रविवार, 16 जून 2024

कृष्ण ने कभी देव यजन नहीं किया -

"यजन्तं सकलान् देवान् क्वापि क्रतुभिरूर्जितैः ।पूर्तयन्तं क्वचिद् धर्मं कूर्पाराममठादिभिः ॥ ३४ ॥

चरन्तं मृगयां क्वापि हयमारुह्य सैन्धवम् ।      घ्नन्तं तत्र पशून् मेध्यान् परीतं यदुपुङ्गवैः ॥ ३५ ॥

भागवतपुराण दशम स्कन्ध- के अध्याय 69 के ये दोनों श्लोक कृष्ण चरित्र को पूर्णत: विपरीत हैं।

पहले हम भागवत पुराण के अनुसार ही इसका अनुवाद प्रस्तुत करते हैं। उसके बाद इन दोनों श्लोकों का हम खण्डन करेंगे।

अनुवाद:- 

भागवत पुराण कार कहता है कि जब एक बार नारद मुनि कृष्ण की दिनचर्या देखने की इच्छा से द्वारिका गये तो वहाँ कृष्ण के सोलह हजार एक सौ आठ महल उनकी उतनी ही पत्नीयों अनुरूप थे।

जब नारद ने प्रत्येक महल में कृष्ण की अपनी विभिन्न रानीयों के साथ दिनचर्या देखना चाहा तो उनमें अनेक कृष्णों के अनेक आचरण अथवा कर्म थे।

भागवत पुराणकार ने बड़ी चालाकी से कृष्ण को विभिन्न देवताओं का यज्ञ करते हुए और यज्ञ में बलि चढ़ाने के लिए कृष्ण को पशुओं का वध करते हुए भी दिखाया है। जबकि असल जिन्दगी में कृष्ण पशु हिंसा मूलक यज्ञों के महा वरोधी  थे।

 परन्तु भागवत पुराण कार ने  कृष्ण को बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा समस्त देवताओं का यजन-पूजन करते और कहीं कुएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्म का आचरण करते हुए दिखाया है। 

कहीं तो कृष्ण को यादवों से घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़े पर चढ़कर मृगया( शिकार) करते हुए दिखाया हैं जो, इस प्रकार यज्ञ के लिये  मेध्य पशुओं ( बलि के पशुओं) का संग्रह कर रहे हैं।

 

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अब हम बताऐंगे कि कृष्ण ने ही विभिन्न देवी देवों की पूजा अथवा यज्ञ बन्द कराए जिनमे पशुओ की प्औराय बलि चढ़ाई जाती थी।

श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण की वाणी का  देव पूजा केविरुद्ध स्पष्ट उद्घोष है।

                  "मूल श्लोकः'

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विताः।तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय -(9)

शब्दार्थ:- ये अपि = जो भी (भक्त  मेरे अतिरिक्त अन्यदेवता=  देवी देवताओं  का । यजन्ते- पूजन करते  श्रद्धान्विता- श्रद्धा से करते हैं ।  तेऽपि मामेव यजन्ति- 

वे भी यद्यपि मेरा ही पूजन करते हैं।  कौन्तेय - हे अर्जुन - अविधि पूर्वकं- किन्तु उनका वह पूजन विधि पूर्वक नहीं होता है।

 अनुवाद--

जो भी भक्त  मेरे अतिरिक्त अन्य देवी देवताओं  का  पूजन  श्रद्धा से करते हैं  ।  वे भी यद्यपि मेरा ही पूजन करते हैं।  किन्तु - हे अर्जुन  उनका वह पूजन विधि पूर्वक नहीं होता है।

वस्तुत: यह पूजा उसी प्रकार है जैसे कोई भक्त  किसी वृक्ष के मूल( जड़) को छोड़ कर उसकी टहनीयों की पूजा कर रहा हो।

इसी कृष्ण ने एक बात में ही सभी द्विविधाओं को निर्मूल कर दिया है।

र्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

सभी धर्मों विभिन्न धर्मो( सम्प्रदायों) का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।



भगवद्गीता के समस्त श्लोकों में यह श्लोक सर्वश्रेष्ठ होते हुए भी अत्यधिक विवादास्पद बन गया है।


श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के  कि कृष्ण देव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।

कारण यही था कि यज्ञ को नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।

 

भागवत पुराण कार ने   »  स्कन्ध 11:  »  अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन के बहाने से  »  श्लोक 13 में पशु बलि और सुरा सेवन की परम्परा को कृष्ण से अनुमोदित कराने की कोशिश की है।


श्लोक  11.5.13 भागवत पुराण 

"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।

एवं व्यवाय: प्रजया न रत्या-इमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥ 

शब्दार्थ:-यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघो; भक्ष:—खाना; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न— बध नहीं; हिंसा— हिंसा;वध  एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह  (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.

 

अनुवाद:-वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है।


 धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।

किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।

 

तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने निम्नलिखित कथन दिया है—

यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:। हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥

यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके। अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥

अनुवाद:-

इस कथन के अनुसार कभी कभी  किसी देवता विशेष की प्रसन्नता के लिए-यज्ञ में पशु की बलि( हिंसा) करने की भागवत पुराण कार सिफारिश करता है। 

किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।

और किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। 


यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।


इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।


वास्तव में भागवत पुराण कार   उपर्युक्त श्लोकों में पशु हिंसा का समर्थक है। भागवत के पशु बलि से सम्बन्धित श्लोक  वैष्णव धर्म के विरुद्ध हैं।


और इस प्रकार पशुओं की बलि का समर्थ भागवत पुराण वैष्णव ग्रन्थ कदापि नहीं है।

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किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण  निषेध किया है, जो कृष्ण चरित्र के सच्चे व्याख्याता थे।


क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।


 इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि यज्ञ में  पशु-वध तथा मांसाहार वैध है,


विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल- कलमा पढकर ही करते हैं ।

क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है। देवता माँस भक्षी हैं क्या ? निश्चित यह सब मांस भक्षी पुरोहितों की कारश्तानी ( कारनामा) है।


यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को पूर्णत: बन्द करा दिया था।


क्योंकि अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।

इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए  स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।

इसका वर्णन गीत गोविन्द कार  जयदेव ने किया है—

"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।

केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥

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अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।

अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में  विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी  क्यों कि यज्ञों में निर्दोष  पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।

समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।

अनुवाद:- ★-

कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का  विधान किया।61


विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है ।यह गोवर्धन पूजा का ही एक भाग है। जहाँ कृष्ण ने प्रथम बार गोपों को पशुओं की पूजा अथवा उनकी अभ्यर्चना करने का का विधान बनाया।


 उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।


देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।  वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् ।   प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।

अनुवाद:-★

 कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।    


तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।

अनुवाद:- ★

तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।                

तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★

तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।

राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।

अनुवाद:-★ 

वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।

 वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।    शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।

अनुवाद:- ★

यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व  ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।

इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।

इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★

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विचार विश्लेषण-

इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है। 

जिसके साक्ष्य जहाँ- तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।

जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रहा था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।

तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।

पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी  तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था। 


पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित  भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी माध्यम चुना हो-

जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है। 


कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि द्वारा देवों के यज्ञ किए जाते हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।


कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से  रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को  हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- 


 कि  कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है । वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।

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कृष्ण के अनुसार-

यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती यज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।

यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।

श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।

यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है। 

अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैं









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