कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु ।
असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु ।१९२।
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु ।
जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका ।१९३।
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा ।
कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः ।१९४।
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः ।१९५।
ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि।
मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो ।
भवेद् ध्रुवम् । १९६ ।
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः
पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः ।१९७।
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु।
महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
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इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध-
पञ्चाशीतितमोऽध्यायः। ८५ ।
अनुवाद:-
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विद्वानों के कवित्व पर प्रहार करने वाला सात जन्म तक मेढक होता है। जो झूठे ही अपने के विद्वान कहकर गाँव की पुरोहिती और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला, एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है।
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फिर एक जन्म में बर्रै होने के बाद वृक्ष की चीटीं होता है। तत्पश्चात क्रमशः शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है।
चारों वर्णों में कन्या बेचने वाला मानव तामिस्र नरक में जाता है ।
और वहाँ तब तक निवास करता है, जब तक सूर्य-चंद्रमा की स्थिति रहती है। इसके बाद वह मांस बेचने वाला व्याध होता है।
तत्पश्चात पूर्वजन्म में जो जैसा होता है, उसी के अनुसार उसे व्याधि आ घेरती है।
मेरे नाम को बेचने वाले ब्राह्मण की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव( अटल) है।
मृत्युलोक में जिसके में स्मरण मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गौ की योनि में उत्पन्न होता है। इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है।
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अब आगे इसी क्रम में
ब्रह्म वैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड -अध्याय (49) से
श्रीराधा और श्रीकृष्ण के चरित्र तथा श्रीराधा की पूजन-अर्चन -परम्परा का परिचय–
श्रीमहादेव जी कहते हैं– पार्वति ! एक समय की बात है, श्रीकृष्ण विरजा नामवाली सखी के यहाँ उसके पास थे।
इससे श्रीराधा जी को क्षोभ हुआ। इस कारण विरजा वहाँ नदीरूप होकर प्रवाहित हो गयी।
विरजा की सखियाँ भी छोटी-छोटी नदियाँ बनीं।
पृथ्वी की बहुत-सी नदियाँ और सातों समुद्र विरजा से ही उत्पन्न हैं।
राधा ने प्रेम के रोष से श्रीकृष्ण के पास जाकर उनसे कुछ कठोर शब्द कहे।
उनके पुत्र व पार्षद सुदामा ने इसका विरोध किया। इस पर लीलामयी श्रीराधा ने उसे असुर होने का शाप दे दिया।
सुदामा ने भी लीलाक्रम से ही श्रीराधा को मानवीरूप में प्रकट होने की बात कह दी।
सुदामा माता राधा तथा पिता श्रीहरि को प्रणाम करके जब जाने को उद्यत हुआ तब श्रीराधा पुत्र विरह से कातर हो आँसू बहाने लगीं।
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श्रीकृष्ण ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और शीघ्र उसके लौट आने का विश्वास दिलाया। सुदामा ही तुलसी का स्वामी शंखचूड़ नामक असुर हुआ था,
हे पार्वति ! जो मेरे त्रिशूल से विदीर्ण एवं शाप मुक्त हो संखचूड पुनः गोलोक चला गया।
सती राधा इसी वाराहकल्प में गोकुल में अवतीर्ण हुई थीं। वे व्रज में वृषभानु गोप की कन्या हुईं।
वे देवी अयोनिजा थीं, माता के पेट से नहीं पैदा हुई थीं। उनकी माता कलावती ने अपने गर्भ में ‘वायु’ को धारण कर रखा था।
उसने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया; परंतु वहाँ स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गयीं।
बारह वर्ष बीतने पर उन्हें नूतन यौवन में प्रवेश करती देख माता-पिता ने ‘रायाण’ गोप के साथ उसका सम्बन्ध निश्चित कर दिया।
उसी समय श्रीराधा घर में अपनी छाया ( प्रति रूपा) वृन्दा नामक गोपी को जो ध्रुव के पौत्र केदार की पुत्री थी उसको स्थापित करके स्वयं अन्तर्धान हो गयीं।
उस छाया रूपी वृन्दा के साथ ही उक्त रायाण का विवाह हुआ।
साधारण व्रजवासी इस सूक्ष्म रहस्य नहीं जान पाये क्यों कि वृन्दा भी राधा के समान रूप वाली थी। गोलोक में जब राधा जी से गोपियों का प्रादुर्भाव (उत्पत्ति) हुई तब वे समस्त गोपीयाँ ( अहीराणी) राधा के समान ही रूप वाली थीं।
‘जगत्पति श्रीकृष्ण कंस के भय से रक्षा के बहाने शैशवावस्था में ही गोकुल पहुँचा दिये गये थे।
वहाँ श्रीकृष्ण की माता जो यशोदा थीं, उनका सहोदर भाई ‘रायाण’ था। गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था, पर इस अवतार के समय भूतल पर वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था।
वृन्दा की उत्पत्ति भी यज्ञ शाला में हुई और राधा की भी- वृन्दा के पिता केदार और राधा के पिता वृषभानु थे।
कृष्ण का विवाह तो भाण्डीर वन में राधा के ही साथ हुआ था।
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विशेष :- रायाण का प्रसंग सिद्धान्त विहीन व प्रक्षिप्त सा लगता है। यदि मान लिया जाए कि रायाण यशोदा का भाई था तो इसके माता-पिता भी यशोदा के माता पिता होने चाहिए- और यशोदा के माता पिता- चैतन्य शिष्य परम्पराओं के अनुसार माता पाटला- और पिता सुमुख होने चाहिए-
परन्तु "श्रीश्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका* के अनुसार जिससे राधा की प्रतिच्छाया वृन्दा का विवाह हुआ है वह अभिमन्यु है। और वह नन्दगाँव के समीप जावट- गाँव का रहने वाला गोप है। उसके पिता वृकगोप भाई दुर्मद माता- जटिला तथा बहिन कुटिला है।
जबकि इसी ग्रन्थ में यशोदा के माता पिता और भाई इनसे अलग हैं।
अध्याय 49 में कृष्ण के साथ राधा का विवाह - ब्रह्मा देवा सम्पन्न हुआ।
"कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने ।।
विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः।।४२।।
विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः।।४२।।
अनुवाद:-
जगत्स्रष्टा विधाता( ब्रह्मा) ने पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ साक्षात श्रीराधा
का विधिपूर्वक विवाह भाण्डीरवन (वटवन) में सम्पन्न कराया था।४२।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः।।
स्वयं राधा हरेः क्रोडे छाया रायाणमन्दिरे।।४३।।
स्वयं राधा हरेः क्रोडे छाया रायाणमन्दिरे।।४३।।
गोपगण स्वप्न में भी श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन नहीं कर पाते थे। साक्षात राधा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में वास करती थीं और छाया राधा रूपी वृन्दा रायाण के घर में निवास करती है।।४३।
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः।।
राधिकाचरणाम्भोजदर्शनार्थी च पुष्करे ।।४४।।
राधिकाचरणाम्भोजदर्शनार्थी च पुष्करे ।।४४।।
ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन पाने के लिये पुष्कर में साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी; उसी तपस्या के फलस्वरूप इस समय उन्हें श्रीराधा-चरणों का दर्शन प्राप्त हुआ था।४४।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के इसी प्रकृति खण्ड के
विदित हो की राधा जी का विवाह केवल कृष्ण से ही भाण्डीर वन में हुआ था।
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