क्रोष्टु-- के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।
पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैव्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ९/अध्यायः २४ कपोतरोमा तस्यानुः सखा यस्य च तुम्बुरुः। अन्धकाद्दुन्दुभिस्तस्मादविद्योतः पुनर्वसुः ।२० (अरिद्योतः पाठभेदः)। तस्याहुकश्चाहुकी च कन्या चैवाहुकात्मजौ। देवकश्चोग्रसेनश्च चत्वारो देवकात्मजाः ।२१। देववानुपदेवश्च सुदेवो देववर्धनः। तेषां स्वसारः सप्तासन्धृतदेवादयो नृप ।२२। शान्तिदेवोपदेवा च श्रीदेवा देवरक्षिता। सहदेवा देवकी च वसुदेव उवाह ताः ।२३। कंसः सुनामा न्यग्रोधः कङ्कः शङ्कुः सुहूस्तथा। राष्ट्रपालोऽथ धृष्टिश्च तुष्टिमानौग्रसेनयः ।२४। कंसा कंसवती कङ्का शूरभू राष्टपालिका। उग्रसेनदुहितरो वसुदेवानुजस्त्रियः ।२५। शूरो विदूरथादासीद्भजमानस्तु तत्सुतः। शिनिस्तस्मात्स्वयं भोजो हृदिकस्तत्सुतो मतः ।२६। देवमीढः शतधनुः कृतवर्मेति तत्सुताः। देवमीढस्य शूरस्य मारिषा नाम पत्न्यभूत् ।२७। तस्यां स जनयामास दश पुत्रानकल्मषान्। वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमानकम् ।२८।
अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के
आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए-
देवक और
उग्रसेन । देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और
देवकी ।
वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
_____________________
उग्रसेन मथुरा के राजा थे। महाराज उग्रसेन प्रजावत्सल, धर्मात्मा और भगवद्भक्त थे। कंस इन्हीं का पुत्र था, जिसने अपने पिता उग्रसेन को बलपूर्वक राजगद्दी से हटा दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन बैठा था।
जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब उसकी अंत्येष्टि के पश्चात् श्रीकृष्ण ने पुन: उग्रसेन को मथुरा के सिंहासन पर बैठा दिया।
उग्रसेन ने अश्वमेधादि बड़े-बड़े यज्ञ भगवान को प्रसन्न करने के लिये किये। नित्य ही ब्राह्मणों, दीनों, दुःखियों को वे बहुत अधिक दान किया करते थे।
★परिचय★
उग्रसेन यदुवंशीय (कुकुरवंशी) राजा आहुक के पुत्र तथा कंस आदि नौ पुत्रों के पिता थे। उनकी माता काशीराज की पुत्री काश्या थीं, जिनके देवक और उग्रसेन दो पुत्र थे। उग्रसेन के नव पुत्र और पाँच कन्याएँ थीं।
कंस इनका क्षेत्रज पुत्र था और भाइयों में सबसे बड़ा था। इनकी पाँचों पुत्रियाँ वसुदेव के छोटे भाइयों की ब्याही गई थीं।
____________________________________
के अनुसार- आहुक की वशावली-
आहुकश्चाप्यवंतीषु स्वसारं चाहुकीं ददौ।आहुकस्यैव दुहिता पुत्रौ द्वौ समसूयत।५४।
पद्म पुराण का यह (५४) वाँ श्लोक प्रक्षिप्त है।
जिसमें आहुक की किसी पुत्री से ही देव और
उग्रसेन की उत्पत्ति कर दी गयी है।
इस के बाद के श्लोक सही हैं। जिन्हें हम नीचे प्रस्तुत तकते हैं।
देवकं चोग्रसेनं च देवगर्भसमावुभौ
देवकस्य सुताश्चैव जज्ञिरे त्रिदशोपमाः।५५।
55-(आहुक की पत्नी काश्या ने जन्म
देवक और
उग्रसेन को जन्म दिया) जो देवों
के पुत्रों की तरह थे; और देवक से जो पुत्र उत्पन्न
हुए वे देवताओं के समान थे।
देववानुपदेवश्च सुदेवो देवरक्षितः
तेषां स्वसारः सप्तैव वसुदेवाय ता ददौ।५६।
देवकी श्रुतदेवा च यशोदा च श्रुतिश्रवा
श्रीदेवा चोपदेवा च सुरूपा चेति सप्तमी।५७।
नवोग्रसेनस्य सुताः कंसस्तेषां च पूर्वजः
न्यग्रोधस्तु सुनामा च कंकः शंकुः सुभूश्च यः।५८।
58-. उग्रसेन के नौ बेटे थे और
कंस उनमें सबसे
और (वह) जिसे (सुभू कहा जाता था)।
अन्यस्तु राष्ट्रपालश्च बद्धमुष्टिः समुष्टिकः
तेषां स्वसारः पंचासन्कंसा कंसवती तथा।५९।
दूसरा था
राष्ट्रपाल ; इसी प्रकार बद्धमुष्टि और समुष्टिक भी थे। उनकी पाँच बहनें थीं:
कंस ा ,
कंसावती ,।
सुरभी राष्ट्रपाली च कंका चेति वरांगनाः
उग्रसेनः सहापत्यो व्याख्यातः कुकुरोद्भवः।६०।
महिलाएँ थीं। उग्रसेन अपने बच्चों सहित
कुकुर वंश से विख्यात थे।
भजमानस्य पुत्रोभूद्रथिमुख्यो विदूरथः
राजाधिदेवः शूरश्च विदूरथसुतोभवत्।६१।
61. योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ विदुरथ, भजमान का पुत्र था और राजाधिदेव शूर विदुरथ का पुत्र था।
___________
राजाधिदेवस्य सुतौ जज्ञाते वीरसंमतौ
क्षत्रव्रतेतिनिरतौ शोणाश्वः श्वेतवाहनः।६२।
62. राजाधिदेव से जन्मे दो पुत्र शोणश्व और श्वेतवाहन थे । वे शूरवीरों को बहुत पसंद थे, और क्षत्रिय -व्रत को बहुत पसंद थे।
शोणाश्वस्य सुताः पंच शूरा रणविशारदाः
शमी च राजशर्मा च निमूर्त्तः शत्रुजिच्छुचिः।६३।
63. शोणाश्व के युद्ध में कुशल पांच वीर पुत्र थे:
शमी , राजशर्मा, निमूर्त, शत्रुजित और शुचि ।
शमीपुत्रः प्रतिक्षत्रः प्रतिक्षत्रस्य चात्मजःप्रतिक्षत्रसुतो भोजो हृदीकस्तस्य चात्मजः
हृदीकस्याभवन्पुत्रा दश भीमपराक्रमाः।६४।
64. प्रतिक्षत्र शमी का पुत्र था और प्रतिक्षत्र का पुत्र भोज था***## और उसका पुत्र हृदिक था । हृदिक के दस भयानक शूरवीर पुत्र थे।
कृतवर्माग्रजस्तेषां शतधन्वा च सत्तमः
देवार्हश्च सुभानुश्च भीषणश्च महाबलः।६५।
65-66. उनमें कृतवर्मन सबसे उग्र था और शतधन्वन सात्विक था । (अन्य थे) देवार्हा , सुभानु दौनों , भीषण और महाबली थे ,
अजातश्च विजातश्च करकश्च करंधमः
देवार्हस्य सुतो विद्वान्जज्ञे कंबलबर्हिषः।६६।
66-और अजात , विजता, कारक और करन्धमा । देवार्हा से एक पुत्र, कम्बलबर्हिष का जन्म हुआ; (वह) विद्वान था।
असमौजास्ततस्तस्य समौजाश्च सुतावुभौ
अजातपुत्रस्य सुतौ प्रजायेते समौजसौ।६७।
67. कम्बलबर्हिष के दो पुत्र थे: असमौजा और सामौजा। अजात के पुत्र से दो वीर औजस्वी पुत्र
पैंदा हुए।
समौजः पुत्रा विख्यातास्त्रयः परमधार्मिकाः
सुदंशश्च सुवंशश्च कृष्ण इत्यनुनामतः।६८।
68. सामौजा के तीन प्रसिद्ध और बहुत धार्मिक पुत्र थे। उनके नाम क्रम से थे: सुदंश,
सुवंश और कृष्ण।*****#
अंधकानामिमं वंशं यः कीर्तयति नित्यशः
आत्मनो विपुलं वंशं प्रजामाप्नोत्ययं ततः।६९।
69. जो व्यक्ति प्रतिदिन
अन्धकों के इस परिवार की महिमा करता था , फलस्वरूप उसका परिवार और संतान बहुत समृद्ध हो जाती हैं।
गांधारी चैव माद्री च क्रोष्टोर्भार्ये बभूवतुः
गांधारी जनयामास सुनित्रं मित्रवत्सलम्।७०।
70-. क्रोष्ट्र की दो पत्नियाँ थीं: गांधारी और माद्री थी । गांधारी ने अपने मित्रों से स्नेह करने वाली सुनित्र को जन्म दिया;
_____________________________
माद्री युधाजितं पुत्रं ततो वै देवमीढुषं
अनमित्रं शिनिं चैव पंचात्र कृतलक्षणाः।७१।
71-माद्री ने एक पुत्र युधाजित (नाम से), फिर देवमिढुष , (फिर) अनामित्र और शिनि को जन्म दिया । इन पांचों के शरीर पर शुभ चिन्ह थे।
अनमित्रसुतो निघ्नो निघ्नस्यापि च द्वौ सुतौ
प्रसेनश्च महावीर्यः शक्तिसेनश्च तावुभौ।७२।
72. अनामित्र का पुत्र निघ्न था; निघ्न के दो बेटे थे: प्रसेन और बहुत बहादुर शक्तिसेन थे ।
________________
स्यमन्तकं प्रसेनस्य मणिरत्नमनुत्तमं
पृथिव्यां मणिरत्नानां राजेति समुदाहृतम्।७३।
73. प्रसेन के पास ' स्यामंतक ' नाम की सर्वोत्तम और अद्वितीय मणि थी । इसे 'दुनिया के सर्वश्रेष्ठ रत्नों का राजा' के रूप में वर्णित किया गया था।
हृदि कृत्वा सुबहुशो मणिं तं स व्यराजत
मणिरत्नं ययाचेथ राजार्थं शौरिरुत्तमम्।७४।
74. उस मणि को अनेक बार छाती पर धारण करने से वह बहुत चमका। शौरी ने अपने राजा के लिए वह उत्कृष्ट रत्न माँगा।
गोविंदश्च न तं लेभे शक्तोपि न जहार सः
कदाचिन्मृगयां यातः प्रसेनस्तेन भूषितः।७५।
75. गोविंद को भी यह नहीं मिला; समर्थ होते हुए भी उसने इसे छीना नहीं। कुछ समय प्रसेन उसे धारण कर शिकार की ओर चला गया।
सर्वे च प्रतिहर्तारो रत्नानां जज्ञिरे च ते।अक्रूराच्छूरसेनायां सुतौ द्वौ कुलनन्दनौ।१०३।
अनुवाद:-
103-अक्रूर ने शूरसेना नामक पत्नी में देवताओं के समान दो पुत्र पैदा किए :
देववानुपदेवश्च जज्ञाते देवसम्मतौ।अश्विन्यां त्रिचतुः पुत्राः पृथुर्विपृथुरेव च।१०४।
अनुवाद:-
अश्वग्रीवो श्वबाहुश्च सुपार्श्वक गवेषणौ। रिष्टनेमिः सुवर्चा च सुधर्मा मृदुरेव च।१०५।
अनुवाद:-
अभूमिर्बहुभूमिश्च श्रविष्ठा श्रवणे स्त्रियौ।
इमां मिथ्याभिशप्तिं यो वेद कृष्णस्य बुद्धिमान्।१०६।
-एक बुद्धिमान व्यक्ति, जो कृष्ण के इस मिथ्या आरोप के बारे में जान जाता है, उसे कभी भी भविष्य कोई मिथ्या श्राप नहीं लग सकता है।
न स मिथ्याभिशापेन अभिगम्यश्च केनचित्
एक्ष्वाकीं सुषुवे पुत्रं शूरमद्भुतमीढुषम् ।१०७।।
अनुवाद:-
किसी इक्ष्वाकी से मिथ्या शाप के प्राप्त होने पर एक शूर - मीढुष उत्पन्न हुआ।****
मीढुषा जज्ञिरे शूरा भोजायां पुरुषा दश
वसुदेवो महाबाहुः पूर्वमानकदुंदुभिः।१०८।
अनुवाद:-
देवभागस्तथा जज्ञे तथा देवश्रवाः पुनः
अनावृष्टिं कुनिश्चैव नन्दिश्चैव सकृद्यशाः।१०९।
अनुवाद:-
इसी प्रकार
देवभाग भी उत्पन्न हुआ (मीढुष द्वारा); और
देवश्रवस , अनावृष्टि, कुन्ती, और
नंदी और सकृद्यशा, ।
श्यामः शमीकः सप्ताख्यः पंच चास्य वरांगनाः
श्रुतकीर्तिः पृथा चैव श्रुतदेवी श्रुतश्रवाः।११०।
अनुवाद:-
राजाधिदेवी च तथा पंचैता वीरमातरः
वृद्धस्य श्रुतदेवी तु कारूषं सुषुवे नृपम्।१११।
अनुवाद:-
और
राजाधिदेवी । ये पांचों वीरों की माताएं थीं।
वृद्ध की पत्नी श्रुतदेवी ने राजा करुष को जन्म दिया।
कैकेयाच्छ्रुतकीर्तेस्तु जज्ञे संतर्दनो नृपः
श्रुतश्रवसि चैद्यस्य सुनीथः समपद्यत।११२।
अनुवाद:-
राजाधिदेव्याः संभूतो धर्माद्भयविवर्जितः
शूरः सख्येन बद्धोसौ कुंतिभोजे पृथां ददौ।११३।
अनुवाद:-
113. धर्म से भयविवर्जिता का जन्म राजधिदेवी के यहां हुआ। मित्रता के बंधन में बंधे
शूर ने पृथा को कुन्तिभोज को गोद दे दिया ।
एवं कुंती समाख्या च वसुदेवस्वसा पृथा
कुंतिभोजोददात्तां तु पाण्डुर्भार्यामनिंदिताम्।११४।
अनुवाद:-
114. इस प्रकार, वासुदेव की बहन पृथा को
कुंती भी कहा जाता था । कुन्तिभोज ने उस प्रशंसनीय पृथा को
पाण्डु को पत्नी के रूप में दे दिया।
देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) और हरिवंश पुराण हरिवंश पर्व -में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना- भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्
______________________
वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः ।१।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।२।
विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम् ।३।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि ।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम् ।४।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।५।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः ।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिता बलेः ।६।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।७।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम् ।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये ।८।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्। ९।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।1.55.१०।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम् गं ११।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः ।१२।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति ।१३।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया।
अमीषां हि सुरेन्द्राणां हन्तव्या रिपवो युधि ।१४।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।१५।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया ।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः ।१६।
____________
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह । १७।
____________
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
______
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु। प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
____________
"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।२८।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
________
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।३२ ।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।
"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ।४३।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।
"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।
वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।
"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।
"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
हरिवंशपर्व सम्पूर्ण ।
अध्याय 55 -
1. वैशम्पायन ने कहा: -नारद के वचन सुनकर देवताओं के गुरु भगवान मधुसूदन ने मुस्कुराते हुए शुभ शब्दों में कहा:-"
2. हे नारद, आपने तीनों लोकों की भलाई के लिए जो शब्द मुझसे कहे हैं, उनका उचित उत्तर सुनो ।
3. मुझे यह ज्ञात है कि ये सभी दैत्य" मानव रूप धारण करके पृथ्वी पर उत्पन्न हुए हैं।
4. मैं यह भी जानता हूं कि कंस ने पृथ्वी पर उग्रसेन के पुत्र के रूप में जन्म लिया है । मैं यह भी जानता हूं कि केशी का जन्म घोड़े के रूप में हुआ है।
5. मैं हाथी कुवलयापीड , पहलवान चाणूर और मुष्टिका तथा बैल के आकार वाले राक्षस अरिष्ट को भी जानता हूं।
6. खर और महान असुर प्रलम्व को भी मैं जानता हूं। बलि की पुत्री पूतना भी मुझे अच्छी तरह से ज्ञात है।
7. मैं कालिया को भी जानता हूं जो यमुना झील में रहता है और जो विनता के पुत्र के डर से वहां प्रवेश कर गया है [1] ।
8. मैं जरासन्ध को भी जानता हूं जो सब राजाओं का प्रधान है; और प्राग्योतिष नगर में रहने वाला राक्षस नरक भी मुझे बहुत अच्छी तरह से ज्ञात है।
9-10. पृथ्वी पर शोणितपुरा नगर में बाण ने मनुष्य के रूप में जन्म लिया। हजारों भुजाओं वाला वह ऊर्जावान और अभिमानी दैत्य केन्द्र देवताओं के लिए भी अजेय है। मैं यह भी जानता हूं कि भारतवर्ष का महान् कार्यभार मुझ पर है।
11. मैं यह भी जानता हूं कि ये सब राजा किस प्रकार लुप्त हो जाएंगे। मनुष्य रूप में उन दानवों का विनाश, जो युद्ध के मैदान से कभी वापस नहीं आते और इन्द्रलोक का आनंद भी मैंने देखा है।
12-13. अपने लिए और दूसरों के लिए मैं योग में प्रवेश करूंगा । मनुष्यों के क्षेत्र में जाकर और मानव रूप धारण करके मैं कंस सहित उन सभी शक्तिशाली राक्षसों का विनाश करूंगा। मैं उसे ऐसे उपाय से मार डालूँगा जिससे उसे शांति मिलेगी।
14. मैं अपने योग द्वारा इन सभी साधनों का सहारा लूंगा। युद्ध में देवताओं के उन सभी शत्रुओं को नष्ट करना मेरा कर्तव्य है।
15. मैं उन सभी महान लोगों के शत्रुओं को मार डालूंगा जिन्होंने पृथ्वी के लिए खुद को बलिदान कर दिया है, उन सभी देवताओं, ऋषियों और गंधर्वों को जो मेरे आदेश पर पृथ्वी पर आए हैं।
16. हे नारद, मैंने पहले ही यह संकल्प कर लिया है। पितामह ब्रह्मा वहां मेरे लिये घर बनायें।
17. हे पितामह, क्या तुझे कुछ भी मालूम है, कि मैं किस प्रकार, किस देश में उत्पन्न होकर, किस घर में रहकर उनको मार डालूंगा।
18. ब्रह्मा ने कहा: - हे भगवान, हे नारायण , मुझसे सफलता की कुंजी सुनो और पृथ्वी पर तुम्हारे माता-पिता कौन होंगे।
19. उनके कुल का यश बढ़ाने के लिये तुम्हें यादव कुल में जन्म लेना पड़ेगा ।
20. तुम भलाई के लिये इन असुरों का नाश करके और अपने महान कुल को बढ़ाकर मानवजाति की व्यवस्था स्थापित करोगे। इस विषय में मुझसे सुनो.
21 हे नारायण, प्राचीन काल में, महाबली वरुण के महान यज्ञ में , कश्यप ने यज्ञ के लिए दूध देने वाली सभी गायों को चुरा लिया था।
24. कश्यप की दो पत्नियाँ थीं, अदिति और सुरभि , जो वरुण से गायों को स्वीकार नहीं करना चाहती थीं।
23 तब वरुण मेरे पास आये और सिर झुकाकर प्रणाम करके बोले, “हे श्रद्धेय, गुरु ने मेरी सारी गायें अपहरण कर ली हैं।
24. हे पिता, उस ने अपना काम पूरा करके भी उन गायों को लौटाने की आज्ञा न दी।। वह अपनी दो पत्नियों अदिति और सुरभि के नियंत्रण में हैं।
25. हे प्रभु, मेरी वे सब गायें जब चाहें तब स्वर्गीय और अनन्त दूध देती हैं। अपनी शक्ति से सुरक्षित होकर वे समुद्र में विचरण करते हैं।
26. वे देवताओं के अमृत के समान सदा दूध उगलते रहते हैं। कश्यप के अलावा कोई और नहीं है जो उन्हें मोहित कर सके।
27. हे ब्रह्मा, गुरु, उपदेशक या कोई भी हो यदि कोई भटक जाता है तो आप उसे नियंत्रित करते हैं। आप हमारे परम आश्रय हैं।
28. हे संसार के गुरु, यदि उन शक्तिशाली व्यक्तियों को दंड नहीं दिया जाएगा जो अपना काम नहीं जानते हैं, तो संसार की व्यवस्था अस्तित्व में नहीं रहेगी।
29. आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। क्या तुम मुझे मेरी गायें दे दो, मैं फिर समुद्र में चला जाऊंगा।
30. ये गायें मेरी आत्मा हैं , वे मेरी अनन्त शक्ति हैं। आपकी समस्त सृष्टि में गाय और ब्राह्मण ऊर्जा के शाश्वत स्रोत हैं।
31. सबसे पहले गाय को बचाना चाहिए. जब वे बच जाते हैं तो वे ब्राह्मणों की रक्षा करते हैं। गौ-ब्राह्मणों की रक्षा से ही संसार कायम है।''
32. हे अच्युत , जल के राजा वरुण द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर और गायों की चोरी के बारे में वास्तव में सूचित होने पर मैंने कश्यप को श्राप दे दिया।
33. जिस अंश से महामनस्वी कश्यप ने गायों को चुराया था, उस अंश से वह पृथ्वी पर ग्वाले के रूप में जन्म लेगा।
34. उनकी दोनों पत्नियाँ सुरभि और अदिति, जो देवताओं के जन्म के लिये लकड़ी के टुकड़ों के समान हैं, भी उनके साथ जायेंगी।
35-36. वह उनके यहां ग्वाले के रूप में जन्म लेकर वहां सुखपूर्वक रहेगा। उन्हीं के समान शक्तिशाली कश्यप का वह अंश वासुदेव के नाम से जाना जाएगा और पृथ्वी पर गायों के बीच रहेगा। मथुरा के पास गोवर्धन नाम का एक पर्वत है ।
37-42. कंस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए वह गायों से आसक्त होकर वहां रहता है। उनकी दो पत्नियाँ अदिति और सुरभि वासुदेव की देवकी और रोहिणी नाम की दो पत्नियों के रूप में पैदा हुईं । वहाँ दूधवाले के सभी गुणों से युक्त एक लड़के के रूप में जन्म लेने के कारण वह वहीं बड़ा हुआ जैसा कि आप पहले अपने तीन कदमों वाले रूप में करते थे।
फिर अपने आप को (योग के) रूप से कवर करके, हे मधुसूदन, क्या आप दुनिया के कल्याण के लिए वहां जाते हैं। ये सभी देवता आपकी विजय और आशीर्वाद के उद्घोष से आपका स्वागत कर रहे हैं।
तुम पृथ्वी पर उतरकर रोहिणी और देवकी से अपना जन्म लेकर उन्हें प्रसन्न करो। सहस्रों दुग्ध दासियाँ भी पृथ्वी पर छा जायेंगी।
43. हे विष्णु , जब आप जंगल में गायों को चराते हुए घूमेंगे तो वे जंगली फूलों की मालाओं से सुशोभित आपके सुंदर रूप को देखेंगे।
44. हे कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाले, हे विशाल भुजाओं वाले नारायण, जब आप बालक बनकर ग्वालबालों के गांवों में जाएंगे तो सभी लोग बालक बन जाएंगे।
45-46. हे कमल नेत्रों वाले, आपके प्रति समर्पित मन वाले ग्वालबाल होने के नाते आपके सभी भक्त आपकी सहायता करेंगे; जंगल में गायें चराते, चरागाहों में दौड़ते और यमुना के जल में स्नान करते हुए वे तुम्हारे प्रति अत्यधिक स्नेह प्राप्त कर लेंगे।और वासुदेव का जीवन धन्य हो जाएगा।
47. तू उसे अपना पिता कहेगा, और वह तुझे अपना पुत्र कहेगा। कश्यप को बचाइये और किसे आप अपने पिता के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?
48. हे विष्णु, अदिति को बचाएं और कौन आपको गर्भ धारण कर सकता है? इसलिए, हे मधुसूदन, आप अपने स्वनिर्मित योग द्वारा विजय के लिए आगे बढ़ें। हम भी अपनी-अपनी बस्तियों की मरम्मत करते हैं।
49. वैशम्पायन ने कहा: - देवताओं को दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करने का आदेश देकर भगवान विष्णु दूध के सागर के उत्तरी किनारे पर अपने निवास स्थान पर चले गए।
50. इस क्षेत्र में सुमेरु पर्वत की एक गुफा है जिसे रौंदना कठिन है, जिसकी पूजा संक्रांति के दौरान उनके तीन चरण चिन्हों से की जाती है।
51. वहाँ गुफा में, अपने पुराने शरीर को छोड़कर, सर्वशक्तिमान और बुद्धिमान हरि ने उसकी आत्मा को वासुदेव के घर भेज दिया।
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भगवान् हरि अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् स्वराट- विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
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हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोपालन का काम करते थे। 41।
हे महाराज ! हे पृथ्वीपते ! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा ( नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।44 ll
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47।
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 ।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ ।49-51।
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।
तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥
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देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६ ॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन और प्राचीन है।
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः । माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥
अनुवाद:-•- तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् । गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते । अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२ ॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ । वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।
"राजोवाच किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः । सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले । वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः । नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।
("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-) स्कन्ध 4, अध्याय 3 - वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्म की कथा दित्या अदित्यै शापदानम्
"व्यास उवाच कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल । सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥१॥
वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः । देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम् ॥ २॥
एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् । याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥
वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् । प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः ॥ ४ ॥
किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् । शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥
भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते । यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥
मृतवत्सादितिस्तस्माद्भविष्यति धरातले । कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥
"व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः । समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥
कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः । हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥
जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् । कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥
अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति । लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥
कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् । सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया।१२॥
धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च । वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥
संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा । कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥
ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् । मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥
अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले । भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥१६॥
"व्यास उवाच एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा । अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् । जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥१८॥
"जनमेजय उवाच कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने । कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥ "सूत उवाच पारीक्षितेन पृष्टस्तु व्यासः सत्यवतीसुतः । राजानं प्रत्युवाचेदं कारणं सुसमाहितः ॥ २०॥
"व्यास उवाच राजन् दक्षसुते द्वे तु दितिश्चादितिरुत्तमे । कश्यपस्य प्रिये भार्ये बभूवतुरुरुक्रमे ॥ २१ ॥
अदित्यां मघवा पुत्रो यदाभूदतिवीर्यवान् । तदा तु तादृशं पुत्रं चकमे दितिरोजसा ॥ २२ ॥
पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद । इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥
तामुवाच मुनिः कान्ते स्वस्था भव मयोदिते । व्रतान्ते भविता तुभ्यं शतक्रतुसमः सुतः ॥ २४ ॥
सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् । निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥
भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा । पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥
एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् । शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता॥२७।
मघवत्सदृशः पुत्रो भविष्यति महाबलः । दित्यास्तदा मम सुतस्तेजोहीनो भवेत्किल।२८।
इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी । शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ।२९ ॥
उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च । उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥
वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं सपत्नीभावमास्थिताम् । दुनोति हृदये चिन्ता सुखमर्मविनाशिनी ॥ ३१ ॥
राजयक्ष्मेव संवृद्धो नष्टो नैव भवेद्रिपुः । तस्मादङ्कुरितं हन्याद्बुद्धिमानहितं किल।३२ ॥
लोहशङ्कुरिव क्षिप्तो गर्भो वै हृदये मम । येन केनाप्युपायेन पातयाद्य शतक्रतो ॥ ३३ ॥
सामदानबलेनापि हिंसनीयस्त्वया सुतः । दित्या गर्भो महाभाग मम चेदिच्छसि प्रियम् ।३४।
"व्यास उवाच श्रुत्वा मातृवचः शक्रो विचिन्त्य मनसा ततः । जगामापरमातुः स समीपममराधिपः ॥ ३५ ॥
ववन्दे विनयात्पादौ दित्याः पापमतिर्नृप । प्रोवाच विनयेनासौ मधुरं विषगर्भितम् ॥३६॥
"इन्द्र उवाच मातस्त्वं व्रतयुक्तासि क्षीणदेहातिदुर्बला । सेवार्थमिह सम्प्राप्तः किं कर्तव्यं वदस्व मे ॥३७ ॥
पादसंवाहनं तेऽहं करिष्यामि पतिव्रते । गुरुशुश्रूषणात्पुण्यं लभते गतिमक्षयाम् ॥ ३८ ॥
न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल । इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥३९॥
संवाहनसुखं प्राप्य निद्रामाप सुलोचना । श्रान्ता व्रतकृशा सुप्ता विश्वस्ता परमा सती ॥४०।
तां निद्रावशमापन्नां विलोक्य प्राविशत्तनुम् । रूपं कृत्वातिसूक्ष्मञ्च शस्त्रपाणिः समाहितः॥ ४१॥
उदरं प्रविवेशाशु तस्या योगबलेन वै । गर्भं चकर्त वज्रेण सप्तधा पविनायकः ॥ ४२ ॥
रुरोद च तदा बालो वज्रेणाभिहतस्तथा । मा रुदेति शनैर्वाक्यमुवाच मघवानमुम् ॥ ४३ ॥
शकलानि पुनः सप्त सप्तधा कर्तितानि च । तदा चैकोनपञ्चाशन्मरुतश्चाभवन्नृप ॥ ४४ ॥
तदा प्रबुद्धा सुदती ज्ञात्वा गर्भं तथाकृतम् । इन्द्रेण छलरूपेण चुकोप भृशदुःखिता ॥ ४५ ॥
भगिनीकृतं तु सा बुद्ध्वा शशाप कुपिता तदा । अदितिं मघवन्तञ्च सत्यव्रतपरायणा ॥ ४६ ॥
यथा मे कर्तितो गर्भस्तव पुत्रेण छद्मना । तथा तन्नाशमायातु राज्यं त्रिभुवनस्य तु ॥ ४७ ॥
यथा गुप्तेन पापेन मम गर्भो निपातितः । अदित्या पापचारिण्या यथा मे घातितः सुतः।४८ ॥
तस्याः पुत्रास्तु नश्यन्तु जाता जाताः पुनः पुनः । कारागारे वसत्वेषा पुत्रशोकातुरा भृशम् ॥ ४९ ।
अन्यजन्मनि चाप्येव मृतापत्या भविष्यति । "व्यास उवाच इत्युत्सृष्टं तदा श्रुत्वा शापं मरीचिनन्दनः ॥ ५० ॥
उवाच प्रणयोपेतो वचनं शमयन्निव । मा कोपं कुरु कल्याणि पुत्रास्ते बलवत्तराः ॥५१ ॥
भविष्यन्ति सुराः सर्वे मरुतो मघवत्सखाः । शापोऽयं तव वामोरु त्वष्टाविंशेऽथ द्वापरे ॥ ५२ ॥
अंशेन मानुषं जन्म प्राप्य भोक्ष्यति भामिनी । वरुणेनापि दत्तोऽस्ति शापः सन्तापितेन च ॥५३॥
उभयोः शापयोगेन मानुषीयं भविष्यति । "व्यास उवाच पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥
नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी । इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥५५ ॥
अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
↑ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। - ऋ. ५.६९.२ इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसॄणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥
अनुवाद:
“हे मित्र और वरुण !, आपकी (आज्ञा से) गायें दूध से भरपूर होती हैं, और आपकी (इच्छा) से नदियाँ मीठा पानीय देती हैं; आपके आज्ञा से ही तीन दीप्तिमान वृषभ तीन क्षेत्रों (स्थानों) में अलग-अलग खड़े हैं।
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हे “वरुण हे “मित्र “वां= युवयोराज्ञया “धेनवः= गावः “इरावतीः- इरा= क्षीरलक्षणा। तद्वत्यो भवन्ति । तथा “सिन्धवः =स्यन्दनशीला मेघा नद्यो वा “मधुमत्= मधुररसमुदकं "दुहे =दुहन्ति । तथा “त्रयः= त्रिसंख्याकाः “वृषभासः= वर्षितारः “रेतोधाः= वीर्यस्य धारकाः “द्युमन्तः= दीप्तिमन्तोऽग्निवाय्वादित्याः“तिसॄणां= त्रिसंख्याकानां “धिषणानां =स्थानानां [धिषण= स्थाने] पृथिव्यन्तरिक्षद्युलोकानां स्वामिनः सन्तः “वि= विविधं प्रत्येकं “तस्थुः =तिष्ठन्ति । युवयोरनुग्रहात् त्रयोऽपि देवास्त्रिषु स्थानेषु वर्तन्ते इत्यर्थः ॥
(वाम्) युवाम् (सिन्धवः) नद्यः (दुह्रे) दोहन्ति (तस्थुः) तिष्ठन्ति (वृषभासः) वर्षकाः षण्डा: (तिसृणाम्) त्रिविधानाम् (धिषणानाम्)स्थानानां (रेतोधाः) यो रेतो वीर्यं दधाति॥२॥
हिन्दी अनुवाद:-
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥1॥ अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥ अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।। व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥ उधर कश्यप की भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
जनमेजय बोले- हे मुने! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर। आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ 19 ॥ सूतजी बोले- परीक्षित् पुत्र राजा जनमेजयके पूछनेपर सत्यवती पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजाको शापका कारण बतलाने लगे ॥ 20॥ व्यासजी बोले- हे राजन्। दक्षप्रजापतिकी दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही कश्यपमुनिकी प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ 21 ॥ जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मन | इच्छा जाग्रत् हुई ॥ 22 ॥ उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थन | की हे मानद इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ 23 ॥ तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ 24 ॥
कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी।
इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई । 25—27 ॥ [उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दिति के | इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय गर्भ से ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ 28 ॥ इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदिति ने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र ! इस समय दितिके गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति हो विनष्ट हो जाय ।29-30।
मुझसे सपत्नीभाव रखनेवाली उस सुन्दरी दितिको देखकर सुखका नाश कर देनेवाली चिन्ता मेरे मनको सताने लगती है ॥ 31 ॥ जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ 32 ॥ हे देवेन्द्र दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ।। 33-34 ।। व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब अपनी माताकी वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दितिके पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्रने विनयपूर्वक दितिके चरणोंमें प्रणाम किया और ऊपरसे मधुर किंतु भीतरसे विषभरी वाणीमें विनम्रतापूर्वक उससे कहा- ॥ 35-36 ।। इन्द्र बोले - हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ? हे पतिव्रते मैं आपके चरण दबाऊँगा क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ 37-38 ।। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ।। 39 ।। पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी।40 ॥ दितिको नींदके वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथमें शस्त्र लेकर बड़ी सावधानीके साथ दितिके शरीरमें प्रवेश कर गये ॥ 41 ॥
इस प्रकार योगबलद्वारा दितिके उदरमें शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्रने वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर डाले ॥ 42 ॥
उस समय वज्राघातसे दुःखित हो गर्भस्थ शिशु रुदन करने लगा। तब धीरेसे इन्द्रने उससे 'मा रुद' 'मत रोओ'-ऐसा कहा ॥ 43 ॥ तत्पश्चात् इन्द्रने पुनः उन सातों टुकड़ोंके सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन्! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गणके रूपमें प्रकट हो गये ॥ 44 ॥ उस छली इन्द्रद्वारा अपने गर्भको वैसा (विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी। 45 ॥ यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया है— ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय।
जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागार में रहेगी।
अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें इसी प्रकार मर जाया करेंगी ।46-49॥ व्यासजी बोले- इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यप ने | दिति प्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा- हे कल्याणि तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे।
वे सब उनचास मरुद देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि अट्ठाईसवें द्वापरयुग में तुम्हारा शाप सफल होगा।
उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी।
इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापों के संयोग से यह अदिति मनुष्य योनि में उत्पन्न होगी ।। 50 -53॥ व्यासजी बोले- इस प्रकार पति कश्यपके | आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वहपुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदिति के पूर्व शापका कारण बताया हे नृपश्रेष्ठ वही अदिति अपने अंश से देवकी के रूप में उत्पन्न हुई ॥ 54-56 ॥
भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय- हिन्दी-अनुवाद सहित- "वैशम्पायन उवाच नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः। प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः।।१।। त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद। तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।।२।। विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः। यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम्।।३।। जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि। केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम्।।४।। नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ। अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।।५।। विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः। सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिताबलेः।।६।। कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् । वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।।७।। विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम्। प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये।।८।। मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्। बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्।।९।। दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम। मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।।1.55.१०।। सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः। क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया। एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम्।।११।। सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च। सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः।।१२।। कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्। तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति।।१३।। अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया । अमीषां हि सुरेन्द्राणांहन्तव्या रिपवो युधि।।१४।। जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः। सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।।१५।। विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया। निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः।१६।। "यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्। तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह।।१७।। "ब्रह्मोवाच नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो। भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।। यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि । यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि।।१९।। तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। 1.55.२०।। पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः। जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।। अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु। प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै।।२२।। ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः । उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति।।२३।। कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः। अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।।२४।। मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।।२५।। कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते । अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।। प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः। त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमागतिः।।२७।। यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्। न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।।२८।। यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।। २९।। या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम्।लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्। 1.55.३०।। त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान्। गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।।३१।। इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत। गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।। येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा । स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।।३३।। या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः। तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।। ३४।। ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।।३५।। वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।।३६।। तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः। तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते।।३७।। देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः । सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत्।।३८।। तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः । वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा ।।३९।। छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया। तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन।। 1.55.४०।। जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः। आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले।।४१।। देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय। गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।।४२।। गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः। वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।।४३।। विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते। बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति।।४४।। त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः। गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव।।४५।। वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः। मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि।। ४६।। जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् । यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।। ४७।। अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते । का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।।४८।। योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै। वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।।४९।। "वैशम्पायन उवाच स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये। जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।। 1.55.५०।। तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा । त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः। आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।।५२।।इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।। *हिन्दी अनुवाद:-★ _ _ _ _ _ ___ हरिवंशपर्व सम्पूर्ण। वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं। वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१। 'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२। अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३। मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४। कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५। विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६। यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७। मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८। भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है।जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ । तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व( भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०। मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११। मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२। जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३। मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४। नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था। _ _ _ _ ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह ! अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में और किस जाति जन्म लेकर और किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ?।१६-१७। ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०। विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१। यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२। तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३। यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४। प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५। देव ! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?।२६। ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७। लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८। इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९। इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०। गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१। अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२। महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३। वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४। गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है। जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८। हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९। मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०। ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२। 'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३। महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४। कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५। हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६। वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७। विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८। मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९। वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०। वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१। उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२। _ _ _ _ _ _ ____ "इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५। नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान- दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।। वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८। एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्। यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम् ।। ८०-५९ ।। पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।। अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।। दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् । रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः ।। ८०-६१ ।। सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।। सुशीला च लसद्रम्यचित्रिताम्बरभूषणा ।८०-६२।ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्। नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३। गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।। ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४। दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः। धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।। अनुवाद:- इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।  "अध्याय- सप्तम - 'यदुवंशके सनातन विशेषण-आभीर गोप और यादव। अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव दोंनो के पितामह थे । *** राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी
हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि. .👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८। (हरिवंशपुराण विष्णुपर्व -३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के
विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए।
 "यदोर्वंशस्यान्तर्गते देवक्षत्रस्यमहातेजा पुत्रो मधु: तस्यनाम्ना मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४। (मत्स्य- पुराण अध्याय 44 श्लोक 44) अनुवाद:- "मथुरा का पूर्व नाम मधुपर यादव राजा देवक्षत्र के पुत्र मधु के नाम पर प्रचलित हुआ" देवक्षत्र के मधु थे । मधु ने ब्रजभूमि में यमुना नदी के दाहिने किनारे पर एक राज्य की स्थापना की, जिसका नाम उनके नाम पर मधुपुर रखा गया। बाद में इसे मथुरा के नाम से जाना गया । उनसे पुरवस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । बाद वाले पुरुद्वन के पिता थे । पुरुद्वान् का जन्तु नाम का एक पुत्र था । जंतु( अँशु) की पत्नी ऐक्ष्वाकि से सात्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । सात्वत मधु के पांचवें उत्तराधिकारी थे। सात्वत के उत्तराधिकारियों को सात्वत के नाम से भी जाना जाता था । सात्वत के पुत्र भजिन, भजमान , दिव्य , देववृध, अन्धक , महाभोज , वृष्णि आदि थे।
_ _ _ _ __
तेभ्यः प्रव्राजितो राज्यात् ज्यामघस्तु तदाश्रमे।
प्रशान्तश्चाश्रमस्थश्च ब्राह्मणेनावबोधितः।४४.३०।
जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।
नर्म्मदां नृप एकाकी केवलं वृत्तिकामतः। ४४.३१।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा भुक्तमन्यैरुपाविशत्।
ज्यामघस्याभवद् भार्या चैत्रापरिणतासती।। ४४.३२ ।।
अपुत्रो न्यवसद्राजा भार्यामन्यान्नविन्दत।
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।। ४४.३३ ।।
भार्यामुवाच सन्त्रासात् स्नुषेयं ते शुचिस्मिते।
एव मुक्ताब्रवीदेन कस्य चेयं स्नुषेति च।। ४४.३४
राजोवाच।
यस्तेजनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
तस्मात् सा तपसोग्रेण कन्यायाः सम्प्रसूयत।। ४४.३५ ।।
पुत्रं विदर्भं सुभगा चैत्रा परिणता सती।
राजपुत्र्यां च विद्वान् स स्नुषायां क्रथ कैशिकौ।।
लोमपादं तृतीयन्तु पुत्रं परमधार्मिकम्।। ४४.३६ ।
तस्यां विदर्भोऽजनयच्छूरान् रणविशारदान्।
लोमपादान्मनुः पुत्रो ज्ञातिस्तस्य तु चात्मजः।। ४४.३७ ।।
कैशिकस्य चिदिः पुत्रो तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः।
क्रथो विदर्भपुत्रस्तु कुन्ति स्तस्यात्मजोऽभवत्।। ४४.३८ ।।
कुन्ते र्धृतः सुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।४४.३९।
तदेको निर्वृतेः पुत्रो नाम्ना स तु विदूरथः।
दशार्हिस्तस्य वै पुत्रो व्योमस्तस्य च वै स्मृतः।।
दाशार्हाच्चैव व्योमात्तु पुत्रो जीमूत उच्यते।। ४४.४० ।।
जीमूतपुत्रो विमलस्तस्य भीमरथः सुतः।
सुतो भीमरथस्यासीत् स्मृतो नवरथः किल।। ४४.४१ ।।
तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भः कारम्भि र्देवरातो बभूव ह।। ४४.४२ ।।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा दैवरातिर्महायशाः।
देवगर्भसमो जज्ञे देवनक्षत्रनन्दनः।। ४४.४३ ।।
मधुर्नाम महातेजा मधोः पुरवसस्तथा।
आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।। ४४.४४ ।।
जन्तुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रसेन्यां पुरुद्वतः।
ऐक्ष्वाकी चाभवद् भार्या जन्तोस्तस्यामजायत।। ४४.४५ ।।
सात्वतः सत्वसंयुक्तः सात्वतां कीर्तिवर्द्धनः।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।। ४४.४६ ।।
सात्वतान् सत्वसम्पन्नान् कौसल्या सुषुवे सुतान्।
भजिनं भजमानन्तु दिव्यं देवावृधं नृप!।। ४४.४७।।
अन्धकञ्च महाभोजं वृष्णिं च यदुनन्दनम्!
तेषां तु सर्गा श्चत्वारो विस्तरेणैव तच्छृणु।। ४४.४८।।
सन्दर्भ:- मत्स्यपुराणम् - अध्यायः (44) _ _ ___
नर्म्मदानूप एकाकी मेकलावृत्तिका अपि।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा शुक्तिमन्यामथाविशत् ।। ३३.३१ ।।
ज्यामघस्याभवद्भार्या
शैव्या बलवती भृशम्।
अपुत्रोऽपि स वै राजा भार्यामन्यां न विन्दति ।। ३३.३२ ।।
तस्यासीद्विजयो युद्धे ततः कन्यामवाप सः।
भार्यामुवाच राजा स स्नुषेति तु नरेश्वरः।३३.३३ ।।
एवमुक्ताब्रवीदेवं काम्ये यन्ते स्नुषेति सा।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति ।। ३३.३४ ।।
तस्य सा तपसोग्रेण शैव्या वैशं प्रसूयत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा
शैव्या परिणता सती । ३३.३५।
राजपुत्रौ तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथुकौशिकौ।
पुत्रौ विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ ।३३.३६ ।
लोमपादं तृतीयन्तु पश्चाज्जज्ञे सुधार्मिकः।
लोम पादात्मजोवस्तुराहृतिस्तस्य चात्मजः ।। ३३.३७ ।।
कौशिकस्य चिदिः पुत्रस्तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथोर्विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।। ३३.३८ ।।
कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे पुरोधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा ।३३.३९।
तस्य पुत्रो दाशार्हस्तु महाबलपराक्रमः।
दाशार्हस्य सुतो व्योमा ततो जीमूत उच्यते ।। ३३.४० ।।
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः.
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो रथवरः किल ।। ३३.४१ ।।
दाता धर्म्मरतो नित्यं शीलसत्यपरायणः।
तस्य पुत्रो नवरथस्ततो दशरथः स्मृतः।३३.४२।
तस्य चैकादशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भको धन्वी
देवरातोऽभवत्ततः ।। ३३.४३ ।।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा देवरातिर्म्महायशाः।
देवक्षत्रसुतो जज्ञे देवनः क्षत्रनन्दनः ।। ३३.४४ ।।
* ***
देवनात् स मधुर्जज्ञे यस्य मेधार्थसम्भवः। मधोश्चापि महातेजा मनुर्मनुवशस्तथा** ।। ३३.४५। नन्दनश्च महातेजा महापुरुवशस्तथा। आसीत् पुरुवशात् पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।। ३३.४६ ।। जज्ञे पुरुद्वतः पुत्रो भद्रवत्यां पुरूद्वहः।
ऐक्षाकी त्वभवद्भार्या सत्त्वस्तस्यामजायत।
सत्त्वात् सत्त्वगुणो पेतः सात्त्वतः कीर्तिवर्द्धनः ।। ३३.४७ ।।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ।। ३३.४८ ।।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमहा पुराणे वायुप्रोक्ते ज्यामघवृत्तान्तकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३३ ।। * तस्य चासीद्दशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः ।
तस्मात् करम्भः कारम्भिर्देवरातोऽभवन्नृपः।२६।
देवक्षत्रोऽभवत् तस्य दैवक्षत्रिर्महायशाः ।
देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नन्दनः ।। २७ ।।
मधूनां वंशकृद् राजा मधुर्मधुरवागपि ।
मधोर्जज्ञेऽथ वैदर्भो पुत्रो मरुवसास्तथा ।। २८ ।।
आसीन्मरुवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।
मधुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रवत्यां कुरूद्वहः ।। २९ ।
ऐक्ष्वाकी चाभवद्भार्या सत्त्वांस्तस्यामजायत ।
सत्त्वान् सर्वगुणोपेतः सात्त्वतां कीर्तिवर्धनः ।। 1.36.३० ।।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः ।
युज्यते परया कीर्त्या प्रजावांश्च भवेन्नरः ।। ३१ ।।
सन्दर्भ:-
इति
श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।३६। नर्म्मदानूप एकाकी मेकलावृत्तिका अपि।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा शुक्तिमन्यामथाविशत् ।। ३३.३१ ।।
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैव्या बलवती भृशम्।
अपुत्रोऽपि स वै राजा भार्यामन्यां न विन्दति ।। ३३.३२ ।।
तस्यासीद्विजयो युद्धे ततः कन्यामवाप सः।
भार्यामुवाच राजा स स्नुषेति तु नरेश्वरः।३३.३३ ।।
एवमुक्ताब्रवीदेवं काम्ये यन्ते स्नुषेति सा।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति ।। ३३.३४ ।।
तस्य सा तपसोग्रेण शैब्या वैशं प्रसूयत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा शैब्या परिणता सती ।३३.३५।
राजपुत्रौ तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथुकौशिकौ। पुत्रौ विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ । ३३.३६ ।।
लोमपादं तृतीयन्तु पश्चाज्जज्ञे सुधार्मिकः।
लोम पादात्मजोवस्तुराहृतिस्तस्य चात्मजः ।। ३३.३७ ।।
कौशिकस्य चिदिः पुत्रस्तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथोर्विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।। ३३.३८ ।।
कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे पुरोधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।३३.३९ ।
तस्य पुत्रो दशार्हस्तु महाबलपराक्रमः।
दीशर्हस्य सुतो व्योमा ततो जीमूत उच्यते ।। ३३.४० ।।
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः.
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो रथवरः किल ।। ३३.४१ ।
दाता धर्म्मरतो नित्यं शीलसत्यपरायणः।
तस्य पुत्रो नवरथस्ततो दशरथः स्मृतः।३३.४२ ।
तस्य चैकादशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भको धन्वी देवरातोऽभवत्ततः ।। ३३.४३ ।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा देवरातिर्म्महायशाः।
देवक्षत्रसुतो जज्ञे देवनः क्षत्रनन्दनः ।। ३३.४४ ।।
देवनात् स मधुर्जज्ञे यस्य मेधार्थसम्भवः। मधोश्चापि महातेजा मनुर्मनुवशस्तथा ।३३.४५ ।। **** नन ्दनश्च महातेजा महापुरुवशस्तथा।
आसीत् पुरुवशात् पुत्रः
पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।। ३३.४६ ।।
जज्ञे पुरुद्वतः पुत्रो भद्रवत्यां पुरूद्वहः।
ऐक्षाकी त्वभवद्भार्या सत्त्वस्तस्यामजायत।
सत्त्वात् सत्त्वगुणो पेतः सात्त्वतः कीर्तिवर्द्धनः ।। ३३.४७ ।।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ।। ३३.४८ ।।
सन्दर्भ-
इति
श्रीमहा पुराणे वायुप्रोक्ते ज्यामघवृत्तान्तकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३३।। *  आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान् अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८। 28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में अंशु नामक पुत्र हुआ।
📚:
वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
29-. अंशु की पत्नी वेत्रकी से
सात्वत हुआ जो ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०। 30- महाराज ज्यामघ की. इन संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला व्यक्ति पुत्र जुड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है।
सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान् तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१। 31-. कौशल्या में सत्व सम्पन्न सात्वत से चार पुत्रों को जन्म हुआ उन्हें विस्तार से सुनो ×××××××××
कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।
45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) । कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे।
"सात्वत वंश के यादव" 📚: सात्वत् (सात्वत्)। - यदु वंश के एक राजा और
देवक्षत्र के पुत्र, सात्वत के सात पुत्र थे जिनमें -भज, भजी, दिव्य, वृष्णि, देववृध,अन्धक और महाभोज शामिल थे।
सात्वत:- सात्वों में से एक थे और उनके वंश में सात्वत लोगों को सात्वत कहा जाता है। (सभा पर्व, अध्याय 2, श्लोक 30)।
_ _ _ _ _ _
क्रोष्टा नामक यादव के पौत्र और युधाजित के पुत्र अन्धक !
सात्त्वतान् सत्त्वसम्पन्नात् कौशल्यां सुषुवे सुतान् ।
भजिनं भजमानञ्च दिव्यं देवावृधं नृपम् ।
अन्धकञ्च महाबाहुं, वृष्णिञ्च यदुनन्दनम् । तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह तान् शृणु ।
अन्धकात्
काश्यदुहिता चतुरोऽलभ्मतात्मजान् ।
कुकुरं भजमानञ्च शभं कम्बलवर्हिषम्” । इति हरिवंशे ।३८-वाँ अध्याय ।
आयु से सात्वत का जन्म हुआ। सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-
(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि प्रथम )
निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
आयु से सात्वत का जन्म हुआ। सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-
(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि )
निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
(३-अनमित्र के पुत्र वृष्णिद्वितीय )
अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।
* ‡‡‡
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।
उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।
तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और
पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।
* * * * *
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
* ***
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:- उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका।
इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था। चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए।
हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।
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(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि )
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।
उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।
तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और
पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।
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आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं-
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी
देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं-
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी
अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व- 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि..👇
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अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८। (हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए।
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए।
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए। ये अन्धक वृष्णि शाखा से सम्बन्धित थे।
देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘ और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
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"नन्द के परिवारीय जन" नन्द ★-
जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती-थीं।
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
नन्द के अन्य नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।
१- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।
-३-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।
नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।
नन्द छोटे भाई — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।
:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।
यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल ना से थे। (एक मत से मौसा का दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
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मथुरा शब्द की उत्पत्ति तथा विकास" तस्यनाम्ना मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४। (मत्स्य-पुराण अध्याय 44 श्लोक 44) _ _ _ _ _ _ _ शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः । माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥ _ _ _ _ _ _ _ __ तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच ्च वरुणस्य वै । वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० _ ____ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः । उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१। अर्थ -•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। अर्थ -•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०। अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।अर्थ -•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा । शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥ अर्थ -•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना । विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥ अर्थ -•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः । अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥ अर्थ -•कंस ! कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ _ _ ___ यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है । क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं । फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं । परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया ! गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे; इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकरही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे । देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।_ _ _ _ _तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै । वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥ अर्थ •- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१। अग्रलिखित सन्दर्भों में हम चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य " श्री गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन प्रस्तुत करेंगे यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य- _ _ _ _ _ _ _ _ (अथ कथारम्भ:) "यथा-अथ सर्वश्रुतिपुराणादिकृतप्रशंसस्य वृष्णिवंशस्य वतंस: देवमीढनामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास । तस्य चार्याणां शिरोमणेभार्याद्वयासीत् । प्रथमाद्वितिया (क्षत्रिय)वर्णा द्वितिया तु तृतीय (वेैश्य)वर्णेति । तयोश्च क्रमेण यथा वदाह्वयं पुत्रद्वयं प्रथमं बभूव-शूर:, पर्जन्य इति । तत्र शूरस्य श्रीवसुदेवाय: समुदयन्ति स्म ।श्रीमान् पर्जन्यस्तु ' मातृ वर्ण -संकर: इति न्यायेन वैश्यताममेवाविश्य ,गवामेवैश्यं वश्यं चकार; बृहद्-वन एव च वासमा चचार । स चार्य बाल्यादेव ब्राह्मण दर्शं पूजयति, मनोरथपूरं देयानि वर्षति, वैष्णववेदं स्नह्यति, यावद्वेदं व्यवहरति यावज्जीवं हरिमर्चयति स्म। तस्य मातुर्वंशश्च व्याप्तसर्वदिशां विशां वतंसतया परं शंसनीय:, आभीर विशेषतया सद्भिरुदीरणादेष हि विशेषं भजते स्म ।।२३।। अर्थ -• समस्त श्रुतियाँ एवं पुराणादि शास्त्र जिनकी भूरि भूरि प्रशंसा करते रहते हैं ; उसी यदुवंश के शिरोमणि और विशिष्ट गुणों के स्थान स्वरूप श्री देवमीढ़ राजा श्री मथुरापुरी में निवास करते थे ; उन्हीं क्षत्रिय शिरोमणि महाराजाधिराज के दो पत्नीयाँ थीं , पहली (पत्नी) क्षत्रिय वर्ण की, दूसरी वैश्य वर्ण की थी, दोनों रानियों के क्रम से यथायोग्य दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें से एक का नाम शूरसेन दूसरे का नाम पर्जन्य था ; उन दोनों में से शूरसेन जी के श्री वासुदेव आदि पुत्र उत्पन्न हुए किंतु श्री पर्जन्य बाबा तो (मातृवद् वर्ण संकर) इस न्याय के कारण वैश्य जाति को प्राप्त होकर गायों के आधिपत्य को ही अधीन कर गए अर्थात् उन्होंने अधिकतर गो- प्रतिपालन रूप धर्म को ही स्वीकार कर लिया एवं वे महावन में ही निवास करते थे । और वे बाल्यकाल से ही ब्राह्मणों की दर्शन मात्र से पूजा करते थे एवं उन ब्राह्मणों के मनोरथ पूर्ति पर्यंत देय वस्तुओं की वृष्टि करते थे; वह वैष्णवमात्र को जानकर उस से स्नेह करते थे; जितना लाभ होता था उसी के अनुसार व्यवहार करते थे तथा आजीवन श्रीहरि की पूजा करते थे, उनकी माता का वंश भी सब दिशाओं में समस्त वैश्य जाति का भूषण स्वरूप होकर परम प्रशंसनीय था। विज्ञपण्डित जन भी जिनकी माता के वंश को (आभीर-विशेष) कहकर पुकारते थे; इसीलिए यह माता का वंश उत्कर्ष विशेष को प्राप्त कर गया ।२३।।तथा च मनुस्मृति:-(१०/१५)-ब्राह्मणादुग्रकन्यायामावृतोनाम जायते।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण:।। इति।। अम्बष्ठस्तु विश: पुत्र्यां ब्राह्ममणाज्जात उच्यते। इति चान्यत्र । अत: पाद्मे सृष्टि खण्डादौ यज्ञं कुर्वता ब्रह्मणापि आभीरपर्याय-गोपकन्याया: पत्नीत्वेन स्वीकार: प्रसिद्ध: । एष एव च गोप वंश: श्रीकृष्णलीलायां सवलनमाप्स्यतीति; सृष्टि खण्ड एव तत्र स्पष्टीकृतमस्ति । तस्मात् परमशंसनीय एवासौ वैश्यान्त:पाति महा-आभीर द्विज वंश: इति।।२४।। अर्थ •-इस विषय में मनुस्मृति भी कहती है। यथा (10/15) कि क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्या से उत्पन्न उग्रा कहलाती है ब्राह्मण के द्वारा उसी उग्रा कन्या के गर्भ से आवृत नामक पुत्र उत्पन्न होता है ; ब्राह्मण के द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को अम्बष्ठा कहते हैं उसी अम्बष्ठा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा आभीर जाति का जन्म होता है शूद्र द्वारा वैश्य पुत्री में उत्पन्न कन्या को आयोगवी कहते हैं। उसी आयोगवी के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा धिग्वण का जन्म होता है; अन्यत्र भी देखा जाता है कि वैश्य पुत्री से ब्राह्मण के द्वारा जिस पुत्री का जन्म होता है उसका नाम अम्बष्ठ होता है । अतः पद्म पुराण में सृष्टि खण्ड के आदि में कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने जिस समय यज्ञ किया उस समय उन्होंने आभीर पर्याय गोप कन्या को पत्नी रूप से ग्रहण किया यही बात प्रसिद्ध है यही गोपवंश श्री कृष्ण में सम्मेलन प्राप्त करेगा यह बात भी वही सृष्टि खंड में स्पष्ट रूप से उल्लिखित है। इस कारण से वैश्यजाति के अन्तर्गत यह महा-आभीर जाति द्विजवंश हो गई, अत: यह गोपवंश भी परम प्रशंसनीय है।।२४।।अथ स्निग्धकण्ठेन चान्तश्चिन्तितम्-"एवमपि केचिदहो एषां द्विजतायां सन्देहमपि देहयिष्यन्ति- ये खलु श्रीमद्भागवते ( १०/८/१०) कुरु द्विजातिसंस्कारम् इति गर्ग प्रति श्रीव्रजराजवचने ( भा०१०/२४/२०-२१)वैश्यस्तु वार्तया जीवेत्' इत्यारभ्य कृषि, वाणिज्य-गोरक्षा, कुसीदं तुर्यमुच्यते। वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।। इति व्रजराजं प्रति श्रीकृष्णवचने, तथैव, (भा०१०/४६/१२) अग्न्यर्कातिथिगो-विप्र' इति श्रीशुककृत-गोपावासवर्णने, व्यतिरेकस्तु धर्मराजचपतायामपि विदुरस्य शूद्रगर्भोद्भवतयान्यथाव्यवहार श्रवणेऽप्यधिकं वधिरायिष्यन्ते" इति ।२५।। अर्थ -• तदनन्तर स्निग्ध-कंठ ने अपने मन में बेचारा की अहो कैसा आश्चर्य ! का विषय है कि कोई कोई जन तो इन गोपों की द्विजता में भी संदेह बढ़ाते रहेंगे और जो श्रीमद्भागवत में श्री गर्गाचार्य के प्रति नंद जी का वचन है कि आप हमारे दोनों पुत्रों का भी द्विजाती संस्कार कीजिए तथा वैश्य तो वार्ता द्वारा अपनी जीविका चलाता है यहां से आरंभ करके कृषि ,वाणिज्य ,गोरक्षा और कुसीद अर्थात् ब्याज लेना वैश्य की यह चार प्रकार की वृत्ति होती है उनमें से हम तो निरंतर गौरक्षा वृत्ति द्वारा अपनी जीविका चलाते हैं इस प्रकार श्री बृजराज के प्रति श्री कृष्ण के वाक्य में तथा श्री शुकदेव द्वारा गोपावास वर्णन के प्रसंग में सूर्य, अग्नि अतिथि गो ब्राह्मण आदि के पूजन में गोपों का आवास स्थान मनोहर है ! इत्यादि एवं इसके व्यतिरेक से तो पूर्व जन्म में जो धर्मराज में थे वही विदुर जी शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न होकर भी अन्यथा व्यवहार करेंगे अर्थात ज्ञान उपदेश आदि द्वारा लोगों का उद्धार रूप ब्राह्मण का कार्य करेंगे या कर चुके हैं। संदेह करने वाले जन इन सब बातों को सुनने में तो बिल्कुल बहरे ही हो जाएंगे अर्थात् विदुर जी के ब्राह्मणत्व सुन भी ना सकेंगे।२५।।अथ स्फुटमूचे-" ततस्तत:?" ।।२६।। अर्थ •- पुन: स्पष्ट बोला भाई ! मधुकण्ठ! आगे की चर्चा सुनाइये।।२६।मधुकण्ठ उवाच- " स च श्रीमान् पर्जन्य: सौजन्यवर्येणार्जितेन निजैश्वर्येणापि वैश्यन्तरसाधारण्यमतीयाय, तच्चनाश्चर्यम्; यत: स्वाश्रितदेशपालकता-मान्यतया वदान्यतया क्षीरवैभवप्लावितसर्वजनतालब्ध-प्राधान्यतया च पर्जन्य सामान्यतामाप;-य: खलु प्रह्लाद: श्रवसि , ध्रुव: प्रतिश्रुति, पृथुर्महिमनि, भीष्मो दुर्हृदि, शंकर: सुहृदि , स्वम्भूर्गरिमणि, हरिस्तेजसि बभूव ; यस्य च सर्वैरपि कृतगुणेन गुणगणेन वशिता: सहस्रसंख्याभिरप्यनवसिता मातामह महावंशप्रभवा: सर्वथा प्रभवस्ते गोपा: सोपाध्याया:स्वयमेव समाश्रिता बभूवु:; तत्सम्बन्धिवृदानि च वृन्दश:;यं खलु श्रीमदुग्रसेनीय-यदुसंसदग्रण्यस्ते समग्र गुणगरिमण्यग्रगण्यमवलोकयन्त: सकलगोपलोकराजराजतासम्बलकेन तिलकेनसम्भावयामासु:; यस्यच प्रेयसीसकलगुणवरीयसी वरीयसीनामासीत्;। यस्य च श्रीमदुपनन्दादय:पञ्चनन्दाना जगदेवानन्दयामासु:।" तथा च वन्दिनस्तस्य श्लोकों श्लोकतामानयन्ति-।।२७।। अर्थ • मधुकण्ठ बोला- वे ही श्रीमान् पर्जन्य जी उत्तम सौजन्य एवं स्वयं उपार्जित ऐश्वर्य द्वारा अन्यान्य साधारण वैश्यजाति को अतिक्रमण कर गये थे , यह आश्चर्य नहीं क्यों कि देखो-वे अपने देश के पालन करने से सभी के माननीय होकर तथा दानशीलता के कारण दुग्ध सम्पत्ति द्वारा सब लोकों कोआप्लावित करके सबकी अपेक्षा प्रधानता को प्रप्त करके भी मेघ की समानता को प्राप्त कर गये एवं जो निश्चय ही यश में प्रह्लाद, प्रतिज्ञा में ध्रुव महिमा में पृथु शत्रुओं के प्रति भीष्म, मित्रों के प्रति शंकर गौरव में ब्रह्मा तेज में श्रीहरि के तुल्य थे । अपिच सभी लोग जिनके गुणों की आवृत्ति करते रहते हैं ऐसे उनके गुणों के वशीभूत होकर हजारों की संख्या से भी अधिक नाना(मातामह) के विशाल वंश में उत्पन्न होने वाले ऐश्वर्यशाली गोपगण भी उपाध्याय के सहित स्वयं ही जिनके आश्रित हो गये थे। उनके सम्बन्धीय स्वजाति के वृन्द (समूह) भी बहुत से हैंं निश्चय ही जिनको श्रीमान् उग्रसेन प्रभृति यदि सभा के अग्रगण्य व्यक्तियों ने सम्पूर्ण-गुणगौरव विषय में अग्रगण्य देखते हुए समस्त गोपजनों के सुन्दर राजत्वसूचक तिलक द्वारा सम्मानित किया अर्थात् उग्रसेन आदि सभी यदुवंशियों ने जिनको गोपों का सम्राट बना दिया जिनकी प्रिया भार्या स्त्रीयों के सभी गुणों में श्रेष्ठ थीं । अतएव जिनका (वरीयसी) नाम सार्थक था । जिनके श्रीमान उपनन्द आदि पाँच पुत्रों ने जगत को ही आनन्दित कर दिया । अधिक क्या कहें ? देखो जिनके यश को वन्दीजन श्लोकबद्ध करके वर्णन करते हैं ।२७।।- ( तृतीय पूरण)अन्यस्तु जल-पर्जन्य: सुखपर्जन्य एष तु। सदा यो धिनुतेसृष्टैरुपनन्दादिभिर्जनम्।। पर्जन्य: कृषिवृत्तीनां भुवि लक्ष्यो व्यलक्ष्यत।तदेतन्नाद्भुतं स्थूललक्ष्यतां यदसौ गत: ।।२८।। अर्थ - देखो ! जल पर्जन्य (मेघ) तो दूसरा है किन्तु यह तो सुखपर्जन्य है। कारण यह ! पर्जन्य तो स्वयं उत्पादित उपनन्दादि पाँच पुत्रों द्वारा सभी जनों को सदैव परितृप्त करना चाहता है परन्तु मेघरूपी पर्जन्य कृषिजीवी सभी के द्वारा दृष्टिगोचर होकर भूतल पर देखा जाता है । किन्तु यह अद्भुत नहीं है कारण यह पर्जन्य गोपराज तो दानवीरता या बहुदातृता को प्राप्त होकर स्थूल दृष्टि वालों को भी लाखों रूप में दिखाई पढ़ता है ।।२८।। (उपमान्ति च-उपनन्दादयश्चैते पितु: पञ्चैव मूर्तय: ।यथानन्दमयस्यामी वेदान्तेषु प्रियादय:।।२९।। अर्थ -• वन्दीजन श्रीपर्जन्य बाबा की इस प्रकार उपमा भी देते है ; यथा - जिस प्रकार वेदान्त शास्त्र में आनन्दमय परब्रह्म के " प्रिय, आमोद,प्रमोद, आनन्द ,ब्रह्म ये पाँच स्वरूप हैं । उसी प्रकार ये उपनन्द, अभिनन्द, नन्द,सन्ननन्द, और नन्दन इत्यादि पाँचों भी पिता पर्जन्य के मूर्तिविशेष जानों ।२९। उत्प्रेक्ष्यन्ते च-उपनन्दोऽभिनन्दश्च नन्द: सन्नन्द-नन्दनौ । इत्याख्या: कुर्वता पित्रा नन्देरर्थ: सुदण्डित:।।३० ।। अर्थ - इस विषय में उनकी उत्प्रेक्षा भी करते हैं यथा उपनंद अभिनंद नंदन नंद एवं नंदन इत्यादि नामकरण करते हुए इनके पिता ने समृद्धि अर्थक नंद धातु के आनंद रूप अर्थ को अच्छी प्रकार वश में कर लिया है अर्थात् नंद धातु का अर्थ पर्जन्य बाबा के उपनंद आज पांच पुत्रों के रूप में मूर्तमान दिखाई देता है।३०।।मधुकण्ठ-उवाच - तदेवं सति नाम्ना केचन गोपानां मुखेन तस्मै परमधन्या कन्या दत्ता,-या खलु स्वगुणवशीकृतस्वजना यशांसि ददाति श्रृण्वद्भ्य:,किमुत् पश्यद्भ्य: किमुततरां भक्तिमद्भ्य: । ततश्च तयो: साम्प्रतेन दाम्पत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत, किमुत मातरपितरादीनाम् ।।३६।। अर्थ • मधुकण्ठ बोला ! उसके अनन्तर गोपों में प्रधान (सुमुख) नामक किसी गोप ने अपनी परमधन्या एक कन्या उन श्रीनंद जी के लिए समर्पित की, वह कन्या अपने गुणों से अपने जनों को वश में करके सुनने वाले को भी यश प्रदान करती हैं एवं जो उनके दर्शन करते हैं उनको भी यश देती हैं तथा जो इस कन्या की भक्ति करते हैं उनको भी यशसमूह प्रदान करती हैं इस विषय में तो कहना ही क्या ? तदनंतर उन दोनों के सुयोग्य दांपत्य संबंधों से सभी लोगों की सुखसम्पत्ति उत्पन्न होगयी तब उनके माता-पिता की सुखसम्पत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? ।।३६ ।तदेवमानन्दित-सर्वजन्युर्विगतमन्यु: पर्जन्य: सर्वतो धन्य: स्वयमपि भूय: सुखमवुभूय चाभ्यागारिकतायाम् अभ्यागतम्मन्य: श्रीगोविन्दपदारविन्द-भजनमात्रान्वितां देहयात्रामाभीष्टां मन्यमाना: सर्वज्यायसे ज्यायसे स्वक-कुलतिलकतां दातुं तिलकं दातुमिष्टवान्, श्रीवसुदेवादि नरदेव-गर्गदि भूदेवकृतप्रभां दत्तवांश्च।।३७।। अर्थ •- इस प्रकार श्री पर्जन्य बाबा ने प्राणी मात्र को आनंदित करते हुए शोक रहित हो एवं सब की अपेक्षा धन्य होकर स्वयं भी अनेक सुखों का अनुभव कर कुटुंब केेेे पालन-पोषण व्यापार में अनासक्त होकर केवल श्री गोविंद पदारविंद के भजन मात्र से युक्त देह यात्रा को ही अपनी अभीष्ट मानते हुए सबसे बड़े एवं श्रेेेष्ठ उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।। "स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८। अर्थ •-पश्चात उन श्री उप नन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) _ _ _ _ _ _ _ _ 'तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।। अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।। तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) _ _ _ _ _ _ _ _ योग्य एव परयोग्यताकर,-स्ताद्दशत्वमपि वेदवेदजम्। त्वन्तु वेदविदुषांवरस्तत:, संस्करु द्विजजनुस्तनु अमू ।।६५। अर्थ •- योग्य जन ही दूसरे को योग्य बना सकता है ।दूसरों को योग्य बनाने की योग्यता वेदों के ज्ञान से उत्पन्न होती है ; तिसमें भी आप तो वेदज्ञ विद्वानों में श्रेष्ठ हो । अत: द्वि जों की जाति में प्रकट हैं शरीर जिनका ऐसे इन दोनो बालकों का संस्कार करो ।तात्पर्य-ब्राह्मणक्षत्रियविशस्त्रयो वर्णा द्विजातय:" ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों वर्णों को ही द्विजाति या द्विज कहते हैं तथा देवमीढ़ राजा की वैश्य वर्ण वली पत्नी (गुणवती) से उत्पन्न महावनवासी श्रीपर्जन्य के पुत्र, गोपजाति श्रीनन्द जी का द्विजत्व तीसरे पूरण में श्री रूप स्वामी जी विचारपूर्वक प्रमाण प्रमेय से सिद्ध कर चुके हैं अत: श्रीनन्दजीने द्विजाति संस्कार करने की प्रार्थना की ।।६५।।गर्ग उवाच---भवन्तो यदुबीज्यत्वेऽपि वैश्यततीज्यमातृवंशान्वयिता तद्गुरुपदव्या-गतैरेव कर्म कारयितव्या: न तु मया।।६६। अर्थ •- श्री गर्ग-आचार्य बोले --आप सबके यदुवंश में उत्पन्न होने पर भी वैश्य गणों के पूज्य ,एवं माता के वंश का सम्बन्ध रहने के कारण से आप विशिष्ट वैश्य है। ।अत: जो ब्राह्मण वैश्य गणों के गुरुपद ( पुरोहिताई) पर आरूढ़ है वे ही आपका संस्कार कार्य करेंगे , किन्तु मेरे द्वारा होना उचित नहीं ।।६६।व्रजराज उवाच- भवेदेवं किन्तु क्वचित्सर्गो ।प्यपवादवर्ग बाधतेऽधिकारिविशेषश्लेषमासाद्य।यथैवाहिंसानिवृत्तकर्मणि बद्धश्रद्धं प्रति यज्ञेऽपि पशुहिंसां तस्माद्भवतां ब्राह्मण-भावादुत्सर्गसिद्धा गुरुता श्रृद्धाविशेषवतामस्माकं कुले कथं लघुतामाप्नोतु ? तत्रापि भवत: सर्वप्रमाणत: समधिकता समधिगता; तस्मादन्यथा मा स्म मन्यथा:। एतदुपरिनिजपुरोहिता-नामपि हितमपि-हितमहसा करिष्याम:।।६७। ।अर्थ •- श्री बृजराज बोले भगवन आपका कहना ठीक है किंतुु किसी सामान्य विधि भी विशेषविधि को बाध लेती है । जैसे अहिंसारूप निवृत्तिमार्ग में जो व्यक्ति विशेष श्रृद्धा रखता है, उस व्यक्ति के उद्देश्य में यज्ञकार्यमें भी, अहिंसा द्वारा पशुहिंसा का बाध हो जाता है। अत: आपका ब्राह्मणता के नाते सामान्य विधि द्वारा सर्वगुरुत्व तो सिद्ध ही है फिर गुरुमात्र के प्रति श्रृद्धा विशेष रखने वाले हमारे कुल में वह गुरुत्व लघुत्व को कैसे प्राप्त कर सकता है ? उसमें भी सब प्रकार के प्रमाणों से आपकी अधिकता को मैं जान चुका हूँ । अत: आप कोई अन्यथा। विचार न करें । आपके द्वारा नामकरण संस्कार । होते ही अपने पुरोहितों का भी स्पष्ट रूप से उत्सव द्वारा विशेष हित कर कार्य कर देंगे।।६७। (श्रीगोपालचम्पू- (षष्ठपूरण) शकटभञ्जनादि अध्याय) प्रथम १-(वभ्रु, जो पर्जन्य नाम से भी जाने गये । द्वित्तीय २- सुषेण ये अर्जन्य के नाम से जाने गये तथा तृत्तीय ३-सभाक्ष हुए जिनको "राजन्य" नाम से लोक में जाना गया हुए । देवमीढ की द्वित्तीय रानी अश्मिका के पुत्र शूरसेन हुए जो वसुदेव के पिता थे ।_ _ _ _ _ __देवमीढात् शूरो नाम्ना पुत्रो८जायत् अश्मिकां पत्न्याम् तथैव च गुणवत्यां पर्जन्यो वा वभ्रो: ।। तस्या: ज्येष्ठ: पुत्रो नाम्ना उपनन्द:।। नन्द की माता और पर्जन्य की पत्नी का नाम वरीयसी थी और वसुदेव की अठारह पत्नियाँ थीं। उपनन्द , नन्द ,अभिनन्द,कर्मनन्द,धर्मनन्द, धरानन्द,सुनन्द, और बल्लभनन्द ये नौ नन्द हैं । उपनन्द बडे़ थे । _ _ _ _ _ _ ____
माधवाचार्य ने भागवत पुराण की टीका में लिखा :-माधवाचार्यश्च वैश्य कन्यायाँ वैभात्रेय: भ्रातुर्जातत्वादिति ब्रह्मवाक्यं च शूरतात् सुतस्य वैश्य कन्या प्रथमोऽथ गोप इति प्राहु:।५७। एवमन्येऽपि गोपा यादवविशेष: एव वैश्योद् भवत्वात् अतएव स्कन्दे मथुराखण्डे (अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका )
अत: माधवाचार्य की टीका तथा स्कन्द पुराण वैष्णव खण्ड मथुरा महात्म्य में तथा श्रीधर टीका , वंशीधरी टीका और अन्वितार्थ प्रकाशिका टीका आदि में शूरसेन की सौतेली माता चन्द्रगुप्त की कन्या गुणवती से शूर के भाई पर्जन्य आदि उत्पन्न हुए थे ।
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वे गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण से गोप तथा वंश मूलक विशेषण से यादव थे ।
हरिवंशपुराण, देवीभागवत के चतुर्थ स्कन्ध में गोप तो वसुदेव को भी कहा गया है । पं०वल्देव शास्त्री ने टीका में लिखा है :-
भ्रातरं वैश्यकन्यायां शूर वैमात्रैय भ्रातुर्जातत्वादिति भारत तात्पर्यं श्रीमाधवाचार्यरुक्त ब्रह्मवाक्यं ।।५१। शूर तात सुतस्यनन्दाख्य गोप यादवेषु च सर्वेषु भवन्तो मम वल्लभा: ( इति वल्देव वाक्यं). _ _ _ (विष्णु पुराण पञ्चमाँश २४वाँ अध्याय)
आनीय चोग्रसेनाय द्रारवत्यां न्यवेदयत् । पराभिभवनिः शङ्क बभूव च यदोः कुलम् ।।५-२४-७ ।। बलदेवोऽपि मैत्रेय! प्रशान्ताखिलविग्रह- । ज्ञातिसन्दर्शनोतूकण्ठः प्रययौ नन्दगौकुलम् । ५-२४-८ ।। ततो गोपीश्व गोपांश्व यथापूर्व्वममित्रजित् । तथैवाभ्यवदत् प्रेमूणा बहुमानपुरःसरम् ।। ५-२४-९ ।। संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇
यदो:कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च।यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:) परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।
और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित करी गयीं ।
जैसे -अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं ✍
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; ऐसा वर्णन है ।
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे जो दोनों के गोप और यादवों के रूप में अलग अलग- वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै । वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० ॥ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥ अर्थ •- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया । जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।
निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
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 उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
"
स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८। अर्थ•- पश्चात उन श्री उपनन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक
अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
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तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) _ _ _ _ _ _ _ तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।। अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूखगयाहै चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न होगया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।।
तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत ) _ _ _ _ _ _ _ _
हरिवंशपुराण /पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०३८।
विकद्रुणा यदोः संततिवर्णनम्, जरासंधस्य आक्रमणानि
अहीर अथवा गोप शूद्र हैं तो वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री शूद्रा क्यों नहीं है ?
गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी ।
न गायत्र्याः परं जप्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते ।। १४.५९
सन्दर्भ:-
(
कूर्म पुराण उत्तर भाग अध्याय १४का ५९वाँ श्लोक) _ _ ____
" अध्याय अष्टम- - आभीर कन्या गायत्री का उपाख्यान- देखें पद्म पुराण के प्रथम सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ के श्लोक संख्या में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन
आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है । पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- १७ में वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री माता का आख्यान वर्णित है ।
जिसे गोप" आभीर और यादवी सम्बोधन से वर्णन किया है-
"एवमाद्यानि चान्यानि कृत्वा शूर्पे वराननाः सावित्र्या सहिताः सर्वाः संप्राप्ताः सहसा शुभाः।११८।
सावित्रीमागतां दृष्ट्वा भीतस्तत्र पुरंदरः
अधोमुखः स्थितो ब्रह्मा किमेषा मां वदिष्यति।११९।
त्रपान्वितौ विष्णुरुद्रौ सर्वे चान्ये द्विजातयः
सभासदस्तथा भीतास्तथा चान्ये दिवौकसः।१२०।
पुत्राः पौत्रा भागिनेया मातुला भ्रातरस्तथा
ऋभवो नाम ये देवा देवानामपि देवताः।१२१।
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वैलक्ष्येवस्थिताः सर्वे सावित्री किं वदिष्यति
ब्रह्मपार्श्वे स्थिता तत्र किंतु वै गोपकन्यका।१२२।
मौनीभूता तु शृण्वाना सर्वेषां वदतां गिरः
अद्ध्वर्युणा समाहूता नागता वरवर्णिनी।१२३।
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शक्रेणान्याहृता आभीरा दत्ता सा विष्णुना स्वयम्
अनुमोदिता च रुद्रेण पित्राऽदत्ता स्वयं तथा।१२४।।
कथं सा भविता यज्ञे समाप्तिं वा व्रजेत्कथम्
एवं चिंतयतां तेषां प्रविष्टा कमलालया ।१२५।।
वृतो ब्रह्मासदस्यैस्तु ऋत्विग्भिर्दैवतैस्तथा
हूयंते चाग्नयस्तत्र ब्राह्मणैर्वैदपारगैः।१२६।
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पत्नीशालास्थिता गोपी सैणशृंगा समेखला
क्षौमवस्त्रपरीधाना ध्यायंती परमं पदम्।१२७।।
पतिव्रता पतिप्राणा प्राधान्ये च निवेशिता
रूपान्विता विशालाक्षी तेजसा भास्करोपमा।१२८।।
द्योतयन्ती सदस्तत्र सूर्यस्येव यथा प्रभा
ज्वलमानं तथा वह्निं श्रयंते ऋत्विजस्तथा।।१२९।।
पशूनामिह गृह्णाना भागं स्वस्व चरोर्मुदा
यज्ञभागार्थिनो देवा विलंबाद्ब्रुवते तदा।।१३०।।
कालहीनं न कर्तव्यं कृतं न फलदं यतः
वेदेष्वेवमधीकारो दृष्टः सर्वैर्मनीषिभिः।।१३१।
_ _ _ प्रावर्ग्ये क्रियमाणे तु ब्राह्मणैर्वेदपारगैः
क्षीरद्वयेन संयुक्त शृतेनाध्वर्युणा तथा।।१३२।
उपहूतेनागते न चाहूतेषु द्विजन्मसु
क्रियमाणे तथा भक्ष्ये दृष्ट्वा देवी रुषान्विता।।१३३।।
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उवाच देवी ब्रह्माणं सदोमध्ये तु मौनिनम्
किमेतद्युज्यते देव कर्तुमेतद्विचेष्टितम्।।१३४।।
मां परित्यज्य यत्कामात्कृतवानसि किल्बिषम्
न तुल्या पादरजसा ममैषा या शिरः कृता।।१३५।।
यद्वदन्ति जनास्सर्वे संगताः सदसि स्थिताः
आज्ञामीश्वरभूतानां तां कुरुष्व यदीच्छसि।१३६।।
भवता रूपलोभेन कृतं लोकविगर्हितम्
पुत्रेषु न कृता लज्जा पौत्रेषु च न ते प्रभो।१३७।।
कामकारकृतं मन्य एतत्कर्मविगर्हितम्
पितामहोसि देवानामृषीणां प्रपितामहः।१३८।।
कथं न ते त्रपा जाता आत्मनः पश्यतस्तनुम्
लोकमध्ये कृतं हास्यमहं चापकृता प्रभो।१३९।।
यद्येष ते स्थिरो भावस्तिष्ठ देव नमोस्तुते
अहं कथं सखीनां तु दर्शयिष्यामि वै मुखम्।।१४०।।
भर्त्रा मे विधृता पत्नी कथमेतदहं वदे
(ब्रह्मोवाच)
ऋत्विग्भिस्त्वरितश्चाहं दीक्षाकालादनंतरम्।।१४१।।
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पत्नीं विना न होमोत्र शीघ्रं पत्नीमिहानय
शक्रेणैषा समानीता दत्तेयं मम विष्णुना ।१४२।।
गृहीता च मया सुभ्रु क्षमस्वैतं मया कृतम्
न चापराधं भूयोन्यं करिष्ये तव सुव्रते।।१४३।।
पादयोः पतितस्तेहं क्षमस्वेह नमोस्तुते
(पुलस्त्य उवाच)
एवमुक्ता तदा क्रुद्धा ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता।१४४।।
यदि मेस्ति तपस्तप्तं गुरवो यदि तोषिताः
सर्वब्रह्मसमूहेषु स्थानेषु विविधेषु च।।१४५।।
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नैव ते ब्राह्मणाः पूजां करिष्यंति कदाचन
ॠते तु कार्तिकीमेकां पूजां सांवत्सरीं तव।।१४६।।
करिष्यन्ति द्विजाः सर्वे मर्त्या नान्यत्र भूतले
एतद्ब्रह्माणमुक्त्वाह शतक्रतुमुपस्थितम्।।१४७।।
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भोभोः शक्र त्वयानीता आभीरी ब्रह्मणोंतिकम् यस्मात्ते क्षुद्रकं कर्म तस्मात्वं लप्स्यसे फलम्।। १४८।।
यदा संग्राममध्ये त्वं स्थाता शक्र भविष्यसि
तदा त्वं शत्रुभिर्बद्धो नीतः परमिकां दशाम्।१४९।।
अकिञ्चनो नष्टसत्वः शत्रूणां नगरे स्थितः पराभवं महत्प्राप्य न चिरादेव मोक्ष्यसे।।१५०।। (पद्म पुराण 1.17.150) _ _ _ _ _ ___
सावित्री द्वारा विष्णु को शाप-
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शक्रं शप्त्वा तदा देवी विष्णुं वाक्यमथाब्रवीत् भृगुवाक्येन ते जन्म यदा मर्त्ये भविष्यति।।१५१।। भो विष्णो ! भार्या वियोगजं दुःखं तदा त्वं तत्र भोक्ष्यसे हृता ते शत्रुणा पत्नी परे पारो महोदधेः।१५२। ।
न च त्वं ज्ञास्यसे नीतां शोकोपहतचेतनः भ्रात्रा सह परं कष्टामापदं प्राप्य दुःखितः।।१५३। _ _ यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि।।१५४। तदाह रुद्रं कुपिता यदा दारुवने स्थितः तदा त ॠषयः क्रुद्धाः शापं दास्यंति वै हर।।१५५।। भोभोः कापालिक क्षुद्र स्त्रीरस्माकं जिहीर्षसि तदेतद्दर्पितं तेद्य भूमौ लिगं पतिष्यति।।१५६।। (पद्म पुराण सृष्टि खण्ड 1/17/156) घोरचारा क्रियासक्ता दारिद्र्यच्छेद कारिणी। यादवेन्द्र- कुलोद्भूता तुरीय- पदगामिनी ।।६।। गायत्री गोमती गङ्गा गौतमी गरुडासना। गेयगानप्रिया गौरी गोविन्द पदपूजिता।७।। सन्दर्भ:- (श्रीगायत्री अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्- )
★-वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को इस सहस्र नाम स्त्रोतों में कहीं
गोपी तो कहीं
अभीरू आभीर कन्या तथा कहीं यादवी भी कहा है ।
★- यद्यपि पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय (१६) तथा नान्दी पुराण और स्कन्द पुराण के नागर खण्ड में माता गायत्री को आभीर कन्या और गोप कन्या भी कहा है। क्यों कि गोप " आभीर का ही पर्याय है और ये ही यादव थे ।
यह तथ्य स्वयं पद्मपुराण में वर्णित है ।
और सावित्री विष्णु को यादव गोप कुल में गायत्री माता के भाई के रूप अवतरित होने का शाप देती हैं । पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के १५-१६-१७-१८ अध्यायों में विष्णु के आभीर कन्या गायत्री के ब्रह्मा के साथ विवाह में सहायक होने से गायत्री सभी देवों तथा विष्णु को गायत्री के यादव कुल में आभीर रूप में अवतरण होने का शाप देती हैं । इसी बात का समर्थन स्कन्दपुराण के नागर खण्ड तथा नान्दीपुराण में है ।
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प्राचीन काल में जब एक बार पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए सावित्री को बुलाने के लिए इन्द्र को उनके पास भेजते हैं ; तो वे उस समय ग्रह कार्य में संलग्न होने के कारण तत्काल नहीं आ सकती थी परन्तु उन्होंने इन्द्र से कुछ देर बाद आने के लिए कह दिया -
परन्तु यज्ञ का मुहूर्त न निकल जाए इस कारण से ब्रह्मा जी ने इन्द्र को पृथ्वी लोक से ही यज्ञ हेतु सहचारिणी के होने के लिए किसी अन्या- कन्या को ही लाने के लिए कहा !
तब इन्द्र ने गायत्री नाम की आभीर कन्या को संसार में सबसे सुन्दर और विलक्षण पाकर ब्रह्मा जी की सहचारिणी के रूप में उपस्थित किया !
यज्ञ सम्पन्न होने के कुछ समय पश्चात जब ब्रह्मा जी की पूर्व पत्नी सावित्री यज्ञ स्थल पर उपस्थित हुईं तो उन्होंने ने ब्रह्मा जी के साथ गायत्री माता को पत्नी रूप में देखा तो सभी ऋभु नामक देवों विष्णु और शिव नीची दृष्टि डाले हुए हो गये परन्तु वह सावित्री समस्त देवताओं की इस कार्य में करतूत जानकर
उनके प्रति क्रुद्ध होकर इस यज्ञ कार्य के सहयोगी समस्त देवताओं, शिव और विष्णु को शाप देने लगी और आभीर कन्या गायत्री को अपशब्दों में कहा कि तू गोप, आभीर कन्या होकर किस प्रकार मेरी सपत्नी बन गयी
तभी अचानक इन्द्र और समस्त देवताओं को सावित्री ने शाप दिया इन्द्र को शाप देकर सावित्री विष्णु को शाप देते हुए बोली तुमने इस पशुपालक गोप- आभीरों की कन्या को मेरी सौत बनाकर अच्छा नहीं किया तुम भी गोपों के घर में यादव कुल में जन्म ग्रहण करके जीवन में पशुओं के पीछे भागते रहो और तुम्हारी पत्नी लक्ष्मी का तुमसे दीर्घ कालीन वियोग हो जाय । ।
सन्दर्भ : पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १५-१६-१७-१८- _ _ __
विष्णु के यादवों के वंश में गोप बन कर आना तथा गायत्री को ही दुर्गा सहस्र नाम में गायत्री और वेद माता तथा यदुवंश समुद्भवा कहा जाना और फिर गायत्री सहस्रनाम मैं गायत्री को यादवी, माधवी और गोपी कहा जाना यादवों के आभीर और गोप होने का प्रबल शास्त्रीय और पौराणिक सन्दर्भ है ।
यादव' गोप ही थे जैसा कि अन्य पुराणों में स्वयं वसुदेव और कृष्ण को गोप कहा गया है _ _ _ _ _ _ _ _
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय सौलह के श्लोकों में देखें
एवमुक्तस्तदा शक्रो गत्वा सर्वं धरातलं। स्त्रियो दृष्टाश्च यास्तेन सर्वाः परपरिग्रहाः।१३१ ।।
आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।। न चास्ति तादृशी कन्या यादृशी सा वरांगना ददर्श तां सुचार्वंगीं श्रियं देवीमिवापराम् ।१३३।। संक्षिपन्तीं मनोवृत्ति विभवं रूपसम्पदा यद्यत्तु वस्तुसौंदर्याद्विशिष्टं लभ्यते क्वचित् ।१३४।। तत्तच्छरीरसंलग्नं तन्वंग्या ददृशे वरम् तां दृष्ट्वा चिंतयामास यद्येषा कन्यका भवेत्।१३५। ।
_ _ _ _ _ _ _ अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक (नरेन्द्र सैन) आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी ।।
इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।
उस के शरीर सौन्दर्य से चकित इन्द्र ने देखा कि यही कन्या ब्रह्मा जी की यज्ञ सहचारिणी होनी चाहिए ।
और आगे इसी अध्याय में श्लोक संख्या १५६ व १५८ पर गायत्री को गोप कन्या कहा है ।
👇
"गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम्।।१५६।। गोप कन्या ने कहा वीर मैं यहाँ गोरस बेचने के लिए उपस्थित हूँ यह नवनीत है यह शुद्ध दुग्ध मण्ड से रहित है ।१५६।।निम्न श्लोक में वर्णन है कि विशाल नेत्र वाली गौर वर्ण महान तेज वाली गोप कन्या गायत्री है ।
आनीतासि विशालाक्षि मा शुचो वरवर्णिनि गोपकन्यामसौ दृष्ट्वा गौरवर्णां महाद्युतिम् ।१६५ ।
निम्न श्लोक में भी देखें ।
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।। उस गोप कन्या को देख कर जो गौर वर्ण और महान तेज वाली थी वह गोप कन्या अपने पिता की आज्ञा के पराधीन होने से भी चिन्तित थी जब तक वह गोप कन्याअपने पिता से आज्ञा नही लेती है किसी की सहचारिणी नहीं बन सकती है।
-
तब ब्रह्मा ने हरि ( इन्द्र) को कहा की यज्ञ के लिए शीघ्र कहो ।।१८४।
तब इन्द्र नरेन्द्र सेन अहीर के पास उनकी पुत्री को ब्रह्मा के लिए माँगने जाता है।
गायत्री जिसे गूजर , जाट और अहीर तीनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं।
गूजर और अहीर दोनों ही गोप हैं यदुवंश से भी उत्पन्न हैं परन्तु आज गूजर एक संघ ही है जिसमें अनेक जातियों का समावेश है ।
गोपों के विषय में जैसा की संस्कृत- साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या 368 पर वर्णित है।👇
अस्त्र हस्ता: च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे । प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते । ।
मत्संहनन तुल्यानां गोपानामर्बुदं महत्।नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन:।18।। (महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7) अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम- अथवा पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः का समानार्थक: जैसे १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप ८ - गौश्चर: १०- घोष:( वैदिक रूप गोष:)
(2।9।57।2।5)(अमरकोशः)
हरिवंश पुराण में यदुवंश के विषय में यदु को अपनी पुत्रीयाँ को पत्नी रूप में देने वाले नागराज
धूम्रवर्ण 'ने भविष्य वाणी करते हुए कहा कि यदु तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇 "
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।६५। (हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय ) जैसे १-कुक्कुर, २-भोज, ३-अन्धक, ४-यादव ,५-दाशार्ह ,६-भैम और ७-वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।
अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे क्या यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
क्योंकि ये भी यदु के वंश में जन्में थे ।
फिर ये अलग से
यादव कुल कहाँ से यहाँ आ गया । सरे आम बकवास है ये तो प्रक्षेप ! आगे
हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि इन
नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये । माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
_ _ _ _ _ _
परन्तु
भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के अध्याय तेईस के श्लोक संख्या -(१९) से (३१) तक यदु के पुत्रों का वर्णन भिन्न नामों से और संख्या में भी भिन्न है । जिसमें यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित थे ; और क्रमशः उसके बाद क्रोष्टा, नल और रिपु थे
सहस्रजित केे पुुुुुत्र शतजित थे जिनके तीन पुत्र महाहय, वेणुहय और हैहय हुए ।
दुष्यन्त: स पुनर्भेजे स्वंवंशं राज्यकामुक: ।ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८ ॥ वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् । यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते ॥ १९ ॥ यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: । यदो: सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता:। २०। चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: । महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ॥ २१ ॥ धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्र: कुन्ते: पिता तत: । सोहञ्जिरभवत् कुन्तेर्महिष्मान् भद्रसेनक: ॥ २२ ॥ _ _ _ _ _ _ _ _
" ( नन्द के परिवारी जन) जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती- थीं। अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
नन्द के अन्य नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।
१- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।
-३-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।
नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।
नन्द छोटे भाई — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।
:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।
यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल ना से थे। (एक मत से मौसा का दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
_ _ _ _ _ कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। परन्तु कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।
-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणीजी के पुत्र) -ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
नित्य-सखा — " श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(१) सुहृद्, (२) सखा, (३) प्रियसखा, (४) प्रिय नर्मसखा। (१) सुहृद्वर्ग के सखा —सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सखा —सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं।
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे।
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(३)प्रियसखावर्ग के सखा —इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
इन सबमें मुख्य हैं —
श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं। इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
,दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहनापित।
कृष्ण का धनुष भी रहता है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘
शिंजिनी ’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है।
" वंशी — इनकी वंशी का नाम ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है। वेणु — छः रन्ध्रोंवाले इनके सुन्दर वेणु का नाम ‘मदन-झंकार’ है। मुरली — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरलिका का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में ( धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था । वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
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राग — गौड़ी तथा गुर्जरी राग आभीर भैरव नामकी राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।
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" देवमीढ की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तान- तथा "राधा जी का कुल एवं परिवार) पिता- वृषभानु ।
माता — कीर्तिदा पितामह )— महिभानु गोप (आभीर) "पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है। । पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु फूफा — काश। बुआ — भानुमुद्रा। भ्राता — श्रीदामा। कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी। मातामह — इन्दु। मातामही — मुखरा। मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति। मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी। मौसा — कुश। मौसी — कीर्तिमती। धात्री — धातकी। सखियाँ — श्रीराधाजी की पाँच प्रकार की सखियाँ हैं — (१) सखी, (२) नित्यसखी, (३) प्राणसखी, (४) प्रियसखी, (५) परम प्रेष्ठसखी । _ ___
(१)
सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(२)
नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
३)
प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(४)
प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(५)
परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ – इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं।
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं।
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
कुल-उपास्यदेव — भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं। वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है। रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
सन्दर्भ-ग्रन्थ
(महाभागा-व्रज की देवीयाँ) लेखक- सन्तराधाबाबा एवं श्रीकृष्णगणोेश्य दीपिका।।
_ _ _ _ _ _ "राधा परिवार परिचय प्रकरण समाप्त " गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109). वसुदेव और नन्द ज्ञाति (जाति) बन्धु थे। ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है; जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है। भ्रातृपुत्रस्य पुनर्ज्ञातय: स्मृता । गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्य: परम बान्धव:।१५८। अर्थ •-
भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है। अमरकोशः
ज्ञाति पुल्लिंग।
सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3 समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥
(
भागवत पुराण दशम स्कन्ध ४५वाँ अध्याय में वर्णन भी है ।) यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्। ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्।२३।
" देवमीढ की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तानों का विवरण- " वनमाली दास कृत " भक्तमालिका "नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है । " ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधारित हैं। 👇शास्त्रों के मर्मज्ञ इतर विद्वानों ने जिसका भाष्य किया और हमने उनको संस्कृत रूप दिया है " "
देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवुर्महामता:।अश्मिकासतप्रभाश्चगुणवत्यो राज्ञ्योरूपाभि:।१। "अर्थ- -
देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१। "अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२। अर्थ :-
अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२। "गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्य:यशस्विना।३। अर्थ :-
गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३। "
पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।। ये गोपालनं कर्तृभ्यः लोके गोपा उच्यन्ते ।४। अर्थ :-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।
"
गौपालनैर्गोपा: निर्भीकेभ्यश्च आभीरा। यादवालोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्चब्रुवन्ति।५। अर्थ •-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही संसार में गोप और आभीर कहलाते हैं ।५।
"
आ समन्तात् भियं राति ददाति शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा:सन्ति।६। अर्थ •-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६।
"अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीर:बभूव।७। अर्थ :-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर हुआ उससे "आवीर और आवीर से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।
"ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति । भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत । अर्थ :-:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"
अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८। (हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
"
तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:। चत्वारोजज्ञिरेपुत्र लोकपालोपमा: शुभा:।४९" अर्थ :-
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-
सतप्रभा ,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थी ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे।जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के
"
वसु वभ्रु:सुषेणश्च ,सभाक्षश्चैव वीर्यमान् । यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।५० । अर्थ:- सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए
" शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए । 👇-💐☘ और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे । "
देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२। नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: । तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
अर्थ:- भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ
इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था । उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
सन्दर्भ-:- वनमाली दास कृत " भक्तमालिका "नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है । अब देखें "
देवीभागवत " पुराण के
चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं।
परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है। स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
_ _ श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०। में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः। करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥ अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् । प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥ अर्थ •अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के वारे में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा । लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥ अर्थ •-प्राचीन समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
Yadav Yogesh Kumar Rohi:
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः । निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५। शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्। वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६। अर्थ • (उसके पिता का नाम मधु था ) वह वरदान पाकर पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७। सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे । मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥ अर्थ •उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८। शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥ ५९ ॥
_ _ _ _ _ _ _
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा।६०॥ _ __ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः । उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।
अर्थ -•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। अर्थ -•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०। अर्थ •और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ -•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२। अर्थ -•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना । विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥६३॥ अर्थ -•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः । अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥ अर्थ -•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है । क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ?
आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।
परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो
ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया !
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे
परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता आर्य शब्द परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें
यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले
बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे; इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥
अर्थ •- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
"अध्याय- नवम"★ " वैष्णव वर्ण की उत्पति और उसकी ब्रह्मा के चारों वर्णों से पृथकता तथा अत्रि ऋषि का शिव के अग्नि स्वरूप से उत्पन्न होने के पौराणिक साक्ष्य- 📚: ब्रह्मवैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) में
वैष्णव वर्ण का उल्लेख है। जिसका विवरण निम्नलिखित श्लोक में है।
ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने वैष्णव संज्ञा से नामित है।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३। अनुवाद:- ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
(ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय (११) श्लोक संख्या ४३-) विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अनुवाद:- विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में( ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी - दुर्गा गायत्री आदि का वाचक ।
_ _ _ ____
"उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति अथवा वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है। तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते। ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।९। एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः। तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव।१०। अनुवाद:- ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का
संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से
वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण
गोप है।
अहीरों का वर्ण ब्रह्मा के चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है। शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।
इसी बात सी पुष्टि अन्यत्र भी पद्मपुराण के उत्तर खण्ड अध्याय (68) में होती है। महेश्वर उवाच- शृणु नारद वक्ष्यामि
वैष्णवानां च लक्षणम्
यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।
तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम् ।२।
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव
वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।३।
अनुवाद:- वैष्णव का लक्षण और महात्म्य - महेश्वर ने कहा : 1-9. हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं ।१।
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न विष्णु का ही है। इस लिए वह वैष्णव कहलाता है ;
सभी वर्णों मे वैष्णव को श्रेष्ठ कहा जाता है।३। * * * * *
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः।
क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज।४।
तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत्।
हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थितामति:।५।
शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः।
तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः।६।
तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुधः।
धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते।७।
वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः।
उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः।८।
तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते। ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।९। एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः। तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।१०। अनुवाद:- जिनका आहार (भोजन )( दूध ,दधि, मट्ठा, और घृत आदि से युक्त होने से) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५।
जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
सन्दर्भ:- (पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८) "विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।
"उपर्युक्त श्लोकों में
गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।।
"विशेष:-वैष्णव= विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।
अर्थ -वैष्णव= विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं।
उपर्युक्त श्लोकों में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है । क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।हिंदू धर्म में अत्रि एक प्रसिद्ध भाट और विद्वान थे। और नौ- प्रजापतियों में से एक थे, और ब्रह्मा के पुत्र थे, उन्हें कुछ ब्राह्मण, प्रजापति, क्षत्रिय और वैश्य समुदायों का पूर्वज कहा जाता है, जिन्होंने अत्रि को अपने गोत्र के रूप में अपनाया था। अत्रि सातवें अर्थात् वर्तमान मन्वंतर में सप्तऋषि (सात महान ऋषीयों में से ) हैं। ब्रह्मर्षि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल (अध्याय) के द्रष्टा हैं। ईरानी धर्म ग्रन्थ- अवेस्ता में "अतर" अग्नि का वाचक है
अत्रि शब्द का प्रयोग शिव के विशेषण के रूप में भी किया गया है। सन्दर्भ:-(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय (17), श्लोक 38)। अत्रि अग्नि की लपटों से वारुणी
यज्ञ में जन्मे एक ऋषि हैं। उसकी दस सुंदर और पवित्र पत्नियाँ थीं, सभी भद्राश्व और घृतची की बेटियाँ थीं।
उनके दस पुत्र आत्रेय के नाम से जाने जाते थे,।
अत्रि वंश में अनेक पावकों का जन्म हुआ था । (महाभारत, वन पर्व, अध्याय 222, श्लोक 27-29)। पर देखें अत: चन्द्रमा के अत्रि से उत्पन्न होने का प्रकरण प्रक्षेप है।
चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं । 📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है। नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें "तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥ (ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत । मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥ ( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:- विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥ ( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19) अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद - आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
_ _ अब एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि चातुर्यवर्ण व्यवस्था विराट पुरुष से उत्पन्न है। अथवा उस विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से उत्पन्न है। समाधान :- वास्तव में चातुर्य-वर्ण की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई है। जिसमें ब्रह्मा की प्रथम और प्रमुख सन्तान
ब्राह्मण हैं। इस बात स
पुष्टि भी अनेक ग्रन्थों में होती है।
पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:- भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
सन्दर्भ:- (श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--) ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् - ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः- (इति भरतः नाट्यशास्त्र) ॥ (ब्रह्मन् + अण् “ ब्राह्मोऽजातौ । “६ । ४ । १७१ । इति नटिलोपः । )
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग ब्रह्मन् शब्द से सन्तान के अर्थ में (अण्) प्रत्यय लगने पर बनता है। जबकि नपुसंसक लिंग
ब्रह्मन् से ब्राह्मणम्,शब्द बनता है। (ब्रह्मन् + अण् न टिलोपः।) ब्रह्म- संघातः । वेदभागः । इति मेदिनी ।
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग ब्रह्मन् शब्द से सन्तान के अर्थ में (अण्) प्रत्यय लगने पर बनता है। "ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् ।
ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः । इति भरतः ॥ (ब्रह्मन् + अण् “ब्राह्मोऽजातौ ।” ६।४ ।१७१। इति नटिलोपः । तत्पर्य्यायः । द्विजातिः २ अग्रजन्मा ३ भूदेवः ४ बाडवः ५ विप्रः ६ । इत्यमरः ॥ २ । ७ । ४ ॥ द्बिजः ७ सूत्र- कण्ठः ८ ज्येष्ठवर्णः ९ अग्रजातकः १० द्विजन्मा ११ वक्त्रजः १२ मैत्रः १३ वेदवासः १४ नयः १५ गुरुः १६ । इति शब्दरत्नाबली ॥
"आ
ब्राह्मण ब्राह्मणों
ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे
राजन्यः सुरऽईषव्योऽतिव्याधि
महारथो जायतां दोग्धरी धेनुर्वोदऽनद्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णु रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योग क्षेमो नः कल्पताम् ॥
(--यजुर्वेद 22, मन्त्र 22:-)
अर्थ :- हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न हों । हमारे राष्ट्र में शूर, बाणवेधन में कुशल, महारथी क्षत्रिय उत्पन्न हों । यजमान की गायें दूध देने वाली हों, बैल भार ढोने में सक्षम हों, घोड़े शीघ्रगामी हों । स्त्रियाँ सुशील और सर्वगुण सम्पन्न हों । रथवाले, जयशील, पराक्रमी और यजमान पुत्रवान् हों । हमारे राष्ट्र में आवश्यकतानुसार समय-समय पर मेघ वर्षा करें । फ़सलें और औषधियाँ फल-फूल से युक्त होकर परिपक्वता प्राप्त करें । और हमारा योगक्षेम उत्तम रीति से होता रहे ।
व्याख्या :- यहाँ ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी एवं राजाओं के लिए शूरत्व आदि की प्रार्थना आयी है यदि वेदों में वर्णव्यवस्था कथित गुण कर्मानुरूप होती तो ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी की प्रार्थना उसमें नहीं होती तब वेद में
ब्रह्मवर्चस युक्त को ही नाम
ब्राह्मण होता एव ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी प्रार्थना एवं आशिर्वाद ही व्यर्थ होता।
यह प्रार्थना ही यहाँ जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्धि करती है, पद्म पुराण के निम्नांकित श्लोक से भी सिद्ध होता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं। "ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः ।१३०।
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्मा चकार ह।
चातुर्वर्ण्यं महाराज यज्ञसाधनमुत्तमम् ।१३१।
(
पद्मपुराणम् |
खण्डः १ (सृष्टिखण्डम् अध्याय ३) पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।
महाराज ! ये चारों वर्ण यज्ञ के उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान की सिद्धि के लिये ही इन सबकी सृष्टि की।
अन्यत्र विष्णु पुराण में भी " समुद्भूता मुखतो ब्रह्मणो द्विजः ॥३३-। श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंशो! पञ्चमोऽध्यायः (5) ब्राह्मण= ब्राह्मोऽजातौ (ब्रह्मन्+ अण्) (अष्टाध्यायी- ६।४।१७१- इस पाणिनि सूत्र से अपत्य एवं जाति में ब्राह्मण शब्द होता है अब अर्थ हुआ कि हे ब्रह्मन् ! ब्राह्मण ब्रह्मवर्चसी होवें अथवा ब्रह्मन्–ब्राह्मण में (सप्तम्या लुक्) ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न होवें।
विशेष— ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म के मुख से कही गई है।
यह पूर्णत: प्रक्षेप है। क्यों ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं। परम् ब्रह्म की सन्तान नहीं है। दूसरी बात वर्ण व्यवस्था की यह है कि ब्राह्मण शब्द ब्रह्म+ अण्= ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं जबकि क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र ये किसकी सन्तान हैं। वास्तव में ये बाद के तीन नाम केवल अभिधामूलक हैं। सम्भवत: पहले ब्रह्मा का एक ही वर्ण था ब्राह्मण परन्तु उसके वही अन्य वृत्ति मूलक रूप क्रमशः क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र हैं। वैदिक काल में शूद्र थे नहीं ऋग्वेद में केवल एक बार शूद्र शब्द आया है ऋग्वेद 10/90/12 पर उद्धृत है। कृष्ण ने स्वयं को गोप और क्षत्रिय रूपों में प्रस्तुत किया।
दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे । उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का
क्षरण या क्षति करके पीडित का
त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया।
_ _ _ _ ____
"
ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद । एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।3/80/ 9 । •–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ । उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
_ ___
'क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः । यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः। 3/80/10 । •-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । इस लिए
क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
'लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा । कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।। 3/80/11।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ। इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान पर कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ। _ _
"
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा । गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।।४१। _ _ _ _ _ __
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का
रक्षक( गोप्ता) और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ । हरिवशं पुराण भविष्यपर्व के सौंवें अध्याय का यह इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
गोप शब्द की वीरता मूलक व्युत्पत्ति का प्रतिपादन करता है।
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है
जो वीरता से रहित है वह क्षत्रिय नहीं हो सकता है भले ही उसका जन्म किसी क्षत्रिय पुरुष से हुआ हो । इसमें ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण होन की वाध्यता नहीं है। हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें
गोपाल या
गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी
यादव कह कर ! देखें उस सन्दर्भ को
कृष्ण गोपों को क्षत्रियोचित रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
परन्तु रूढ़ि वादी पुरोहित गोपों के गोपालन और कृषि करने वाले होने से वैश्य वर्ण में समायोजित करते है। "
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्"। अब यदि कृष्ण ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के समर्थक होते तो उनके गोपालक गोप कभी भी नारायणी सेना के
यौद्धा नहीं होते क्योंकि गोप गोपालन और कृषि कार्य ही मुख्य रूप से करते हैं ।
परन्तु गोप व्यापार नहीं करते यह व्यापार कार्य तो बनिया( वणिक) लोगों का ही व्यवसाय है। अब कृष्ण स्वयं को क्षत्रिय भी कह रहे हैं और गोप भी कह रहे हैं। ब्राह्मण प्रधान वर्णव्यवस्था में तो यह गोपों का युद्ध सम्बन्धित विधान सम्भव नहीं है।
गोप ब्राह्मण वर्णव्यवस्था से पृथक वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं। जिसमें गोपालन ही श्रेष्ठ वृत्ति है। परन्तु गोप पशुपालन, युद्ध ईश्वरीय ज्ञानार्जन और कृषि कार्य भी करते हैं। गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही उत्पन्न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है। चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है। नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं। ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी (12) वीं ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है। "
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥ "नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा- १३-१४
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।
जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा
गोपीथ - हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से
इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की
ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु
पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है।
पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है। "
ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः । पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥ अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को
गायें देकर वन को चला गया।४२। श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
_ _ _ वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं। चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः ।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से, यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
स्वयं पुरुरवा शब्द का अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रुशब्दे '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सू. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते
सुकृते । ‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पा. सू. ३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् ।
पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।
अनुवाद:- प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है।
जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने ही वैष्णव है।।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव विष्णू पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
___________________
"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद :-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के प्रथम चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं।
अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद :-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना
अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
गायत्री के मातापिता गोविल और गेविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चातुर्यवर्ण, सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
गायत्री की उत्पत्ति भी गोपों में हुयी है।
गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि शब्द गोपालन वृत्ति को सूचित करते हैं। -
________________
गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय- (3) इस अध्याय में विष्णु के सभी अवतारों का विलय भगवान श्री कृष्ण में अपनी शक्ति के अनुरूप शरीर के विशेष
स्थानों में होता है।
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीराम का पूर्णतम परमेश्वर श्रीकृष्ण में विलय होना- परमेश्वर के अवतार भेद- तथा वैष्णव वर्ण -
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे।
वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
_________________________________
तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः। धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥६॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे । असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥७॥
श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे आगमनोद्योगवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अनुवाद:-
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था।
उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे। उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था। उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये।
तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे।
उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे।
उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
गर्गसंहिता/खण्डः(१) (गोलोकखण्डः)
अध्यायः (१)
"गर्गसंहिता-खण्डः १-(गोलोकखण्डः)अध्यायः २ →
गर्गमुनिः श्रीकृष्ण-माहात्म्य वर्णन-
"श्रीबहुलाश्व उवाच -
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ।१५।
"श्रीनारद उवाच -
"अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते ।
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम्।१६।
अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः।१७।
पूर्णो नृसिंहो रामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम्
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते ।१९।
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः ।
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः।२०।
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः ।
नानाऽऽवेषावतारांश्च विद्धि राजन्महामते॥२१॥
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥२२॥
चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४॥
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह।२६।
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
______________
'श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥२८॥
"श्रीबहुलाश्व उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते।२९॥
तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने।३०।
यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
तदा सत्सङ्गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः॥ ३१॥
श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः।
यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥३२ ॥
धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥ ३३ ॥
त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥ ३४
गर्गसंहिता/खण्डः (१) (गोलोकखण्डः) अध्यायः (१)
"गर्गसंहिता | खण्डः १ (गोलोकखण्डः)
गर्गसंहिता
गोलोकखण्डः
गर्गमुनिः अध्यायः २ →
श्रीकृष्ण-माहात्म्य वर्णनम्
ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥१॥
शरद्विकचपङ्कजश्रियमतीवविद्वेषकं
मिलिन्दमुनिसेवितं कुलिशकंजचिह्नावृतम्
स्फुरत्कनकनूपुरं दलितभक्ततापत्रयं
चलद्द्युतिपदद्वयं हृदि दधामि राधापतेः॥२॥
वदनकमलनिर्यद्यस्य पीयूषमाद्यं
पिबति जनवरो यं पातु सोऽयं गिरं मे ।
बदरवनविहारः सत्यवत्याः कुमारः
प्रणतदुरितहारः शाङ्र्गधन्वावतारः ॥ ३ ॥
कदाचिन्नैमिषारण्ये श्रीगर्गो ज्ञानिनां वरः ।
आययौ शौनकं द्रष्टुं तेजस्वी योगभास्करः॥४॥
तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय शौनको मुनिभिः सह ।
पूजयामास पाद्याद्यैरुपचारैर्विधानतः ॥५॥
श्रीशौनक उवाच -
सतां पर्यटनं धन्यं गृहिणां शान्तये स्मृतम् ।
नृणामन्तस्तमोहारी साधुरेव न भास्करः ॥६॥
तस्मान्मे हृदि सम्भूतं संदेहं नाशय प्रभो।
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ॥७॥
श्रीगर्ग उवाच -
साधु पृष्टं त्वया ब्रह्मन् भगवद्गुणवर्णनम् ।
शृण्वतां गदतां यद्वै पृच्छतां वितनोति शम्॥८॥
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण महादोषः प्रशाम्यति ॥९ ॥
मिथिलानगरे पूर्वं बहुलाश्वः प्रतापवान् ।
श्रीकृष्णभक्तः शान्तात्मा बभूव निरहङ्कृतिः॥१०।
अम्बरादागतं दृष्ट्वा नारदं मुनिसत्तमम् ।
सम्पूज्य चासने स्थाप्य कृताञ्जलिरभाषत॥११।।
श्री-बहुलाश्व उवाच -
योऽनादिरात्मा पुरुषो भगवान्प्रकृतेः परः ।
कस्मात्तनुं समाधत्ते तन्मे ब्रूहि महामते ॥१२ ॥
श्रीनारद उवाच -
गोसाधुदेवताविप्रदेवानां रक्षणाय वै ।
तनुं धत्ते हरिः साक्षाद्भगवानात्मलीलया॥ १३॥
यथा नटः स्वलीलायां मोहितो न परस्तथा ।
अन्ये दृष्ट्वा च तन्मायां मुमुहुस्ते न संशयः।१४।।
श्रीबहुलाश्व उवाच -
कतिधा श्रीहरेर्विष्णोरवतारो भवत्यलम् ।
साधूनां रक्षणार्थं हि कृपया वद मां प्रभो ॥१५॥
श्रीनारद उवाच -
अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ १६।
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अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
पूर्णो नृसिंहो बलरामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम्
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते।१९।
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥ २० ॥
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः।
नानाऽऽवेशावतारांश्च विद्धि राजन्महामते।२१।
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥२२।
चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते॥२३॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४।
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ २६।
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८।
श्रीबहुलाश्व उवाच -
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो केन हेतुना ।
आगतो भारते खण्डे द्वारवत्यां विराजते ॥२९।
तस्य गोलोकनाथस्य गोलोकं धाम सुन्दरम् ।
कर्माण्यपरिमेयानि ब्रूहि ब्रह्मन् बृहन्मुने ॥३०।
यदा तीर्थाटनं कुर्वञ्छतजन्मतपःपरम् ।
तदा सत्सङ्गमेत्याशु श्रीकृष्णं प्राप्नुयान्नरः॥३१॥
श्रीकृष्णदासस्य च दासदासः
कदा भवेयं मनसाऽऽर्द्रचित्तः।
यो दुर्लभो देववरैः परात्मा
स मे कथं गोचर आदिदेवः ॥ ३२॥
धन्यस्त्वं राजशार्दूल श्रीकृष्णेष्टो हरिप्रियः ।
तुभ्यं च दर्शनं दातुं भक्तेशोऽत्रागमिष्यति ॥ ३३ ॥
त्वं नृपं श्रुतदेवं च द्विजदेवो जनार्दनः ।
स्मरत्यलं द्वारकायामहो भाग्यं सतामिह ॥३४॥
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे कृष्णमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
अनुवाद :-
अथ- श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे कृष्णमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
श्रीजनक( बहुलाश्व) बोले- महामते ! जो भगवान अनादि, प्रकृति से परे और सबके अंतर्यामी ही नहीं, आत्मा हैं, वे शरीर कैसे धारण करते हैं? (जो सर्वत्र व्यापक है, वह शरीर से परिच्छिन्न कैसे हो सकता है? ) यह मुझे बताने की कृपा करें।
नारदजी ने कहा- गौ, साधु, देवता, ब्राह्मण और वेदों की रक्षा के लिये साक्षात भगवान श्रीहरि अपनी लीला से शरीर धारण करते हैं। [अपनी अचिंत्य लीलाशक्ति से ही वे देहधारी होकर भी व्यापक बने रहते हैं। उनका वह शरीर प्राकृत नहीं, चिन्मय है।]
जैसे नट अपनी माया से मोहित नहीं होता और दूसरे लोग मोह में पड़ जाते हैं, वैसे ही अन्य प्राणी भगवान की माया देखकर मोहित हो जाते हैं, किंतु परमात्मा मोह से परे रहते हैं- इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है।
श्रीजनकजी ने पूछा- मुनिवर ! संतों की रक्षा के लिये भगवान विष्णु के कितने प्रकार के अवतार होते हैं ? यह मुझे बताने की कृपा करें। श्रीनारदजी बोले- राजन !
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व्यास आदि मुनियों ने १-अंशांश, २-अंश, ३-आवेश, ४-कला, ५-पूर्ण और ६-परिपूर्णतम- ये छ: प्रकार के अवतार बताये हैं।
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इनमें से छठा परिपूर्णतम अवतार साक्षात श्रीकृष्ण ही हैं।
मरीचि आदि “अंशांशावतार”( अंश के अंश अवतरित-) , ब्रह्मा आदि ‘अंशावतार’, कपिल एवं कूर्म प्रभृति ‘कलावतार’ और परशुराम आदि ‘आवेशावतार’ कहे गये हैं।
नृसिंह, बलराम, श्वेतद्वीपाधिपति हरि, वैकुण्ठ, यज्ञ और नर नारायण- ये सात ‘पूर्णावतार’ हैं।
एवं साक्षात भगवान भगवान श्रीकृष्ण ही एक ‘परिपूर्णतम’ अवतार हैं।
अंसख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति वे प्रभु गोलोकधाम में विराजते हैं।
जो भगवान के दिये सृष्टि आदि कार्यमात्र के अधिकार का पालन करते हैं, वे ब्रह्मा आदि ‘सत’ (सत्स्वरूप भगवान) के अंश हैं। रजोगुण के प्रतिनिधि हैं।
जो उन अंशों के कार्यभार में हाथ बटाते हैं, वे ‘अंशांशावतार’ के नाम से विख्यात हैं।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
यह अवतार उसी प्रकार का हैं जैसे किसी व्यक्ति पर कुछ समय तक कोई भूत या प्रेत प्रवेश कर उसको उत्तेजित या उन्मादी बना देता है। यह स्थाई नहीं होता है। परशुराम पर भी इसी प्रकार उन्माद आवेश आता था
आवेश:- वेग - आतुरता - जोश- दौरा-।
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श्रीनारद उवाच -
अंशांशोंऽशस्तथावेशः कलापूर्णः प्रकथ्यते
व्यासाद्यैश्च स्मृतः षष्ठः परिपूर्णतमः स्वयम् ॥ १६।
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अंशांशस्तु मरीच्यादिरंशा ब्रह्मादयस्तथा ।
कलाः कपिलकूर्माद्या आवेशा भार्गवादयः ॥१७॥
पूर्णो नृसिंहो बलरामश्च श्वेतद्वीपाधिपो हरिः ।
वैकुण्ठोऽपि तथा यज्ञो नरनारायणः स्मृतः।१८।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो भगवान् स्वयम्
असंख्यब्रह्माण्डपतिर्गोलोके धाम्नि राजते।१९।
कार्याधिकारं कुर्वन्तः सदंशास्ते प्रकिर्तिताः
तत्कार्यभारं कुर्वन्तस्तेंऽशांशा विदिताः प्रभोः ॥ २० ॥
येषामन्तर्गतो विष्णुः कार्यं कृत्वा विनिर्गतः।
नानाऽऽवेशावतारांश्च विद्धि राजन्महामते ।२१।
धर्मं विज्ञाय कृत्वा यः पुनरन्तरधीयत ।
युगे युगे वर्तमानः सोऽवतारः कला हरेः ॥ २२।
चतुर्व्यूहो भवेद्यत्र दृश्यन्ते च रसा नव ।
अतः परं च वीर्याणि स तु पूर्णः प्रकथ्यते ॥ २३ ॥
यस्मिन्सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि ।
तं वदन्ति परे साक्षात्परिपूर्णतमं स्वयम् ॥२४ ॥
पूर्णस्य लक्षणं यत्र तं पश्यन्ति पृथक् पृथक् ।
भावेनापि जनाः सोऽयं परिपूर्णतमः स्वयम् ।२५।
परिपूर्णतमः साक्षाच्छ्रीकृष्णो नान्य एव हि ।
एककार्यार्थमागत्य कोटिकार्यं चकार ह ॥ २६।
पूर्णः पुराणः पुरुषोत्तमोत्तमः
परात्परो यः पुरुषः परेश्वरः ।
स्वयं सदाऽऽनन्दमयं कृपाकरं
गुणाकरं तं शरणं व्रजाम्यहम् ॥ २७ ॥
श्रीगर्ग उवाच -
तच्छ्रुत्वा हर्षितो राजा रोमाञ्ची प्रेमविह्वलः ।
प्रमृश्य नेत्रेऽश्रुपूर्णे नारदं वाक्यमब्रवीत् ॥ २८ ॥
गोलोक खण्ड : अध्याय 1
जो प्रत्येक युग में प्रकट हो, युगधर्म को जानकर, उसकी स्थापना करके, पुन: अंतर्धान हो जाते हैं, भगवान के उन अवतारों को ‘कलावतार ’ कहा गया है।
जहाँ चार व्यूह प्रकट हों- जैसे श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न एवं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध, तथा जहाँ नौ रसों की अभिव्यक्ति देखी जाती हो एवं जहाँ बल-पराक्रम की भी पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हो, भगवान के उस अवतार को ‘पूर्णावतार’ कहा गया है।
_______________________
जिसके अपने तेज में अन्य सम्पूर्ण तेज विलीन हो जाते हैं, भगवान के उस अवतार को श्रेष्ठ विद्वान पुरुष साक्षात ‘परिपूर्णम’ बताते हैं। जिस अवतार में पूर्ण का पूर्ण लक्षण दृष्टिगोचर होता है और मनुष्य जिसे पृथक-पृथक भाव के अनुसार अपने परम प्रिय रूप में देखते हैं, वही यह साक्षात ‘परिपूर्णतम’ अवतार है।
[इन सभी लक्षणों से सम्पन्न] स्वयं परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण ही हैं,।
दूसरा नहीं; क्योंकि श्रीकृष्ण ने एक कार्य के उद्देश्य से अवतार लेकर अन्यान्य करोड़ों कार्यों का सम्पादन किया है।
जो पूर्ण, पुराण पुरुषोत्तमोत्तम एवं परात्पर पुरुष परमेश्वर हैं, उन साक्षात सदानन्दमय, कृपानिधि, गुणों के आकार भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की मैं शरण लेता हूँ।
यह सुनकर राजा हर्ष से भर गये।
______________________
उनके शरीर में रोमांच हो आया। वे प्रेम से विह्वल हो गये और अश्रुपूर्ण नेत्रों को पोंछकर नारदजी से यों बोले। राजा बहुलाश्व ने पूछा- महर्षे ! साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सर्वव्यापी चिन्मय गोलोकधाम से उतरकर जो भारत वर्ष के अंतर्गत द्वारकापुरी में विराज रहे हैं-
इसका क्या कारण है ? ब्रह्मन ! उन भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर बृहत (विशाल या ब्रह्म स्वरूप) गोलोकधाम का वर्णन कीजिये। महामुने ! साथ ही उनके अपरिमेय कार्यों को भी कहने की कृपा कीजिये। मनुष्य जब तीर्थ यात्रा तथा सौ जन्मों तक उत्तम तपस्या करके उसके फलस्वरूप सत्संग का सुअवसर पाता है, तब वह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को शीघ्र प्राप्त कर लेता है। कब मैं भक्ति रस से आर्द्रचित्त हो मन से भगवान श्रीकृष्ण के दास का भी दासानुदास होऊँगा ? जो सम्पूर्ण देवताओं के लिये भी दुर्लभ हैं, वे परब्रह्म परमात्मा आदिदेव भगवान श्रीकृष्ण मेरे नेत्रों के समक्ष कैसे होंगे?
श्रीनारद जी बोले- नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के अभीष्ट जन हो और उन श्रीहरि के परम प्रिय भक्त हो। तुम्हें दर्शन देने के लिये ही वे भक्त वत्सल भगवान यहाँ अवश्य पधारेंगे। ब्रह्मण्यदेव भगवान जनार्दन द्वारका में रहते हुए भी तुम्हें और ब्राह्मण श्रुतदेव को याद करते रहते हैं। अहो ! इस लोक में संतों का कैसा सौभाग्य है
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अन्तदर्गत नारद- बहुलाश्व् संवाद में ‘श्रीकृष्णम माहातमय का वर्णन’ नामक पहला अध्याय पूरा हुआ।
गर्ग संहिता-गोलोक खण्ड : अध्याय 3 भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
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"तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः।६।"दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे असंख्यवानरेन्द्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने।७।'लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः।श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह ।८।
विदित होना चाहिए कि राम और कृष्ण की किसी प्रकार भी समानता नहीं है।कृष्ण समुद्र हैं तो राम बूँद हैं।
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फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नि दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
कृष्ण 16 कलाओं से से भी अधिक परिपूर्णत्तम परमेश्वर स्वरूप में हैं। राम बूँद हैं तो कृष्ण समुद्र है।
गोलोक खण्ड : अध्याय -3
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी (बहुलाश्व) ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये। उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।
उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था।
उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे। वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
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आवेश अवतार स्थाई नहीं होता है जिस प्रकार किसी पर देवी आ जाती और फिर तान्त्रिक के झाड़ -फूँक करने पर चली जाती है उसी प्रकार परशुराम पर भी ईश्वर की आवेशीय ऊर्जा आती है और फिर चली जाती है।।
सावित्री धर्मराज के प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्री को वरदान देने के प्रसंग में एक प्राचीन पौराणिक आख्यान है। जिसमें विभिन्न देवी और देवों के पूजन और आराधना- साधना का फल तथा उनके महिमा मण्डित रूप का तुलनात्मक मूल्यांकन किया गया है।
"अनुवाद:- {सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाकवर्णनम्}
"श्रीनारायण उवाचसावित्रीवचनं श्रुत्वा जगाम विस्मयं यमः । प्रहस्य वक्तुमारेभे कर्मपाकं तु जीविनाम् ॥१।
"अनुवाद:- श्रीनारायण बोले [हे नारद!] सावित्री की बात सुनकर यमराज आश्चर्यमें पड़ गये और हँसकर उन्होंने प्राणियों के कर्मफलके विषयमें बताना आरम्भ किया ॥1॥
"धर्म उवाच कन्या द्वादशवर्षीया वत्से त्वं वयसाधुना। ज्ञानं ते पूर्वविदुषां ज्ञानिनां योगिनां परम् ॥२॥
"अनुवाद:- धर्म बोले- हे वत्से ! इस समय तुम्हारी अवस्था तो मात्र बारह वर्षकी है, किंतु तुम्हारा ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, ज्ञानियों और योगियोंसे भी बढ़कर है॥2॥
*सेवन्ते द्विभुजं कृष्णं परमात्मानमीश्वरम् । गोलोकं प्रति ते भक्ता दिव्यरूपविधारिणः ॥२७ ॥
"अनुवाद:- हे साध्वी ! उन निष्काम जनों को पुनः इस लोक में नहीं आना पड़ता जो द्विभुज परमात्मा श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं और अन्त में वे भक्त दिव्यरूप धारणकर गोलोक को ही प्राप्त होते हैं ॥27 ॥
सकामिनो वैष्णवाश्च गत्वा वैकुण्ठमेव च । भारतं पुनरायान्ति तेषां जन्म द्विजातिषु ॥२८॥
"अनुवाद:- सकाम वैष्णव वैकुण्ठधाम में जाकर समयानुसार पुनः भारतवर्ष में लौट आते हैं और यहाँ पर द्विजातियों ( ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य) के कुलमें उनका जन्म होता है।२८।
काले गते च निष्कामा भवन्त्येव क्रमेण च । भक्तिं च निर्मलां तेभ्यो दास्यामि निश्चितं पुनः॥ २९ ॥
"अनुवाद:- वे सभी कुछ समय बीतने पर क्रमशः निष्काम भक्त बन जाते हैं और मैं उन्हें अपनी निर्मल भक्ति प्रदान कर देता हूँ; यह सर्वथा निश्चित है। २९।
*ब्राह्मणा वैष्णवाश्चैव सकामाः सर्वजन्मसु । न तेषां निर्मला बुद्धिर्विष्णुभक्तिविवर्जिताः॥३०॥
"अनुवाद:- जो सकाम ब्राह्मण तथा वैष्णवजन हैं, अनेक जन्मों में भी विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण उनकी बुद्धि निर्मल नहीं हो पाती ॥30 ॥
विशेष- शास्त्रों में ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तानों का चातुर्यवर्ण में से प्रथम वर्ण है। और वैष्णव विष्णु की सन्तान गोपों का वर्ण है।
*मूलप्रकृतिभक्ता ये निष्कामा धर्मचारिणः। मणिद्वीपं प्रयान्त्येव पुनरावृत्तिवर्जितम् ॥३४॥
"अनुवाद:-
जो धर्मपरायण तथा निष्काम मानव मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की भक्ति करते हैं, वे मणिद्वीप में जाते हैं और फिर वहाँ से लौटकर नहीं आते ॥ 34 ॥
*स याति विष्णुलोकं च श्वेतद्वीपं मनोहरम् । तत्रैव निवसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥४९॥
"अनुवाद:-
जो मनुष्य ब्राह्मणोंको भूमि तथा प्रचुर धन प्रदान करता है, वह भगवान् विष्णुके श्वेतद्वीप नामक मनोहर लोक में पहुँच जाता है और वहाँ पर चन्द्र सूर्यकी स्थितिपर्यन्त निवास करता है।४९।
*अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । देवतीर्थसहायेन कायव्यूहेन शुध्यति। एतत्ते कथितं किञ्चित् किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥ ७०॥
(देवीभागवतपुराण)
कृतकर्मक्षयो नास्ति कल्पकोटिशतैरपि । अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥३९॥
शिवपुराण-8/23/39
शिवपुराण में कर्म- फल के विषय में एक प्राचीन प्रसंग है
एक बार-देवर्षि नारद जी ने श्री सनकजी से कहाः " भगवन् ! मेरे मन में एक संदेह पैदा हो गया है। आपने कहा है कि जो लोग पुण्यकर्म करते हैं, उन्हें कोटि सहस्र कल्पों तक उनका महान भोग प्राप्त होता रहता है। दूसरी ओर यह भी आपने बताया है कि प्राकृत प्रलय में सम्पूर्ण लोकों का नाश हो जाता है और एकमात्र भगवान स्वराट् विष्णु ही शेष रह जाते हैं। अतः मुझे यह संशय हुआ है कि क्या प्रलयकाल तक जीव के पुण्य और पापभोग की समाप्ति नहीं होती ? आप इस संदेह का निवारण कीजिये "
श्रीसनक जी बोलेः " महाप्राज्ञ ! भगवान स्वराट-विष्णु अविनाशी, अनंत, परम प्रकाशस्वरूप और सनातन पुरुष हैं। वे विशुद्ध, निर्गुण, नित्य और माया-मोह से रहित हैं। परमानंदस्वरूप श्रीहरि निर्गुण होते हुए भी सगुण से प्रतीत होते हैं।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि रूपों में व्यक्त होकर वे ही भेदभाव से दिखायी देते हैं। वे ही माया के संयोग से सम्पूर्ण जगत का कार्य करते हैं।
ये ही श्री हरि ब्रह्माजी के रूप से सृष्टि तथा विष्णुरूप से जगत का पालन करते हैं और अंत में भगवान रूद्र के रूप से ही सबको अपना ग्रास बनाते हैं। यह निश्चित सत्य है। प्रलय काल व्यतीत होने पर भगवान जनार्दन ने शेषशय्या से उठकर ब्रह्माजी के रूप से सम्पूर्ण चराचर विश्व की पूर्वकल्पों में जो-जो स्थावर-जंगम जीव जहाँ-जहाँ स्थित थे, नूतन कल्प में ब्रह्माजी उस सम्पूर्ण जगत की पूर्ववत् सृष्टि कर देते हैं।
अतः साधुशिरोमणे ! किये हुए पापों और पुण्यों का अक्षय फल अवश्य भोगना पड़ता है (प्रलय हो जाने पर जीव के जिन कर्मों का फल शेष रह जाता है, दूसरे कल्प में नयी सृष्टि होने पर वह जीव पुनः अपने पुरातन कर्मों का भोग भोगता है।)
कोई भी कर्म सौ करोड़ कल्पों में भी बिना भोगे नष्ट नहीं होता। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। "
"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। (नारद पुराणः पूर्व भागः 31/69-70)
अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्मणां ह्यक्षयं फलम् । नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।३१-६९। अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। यो देवः सर्वलोकानामंतरात्मा जगन्मयः। सर्वकर्मफलं भुक्ते परिपूर्णः सनातनः।३१-७०। योऽसौ विश्वंभरो देवो गुणमेदव्यवस्थितः। सूजत्यवति चात्त्येतत्सर्वं सर्वभुगव्यय:।३१-७१।इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे प्रथमपादे यमदूतकृत्यनिरुपणं नामैकत्रिंशोऽध्यायः।
(राम और कृष्ण की भक्ति का भिन्न भिन्न फल-)
श्रीरामनवमीं यो हि करोति भारते पुमान् । सप्तमन्वन्तरं यावन्मोदते विष्णुमन्दिरे॥७६॥
पुनः सुयोनिं सम्प्राप्य रामभक्तिं लभेद्ध्रुवम् । जितेन्द्रियाणां प्रवरो महांश्च धनवान्भवेत् ॥७७॥
(कृष्ण की भक्ति का फल-)
कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम् । गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधया सह । भारते पूजयेद्भक्त्या चोपचाराणि षोडश।८६।
गोलोके वसते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः। भारतं पुनरागत्य कृष्णे भक्तिं लभेद्दृढाम्।८७।
क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो । देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।८८।
ततः कृष्णस्य सारूप्यं पार्षदप्रवरो भवेत् । पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत् ।८९।
शुक्लां वाप्यथवा कृष्णां करोत्येकादशीं च यः । वैकुण्ठे मोदते सोऽपि यावद्वै ब्रह्मणो वयः।९०।
भारते पुनरागत्य कृष्णभक्तिं लभेद्ध्रुवम् । क्रमेण भक्तिं सुदृढां करोत्येकां हरेरहो ।९१।
देहं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः । ततः कृष्णस्य सारूप्यं सम्प्राप्य पार्षदो भवेत्।९२।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत् ।अनुवाद:-
जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ों गोपों (अहीरों) तथा गोपियों(अहीराणीयों) को साथ लेकर रासमण्डल - सम्बन्धी उत्सव मनाकर शिलापर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पूजनोपचारों से भक्तिपूर्वक राधासहित श्रीकृष्णकी पूजा सम्पन्न करता है, वह ब्रह्माजी के स्थितिपर्यन्त गोलोक में निवास करता है। पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्रीकृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है।
भगवान् श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मन्त्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहाँ श्रीकृष्णके समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है।
पुनः वहाँ से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्युसे सर्वथा रहित हो जाता है । 85-89 ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे सावित्र्युपाख्याने कर्मविपाकवर्णनं नामैकोनत्रिशोऽध्यायः ॥२९॥
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कृष्ण 16 कलाओं से से भी अधिक परिपूर्णत्तम परमेश्वर स्वरूप में हैं। राम बूँद हैं तो कृष्ण समुद्र है।
गोलोक खण्ड : अध्याय -3
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में श्रीविष्णु आदि का प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान की स्तुति; भगवान का अवतार लेने का निश्चय; श्रीराधा की चिंता और भगवान का उन्हें सांत्वना-प्रदान
श्री जनकजी (बहुलाश्व) ने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का दर्शन प्राप्त कर सम्पूर्ण देवताओं ने आगे क्या किया, मुझे यह बताने की कृपा करें।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठधिपति भगवान श्रीहरि उठे और साक्षात भगवान श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में लीन हो गये।
उसी समय कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्ण स्वरूप भगवान नृसिंहजी पधारे और भगवान श्रीकृष्ण तेज में वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओं से सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट पुरुष, जिनके शुभ्र रथ में सफेद रंग के लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथ पर आरूढ़ होकर वहाँ आये।
उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं।
वे अनेक प्रकार के अपने आयुधों से सम्पन्न थे। पार्षदगण चारों ओर से उनकी सेवा में उपस्थित थे। वे भगवान भी उसी समय श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में सहसा प्रविष्ट हो गये।
फिर वे पूर्णस्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथ में धनुष और बाण थे तथा साथ में श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था।
उस पर निरंतर चँवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे।
उस रथ के एक लाख चक्कों से मेघों की गर्जना के समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी।
उस पर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथ में लाख घोड़े जुते हुए थे।
वह रथ सुवर्णमय था।
उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्र के दिव्य विग्रह में लीन हो गये।
फिर उसी समय साक्षात यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकाल की जाज्वल्यमान अग्निशिखा के समान उद्भासित हो रहे थे। देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणा के साथ ज्योतिर्मय रथ पर बैठे दिखायी देते थे।
वे भी उस समय श्याम विग्रह भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में लीन हो गये। तत्पश्चात् साक्षात भगवान नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीर की कांति मेघ के समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनि के वेष में थे। उनके सिर का जटा-जूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियों के समान दीप्तिमान था।
परम बुद्धिमान नरेश ! भगवान विष्णु स्वयं जिनके अंत:करण में आविष्ट हो, अभीष्ट कार्य का सम्पादन करके फिर अलग हो जाते हैं, राजन ! ऐसे नानाविध अवतारों को ‘आवेशावतार’ समझो।
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आवेश अवतार स्थाई नहीं होता है जिस प्रकार किसी पर देवी आ जाती और फिर तान्त्रिक के झाड़ -फूँक करने पर चली जाती है उसी प्रकार परशुराम पर भी ईश्वर की आवेशीय ऊर्जा आती है और फिर चली जाती है।।
सन्दर्भ:- गोलोक खण्ड : अध्याय -3
सम्पूर्ण {
आध्यात्मिक-खण्ड} संशोधित-पाठ - (आध्यात्मिक खण्ड)- "अध्याय - प्रथम"- "
कठोपनिषद्- में वाजश्रवा पुत्र- ऋषिकुमार नचिकेता और यमदेव के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में आत्मा की स्थित का कथामयी वर्णन प्राप्त होता है।
बालक नचिकेता की आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे लौकिक उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य के सम्बन्ध का स्पष्टीकरण करते हैं।
सम्बन्धित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध जीवन के लिए दो वचनसारगर्भित हैं।
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च । सन्दर्भ:-(कठोपनिषद्,अध्याय-१,वल्ली ३,श्लोक- ३) अनुवाद:- इस जीवात्मा को तुम रथी, (रथ में सबार ) समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी- (रथ हांकने वाला ) और मन को लगाम समझो । (लगाम – इंद्रियों पर नियंत्रण के लिए होता है। अगले श्लोक में उल्लेख है।)
"इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। सन्दर्भ:- (कठोपनिषद्,अध्याय १,वल्ली ३,श्लोक ४)
अनुवाद:- मनीषियों, (मननशील पुरुषों), ने इन्द्रियों को इस शरीर रूपी-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इन्द्रिय-विषय ही विचरण के मार्ग हैं, इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिन्तन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रवृति का रहा है। ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी अवश्य रहा ही होगा।
परन्तु उसकी परिवर्तनशीलता व नश्वरता ने उनका मोह अवश्य खण्डित किया होगा।
तत्पश्चात उनका प्रयास रहा होगा कि वे उसके मिथ्या आकर्षण पर विजय पायें । और सत्य की खोज करें।
उनकी आध्यात्मिक साधना इसी प्रयास का रूपान्तरण है।
"रथ में सबार यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है।
अब यह. प्रेरणा शारीरिक क्रिया तो है नहीं आत्मा रथी के रूप में रथ के चालक को मात्र प्रेरणा ही देता है।
वास्तव में "रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है। रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित करता है।
और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि को रथ हाँकने वाला सारथि जान लें ।
और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या कहें लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। और बुद्धि मन को नियन्त्रण करता है । और मन इन्द्रियों को-
विद्वान कहते
हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं । और विषय ही मार्ग में आया हुआ उनका भोजन ( ग्रास) आदि है। वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है । जब उसमे अहं का भाव हो जाय तब यह भोक्ता भाव से युक्त होता है।
स्वत्व आत्मबोध या रूपान्तरण है। परन्तु अहंकार इसके विपरीत आत्मा के अबोध कि रूपान्तरण है।
अहंकार की भूमि पर संकल्प का बीज इच्छाओं की वल्लरी (वेल) बनता है। जिसपर कर्म रूपी फल लगा हुआ है।
बिना इच्छाओं के कर्म उबले हुए बीज की तरह अंकुरित ही नहीं हो सकता है।
संसार रूपी बारी में इच्छाओं सी वही वेल चलती फूलती हैं।
इन सबके मूल में माया रूपी अज्ञानता से जनित प्रतीति है। द्वन्द्व संसार की आत्मा है। संसार शब्द की व्युत्पत्ति "संसरत्यस्मादिति- संसार । सं + सृ गतौ +घञ् । जो सम्यक् रूप से सरति(गच्छति) गमन करता है। "
आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् । ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम्।१४। भागवतपुराण-१/१/१४आपन्नः – उलझा हुआ;
संसृतिम् - जन्म और मृत्यु रूपी चक्र में ;
घोरम् - बहुत जटिल;
यत् - जो;
नाम - नाम;
विवशः - असमर्थ;
गृणान् - स्तुतियों को
ततः -उससे;
सद्यः - तुरन्त;
विमुच्येत - मुक्ति मिले ;
यत् - जो;
बिभेति - डरता है ;
स्वयंम् – व्यक्तिगत रूप से;
भयम् - भय ही।
अनुवाद:- जो जीवित प्राणी जन्म और मृत्यु के जटिल चक्र में फंसे हुए हैं, वे अनजाने में भी कृष्ण के पवित्र नाम का जाप करके तुरंत मुक्त हो सकते हैं, जिससे भय भी भयभीत होता है। संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये अध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है।
क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं। दु:ख सुख आत्मा का विषय है ही नहीं।व्यक्ति के मूर्च्छित होने पर दु:ख सुख की प्रतीति( अनुभव) नहीं होता है। जीव जन्म-मरण के चक्र में वही अनादि काल से घूम रहा है। दु:ख सुख मन के स्तर पर ही विद्यमान हैं ये परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है। यही आत्मा की एक अवस्था व सहज अनुभूति है। ___ सत् - चित् और आनन्द = सच्चिदानन्द ईश्वरीय अस्तित्व का बोधक है। और यह मूल आत्मा परमात्मा का ही एक इकाई अथवा अंश रूप है। आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)- तथा आनन्द ) से युक्त है इसी लिए मनीषियों ने परमात्मा को सच्चिदानन्द कहा है। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे अवश्य मिलता है । यही क्रम संसार का अनादि काल से चलता-रहता है।और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है । यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में निरन्तर पीसता रहता है । _________ ____ श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना ही पड़ेगा । क्यों संसार द्वन्द्व रूप है । भगवान कृष्ण ने अपनी विभूतियों के सन्दर्भ में कहा भी है-
" अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।10.33। 👇 "श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 10 - श्लोक 33 अनुवाद :- मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।। अर्थात् ये मेरी विभूतियाँ हैं । ये तो सभी भाषाविद् जानते ही हैं कि "भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ" स्वर सबका आधार है। "अ" स्वर का ही उदात्त (ऊर्ध्वगामी) रूप "उ" तथा अनुदात्त (अधोगामी) "इ" रूप है। और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए। "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । इन दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-(एकरूपता) श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान विद्यमान है । "ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण के रूप मे गुम्फित है। और "अ" आत्मा के रूप में । "अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। हिब्रू तथा फोंनेशियन आदि सैमेटिक भाषाओं में "अकार का रूपान्तरण "अलेफ" वर्ण है । श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण वचन " अक्षराणामकारोऽस्मि के पश्चात कहा -
द्वन्द्वः सामासिकस्य च -
मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात् द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । स्त्री-पुरुष द्वन्द्व हैं । शीत- और उष्ण(गर्मी) द्वन्द्व हैं। संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं।
समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है?
जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का दौनों में किसी एक का ही होता है।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है ।
अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा(शरीर) दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता ? -जैसे माया और ईश्वर ।
परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं
जैसे कलहंस के लिए नीर और क्षीर- ये विवेक ( सत्य असत्य को अलग करने का ज्ञान) बुद्धि पर ईश्वरीय प्रकाश है। विवेक निर्णीत ज्ञान है। वेद लौकिक ज्ञान के उद्भासक हैं। वेद अध्यात्म की उस गहराई का कभी प्रतिपादन नहीं करते है। जिसका विवेचन भगवान कृष्ण स्वयं श्रीमद्भगवद्गीता में करते हैं। "त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्य सत्वस्थो निर्योग क्षेम आत्मावान् ( 2-45) यावानर्थ उदपाने सर्वत: सम्प्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत:(2-46) ---- श्रीमद्भगवद्गीता -,अध्याय २- का (45-46) हे अर्जुुन सारे वेद सत्, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं। अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों से परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर मनुष्य का छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता है ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित
तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ! "श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। अनुवाद :-
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) में स्पष्ट वर्णन है। जब वेदों के सुनने से तेरी बुद्धि विचलित हो गयी है। परन्तु जब ये समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदों का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ;
क्योंकि वेद आध्यात्मिक पथ को प्रशस्त नहीं करते अपितु व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं की प्राप्ति के उपायों का वर्णन या प्रतिपादन ही करते हैं। और कृष्ण का दर्शन कामनाओं के समूल त्याग की दीक्षा ( उपदेश) देता है।
"जब व्यक्ति में सत्य का निर्णय करने व उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है। तब ही वह भौतिक जगत की ओर आकर्षित होकर भागता है। "अध्याय - द्वितीय-" "संसार की सृष्टि का उपक्रम और ईश्वरीय अवधारणा - ब्रह्म वैवर्त पुराण वैष्णव
पुराण में
श्रीकृष्ण को ही प्रमुख इष्ट मानकर उन्हें सृष्टि का कारण बताता है। 'ब्रह्मवैवर्त' शब्द का अर्थ ही है- ब्रह्म का विवर्त (परिवर्तन- नृत्य) अथवा विलास- क्रीड़ा या खेल है।
उत्तरमीमांसा (वेदान्त दर्शन)का सबसे विशेष दार्शनिक सिद्धान्त यह है कि जड़ जगत का
उपादान(सामग्री) और निमित्त कारण चेतन
ब्रह्म ही है।
"
ठीक उसी प्रकार जैसे मकड़ी अपने भीतर से उत्पन्न लार से ही जाल बुनकर तानती है, वैसे ही परम-ब्रह्म भी इस जगत् को अपनी ही शक्ति द्वारा उत्पन्न करता है। यही नहीं, वही इसका पालक है और वही इसका संहार भी करता है। जीव और ब्रह्म का तादात्म्य( एकरूपता) है और इसी लिए अनेक प्रकार के साधनों और उपासनाओं द्वारा वह ब्रह्म के साथ तादात्म्य का अनुभव करके जगत् के कर्म-जाल से और बारम्बार के जन्म और मरण से मुक्त हो जाता है। तब मुक्तावस्था में परम आनन्द का अनुभव करता है।
संसार की सृष्टि का मूल
स्वत्व है और उसका अहंकार से उत्पन्न रूप संकल्प है। यही संकल्प प्रवाहित होकर इच्छा का रूप धारण करता है।
ये इच्छाओं की आपूर्ति का मूर्त प्रयास ही कर्म है। ये सम्पूर्ण संसार कर्म से निर्मित हुआ है। यदि व्यक्ति कर्म से हीन हो जाए यदि उसकी इच्छाओं का शमन हो जाए तो संसार उसके लिए निस्सार हो जाता है।
"स्वप्न की सृष्टि( उत्पत्ति) भी प्राय: मन की इच्छाओं के दमित( दबे हुए) परिणाम का रूपान्तरण है। इस लिए स्वप्न के विश्लेषण से सृष्टि उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाया जा सकता है। परन्तु स्वप्न विश्लेषण व्यक्तिगत अनुभव है। लौकिक उपमा मकड़ी की ही सुबोध्य है।
जिसका प्रस्तुतिकरण हम पुन: करते हैं।
"भूतयोन्यक्षरमित्युक्तम्। तत्कथं भूतयोनित्वमित्युच्यते प्रसिद्धदृष्टान्तैः -
(1.1.7)
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरुषात्केशलोमानितथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्।।1.1.7।
1.1.7।
यथा लोके प्रसिद्धम् - ऊर्णनाभिर्लूताकीटः किञ्चित्कारणान्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्वशरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिप्रसारयति पुनस्तानेव गृह्यते च गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति। यथा च पृथिव्यामोषधयो व्रीह्यादिस्थावरान्ता इत्यर्थः। स्वात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति। यथा च सतो विद्यमानाञ्जीवतः पुरुषात्केशलोमानि केशाश्च लोमानि च सम्भवन्ति विलक्षणानि।
यथैते दृष्टानातास्तथा विलक्षणं सलक्षणं च निमित्तान्तन्तरानपेक्षाद्यथोक्तलक्षणादक्षरात्सम्भवति समुत्पद्यत इह संसारमण्डले विश्वं समस्तं जगत्। अनेकदृष्टान्तोपादानं तु सुखार्थप्रबोधनार्थम्।1.1.7।
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ऊर्णनाभः, पुल्लिंग- (ऊर्णेव तन्तुर्नाभौ यस्य-ऊन के समान तन्तु जिसकी नाभि में हैं वह ऊर्णनाभ है। अनुवाद:- अक्षर ब्रह्म( नाद- ब्रह्म) का विश्व कारणत्व पूर्व में इस प्रकार कहा जा चुका है। कि अक्षर ब्रह्म भूतों (प्राणियों) की योनि (जन्मस्थान) है। उसका वह भूत योनित्व किस प्रकार है। वह प्रसिद्ध दृष्टान्त द्वारा बतलाया जाता है। जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और फिर निगल जाती है। जैसे पृथ्वी में औषधीयाँ उत्पन्न होती हैं। जैसे सजीव पुरुषों से जड़ केश तथा लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है। जिस प्रकार संसार में प्रसिद्ध है। कि ऊर्णनाभि (मकड़ी) किसी अन्य उपकरण की अपेक्षा ( इच्छा) न कर स्वयं ही अपने शरीर से अभिन्न तन्तुओं (धागों) को रचती अर्थात उन्हें बाहर फैलाती है। और फिर आवश्यकता समाप्त होने पर उसे ग्रहीत( घरी) भी कर लेती है। यानि अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । जैसे पृथ्वी में व्रीहि (धान) यव ( जौ)इत्यादि अन्न से लेकर वृक्ष पर्यन्त ( तक ) सम्पूर्ण औषधीयाँ उससे अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं। सत् (चेतनसत्ता) युक्त पुरुष से भिन्न विलक्षण केश तथा रोम ( लोम) उत्पन्न होते हैं। जैसा कि यह दृष्टान्त है उसी प्रकार इस संसार मण्डल में इससे विभिन्न और समान लक्षणों वाला यह विश्व-( समस्त जगत्) किसी अन्य निमित्त की अपेक्षा न करने वाले उस उपर्युक्त लक्षण विशिष्ट अक्षर से ही उत्पन्न होता है। ये अनेक दृष्टान्त केवल विषय को सरलता से समझने के लिए ही दिए गये हैं।७। द्वितीयः खण्डः समाप्तमिदं तृतीयकं मुण्डकम् __ _ मुण्डको पनिषद् की कथा का विवरण इस लेख में प्रस्तुत किया गया है । प्रश्नोपनिषद् के समान, मुण्डकोपनिषद् में भी कथा का अंश बहुत कम है, और सम्भवतः यह भी, कथा न होकर, किसी ऐतिहासिक घटना का वर्णन है ।
मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेद की शौनकी शाखा से है इसमें परम-ब्रह्म और उसको प्राप्त करने के मार्ग का सुन्दर उपदेश है । भारत सरकार द्वारा गर्वान्वित उपदेश
’सत्यमेव जयते’ भी इसी उपनिषद् से संग्रहीत है ।
इसी प्रकार इसके अन्य श्लोकांश भी सुविख्यात दार्शनिकता से पूर्ण हैं ।
इसके कुछ श्लोक कठोपनिषद् में भी पाए जाते हैं यह उपनिषद् तीन अध्यायों में बटा है, जिन्हें मुण्डक कहा जाता है । प्रत्येक मुण्डक में दो-दो खण्ड है, जिनमें कुल ६४ श्लोक हैं ।
अति-स्पष्ट होने से, परातपर ब्रह्म के ज्ञान हेतु यह उपनिषद् अवश्य ही पढ़ना चाहिए । उपनिषद् बताता है कि देवों की जो प्रथम सृष्टि हुई, उनमें भी सबसे ज्ञानी ब्रह्मा हुए, जो सबके कर्ता और लोकों के रक्षक हुए (सम्भवतः, उन्होंने मनुष्य-जाति को आगे बढ़ाने में योगदान दिया और धर्म के प्रवचन से सब प्राणियों की रक्षा के निमित्त हुए – यह इसका अर्थ है ।
" इस ’ब्रह्मा’ को परमात्मा-वाची ’ब्रह्म’ कभी नहीं समझना चाहिए – क्योंकि नपुंसकलिंग ’ब्रह्म’ शब्द परमात्मा के लिए प्रयुक्त होता है, और प्रायः पुंल्लिङ्ग शब्द ’ब्रह्मा’ देव-/मनुष्य-वाची होता है ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को ब्रह्मविद्या दी ।
अथर्वा ने
अंगिरा ऋषि को इस विद्या का पात्र बनाया ।
"ब्रह्मन्- बृंहति बर्द्धते निरतिशयमहत्त्व- लक्षणबृद्धिमान् भवतीत्यर्थः । बृहिबृद्धौ + बृंहे- र्नोऽच्च । “ उणादि सूत्र- ४ । १४५ । + मनिन् नकार- स्याकारः । रत्वञ्च । ) जो परमेश्वर निरन्तर वृद्धि कर रहा है। जिसका कहीं और कभी अन्त ही नहीं हो रहा है। ______ ___'
मुण्डकोपनिषद, 1.1.7 "यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति। यथा सः पुरुषात् केशलोमनि तथाऽक्षरात् संभवतिः विश्वमृ ॥ "
यथा - - जैसे । ऊर्णाभिः - - ऊन से । सृजते - - रचना करता है । गृह्णते च - - और संग्रह करता है( समेटता है) । यथा पृथिवीम् --जैसा कि पृथ्वी को ओषधयः - जड़ी-बूटियाँ ।सम्भवन्ति - उत्पन्न होती हैं। यथा सतः पुरूषात् - - जैसे कि एक सत पुरुष से से ।केशलोमानि - सिर और शरीर के बाल हैं - तथा इह - वैसे ही यह अक्षरात् - अक्षर से अपरिवर्तनीय | विश्वम् सम्भवति - - संसार का जन्म होता है |
श्लोक 1.1.7
जैसे मकड़ी अपने लार से उत्पन्न जाल को बनाती और अपने में पुन: निगल लेती है, जैसे औषधीय पौधे पृथ्वी से उगते हैं, जैसे जीवित व्यक्ति से निर्जीव आभासी बाल उगते हैं, वैसे ही यह
ब्रह्माण्ड परात्पर ब्रह्म से विकसित और अन्त में उसमें ही विलय हो जाता है।
 "यह सृष्टि ब्रह्म का वैवर्त है (ब्रह्म -वैवर्त- पुराण -पुरुष और प्रकृति के परिणामों की कथानक मूलक प्रस्तुति करने वाला प्रथम और प्राचीन पुराण है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। अन्य अठारह पुराणों में इसकी गणना उसी रूप में नहीं की जा सकती है जैसे पद्मपुराण, मत्स्य पुराण, अथवा भागवत पुराण की की जाती है । पद्मपुराण कि सृष्टि खण्ड अन्य सभी पुराणों में प्राचीनतर है जिसकी तर्ज पर स्कन्द पुराण का लेखन भी किया गया - वेदान्त के मनीषीयों जैसे रामानुजाचार्य आदि का मत है कि सृष्टि का आधार सत्कार्यवाद का सिद्धान्त है। इसकी मान्यता है कि
कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व अपने कारण में विद्यमान रहता है। जैसे एक छोटे से पीपल के बीज में सम्पूर्ण विशाल पीपल के वृक्ष की पूर्ण सम्भावनाऐं समाविष्ट (समाई) हुई होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों के आने पर समय पर सम्पूर्ण पीपल काम विकास हो जाता है।
यह कारण और कार्य की एकता का अकाट्य सिद्धान्त है। यह सत्कार्यवाद के परिणामवादी रूप को मानता है। इसका सिद्धान्त
ब्रह्म-परिणामवाद कहलाता है जिसके अनुसार यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म का, उसके विशेषणांश का परिणाम है।
इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि रामानुज तत्त्वत्रय ईश्वर, चित्त( जीव) और अचित्त( प्रकृति) में विश्वास तो करते हैं। परन्तु अन्त में सबको एक ब्रह्म में तिरोहित ( समाविष्ट) कर देते हैं।
इनमें ईश्वर
विशेष्य है तथा चित् एवं अचित् उसके
विशेषण हैं।
ईश्वर
अंशी है और चिदचित् उसके
अंश हैं।
अंश कभी अंशी से पृथक ( अलग) नहीं हो सकता है।
ब्रह्म के विशेषणांश (चिदचित्) का ही यथार्थ रूपान्तरण यह चराचर जगत् है । अचित् ज्ञानशून्य (जड़) एवं परिणामी द्रव्य है। और चित् (आत्मा) अपरिवर्तित रूप है। यह अचित्- तीन प्रकार का है। ● शुद्ध सत्य या नित्य-विभूति
● मिश्र सत्त्व या प्रकृति एवं
● सत्त्वशून्य या काल शुद्ध
"सत्त्वं रजस्तमस्रहित एवं उदात्तीभूत प्रकृति है। यह वह
उपादान है जिससे आदर्श जगत् (वैकुण्ठ लोक) की वस्तुएं, ईश्वर तथा मुक्त जीवों के शरीर बनते हैं। सत्त्वशून्य जड़द्रव्य 'काल' है। यह भी परिणामी है।
वाराहमिहिर कृत ‘सूर्य सिद्धान्त’ में तारों, सूर्य, चन्द्रमा और अन्य ग्रहों की गति और गणितीय व्युत्पत्तियों के आधार पर समय के मापन की नौ पद्धतियों का विवेचन किया गया है।
तद्नुसार काल की नौ इकाईयाँ हैं।
१-ब्राह्म’, २‘दिव्य’, ३‘त्रिज्या ४-प्राजापत्य’, ५‘गौरव’, ६‘सौर’, ७‘सावन’, ‘८ चान्द्र’ और -‘आर्क्ष’। प्रथम छ: इकाइयों ‘ब्राह्म से सौर पर्यन्त’ का प्रयोग ब्रह्माण्ड के आविर्भाव से व्यतीत होने वाले समय को परिभाषित करने में किया गया है।
चान्द्रमान का उपयोग दैनिन्दिनदर्शिका (पंचांग) के निर्माण में होता है, जिससे विभिन्न संस्कारों तथा त्योहारों का निर्धारण किया जाता है।
सावन दिन (Solar day) और नाक्षत्र दिन (Sidereal day) का उपयोग ग्रहों की गति की गणना में किया जाता है।
सावन दिन:- पूरे एक दिन और एक रात का समय होता।
एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक के समय को सावन दिन कहा जाता है अर्थात् 60 दंड का समय ।
विशेष— इस प्रकार के ३० दिनों का एक सावन मास होता है और ऐसे बारह सावन मासों अर्थात् ३६० दिनों का एक सावन वर्ष होता है, मलमासतत्व के अनुसार — '
सौर संवत्सरे दिवस षट्काधिक ? सावनो भवति'। अर्थात् सौर और सावन वर्ष में लगभग ६ दिनों का अंतर होता है। "सवनं यागाङ्गं स्नानं सोमनिष्पीडनं वा तस्येदमण् सावनं - “अहोरात्रेण चैकेन सावनो दिवसः स्मृतः” ब्रह्मसिद्धान्तोक्ते (१) -अहोरात्रात्मके दिवसे, सवनत्रयस्य अहोरात्र- साध्यत्वादह्नस्तत्सम्बन्धित्वम्
______ आधुनिक भौतिक विज्ञान के इस युग में भी हमने समय की इन दो इकाइयों को महत्त्व दिया है।
‘
सावन दिन’ अपनी उपयोगिता के कारण दोनों पद्धतियों (वैशेषिक एवं भौतिकी) में समय के मापन का ठोस एवं उत्तम आधार तैयार करता है। प्राचीन भारतीय पद्धति में काल की इकाई का विभाजन और उपविभाजन अधोलिखित प्रकार से होता है-
60 विपल=1 पल 60 पल=1 घंटि (नाडी/दण्ड) 21/2 घंटि=1 होरा (hour) 24 होरा = 1 सावन दिन आधुनिक समय में हम काल (समय) का विभाजन तथा उपविभाजन निम्न प्रकार से करते हैं- ६० सैकेण्ड=१ मिनट ६० मिनट=१ घण्टा २४ घण्टा=१ दिन (सूर्य- दिवस)भारतीय ज्योतिष में ग्रह, के अर्थ में, जो भी पिण्ड अंतरिक्ष में नक्षत्रों के सापेक्ष हमें गति करते दिखते हैं वे ग्रह कहलाते हैं। ग्रह का शाब्दिक अर्थ प्लैनेट के रूप में व्यवहार ज्योतिष की दृष्टि से असंगत है।
काल (समय) की इकाई होरा (जो घण्टा के समतुल्य है) साप्ताहिक दिनों के नामों की व्यवस्था प्रदान करता है।
काल के विपरीत दिशा- आकाश से अभिन्न है और प्रकृतिजन्य है। मिश्रसत्त्व में सत्त्व, रजस् एवं तमस्, तीनों गुण रहते हैं। इसे प्रकृति या माया कहते हैं।
रामानुज प्रकृति को ही सृष्टि का मूलभूत कारण कहते हैं।
उल्लेखनीय है कि रामानुज की प्रकृति सांख्य दर्शन की प्रकृति से पूरी तरह भिन्न भी नहीं है। जैसे,
सत्व, रजस् एवं तमस् सांख्य की प्रकृति के निर्माणक घटक हैं एवं द्रव्य रूप हैं, जबकि ये रामानुज की प्रकृति के गुण या विशेषण हैं जिससे संसार निर्माण होता है।।
ये उससे अवियोजनीय होते हुए भी मित्र हैं। पुनः, सांख्य की प्रकृति स्वतन्त्र है जब द्वन्द्व के सापेक्ष हो तब, जबकि रामानुज की प्रकृति ब्रह्म पर आश्रित है।
रामानुज के दर्शन में बन्धन और मोक्ष -रामानुज के अनुसार ब्रह्म ही संसार का ( उपादान - (कार्य सामग्री) और निमित्त कारण दोनों है। ईश्वर के अंशभूत तत्त्व, जीव और प्रकृति, जगत् के
उपादान कारण हैं। ईश्वर के संकल्प से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। अतः ईश्वर सृष्टि का
निमित्त कारण भी है।
जब ईश्वर अपने संकल्प से जीवों को उनके अतीत कर्मों का फल दिलाने के लिए चित् और प्रकृति का प्रवर्तन करता है तब सृष्टि उत्पन्न होती है।
इसी को रामानुज ब्रह्म की लीला कहते हैं। इस प्रकार रामानुज का ब्रह्मपरिणामवाद लीलावाद है। " यह सृष्टि ब्रह्म की लीला है जिसे प्रकार मकड़ी के अन्दर से जाला निकलता है और आवश्यकता समाप्त होने पर वह मकड़ी उस जाले को स्वयं ही निगल लेती है। उसी प्रकार ब्रह्म के अन्दर से सृष्टि निकली है और अन्त में उसी में विलीन हो जाती है। ब्रह्म के रूप ब्रह्म के दो रूप हैं
● कारणावस्था और
● कार्यावस्था
" ब्रह्म की कार्यावस्था ही सृष्टि है जो कारणरूप ब्रह्म में बीज रूप में सदैव निहित होती है। यह सृष्टि ब्रह्म का ही यथार्थ रूपांतरण( वैवर्त) है। ईश्वर प्रलयकाल में कारण रूप में रहता है। यह ब्रह्माण्ड अव्यक्त रूप में उसमें निहित होता है। सृष्टि की स्थिति में अव्यक्त रूप ब्रह्माण्ड व्यक्त होता है।
इस अवधि में सूक्ष्म भूत स्थूल हो जाते हैं और जीव का धर्मभूत ज्ञान विस्तृत होकर अतीत कर्मों के अनुसार उसे भौतिक शरीरों से संयुक्त कर देता है। " इस प्रकार एकमात्र ईश्वर ही सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है। उपादान:-वह कारण जो स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाय । वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार हो उपादान है । जैसे, घड़े का उपादान कराण मिट्टी है । वैशेषिक में इसी को "समवायिकरण" कहते हैं । सांख्य के मत से उपादान और कार्य एक ही है । अर्थात् सृष्टि किसी बाह्य साधन की सहायता के बिना ही उससे स्वतः विकसित होती है। रामानुज के अनुसार यह परिणाम केवल ईश्वर के विशेषणांश में होता है,
ईश्वर स्वतः इससे अप्रभावित रहता है ।
इस प्रकार ब्रह्म इस परिवर्तनशील जगत् का अपरिवर्तनशील केन्द्र है। जैसे किसी चक्र की परिधि और धुरी या सम्बन्ध होता है। जगत् भी सत् है- "मुण्डकोपनिषद् की मान्यता है कि सत् कारण से उत्पन्न होने के कारण जगत् भी सत् है , संविशेष ब्रह्म की विभूति होने के कारण जगत् की सत्ता पारमार्थिक है। रामानुज शंकर के इस दृष्टिकोण को अस्वीकार करते हैं " कि जगत् केवल व्यावहारिक दृष्टि से सत् है और परमार्थतः( सिद्धान्तत:) असत् है । रामानुज की दृष्टि में शंकराचार्य का विचार श्रुति विरोधी है। उन्होंने इस बात का प्रतिपादन किया कि सृष्टि वास्तविक है। यह जगत् उतना ही सत्य है जितना ब्रह्म ।
श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णन है -
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।। अर्थ - जिस यज्ञ में अर्पण भी
ब्रह्म है, हवि भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्म रूप
अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है, जिस मनुष्य की ब्रह्म में ही कर्म समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।
छान्दोग्योपनिषद (तृतीय प्रपाठक चतुर्दश खण्ड हिंदी भावार्थ सहित) (चतुर्दशः खण्डः) सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत । अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत ॥३. १४. १॥ यह ब्रह्म ही सब कुछ है । यह समस्त संसार उत्पत्तिकाल में इसी परम्- ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, स्थिति काल में इसी से प्राण रूप अर्थात जीवित है और अनंतकाल में इसी में लीन हो जायेगा । ऐसा ही जान कर उपासक को शान्तचित्त और रागद्वेष रहित होकर परब्रह्म की सदा उपासना करे। जो मृत्यु के पूर्व जैसी उपासना करता है, वह जन्मान्तर में वैसा ही हो जाता है।
रामानुज नानात्व का निषेध करने वाले '
नेह नानास्ति किञ्चन्' तथा उनकी एकता को स्वीकार करने वाले '
सर्वं खल्विदं ब्रह्म', इत्यादि श्रुतिवाक्यों की व्याख्या करते हुए कहते हैं।
कि ये वाक्य विषयों की सत्ता को अस्वीकार नहीं करते हैं। वे केवल यह बताते हैं कि उनमें एक ही ब्रह्म निहित है। जिस प्रकार स्वर्ण के सभी आभूषण स्वर्ण ही हैं उसी प्रकार इन विषयों का आन्तरिक सत्य ब्रह्म ही है।
सृष्टि का विकास क्रम - रामानुज भी सांख्य दर्शन की तरह प्रकृति से सृष्टि का विकास क्रम दिखाते हैं।
रामानुज भी सृष्टि का विकास क्रम लगभग सांख्य-जैसा ही मानते हैं। दोनों में प्रमुख अन्तर यह है कि रामानुज उपनिषदों में प्रतिपादित '
पञ्चीकरण की प्रक्रिया को स्वीकार करते हैं, जबकि
सांख्य दर्शन भी इसे मान्यता तो देता है परन्तु इसका निरूपण नहीं करता है।
इस प्रक्रिया के अनुसार
'भूतादि अहंकार' से सर्वप्रथम पाँच सूक्ष्म भूतों का इस क्रम से आविर्भाव होता है —
◾ आकाश का गुण- ( ध्वनि)
◾ वायु का गुण -(स्पर्श)
◾ अग्नि का गुण- ( तेज)
◾ जल का गुण- (रस )
◾ पृथ्वी का गुण-( गन्ध)
इन पाँचों सूक्ष्म भूतों का पुनः पाँच प्रकार से संयोग होता है जिससे पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव होता है।
पञ्चीकरण सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक स्थूल महाभूत में आधा भाग (1/2) इस महाभूत का अपना होता है और शेष आधे भाग में अन्य महाभूतों के बराबर भाग (1/8) होते हैं। अभिप्राय यह है कि पंचीकरण-सिद्धान्त से पाँच स्थूल महाभूतों का आविर्भाव निम्नलिखित क्रम और अनुपात से होता है—
"आकाश महाभूत= 1/2 आकाश+ 1/8 वायु + 1/8 अग्नि+1/8 जल+1/8 पृथ्वी। "वायु महाभूत= 1/2वायु + 1/8 आकाश + 1/8 अग्रि + 1/8 जल + 1/8 पृथ्वी "अग्नि महाभूत = 1/2अग्नि +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल + 1/8 "पृथ्वी जल महाभूत= 1/2 जल +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 अग्नि + 1/8 पृथ्वी । "पृथ्वी महाभूत= 1/2 पृथ्वी +1/8 आकाश + 1/8 वायु + 1/8 जल +1/8 अग्नि रामानुज के अनुसार सभी सांसारिक पदार्थ जिसमें जीव का शरीर भी शामिल है, इन्हीं पंचमहाभूतों से उत्पन्न होते हैं।
इसीलिए सभी सांसारिक वस्तुओं में पाँचों महाभूतों के तत्त्व पाये जाते हैं।
पुनः, रामानुज ब्रह्म एवं जगत् के सम्बन्ध को आत्मा एवं शरीर के सम्बन्ध के समान मानते हैं। "समालोचना- हम ब्रह्म के स्वरूप विवेचन में देख चुके हैं कि रामानुज का 'परम यथार्थता' "का सिद्धान्त तार्किक दृष्टि से भले ही सन्तोषजनक न हो परन्तु दार्शनिक रूप से सार्थक है।
और उनका लीलावाद का सिद्धान्त एक प्रकार का रहस्यवाद है जिसे बौद्धिक धरातल पर ग्राह्य नहीं माना जा सकता क्यों कि यह रहस्य मानवीय भौतिक बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है। ईश्वर सृष्टि रचना का संकल्प क्यों करता है? क्या इसमें उसका कोई प्रयोजन निहित है ? अवश्य प्रयोजन निहित है लीला विलास उसका उद्देश्य है। सत- चित और आनन्द उस आत्मा की मौलिक सत्ताऐं हैं। पुनः जगत् को ईश्वर के विशेषणांश या अंश (चिदचित्) का परिणाम बताया जाता है। क्या विशेषणांश के परिवर्तन से विशेष्य अप्रभावित रह सकता है ? क्या अंशों में परिणाम होने पर भी अंशी अपरिणामी बना रह सकता है ? क्या जगत् के दोष ब्रह्म को व्याप्त नहीं करते हैं?
रामानुज इन प्रश्नों का समाधान '
आत्मा-शरीर' एवं 'राजा-प्रजा' की उपमाओं के आधार पर करने का प्रयास करते हैं।
किन्तु वे इस प्रयास में तर्कतः सफल नहीं होते। वास्तव में, यदि ब्रह्म
अंशी है और जगत्
अंश है तो जगत् के दोषों से ब्रह्म अक्षुण्ण नहीं रह सकता।
इसी लिए उसका दोष पूर्ण रूपान्तरण ही जीवात्मा है। विशेषणांश के परिणामी होने पर विशेष्यांश के अपरिणामी बने रहने की बात स्थूल रूप से समझ में नहीं आती। परन्तु द्वन्द्व वाद के विवेचन करने पर यह बात समझ में आ जाती है। जैसे
आधेय और आधार केन्द्र और परिधि आदि रूप इसी प्रकार समन्वित हैं। यह संसार मन में स्वप्न के समान अथवा समुद्र में लहर के समान परिणामी है।
वह एक कृष्ण ही अनेक रूपों में उद्भासित होते हैं। अर्थात् ब्रह्म का रूपान्तर ही उसका वैवर्त है।
ब्रह्म की रूपान्तर राशि 'प्रकृति' है। प्रकृति के विविध परिणामों का प्रतिपादन ही इस 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में प्राप्त होता है।
विष्णु के अवतार कृष्ण का उल्लेख यद्यपि कई पुराणों में मिलता है, किन्तु इस पुराण में यह विषय भिन्नता लिए हुए है।
'
ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कृष्ण को ही 'परब्रह्म' माना गया है, जिनकी इच्छा से सृष्टि का जन्म होता है। कृष्ण से ही
ब्रह्मा ,
विष्णु , महेश और प्रकृति का जन्म बताया गया है। उनके दाएं पार्श्व से त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम) उत्पन्न होते हैं। फिर उनसे महत्तत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्र उत्पन्न हुए। फिर
नारायण का
जन्म हुआ जो श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी और वनमाला धारण किए चार भुजाओं वाले थे। पंचमुखी
शिव का जन्म कृष्ण के वाम पार्श्व( बगल) से हुआ।
नाभि से ब्रह्मा , वक्षस्थल से धर्म, वाम पार्श्व से पुन:
लक्ष्मी , मुख से सरस्वती और विभिन्न अंगों से दुर्गा,
सावित्री ,
कामदेव , रति, अग्नि,
वरुण , वायु आदि देवी-देवताओं का आविर्भाव हुआ। ये सभी भगवान के '
गोलोक ' में स्थित हो गए
जिस प्रकार ब्रह्माण्ड, शरीर और परमाणु परस्पर समष्टि (समूह) और व्यष्टि (इकाई) के रूप में सम्बन्धित हैं। उसी प्रकार सृष्टि का भी क्रम है
__ यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल (Neutral ) है जो उदासीन है। परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा, बीटा और गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध होते है।" भौतिक शास्त्रीयों ने "लेप्टॉन, "क्वार्क तथा "गेज बोसॉन नामक तीन मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार किया हैं । परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक (Nucleus)भी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो। अथवा सतोगुण का समायोजन परम्-ब्रह्म में हो।
क्योंकि परम्- ब्रह्म की प्राप्ति के लिए सतोगुण को तो धारण करना पड़ेगा और अन्त में उसका परित्याग करना ही पड़ता है।
'क्यों कि परम-ब्रह्म द्वन्द्व भाव से सर्वथा परे है। परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है । अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है क्वार्क बोसॉन एक प्राथमिक कण है तथा यह पदार्थ का मूल घटक है । क्वार्क एकजुट होकर सम्मिश्रण कण हेड्रान बनाते है। परमाणु के मुख्य अवयव प्रोटॉन व न्यूट्रॉन इनमें से सर्वाधिक स्थिर होते है और बोसॉन जो कि गौड पार्टीकल्स के नाम से मशहूर है , जिससे बिग बैंग का पता चला था , उसी को बोसॉन कहते है ,
विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित
कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य(समान) प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन गतिशील हैं। जो कक्षाओं में निरन्तर चक्कर काटते रहते हैं इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है। अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है।इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी होते हैं। परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है । प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है । तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक विद्युत आवेश होता है । और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता ।
तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओर आकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
विद्युत के साथ
चुम्बकत्व जुड़ी हुई घटना है।विद्युत आवेश
वैद्युतचुम्बकीय क्षेत्र पैदा करते हैं। विद्युत क्षेत्र में रखे विद्युत आवेशों पर बल लगता है।
समस्त विद्युत का आधार
इलेक्ट्रॉन हैं। क्योंकि इलेक्ट्रॉन हल्के होने के कारण ही आसानी से स्थानांतरित हो पाते हैं। इलेक्ट्रानों के हस्तानान्तरण के कारण ही कोई वस्तु आवेशित होती है। आवेश की गति की दर
विद्युत धारा है।
आधुनिक शब्द 'इलेक्ट्रॉन' का उपयेग
यूनानी भाषा में अंबर के लिए किया जाता है। 'इलेक्ट्रिसिटी' शब्द का उपयोग सन् 1650 में वाल्टर शार्ल्टन (Walter Charlton) ने किया। इसी समय राबर्ट बायल -1627-1691 ई.) ने पता लगाया कि आवेशित वस्तुएँ हल्की वस्तुओं को शून्य में भी आकर्षित करती हैं, अर्थांत् विद्युत के प्रभाव के लिए हवा का माध्यम होना आवश्यक नहीं है।
वस्तुओं की रगड़ के कारण विद्युत दो प्रकार की होती है, घनात्मक एवं ऋणात्मक। पहले इनके क्रमश: काचाभ (vitreous) तथा रेजिनी (resionous) नाम प्रचलित थे।
सन्-1737में डूफे (Du Fay,1699-1739 ने बताया कि सजातीय आवेश एक दूसरे को प्रतिकर्षित करते हैं तथा विजातीय आकर्षित करते हैं।
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ऐसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है । परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है।
वस्तुएँ न्यूनतम ऊर्जा विन्यास तक पहुँचने की प्रवृत्ति रखती हैं।
एक अन्य चुम्बक उदाहरण, यदि आप दो बार चुंबकों को एक साथ रखते हैं, तो एक चुंबक का उत्तरी ध्रुव दूसरे के दक्षिणी ध्रुव के साथ संरेखित हो जाएगा। यह एक चुंबक के क्षेत्रों को दूसरे की ओर विपरीत दिशा में निर्देशित कर देगा, जिससे अधिकांश क्षेत्र रद्द हो जाएंगे, और इस प्रकार न्यूनतम ऊर्जा उत्पन्न होगी।
–
समान ध्रुवों के बीच हमेशा प्रतिकर्षण बल होता है और विपरीत ध्रुवों के बीच में आकर्षण बल होता है।
इसका कारण दौनों ध्रुवों का परस्पर अपूर्णत्व ही है। इस लिए दौंनों मिलकर स्वयं को पूर्ण करना चाहते हैं।
स्त्री पुरुष की भी यही मिलन प्रवृत्ति है। _पुरुष स्त्री की कोमलता का आकाँक्षी है तो स्त्री उसके पौरुष( परुषता) - या कठोरता की सहज आकाँक्षी है। _______ __ "अध्याय - तृतीय-" " आत्मा का अस्तित्व तथा अध्यात्म के मूल में विद्यमान "आत्मा" शब्द निर्वचन समान रूप से भारत -यूरोप की सभी महान संस्कृतियों में विद्यमान- है इस तथ्य का एक भाषायी विवरण- "यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में "आत्मा" शब्द के अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान हैं👇 जैसे -1-पुरानी अंगेजी में--(Aedm) 2-डच( Dutch) भाषा में (Adem ) 3- प्राचीन उच्च जर्मन में (Atum) = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस--
4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना ।परन्तु (Auto) शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की (Hotos) रूप में था । जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । श्री मद्भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को आत्मा अविनाशिता के रूप में उद्घोषित किया है।
👇 'मूल श्लोकः "
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। (श्रीमद्भगवद्गीता- 2/23)
इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति और यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है। क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है । ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है _ "ज् ञा" धातु "जन्" धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है। ज्ञान और जान दौंनो समानार्थी हैं। सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं। जैसे
सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं उसका मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है । क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म से अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं ।
परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है उसकी जिसमें अविद्या ही निर्देशक है। अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है
" यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है। क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है। अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं!
यही द्वन्द्व (दो) की सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है। स्त्री स्वभाव से ही कोमल और भावना प्रधान प्रकृति कि है और पुरुष कठोर तथा विचार प्रधान प्रकृति का है।
वस्तुत: कहना चाहिए कि स्त्री प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है।
इसके परोक्ष में सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है । अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है। और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है ।
-आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी है और ब्रह्मन्- नपुसंक लिंग शब्द है। और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।
जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं
वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है यह वेग जीवात्मा में मन अथवा चित्त या है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों ही प्रकट हो जाता है । इच्छा संकल्प काम ही आवेशात्मक रूपान्तरण है। और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है । परन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञात नहीं :-
* ***
"ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न ! श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न । पर खोज अभी तक जारी है । अपने स्वरूप से मिलने की । हम सबकी अपनी तैयारी है । आशा के पढ़ाबों से दूर निकर संसार में किसी पर मोह न कर। ये हार का हार स्वीकार न कर ।। मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।कुछ पल के रिश्ते सब छिन्न है । 'ये मतलब की दुनियाँ सारी है । मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है । ******* शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है । जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है । परन्तु परछाँईयों में वह उसे खोजता है।
सबका समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा उसका साक्षात्कार ही है ।
और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है।
स्व: में आत्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है । व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।
परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ; इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है ।
________ _ अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ; तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है । हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि- ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी। स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है । आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है । सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं ।परन्तु चतुरीय (तुरीय) अवस्था आत्मा की अवस्था है। "प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है । जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के (सी. पी.यू.) में समायोजित हैं।
जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं ।
और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से सम्बन्धित होता है।
जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं।जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है।
आत्मा का वाचक प्रेत शब्द भारतीय भाषाओं में अपने मूल व प्रारम्भिक अर्थें में प्रेरक- शक्ति का वाचक रहा होगा ।
जो अंग्रजी में स्प्रिट (Spirit) है ।
पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "(espirit)" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा (inspiration)----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया -(Spirare---to breathe) से है।
भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (speis)" से निर्धारित करते हैं ।
यद्यपि ईश्वर आदि और अन्त की सीमाओं से सर्वथा परे है। समुद्र बूँद तो नहीं हो सकता परन्तु अपनी इकाई रूप में बूँद अवश्य हो सकती है। वह अन्तर्यामी ईश्वर व्यापक होते हुए भी अपने एक इकाई रूप से पृथ्वी पर भी अवतरित होता है।
भगवान कृष्ण गोलोक से सीधे भूलोक पर गोपों में ही अवतरित होते हैं। क्यों वे धर्म की रक्षा के लिए अवतरण करते हैं। "
व्रजोपभोग्या च यथा नागे च दमिते मया । सर्वत्र सुखसंचारा सर्वतीर्थसुखाश्रया ।५७। एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च । अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम् ।। एनं कदम्बमारुह्य तदेव शिशुलीलया । विनिपत्य ह्रदे घोरे दमयिष्यामि कालियम्।५९।
एवं कृते बाहुवीर्ये लोके ख्यातिं गमिष्यति। 2.11.६०। अनुवाद:- मुझे इस नागराज का दमन करना है, जिससे जल देने वाली यह नदी कल्याणकारी जल का आश्रय हो सके। इस नाग का मेरे द्वारा दमन हो जाने पर यहाँ की नदी समूचे
व्रज के उपभोग में आने योग्य हो जायेगी। यहाँ सब ओर सुखपूर्वक विचरण करना सम्भव हो जायगा तथा यह नदी समस्त तीर्थों और सुखों का आश्रय हो जायगी।
इसीलिये व्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिये मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है। कुमार्ग पर स्थित हुए इन दुरात्माओं का दमन करने के लिये ही यहाँ मेरा अवतार हुआ है। मैं बालकों के खेल-खेल में ही इस कदम्ब पर चढ़कर उस घोर ह्नद में कूद पड़ूँगा और कालिय नाग का दमन करूँगा।
ऐसा करने पर संसार में मेरे बाहुबल की ख्याति होगी।
इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में बाललीला के प्रसंग में यमुना वर्णन नामक ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ ।
_ __ इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे विष्णुपर्वणि बालचरिते यमुनावर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ।११। •-कृष्ण के विचारों का सैद्धान्तिक विश्लेषण और संसार में उनके आध्यात्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा • जिस प्रकार अग्नि में क्वथित बीज (उबला हुआ बीज) अंकुरित नहीं होता है उसी प्रकार तत्व ज्ञान (यथार्थ- ज्ञान) की अग्नि में दग्ध (जला हुआ) अहंकार से रहित संकल्प और उससे उत्पन्न कामनाओं से रहित कर्म भी कभी फल देने वाला नहीं होता है।श्रीमद्भगवद्गीता का निम्न श्लोक कर्म फल की सम्यक् व्याख्या करता है। कहने तात्पर्य है कि संसार के हर कर्म के पीछे इच्छाओं का हाथ है। और इच्छाओं का कारण संकल्प ( मन का दृढ़ निश्चय) और संकल्प का कारण व्यक्ति का अहंकार है। और इस अहंकार के पीछे कारण है व्यक्ति का वह अज्ञान जिसके कारण कभी सत्य का पूर्णरूप से बोध नहीं होता है। निम्नलिखित श्लोक में कर्म बन्धन से मुक्त होने की विधि का वर्णन है। क्योंकि कर्म बन्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति द्वन्द्व (दु:ख-सुख) अथवा किस से लगाव -अलगाव आदि परस्पर विरोधी भावों से सदैव समान रूप से प्रभावित रहता है।
यही संसार का अनवरत चक्र गतिशील रहता है। श्रीमद्भगवद्गीता दृश्य (तमाशा) न बनाकर तमाशा देखने वाला बनने की शिक्षा देती है। श्रीमद्भगवद्गीता का वह श्लोक जिसमें कर्म फल से मुक्त होने की विधि का वर्णन है। श्रीमद्भगवद्गीता - 4.19 "यस्य सर्वे समारम्भाः कर्मा: कामसंकल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥ १९॥ शब्दार्थ- यस्य—जिसके; सर्वे—सभी प्रकार के; समारम्भा:— समान रूप से आरम्भ ; कर्मा: कर्म समूह काम—इच्छा/ ; सङ्कल्प— मन का निश्चय; वर्जिता:—से रहित हैं; ज्ञान— ज्ञान की; अग्नि—अग्नि द्वारा; दग्ध—भस्म हुए; कर्माणम्—जिसका कर्म; तम्—उसको; आहु:—कहते हैं; पण्डितम्—बुद्धिमान्; बुधा:—बोध सम्पन्न ।. भावार्थ-- जिस तत्वज्ञानी व्यक्ति के सभी कर्म -अहंकार जनित संकल्पों के प्रवाहात्मिका रूपा कामनाओं(इच्छाओं) से रहित हो जाऐं तो वह कभी भी संसार के कर्मफल का भागी नही होता यदि उससे कोई अप्राकृतिक अथवा उन्मादी कृत्य (कर्म) भी हो जाए तो प्रायश्चित करने पर उसका शुद्धि करण हो जाता है। जिस प्रकार अग्नि में क्वथित( उबला हुआ) बीज अंकुरित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि में तप्त कर्म रूपी बीज संकल्प और इच्छाओं के रूप में अंकुरित नहीं होता है। अन्यथा संसारी लोग अहंकार के गुण संकल्प और संकल्प के प्रवाह इच्छाओं के वशीभूत होकर ही कर्म में प्रवृत होते हैं। जिनके फल भोग के लिए ही उनका अनेक जीवों के रूप में वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुरूप जन्म होता है। आज भी वास्तविक अध्यात्म का प्रतिपादक श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद है। श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्यायः में कर्मयोग का बड़ा सैद्धान्तिक विवेचन है।द्वितीय अध्याय में श्रीकृष्ण ने श्लोक (11) से श्लोक 30 तक आत्मतत्त्व का विवेचन कर सांख्ययोग का प्रतिपादन किया । तत्पश्चात् श्लोक 31 से श्लोक 53 तक समस्त बुद्धिरूप कर्मयोग के द्वारा परमेश्वर को पाये हुए "स्थितप्रज्ञ" सिद्ध पुरुष के लक्षण, आचरण और महत्व का स्वाभाविक प्रतिपादन किया है। इसमें कर्मयोग की महिमा बताते हुए कृष्ण ने 47 तथा 48 वें श्लोक में कर्मयोग का स्वरूप बताकर अर्जुन को कर्म करने को प्रेरित किया है। 49 वें श्लोक में समत्व बुद्धिरूप कर्मयोग की अपेक्षा सकाम कर्म का स्थान बहुत निम्न बताया है। इसी अध्याय के 50 वें श्लोक में समत्व बुद्धियुक्त पुरुष की प्रशंसा करके अर्जुन को कर्मयोग में संलग्न हो जाने के लिए कहा और 51 वें श्लोक में बताया कि समत्व बुद्धियुक्त ज्ञानी पुरुष को परम पद की प्राप्ति होती है। यह प्रसंग सुनकर अर्जुन ठीक से निश्चय नहीं कर पाया कि मुझे क्या करना चाहिए ?
(मह्यं किं कर्त्तव्यम्) इसलिए कृष्ण से उसका और स्पष्टीकरण कराने तथा अपना निश्चित कल्याण जानने की इच्छा से अर्जुन पुन: कृष्ण से पूछते हैं जिसे तृतीय अध्याय में निर्देशित किया गया है। "अथ तृतीयोऽध्यायः। "अर्जुन उवाच"ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन। तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव।।1।।
अनुवाद -अर्जुन बोलेः हे जनार्दन ! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव ! मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।। अनुवाद -आप मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं | इसलिए उस एक बात को निश्चित करके कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ । 'श्रीभगवानुवाच'लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।। अनुवाद -श्री भगवनान बोलेः हे निष्पाप ! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है | उनमें से सांख्ययोगियों की निष्ठा तो ज्ञानयोग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से होती है |न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।। अनुवाद -मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है!न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।। अनुवाद -निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। अनुवाद -जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।। अनुवाद - किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।। अनुवाद -तू शास्त्रविहित कर्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी सिद्ध नहीं होगा |यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः। तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।9।। अनुवाद -यज्ञ के निमित्त किये जाने कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर |____ सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्तिवष्टकामधुक्।।10।। अनुवाद-प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो |देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।11।।
अनुवाद -तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें इस प्रकार निःस्वार्थभाव से एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे!इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः।।12।। अनुवाद -यज्ञ के द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है |यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।17।। अनुवाद -परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है |नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।। अनुवाद -उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |____ तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।19।। अनुवाद -इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भली भाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है !कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः। लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।20।। अनुवाद - जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे।
इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू कर्म करने को ही योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।3.21।
अनुवाद -श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है |न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।। अनुवाद -हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है न ही कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ |यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यन्द्रितः। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।23।। अनुवाद- क्योंकि हे पार्थ ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए, क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः।।24।। अनुवाद -इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायें और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।25।। अनुवाद- हे भारत ! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्ति रहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ।न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्।।26।। अनुवाद - परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात् कर्मों में अश्रद्धा उन्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे |____ __प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।27।। अनुवाद -वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है !तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।28।। अनुवाद-परन्तु हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्त्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण-ही-गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता |प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। तानकृत्स्न्नविदो मन्दान्कृत्स्न्नविन्न विचालयेत्।।29।। अनुवाद-प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जाननेवाला ज्ञानी विचलित न करे |सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।। अनुवाद- सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करते है| फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा |इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।34।। अनुवाद -इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात् प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं |श्रेयान्स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।। अनुवाद- अच्छी प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है |____ __ 'अर्जुन उवाचअथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः। अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।36।। अनुवाद-अर्जुन बोलेः हे कृष्ण ! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ? "'श्रीभगवानुवाचकाम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद् भवः महाशनो महापाप्मा विद्धेयनमिह वैरिणम्।।37।।
अनुवाद-श्री भगवान बोलेः रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला अर्थात् भोगों से कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस विषय में वैरी जान !धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च। यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।38।। अनुवाद- जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढका रहता है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढका रहता है |आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।39।। अनुवाद-और हे अर्जुन ! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी के द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढका हुआ है !इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।40।। अनुवाद-
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि – ये सब वास स्थान कहे जाते हैं। यह काम( सेक्स प्रवृत्ति) इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है |तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। पाप्मान प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।41।। अनुवाद-इसलिए हे अर्जुन ! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल |इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42।। अनुवाद- इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानि श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है।एवं बुद्धेः परं बुद् ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43।। अनुवाद-
इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात् सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल ।
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अर्थात -
इस प्रकार हे अर्जुन ! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो। कठोपनिषद् में रथ " रथी तथा सारथी के उपमान विधान से शरीर" आत्मा और बुद्धि तत्व की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है।
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। 3।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः। 4।
(कठोपनिषद्-1.3.3-4)
श्रीमद्भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मेविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः।3।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'कर्मयोग' नामक तृतीय अध्याय सम्पन्न हुआ। आत्मानं रथिनं विद्धि- आत्मा को रथ समझो !
संसार की कामनाओं में काम (उपभोग करने की इच्छा-अथवा बुभुक्षा- का समावेश है और ये कामनाऐं अपनी तृप्ति हेतु अनैतिक और पापपूर्ण परिणामों का कारण बनती हैं ।
इसी पाप का परिणाम संसार की यातना और असंख्य पीड़ाऐं हैं इन कामनाओं का दिशा परिवर्तन आध्यात्मिक कारणों से ही सम्भव है ।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का आध्यात्मिक वर्णन है।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं ।
संबंधित आख्यान में यम देव के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन जीवन सार्थक उपमा के रूप हैं !
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आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।३।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् ।)
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।
(लगाम –
इंद्रियों पर नियंत्रण का हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख
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इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। ४ (कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः।)
मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ की सबारी करने वाला बताया है
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन आध्यात्मिकता प्रधान रहा है। ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा परन्तु उनके प्रयास रहे थे कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें जीवन के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कर सकें ।
उनकी जीवन-पद्धति प्राय: आधुनिक काल की भौतिक पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं।
उनके दर्शन के अनुसार मृत्यु से परे आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के अति चेतन चेतन और अवचेतन आदि स्तरों द्वारा करती हैं ।
मन का संबंध बाहरी जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ अर्थात् जननेद्रिय,।
पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्यायित करता है मन के उसी विकल्प को सुख अथवा दुःख के रूप में जाना जाता है ।
इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।
किन विषयों में इंद्रियां विचरण करेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण करेगी यह मन के उन पर नियंत्रण पर निर्भर करता है ।
इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है परन्तु जब मन के वासनाऐं समाप्त होकर बुद्धि में में ईश्वरीय ज्ञान का प्रकाश होता है।
उपर्युक्त श्लोकों के अनुसार क्या करना चाहिए है और क्या नहीं करना चाहिए इसका निर्धारण बुद्धि करती है और मन तदनुसार इंद्रियों को निर्देशित करता है ।
इन मंत्रों का सार यह है: भौतिक भोग्य विषयों रूपी मार्गों में विचरण करने वाले इंद्रिय रूपी घोड़ों पर मन रूपी लगाम के द्वारा बुद्धिरूपी सारथी नियंत्रण रखता है ।
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रथ:शरीर पुरुष सत्य दृष्टतात्मा नियतेन्द्रियाण्याहुरश्वान् ।
तैरप्रमत:कुशली सदश्वैर्दान्तै:सुखं याति रथीव धीर:।२३।
षण्णामात्मनि युक्तानामिन्द्रयाणां प्रमाथिनाम् ।
यो धीरे धारयेत् रश्मीन् स स्यात् परमसारथि:।२४।
इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु धृतिं कुर्वीत सारथ्येधृत्या तानि ध्रुवम् ।२५।
इन्द्रियाणां विचरतां यनमनोऽनु विधीयते ।
तदस्य हरते बुदिं नावं वायुरिवाम्भसि ।२६।
येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात् फलागमम्।
तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् ।२७।
इति महाभारते वनपर्वणि मार्कण्डेय समस्या पर्वणि ब्राह्मण व्याधसंवादे एकादशाधिकद्विशततमोऽध्याय:(211 वाँ अध्याय) ______ __
पुरुष का यह प्रत्यक्ष देखने में आने वाला स्थूल शरीर रथ के समान है। बुद्धि सारथि है और इन्द्रियों को घोड़े बताया गया है। जैसे कुशल, सावधान एवं धीर सारथी, उत्तम घोड़ों को अपने वश में रखकर उनके द्वारा सुख पूर्वक मार्ग सुगम्य करता है, उसी प्रकार सावधान, धीर एवं पुरुष की बुद्धि मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करके सुख से जीवन यात्रा तय करती है।२३।
जो धीर पुरुष अपने शरीर में नित्य विद्यमान छ: प्रमथनशील इन्द्रिय रुपी अश्वों की लगाम संभालता है, वही उत्तम सारथी हो सकता है । २४।
सड़क पर दौड़ने वाले घोड़ों की तरह विषयों में विचरने वाली इन इन्द्रियों को वश में करने के लिये धैर्य पूर्वक प्रयत्न करे। धैर्यपूर्वक उद्योग करने वाले को उन पर अवश्य विजय प्राप्त होती है।२५।
जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।२६।
सभी मनुष्य इन छ: इन्द्रियों के शब्द, रस आदि विषयों में उनसे प्राप्त होने वाले सुखरुप फल पाने के सम्बन्ध में मोह से संशय में पड़ जाते हैं। परंतु जो उनके दोषों का अनुसंधान करने वाला वीतराग पुरुष है, वह उनका निग्रह करके ध्यानजनित आनन्द का अनुभव करता है ।२७।
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इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेय समस्या पर्व में ब्राह्मण व्याध संवाद विषयक दो सौ ग्यारहवां अध्याय पूरा हुआ
आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में "स्वर् अथवा "स्व: कह कर वर्णित किया है। परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् का ही विकसित रूप है ।
आद्य-जर्मनिक भाषाओं:- swēsa( स्वेसा ) तथा swījēn( स्वजेन) शब्द आत्म बोधक हैं।
अर्थात् own, relation प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक में:
1-swēs (a) 2-
own'; swēs n. (b) property' 2- पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s
lieb, traut' 3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum 4-Old English: swǟs lieb, eigen' 5-Old Frisian: swēs
verwandt'; sīa Verwandter' 6-Old Saxon: swās
lieb' 7-Old High German: { swās 8-Middle High German: swās Indo-European Proto- indo European se-, *sow[e] *swe- स्व 9-Old Indian: poss. sva- 10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian: 11-OldPersian huva- 'eigen, suus' 12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi' 13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus 14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology 15- Old Lithuanian: sawi, sau.
संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है।
"स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः । स्वभावस्थे अर्थात् स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ: अर्थात् --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।
योग स्वास्थ्य का साधक है ।
पञ्चम् सदी में पुना-रचित श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बताया है । भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇 "सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कुरु कर्माणि समत्वं योग उच्चते ।। श्रीमद्भगवत् गीता(2/48)
अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है। समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है। भगवद्गीता के अनुसार -👇 " तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् " अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है । कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇
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बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।। बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है। तब यह समता योग है ।
अतः तू योग (समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸 पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं। --जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं । मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा। यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है। जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं। जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है। और मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में घुमाता है। संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं। योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है । इसमें भी युति( युत् ) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है।👇 _______
use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume," पुरानी लैटिन में युति क्रिया है। जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज ( Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है । जिससे (युज्+घञ् ) इन धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है ।
योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है । 👇 योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है । योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध। और चित्त की वृत्ति क्या हैं मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है। योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇१-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध। चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) जो स्वभाव जन्य हैं साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है । --जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है । साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है। स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं— 👇मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । १-संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं । २-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि (-जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है। और वही बुद्धि है और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं। ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े) रहते हैं । योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते । वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं। उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती। 🌸🌸🌸 योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—१:- प्रमाण, २-विपर्यय,३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं । चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं । नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं । १- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है २-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना – विकल्प है ३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है ४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है यह जाग्रति का बोध है । पञ्च-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पझगोलक लिखा है। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान मस्तिष्क में माना है जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है ।
खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है । वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारी होते हैं । ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं । भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है। जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशः बढ़ता जाता है इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है। जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं । मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है । 👂
पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है। यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन का रूप है।
_______ इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं। उपस्थिति मानव में पीनियल ग्रंथी लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है। यह अधिचेतक भाग का अवयव है। पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है। पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है । --जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है । वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ; और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है । और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है । योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है । और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है । और ज्ञान ही जान है । अस्तित्व की पहिचान है । कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।👇 ______ ____ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।। इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् । आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।। ( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ ) अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है ।
अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है। --जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े । और आगे तो आप समझ ही गये होंगे । एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता को रूप में स्वीकार किया जा सकती है । --जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है । भारोपीय भाषाओं में प्रचलित है । (प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है। और प्रेरणा कोई कर्म-- नहीं ! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया । परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से प्रेत का अर्थ ही बदल गया ! इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए। प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे । कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में भी था । परन्तु उसे हटा दिया गया । यह रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है । वास्तव में रथेष्ठा की लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है । रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है । और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जानलें । और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है। अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है। जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है । विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं । और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि । वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है। जब मन में अहं का भाव हो जाय । परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है । क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं । जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं । परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है । आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात् सच्चिदानन्द। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है । और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है । यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है _______ पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है । यद्यपि श्रीमद्भगवद्गीता में आध्यात्मिक ज्ञान से समन्वित श्लोकों को छोड़कर प्राय: श्लोक वर्णव्यवस्था के मण्डन हेतु जोड़े गये हैं । परन्तु गीता के आध्यात्मिक सिद्धान्त सत्य के सन्निकट ही हैं। जो सांख्य और वैदान्त के सिद्धान्तों का ही प्रतिपादन करते हैं। वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना पड़ेगा । क्यों संसार द्वन्द्व रूप है ।👇 "अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च। अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।। मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।। अर्थात् ये मेरी विभूतियाँ हैं । भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"। अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है । और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए "अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ । दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है । "ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है । और "अ" आत्मा के रूप में । अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है। हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है । मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात् द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है? जिसके अनेक प्रकार हैं। समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है। द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है? जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है। अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता? -जैसे माया और ईश्वर । परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ। वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है। अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है। अत: मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ? तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ। मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है । उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों । ----------------------------------------------------- अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है । तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है । परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे । यानि शरीर की नीरोग अवस्था । परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है ।
_______ आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है । आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति" बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं। क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है । अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया।
यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं। पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं। परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है। उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा। निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों। संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक् रूप से समझना बहुत सरल नहीं है। क्यों जीवन ही कर्ममय है । 👇 "न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।3.5। कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं। यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है । अतः अज्ञानियों के लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं। क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है। केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ; लोक हित के लिए । परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है । कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ । बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये। हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे। हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया । परिचय संपादित करें प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्न मार्ग। यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था। हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्यों त्यों बनाए रखना चाहते थे। हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे। हीनयान की साधना अत्यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे। हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है। बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक। इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्म-सूत्र में है ।
वैभाषिक मत की उत्पत्ति कश्मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था। सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है। थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'। बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है। थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं। इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं। वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है। जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता। थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है। इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ; और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है। थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था। बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ । वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ। वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है। ‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है। यान ( रास्ता) ‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है। वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है । सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे। इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था। सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं। इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है। एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे। ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये । योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया । दुनिया के करीब २ अरब (२९%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग ५४ करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है। प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं।
दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं। किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है।
भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं। योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है ।बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना । योग-सृष्टि के रहस्य को जानने का सम्यक् विज्ञान है योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । _______ यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है। जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है। विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है । और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं ! सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें ! तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है। और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए । क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है। .मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद्घाटित कर रहा हूँ। जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं। इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है। यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है। परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं । वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं। वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है । श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
-ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई । द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा । और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇 _______
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके . तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45) -
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2 -46)
---हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं। इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो ! जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।। (श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है । अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्" तथ्य से पूर्ण रूपेण है । योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय। सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग (मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है । जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है। प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें---अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस। गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’ महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा। गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।
श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है। ईश्वर सार्वजनिक विषय नहीं है । ईश्वर को मानना भी अपने ऊपर आस्थाओं की चादर डालना है। उससे केवल मन की उन्मुक्तता और उत्श्रृँखलता पर तो नियन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु ईश्वर को नहीं जाना जा सकता है। क्योंकि वह निराकार और अनन्त है।
जन साधारण की बुद्धि से परे इसी लिए ईश्वरीय प्रतीक के रूप में मूर्ति या ईश्वर की कल्पित प्रतिमा की स्थापना की गयी जो वस्तुत श्रद्धा केन्द्रित करने का अवलम्बन मात्र थी । "श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।39।
(श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थ अध्याय-)
अनुवाद:- जो जितेन्द्रिय तथा साधन-परायण है, ऐसा श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है और ज्ञानको प्राप्त होकर वह तत्काल परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है। श्रद्धा से से भी मनस् -शुद्धि द्वारा ज्ञान की ही प्राप्ति होती है। जन्म और मृत्यु परिवर्तन के ही प्रवाह हैं! न तो आत्मा जन्म ही लेती है और ना ही मरती है। परन्तु मन जो आत्मा और प्रकृति का मिश्रित रूप है जागता, सोता, मरता और जीता है। ईश्वर आदि ( प्रारम्भ) और अन्त से रहित असीम अस्तित्व है।
जिसकी आँशिक अनुभूति तो सम्भव है परन्तु सम्पूर्ण अस्तित्व का दर्शन सम्भव और अनुभूति गम्य नहीं है।
फिर जन साधारण के लिए उसकी व्याख्या भी नहीं की जा सकती है। अहं (ईगो) जीवन की सत्ता है अहंकार से संकल्प और संकल्प से इच्छाओं का प्रादुर्भाव ही जीवन के लिए उत्तरदायी है। परन्तु स्व ( स्वयं ) रूप ही आत्मा का अस्तित्व बोधक है। अहं से हम और हम के भाव से स्व (आत्मा) की और जीवन के अग्रसर होने के लिए केवल कृष्ण ने निष्काम (कामना अथवा इच्छा रहित -) कर्म की प्रेरणा दी "अहं जहाँ जीवन को सीमित दायरे में संकुचित और सीमित करता है वहीं स्व का भाव बोध असीम की और अनन्त की अनुभूति का कारण है।__ _ ज्ञान की स्थिति में मन द्वारा जो संकल्पित कर्म सम्पादित होता है। उसका परिणाम ! और ज्ञान के अभाव में मन द्वारा संकल्पित सम्पादित कार्य का परिणाम भिन्न भिन्न प्रभाव वाला होता है। श्रद्धा के केन्द्रीकरण के आयाम सदैव स्थूल अवलम्बन का आश्रय लेते हैं। यही ईश्वर का साकार मान्य प्रतीक है। वैदिक काल में भी प्रतिमा शब्द इसी अर्थ में रूढ़ हो गया था। "कासीत्प्रमा प्रतिमा किं निदानमाज्यं किमासीत्परिधिः क आसीत्। छन्दः किमासीत्प्रउगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे ॥३॥ ( ऋग्वेद -१०/१३०/३) “{प्रमा= प्रमाणम्} “प्रतिमा = हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते निर्मीयते इति प्रतिमा देवता । परन्तु मूर्ति पूजा तो एक श्रद्धा का निमित्ति कारण है। दर-असल ईश्वर को जानना ही श्रेयकर है। ईश्वरीय सत्ता का आंशिक ज्ञान भी तभी सम्भव है जब अन्त:करण चतुष्टय पूर्णत: दुर्वासना से रहित हो जाए ! हमारी वासनाओं के आवेग ही मन में लालच की तरंगे पैंदा करते रहते हैं। जो दर्पण को मलिन करती रहती हैं। अन्त: करण एक दर्पण के समान स्वच्छ हो जाए तो साधक ईश्वरीय आंशिक सत्ता की तात्विक अनुभूति सहज कर लेता है।
ईश्वर की पूर्ण सत्ता का अनुभव तो स्वयं ईश्वर भी नहीं कर पाता है। यही ईश्वरीय असमर्थता है। ईश्वर नाम से अभिहित तत्व स्वयं में अपरिमेय है। उसके अनन्त अस्तित्व तो मापने का कोई उपमान अथवा मानक ही नही है। पूर्ण ईश्वर को किसी ने नहीं देखा उसको जानने के सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं। साधक भी ईश्वरीय" सत्ता का आँशिक अनुभव करता है। वह ईश्वर अपने आप में पूर्ण " अनन्त और अपरिमेय सत्ता है । भारतीय मनीषीयों ने अपने साधना काल में उसकी एक आँशिक झलक अनुभत की थी तब यह कहा -"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। वह ईश्वर अनन्त है, और यह (ब्रह्माण्ड) अनन्त है। अनन्त से अनन्त की प्राप्ति होती है। (तब) अनन्त की अनंतता लेते हुए, भी वह अनंत के रूप में भी अकेला रहता है। जिस प्रकार गणितीय प्रक्रिया में शून्य से शून्य को घटाया जाता है तो परिणाम शून्य ही आता है। उसी रूप मे ईश्वरीय अनन्तता को समझा जा सकता है। इसी लिए उस अनन्त अपरिमेय आत्मिक सत्ता को सजीव और निर्जीव से भी पृथक शून्य ( ∅ ) रूप में उपमित किया गया जिसमें अनन्त काल तक आप परिक्रमण करते रहो कोई अवरोध नहीं आयेगा- आप जीवन पर्यन्त निरन्तर चलते रहोगे -पर उसका कभी गन्तव्य अवरोध नहीं आयेगा- हमारे सारे धार्मिक उपक्रम मन के शुद्धि करण के उपाय मात्र हैं। यदि यज्ञ अथवा किसी देवता की पूजा करने से अथवा तीर्थ यात्रा अथवा मन्दिर आदि के द्वारा मन न शुद्ध हो सके तो ये सारे उपक्रम व्यर्थ ही हैं। ईश्वरीय सत्ता के अन्वेषण अथवा अनुभूति के इसलिए साधक को निरन्तर मन के शुद्धि करण हेतु तप "संयम " और योग अभ्यास भी करना चाहिए प्राचीन काल में साधक ही साधु संज्ञा के अधिकारी होते थे। और सन्त भी पूजा( साधना ) करने वाले होते थे। अरबी भाषा में प्रचलित शब्द (सनम) देव मूर्ति का वाचक है। दरअसल जब लोग ईश्वरी सत्ता की परिकल्पना करते थे तो वे किसी इमेज के रूप में मूर्ति भी बनाते थे। अरब का यह सनम शब्द हिब्रू" अक्काडियन और अनेक सैमेटिक भाषाओं में कही सनम- तो कहीं "सलम आदि रूपों में प्रचलित है। वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में षण्-(सन्) धातु भ्वादिगणीय है। और दूसरी धातु सल्(शल्,) भी है जो स्तुति गमन और पार होने के अर्थ में प्रचलित है। षन् धातु का लट् लकार (वर्तमान) में रूप निम्नलिखित हैं । एकवचनम् द्विवचनम् बहुवचनम् प्रथमपुरुषः सनति सनतः सनन्ति (वह पूजा करता है/ वे दोनों पूजा करते हैं/ वे सब पूजा करते हैं। मध्यमपुरुषः सनसि सनथः सनथ ( तू पूजा करता है/ तुम दोनों पूजा करते हो/तुम सब पूजा करते हो/ उत्तमपुरुषः सनामि सनावः सनामः ( मैं पूजा करता हूँ/ हम दोनों पूजा करते हैं/ हम सब पूजा करते हैं/ मूर्तियों या निर्माण निराकार ईश्वर के साकार प्रतीक के विधान के तौर पर जन साधारण के लिए किया गया था। अरबी में صنم فروش ( सनम-फ़रोस- , "(मूर्ति विक्रेता ) है। सेमिटिक मूल का ‘"सनम’ صنم शब्द बनता है स्वाद-नून-मीम ص ن م तीन वर्णो से मिलकर यह शब्द बनता है।। इस्लाम से पहले सैमेटिक संस्कृति मूर्तिपूजक थी मनुष्य की धार्मिक प्रवृत्ति बुतपरस्ती के माध्यम से ही प्रकट होती रही है। प्रतीक, प्रतिमा, सनम या बुत तब तक निर्गुण-निराकारवादियों को नहीं खटकते जब तक वे धर्म के सर्वोच्च प्रतीक के तौर पर पूजित न हों। मूर्ति पूजा या विधान जनसाधारण के लिए था। "सनम" का सन्दर्भ भी प्रतिमा के ऐसे ही रूप का है। कुरान की टीकाओं व अरबी कोशों भी सनम को “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” के तौर पर ही व्याख्यायित किया गया है। अनेक सन्दर्भों से पता चलता है कि "सनम" का व्युत्पत्तिक आधार हिब्रू भाषा का है और वहाँ से अरबी में दाखिल हुआ। हिब्रू में यह स-ल-म अर्थात( salem) है एक स्तुति वाचक शब्द है। जिसमें बिम्ब, छाया अथवा प्रतिमा का आशय है। इस्लाम से पहले काबा में पूजी जाने वाली प्रतिमाओं के लिए भी" सनम शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। चूँकि “ईश्वर के अलावा पूजित वस्तु” इस्लाम की मूल भावना के विरुद्ध है इसलिए सनम, सनमक़दा और सनमपरस्ती का उल्लेख इस्लामीय शरीयत के परवर्ती सन्दर्भों में तिरस्कार के नज़रिये से ही प्रचलित हुआ है। प्राचीन सेमिटिक भाषाओं में अक्काद प्रमुख संस्कृति है जिसकी रिश्तेदारी हिब्रू और अरबी से रही है। उत्तर पश्चिमी अक्काद और उत्तरी अरबी के शिलालेखों में भी सनम का (‘स-ल-म)’ रूप मिलता है। दरअसल न और ल में बदलाव की प्रवृत्ति भारतीय आर्यभाषाओं में भी होती रही है। मिसाल के तौर पर पश्चिमी बोलियों में लूण ऊत्तर-पूर्वी बोलियों में नून, नोन हो जाता है। इसी तरह नील, नीला जैसे उत्तर-पूर्वी उच्चार पश्चिम की राजस्थानी या मराठी में जाकर लील, लीलो हो जाते हैं। यही बात सलम के सनम रूपान्तर में सामने आ रही है। इस सन्दर्भ में S-l-M से यह भ्रम हो सकता है कि इस्लाम की मूल क्रिया धातु s-l-m और सनम वाला s-l-m भी एक है। दरअसल इस्लाम वाले स-ल-म में (सीन-लाम-मीम س ل م है ! जिसमें सर्वव्यापी, सुरक्षित और अखंड सलामती जैसे भाव हैं। जाहिर है ये वही तत्व हैं जिनसे शांति उपजती है। अत: सल् ( शल्) पार करना - स्तुति करना आदि अर्थ लेकर संस्कृत धातुपाठ में भी उपस्थित है। जबकि प्रतिमा के अर्थ वाले स-ल-म का मूल स्वाद-लाम-मीम है। ख़ास बात यह कि प्राचीन सामी सभ्यता में देवी पूजा का बोलबाला था। लात, मनात, उज्जा जैसी देवियों की प्रतिमाओं की पूजा प्रचलित थी। इसलिए बतौर सनम अनेक बार इन देवियों की प्रतिमाओं का आशय रहा। बाद के दौर में सनम प्रतिमा के अर्थ में रूढ़ हो गया। इस सिलसिले की दिलचस्प बात ये है कि जहाँ बुत, मूर्ति या प्रतिमा जैसे शब्दों का प्रयोग ‘प्रियतम’ के अर्थ में नहीं होता मगर प्रतिमा के अर्थाधार से उठे शब्द में किस तरह प्रियतम का भाव भी समा गया। संस्कृत धातु पाठ में सन् - धातु का अर्थ पूजा-करना भी है। यहाँ समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में ईश्वर आराधना की प्रमुख दो पद्धति रही हैं- पहली है सगुण अथवा साकार और दूसरी है निर्गुण अथवा निराकार। सगुण (साकार) पद्धति में ईश्वर की उपासना करने वाले समूह में भी प्रतिमा, उस परमशक्ति का रूप नहीं है। जिस प्रतीक को परमशक्ति माना गया, उसकी प्रतिमा को मात्र ईश्वर की मानकर पूजा जाता है।भारतीय पुराणों में ब्राह्मा के चार पुत्र सनत" सनत्कुमार" सनातन" सनन्दन " के ना मों में भी यह सन् धातु समाविष्ट है। चारो शब्दों की व्युत्पत्ति " सन्= पूजायां धातु परक है। सन्त: शब्द के मूल में भी यही सन् धातु समाविष्ट है । मत्स्यपुराण के अनुसार सन्त शब्द की निम्न परिभाषा है : ब्राह्मणा: श्रुतिशब्दाश्च देवानां व्यक्तमूर्तय:। सम्पूज्या ब्रह्मणा ह्येतास्तेन सन्तः प्रचक्षते॥ अनुवाद:- ब्राह्मण ग्रंथ और वेदों के शब्द, ये देवताओं की निर्देशिका मूर्तियां हैं। जिनके अंतःकरण में इनके और ब्रह्म का संयोग बना रहता है, वही सन्त कहलाते हैं। मनोज्ञैस्तत्र भावैस्ते सुखिनो ह्युपपेदिरे । अतः शिष्टान्प्रवक्ष्यामि सतः साधूंस्तथैव च ।१९ ।
सदिति ब्रह्मणः शब्दस्तद्वंतो ये भवंत्युत । साजात्याद्ब्रह्मणस्त्वेते तेन सन्तः प्रचक्षते ।२०। सन्दर्भ:- (ब्रह्माण्डपुराण /पूर्वभागः/अध्यायः ३२)सन्त' शब्द 'सत्' शब्द के कर्ताकारक का बहुवचन है। इसका अर्थ है - साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागी पुरुष या महात्मा आदि अर्थ है। सच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तरूपञ्च ॥ (यथा -रघुःवंश महाकाव्य । १।१०। रघुवंशम्-1.10 श्लोकः-" तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः। हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा ॥1.10॥ अनुवाद:- उस वंश को सुनने को सत्य असत्य का निर्णय करने वाले सन्त ही योग्य है। सोने की पवित्रता और कलौंच अग्नि ही में देखी जाती है ॥१.१०॥ एक अन्य ग्रन्थ विश्वामित्रसंहिता- के अध्याय 27 के श्लोक 42 में "सन्त" की परिभाषा निम्नलिखित है। एककालं बलेर्हानौ द्विगुणं च बलिं हरेत् । कुर्याच्च पूर्ववच्छेषमिति सन्तः प्रचक्षते ॥ 42॥ पहले भारत को बुद्ध के द्वारा जाना गया था परन्तु अब भविष्य में कृष्ण के द्वारा भारत को जाना जाएगा इस्कॉन के द्वारा कृष्ण दर्शन यूरोप में प्रतिष्ठित हो गया अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ या इस्कॉन (अंग्रेज़ी: International Society for Krishna Consciousness - ISKCON; , को "हरे कृष्ण आन्दोलन" के नाम से भी जाना जाता है। इसे 1966 में न्यूयॉर्क नगर में भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद ने प्रारम्भ किया था। ये कायस्थ बंगाली परिवार में जन्में थे। इनके माता-पिता: श्रीमन गौड़ मोहन डे तथा श्रीमती रजनी डे थे। डे या डे आमतौर पर बंगाली समुदाय द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला एक उपनाम है। डे/डे अंतिम नाम देब/देव या देवा से लिया गया है। उपनाम मुख्य रूप से बंगाली कायस्थों के साथ जुड़ा हुआ है। अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (1 सितम्बर 1896 – 14 नवम्बर 1977) जिन्हें स्वामी श्रील भक्तिवेदान्त प्रभुपाद के नाम से भी जाना जाता है,सनातन हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे।यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।। (श्रीमद्भगवद्गीता-9/25) अनुवाद:- देवताओं का पूजन करनेवाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं। परन्तु हे अर्जुन! मेरा पूजन करने वाले वैष्णव भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।____ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः। -श्रीमद्भगवद्गीता-(18.66) अनुवाद:- सब धर्मां का परित्याग करके मुझ एक की शरण में आजा। मैं तुझे सारे पापों से छुड़ा दूँगा। तू शोक मत कर।66।
प्रस्तुतिकरण:- साधक - माताप्रसाद सिंह व योगेश कुमार रोहि- सम्पर्क सूत्र- 8077160219
{लोकाचरण-खण्ड}- सम्पूर्ण खण्ड-" संशोधित-पाठ अनुवाद:-
उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी। नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा हल्लीसक नृत्य का आयोजन किया।६८।
हरिवंशपुराण- विष्णुपर्व /अध्याय- 89/ श्लोक-68
श्री कृष्ण और संकृष्ण (संकर्षण) दोनों ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे। कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी नामक सुषिर वाद्य- का बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनाया। कृष्ण ने संगीत को सृष्टि की आदि-विद्या और कला मानकर आभीर जाति के नाम पर राग आभीर भी दिया
सम्भवत: फारसी भाषा में प्रचलित शब्द सूराख जो ( छिद्र) का वाचक है। सुषिर का ही तद्भव है।
वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम-वेद को कृष्ण ने अपनी विभूति माना और उद्घोष किया।
"वेदानां सामवेदो ऽ
स्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता-
मैं वेदो में सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- (प्राणियों) में चेतना हूँ। कार्यकरण के समुदायरूप शरीर में सदा प्रकाशित रहने वाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।
वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति है। वास्तव इनमें हल्लीषम्- ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है । मनुष्य जीवन पर्यन्त जिन व्यवहारों का नित्य सम्पादन करता रहता है अपने उत्सवों में भी मनुष्य वही अभिनय समन्वित कर आनन्दित होता रहता है।
वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल (पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब- कुछ भूलकर विश्राम करता है।
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ था जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के लिए और स्वयं गोपाल क अ के अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया ।
ग्राम शब्द का मूल अर्थ - ग्रास या घास युक्त भूमि से है। जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे ;धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और ग्राम-सभ्यता का जन्म हुआ। जबकि नगर सभ्यता व्यापारिक अथवा वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकसित हुईं जिन्हे आज हम बाजारवाद कह सकते हैं। जहाँ वणिकों की बस्तियाँ ही बहुतायत में होती हैं।
ग्रामीण जीवन का पालन करने वाले गोपों की गोप- ललनाऐं विशेष उत्सवों पर हल्लीसक नृत्य का आयोजन पुरुषों के सहयोग से करती थीं। और अनेक रागों पर गीत गाती थीं। अहीरों ने संगीत को अनेक लौकिक अवदान दिये ।
हल्लीसक- शब्द पुराणों विशेषत: हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय (89) में अहीरों के सांस्कृतिक नृत्य के रूप में वर्णित है।
हल्लीषम् शब्द के मूल में निहित हल धातु का मूल अर्थ-
हल -विलेखे भ्वादिगणीय परस्मैपदीय सकर्म सेट् धातु से -हलति अहालीत् आदि क्रिया रूप बनते हैं। हलः हालः- हल्यते कृष्यतेऽनेन इति हल्+ घञर्थे करणे (क)। लाङ्गल ( हल) अमरः कोश। कृषि शब्दे २१९८ पृ० दृश्यम् ।
हल वह यन्त्र जिससे कृषि कार्य किया जाए-
और ईषा -हलयुगयोर्मध्यमकाष्ठे (लाङ्गलदण्डे)वा हल के मध्य में लकड़ी का दण्ड - हल और ईषा इन दोनों शब्दों से तद्धित शब्द बनता है। हल्लीषा- हल्लीषक ।
हल्लीषा- एक नृत्य जो हल और उसके ईषा ( दण्ड) के समानान्तर दृश्य में आकृति बनाकर मण्डलाकार विधि से किया जाता था।
वैसे कृष्ण और संकर्षण शब्द कृषकों के विशेषण हैं। गोपों में जन्म लेने वाले ये दोनों महानायक कृषि पद्धति के जनक भी थे कृषि करने के लिए हल तथा उस धान्य को पीट कर अन्न पृथक करने के लिए मूसल- का आविष्कार भी कृष्ण के बड़े भाई संकर्षण के द्वारा ही किया गया था।
इनकी लोक संस्कृति में भी यही आविष्कार प्रदर्शित थे उनका सांस्कृतिक नृत्य हल्लीषम्- हल और ईषा की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही था ।
जिसे पुराणकारों ने श्रृँगार रस में डुबोकर रास के नाम से काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है। संकर्षण का हलधर विशेषण भी उनके कृषक होने का प्रमाण है।
हलधर= हलं धरति आयुधत्वं कृषिसाधनत्व वा धृ +अच् । बलराम कृषक उदाहरण “उन्मूलिता हलधरेण पदावधतैः” उद्भटः ।
इन गोपों कि हल्लीषम् नृत्य (हल्लीश, हल्लीष)=
नाट्यशास्त्र में वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के रूप में मान्य है।
विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है।
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं जिसे मंडल बाँधकर जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
साहित्यदर्पण (।६। ५५५।) में इसका लक्षण निम्न प्रकार से है।
“हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः। वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः। मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः॥
विशेष—पौराणिक परम्परा इस क्रीड़ा का आरंभ कृष्ण द्वारा कभी मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को तो कभी कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय को मानती है।
तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे। पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी।
इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है। जैसे हल्लीषा-
इसमें लास्य नृत्य ( स्त्री नृत्य) की प्रधानता ही होती है इसी लिए इसे रास्य( लास्य) भी कहा जने लगा।
भारतीय संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।
भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।
प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।
मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती अथवा हल और ईषा की आकृति मैं वृत्ताकार नर्तन करती हैं।
अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करने वाले अनेक रासगीतों की रचना की है।
रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।
वे वृत्ताकार मण्डल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं।
जिसे भविष्य-पुराणकार ने हल्लीषम् अवश्य कहा-
रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।
आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी”
(हरिवंश पुराण टीका नीलकण्ठः शास्त्री)
"संस्कृत में हल्लीषम् शब्द अर्थ का विश्लेषण- एक विद्वान डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल का मत है "कि हल्लीसं शब्द यूनानी इलिशियन- नृत्यों ( इलीशियन मिस्ट्री डांस) से विकसित है। इसका विकास ईस्वी सन् के आसपास माना जाता है।
सन्दर्भ- हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन-पृष्ठ संख्या 33-
वास्तव में हल्लीषम् और इलिशियन दोनों शब्द पृथक पृथक है।
विशेषण को तौर पर एलिसियन शब्द एक आनंदमय स्थिति का वर्णन करता है, जैसा कि अधिकांश लोग स्वर् पर आनंद लेने की उम्मीद करते हैं।
एलीसियन शब्द एलीसियन फील्ड्स नामक रमणीय यूनानी पौराणिक स्थान से आया है।
हालाँकि अब इस शब्द को अक्सर स्वर्ग के साथ समझा जाता है, ग्रीक एलीसियन फील्ड्स वास्तव में मृत्यु के बाद के जीवन में जाने के लिए एक स्वर्गीय विश्राम स्थल का नाम था।
संभवतः इस अवधारणा की कल्पना मूल रूप से युद्ध के दौरान सैनिकों में वीरता को प्रोत्साहित करने के लिए की गई थी।
आजकल, लोग किसी भी स्वर्गीय दृश्य का वर्णन करने के लिए एलिसियन का उपयोग करते हैं -
एलीसियम -
1590 के दशक, लैटिन एलीसियम से, ग्रीक एलीसियन (पेडियन) से "एलिसियन क्षेत्र", मृत्यु के बाद धन्य लोगों का निवास, जहां नायक और गुणी निवास करते हैं, जो अज्ञात मूल का है, शायद प्री-ग्रीक (एक गैर-आईई सब्सट्रेट भूमध्यसागरीय भाषा) से ). इसका उपयोग पूर्ण प्रसन्नता की स्थिति के लाक्षणिक रूप में भी किया जाता है।
दूसरा लैटिन शब्द इल्युशन भी है
पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन (illuso) से और (illūdere) से क्रियाओं विकसित शब्द -
, में (in- में " ) + lūdere -"खेलने के लिए क्रीड़ा करना खेलना ") आदि रूपों से सम्बन्धित है।
यह क्रिया, लैटिन के साथ (ludus)"एक खेल, खेलो, ये सम्बन्धित है।"
PIE-( proto- indo- europian) (आद्य भारोपीय) रूट -*leid-या*loid- से सम्बंधित है जिसका अर्थ है "खेलना,"
मृगतृष्णा
लैटिन (illusio) से ही फ्रांसीसी में विकसित (illusion) भ्रम का वाचक है। इस इल्युशन शब्द के मोह माया जादू आदि अन्य अर्थ भी प्रचलित हैं। देखा जाय तो संस्कृत में भी
१-लड्=
विलास करना /क्रीडा करना
२-लड= उपसेवायाम्
३-लड= विकाशे आदि अर्थों की वाचक धातु धातुपाठ में लिखित है।
लल= ईप्सायाम् - लालयते कुं लालयते-कुलालः भ्वादौ लड- विलासे (1250) लडति 155।
जिससे लाड- लाडो, ललन, लीला ,जैसे शब्द विकसित हुए है।
लास्य रूप में प्रचलित रास का मूल रूप है।
इसका विकास संस्कृत धातु -लस=
श्लेषण,क्रीडनयोः (लसतीत्यादि विलासी) "वौ कषलस''इति तच्छीलादौ घिनुण् न लसः, (अलसः, आलस्यम्)
लस=
शिल्पयोगे च।
अत्र स्वामी शिल्पोपयोगइति पठित्त्वा केचिन्मूर्धन्यान्तं पठन्तीत्याह ( लासयति ) श्लेषणक्रीडनयोर्लसतीति शपि 193
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मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई। वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।
कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है।
अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना।
रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।
इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे।
इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है।
दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आयी।
नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।
रासलीला में हंसोड़पात्र ( विदूषक) भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया।
रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं। लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है।
कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है।
पण्डा शब्द का संदर्भ पोथी-जन्त्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं।
संलापकं श्रीगदितं शिल्पकं च विलासिका ।
दुर्मल्लिका प्रकरणी हल्लीशो भाणिकेति च ।। सूत्र ६.५ ।। साहित्य दर्पण-
हल्लीशक महाभारत में वर्णित एक नृत्यशैली है। इसका एकमात्र विस्तृत वर्णन महाभारत के खिल्ल भाग हरिवंश (विष्णु पर्व, अध्याय 20 ) में मिलता है।
विद्वानों ने इसे रास का पूर्वज माना है साथ ही रासक्रीड़ा का पर्याय भी। आचार्य नीलकंठ ने टीका करते हुए लिखा है - 'हस्लीश क्रेडर्न एकस्य पुंसो बहुभि: स्त्रीभि: क्रीडन सैव रासकीड़'। (हरि. 2.20.36) 'हल्लीशक' का शाब्दिक अर्थ है - 'हल का ईषा- हत्था'।
यह नृत्य स्त्रियों का है जिसमें एक ही पुरुष श्रीकृष्ण होता है। यह दो दो गोपिकाओं द्वारा मंडलाकार बना तथा श्रीकृष्ण को मध्य में रख संपादित किया जाता है। हरिवंश के अनुसार श्रीकृष्ण वंशी, अर्जुन मृदंग, तथा अन्य अप्सराएँ अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बजाते हैं।
इसमें अभिनय के लिए रंभा, हेमा, मिश्रकेशी, तिलोत्तमा, मेनका, आदि अप्सराएँ प्रस्तुत होती हैं। सामूहिक नृत्य, सहगान आदि से मंडित यह कोमल नृत्य श्रीकृष्णलीलाओं के गान से पूर्णता पाता है। इसका वर्णन अन्य किसी पुराण में नहीं आता।
भासकृत बालचरित् में हल्लीशक का उल्लेख है। अन्यत्र संकेत नहीं मिलता।
शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में व्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है। इतिहास से यह स्पष्ट हो जाता है कि आभीर जाति देव संस्कृति के अनुयायियों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा देव संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्त्री-स्वातंत्र्य देवसंसकृति की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और केशो की दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी गोप पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं- "ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा। कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।। -हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-
"मण्डले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्। नेता तत्र भवदेको, गोपस्रीणां यथा हरि:।।
इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं।
द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
"पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्। तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।७। तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:। एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।८।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा, क्योंकि जैनियों के २३वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही आभीर यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास किया जा सकता है
आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था परन्तु कामुकता नही थी । व्रज रास भारत के प्राचीनतम नृत्यों में अग्रगण्य है। अत: भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्र में रास को रासक नाम से उप-रुपकों में रखकर इसके तीन रुपों का उल्लेख किया है-
१- मंडल रासक, २-ताल रासक,३- दंडक रासक या लकुट रासक।
देश में आज जितने भी नृत्य रुप विद्यमान हैं, उन परत्र रास का प्रभाव किसी-न-किसी रुप में पड़ा है।
गुजरात का 'गरबा', राजस्थान का 'डांडिया' आदि नृत्य, मणिपुर का रास-नृत्य तथा संत ज्ञानदेव के द्वारा स्थापित 'अंकिया नाट' तो पूरी तरह रास से ही प्रभावित नृत्य व नाट्य रुप है।
यह हल्लीसक एक प्रकार का वादन – गान के साथ लोकनृत्य था । यही रास का प्रारम्भिक रूप था । छालिक्य एक समूह गीत था , जिसके अन्तर्गत विभिन्न वाद्यों का वादन एवं नृत्य होता था । विष्णु पर्व के अनुसार इसको विभिन्न ग्रामरागों के अन्तर्गत विविध स्थान तथा मूर्च्छनाओं के साथ गाया जाता था ।
यह गान शैली अत्यन्त कठिन थी ।
कुछ विद्वान 'रास' का पूर्व रूप 'हल्लीसक ' मानते है। 'रास' और 'हल्लीसक' पृथक्-पृथक् परंपराएँ थी। जो बाद में एक-दूसरे से संबंद्ध हो गई थीं।
इस प्रकार श्रीकृष्ण के नृत्य-नाट्य का आरंभिक नाम 'हल्लीसक' था। उसके लिए सदा से 'रास' शब्द ही लोक में प्रचलित नहीं रहा है। ऐसा ज्ञात होता है 'रास' की पहिले मौखिक परंपरा थी, जो प्रचुर काल तक विद्यमान रही थी। उसी मौखिक और लोक प्रचलित शब्द को 'भागवत' कार ने साहित्य में अमर-कर दिया था।
कृष्णोत्तर काल से मौर्य-पूर्व काल तक की स्थिति में "रास" का स्वरूप। श्रीकृष्ण द्वारा प्रचलित तथाकथित 'रास' आरंभ में व्रज का एक लोक-नृत्य अथवा लोक नृत्य-नाट्य था, जो पुरातन ब्रजवासियों के मनोविनोद का साधन था। जब कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब 'रास' को भी धार्मिक महत्व प्राप्त हो गया था।
उस समय लोक के साथ धर्म के क्षेत्र में भी रास का प्रवेश हो गया था। कृष्णोपासक भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मो ने 'रास' की धार्मिक महत्व को स्वीकार किया था, और श्रीमद्भागवत ने उसके गौरव को बढ़ाया था।
प्राचीन "व्रज में बुद्ध एवं महावीर द्वारा प्रवर्तित बौद्ध तथा जैन धर्मो का प्रचार हुआ, तब भागवत एवं पौराणिक हिंदू धर्मों का प्रभाव कुछ कम हो गया था।
फलत: कृष्णोपासना तथा 'रास' के धार्मिक महत्व में भी कमी आ गई थी। उसका एक बड़ा कारण यह था कि बौद्ध और जैन धर्म वैराग्य एंव निवृत्ति प्रधान थे; जिनकी धार्मिक मान्यता में कृष्णोपासना एवं 'रास' के लिए कोई समुचित स्थान नहीं था।
बौद्ध-जैन धर्मों को कुछ समय पश्चात ही अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना पड़ा था। तब उनके द्वारा नृत्य-नाट्य के धार्मिक स्वरूप को प्रश्रय प्रदान किया गया। उस परिवर्तन का प्रभाव प्राचीन ब्रज में दिखलाई देने लगा था। फलत: पौराणिक हिंदू धर्मों के मंदिर-देवालयों की भाँति बौद्ध-जैन धर्मो के उपासनालयों एवं पूजा-गृहों में भी नृत्य-नाट्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो गया। इसका प्रमाण तत्कालीन साहित्यिक, धार्मिक एवं ऐतिहासिक उल्लेखों और स्थापत्य की कलाकृतियों में मिलता है। जहाँ तक 'रास' का संबंध हैं, उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। कुछ कलाकृतियों में उसके रूप का आभास होता है।
नृत्य अहीरों में पहले से रहा है। उर्वशी का नाम एक खूबसूरत नर्तकी के रूप में लिया जाता था और उस युग में नर्तकियों को अप्सरा कहा जाता था। । पुरुरवा और उर्वशी नाम इतिहास में शामिल करते समय इन दोनों के माता पिताओं का नाम अहीर जाति से सम्बन्धित है।,
तथा उर्वशी भगवान कृष्ण की विभूति हैं। पुरुरवा गोप और उर्वशी अहीर का नाम इतिहास में जुड़ा तो बहुत बड़ी महाक्रान्ति होगी।
जितने अपने को चन्द्र वंशी ,सोमवंशी यदुवंशी कुरुवंशी राजपूत क्षत्रिय कहते हैं। वह सब अहीरों से सम्बन्धित शाखाएं हैं।
यादवों का प्राचीन काल से ही गायन वादन और नृत्य अर्थात संगीत विधा पर पूर्ण स्वामित्व रहा है।
"हल्लिशम नृत्य और आभीर राग अहीरों की मौलिक संगीत सर्जना का प्रमाण है।
भगवान कृष्ण का जन्म व बाल्यकाल आभीर जाति में हुआ था। आभीरों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति थी, जिसमें पूर्ण नारी- स्वातंत्रय तो था ही, साथ ही वे राग- रंग के भी बड़े प्रेमी थे। उनका लोकनृत्य हल्लीश या हल्लीसक सर्वविख्यात रहा है, जिसका वर्णन अनेक लक्षण ग्रंथों में भी मिल जाता है --
"मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् । तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६। सरस्वतीकण्ठाभरणम् /परिच्छेदः (२)
सरस्वतीकण्ठाभरणम्
परिच्छेदः २
भोजराजः
यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।
नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।
तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।
हल्लीसकं च रासं च षट्प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।
____________________
मण्डलेन तु यत्स्त्रीणां नृत्यं हल्लीसकं तु तत् ।
तत्र नेता भवेदेको गोपस्त्रीणां हरिर्यथा ।। २.१५६ ।। (२.१४४)
अर्थ-
मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक कहलाता है ।
उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।
"अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।
षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)
चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।
शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)
____________________
इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कारनिरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।
नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है ।
विशेष —इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है।
इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं।
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।
मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नीमान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा।
यह हल्लीसक नृत्य एक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें नायिका अनेक किंतु नायक एक ही होता था। इस नृत्य के लिए आभीर स्त्रियाँ उस पराक्रमी पुरुष को अपने साथ नृत्य के लिए आमंत्रित करती थीं, तो अतुलित पराक्रम प्रदर्शित करता था। हरिवंश पुराण के अनुसार आभीर नारियों ने श्री कृष्ण को इस नृत्य के लिए उस समय आमंत्रित किया था, जब इंद्र- विजय के उपरांत वह महापराक्रमी वीर पुरुष के रुप में प्रतिष्ठित हुए थे।
इन्द्र- विजय के उपरान्त आभीर नारियों के साथ श्री कृष्ण के इस नृत्य का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के हल्लीसक क्रीड़न अध्याय में प्राप्त हुआ है।
इसी हल्लीसक नृत्य को श्रीकृष्ण ने अपनी कलात्मकता से संवार कर जो रुप दिया, वही बाद में रास के नाम से विकसित होकर "रसो वै सः रास ' के रुप में प्रतिष्ठित हुआ।
भगवान कृष्ण के द्वारकाधीश चले जाने पर यह नृत्य कृष्णकाल में द्वारका के यदुवंशियों
का राष्ट्रीय नृत्य बन गया था। गुजरात के अहीर आज तक इस परम्परा का निर्वहन करते चले आ रहे हैं। इस नृत्योत्सव का विस्तृत वर्णन हरिवंश पुराण के "छालिक्य संगीत' अध्याय में उपलब्ध है।
शारदातनय का कथन है कि द्वारका में रास के विकास में श्री कृष्ण की पौत्रवधू अनिरुद्ध- पत्नी उषा का बड़ा योगदान था, जो स्वयं नृत्य में पारंगत थी। यह पार्वतीजी की शिष्या थी, जिसने उनसे लास्य- नृत्य की शिक्षा ग्रहण की थी।
उसने द्वारका के नारी- समाज को विशेष रुप से रास- नृत्य में प्रशिक्षित किया था।
द्वारका पहुँचने पर यह रास- नृत्य नाटिकाओं का रुप ले चुका था। जिसमें श्री कृष्ण व बलराम की जीवन की प्रमुख घटनाओं का प्रदर्शन होता था।
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्र में लोकधर्मी उपरुपकों के अंतर्गत रास के "रासक' और "नाट्य रासक' दो रुपों का उल्लेख किया है। इससे प्रतीत होता है कि उस काल में रास के दो रुप अलग- अलग विकसित हो गए थे। "नाट्य रासक' जहाँ नाट्योन्मुख नृत्य- संगीत का प्रतिनिधि था, वहाँ इसका शुद्ध नृत्य रुप "रासक' था। "रासक' के भरतमुनि ने भेद किए हैं --
१. मण्डल रासक
२. लकुट रासक तथा
३. ताल रासक।
मण्डलाकार नृत्य मंडल रासक, हाथों से दंडा बजाकर नृत्य करना लकुट रासक या दंड रासक और हाथों से ताल देकर समूह में नृत्य करना संभवतः ताल रासक था। यह रासक परंपरा बाद में विभिन्न रुपों में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों में विकसित हुई ( जिसका परिचय यहाँ देना संभव नहीं है ) बाद में जैन धर्म में ही रासक परम्परा बाद बहुत लोकप्रिय हुई, क्योंकि श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमिनाथजी को जैन धर्म ने अपना २३ वाँ तीर्थंकर स्वीकार कर लिया था। जिन्हें प्रसन्न करने के लिए जैन मंदिरों में भी रास उपासना का अंग बन गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि कृष्णकाल से प्रारम्भ होकर रास की प्राचीन परम्परा विभिन्न उतार- चढ़ावों के मध्य १५ वीं शताब्दी के अन्त तक या १६ वीं शताब्दी के प्रारंभ तक आभीर जाति में रही , जबकि वर्तमान रास का पुनर्गठन हुआ, निरन्तर किसी न किसी रुप में विद्यमान रही और उसी के वर्तमान रास- मञ्च उद्भूत हुआ।
इस प्रकार रास भारत का वह मंच है जो कृष्णकाल से आज तक निरंतर जीवित- जाग्रत रहा है।
भारत में दूसरा कोई ऐसा मंच नहीं जो इतना दीर्घजीवी हुआ हो। इसी के रास की लोकप्रियता और महत्ता स्पष्ट है।
अहीर भैरव एक लोकप्रिय राग है जिसमें कोमल ऋषभ और कोमल निषाद के स्वरों का संयोजन होता है।
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बलरामश्रीकृष्णादीनां यादवानां जलक्रीडा एवं गानादिकानां वर्णनम्-
एकोननवतितमोऽध्यायः "वैशम्पायन उवाच रेमे बलश्चन्दनपङ्कदिग्धः कादम्बरीपानकलः पृथुश्रीः। रक्तेक्षणो रेवतिमाश्रयित्वा प्रलम्बबाहुर्ललितप्रयातः ।१।
नीलाम्बुदाभे वसने वसानश्चन्द्रांशुगौरो मदिराविलाक्षः । रराज रामोऽम्बुदमध्यमेत्य सम्पूर्णबिम्बो भगवानिवेन्दुः ।२। वामैककर्णामलकुण्डलश्रीः स्मेरं मनोज्ञाब्जकृतावतंसः । तिर्यक्कटाक्षं प्रियया मुमोद रामः सुखं चार्वभिवीक्ष्यमाणः ।३। अथाज्ञया कंसनिकुम्भशत्रोरुदाररूपोऽप्सरसां गणः सः। द्रष्टुं मुदा रेवतिमाजगाम वेलालयं स्वर्गसमानमृद्ध्या ।४। तां रेवतीं चाप्यथ वापि रामं सर्वा नमस्कृत्य वराङ्गयष्ट्यः। वाद्यानुरूपं ननृतुः सुगात्र्यः समन्ततोऽन्या जगिरे च सम्यक्।५। चकुस्तथैवाभिनयेन रङ्गं यथावदेषां प्रियमर्थयुक्तम् हद्यानुकूलं च बलस्य तस्य तथाज्ञया रेवतराजपुत्र्याः।६। चक्रुर्हसन्त्यश्च तथैव रासं तद्देशभाषाकृतिवेषयुक्ताः सहस्ततालं ललितं सलीलं वराङ्गना मङ्गलसम्भृताङ्ग्यः ।७। संकर्षणाधोक्षजनन्दनानि संकीर्तयन्त्योऽथ च मङ्गलानि । कंसप्रलम्बादिवधं च रम्यं चाणूरघातं च तथैव रङ्गे ।८। यशोदया च प्रथितं यशोऽथ दामोदरत्वं च जनार्दनस्य । वधं तथारिष्टकधेनुकाभ्यां व्रजे च वासं शकुनीवधं च ।९। तथा च भग्नौ यमलार्जुनौ तौ सृष्टिं वृकाणामपि वत्सयुक्ताम् । स कालियो नागपतिर्ह्रदे च कृष्णेन दान्तश्च यथा दुरात्मा ।2.89.१०। शङ्खहृदादुद्धरणं च वीर पद्मोत्पलानां मधुसूदनेन। गोवर्द्धनोऽर्थे च गवां धृतोऽभूद् यथा च कृष्णेन जनार्दनेन ।।११।। कुब्जां यथा गन्धकपीषिकां च कुब्जत्वहीनां कृतवांश्च कृष्णः । अवामनं वामनकं च चक्रे कृष्णो यथाऽऽत्मानमजोऽप्यनिन्द्यः।।१२। सौभप्रमाथं च हलायुधत्वं वधं मुरस्याप्यथ देवशत्रोः । गान्धारकन्यावहने नृपाणां रथे तथा योजनमूर्जितानाम् ।। १३ । ततः सुभद्राहरणे जयं च युद्धे च बालाहकजम्बुमाले । रत्नप्रवेकं च युधाजितैर्यत् समाहृतं शक्रसमक्षमासीत् ।।१४।। एतानि चान्यानि च चारुरूपा जगुः स्त्रियः प्रीतिकराणि राजन् । सङ्कर्षणाधोक्षजहर्षणानि चित्राणि चानेककथाश्रयाणि ।।१५।। कादम्बरीपानमदोत्कटस्तु बलः पृथुश्रीः स चुकूर्द रामः । सहस्ततालं मधुरं समं च स भार्यया रेवतराजपुत्र्या ।। १६ ।। तं कूर्दमानं मधुसूदनश्च दृष्ट्वा महात्मा च मुदान्वितोऽभूत्। चुकूर्द सत्यासहितो महात्मा हर्षागमार्थं च बलस्य धीमान् ।। १७ ।। समुद्रयात्रार्थमथागतश्च चुकूर्द पार्थो नरलोकवीरा । कृष्णेन सार्द्धं मुदितश्चुकूर्द सुभद्रया चैव वराङ्गयष्ट्या ।। १८ ।। गदश्च धीमानथ सारणश्च प्रद्युम्नसाम्बौ नृप सात्यकिश्च । सात्राजितीसूनुरुदारवीर्यः सुचारुदेष्णश्च सुचारुरूपः ।। १९ ।। वीरौ कुमारौ निशठोल्मुकौ च रामात्मजौ वीरतमौ चुकूर्दतुः । अक्रूरसेनापतिशंकवश्च तथापरे भैमकुलप्रधानाः ।। 2.89.२० ।। तद् यानपात्रं ववृधे तदानीं कृष्णप्रभावेण जनेन्द्रपुत्र । आपूर्णमापूर्णमुदारकीर्ते चुकूर्दयद्भिर्नप भैममुख्यैः ।। २१ ।।। तै राससक्तैरतिकूर्दमानैर्यदुप्रवीरैरमरप्रकाशैः । हर्षान्वितं वीर जगत् तथाभूच्छेमुश्च पापानि जनेन्द्रसूनो ।। २२ ।। देवातिथिस्तत्र च नारदोऽथ विप्रः प्रियार्थं मुरकेशिशत्रोः । चुकूर्द मध्ये यदुसत्तमानां जटाकलापागलितैकदेशः ।। २३ ।। रासप्रणेता मुनि राजपुत्र स एव तत्राभवदप्रमेयः । मध्ये च गत्वा च चुकूर्द भूयो हेलाविकारैः सविडम्बिताङ्गैः ।।२४ ।। स सत्यभामामथ केशवं च पार्थं सुभद्रां च बलं च देवम् । देवीं तथा रेवतराजपुत्रीं संदृश्य संदृश्य जहास धीमान् ।।२५ ।। ता हासयामास सुधैर्ययुक्तास्तैस्तैरुपायैः परिहासशीलः । चेष्टानुकारैर्हसितानुकारैर्लीलानुकारैरपरैश्च धीमान् ।२६ ।। आभाषितं किंचिदिवोपलक्ष्य नादातिनादान् भगवान् मुमोच । हसन् विहासांश्च जहास हर्षाद्धास्यागमे कृष्णविनोदनार्थम् ।। २७ । कृष्णाज्ञया सातिशयानि तत्र यथानुरूपाणि ददुर्युवत्यः । रत्नानि वस्त्राणि च रूपवन्ति जगत्प्रधानानि नृदेवसूनो ।। २८ ।। माल्यानि च स्वर्गसमुद्भवानि संतानदामान्यतिमुक्तकानि । सर्वर्तुकान्यप्यनयंस्तदानीं ददुर्ह रेरिङ्गितकालतज्ज्ञाः ।।२९।। रासावसाने त्वथ गृह्य हस्ते महामुनिं नारदमप्रमेयः पपात कृष्णो भगवान् समुद्रे सात्राजितीं चार्जुनमेव चाथ ।। 2.89.३० ।। उवाच चामेयपराक्रमोऽथ शैनेयमीषत्प्रहसन् पृथुश्रीः । द्विधा कृतास्मिन् पतताशु भूत्वा क्रीडाजलेनोऽस्तु सहाङ्गनाभिः ।।३१।। सरेवतीकोऽस्तु बलोऽर्द्धनेता पुत्रा मदीयाश्च सहार्द्धभैमाः । भैमार्द्धमेवाथ बलात्मजाश्च मत्पक्षिणः सन्तु समुद्रतोये ।।३२।। आज्ञापयामास ततः समुद्रं कृष्णः स्मितं प्राञ्जलिनं प्रतीतः । सुगन्धतोयो भव मृष्टतोयस्तथा भव ग्राहविवर्जितश्च ।। ३३ ।। दृश्या च ते रत्नविभूषिता तु सा वेलिका भूरथ पत्सुखा च । मनोऽनुकूलं च जनस्य तत्तत् प्रयच्छ विज्ञास्यसि मत्प्रभावात्।।३४।। भवस्यपेयोऽप्यथ चेष्टपेयो जनस्य सर्वस्य मनोऽनुकूलः । वैडूर्यमुक्तामणिहेमचित्रा भवन्तु मत्स्यास्त्वयि सौम्यरूपाः ।। ३५ ।। बिभृस्व च त्वं कमलोत्पलानि सुगन्धसुस्पर्शरसक्षमाणि । षट्पादजुष्टानि मनोहराणि कीलालवर्णैश्च समन्वितानि ।। ३६ ।। मैरेयमाध्वीकसुरासवानां कुम्भांश्च पूर्णान् स्थपयस्व तोये । जाम्बूनदं पाननिमित्तमेषां पात्रं पपुर्येषु ददस्व भैमाः ।। ३७ ।। पुष्पोच्चयैर्वासितशीततोयो भवाप्रमत्तः खलु तोयराशे । यथा व्यलीकं न भवेद् यदूनां सस्त्रीजनानां कुरु तत्प्रयत्नम् ।। ३८।। इतीदमुक्त्वा भगवान् समुद्रं ततः प्रचिक्रीड सहार्जुनेन । सिषेच पूर्वं नृप नारदं तु सात्राजिती कृष्णमुखेङ्गितज्ञा ।। ३९ ।। ततो मदावर्जितचारुदेहः पपात रामः सलिले सलीलम् । साकारमालम्ब्य करं करेण मनोहरां रेवतराजपुत्रीम् ।। 2.89.४० ।। कृष्णात्मजा ये त्वथ भैममुख्या रामस्य पश्चात् पतिताः समुद्रे । विरागवस्त्राभरणाः प्रहृष्टाः क्रीडाभिरामा मदिराविलाक्षाः ।। ४१ ।। शेषास्तु भैमा हरिमभ्युपेताः क्रीडाभिरामा निशठोल्मुकाद्याः । विचित्रवस्त्राभरणाश्च मत्ताः संतानमाल्यावृतकण्ठदेशाः ।। ४२ ।। वीर्योपपन्नाः कृतचारुचिह्ना विलिप्तगात्रा स्नलपात्रहस्ताः । गीतानि तद्वेषमनोहराणि स्वरोपपन्नान्यथ गायमानाः ।।४३ ।। ततः प्रचक्रुर्जलवादितानि नानास्वराणि प्रियवाद्यघोषाः । सहाप्सरोभिस्त्रिदिवालयाभिः कृष्णाज्ञया वेशवधूशतानि ।। ४४ ।। आकाशगङ्गाजलवादनज्ञाः सदा युवत्यो मदनैकचित्ताः । अवादयंस्ता जलदर्दुरांश्च वाद्यानुरूपं जगिरे च हृष्टाः ।। ४५ ।। कुशेशयाकोशविशालनेत्राः कुशेशयापीडविभूषिताश्च । कुशेशयानां रविबोधितानां जह्रुः श्रियं ताः सुरचारुमुख्यः ।। ४६ । स्त्रीवक्त्रचन्द्रैः सकलेन्दुकल्पै रराज राजञ्छतशः समुद्रः । यदृच्छया दैवविधानतो वा नभो यथा चन्द्रसहस्रकीर्णम् ।। ४७ ।। समुद्रमेघः स रराज राजञ्च्छतह्रदास्त्रीप्रभयाभिरामः । सौदामिनीभिन्न इवाम्बुनाथो देदीप्यमानो नभसीव मेघः ।। ४८ ।। नारायणश्चैव सनारदश्च सिषेच पक्षे कृतचारुचिह्नः बलं सपक्षं कृतचारुचिह्नं स चैव पक्षं मधुसूदनस्य ।। ४९।।हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्च प्रहृष्टरूपाः सिषिचुस्तदानीम् । रागोद्धता वारुणिपानमत्ताः संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्यः ।। 2.89.५० ।। आरक्तनेत्रा जलमुक्तिसक्ताः स्त्रीणां समक्षं पुरुषायमाणाः । ते नोपरेमुः सुचिरं च भैमा मानं वहन्तो मदनं मदं च ।। ५१ ।। अतिप्रसङ्गं तु विचिन्त्य कृष्णस्तान् वारयामास रथाङ्गपाणिः । स्वयं निवृत्तो जलवाद्यशब्दैः सनारदः पार्थसहायवांश्च ।। ५२ ।। कृष्णेङ्गितज्ञा जलयुद्धसङ्गाद् भैमा निवृत्ता दृढमानिनोऽपि । नित्यं तथाऽऽनन्दकराः प्रियाणां प्रियाश्च तेषां ननृतुः प्रतीताः ।। ५३ ।। नृत्यावसाने भगवानुपेन्द्रस्तत्याज धीमानथ तोयसङ्गान् । उत्तीर्य तोयादनुकूललेपं जग्राह दत्त्वा मुनिसत्तमाय ।५४ । उपेन्द्रमुत्तीर्णमथाशु दृष्ट्वा भैमा हि ते तत्यजुरेव तोयम् । विविक्तगात्रास्त्वथ पानभूमिं कृष्णाज्ञया ते ययुरप्रमेयाः ।५५। यथानुपूर्व्या च यथावयश्च यत्सन्नियोगाश्च तदोपविष्टाः । अन्नानि वीरा बुभुजुः प्रतीताः पपुश्च पेयानि यथानुकूलम् ।। ५६ ।।
________मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन। निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्। वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८। पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि । नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९। पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि । सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।
समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च । तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः । ६१ । कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः।मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।६२। श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च। आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।६३।
अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः। पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।६४।
तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु । शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।।६५ ।। तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः। गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।६६।
_____ आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः ।छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति ।६७। जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः।६८। मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः। आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा ।६९। तयाभिनीते वरगात्रयष्ट्या तुतोष रामश्च जनार्दनश्च अथोर्वशी चारुविशालनेत्रा हेमा च राजन्नथ मिश्रकेशी । 2.89.७०। तिलोत्तमा चाप्यथ मेनका च एतास्तथान्याश्च हरिप्रियार्थम् । जगुस्तथैवाभिनयं च चक्रु रिष्टैश्च कामैर्मनसोऽनुकूलैः ।७१ । ता वासुदेवेऽप्यनुरक्तचित्ताः स्वगीतनृत्याभिनयैरुदारैः । नरेन्द्रसूनो परितोषितेन ताम्बूलयोगाश्च वराप्सरोभिः ।७२। तदागताभिर्नृवराहृतास्तु कृष्णेप्सया मानमयास्तथैव। फलानि गन्धोत्तमवन्ति वीराश्छालिक्यगान्धर्वमथाहृतं च ।७३।
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कृष्णेच्छया च त्रिदिवान्नृदेव अनुग्रहार्थं भुवि मानुषाणाम् । स्थितं च रम्यं हरितेजसेव प्रयोजयामास स रौक्मिणेयः।७४। छालिक्यगान्धर्वमुदारबुद्धिस्तेनैव ताम्बूलमथ प्रयुक्तम् । प्रयोजितं पञ्चभिरिन्द्रतुल्यैश्छालिक्यमिष्टं सततं नराणाम् ।७५।
शुभावहं वृद्धिकरं प्रशस्तं मङ्गल्यमेवाथ तथा यशस्यम । पुण्यं च पुष्ट्यभ्युदयावहं च नारायणस्येष्टमुदारकीर्तेः ।७६ । जयावहं धर्मभरावहं च दुःस्वप्ननाशं परिकीर्त्यमानम् । करोति पापं च तथा विहन्ति शृण्वन् सुरावासगतो नरेन्द्रः ।७७।
छालिक्यगान्धर्वमुदारकीर्तिर्मेने किलैकं दिवसं सहस्रम् । चतुर्युगानां नृप रेवतोऽथ ततः प्रवृत्ता च कुमारजातिः ।७८ । गान्धर्वजातिश्च तथापरापि दीपाद् यथा दीपशतानि राजन् । विवेद कृष्णश्च स नारदश्च प्रद्युम्नमुख्यैर्नृप भैममुख्यैः ।७९ । विज्ञानमेतद्धि परे यथावदुद्देशमात्राच्च जनास्तु लोके । जानन्ति छालिक्यगुणोदयानां तोयं नदीनामथवा समुद्रः ।2.89.८० । ज्ञातुं समर्थो हि महागिरिर्वा फलाग्रतो वा गुणतोऽथ वापि । शक्यं न छालिक्यमृते तपोभिः स्थाने विधानान्यथ मूर्च्छनासु।८१। षड्ग्रामरागेपु च तत्तु कार्यं तस्यैकदेशावयवेन राजन् । लेशाभिधानां सुकुमारजातिं निष्ठां सुदुःखेन नराः प्रयान्ति ।८२ । छालिक्यगान्धर्वगुणोदयेषु ये देवगन्धर्वमहर्षिसंघाः निष्ठां प्रयान्तीत्यवगच्छ बुद्ध्या छालिक्यमेवं मधुसूदनेन ।८३।
भैमोत्तमानां नरदेव दत्तं लोकस्य चानुग्रहकाम्ययैव गतं प्रतिष्ठाममरोपगेयं बाला युवानश्च तथैव वृद्धाः ।८४.। क्रीडन्ति भैमाः प्रसवोत्सवेषु पूर्वं तु बालाः समुदावहन्ति । वृद्धाश्च पश्चात्प्रतिमानयन्ति स्थानेषु नित्यं प्रतिमानयन्ति । ८५। मर्त्येषु मर्त्यान् यदवोऽतिवीराः स्ववंशधर्मे समनुस्मरन्तः। पुरातनं धर्मविधानतज्ज्ञाः प्रीतिः प्रमाणं न वयः प्रमाणम् ।८६। प्रीतिप्रमाणानि हि सौहृदानि प्रीतिं पुरस्कृत्य हि ते दशार्हाः । वृष्ण्यन्धकाः पुत्रसखा बभूवुर्विसर्जिताः केशिविनाशनेन ।८७ ।
स्वर्गे गताश्चाप्सरसां समूहाः कृत्वा प्रणामं मधुकंसशत्रोः । प्रहृष्टरूपस्य सुहृष्टरूपा बभूव हृष्टः सुरलोकसङ्घः ।८८।
कृष्ण का चरित्रांकन देश और समाज की प्रवृत्तियों के अनुरूप हर काल में भिन्न भिन्न रूप में हुआ। परन्तु कुछ शास्त्रकार ऐसे भी थे जिन्होंने कृष्ण का चरित्रांकन कामशास्त्र के नायक के रूप में किया ये शास्त्रकार कृष्ण को देव संस्कृति के समर्थकों में प्रतिष्ठित करना चाहते थे।
हरिवंश पुराण कार ने रास प्रकरण में काल्पनिक उपादानों को आधार मानकर यही प्रयास किया है।
परन्तु सच्चे अर्थों में कृष्ण देवसंस्कृति के कटु आलोचक तथा इन्द्र यज्ञ और पूजा के प्रबल विरोधी थे।
परन्तु पुष्यमित्र सुँग ने देवयज्ञों प्रारम्भ कराकर पुन: यज्ञों पशु बलि की पृथा भी प्रारम्भ कराई -
"यह सम्भव है कि कुछ यादव साकाहारी और कुछ मासाँहारी भी रहे होंगे। जैसा कि आज भी है। परन्तु कृष्ण और बलराम जैसे भागवत धर्म के संस्थापकों को मदिरा पान कराकर माँस भक्षण करते हुए दिखाना और अनेक स्त्रीयों के साथ व्यभिचारी की भूमिका में प्रस्तुत करना " श्रीमद् भगवद्गीता के सिद्धान्तों के विपरीत है। पुराणों में जिस प्रकार ब्राह्मणों का प्रसंग न होने पर भी विना किसी कारण के अचानक दान और सेवा आदि से संतुष्ट करने की बातें सर्वविदित ही हैं। हरिवंश पुराण से कुछ तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं जो पूर्णत: उनके वास्तविक चरित्र के विपरीत हैं। फिर भी ब्राह्मण शास्त्रकार उन्हें लिखकर कृष्ण के सामाजिक वर्चस्व को समाप्त करना चाहते हैं। मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन। निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्। वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८। पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि । नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९। पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि । सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।
समूलकैर्दाडिममातुलिङ्गैः पर्णासहिङ्ग्वार्द्रकभूस्तृणैश्च । तदोपदंशैः सुमुखोत्तरैस्ते पानानि हृष्टाः पपुरप्रमेयाः । ६१ । कट्वाङ्कशूलैरपि पक्षिभिश्च घृताम्लसौवर्चलतैलसिक्तैः।मैरेयमाध्वीकसुरासवांस्ते पपुः प्रियाभिः परिवार्यमाणाः ।६२। श्वेतेन युक्तानपि शोणितेन भक्ष्यान्सुगन्धांल्लवणान्वितांश्च। आर्द्रान्किलादान् घृतपूर्णकांश्च नानाप्रकारानपि खण्डखाद्यान् ।६३।
अपानपाश्चोद्धवभोजमिश्राः शाकैश्च सूपैश्च बहुप्रकारैः। पेयैश्च दघ्ना पयसा च वीराः स्वन्नानि राजन् बुभुजुः प्रहृष्टाः ।६४।
तथारनालांश्च बहुप्रकारान् पपुः सुगन्धानपि पालवीषु । शृतं पयः शर्करया च युक्तं फलप्रकारांश्च बहूंश्च खादन् ।६५। तृप्ताः प्रवृत्ताः पुनरेव वीरास्ते भैममुख्या वनितासहायाः। गीतानि रम्याणि जगुः प्रहृष्टाः कान्ताभिनीतानि मनोहराणि ।६६।
_____ आज्ञापयामास ततः स तस्यां निशि प्रहृष्टो भगवानुपेन्द्रः।छालिक्यगेयं बहुसंनिधानं यदेव गान्धर्वमुदाहरन्ति।६७। जग्राह वीणामथ नारदस्तु षड्ग्रामरागादिसमाधियुक्ताम् ।हृल्लीसकं तु स्वयमेव कृष्णः सवंशघोषं नरदेव पार्थः ।६८। मृदङ्गवाद्यानपरांश्च वाद्यान् वराप्सरस्ता जगृहुः प्रतीताः। आसारितान्तं च ततः प्रतीता रम्भोत्थिता साभिनयार्थतज्ज्ञा।६९।
"हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय:89 वाँ अध्याय -
श्लोक 53-69 का हिन्दी अनुवाद :-श्रीकृष्ण के संकेतों को समझने वाले भीमवंशी यादव सुदृढ़ अभिमान से युक्त होने पर भी उस जल युद्ध के प्रसंग से निवृत्त हो गये। तदनन्तर उन प्रिय पुरुषों को नित्य आनन्द देने वाली उनकी प्यारी वार-वनिताएं विश्वस्त होकर नृत्य करने लगीं। नृत्य के अन्त में बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण ने जलक्रीड़ा के प्रसंग त्याग दिये।
उन्होंने जल से ऊपर आकर मुनिवर नारद जी को अनुकूल चन्दन का लेप देकर फिर स्वयं भी उसे ग्रहण किया। भगवान् श्रीकृष्ण को जल से बाहर निकला देख अन्य यादवों ने भी जलक्रीड़ा त्याग दी।
फिर वे अप्रमेय शक्तिशाली कुछ यादव शुद्ध शरीर हो श्रीकृष्ण की आज्ञा से पानभूमि ( जलपानगृह) में गये। वहाँ वे क्रमश: अवस्था और सम्बन्ध के अनुसार उस समय भोजन के लिये बैठे।
तदनन्तर उन प्रख्यात वीरों ने अपनी रुचि के अनुकूल अन्न खाये और पेय रसों का पान किया।
पके फलों के गूदे (पका हुआ मांस, खट्टे फल, अधिक खट्टे अनार के साथ शूल में गूँथकर सेके गये महिष का मांस ये सब पदार्थ पवित्र रसोईयों ने उनके लिये परोसे।
शूल में गूँथकर पकाये गये महिष का मांस नारियल, तपे हुए घी में तले गये अन्यान्य खाद्य पदार्थ, अमलवेंत, काला नमक और चूक के मेल से बने हुए लेह्य पदार्थ (चटनी)- ये सब वस्तुएं पाकशालाध्यक्ष के कहने से रसोईयों ने इन यादवों के लिये प्रस्तुत कीं।
"पाकशालाध्यक्ष के बताये अनुसार विधिवत तैयार किये गये मृग के मोटे-मोटे गूदे, आम की खटाई डालकर बनाये गये नाना प्रकार के विशुद्ध व्यंजन भी इनके लिये परोसे गये।
मांसानि पक्वानि फलाम्लकानि चुक्रोत्तरेणाथ च दाडिमेन। निष्टप्तशूलाञ्छकलान् पशूंश्च तत्रोपजह्रुः शुचयोऽथ सूदाः ।५७।सुस्विन्नशूल्यान्महिषांश्च बालाञ्छूल्यान्सुनिष्टप्तघृतावसिक्तान्। वृक्षाम्लसौवर्चलचुक्रपूर्णान् पौरोगवोक्त्या उपजह्रुरेषाम् ।५८। पौरोगवोक्त्या विधिना मृगाणां मांसानि सिद्धानि च पीवराणि । नानाप्रकाराण्युपजह्रुरेषां मृष्टानि पक्वानि च चुक्रचूतैः ।५९। पार्श्वानि चान्ये शकलानि तत्र ददुः पशूनां घृतमृक्षितानि । सामुद्रचूर्णैरवचूर्णितानि चूर्णेन मृष्टेन समारिचेन ।। 2.89.६०।
दूसरे रसोईयों ने पास रखे हुए पोषक शाकों के टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें घी में तल दिये और उनमें नमक तथा मिर्च के चूर्ण मिलाकर खाने वालों को परोस दिये। मूली, अनार बिजौरा, नीबू, तुलसी, हींग और भूतृण नामक शाक विशेष के साथ सुन्दर मुख वाले पानपात्र लेकर उन अप्रमेय शक्तिशाली यादवों ने बड़े हर्ष के साथ पेय रस का पान किया।
कट्वांक अर्थात कटुक परवल, शूलहर (हींग) तथा नमक-खटाई मिलाकर घी और तेल में सेके गये लकुच या बड़हर[2]
के साथ मैरेय, माध्वीक, सुरासव नामक मधु( मदिरा) का उन यादवों ने अपनी प्रियतमाओं से घिरे रहकर पान किया।
नरेश्वर ! श्वेत रंग के खाद्य पदार्थ मिश्री आदि तथा लाल रंग के फल के साथ नाना प्रकार के सुगन्धित एवं नमकीन भोजन एवं आद्र (रसदार साग), किलाद (भैंस के दूध में पकाये गये खीर आदि), घी से भरे हुए पदार्थ (पुआ-हलुआ आदि) तथा भाँति-भाँति के खण्ड-खाद्य (खाँड़ आदि) उन्होंने खाये।
राजन ! उद्धव, भोज आदि श्रेष्ठ यादव वीरों ने जो मादक रसों का पान नहीं करते थे, बड़े हर्ष के साथ नाना प्रकार के साग, दाल, पेय-पदार्थ तथा दही-दूध आदि के साथ उत्तम अन्न का भोजन किया।
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उन्होंने प्यालों में अनेक प्रकार के सुगन्धित आरनाल (कांजीरस) का पान किया। चीनी मिलाये हुए गरम-गरम दूध पीया और भाँति-भाँति के फल भी खाये।
खा-पीकर तृप्त होने के पश्चात वे मुख्य-मुख्य यदुवंशी वीर पुन: स्त्रियों को साथ लेकर बड़े हर्ष के साथ रमणीय एवं मनोहर गीत गाने लगे।
उनकी प्रेयसी कामिनियाँ अपने हाव-भाव द्वारा उन गीतों के अर्थ का अभिनय करती जाती हैं। तदनन्तर हर्ष में भरे हुए भगवान् उपेन्द्र ने उस रात में बहुसंख्यक मनुष्यों द्वारा सम्पन्न होने वाले उस छालिक्य गान के लिये आज्ञा दी, जिसे गान्धर्व कहते हैं।
उस समय नारद जी ने अपनी वीणा सँभाली, जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र कर देने वाली थी।
नरदेव ! साक्षात् श्रीकृष्ण ने वंशी बजाकर हृल्लीसक[4] (रास) नामक नृत्य का आयोजन किया।
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कुन्तीपुत्र अर्जुन ने मृदंग वाद्य ग्रहण किया। अन्य वाद्यों को श्रेष्ठ अप्सराओं ने ग्रहण किया जो उनके वादन कला में प्रख्यात थीं। आसारित[5] (प्रथम आसारनर्त की-प्रवेश) के बाद अभिनय के अर्थतत्त्व का ज्ञान रखने वाली रम्भा नामक अप्सरा उठी, जो अपनी अभिनय कला के लिये विख्यात थी।
अध्याय 90 - यादवों का रास नृत्य का आयोजन - (जारी) हरिवंश पुराणविष्णु- पर्व-- 1. वैशम्पायन ने कहा:- कादम्बर मदिरा पीने के कारण बलराम ने स्वयं पर तथा अपनी गतिविधियों पर सारा नियंत्रण खो दिया था और उसकी आँखें लाल हो गई थीं, चंदन से चिपकी हुई बड़ी भुजाओं वाली अत्यंत सुंदर पत्नी रेवती के साथ वे क्रीड़ा करने लगे ।१।
2. जैसे पूर्णिमा का चंद्रमा बादलों में चमकता है, वैसे ही काले वस्त्र पहने हुए , चंद्रमा की किरणों के समान गोरे और नशे में डूबी आंखों वाले दिव्य बलराम वहां चमक रहे थे ।२।
3. अपने बाएं कान पर केवल कुंडल रखकर और सुंदर कमलों से सुशोभित, मुस्कुराते हुए राम ने अपनी प्यारी पत्नी के पार्श्व-लंबाई रूप से सुशोभित चेहरे को बार-बार देखकर अत्यधिक आनंद प्राप्त किया।
4. तत्पश्चात कंस और निकुंभ के संहारक केशव की आज्ञा से सुंदर अप्सराएं रेवती और बलराम को देखने के लिए स्वर्ग के समान समृद्ध हल धारक के पास पहुंचीं।
5. मनमोहक शारीरिक गठन से युक्त उन सुंदर शरीर वाली अप्सराओं ने रेवती और राम को नमस्कार किया और समय के साथ नृत्य करना शुरू कर दिया। और उनमें से कुछ ने हर प्रकार की भावना को अभिव्यक्त करने वाले इशारों के साथ गाया।
6. बलदेव और रेवत के राजा की पुत्री की आज्ञा के अनुसार उन्होंने यादवों की इच्छा के अनुसार अपने द्वारा अर्जित विभिन्न हाव-भाव प्रदर्शित करना शुरू कर दिया ।
7. उन दुबली-पतली और सुंदर युवतियों ने यादव देश की स्त्रियों के समान वस्त्र पहनकर उनकी भाषा में मधुर गीत गाए।
7-14. हे वीर, उस सभा से पहले उन्होंने बलराम और केशव की प्रसन्नता के लिए विभिन्न पवित्र प्रसंग गाए, जैसे कंस, प्रलम्व और चाणूर का विनाश ; जनार्दन को ओखली से बांधने की कहानी जिसके कारण यशोदा ने उनकी महिमा स्थापित की और उन्हें दामोदर नाम मिला ; अरिष्टा और धेनुका का विनाश ; व्रज में उनका निवास ; पूतना का विनाश ; उनके द्वारा यमल और अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना ; कालांतर में उनके द्वारा भेड़ियों की रचना, झील में कृष्ण द्वारा दुष्ट नागों के राजा कलयानाग का दमन ; उस झील से कमल, कुमुद, शंख और निधियों के साथ मधुसूदन की वापसी ; विश्व कल्याण के स्रोत केशव द्वारा गोकुल की भलाई के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण करना ; कैसे कृष्ण ने खुशबूदार चन्द्रन बेचने वाली कूबड़ वाली महिला को ठीक किया; भगवान के ये वृत्तांत जन्म और अपूर्णताओं से रहित हैं।
अप्सराओं ने यह भी वर्णन किया कि कैसे भगवान ने, यद्यपि स्वयं बौने नहीं थे, अत्यंत वीभत्स बौना रूप धारण किया; सौभ की हत्या कैसे हुई; इन सभी युद्धों में बलदेव ने अपना हल कैसे उठाया; देवताओं के अन्य शत्रुओं का विनाश; गांधार राजकुमारी के विवाह के समय घमंडी राजाओं के साथ युद्ध ; सुभद्रा का हरण; वलहाका और जमवुमाली के साथ युद्ध ; और कैसे उसने इन्द्र को हराने के बाद उसकी मौजूदगी में ही सारे गहने हरण लिए ।
15-16. हे राजन, जब वे सुंदर स्त्रियाँ संकर्षण और अधोक्षज के लिए इन सभी और विभिन्न अन्य सुखद और आनंददायक विषयों को गा रही थीं , तो अत्यधिक सुंदर बलराम , कादम्बरीवारी के नशे में, अपनी पत्नी रेवती के साथ मधुर तालियों के साथ गाने लगे ।
17. राम को इस प्रकार गाते देख बुद्धिमान, उच्चात्मा और अत्यधिक शक्तिशाली मधुसूदन ने उन्हें प्रसन्न करने के लिए सत्य के साथ गाना शुरू किया ।
18. विश्व के महानतम वीर पार्थ , जो समुद्र-यात्रा के लिये वहाँ आये थे, वह भी प्रसन्न होकर सुन्दर सुभद्रा और कृष्ण के साथ गाने लगे।
19-20. हे राजन, बुद्धिमान गद , सरण , प्रद्युम्न , साम्ब- , सात्यकि और सत्राजित के पुत्र, महान शक्तिशाली चारुदेष्ण ने भी वहां समवेत स्वर में गाया। बलराम के पुत्र, सबसे महान वीर, राजकुमार निशाथ और उल्मुख , सेनापति अक्रूर , शंख और अन्य प्रमुख भीमकुल के यादवों ने भी वहां गाया।
21. उस समय, हे राजा, कृष्ण की शक्ति से नावों का आकार बढ़ गया और जनार्दन ने प्रमुख भीमवंशीयों के साथ अपनी पूरी क्षमता से गाना गाया।
23 हे वीर राजकुमार, जब अमर-तुल्य यदु सरदारों ने इस प्रकार गाया तो सारा संसार हर्ष से भर गया और पाप नष्ट हो गये।
23 तब मधु के हत्यारे केशव को प्रसन्न करने के लिए देवताओं के अतिथि नारद ने यादवों के बीच ऐसा गाना शुरू किया कि उनकी जटाओं का एक हिस्सा पिघल गया।
24. हे राजकुमार, अथाह ऊर्जा वाले उस मुनि ने वहां-वहां गीतों की रचना करते हुए उन्हें बार-बार विभिन्न भावों और गतियों के साथ उन्हें भीम कुल के यादवों के बीच गाया।
25 तब राजा रेवत की पुत्री रेवती, बलदेव , केशव, पृथा के पुत्र अर्जुन तथा सुभद्रा को देखकर बुद्धिमान ऋषि बार-बार मुस्कुराये।
26. हालाँकि केशव की पत्नियाँ स्वभाव से धैर्यवान थीं, फिर भी बुद्धिमान नारद, जो हमेशा मज़ाक करने के शौकीन थे, अपने हाव-भाव, मुस्कुराहट, चाल और कई अन्य तरीकों से जो उनकी हँसी को उत्तेजित कर सकते थे, उन्हें हँसाते थे।
27. मानो निर्देश दिया गया हो कि दिव्य मुनि नारद ने ऊंचे और नीचे विभिन्न धुनें गाईं और कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए वह जोर-जोर से हंसने लगे और खुशी के आंसू बहाने लगे।
28-29. हे राजकुमार, तब इशारों में निपुण युवा युवतियों ने, कृष्ण के आदेश पर, दुनिया के सबसे अच्छे गहने, सुंदर वस्त्र, स्वर्ग में बनी मालाएं, संतानक (पारिजात) फूल, मोती और सभी मौसमों में पैदा होने वाले अन्य फूल दे दिए।
30. तत्पश्चात् संगीतमय सभा की समाप्ति के बाद दिव्य कृष्ण, महान और अतुलनीय मुनि नारद का हाथ पकड़कर , सत्यभामा और अर्जुन के साथ समुद्र में कूद पड़े ।
31-32. अतुलनीय पराक्रम वाले अत्यधिक सुंदर कृष्ण ने थोड़ा मुस्कुराते हुए सिनी के पुत्र से कहा- "आइए हम दो दलों में बंट जाएं और युवतियों के साथ समुद्र के पानी में खेलें। समुद्र के इस पानी में बलदेव और रेवती को साथ रहने दें मेरे बेटे और कुछ भीमवंशी यादव एक पार्टी बनाते हैं और बचे हुए भीमवंशी और बलराम के बेटों को मेरी पार्टी में शामिल होने देते हैं।"
33. बाद में अत्यधिक आश्वस्त केशव ने हाथ जोड़कर सामने खड़े समुद्र से कहा:- "समुद्र, तुम्हारा पानी मीठा हो और घतक मगर आदि से रहित हो।
34. तेरा बिछौना (समुद्र तल) रत्नों से सुशोभित हो, और तेरे किनारे दोनों पांवों के सुखपूर्वक स्पर्श के योग्य हों। और आप, मेरी शक्ति से, वह सब कुछ दे सकें जो आप मानव जाति के स्वाद के अनुकूल जानते हैं।
35. तू मनुष्यों को मनभावन सब प्रकार का पेय दे, और सोने, नीलमणि और मोतियों से सजी हुई कोमल मछलियां तेरे जल में तैरें।
36. आप रत्नों, सुगन्धित, मनमोहक, लाल कमलों और मधुर स्पर्श वाले कुमुदिनों को धारण करें और मधुमक्खियों से सेवित हों।
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37. क्या आपके पास असंख्य घड़े और सोने के बर्तन हैं, जिनमें से भैमस मैरेया , माधविका और आसव आदि मदिरा हों तो उन्हें पेश करो
38. हे सागर, तुम्हार जल फूलों की सुगन्ध से सुगन्धित ठंडा हो। आप इतना सावधान रहें कि यादवों को अपनी स्त्रियों के साथ कोई असुविधा न हो।''
39 हे राजन, समुद्र से ऐसा कहकर कृष्ण अर्जुन के साथ क्रीड़ा करने लगे। सत्राजित की पुत्री, जो कृष्ण द्वारा दिए गए संकेतों में पारंगत थी, ने नारद के शरीर पर जल छिड़का।
40. तब राम ने नशे में डूबे अपने शरीर को उत्तेजना पूर्वक अपने हाथों से रेवती के हाथों से पकड़ लिया और खेल-खेल में समुद्र के पानी में कूद पड़े।
41-42. राम के पीछे कृष्ण के चंचल पुत्र, नशे में आँखें घुमाते हुए और अन्य प्रमुख भीमवंशी, अपने वस्त्र, और आभूषणों से वंचित होकर, खुशी से समुद्र में कूद पड़े।
निशत, उल्मुक और बलदेव के अन्य पुत्र अपने गले में संतानक फूलों की माला पहने हुए, विभिन्न प्रकार के वस्त्र पहने हुए, नशे में धुत और खेल-कूद में व्यस्त थे, साथ ही शेष भीमवंशी भी केशव की सभा में शामिल हो गए।
43. शक्तिशाली यादव, जिनके चेहरे पर सुंदर निशान और लेप थे, अपने हाथों में मदिरा के पात्र लेकर, मधुर धुनों वाले गीत गाने लगे और उस स्थान के लिए सुंदर रूप से अनुकूल थे।
44 तदनन्तर संगीत में रुचि रखने वाली, सजी-धजी सैकड़ों युवतियाँ, दिव्यलोक में रहने वाली अप्सराओं के साथ मिलकर विभिन्न स्वर बजाने लगीं।
45. वे युवा कन्याऐं, जो अलौकिक गंगा के जल में वाद्ययंत्र बजाने में पारंगत थीं , और जिनका मन पूरी तरह से कामदेव के वश में था, प्रसन्नतापूर्वक जलदर्दुर[1] बजाती थीं और उसके साथ गीत गाती थीं।
46. उस समय कमल की पंखुड़ियों के समान नेत्रों वाली और कमल के डंठलों से सुशोभित सुंदर दिव्य नृत्य करने वाली लड़कियाँ सूर्य की किरणों से उड़े हुए कमल के समान शोभा पा रही थीं।
47. हे राजा, सैकड़ों पूर्णिमा के चंद्रमाओं के समान दिखने वाली उन महिलाओं के चंद्रमा जैसे चेहरों से भरा हुआ, या तो अपनी इच्छा से या विधि के आदेश के तहत वहां जा रहा थे , समुद्र हजारों चंद्रमाओं से सुशोभित आकाश की तरह दिखाई दे रहा था।
48 हे राजन, मेघरूपी समुद्र स्त्री के समान प्रकाश से सुशोभित हुआ। जल के स्वामी आकाश में बिजली से छितरे हुए बादलों के समान प्रकट हुए।
49. इसके बाद नारायण , जिन्होंने अपने शरीर पर सुंदर निशान लगाए थे, नारद और उनकी सभा के अन्य सदस्यों ने बलदेव और उनकी सभा पर पानी छिड़का, जिन्होंने भी सुंदर निशान लगाए थे। और बाद वाले ने भी पहले वाले पर पानी छिड़का।
"हस्तप्रमुक्तैर्जलयन्त्रकैश्चप्रहृष्टरूपावारुणिपानमत्ता: संकर्षणाधोक्षजदेवपत्न्य:।2/89/50
50. उस समय कृष्ण और संकर्षण की पत्नियाँ वारुणी मदिरा के नशे में चूर होकर और संगीत के साथ प्रसन्न होकर हाथों और जलयंत्रों से एक दूसरे पर पानी फेंकती थीं।
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51. शराब, कामदेव और स्वाभिमान से युक्त, नशे से लाल आंखों वाले भीमवंशी एक-दूसरे पर पानी फेंकते थे और इस तरह महिलाओं की उपस्थिति के सामने कठोर रवैया अपनाते थे:
हालांकि वे एक के लिए खेल रहे थे, वे बाज नहीं आए लंबे समय तक भी।
52. इस प्रकार उनके परिचित कामक्रीडा को देखकर, चक्रधारी कृष्ण ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर उन्हें रोक दिया। उन्होंने भी पार्थ और नारद के साथ जल में वाद्ययंत्र बजाने से परहेज किया।
53. भीमवंशी यादव, जो हमेशा अपनी प्रिय महिलाओं को प्रसन्न करते थे, हालांकि वे अत्यधिक संवेदनशील थे, जैसे ही उन्होंने संकेत दिया, तुरंत कृष्ण के इरादे को समझ गए और पानी में खेलना बंद कर दिया: लेकिन युवतियों ने नृत्य करना जारी रखा।
54. नाच पार्टी समाप्त होने के बाद जब अन्य यादव पानी में थे तब भी उपेन्द्र किनारे पर आ गये। इसके बाद उन्होंने नारद को श्रेष्ठ मुनि बनने का अवसर दिया और बाद में स्वयं भी उनका अंग बन गये।
55. फिर उपेन्द्र को जल से बाहर निकलता देख अतुलनीय भींमो ने शीघ्र ही जल छोड़ दिया। फिर वे अपने शरीर को दूबों से शुद्ध करके, कृष्ण की अनुमति से, शाराब के स्थान में चले गए।
56 उन सुप्रसिद्ध वीरों ने अपनी-अपनी आयु तथा स्थिति के अनुसार क्रम से बैठकर नाना प्रकार के भोजन तथा पेय पदार्थों से स्वयं को तरोताजा किया।
57. तब रसोइये बड़े आनन्द से पके हुए मांस, सिरके, अनार और लोहे की छड़ों पर भुना हुआ पशुओं का मांस ले आए।
58. फिर एक युवा भैंस को डंडे पर अच्छी तरह से भूनकर, गर्म करके, घी में भिगोकर, सिरका, सोचल नमक और एसिड मिलाकर परोसा गया।
59. बहुत से मोटे हिरणों का मांस कुशल पकाने की विधि के अनुसार भूनकर, और सिरके में मीठा करके लाया गया।
60. जानवरों की टाँगें, नमक और सरसों के साथ मिलाकर और घी में तलकर भी परोसी जाती थीं।
61. अतुलनीय यादवों ने अरुम कैम्पैनुलटम की जड़ों, अनार, नींबू, हींग, जिंजरेड और अन्य सुगंधित सब्जियों वाले उन व्यंजनों को बड़े आनंद से खाया। फिर उन्होंने सुंदर प्यालों में शराब पी।
62. वे अपनी प्रिय युवतियों के साथ घिरे रहकर मैरेया, माधविका और आसव जैसी विभिन्न मदिरा पीते थे, जो पक्षियों के मांस को मक्खन, अम्ल रस, नमक और खट्टी चीजों के साथ भूनकर तैयार की जाती थी।
63. उन्होंने अन्य व्यंजन, सफेद और लाल रंग के विभिन्न सुगंधित नमकीन खाद्य पदार्थ, दही और घी से बनी चीजें भी खाईं।
64. हे राजा, उद्धव , भोज और अन्य वीर, जो शराब नहीं पीते थे, उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक सब्जियाँ, सब्जी-करी, केक, दही और हलवा लिया।
65. पलावी नामक पीने के बर्तन से, वे विभिन्न सुगंधित पेय, दूध और चीनी के साथ मक्खन पीते थे और विभिन्न प्रकार के फल लेते थे।
66. इस प्रकार वीर भीमों ने भरपेट भोजन करके प्रसन्न हो गये। बाद में, वे, अपनी पत्नियों को अपने साथियों के रूप में रखते हुए, अपनी पत्नियों द्वारा शुरू किए गए आनंद के साथ फिर से संगीत में शामिल हो गए।
67. इसके बाद जब रात होने लगी तो दिव्य उपेन्द्र ने सभा में उपस्थित सभी लोगों से गाना जारी रखने के लिए कहा।
देवताओं और गंधर्वों द्वारा गाए जाने वाले विभिन्न सुरों के साथ (छालिक्य) नाट्य का रूप ।
68-72. हे राजन, तब नारद ने अपनी वीणा बजाना शुरू किया जो छह ताल और रागों के साथ [2] मन की एकाग्रता लाती है, कृष्ण ने अपनी बांसुरी के संगीत के साथ हल्लीसक नृत्य करना जारी रखा और पार्थ ने अपने मृदंग को बजाना शुरू किया।
4] अन्य प्रमुख अप्सराएँ विभिन्न अन्य वाद्ययंत्र बजाती थीं। इसके बाद असरिता के बाद , सुंदर रंभा , एक चतुर अभिनेत्री, उठी, उसने अभिनय किया और बलराम और केशव को प्रसन्न किया। तदनन्तर, हे राजन , सुंदर और विशाल नेत्रों वाली उर्वशी , हेमा , मिश्रकेशी , तिलोत्तमा , मेनका और अन्य दिव्य अभिनेत्रियाँ क्रम से उठीं और गायन और नृत्य से हरि को प्रसन्न किया।
उनके मनमोहक गायन और नृत्य से आकर्षित होकर वासुदेव ने उन सभी को उनके मन के अनुरूप उपहार देकर प्रसन्न किया।
हे राजकुमार, उन सम्मानित और प्रमुख अप्सराओं को, जिन्हें वहां लाया गया था, कृष्ण की इच्छा पर पान के पत्तों से ( वीड़ो)सम्मानित किया गया था।
73-74. हे राजा, इस प्रकार विभिन्न सुगंधित फल और छालिक्य गीत, जो कृष्ण की इच्छा और मानव जाति के प्रति उनके उपकार से दिव्य क्षेत्र से स्वर्ग से लाए गए थे, केवल रुक्मिणी के बुद्धिमान पुत्र को ही ज्ञात थे। वही उनका उपयोग कर सकता था और वही उस समय पान बांटता था।
75-76. छालिक्य गीत, नारायण के कल्याण, पोषण और समृद्धि के लिए अनुकूल, गौरवशाली कर्मों का, और जो मानव जाति के लिए महान, शुभ और प्रसिद्धि और धर्मपरायणता का उत्पादक था, इंद्र जैसे कृष्ण, राम, प्रद्युम्न द्वारा समवेत स्वर में गाया गया था। अनुविन्ध और शम्वा।
77-78. यह छालिक्य, जो वहाँ गाया जाता था, पुण्य की धुरी धारण करने में समर्थ तथा दु:ख और पाप का नाश करने वाला था। दिव्य क्षेत्र की मरम्मत करते हुए और इस चालिक्य गीत को सुनकर प्रतापी राजा रेवत ने चार हजार युगों को एक दिन के रूप में माना।इससे कुमारजाति आदि गंधर्वों के विभिन्न प्रभागों की उत्पत्ति हुई ।
79. हे राजन, जैसे एक ही प्रकाश से सैकड़ों दीप उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार छालिक्य से गंधर्वों की विभिन्न श्रेणियां उत्पन्न हुई हैं। हे राजन, प्रद्युम्न और अन्य प्रमुख भीमों के साथ कृष्ण और नारद यह सब जानते थे।
80-81. झरनों और समुद्र के पानी की तरह इस दुनिया के लोग छालिक्य को केवल दृष्टांत से जानते थे। मुरकाना [5] और चालिक्य के समय को जानने के लिए कठोर तपस्या किए बिना हिमालय के गुणों और वजन को जानना संभव है , लेकिन ऐसा नहीं है ।
82-83. हे राजा, छह तराजू और राग पुरुषों के साथ छालिक्य का क्या, बड़ी कठिनाई के साथ, सुकुमारजति के ग्यारहवें मंडल के अंत तक भी नहीं आ सकता है । हे राजन, यह निश्चित रूप से जान लें कि मधुसूदन ऐसी व्यवस्था की थी कि देवता, गंधर्व और महान ऋषि छालिक्य के गुणों के कारण भक्ति भावना प्राप्त कर सकें।
84-88. भगवान द्वारा, मनुष्यों में, कृष्ण द्वारा, दुनिया पर उपकार दिखाने के लिए भैमों से पहले गाए जाने के कारण, चालिक्य, जिसे केवल अमर लोगों द्वारा गाया जाता था, ऐसी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है,
जिसे पहले उत्सव के अवसर पर भीम लड़के इस्तेमाल करते थे इसे एक उदाहरण के रूप में उद्धृत करने के लिए। और बड़े-बूढ़े उनकी बात का अनुमोदन करते थे और लड़के, जवान और बूढ़े उसे समवेत स्वर में गाते थे। "प्यार ही कसौटी है, उम्र नहीं" - मनुष्यों को उनकी जाति के इस गुण की याद दिलाने के लिए, प्राचीन धार्मिक संस्कारों के संचालक वीर यादवों ने मनुष्यों की भूमि में ऐसा किया।
हे राजन, मित्रता प्रेम से जानी जाती है, इसलिए प्रेम को सामने रखते हुए, केशव को छोड़कर अन्य वृष्णि , अंधक और दाशार्ह अपने पुत्रों के साथ भी मित्र जैसा व्यवहार करते थे। तत्पश्चात प्रसन्न होकर कंस के हत्यारे मधुसूदन को नमस्कार करते हुए, संतुष्ट अप्सराएँ दिव्य क्षेत्र में लौट आईं, जो भी (तदनुसार) खुशी से भरा हुआ था।
फ़ुटनोट और संदर्भ: यह सब प्रक्षेप पुष्यमित्र के परवर्ती काल का है। नि:सन्देह यह कुत्सितपरियोजना इन्द्रोपासक पुरोहितों की है। [1] :पानी में बजाया जाने वाला एक प्रकार का वाद्ययंत्र।
[4] :एक प्रकार का वाद्य यंत्र।
[5] :एक स्वर या अर्धस्वर जो उसके पैमाने में रखा जाता है, ग्राम या पैमाने का सातवाँ भाग।
इस सन्दर्भ में हम हरिवंश के लेखन की काल विवेचना करते हैं। हरिवंश के निर्माण तथा महाभारत के साथ सम्बद्ध होने के काल का निर्णय प्रमाणों द्वारा किया जा सकता है-
(क) हरिवंश के साथ सम्मिलित होकर लक्ष श्लोकात्मक रूप धारण करने वाला महाभारत ‘शत साहस्री संहिता ' के नाम से ( 454) ईस्वी के गुप्त शिलालेख में उल्लिखित है।
(ख) अश्वघोष (प्रथमशती) ने अपने वज्रसूची उपनिषद् में हरिवंश के 'प्रेतकल्प ' प्रकरण से ‘सप्तव्याधा दशार्णेषु ’ (हरिवंश 24/20, 21) इत्यादि श्लोकों को प्रमाण रूप से उद्धृत किया है। अतः हरिवंश की रचना प्रथमशती से अर्वाचीन नहीं हो सकती।
(ग) हरिवंश (विष्णु पर्व 55/50) में 'दीनार ' का उल्लेख उसके रचनाकाल का द्योतक है। रोम साम्राज्य के सोने के सिक्के 'दिनारियस ' कहलाते थे और उसी शब्द का संस्कृत रूप दीनार ' है। इस शब्द का सबसे प्राचीन प्रयोग प्रथमशती के शिलालेखों में उपलब्ध होता है।
(घ) हरिवंश के एक श्लोक में शुंगब्राह्मण राज्य के संस्थापक पुष्यमित्रशुंग द्वारा यज्ञ का उल्लेख भविष्य में होनेवाली घटना के रूप में निर्दिष्ट किया गया है
उपात्तयज्ञो देवेसु ब्राह्मणेषुपपत्स्यते । ‘औद्भिज्जो भविता कश्चित् सेनानी: काश्यपो द्विजः । अश्वमेधं कलियुगे पुनः प्रत्याहरिष्यति । (हरिवंश 3 /2/39-40 )
यह तो प्रसिद्ध ही है कि ब्राह्मण सेनापति पुष्पमित्र ने दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया था , जिनमें महाभाष्य के रचयिता पतञलि स्वयं ऋत्विक् रूप से उपस्थित थे। 'इह पुष्पमित्रं याजयाम: '-महाभाष्य । पुष्पमित्र ने लगभग 36 वर्षो तक राज्य किया (लगभग ईस्वी पूर्व 187-151) और आरम्भ में वे मौर्य सम्राट् के सेनापति था। इसी प्रसिद्ध सेनानी का निर्देश इस श्लोक में है। फलत: हरिवंश का रचनाकाल इससे पूर्व नहीं , तो इसके कुछ ही पश्चात् होना चाहिए।
अतएव 'हरिवंश ' का निर्माण काल ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में मानना सर्वथा सुसंगत होगा |
हरिवंश का धार्मिक महत्व सर्वत्र प्रख्यात है । सन्तान के इच्छुक व्यक्तियों के लिये 'हरिवंश ' के विधिवत् श्रवण का विधान लोक प्रचलित है। शपथ खाने के लिए पुरूषों के हाथ पर हरिवंश की पोथी रखने का प्रचलन नेपाल में उसी प्रकार है जिस प्रकार किसी मुसलमान के हाथ पर कुरान रखने का .
श्रीकृष्ण के चरित के तुलनात्मक अध्ययन के लिए हरिवंश के विष्णुपर्व का परिशीलन नितान्त आवश्यक है। प्राचीन भारत की ललित कलाओं के विषय में हरिवंश बहुत ही उपादेय सामग्री प्रस्तुत करता है। प्राचीन भारत में नाटक के अभिनय प्रकार की जानकारी के लिए यहाँ उपादेय तथ्यों का संकलन है। सबसे महत्वपूर्ण है हरिवंश में राजनैतिक इतिहास का वर्णन , जो किसी भी प्राचीन पुराण के वर्णन से उपादेयता और प्रामाणिकता में किसी प्रकार न्यून नहीं है फलतः प्रथम शती में भारती संस्कृति की रूपरेखा जानने के लिए हरिवंश ' हमारा विश्वनीय मार्गदर्शक है। हरिवंशपुराण- हरिवंश का स्वरूप, हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड -
महाभारत के खिल पर्व होने के कारण हरिवंश की आलोचना अब प्रसंग प्राप्त है। हरिवंश में श्लोकों की संख्या सोलह हजार तीन सौ चौहत्तर ( 16, 374 श्लोक ) श्रीमद्भागवत की श्लोक संख्या से कुछ ही अधिक है। डॉ० विन्टरनित्स के कथनानुसार यूनानी कवि होमर के दोनों महाकाव्यों 'इलियड ' और 'ओडिसी ' की सम्मिलित संख्या से भी यह अधिक है , परन्तु यह एक लेखक की रचना न होकर अनेक लेखकों के संयुक्त प्रयास का फल है। हरिवंश का अन्तिम पर्व (ग्रन्थ का तृतीय भाग) तो परिशिष्ट भूत हरिवंश का भी परिशिष्ट है और काल क्रम से सबसे पीछे का निर्मित भाग है। हरिवंश में तीन पर्व या खण्ड हैं
(क) हरिवंश पर्व कृष्ण के वंश वृष्णि-अन्धक की कथा विस्तार से दी गयी है और इस आदिम पर्व के वर्णन के अनन्तर राजा पृथु की कथा विस्तार से दी गयी है ।
सूर्यवंशीय राजाओं के प्रसंग में विश्वामित्र तथा वसिष्ठ का भी आख्यान वर्णित है। प्रसंग से पृथक् हटकर प्रेतकल्प ( अन्त्येष्टि एवं श्राद्ध) का वर्णन नौ अध्यायों में (अध्याय- 16-24) विस्तार से निबद्ध है और इसी के अन्तर्गत 21 वें अध्याय में पशुओं की बोली को समझने-बूझने वाले ब्रह्मदत्त की कथा दी गई है चन्द्रवंशीय राजाओं के वर्णन के अवसर पर राजा पुरूरवा और उर्वशी का प्रख्यान से समानता रखता है (अ 0 26) । नहुष , ययाति तथा यदु के वर्णन के पश्चात् विष्णु की अनेक स्तुतियाँ प्रस्तुत की गई हैं। जो एक प्रकार से कृष्ण के पूर्व दैवी इतिहास का परिचय देती हैं।(ख) विष्णुपर्व -
यह समय ग्रन्थ का अतिशय विस्तृत तथा महनीय भाग है। इसमें कृष्णचन्द्र की विविध लीलाओं का , विशेषत: बाललीलाओं का बड़ा ही सांगोपांग रूचिर विवरण है श्रीमद्भागवत के वर्णन से तुलना करने पर अनेक स्थल पर पार्थक्य दृष्टिगोचर होता है। कहीं-कहीं अन्य घटनायें भी दी गयी हैं।
कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के जन्म , शंबर द्वारा हरण , समुद्र से प्राप्ति तथा मायावती के साथ विवाह आदि प्रख्यात कथाओं का यहाँ उल्लेख है , परन्तु असुरों के राजा वज्रनाभ की दुहिता प्रभावती के साथ प्रद्युम्न का विवाह और वह भी नितान्त नाटकीय ढंग से एकदम नूतन तथा पर्याप्तरूपेण रोचक है ( 150 अध्याय )।
इसी प्रकार प्रख्यात रासलीला का हल्लीसक नृत्य के रूप में निर्देश किसी प्राचीन युग की स्मृति दिलाता है। इस पर्व के अन्त में अनिरूद्ध का विवाह बाणासुर की कन्या उषा के साथ बड़े उमंग और उत्साह से वर्णित है और इससे पूर्व 'हरि-हरात्मक स्तव ' (अध्याय- 184) द्वारा शिव और विष्णु की एक ही अभिन्न देवता के रूप में सुन्दर स्तुति की गई है। इस पर्व में विषय की एकता और वर्णन की संगति से प्रतीत होता है कि प्राचीन युग में ‘श्रीकृष्ण चरित काव्य ' के साथ यह अंश सम्बन्ध रखता है , परन्तु तृतीय भाग के विषय में किसी एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। (ग) भाविष्यपर्व-
यह भाग विविध वृत्तों का पौराणिक शैली में परस्पर असम्बद्ध संकलन है। इस पर्व का नामकरण प्रथम अध्याय के नाम पर है , जहाँ भविष्य में होने वाली घटनाओं का संकेत किया गया है। जनमेजय द्वारा विहित यज्ञों का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है (अ) 191-196) । विष्णु के सूकर , नृसिहं तथा वामन अवतारों के वर्णन के अनन्तर शिवपूजा तथा विष्णु पूजा के समन्वय की दिशा दिखाई गई है। शिव के दो उपासक हंस तथा डिम्भक की कथा विस्तार से है , जिन्हे कृष्ण ने पराजित किया था। महाभारत के माहात्म्य वर्णन के पश्चात् समग्र हरिवंश का ध्येय हरि की स्तुति में प्रदर्शित किया गया है- ‘आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते ।
हरिवंश का स्वरूप एक ओर हरिवंश महाभारत का परिशिष्ट (खिल) माना जाता है और दूसरी ओर यह ‘पुराण ' नाम से भी अभिहित होता है। इसके पोषक प्रमाणों की कमी नहीं है-
(1) महाभारत के आरम्भ में ग्रन्थ के समग्र पर्वो की संख्या एक सौ परिगणित है (आदि अ 0 2) और इसके भीतर हरिवंश भी सम्मिलित किया गया है (आदि 2/82-83)। ध्यान देने की बात तो यह है कि हरिवंश 'खिलसंज्ञित पुराण ' कहा गया है। (हरिवंशसततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्)। फलत: व्यास की दृष्टि में खिल और पुराण दोनों साथ-साथ होने में कोई वैषम्य नहीं है।
( 2 ) हरिवंश के 20 वें अध्याय में 'यथा ते कथितं पूर्व मया राजर्षिसत्तम ' के द्वारा याति के चरित की महाभारत में पूर्व स्थिति का स्पष्ट निर्देश है (आदिपर्व अध्याय- 81-88)।
(3) हरिवंश के 32 वें अध्याय में अदृश्यवाणी का कथन 'त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ' के द्वारा महाभारत में शकुन्तलोपाख्यान की ओर स्पष्ट संकेत है तथा 54 अध्याय में कणिक मुनि महाभारत में कणिक मुनि की पूर्व स्थिति बतलाता है (आदिपर्व अध्याय- 140 ) ।
(4) हरिवंश का उपक्रम तथा उपसंहार बतलाता है कि हरिवंश महाभारत का ही परस्पर सम्बद्ध खिल पर्व है। उपक्रमाध्याय में भारती कथा सुनने के बाद वृष्णि- अन्धक चरित सुनने की इच्छा शौनक ने सौति से जो प्रकट की वह दोनों के सम सम्बन्ध का सूचक है। हरिवंश के 132 वें अध्याय में महाभारत के कथाश्रवण का फल है , जिस कथन की संगति हरिवंश के महाभारत के अन्तर्गत मानने पर ही बैठ सकती है , अन्यथा नहीं ।
(5) बहिरंग प्रमाणों में आनन्दवर्धन का यह कथन साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि महाभारत के अन्त में हरिवंश के वर्णन से समाप्ति करने वाले व्यासजी ने शान्तरस को ही ग्रन्थ का मुख्य रस व्यन्जना के द्वारा अभिव्यक्त किया है। '
फलत: हरिवंश महाभारत का 'खिल ' पर्व है। साथ ही साथ पञ्च लक्षण से समन्वित होने से यह 'पुराण ' नाम्ना भी अभिहित किया जाता है , परन्तु न तो यह महापुराणों में अन्तर्भूत होता है और न उपपुराणों में दोनों से इसकी विशिष्टता पृथक् ही है।
गुजरात: द्वारका में 37000 अहीर महिलाओं के महारास ने रचा इतिहास" अखिल भारतीय यादव समाज और अहिरानी महिला मंडल द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम विशाल नंदधाम परिसर में सम्पन्न हुआ. सभा में न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों से बल्कि दुनिया भर से प्रतिभागी शामिल थे. इस आयोजन में डेढ़ लाख से अधिक अहीर यादव समुदाय के सदस्यों ने भाग लिया. गुजरात के द्वारका में 23-24 दिसंबर को आयोजित दो दिवसीय महा रास में 37,000 से अधिक महिलाएं एकत्र हुईं. पारंपरिक लाल पोशाक पहने महिलाओं ने भगवान कृष्ण की मूर्ति के चारों ओर घेरे में नृत्य किया. यह आयोजन बाणासुर की बेटी और भगवान कृष्ण की बहू उषा के रास की याद में आयोजित किया गया था.
"महिलाओं को गीता पुस्तक के उपहार से सम्मानित किया गया" अखिल भारतीय यादव समाज और अहिरानी महिला मंडल द्वारा आयोजित यह कार्यक्रम विशाल नंदधाम परिसर में हुआ. सभा में न केवल भारत के विभिन्नहिस्सों से बल्कि दुनिया भर से प्रतिभागी शामिल थे.
इस आयोजन में डेढ़ लाख से अधिक अहीर यादव समुदाय के सदस्यों ने भाग लिया. प्रदर्शन के बाद, सभी 37,000 भाग लेने वाली महिलाओं को गीता पुस्तक के उपहार से सम्मानित किया गया.
यात्राधाम द्वारका में अखिल भारतीय अहिरानी महा रास में जामनगर सांसद पूनम बेन माडमने अपने पारपरिक ड्रेस के साथ रास गरबा किया. गुजरात भर से अदाजित 37 हजार से अधिक अहीर बहनों ने अपनी पारंपरिक पोशाक पहनकर कृष्ण भक्ति में लीन होकर कालिया ठाकोर की राजधानी द्वारका में रास गरबा का आयोजन किया.।
रास का विवरण हरिवंश पुराण में "हल्लीसक" के रूप में भी हुआ है।
अनुवाद" उस समय नारद ने तो अपनी वीणा ग्रहण की जो छ: ग्रामों पर आधारित राग आदि के द्वारा चित्त को एकाग्र करने वाली थी नरदेव ! स्वयं श्रीकृष्ण ने तो अपनी मुरली (वंशी) के घोष द्वारा # हल्लीसक- नृत्य का आयोजन किया।६८। सन्दर्भ:- हरिवंशपुराण-विष्णुपर्व /अध्याय-89/श्लोक-68
"श्री कृष्ण और संकृष्ण( संकर्षण) दौंनो ही महापुरुष अपने युग के महान कृषि पद्धति के जन्मदाता थे। इनके छोटे भाई कृष्ण ने संगीत और कलाओं में महारत हासिल की और उसका यादव समाज में व्यापक प्रचार- प्रसार किया उस समय संगीत में स्वरों के स्वरग्राम (सरगम) के सन्धान के लिए वंशी -बाँस के वृक्ष से निर्माण कर कृष्ण ने बनायी और कृष्ण ने एक नवीन संगीत की सृष्टि की कृष्ण ने संगीत को जीवन का आधार और सृष्टि की आदि विद्या के रूप प्रतिपादित किया। '
आभीर जाति के नाम पर प्रचलित राग आभीर संगीत के क्षेत्र में अहीरों योगदान को परिलक्षित करता है। वेदों में ऋग्वेद के प्राचीन होने पर भी संगीत के वेद साम वेद को कृष्ण ने अपनी विभूति माना -
"वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव: । इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।१०/२२। श्रीमद्भगवद्गीता- मैं वेदोमें सामवेद हूँ ? देवों में वासव हूँ और इन्द्रियों में संकल्पविकल्पात्मक मन हूँ। सब भूतों- प्राणियोंमें चेतना हूँ। कार्यकरणके समुदायरूप शरीरमें सदा प्रकाशित
रहनेवाली जो चिन्तन वृत्ति है ? उसका नाम चेतना है।
वास्तव में रास का प्रारम्भिक रूप हल्लीषक नृत्य है। हल्लीषक - नृत्य का आधार हल और ईषा-(ईसा) की आकृति बनाकर किया जाने वाला नृत्य ही है।
वस्तव में उत्सव जीवन की भागदौड़ में एक विश्राम स्थल ( पड़ाव) हैं जहाँ जीवन की भाग दौड़ से थका हुआ व्यक्ति कुछ समय के लिए सब चिन्ता- दु:खों को भूलकर विश्राम करता है।
कृष्ण का जन्म गोप - आभीर जाति में हुआ जो सनातन काल से गोपालक रही है। गो चारण काल में ही इन गोपों की आवश्यकता ने पशुओं के चारे घास आदि के के लिए और स्वयं अपने भोजन के लिए भी कृषि विधि को जन्म दिया ।
जहाँ पशुपालक- अपना पड़ाव डालते थे धीरे धीरे उनके ये पड़ाव स्थाई होने लगे और ग्रामसभ्यता कै जन्म हुआ।
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