(श्रीयदुवंशसमुद्भवा राधिका-जीवनी-)
सत्रहवीं सदी के बंगाल से प्राप्त ग्रन्थ वासुदेव रहस्य (राधतन्त्र) के षष्ठ पटल में राधा की प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा की सास का नाम जटिला और पति का नाम अभिमन्युक: लिखा है। इसकेवअतिरिक्त कुटिला उसकी ननद और उस वृन्दा के देवर का नाम दुर्मद है।
"शिवकुण्डे सुनन्दा तु नन्दिनी देविका तटे।रुक्मिणी द्वारवत्यान्तु राधा वृन्दावने वने ॥ १३.३८ ॥
देवकी मथुरायान्तु पाताले परमेश्वरी। चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्यनिवासिनी॥ १३.३९ ॥
"श्रीमत्स्यपुराणे पितृवंशान्वये गौरीनामाष्टोत्तरशतकथनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥ १३.६३ ॥
*परिचय*-
गर्गसंहिता खण्डः १ गोलोकखण्डः अध्याय-8)
"श्रीराधिकाजन्मवर्णनं"
श्रुत्वा तदा शौनक भक्तियुक्तः
श्रीमैथिलो ज्ञानभृतां वरिष्ठः ।
नत्वा पुनः प्राह मुनिं महाद्भुतं
देवर्षिवर्यं हरिभक्तिनिष्ठः ॥ १ ॥
"बहुलाश्व उवाच -
त्वया कुलं कौ विशदीकृतं मे
स्वानंददोर्यद्यशसामलेन ।
श्रीकृष्णभक्तक्षणसंगमेन
जनोऽपि सत्स्याद्बहुना कुमुस्वित् ॥ २ ॥
श्रीराधया पूर्णतमस्तु साक्षा-
द्गत्वा व्रजे किं चरितं चकार ।
तद्ब्रूहि मे देवऋषे ऋषीश
त्रितापदुःखात्परिपाहि मां त्वम् ॥ ३ ॥
"श्रीनारद उवाच -
धन्यं कुलं यन्निमिना नृपेण
श्रीकृष्णभक्तेन परात्परेण ।
पूर्णीकृतं यत्र भवान्प्रजातो
शुक्तौ हि मुक्ताभवनं न चित्रम् ॥ ४॥
अथ प्रभोस्तस्य पवित्रलीलां
सुमङ्गलां संशृणुतां परस्य ।
अभूत्सतां यो भुवि रक्षणार्थं
न केवलं कंसवधाय कृष्णः ॥ ५॥
अथैव राधां वृषभानुपत्न्या-
मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् ।
कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे
सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥ ६॥
घनावृते व्योम्नि दिनस्य मध्ये
भाद्रे सिते नागतिथौ च सोमे ।
अवाकिरन्देवगणाः स्फुरद्भि-
स्तन्मन्दिरे नन्दनजैः प्रसूनैः ॥ ७॥
राधावतारेण तदा बभूवु-
र्नद्योऽमलाभाश्च दिशः प्रसेदुः ।
ववुश्च वाता अरविन्दरागैः
सुशीतलाः सुन्दरमन्दयानाः ॥ ८॥
सुतां शरच्चन्द्रशताभिरामां
दृष्ट्वाऽथ कीर्तिर्मुदमाप गोपी ।
शुभं विधायाशु ददौ द्विजेभ्यो द्विलक्षमानन्दकरं गवां च ॥९॥
प्रेङ्खे खचिद्रत्नमयूखपूर्णे
सुवर्णयुक्ते कृतचन्दनाङ्गे ।
आन्दोलिता सा ववृधे सखीजनै-
र्दिने दिने चंद्रकलेव भाभिः ॥ १० ॥
यद्दर्शनं देववरैः सुदुर्लभं
यज्ञैरवाप्तं जनजन्मकोटिभिः ।
सविग्रहां तां वृषभानुमन्दिरे
ललन्ति लोका ललनाप्रलालनैः ॥११॥
श्रीरासरङ्गस्य विकासचन्द्रिका
दीपावलीभिर्वृषभानुमन्दिरे ।
गोलोकचूडामणिकण्ठभूषणां
ध्यात्वा परां तां भुवि पर्यटाम्यहम् ॥ १२ ॥
"श्रीबहुलाश्व उवाच -
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत् ।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि ॥ १३ ॥
"श्रीनारद उवाच -
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः ।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः ॥ १४ ॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः ।
कलावती रत्नमाला मेनका नाम नामतः।१५॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते ।
वैदेहाय रत्नमालां मेनकां च हिमाद्रये ।
पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः ।१६ ॥
सीताभूद्रत्नमालायां मेनकायां च पार्वती ।
द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते ॥ १७॥
**********
सुचन्द्रोऽथ कलावत्या गोमतीतीरजे वने ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैस्तताप ब्रह्मणस्तपः ॥ १८॥
अथ विधिस्तमागत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
श्रुत्वा वल्मीकदेशाच्च निर्ययौ दिव्यरूपधृक्॥१९॥
तं नत्वोवाच मे भूयाद्दिव्यं मोक्षं परात्परम् ।
तच्छ्रुत्वा दुःखिता साध्वी विधिं प्राह कलावती॥ २०॥
पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम् ।
यदि मोक्षमसौ याति तदा मे का गतिर्भवेत् ॥२१॥
एनं विना न जीवामि यदि मोक्षं प्रदास्यसि ।
तुभ्यं शापं प्रदास्यामि पतिविक्षेपविह्वला ॥ २२ ॥
"श्रीब्रह्मोवाच -
त्वच्छापाद्भयभीतोऽहं मे वरोऽपि मृषा न हि ।
तस्मात्त्वं प्राणपतिना सार्धं गच्छ त्रिविष्टपम् ॥२३॥
भुक्त्वा सुखानि कालेन युवां भूमौ भविष्यथः ।
गंगायमुनयोर्मध्ये द्वापरान्ते च भारते ॥ २४॥
युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया ।
भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः ॥२५ ॥
"श्रीनारद उवाच -
इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा ।
कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः ॥२६॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च ।
जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा ॥२७ ॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत् ।
जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः ॥ २८॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः ।
तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः ॥ २९ ॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ३० ॥
"इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे"
"अनुवाद-
श्रीगर्ग जी कहते हैं- शौनक ! राजा बहुलाश्व का हृदय भक्तिभाव से परिपूर्ण था। हरिभक्ति में उनकी अविचल निष्ठा थी। उन्होंने इस प्रसंग को सुनकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाव वाले देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और पुन: पूछा।
राजा बहुलाश्व ने कहा- भगवन् ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य वृद्धिशील, निर्मल यश से मेरे कुल को पृथ्वी पर अत्यंत विशद (उज्ज्वल) बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्ण भक्तों के क्षणभर के संग से साधारण जन भी सत्पुरुष महात्मा बन जाता है।
इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ। श्रीराधा के साथ भूतल अवतीर्ण हुए साक्षात परिपूर्णतम भगवान ने व्रज में कौन-सी लीलाएँ कीं- यह मुझे कृपा पूर्वक बताइये।
देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृत द्वारा आप त्रिताप-दु:ख से मेरी रक्षा कीजिये।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! वह कुल धन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्ण भक्त राजा निमि ने समस्त सदगुणों से परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम- जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धन से मुक्त पुरुष ने जन्म लिया है।
तुम्हारे इस कुल के लिये कुछ भी विचित्र नहीं है। अब तुम उन परम पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की परम मंगलमयी पवित्र लीला का श्रवण करो।
वे भगवान केवल कंस का संहार करने के लिये ही नहीं, अपितु भूतल के संतजनों की रक्षा के लिये अवतीर्ण हुए थे।
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अथैव राधां वृषभानुपत्न्या-
मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् ।
कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे
सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥ ६ ॥
अनुवाद-
उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति श्री राधा का वृषभानु की पत्नी कीर्ति रानी के गर्भ में प्रवेश कराया।
वे श्री राधा कलिन्दजाकूलवर्ती( यमुना के किनारे वाले) निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मन्दिर में अवतीर्ण हुईं।
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उस समय भाद्रपद का महीना था। शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि एवं सोम का दिन था। मध्याह्न का समय था और आकाश में बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवन के भव्य प्रसून लेकर भवन पर बरसा रहे थे।
उस समय श्री राधिका जी के अवतार धारण करने से नदियों का जल स्वच्छ हो गया।
सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न-निर्मल हो उठीं। कमलों की सुगन्ध से व्याप्त शीतल वायु मन्द गति से प्रवाहित हो रही थी। शरत्पूर्णिमा के शत-शत चन्द्रमाओं से भी अधिक अभिरामा( सुन्दरी) कन्या को देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्द में निमग्न हो गयीं।
गोलोक खण्ड : अध्याय 8 का शेष भाग
उन्होंने मंगल कृत्य कराकर पुत्री के कल्याण की कामना से आनन्ददायिनी दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को दान की। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहाँ साकार रूप से प्रकट हुईं और गोप-ललनाएँ जब उनका लालन-पालन करने लगी, तब सर्वधारण एवं सुन्दर रत्नों से खचित, चन्दन निर्मित तथा रत्न किरण मंडित पालने में सखी जनों द्वारा नित्य झुलायी जाती हुई श्री राधा प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ने लगी।
श्री राधा क्या हैं- रास की रंगस्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानु-मन्दिर की दीपावली, गोलोक-चूड़ामणि श्रीकृष्ण के कण्ठ की हारावली।
मैं उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करता हुआ भूतल पर विचरता रहता हूँ।
राजा बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! वृषभानु जी का सौभाग्य अदभुत है, अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्री राधिका जी स्वयं पुत्री रूप से अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्र ने पूर्वजन्म में कौन सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृग के पुत्र थे। परम सुन्दर सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात भगवान का अंश माना जाता है। पूर्वकाल में (अर्यमा प्रभृति) पितरों के यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थी। वे सभी परम सुन्दरी थी। उनके नाम थे- कलावती, रत्नमाला और मेनका।
पितरों ने स्वेच्छा से ही कलावती का हाथ श्री हरि के अंश भूत बुद्धिमान सुचन्द्र के हाथ में दे दिया। रत्नमाला को विदेहराज के हाथ में और मेनका को हिमालय के हाथ में अर्पित कर दिया।
साथ ही विधि पूर्वक दहेज की वस्तुएँ भी दी। महामते ! रत्नमाला से सीताजी और मेनका के गर्भ से पार्वती जी प्रकट हुई। इन दोनों देवियों की कथाएँ पुराणों में प्रसिद्ध हैं। तदनंतर कलावती को साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमती के तट पर ‘नैमिष’( नीमसार)नामक वन में गये।
उन्होंने ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओं के कालमान से बारह वर्षों तक चलता रहा।
तदनंतर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले- ‘वर माँगो।’ राजा के शरीर पर दीमकें चढ़ गयी थी।
ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य रूप धारण करके बाँबी( दीमक के द्वारा बनाये गये घर) से बाहर निकले।
उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को प्रणाम किया और कहा- ‘मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो।’ राजा की बात सुनकर साध्वी रानी कलावती का मन दु:खी हो गया। अत: उन्होंने
ब्रह्माजी से कहा- ‘पितामह ! पति ही नारियों के लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है।
यदि ये मेरे पति देवता मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी।
यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्य में विक्षेप के कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी।
ब्रह्माजी ने कहा- देवि ! मैं तुम्हारे शाप के भय से अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता। इसलिये तुम अपने प्राणपति के साथ स्वर्ग में जाओ। वहाँ स्वर्ग सुख भोगकर कालांतर में फिर पृथ्वी पर जन्म लोगी।
द्वापर के अंत में भारतवर्ष में, गंगा और यमुना के बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनों से जब परिपूर्ण भगवान की प्रिया साक्षात श्रीराधिका जी पुत्री रूप में प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे।
श्री नारद जी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजी के दिव्य एवं अमोघ वर से कलावती और सुचन्द्र- दोनों की भूतल पर उत्पत्ति हुई।
वे ही गोकुल ( महावन) में ‘कीर्ति’ तथा ‘श्री वृषभानु’ दाम्पति हुए हैं। कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दन के यज्ञ कुण्ड़ से प्रकट हुई।
उस दिव्य कन्या को अपने पूर्वजन्म की सारी बातें स्मरण थीं।
पूर्वजन्म के कलावती और सुचन्द्र ही इस जन्म के कीर्तिदा और वृषभानु हुए।
सुरभानु गोप के घर सुचन्द्र का जन्म हुआ। उस समय वे ‘श्रीवृषभानु’ नाम से विख्यात हुए।
उन्हें भी पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही। वे गोपों में श्रेष्ठ होने के साथ ही दूसरे कामदेव के समान परम सुन्दर थे।
परम बुद्धिमान नन्दराज जी ने इन दोनों का विवाह-सम्बन्ध जोड़ा था। उन दोनों को पूर्वजन्म की स्मृति थी ही, अत: वह एक-दूसरे को चाहते थे और दोनों की इच्छा से ही यह सम्बन्ध हुआ।
जो मनुष्य वृषभानु और कलावती के इस उपाख्यान को श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूट जाता है और अंत में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में ‘श्री राधिका के पूर्वजन्म का वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय
(पौराणिक शब्दावली में राधा नाम का अस्तित्व)
राजसूयाश्वमेधानां नात्र कार्या विचरणा ।।३७।।
"अनुवाद-अरिष्टासुर का वध जहाँ किया गया और राधा जी का जहाँ कुण्ड है उन दोनों नें स्नान करने से वह फल मिलता है जो राजसूय और अश्वमेध से भी नहीं मिलता है। यहाँ कोई विचार नहीं करा चाहिए ।३७।
गोनरब्रह्महत्यायाः पापं क्षिप्रं विनश्यति ।।
तीर्थं हि मोक्षराजाख्यं नृणां मुक्तिप्रदायकम् ।३८।
अनुवाद
गाय " मनुष्य और ब्रह्मज्ञानी की हत्या का पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।३८।
हरकृतबहुमानो गोपिकेशैकतानो विदितबहुविधानो जायतां कीर्तिहानौ ॥२,४३.६॥
सकलगुणगरिष्ठो राधिकाङ्केनिविष्टो मम कृतमपराधं क्षन्तुमर्हत्वगाधम् ॥ २,४३.७ ॥
7. कृष्ण मेरे अपराध को क्षमा करने के अधिकारी हैं, भले ही वह बहुत गंभीर हो, कृष्ण जिन्होंने अपने मन को रोककर उसे भगवान (परमेश्वर-शिव) की ओर लगाया है, जिन्होंने अपने भक्तों की बाधाओं को दूर किया है, जिन्होंने पापों के समूह को हटा दिया है, जो उन लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं जिनके पास कोई धन नहीं है, जो सभी अच्छे गुणों से युक्त हैं और जो राधा की गोद में लेटे हैं
या राधा जगदुद्भवस्थितिलयेष्वाराध्यते वा जनैः शब्दं बोधयतीशवक्त्रंविगलत्प्रेमामृतास्वादनम् ।
रासेशी रसिकेश्वरी रमणत्दृन्निष्ठानिजानन्दिनी नेत्री सा परिपातु मामवनतं राधेति य कीर्त्यते ॥ २,४३.८ ॥
अनुवाद
8. वह नेता मेरी रक्षा करें क्योंकि मैं उस नेता को प्रणाम करता हूँ जो राधा के रूप में महिमामंडित है, जो ब्रह्मांड के परिणाम, पालन और संहार के समय लोगों द्वारा प्रसन्न की जाती है, जो दूसरों को भगवान के मुंह से निकलने वाले प्रेम के अमृत की सराहना करने के लिए अनुकूल शब्द समझाती है, जो रास नृत्य की अधिष्ठात्री है, जो रसिकों (जो सौंदर्य बोध रखती हैं) की देवी है और जो अपने प्रेमी के हृदय के प्रति अपनी दृढ़ निष्ठा के माध्यम से अपने समूह से संबंधित लोगों को प्रसन्न करती है।
यस्या गर्भसमुद्भवो ह्यतिविराड्यस्यांशभूतो विराट्यन्नाभ्यंबुरुहोद्भवेन विधिनैकान्तोपदिष्टेन वै सृष्टं सर्वमिदं चराचरमयं विश्वं च यद्रोमसु ब्रह्माण्डानि विभान्ति तस्य जननी शश्वत्प्रसन्नास्तु सा ॥२,४३.९ ।
अनुवाद
9. वह सदैव प्रसन्न रहे, जिसके गर्भ से अतिविराट (अत्यंत श्रेष्ठ) उत्पन्न हुआ है और जिसका विराट अंश मात्र है। यह समस्त चर-अचर जगत ब्रह्मा द्वारा रचित है , जो भगवान की नाभि से निकले कमल से उत्पन्न हुए हैं और जिन्हें एकांत स्थान में शिक्षा दी गई थी। भगवान के शरीर के रोम छिद्रों में ब्रह्माण्डीय अण्डे चमकते हैं। वह जो उस भगवान की माता है, सदैव प्रसन्न रहे।
पायाद्यः स चराचरस्य जगतो व्यापी विभुः सच्चिदानन्दाब्धिः प्रकटस्थितो विलसति प्रेमान्धया राधया ।
कृष्णः पूर्णतमो ममोपरि दयाक्लिन्नान्तरः स्तात्सदा येनाहं सुकृती भवामि च भवाम्यानन्दलीनान्तरः ॥ २,४३.१० ॥
अनुवाद
10. हे कृष्ण, मुझ पर कृपा करें, हे कृष्ण, जो चर-अचर प्राणियों से युक्त इस ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं; जो सर्वव्यापी हैं; जो अस्तित्व, ज्ञान और आनन्द के सागर हैं, तथा जो प्रेम के कारण अन्धी राधा के साथ स्वयं को सुन्दरता से प्रकट करते हैं। हे पूर्ण और सम्पूर्ण कृष्ण, मुझ पर कृपा करें, जिससे मैं पुण्यवान बन जाऊँ और आनन्द में लीन हो सकूँ।”
वशिष्ठ-उवाच
स्तुत्वैवं जामदग्न्यस्तु विरराम ह तत्परम् ।
विज्ञाताखिलतत्त्वार्थो हृष्टरोमा कृतार्थवत् ॥ २,४३.११ ॥
अनुवाद
वसिष्ठ ने कहा :
11. इस प्रकार परम पुरुष की स्तुति करके जमदग्निपुत्र रुक गये। वे समस्त तत्त्वों का अर्थ समझ गये थे, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये, मानो उनकी मनोकामना पूर्ण हो गयी हो।
अथोवाच प्रसन्नात्मा कृष्णः कमललोचनः ।
भार्गवं प्रणतं भक्त्या कृपापात्रं पुरस्थितम् ॥ २,४३.१२ ॥
अनुवाद
12. तब प्रसन्नचित्त कमलनेत्र कृष्ण ने भार्गव से कहा। भार्गव ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया, जो उनकी सहानुभूति के पात्र थे और उनके सामने खड़े हो गये।
"कृष्ण उवाच
सिद्धोऽसि भार्गवेन्द्र त्वं प्रसादान्मम संप्रतम्। अद्य प्रभृति वत्सास्मिं ल्लोके श्रेष्ठतमो भव ॥२,४३.१३ ॥अनुवाद
कृष्ण ने कहा :
13. हे भृगुवंश के प्रमुख सदस्य ! मेरे आशीर्वाद से अब आप आध्यात्मिक रूप से सिद्ध व्यक्ति बन गए हैं। हे प्रिय, अब से इस संसार में सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति बनो।
तुभ्यं वरो मया दत्तः पुरा विष्णुपदाश्रमे ।
तत्सर्वं क्रमतो भाव्यं समा बह्वीस्त्वया विभो ॥ २,४३.१४ ॥
अनुवाद
14. पूर्वकाल में विष्णुपाद की तपस्या स्थली पर मैंने तुम्हें वरदान दिया था। हे पवित्र प्रभु, यह सब कुछ कई वर्षों में घटित होगा।
दया विधेया दीनेषु श्रेय उत्तममिच्छता ।
योगश्च सादनीयो वै शत्रूणां निग्रहस्तथा ॥ २,४३.१५ ॥
अनुवाद
15. उत्तम कल्याण चाहने
वाले को दुःखी और दीन-दुःखी लोगों पर दया करनी चाहिए, योग का अभ्यास करना चाहिए तथा शत्रुओं का नाश करना चाहिए।
त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिंस्तेजसा च बलेन च ।
ज्ञानेन यशसा वापि सर्वश्रेष्ठतमो भवान् ॥ २,४३.१६ ।
अनुवाद
16. इस संसार में तेज और शारीरिक बल की दृष्टि से आपके समान कोई नहीं है। विद्या और यश की दृष्टि से भी आप सबमें श्रेष्ठ हैं।
अथ स्वगृहमासाद्य पित्रोः शुश्रूषणं कुरु ।
तपश्चर यथाकालं तेन सिद्धिः
करस्थिता ॥ २,४३.१७ ॥
अनुवाद
17. घर पहुंचकर माता-पिता की सेवा करो, उचित समय पर तप करो। इससे आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति तुम्हारी पहुंच में होगी।
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राधोत्संगात्समुत्थाप्य गणेशं राधिकेश्वरः ।
आलिङ्ग्य गाढं रासेण मैत्रीं तस्य चकार ह ॥ २,४३.१८ ॥
अथोभावपि सम्प्रीतौ तदा रामगणेश्वरौ ।
कृष्णाज्ञया महाभागौ बभूवतुररिन्दम॥२,४३.१९॥
एतस्मिन्नन्तरे देवी राधा कृष्णप्रिया सती ।
उभाभ्यां च वरं प्रादात्प्रसन्नास्या मुदान्विता ॥ २,४३.२० ॥
इति श्री ब्रह्माण्डे
"अनुवाद-
18. तब राधाजी ने गणेशजी को राधा की गोद से उठाकर हृदय से लगा लिया और राम से उनका मैत्री-संबंध स्थापित कर दिया।
19 हे शत्रुदमन! कृष्ण के कहने पर महान् भाग्यवान राम और गणेश दोनों ही अत्यन्त प्रसन्न हुए।
20. इस बीच, कृष्ण की सती-प्रियतम देवी राधा प्रसन्न हुईं और उन्होंने अपने चेहरे पर स्पष्ट प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन दोनों को वरदान दिए।
राधोवाच।
सर्वस्य जगतो वन्द्यौ दुराधर्षौं प्रियावहौ ।
मद्भक्तौ च विशेषेण भवन्तौ भवतां सुतौ ॥ २,४३.२१॥
भवतोर्नाम चौच्चार्य यत्कार्यं यः समारभेत् ।
सिद्धिं प्रयातु ततसर्वं मत्प्रसादाद्धि तस्य तु ॥ २,४३.२२ ॥
अथोवाच जगन्माता भवानी भववल्लभा ।
वत्स राम प्रसन्नाहं तुभ्यं कं प्रददे वरम् ।
तं प्रब्रूहि महाभाग भयं त्यक्त्वा सुदूरतः ।
"राम उवाच
जन्मान्तरसहस्रेषु येषुयेषु व्रजाम्यहम्॥२,४३.२३॥
कृष्णयोर्भवयोर्भक्तो भविष्यामीति देहि मे ।
अभेदेन च पश्यामि कृष्णौ चापि भवौ तथा ॥ २,४३.२४ ॥
"पार्वत्युवाच
एवमस्तु महाभाग भक्तोऽसि भवकृष्णयोः ।
चिरञ्जीवी भवाशु त्वं प्रसादान्मम सुव्रत ॥ २,४३.२५ ॥
"अनुवाद-
राधा ने कहा :
21. तुम्हारे दोनों पुत्र समस्त लोकों के पूजनीय तथा उनके सुखदाता होंगे। तुम अजेय होगे। विशेषकर तुम मेरे भक्त होगे।
22. जो कोई आपका नाम लेकर कोई कार्य आरम्भ करेगा, उसे उस कार्य में सफलता मिलेगी। सब कुछ मेरे आशीर्वाद से होगा।
२३-२४. तब भव (शिव) की प्रियतमा , जगत् की माता भवानी ने कहाः—
"हे राम! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें क्या वरदान दूँ? हे भाग्यवान, भय त्यागकर उसका वर्णन करो।"
राम ने कहा :
मुझे यह वरदान दीजिए कि मैं भविष्य में होने वाले हजारों जन्मों में कृष्ण और उनकी प्रेमिका के साथ-साथ भाव और उनकी प्रेमिका का भी भक्त बनूँ। मैं कृष्ण (अर्थात कृष्ण और राधा) और भाव (भाव और भवानी) में कोई अंतर नहीं देखूँगा।” [3]
पार्वती ने कहा :
25. "हे परम भाग्यशाली, ऐसा ही हो। तुम भव (शिव) और कृष्ण के भक्त हो। हे पवित्र अनुष्ठानों के ज्ञाता, मेरे आशीर्वाद से तुम दीर्घायु हो।
**********************
अथोवाच धराधीशः प्रसन्नस्तमुमापतिः ।
प्रणतं भार्गवेन्द्रं तु वरार्हं जगदीश्वरः ॥२,४३.२६ ॥
"शिव उवाच
रामभक्तोऽसि मे वत्स यस्ते दत्तो वरो मया ।
स भविष्यति कार्त्स्येन सत्यमुक्तं न चान्यथा ॥ २,४३.२७ ॥
अद्यप्रभृति लोकेऽस्मिन् भवतो बलवत्तरः ।
न कोऽपि भवताद्वत्स तेजस्वी च भवत्परः ॥ २,४३.२८ ॥
"वसिष्ठ उवाच
अथ कृष्णोऽप्यनुज्ञाप्य शिवं च नगनन्दिनीम् ।
गोलोकं प्रययौ युक्तः श्रीदाम्ना चापि राधया ॥ २,४३.२९ ॥
"अनुवाद-
26 तब प्रसन्न होकर पर्वतराज, उमा के पति, ब्रह्माण्ड के स्वामी ने भृगुवंश के प्रमुख सदस्य से, जो नतमस्तक होकर वर देने के योग्य थे, कहा।
शिव ने कहा :
27. "हे राम! तुम मेरे भक्त हो। मैंने तुम्हें जो वरदान दिया है, वह तुम्हारे लिए पूर्णतः फलदायी होगा। मैंने सत्य कहा है। इससे भिन्न कभी नहीं होगा।
28. अब से इस संसार में तुमसे अधिक शक्तिशाली या तुमसे अधिक ऐश्वर्यवान कोई नहीं होगा।”
वसिष्ठ ने कहा :
29. शिवजी और पर्वत पुत्री उमा की अनुमति लेकर कृष्ण श्रीदामन और राधा के साथ गोलोक वापस चले गये।
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अथ रामोऽपि धर्मात्मा भवानींच भवं तथा ।सम्पूज्य चाभिवाद्याथ प्रदक्षिणमुपा क्रमीत् ॥ २,४३.३० ॥
30-तत्पश्चात् धर्मात्मा राम ने भवानी और भव की पूजा की और उन्हें प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की।
गणेशं कार्त्तिकेयं च नत्वापृच्छ्य च भूपते ।
अकृतव्रणसंयुक्तो निश्चक्राम गृहान्तरात् ॥ २,४३.३१ ॥
31. हे पृथ्वी के स्वामी, गणेश और कार्तिकेय को प्रणाम करके तथा उनसे विदा लेकर वह अकृतव्रण के साथ घर की ओर चल पड़ा ।
निष्क्रम्यमाणो रामस्तु नन्दीश्वरमुखैर्गणैः ।
नमस्कृतो ययौ राजन्स्वगृहं परया मुदा ॥ २,४३.३२ ॥"
32. प्रस्थान करते समय राम को गणों के प्रधान नन्दीश्वर ने प्रणाम किया और हे राजन! वे बड़े आनन्द से अपने घर चले गये।
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :
कुछ अक्षरों का अनुप्रास (जैसे श्लोक ४अ और ४ब में नम और त: तथा श्लोक ५ में शि , श्लोक ६अ और ६ब में सि और नो) ध्यान देने योग्य हैं।
इस प्रार्थना में परशुराम शिव परिवार के महत्वपूर्ण सदस्यों राधा और कृष्ण की स्तुति करते हैं, जिन्होंने गणेश का दांत तोड़कर उन्हें संकट से बाहर निकालने में मदद की थी।
[2] :
“ लेख- पाटविनाशी के स्थान पर लेखा-तप-प्राणशी के रूप में संशोधित किया गया क्योंकि पाठ अस्पष्ट है।
[3] :
यह पुराण विशेष रूप से वैष्णव और शैव धर्म को एक साथ लाने का प्रयास करता है। यहाँ मांगा गया वरदान इस बात पर जोर देता है।
महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमाभागे तृतीय-
उपोद्धातपादे भार्गवचरिते त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४३॥
प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा ॥ ४४ ॥
वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसा समा ॥ ४५ ॥
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता ॥ ४६ ॥
रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः ।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता।४७ ॥
रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी ।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका ।४८॥
परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी ।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी ॥ ४९ ॥
निरीहा निरहङ्कारा भक्तानुग्रहविग्रहा ।
वेदानुसारिध्यानेन विज्ञाता मा विचक्षणैः ॥ ५० ॥
दृष्टिदृष्टा न सा चेशैः सुरेन्द्रैर्मुनिपुङ्गवैः ।
वह्निशुद्धांशुकधरा नानालङ्कारभूषिता ॥ ५१ ॥
कोटिचन्द्रप्रभा पुष्टसर्वश्रीयुक्तविग्रहा ।
श्रीकृष्णभक्तिदास्यैककरा च सर्वसम्पदाम् ।५२ ॥
अवतारे च वाराहे वृषभानुसुता च या ।
यत्पादपद्मसंस्पर्शात्पवित्रा च वसुन्धरा।५३ ॥
ब्रह्मादिभिरदृष्टा या सर्वैर्दृष्टा च भारते ।
स्त्रीरत्नसारसम्भूता कृष्णवक्षःस्थले स्थिता ।५४।
यथाम्बरे नवघने लोला सौदामनी मुने ।
षष्टिवर्षसहस्राणि प्रतप्तं ब्रह्मणा पुरा ॥ ५५ ॥
यत्पादपद्मनखरदृष्टये चात्मशुद्धये ।
न च दृष्टं च स्वप्नेऽपि प्रत्यक्षस्यापि का कथा।५६।
तेनैव तपसा दृष्टा भुवि वृन्दावने वने ।
कथिता पञ्चमी देवी सा राधा च प्रकीर्तिता ।५७।
अंशरूपाः कलारूपाः कलांशांशांशसम्भवाः ।
प्रकृतेः प्रतिविश्वेषु देव्यश्च सर्वयोषितः ॥ ५८ ॥
या याः प्रधानांशरूपा वर्णयामि निशामय ॥ ५९ ॥
प्रधानांशस्वरूपा सा गङ्गा भुवनपावनी ।
विष्णुविग्रहसम्भूता द्रवरूपा सनातनी ॥ ६० ॥
पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ।
सुखस्पर्शा स्नानपानैर्निर्वाणपददायिनी ॥ ६१ ॥
गोलोकस्थानप्रस्थानसुखसोपानरूपिणी ।
पवित्ररूपा तीर्थानां सरितां च परावरा ॥ ६२ ॥
शम्भुमौलिजटामेरुमुक्तापंक्तिस्वरूपिणी ।
तपःसम्पादिनी सद्यो भारतेषु तपस्विनाम् ॥ ६३ ॥
चन्द्रपद्मक्षीरनिभा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ।
निर्मला निरहङ्कारा साध्वी नारायणप्रिया।६४ ॥
प्रधानांशस्वरूपा च तुलसी विष्णुकामिनी ।
विष्णुभूषणरूपा च विष्णुपादस्थिता सती।६५ ॥
सारभूता च पुष्पाणां पवित्रा पुण्यदा सदा ॥ ६६ ॥
दर्शनस्पर्शनाभ्यां च सद्यो निर्वाणदायिनी ।
कलौ कलुषशुष्केध्मदहनायाग्निरूपिणी ॥ ६७ ॥
यत्पादपद्मसंस्पर्शात्सद्यः पूता वसुन्धरा ।
यत्स्पर्शदर्शने चैवेच्छन्ति तीर्थानि शुद्धये ॥ ६८ ॥
यया विना च विश्वेषु सर्वकर्म च निष्फलम् ।
मोक्षदा या मुमुक्षूणां कामिनी सर्वकामदा ॥ ६९ ॥
कल्पवृक्षस्वरूपा या भारते वृक्षरूपिणी ।
भारतीनां प्रीणनाय जाता या परदेवता ॥ ७० ॥
सुखमास्तेऽधुना देवः कृष्णो राधासमन्वितः।। ८१-२५।।
गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः ।।
स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव।८१-२६ ।
आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृन्दाग्ण्ये करिष्यति ।।
वृषभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।
सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।।
ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।।
प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति ।।
वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः ।। ८१-३० ।।
कंसासुरभिया पश्चाद्व्रजं नन्दस्य यास्यति ।।
तत्र यातो हरिः प्राप्तां पूतनां बालघातिनीम् ।। ८१-३१ ।।
नरकान्निष्कृतिर्नास्ति कोटिकल्पशतैरपि ।
स्त्रियश्च या न कुर्वंति व्रतमेतच्छुभप्रदम् ३२।
राधा कृष्णोः प्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम् ।
अंते यमपुरीं गत्वा पतंति नरके चिरम् ३३।
आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृन्दाग्ण्ये करिष्यति ।।
वृषभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।
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सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।।
ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।।
प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति ।।
वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः ।। ८१-३० ।।
एवं गोलोकरचनां चकार मधुसूदनः ॥ २४ ॥
गिरिराजोत्पत्तिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
भगवान नारायण ने कहा– सुन्दरी कलावती कमला के अंश से प्रकट हुई पितरों की मानसी कन्या है और वृषभानु की पतिव्रता पत्नी है। उसी की पुत्री राधा हुईं जो श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। वे श्रीकृष्ण के आधे अंश से प्रकट हुई हैं; इसलिये उन्हीं के समान तेजस्विनी हैं। उनके चरणकमलों की रज के स्पर्श से वसुन्धरा पवित्र हो गयी है। सभी संत-महात्मा सदा ही श्रीराधा के प्रति अविचल भक्ति की कामना करते हैं।
नारद जी ने पूछा– मुने! व्रज में रहने वाले एक मानव ने कैसे, किस पुण्य से और किस प्रकार पितरों की परम दुर्लभ मानसी कन्या को पत्नीरूप में प्राप्त किया? व्रज के महान अधिपति वृषभानु पूर्वजन्म में कौन थे, किसके पुत्र थे और किस तपस्या से राधा उनकी कन्या हुईं?
सूत जी कहते हैं– नारद जी की यह बात सुनकर ज्ञानिशिरोमणि महर्षि नारायण हँसे और प्रसन्नतापूर्वक उस प्राचीन इतिहास को बताने लगे
नारद जी ने पूछा– भगवन! भारतवर्ष में इस कानन का नाम ‘वृन्दावन’ क्यों हुआ? इसकी व्युत्पत्ति अथवा संज्ञा क्या है? आप उत्तम तत्त्वज्ञ हैं, अतः इस तत्त्व को बताइये। सूतजी कहते हैं– नारद जी का प्रश्न सुनकर नारायण ऋषि ने सानन्द हँसकर सारा ही पुरातन तत्त्व कहना आरम्भ किया। भगवान नारायण बोले– नारद! पहले सत्ययुग की बात है। राजा केदार सातों द्वीपों के अधिपति थे। ब्रह्मन! वे सदा सत्य धर्म में तत्पर रहते थे और अपनी स्त्रियों तथा पुत्र-पौत्रवर्ग के साथ सानन्द जीवन बिताते थे। उन धार्मिक नरेश ने समस्त प्रजाओं का पुत्रों की भाँति पालन किया। सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके भी राजा केदार ने इन्द्र पद पाने की इच्छा नहीं की। वे नाना प्रकार के पुण्यकर्म करके भी स्वयं उनका फल नहीं चाहते थे। उनका सारा नित्यनैमित्तिक कर्म श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये होता था। केदार के समान राजाधिराज न तो कोई पहले हुआ है और न पुनः होगा ही। उन्होंने अपनी त्रिभुवन मोहिनी पत्नी तथा राज्य की रक्षा का भार पुत्रों पर रखकर जैगीषव्य मुनि के उपदेश से तपस्या के लिये वन को प्रस्थान किया। वे श्रीहरि के अनन्य भक्त थे और निरन्तर उन्हीं का चिन्तन करते थे। मुने ! भगवान का सुदर्शन चक्र राजा की रक्षा के लिये सदा उन्हीं के पास रहता था। वे मुनिश्रेष्ठ नरेश चिरकाल तक तपस्या करके अन्त में गोलोक को चले गये। उनके नाम से केदारतीर्थ प्रसिद्ध हुआ। अवश्य ही आज भी वहाँ मरे हुए प्राणी को तत्काल मुक्तिलाभ होता है। दुर्वासा ने उसे परम दुर्लभ श्रीहरि का मन्त्र दिया। वह घर छोड़कर तपस्या के लिये वन में चली गयी। उसने साठ हजार वर्षों तक निर्जन वन में तपस्या की। तब उसके सामने भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने प्रसन्नमुख से कहा– ‘देवि! तुम कोई वर माँगो।’ वह सुन्दर विग्रह वाले शान्तस्वरूप राधिका-कान्त को देखकर सहसा बोल उठी– ‘तुम मेरे पति हो जाओ।’ उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। वह कौतूहलवश श्रीकृष्ण के साथ गोलोक में गयी और वहाँ राधा के समान श्रेष्ठ सौभाग्यशालिनी गोपी हुई। वृन्दा ने जहाँ जप किया था, उस स्थान का नाम ‘वृन्दावन’ हुआ। अथवा वृन्दा ने जहाँ क्रीड़ा की थी, इसलिये वह स्थान ‘वृन्दावन’ कहलाया। वत्स ! अब दूसरा पुण्यदायक इतिहास सुनो– जिससे इस कानन का नाम ‘वृन्दावन’ पड़ा। वह प्रसंग मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यान दो ! राजा कुशध्वज के दो कन्याएँ थीं। दोनों ही धर्मशास्त्र के ज्ञान में निपुण थीं। उनके नाम थे– तुलसी और वेदवती। संसार चलाने का जो कार्य है, उससे उन दोनों बहिनों को वैराग्य था। उनमें से वेदवती ने तपस्या करके परम पुरुष नारायण को प्राप्त किया। वह जनक-कन्या सीता के नाम से सर्वत्र विख्यात है। तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, किंतु दैववश दुर्वासा के शाप से उसने शंखचूड़ को प्राप्त किया। फिर परम मनोहर कमलाकान्त भगवान नारायण उसे प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त हुए। भगवान श्रीहरि के शाप से देवेश्वरी तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुई और तुलसी के शाप से श्रीहरि शालग्रामशिला हो गये। उस शिला के वक्षःस्थल पर उस अवस्था में भी सुन्दरी तुलसी निरन्तर स्थित रहने लगीं। मुने! तुलसी का सारा चरित्र तुमसे विस्तारपूर्वक कहा जा चुका है, तथापि यहाँ प्रसंगवश पुनः उसकी कुछ चर्चा की गयी। तपोधन! उस तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिये इसे मनीषी पुरुष ‘वृन्दावन’ कहते हैं। (तुलसी और वृन्दा समानार्थक शब्द हैं) अथवा मैं तुमसे दूसरा उत्कृष्ट हेतु बता रहा हूँ, जिससे भारतवर्ष का यह पुण्यक्षेत्र वृन्दावन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राधा के सोलह नामों में एक वृन्दा नाम भी है, जो श्रुति में सुना गया है। उन वृन्दा नामधारिणी राधा का यह रमणीय क्रीड़ा-वन है; इसलिये इसे ‘वृन्दावन’ कहा गया है। पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा की प्रीति के लिये गोलोक में वृन्दावन का निर्माण किया था। फिर भूतल पर उनकी क्रीड़ा के लिये प्रकट हुआ वह वन उस प्राचीन नाम से ही ‘वृन्दावन’ कहलाने लगा। राधा जगाम वाराहे गोकुलं भारतं सती ।। अयोनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ।। अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ।। छायां संस्थाप्य तद्गेहे साऽन्तर्द्धानमवाप ह ।। गते चतुर्दशाब्दे तु कंसभीतेश्छलेन च ।। कृष्णमाता यशोदा या रायाणस्तत्सहोदरः कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने ।। स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः।। षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः।। भारावतरणे भूमेर्भारते नन्दगोकुले ।। किञ्चित्कालं स वै कृष्णः पुण्ये वृन्दावने वने ।। ततः सुदामशापेन विच्छेदश्च बभूव ह ।। शताब्दे समतीते तु तीर्थयात्राप्रसंगतः ।। ततो जगाम गोलोकं राधया सह तत्त्ववित् ।। वृषभानुश्च नन्दश्च ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। छाया गोपाश्च गोप्यश्च प्रापुर्मुक्तिं च सन्निधौ ।। षट्त्रिंशल्लक्षकोट्यश्च गोप्यो गोपाश्च तत्समाः ।। द्रोणः प्रजापतिर्नन्दो यशोदा तत्प्रिया धरा ।। वसुदेवः कश्यपश्च देवकी चादितिः सती । पितॄणां मानसी कन्या राधामाता कलावती ।। इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् ।। श्रीकृष्णश्च द्विधारूपो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।। चतुर्भुजस्य पत्नी च महालक्ष्मीः सरस्वती ।। श्रीकृष्णपत्नी सा राधा तदर्द्धाङ्गसमुद्भवा ।। आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः ।। कार्त्तिकीपूर्णिमायां च गोलोके रासमण्डले ।। सद्रत्नघुटिकायाश्च कृत्वा तत्कवचं हरिः ।। कृत्वा ध्यानं च भक्त्या च स्तोत्रमेतच्चकार सः राधाचर्वितताम्बूलं चखाद मधुसूदनः ।। ६३ ।। राधा पूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्यो भगवान्प्रभुः ।। द्वितीये पूजिता सा च धर्मेण ब्रह्मणा मया ।। महेन्द्रेण च रुद्रैश्च मनुना मानवेन च ।। तृतीये पूजिता सा च सप्तद्वीपेश्वरेण च ।। ब्राह्मणेनाभिशप्तेन देवदोषेण भूभृता ।। संप्राप राज्यं भ्रष्टश्रीः स च राधावरेण च ।। अभेद्यं कवचं तस्याः कण्ठे बाहौ दधार सः ।। अन्ते जगाम गोलोकं रत्नयानेन भूमिपः ।। सन्दर्भ:- इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।। ४९ ।। अनुवाद:- प्रकृतिखण्ड : अध्याय 49
राधा के पिता वृषभानु मूलत: गोकुल के ही निवासी थे यही गोकुल महावन था। गोकुल:-एक प्राचीन गाँव । विशेष—यह वर्तमान मथुरा से पूर्व दक्षिण की ओर प्रायः तीन कोस दूर जमुना के दूसरे पार था और इसे आजकल महाबन कहते हैं । श्रीकष्ण चंद्र ने अपनी बाल्यावस्था यही बिताई थी ।आजकल जिस स्थान को गोकुल कहते हैं वह नवीन और इससे भिन्न है । ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड में यशोदा के पिता- गिरिभानु और माता पद्मावती हैं। जबकि श्री श्री राधा कष्ण गणोद्देश्य दीपिका में सुमुख और पाटिला यशोदा के माता पिता का नाम है। नीचे ब्रह्मवैवर्त पुराण में गिरिभानुव और माता पद्मावती का विवरण देखें- सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।। _________ सन्दर्भ:- श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।।१३ ।। "श्री-श्रीराधाकष्ण गणोद्देश्य दीपिका" नामक पुस्तक में नन्द , यशोदा व वृषभानु के पारिवारिक सदस्यों के परिचय के अन्तर्गत कुछ का वर्णन निम्न है। "राजन्यौ यौ तु दायादौ नाम्ना तौ चाटु वाटकौ। दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।४१।( ख) चाटु और वाटु नंद महाराज के दो चचेरे भाईयों का परिचय हैं ये पर्जन्य के भाई राजन्य के पुत्र हैं। जो वासुदेव महाराज के वंश में पैदा हुए थे। चाटु की पत्नी दधिसारा और वाटु की पत्नी हविस्सारा है जो यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। "मातामहो महोत्साह: स्यादस्य सुमुखभिध:। लम्बकम्बुसमश्मश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।४२। कृष्ण के ऊर्जावान और उत्साही नाना का नाम सुमुख है। उनकी लंबी दाढ़ी एक बड़े शंख की तरह है और उनका रंग पके हुए जम्बू फल के रंग का है। मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला। पाटला पाटलीपुष्प पटलाभा हरित्पटा।४३।। यशोदा की माता का नाम पाटला यह श्रीकृष्ण की नानी हैं और वे ब्रजभूमि में बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके बाल दही के समान सफेद रंग के हैं, उनका रंग पाटल के फूल के समान गुलाबी रंग का है और उनके वस्त्र हरे हैं। "यशोधर यशोदेव सुदेवाद्यास्तु मातुला: मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि: ।।४५(ख) यशोधर, यशोदेव और सुदेव आदि यशोदा के भाई व कृष्ण के मामा हैं। इनके कपडे़ धूमल रंग के हैं। "यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातु: सहोदरे।४९।(ख) दधिसारा- हवि:सारे इत्यन्ये नामनी तयो:। ज्येष्ठा श्यामानुजा गौरी हिङ्गुलोपमवासमी।।५०।।" यशोदेवी ,और यशस्विनी श्रकृष्ण की माता यशोदा की सगी बहिनें हैं। ये दोनों दधिसारा और हवि: सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशेदेवी श्याम रंग की और छोटी बहिन यशस्विनी तपे हुए सोने के समान गौर वर्ण की है। दोनों ही हिंगुल( सफेद - पीले और लाल ) रंग के वस्त्र धारण करती हैं।४९ (ख)-५०। "श्रीदामन: वृषभानु: पिता तस्य माता च कीर्तिदा सती। राधा अनङ्गमञ्जरी च कनिष्ठा भगिनू भवेत्।।३८। श्रीदामा के पिता वृषभानु और माता कीर्तिदा देवी हैं। कीर्तिदा वड़ी सती हैं राधा और अनंगमञ्जरी इसकी बहिनें हैं।३८। ********** कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु ।असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु ।१९२। कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु ।जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका ।१९३। ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा ।कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः ।१९४। सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ । ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः ।१९५। ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि ।मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो । भवेद् ध्रुवम् । १९६ । मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः ।१९७। ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु। महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८। ____________________ इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- पञ्चाशीतितमोऽध्यायः। ८५ । अनुवाद:- ______________ _____________ विद्वानों के कवित्व पर प्रहार करने वाला सात जन्म तक मेढक होता है। जो झूठे ही अपने के विद्वान कहकर गाँव की पुरोहिती और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है। फिर एक जन्म में बर्रै होने के बाद वृक्ष की चीटीं होता है। तत्पश्चात क्रमशः शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है। चारों वर्णों में कन्या बेचने वाला मानव तामिस्र नरक में जाता है । और वहाँ तब तक निवास करता है, जब तक सूर्य-चंद्रमा की स्थिति रहती है। इसके बाद वह मांस बेचने वाला व्याध होता है। तत्पश्चात पूर्वजन्म में जो जैसा होता है, उसी के अनुसार उसे व्याधि आ घेरती है। मेरे नाम को बेचने वाले ब्राह्मण की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव है। मृत्युलोक में जिसके स्मरण मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गौ की योनि में उत्पन्न होता है। इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है। ________________ |
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