शुक्रवार, 21 जून 2024

"नन्द और वृषभानु का व्रजवासी परिवार-

वृष्णे: कुले उत्पन्नस्य देवमीणस्य पर्जन्यो नाम्न: सुतो। वरिष्ठो बहुशिष्टो व्रजगोष्ठीनां स कृष्णस्य पितामह।१।

"पुरा काले नन्दीश्वरे प्रदेशे  वसन्सह गोपै:।
स्वराटो विष्णो: तपयति स्म पर्जन्यो यति।।२।

तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्।         पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।

तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।

पितामही  महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।

भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।
।६।

गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।७।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन् नित्यनिशिवासरे।।७।

उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ  व्रजेश्वरौ।।८।

वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।।९।

नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।

माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।

आदिपुराणे प्रोक्तं देने नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।

उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३।

आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।

द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
 पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।

सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।

सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।

नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।।१८।

सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी१९।
 
सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च  तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।।२०।

पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।

राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।

महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।

मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२४।

प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२५।

सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्न: बल्लवी।२६।

गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।।२७।

दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्ख वर्णा महोदरी।२८।


यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु। 
अतसी पुष्परुचय:  पाण्डराम्बर-संवृता:।२९।

येषां  धूम्रपटा भार्या  कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३०।

यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे  इत्यन्ये नामनी तयो:।।३१।

ज्येष्ठा श्यामानुजा गौरी हिङ्गुलोपमवाससी।
चाटुवाटुकयोर्भार्ये  ते राजन्यतनुजयो:।।३२।


सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: सुचारुनाम् शोभन:। गोलस्य भ्रातु:सुता यस्य भार्यानाम्ना तुलावती।।३३।

पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३४।

मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां।    नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३५।

सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३६।

राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च  रङ्गदेवी सुदेविका।३७।

तत्राद्या ललितादेवी  स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।३८।

अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।३९।

ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४०।

सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थ समयनुसार राधया: अष्टसख्य: –
कलावती रेवती  श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४१।

श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वन माला विराजित:।।४२।

पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४३।

पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४४।

पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे शिद्धा शिरोमणि: ।। नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४५।


आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४६।

चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।४७।

ङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्प मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।४८।



अब इसी प्रकरण की समानता के लिए  देखें नीचे 


अनुवाद:- श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान  उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)

श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)


राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा  है।१७०।(क)



अनुवाद:-

अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।

अनुवाद:- श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की  प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दावन के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है। 


रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री ।इयं केदारस्य सुता  कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।

ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य        षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।

******************
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
*****************
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी 
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-

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अनुवाद:- तब भगवान कृष्ण  जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।

श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है। 

वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ। 

वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में  हे वृन्दे !  तुम  पुन:  राधा की  वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता  होओगी। 
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।

फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।

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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था।  जो राधाच्छाया के रूप में  व्रज में उपस्थित थी।

जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।

हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही  पाणि-ग्रहण करेंगे;

परंतु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। 
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी  हृदय स्थल में रहती हैं !

इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।

उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को  श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
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सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।
सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण-  रूपादिकम्-




प्रस्तुति - यादव योगेश कुमार रोहि-
8077160219


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