रविवार, 23 जून 2024

पुराणों में माँस के दो अर्थ-

सुयज्ञं नाम नृपतिं चकार सुरसंसदि ।
स च राजा सुयज्ञश्च मनुवंशसमुद्भवः ।११।

अन्नदाता रत्नदाता दाता वै सर्वसम्पदाम् ।
दशलक्षं गवां चैव रत्नशृङ्गपरिच्छदम्।१२।

नित्यं ददौ स विप्रेभ्यो मुदायुक्तः सदक्षिणम् ।
गवां द्वादशलक्षाणां ददौ नित्यं मुदाऽन्वितः ।१३।

सुपक्वानि च मांसानि ब्राह्मणेभ्यश्च पार्वति ।
षट्कोटीर्ब्राह्मणानां च भोजयामास नित्यशः।१४।

चोष्यैश्चर्व्यैर्लेह्यपेयैरतितृप्तं दिने दिने ।
विप्रलक्षं सूपकारं भोजयामास तत्परम् ।१५।

पूर्णमन्नं च सूपाक्तं सगव्यं मांसवर्जितम् ।
विप्रा भोजनकाले च मनुवंशसमुद्भवम् ।१६।

न तुष्टुवुः सुयज्ञं च तुष्टुवुस्तत्पितॄंश्च ते।
दिने सुयज्ञयज्ञान्ते षट्त्रिंशल्लक्षकोटयः।१७। 

चक्रुः सुभोजनं विप्राश्चातितृप्ताश्च सुन्दरि।
गृहीतानि च रत्नानि स्वगृहं वोढुमक्षमाः ।१८।

अनुवाद-श्रीमहादेव जी बोले– देवि! चौदह मनुओं में जो सबसे प्रथम हैं, उन्हें स्वायम्भुव मनु कहते हैं। 

वे ब्रह्मा जी के पुत्र और तपस्वी कहे गये हैं। उन्होंने शतरूपा से विवाह किया था। मनु और शतरूपा के पुत्र उत्तानपाद हुए।

 उत्तानपाद के पुत्र केवल ध्रुव हैं। गिरिराजनन्दिनि! ध्रुव की कीर्ति तीनों लोकों में विख्यात है।

 ध्रुव के पुत्र उत्कल हुए, जो भगवान नारायण के अनन्य भक्त थे।

 उन्होंने पुष्कर तीर्थ में एक हजार राजसूय-यज्ञों का अनुष्ठान किया था, उस यज्ञ में सारे पात्र रत्नों के बने हुए थे। 

राजा ने बड़ी प्रसन्नता के साथ वे सब पात्र ब्राह्मणों को दान कर दिये थे।

 यज्ञान्त महोत्सव में राजा ने बहुमूल्य वस्त्रों की सहस्रों राशियाँ जो तेजःपुंज से उद्भासित होती थीं, ब्राह्मणों को बाँट दीं।

प्रिये! उस सुन्दर यज्ञ को देखकर ब्रह्मा जी ने देवसभा में राजा उत्कल का नाम सुयज्ञ रख दिया।

 राजा सुयज्ञ अन्न, रत्न तथा सब प्रकार की सम्पत्तियों के दाता थे। 

वे प्रतिदिन प्रसन्नतापूर्वक उचित दक्षिणा के साथ ब्राह्मणों को दस-बारह लाख गौएँ दान में देते थे।

 उन गौओं के सींग रत्नों से मढ़े होते थे तथा दुग्धपात्र आदि सामग्री भी रत्नमयी ही होती थी। 

वे प्रतिदिन छः करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराया करते थे।
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 उन्हें प्रतिदिन चूसने, चबाने, चाटने और पीने योग्य भोजन सामग्री देकर तृप्त करते थे। 

नित्यप्रति एक लाख रसोइयों को भोजन दिया करते थे।

 पूआ, रोटी-चावल आदि अन्न, ताल आदि व्यंजन दही के साथ परोसे जाते थे।

 उस भोजन सामग्री में मांस का सर्वथा अभाव होता था। 
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ब्राह्मण लोग भोजन के समय मनुवंशी राजा सुयज्ञ की ही नहीं, उनके पितरों की भी स्तुति करते थे। सुन्दरि! यज्ञ के दिनों में तथा उसकी समाप्ति के दिन कुल मिलाकर छत्तीस लाख करोड़ ब्राह्मणों ने अत्यन्त तृप्तिपूर्वक सु-अन्न भोजन किया था। 

उन्होंने दक्षिणा में इतने रत्न ग्रहण किये थे कि उन सबको अपने घर तक ढो ले जाना उनके लिये असम्भव हो गया था। कुछ तो उन्होंने शूद्रों को बाँट दिया और कुछ रास्ते में छोड़ दिया। ब्राह्मण-भोजन के अन्त में राजा ने ब्राह्मणेतरों को भी भोजन दिया तथापि वहाँ अन्न की सहस्रों राशियाँ शेष रह गयीं

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