप्त किया , और पहले बाबुल में और बाद में (दुर-कुरिगालज़ू) में वंश की स्थापना की । 

कसाई एक छोटे सैन्य अभिजात वर्ग के सदस्य थे, लेकिन कुशल शासक और स्थानीय रूप से लोकप्रिय थे, 

और उनके ५०० साल के शासनकाल ने बाद के बेबीलोनियन संस्कृति के विकास के लिए एक आवश्यक आधार तैयार किया। 

ये (Kassites) लोग रथ और घोड़े पूजा की जाती है, पहले इस समय बेबिलोनिया में प्रयोग में आया। 

(Kassite) भाषा है जिसे वर्गीकृत नहीं किया गया । परन्तु ये शोध कार्य अपेक्षित है ।  उनकी भाषा इंडो-यूरोपियन भाषा समूह से संबंधित थी , जिसका परिवर्तित  ही सेमिटिक या अन्य एफ्रो-एशियाटिक भाषाओं हैं ।

हालांकि कुछ भाषाविदों ने एक लिंक का प्रस्ताव दिया है एशिया माइनर की हुरो-उरार्टियन भाषाओं में कुछ आंकड़ों के अनुसार, कसाई लोग हुरियन जनजाति थे। 

 हालांकि, कसाईयों का आगमन भारत-यूरोपीय लोगों के समकालीन ही है जब यूरोपीय  से जुड़ा हुआ है।

 कई कस्सी नेता और देवता इंडो-यूरोपीय नामों से ऊबते हैं,  और यह संभव है कि वे एक इंडो- मितानी के समान यूरोपीय अभिजात वर्ग , जिसने एशिया माइनर के हुरो-उरर्तियन बोलने वाले हुरियानों (-सुर-सर्व) पर शासन किया से सम्बद्ध 

 इतिहास

स्वर्गीय कांस्य युग

मूल-

Kassites की मूल मातृभूमि अच्छी तरह से स्थापित नहीं है, लेकिन प्रतीत होता है कि यह अब ईरान के लोरेस्टन प्रांत के ज़ाग्रोस पर्वत में स्थित है । हालांकि, Kassites थे की तरह Elamites , Gutians और Manneans जो उन्हें-भाषायी पहले असंबंधित को ईरानी -speaking लोगों को जो एक सहस्राब्दी बाद में क्षेत्र पर हावी के लिए आया था। [१३] [१४] वे पहली बार इतिहास के इतिहास में १] वीं शताब्दी ईसा पूर्व में दिखाई दिए, जब उन्होंने सामसु-इलूना के शासनकाल के ९ वें वर्ष में बेबीलोनिया पर आक्रमण किया (१–४ ९ -१ BC१२ ईसा पूर्व)हम्बुराबी । 

सैं्सु इलुना उन्हें पीछे धकेल दिया, के रूप में किया था अबी एशुह , लेकिन वे बाद 1570 ईसा पूर्व में बेबिलोनिया पर नियंत्रण हासिल किया, कुछ 25 साल के पतन के बाद बेबीलोन को हित्तियों 1595 ईसा पूर्व में, और मोटे तौर मेसोपोटामिया के दक्षिणी भाग को जीत के लिए पर चला गया,

 प्राचीन सुमेर के अनुरूप और 1520 ईसा पूर्व तक सीलैंड के राजवंश के रूप में जाना जाता है । हित्तियों ने भगवान मर्दुक की मूर्ति को गिरा दिया था,

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 लेकिन कसाई शासकों ने कब्जा कर लिया, मर्दुक को बाबुल में लौटा दिया, और उसे कसाई शुक्मुना के बराबर कर दिया।

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 व्यापक उथल-पुथल के इस तथाकथित "डार्क एज" अवधि से प्रलेखन की कमी के कारण, सत्ता में उनके उदय की परिस्थितियां अज्ञात हैं।

 Kassite भाषा में कोई शिलालेख या दस्तावेज़ संरक्षित नहीं किया गया है, एक अनुपस्थिति जो पूरी तरह से आकस्मिक नहीं हो सकती है, जो आधिकारिक हलकों में साक्षरता के गंभीर प्रतिगमन का सुझाव देती है।

 कैसिटाई शासकों के तहत बाबुल, जिन्होंने शहर करंदुनाश का नाम बदला , मेसोपोटामिया में एक राजनीतिक और सैन्य शक्ति के रूप में फिर से उभरा। कुरिगालज़ू I (14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व) के सम्मान में एक नव निर्मित राजधानी शहर डर-कुरिगालज़ू का नाम रखा गया था ।

उनकी सफलता काशी के राजाओं द्वारा हासिल की गई राजनीतिक स्थिरता पर आधारित थी। 

उन्होंने बेबीलोन के इतिहास में किसी भी राजवंश द्वारा लगभग चार सौ वर्षों तक बेबीलोन पर बिना किसी रुकावट के शासन किया।

Kassite शक्ति का गठन-

 कसाई राजाओं ने असीरिया के साथ व्यापार और कूटनीति की स्थापना की । 

असीरिया और बर्ना-बुरैश के पुजुर-आशुर III ने 16 वीं शताब्दी ईसा पूर्व, मिस्र , एलाम और हित्तियों के बीच दोनों राज्यों के बीच सीमा पर सहमति जताते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए।,

 और कसाई राजघराने ने अपने शाही परिवारों के साथ विवाह किया। 

बेबीलोन और अन्य शहरों में विदेशी व्यापारी थे, और बेबीलोन के व्यापारी मिस्र ( न्युबियन सोने का एक प्रमुख स्रोत ) से असीरिया और अनातोलिया तक सक्रिय थे । 

केसेट वेट और सील, पैकेट-पहचान और मापने के उपकरण, जो अब तक ग्रीस में थेब्स के रूप में, दक्षिणी आर्मेनिया में और यहां तक ​​कि आज के तुर्की के दक्षिणी तट से उलुबुरुन शिपव्रेक में पाए गए हैं ।

15 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में असीरिया के कुरीगलज़ु I और अशुर -बेल-निश्शु के बीच एक और संधि पर सहमति हुई।

 हालाँकि, बेबीलोनिया ने 1365 ईसा पूर्व में अशुर-उबलित I के अभिगमन के बाद अगले कुछ शताब्दियों के लिए असीरिया से हमले और वर्चस्व के तहत खुद को पाया, जिसने आसिया ( हित्तियों और मिस्रियों के साथ ) को निकट पूर्व में प्रमुख शक्ति बनाया । 

बाबुल को अश्शूर के राजा अशुर-उदबली प्रथम ने बर्खास्त कर दिया था(1365–1330 ई.पू.) 1360 के दशक में बाबुल में कसाई राजा के बाद, जिसकी शादी अशुराम-उदित की बेटी से हुई थी।

 अशुर-उबलित ने तुरंत बेबीलोनिया में मार्च किया और अपने दामाद का बदला लिया, राजा को जमा किया और शाही कसीट लाइन के कुरिगालज़ू II को वहां राजा के रूप में स्थापित किया ।

 उनके उत्तराधिकारी एनिल - निरारी (1330–1319 ई.पू.) ने भी बेबीलोनिया पर हमला किया और उनके महान पोते अदद- निरारी (1307–1275 ईसा पूर्व) ने बेबीलोन के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया जब वह राजा बने। तुकुल्ली-निनूर्ता I (1244–1208 ई.पू.) केवल बेबीलोनिया के वर्चस्व वाली सामग्री नहीं थी, आगे जाकर बेबीलोनिया पर विजय प्राप्त की, काश्तलीश चतुर्थ को जमा किया और 1235 ईसा पूर्व से 1227 ईसा पूर्व तक आठ वर्षों तक वहाँ शासन किया।

नियंत्रण और प्रतिष्ठा-

गवर्नर द्वारा प्रशासित प्रांतों के एक नेटवर्क के माध्यम से कासेट राजाओं ने अपने दायरे पर नियंत्रण बनाए रखा। बाबुल और दुर-कुरिगालज़ू के शाही शहरों के साथ लगभग बराबर, निप्पुर का पुनर्जीवित शहर सबसे महत्वपूर्ण प्रांत था। निप्पुर, पूर्व में महान शहर, जिसे लगभग सी छोड़ दिया गया था। 1730 ईसा पूर्व, कासेट काल में पुनर्निर्माण किया गया था, मंदिरों के साथ उनकी पुरानी नींव पर फिर से बनाया गया था। वास्तव में, कसाट सरकार के तहत, निप्पुर के गवर्नर, जिन्होंने गुएनक्कू के सुमेरियन-व्युत्पन्न शीर्षक को लिया , एक प्रकार का माध्यमिक और कम राजा के रूप में शासन किया। निप्पुर की प्रतिष्ठा 13 वीं शताब्दी ईसा पूर्व केसी राजाओं की एक श्रृंखला के लिए पर्याप्त थी, जो अपने लिए 'निप्पुर के गवर्नर' की उपाधि प्रदान करता था।

कसीट राजा कुरिगालज़ु II (1332-1308 ईसा पूर्व) की सिलेंडर सील । लौवर संग्रहालय AOD 105

Kassite अवधि के दौरान अन्य महत्वपूर्ण केंद्र थे Larsa , Sippar और सूसा । 1155 ईसा पूर्व में कासेट राजवंश को उखाड़ फेंकने के बाद, प्रांतीय प्रशासन की प्रणाली जारी रही और देश सफल शासन के तहत एकजुट रहा, इसिन के दूसरे राजवंश।

लखित में दर्ज-

कासाइट की अवधि का दस्तावेजीकरण निप्पुर से बिखरी और अव्यवस्थित गोलियों पर बहुत अधिक निर्भर करता है, जहां हजारों गोलियां और टुकड़े खुदाई की गई हैं। वे प्रशासनिक और कानूनी पाठ, पत्र, सील शिलालेख, कुदुरुस (भूमि अनुदान और प्रशासनिक नियम), निजी व्रत शिलालेख और यहां तक ​​कि एक साहित्यिक पाठ (आमतौर पर एक ऐतिहासिक महाकाव्य के टुकड़े के रूप में पहचाने जाने वाले) शामिल हैं।

कुदुरू-भूमि पर कसाई राजा मेली-शिपक  अपनी बेटी को देवी-नन्नूबत-नानया के सामने पेश करता है।

_______    

 आठ-पॉइंट वाला सितारा इन्ना-ईशर का सबसे सामान्य प्रतीक था। यहाँ यह बगल में दिखाया गया है सौर डिस्क उसके भाई की Shamash (सुमेरियन उटु) और वर्धमान चाँद उसके पिता के पाप एक पर (सुमेरियन Nanna) सीमा पत्थर मेली शिपाक ई की, बारहवीं सदी ईसा पूर्व से डेटिंग। 

"बेबीलोन में केसेट शासक अभिव्यक्ति के मौजूदा रूपों और व्यवहार के सार्वजनिक और निजी प्रतिमानों का पालन करने के लिए भी निडर थे" रवैया, कम से कम महल के हलकों में। "( ओपेनहाइम 1964, पृष्ठ 62)।

कसाई राजाओं का पतन

Elamites 12 वीं सदी ईसा पूर्व में बेबिलोनिया पर विजय प्राप्त की है, इस प्रकार Kassite राज्य समाप्त हो गया। अंतिम कसीटी राजा, एनलिल-नादिन-अहि , को सुसा में ले जाया गया और वहां कैद कर दिया गया, जहां उनकी भी मृत्यु हो गई।

लौह युग-

कास्तिस ने कुछ समय बाद राजवंश वी (1025–1004 ई.पू.) के साथ बेबीलोनिया पर नियंत्रण हासिल कर लिया; हालाँकि, उन्हें एक बार फिर से हटा दिया गया, इस बार एक अरामियन राजवंश द्वारा ।

जातीय कसाई

केसाइट्स के ध्वस्त हो जाने के काफी समय बाद लोरेस्टन (लुरिस्तान) के पहाड़ों में एक अलग जातीय समूह के रूप में काशीवासी बच गए। बेबीलोन के अभिलेख बताते हैं कि कैसे 702 ईसा पूर्व के अपने पूर्वी अभियान पर असीरियन राजा सन्हेरीब ने ईरान के हुलवान के पास एक युद्ध में कासियों को अपने अधीन कर लिया था ।

Kassite सिलेंडर सील, ca. 16 वीं -12 वीं शताब्दी ई.पू.

हेरोडोटस और अन्य प्राचीन ग्रीक लेखकों ने कभी-कभी सूसा के आस-पास के क्षेत्र को "सिसिया" के रूप में संदर्भित किया, जो कि कस्सी नाम का एक प्रकार है। हालाँकि, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में कैसिटेस उस क्षेत्र में रह रहे थे।

बाद के अचमेनिद काल के दौरान, कसाईयों को "कोसैई" के रूप में संदर्भित किया जाता है, जो पहाड़ों में मीडिया के पूर्व में रहते थे और कई "शिकारी" पहाड़ी जनजातियों में से एक थे जो नियमित रूप से अचिनद फारसी से "उपहार" निकालते थे, एक प्रशस्ति पत्र के अनुसार। की निर्चस द्वारा स्ट्रैबो (13.3.6)।

विदेशी युद्धों में सैनिकों के रूप में

लेकिन Kassites फिर में फारसी पक्ष में लड़ा अर्बेला का युद्ध 331 ई.पू., जिसमें फारसी साम्राज्य पर गिर में सिकंदर महान , के अनुसार दिओदोरुस सिचुलुस (17.59) (जो उन्हें "Kossaei" कहा जाता है) और कर्तिउस रूफुस (4.12) ( जिन्होंने उन्हें "कोसैनियन पहाड़ों के निवासी" कहा)। नब्रेसस के स्ट्रैबो के उद्धरण के अनुसार, अलेक्जेंडर ने बाद में "सर्दियों में" कसेट्स पर अलग से हमला किया, जिसके बाद उन्होंने अपनी श्रद्धांजलि-तलाश छापे बंद कर दिए।

स्ट्रैबो ने यह भी लिखा कि "कोसाएई" ने सुसा और बेबीलोन के खिलाफ युद्ध में एलियामी की सेना में 13,000 धनुर्धारियों का योगदान दिया । इस बयान को समझने के लिए, के रूप में बेबीलोन के तहत महत्व खो दिया था कठिन है सेलयूसिद समय Elymais उभरा ईसा पूर्व के आसपास 160 से नियम। यदि "बेबीलोन" का अर्थ सेलेयुड्स समझा जाता है, तो यह लड़ाई 25 ईस्वी के आसपास एलियामिस और स्ट्रैबो की मृत्यु के उद्भव के बीच हुई होगी। यदि "एलियामिस" को एलाम का अर्थ समझा जाता है, तो लड़ाई शायद 6 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुई थी। सुसा एल्म की राजधानी थी और बाद में एलियम की, इसलिए स्ट्रैबो के कथन का अर्थ है कि कासियों ने एलाम या एलियामी के भीतर एक विशेष समूह का समर्थन करने के लिए हस्तक्षेप किया।

अंतिम रिकॉर्ड

कसाईट संस्कृति का नवीनतम प्रमाण दूसरी शताब्दी के भूगोलवेत्ता टॉलेमी का संदर्भ है , जिन्होंने "कोसैई" को "एलीमियंस" से सटे सूसा क्षेत्र में रहने वाले के रूप में वर्णित किया। यह कई मामलों में से एक का प्रतिनिधित्व कर सकता है जहां टॉलेमी आउट-ऑफ-डेट स्रोतों पर निर्भर थे।

यह माना जाता है किसके द्वारा? ] Kassites के नाम के नाम पर संरक्षित है कि Kashgan नदी , में Lorestan ।

बाबुल का कसाई वंश

इसे भी देखें: अर्ली कैस्साइट शासक

शासकशासनकाल:
लघु कालक्रम )टिप्पणियाँआगम-कक्राइमबाबुल को मर्दुक मूर्ति लौटाता हैबर्नबुरीश मैंसी। 

1500 ईसा पूर्व ( छोटा )असीरिया के पुजुर-अशूर तृतीय के साथ संधिकश्टिलाश तृतीयउलम्बूरीशसी। 1480 ईसा पूर्व ( छोटा )पहले सीलैंड राजवंश पर विजय प्राप्त करता हैअगम तृतीयसी। 1470 ईसा पूर्व ( छोटा )"द सीलैंड" और "दिलमुन में" के खिलाफ संभावित अभियानकर्णदाशसी। 1410 ईसा पूर्व ( छोटा )अश्शूर के अशुर-बेल-निशु के साथ संधिकदशमन-हरबे आइसी। 1400 ईसा पूर्व ( छोटा )सूत के खिलाफ अभियानकुरिगालजु मैंसी। x-1375 ईसा पूर्व ( छोटा )दुर-कुरिगालज़ू के संस्थापक और थुटमोस IV के समकालीनकदशमन-एनल आईसी।

 1374-1360 ईसा पूर्व ( छोटा )मिस्र के अमरना पत्रों के अमेनोफिस III का समकालीनबर्नबुरीश IIसी। 1359-1333 ईसा पूर्व ( लघु )अखेनातेन और अशुर-उदबली I के समकालीनकारा-कठोरसी। 1333 ईसा पूर्व ( छोटा )का पोता अशूर यबैलिट ई की अश्शूरनाजी-बुगाश या शुजीगाशसी। 1333 ईसा पूर्व ( छोटा )Usurper "एक का बेटा"कुरिगालज़ु IIसी। 1332-1308 ईसा पूर्व ( छोटा )बर्नबुरीश II का बेटा, खोया? Sugagi की लड़ाई के साथ Enlil-nirari की अश्शूरनाजी-मारुतशसी। 1307-1282 ईसा पूर्व ( छोटा )अश्शूर के अदद-निरारी I के लिए खोया हुआ इलाकाकदशमन-तगरुसी। 1281-1264 ईसा पूर्व ( छोटा )हित्तियों के हेटुसिली III का समकालीनकदश्मन-एनिल्ल IIसी। 1263-1255 ईसा पूर्व ( लघु )हित्तियों के हेटुसिली III का समकालीनकुदुर-एनिलसी। 1254-1246 ईसा पूर्व ( छोटा )निप्पुर पुनर्जागरण का समयशगरक्ति-शुरीषसी। 1245-1233 ईसा पूर्व ( लघु )"Kudur-Enlil की गैर-पुत्र" के अनुसार टुकलटी निनुर्ता ई की अश्शूरकश्टिलाशू चतुर्थसी। 1232-1225 ईसा पूर्व ( छोटा )द्वारा पद से गिराए टुकलटी निनुर्ता ई की अश्शूरएनिल-नादिन-शुमीसी। 1224 ईसा पूर्व ( छोटा )असीरियन जागीरदार राजाकदशमन-हरबे IIसी। 1223 ईसा पूर्व ( छोटा )असीरियन जागीरदार राजाअदद-शुमा-इदिनासी। 1222-1217 ईसा पूर्व ( छोटा )असीरियन जागीरदार राजाअदद-शुमा-usurसी। 1216-1187 ईसा पूर्व ( लघु )के भेजने वाले अशिष्ट पत्र के लिए assur-nirari और ILI-Hadda , के राजाओं अश्शूरमेली-शिपक IIसी। 1186-1172 ईसा पूर्व ( छोटा )नियर ईस्ट कालक्रम की नींव की पुष्टि करने वाले निनुरता-अपाल-एकूर के साथ पत्राचारमरदुक-अपला-इदिना मैंसी। 1171-1159 ईसा पूर्व ( लघु )ज़बाबा-शुमा-इडिनसी। 1158 ईसा पूर्व ( छोटा )से हार Shutruk-Nahhunte की एलामएनिल्ल-नादिन-अहीसी। 1157-1155 ईसा पूर्व ( लघु )एलाम के कुटीर-नाहिंटी द्वितीय द्वारा पराजित

संस्कृति

सामाजिक जीवन

इस तथ्य के बावजूद कि उनमें से कुछ ने बेबीलोनियन नामों को लिया, कास्साइट्स ने बेबीलोनियों की छोटी परिवार इकाई के विपरीत, अपने पारंपरिक कबीले और जनजातीय संरचना को बनाए रखा। उन्हें अपने जनजातीय घरों के साथ अपने जुड़ाव पर गर्व था, अपने स्वयं के पिता के बजाय, उन्होंने फ्रेटरिअरचल संपत्ति के स्वामित्व और विरासत के अपने रीति-रिवाजों को संरक्षित किया।

कसाईट भाषा

बेबीलोन Kudurru देर Kassite अवधि की मूठ, Kassite राजा के शासनकाल में मर्दुक-nadin-Akhi (सीए 1099-1082 ई.पू.)। बगदाद के पास फ्रांसीसी वनस्पतिशास्त्री आंद्रे माइकक्स ( कैबिनेट डेस मेदिल्स , पेरिस) द्वारा पाया गया

Kassite भाषा है वर्गीकृत नहीं किया गया । 

 हालाँकि, कई कसीटी नेताओं ने इंडो-यूरोपीय नामों को बोर किया , और उनके पास मितानी के समान एक इंडो-यूरोपीय अभिजात वर्ग हो सकता था ।

 शताब्दियों में, काशीवासी बेबीलोन की आबादी में समा गए थे। कसाई वंश के अंतिम राजाओं में आठ का नाम अक्कादियान है, कुदुर-एनलिल का नाम एलामाइट और भाग सुमेरियन और कास्साइट राजकुमारियों का विवाह असीरिया के शाही परिवार में हुआ था ।

492 ईसा पूर्व में ग्रीस पर आक्रमण करने वाली फ़ारसी सेना में हेरोडोटस लगभग निश्चित रूप से कसीस का जिक्र कर रहा था, जब उसने "मिस्र से ऊपर" इथियोपियाई लोगों का वर्णन किया था। 

हेरोडोटस संभवतः एक ऐसे  गणना को दोहरा रहा था जिसने "कुश" (कुश) नाम का उपयोग किया था, या कुछ इसी तरह कासिट्स का वर्णन करने के लिए; "कुश" भी, संयोग से, इथियोपिया के लिए एक नाम था। इथियोपियाई साथ Kassites का एक समान भ्रम ट्रोजन युद्ध के नायक के विभिन्न प्राचीन ग्रीक खातों में स्पष्ट है।

 Memnon , जो कभी-कभी "Kissian" और सूसा के संस्थापक, और इथियोपिया के रूप में दूसरी बार के रूप में वर्णित किया गया था।

 हेरोडोटस के अनुसार, "एशियाई इथियोपियाई" Kissia में नहीं रहते थे, लेकिन उत्तर में, पर "Paricanians" जो बारी में का घेराव किया की सीमा से लगे मेदी। Kassites भौगोलिक रूप से Kushites और Ethiopians से जुड़े नहीं थे, और न ही उन्हें दिखने में समान के रूप में वर्णन करने वाला कोई दस्तावेज़ है, और Kassite भाषा को इथियोपिया या कुश / नूबिया की किसी भी भाषा से पूरी तरह से असंबंधित भाषा के रूप में माना जाता है।

 हालांकि हाल ही में एशिया माइनर के हुरो-उरार्टियन परिवार के लिए एक संभावित संबंध प्रस्तावित किया गया है।

हालाँकि, इसके आनुवांशिक संबद्धता के प्रमाण वर्तमान ग्रंथों की कमी के कारण अल्प हैं।

एनसाइक्लोपीडिया ईरानिका के अनुसार :

Kassite भाषा में एक भी जुड़ा हुआ पाठ नहीं है। Kassite अपीलों की संख्या प्रतिबंधित है (60 से अधिक स्वर, ज्यादातर रंग, रथ के कुछ हिस्सों, सिंचाई की शर्तों, पौधों और शीर्षकों का उल्लेख)। लगभग 200 अतिरिक्त शाब्दिक तत्व अधिक संख्या में एन्थ्रोपोनिम्स, टॉपोनीम्स, एनीम्स और कासिट्स द्वारा उपयोग किए जाने वाले घोड़े के नाम से प्राप्त किए जा सकते हैं (देखें बाल्कन, 1954, पासिम; जारिट्ज़, 1957 सावधानी के साथ उपयोग किया जाना है)। जैसा कि इस सामग्री से स्पष्ट है, कसाईयों ने किसी भी अन्य ज्ञात जीभ के आनुवंशिक संबंध के बिना एक भाषा बोली।

कैसटाइट हिस्ट्री द कास्साइट्स कुछ 
पूर्वी पहाड़ों के प्रवासियों के रूप में प्रारंभिक
बेबीलोन ग्रंथों में छिटपुट रूप से दिखाई देते हैं

अंत में लगभग 1500 ईसा पूर्व में उन्होंने 
मेसोपोटामिया में कई प्रमुख शहरों पर विजय प्राप्त की, 
उस समय बेबीलोन के नियंत्रण में। 
प्राचीन शहर जहां उन्होंने शासन किया या जहां
उनसे संबंधित कुछ भाषाई साक्ष्य हैं, उनमें असुर, बाबुल, उर, एरेच, निप्पुर और विशेष रूप से दुर-कुरीगल्ज़ू का कसीट शहर शामिल है,

जिसमें अल-आधुनिक शहर के पास एक बहुत 
बढ़िया सर्पिल ज़िगगुरैट है।

इराक में रमादी। एलामियों द्वारा नष्ट किए जाने पर 
कास्ति राजा 1155 ईसा पूर्व तक शासन करते रहे। 
इस समय से वे ज़गरोस पहाड़ों पर वापस आ गए हैं 
और वे इतिहास में फ़ारसी सेनाओं में एक आकस्मिक के रूप में दिखाई देते हैं।

कसाई लोग अपने नाम की कई भिन्नताओं से इतिहास 
के लिए जाने जाते हैं। 

प्राचीन यूनानी में, (Kissians) के रूप में उन्हें करने के 
लिए भेजा उदाहरण के लिए इतिहास हेरोडोटस की, जहां वे ज़ैक्सीस, बुक 7/62 की सेना में दिखाई देते हैं। 

एक अन्य पुराना रूप काशस है, और कोसलीन का रूप
टॉलेमिक ग्रंथों में दिखाई देता है।

 प्रारंभिक के-  साथ दिखाई देने वाले सभी नाम कभी-कभी
सदीयों के साथ भी लिखे जाते हैं।

 उनका खुद का नाम गलज़ु था जो अक्कादियन 
(बेबीलोनियन) ग्रंथों में दिखाई देता है।

Kassite Gods-
कई कासाइट देवों  के नाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं में हैं । 

कुछ नामों को संस्कृत में देवताओं के नामों के साथ 
निकट से पहचाना जा सकता है , विशेष रूप से Kassite Suriash (संस्कृत सूर्यास:); मरुतास: (संस्कृत, )
द मार्ट्स); और संभवतः शिमालिया 
(भारत में हिमालय पर्वत)।

 Kassite तूफान देवता Buriash (Uburiash, 
या Burariash) के साथ पहचान की गई है ।

ग्रीक भगवान बोरेअस, उत्तरी हवा के भगवान। 
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार ,
ईश्वर के कुछ 30 नाम ज्ञात हैं, ।

इनमें से अधिकांश शब्द 14 वीं और 13 वीं शताब्दी
ईसा पूर्व के मेसोपोटामियन ग्रंथों में पाए जाते हैं।

बुगाश-(भग ), संभवतः एक देवता
का नाम, यह भी एक शीर्षक के रूप में प्रयोग किया जाता है।

Buriash, Ubriash, या Burariash, 
एक तूफान देवता, (= ग्रीक बोरेअस)

Duniash, एक देवता

Gidar, बेबीलोन अदार करने के लिए इसी

हाला, एक देवी, अदार / Nusku की पत्नी शाला देख

Harbe, सब देवताओं का मंदिर के स्वामी, एक पक्षी 
का प्रतीक , बेल, एनिल्ल या अनु हरदाश से संबंधित
, संभवतः एक भगवान।

______________________________________

हुडा का नाम , जो बेबीलोन के वायुदेव
इंद्रेश का नाम है।

, संभवतः संस्कृत इंद्र

कमुल्ला का, जो बेबीलोनियन
ईश्वर काशू का नाम है, (कासु) एक देवता, जिसका नाम 
पूर्वजन्म है। कसाई राजाओं का।

Maruttash, या Muruttash, (संभवत: वैदिक मरुतास:
Maruts , एक बहुवचन रूप के समान) 

Miriash, एक देवी (पृथ्वी की?), शायद अगले एक
Mirizir, एक देवी, Belet के समान, बेबीलोनियन देवी
बेल्टिस, अर्थात ईशर = शुक्र ग्रह; 8 नुकीले स्टार।

ननई, या नन्ना, संभवतः एक बेबीलोनियन नाम, देवी इश्तार
(वीनस स्टार) के साथ एक शिकारी के रूप में, एक सिंहासन पर एक महिला के रूप में कुदुरुस के रूप में दिखाई दिया।

शाह, एक सूर्य देवता, बेबीलोनियन शमाश के लिए, 
और संभवतः संस्कृत साही के लिए।

शाला, एक देवी, जो जौ के डंठल के प्रतीक हैं, जिसे हल 
शिहू भी कहा जाता है।

, मर्दुक शिमलिया के नामों में से एक
,पहाड़ों की देवी, हिमालय का एक रूप,

सेमल, शुमलिया शिपक, एक चाँद भगवान
शुगाब, अंडरवर्ल्ड के
देवता, बेबीलोनियन नैगर्ल शुगुर के लिए,

बाबुलोन मर्दुक शुमालिया के लिए, पर्च पर एक पक्षी
का प्रतीक देवी, देखें। राजाओं
शुक्मुना के निवेश से जुड़े दो देवता , एक देवता ,
 जो एक पक्षी का प्रतीक है , जो एक राजा थे, 
जो कि दो राजाओं के निवेश से जुड़े थे, जो कि

बाबुलियन शमश के समान थे, और संभवतः
वैदिक यज्ञ के लिए, एक सूर्य देव भी थे, 
लेकिन यह हो सकता है स्टार सिरिअस होना चाहिए, 
जो एक प्रतीक के रूप में एक तीर है, जो एक देवता
तुर्गु है

ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास में इल्या गेर्शेविच ने तर्क दिया है
कि कई नामों में 'अंत' (-) की राख का अर्थ 'पृथ्वी' है,
हालांकि यह बहुत ही सामान्य नाममात्र की विलक्षण है
जो कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं में देखी गई है: PIE -os> संस्कृत-ए, एवेस्टन-ए, ग्रीक -ओस, लैटिन -सु, जर्मनिक -s, स्लाविक--, बाल्टिक -स। 

यह आमतौर पर एक मर्दाना अंत के रूप में समझा जाता है, हालांकि यह लैटिन देवी वीनस और पैक्स के नाम पर होता है। इसके अलावा, यह बहुत कम संभावना है
कि 'पृथ्वी' शब्द का अर्थ बुरीश, स्टॉर्म गॉड, या शुरीश, एक सूर्य देवता के नामों का एक घटक होगा। 
वर्तमान तर्क यह है कि कसाईयों की वास्तविक भाषा एक इंडो-यूरोपियन भाषा नहीं थी, 
हालाँकि उनके देवताओं के नामों पर आधारित थी, 
यह कुछ हद तक असंभव है।

सूचना के स्रोत-
Kassites के बारे में उपलब्ध लगभग सभी जानकारी मूल स्रोतों और छात्रवृत्ति में अंतर्निहित है।
जो अक्कादियन, असीरियन और अन्य सेमिटिक भाषाओं और सुमेरियन भाषा से जुड़ी हैं। 
कसीटी राजाओं के समय के दौरान, आबादी का मुख्य हिस्सा एक सेमिटिक भाषा (बेबीलोनियन) बोलना जारी रखता था, और उचित नामों को छोड़कर, यह कसेट्स के शिलालेखों की भाषा है। 

शिलालेख क्यूनिफॉर्म में लिखे गए हैं। 
[fuggle26]

Kassites ने कुदुरस या सीमा मार्कर पत्थरों के उपयोग की शुरुआत की, जिसमें भूमि अनुदान, शांति संधियों और राजाओं द्वारा उद्घोषणा जैसे कानूनी शिलालेख शामिल हैं। 

छात्र की सूची की अभ्यास सूची सहित अन्य स्रोत। 
छात्रों ने नामों की सूचियां लिखकर अपने शिल्प को सीखा, 
अक्सर छोटी "दाल के आकार" (गोल) मिट्टी की गोलियों पर दोहरी भाषा की सूची होती है जिसे वे हाथ की हथेली में पकड़ सकते हैं

। सौभाग्य से भाषाविदों के लिए, कुछ अभ्यास ग्रंथों में उच्चारण शामिल हैं। पहली सूची जो उन्होंने शुरू की थी, वह आमतौर पर देवताओं के नामों की एक सूची थी। 
कैसाइट देवताओं की एक सूची "व्याख्याता सेमीिटिका" के एक प्रकार में बेबीलोन के देवताओं के बराबर थी। 
उदाहरण के लिए, कसीटी सूर्य देव शाह की पहचान बेबीलोनियन सूर्य देवता शमश (शमेश) के साथ की गई है, जो कि कुछ एकल तत्व के अनुसार संबंधित देवता हैं। 

भारत के यूरोपीय-भाषी लोगों के बीच, केसीट राजाओं ("थियोफोरिक राजा के नाम") के नाम में भी देवताओं के नाम दिखाई देते हैं। बहुत बार कभी-कभी Kassite God को अनुष्ठान के रूप में संदर्भित किया जाता है।
जब राजाओं के निवेश को Shumalia और शुक्मुना को समर्पित मंदिर में जगह लेने के लिए कहा जाता है। 
सभी स्रोतों से, केवल 300 शब्दों के बारे में कस्सी भाषा में जाना जाता है।

संदर्भ
• तुलनात्मक इंडो-यूरोपीय भाषाविज्ञान , रॉबर्ट एसपी बीकेस, जॉन बेंजामिन प्रकाशन कंपनी, फिलाडेल्फिया, 1995.
• इंडो-यूरोपियन और इंडो-यूरोपियन: एक पुनर्निर्माण और ऐतिहासिक विश्लेषण का एक प्रोटो-भाषा और थॉमस वी द्वारा एक प्रोटो-संस्कृति । गेम्क्रिडेज़ और वजेसेस्लाव वी। इवानोव, (भाषा विज्ञान में रुझान: अध्ययन और मोनोग्राफ, 2 वॉल्यूम। सेट), वर्नर विंटर के साथ, एड।, और जोहाना निकोल्स, अनुवादक (मूल शीर्षक Indvvropeiskii iazyk i indoevropeistsy ), एम। डी। ग्रूइटर , बर्लिन। & NY, 1995.
• मेसोपोटामिया, शहर का आविष्कार , ग्वेन्डोलिन लिक, पेंगुइन बुक्स, लंदन, 2001 द्वारा
• इंडो-यूरोपियन देवता और ऋग-वेद, निकोलस कज़ानास, जिज़ वॉल्यूम द्वारा। 29 (2001), नंबर 3-4
• एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका , कम्प्लीट होम लाइब्रेरी सीडी, 2004
• द लूटिंग ऑफ द इराक म्यूजियम, बगदाद , एड। Milbry Polk और एंजेला शूस्टर, हैरी अब्राम इंक पब्लिकेशंस।, न्यूयॉर्क, 2005 द्वारा
• अमर्ना पत्र , transl। विलियम एल। मोरन, जॉन्स हॉपकिंस यूनिवर्सिटी प्रेस, बाल्टीमोर, 1992
• जेरेमी ब्लैक एंड एंथोनी ग्रीन, टेक्सास विश्वविद्यालय, ऑस्टिन, 1992 के द्वारा प्राचीन मेसोपोटामिया के देवता, दानव और प्रतीक ।

कसाईट भाषा

Kassite (अथवान Cassite ) जनजाति द्वारा  बोली जाने वाली एक भाषा थी K !

k।sites में जाग्रोस पहाड़ों की ईरान और दक्षिणी मेसोपोटामिया 4 शताब्दी ई.पू. के लिए लगभग 18 से 16 वीं से 12 वीं शताब्दी ईसा पूर्व तक, केसाइट मूल के राजाओं ने बाबुल में शासन किया जब तक कि उन्हें एलामाइट्स द्वारा उखाड़ फेंका नहीं गया ।

कसाईकोसेनके मूल निवासीबेबीलोनक्षेत्रपूर्व के नजदीकयुग18 वीं- चौथी शताब्दी ई.पू.

भाषा परिवार

अवर्गीकृत ( हुरो-उर्टियन ?)

शब्दावली

मौजूदा क्यूनीफ़ॉर्म ग्रंथों के तीखे वितरण के आधार पर , मूल बेबीलोनियों की सेमिटिक अकाडियन भाषा का उपयोग ज्यादातर केसेट काल के दौरान आर्थिक लेनदेन के लिए किया जाता था,।
 सुमेरियन के लिए स्मारकीय शिलालेखों का उपयोग किया जाता था। 
Kassite भाषा के निशान कुछ हैं:

★-48 प्रविष्टियों के साथ एक कास्साइट-बेबीलोनियन शब्दावली, देव नामों , सामान्य संज्ञाओं, क्रियाओं और विशेषण (ओं) के द्विभाषी समकक्षों को सूचीबद्ध करता है ,
जैसे कि dakaš "संस्कृत द्योस् संस्टार", हैसमार "बाज़", iašu "देश", जान्जी "राजा", mašḫu "देवता", मिरियाज़ " निदर वर्ल्ड", सिम्बार "यंग", और हिमिदी "देने के लिए"; 

नव-असीरियन युग नाम सूची के चौथे स्तंभ पर 19 कास्साइट व्यक्तिगत नामों का अनुवाद, जो कभी-कभी कसाइट-बेबीलोनियन शब्दावली में दी गई जानकारी का खंडन करता है); [२]

4-टैबलेट बेबीलोनियन फार्माकोपिया, uru.an.na = maštakal , जैसे ḫašimbur , kuruš , pirizaḫ और šagabigalzu के रूप में शामिल पादप नामों के उदाहरणों के लिए, अक्कादियान लेक्सिकल सूचियों में बिखरे हुए संदर्भ , दिव्य नामों, पौधों आदि के Kassite समकक्षों के लिए । 8-टैबलेट पर्याय सूची Malku = šarru , जैसे कि आलक "रिम" (एक पहिया), और erameru "पैर" की शर्तें ;

की एक किस्म में कई वास्तविक नामों अकाडिनी भाषा दस्तावेजों, मुख्य बेबीलोनिया से (अवधि 1360-850 ईसा पूर्व में विशेष रूप से), से Nuzi और ईरान से; देवताओं, लोगों, स्थानों और समानों के नाम देना;

पशुपालन से संबंधित तकनीकी शब्द, जिसमें घोड़े और गधे के रंग और पदनाम शामिल हैं, अक्कादियन दस्तावेजों में पाए जाते हैं, जैसे कि केसेइट घोड़े के नामों की सूची, सांबियारुक , जिसका अर्थ अज्ञात है, [3] और अल्लीबादर , ḫulalam , lagaštakkaš , pirmaḫ , šimriš , और timiraš , रंग और समीकरणों के अंकन पदनाम; iškamdi , एक घोड़े के लिए "बिट"; akkandaš , एक पहिया के "बात"; kam ksaš और šaḫumaš रथ के कांस्य भागों के लिए, समकालीन ग्रंथों में;

बिखरे हुए Kassite शब्द, जैसे शीर्षक Bugaš ; dardara "," लघु धातु आभूषण "; और bazi anarzi , एक चमड़े की वस्तु, एक अक्कादियन संदर्भ में।

Kassite ग्रंथों की कमी वर्तमान में Kassite व्याकरण के पुनर्निर्माण को असंभव बना देती है।

कसीट भाषा के आनुवंशिक संबंध अस्पष्ट हैं, हालांकि आमतौर पर यह सहमति है कि यह सेमेटिक नहीं था ; एलामाइट के साथ एक रिश्ता संदिग्ध है।

हुरो-उर्टियन परिवार के साथ संबंध या सदस्यता का सुझाव दिया गया है, [4] कई शब्दों के आधार पर। यह स्पष्ट नहीं है कि केसरो हूरो-उरार्टियन फिलाम में एक अलग भाषा थी, या हुरियन की केवल एक दक्षिणी बोली। यदि यह पूर्व की बजाय उत्तरार्द्ध था, तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कसाई केवल खुराइटों की एक जनजाति थी जो उत्तर से दक्षिण में विस्तारित हुई और मेसोपोटामिया में बस गई। दूसरी ओर, यदि केसेट उत्तरार्द्ध के बजाय पूर्व है, तो इससे पता चलता है कि हुरो-उर्टियन एक बड़ा भाषा समूह था और ऐतिहासिक विशेषज्ञों की तुलना में इस क्षेत्र के लिए अधिक महत्वपूर्ण था, और शायद पहले से कहीं अधिक लोगों द्वारा बोली गई थी। ।

Morphemes ज्ञात नहीं हैं; शब्द Buri (शासक) और Burna (सुरक्षित) शायद एक ही रूट की है। उद्धरण वांछित ]

टिप्पणियाँसंपादित करें

थियोफिलस जी पिंच (1917)। "कसाइयों की भाषा"। रॉयल एशियाटिक सोसाइटी का जर्नल : 102-105। JSTOR  25189508 ।पर Archiv गोली बी.एम. 93,005।

^ टेबलेट के। 4426 + आरएम 617 (II आर 65, नंबर 2; वीआर 44, बाल्कन में इलाज, कैसिटेनस्टुडियन , पीपी। 1-3)।

^ टैबलेट सीबीएस 12617।

^ श्नाइडर, थॉमस (2003)। "कैसटिसिच अंड हूरो-उरार्टिश्च। इइन डिस्कोसबीसिट्राग ज़ू मोगलिचेन लेक्सीकलिसचेन इसोग्लोसन" । Altorientalische Forschungen (जर्मन में) (30): 372-381।



  

"व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्-यन्ते अर्थवत्तया प्रतिपाद्-यन्ते शब्दा येन इति व्याकरणम् 

"जिसके द्वारा अर्थवत्ता के साथ शब्दों की व्युत्पत्ति ( जन्म) प्रतिपादन किया जाता है वह व्याकरण है ।

वि +आ+कृ-करणे + ल्युट् (अन्) = व्याकरणम् ।

_______________________________________

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। 

उसने  अपने विचार ,भावनाओं एवं अनुभुतियों को अभिव्यक्त करने के लिए जिन माध्यमों को  चुना वही भाषा हैं । 

मनुष्य कभी शब्दों से तो कभी संकेतों द्वारा संप्रेषणीयता (Communication) का कार्य सदीयों से करता रहा है। अर्थात् अपने मन के मन्तव्य को दूसरों तक पहुँचाता रहा है । 

किन्तु भाषा उसे ही कहते हैं ,जो बोली और सुनी जाती हो,और बोलने का तात्पर्य मूक मनुष्यों या पशु -पक्षियों का नही ,अपितु बोल सकने वाले मनुष्यों से ही लिया जाता है।

इस प्रकार -"भाषा वह साधन है" जिसके माध्यम से हम अपने विचारों को वाणी का स्वरूप देते हुए आवश्यकता मूलक व्यवहार को साधित करते हैं ।

वस्तुत: यह भाषा हृदय के भाव और मन के विचार दोनों को अभिव्यक्त करने का केवल जैविक साधन है । भाषा की पूर्ण इकाई वाक्य  है अथवा शब्द यह भी विचारणीय है परन्तु निष्कर्ष तो यही निकलता है  कि वाक्य ही भाषा कि समग्र इकाई हैं । वाक्य एक शब्द का भी हो सकता है  और अनेक पदों का भी हो सकता है शिशुओं की भाषा के शब्द भी एक समग्र वाक्य का ही भाव व्यक्त करते हैं । जैसे शिशु जब पा- अथवा माँ कहता है तो इन ध्वनि अनुकरण मूलक शब्दों के उच्चारण से भी प्यास  और भूख जैसे भावों का बोध होता है । भाषा रूपी संसार में शब्द पदों के रूप में परिबद्ध होकर वाक्य रूप में पारिवारिक होकर क्रियाओं के साथ दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करते हैं  शब्द और अर्थ की सत्ता शरीर और आत्मा के सदृश ही है इसी लिए मानव शरीर में श्रवणेन्द्रिय(कान )और चक्ष्वेन्द्रिय (आँख) की स्थिति उच्च व अपनी शक्ति के रूप में आनुपातिक है वाणी मानवीय चेतना के विकास का प्रत्यक्ष प्रतिमान व सामाजिक प्रतिष्ठा का भी प्रतिमान है । प्राचीन विद्वानों ने वाणी के विषय में उद्गार उत्पन्न किये हैं ★ 👇

______

इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथावाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते।१.३।इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथा

अर्थ-★ इस संंसार मेंं शिष्ट और अतिशिष्टों सब की सब।प्रकार सेे लोक यात्रा वाणी के प्रसाद( कृपा) से ही होती है।।                                   ( काव्यादर्श १/३-४)

इदमन्धन्तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम्यदि शब्दाहवयं ज्योतिरासंसारन्न दीप्यते।।१.४

 अर्थ-★-  इस सम्पूर्ण जगत  तीनों  मेें  अन्धकार ही उत्पन्न होता ; यदि हम सब संसार में शब्दों की ज्योति से प्रकाशित न होते। १.४ ।                             

_________________________________________

मनुष्य अपने भावों तथा विचारों को प्राय:तीन प्रकार से ही प्रकट करता है-

 १-बोलकर (मौखिक ) २-लिखकर (लिखित) तथा ३-संकेत  (इशारों )के द्वारा सांकेतिक रूप में। 

________  

 .१-मौखिक भाषा :- मौखिक भाषा में मनुष्य अपने विचारों या  हृदय के भावों को मुख से बोलकर अथवा उच्चारणमयी विधि से प्रकट करते है।

 मौखिक भाषा का प्रयोग तभी होता है,जब श्रोता और वक्ता आमने-सामने हों।

 इस माध्यम का प्रयोग प्राय: फ़िल्म,नाटक,संवाद एवं भाषण आदि के रूप में अधिक सम्यक् रूप से होता है ।

 २-.लिखित भाषा:-भाषा के लिखित रूप में लिखकर या पढ़कर विचारों एवं हृदय-भावों का आदान-प्रदान किया जाता है। वस्ततु: भावों का सम्बन्ध हृदय से है जो केवल प्रदर्शित ही किये जाते हैैं; जबकि विचार आयात और निर्यात भी किये जाते हैं ।लिखकर अथवा मौखिक रूप से ; लिखित रूप भाषा का स्थायी माध्यम होता है।

पुस्तकें इसी माध्यम में भाषा लिखी जाती है।

 ३.सांकेतिक भाषा :- सांकेतिक भाषा यद्यपि भावार्थ वा विचारों की अभिव्यक्ति का स्पष्ट माध्यम तो नहीं है ; 

परन्तु यह भाषा का आदि -प्रारूप अवश्य है । 

स्थूल भाव अभिव्यक्ति के लिए इसका प्रयोग अवश्य ही सम्यक् (पूर्ण) होता है यह प्रथम जैविक भाषा है जिससे चित्रलिपि का विधान हुआ ।

________________________________________ 

भाषा और बोली (Language and Dialect) 

♣•भाषा:-(Language)

 भाषा के किसी क्षेत्रीय रूप को बोली कहते है।

 कोई भी बोली विकसित होकर साहित्य की भाषा बन जाती है। 

जब कोई भाषा परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन होती है,तो उसके साथ ही लोकभाषा या विभाषा की उपस्थिति भी अनिवार्य होती है ; और

 कालान्तरण में ,यही लोकभाषा  भी फिर परिनिष्ठित एवं उन्नत होकर साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण कर लेती है।

जिसमें व्याकरण भाषा का अनुशासक बनकर उसे एक स्थायित्व प्रदान करता है ।

👇—दूसरे शब्दों में भाषा और बोली को क्रमश: प्रकाश और चमक के अन्तर से भी जान सकते हैं । अथवा सामाजिक रूप में औषधि विक्रेता से चिकित्सक तक का विकास बेलदार से चिनाई मिस्त्री तक का विकास।

भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है । 

"भाषा हमारे सभा या समितीय विचार-विमर्शण की संवादीय अभिव्यक्ति है" ।

♣•-बोली:-Patios-

जबकि बोली उपभाषा के रूप में हमारे दैनिक गृह-सम्बन्धी आवश्यकता मूलक व्यवहारों की सम्पादिका है।

जो व्याकरण के नियमों में परिबद्ध नहीं होती है । 

यूरोपीय-भाषावैज्ञानिकों ने बोली के लिए स्पैनिश शब्द( patio)  का प्रयोग किया। यह शब्द स्पैनिश मूल का है  (patio) शब्द का स्पेनिश में प्रारम्भिक अर्थ आँगन' था और माना जाता है कि पुराने शब्द पाटी(pati) (या patu-पटु) का अर्थ चारागाह था |

  - एक घर के पीछे की भूमि जहाँ जानवरों को रात में सुरक्षित रखने के लिए पेटीज (आँगन) का इस्तेमाल किया गया था और आधुनिक समाज के विकसित होने के साथ-साथ एक बाहरी रहने वाले कमरे के रूप में इस शब्द का  परम्परागत रूप से इस्तेमाल किया जाने लगा।  यह निश्चित रूप से, बगीचे के प्रांगण के लिए पारम्परिक रूप भूमध्यसागरीय देशों में  प्रयोग में था।

आधुनिक अंग्रेजी और अमेरिकी उद्यानों में 'आँगन' घर के पास एक पक्का क्षेत्र है, जिसका उपयोग बाहरी बैठने और खाने के लिए  भी किया जाता है उसके लिए भी प्रयोग हुआ । जिसमें एक या दो तरफ को इमारत हो सकती है, लेकिन पारंपरिक स्पैनिश आंगन की तरह एक आंतरिक आंगन होने की संभावना नहीं है। इसी से हिन्दी में (पट्टा) खेत के चमड़े या बानात आदि की बद्धी जो कुत्तों, बिल्लियों के गले में पहनाई जाती है का मूल भी यही है ।

संस्कृत में  पट्ट =(पट्+क्त) नेट् ट वा तस्य नेत्त्वम् का अर्थ नगर  चतुष्पथ या चौराहे को भी कहा गया और भूम्यादिकरग्रहणलेख्यपत्र (पाट्टा) को भी  

 वह भूमि संबंधी अधिकारपत्र जो भूमिस्वामी की ओर से असामी को दिया जाता है और जिसमें वे सब शर्तें लिखी होती हैं जिनपर वह अपनी जमीन उसे देता है। 

वस्तुत: पशुचर-भूमि को पाश्चर (pature) कहा गया जो (patio) शब्द से विकसित हुआ। और पाश में बँधे हुए जानवर को ही पशु कहा गया और पाश शब्द ही अन्‍य रूपान्तरण (पाग) पगाह रूप  में  हिन्दी में आया  और अंग्रेज़ी में इसके समानार्थक (pag) भी है जिसका अर्थ भी बाँधना है ।

 

वस्तुत: (पेशियों- (patios) गृह, ग्राम,व स्थानीय समाज मे बोली जाने वाली भाषा होती है । भाषा के स्थानीय और प्रान्तीय भेदों के अतिरिक्त ऐसे भेद भी  होते हैं जो एक ही स्थान पर रहने पर भी मनुष्य के भिन्न भिन्न समूहों और वर्गों में पाये जाते हैं। 

उसके लिए भी भाषा शब्द का प्रयोग होता है । एक ही स्थान पर रहने वाले अनेक वर्गों में कुछ अपनी जातिगत और वर्ग गत विशेषताऐं होती हैं जैसे एक ही शहर में रहने वाले  मुसलमान अब्बासी( शाकी) तथा पठान में या ब्राह्मण, कायस्थ और पाशी आदि में अपनी एक बोली होती जो उनके वंशानुगत भाषिक तत्त्वों को आत्मसात् किये होती है । 

इसी बोली की उच्चारण शैली पृथक पृथक होती है । तथा कुछ लोकगीत और (तकियाकलामनुमा) शब्द भी पीढी दर पीढ़ी  भाषाओं के साथ  होते हैं ।

परन्तु इतना  सब होते हुए भी एक समाज या वर्ग दूसरे वर्ग की बातों को यथावत् समझ लेता है । वस्तुत: बोली से तात्पर्य एक निश्चित सीमा के अन्तर्गत बोली जाने वाली भाषा से ही है ।

आज जो हिन्दी हम बोलते हैं या लिखते हैं ,वह कभी  खड़ी बोली अथवा उपभाषा  थी।, इसके पूर्व रूप ,"शौरसेनी प्राकृत"अथवा 'ब्रज' 'प्राकृत' 'अवधी'और मैथिली' आदि थे ये बोलियाँ भी  कालान्तरण में परिमार्जित होकर साहित्यिक भाषा के पद पर आसीन हो जाती हैं। 

विभाषा(Dialect)

विभाषा का क्षेत्रबोली की अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत होता है  विभाषा का रूप परिमार्जित, शिष्ट , एवं साहित्य सम्पन्न होता है एक एक विभाषा के अन्तर्गत अनेक बोलियाँ होती हैं जोकि उच्चारण, व्याकरण और शब्द -प्रयोगों की दृष्टि से भिन्न होने पर भी एक ही उपभाषा के अन्तर्गत समाहित कर ली जाती हैं। किन्तु विभाषा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। जैसे व्रज विभाषा की बोली डिंगल पिंगल और खड़ीबोली आदि हैं इस विभाषा गत भिन्नता की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। बोली यहा

 ही समय पाकर कभी कभी विभाषा तथा साहित्यिकभाषा तक का पद प्राप्त कर लेती हैं ।

'डिंगल' राजपूताने की वह राजस्थानी भाषा की शैली जिसमें भाट और चारण काव्य और वंशावली आदि लिखते चले आते हैं यह पश्चिमी राजस्थान मेें प्रसारित  हुई।

पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म भी पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था भरत पुर के आसपास
इस भाषा में चारण परम्परा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।

उद्भव डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी।
डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया।
उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
'पिंगल'  शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से  रहा है।
सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है।
इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा।
यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया।
गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में "भाषा पिंगल दी " कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।

'पिंगल' और 'डिंगल' दोनों ही शैलियों के नाम हैं, भाषाओं के नहीं।
'डिंगल' इससे कुछ भिन्न भाषा-शैली थी।
यह भी चारणों  में ही विकसित हो रही थी।
इसका आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती है। 'पिंगल' संभवतः 'डिंगल' की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी
और इस पर 'ब्रजभाषा' का अधिक प्रभाव था।
इस शैली को 'अवहट्ठ' और 'राजस्थानी' के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है।

डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है इसका अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वि राजस्थानी का साहित्यिक रूप है।
और इसका अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है।

♣•-हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ :-

संसार में अनेक भाषाएँ बोली जाती है।

जैसे -अंग्रेजी,रूसी,जापानी,चीनी,अरबी,हिन्दी ,उर्दू आदि। हमारे भारत में भी अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं ।

जैसे -बंगला,गुजराती,मराठी,उड़िया ,तमिल,तेलगु मलयालम आदि। हिन्दी अब भारत में सबसे अधिक बोली और समझी जाने वाली भाषा है। हिन्दी भाषा को भारतीय-संविधान में राजभाषा का दर्जा भी दिया गया है। _________________________________________

लिपि (Script):- लिपि का शाब्दिक अर्थ होता है - लेपन या लीपना पोतना आदि अर्थात् जिस प्रकार चित्रों को बनाने के लिए उनको लीप-पोत कर सम्यक् रूप दिया जाता है लैटिन से "scribere=लिखना" से 'Script' शब्द का विकास हुआ है।

लिपि के द्वारा विचारों को साकार रूप से लिपिबद्ध कर भाषायी रूप  दिया जाता है। 

लिपि का अर्थ- लिखित या चित्रित करना ।

ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है,वही लिपि कहलाती हैं।

प्रत्येक भाषा की अपनी -अलग लिपि होती है।

हिन्दी और संस्कृत की लिपि देवनागरी है।

 हिन्दी के अलावा - मराठी,कोंकणी,नेपाली आदि भाषाएँ भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है।

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"व्याकरण" ( Grammar)

 •व्याकरण ( Grammar):- व्याकरण वह विधा है; जिसके द्वारा किसी भाषा का शुद्ध बोलना , लिखना व पढ़ना जाना जाता है।

व्याकरण भाषा की व्यवस्था को बनाये रखने का काम करता है। यह  नदी रूपी भाषा के किनारे के समान उसे नियमों में बाँधे रहता है ।  व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं अशुद्ध प्रयोगों पर ध्यान देकर उसे शुद्धता प्रदान करता है। इस प्रकार ,हम कह सकते है कि प्रत्येक भाषा के अपने नियम होते है,उस भाषा का  नियम शास्त्र ही व्याकरण हैं जो भाषा को शुद्ध लिखना व बोलना सिखाता है।

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व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-

 यह  व्याकरण भाषा के नियमों का विवेचन शास्त्र है । 

 इस व्याकरण के तीन मुख्य विभाग होते है :-

 १.वर्ण -विचार( Orthography) :- इसमे वर्णों के उच्चारण ,रूप ,आकार,भेद,आदि के सम्बन्ध में अध्ययन होता है।  

___________________________________  

वर्ण -विचार.-Orthography-👇

व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग 4000 हजार सूत्रों में लिपिबद्ध किया है। 

परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण नहीं है।

इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। परन्तु कदाचित् सन्धि विधान के निमित्त पाणिनि मुनि ने माहेश्वर सूत्रों की संरचना की है ।
यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल )भी न होते  ! क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण स्वर ही हैं।
इनकी संरचना व व्युत्पत्ति के विषय में नीचे विश्लेषण है 
________________________________________
पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या( 14) है ;
जो निम्नलिखित हैं: 👇
__________________________________________
१. अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।

उपर्युक्त्त (14 )सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार के क्रम से समायोजित किया गया है। पहले दो सूत्रों में मूलस्वर। फिर परवर्ती दोसूत्रों में सन्धि-स्वर फिर अन्त:स्थ वस्तुत: ये अर्द्ध स्वर हैैं तत्पश्चात अनुनासिक वर्ण हैं जो ।अनुस्वार रूपान्तरण हैं  अनुस्वार "म" तथा न " का ही स्वरूप हैै। अत: बहुतायत वर्ण स्वर युुु्क्त ही हैं ।

पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक वर्ण) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं।

____  

♣•स्वर और व्यञ्जन का मौलिक अन्तर- 

______

स्वर और व्यञ्जन का मौलिक भेद उसकी दूरस्थ श्रवणीयता है स्वर में यह दूरस्थ श्रवणीयता अधिक होती है व्यञ्जन की अपेक्षा स्वर दूर तक सुनाई देता है । दूसरा मौलिक अन्तर स्वर में नाद प्रवाहिता अधिक होती है।

स्वर का आकार उच्चारण समय पर अवलम्बित है तथा इनके उच्चारण में जिह्वा के और अन्तोमुखीय अंगों का परस्पर स्पर्श और घर्षण भी  नहीं होता है । जबकि व्यञ्जनों के उच्चारण में न्यूनाधिक अन्तोमुखीय अंगों को घर्षण करते हुए भी निकलती है जिसके आधार पर उन व्यञ्जनों को  अल्पप्राण और महाप्राण नाम दिया जाता है । स्वर तन्त्रीयों में उत्पन्न नाद को ही स्वर माना जाता है  स्वर सभी ही नाद अथवा घोष होते हैं। जबकि व्यञ्जनों में कुछ ही नाद यक्त। होते हैं जिनमें स्वर का अनुपात अधिक होता है । कुछ व्यञ्जन प्राण अथवा श्वास से उत्पन्न होते हैं । 

"स्वर की परम्परागत परिभाषा- स्वतो राजन्ते  भासन्ते इति स्वरा: " जो स्वयं प्रकाशित होता है।स्वतन्त्र रूप से उच्चरित ध्वनि स्वर है; जिसको उच्चारण करने में किसी की सहायता नहीं ली जाती है । परन्तु स्वर की वास्तविक परिभाषा यही है कि स्वर वह है जिसके उच्चारण काल में श्वास कहीं कोई अवरोध न हो और व्यञ्जन वह ध्वनि है जिसके उच्चारण काल में कहीं न कहीं अवरोध अवश्य हो।जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन।कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी  स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+  त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात्  स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।

_______   

जैसे- मत्स्य ।वात्स्यायन।कार्त्स्न्य। आदि शब्दों में यद्यपि परम्परागत स्वर इन होते हुए भी  स्पष्ट उच्चारण सम्भव है । म+  त् +स् +य ।वा+त्+स्+यायन। ।का+र+त्+स्+न्+य। अर्थात्  स्वर वे हैं जिनके उच्चारण में ध्वनि मुख के अन्दर किसी भाग में न ठहरकर सरलता से बाहर निकलती है। और व्यञ्जन वे हैं जिनके उच्चारण में श्वास और नादयुक्त अथवा गुञ्जायमान) ध्वनियाँ अन्तोमुखीय उच्चारण अवयवों को स्पर्श करते हुए रुक रुक कर बाहर निकलती हैं ।

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माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं।
प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे  दर्शाया गया है।
इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है।
प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र  अन्त:स्थ  व व्यञ्जन  वर्णों की गणना की गयी है।
संक्षेप में स्वर वर्णों को अच्  अन्त:स्थ एवं  व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है।

अच् एवं हल् भी प्रत्याहार ही हैं।
प्रत्याहार की अवधारणा :---

प्रत्याह्रियन्ते संक्षिप्य गृह्यन्ते वर्णां अनेन (प्रति + आ + हृ--करणे + घञ् प्रत्यय )-जिसके द्वारा संक्षिप्त करके वर्णों  को ग्रहण किया जाता है ।
 प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन।
अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।

यह अच् प्रत्याहार अपने आदि वर्ण ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी  वर्णो का बोध कराता है।
अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि वर्ण 'ह' को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम वर्ण (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है।
फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण
(ण् क्  च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है अत: ये गिनेे नहीं जाऐंगे।
इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है |
अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
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अ'इ'उ ऋ'लृ मूल स्वर । 
ए ,ओ ,ऐ,औ ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ है ।
जैसे क्रमश: अ+ इ = ए  तथा अ + उ = ओ संयुक्त स्वरों के रूप में  गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं ।👇

। अ इ उ । ये मूल स्वर भी मूल स्वर "अ" ह्रस्व से विकसित इ और उ स्वर हैं ।  और ये परवर्ती इ तथा उ स्वर भी केवल

'अ' स्वर के उदात्तगुणी ( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' ।
तथाअनुदात्तगुणी (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं ।

और मूल स्वरों में अन्तिम दो 'ऋ तथा 'ऌ स्वर न होकर क्रमश "पार्श्वविक" (Lateral)तथा "आलोडित अथवा उच्छलित ( bouncing  )" रूप हैं ।

जो उच्चारण की दृष्टि से  क्रमश: मूर्धन्य तथा वर्त्स्य  ( दन्तमूलीय रूप ) हैं ।
अब "ह" वर्ण  का विकास  भी इसी ह्रस्व 'अ' से महाप्राण के रूप में हुआ है ।
जिसका उच्चारण स्थान  काकल है ।👉👆👇

★ कवर्ग-क'ख'ग'घ'ड॒॰। से चवर्ग- च'छ'ज'झ'ञ का विकास जिस प्रकार ऊष्मीय करण व तालु घर्षण  के द्वारा हुआ।   फिर तवर्ग से शीत जलवायु के प्रभाव से टवर्ग का विकास हुआ ।  परन्तु  चवर्ग के "ज'  स का धर्मी तो ख' ष' मूर्धन्य का धर्मी है और 'क वर्ण का  त'वर्ण में जैसे वैदिक स्कम्भ का स्तम्भ  और अनुनासिक न' का ल' मे परिवर्तन है । जैसे ताता-दादा- चाचा-काका एक ही शब्द के चार विकसित रूपान्तरण हैं ।

इ हुआ स प्रकार मूलत: ध्वनियों के प्रतीक तो (28)ही हैं 
परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतु:षष्टी  ध्वनि वर्णों की रचना दर्शायी है । जो इन्हीं का विकसित रूप  है ।

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स्वर- मूल केवल पाँच हैं- (अइउऋऌ) ( प्रत्येक स्वर के उदात्त (ऊर्ध्वगामी) अनुदात्त( निम्न गामी) तथा स्वरित( मध्य गामी) फिर इन्हीं के अनुनासिक व निरानुनासिक रूप इस प्रकार से प्रत्येक  ह्रस्व स्वर के पाँच रूप हुए )
इस प्रकार कुल योग (25) हुआ ।
क्यों कि मूल स्वर पाँच ही हैं । 5×5=25
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और पच्चीस स्पर्श व्यञ्जन
१-कवर्ग । २-चवर्ग  । ३-टवर्ग ।४-तवर्ग ।५- पवर्ग। = 25।
तेरह  (13) स्फुट वर्ण ( आ' ई 'ऊ' ऋृ'  लृ )  (ए' ऐ 'ओ 'औ )
( य व र ल)  (  चन्द्रविन्दु ँ )
अनुस्वार ( —ं-- )तथा विसर्ग( :) अनुसासिक और महाप्राण ('ह' )के रूप होने से पृथक रूप से गणनीय नहीं हैं ।

पाणिनीय शिक्षा में कहा कि ---त्रिषष्टि चतु: षष्टीर्वा  वर्णा शम्भुमते मता: ।

निस्सन्देह "काकल"  कण्ठ का ही पार्श्ववर्ती भाग है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक व सजातिय बन्धु हैं।
जैसा कि संस्कृत व्याकरण में कहा भी गया है  ।
(अ 'कु 'ह विसर्जनीयीनांकण्ठा: )
अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।

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अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण का ही विकसित रूप है । अ-<हहहहह.... ।
अतः "ह" भी मौलिक नहीं है। इसका विकास भी "अ" स्वर से हुआ ।
अत: हम इस "ह" वर्ण को भी मौलिक वर्णमाला में समावेशित नहीं करते हैं।________________________________________
य, व, र ,ल , ये अन्त:स्थ वर्ण हैं ; स्वर और व्यञ्जनों के मध्य में होने से ये अन्त:स्थ हैं।
क्यों कि अन्त: का अर्थ  मध्य ( Inter) और स्थ का अर्थ-- स्थित रहने वाला ।ये अन्त:स्थ वर्ण हैं
ये  अन्तस्थ वर्ण क्रमश: गुण सन्ध्यक्षर  या स्वरों के विरीत संरचना वाले हैं । 👇
जैसे :-  इ+अ = य   अ+इ =ए
            उ+अ = व  अ+उ= ओ
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स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का ही प्रतिनिधित्व करते  हैं ।

स्पर्श व्यञ्जनों के सभी अनुनासिक (ञ'म'ङ'ण'न) अपने अपने वर्ग के अनुस्वार अथवा नकार वर्ण का प्रतिनिधित्व करते  हैं ।

५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्।
८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११.
खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३.
शषसर्।  १४. हल्।

उष्म वर्ण श, ष, स, वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः अंग्रेज़ी में (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं क्यों कि वहाँ यूरोप की शीतप्रधान जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त- सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की  उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वाय्वीय ही है जो भारतीय जलवायु का गुण है । उष्म  (श, ष, स,) वर्ण क्रमश: चवर्ग , टवर्ग और चवर्ग के सकार का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः "श्" वर्ण  के लिए  (Sh) तथा "ष्" वर्ण के  (SA) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं ।

तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर यूरोपीय भाषा अंग्रेजी में पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।

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जैसे पश्च । पृष्ठ ।पस्त परास्त ।
यहाँ क्रमश चवर्ग के साथ तालव्य श उष्म वर्ण है ।
टवर्ग के साथ मूर्धन्य ष उष्म वर्ण है ।
तथा तवर्ग के साथ दन्त्य स उष्म वर्ण है ।
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यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: अंग्रेजी आदि में जो रोमन लिपि में है ;वहाँ तवर्ग का अभाव है ।
अतः (त थ द ध ) तथा (स) वर्णो को नहीं लिख सकते हैं ।

केवल टवर्ग( टठडढण) से काम चलता है
क्यों कि वहाँ की शीत जलवायु के कारण जिह्वा का रक्त सञ्चरण (गति) मन्द रहती है । और तवर्ग की की उच्चारण तासीर ( प्रभाव ) सम शीतोष्ण जल- वायवीय है ।
अतः "श्" वर्ण  के लिए  (Sh) तथा "ष्" वर्ण के ( S) वर्ण रूपान्तरित हो सकते हैं । तवर्ग तथा "स" वर्ण शुद्धता की कषौटी पर पूर्णत: निषिद्ध व अमान्य ही  हैं ।
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अब पाणिनि माहेश्वर सूत्रों में दो 'ह'  वर्ण होने का तात्पर्य है कि एक "ह" वर्ण केवल हलों के विभाजन के लिए है ।
इस प्रकार वर्ण जो ध्वनि अंकन के रूप में हैं । वे
मौलिक रूप में केवल (28) वर्ण हैं ।
जो ध्वनि के मूल रूप के द्योतक हैं ।

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स्वरयन्त्रामुखी:-  "ह" वर्ण है ।
"ह" ध्वनि महाप्राण है इसका विकास "अ" स्वर से हुआ है ।जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का विकास होता है ।
जैसे धड़कन (स्पन्दन) से श्वाँस का अन्योन्य सम्बन्ध है उसी प्रकार "अ" और "ह"  वर्ण हैं।
"ह" वर्ण का उच्चारण स्थान काकल है ।
काकल :--- गले में सामने की ओर निकल हुई हड्डी । कौआ । घण्टी । टेंटुवा आदि नाम इसके साधारण भाषा में हैं। शब्द कोशों में इसका अर्थ :- १. काला कौआ । २. कंठ की मणि या गले की मणि  जहाँ से "ह" का उच्चारण होता है ।

उच्चारण की प्रक्रिया के आधार पर व्यञ्जनों का  वर्गीकरण--👇

उच्चारण की प्रक्रिया या प्रयत्न के परिणाम-स्वरूप उत्पन्न व्यञ्जनों का वर्गीकरण इस प्रकार है-

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स्पर्श : उच्चारण अवयवों के स्पर्श करने तथा सहसा उनके खुलने पर जिन ध्वनियों का उच्चारण होता है उन्हें स्पर्श कहा जाता है।
विशेषत: जिह्वा का अग्र भाग जब मुख के आन्तरिक भागों का स्पपर्श  करता है ।
(क, ख, ग, घ, ट, ठ, ड, ढ, त, थ, द, ध, प, फ, ब, भ) और अरबी प्रभाव से युक्त क़ (Qu) ये सभी ध्वनियाँ स्पर्श हैं।

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(च, छ, ज, झ) को पहले 'स्पर्श-संघर्षी' नाम दिया जाता था ; लेकिन अब सरलता और संक्षिप्तता को ध्यान में रखते हुए इन्हें भी स्पर्श व्यञ्जनों के वर्ग में समायोजित कर लिया गया है।

इनके उच्चारण में उच्चारण अवयव सहसा खुलने के बजाए धीरे-धीरे खुलते हैं।

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मौखिक(Oral) व नासिक्य(Nasal) :- व्यञ्जनों के दूसरे वर्ग में मौखिक व नासिक्य ध्वनियाँ आती हैं।
हिन्दी में( ङ, ञ, ण, न, म)  व्यञ्जन नासिक्य हैं। इनके उच्चारण में श्वासवायु नासिका से होकर निकलती है, जिससे ध्वनि का नासिकीकरण होता है। इन्हें 'पञ्चमाक्षर'  व अनुनासिक भी कहा जाता है।
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इनके स्थान पर हिन्दी में अनुस्वार का प्रयोग सुविधजनक माना जाता है।
वस्तुत: ये सभीे प्रत्येक वर्ग के  पञ्चम् वर्ण "न" अथवा "म" के ही रूपान्तरण मात्र हैं ।
परन्तु सभी केवल  स्ववर्गीय वर्णों के सानिध्य में आकर "" वर्ण का रूप प्रकट करते हैं ।

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जैसे :- 
कवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
अड्•क, सड्•ख्या ,अड्•ग , लड्•घन ।
चवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
चञ्चल, पञ्छी ,पिञ्जल अञ्झा ।
टवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
कण्टक,  कण्ठ, अण्ड ,. पुण्ढीर ।
तवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
तन्तु , पन्थ ,सन्दीपन,  अन्ध ।
पवर्ग के अनुरूप अनुनासिक:-
पम्प , गुम्फन , अम्बा,  दम्भ ।
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इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन मौखिक हैं। 

उष्म वर्ण - उष्म व्यञ्जन: उष्म का अर्थ होता है- "गर्म" जिन वर्णो के उच्चारण के समय वायु मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर और श्वाँस में गर्मी पैदा कर , ध्वनि समन्वित होकर बाहर निकलती उन्हें ही उष्म व्यञ्जन कहते है।  

इन व्यंजनों को छोड़कर अन्य सभी व्यञ्जन केवल मौखिक हैं।

वस्तुत इन उष्म वर्णों का प्रयोजन अपने वर्ग के अनुरूप  सकारत्व का प्रतिनिधित्व करना है ।
तवर्ग - त थ द ध न का उच्चारण स्थान दन्त्य होने से "स" उष्म वर्ण है ।
और यह हमेशा तवर्ग के वर्णों के साथ प्रयोग होता है।
जैसे - अस्तु, वस्तु,आदि--
इसी प्रकार टवर्ग - ट ठ ड ढ ण का उच्चारण स्थान मूर्धन्य होने से "ष" उष्म वर्ण  टवर्ग के साथ आता है ये सभी सजातिय हैं।
जैसे - कष्ट ,स्पष्ट पोष्ट ,कोष्ठ आदि
चवर्ग -च छ ज झ ञ का  तथा "श" का उच्चारण स्थान तालव्य होने से ये परस्पर सजातिय हैं  और अपने चवर्ग के साथ इनका प्रयोग है।
जैसे- पश्चात् , पश्च ,आदि
इन व्यञ्जनों के उच्चारण के समय वायु मुख से रगड़(घर्षण) खाकर ऊष्मा पैदा करती है अर्थात् उच्चारण के समय मुख से गर्म वायु निकलती है।  

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उष्म व्यञ्जनों का उच्चारण एक प्रकार की रगड़ या घर्षण से उत्पत्र उष्म- वायु से होता हैं। ये भी चार व्यञ्जन ही होते है- श, ष, स, ह।

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पार्श्विक- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में श्वास -वायु जिह्वा के दोनों पार्श्वों (अगल-बगल) से एक साथ  निकलती है।

★''  भी ऐसी ही  पार्श्विक ध्वनि है। 

★अर्ध स्वर : इन ध्वनियों के उच्चारण में उच्चारण अवयवों में कहीं भी पूर्ण स्पर्श नहीं होता तथा श्वासवायु अवरोधित नहीं रहती है।

★हिन्दी में (य,  और व) ही अर्धस्वर की श्रेणि में हैं।

★लुण्ठित :- इन व्यञ्जनों के उच्चारण में जिह्वा वर्त्स्य (दन्त- मूल या मसूड़े) भाग की ओर उठती है। हिन्दी में '' व्यञ्जन इसी तरह की ध्वनि है।

★उत्क्षिप्त :- जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग (नोक) कठोर तालु के साथ झटके से टकराकर नीचे आती है, उन्हें  ऊपर को फैंके हुुुए- उत्क्षिप्त  (Thrown) /(flap) वर्ण कहते हैं ।

 ड़ और ढ़ भी ऐसे ही व्यञ्जन हैं।
जो अंग्रेजी' में क्रमश (R) तथा ( Rh ) वर्ण से बनते हैं ।

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घोष और अघोष वर्ण---

व्यञ्जनों के वर्गीकरण में स्वर-तन्त्रियों की स्थिति भी महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।
इस दृष्टि से व्यञ्जनों को दो वर्गों में
विभक्त किया जाता है :- घोष और अघोष।
जिन व्यञ्जनों के उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों में कम्पन होता है, उन्हें घोष या सघोष कहा जाता हैं।

दूसरे प्रकार की ध्वनियाँ अघोष कहलाती हैं।
स्वर-तन्त्रियों की अघोष स्थिति से अर्थात् जिनके उच्चारण में स्वर-तन्त्रियों  में कम्पन नहीं होता उन्हें अघोष व्यञ्जन कहा जाता है।

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घोष   —  अघोष
ग, घ, – ङ,क, ख।
ज,झ, – ञ,च, छ।
ड, ढ, –ण, ड़, ढ़,ट, ठ।
द, ध, –न,त, थ।
ब, भ, –म, प, फ।
य,  र, –ल, व, ह ,श, ष, स ।

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प्राणतत्व के आधर पर भी व्यञ्जन का वर्गीकरण किया जाता है।
प्राण का अर्थ है - श्वास -वायु।
जिन व्यञ्जन ध्वनियों के उच्चारण में श्वास बल अधिक लगता है उन्हें महाप्राण और जिनमें श्वास बल का प्रयोग कम होता है उन्हें अल्पप्राण व्यञ्जन कहा जाता है।
पाँचों वर्गों में दूसरी और चौथी ध्वनियाँ महाप्राण हैं।

हिन्दी के ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध, फ, भ, ड़, ढ़ - व्यञ्जन महाप्राण हैं।
वर्गों के पहले, तीसरे और पाँचवें वर्ण अल्पप्राण हैं।
क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब, य, र, ल, व, ध्वनियाँ इसी अल्प प्रमाण वर्ग की हैं।
वर्ण यद्यपि स्वर और व्यञ्जन दौनों का वाचक है ।
परन्तु जब व्यञ्जन में स्वर का समावेश होता है; तब वह अक्षर होता है । अर्थात जिसका अक्षर न हो वह अक्षर है ।

(अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।)
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भाषाविज्ञान में 'अक्षर' या शब्दांश (अंग्रेज़ी रूप (syllable) सिलेबल) ध्वनियों की संगठित इकाई को  भी कहते  हैं।
किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है और शब्दांश ही अक्षर है ।
शब्दांश :- शब्द के वह अंश (खण्ड)होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं बनाया जा सकता यदि छोटा किया तो शब्द की ध्वनियाँ ही बदल जाती हैं।

उदाहरणतः 'अचानक' शब्द के तीन शब्दांश हैं - 'अ', 'चा' और 'नक' ये तीन झटकों में बोला जाता है।
यदि रुक-रुक कर 'अ-चा-नक' बोला जाये तो शब्द के तीनों शब्दांश खंडित रूप से सुने जा सकते हैं।
लेकिन शब्द का उच्चारण सुनने में सही प्रतीत होता है।
अगर 'नक' को आगे तोड़ा जाए तो शब्द की ध्वनियाँ ग़लत हो जातीं हैं -

'अ-चा-न-क'. इस शब्द को 'अ-चान-क' भी नहीं बोला जाता क्योंकि इस से भी उच्चारण ग़लत हो जाता है।

यह क्रिया उच्चारण क्रिया बलाघात पर आधारित है ,

कुछ छोटे शब्दों में एक ही शब्दांश होता है, जैसे 'में', 'कान', 'हाथ', 'चल' और 'जा'. ।

कुछ शब्दों में दो शब्दांश होते हैं, जैसे- 'चलकर' ('चल-कर'), खाना ('खा-ना'), रुमाल ('रु-माल') और सब्ज़ी ('सब-ज़ी')।

 कुछ में तीन या उस से भी अधिक शब्दांश होते हैं, जैसे 'महत्त्वपूर्ण' ('म-हत्व-पूर्ण') और 'अन्तर्राष्ट्रीय' ('अन्त-अर-राष-ट्रीय')।

एक ही आघात या बल में बोली जाने वाली या उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई को "अक्षर"(syllable) कहा जाता है।

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इस. उच्चारण की जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की  इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वर-रत (Vocoid) व्यञ्जन होता है।

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★-व्यञ्जन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व या पर अंग बनकर ही आती है।

★-अक्षर में स्वर ही मेरुदण्ड अथवा कशेरुका है।

★-अक्षर से स्वर को न तो पृथक्‌ ही किया जा सकता है; और न बिना स्वर या स्वरयुक्त व्यञ्जन के द्वारा अक्षर का निर्माण ही सम्भव है।

★-उच्चारण में यदि व्यञ्जन मोती की तरह है तो स्वर धागे की तरह।

★-यदि स्वर सशक्त सम्राट है तो व्यञ्जन अशक्त राजा। 

★-इसी आधार पर प्रायः अक्षर को स्वर का पर्याय मान लिया जाता है, किन्तु ऐसा है नहीं, फिर भी अक्षर निर्माण में स्वर का अत्यधिक महत्व होता है।

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कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

★-अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,)  जैसे- एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ भी स्वरयुक्त उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

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★-कतिपय भाषाओं में व्यञ्जन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।
अंग्रेजी भाषा में (न, र, ल,)  जैसे एन(N) ,आर(R),एल,(L) आदि ऐसी व्यञ्जन ध्वनियाँ स्वरयुक्त भी उच्चरित होती हैं एवं स्वर-ध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं।

अंग्रेजी सिलेबल के लिए हिन्दी में अक्षर शब्द का प्रयोग किया जाता है।

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(Vowels)-स्वराः स्वर्-धातु-आक्षेपे । इति कविकल्पद्रुमः ॥-(अदन्त-चुरा०-पर०-सक०-सेट्   वकारयुक्तः रेफोपधः ।  स्वरयत्यतिरुष्टोऽपि न कञ्चन परिग्रहम् - इति हलायुधः  जिसके प्रक्षेपण (उछलने में ओष्ठ भी कोई परिग्रह नहीं करते वह स्वर है ।

(Consonants) - व्यंजनानि-सह स्वरेण विशेषेण अञ्जति इति व्यञ्जन- 

जो स्वरों की सहायता से विशेष रूप से प्रकट होता है वह व्यञ्जन हैं । व्यञ्जन (३३) अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर(१३) 

अयोगवाह : अनुस्वार (Nasal) (अं) और विसर्गः (Colon) ( अः) अनुनासिक (Semi-Nasal) चन्द्र-बिन्दु:-(ँ) इसका उच्चारण वाक्य और मुख दौंनो के सहयोग से होता है।

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(द्विस्‍वर-Dipthongs)-एक साथ उच्‍चरित दो स्‍वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्‍वर, संधि-स्‍वर, संयुक्त स्‍वर जैसे शब्‍द जैसे 'Fine' में (आइ) की ध्वनि है | (ए ,ऐ ,ओ , औ) ये भी द्विस्‍वर हैं। 

 

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 Dependent (मात्रा)- व्यञ्जन वर्णों के साथ स्वरों का परवर्तित रूप मात्रा है। ( ा, ि, ी, ु, ू, ृ, ॄ, े, ै, ो,ौ ) मूल स्वर- अ, इ, उ, ऋ, ऌ  ।

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Dipthongs:-

two vowel sounds that are pronounced together to make one sound, for example the aI sound in ‘fine’

(द्विस्‍वर:-)एक साथ उच्‍चरित दो स्‍वरों से बनी एकल(एक) ध्वनि; अथवा द्विस्‍वर, संधि-स्‍वर, संयुक्त स्‍वर जैसे शब्‍द ‘fine’ में (आइ) की ध्वनि  ए , ऐ , ओ  , औ ।

ह्रस्वाः- अ , इ , उ , ऋ , ऌ , 

दीर्घाः- आ , ई , ऊ , ॠ , ए , ऐ , ओ , औ 

स्पर्श –     २५.  व्यञ्जन ।    

                                  

खर- अथवा कर्कश— वर्ग का प्रथम और द्वितीय वर्ण (खफछठथचटतकपशषस)और श'स'ष'।

 हश्/मृदु  - वर्ग के तृतीय और चतुर्थ वर्ण तथा ह'य'व'र'ल ञम।                       

अनुनासिकाः : Nasal -वर्ग के पञ्चम वर्ण।

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 Guttural/Gorgical:-कण्ठय-  क्   ख्  ग्   घ्  ड्•।।

  Palatal:- तालव्य  —  च्   छ्    ज्     झ्     ञ् ।।

 Cerebrals:- मूर्धन्य—  ट्     ठ्    ड्    ढ्     ण् ।।

 Dentals:- दन्त्य —   त्     थ्      द्    ध्     न् ।।

 Labials:- ओष्ठय  —   प्      फ्   ब्   भ्     म् ।।_______________________________________

                                                                     

 (ऊष्म-वर्ण)- Sibilant Consonants:-(श्  ष्  स् )  

 

 अर्द्ध स्वर  :-(Sami Vowels-  )  य्   व्  र्   ल् ।

Combined Consonants-संयुक्त व्यञ्जन = द्य, त्र , क्ष , ज्ञ. श्र. ।

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★-व्याख्या –"सम्यक् कृतम् इति संस्कृतम्"।

सम् उपसर्ग के पश्चात् कृ धातु के मध्य सेट् (स्)आगम हुआ तब शब्द बना "संस्कार" भूतकालिक कर्मणि कृदन्त में हुआ संस्कृतम्।संस्कृतम् भाषा :– संस्कृत की लिपि देवनागरी।  

               (उच्चारण -स्थान)

१- ह्रस्व Short– २-दीर्घ long– 

३-प्लुत longer – (स्वर) 

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★- विवार:- कण्ठः – (अ‚ क्‚ ख्‚ ग्‚ घ्‚ङ् ह्‚

 Mute Consonants -मूक व्यञ्जन ( --ं-) (:)= विसर्ग ) 

 

★-स्पर्श व्यञ्जन तालुः – (इ‚ च्‚ छ्‚ ज्‚ झ्‚ञ् य्‚ श् ) 

 ★-मूर्धा – (ऋ‚ ट्‚ ठ्‚ ड्‚ ढ्‚ ण्‚ र्‚ ष्) 

 ★-दन्तः (लृ‚ त्‚ थ्‚ द्‚ ध्‚ न्‚ ल्‚ स्) 

 ★-ओष्ठः – (उ‚ प्‚ फ्‚ ब्‚ भ्‚ म्‚ - उपध्मानीय :प्‚ :फ्) 

 ★-नासिका  – (म्‚ ञ्‚ण्‚ ङ्, न् ) 

★-कण्ठतालुः – (ए‚ ऐ ) 

★-कण्ठोष्ठम् – (ओ‚ औ) 

★-औष्ठकण्ठ्य – (व)

 ★-जिह्वामूलम् – (जिह्वामूलीय क्' ख्) 

★-नासिका – अनुस्वार (—ं--) अनुस्वार(: )

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संस्कृत की अधिकतर सुप्रसिद्ध रचनाएँ पद्यमय हैं अर्थात् छन्दबद्ध और गेय हैं। ऋग्वेद पद्यमय है

इस लिए यह समझ लेना आवश्यक है कि इन रचनाओं को पढते या बोलते वक्त किन अक्षरों या वर्णों पर ज्यादा भार देना और किन पर कम।

 उच्चारण की इस न्यूनाधिकता को ‘मात्रा’ द्वारा दर्शाया जाता है।

 🌸↔   जिन वर्णों पर कम भार दिया जाता है, वे हृस्व कहलाते हैं, और उनकी मात्रावधि १-गुना होती है।

 अ, इ, उ, लृ, और ऋ ये ह्रस्व स्वर हैं। 

 🌸↔ जिन वर्णों पर अधिक जोर दिया जाता है, वे दीर्घ कहलाते हैं, और उनकी मात्रावधि( २)गुना होती है। आ, ई, ऊ, ॡ, ॠ ये दीर्घ स्वर हैं।

 🌸↔  प्लुत वर्णों का उच्चारण अतिदीर्घ होता है, और उनकी मात्रावधि (३)- गुना होती है जैसे कि, “नाऽस्ति” इस शब्द में ‘नाऽस्’ की ३ मात्रा होगी।

 वैसे हि ‘वाक्पटु’ इस शब्द में ‘वाक्’ की ३ मात्रा होती है। 

वेदों में जहाँ (३)संख्या लिखी होती है , उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है। जैसे ओ३म् ।

दूर से किसी के सम्बोधन में प्लुत स्वर का प्रयोग होता है 

 🌸↔ संयुक्त वर्णों का उच्चारण उसके पूर्व आये हुए स्वर के साथ करना चाहिए। 

 पूर्व आया हुआ स्वर यदि ह्रस्व हो, तो आगे संयुक्त वर्ण होने से उसकी २ मात्रा हो जाती है; और पूर्व वर्ण यदि दीर्घ वर्ण हो, तो उसकी ३ मात्रा हो जाती है और वह प्लुत कहलाता है। 

 ये अयोगवाह परिवार के सदस्य है ।

  🌸↔  अनुस्वार और विसर्ग – ये स्वराश्रित होने से, जिन स्वरों से वे जुडते हैं उनकी २ मात्रा होती है।

 परन्तु, ये अगर दीर्घ स्वरों से जुडे, तो उनकी मात्रा में कोई अन्तर नहीं पडता।

 🌸↔  ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘।‘ है, और दीर्घ मात्रा का ‘ऽ‘।  

🌸↔  पद्य रचनाओं में, छन्दों के चरण का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरू मान लिया जाता है। 

 समझने के लिए कहा जाय तो, जितना समय ह्रस्व के लिए लगता है, उससे दुगुना दीर्घ के लिए तथा तीन गुना प्लुत के लिए लगता है।

  नीचे दिये गये उदाहरण देखिए : राम = रा (२) + म (१) = ३  अर्थात्‌ “राम” शब्द की मात्रा (३) हुई।

 वनम् = व (१) + न (१) + म् (०) = २ वर्ण विन्यास – 

 १. राम = र् +आ + म् + अ , २.  सीता = स् + ई +त् +आ, ३. कृष्ण = क् +ऋ + ष् + ण् +अ ।

 माहेश्वर सूत्र  को संस्कृत व्याकरण का आधार माना जाता है। पाणिनि ने संस्कृत भाषा के तत्कालीन स्वरूप को परिष्कृत अर्थात् संस्कारित एवं नियमित करने के उद्देश्य से वैदिक भाषा के विभिन्न अवयवों एवं घटकों को  ध्वनि-विभाग के रूप अर्थात् (अक्षरसमाम्नाय), नाम (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण), पदों अर्थात् (विभक्ति युक्त वाक्य में प्रयुक्त शब्द , आख्यात(क्रिया), उपसर्ग, अव्यय, वाक्य, लिंग इत्यादि तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों का समावेश अष्टाध्यायी में किया है।

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अष्टाध्यायी में ३२ पाद (चरण) हैं जो आठ अध्यायों मे समान रूप से विभाजित हैं।

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 व्याकरण के इस महद् ग्रन्थ में पाणिनि ने विभक्ति-प्रधान संस्कृत भाषा के विशाल कलेवर (शरीर)का समग्र एवं सम्पूर्ण विवेचन लगभग ४००० हजार सूत्रों में किया है। 

 जो आठ अध्यायों में (संख्या की दृष्टि से असमान रूप से) विभाजित हैं।

 तत्कालीन समाज में लेखन सामग्री की दुष्प्राप्यता को दृष्टि गत रखते हुए पाणिनि ने व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है।

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विदित होना चाहिए कि संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव वैदिक भाषा छान्दस् से ई०पू० चतुर्थ शताब्दी में ही हुआ ।

 तभी ग्रामीण या जनसाधारण की भाषा बौद्ध काल से पूर्व ई०पू० 563 में भी थी ।

 यह भी वैदिक भाषा (छान्दस्)से विकसित हुई। 

व्याकरण को स्मृतिगम्य बनाने के लिए सूत्र शैली की सहायता ली है। 

 पुनः विवेचन का अतिशय संक्षिप्त बनाने हेतु पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों से प्राप्त उपकरणों के साथ-साथ स्वयं भी अनेक उपकरणों का प्रयोग किया है जिनमे शिवसूत्र या माहेश्वर सूत्र सबसे महत्वपूर्ण हैं। 

जो हिन्दी वर्ण माला का  भी आधार है ।

 माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति----माहेश्वर सूत्रों की उत्पत्ति भगवान नटराज (शंकर) के द्वारा किये गये ताण्डव नृत्य से मानी गयी है।

जो कि एक श्रृद्धा प्रवण अतिरञ्जना ही है ।

रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने इसे आख्यान परक रूप इस प्रकार दिया। 

 👇  

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्। उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्॥ 

 क्यों कि ये भी सन्धि- संक्रमण से व्युत्पन्न स्वर ही हैं। इनकी संरचना के विषय में नीचे विश्लेषण है । 

 अर्थात्:- "नृत्य (ताण्डव) के अवसान (समाप्ति) पर नटराज (शिव) ने सनकादि ऋषियों की सिद्धि और कामना की उद्धार (पूर्ति) के लिये नवपञ्च (चौदह) बार डमरू बजाया।

 इस प्रकार चौदह शिवसूत्रों का ये जाल (वर्णमाला) प्रकट हुयी।

 " डमरु के चौदह बार बजाने से चौदह सूत्रों के रूप में ध्वनियाँ निकली, इन्हीं ध्वनियों से व्याकरण का प्रकाट्य हुआ।

 इसलिये व्याकरण सूत्रों के आदि-प्रवर्तक भगवान नटराज को माना जाता है।

 वस्तुत भारतीय संस्कृति की इस मान्यता की पृष्ठ भूमि में  शिव का ओ३म स्वरूप भी है। 

उमा शिव की ही शक्ति का रूप है , उमा शब्द की व्युत्पत्ति (उ भो मा तपस्यां कुरुवति ।

 यथा, “उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम ” । (ओ अब तपस्या मा- मत कर ) पार्वती की माता ने उनसे कहा -

 इति कुमारोक्तेः(कुमारसम्भव महाकाव्य)। 

 यद्वा ओर्हरस्य मा लक्ष्मीरिव । 

 उं शिवं माति मिमीते वा । आतोऽनुपसर्गेति कः ।

 अजादित्वात् टाप् । अवति ऊयते वा उङ् शब्दे “विभाषा तिलमाषो मेति” । ५।२।४। निपातनात् मक् ) 

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दुर्गा का विशेषण है उमा ।

 परन्तु यह पाणिनि के द्वारा भाषा का उत्पत्ति मूलक विश्लेषण है।

 परन्तु इन सूत्रों में भी अभी और संशोधन- अपेक्षित है। 

यदि ये सूत्र शिव से प्राप्त होते तो इनमें चार सन्धि स्वर (ए,ऐ,ओ,औ) का समावेश नहीं होता तथा अन्त:स्थ वर्ण (य,व,र,ल) भी न होते ! 

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 पाणिनि के माहेश्वर सूत्रों की कुल संख्या 14 है ; जो निम्नलिखित हैं: 👇 __________________________________________ 

प्रत्याहार -विधायक -सूत्र  

१.अइउण्। २. ॠॡक्। ३. एओङ्। ४. ऐऔच्। ५. हयवरट्। ६. लण्। ७. ञमङणनम्। ८. झभञ्। ९. घढधष्। १०. जबगडदश्। ११. खफछठथचटतव्। १२. कपय्। १३. शषसर्। १४. हल्।

यथा—

अण्‌ = अ, इ, उ

ऋक्‌ = ऋ, ऌ

अक्‌ = अ, इ, उ, ऋ, ऌ

एङ्‌ = ए, ओ

एच्‌ = ए, ओ, ऐ, औ

झष्‌ = झ, भ, घ, ढ, ध

जश्‌ = ज, ब, ग, ड, द

अच्‌ = अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ओ, ऐ, औ (सर्वे स्वराः)

हल्‌ = सर्वाणि व्यञ्जनानि

अल्‌ = सर्वे वर्णाः (सर्वे स्वराः + सर्वाणि व्यञ्जनानि)

अवधेयम्

स्वराः

 स्वराः

अ, इ, उ, ऋ  = एषु प्रत्येकम्‌ अष्टादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः (ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः; उदात्तः, अनुदात्तः, स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः च |

अर्थात् अइउऋ इनमें प्रत्येक के रूप हैं अठारह. ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत; उदात्त अनुदात्त स्वरितः; अनुनासिकः, अननुनासिकः।

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१--ह्रस्व-(अ) २-।दीर्घ-(आ)। ३-प्लुत-४-(आऽ) और५- उदात्त-(—अ)' ६-अनुदात्त-( अ_  )'तथा ७- स्वरित - (अ–) ८-अनुनासिक -(अँ)'और ९-अननुनासिक- (अं)

___________

 3 x 3 x 2 = 18 |) यथा अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः, अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः, अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-उकारः, अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः तदा पुनः अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः, इत्यादीनि रूपाणि |

हिन्‍दी :-१-अनुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-अकारः, 

२-अननुनासिक-उदात्त-ह्रस्व-इकारः,

 ३-अनुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व उकारः,

४- अननुनासिक-अनुदात्त-ह्रस्व-ऋकारः 

और फिर  दुबारा

५- अनुनासिक-स्वरित-ह्रस्व-अकारः,

ऌ = अयं द्वादशानां प्रतिनिधिः (यतः अस्य वर्णस्य दीर्घरूपं नास्ति | अर्थात ् इस 'लृ' स्वर के बारह रूप होते हैं ।

 2 x 3 x 2 = 12 |)

ए, ओ, ऐ, औ = एषु प्रत्येकम्‌ द्वादशानां वर्णानां प्रतिनिधिः  एषां ह्रस्वरूपं नास्ति | 2 x 3 x 2 = 12 |) अर्थात् इनमें प्रत्येक के बारह रूप होते हैं। इसका छोटा( ह्रस्व) रूप नहीं होता है ।

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तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) इ के रूप में हैं । 

ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।

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 उपर्युक्त्त 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। 

फलतः, पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों में जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। 

माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे  दर्शाया गया है।

 इन 14 सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम 4 सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष 10 सूत्र हल् वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यंजन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।

"परन्तु अन्तस्थ हल् तो हो सकते व्यञ्जन वर्ण नहीं ।क्योंकि इनकी संरचना स्वरों के संक्रमण से ही हुई है । और व्यञ्जन अर्द्ध मात्रा के होते हैं "

 प्रत्याहार की अवधारणा :--- प्रत्याहार का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।

 आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

 उदाहरण: अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है।

 यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है।

 अतः, अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ। इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ह को अन्तिम १४ वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर (या इत् वर्ण) ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। 

फलतः, हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह। उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क्  च् आदि हलन्त वर्णों ) को पाणिनि ने इत् की संज्ञा दी है। 

इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है ।

अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। ________________________________ 

अ'इ'उ' ऋ'लृ' मूल स्वर हैं परन्तु (ए ,ओ ,ऐ,औ ) ये सन्ध्याक्षर होने से मौलिक नहीं अपितु इनका निर्माण हुआ और ये संयुक्त स्वर ही हैं 

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जैसे क्रमश: अ इ = (ए)  तथा अ उ = (ओ) संयुक्त स्वरों के रूप में  गुण सन्धि के रूप में उद्भासित होते हैं । अतः स्वर तो केवल तीन ही मान्य हैं । 

👇 । अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ तथा उ' स्वर भी केवल अ' स्वर के अधोगामी अनुदात्त और ऊर्ध्वगामी उदात्त ( ऊर्ध्वगामी रूप हैं ।।

 👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 

👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' । 

तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं । 

ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।

 जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य 

( दन्तमूलीय रूप ) है । अब 'ह' वर्ण महाप्राण है । 

जिसका उच्चारण स्थान  काकल है । जो ह्रस्व स्वर (अ) से विकसित हुआ है ।

 "अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल । 

 👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 

परन्तु पाणिनी ने अपने शिक्षा शास्त्र में (64) चतुर्षष्ठी वर्णों की रचना दर्शायी है । 

 स्वर (Voice) या कण्ठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कम्पनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययन्त्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है। 

अत: स्वरयन्त्र और वाद्ययन्त्र की रचना में भी कुछ समानता के सिद्धान्त हैं।

 वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययन्त्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :👇 _________________________________________

 1. कम्पक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं। 

 2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :- 

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(क.) नासा ग्रसनी (nasopharynx), (ख.) ग्रसनी  (pharynx), ग. मुख (mouth), (घ.) स्वरयंत्र (larynx), (च.) श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus) (छ.) फुफ्फुस (फैंफड़ा )(lungs), (ज.) वक्षगुहा (thoracic cavity)। 

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 3. स्पष्ट उच्चारक (articulators)अवयव :- इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं : 

(क.) जिह्वा (tongue), (ख.) दाँत (teeth), (ग.) ओठ (lips), (घ.) कोमल तालु (soft palate), (च.) कठोर तालु (मूर्धा )(hard palate)। __________________________________________

 स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं :- जीवात्मा द्वारा प्रेरित वायु फुफ्फुस में जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयन्त्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कम्पित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है।

विशेष— संगीत के आचार्यों के अनुसार आकाश:स्थ अग्नि और मरुत् (वायु) के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं। पण्डित दामोदर ने संगीतदर्पण मे लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त  देहज अग्नि  पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंथिकृत प्राण को प्रेरित करती है।  

अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। और नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है। 

संगीत दामोदर में नाद तीन प्रकार का माना गया है—प्राणिभव, अप्राणिभव और उभयसंभव।

जो सुख आदि अंगों से उत्पन्न किया जाता है वह प्राणिभव, जो वीणा आदि से निकलता है वह अप्राणिभव और जो बाँसुरी से निकाला जाता है वह उभय-संभव है। 

नाद के बिना गीत, स्वर, राग आदि कुछ भी संभव नहीं। ज्ञान भी उसके बिना नहीं हो सकता।

 अतः नाद परज्योति वा ब्रह्मरुप है और सारा जगत् नादात्मक है। इस दृष्टि से नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत। 

अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। हठयोग दीपिका में लिखा है कि जिन मूढों को तत्वबोध न हो सके वे नादोपासना करें।  

अंन्तस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। आँख, कान, नाक, मुँह सबका व्यापार बंद कर दे। अभ्यास की अवस्था में पहले तो मेघगर्जन, भेरी आदि की सी गंभीर ध्वनि सुनाई पडे़गी, फिर अभ्यास बढ़ जाने पर क्रमशः वह सूक्ष्म होती जायगी। इन नाना प्रकार की ध्वनियों में से जिसमें चित्त सबसे अधिक रमे उसी में रमावे। इस प्रकार करते करते नादरूपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा।

 व्याकरण में नाद वर्ण जिन वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है।  अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। सानुनासिक स्वर। अर्धचंद्र। 

 ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयन्त्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं।

 इसके उपरान्त उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपान्तरण उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दन्त तथा ओष्ठ आदि करते हैं।

 इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।

 स्वरयंत्र--- अवटु (thyroid) उपास्थि वलथ (Cricoid) उपास्थि स्वर रज्जुऐं ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयन्त्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं। 

 यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थिति स्थापक रेशे भी होते हैं।

 देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है। इसमें ऊपर की दोनों तन्त्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं।

 इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कण्ठ-द्वार (glottis) कहते हैं।

इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बन्द होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है। 

 स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)---- श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है।

श्वाँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा (विस्तृत) तथा श्वाँस छोड़ने में कुछ संकीर्ण (संकुचित) हो जाता है। बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं ;और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है।

 जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है। __________________________________________

 स्वरयन्त्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लम्बाई बढ़ती है ; जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है।

स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं। इसी लिए पुरुषों का स्वर मन्द्र सप्तक पर आधारित है  और स्त्रियों का स्वर तार सप्तक पर आधारित है। _________________________________________

स्वरों की उत्पत्ति का मानव शास्त्रीय सिद्धान्त --उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कम्पन होता है ; तब स्वर की उत्पत्ति होती है यहाँ स्वर मूलत: एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किन्तु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दन्त और ओष्ठ आदि अवयवों के सम्पर्क से उसमें परिवर्तन अथवा आकारीय भेद आ जाता है। ये ही उसके विभिन्न प्रारूपों के साँचें है । स्वररज्जुओं के कम्पन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर आश्रित है नि:सन्देह 'काकल'  'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। 

 जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है  कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 

 अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।

 अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । 👇

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1. प्रबलता (loudness) - यह कम्पन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है। 

 2. तारत्व (Pitch) - यह कम्पन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है। 

 3. गुणता (Quality) - यह गुञ्जनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है; और कम्पन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर करता है।

 "अ" स्वर का उच्चारण तथा "ह" स्वर का उच्चारण श्रोत समान है । कण्ठ तथा काकल । 

_________________________________________

 नि:सन्देह 'काकल'  'कण्ठ' का पार्श्ववर्ती है और "अ" तथा "ह" सम्मूलक सजातिय बन्धु हैं। 

 जैसा कि संस्कृत व्याकरण में रहा भी गया है  कहा भी गया है । अ कु ह विसर्जनीयीनांकण्ठा । 

 अर्थात् अ स्वर , कवर्ग :- ( क ख ग घ ड्•) तथा विसर्ग(:) , "ह"  ये सभीे वर्ण कण्ठ से उच्चारित होते हैं ।

 अतः "ह" महाप्राण " भी "अ " स्वर के घर्षण से ही विकसित रूप है । _________________________________________ 

२.शब्द -विचार (Morphology) :- 

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२.शब्द -विचार (Morphology) :- इसमे शब्दों के भेद ,रूप,प्रयोगों तथा उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। वर्णों के सार्थक समूह को शब्द कहते हैं हिंदी भाषा में शब्दों के भेद निम्नलिखित चार आधारों पर किए जा सकते हैं :-

1- उत्पत्ति के आधार पर 2- अर्थ के आधार पर नंबर 3- प्रयोग के आधार पर और नंबर 4- बनावट के आधार पर.

 🌸↔उत्पत्ति के आधार पर( Based on Origin ) उत्पत्ति के आधार पर शब्दों के पाँच भेद निर्धारित किये जैसे हैं । 

(क) ~ तत्सम शब्द Original Words :-  संस्कृत भाषा के मूलक शब्द जो  हिन्दी में यथावत् प्रयोग किये जाते हैं । मुखसेविका । म्रक्षण । लावणी । अग्नि, क्षेत्र, वायु, ऊपर, रात्रि, सूर्य आदि। 

 (ख) ~ तद्भव शब्द Modified Words:-जो शब्द संस्कृत भाषा के मूलक रूप से परिवर्तित हो गये हैं मुसीका ।माखन ।लौनी । जैसे-आग (अग्नि), खेत (क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य) आदि। 

 (ग) ~  देशज शब्द Native Words :- जो शब्द लौकिक ध्वनि-अनुकरण मूलक अथवा भाव मूलक हों जो शब्द क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे देशज कहलाते हैं।

 जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि। 'झाड़ू' 'लोटा' ,हुक्का, आदि । 

 (घ) ~  विदेशी शब्द Foreign Words:-जो शब्द विदेशी भाषाओं से आये हुए हैं ।

 विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने लगे हैं।

 ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं।

 जैसे-स्कूल, अनार, आम, कैंची, अचार, पुलिस, टेलीफोन, रिक्शा आदि।

 ऐसे कुछ विदेशी शब्दों की सूची नीचे दी जा रही है।

 अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल , फोटो, डाक्टर स्कूल आदि। 

 फारसी- अनार, चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।

 अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर,रिश्वत,औरत,कैदी,मालिक, गरीब आदि। 

 तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर 

आदि।

 पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि। 

 फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि। 

 चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।

 यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।

 जापानी- रिक्शा आदि।

 डच-बम आदि।

 (ग)~  संकर शब्द( mixed words) :- जो शब्द अंग्रेजी और हिन्दी आदि भाषाओं के योग से बने हों ।

 (रेल + गाड़ी ) (लाठी+चार्ज) आदि ... 

 🌸↔अर्थात् के आधार पर (Based on meaning) 

 (क) सार्थक शब्द (meaningful Words) :- इनके भी चार भेद हैं :- 1- एकार्थी 2- अनेकार्थी 3- पर्यायवाची 4- विलोम शब्द । 

 (ख) निरर्थक शब्द (meaningless Words):- ये शब्द मनुष्य की गेयता-मूलक तुकान्त प्रवृत्ति के द्योतक हैं । जैसे:- चाय-वाय ।पानी-वानी इत्यादि

 🌸↔प्रयोग के आधार पर( Based on usage) 

 (क ) अविकारी शब्द lndeclinableWords:- क्रिया-विशेषण, सम्बन्ध बोधक , समुच्यबोधक, और विस्मयादिबोधक ।

 अविकारी शब्द : जिन शब्दों के रूप में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता है वे अविकारी शब्द कहलाते हैं। 

जैसे-यहाँ, किन्तु, नित्य और, हे अरे आदि। इनमें क्रिया-विशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक आदि हैं। 

 🌸↔ विकारी शब्द (Declinable words) :- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, और क्रिया' ।

 विकारी शब्द :- जिन शब्दों का रूप-परिवर्तन होता रहता है वे विकारी शब्द कहलाते हैं। 

जैसे-कुत्ता, कुत्ते, कुत्तों, मैं मुझे, हमें अच्छा, अच्छे खाता है, खाती है, खाते हैं। इनमें संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया विकारी शब्द हैं। _____________________________________

 बनावट के आधार पर(Based on Construction):- (क) रूढ़ शब्द :- Traditional words

 (ख) यौगिक शब्द :-Compound Words 

 (ग) योगरूढ़ शब्द:-(CompoundTraditionalWords) व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर शब्द के निम्नलिखित भेद हैं- रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ़।

 - रूढ़-जो शब्द किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं।

 जैसे-कल, पर।

 - यौगिक-जो शब्द कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों, वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।  

-योगरूढ़- वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। 

 जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़ में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया है।

 अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। 

 इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में प्रसिद्ध है। 

 बच्चा समाज में सामाजिक व्यवहार में आ रहे शब्दों के अर्थ कैसे ग्रहण करता है, इसका अध्ययन भारतीय भाषा चिन्तन में गहराई से हुआ है और अर्थग्रहण की प्रक्रिया को शक्ति के नाम से कहा गया है।

 शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोशाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद् विवृत्तेर्वदन्ति सान्निध ।।

इस प्रकरण में केवल वाक्य विचार पर विशद् विवेचन  किया जाता है।

________________________________________

(३)-वाक्यविचार(Syntax):-

वाक्यविचार(Syntax):-

 इसमें वाक्य निर्माण ,उनके प्रकार,उनके भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।

 ३.वाक्य -विचार(Syntax):- इसमें वाक्य निर्माण ,उनके प्रकार,उनके भेद,गठन,प्रयोग, विग्रह आदि पर विचार किया जाता है।

 वाक्य विचार(Syntax) की परिभाषा:- वह शब्द समूह जिससे पूरी बात समझ में आ जाये, 'वाक्य' कहलाता हैै।

 दूसरे शब्दों में- विचार को पूर्णता से प्रकट करनेवाली एक क्रिया से युक्त पद-समूह को 'वाक्य' कहते हैं।

 सरल शब्दों में- सार्थक शब्दों का व्यवस्थित समूह जिससे अपेक्षित अर्थ प्रकट हो, वाक्य कहलाता है। 

 जैसे- विजय खेल रहा है, बालिका नाच रही हैैै। 

 वाक्य के भाग:- वाक्य के दो भाग होते है- 

(1)उद्देश्य (Subject)

 (2)विधेय(Predicate)

 (1) उद्देश्य (Subject):-वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाये उसे उद्देश्य कहते हैं।

 इसके अन्तर्गत कर्ता और संज्ञाओं का समावेश होता है। सरल शब्दों में- जिसके बारे में कुछ बताया जाता है, उसे उद्देश्य कहते हैं। जैसे-: सौम्या पाठ पढ़ती है।

 मोहन दौड़ता है। 

 इस वाक्य में सौम्या और मोहन के विषय में बताया गया है। अतः ये उद्देश्य है।

 इसके अन्तर्गत कर्ता और कर्ता का विस्तार आता है।

 जैसे- 'परिश्रम करने वाला व्यक्ति' सदा सफल होता है।

 इस वाक्य में कर्ता (व्यक्ति) का विस्तार 'परिश्रम करने वाला' है।

 उद्देश्य के भाग- (parts of  Subject) उद्देश्य के दो भाग होते है- (i) कर्ता (Subject) (ii) कर्ता का विशेषण या कर्ता से संबंधित शब्द। 

 (2) विधेय (Predicate):- उद्देश्य के विषय में जो कुछ कहा जाता है, उसे विधेय कहते है।

 जैसे- सौम्या पाठ पढ़ती है। 

 इस वाक्य में 'पाठ पढ़ती' है विधेय है; क्योंकि यह बात  सौम्या (उद्देश्य )के विषय में कही गयी है। 

 दूसरे शब्दों में- वाक्य के कर्ता (उद्देश्य) को अलग करने के बाद वाक्य में जो कुछ भी शेष रह जाता है, वह विधेय कहलाता है। 

 इसके अन्तर्गत विधेय का विस्तार आता है।

 जैसे:-    'नीली नीली आँखों वाली लड़की 'अभी-अभी एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर गई' ।

 इस वाक्य में विधेय (गई) का विस्तार 'अभी-अभी' एक बच्चे के साथ दौड़ते हुए उधर' है।

 विशेष:-आज्ञासूचक वाक्यों में विधेय तो होता है किन्तु उद्देश्य छिपा होता है।

 जैसे- वहाँ जाओ। खड़े हो जाओ। 

इन दोनों वाक्यों में जिसके लिए आज्ञा दी गयी है; वह उद्देश्य अर्थात् 'वहाँ न जाने वाला '(तुम) और 'खड़े हो जाओ' (तुम या आप) अर्थात् उद्देश्य दिखाई नहीं पड़ता वरन् छिपा हुआ है। विधेय के भाग- (Parts of Predicate) विधेय के छः भाग होते हैं:- 

(i) क्रिया verb (ii) क्रिया के विशेषण Adverb (iii) कर्म Object (iv) कर्म के विशेषण या कर्म से संबंधित शब्द (v) पूरक  Complement (vi)पूरक के विशेषण। 

 नीचे की तालिका से उद्देश्य तथा विधेय सरलता से समझा जा सकता है- वाक्य.  १-उद्देश्य +  विधेय. गाय + घास खाती है- सफेद गाय हरी घास खाती है। सफेद -कर्ता विशेषण गाय -कर्ता [उद्देश्य] हरी - विशेषण कर्म घास -कर्म [विधेय] खाती है- क्रिया [विधेय] __________________________________________ 

वाक्य के भेद:- वाक्य के भेद- रचना के आधार पर रचना के आधार पर. 

वाक्य के तीन भेद होते हैं- There are three kinds of Sentences. Based on Structure. (i)साधरण वाक्य (Simple Sentence) (ii)मिश्रित वाक्य (Complex Sentence) (iii)संयुक्त वाक्य (Compound Sentence)

 👇(i)साधरण वाक्य या सरल वाक्य:-जिन वाक्य में एक ही "समापिका क्रिया" होती है, और एक कर्ता होता है, वे साधारण वाक्य कहलाते है।

 दूसरे शब्दों में- जिन वाक्यों में केवल एक ही उद्देश्य और एक ही विधेय होता है, उन्हें साधारण वाक्य या सरल वाक्य कहते हैं। इसमें एक 'उद्देश्य' और एक 'विधेय' रहते हैं। जैसे:- सूर्य चमकता है', 'पानी बरसता है। इन वाक्यों में एक-एक उद्देश्य, अर्थात कर्ता और विधेय, अर्थात् क्रिया हैं। 

 अतः, ये साधारण या सरल वाक्य हैं। 

 (ii)मिश्रित वाक्य:-जिस वाक्य में एक से अधिक वाक्य मिले हों किन्तु एक "प्रधान उपवाक्य" (Princeple Clouse ) तथा शेष "आश्रित उपवाक्य" (Sub-OrdinateClouse) हों, वह मिश्रित वाक्य कहलाता है।

 दूसरे शब्दों में- जिस वाक्य में मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अलावा एक या अधिक समापिका क्रियाएँ हों, उसे 'मिश्रित वाक्य' कहते हैं।

 जैसे:- 'वह कौन-सा मनुष्य है,(जिसने)महाप्रतापी राजा चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम न सुना हो ।

 दूसरे शब्दों मेें- जिन वाक्यों में एक प्रधान (मुख्य) उपवाक्य हो और अन्य आश्रित (गौण) उपवाक्य हो तथा जो आपस में 'कि'; 'जो'; 'क्योंकि'; 'जितना'; 'उतना'; 'जैसा'; 'वैसा'; 'जब'; 'तब'; 'जहाँ'; 'वहाँ'; 'जिधर'; 'उधर'; 'अगर/यदि'; 'तो'; 'यद्यपि'; 'तथापि'; आदि से मिश्रित (मिले-जुले) हों उन्हें मिश्रित वाक्य कहते हैं। 

 इनमे एक मुख्य उद्देश्य और मुख्य विधेय के अतिरिक्त एक से अधिक "समापिका क्रियाएँ " होती हैं। जैसे:- मैं जनता हूँ "कि" तुम्हारे वाक्य अच्छे नहीं बनते।

 "जो" लड़का कमरे में बैठा है वह मेरा भाई है। 

 यदि परिश्रम करोगे "तो" उत्तीर्ण हो जाओगे।

 'मिश्र वाक्य' के 'मुख्य उद्देश्य' और 'मुख्य विधेय' से जो वाक्य बनता है, उसे 'मुख्य उपवाक्य' और दूसरे वाक्यों को आश्रित उपवाक्य' कहते हैं।

 पहले को 'मुख्य वाक्य' और दूसरे को 'सहायक वाक्य' भी कहते हैं।

 सहायक वाक्य अपने में पूर्ण या सार्थक नहीं होते, परन्तु मुख्य वाक्य के साथ आने पर उनका अर्थ पूर्ण रूप से निकलता हैं।

 ऊपर जो उदाहरण दिया गया है, उसमें 'वह कौन-सा मनुष्य है' मुख्य वाक्य है और शेष 'सहायक वाक्य'; क्योंकि वह मुख्य वाक्य पर आश्रित है।

 (iii)संयुक्त वाक्य :- जिस वाक्य में दो या दो से अधिक उपवाक्य मिले हों, परन्तु सभी वाक्य प्रधान हो तो ऐसे वाक्य को संयुक्त वाक्य कहते हैं। 

 दूसरे शब्दो में- जिन वाक्यों में दो या दो से अधिक सरल वाक्य योजकों (और, एवं, तथा, या, अथवा, इसलिए, अतः, फिर भी, तो, नहीं तो, किन्तु, परन्तु, लेकिन, पर आदि) से जुड़े हों, उन्हें संयुक्त वाक्य कहते है। सरल शब्दों में- जिस वाक्य में साधारण अथवा मिश्र वाक्यों का मेल "संयोजक अवयवों "द्वारा होता है, उसे संयुक्त वाक्य कहते हैं।

 जैसे:- 'वह सुबह गया और 'शाम को लौट आया। प्रिय बोलो 'परन्तु 'असत्य नहीं। उसने बहुत परिश्रम किया 'किन्तु' सफलता नहीं मिली। संयुक्त वाक्य उस वाक्य-समूह को कहते हैं, जिसमें दो या दो से अधिक सरल वाक्य अथवा मिश्र वाक्य अव्ययों द्वारा संयुक्त हों ।

 इस प्रकार के वाक्य लम्बे और आपस में उलझे होते हैं। 

 👇 जैसे:-'मैं ज्यों ही रोटी खाकर लेटा कि पेट में दर्द होने लगा, और दर्द इतना बढ़ा कि तुरन्त डॉक्टर को बुलाना पड़ा।' इस लम्बे वाक्य में संयोजक 'और' है, जिसके द्वारा दो मिश्र वाक्यों को मिलाकर संयुक्त वाक्य बनाया गया। 

 इसी प्रकार 'मैं आया और वह गया' इस वाक्य में दो सरल वाक्यों को जोड़नेवाला संयोजक 'और' है।

 यहाँ यह याद रखने की बात है कि संयुक्त वाक्यों में प्रत्येक वाक्य अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाये रखता है, वह एक-दूसरे पर आश्रित नहीं होता, केवल संयोजक अव्यय उन स्वतन्त्र वाक्यों को मिलाते हैं। इन मुख्य और स्वतन्त्र वाक्यों को व्याकरण में 'समानाधिकरण' उपवाक्य "भी कहते हैं। _________________________________________

वाक्य के भेद-अर्थ के आधार पर ( Kinds of Sentences -based on meaning )

-अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇  

 वाक्य के भेद- अर्थ के आधार पर । Kinds of Sentences -based on meaning अर्थ के आधार पर वाक्य मुख्य रूप से आठ प्रकार के होते हैं:-👇

 

1- स्वीकारात्मक वाक्य (Affirmative Sentence)

2-निषेधात्मक वाक्य (Negative Sentence)

3-प्रश्नवाचक वाक्य (Interrogative Sentence)

4-आज्ञावाचक वाक्य (Imperative Sentence)

5-संकेतवाचक वाक्य (Conditional Sentence)

6-विस्मयादिबोधक वाक्य - (Exclamatory Sentence)

 7-विधानवाचक वाक्य (Assertive Sentence)

8-इच्छावाचक वाक्य (illative Sentence)

______________________

 (i)सरल वाक्य :-वे वाक्य जिनमे कोई बात साधरण ढंग से कही जाती है, सरल वाक्य कहलाते है। 

 जैसे:- राम ने रावण को मारा। सीता खाना बना रही है।

 (ii) निषेधात्मक वाक्य:-जिन वाक्यों में किसी काम के न होने या न करने का बोध हो उन्हें निषेधात्मक वाक्य कहते है। जैसे:- आज वर्षा नही होगी।

 मैं आज घर नहीं जाऊँगा। 

 (iii)प्रश्नवाचक वाक्य:-वे वाक्य जिनमें प्रश्न पूछने का भाव प्रकट हो, प्रश्नवाचक वाक्य कहलाते हैं।

 जैसे:- राम ने रावण को क्यों मारा ? तुम कहाँ रहते हो ?

 (iv) आज्ञावाचक वाक्य :-जिन वाक्यों से आज्ञा प्रार्थना, उपदेश आदि का ज्ञान होता है, उन्हें आज्ञावाचक वाक्य कहते है। 

जैसे:- । परिश्रम करो। बड़ों का सम्मान करो।

 (v) संकेतवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से शर्त (संकेत) का बोध होता है , अर्थात् एक क्रिया का होना दूसरी क्रिया पर निर्भर होता है, उन्हें संकेतवाचक वाक्य कहते हैं।

 जैसे:- यदि तुम परिश्रम करोगे तो अवश्य सफल होगे। पिताजी अभी आते तो अच्छा होता। अगर वर्षा होगी तो फसल भी होगी। 

 (vi)विस्मयादि-बोधक वाक्य:-जिन वाक्यों में आश्चर्य, शोक, घृणा आदि का भाव ज्ञात हो उन्हें विस्मयादि-बोधक वाक्य कहते हैं।

 जैसे- (१)वाह ! तुम आ गये। (२)हाय ! मैं लूट गया। 

 (vii) विधानवाचक वाक्य:- जिन वाक्यों में क्रिया के करने या होने की सूचना मिले, उन्हें विधानवाचक वाक्य कहते है। जैसे- मैंने दूध पिया। वर्षा हो रही है। राम पढ़ रहा है। 

 (viii) इच्छावाचक वाक्य:- जिन वाक्यों से इच्छा, आशीष एवं शुभकामना आदि का भाव होता है, उन्हें इच्छावाचक वाक्य कहते हैं।

 जैसे- 

(१)तुम्हारा कल्याण हो। 

(२)आज तो मैं केवल फल खाऊँगा।

 (३)भगवान तुम्हें लम्बी आयु दे।

 वाक्य के अनिवार्य "तत्व " दार्शनिकों के मतानुसार- वाक्य में निम्नलिखित छ: तत्व अनिवार्य है- _______________________________________ 

(1)Significance (2) Eligibility (3) Aspiration (4) Proximity (5) Grade (6) Unrequited

 ________________________ 

(1) सार्थकता (2) योग्यता (3) आकांक्षा (4) निकटता (5) पदक्रम (6) अन्वय-

  

(1) सार्थकता- वाक्य में सार्थक पदों का प्रयोग होना चाहिए निरर्थक शब्दों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति नहीं हो पाती है।

 बावजूद इसके कभी-कभी निरर्थक से लगने वाले पद भी भाव अभिव्यक्ति करने के कारण वाक्यों का गठन कर बैठते है।

 जैसे- तुम बहुत बक-बक कर रहे हो।

 चुप भी रहोगे या नहीं ? इस वाक्य में 'बक-बक' निरर्थक-सा लगता है; परन्तु अगले वाक्य से अर्थ समझ में आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

 (2) योग्यता - वाक्यों की पूर्णता के लिए उसके पदों, पात्रों, घटनाओं आदि का उनके अनुकूल ही होना चाहिए। अर्थात् वाक्य लिखते या बोलते समय निम्नलिखित बातों पर निश्चित रूप से ध्यान देना चाहिए-

👇 (a) पद प्रकृति-विरुद्ध नहीं हो : हर एक पद की अपनी प्रकृति (स्वभाव/धर्म) होती है।

 यदि कोई कहे मैं आग खाता हूँ। हाथी ने दौड़ में घोड़े को पछाड़ दिया।

 उक्त वाक्यों में पदों की "प्रकृतिगत योग्यता" की कमी है। आग खायी नहीं जाती।

 हाथी घोड़े से तेज नहीं दौड़ सकता।

 इसी जगह पर यदि कहा जाय- मैं आम खाता हूँ। 

 घोड़े ने दौड़ में हाथी को पछाड़ दिया।

 तो दोनों वाक्यों में 'योग्यता' आ जाती है। 

 (b) बात- समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि के विरुद्ध न हो : वाक्य की बातें समाज, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि सम्मत होनी चाहिए; ऐसा नहीं कि जो बात हम कह रहे हैं, वह इतिहास आदि के विरुद्ध है। 

जैसे- दानवीर कर्ण द्वारका के राजा थे।

 महाभारत 25 दिन तक चला। भारत के उत्तर में श्रीलंका है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के परमाणु परस्पर मिलकर कार्बनडाई ऑक्साइड बनाते हैं। 

 (3) आकांक्षा- आकांक्षा का अर्थ है- इच्छा। एक पद को सुनने के बाद दूसरे पद को जानने की इच्छा ही 'आकांक्षा' है। यदि वाक्य में आकांक्षा शेष रह जाती है तो उसे अधूरा वाक्य माना जाता है;  क्योंकि उससे अर्थ पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाता है।

 जैसे- यदि कहा जाय। 'खाता है' तो स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि क्या कहा जा रहा है- किसी के भोजन करने की बात कही जा रही है या बैंक (Bank) के खाते के बारे में ?

 (4) निकटता- बोलते तथा लिखते समय वाक्य के शब्दों में परस्पर निकटता का होना बहुत आवश्यक है, रूक-रूक कर बोले या लिखे गए शब्द वाक्य नहीं बनाते।

 अतः वाक्य के पद निरन्तर प्रवाह में पास-पास बोले या लिखे जाने चाहिए वाक्य को स्वाभाविक एवं आवश्यक बलाघात आदि के साथ बोलना पूर्ण अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है। 

 (5) पदक्रम - वाक्य में पदों का एक निश्चित क्रम होना चाहिए। 'सुहावनी है रात होती चाँदनी' इसमें पदों का क्रम व्यवस्थित न होने से इसे वाक्य नहीं मानेंगे।

 इसे इस प्रकार होना चाहिए- 'चाँदनी रात सुहावनी होती है'। (6) अन्वय - अन्वय का अर्थ है- मेल। वाक्य में लिंग, वचन, पुरुष, काल, कारक आदि का क्रिया के साथ ठीक-ठीक मेल होना चाहिए; जैसे- 'बालक और बालिकाएँ गई', इसमें कर्ता और क्रिया का अन्वय ठीक नहीं है। अतः शुद्ध वाक्य होगा 'बालक और बालिकाएँ गए'। ________________________________________  

वाक्य-विग्रह (Analysis)

👇 वाक्य-विग्रह (Analysis)- वाक्य के विभिन्न अंगों को अलग-अलग किये जाने की प्रक्रिया को वाक्य-विग्रह कहते हैं।

 इसे 'वाक्य-विभाजन' या 'वाक्य-विश्लेषण' भी कहा जाता है। सरल वाक्य का विग्रह करने पर एक उद्देश्य और एक विधेय बनते है।

👇 संयुक्त वाक्य में से योजक को हटाने पर दो स्वतन्त्र उपवाक्य (यानी दो सरल वाक्य) बनते हैं। 

 मिश्र वाक्य में से योजक को हटाने पर दो अपूर्ण उपवाक्य बनते है।

👇 सरल वाक्य= 1 उद्देश्य + 1 विधेय संयुक्त वाक्य= सरल वाक्य + सरल वाक्य मिश्र वाक्य= प्रधान उपवाक्य + आश्रित उपवाक्य 1:-Simple Sentence = 1 Objective + 1 Remarkable 2:-Joint (Compound) sentence = simple sentence + simple sentence 3:-Mixed (Complexs)entence = principal clause + dependent clause _________________________________________

वाक्य का रूपान्तरण-- (Transformation of Sentences) किसी वाक्य को दूसरे प्रकार के वाक्य में, बिना अर्थ बदले, परिवर्तित करने की प्रकिया को 'वाक्यपरिवर्तन' कहते हैं। हम किसी भी वाक्य को भिन्न-भिन्न वाक्य-प्रकारों में परिवर्तित कर सकते हैं और उनके मूल अर्थ में तनिक विकार या परिवर्तन नहीं आयेगा। हम चाहें तो एक सरल वाक्य को मिश्र या संयुक्त वाक्य में बदल सकते हैं।

👇 सरल वाक्य:- हर तरह के संकटो से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ। संयुक्त वाक्य:- संकटों ने उसे हर तरह से घेरा, (किन्तु) वह निराश नहीं हुआ। मिश्र वाक्य:- यद्यपि वह हर तरह के संकटों से घिरा था, (तथापि) निराश नहीं हुआ। वाक्य परिवर्तन करते समय एक बात विशेषत: ध्यान में रखनी चाहिए कि वाक्य का मूल अर्थ किसी भी हालत में विकृत ( परिवर्तित )न हो जाय। यहाँ कुछ और उदाहरण देकर विषय को स्पष्ट किया जाता है-

👇 (क) सरल वाक्य से मिश्र वाक्य <>👇

 1-सरल वाक्य- उसने अपने मित्र का मकान खरीदा।

 मिश्र वाक्य- उसने उस मकान को खरीदा, जो उसके मित्र का था। 

 2-सरल वाक्य- अच्छे लड़के परिश्रमी होते हैं। मिश्र वाक्य- जो लड़के अच्छे होते है, वे परिश्रमी होते हैं। 

 3-सरल वाक्य- लोकप्रिय विद्वानों का सम्मान सभी करते हैं। मिश्र वाक्य- जो विद्वान लोकप्रिय होते हैं, उसका सम्मान सभी करते हैं। (ख) सरल वाक्य से संयुक्त वाक्य<>

👇 1- सरल वाक्य- अस्वस्थ रहने के कारण वह परीक्षा में सफल न हो सका। संयुक्त वाक्य- वह अस्वस्थ था और इसलिए परीक्षा में सफल न हो सका। 

 2-सरल वाक्य- सूर्योदय होने पर कुहासा जाता रहा।

 संयुक्त वाक्य- सूर्योदय हुआ और कुहासा जाता रहा।

 3-सरल वाक्य- गरीब को लूटने के अतिरिक्त उसने उसकी हत्या भी कर दी। संयुक्त वाक्य- उसने न केवल गरीब को लूटा, बल्कि उसकी हत्या भी कर दी। 

 (ग) मिश्र वाक्य से सरल वाक्य<>

👇 1-मिश्र वाक्य- उसने कहा कि मैं निर्दोष हूँ। सरल वाक्य- उसने अपने को निर्दोष घोषित किया। 

 2-मिश्र वाक्य- मुझे बताओ कि तुम्हारा जन्म कब और कहाँ हुआ था। सरल वाक्य- तुम मुझे अपने जन्म का समय और स्थान बताओ। 

 3-मिश्र वाक्य- जो छात्र परिश्रम करेंगे, उन्हें सफलता अवश्य मिलेगी। सरल वाक्य- परिश्रमी छात्र अवश्य सफल होंगे। 

 (घ) कर्तृवाचक से कर्मवाचक वाक्य–><

👇 कर्तृवाचक वाक्य- लड़का रोटी खाता है। कर्मवाचक वाक्य- लड़के से रोटी खाई जाती है।

 कर्तृवाचक वाक्य- तुम व्याकरण पढ़ाते हो। 

जैसे कर्मवाचक वाक्य- तुमसे व्याकरण पढ़ाया जाता है। कर्तृवाचक वाक्य- मोहन गीत गाता है। कर्मवाचक वाक्य- मोहन से गीत गाया जाता है। 

 (ड़) विधिवाचक से निषेधवाचक वाक्य👇

 विधिवाचक वाक्य- वह मुझसे बड़ा है। 

 निषेधवाचक- मैं उससे बड़ा नहीं हूँ।

 विधिवाचक वाक्य- अपने देश के लिए हर एक भारतीय अपनी जान देगा। निषेधवाचक वाक्य- अपने देश के लिए कौन भारतीय अपनी जान न देगा ? वाक्य रचना के कुछ सामान्य नियम

👇 ''व्याकरण-सिद्ध पदों को मेल के अनुसार " यथाक्रम" रखने को ही 'वाक्य-रचना' कहते है।'' 

 वाक्य का एक पद दूसरे से लिंग, वचन, पुरुष, काल आदि का जो संबंध रखता है, उसे ही 'मेल' कहते हैं। जब वाक्य में दो पद एक ही लिंग-वचन-पुरुष-काल और नियम के हों तब वे आपस में (मेल, समानता या सादृश्य) रखने वाले कहे जाते हैं। निर्दोष वाक्य लिखने के कुछ नियम हैं। 

👇 इनकी सहायता से शुद्ध वाक्य लिखने का प्रयास किया जा सकता है। सुन्दर वाक्यों की रचना के लिए निर्देश:-

👇 (क) क्रम (order), (ख) अन्वय (co-ordination) और (ग) प्रयोग (using) से सम्बद्ध कुछ सामान्य नियमों का ज्ञान आवश्यक है। 

 (क) क्रम:-👇 किसी वाक्य के सार्थक शब्दों को यथास्थान रखने की क्रिया को 'क्रम' अथवा 'पदक्रम' कहते हैं। 

इसके कुछ सामान्य नियम इस प्रकार हैं-

 (i) हिंदी वाक्य के आरम्भ में 'कर्ता, मध्य में 'कर्म' और अन्त में 'क्रिया' होनी चाहिए। जैसे- मोहन ने भोजन किया। यहाँ कर्ता 'मोहन', कर्म 'भोजन' और अन्त में किया 'क्रिया' है। 

(ii) उद्देश्य या कर्ता के विस्तार को कर्ता के पहले और विधेय या क्रिया के विस्तार को विधेय के पहले रखना चाहिए।

👇 जैसे-अच्छे लड़के धीरे-धीरे पढ़ते हैं। 

 (iii) कर्ता और कर्म के बीच अधिकरण, अपादान, सम्प्रदान और करण कारक क्रमशः आते हैं। 

जैसे- मोहन ने घर में (अधिकरण) आलमारी से (अपादान) राम के लिए (सम्प्रदान) हाथ से (करण) पुस्तक निकाली।

 (iv) सम्बोधन आरम्भ में आता है। जैसे- हे प्रभु, मुझ पर दया करें।

 (v) विशेषण विशेष्य या संज्ञा के पहले आता है। 

जैसे- मेरी नीली कमीज कहीं खो गयी। 

(vi) क्रियाविशेषण क्रिया के पहले आता है। जैसे- वह तेज दौड़ता है। 

(vii) प्रश्रवाचक पद या शब्द उसी संज्ञा के पहले रखा जाता है, जिसके बारे में कुछ पूछा जाय। 

 जैसे- क्या बालक सो रहा है ? 

टिप्पणी- यदि संस्कृत की तरह हिन्दी में वाक्य रचना के साधारण क्रम का पालन न किया जाय, तो इससे कोई क्षति अथवा अशुद्धि नहीं होती। 

फिर भी, उसमें विचारों का एक तार्किक क्रम ऐसा होता है, जो एक विशेष रीति के अनुसार एक-दूसरे के पीछे आता है। 

(ख) अन्वय (मेल) 'अन्वय' में लिंग, वचन, पुरुष और काल के अनुसार वाक्य के विभित्र पदों (शब्दों) का एक-दूसरे से सम्बन्ध या मेल दिखाया जाता है।

 यह मेल कर्ता और क्रिया का, कर्म और क्रिया का तथा संज्ञा और सर्वनाम का होता हैं। कर्ता और क्रिया का मेल (i) यदि कर्तृवाचक वाक्य में कर्ता विभक्ति रहित है, तो उसकी क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष कर्ता के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार होंगे। जैसे- करीम किताब पढ़ता है। सोहन मिठाई खाता है। रीता घर जाती है।👇 __________________________________________ ⬇☣⬇🌸 (ii) यदि वाक्य में एक ही लिंग, वचन और पुरुष के अनेक विभक्ति रहित कर्ता हों और अन्तिम कर्ता के पहले 'और' संयोजक आया हो, तो इन कर्ताओं की क्रिया उसी लिंग के बहुवचन में होगी जैसे-👇 

मोहन और सोहन सोते हैं। आशा, उषा और पूर्णिमा स्कूल जाती हैं। 

(iii) यदि वाक्य में दो भिन्न लिंगों के कर्ता हों और दोनों द्वन्द्वसमास के अनुसार प्रयुक्त हों तो उनकी क्रिया पुल्लिंग बहुवचन में होगी। 

जैसे- नर-नारी गये। राजा-रानी आये। स्त्री-पुरुष मिले। माता-पिता बैठे हैं।

 (iv) यदि वाक्य में दो भिन्न-भिन्न विभक्ति रहित एकवचन कर्ता हों और दोनों के बीच 'और' संयोजक आये, तो उनकी क्रिया पुल्लिंग और बहुवचन में होगी। जैसे:- राधा और कृष्ण रास रचते हैं। बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते हैं। 

(v) यदि वाक्य में दोनों लिंगों और वचनों के अनेक कर्ता हों, तो क्रिया बहुवचन में होगी और उनका लिंग अन्तिम कर्ता के अनुसार होगा। जैसे-👇

 १-एक लड़का, दो बूढ़े और अनेक लड़कियाँ आती हैं। २-एक बकरी, दो गायें और बहुत-से बैल मैदान में चरते हैं। (vi) यदि वाक्य में अनेक कर्ताओं के बीच विभाजक समुच्चयबोधक अव्यय 'या' अथवा 'वा' रहे तो क्रिया अन्तिम कर्ता के लिंग और वचन के अनुसार होगी। जैसे- ३-घनश्याम की पाँच दरियाँ वा एक कम्बल बिकेगा। ४-हरि का एक कम्बल या पाँच दरियाँ बिकेंगी। ५-मोहन का बैल या सोहन की गायें बिकेंगी। 

(vii) यदि उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और अन्यपुरुष एक वाक्य में कर्ता बनकर आयें तो क्रिया उत्तमपुरुष के अनुसार होगी। जैसे-👇 

१-वह और हम जायेंगे। २-हरि, तुम और हम सिनेमा देखने चलेंगे। ३-वह, आप और मैं चलूँगा।

 🌸↔विद्वानों का मत है कि वाक्य में पहले मध्यमपुरुष प्रयुक्त होता है, उसके बाद अन्यपुरुष और अन्त में उत्तमपुरुष; जैसे- तुम, वह और मैं जाऊँगा। 

 कर्म और क्रिया का मेल 

 (i) यदि वाक्य में कर्ता 'ने' विभक्ति से युक्त हो और कर्म की 'को' विभक्ति न हो, तो उसकी क्रिया कर्म के लिंग, वचन और पुरुष के अनुसार ही होगी। जैसे- पिपासा ने पुस्तक पढ़ी। हमने लड़ाई जीती। उसने गाली दी। मैंने रूपये दिये। तुमने क्षमा माँगी। 

 (ii) यदि कर्ता और कर्म दोनों विभक्ति चिह्नों से युक्त हों, तो क्रिया सदा एकवचन पुल्लिंग और अन्यपुरुष में होगी। जैसे- मैंने कृष्ण को बुलाया। तुमने उसे देखा। स्त्रियों ने पुरुषों को ध्यान से देखा। 

 (iii) यदि कर्ता 'को' प्रत्यय से युक्त हो और कर्म के स्थान पर कोई क्रियार्थक संज्ञा आए तो क्रिया सदा पुल्लिंग, एकवचन और अन्यपुरुष में होगी। जैसे- तुम्हें (तुमको) पुस्तक पढ़ना नहीं आता। अलिका को रसोई बनाना नहीं आता। 

 उसे (उसको) समझ कर बात करना नहीं आता।

 (iv) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक विभक्ति रहित कर्म एक साथ आएँ, तो क्रिया उसी लिंग में बहुवचन में होगी। जैसे-

👇 श्याम ने बैल और घोड़ा मोल लिए। तुमने गाय और भैंस मोल ली।

 (v) यदि एक ही लिंग-वचन के अनेक प्राणिवाचक-अप्राणिवाचक अप्रत्यय कर्म एक साथ एकवचन में आयें, तो क्रिया भी एकवचन में होगी। 

 जैसे- मैंने एक गाय और एक भैंस खरीदी। सोहन ने एक पुस्तक और एक कलम खरीदी। मोहन ने एक घोड़ा और एक हाथी बेचा।

 (vi) यदि वाक्य में भित्र-भित्र लिंग के अनेक प्रत्यय कर्म आयें और वे 'और' से जुड़े हों, तो क्रिया अन्तिम कर्म के लिंग और वचन में होगी। जैसे-

👇 मैंने मिठाई और पापड़ खाये। उसने दूध और रोटी खिलाई। संज्ञा और सर्वनाम का मेल- 

 (i) सर्वनाम में उसी संज्ञा के लिंग और वचन होते हैं, जिसके बदले वह आता है; परन्तु कारकों में भेद रहता है।

 जैसे- शेखर ने कहा कि मैं जाऊँगा। 

शीला ने कहा कि मैं यहीं रूकूँगी। 

 (ii) सम्पादक, ग्रन्थ कार, किसी सभा का प्रतिनिधि और बड़े-बड़े अधिकारी अपने लिए 'मैं' की जगह 'हम' का प्रयोग करते हैं। जैसे- हमने पहले अंक में ऐसा कहा था। हम अपने राज्य की सड़कों को स्वच्छ रखेंगे।

 (iii) एक प्रसंग में किसी एक संज्ञा के बदले पहली बार जिस वचन में सर्वनाम का प्रयोग करे, आगे के लिए भी वही वचन रखना उचित है। 

 जैसे- 

🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तुमने हमारी पुस्तक लौटा दी हैं।

 मैं तुमसे बहुत नाराज नहीं हूँ। 

 (अशुद्ध वाक्य है।) पहली बार अंकित के लिए 'मैं' का और संजय के लिए 'तू' का प्रयोग हुआ है तो अगली बार भी 'तुमने' की जगह 'तूने', 'हमारी' की जगह 'मेरी' और 'तुमसे' की जगह 'तुझसे' का प्रयोग होना चाहिए :

👇 

 🌸↔अंकित ने संजय से कहा कि मैं तुझे कभी परेशान नहीं करूँगा। तूने मेरी पुस्तक लौटा दी है। मैं तुझसे बहुत नाराज नहीं हूँ। 

 (शुद्ध वाक्य) 

 (iv) संज्ञाओं के बदले का एक सर्वनाम वही लिंग और वचन लगेंगे जो उनके समूह से समझे जाएँगे। जैसे- शरद और संदीप खेलने गए हैं; परन्तु वे शीघ्र ही आएँगे। श्रोताओं ने जो उत्साह और आनंद प्रकट किया उसका वर्णन नहीं हो सकता।

 (v) 'तू' का प्रयोग अनादर और प्यार के लिए भी होता है। 

जैसे-👇 रे नृप बालक, कालबस बोलत तोहि न संभार। 

धनुही सम त्रिपुरारिधनु विदित सकल संसार।।

 (गोस्वामी तुलसीदास) 

 तोहि- तुझसे अरे मूर्ख ! तू यह क्या कर रहा है ?(अनादर के लिए) अरे बेटा, तू मुझसे क्यों रूठा है ? (प्यार के लिए) तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूँ। 

 (vi) मध्यम पुरुष में सार्वनामिक शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने लिए किसी संज्ञा के बदले ये प्रयुक्त होते हैं-

👇 (a) पुरुषों के लिए : महाशय, महोदय, श्रीमान्, महानुभाव, हुजूर, हुजुरेवाला, साहब, जनाब इत्यादि।

 (b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, महाशया, महोदया, देवी, बीबीजी मुसम्मात सुश्री आदि।

 (vii) आदरार्थ अन्य पुरुष में 'आप' के बदले ये शब्द आते हैं- 

(a) पुरुषों के लिए : श्रीमान्, मान्यवर, हुजूर आदि। 

 (b) स्त्रियों के लिए : श्रीमती, देवी आदि। 

 संबंध और संबंधी में मेल 

(1) संबंध के चिह्न में वही लिंग-वचन होते हैं, जो संबंधी के। जैसे- रामू का घर श्यामू की बकरी 

 (2) यदि संबंधी में कई संज्ञाएँ बिना समास के आए तो संबंध का चिह्न उस संज्ञा के अनुसार होगा, जिसके पहले वह रहेगा। जैसे- मेरी माता और पिता जीवित हैं।

 (बिना समास के) मेरे माता-पिता जीवित है।

 (समास होने पर) क्रम-संबंधी कुछ अन्य बातें 

 (1) प्रश्नवाचक शब्द को उसी के पहले रखना चाहिए, जिसके विषय में मुख्यतः प्रश्न किया जाता है। जैसे- वह कौन व्यक्ति है ? वह क्या बनाता है ? 

 (2) यदि पूरा वाक्य ही प्रश्नवाचक हो तो ऐसे शब्द (प्रश्नसूचक) वाक्यारंभ में रखना चाहिए। जैसे- क्या आपको यही बनना था ?

 (3) यदि 'न' का प्रयोग आदर के लिए आए तो प्रश्नवाचक का चिह्न नहीं आएगा और 'न' का प्रयोग वाक्य में अन्त में होगा। जैसे- आप बैठिए न। आप मेरे यहाँ पधारिए न। 

 (4) यदि 'न' क्या का अर्थ व्यक्त करे तो अन्त में प्रश्नवाचक चिह्न का प्रयोग करना चाहिए और 'न' वाक्यान्त में होगा। 

जैसे-👇 वह आज-कल स्वस्थ है न ? आप वहाँ जाते हैं न ? (5) पूर्वकालिक क्रिया मुख्य क्रिया के पहले आती है। जैसे-

👇 वह खाकर विद्यालय जाता है। शिक्षक पढ़ाकर घर जाते हैं। 

 (6) विस्मयादिबोधक शब्द प्रायः वाक्यारम्भ में आता है। जैसे- वाह ! आपने भी खूब कहा है। ओह ! यह दर्द सहा नहीं जा रहा है। 

 (ग) वाक्यगत प्रयोग- वाक्य का सारा सौन्दर्य पदों अथवा शब्दों के समुचित प्रयोग पर आश्रित है। 

 पदों के स्वरूप और औचित्य पर ध्यान रखे बिना शिष्ट और सुन्दर वाक्यों की रचना नहीं होती। 

प्रयोग-सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश निम्नलिखित हैं-

👇 कुछ आवश्यक निर्देश:– 

 (i) एक वाक्य से एक ही भाव प्रकट हो। 

 (ii) शब्दों का प्रयोग करते समय व्याकरण-सम्बन्धी नियमों का पालन हो। 

 (iii) वाक्यरचना में अधूरे वाक्यों को नहीं रखा जाये। 

 (iv) वाक्य-योजना में स्पष्टता और प्रयुक्त शब्दों में शैली-सम्बन्धी शिष्टता हो। 

 (v) वाक्य में शब्दों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हो। तात्पर्य यह कि वाक्य में सभी शब्दों का प्रयोग एक ही काल में, एक ही स्थान में और एक ही साथ होना चाहिए। 

 (vi) वाक्य में ध्वनि और अर्थ की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए। 

 (vii) वाक्य में व्यर्थ शब्द न आने पायें। 

 (viii) वाक्य-योजना में आवश्यकतानुसार जहाँ-तहाँ मुहावरों और कहावतों का भी प्रयोग हो। 

 

(ix) वाक्य में एक ही व्यक्ति या वस्तु के लिए कहीं 'यह' और कहीं 'वह', कहीं 'आप' और कहीं 'तुम', कहीं 'इसे' और कहीं 'इन्हें', कहीं 'उसे' और कहीं 'उन्हें', कहीं 'उसका' और कहीं 'उनका', कहीं 'इनका' और कहीं 'इसका' प्रयोग नहीं होना चाहिए। 

 (x) वाक्य में पुनरुक्तिदोष नहीं होना चाहिए। शब्दों के प्रयोग में औचित्य पर ध्यान देना चाहिए।

 (xi) वाक्य में अप्रचलित शब्दों का व्यवहार नहीं होना चाहिए। __________________________________________ 

"परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है"

 (xii) परोक्ष कथन (Indirect narration) हिन्दी भाषा की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं है। 

 परन्तु फिर भी इसका प्रयोग कर सकते है । यह वाक्य अशुद्ध है- उसने कहा कि उसे कोई आपत्ति नहीं है। इसमें 'उसे' के स्थान पर 'मुझे' होना चाहिए। 

 अन्य ध्यातव्य बातें (1) 'प्रत्येक', 'किसी', 'कोई' का प्रयोग- ये सदा एकवचन में प्रयुक्त होते है, बहुवचन में प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- प्रत्येक- प्रत्येक व्यक्ति जीना चाहता है।

 प्रत्येक पुरुष से मेरा निवेदन है। कोई- मैंने अब तक कोई काम नहीं किया। कोई ऐसा भी कह सकता है।

 किसी- किसी व्यक्ति का वश नहीं चलता। किसी-किसी का ऐसा कहना है। किसी ने कहा था। 

 टिप्पणी- 'कोई' और 'किसी' के साथ 'भी' अव्यय का प्रयोग अशुद्ध है। जैसे- कोई भी होगा, तब काम चल जायेगा। यहाँ 'भी' अनावश्यक है। कोई संस्कृत 'कोऽपि' का तद्भव है। ' कोई' और 'किसी' में 'भी' का भाव वर्तमान है। 

 (2) 'द्वारा' का प्रयोग- किसी व्यक्ति के माध्यम (through) से जब कोई काम होता है, तब संज्ञा के बाद 'द्वारा' का प्रयोग होता है; वस्तु (संज्ञा) के बाद 'से' लगता है। 

जैसे- सुरेश द्वारा यह कार्य सम्पत्र हुआ। युद्ध से देश पर संकट छाता है। 

 (3) 'सब' और 'लोग' का प्रयोग- सामान्यतः दोनों बहुवचन हैं। पर कभी-कभी 'सब' का समुच्चय-रूप में एकवचन में भी प्रयोग होता है।

 जैसे- तुम्हारा सब काम गलत होता है। यदि काम की अधिकता का बोध हो तो 'सब' का प्रयोग बहुवचन में होगा। जैसे- सब यही कहते हैं। हिंदी में 'सब' समुच्चय और संख्या- दोनों का बोध कराता है। 

👇 'लोग' सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है। जैसे- लोग अन्धे नहीं हैं। लोग ठीक ही कहते हैं। कभी-कभी 'सब लोग' का प्रयोग बहुवचन में होता है। 

'लोग' कहने से कुछ व्यक्तियों का और 'सब लोग' कहने से अनगिनत और अधिक व्यक्तियों का बोध होता है। 

जैसे- सब लोगों का ऐसा विचार है। सब लोग कहते है कि गाँधीजी महापुरुष थे। 

 (4) व्यक्तिवाचक संज्ञा और क्रिया का मेल- यदि व्यक्तिवाचक संज्ञा कर्ता है, तो उसके लिंग और वचन के अनुसार क्रिया के लिंग और वचन होंगे।

 जैसे- काशी सदा भारतीय संस्कृति का केन्द्र रही है। यहाँ कर्ता (काशी) स्त्रीलिंग है। पहले कलकत्ता भारत की राजधानी था। यहाँ कर्ता (कलकत्ता) पुल्लिंग है। उसका ज्ञान ही उसकी पूँजी था। यहाँ कर्ता पुल्लिंग है।

 (5) समयसूचक समुच्चय का प्रयोग- ''तीन बजे हैं। आठ बजे हैं।'' इन वाक्यों में तीन और आठ बजने का बोध समुच्चय में हुआ है।

 (6) 'पर' और 'ऊपर' का प्रयोग- 'ऊपर' और 'पर' व्यक्ति और वस्तु दोनों के साथ प्रयुक्त होते हैं। किन्तु 'पर' सामान्य ऊँचाई का और 'ऊपर' विशेष ऊँचाई का बोधक है। जैसे- पहाड़ के ऊपर एक मन्दिर है।

 इस विभाग में मैं सबसे ऊपर हूँ। हिंदी में 'ऊपर' की अपेक्षा 'पर' का व्यवहार अधिक होता है। जैसे- मुझ पर कृपा करो। छत पर लोग बैठे हैं। गोपाल पर अभियोग है। मुझ पर तुम्हारे एहसान हैं। 

 (7) 'बाद' और 'पीछे' का प्रयोग- यदि काल का अन्तर बताना हो, तो 'बाद' का और यदि स्थान का अन्तर सूचित करना हो, तो 'पीछे' का प्रयोग होता है।

 जैसे- उसके बाद वह आया- काल का अन्तर। 

 मेरे बाद इसका नम्बर आया- काल का अन्तर। गाड़ी पीछे रह गयी- स्थान का अन्तर। मैं उससे बहुत पीछे हूँ- स्थान का अन्तर। 

(क) नए, नये, नई, नयी का शुद्ध प्रयोग- जिस शब्द का अन्तिम वर्ण 'या' है उसका बहुवचन 'ये' होगा। 'नया' मूल शब्द है, इसका बहुवचन 'नये' और स्त्रीलिंग 'नयी' होगा। 

 (ख) गए, गई, गये, गयी का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'गया' है। उपरिलिखित नियम के अनुसार 'गया' का बहुवचन 'गये' और स्त्रीलिंग 'गयी' होगा। 

 (ग) हुये, हुए, हुयी, हुई का शुद्ध प्रयोग- मूल शब्द 'हुआ' है, एकवचन में। इसका बहुवचन होगा 'हुए'; ' हुये' नहीं 'हुए' का स्त्रीलिंग 'हुई' होगा; 'हुयी' नहीं। 

 (घ) किए, किये, का शुद्ध प्रयोग- 'किया' मूल शब्द है; इसका बहुवचन 'किये' होगा। 

 (ड़) लिए, लिये, का शुद्ध प्रयोग- दोनों शुद्ध रूप हैं।

 किन्तु जहाँ अव्यय व्यवहृत होगा वहाँ 'लिए' आयेगा; जैसे- मेरे लिए उसने जान दी।

 क्रिया के अर्थ में 'लिये' का प्रयोग होगा; क्योंकि इसका मूल शब्द 'लिया' है।

 (च) चाहिये, चाहिए का शुद्ध प्रयोग- 'चाहिए' अव्यय है। अव्यय विकृत नहीं होता। इसलिए 'चाहिए' का प्रयोग शुद्ध है; 'चाहिये' का नहीं। 'इसलिए' के साथ भी ऐसी ही बात है। _________________________________________

सन्धि-विधायक-सूत्र  सन्धि-प्रकरण-

      _________________________________               

-ऊकालोऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥

 ऊकालो ऽज्झ्रस्वदीर्घप्लुतः॥ पाणिनि १/२/२७॥

संस्कृत विवृत्ति:-उश्च ऊश्च ऊ३श्च वः॑ वां काल इव कालो यस्य सो ऽच् क्रमाद् ह्रस्वदीर्घप्लुतसंज्ञः स्यात्।

स प्रत्येकमुदात्तादि भेदेन त्रिधा।

व्याख्यायित:- १-(उ) २-(ऊ) ३-(ऊ 'उ/ (उ३) यह तीनों उकारें व: कहलाती है !

इन तीनों के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके समान ही उपचारण काल वाले स्वरों की क्रमश हृस्व , दीर्घ और प्लुत संज्ञा होती है।

ये इस हृस्व ,दीर्घ , तथा प्लुत संज्ञा उदात्त ,अनुदात्त ,और स्वरित भेद से तीन प्रकार की होती हैं ।

फिर अनुनासिक और निरानुनासिक

दो और भेद होते हैं ।

__________________________________________

अब विचार करते हैं वर्णों की मात्राओं पर👇

अर्थात् एकमात्रा वाला ह्रस्व स्वर होता है ;

और दीर्घ मात्रा वाला स्वर दीर्घ तथा तीन मात्रा वाला स्वर प्लुत समझना चाहिए  परन्तु व्यंजन तो अर्थ मात्रा का होता है ।

एकमात्रो भवेध्रस्व: द्विमात्रो दीर्घ उच्यते।

त्रिमात्रक:प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनाञ्चार्धमात्रक।।१।

उच्चारण स्थान की दृष्टि से भेद 👇

अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।

इचुयशानां तालु:।

ऋटुरषाणां मूर्धा ।

लृतुलसानां दन्ताः ।

उपूपध्मानायानामोष्ठौ ।

ञमङणनानां नासिका च ।

एदैतोः कण्ठ -तालु ।

ओदौतोः कण्ठोष्ठं ।

वकारस्य दन्तोष्ठं ।

जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलं ।

नासिकानुस्वारस्य ।

कण्ठ, तालु , मूर्धा , दन्त , ओष्ठ और नासिका - ये

मुख्य उच्चारण स्थान हैं ।

यदि  पाणिनी के व्याकरण (अष्टाध्यायी ) के ये

सूत्र याद कर लें 

ये छोटे सूत्र ये हैं :

अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः - अ , आ , ' क' वर्ग के

अक्षर ( क-ख-ग-घ- ङ ) , ह और विसर्ग (:)

इनका उच्चारण स्थान कंठ होता है ।

इचुयशानां तालु - इ , ई , ' च ' वर्ग के अक्षर (च -छ -ज -

झ -ञ ), य और श - इनका उच्चारण स्थान तालु

होता है ।

ऋटुरषाणां मूर्धा - ऋ, ' ट' वर्ग के अक्षर ( ट- ठ- ड -

ढ- ण) र और ष - ये मूर्धा से बोले जाते हैं ।

ॡतुलसानां दन्ताः - ॡ , 'त ' वर्ग के अक्षर (त - थ-

द-ध - न) और स - ये दान्तों से उच्चारित होते हैं -

जब तक हमारी जिह्वा दांतों को नहीं छूती , ये वर्ण

नहीं बोले जा सकते ।

उपूपध्मानायानामोष्ठौ - उ, ऊ 'प ' वर्ग के

अक्षर ( प-फ - ब -भ -म ) और बाँसुरी ( ध्मा)

की आवाज - ये सब ओठों से उच्चारित होते हैं।

ञमङणनानां नासिका च - ङ , ञ , ण, न, म - ये

अपने - अपने वर्ग के अतिरिक्त

नासिका द्वारा भी उच्चारित होते हैं ।

यदि अपने नाक को हम उंगलियों से दबा कर ये

अक्षर बोलें तो ध्वनि नहीं निकलेगी ।

वकारस्य कण्ठोष्ठं - ' व' शब्द कंठ और ओंठों से

बोला जाता है ।

हमारी जिह्वा उच्चारण में विशेष योग देती है,

फिर भी ’ जिह्वा’ या जीभ

को महर्षि पाणिनि ने कोई जगह

नहीं दी क्योंकि अकेली जीभ कोई शब्द

नहीं निकाल सकती  यह एक यन्त्र वत्स है ! ..

.....

ध्वनि भाषा की लघुतम और

अनिवार्य इकाई है । इसके वर्गीकरण का विशेष

महत्व बनता है -

तेषां विभागः पञ्चधा स्मृतः ।

स्वरतः कालतः स्थानात् प्रयत्न अनुदात्तुदानतः ।💐↔

(अष्टाध्यायी - 9.10)

वर्णों के भेद तीन प्रकार के होते हैं –

1-कालकृत -2-उच्चारण-स्थानकृत 3-नासिका कृत ।जिन वर्णों के उच्चारण स्थान और प्रयत्न समान हों वही सवर्ण या सजातीय होते हैं ।

जिनमें तीन प्रमुख है-

(1)स्थान

(2) प्रयत्न

(3) करण

(1) स्थान के आधार पर ध्वनियों का वर्गी करण-

(१-) कण्ठ्य - अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः ।

(अ, ह, कवर्ग और विसर्ग:)

(२-) तालव्य - इचुयशानां तालु । (इ, य, श, चवर्ग)

(३-) मूर्धन्य - ऋटुरषाणां मूर्धा । (ऋ, ष, टवर्ग)

(४-) दन्त्य - लृतुलसानां दन्ताः । (ल, स, तवर्ग)

(५-) ओष्ठ्य - उपुपमाध्मीयानामौष्ठौ ।

(उ,पवर्ग)

(६-)- दन्त्योष्ठ्य - वकारस्य दन्त्योष्ठम् ।

(७-)उभयोष्ठ्य - घ़, ब़, भ़, म़, व़ ।

(८-) जिह्वामूलीय - जिह्वामूलीयस्य

जिह्वामूलम् ।

(2) प्रयत्न के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण

प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः

यत्नो द्विविधा - आभ्यान्तरो बाह्यश्च ।

(क) आभ्यान्तर प्रयत्न -

(1) स्पृष्ट (स्पर्श्य) - क से म तक । (25 वर्ण)

(2) ईषत्स्पृष्ट (अन्तस्थ) - यणोऽन्तस्थाम् ।(य, व,

र, ल ।)

(3) विवृत (स्वर) - अच स्वराः । ( स्वर)

(4) ईषत्विवृत (उष्म) - शल उष्मणः । (श, ष, स, ह ।)

(5) संवृत - ह्रस्व अ वर्ण ।

(ख) बाह्य प्रयत्न -

(1) विवार -खरो विवाराः  श्वासा अघोषाश्च ।

( वर्ग के प्रथम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

(2) श्वास -खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।

( वर्ग के प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

💐↔(3) अघोष -

खरो विवाराः श्वासा अघोषाश्च ।

( वर्ग के

प्रधम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स )

(4) संवार - हशः संवारा नादा घोषाश्च ।

(वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र,

ल, व)

💐↔(5) नाद - हशः संवारा नादा घोषाश्च । (वर्ग

के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)

वर्णों के उच्चारण में एक प्रयत्न जिसमें कंठ न तो बहुत फैलाकर न संकुचित करके वायु निकालनी पड़ती है। 

अनुस्वार के समान उच्चारित होनेवाला वर्ण। 

सानुनासिक स्वर।

(6) घोष - हशः संवारा नादा घोषाश्च

(वर्ग के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ वर्ण तथा य, र, ल, व)

शब्दों के उच्चारण में ११ बाह्य प्रयत्नों में से एक । इस प्रयत्न से वर्ण बोले जाते हैं—ग, घ, ज, झ, ल, ढ द, ध, ब, भ, ङ, ञ ण, न म, य, र, ल, व, और ह ।

(7) अल्पप्राण - वर्गानां प्रथम तृतीय पञ्चम

यणश्चाल्पप्राणाः । (वर्ग के प्रथम, तृतीय,

पञ्चम वर्ण तथा य, र, ल, व)

(8) महाप्राण- वर्गानाम् द्वितीय

चतुर्थ श''ष'स'कारश्च महाप्राणाः ।

 (वर्ग के द्वितीय चतुर्थ वर्ण तथा श, ष, स)

(9) उदात्त - स्वर

(10) अनुदात्त - स्वर

(11) स्वरित - स्वर

कण्ठ ,-तालु और मूर्धा आदि वर्णों के उच्चारण-स्थान के ऊर्ध्व अथवा ऊपरी भाग से जो शब्द या स्वर उच्चरित होते हैं उनकी उदात्त संज्ञा होती है।

जैसे 'इ' का उच्चारण-स्थान -तालु है- और जब 'इ' स्वर का उच्चारण -तालु के ऊपरी भाग से होगा तो 'इ' स्वर उदात्त संज्ञक होगा । और  यदि इस 'इ' स्वर का उच्चारण-तालु के नीचे के भाग से होगा तो'इ'स्वर अनुदात्त संज्ञक होगा।

_____________

वास्तव में जैसे हारमॉनियम में स्वरों का दबता -उछलता क्रम जिन्हें कोमल और शुद्ध रूप भी कहते हैं। और यदि ये दोनौं मध्यम स्थिति में हों तो स्वरित संज्ञक होते हैं ।

यह कहे गये स्वर नौ प्रकार के होते हैं ; क्योंकि कि प्रत्येक स्वर पहले हृस्व दीर्घ तथा प्लुत के भेद से तीन प्रकार का होता है- ।

तत्पश्चात् स्थान के आधार पर इन तीनों के तीन तीन भेद और होते हैं

उदात्त , अनुदात्त और स्वरित इस प्रकार स्वर के नौ प्रकार हुए ।

इसके भी पश्चात भी पुन: नौं स्वरों में प्रत्येक के मुख के साथ नासिका के संयोजन वियोजन भेद से अनुनासिक तथा अननुनासिक (निरानुनासिक)दो भेद और हो जाने से  स्वर के  अठारह भेद होते हैं ।

इन स्वरों में  " लृ " स्वर के बारह भेद ही होते हैं क्योंकि कि इनका दीर्घ नहीं होता ।इसी प्रकार एच् ( एऐओऔ)

सन्धि स्वर भी बारह प्रकार के होते हैं । 

क्योंकि इनमें हृस्व स्वर नहीं होते हैं ।

_____________________________

पाणिनि के अनुसार इस अ' स्वर का उच्चारण कंठ से होता है। उच्चारण के अनुसार संस्कृत में इसके अठारह भेद हैं:-

(१) सानुनासिक :


ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरितदीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरितप्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित

(२) निरनुनासिक :


ह्रस्व उदात्त अनुदात्त स्वरितदीर्घ उदात्त अनुदात्त स्वरितप्लुत उदात्त अनुदात्त स्वरित

हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अ के प्राय दो ही उच्चारण ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। केवल पर्वतीय प्रदेशों में, जहाँ दूर से लोगों को बुलाना या संबोधन करना होता है, प्लुत का प्रयोग होता है। इन उच्चारणों को क्रमश अ, अ और अ से व्यक्त किया जा सकता है। 

_________

अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)- मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||
मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | एचामपि द्वादश,तेषां ह्रस्वाभावात् | 

___________________

(अनुनासिकसंज्ञाविधायकं संज्ञासूत्रम्)

 - मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः 1|1|8||

मुखसहितनासिकयोच्चार्यमाणो वर्णोऽनुनासिकसंज्ञः स्यात् | तदित्थम्- अ-इ-उ-ऋ एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् |एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् |

_______

  मुख और नासिका से एक साथ उच्चारित होने वाले वर्ण अनुनासिकसंज्ञक होते हैं।

    वास्तव में वर्णों का उच्चारण तो मुख से ही होता है किंतु ङ्, ञ्, ण्, न्, म् आदि वर्ण और अनुनासिक (अँ, इॅं, उॅं आदि) तथा अनुस्वार (अं, इं, उं आदि) के उच्चारण में नासिका (नाक) की भी सहायता चाहिए | 

नासिका की सहायता से मुख से उच्चारित होने वाले ऐसे वर्ण अनुनासिक कहलाते हैं |

 जो अनुनासिक नहीं है, वे अननुनासिक या निरनुनासिक कहलाते हैं |  

 ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित, अनुनासिक ये अचों (स्वरों) में रहने वाले धर्म है | 

अपवाद के रूप में (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये व्यंजन होते हुए भी इन्हें अनुनासिक कहा जाता है |  इसी प्रकार (यॅं, वॅं, लॅं) भी अनुनासिक माने जाते हैं और (य्, व्, ल्) के रूप में निरनुनासिक भी हैं | जहाॅं पर अनुनासिक का व्यवहार होगा वहां पर अनुनासिक अच् और (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) ये समझे जाते हैं |

 इस संबंध में आगे यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा आदि सूत्रों का प्रसंग देखना चाहिए। 

  तदित्थम्- (अ-इ-उ-ऋ) एषां वर्णानां प्रत्येकमष्टादश भेदाः |

अर्थ • इस प्रकार से (अ, इ, उ और ऋ )इन चार वर्णों के अट्ठारह-अट्ठारह भेद हुए।

   लृवर्णस्य द्वादश, तस्य दीर्घाभावात् | लृ के दीर्घ न होने से 12 भेद होते हैं।

   एचामपि द्वादश, तेषां ह्रस्वाभावात् | एचों का ह्रस्व नहीं होता है, इसलिए 12 ही भेद होते हैं।

   पहले अच् अर्थात्-( अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ) ये वर्ण ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत के कारण प्रत्येक तीन-तीन भेद वाले हो गए किंतु लृ की दीर्घ मात्रा नहीं है, इसलिए लृ के ह्रस्व और प्लुत दो ही भेद हुए |

 इसी प्रकार एच् अर्थात् ( ए, ओ, ऐ, औ )का ह्रस्व नहीं होता, अतः एच् के दीर्घ और प्लुत ही दो-दो भेद हो गए | शेष अ, इ, उ, ऋ ये चारों वर्ण ह्रस्व भी हैं, दीर्घ भी होते हैं और प्लुत भी होते हैं, इसलिए यह तीन-तीन भेद वाले माने जाते हैं।

  इस प्रकार से दो एवं तीन भेद वाले प्रत्येक अच् वर्ण उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से पुनः तीन-तीन प्रकार के हो जाते हैं | 

जैसे प्रत्येक ह्रस्व अच् उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का, ।

दीर्घ अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार का ।

और प्लुत अच् वर्ण भी उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के भेद से तीन प्रकार के हो जाने से कुछ अच् छः प्रकार के और कुछ (9) प्रकार के हो गए | 

 (6) प्रकार के इसलिए कि जिन वर्णों में ह्रस्व या दीर्घ नहीं थे वे दो-दो प्रकार के थे, इसलिए अब उदात्तादि स्वरों के कारण छः-छः प्रकार के हो गए |

 जिन अच् वर्णों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों हैं वे उदात्तादि स्वरों के कारण नौ-नौ प्रकार के हो गए | इस प्रकार से अभी तक अचों के 6 या 9 प्रकार के भेद सिद्ध हुए।

  वे ही वर्ण पुनः अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप ये 12 और 18 प्रकार के भेद वाले हो जाते हैं | 

इसके पहले जो 6 प्रकार के थे, वे 12 प्रकार के एवं जो 9 प्रकार के थे, वे 18 प्रकार के हो जाते हैं।

 अनुनासिक पक्ष के छः और नौ भेद तथा अननुनासिक पक्ष के भी छः और नौ भेद होते हैं | 

इस प्रकार से अ, इ, उ, ऋ के अट्ठारह-अट्ठारह भेद तथा लृ, ए, ओ, ऐ, औ के 12-12 भेद सिद्ध हुए | य्-व्-ल् ये वर्ण अनुनासिक और अननुनासिक के भेद से दो-दो प्रकार के हैं।

इस विषय को तालिका के माध्यम से समझते हैं-

ह्रस्व-अ, इ, उ, ऋ, लृ

दीर्घ-आ, ई, ऊ, ॠ, ए, ओ, ऐ, औ

प्लुत-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ

(क)-1. ह्रस्व उदात्त अनुनासिक

2. दीर्घ उदात्त अनुनासिक

3. प्लुत उदात्त अनुनासिक

(ख)1-. ह्रस्व उदात्त अननुनासिक

2- दीर्घ उदात्त अननुनासिक

3-. प्लुत उदात्त अननुनासिक

(ग)1. ह्रस्व अनुदात्त अनुनासिक

2-. दीर्घ अनुदात्त अनुनासिक

3- प्लुत अनुदात्त अनुनासिक

(घ)1-. ह्रस्व स्वरित अननुनासिक

2. दीर्घ स्वरित अननुनासिक

3. प्लुत स्वरित अननुनासिक

________ 

करण के आधार पर ध्वनियों का वर्गीकरण -

मुखगह्वर में स्थित इन्द्रियाँ ही करण हैं ।

स्थान और करण का भेद मूलतः जङ़ता और

गतिशीलता है ।

यद्यपि स्थान और करण

दोनों ही वागेन्द्रियाँ हैं, किन्तु भेद चल और

अचल का है ।

स्थान स्थिर होता है और करण

अस्थिर एवं गतिशील ।

करण में निम्न

इन्द्रियों का समावेश होता है - अधरोष्ठ,

जिह्वा, कोमल तालु, स्वर तंत्री ।...

______________________

क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है। एक बार बोल कर देखिये |

च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।

एक बार बोल कर देखिये |

ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।

__________

त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ( जिह्वा )जीभ दांतों से स्पर्श करती है ।

_______________________   

स्वर-सन्धि-विधायक-सूत्र  सन्धि-प्रकरण 

 १-दीर्घस्वर सन्धि-।

२- गुण स्वर सन्धि-।

३-वृद्धि स्वर सन्धि-।

४-यण् स्वर सन्धि-।

५-अयादि स्वर सन्धि-। 

६-पूर्वरूप सन्धि-।  

 ७-पररूपसन्धि-।     

 ८-प्रकृतिभाव सन्धि-।

स्वर संधि – अच् संधि-विधान


दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:


गुण संधि – आद्गुण:


वृद्धि संधि – वृद्धिरेचि


यण् संधि – इकोयणचि


अयादि संधि – एचोऽयवायाव:


पूर्वरूप संधि – एड॰: पदान्तादति


पररूप संधि – एडि॰ पररूपम्


प्रकृतिभाव संधि – ईदूद्ऐदद्विवचनम् प्रग्रह्यम्

____________________

__

१-दीर्घ संधि – अक: सवर्णे दीर्घ:, संस्कृत व्याकरणम्

दीर्घ स्वर संधि-

दीर्घ संधि का सूत्र( अक: सवर्णे दीर्घ:) होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है। 

संस्कृत में स्वर संधियाँ मुुख्यत: आठ प्रकार की होती है। 

दीर्घसंधि, गुण संधि, वृद्धिसंधि, यण् -संधि, अयादिसंधि, पूर्वरूप संधि, पररूपसंधि, प्रकृतिभाव संधि आदि ।

इस पृष्ठ पर हम दीर्घ संधि का अध्ययन करेंगे !

दीर्घ संधि के चार नियम होते हैं!

सूत्र-(अक: सवर्णे दीर्घ:) अर्थात् अक् प्रत्याहार के बाद उसका सवर्ण आये तो दोनों मिलकर दीर्घ बन जाते हैं। ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ के बाद यदि ह्रस्व या दीर्घ अ, इ, उ, ऋ आ जाएँ तो दोनों मिलकर दीर्घ आ, ई और ऊ, ॠ हो जाते हैं। जैसे –

(क) अ/आ + अ/आ = आ

अ + अ = आ –> धर्म + अर्थ = धर्मार्थ
अ + आ = आ –> हिम + आलय = हिमालय
अ + आ =आ–> पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
आ + अ = आ –> विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
आ + आ = आ –> विद्या + आलय = विद्यालय

(ख) इ और ई की संधि= ई

इ + इ = ई –> रवि + इंद्र = रवींद्र ; मुनि + इंद्र = मुनींद्र
इ + ई = ई –> गिरि + ईश = गिरीश ; मुनि + ईश = मुनीश
ई + इ = ई –> मही + इंद्र = महींद्र ; नारी + इंदु = नारींदु
ई + ई = ई –> नदी + ईश = नदीश ; मही + ईश = महीश .

(ग) उ और ऊ की संधि =ऊ

उ + उ = ऊ –> भानु + उदय = भानूदय ; विधु + उदय = विधूदय
उ + ऊ = ऊ –> लघु + ऊर्मि = लघूर्मि ; सिधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
ऊ + उ = ऊ –> वधू + उत्सव = वधूत्सव ; वधू + उल्लेख = वधूल्लेख
ऊ + ऊ = ऊ –> भू + ऊर्ध्व = भूर्ध्व ; वधू + ऊर्जा = वधूर्जा

(घ) ऋ और ॠ की संधि=ऋृ

ऋ + ऋ = ॠ –> पितृ + ऋणम् = पित्रणम्

प्रश्न - स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 

उत्तर-  दो स्वरों के मेल से जो विकार या रूप परिवर्तन होता है , उसे स्वर सन्धि कहते हैं ।   जैसे - 
हिम + आलय  = हिमालय (अ +आ = आ )  [ म् +अ = म ] 'म' में 'अ' स्वर जुड़ा हुआ है 
विद्या = आलय = विद्यालय (आ +आ = आ ) 
पो  + अन    =  पवन (ओ  +अ  = अव ) 
[यहाँ पर प्+ओ +अन ( प् +अव् (ओ के स्थान पर )+अन )
प्+अव = पव  
पव +अन = पवन ]

प्रश्न - स्वर सन्धि के कितने  प्रकार हैं ? 

उत्तर - स्वर संधि के प्रमुख पाँच प्रकार हैं - 

दीर्घ स्वर संधि 


गुण स्वर संधि 


वृद्धि स्वर संधि 


यण् स्वर संधि 


अयादि स्वर संधि    


प्रश्न - दीर्घ स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए । 

उत्तर - जब दो सवर्ण स्वर आपस में मिलकर दीर्घ हो जाते हैं , तब दीर्घ स्वर संधि होता है ।  यदि     'अ'  'आ'  'इ ' 'ई' 'उ' 'ऊ'  और 'ऋ' के बाद हृस्व या दीर्घ स्वर आए  तो दोनों मिलकर क्रमशः 'आ' 'ई' 'ऊ' और ऋ हो जाते हैं  अर्थात दीर्घ हो जाते हैं ।  

अ + अ = 

उ + उ = 

अ + आ = 

उ + ऊ = 

आ + आ =

ऊ + उ = 

आ + अ = 

ऊ + ऊ = 

इ + इ  = 

ऋ + ऋ = 

इ + ई = 

दीर्घ स्वर संधि के नियम

ई + ई = 

ई + इ = 

जैसे -
 ( अ + अ  = आ ) 

ज्ञान + अभाव  = ज्ञानाभाव   
स्व + अर्थी  =  स्वार्थी  
देव + अर्चन  =  देवार्चन  
मत +  अनुसार  =  मतानुसार 
राम + अयन  =  रामायण 
काल + अन्तर  =  कालान्तर 
कल्प + अन्त  =  कल्पान्त 
कुश  +  अग्र  =  कुशाग्र 
कृत  + अन्त  =  कृतान्त 
कीट  + अणु  =  कीटाणु 
जागृत  + अवस्था  =  जागृतावस्था
देश  + अभिमान  =  देशाभिमान 
देह  + अन्त  =  देहान्त  
कोण  + अर्क  =  कोणार्क 
क्रोध + अन्ध  = क्रोधान्ध 
कोष  + अध्यक्ष  =  कोषाध्यक्ष
ध्यान + अवस्था   = ध्यानावस्था 
मलय +अनिल  = मलयानिल 
स + अवधान = सावधान  
______________________
( अ + आ  = आ ) 

परम + आत्मा  = परमात्मा  
घन  + आनन्द  =  घनानन्द 
चतुर + आनन  = चतुरानन 
परम +  आनंद  =  परमानंद 
पर + आधीनता = पराधीनता 
पुस्तक  +  आलय  = पुस्तकालय 
हिम +  आलय  = हिमालय 
एक  +  आकार  =  एकाकार 
एक  +  आध  =  एकाध 
एक  + आसन =  एकासन 
कुश  + आसन  =  कुशासन 
कुसुम  +  आयुध  =  कुसुमायुध 
कुठार  +  आघात  =  कुठाराघात 
खग +आसन  =  खगासन
भोजन + आलय = भोजनालय 
भय + आतुर = भयातुर 
भाव + आवेश  = भावावेश 
मरण + आसन्न  = मरणासन्न 
फल + आगम  = फलागम 
रस + आस्वादन = रसास्वादन 
रस + आत्मक = रसात्मक 
रस + आभास = रसाभास 
राम + आधार = रामाधार 
लोप + आमुद्रा = लोपामुद्रा 
वज्र + आघात = वज्राघात 
स + आश्चर्य = साश्चर्य 
साहित्य +आचार्य = साहित्याचार्य 
सिंह + आसन = सिंहासन 

________________
( आ + अ   = आ )

विद्या + अर्थी  =  विद्यार्थी    
भाषा + अन्तर = भाषान्तर 
रेखा + अंकित = रेखांकित 
रेखा + अंश = रेखांश 
लेखा + अधिकारी = लेखाधिकारी 
विद्या +अर्थी = विद्यार्थी 
शिक्षा +अर्थी = शिक्षार्थी 
सभा + अध्यक्ष = सभाध्यक्ष 
सीमा + अन्त = सीमान्त 
आशा + अतीत = आशातीत 
कृपा + आचार्य = कृपाचार्य 
कृपा + आकाँक्षी = कृपाकाँक्षी 
तथा + आगत = तथागत 
महा + आत्मा = महात्मा 

___________________
( आ + आ  = आ ) 
मदिरा + आलय  = मदिरालय 
महा + आशय = महाशय 
महा +आत्मा = महात्मा 
राजा + आज्ञा = राजाज्ञा 
लीला+ आगार = लीलागार 
वार्ता +आलाप = वार्तालाप 
विद्या +आलय = विद्यालय 
शिला + आसन = शिलासन 
शिक्षा + आलय = शिक्षालय 
क्षुधा + आतुर = क्षुधातुर 
क्षुधा +आर्त = क्षुधार्त 

_______________________
 ( इ + इ  = ई  ) 

कवि + इन्द्र  = कवीन्द्र
मुनि + इंद्र  = मुनींद्र  
रवि + इंद्र = रवींद्र   
अति + इव = अतीव  
अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय 
गिरि +  इंद्र = गिरीन्द्र
प्रति + इति = प्रतीत 
हरि  + इच्छा = हरीच्छा 
फणि + इन्द्र  = फणीन्द्र 
यति + इंद्र = यतीन्द्र 
अति + इत  = अतीत 
अभि + इष्ट = अभीष्ट 
प्रति + इति = प्रतीति 
प्रति + इष्ट = प्रतीष्ट
प्रति + इह = प्रतीह    

___________________ 
 ( इ  + ई  = ई ) 
गिरि + ईश  = गिरीश   
मुनि + ईश  = मुनीश 
रवि + ईश  = रवीश 
हरि + ईश = हरीश 
कपि+ ईश = कपीश 
कवी + ईश = कवीश 

________________________
 ( ई + ई  = ई ) 

सती + ईश  = सतीश             
मही + ईश्वर  = महीश्वर  
रजनी + ईश = रजनीश 

________________________
( ई + इ  = ई ) 

मही + इंद्र   = महीन्द्र   

___________________
( उ + उ  = ऊ )         

गुरु + उपदेश = गुरूपदेश      

भानु + उदय  = भानूदय  
विधु + उदय = विधूदय  
सु + उक्ति = सूक्ति 
लघु + उत्तरीय = लघूत्तरीय   

____________________
  उ  +  = ऊ )
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि   

__________
( ऊ + उ = ऊ )
वधू  + उत्सव = वधूत्सव  

____________
 ( ऊ + ऊ = ऊ )   
भू  + ऊर्जा  = भूर्जा            
भू + ऊर्ध्व  = भूर्ध्व 
 ( ऋ + ऋ = ऋृ ) 

पितृ + ऋण  = पितृण  
मातृ + ऋण  = मातृण  ।

________________________________

गुणसन्धि  अदेङ्गुणःअचि असवर्णे-(इउॠऌ)एषांस्थाने(एओअर् 'अल्') एतेगुणसंज्ञाभवन्ति

गुण_सन्धि:

सूत्र- अदेङ् गुणः ( 1/1/2 )

सूत्रार्थ—यह सूत्र गुण संज्ञा करने वाला सूत्र है । यह सूत्र गुण संज्ञक वर्णों को बताता है ।

(अत् एङ् च गुणसञ्ज्ञः स्यात्)

ह्रस्व अकार और एङ् ( अ, ए, ओ ) वर्ण  गुण संज्ञक वर्ण है।

व्याख्या :-अ या आ के साथ इ या ई के मेल से ‘ए’ , अ या आ के साथ उ या ऊ के मेल से ‘ओ’ तथा अ या आ के साथ ऋ के मेल से ‘अर्’ बनता है ।
यथा :–
१.अ/आ + इ/ई = ए
सुर + इन्द्र: = सुरेन्द्र: ,तरुण+ईशः= तरुणेश:
रामा +ईशः = रमेशः ,स्व + इच्छा = स्वेच्छा,
नेति = न + इति, भारतेन्दु:= भारत + इन्दु:
नर + ईश: = नरेश: , सर्व + ईक्षण: = सर्वेक्षण:
प्रेक्षा = प्र + ईक्षा ,महा + इन्द्र: = महेन्द्र:
यथा +इच्छा = यथेच्छा ,राजेन्द्र: = राजा + इन्द्र:
यथेष्ट = यथा + इष्ट:, राका + ईश: = राकेश:
द्वारका +ईश: = द्वारकेश:, रमेश: = रमा + ईश:
मिथिलेश: = मिथिला + ईश:।

_________
२.अ/आ + उ/ऊ = ओ
पर+उपकार: = परोपकारः, सूर्य + उदय: = सूर्योदय:
प्रोज्ज्वल: = प्र + उज्ज्वल: ,
सोदाहरण: = स +उदाहरण:
अन्त्योदय: = अन्त्य + उदय: ,जल + ऊर्मि: = जलोर्मि:
समुद्रोर्मि: = समुद्र + ऊर्मि:, जलोर्जा = जल + ऊर्जा
महा + उदय:= महोदय: ,यथा+उचित = यथोचित:
शारदोपासक: = शारदा + उपासक:
महोत्सव: = महा + उत्सव:
गंगा + ऊर्मि: = गंगोर्मि: ,महोरू: = महा + ऊरू:।

________
३.अ /आ + ऋ = अर्
देव + ऋषि: = देवर्षि: ,शीत + ऋतु: = शीतर्तु:
सप्तर्षि: = सप्त + ऋषि: ,उत्तमर्ण:= उत्तम + ऋण:
महा + ऋषि: = महर्षि: ,राजर्षि: = राजा + ऋषि: आदि 

प्रश्न - गुण स्वर सन्धि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए ।  

उत्तर -  यदि  'अ'  या 'आ' के बाद 'इ' या 'ई'   'उ' या 'ऊ'  और ऋ आए तो दोनों मिलकर क्रमशः 'ए' 'ओ'  और अर  हो जाता है । इस मेल को गुण स्वर संधि कहते हैं । 

अ + इ = ए

 + उ = ओ

आ  + इ = ए

  +   = 

अ + ई = ए

 + ऋ= अर 

आ + ई = ए

आ + ऋ = अर्

अ + उ = ओ

गुण स्वर संधि के नियम

जैसे -
( अ  + इ = ए ) 

देव + इन्द्र  = देवेन्द्र   
सुर + इंद्र = सुरेंद्र 
भुजग + इन्द्र  = भुजगेन्द्र 
बाल + इंद्र = बालेन्द्र
मृग + इंद्र = मृगेंद्र 
योग + इंद्र = योगेंद्र 
राघव +इंद्र  = राघवेंद्र 
विजय + इच्छा = विजयेच्छा 
शिव + इंद्र = शिवेंद्र 
वीर + इन्द्र = वीरेन्द्र 
शुभ + इच्छा = शुभेच्छा 
ज्ञान + इन्द्रिय = ज्ञानेन्द्रिय 
खग + ईश = खगेश 
खग = इंद्र = खगेन्द्र 
गज + इंद्र = गजेंद्र 

( आ  + इ = ए ) 
महा + इंद्र = महेंद्र 
यथा + इष्ट  = यथेष्ट 
रमा + इंद्र = रमेंद्र 
 राजा + इंद्र = राजेंद्र 

( अ + ई  = ए ) 

गण + ईश  = गणेश         
ब्रज + ईश = ब्रजेश  
भव + ईश  = भवेश
भुवन + ईश्वर  = भुवनेश्वर 
भूत + ईश = भूतेश 
भूत + ईश्वर  = भूतेश्वर 
रमा + ईश  = रमेश 
राम + ईश्वर = रामेश्वर 
लोक +ईश = लोकेश 
वाम + ईश्वर = वामेश्वर 
सर्व + ईश्वर = सर्वेश्वर 
सुर + ईश = सुरेश
ज्ञान + ईश =ज्ञानेश 
ज्ञान+ईश्वर = ज्ञानेश्वर 
उप + ईच्छा = उपेक्षा 
एक + ईश्वर = एकेश्वर 
कमल +ईश = कमलेश  

( आ + ई  = ए ) 
महा + ईश  = महेश 

रमा + ईश  = रमेश  
राका + ईश = राकेश  
लंका + ईश्वर = लंकेश्वर 
उमा = ईश = उमेश     

   

( अ + उ = ओ )
वीर + उचित = वीरोचित 
भाग्य + उदय = भाग्योदय   
मद + उन्मत्त  = मदोन्मत्त 

सूर्य + उदय  = सूर्योदय  
फल + उदय  = फलोदय   
फेन + उज्ज्वल  = फेनोज्ज्वल 
यज्ञ +  उपवीत  = यज्ञोपवीत 
लोक + उक्ति = लोकोक्ति 
लुप्त + उपमा = लुप्तोपमा  

 लोक+उत्तर = लोकोत्तर  
वन + उत्सव = वनोत्सव 
वसंत +उत्सव = वसंतोत्सव 
विकास + उन्मुख = विकासोन्मुख 
विचार + उचित = विचारोचित 
षोड्श + उपचार = षोड्शोपचार 
सर्व + उच्च = सर्वोच्च 
सर्व + उदय = सर्वोदय 
सर्व + उत्तम = सर्वोत्तम 
हर्ष + उल्लास = हर्षोल्लास 
हित + उपदेश = हितोपदेश
आत्म +उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग 
आनन्द + उत्सव = आनन्दोत्सव 
गंगा + उदक = गंगोदक  

( अ  + ऊ  = ओ )
समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि 
( आ  + ऊ  = ओ )
गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि 

( आ + उ = ओ )
महा + उत्सव  = महोत्सव 
महा + उदय = महोदय 
महा = उपदेश = महोपदेश 
यथा + उचित  = यथोचित 
लम्बा + उदर = लम्बोदर 
विद्या + उपार्जन = विद्योपार्जन  

( अ + ऋ = अर् ) 

देव + ऋषि  = देवर्षि        
ब्रह्म +  ऋषि = ब्रह्मर्षि 
सप्त + ऋषि = सप्तर्षि 

 ( आ + ऋ = अर् ) 

महा + ऋषि  = महर्षि 
राजा + ऋषि  = राजर्षि    ।

________________

वृद्धिरेचि-वृद्धि_स्वर_सन्धि

वृद्धि हो जाती है  आत् ( अ'आ) के  बाद ऐच् (एऐओऔ) से परे अच् ( स्वर) होने पर।

अर्थात् आ, ऐ, और औ वर्ण वृद्धि संज्ञक वर्ण है ।

_____

वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच्  अचि।

 वृद्धि_स्वर_संधि*

सूत्र :- (वृद्धिरेचि) ।

वृद्धिः आत् ऐच् = वृद्धिरादैच्  अचि।

वृद्धि हो जाती है  आत् ( अ'आ) के  बाद ऐच् (एऐओऔ) से परे अच् ( स्वर) होने पर।

अर्थात् आ, ऐ, और औ वर्ण वृद्धि संज्ञक वर्ण है ।

व्याख्या :- अ या आ के परे यदि ए या ऐ रहे तो (ऐ) और ओ या औ रहे तो (औ) हो जाता है।
१.अ/आ + ए/ऐ =ऐ
२.अ/आ + ओ/औ = औ
यथा :-
अद्यैव = अद्य + एव
मतैक्यम्= मत + ऐक्यम्
पुत्रैषणा = पुत्र + एषणा
सदैव =सदा + एव
तदैव=तदा+एव
वसुधैव= वसुधा + एव
एकैक:= एक + एक:
महैश्वर्यम्= महा + ऐश्वर्यम्
गंगौघ:= गंगा + ओघ:
महौषधि:= महा +औषधि:
महौजः = महा +ओजः *आदि* ।

प्रश्न - वृद्धि स्वर सन्धि  किसे कहते  हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 

उत्तर- यदि 'अ' या 'आ' के बाद 'ए' या 'ऐ' रहे तो 'ऐ'  एवं  'ओ' और 'औ' रहे तो 'औ' बन जाता है ।  इसे वृध्दि स्वर सन्धि कहते हैं ।  जैसे -

अ + ए  = ऐ

अ + ऐ = ऐ

आ + ए  = ऐ

आ + ऐ  = ऐ

अ  + ओ = औ

आ + ओ = औ

अ + औ = औ

आ + औ = औ

वृद्धि स्वर संधि के नियम

( अ + ए  = ऐ ) 
एक + एक  =  एकैक   
( अ + ऐ = ऐ )      
मत + ऐक्य  = मतैक्य 
हित + ऐषी = हितैषी 
 ( आ + ए  = ऐ ) 

तथा + एव  = तथैव         

सदा  + एव  = सदैव 
वसुधा +एव = वसुधैव   
( आ + ऐ  = ऐ )       

महा + ऐश्वर्य  = महैश्वर्य  
( अ  + ओ = औ ) 
दन्त + ओष्ठ = दँतौष्ठ 
वन + ओषधि = वनौषधि
परम + ओषधि = परमौषधि   
( आ + ओ = औ )   

महा + ओषधि  = महौषधि  
गंगा + ओध = गंगौध 
महा + ओज  = महौज 
( आ + औ = औ ) 

महा + औषध   = महौषध   ।

_________   

यण् सन्धिसम्प्रसारण संज्ञा सूत्र—इग्यणः सम्प्रसारणम्  ( 1/1/45 )

यण_संधि 

3- सम्प्रसारण संज्ञा 

सूत्र—इग्यणः सम्प्रसारणम् ( 1/1/45 )

सूत्रार्थ—यण् का अर्थात् य,र,ल,व के स्थान पर इक् अर्थात् इ,उ,ऋ,लृ हो जाना सम्प्रसारण कहलाता है ।

जहाँ-जहाँ भी सम्प्रसारण का उच्चारण हो , वहाँ-वहाँ यण् के स्थान पर इक् होना समझा जाय।

उदाहरण— वच् धातु   में 'व'  वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।

 (वच्+रक्त= उक्त)

 (यज् + क्त =  इष्ट)

 (वह् + क्त= ऊढ़)

उदाहरण— वच् धातु   में 'व'  वर्ण का सम्प्रसारण उ' होकर रूप "उक्त" बना।

 (यज्+क्त=इष्ट)

(वच्+रक्त= उक्त)

 (वह् + क्त= ऊढ़)

वह-प्रापणे ज्ञानार्थत्वात्  कर्त्तरि क्त (वह् +क्त)

*सूत्र:- इको_यणचि।*
*इक्- इ, उ ,ऋ ,लृ*
| | | |
*यण्- य, व ,र , ल*
*व्यख्या:-*
(क) इ, ई के आगे कोई विजातीय (असमान) स्वर होने पर इ /ई का ‘य्’ हो जाता है।
#यथा:-
यदि + अपि = यद्यपि,
इति + आदि:= इत्यादि:
प्रति +एकम् = प्रत्येकं 
नदी + अर्पणम् = नद्यर्पणम्
वि + आसः = व्यासः
देवी + आगमनम् = देव्यागमनम्।
(ख) उ, ऊ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर उ/ ऊ का ‘व्’ हो जाता है।
यथा:-
अनु + अय:= अन्वय:
सु + आगतम् = स्वागतम्
अनु + एषणम् = अन्वेषणम्
(ग) ‘ऋ’ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर ऋ का ‘र्’ हो जाता है।
यथा:-
मातृ+आदेशः = मात्रादेशः
पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा
धातृ + अंशः = धात्रंशः
(घ) लृ के आगे किसी विजातीय स्वर के आने पर लृ का 'ल'हो जाता है ।
यथा:- लृ +आकृति:=लाकृतिः *आदि।*

प्रश्न - यण  स्वर संधि किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित समझाइए । 

उत्तर - यदि 'इ' या 'ई', 'उ' या 'ऊ'  और ऋ के बाद कोई भिन्न स्वर आये तो 'इ' और 'ई' का 'य' , 'उ' और 'ऊ' का 'व'  तथा ऋ का 'र' हो जाता है । इसे यण स्वर संधि कहते हैं । 

 + अ = य

इ + आ = या

इ + ए  = ये

इ + उ  = यु

 + आ = या

इ + ऊ  = यू 

  +    = यै

उ + अ  = व

उ + आ  = वा

 + आ  = वा

उ + ई   = वी 

उ + इ    = वि

   +     = वे

  +    = वै 

ऋ  + अ  = 

ऋ + आ = रा

ऋ  + इ   = रि

यण स्वर संधि के कुछ नियम

जैसे -
( इ + अ = य )
यदि + अपि = यद्यपि 
वि +अर्थ = व्यर्थ 
आदि + अन्त = आद्यंत 
अति +अन्त = अत्यन्त 
अति + अधिक = अत्यधिक 
अभि + अभागत = अभ्यागत 
गति + अवरोध = गत्यवरोध 
ध्वनि + अर्थ = ध्वन्यर्थ 

( इ + ए  = ये )  

प्रति + एक  = प्रत्येक 
(इ +आ = या  )         

अति + आवश्यक  = अत्यावश्यक 
वि + आपक = व्यापक   
वि + आप्त = व्याप्त
वि+आकुल = व्याकुल 
वि+आयाम = व्यायाम 
वि + आधि  = व्याधि 
वि+ आघात = व्याघात 
अति +आचार = अत्याचार  
इति + आदि = इत्यादि 
गति + आत्मकता  = गत्यात्मकता 
ध्वनि + आत्मक = ध्वन्यात्मक 
(ई +आ = या  ) 
सखी + आगमन = सख्यागमन      
 ( इ + उ  = यु  ) 

अति + उत्तम  = अत्युत्तम 
वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
अभि + उदय = अभ्युदय 
ऊपरि + उक्त = उपर्युक्त 
प्रति + उत्तर = प्रत्युत्तर  
 ( इ + ऊ  = यू  )  
वि + ऊह = व्यूह  
नि + ऊन = न्यून 
 ( ई  + ऐ   = यै ) 
देवी + ऐश्वर्य = देव्यैश्वर्य    
( उ + अ  = व ) 

अनु + अव  = अन्वय  
मनु + अन्तर  = मन्वन्तर   
सु + अल्प = स्वल्प 
सु + अच्छ = स्वच्छ          
 ( उ + आ  = वा ) 

सु   + आगत   = स्वागत       
मधु + आचार्य  = मध्वाचार्य 
मधु + आसव  = मध्वासव 
लघु + आहार = लघ्वाहार 
( उ + इ    = वि ) 
अनु + इति  = अन्विति 
( उ + ई   = वी  ) 
अनु + वीक्षण = अनुवीक्षण 
 ( ऊ + आ  = वा ) 
वधू +आगमन = वध्वागमन
 ( उ   + ए    = वे ) 
अनु + एषण = अन्वेषण 
 ( ऊ  + ऐ   = वै ) 
वधू +ऐश्वर्य = वध्वैश्वर्य 
( ऋ  + अ  = र ) 
पितृ +अनुमति = पित्रनुमति 
( ऋ  + आ  = रा ) 

मातृ  + आनंद  = मात्रानन्द 
मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा  
 ( ऋ  + इ   = रि ) 
मातृ + इच्छा = मात्रिच्छा  ।

______ 

अयादि सन्धि -अयादि_सन्धि: -

सूत्र:-एचोऽयवायावः।

व्याख्या:-*ए, ऐ, ओ, औ के परे अन्य किसी स्वर के मेल पर ‘ए’ के स्थान पर ‘अय्’; ‘ऐ’ के स्थान
पर ‘आय्’; ओ के स्थान पर ‘अव्’ तथा ‘औ’ के स्थान पर ‘आव्’ हो जाता है ।
___________________
ए ऐ ओ औ।
| | | |
अय् आय् अव् आव्
____________________

         -🌿★-🌿 

🌿 *उदाहरणानि :-*
शे + अनम् = शयनम् - (ए + अ = अय् +अ)
ने + अनम् = नयनम् - (ए + अ = अय्+अ)
चे + अनम् = चयनम् - (ए + अ = अय्अ)
शे + आनम् = शयानम् - (ए + आ = अय्अ)
नै + अक: = नायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + अक: = गायक: - (ऐ + अ = आय्अ)
गै + इका = गायिका - (ऐ + इ = आय्अ)
पो + अनम् = पवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
भो + अनम् =भवनम् - (ओ + अ = अव्अ)
पो + इत्र: = पवित्रः - ( ओ + इ = अव्इ)
पौ + अक: = पावक: - (औ + अ = आव्अ)
शौ + अक: = शावक: - (औ + अ = आव्अ)
भौ + उक: = भावुकः - (औ +उ= आव् उ)
धौ + अक: = धावक: - (औ + अ = आव्अ)
आदि ।

प्रश्न - अयादि संधि किसे कहते हैं ? उदहारण सहित समझाइए । 

उत्तर - यदि 'ए' 'ऐ' 'ओ' 'औ' के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो 'ए' का 'अय्', 'ऐ' का 'आय्' , 'ओ' का अव्  तथा 'औ' का 'आव्' हो जाता है । इस परिवर्तन को अयादि सन्धि कहते हैं । 

 ए  + अ  = अय्

ऐ + अ = आय् 

ऐ  + इ   = आयि

ओ  + अ  = अव् 

ओ  + इ  = अव्

ओ + ई  = अवी

औ + अ  = आव्

औ + इ   = आवि

औ + उ  = आवु

अयादि स्वर संधि के कुछ नियम

जैसे - 

( ए  + अ  =अय) 
ने + अन  =  नयन 
शे +अन = शयन   
( ऐ  + अ  = आय )       

नै  + अक  = नायक  
शै +अक = शायक 
गै + अक = गायक 
गै + अन = गायन  
 ( ऐ  + इ   = आयि  ) 
नै + इका = नायिका 
गै + इका = गायिका      
( ओ  + अ  = अव ) 

पो + अन   = पवन          
भो + अन = भवन 
श्रो + अन = श्रवण 
भो + अति = भवति 
( ओ  + इ  = अव ) 
पो + इत्र = पवित्र  
( ओ + ई  = अवी  ) 
गो  + ईश  = गवीश 
( औ + अ  = आव ) 

सौ  + अन   =  सावन      
रौ + अन = रावण 

सौ + अक = शावक 
श्रौ अन = श्रावण 
धौ + अक = धावक 
पौ + अक = पावक 
पौ + अन = पावन
शौ + अक = शावक 

( औ + इ   = आवि ) 
नौ + इक = नाविक 
( औ + उ  = आवु ) 
भौ + उक = भावुक 

_______________________________________

पूर्वरूप सन्धि — एङ: पदान्तादति)- संस्कृत व्याकरणम्

पूर्वरूप सन्धि का सूत्र -(एङ पदान्तादति) होता है। यह  स्वर संधि के भागो में से एक है। 

सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है 

  नियम-

नियम - पद( क्रिया पद आख्यातिक) अथवा नामिकपद के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं; वह लग जाता है ।

पूर्वरूप  संधि के उदाहरण

ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि


ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण


ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम् 


ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र

(यह सन्धि आयदि सन्धि का अपवाद भी होती है)।

क्योंकि यहाँ केवल पदान्तों की सन्धि का विधान है    जबकि अयादि में धातु अथवा उपसर्ग आदि अपद रूपों के अन्त में अयादि सन्धि का विधान है ।

 नामिकपदरूप- बालके+ सर्वनामपदरूप-अस्मिन् =बालकेऽस्मिन्

जबकि निम्न सन्धियों में अपद(धातु और प्रत्यय रूप होने से पूर्व रूप सन्धि नहीं हुई है।        

धातु रूप -ने  + प्रत्यय रूप-अनम् =नयनम्

धातु रूप -सौ  + प्रत्यय रूप- अन्   = सावन      
धातु रूप -रौ +  प्रत्यय रूप- अन् = रावण 

धातु रूप - सौ +प्रत्यय रूप- अक: = शावक: 
धातु रूप - श्रौ प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण 
धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप-  अक: = धावक: 

धातु रूप - पौ +  प्रत्यय रूप- अक := पावक: 
धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप-  अन् = पावन

धातु रूप -शौ +. प्रत्यय रूप- अक: = शावक: 

__________

यदि यहाँ पदों की सन्धि नहीं होती तो पूर्वरूप का विधान ही होगा। क्यों कि 'धातु और 'प्रत्यय अथवा उपसर्ग पद नहीं होते हैं । विशेषत: सन्धि का आधार पूर्व पद ही है क्यों कि -

_________________

 यहाँ दोनों पद हैं ।

१-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।

=तावागच्छताम् 

______________________________

२-बालको + अवदत् -बालक बोला।

=बालकोऽवदत् 

_________

★-स:+अथ।

सोऽथ -वह अब।

★-सोऽहम्-वह  मैं हूँ।

पूर्वरूप सन्धि केवल पदान्त में  'एकार अथवा 'ओकार होने पर ही होती है । अन्यथा नहीं -

_________

विशेष -धातुओं से ल्युट् प्रत्यय जोड़ा जाता है। इसका ‘यु’ भाग शेष रह है तथा ‘ल’ और ‘ट्’ का लोप हो जाता है। ‘यु’ के स्थान पर ‘अन’ आदेश हो जाता है। ‘अन’ ही धातुओं के साथ जुड़ता है। (कृत् प्रत्यय) ल्युट् – प्रत्ययान्त शब्द’ प्रायः नपुंसकलिङ्ग में होते हैं

__________

पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।

हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।

सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है

सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही  प्रभाव है 

_______________________________________________

पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--

पररूप संधि का सूत्र" एडि पररूपम् "होता है। यह संधि स्वर संधि के भागो में से एक है। संस्कृत में स्वर संधियां आठ प्रकार की होती है। दीर्घ संधि, गुण संधि, वृद्धि संधि, यण् संधि, अयादि संधि, पूर्वरूप संधि, पररूप संधि, प्रकृति भाव संधि।

इस पृष्ठ पर हम पररूप संधि का विश्लेषण करेंगे !

पररूप संधि के नियम

नियम -  यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से  क्रिया के आदि में होता  है। 

पररूप संधि के उदाहरण

प्र + एजते = प्रेजते 


उप + एषते = उपेषते 


परा + ओहति = परोहति 


प्र + ओषति = प्रोषति 


उप + एहि = उपेहि

यह संधि -वृद्धि संधि का अपवाद भी होती है।

क्योंकि यहाँ पूर्व पद में उपसर्ग और उत्तर पद में क्रियापद होता है ।

जबकि वृद्धि सन्धि में केवल प्र उपसर्ग के पश्चात ऋच्छति = में (प्र+ऋ) प्रार्च्छति।  उप+ ऋ)-उपार्च्छति यहाँ पर रूप सन्धि का पूर्व पद उपसर्ग होते हुए भी वृद्धि सन्धि हो जाती है ।

पर रूप सन्धि केवल अकारान्त उपसर्ग होने पर केवल ए-आदि अथवा ओ-आदि क्रिया पदों में ही होती है । अन्यथा वृद्धि सन्धि होगी।

 जैसे प्र+एजते= प्रेजते। उप +ओषति=उपोषति। आदि रूप में पर रूप सन्धि ही है ।

मम+एव=ममैव। (प्र+ऋच्छति)= प्रार्च्छति।

जबकि पूर्वरूप सन्धि का विधान अपदान्त रूपों में ही होता है । और वह भी दो ह्रस्व अ' स्वरों के मध्य में विसर्ग (:) आने पर पूर्व स्वर को ओ' और पश्चात्‌ 

(ऽ) ये प्रश्लेष चिन्ह लगता है ।

_______________

 प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-

. प्रकृति भाव सन्धि –

सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)

ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।

मुनी + इमौ = मुनीइमौ


कवी + आगतौ = कवीआगतौ


लते + इमे = लतेइमे


विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ


अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः


कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः


नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति


वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः

स्वर संधि - अच् संधि


दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:


गुण संधि - आद्गुण:


वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि


यण् संधि - इकोऽयणचि


अयादि संधि - एचोऽयवायाव:


पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति


पररूप संधि - एडि पररूपम्


प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्


_____________________

💐वृत्ति अनचि च  8|4|47

अच् परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्व।

अर्थ–अच् -(अ'इ'उ'ऋ'ऌ'ए'ऐ'ओ'औ) से परे यर्—( अन्त:स्थ-यवरल तथा अनुनासिक' वर्ग के प्रथम' द्वितीय'तृतीय'चतुर्थ और उष्म वर्ण)  प्रत्याहार का विकल्प से द्वित्व हो जाता है

यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-

 💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।

  💐- कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।

सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108

सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्

_____________________________

सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्

अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)

अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108

सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्

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सूत्रच्छेदःअनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)

अनुवृत्तिःवा  8|4|45 (अव्ययम्) , यरः  8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे  8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः  8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)

अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108

सम्पूर्णसूत्रम्अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्

सूत्रार्थः

अचः परस्य यरः अनचि परे विकल्पेन द्वित्वं भवति ।

"अनच्" इत्युक्ते "न अच्" । स्वरात् परस्य यर्-वर्णस्य अग्रे स्वरः नास्ति चेत् विकल्पेन द्वित्वं भवति इत्यर्थः । यथा -👇

वृत्ति:-अच: परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वम्।

अर्थ:- अच् से परे

______

यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है- परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।

(1) "कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।

2) "मति + अत्र" अस्मिन् यण्-सन्धौ इकारस्य यणादेशे कृते "मत्य् + अत्र" इति स्थिते अनेन सूत्रेण तकारस्य विकल्पेन द्वित्वं कृत्वा "मत्यत्र, मत्त्यत्र" एते द्वे रूपे सिद्ध्यतः ।

अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम् 

यणो मयो द्वे वाच्ये । अस्य वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -

अ) (यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - यण्-वर्णात् परस्य मय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - उल्क्का, वाल्म्मिकी ।

(ब) (यणः इति षष्ठी , मयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - मय्-वर्णात् परस्य यण्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - दध्य्यत्र, मध्व्वत्र ।

(2) शरः खयः द्वे वाच्ये । अस्यापि वार्त्तिकस्य अर्थद्वयम् भवति -

अ) (शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी इति स्वीकृत्य) - शर्-वर्णात् परस्य खय्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - स्थ्थाली, स्थ्थाता ।

ब) (शरः इति षष्ठी , खयः इति पञ्चमी इति स्वीकृत्य) - खय्-वर्णात् परस्य शर्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वं भवति । यथा - क्ष्षीरम्, अप्स्सरा ।

अवसाने च - अवसाने परे हल्-वर्णस्य विकल्पेन द्वित्वम् भवति । यथा - रामात्, रामात्त् ।

ज्ञातव्यम् -

1. अस्मिन् सूत्रे निर्दिष्टः स्थानी "यर्" वर्णः अस्ति । यर्-प्रत्याहारे हकारम् विहाय अन्यानि सर्वाणि व्यञ्जनानि समावेश्यन्ते । अतः हकारस्य अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।

2. यर्-प्रत्याहारे वस्तुतः रेफः समाविष्टः अस्ति, परन्तु अचो रहाभ्यां द्वे 8|4|46 अचः परः रेफः आगच्छति चेत् तस्मात् परस्य यर्-वर्णस्य द्वित्वं भवति । अतः अचः परस्य रेफस्य अपि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न विधीयते ।

3. एकस्य वर्णस्य स्थाने यदा वर्णद्वयं विधीयते, तदा द्वित्वं भवति इति उच्यते । तत्र कोऽपि वर्णः "पूर्ववर्णः" तथा कोऽपि वर्णः "अनन्तरम् आगतः" नास्ति । अतः द्वित्वे कृते "नूतनरूपेण प्रवर्तितः वर्णः कः" तथा "पूर्वं विद्यमानः वर्णः कः" इति प्रश्नः एव अयुक्तः अस्ति । द्वित्व

4. "कृष्ष्ण" इत्यत्र पुनः अनचि च 8|4|47 इत्यनेन षकारस्य द्वित्वं कर्तुम् शक्यते वा? एवं कुर्मश्चेत् अनन्तकालयावत् द्वित्त्वमेव भवेत् इति दोषः उद्भवति । अस्य परिहारार्थम् लक्ष्ये लक्षं सकृदेव प्रवर्तते

अस्याः परिभाषायाः प्रयोगः क्रियते । "लक्ष्य" इत्युक्ते स्थानी । "लक्ष" इत्युक्ते सूत्रम् । "सकृतम्" इत्युक्ते एकवारम् । अतः अनया परिभाषया एतत् ज्ञायते, यत् एकस्मिन् स्थले (इत्युक्ते एकस्य स्थानिनः विषये) कस्यचन सूत्रस्य एकवारमेव प्रयोगः भवितुम् अर्हति । अतःअनचि च 8|4|47 इत्यनेन एकवारं द्वित्वं भवति चेत् पुनः तस्मिन् एव स्थानिनि अनेन सूत्रेण द्वित्वं न भवति ।

काशिकावृत्तिः

अचः इति वर्तते, यरः इति च। अनच्परस्य अच उत्तरस्य यरो द्वे वा भवतः। दद्ध्यत्र। मद्ध्वत्र। अचः इत्येव, स्मितम्। ध्मातम्।

यणो मयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। केचिदत्र यणः इति पञ्चमी, मयः इति षष्ठी इति व्याचक्षते। तेषाम् उल्क्का, वल्म्मीकः इत्युदाहरणम्। अपरे तु मयः इति पञ्चमी, यणः इति षष्ठी इति। तेषाम् दध्य्यत्र, मध्व्वत्र इत्युदाहरणम्। शरः खयो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। अत्र अपि यदि शरः इति पञ्चमी, खयः इति षष्ठी, तदा स्त्थाली, स्त्थाता इति उदाहरणम्। अथवा खय उत्तरस्य शरो द्वे भवतः। वत्स्सः। इक्ष्षुः। क्ष्षीरम्। अप्स्सराः। अवसाने च यरो द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क, वाक्। त्वक्क्, त्वक्। षट्ट्, षट्। तत्त्, तत्।

अचः परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्वेन सुध्ध्य् उपास्य इति जाते॥

महाभाष्यम्

अनचि च ।। द्विर्वचने यणो मयः।। द्विर्वचने यणो मय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदि यण इति पञ्चमी मय इति षष्ठी उल्क्का वल्म्मीकमित्युदाहरणम्।। अथ मय इति पञ्चमी यण इति षष्ठी दध्य्यत्र मध्व्यत्रेत्युदाहरणम्?।।शरःखयः।। शरःखय इति वक्तव्यम्।। किमुदाहरणम्?।। यदिशर इति पञ्जमीखयःथ्द्य;ति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्जमी शर इति षष्ठी स्थ्थाली स्थ्थाता इत्युदाहरणम्। अथ खय इति पञ्चमी शर इति षष्ठी, वत्स्स(र)ः क्ष्षीरम् अपस्सरा इत्युदाहरणम्। ।। अवसाने च।। अवसाने च द्वे भवत इति वक्तव्यम्। वाक्क्। वाक्। त्वक्क् त्वक्। स्रुक्क्स्रुक्।। तत्तर्हि वक्तव्यम्?।। न वक्तव्यम्

  नायं प्रसज्यप्रतिषेधः-अचि नेति।। किं तर्हि?।। पर्युदासोऽयं यदन्यदच इति।।

सूत्रच्छेदःवान्तः (प्रथमैकवचनम्) , यि (सप्तम्येकवचनम्) , प्रत्यये (सप्तम्येकवचनम्)

अनुवृत्तिःएचः  6|1|78 (षष्ठ्येकवचनम्)

अधिकारःसंहितायाम्  6|1|72

_______________________

💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचो८यवायावो वान्तो यि प्रत्यय"

 💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"

सम्पूर्णसूत्रम् एचोयवायावो यि-प्रत्यये वान्तः

संहियाताम्

 

 वृत्ति—

 :-यकारादौ प्रत्यये परे ओदौतोरव् आव् एतौ स्त:। गत्यम् ।नाव्यम् ।

________       

 अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।

जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्

सूत्रार्थः-

ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।

अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर ओ औ के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।

जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्

सूत्रार्थः-

ओकार-औकारयोः यकारादि-प्रत्यये परे क्रमेण अव्/आव् आदेशाः भवन्ति ।

______

अस्मिन् सूत्रे यद्यपि "एच्" इत्यस्य अनुवृत्तिः क्रियते, तथापि आदेशः "वान्तः" (= वकारान्तः) अस्ति, अतः केवलं ओकार-औकारयोः विषये एव अस्य सूत्रस्य प्रयोगः भवति ।

यदि ओकारात् / औकारात् परः यकारादि-प्रत्ययः आगच्छति, तर्हि ओकारस्य स्थाने अव्-आदेशः तथा औकारस्य स्थाने आव्-आदेशः विधीयते ।

 यथा -

👇

(1) गो + यत् [गोपसोर्यत् 4|3|160 इत्यनेन यत्-प्रत्ययः]

→ गव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]

→ गव्य

(2) नौ + यत् [नौवयोधर्मविषमूल... 4|4|91 इति यत्-प्रत्ययः]

→ नाव् + यत् [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति औकारस्य आव्-आदेशः]

→ नाव्य

(3) बभ्रु + यञ् [मधुबभ्र्वोर्ब्राह्मणकौशिकयोः 4|1|106 इति यञ्-प्रत्ययः]

→ बाभ्रु + यञ् [तद्धितेष्वचामादेः 7|2|117 इति आदिवृद्धिः ]

→ बाभ्रो + यञ् [ओर्गुणः 6|4|146 इत्यनेन गुणः]

→ बाभ्रव् + य [वान्तो यि प्रत्यये 6|1|79 इति ओकारस्य अव्-आदेशः]

→ बाभ्रव्य

अत्र वार्तिकद्वयं ज्ञातव्यम् । एतौ द्वौ अपि वार्तिकौ "यूति" शब्दस्य विषये वदतः । "यूति" इति शब्दः ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च 3|3|97 अनेन सूत्रेण निपात्यते । यद्यपि अयं शब्दः प्रत्ययः नास्ति, "गो + यूति" इत्यत्र कासुचन स्थितिषु गो-शब्दस्य ओकारस्य अवादेशं कृत्वा "गव्यूति" इति रूपं सिद्ध्यति । अस्यैव विषये एते द्वे वार्तिके वदतः -

1. गोर्यूतौ छन्द स्युपसङ्ख्यानम् । इत्युक्ते, वेदेषु "यूति"-शब्दे परे गो-शब्दस्य ओकारस्य स्थाने अव्-इति वान्तादेशः भवति । यथा - "आ नो मित्रावरुणा घृतैर्गव्यूतिमुक्षतम्" (ऋग्वेदः - 3.62.16) - अत्र "गव्यूति" इति शब्दः प्रयुक्तः अस्ति । अत्र गव्यूति इत्युक्ते गावः यस्मिन् भूमौ चरन्ति सा ।

2. अध्वपरिमाणे च । इत्युक्ते, मार्गपरिमाणम् (= अन्तरस्य गणना) दर्शयितुम् "गो + युति" इत्यस्य लौकिकसंस्कते अपि वान्तादेशः क्रियते । यथा - "गव्यूतिमात्रम् अध्वानं गतः" (सः केवलं "एकगव्युति" अन्तरं गतवान् - इत्यर्थः । अद्यतनपरिमाणे 4 गव्युतिः = 1 योजनम् = 9.09 miles = 14.6 Km).

ज्ञातव्यम् - "गो + युति" इत्यत्र ओकारस्य अव्-आदेशे कृते लोपः शाकल्यस्य 8|3|19 इत्यनेन प्राप्तः वैकल्पिकः यकारलोपः न भवति । (अस्मिन् विषये भाष्ये किमपि उक्तम् नास्ति । कौमुद्यां दीक्षितः प्रश्लेषस्य आधारं स्वीकृत्य अस्य स्पष्टीकरणं दातुम् प्रयतते । परन्तु अस्मिन् विषये शास्त्रे भिन्नानि मतानि सन्ति ।)

_____________ 

An ओकार and an औकार are respectively converted to अव् and आव् when followed by a यकारादि प्रत्यय.

काशिकावृत्तिः

अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम् ।। वार्तिक अक्षौहिणी सैना –

अक्ष शब्द के अन्तिम "अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि का आदेश हो जाता है- ।

तब रूप बनेगा अक्ष+ ऊहिनी =अक्षौहिणी ।

वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।

अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -

गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।

द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

💐↔"। वान्तो यि प्रत्यय"

अर्थात्:- यकारादि प्रत्यय परे होने पर 'ओ' औ' के स्थान पर क्रमश:अव् और आव् हो जाता है।

नो + यम् =नाव्यम् ।  इस स्थिति में नो के ओकार को यकारादि  "वान्तो यि प्रत्यये " सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परे होने से अव् आदेश हुआ।

न्+ ओ+ यम् = परस्पर संयोजन के पश्चात "नव्यम्" रूप बना।

इसी प्रकार नौ + यम् इस स्थिति में नौ के औकार को "वान्तो यि प्रत्यये "सूत्र से यम् यकारादि प्रत्यय परेे होने से आव् आदेश हुआ । परस्पर संयोजन के पश्चात "नाव्यम्" रूप बना।

____________

काशिका-वृत्तिः

अचो रहाभ्यां द्वे ८।४।४६

यरः इति वर्तते। अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ ताभ्याम् उत्तरस्य यरो द्वे भवतः। अर्क्कः मर्क्कः। ब्रह्म्मा। अपह्न्नुते। अचः इति किम्? किन् ह्नुते। किम् ह्मलयति।

____________________

लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५

अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः। गौर्य्यौ। (न समासे)। वाप्यश्वः॥

__________________

सिद्धान्त-कौमुदी

अचो रहाभ्यां द्वे २६९, ८।४।४५

अचः पराभ्यां रेफहकाराभ्यां परस्य यरो द्वे वा स्तः । हर्य्यनुभवः । नह्य्यस्ति ॥

न्यासः

अचो रहाभ्यां द्वे। , ८।४।४५

"अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ" इति। एतेनाच इति रहोर्विशेषणमिति दर्शयति। "आन्यामुत्तरस्य यरः" इति। अनेनापि रहौ यर्विशेषणमिति। "बर्क्कः" इति। "अर्च पूजायाम्()" (धा।प।२०४),धञ्(), "चजोः कुधिण्णयतोः" ७।३।५२ इति कुत्वम्()। "मर्क्कः" इति। मर्चिः सौत्रो दातुः, तस्मात्? इण्()भीकापाशस्यर्तिमर्चिभ्यः कन्()" (द।उ।३।२१) इति कन्(), "चोः कुः" ८।२।३० इति कुत्वम्()। अत्राकारादुत्तरो रेफः, तस्मादपि परः ककारो यरिति। "ब्राहृआ" इति। अत्राप्यकारादेवाच्च उत्तरो हकारः, तस्मादपि परो मकारो यरिति। "अपह्तुते" इति। अत्राप्यकारादुत्तरो हकारः, पूर्ववच्छपो लुक्(), तस्मात्? परस्य नकारस्य द्विर्वचनम्()। "किन्()ह्नुते" इति। अत्राच उत्तरो हकारो न भवतति नकारो न द्विरुच्यते। "किम्()ह्रलयति" इति। "ह्वल ह्रल सञ्चलने" (धा।पा।८०५,८०६), हेतुमण्णिच। "ज्वलह्वलह्रलनमामनुपसर्गाद्वा" ["ज्वलह्नलह्वल"--प्रांउ।पाठः] (धा।पा।८१७ अनन्तरम्()) इति मित्त्वम्(), "मितां ह्यस्वः" ६।४।९२ इति ह्यस्वत्वम्()॥

_______________

-बाल मनोरमा

अचो रहाभ्यां द्वे ६०, ८।४।४५

अचो रहाभ्यां द्वे। यरोऽनुनासिक इत्यतो यर इति षष्ठ()न्तं वेति चानुवर्तते। अच इति दिग्योगे पञ्चमी। "पराभ्या"मिति शेषः। रहाभ्यामित्यपि पञ्चमी। "परस्ये"ति शेषः। तदाह--अचः पराभ्यामित्यादिना। हय्र्यनुभव इति। हरेरनुभव इति विग्रहः। हरि-अनुभव इति स्थिते रेफादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। अथ हकारात्परस्योदाहरति--न ह्य्यस्तीति। नहि--अस्तीति स्थिते हकारादिकारस्य यण्। तस्य द्वित्वम्। इहोभयत्र यकारस्य अचः परत्वाऽभावादच्परकत्वाच्च द्वित्वमप्राप्तं विधीयते। अत्राऽनचि चेति रेफहकारयोर्द्वित्वं न भवति। द्वित्वप्रकरणे रहाभ्यामिति रेफत्वेन हकारत्वेन च साक्षाच्छ()तेन निमित्तभावेन तयोर्यर्शब्दबोधितकार्यभाक्त्वबाधात्, "श्रुतानुमितयोः श्रुतं बलीय" इति न्यायात्। हर्? य्? य् अनुभवः, नह् य् य् अस्ति इति स्थिते।

______________

तत्त्व-बोधिनी

अचो रहाभ्यां द्वे ।।, ८।४।४५

★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।

_______

वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।

अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है- यथा -

गौर्य्यौ–गौर + यो =गौर्यौ । इस विग्रह दशा में गौर की गौ में औ अच् है- ।तथा इससे परे रेफ(र्) है- उससे परे यकार है- ।अत: यकार का विकल्प से द्वित्व होगा।

द्वित्व पक्ष में गौर् +य + र्यौ =गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

सूत्रच्छेदःएति-एधति-ऊठ्सु (सप्तमीबहुवचनम्)

अनुवृत्तिःआत्  6|1|87  (पञ्चम्येकवचनम्) , एचि  6|1|88 (सप्तम्येकवचनम्) , वृद्धिः  6|1|88 (प्रथमैकवचनम्)

अधिकारःसंहितायाम्  6|1|72> एकः पूर्वपरयोः  6|1|84

सम्पूर्णसूत्रम् आत् एचि एति-एधति-ऊठ्सु एकः पूर्वपरयोः वृद्धिः

सूत्रार्थः

अवर्णात् परस्य इण्-धातोः एध्-धातोः एच्-वर्णे परे तथा ऊठ्-शब्दे परे पूर्वपरयोः एकः वृद्धि-आदेशः भवति ।

यदि अकारात् / आकारात् परः -

(1) इण्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा

(2) एध्-धातोः एकारादि /ऐकारादि / ओकारादि /औकारादि रूपम् आगच्छति, अथवा

(3) "ऊठ्" अयम् शब्दः आगच्छति, तर्हि -

पूर्वपरयोः स्थाने एकः वृद्धि-एकादेशः भवति ।

उदाहरणानि -

(1) उप + एति → उपैति ।

एत्येधत्यूठ्सु।।6/1/87।।–वृद्धि: एचि एति एधते ' ऊठसु"

वृत्ति-अवर्णादेजाधोरेत्येधत्योरूठि च परे वृद्धिरेकादेश:स्यात्।पररूप गुणापवाद: उपैति।उपैधते।प्रष्ठौह:।।एजाद्यो: किम्?उपेत: ।मा भवान् प्रेदिधत्।

अर्थ-अ वर्ण से परे यदि एच् प्रत्याहार आदि में वाली 'इण्' तथा एड्• धातु हो अथवा ऊठ हो तो पूर्व एवं पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है ।यथा उपैति।उपैधते प्रष्ठौह:।

________

उपैति –उप+ एति इस विग्रह दशा में अ के पश्चात एजादि 'ए' परे है अत: एडि्•पररूपम् से पर रूप होता है परन्तु उसका अपवाद करके ' एत्येधत्यूठसु' इस सूत्र से पूर्व 'अ और 'ए  के स्थान पर 'ऐ वृद्धि होगयी तत्पश्चात परस्पर संयोजन के बाद उपैति सन्धि-का का पद सिद्ध होता है ।

उपैधते–उप+एधते ,इस अवस्थाओं में अ' के पश्चात ए' परे होने के कारण प्राप्त था।

किन्तु उसका बाधन कर 'एत्येधत्यूठसु' सूत्र द्वारा अ+ए के स्थान पर ऐ वृद्धि एकादेश होता है उप–अ+ए+धते=उप +ऐ+धते ।उपैधते ।संयोजन के उपरीन्त हुआ।

__________

प्रष्ठौह–प्रष्ठ+ऊह: इस विग्रह दशा में प्रष्ठ में अन्तिम वर्ण अकार है उससे परे ऊह का ऊकार है । अत: इस स्थान पर अ+ ऊ के स्थान पर आद्गुण: प्राप्त था परन्तु उसे बाध कर एत्येधत्यूठसु' सूत्र से अ+ ऊ के स्थान पर औ वृद्धि एकादेश होता है।प्रष्ठ+अ+ऊ+ह: = प्रष्ठ् +औ+ह: परस्पर संयोजन करने पर प्रष्ठौह: सन्धि-का रूप हुआ।

उपसर्गाद् ऋति धातौ।।6/1/91। अर्थात् उपसर्गाद् ऋति परे वृद्धि: एकादेश ।

वृत्ति–अवर्णान्तादुपसर्गाद् ऋकारादौ धातौ परे वृद्धिरेकादेश: स्यात् । प्रार्च्छति । उपार्च्छति

प्रार्च्छति – प्र+ ऋच्छति विग्रह पद  में प्र' उपसर्ग में अ' अन्त में है ।उससे परे ऋ है ।

अत: उपसर्गाद् ऋति परे ऋति धातौ' सूत्र से परे (अ+ऋ+ च्छति ) इस स्थिति में पूर्व एवं पर अ+ऋ=आर् वृद्धि हुई। प् +र् +आर्+ च्छति संयोजन करने पर प्रार्च्छति सन्धि पद सिद्ध होगा ।

अक्षादूहिन्यामुपसंख्यानम्।। वार्तिक

अक्षौहिणी सेना।

अर्थ:-अक्ष शब्द के अन्तिम अ वर्ण से ऊहिनी शब्द का आदि ऊकार परे होने पर पूर्व तथा पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश होता है।

___________

💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’) 

★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है। 

सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’  ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।

शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)


पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)


मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)


कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)


सार + अंग = सारंग


सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त


हलस् + ईषा = हलीषा


कुल + अटा = कुलटा

_______________________


-★-अचोन्तयादि टि।। (1/1/64)

वृत्ति:- अचां मध्ये योन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।

★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।

जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।

(27)अचोन्तयादि टि ।। 1/1/64 ।

वृत्ति:- अचां मध्ये यो ८न्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।

अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।

(28) शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ।।वार्तिक।

वृत्ति:- तच्च टे शकन्धु: ।कर्कन्धु: । कुलटा। मनीषा ।आकृतिगणो८यम् ।मार्तण्ड:।

अर्थ:-शकन्धु आदि शब्दों में ( उनकी सिद्धि के अनुरूप) पररूप कहना चाहिए वह पररूप टि ' और अच् ' के स्थान पर समझना चाहिए । यथा

शकन्धु:-शक +अन्धु: । इस विग्रह दशा में शक् शब्द के अन्तिम क में अ' स्वर वर्ण है  वह टि' है तथा अन्धु: का अकार परे है । यहाँ (अ+अ)=अ पररूप प्रस्तुत वार्तिक से हुआ। परस्पर संयोजन करने पर

(शक्+ अ+अ+न्धु: ) शकन्धु: सन्धि पद बनेगा  इसी प्रकार कर्कन्धु: बनेगा ।यह दीर्घ स्वर सन्धि का अपवाद है।

मनीषा:- मनस् +ईषा  इस अवस्था में ' अचो८न्यादि टि ' सूत्र से मनस् की मन् +(अस् ) टि को ईषा के ई के स्थान पर' शकन्ध्वादिषु पररूप वाच्यम् ' वार्तिक से ई पररूप एकादेश होता है ।( मन् + अस् + ई+ई +षा ) परस्पर संयोजन करने पर मनीषा पद बना ।

ओम् च आङ् च ओमाङौ, तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः॥

अर्थः॥

ओमि आङि च परतः अवर्णात् पूर्वपरयोः स्थाने पररूपमेकादेशः भवति, संहितायां विषये॥

💐↔

कन्या + ओम् = कन्योम् इत्यवोचत्। आ + ऊढा = ओढा, अद्य + ओढा = अद्योढा, कदोढा, तदोढा॥

_______________

काशिका-वृत्तिः

ओमाङोश् च ६।१।९५

आतित्येव। अवर्णान्तातोमि आङि च परतः पूर्वपरयोः स्थाने पररूपम् एकादेशो भवति। का ओम् इत्यवोचत्, कोम् इत्यवोचत्। योम् इत्यवोचत्। आगि खल्वपि आ ऊढा ओढा। अद्य ओढा अद्योढा। कदा ओढा कदोढा। तदा ओढा तदोढा। वृद्धिरेचि ६।१।८५ इत्यस्य पवादः। इह तु आ ऋश्यातर्श्यात्, अद्य अर्श्यातद्यर्श्यातिति अकः सवर्णे दीर्घत्वं बाधते।

___________

लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२

ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात्। शिवायोंं नमः। शिव एहि॥

____________

सिद्धान्त-कौमुदी

ओमाङोश्च ४०, ६।१।९२

ओमि आङि चात्परे पररूपमेकादेशः स्यात् । शिवायों नमः । शिव एहि । शिवेहि ॥

________________________________________

अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।।   

अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच्  पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।

👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता  है।

यथा :-गौर+ यो  इस विग्रह दशा में -गौर  की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।

द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

💐↔ 

👇वृत्ति–अच्  पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।

👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता  है।

यथा :-गौर+ यो  इस विग्रह दशा में -गौर  की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।

द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।

💐↔

 अचः किम्? "ह्लुते" इत्यादौ नकारस्य माभूत्।

8|4|44   SK 112  शात्‌  

सूत्रच्छेदःशात् (पञ्चम्येकवचनम्)

अनुवृत्तिःश्चुः  8|4|40 (प्रथमैकवचनम्) , न  8|4|42 (अव्ययम्) , तोः  8|4|43 (षष्ठ्येकवचनम्)

अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम्  8|2|1> संहितायाम्  8|2|108

सम्पूर्णसूत्रम्शात् तोः श्चुः न

सूत्रार्थः

शकारात् परस्य तवर्गीयवर्णस्य श्चुत्वम् न भवति ।

शकारात् परः तवर्गीयवर्णः आगच्छति चेत् स्तोः श्चुना श्चुः 8|4|41 इत्यनेन निर्दिष्टस्य श्चुत्वस्य अनेन सूत्रेण निषेधः उच्यते ।

यथा - प्रच्छँ (ज्ञीप्सायाम्) धातोः यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् 3|3|90 अनेन नङ्-प्रत्ययः भवति -

प्रच्छ् + नङ्

→ प्रश् + न [च्छ्वोः शूडनुनासिके च 6|4|19 इति च्छ्-इत्यस्य नकारादेशः]

→ प्रश्न । श्चुना

यह श्चुत्व सन्धि-का अपवाद है- ।

_______

अयोगवाह-

अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...

जिनका  चौदह माहेश्वर-सूत्रो में योग नहीं है वह फिर भी वहन करते हैं षत्व' णत्व'आदि कार्यों को पूरा करता है अथवा(वाह् + अच्)= वाह करता है 

वह अयोह वाह है ।

______________

वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क   :ख   :प   :फ   ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।

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व्यञ्जन-सन्धि का विधान

व्यञ्जन सन्धि -

प्रतिपादन -💐↔👇
शात् ८।४।४४ ।।
वृत्तिः-शात्‌ परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्।।
विश्न: । प्रश्न।
व्याख्यायित :-शकार के परवर्ती तवर्ग के स्थान पर चवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह कि शकार (श्  वर्ण) से परे तवर्ग ( त थ द ध न ) के स्थान पर स्तो: श्चुनाश्चु: से जो चवर्ग हो सकता है- वह इस सूत्र शात्‌ के कारण नहीं होगा।
अत: यह सूत्र " श्चुत्वं विधि का अपवाद " है-।
__________________________________________
काशिका-वृत्तिः

शात् ८।४।४४

तोः इति वर्तते। शकारादुत्तरस्य तवर्गस्य यदुक्तं तन् न भवति। प्रश्नः। विश्नः।

न्यासः

______________

💐↔शात् ६३/ ८/४४३ 

"विश्नः, प्रश्नः" इति।

"विच्छ गतौ" (धा।पा।१४२३) "प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्()" (धा।पा।१४१३), पूर्ववन्नङ्(), "च्छ्वोः शूडनुनासिके च" ६।४।१९ इति च्छकारस्य शकारः। यद्यपि "प्रश्ने चासन्नकाले" ३।२।११७ इति निपतनादेव शात्परस्य तदर्गस्य चुत्वं न भवतीत्यैषोऽर्थो लभ्यते, तथापि मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवपरीहारार्थमिदमारभ्यते। अथ वा"अवाधकान्यपि निपातनानि भवन्ति"
(पु।प।वृ।१९) इत्युक्तम्()।
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यद्येतन्नारभ्यते, प्रश्ञः, विश्ञ इत्यपि रूपं सम्भाव्येत॥
यदि यह अपवाद नियम नहीं होता तो प्रश्न  का रूप प्रश्ञः और विश्न का रूप विश्ञ होता  

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लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

💐↔शात् ६३, ८।४।४३

शात्परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात्। विश्नः। प्रश्नः॥

सिद्धान्त-कौमुदी

शात् ६३, ८।४।४३

शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।
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💐↔न पदान्ताट्टोरनाम् ।।8/4/42 ।।

वृत्ति:-पदान्ताट्टवर्गात्परस्या८नाम: स्तो: ष्टुर्न स्यात्।
पदान्त में  टवर्ग होने पर भी  ष्टुत्व सन्धि का विधान नहीं होता है ।👇
अर्थात् – पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द  के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।

पदान्त का विपरीत धात्वान्त /मूलशब्दान्त है ।

आशय यह है कि यदि पदान्त  में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम शब्द के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् "स"  के  स्थान पर "ष" और वर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा जैसे 👇

षट् सन्त: ।
षट् ते ।पदान्तात् किम् ईट्टे ।
टे: किम् ? सर्पिष्टम् ।

व्याख्या :- पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द  के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।

आशय यह है कि यदि पदान्त  में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् स के  स्थान पर ष और तवर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा ।

अर्थात् षट् नाम = "षण्णाम "तो हो जाएगा क्यों कि यह संज्ञा पद है।

प्रस्तुत सूत्र "ष्टुत्व सन्धि का अपवाद है " ।

यथा:-षट्+ सन्त: यहाँ पर पूर्व पदान्त में टवर्ग का "ट" है तथा इसके परे सकार होने से "ष्टुनाष्टु: सूत्र से ष्टुत्व प्राप्त था।
परन्तु प्रस्तुत सूत्र से उसे बाध कर ष्टुत्व कार्य निषेध कर दिया।
परिणाम स्वरूप "षट् सन्त:"  रूप बना रहा।
अब यहाँ समस्या यह है कि वर्तमान सूत्र में पदान्त टवर्ग किस  प्रयोजन से कहा ?
यदि टवर्ग मात्र कहते तो क्या प्रयोजन की सिद्धि नहीं थी।
इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि पदान्त न कहते तो (ईडते) ईट्टे :- मैं स्तुति करता हूँ। के प्रयोग में अशुद्धि हो जाती ।
ईड् + टे इस विग्रह अवस्था में ष्टुत्व का निषेध नहीं होता।और तकार को टकार होकर ईट्टे रूप बना यह क्रिया पद है।

एक अन्य तथ्य यह भी है कि इस सूत्र में तवर्ग का ग्रहण क्यों हुआ है
मात्रा न' पदान्तानाम् कहते तो क्या हानि थी? इसका समाधान यह है कि यदि टवर्ग का ग्रहण नहीं किया जाता तो  पद के अन्त में षकार से परे भी स्तु को ष्ठु होने का निषेध हो जाता।
षट् षण्टरूप बन जाता ।

५:-अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम्।।

वृत्ति -षष्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।

काशिका-वृत्तिः

न पदान्ताट् टोरनाम् ८।४।४२

पदान्ताट् टवर्गादुत्तरस्य स्तोः ष्टुत्वं न भवति नाम् इत्येतद् वर्जयित्वा। श्वलिट् साये। मधुलिट् तरति। पदान्तातिति किम्? ईड स्तुतौ ईट्टे। टोः इति किम्? सर्पिष्टमम्। अनाम् इति किम्? षण्णाम्।
अत्यल्पम् इदम् उच्यते। अनाम्नवतिनगरीणाम् इति वक्तव्यम्। षण्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।

वृत्ति:-षष्णाम ।षष्णवति:।षण्णगर्य:।

व्याख्या:- पद के अन्त में तवर्ग से परे नाम ,नवति, और नगरी शब्दों के नकार को त्यागकर स ' तथा तवर्ग को  षकार और टवर्ग हो ।

आशय यह कि पाणिनि मुनि ने 'न' पदान्ताट्टोरनाम् सूत्र में केवल नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से अलग किया गया था।
अत: नवति और नगरी शब्दों में ष्टुत्व निषेध प्राप्त होने से दोष पूर्ण सिद्धि  होती थी ।

इस दोष का निवारण करने के लिए वार्तिक कार कात्यायन ने वार्तिक बनाया। कि नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त नहीं करना चाहिए अपितु नवति और नगरी शब्दों को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त कर देना चाहिए अतएव नाम नवति और नगरी आदि शब्दों में तो ष्टुत्व विधि होनी चाहिए।
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(तो:षि- 8/4/53 )

 तो: षि। 8/4/53 ।

वृत्ति:- तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है।इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा ।

"तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: 

★-यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है। इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा" 

💐↔पूर्व सवर्ण सन्धि:- उद: परयो: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य 8/4/61..

वृत्ति:- उद: परयो: स्थास्तम्भो पूर्वसवर्ण: ।
स्था और स्तम्भ को उद् उपसर्ग से परे हो जाने पर पूर्व- सवर्ण होता है।

उत् + स्थान = उत्थान ।
कपि + स्थ = कपित्थ ।
अश्व + स्थ =अश्वत्थ ।
तद् + स्थ = तत्थ । 

काशिका-वृत्तिः

उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१

सवर्णः इति वर्तते। उदः उत्तरयोः स्था स्तम्भ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति। उत्थाता। उत्थातुम्। उत्थातव्यम्। स्तम्भेः खल्वपि उत्तम्भिता।
उत्तम्भितुम्। उत्तम्भितव्यम्। स्थास्तम्भोः इति किम्? उत्स्नाता।
उदः पूर्वसवर्नत्वे स्कन्देश् छन्दस्युपसङ्ख्यानम्।
अग्ने दूरम् उत्कन्दः।
 रोगे च इति वक्तव्यम्। उत्कन्दको नाम रोगः। कन्दतेर् वा धात्वन्तरस्य एतद् रूपम्।

काशिका-वृत्तिः

काशिका-वृत्तिः

झयो हो ऽन्यतरस्याम् ८।४।६२

झयः उत्तरस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाग्घसति, वाघसति। स्वलिड् ढसति, श्वलिड् हसति। अग्निचिद् धसत्। अग्निचिद् हसति। सोमसुद् धसति, सोमसुद् हसति। त्रिष्टुब् भसति, त्रिष्टुब् हसति। झयः इति किम्? प्राङ् हसति। भवान् हसति।

न्यासः

झयो होऽन्यतरस्याम्?। , ८।४।६१

"वाग्धसति" इत्यादावुदाहरणे हकारस्य महाप्राणस्यान्तरतम्यात्? तादृश एव घकारादयो वर्गचतुर्था भवन्ति। अन्यतरस्यांग्रहणं पूर्वविध्योर्नित्यत्वज्ञापनार्थम्()॥

लघु-सिद्धान्त-कौमुदी

झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१

झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः। नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः। वाग्घरिः, वाघरिः॥

सिद्धान्त-कौमुदी

★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१

★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१

झयः परस्य हस्य पूर्वसवर्णो वा स्यात् । घोषवति नादवतो महाप्राणस्य संवृतकण्ठस्य हस्य तादृशो वर्गचतुर्थं एवादेशः । वाग्घरिः । वाग्घरिः ।।

अर्थात् झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, (८।४।६१)
वृत्ति:- झय: परस्य हस्य वा पूर्व सवर्ण:
नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्ग चतुर्थ:
वाग्घरि : वाग्हरि:।
व्याख्या:- झय्  (झ् भ् घ् ढ् ध् ज्  ब्  ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प् ) प्रत्याहार के वर्ण के पश्चात यदि 'ह' वर्ण आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण आदेश हो जाता है ।उसका आशय यह है कि यदि वर्ग का प्रथम , द्वितीय ,तृत्तीय , तथा चतुर्थ वर्ण के बाद 'ह'
आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण हो जाता है । अर्थात् गुणकृत यत्नों के सादृश्य से समान आदेश होगा।

यह पूर्व सवर्ण विधायक सूत्र है यथा–वाक् +'हरि : इस दशा में 'झलांजशो८न्ते' सूत्र से ककार को गकार जश् हुआ तब वाग् + 'हरि रूप बनेगा। फिर  झयो होऽन्यतरस्याम्  सूत्र से वाघरि रूप बना।

काशिका-वृत्तिः

शश्छो ऽटि ८।४।६३

झयः इति वर्तते, अन्यतरस्याम् इति च। झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतः छकरादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाक् छेते, वाक् शेते। अग्निचिच् छेते, अग्निचित् शेते। सोमसुच् छेते, सोमसुत् शेते। श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते। त्रिष्टुप् छेते, त्रिष्टुप् शेते। छत्वममि इति वक्तव्यन्। किं प्रयोजनम्? तच्छ्लोकेन, तच्छ्मश्रुणा इत्येवम् अर्थम्।

न्यासः
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↔💐↔शश्छोऽटि। , ८।४।६२( छत्व सन्धि )
वृत्ति:- झय: परस्य शस्य छो वा८टि।
तद् + शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य टकार :-
तच्छिव: तश्चिव:।
व्याख्या:-झय् ( झ् भ् घ् ढ् ध् ज्  ब्  ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प ) के वर्ण से परे यदि शकार आये तथा उससे भी परे अट्( अ इ उ ऋ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र )
प्रत्याहार आये तो विकल्प से शकार को छकार हो जाता है अर्थात् शर्त यह है कि पदान्त झय् प्रत्याहार वर्ण से परे शकार आये तो उसे विकल्प से छकार हो जाएगा यदि अट् परेे होगा तब ।

प्रयोग:- यह सूत्र छत्व सन्धि का विधायक सूत्र है यथा तद् + शिव = तच्छिव  तद् + शिव इस विग्रह अवस्था में सर्वप्रथम "स्तो: श्चुना श्चु:" सूत्र प्रवृत्त होता है – तज् +शिव:।तत्पश्चात "खरि च" सूत्र प्रवृत्त होता है तथा शकार से भी परे अट् "इ" है ।
अतएव प्रस्तुत सूत्र द्वारा विकल्प से शकार को छकार हो जाएगा।  तद्+ शिव =तच्छिव ।विकल्प भाव में तच्शिव: रूप बनेगा।
इसी सन्दर्भों में कात्यायन ने एक वार्तिक पूरक के रूप में जोड़ा है 
छत्वममीति वाच्यम्( वार्तिक)"
वृत्ति:-  तच्छलोकेन।
व्याख्या:-यह वार्तिक है इसका आशय है कि पदान्त झय् प्रत्याहार के वर्ण से परे शकार को छकार अट् प्रत्याहार परे होने की अपेक्षा अम् प्रत्याहार ( अ,इ,उ,ऋ,ऌ,ए,ओ,ऐ,औ,ह,य,व,र,ल,ञ् म् ड्• ण्  न् ) परे होने पर छत्व होना चाहिए 
पाणिनि मुनि द्वारा कथित "शश्छोऽटि" सूत्र से तच्छलोकेन आदि की सिद्धि नहीं हो कही थी अतएव इनकी सिद्धि के लिए कात्यायन ने यह वार्तिक बनाया।

प्रयोग:- यह सूत्र पूरक सूत्र है । इसके द्वारा पाणिनि द्वारा छूटे शब्दों की सिद्धि की जाती है ।

"छत्वममीति धक्तव्यण्()" इति। अमि परतश्छत्वं भवतीत्येतदर्थरूपं व्याख्येयमित्यर्थः। तत्रेदं व्याख्यानम्()--"शश्छः" इति योगविभागः क्रियते, तेनाट्प्रत्याहारेऽसन्निविष्टे लकारादावपि भविष्यति, अतोऽटीत्यतिप्रसङ्गनिरासार्थो द्वितीयो योगः--तेनाट()एव परभूते, नान्यनेति। योगवभागकरणसामथ्र्याच्चाम्प्रत्याहारान्तर्गतेऽनट()दि क्वचिद्भवत्येव। अन्यथा योगविभागकरणमनर्थकं स्यात्()। अमीति नोक्तम्(), वैचित्र्यार्थम्()। अत्र "वा पदान्तस्य" ८।४।५८ इत्यतः पदान्तग्रहणमनुवत्र्तते, झयो विशेषणार्थम्()। तेन "शि तुक्()" ८।३।३१ इत्यत्र तुकः पूर्वान्तकरणं छत्वार्थमुपपन्नं भवति; "डः सि धुट्()" (८।३।२९) इत्यतो धुङ्ग्रहणानुवृत्तेः परस्या सिद्धत्वात्? पूर्वान्तकरणमनर्थकं स्यात्()॥

लघु-सिद्धान्त-कौमुदी-

शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२

झयः परस्य शस्य छो वाटि। तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तच्शिवः। (छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन॥

सिद्धान्त-कौमुदी

शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२

पदान्ताज्झयः परस्य शस्य छो वा स्यादटि । दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते--।

बाल-मनोरमा

शश्छोऽटि १२१, ८।४।६२

शश्छोऽटि। "झय" इति पञ्चम्यन्तमनुवर्तते। "श" इति षष्ठ()एकवचनम्। तदाह--झयः परस्येति। "तद्-शिव" इति स्थिते दकारस्य चुत्वेन जकारे कृते जकारस्य चकार इत्यन्वयः।

तत्त्व-बोधिनी

शाश्छोऽटि ९६, ८।४।६२

शाश्छोऽटि। इह पदान्तादित्यनुवत्र्य "पदान्ताज्झय" इति व्याख्येयम्, तेनेह न, "मध्वश्चोतन्त्यभितो विरप्शम्"। विपूर्वाद्रपेरौणादिकः शः।

छत्वममीति। "शश्छोऽटी"ति सूत्रं "शश्छोऽमी"ति पठनीयमित्यर्थः। तच्छ्लोकेनेति। "तच्छ्मश्रुणे"त्याद्यप्युदाहर्तव्यम्॥

काशिका-वृत्तिः
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★-मो राजि समः क्वौ ८।३।२५।

मो राजि समः क्वौ ८।३।२५
वृत्ति:- क्विवन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् ।
राज+ क्विप् = राज् ।
सम् के मकार को मकार ही होता है  यदि क्विप् प्रत्ययान्त  राज् परे होता है ।आशय यह कि अनुस्वारः नहीं होता ।

प्रयोग:- यह अनुस्वार का निषेध करता है- अतएव अपवाद सूत्र है ।यथा सम्+ राट् = यहाँ सम के मकार को को क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु का राट् है अतएव अनुस्वार नहीं होगा तथा सम्राट् रूप बनेगा ।
वस्तुत राज् का राड् तथा राट् रूप राज् के "र" वर्ण का संक्रमण रूप है ।

समो मकारस्य मकारः आदेशो भवति राजतौ क्विप्प्रत्ययान्ते परतः। सम्राट्। साम्राज्यम्। मकारस्य मकारवचनम् अनुस्वारनिवृत्त्यर्थम्। राजि इति किम्? संयत्। समः इति किम्? किंराट्। क्वौ इति किम्? संराजिता। संराजितुम्। संराजितव्यम्।

खरवसानयोर्विसर्जनीय: 8/3/15
वृत्ति:-खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या :- पद के अन्त में "र" वर्ण ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों "र" हो तथा उससे परे "खर"  प्रत्याहार का वर्ण हो अथवा "र" ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों में "र" वर्ण को विसर्ग हो जाता है;यथा संर + स्कर्त्ता =सं : स्कर्त्ता : ।

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💐↔षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई। स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

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परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

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💐↔षत्व विधान सन्धिइक्कु हयण्सि षत्व :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) ह तथा यण्प्रत्याहार के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  किसी स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है । 

_________        

शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।
'हरि+ सु = हरिषु । भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।

 :- परन्तु  आ स्वरों के बाद 'स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है ।

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💐↔णत्व विधान सन्धि

:- रषऋनि  नस्य णत्वम भवति। अर्थात् मूर्धन्य टवर्गीय रषऋ से परे 'न' वर्ण हो तो 'न'वर्ण का 'ण वर्ण हो जाता है।
यदि र ष और ऋ तथा न के बीच में स्वर कवर्ग पवर्ग य् व् र् ल्  और ह् और अनुस्वार भी आ जाए तो भी 'न '  को 'ण'' हो जाता है । जैसे रामे + न = रामेण । मृगे+ न = मृगेण ।
परन्तु पद के अन्त वाले 'न'को ण नहीं होता है ।जैसे रिपून् ।रामान्। गुरून्। इत्यादि ।
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💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-

💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
यदि विसर्ग के बाद "क" "ख" "प" "फ" वर्ण आऐं
तो विसर्गों (:) के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । 

अर्थात् विसर्ग यथावत् ही रहते हैं । क्यों कि इन वर्गो के सकार नहीं होते हैं -

 परन्तु इण्को: सूत्र कुछ सन्धियों में षकार हो जाता है ।

जैसे-
कवि: + खादति = कवि: खादति ।
बालक: + पतति = बालक: पतति ।
गुरु : + पाठयति  = गुरु: पाठयति ।
वृक्ष: + फलति = वृक्ष: फलति ।                          मन:+ कामना=मन: कामना।

यदि विसर्ग से पहले "अ " स्वर हो और विसर्ग के बाद भी "अ" स्वर वर्ण हो । विसर्ग के स्थान पर 'ओ' हो जाता है।यह पूर्वरूप सन्धि विधायक सूत्र है
इसमें "अ" स्वर वर्ण के स्थान पर प्रश्लेष(ऽं अथवा ८ ) का चिह्न लगाते हैं ।।

बाल: + अस्ति = __ ।
मूर्ख: + अपि   = मूर्खो८पि।
शिव: + अर्च्य: =शिवो८र्च्य: ।
क: +अपि = को८पि ।

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सूत्रम्- 
खरवसानयोर्विसर्जनीय: ।।08/03/15।।
खरि अवसाने च पदान्‍तस्‍य रेफस्‍य विसर्ग: । 

व्‍याख्‍या - 
पदस्‍य अन्तिम 'र्'कारस्‍य अनन्‍तरं खर् (वर्गणां 1, 2, श, ष, स) वर्णा: भवन्‍तु अथवा अवसानं (किमपि न) भवतु चेत् 'र्'कारस्‍य विसर्ग: (:) भवति ।

हिन्‍दी - 

पद के अन्तिम र् से परे यदि खर् प्रत्‍याहार के वर्ण (वर्ग के प्रथम और द्वितीय अक्षर तथा स, श, ष) हों अथवा कि कुछ भी न हो तो 'र्'कार के स्‍थान पर विसर्ग (:) परिवर्तन होता है ।

वार्तिकम् - संपुकानां सो वक्‍तव्‍य: ।।

व्‍याख्‍या - सम्, पुम्, कान् च शब्‍दानां विसर्गस्‍य स्‍थाने 'स्'कार: भवति ।

उदाहरणम् - 
सम् + स्‍कर्ता = संस्‍स्‍कर्ता (सँस्‍स्‍कर्ता) ।।

हिन्‍दी - 
सम्, पुम् और कान् शब्‍दों के विसर्ग के स्‍थान पर 'स्'कार होता है ।

इति

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💐↔ 

विसर्गस्यलोप -💐↔विसर्ग का लोप ।

-विसर्गस्यलोप - परन्तु यदि विसर्ग से पहले "अ" स्वर वर्ण हो और विसर्ग के बाद "अ" स्वर वर्ण के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वर ( आ, इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,) हो तो विसर्गों का सन्धि करने पर  लोप हो जाता है ।

जैसे-•

सूर्य: + आगच्छति = सूर्य आगच्छति।
बालक: + आयाति = बालक आयाति।
चन्द्र: + उदेति = चन्द्र उदेति।

💐↔यदि विसर्गों के पूर्व "अ" हो और बाद में किसी वर्ग का तीसरा ,चौथा व पाँचवाँ वर्ण अथवा अन्त:स्थ वर्ण ( य,र,ल,व) अथवा 'ह' वर्ण हो  तो पूर्व वर्ती "अ"  और विसर्ग से मिलकर 'ओ' बन जाता है। जैसे 👇
बाल:+ गच्छति = बालोगच्छति।
श्याम:+ गच्छति। = श्यामोगच्छति।
मूर्ख: + याति = मूर्खो याति।
धूर्त: + हसति = धूर्तो हसति।
कृष्ण: + नमति =कृष्णो नमति।
लोक: + रुदति= लोको रुदति।
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💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व 'आ' और बाद में कोई स्वर वर्ण.(अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )अथवा वर्ग का तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ण और कोई अन्त:स्थ (य,र,ल,व)अथवा'ह'वर्ण हो तो विसर्गों का लोप हो जाता है।

जैसे- 👇

पुरुषा: +आयान्ति = पुरुषा आयान्ति।
बालका: + गच्छन्ति = बालका गच्छन्ति।
नरा: + नमन्ति =नरा नमन्ति।

विशेष:-देवा:+अवन्ति= देवा अवन्ति फिर पूर्वरूप देवा८वन्ति रूप-

___________________       

💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व ( 'इ'  'ई ' उ ' ऊ 'ऋ 'ऋृ 'ए ' ऐ 'ओ 'औ ')आदि में से कोई स्वर हो और विसर्ग के बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा व पाँचवाँ अथवा कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ  (य,र,ल,व )  अथवा 'ह' महाप्राण वर्ण हो तो विसर्ग का ( र् ) वर्ण बन जाता है।

यदि "अ"तथा "आ" स्वरों को छोड़कर कोई अन्य स्वर -(इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )के पश्चात्  विसर्ग(:)हो तथा विसर्ग के पश्चात कोई भी स्वर(अ,आ,इ,ई,उ,ऋ,ऋृ,ऌ,ऊ,ए,ऐओ,औ) अथवा कोई वर्ग का तीसरा,चौथा,-(झ-भ-घ-ढ-ध) पाँचवाँ वर्ण-(ञ-म-ङ-ण-न) अथवा कोई अन्त:स्थ-(य-र-ल-व) और "ह" वर्ण हो तो विसर्ग का रेफ(र्) हो जाता है । और सजुष् शब्द के ष् वर्ण का र् (रेफ)वर्ण हो जाता है। यह नियम "ससजुषोरु:" सूत्र का विधायक है ।

जैसे- 

'हरि: + आगच्छति = हरिरागच्छति। (हरिष्+)

कवि: + गच्छति =  कविर्गच्छति। (कविष्+)

गुरो: + आदेश: = गुरोरादेश: । (गुरोष्+)

गौष्+इयम्=गौरियम्। (गौर्+)

हरे:+ दर्शनम्।=हरेर्दर्शनम्। (हरेष्+)

पितुष्+आज्ञया=पितुराज्ञया।(पितु:+)

दुष्+लभ्।=दुर्लभ। (दु:+)

नि:+जन:=निर्जन: ।( निष्+जन:)

निष् +दय:=निर्दय:।(नि:)

दुष्+आराध्य:=दुराराध्य:।

निष्+आश्रित:=निराश्रित:।

कविष्+हसति=कविर्हसति।

मुनिष्+आगत:=मुनिरागत:।

मुनिष्+इव=मुनिरिव।

प्रभोष्+आज्ञा=प्रभोराज्ञा।

विधेष्+आज्ञा=विधेराज्ञा।

रवेष्+दर्शनम्=रवेर्दर्शनम्।

इन्दोष्+उदय:=इन्दोरुदय।

तयोष्+आज्ञा=तयोराज्ञा।

धेनुष्+एषा =धेनुरेषा।

हरिष् +याति=हरिर्याति।

कविष्+अयम् =कविरयम्।

मन:+ कामना= मनस्कामना।

पुर:+ कार= पुरस्कार ।

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विशेष-इण् -

(इण्=इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्)

 कु(क,ख,ग,घ,ङ्,)से परे "सकार" का "षकार" आदेश हो जाता है इण्को:आदेशप्रत्ययो:८/३५७/५९) इण्को (८-३-५७)-आदेशप्रत्ययो: (८-३-५९) । तस्मात् इण्को परस्य (१) अपदान्तस्य आदेशस्य (२) प्रत्यय अवयवश्च "स: स्थाने मूर्धन्य " आदेश: भवति।(सिद्धान्त कौमुदी)

इण्को: ।५७। वि०-इण्को:५।१। स० इण् च कुश्च एतयो: समाहार:-इण्कु तस्मात् -इण्को: (समाहारद्वन्द्व:)।

संस्कृत-अर्थ-इण्कोरित्यधिकारो८यम् आपादपरिसमाप्ते:।इतो८ग्रे यद् वक्ष्यति इण: कवर्गाच्च परं तद् भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति आदेशप्रत्ययो: ८/३/५९/इति उदाहरण :- सिषेव ।सुष्वाप। अग्निषु। वायुषु। कर्तृषु ।गीर्षु ।धूर्षु ।वाक्षु ।त्वक्षु ।

 हिन्दी अर्थ:- इण्को: इण् कु- (क'ख'ग'घ'ड॒॰)तृतीय पाद की समाप्ति पर्यन्त पाणिनि मुनि इससे आगे और परे जो कहेंगे वह इण् और कवर्ग से परे होता है ऐसा जानें जैसाकि आचार्य पाणिनि कहेंगे आदेशप्रत्ययो:८/३/५९/ इण् और कवर्ग से परे आदेश और प्रत्यय के सकार का मूर्धन्य षकार हो जाता है ।

__________

पूर्वम्: ८।२।६५अनन्तरम्: ८।२।६७
प्रथमावृत्तिः
सूत्रम्॥ ससजुषो रुः॥ ८।२।६६

पदच्छेदः॥ स-सजुषोः ६।२ रुः १।१ पदस्य ६।१ ८।१।१६

समासः॥

सश्च सजुष च स-सजुषौ तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः
अर्थः॥

स-कारान्तस्य पदस्य सजुष् इत्येतस्य च रुः भवति
उदाहरणम्॥

सकारान्तस्य - अग्निरत्र, वायुरत्र। सजुषः - सजूरृषिभिः, सजूर्देवेभिः।
काशिका-वृत्तिः

ससजुषो रुः ८।२।६६
सकारान्तस्य पदस्य सजुषित्येतस्य च रुः भवति। सकारान्तस्य अग्निरत्र। वायुरत्र।
सजुषः सजूरृतुभिः। सजूर्देवेभिः। जुषेः क्विपि सपूर्वस्य रुपम् एतत्।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
समजुषो रुः १०५, ८।२।६६

पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात्॥
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः।

न्यासः
ससजुषो रुः। , ८।२।६६
"सजूः" इति। "जुषी प्रीतिसेवनयोः" (धा।पा।१२८८), सह जषत इति क्विप्(), उपपदसमासः, "सहस्य सः संज्ञायाम्()" ६।३।७७ इति सभावः।
रुत्वे कृते "र्वोरुपधायाः" ८।२।७६ इति दीर्घः। सजुवो ग्रहणमसकारान्तार्थम्()। योगश्चायं जश्त्वापवादः॥

बाल-मनोरमा
ससजुषो रुः १६१, ८।२।६६
ससजुषो रुः। ससजुषो रु रिति छेदः। "रो रि"इति रेफलोपः।
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः। रुविधौ उकार इत्।
तत्फलं त्वनुपदमेव वक्ष्यते। "स" इति सकारो विविक्षितः।
अकार उच्चारणार्थः। पदस्येत्यधिकृतं सकारेण सजुष्शह्देन च विशेष्यते। ततस्त दन्तविधिः।
सकारान्तं सजुष्()शब्दान्तं च यत् पदं तस्य रुः स्यादित्यर्थः।
सच "अलोऽन्त्ये"त्यन्त्यस्य भवति।
तत्फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति।
सजुष्()शब्दस्य चेति। सजुष्शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य । ततश्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्()शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य षकारस्येत्यर्थः। ततस्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्शब्दान्तं यत्पद"मिति तदन्तविधिना परमसजूरित्यत्र नाव्याप्तिः।
न च सजूरित्यत्राव्याप्तिः शङ्क्या, व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वात्।
व्यपदेशिवद्भावो।ञप्रातिपदिकेन" इति "ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिर्न" इति च पारिभाषाद्वयं "प्रत्ययग्रहणे यस्मा"दितिविषयं, नतु येन विधिरितिविषयमिति "असमासे निष्कादिभ्यः" इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। ननु शिवसिति सकारस्य "झलाञ्जशोन्ते" इति जश्त्वेन दकारः स्यात्, जश्त्वं प्रति रुत्वस्य परत्वेऽपि असिद्धत्वादित्यत आह--जश्त्वापवाद इति। तथा च रुत्वस्य निरवकाशत्वान्नासिदधत्वमिति भावः। तदुक्तं भाष्ये "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति विप्रतिषेधोऽभावादुत्तरस्ये"ति , "अपवादो वचनप्रामाण्यादि"ति च।

तत्त्व-वोधिनी
ससजुषो रुः १३२, ८।२।६६
ससजुषो रुः। "पदस्ये"त्यनुवृतं ससजूभ्र्यां विशेष्यते, विशेषणेन तदन्तविधिः। न च सजूःशब्दांशे "ग्रहणवता प्रतिपदिकेन तदन्तविधिर्ने"ति निषेधः शङ्क्यः, तस्य प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। सान्तं सजुष्शब्दान्तं च यत्पदं तस्य रुः स्यात्स चाऽलोन्त्यस्य। एवं स्थिते फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति। सजुष्शब्दस्येति।

तदन्तस्य पदस्येत्यर्थः। तेन "सुजुषौ" "सजुष" इत्यत्रापि नातिव्याप्तिः। नच "सजू"रित्यत्राऽव्याप्तिः, "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिदिकेने"ति निषेधादिति वाच्यं, तस्यापि प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। अतएव "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेने"ति "ग्रहणवते"ति च परिभाषाद्वयमपि प्रत्ययविधिविषयकमिति "दिव उ"त्सूत्रे हरदत्तेनोक्तम्। कैयटहरदत्ताभ्यामिति तु मनोरमायां स्थितम्। तत्र कैयटेनानुक्तत्वात्कैयटग्रहणं प्रमादपतिततमिति नव्याः। केचित्तु "दिव उ"त्सूत्रं यस्मिन्निति बहुव्रीहिरयं, सूत्रसमुदायश्चान्यपदार्थः। तथाच "दिव उ"त्सूत्रशब्देन "द्वन्द्वे चे"ति सूत्रस्यापि क्रोटीकारात्तत्र च कैयटेनोक्तत्वान्नोक्तदोष इति कुकविकृतिवत्क्लेशेन मनोरमां समर्थयन्ते।

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अधुना अपवादत्रयं वक्तव्यम्‌—

१. रेफान्तानि अव्ययानि

प्रातः इच्छति → प्रात इच्छति = दोषः

“प्रात इच्छति" तु अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्‌ अनुसृत्य भवति स्म, परन्तु अत्र दोषः |

प्रातः इच्छति → प्रातरिच्छति = साधु

अत्र नियमः यत्‌ यत्र रेफान्तानि अव्ययानि सन्ति, तत्र केवलं भाट्टसूत्रेषु प्रथमसूत्रं कार्यं करोति | 

अन्यत्र सर्वत्र रेफः एव आदिष्टः | 

अतः रेफान्त-अव्ययानां कृते सूत्राणि २ -५ इत्येषां स्थाने रेफः एव भवति |

प्रातः तिष्ठति → प्रातस्तिष्ठति = साधु

इदं उदाहरणं प्रथमसूत्रेण (विसर्जनीयस्य सः खरि कखपफे तु विसर्गः इत्यनेन) प्रवर्तते; अन्यत्र सर्वत्र रेफः |

अव्ययस्य अन्ते विसर्गः अस्ति चेत्‌, तस्य अव्ययस्य प्रातिपदिकं ज्ञेयम्‌ | रेफान्तं प्रातिपदिकम्‌ अस्ति चेत्‌, तर्हि तद्‌ अव्ययम्‌ अपवादभूतम्‌ अस्ति इति धेयम्‌ |

 यथा प्रातः इत्यस्य प्रातिपदिकं प्रातर्‍; पुनः इत्यस्य प्रातिपदिकं पुनर्‍; अन्तः इत्यस्य प्रातिपदिकम्‌ अन्तर् | इमानि अव्ययानि रेफान्तानि अतः अपवादभूतानि | परन्तु प्रातिपदिकं रेफान्तं नास्ति चेत्‌, तर्हि सामान्यैः सूत्रैः क्रमः प्रवर्तते | यथा "अतः" रेफान्तं नास्ति |

अतः इच्छति → "अतरिच्छति" = दोषः

अतः इच्छति → अत इच्छति = साधु (अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्‌)

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२- एषः सः

सः तिष्ठति → सस्तिष्ठति = दोष:

एषः सः इति द्वि पदे विशेषे | तयोः कृते चतुर्थसूत्रेण अति उत्वं भवति | अन्यत्र सर्वत्र लोप एव |

सः तिष्ठति → स तिष्ठति = साधु

अतः पञ्चमे सोपाने यथा बालः इत्यादयः लघु-अकारान्तशब्दाः, एषः-सः इति द्वयोरपि अत्र विसर्गलोपः 

एषः इच्छति → एष इच्छति*

एषः आगच्छति → एष आगच्छति*

*यथा पञ्चमे सोपाने, अत्रापि अन्यः विकल्पः अस्ति 'एषयिच्छति', 'एषयागच्छति' | 

भोभगोअघोअपूर्वस्य योशि (८.३.१७), लोपः शाकल्यस्य (८.३.१९) इति सूत्राभ्याम्‌ | अयं विकल्पः विरलतया उपयुज्यते |

धेयं यत्‌ एषः सः इति द्वयोः पदयोः कृते अतः परस्य विसर्जनीयस्य अति हशि च उत्वम् इति सूत्रेण अति उत्वं भवति, परन्तु हशि उत्वं न भवति अपि तु लोप एव |

सः गच्छति → सो गच्छति = दोषः

सः गच्छति → स गच्छति = साधु

अत्‌ परे अस्ति चेत्‌, तर्हि अति उत्वं भवति—

सः अपि → सोऽपि = साधु

'सः एषः' इति यथा, तथा 'यः' नास्ति | 'यः' इति शब्दस्य यथासामान्यं भाट्टसूत्रेषु सूत्र-१,४,५ इत्येषां साधारणरूपाणि | यस्तिष्ठति | यो गच्छति | य इच्छति |

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३. रेफः + रेफः = पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च

हरिः रमते → हरिर्रमते = दोषः

रेफस्य रेफे परे पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च | उदाहरणे, पूर्वं यः इकारः अस्ति, तस्य दीर्घत्वं भवति | इ → ई इति |

हरिः रमते → इचः परस्य विसर्जनीयस्य रेफः अखरि इत्यनेन → हरिर्‍ + रमते → रेफस्य लोपः, पूर्वदीर्घत्वम्‌ → हरी + रमते → हरीरमते |

तथैव पुनः रमते → रेफान्तम्‌ अव्ययम् अतः विसर्गसन्धौ रेफादेशः → पुनर्‍ + रमते → पुना + रमते → पुनारमते |

पुनः रेफान्तम्‌ अव्ययम्‌ अतः अत्रापि रेफः आयाति; रेफस्य रेफे परे रेफलोपः पूर्वदीर्घत्वं च इति धेयम्‌ |

इति विसर्गसन्धेः समग्रं चिन्तनम्‌ समाप्तम्‌ | इदं च लौकिकं चिन्तनं, व्यावहारिकं चिन्तन्तम्‌ | सम्प्रति यावत्‌ परिशीलितं व्यवहारे, तत्‌ शास्त्रीयरीत्या कथं सिध्यति इति जानीयाम |

यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।

रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति


सुतः + एव = सुतेव


सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति


अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च


नराः + ददन्ति = नराददन्ति


देवाः + अत् = देवात्


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सूत्र – ससजुषोरूः


यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।

मुनिः + अत्र = मुनिरत्र


रविः + उदेति = रविरुदेति


निः + बलः = निर्बलः


कविः + याति = कविर्याति


धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति


नौरियम् = नौः + इयम्


गौरयम् = गौ + अयम्


श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा

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4. सूत्र – रोरि

यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।

निर् + रसः = नीरसः


निर् + रवः = नीरवः


निर् + रजः = नीरजः


प्रातारमते = प्रातर् + रमते


गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य


अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय


शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति


हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति


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5. सूत्र- द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः

  रेफाकार अथाव ढ़कार से परे यदि ढ़कार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला अण्-(अइउ) स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।

लिढ़् + ढः = लीढ़ः


लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्


अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः


लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः


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6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स

यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में

च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।


त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।


ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।


कः + चौरः = कश्चौरः


बालकः + चलति = बालकश्चलति


कः + छात्रः = कश्छात्रः


रामः + टीकते = रामष्टीकते


धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः


मनः + तापः = मनस्तापः


नमः + ते = नमस्ते


रामः + तरति = रामस्तरति


पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त


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7. सूत्र- वाशरि

यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।

दुः + शासन = दुःशासन/ दुश्शासन


बालः + शेते = बालःशेते/ बालश्शेते


देवः + षष्ठः = देवःषष्ठः/ देवष्षष्ठः


प्रथर्मः + सर्गः = प्रथर्मःसर्ग/ प्रथर्मस्सर्गः


निः + सन्देह = निःसंदेह/ निस्सन्दह

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एष: और स: के विसर्ग का नियम-💐↔

एष: और स: के विसर्ग का नियम – एष: और स: के विसर्गों का लोप हो जाता है  यदि इन विसर्गों के बाद कोई व्यञ्जन वर्ण  जैसेेे. :-
स: + कथयति = स कथयति।
एष: + क:= एष क:।

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नियम-र्(अथवा) विसर्ग (:) के स्थान पर र् के पश्चात यदि र् आता है तो प्रथम र् का लोप होकर उस र् से पूर्व आने वाले स्वर - (अइउ) की दीर्घ हो जाता है। 

है

💐↔रोरि ,ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घो८ण: – अर्थ:- "र से र' वर्ण परे होने पर पूर्व 'र लोप होकर(अ,इ,उ) स्वरों का दीर्घ स्वर हो जाता है।
यदि विसर्ग के बाद र् आ

ता है  तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग का लोप हो जाने के कारण उससे पहले आने वाले ( अ , इ, उ, का दीर्घ रूप आ,ई,ऊ हो जाता है।

जैसे- 

अन्त:+राष्ट्रीय=अन्ताराष्ट्रीय।अन्तर्+

पुनः + रमते = पुनारमते । पुनर्+
कवि: + राजते =कवीराजते ।कविर्+
'हरि+रम्य= हरी रम्य।हरिर्+
शम्भु: + राजते = शम्भूराजते । शम्भुष्+। शम्भुर्+

👇जश्त्व सन्धि विधान :- 
"पदान्त जश्त्व सन्धि"💐↔झलां जशो८न्ते।
जब पद ( क्रियापद) या (संज्ञा पद) अन्त में  वर्गो के पहले, दूसरे,तीसरे,और चौथे वर्ण के बाद कोई भी स्वर या वर्ग का  वर्ण हो जाता है तब "पदान्त जश्त्व सन्धि" होती है ।
अर्थात् पद के अन्त में वर्गो का पहला , दूसरा, तीसरा , और चौथे वर्ण आये अथवा कोई भी स्वर , अथवा कोई अन्त:स्थ आये परन्तु केवल ऊष्म वर्ण  न आयें तो वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्= जबगडदश्) हो जाता है।

उदाहरण (Example):-
जगत् + ईश = जगदीश: ।
वाक् + दानम्= वाग्दानम्।
वाक् + ईश : = वागीश ।
अच्+ अन्त = अजन्त ।
एतत् + दानम्= एतद् दानम् ।
तत्+एवम् =तदेवम् ।                                               जगत् +नाथ=जगद्+नाथ=जगन्नाथ ।

💐↔अपादान्त जश्त्व सन्धि - जब अपादान्त  में। अर्थात् (धात्वान्त) अथवा मूूूूल शब्दान्त  में वर्गो के पहले दूसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा अन्त:स्थ ( य,र,ल,व ) में से कोई वर्ण हो तो पहले वर्ण को उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है ।

उदाहरण( Example )
लभ् + ध : = लब्ध: । (धातुु रूप)
उत् + योग = उद्योग :। (उपसर्ग रूप)
पृथक् +भूमि = पृथग् भूमि: । (मूलशब्द)
महत् + जीवन = महज्जीवनम्।(मूलशब्द)
सम्यक् + लाभ = सम्यग् लाभ :।(मूलशब्द)
क्रुध् + ध: = क्रुद्ध:।(धातुु रूप)

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प्रत्यय लगे हुए वाक्य में प्रयुक्त शब्द अथवा क्रिया  रूप पद कहलाते हैं ।

ये क्रिया पद और  संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि आठ प्रकार के होते हैं ।

संज्ञा


सर्वनाम


विशेषण और


क्रिया।


2. अविकारी-जो शब्द प्रयोगानुसार परिवर्तित नहीं होते, वे शब्द ‘अविकारी शब्द’ कहलाते हैं। धीरे-धीरे, तथा, अथवा, और, किंतु, वाह !, अच्छा ! ये सभी अविकारी शब्द हैं। इनके भी मुख्य रूप से चार भेद हैं :

क्रियाविशेषण


समुच्चयबोधक


संबंधबोधक और


विस्मयादिबोधक।


(विभक्त्यन्तशब्दभेदे “सुप्तिङन्तं पदम्” ) ।

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चर्त्व सन्धि विधान-( खरि च)
"झय् का चय् हो जाता है झय् से परे खर् होने पर "।
परिभाषा:- जब वर्ग के पहले, दूसरे , तीसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का पहला  दूसरा वर्ण अथवा ऊष्म वर्ण श्  ष्  स्  हो तो पहले वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पहला वर्ण जाता है तब "चर्त्व सन्धि होती" है ।

लभ् + स्यते  = लप्स्यते ।
उद् + स्थानम् = उत्थानम् ।
उद् + पन्न:=उत्पन्न:।
युयुध्+ सा = युयुत्सा ।
एतत् + कृतम् = एतत् कृतम्।
तत् + पर: =तत्पर: ।

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'छत्व सन्धि' विधान:- सूत्र-।शश्छोऽटि।

शश्छोऽटि (८.४.६३) = पदान्तस्य झयः- ( झभघढधजबगडदखफछठथचटतकप) उत्तरस्य शकारस्य अटि-(अइउऋऌएओऐऔहयवर) परे छकारादेशो भवति अन्यतरस्याम्‌ | 

अन्वयार्थ:-शः षष्ठ्यन्तं, छः प्रथमान्तम्‌, अटि सप्तम्यन्तं, त्रिपदमिदं सूत्रम्‌-।

छत्व सन्धि विधान :- 

अर्थ-•यदि पूर्व पद के अन्त में पाँचों वर्गों के  प्रथम, द्वितीय तृतीय और चतुर्थ) का कोई वर्ण हो और उत्तर पद के पूर्व (आदि) में शिकार '(श) और इस श' के पश्चात कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ  ल" को छोड़कर महाप्राण 'ह'-(य'व'र' ह)हो तो श वर्ण का छ वर्ण भी हो जाता है । 

वैसे भी तवर्ग का चवर्ग श्चुत्व सन्धि रूप में (स्तो: श्चुना श्चु:) सूत्र हो जाता है  ।
परिभाषा:- यदि त् अथवा न् वर्ण के बाद  "श"  वर्ण आए और "श" के बाद कोई स्वर अथवा कोई अन्त:स्थ (य, र , व , ह )वर्ण हो तो
'श' वर्ण को विकल्प से छकार (छ) हो जाता है  और स्तो: श्चुना श्चु: - सूत्र के नियम से 'त्' को 'च्'  और 'न्' को 'ञ्' हो जाता है जैसे :- 

सत् +शास्त्र = सच्छास्त्र ।

धावन् + शशक: = धावञ्छशक: ।

श्रीमत्+शंकर=श्रीमच्छङ्कर।

१- तत्+शिव= त् के बाद श्  तथा श के बाद 'इ स्वर आने पर श' के स्थान पर 'छ्' वर्ण हो जाता है । रूप होगा सन्धि का तत्छिव  (तत् + छिव) तत्पश्चात ्( श्चुत्व सन्धि) करने पर बनेगा रूप तच्+ छिव (तत्छिव).             

२-एतत्+शान्तम्= त् के बाद श् और श् के बाद 'आ' स्वर आने से  श्'  के स्थान पर छ्' वर्ण हो जाता है। रूप बनेगा एतत् +छान्तम्- तत्पश्चात श्चुत्व सन्धि से आगामी रूप होगा (एतच्छान्तम्)

३-तत् +श्व: पूर्व पद के अन्त में त्  और उसके पश्चात उत्तर पद के प्रारम्भ में श्' और उसके बाद अन्त:स्थ 'व' आने पर श्' के स्थान पर छ' (श्चुत्व सन्धि) से हो जाता है ।  तत् + छ्व: + तत्छव: फिर श्चुत्व सन्धि) से तच्छ्व: रूप होगा।

       (- प्रत्याहार-)

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........माहेश्वर सूत्र कुल १४ हैं, इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र ( १.१.१४ ) "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" ( ८.४.४७ ) से बनता है । इस प्रकार कुल ४३ प्रत्याहार हो जाते हैं।

प्रश्न : ----- "प्रत्याहार" किसे कहते हैं ?

उत्तर : ----- "प्रत्याहार" संक्षेप करने को कहते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ७१ वें सूत्र " आदिरन्त्येन सहेता " ( १-१-७१ ) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि मुनिने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता ( १-१-७१ ) :- ( आदिः + अन्त्येन इता + सह )

........आदि वर्ण अन्तिम इत् वर्ण के साथ मिलकर “ प्रत्याहार ” बनाता है । जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए सभी वर्णों का समष्टि रूप में बोध कराता है।

........जैसे "अण्" कहने से अ, इ, उ तीन वर्णों का ग्रहण होता है, "अच्" कहने से "अ" से "च्" तक सभी स्वरों का ग्रहण होता है। "हल्" कहने से सारे व्यञ्जनों का ग्रहण होता है।

इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैं --

(०१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (०२) आदि अक्षरों के अनुसार।

इनमें से अन्तिम अक्षर से प्रत्याहार बनाना अधिक उपयुक्त है और अष्टाध्यायी से अनुसार है।

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अन्तिम अक्षर के अनुसार ४३ प्रत्याहार सूत्र सहित

(क.) अइउण् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।

........(०१) " अण् " ----- उरण् रपरः । ( १.१.५० )

(ख.) ऋलृक् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।

........(०२) " अक् " ----- अकः सवर्णे दीर्घः ।                ( ६.१.९७ ), 

........(०३) " इक् " ----- इको गुणवृद्धी । ( १.१.३ ), 

........(०४) " उक् " ----- उगितश्च । ( ४.१.६ )

(ग) एओङ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है ।

........(०५) " एङ् " ----- एङि पररूपम् । ( ६.१.९१ )

(घ) ऐऔच् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।

........(०६) " अच् " ----अचोSन्त्यादि टि । ( १.१.६३ ), 

.......(०७) " इच् " --- इच एकाचोSम्प्रत्ययवच्च । (६.३.६६ ), 

........(०८) " एच् " ----- एचोSयवायावः । ( ६.१.७५ ), 

........(०९) " ऐच् " ----- वृद्धिरादैच् । ( १.१.१ ),

(ङ) हयवरट् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 

........(१०) " अट् " ----- शश्छोSटि । ( ८.४.६२ ),

(च) लण् ----- इससे तीन प्रत्याहार बनते हैं ।

........(११) " अण् " ----- अणुदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः । (१.१.६८ ), 

........(१२) " इण् " ----- इण्कोः । ( ८.३.५७ ), 

........(१३) " यण् " ----- इको यणचि । ( ६.१.७४ )

(छ) ञमङणनम् ----- इससे चार प्रत्याहार बनते हैं ।

........(१४) " अम् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ), 

........(१५) " यम् " ----- हलो यमां यमि लोपः ।               ( ८.४.६३ ), 

........(१६) " ङम् " ----- ङमो ह्रस्वादचि ङमुण् नित्यम् । ( ८.३.३२ ), 

........(१७) " ञम् " ----- ञमन्ताड्डः । ( उणादि सूत्र — १.१.१४ )

(ज) झभञ् ----- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 

........(१८) " यञ् " ----- अतो दीर्घो यञि ।                   ( ७.३.१०१ )

(झ) घढधष् ----- इससे दो प्रत्याहार बनते हैं ।

........(१९) "झष् " और 

........(२०) " भष् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )

(ञ) जबगडदश् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।

........(२१) " अश् " ----- भोभगोSघो अपूर्वस्य योSशि । ( ८.३.१७ ), 

........(२२) " हश् " ----- हशि च । ( ६.१.११० ), 

........(२३) " वश् " ----- नेड् वशि कृति । ( ७.२.८ ), 

........(२४) " झश् ", 

........(२५) " जश् " ----- झलां जश् झशि ।                 ( ८.४.५२ ), 

........(२६) " बश् " ----- एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः । ( ८.२.३७ )

(ट) खफछठथचटतव् --- इससे एक प्रत्याहार बनता है । 

........(२७) " छव् " ----- नश्छव्यप्रशान् । ( ८.३.७ )

(ठ) कपय् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।

........(२८) " यय् " ---- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः ।    ( ८.४.५७ ), 

........(२९) " मय् " ----- मय उञो वो वा । ( ८.३.३३ ), 

........(३०) " झय् " ----- झयो होSन्यतरस्याम् । ( ८.४.६१ ), 

........(३१) " खय् " ----- पुमः खय्यम्परे । ( ८.३.६ ), 

........(३२) " चय् " ----चयो द्वितीयः शरि पौषकरसादेः । (वार्तिकः--- ८.४.४७ ),

(ड) शषसर् ----- इससे पाँच प्रत्याहार बनते हैं ।

........(३३) " यर् " ----- यरोSनुनासिकेSनुनासिको वा । ( ८.४.४४ ), 

........(३४) " झर् " ----- झरो झरि सवर्णे । ( ८.४.६४ ), 

........(३५) " खर् " ----- खरि च । ( ८.४.५४ ), 

........(३६) " चर् " ----- अभ्यासे चर्च । ( ८.४.५३ ), 

........(३७) " शर् " ----- वा शरि । ( ८.३.३६ ),

(ढ) हल् ----- इससे छः प्रत्याहार बनते हैं ।

........(३८) " अल् " ----- अलोSन्त्यात् पूर्व उपधा ।  (१.१.६४ ), 

........(३९) " हल् " ----- हलोSनन्तराः संयोगः ।  (१.१.५७ ), 

........(४०) " वल् " ----- लोपो व्योर्वलि । ( ६.१.६४ ), 

........(४१) " रल् " ----- रलो व्युपधाद्धलादेः सश्च ।  (१.२.२६ ), 

........(४२) " झल् " ----- झलो झलि । ( ८.२.२६ ), 

........(४३) " शल् " ----- शल इगुपधादनिटः क्सः । ( ३.१.४५ )

आदि वर्ण के अनुसार ४३ प्रत्याहार

........(क) अकार से ८ प्रत्याहारः---(१) अण्, (२) अक्, (३) अच्, (४) अट्, (५) अण्, (६) अम्, (७) अश्, (८) अल्,

........(ख) इकार से तीन प्रत्याहारः--(९) इक्, (१०) इच्, (११) इण्,

........(ग) उकार से एक प्रत्याहारः--(१२) उक्,

........(घ) एकार से दो प्रत्याहारः---(१३) एङ्, (१४) एच्,

........(ङ) ऐकार से एकः---(१५) ऐच्,

........(च) हकार से दो---(१६) हश्, (१७) हल्,

........(छ) यकार से पाँच---(१८) यण्, (१९) यम्, (२०) यञ्, (२१) यय्, (२२) यर्,

........(ज) वकार से दो---(२३) वश्, (२४) वल्,

........(झ) रेफ से एक---(२५) रल्,

........(ञ) मकार से एक---(२६) मय्,

........(ट) ङकार से एक---(२७) ङम्,

........(ठ) झकार से पाँच---(२८) झष्, (२९) झश्, (३०) झय्, (३१) झर्, (३२) झल्,

........(ड) भकार से एक---(३३) भष्,

........(ढ) जकार से एक--(३४) जश्,

........(ण) बकार से एक---(३५) बश्,

........(त) छकार से एक---(३६) छव्,

........(थ) खकार से दो---(३७) खय्, (३८) खर्,

........(द) चकार से एक---(३९) चर्,

........(ध) शकार से दो---(४०) शर्, (४१) शल्,

इसके अतिरिक्त 

........(४२) ञम्--- एक उणादि का और 

........(४३) चय्---एक वार्तिक का, 

कुल ४३ प्रत्याहार हुए।

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१-अक्अ,  इ , उ, ऋ , लृ २-अच्अ,  इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ ३-अट्अ,  इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व्,र्, ४-अण्अ , इ , उ ५-अण्अ,  इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ, ह्, य्,व, र्, ल्६-अम्स्वर , ह्, य्,व, र्, ल्,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्७-अल्सभी वर्ण ८-अश्स्वर, ह्, य्,व, र्, ल्,वर्गों के 3,4,5,वर्ण।९-इक् इ , उ, ऋ , लृ१०-इच्इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ ११-इण्इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्१२-उक्उ, ऋ,लृ १३-एङ्ए,ओ १४-एच्ए , ओ , ऐ , औ १५-ऐच्ऐ , औ १६-खय्
वर्गों के 1,2 वर्ण।
 
१७-खर्-वर्गों के प्रथम-( और द्वितीय और महाप्राण सहित उष्मवर्ण) खफछठथचटतकपशषसह) 

१८-ङम्ङ् , ण्, न्१९-चय्च्, ट्, त, क्, प् { वर्गों के प्रथम वर्ण }१९-चर्वर्गों के प्रथम वर्ण, श्, ष्, स्२०-छव्छ् , ठ् , थ् , च् , ट् , त्, व्२१-जश्ज्, ब्, ग्, ड्, द्२२-झय्वर्गों के 1, 2, 3, 4 २३-झर्वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स्२४-झल्वर्गों के 1, 2, 3, 4 ,श्, ष्, स्,ह २५-झश्वर्गों के 3, 4 वर्ण।२६-झष्वर्गों के चतुर्थ वर्ण { झ्, भ्, घ्, ढ्, ध् }२७-बश्ब्, ग्, ड्, द्२८-भष्झ् के अलावा वर्गों के चतुर्थ वर्ण २९-मय्ञ् को छोड़कर वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 ३०-यञ्य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 5 , झ्, भ् ३१-यण्य्, व्, र्, ल्३२-यम्य्, व्, र्, ल्, ञ्, म्, ङ्, ण्, न्३३-यय्य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 ३४-यर्य्, व्, र्, ल्, वर्गों के 1, 2, 3, 4, 5 , श्, ष्, स्३५-रल्य् , व् के अलावा सभी व्यञ्जन ३६-वल्य् ,  के अतिरिक्त सभी व्यञ्जन वर्ण। ३७-वश्व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 वर्ण। ३८-शर्श्, ष्, स्३९-शल्श्, ष्, स्, ह { ऊष्म वर्ण }४०-हल्सभी व्यञ्जन ४१-हश्ह, य्, व्, र्, ल् वर्गों के 3, 4, 5 ४२-ञम्ञ्, म्, ङ्, ण्, न् 

इण् प्रत्याहार दो हैं

प्रस्तुति-करण-यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्कसूत्र --8077160219

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वर्णविभागः  

वर्णाः द्विविधम् । स्वराः व्यञ्जनानि च इति ।

अर्थ:-(वर्ण दो प्रकार के होते हैं स्वर और व्यञ्जन)

स्वराः 

अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ - इत्येते नव स्वराः । तेषु अ, इ, उ, ऋ - स्वराणां दीर्घरूपाणि सन्ति - आ, ई, ऊ, ॠ । अतः स्वराः त्रयोदश । अ, इ, उ, ऋ, लृ - एते पञ्च ह्रस्वस्वराः । 

अन्ये दीर्घस्वराः। एतेषु- (ए, ऐ, ओ, औ )- एते संयुक्तस्वराः सन्ध्य्क्षराणि इति वा निर्दिश्यन्ते । स्वराणाम् उच्चारणाय स्वीक्रियमाणं कालमितिम् अनुसृत्य स्वराः ह्रस्वः, दीर्घः, प्लुतः इति त्रिधा विभक्ताः सन्ति ।

एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो द्विमात्रो दीर्घम् उच्यते । त्रिमात्रस्तु प्लुतो ज्ञेयो व्यञ्जनं त्वर्धमात्रकम् ॥१।

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येषां स्वराणाम् उच्चारणाय एकमात्रकालः भवति ते ह्रस्वाः स्वराः । उदाहरण।- (अ, इ)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालः भवति ते दीर्घाः स्वराः । उदाहरण - (आ, ई)
येषां स्वराणाम् उच्चारणाय द्विमात्रकालाद् अपेक्षया अधिकः कालः भवति ते प्लुताः स्वराः । उदाहरण।। - (आऽ, ईऽ)
संयुक्ताक्षरं / सन्ध्यक्षरं नाम स्वरद्वयेन अक्षरद्वयेन सम्पन्नः स्वरः अक्षरम् वा । उदाहरण । - (ए = अ + इ) अथवा अ + ई /आ + इ / आ + ई ।

 ऐ = अ + ए / आ + ए, । ओ=अ + उ / अ + ऊ / आ + उ / आ + ऊ, औ = अ + ओ / आ + औ

व्यञ्जनानि-

उपरि दर्शितेषु माहेश्वरसूत्रेषु पञ्चमसूत्रतः अन्तिमसूत्रपर्यन्तं व्यञ्जनानि उक्तानि । व्यञ्जनानि (३३) । तानि वर्गीयव्यञ्जनानि अवर्गीयव्यञ्जनानि इति द्विधा । क्-तः म्-पर्यन्तं वर्गीयव्यञ्जनानि । अन्यानि अवर्गीव्यञ्जनानि ।

वर्गीयव्यञ्जनानि-

१-कण्ठ्यः - क् ख् ग् घ् ङ् - एते कवर्गः - कण्ठ्यः - एतेषाम् उच्चारणस्थानं कण्ठः।

२-तालव्यः -च् छ् ज् झ् ञ् - एते चवर्गः - तालव्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा तालव्यस्थानं स्पृशति।

३-मूर्धन्यः-ट् ठ् ड् ढ् ण् - एते टवर्गः - मूर्धन्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे मूर्धायाः स्थाने भारः भवति।

४-दन्त्यः-त् थ् द् ध् न् - एते तवर्गः - दन्त्यः - एतेषाम् उच्चारणावसरे जिह्वा दन्तान् स्पृशति।

५-औष्ठ्य। प् फ् ब् भ् म् -औष्ठौ एते पवर्गः एतेषाम् उच्चारणावसरे  परस्परं स्पृशतः।

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वर्गीयव्यञ्जनेषु प्रतिवर्गस्य आदिमवर्णद्वयं खर्वर्णाः / कर्कशव्यञ्जनानि ।

(वर्ग के प्रारम्भिक दो वर्ण खर अथवा-

 कर्कश वर्ण होते हैं )
अन्तिमवर्णद्वयं हश्वर्णाः / मृदु व्यञ्जनानि ।

(अन्तिम दो वर्ण ही अथवा मृदु होते हैं )

अवर्गीयव्यञ्जनानि-

(य् र् ल् व्) - अन्तस्थवर्णाः(श् ष् स् ह् )- ऊष्मवर्णाः

अवर्गीयव्यञ्जनेषु श् ष् स् - एते कर्कशव्यञ्जनानि । अवशिष्टानि मृदुव्यञ्जनानि ।

प्रतिवर्गस्य प्रथमं तृतीयं पञ्चमं च व्यञ्जनं य् र् ल् व् च अल्पप्राणाः ।

अर्थ: •प्रत्येक वर्ग का प्रथम तृतीय पञ्चम व्यञ्जन और अन्त:स्थ अल्पप्राण होते हैं ।।

 अवशिष्टाः महाप्राणाः ।अर्थ• अवशेेेष ( बचे हुए) वर्ण महाप्राण हैं ।
प्रत्येकस्य वर्गस्य पञ्चमं व्यञ्जनं (ङ् ञ् ण् न् म्) अनुनासिकम् इति उच्यते । कण्ठादिस्थानं नासिका - इत्येतेषां साहाय्येन अनुनासिकाणाम् उच्चारणं भवति ।

अनुस्वारः, विसर्गः👇। अ इ उ । और ये परवर्ती 'इ' तथा 'उ' स्वर भी केवल 'अ' स्वर के उदात्त व( ऊर्ध्वगामी ) 'उ' । 

तथा अनुदात्त व (निम्न गामी) 'इ' के रूप में हैं । 

ऋ तथा ऌ स्वर न होकर क्रमश पार्श्वविक तथा आलोडित रूप है।

 जो उच्चारण की दृष्टि से मूर्धन्य तथा वर्त्स्य 

( दन्तमूलीय रूप ) है । अब 'ह' वर्ण महाप्राण है । 

जिसका उच्चारण स्थान  काकल है ।

 👉👆👇-मूलत: ध्वनि के प्रतीक तो 28 हैं । 

(अं) अम् इत्येषः अनुस्वारः । अस्य चिह्नमस्ति उपरिलिख्यमानः बिन्दुः । अः इत्येषः विसर्गः । अस्य चिह्नमस्ति वर्णस्य पुरतः लिख्यमानं बिन्दुद्वयम् । क् ख् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः जिह्वामूलीयः इति कथ्यते ।

 प् फ् - वर्णयोः पृष्ठतः विद्यमानः विसर्गः उपध्मानीयः इति कथ्यते ।

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संस्कृत व्याकरण के कुछ पारिभाषिक शब्द-

१-विकरण

विकरण- व्याकरण में क्रियारूपों की रचना के समय धातु और कालवाचक लकार प्रत्ययों के मध्य में रखे जानेवाले विंशिष्ट गणद्योतक प्रत्यय अथवा चिह्न।

विकरण न तो धातु के भाग समझे जाते हैं और न ही प्रत्यय का ये न तो "आगम" की तरह किसी में जुड़कर मित्र भाव से रहते हैं। और न "आदेश" की तरह किसी के स्थान पर उसे शत्रु भाव से हटाकर स्वयं बैठते हैं। ये बीच में उदासीन होकर बैठते हैं  ।

 इसी लिए व्याकरण में ये सन्यासी कहे जाते हैं। इनके आधार पर धातुओं के दश गण हो गये हैं ।धातुओं में सात वितरण लगाये जाते हैं ।

कर्तरि शप्  से शप् प्रत्यय(विकरण) हुआ। भू + शप् + ति रूप बना।

शप् के श्' और प्' की इत्संज्ञा एवं लोप हुआ। मात्र अ' शेष बचा  भू + अ + ति रूप बना। भवति रूप।

२- उपधा संज्ञा

सूत्र—अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा ( 1/1/65 ) 

सूत्र प्रकार- यह सूत्र उपधा संज्ञा करने वाला सूत्र है। जो उपधा संज्ञक वर्णों को कहते है।

सूत्रार्थ—अलः अन्त्यात् पूर्व उपधा संज्ञा स्यात्।

वर्णों के किसी भी समुदाय में से जो अन्तिम वर्ण हो, उससे पूर्व के वर्ण की उपधा संज्ञा होती है।

उदाहरण—

 राम में अन्त्य वर्ण है मकार के बाद का अकार और उससे पूर्व का वर्ण है मकार, अतः मकार की उपधा संज्ञा होगी।

 र्+आ+म्+अ में अ से पूर्व वर्ण म् की उपधा संज्ञा होगी  इसी तरह आदित्य में यकार की उपधा संज्ञा होगी ।

 श्याम में मकार की उपधा संज्ञा होगी ।

   –

३-प्रातिपदिक संज्ञा 

 ३-सूत्र- अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् ( 1/2/45 )

सूत्र प्रकार- यह सूत्र प्रातपदिक संज्ञा सूत्र करने वाला है।

सूत्रार्थ—धातु , प्रत्यय और प्रत्ययान्त के अतिरिक्त कोई भी अर्थवान् शब्द स्वरूप प्रातपदिक संज्ञक होता है।

प्रातिपदिकसंज्ञा के लिए अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् और कृत्तद्धितसमासाश्च प्रातिपदिकसंज्ञा करने वाले दो ही सूत्र हैं ।

 प्रातिपदिकसंज्ञा इसलिए जरूरी है कि जो सुप् आदि ये प्रातिपदिक संज्ञक शब्दों से होते हैं ।

 प्रातिपदिकसंज्ञा नहीं होगी तो सुप् आदि प्रत्यय भी नहीं होंगे ।

 इनके अतिरिक्त कृदन्त, तद्धितान्त और समस्त पदों की भी यह संज्ञा प्राप्त होती है—कृत्तद्धितसमासाश्च सूत्र द्वारा ।

  

 उदाहरण—राम शब्द लीजिए। 

अवतार राम के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के केवल नाम मात्र होने से यह अर्थवान् है,  उसके विषय में न यह धातु है और न ही प्रत्ययान्त है। इसलिए यह प्रातपदिक कहा जायेगा । 

           

 ४– पद संज्ञा  

सूत्र—सुप्तिङ्न्तं पदम् ( 1/4/14 )

सूत्र प्रकार- यह सूत्र पद संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ- सुबन्तं तिङन्तं च पदसंज्ञं स्यात्।

सुबन्त और तिङन्त पदसंज्ञक होते हैं ।

जिन शब्दों में सु,औ,जस् आदि सु से लेकर सुप् तक के प्रत्यय जिन शब्दों में लगे हुए हो, उन शब्दों को सुबन्त कहते हैं ।

और तिप्, तस्, झि आदि से महिङ् तक के प्रत्यय जिन शब्दों के अन्त में लगें हो उन्हें तिङन्त कहते हैं ।

 सुबन्त और तिङन्त की पद संज्ञा इस सूत्र से की जाती है पद संज्ञा करने पर ही वे पद कहलाते हैं । 

पद होने के बाद ही वाक्य में प्रयोग किया जा सकता है । अपदं न प्रयुञ्जीत अर्थात् जो पद नहीं है,  वह लोक में  व्यवहार के योग्य नहीं होता है । 

 

राम + सु = रामः

पठ् + तिप् = पठति     
 

५– भ संज्ञा

सूत्र—यचि भम् ( 1/4/18 )

सूत्र प्रकार- यह सूत्र भ संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ- य् च, अच् च यच्।

सु आदि से लेकर  कप् तक के प्रत्ययों में यकार और स्वर से आरंभ होने वाले प्रत्ययों के आगे जुड़ने पर पूर्व शब्दों की पद संज्ञा न होकर भ संज्ञा होगी । 
          

६–घुसंज्ञा

सूत्र—दाधाध्वदाप् ( 1/1/20 ) 

सूत्र प्रकार- यह सूत्र घु संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ – दा – स्वरूप वाले तथा धा – स्वरूप वाले धातुओं की घुसंज्ञा होती है, दाप् ( काटना) और दैप् ( साफ करना ) धातुओं को छोड़कर ।

 जो धातु स्वयं दा और धा के रूप में आदेश होती हैं ऐसी धातुओं की घुसंज्ञा कर दी जाती है ।   

  
    

 ७ – घ संज्ञा 

 सूत्र—तरप्तमपौ घः ( 1/1/23 )

सूत्र प्रकार—यह सूत्र घ संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ--  तरप् और तमप् इन दो प्रत्ययों की घसंज्ञा होती है।

 जब दो लोगों में से किसी एक को श्रेष्ठ बताना

हो तो वहाँ तरप् प्रत्यय लगाया जाता और जब बहुत लोगों में से किसी एक को श्रेष्ठ बताना हो तो वहाँ तमप् प्रत्यय लगाया जाता है ये क्रमश: तुलनात्मक व उत्तम अवस्था को  बताते हैैं। 

       

८ – विभाषा संज्ञा    

सूत्र—नवेति विभाषा ( 1/1/44 )

सूत्र प्रकार—यह सूत्र विभाषा संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ--  जहाँ विकल्प से होने और न होने, दोनों की स्थिति बनी रहती है वहाँ विभाषा संज्ञा होती है ।   

 ९ – निष्ठा संज्ञा 

सूत्र—क्तक्तवतू निष्ठा ( 1/1/26 )

सूत्र प्रकार— यह सूत्र निष्ठा संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ—क्त और क्तवतु इन दोनों प्रत्यय की निष्ठा संज्ञा होती है ।

 यह प्रत्यय भूतकालिक प्रत्यय हैं ।

                    

१०-संयोग-संज्ञा

 १० –  संयोगसंज्ञा 

सूत्र—हलोऽनन्तराः संयोगः ( 1/1/7 )

सूत्र प्रकार—यह सूत्र संयोग संज्ञा करने वाला सूत्र है ।

सूत्रार्थ—हलः अनन्तराः संयोगसंज्ञाः स्युः।

 हल् अर्थात् व्यंजन वर्णों के बीच में किसी स्वर के न रहने पर, उन सभी हलों के समुदाय की संयोग संज्ञा होती है ।

जैसे- देवदत्त , भव्य, आदित्य आदि।  यहाँ पर दत्त में दो तकार है, दोनों के बीच में कोई अच् अर्थात् स्वर वर्ण नहीं है। इसलिए त्-त् हल समुदाय की संयोग संज्ञा हो जाती है ।

यादव योगेश कुमार "रोहि" ग्राम - आज़ादपुर-पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० दूरभाष 807716029

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