देवता के निमित्त की गयी हिंसा अहिंसा है
देवी की पूजा में बलि दिया ही जाता है अब इसमे ये सब तर्क की भगवती क्या खुद के ही संतानो को खाएगी बकवास है क्यूंकि जिस प्रकार भगवती इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति आदि कृत्य करती हैं उसी प्रकार से संघार कर्म भी करती हैं जो ये भी तर्क हो सकता है कि जो ईश्वर खुद ही श्रृष्टि कर रहा है वो खुद इसका संहार कैसे कर सकता है आदि।
महामारी आदि के रूप में भगवती ही लोगों का रक्तपान करती हैं ये बात भी शास्त्र सिद्ध है।
दुर्गा सप्तशती आदि मान्य ग्रंथों में भी बलि का उल्लेख है
सर्वं ममैतन्माहात्म्यं मम सन्निधिकारकम् ।
पशुपुष्पार्ध्यधूपैश्च गन्धदीपैस्तथोत्तमैः ॥
(दुर्गा सप्तशती १२.२०)
वैश्य और राजा द्वारा भी अपने रक्त की बलि द्वारा भगवती को संतुष्ट करने का वर्णन भी सप्तशती में है
ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम्।
एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वषैर्यतात्मनोः ॥
परितुष्टा जगद्धात्री प्रत्यक्षं प्राह चण्डिका ॥
(सप्तशती अध्याय १३ श्लोक १२,१३)
श्री रामचंद्र जी ने रावन से युद्ध में विजयी होने हेतु जिस विधि से भगवती की उपासना की उसमे भी नारदजी ने बलि का उपदेश नवरात्र विधान में किया था
मेध्यैश्च पशुभिर्देव्या बलिं दत्त्वा विशंसितैः।
दशांशं हवनं कृत्वा सुशक्तस्त्वं भविष्यसि।।
(देवी भागवत ३.३०.२०)
वास्तव में देवी को बलि में पशु आदि चढ़ाना हिंसा है ही नहीं क्यूंकि देवताओं के निमित्त जिन पशुओं की हिंसा की जाती है वो निंदित नहीं है क्यूंकि इससे उन पशुओं को भी स्वर्ग लोक प्राप्त होता है ऐसा शास्त्र का निर्णय है एवं ये अहिंसा ही है।
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मांसाशनं ये कुर्वन्ति तैः कार्यं पशुहिंसनम् ।
महिषाजवराहाणां बलिदानं विशिष्यते ॥
देव्यग्रे निहता यान्ति पशवः स्वर्गमव्ययम् ।
न हिंसा पशुजा तत्र निघ्नतां तत्कृतेऽनघ ॥
अहिंसा याज्ञिकी प्रोक्ता सर्वशास्त्रविनिर्णये।
देवतार्थे विसृष्टानां पशूनां स्वर्गतिर्भुवा ॥
(देवी भागवत ३.२६.३२,३३,३४)
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