ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)अध्यायः48-
"नारद उवाच"
नारायण महाभाग नारायणपरायण ।।
नारायणांश भगवन्ब्रूहि नारायणीं कथाम् ।। १ ।।
श्रुतं सुरभ्युपाख्यानमतीव सुमनोहरम् ।।
गोप्यं सर्वपुराणेषु पुराविद्भिः प्रशंसितम् ।। २ ।।
अधुना श्रोतुमिच्छामि राधिकाख्यानमुत्तमम् ।
तदुत्पत्तिं च तद्ध्यानं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ।।३।***
"श्रीनारायण उवाच"
पुरा कैलासशिखरे भगवन्तं सनातनम् ।।
सिद्धेशं सिद्धिदं सर्वस्वरूपं शंकरं परम् ।४ ।
प्रफुल्लवदनं प्रीतं सस्मितं मुनिभिः स्तुतम् ।।
कुमाराय प्ररोचन्तं कृष्णस्य परमात्मनः ।। ५ ।।
रासोत्सवरसाख्यानं रासमण्डलवर्णनम् ।।
तदाख्यानावसाने च प्रस्तावावसरे सती ।६ ।।
पप्रच्छ पार्वती स्फीता सस्मिता प्राणवल्लभम् ।।
स्तवनं कुर्वती भीता प्राणेशेन प्रसादिता । ।। ७ ।।
प्रोवाच तं महादेवं महादेवी सुरेश्वरी ।।
अपूर्वं राधिकाख्यानं पुराणेषु सुदुर्लभम् ।। ८ ।।
" श्रीपार्वत्युवाच ।।
आगमं निखिलं नाथ श्रुतं सर्वमनुत्तमम् ।।
पाञ्चरात्रादिकं नीतिशास्त्रयोगं च योगिनाम् । ९।
सिद्धानां सिद्धिशास्त्रं च नानातन्त्रं मनोहरम् ।।
भक्तानां भक्तिशास्त्रं च कृष्णस्य परमात्मनः ।। 2.48.१० ।।
देवीनामपि सर्वासां चरितं त्वन्मुखाम्बुजात् ।।
अधुना श्रोतुमिच्छामि राधिकाख्यानमुत्तमम् ।११।
श्रुतौ श्रुतं प्रशस्तं च राधायाश्च समासतः ।।
त्वन्मुखात्काण्वशाखाया व्यासेनोक्तां वदाधुना ।। १२ ।।
आगमाख्यानकाले च भवता स्वीकृतं पुरा ।।
नहीश्वरव्याहृतिश्च मिथ्या भवितुमर्हति ।। १३ ।।
तदुत्पतिं च तद्ध्यानं नाम्नो माहात्म्यमुत्तमम् ।।
पूजाविधानं चरितं स्तोत्रं कवचमुत्तमम् ।।१४।।
आराधनविधानं च पूजापद्धतिमीप्सिताम्।।
साम्प्रतं ब्रूहि भगवन्मां भक्तां भक्तवत्सल ।१५ ।
कथं न कथितं पूर्वमागमाख्यानकालतः ।।
पार्वतीवचनं श्रुत्वा नम्रवक्त्रो बभूव सः ।। १६ ।।
पञ्चवक्त्रश्च भगवाञ्छुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।।
स्वसत्यभङ्गभीतश्च मौनीभूय विचिन्तयन् ।।१७ ।।
सस्मार कृष्णं ध्यानेनाभीष्टदेवं कृपानिधिम् ।।
तदनुज्ञां च संप्राप्य स्वार्द्धाङ्गां तामुवाच सः ।१८।
निषिद्धोऽहं भगवता कृष्णेन परमात्मना ।।
आगमारम्भसमये राधाख्यानप्रसंगतः ।। १९ ।।
मदर्द्धांगस्वरूपा त्वं न मद्भिन्ना स्वरूपतः ।।
अतोऽनुज्ञां ददौ कृष्णो मह्यं वक्तुं महेश्वरि ।। 2.48.२० ।।
मदिष्टदेवकान्ताया राधायाश्चरितं सति ।।
अतीव गोपनीयं च सुखदं कृष्णभक्तिदम् ।२१।
जानामि तदहं दुर्गे सर्वं पूर्वापरं वरम् ।।
यज्जानामि रहस्यं च न तद्ब्रह्मा फणीश्वरः ।२२।।
न तत्सनत्कुमारश्च न च धर्मः सनातनः ।।
न देवेन्द्रो मुनींद्राश्च सिद्धेन्द्राः सिद्धपुङ्गवाः ।२३ ।।
मत्तो बलवती त्वं च प्राणांस्त्यक्तुं समुद्यता ।।
अतस्त्वां गोपनीयं च कथयामि सुरेश्वरि ।। २४ ।।
शृणु दुर्गे प्रवक्ष्यामि रहस्यं परमाद्भुतम् ।।
चरितं राधिकायाश्च दुर्लभं च सुपुण्यदम् ।। २५ ।।
पुरा वृन्दावने रम्ये गोलोके रासमण्डले ।।
शतशृंगैकदेशे च मालतीमल्लिकावने ।। २६ ।।
रत्नसिंहासने रम्ये तस्थौ तत्र जगत्पतिः ।।
स्वेच्छामयश्च भगवान्बभूव रमणोत्सुकः ।। २७ ।।
रिरंसोस्तस्य जगतां पत्युस्तन्मल्लिकावने ।।
इच्छया च भवेत्सर्वं तस्य स्वेच्छामयस्य च ।।२८!
एतस्मिन्नन्तरे दुर्गे द्विधारूपो बभूव सः ।।
दक्षिणांगं च श्रीकृष्णो वामार्द्धांगा च राधिका ।। २९ ।।
बभूव रमणी रम्या रासेशा रमणोत्सुका ।।
अमूल्यरत्नाभरणा रत्नसिंहासनस्थिता ।। 2.48.३०।
वह्निशुद्धांशुकाधाना कोटिपूर्णशशिप्रभा ।।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा राजिता च स्वतेजसा।।३१।।
सस्मिता सुदती शुद्धा शरत्पद्मनिभानना ।।
बिभ्रती कबरीं रम्यां मालतीमाल्यमण्डिताम्।।३२।।
रत्नमालां च दधती ग्रीष्मसूर्य्यसमप्रभाम् ।।
मुक्ताहारेण शुभ्रेण गंगाधारानिभेन च ।। ३३ ।।
संयुक्तं वर्तुलोत्तुंगं सुमेरु गिरिसन्निभम् ।।
कठिनं सुन्दरं दृश्यं कस्तूरीपत्रचिह्नितम् ।। ३४ ।।
मांगल्यं मंगलार्हं च स्तनयुग्मं च बिभ्रती ।।
नितम्बश्रोणिभारार्त्ता नवयौवनसुन्दरी ।। ३५ ।।
कामातुरः सस्मितां तां ददर्श रसिकेश्वरः ।।
दृष्ट्वा कान्तां जगत्कान्तो बभूव रमणोत्सुकः ।।३६।।
दृष्ट्वा चैनं सुकान्तं च सा दधार हरेः पुरः ।।
तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्महेश्वरि ।। ३७ ।।
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राधा भजति तं कृष्णं स च तां च परस्परम् ।।
उभयोः सर्वसाम्यं च सदा सन्तो वदन्ति च ।३८।
भवनं धावनं रासे स्मरत्यालिंगनं जपन् ।।
तेन जल्पति संकेतं तत्र राधां स ईश्वरः ।३९ ।।
राशब्दोच्चारणाद्भक्तो राति मुक्तिं सुदुर्लभाम् ।
धाशब्दोच्चारणाद्दुर्गे धावत्येव हरेः पदम् ।। ।। 2.48.४० ।।
कृष्णवामांशसम्भूता राधा रासेश्वरी पुरा ।।
तस्याश्चांशांशकलया बभूवुर्देवयोषितः ।। ४१ ।।
रा इत्यादानवचनो धा च निर्वाणवाचकः ।।
ततोऽवाप्नोति मुक्तिं च तेन राधा प्रकीर्तिता ।। ४२।
"शिव - उवाच
बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः ।।
श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः ।। ४३ ।
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राधावामांशभागेन महालक्ष्मीर्बभूव सा ।।
तस्याधिष्ठातृदेवी सा गृहलक्ष्मीर्बभूव सा ।। ४४ ।।
चतुर्भुजस्य सा पत्नी देवी वैकुण्ठवासिनी।।
तदंशा राजलक्ष्मीश्च राजसम्पत्प्रदायिनी ।। ४५।
तदंशा मर्त्यलक्ष्मीश्च गृहिणां च गृहे गृहे ।।
दीपाधिष्ठातृदेवी च सा चैव गृहदेवता ।। ४६ ।।
स्वयं राधा कृष्णपत्नी कृष्णवक्षःस्थलस्थिता ।
प्राणाधिष्ठातृदेवी च तस्यैव परमात्मनः ।। ४७ ।।
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आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।। ४८ ।।
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम् ।।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् ।। ४९ ।।
स्वेच्छामयं नित्यरूपं भक्तानुग्रहविग्रहम् ।।
तद्भिन्नानां च देवानां प्राकृतं रूपमेव च ।। 2.48.५० ।।
तस्य प्राणाधिका राधा बहुसौभाग्यसंयुता ।
महाविष्णोः प्रसूः सा च मूलप्रकृतिरीश्वरी । ५१।
मानिनीं राधिकां सन्तः सेवन्ते नित्यशस्सदा ।।
सुलभं यत्पदाम्भोजं ब्रह्मादीनां सुदुर्लभम् ।५२।
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स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः ।।
स्वयं देवी हरेः क्रोडे छायारूपेण कामिनी ।५३।
स च द्वादशगोपानां रायाणप्रवरः प्रिये ।।
श्रीकृष्णांशश्च भगवान्विष्णुतुल्यपराक्रमः।५४।
सुदामशापात्सा देवी गोलोकादागता महीम् ।।
वृषभानुगृहे जाता तन्माता च कलावती ।।५५।।
सन्दर्भ:-
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधोत्पत्तितत्पूजादिकथनं नामाष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ।। ४८ ।।
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नारद-नारायण-संवाद में पार्वती जी के पूछने पर महादेव जी के द्वारा श्रीराधा के प्रादुर्भाव और गोप - गोपियों की उत्पत्ति की कथा सुनाना एवं उनके महत्त्व आदि का वर्णन-
नारद जी बोले– भगवान नारायण के ध्यान में तत्पर रहने वाले महाभाग मुनिवर नारायण! आप नारायण के ही अंश हैं। अतः भगवन! आप नारायण से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये।
सुरभी का उपाख्यान अत्यन्त मनोहर है, उसे मैंने सुन लिया। वह समस्त पुराणों में गोपनीय कहा गया है। पुराणवेत्ताओं ने उसकी बड़ी प्रशंसा की है।
अब मैं श्रीराधा का परम उत्तम आख्यान सुनना चाहता हूँ। उनके प्रादुर्भाव के प्रसंग तथा उनके ध्यान, स्तोत्र और उत्तम कवच को भी सुनने की मेरी प्रबल इच्छा है; अतः आप इन सबका वर्णन कीजिये।
मुनिवर श्रीनारायण ने कहा– नारद! पूर्वकाल की बात है, कैलास-शिखर पर सनातन भगवान शंकर, जो सर्वस्वरूप, सबसे श्रेष्ठ, सिद्धों के स्वामी तथा सिद्धिदाता हैं, बैठे हुए थे।
मुनिलोग भी उनकी स्तुति करके उनके पास ही बैठे थे। भगवान शिव का मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था। उनके अधरों पर मन्द मुस्कान की छटा छा रही थी। वे कुमार( अपने पुत्र स्कन्द) को परमात्मा श्रीकृष्ण के रासोत्सव का सरस आख्यान सुना रहे थे।
उस प्रसंग के श्रवण में कुमार की बड़ी रुचि थी। रासमण्डल का वर्णन चल रहा था। जब इस आख्यान की समाप्ति हुई और अपनी बात प्रस्तुत करने का अवसर आया, उस समय सती-साध्वी पार्वती मन्द मुस्कान के साथ अपने प्राणवल्लभ के समक्ष प्रश्न उपस्थित करने को उद्यत हुईं।
पहले तो वे डरती हुई-सी स्वामी की स्तुति करने लगीं। फिर जब प्राणेश्वर ने मधुर वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया, तब वे देवेश्वरी महादेवी उमा महादेव जी के सामने वह अपूर्व राधिकोपाख्यान सुनाने कि लिये अनुरोध करने लगीं, जो पुराणों में भी परम दुर्लभ है।
श्रीपार्वती बोलीं– नाथ ! मैंने आपके मुखारविन्द से पाञ्चरात्र आदि सारे उत्तमोत्तम आगम, नीतिशास्त्र, योगियों के योगशास्त्र, सिद्धों के सिद्धिशास्त्र, नाना प्रकार के मनोहर तन्त्रशास्त्र, परमात्मा श्रीकृष्ण के भक्तों के भक्तिशास्त्र तथा समस्त देवियों के चरित्र का श्रवण किया।
परन्तु अब मैं श्रीराधा जी का उत्तम आख्यान सुनना चाहती हूँ।
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श्रुति वेद की में कण्वशाखा के भीतर श्रीराधा की प्रशंसा संक्षेप से की गयी है, उसे मैंने आपके मुख से सुना है; अब व्यास द्वारा वर्णित श्रीराधा महत्ता सुनाइये।
पहले आगमाख्यान के प्रसंग में आपने मेरी इस प्रार्थना को स्वीकार किया था। ईश्वर की वाणी कभी मिथ्या नहीं हो सकती। अतः आप श्रीराधा के प्रादुर्भाव, ध्यान, उत्तम नाम-माहात्म्य, उत्तम पूजा-विधान, चरित्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, आराधन-विधि तथा अभीष्ट पूजा-पद्धति का इस समय वर्णन कीजिये।
भक्तवत्सल ! मैं आपकी भक्त हूँ, अतः मुझे ये सब बातें अवश्य बताइये। साथ ही, इस बात पर भी प्रकाश डालिये कि आपके आगमाख्यान से पहले ही इस प्रसंग का वर्णन क्यों नहीं किया था?
ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 48
पार्वती का उपर्युक्त वचन सुनकर भगवान पंचमुख शिव ने अपना मस्तक नीचा कर लिया। अपना सत्य भंग होने के भय से वे मौन हो गये– चिन्ता में पड़ गये। उस समय उन्होंने अपने इष्टदेव करुणानिधान भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान द्वारा स्मरण किया और उनकी आज्ञा पाकर वे अपनी अर्धांगस्वरूपा पार्वती से इस प्रकार बोले– ‘देवि ! आगमाख्यान का आरम्भ करते समय मुझे परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण ने राधाख्यान के प्रसंग से रोक दिया था, परंतु महेश्वरि! तुम तो मेरा आधार अंग हो; अतः स्वरूपतः मुझ से भिन्न नहीं हो।
इसलिये भगवान श्रीकृष्ण ने इस समय मुझे यह प्रसंग तुम्हें सुनाने की आज्ञा दे दी है। सतीशिरोमणे! मेरे इष्टदेव की वल्लभा श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त गोपनीय, सुखद तथा श्रीकृष्ण भक्ति प्रदान करने वाला है।
दुर्गे ! यह सब पूर्वापर श्रेष्ठ प्रसंग मैं जानता हूँ। मैं जिस रहस्य को जानता हूँ, उसे ब्रह्मा तथा नागराज शेष भी नहीं जानते।
सनत्कुमार, सनातन, देवता, धर्म, देवेन्द्र, मुनीन्द्र, सिद्धेन्द्र तथा सिद्धपुंगवों को भी उसका ज्ञान नहीं है।
सुरेश्वरि! तुम मुझसे भी बलवती हो; क्योंकि इस प्रसंग को न सुनाने पर अपने प्राणों का परित्याग कर देने को उद्यत हो गयी थीं। अतः मैं इस गोपनीय विषय को भी तुमसे कहता हूँ। दुर्गे! यह परम अद्भुत रहस्य है। मैं इसका कुछ वर्णन करता हूँ, सुनो। श्रीराधा का चरित्र अत्यन्त पुण्यदायक तथा दुर्लभ है।
एक समय रासेश्वरी श्रीराधा जी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से मिलने को उत्सुक हुईं। उस समय वे रत्नमय सिंहासन पर अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित होकर बैठी थीं। अग्नि शुद्ध दिव्य वस्त्र उनके श्री अंगों की शोभा बढ़ा रहा था। उनकी मनोहर अंगकान्ति करोड़ों पूर्ण चन्द्रमाओं को लज्जित कर रही थी।
उनकी प्रभाव तपाये हुए सुवर्ण के सदृश जान पड़ती थी। वे अपनी ही दीप्ति से दमक रही थीं। शुद्धस्वरूपा श्रीराधा के अधर पर मन्द मुस्कान खेल रही थी। उनकी दन्तपंक्ति बड़ी ही सुन्दर थी। उनका मुखारविन्द शरत्काल के प्रफुल्ल कमलों की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था। वे मालती-सुमनों की माला से मण्डित रमणीय केश-पाश धारण करती थीं। उनके गले की रत्नमयी माला ग्रीष्म-ऋतु के सूर्य के समान दीप्तिमयी थी।
कण्ठ में प्रकाशित शुभ मुक्ताहार गंगा की धवल धार के समान शोभा पा रहा था। रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने मन्द-मन्द मुस्कराती हुई अपनी उन प्रियतमा को देखा। प्राणवल्लभा पर दृष्टि पड़ते ही विश्वकान्त श्रीकृष्ण मिलन के लिये उत्सुक हो गये। परम मनोहर कान्तिवाले प्राणवल्लभ को देखते ही श्रीराधा उनके सामने दौड़ी गयीं। महेश्वरि! उन्होंने अपने प्राणाराम की ओर धावन किया, इसीलिये पुराणवेत्ता महापुरुषों ने उनका राधा यह सार्थक नाम निश्चित किया।
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 48
राधा श्रीकृष्ण की आराधना करती हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधा की। वे दोनों परस्पर आराध्य और आराधक हैं।
संतों का कथन है कि उनमें सभी दृष्टियों से पूर्णतः समता है।
महेश्वरि! मेरे ईश्वर श्रीकृष्ण रास में प्रिया जी के धावनकर्म का स्मरण करते हैं, इसीलिये वे उन्हें ‘राधा’ कहते हैं, ऐसा मेरा अनुमान है।
दुर्गे! भक्त पुरुष ‘रा’ शब्द के उच्चारण मात्र से परम दुर्लभ मुक्ति को पा लेता है और ‘धा’ शब्द के उच्चारण से वह निश्चय ही श्रीहरि के चरणों में दौड़कर पहुँच जाता है।
‘रा’ का अर्थ है ‘पाना’ और ‘धा’ का अर्थ है ‘निर्वाण’ (मोक्ष)।
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भक्तजन उनसे निर्वाणमुक्ति पाता है, इसलिये उन्हें ‘राधा’ कहा गया है।
हे पार्वती ! सुनो !
श्रीराधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है तथा श्रीकृष्ण के रोमकूपों से सम्पूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
श्रीराधा के वामांश-भाग से महालक्ष्मी का प्राकट्य हुआ है।
******"
वे ही महा लक्ष्मी शस्य( अन्न) की अधिष्ठात्री देवी तथा गृहलक्ष्मी के रूप में भी आविर्भूत हुई हैं। देवी महालक्ष्मी चतुर्भुज विष्णु की पत्नी हैं।
और वैकुण्ठधाम में वास करती हैं।
राजा को सम्पत्ति देने वाली राजलक्ष्मी भी उन्हीं की अंशभूता हैं। राजलक्ष्मी की अंशभूता मर्त्यलक्ष्मी हैं, जो गृहस्थों के घर-घर में वास करती हैं।
वे ही शस्याधिष्ठातृदेवी तथा वे ही गृहदेवी हैं। स्वयं श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्रियतमा हैं तथा श्रीकृष्ण के ही वक्षःस्थल में वास करती हैं।
वे उन परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं।
पार्वति ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है। केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्ल्भ श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो।[3] वे सबसे प्रधान, परमात्मा, परमेश्वर, सबके आदिकरण, सर्वपूज्य, निरीह तथा प्रकृति से परे विराजमान हैं।
उनका नित्यरूप स्वेच्छामय है। वे भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही शरीर धारण करते हैं।
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श्रीकृष्ण से भिन्न जो दूसरे-दूसरे देवता हैं; उनका रूप प्राकृत तत्त्वों से ही गठित है। श्रीराधा श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे परम सौभाग्यशालिनी हैं।
वे मूलप्रकृति परमेश्वरी श्रीराधा महाविष्णु की जननी है।
संत पुरुष मानिनी राधा का सदा सेवन करते हैं। उनका चरणारविन्द ब्रह्मादि देवताओं के लिये परम दुर्लभ होने पर भी भक्तजनों के लिये सदा सुलभ है।
सुदामा के शाप से लीलावश देवी श्रीराधा को गोलोक से इस भूतल पर आना पड़ा था। उस समय वे वृषभानु गोप के घर में अवतीर्ण हुई थीं। वहाँ उनकी माता कलावती थीं।
श्री राधा कवच का वर्णन-
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः २ (प्रकृतिखण्डः)/अध्यायः ५६
"श्रीपार्वत्युवाच"
पूजाविधानं स्तोत्रं च श्रुतमत्यद्भुतं मया ।।
अधुना कवचं ब्रूहि श्रोष्यामि त्वत्प्रसादतः ।। १ ।।
श्रीमहेश्वर उवाच ।।
शृणु वक्ष्यामि हे दुर्गे कवचं परमाद्भुतम् ।।
पुरा मह्यं निगदितं गोलोके परमात्मनः ।। २ ।।
अतिगुह्यं परं तत्त्वं सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।।
यद्धृत्वा पठनाद्ब्रह्मा संप्राप्तो वेदमातरम् ।। ३ ।।
यद्धृत्वाऽहं तव स्वामी सर्वमाता सुरेश्वरी ।।
नारायणश्च यद्धृत्वा महालक्ष्मीमवाप सः ।। ४ ।।
यद्धृत्वा परमात्मा च निर्गुणं प्रकृतेः परः ।।
बभूव शक्तिमान्कृष्णः सृष्टिं कर्तुं पुरा विभुः।।५।।
विष्णुः पाता च यद्धृत्वा संप्राप्तस्सिन्धुकन्यकाम्।
शेषो बिभर्ति ब्रह्माण्डं मूर्ध्नि सर्षपवद्यतः ।।६।।
प्रत्येकं लोमकूपेषु ब्रह्माण्डानि महान्विराट्।।
बिभर्ति धारणाद्यस्य सर्वाधारो बभूव सः ।।७।।
यद्धारणाच्च पठनाद्धर्म्मः साक्षी च सर्वतः।।
यद्धारणात्कुबेरश्च धनाध्यक्षश्च भारते ।। ८ ।।
इन्द्रः सुराणामीशश्च पठनाद्धारणाद्विभुः ।।
नृपाणां मनुरीशश्च पठनाद्धारणात्प्रभुः ।। ९ ।।
श्रीमांश्चन्द्रश्च यद्धृत्वा राजसूयं चकार सः ।।
स्वयं सूर्यस्त्रिलोकेशः पठनाद्धारणाद्धरिः ।।2.56.१०।।
यद्धृत्वा पठनादग्निर्जगत्पूतं करोति च।।
यद्धृत्वा वाति वातोऽयं पुनाति भुवनत्रयम्।११ ।।
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यद्धृत्वा च स्वतन्त्रो हि मृत्युश्चरति जन्तुषु।।
त्रिःसप्तकृत्वो निःक्षत्रां चकार च वसुन्धराम् । १२ ।
जामदग्न्यश्च रामश्च पठनाद्धारणात्प्रभू ।।
पपौ समुद्रं यद्धृत्वा पठनात्कुम्भसम्भवः ।। १३ ।।
सनत्कुमारो भगवान्यद्धृत्वा ज्ञानिनां गुरुः ।।
जीवन्मुक्तौ च सिद्धौ च नरनारायणावृषी ।।१४।।
यद्धृत्वा पठनात्सिद्धो वसिष्ठो ब्रह्मपुत्रकः।।
सिद्धेशः कपिलो यस्माद्यस्माद्दक्षः प्रजापतिः ।।१५।।
यस्माद्भृगुश्च मां द्वेष्टि कूर्म्मः शेषं बिभर्त्ति च ।।
सर्वाधारो यतो वायुर्वरुणः पवनो यतः ।। १६ ।।
ईशानो दिक्पतिश्चैव यमः शास्ता यतः शिवे ।।
कालः कालाग्निरुद्रश्च संहर्त्ता जगतां यतः ।।१७।।
यद्धृत्वा गौतमः सिद्धः कश्यपश्च प्रजापतिः ।।
वसुदेवसुतां प्राप चैकांशेन तु तत्कलाम् ।।१८।।
पुरा स्वजायाविच्छेदे दुर्वासा मुनिपुङ्गवः।।
संप्राप रामः सीतां च रावणेन हृतां पुरा ।।१९।।
पुरा नलश्च संप्राप दमयन्तीं यतः सतीम् ।।
शङ्खचूडो महावीरो दैत्यानामीश्वरो यतः ।। 2.56.२० ।।
वृषो वहति मां दुर्गे यतो हि गरुडो हरिम् ।।
एवं संप्राप संसिद्धिं सिद्धाश्च मुनयः पुरा ।।२१ ।।
यद्धृत्वा च महालक्ष्मीः प्रदात्री सर्वसम्पदाम् ।।
सरस्वती सतां श्रेष्ठा यतः क्रीडावती रतिः ।।२२।।
सावित्री वेदमाता च यतः सिद्धिमवाप्नुयात्।।
सिन्धुकन्या मर्त्यलक्ष्मीर्यतो विष्णुमवाप सा ।२३।
यद्धृत्वा तुलसी पूता गङ्गा भुवनपावनी ।।
यद्धृत्वा सर्वसस्याढ्या सर्वाधारा वसुन्धरा ।।२४।
यद्धृत्वा मनसादेवी सिद्धा वै विश्वपूजिता ।।
यद्धृत्वा देवमाता च विष्णुं पुत्रमवाप सा ।। २५ ।।
पतिव्रता च यद्धृत्वा लोपामुद्राऽप्यरुन्धती ।।
लेभे च कपिलं पुत्रं देवहूती यतः सती ।। २६ ।।
प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ प्राप च तत्प्रसूः ।।
त्वन्माता चापि संप्राप त्वां देवीं गिरिजां यतः ।। २७ ।।
एवं सर्वे सिद्धगणाः सर्वैश्वर्य्यमवाप्नुयुः ।।
श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।२८।
ऋषिच्छन्दोऽस्य गायत्री देवी रासेश्वरी स्वयम् ।।
श्रीकृष्णभक्ति संप्राप्तौ विनियोगः प्रकीर्त्तितः ।। २९ ।।
शिष्याय कृष्णभक्ताय ब्राह्मणाय प्रकाशयेत् ।।
शठाय परशिष्याय दत्त्वा मृत्युमवाप्नुयात् ।। 2.56.३० ।।
राज्यं देयं शिरो देयं न देयं कवचं प्रिये ।।
कण्ठे धृतमिदं भक्त्या कृष्णेन परमात्मना ।३१ ।
मया दृष्टं च गोलोके ब्रह्मणा विष्णुना पुरा ।।
ॐ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ।। ३२ ।।
कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्षः शिरोऽवतु ।।
ॐ ह्रीं श्रीं राधिकां ङेन्तं वह्निजायान्तमेव च ।३३ ।
कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्र युग्मं सदाऽवतु ।।
ॐ एं ह्रीं श्रीं राधिकायै वह्निजायान्तमेव च ।३४।
मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदाऽवतु ।
ओं रां राधाचतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च ।३५ ।
सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिकां मुखम् ।।
क्लीं श्रीकृष्णप्रिया ङेन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम् ।। ३६ ।।
ओं रां रासेश्वरीं ङेन्तं स्कंधं पातु नमोऽन्तकम्
ओं रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ।।३७।।
वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ।।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम् ।। ३८ ।।
कृष्णप्राणाधिका ङेन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम् ।।
पादयुग्मं च सर्वाङ्गं सन्ततं पातु सर्वतः ।। ३९ ।।
प्राच्यां रक्षतु सा राधा वह्नौ कृष्णप्रियाऽवतु ।।
दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैर्ऋतेऽवतु ।। 2.56.४० ।।
पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता ।।
उत्तरे सन्ततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी ।। ४१ ।।
सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता ।।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा ।। ४२ ।।
महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु सन्ततम् ।।
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङ्गलं परम् ।। ४३ ।।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गुह्याद्गुह्यतरं परम् ।।
तव स्नेहान्मयाऽऽ ख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्।।४४।।
गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कारचन्दनैः।।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णुसमो भवेत् ।।४५।।
शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत् ।।
यदि स्यात्सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत् ।। ४६ ।।
एतस्मात्कवचाद्दुर्गे राजा दुर्य्योधनः पुरा ।।
विशारदो जलस्तम्भं वह्निस्तम्भं च निश्चितम् ।। ४७।
*****
मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।।
सूर्य्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ।।४८।।
बल्लाय तेन दत्तं च ददौ दुर्य्योधनाय सः।।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः।।४९।।
नित्यं पठति भक्त्येदं तन्मन्त्रोपासकश्च यः।।
विष्णुतुल्यो भवेन्नित्यं राजसूयफलं लभेत्।।2.56.५०।।
स्नानेन सर्वतीर्थानां सर्वदानेन यत्फलम्।।
सर्वव्रतोपवासेन पृथिव्याश्च प्रदक्षिणैः।।५१।।
सर्वयज्ञेषु दीक्षायां नित्यं वै सत्यरक्षणे ।।
नित्यं श्रीकृष्णसेवायां कृष्णनैवेद्यभक्षणे ।।५२ ।।
पाठे चतुर्णां वेदानां यत्फलं च लभेन्नरः ।।
तत्फलं लभते नूनं पठनात्कवचस्य च ।। ५३ ।।
राजद्वारे श्मशाने च सिंहव्याघ्रान्विते वने ।।
दावाग्नौ संकटे चैव दस्युचौरान्विते भये ।। ५४ ।।
कारागारे विपद्ग्रस्ते घोरे च दृढबन्धने ।।
व्याधियुक्तो भवेन्मुक्तो धारणात्कवचस्य च ।५५।।
इत्येतत्कथितं दुर्गे तवैवेदं महेश्वरि।।
त्वमेव सर्वरूपा मां माया पृच्छसि मायया ।।५६।।
"श्रीनारायण उवाच ।
इत्युक्त्वा राधिकाख्यानं स्मारंस्मारं च माधवम् ।।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गः साश्रुनेत्रो बभूव सः ।९७ ।
न कृष्णसदृशो देवो न गङ्गासदृशी सरित् ।।
न पुष्करात्परं तीर्थं न वर्णो ब्राह्मणात्परः ।। ५८ ।।
परमाणोः परं सूक्ष्मं महाविष्णोः परो महान् ।।
नभः परं च विस्तीर्णं यथा नास्त्येव नारद ।५९।
यथा न वैष्णवाज्ज्ञानी योगीन्द्रः शङ्करात्परः ।।
कामक्रोधलोभमोहा जितास्तेनैव नारद । 2.56.६०।
स्वप्ने जागरणे शश्वत्कृष्णध्यानरतः शिवः ।।
यथा कृष्णस्तथा शम्भुर्न भेदो माधवेशयोः ।६१ ।
यथा शम्भुर्वैष्णवेषु यथा देवेषु माधवः ।।
तथेदं कवचं वत्स कवचेषु प्रशस्तकम् ।। ६२ ।।
शिशब्दो मङ्गलार्थश्च वकारो दातृवाचकः ।।
मङ्गलानां प्रदाता यः स शिवः परिकीर्त्तितः ।६३ ।।
नराणां सन्ततं विश्वे शं कल्याणं करोति यः ।।
कल्याणं मोक्ष इत्युक्तं स एवं शङ्करः स्मृतः।।६४।।
ब्रह्मादीनां सुराणां च मुनीनां वेदवादिनाम्।।
तेषां च महतां देवो महादेवः प्रकीर्तितः।।६५।।
महती पूजिता विश्वे मूलप्रकृतिरीश्वरी। ।।
तस्या देवः पूजितश्च महादेवः स च स्मृतः ।६६ ।।
विश्वस्थानां च सर्वेषां महतामीश्वरः स्वयम् ।।
महेश्वरं च तेनेमं प्रवदन्ति मनीषिणः ।। ६७ ।।
हे ब्रह्मपुत्र धन्योऽसि यद्गुरुश्च महेश्वरः ।।
श्रीकृष्ण भक्तिदाता यो भवान्पृच्छति मां च किम् ।। ६८ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादे राधिकोपाख्याने तन्मन्त्रादिकथनं नाम षट्पञ्चाशत्तमोऽध्याय।।५६।।
आद्या राधा का विवाह कृष्ण के साथ हुआ द्वितीया छाया राधा (राधाच्छाया )का विवाह रायाण गोप से हुआ जो मूल राधा की प्रतिबिम्ब राधा थी रायाण गोप कृष्ण का ही अंश था। और तीसरी अनुराधा का विवाह उपमन्यु गोप से हुआ और आराधिका का विवाह अयन घोष से हुआ। व्रज में उस समय चार राधा नाम की गोपियाँ रहती थीं।
शास्त्रीय सन्दर्भों में राधा के पति कृष्ण हैं।
का क्षमा तं पतिं कर्तुं विना लक्षमीं सरस्वतीम् ।।
चतुर्भुजस्य द्वे भार्ये हरेर्वैकुण्ठशाथिनः ।३८।
गोलोके द्विभुजस्यापि श्रीवंशीवदनस्य च ।
किशोरगोपवेषस्य परिपूर्णतमस्य च ।। ३९ ।।
तस्य भार्या स्वयं राधा महालक्ष्मीः परात्परा ।
ब्रह्मस्वरूपा परमा परमात्मानमीश्वरम् । ४०।
__________
"श्रीभगवानुवाच
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।। १३५ ।।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।। १३६ ।।
वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि ।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८ ।।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी।
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति ।१३९ ।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।।
च गोकुले ।१४०।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी ।। १४१ ।।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसंनिभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् ।। १४२ ।।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३।
क्षयो भवेति वाक्यं च मयोक्तं कोपभीतया ।
वारत्रयं पुनर्वक्तुं वारयामास भास्करः ।। १४४ ।।
सत्ये च परिपूर्णोऽयं यथापूर्वो यथाऽधुना ।
त्रिपादश्चापि त्रेतायां द्वापदो द्विपरे तथा ।। १४५ ।।
एकपादश्च दर्मोऽयं कलेश्च प्रथमे हरे ।
शेषे कलाषोडशांशः पुनः सत्ये यथा पुरा ।। १४६ ।।
त्रिर्निर्गतं मम मुखात्क्षयस्तेन ततः क्रमात्
पुनरुक्ते च मनसि वारयामास भास्करः ।। १४७ ।।
तेनैव रेतुनाऽयं च करिशेषे कलामयः ।
तथा शप्तः स्थितो दुर्गे कलिशेषे तथा ध्रुवम् ।। १४८ ।।
एतस्मिन्नन्तरे नन्द ददृशुर्देवता रथम् ।
गोलोकादागतं वेगादतीव सुन्दरं शुभम् ।। १४९ ।।
अमूल्यरत्ननिर्माणं हीरहारपरिष्कृतम् ।
मणिमाणिक्यमुक्ताभिर्वस्त्रैश्च श्वेतचामरै। ।। १५०।
विभूषितं भूषणौश्च रुचिरै स्तनदर्पणैः ।
नत्वा हरिं हरं वृन्दा ब्रह्माणं सर्वदेवताः ।। १५१ ।।
समारुङ्य रथं दृष्ट्वा गोलोकं च जगाम सा ।
देवा जग्मुश्च स्वस्थानं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। १५२ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखणड उत्तरार्द्ध अध्याय ।86।
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 86
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धर्म ने कहा- वृन्दे! जो इच्छारहित, तर्कण करने के अयोग्य, ऐश्वर्यशाली, निर्गुण, निराकार और भक्तानुग्रहमूर्ति हैं; उन परमात्मा को पति बनाने के लिए लक्ष्मी और सरस्वती के अतिरिक्त दूसरी कौन स्त्री समर्थ हो सकती है?
वैकुण्ठशायी चतुर्भुज भगवान की ये ही दो भार्याएँ हैं।
गोलोक में भी जो द्विभुज, वंशी बजाने वाले, किशोर गोप-वेषधारी, परिपूर्णतम श्रीकृष्ण हैं; उनकी पत्नी स्वयं परात्परा महालक्ष्मी राधा हैं।
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वे परमब्रह्मा स्वरूपिणी राधा उन श्यामसुंदर की, जो परम आत्मबल से संपन्न, ऐश्वर्यशाली, शमपरायण और परम सौंदर्यशाली हैं, जिनका सुंदर शरीर करोड़ों कामदेवों के सौंदर्य की निन्दा करने वाला, अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित, सत्यस्वरूप और अविनाशी है तथा जो रमणीय पीताम्बर धारण करने वाले और संपूर्ण संपत्तियों के दाता हैं; सदा सेवा करती रहती हैं।
वे श्रीकृष्ण द्विभुज और चतुर्भुज रूप से दो रूपों में विभक्त हैं। वे स्वयं चतुर्भुज-रूप से वैकुण्ठ में और द्विभुज-रूप से गोलोक में वास करते हैं।
पचीस हजार युग बीतने के बाद इंद्र का पतन होता है, ऐसे चौदह इंद्रों का शासनकाल लोकों के विधाता ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है।
ऐसे तीस दिन का एक मास और बारह मास का एक वर्ष होता है।
ऐसे सौ वर्ष तक ब्रह्मा की आयु समझनी चाहिए। उन ब्रह्मा की आयु समाप्ति, जिनका एक निमेष होता है, सनक आदि महर्षि जिनकी जीवनपर्यन्त सेवा करते रहते हैं, परंतु करोड़ों-करोड़ों कल्पों में भी जो विभु साध्य नहीं होते। सहस्रमुखधारी शेषनाग अरबों-खरबों कल्पों तक जिनकी भक्तिपूर्वक रात-दिन सेवा तथा नाम जप करते रहते हैं; परंतु वे परात्पर, दुराराध्य, हितकारी भगवान साध्य नहीं होते।
श्रीकृष्ण जी पत्नी राधा के मूल रूप का विवाह कृष्ण के साथ हुआ। यह बात ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड में भी वर्णित है।
केदार की पुत्री वृन्दा का राधा की छाया (प्रतिरूप) में रायाण से विवाह-
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।। १३६ ।
वृषभानसुता त्वं च राधाच्छाया भविष्यसि ।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।
*****************
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।। १३८ ।।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति ।। १३९ ।।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।।
च गोकुले ।। १४० ।।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं न रि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी ।। १४१ ।।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् ।। १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
अनुवाद:- तब भगवान जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले। श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी। सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम राधा की छायाभूता वृषभानु की कन्या होओगी। उस समय मेरे कलांश से उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे प्राप्त करोगी। ***************************** स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह केदार की पुत्री वृन्दावन से हुआ था जो राधाच्छाया के रूप में व्रज में उपस्थित थी। जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी। हे वृन्दे! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही ग्रहण करेंगे; परंतु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। ___________________________ उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी गोद में रहती हैं ! इस प्रकार भगवान विष्णु के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये। उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को प्रणाम किया। | |
*-इति राधोपाख्यानम् ★।।
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