अत्यन्त समीपवर्ती दो वर्णों के मेल को सन्धि (Combination of Letters) कहते हैं।
जैसे-‘विद्यालय:’ में विद्या व आलयः पदों के दो अत्यन्त समीपवर्ती (आ +आ) वर्णों का मेल होकर एक वर्ण (आ) हो गया है।
सन्धि को संहिता भी कहते हैं।
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(सन्धि और संयोग में अन्तर-
दो व्यञ्जनों के अत्यन्त समीपवर्ती होने पर उनका मेल-( संयोग) कहलाता है किन्तु संयोग की अवस्था में उन वर्णों के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। जबकि सन्धि में परिवर्तन हो जाता है।
जैसे वाक्चातुर्यं शब्द में क्, च् वर्ण का संयोग है किन्तु "वाङ्मयः" में म् वर्ण में सन्धि है (वाक् + मयः)।
÷∆÷सन्धि के नियम :
निकट होने के कारण दो वर्णों में कभी सुविधा से तो कभी शीघ्रता के परिणामस्वरूप परिवर्तन हो जाता है। यह परिवर्तन कई प्रकार का होता है; जैसे –
- कभी दोनों के स्थान पर एक नया वर्ण बन जाता है।
तत्र + उक्तः = तत्रोक्तः। (‘अ’ तथा ‘उ’ के मेल से नया वर्ण ‘ओ’ बन गया है।) - कभी पूर्व वर्ण में परिवर्तन होता है
- असि + अभिहतः = अस्यभिहतः। (असि के अंतिम वर्ण ‘इ’ को ‘अ’ परे होने पर ‘य’ हो गया है।)
- इसी प्रकार प्रति + एकं = प्रत्येकं। प्रति + उवाच = प्रत्युवाच।
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"सन्धि के प्रकार (Types of Sandhi)"
सन्धि के निम्न तीन प्रकार हैं:-
(1. स्वर-सन्धि या अच् सन्धि (Combination of Vowels)
यदि दो समीपस्थ स्वरों में परिवर्तन हो तो उसे स्वर-सन्धि कहते हैं; जैसे-न + अवलेढि = नावलेढि (यहाँ ‘अ’ तथा ‘अ’ दोनों स्वरों में दीर्घ स्वर सन्धि की गई है।)
(2. व्यञ्जन-सन्धि या हल सन्धि (Combination of Consonants)
यदि दो व्यञ्जनों में सन्धि की जाती है तो उसे व्यञ्जन-सन्धि कहेंगे।
जैसे – जगत् + जननी = जगज्जननी (यहाँ त् तथा ज् व्यञ्जनों में सन्धि की गई है)। यदि पहला वर्ण व्यञ्जन हो और दूसरा वर्ण स्वर, तो व्यञ्जन में परिवर्तन होने के कारण इसे भी व्यञ्जन-सन्धि ही कहा जाता है; जैसे-जगत् + ईशः = जगदीशः (यहाँ ‘त्’ व्यञ्जन तथा ‘इ’ स्वर में सन्धि की गई है।)
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(३-विसर्ग-सन्धि (Visarga Sandhi)
यदि पहला वर्ण विसर्ग है और बाद का वर्ण स्वर अथवा व्यंजन में से कोई भी है, तब विसर्ग में परिवर्तन होने के कारण इसे विसर्ग-सन्धि कहा जाता है।
जैसे-वृतः + उपाध्यायः + यत् = वृत उपाध्यायो यत् (यहाँ. वृतः + उपाध्यायः में विसर्ग का लोप, ‘उपाध्यायः + यत्’ में विसर्ग को ‘उ’ होकर पूर्ववर्ती अकार से मिलकर ‘ओ’ हो जाता है)।
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1-स्वर सन्धि के भेद
(Types of Vowel Combination)
स्वर सन्धि के अनेक भेद होते हैं, यथा–दीर्घ, गुण, वृद्धि, यण्, अयादि, पूर्वरूप, पररूप, प्रकृतिभाव।
(क) दीर्घ सन्धि (Dirgha Sandhi)
समान वर्ण परे होने पर अक् (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ) वर्णों के स्थान पर एक समान वर्ण, दीर्घ स्वर (आ, ई, ऊ, ऋ) आदेश हो जाता है।
1. अ से परे अ हो तो दोनों के स्थान पर आ हो जाता है-अ + अ = आ। जैसे –
2. अ (ह्रस्व) से परे आ (दीर्घ) हो तो दोनों के स्थान पर "आ" हो जाता है-अ + आ = आ। जैसे –
3. आ (दीर्घ) से परे अ (ह्रस्व) हो तो दोनों के स्थान पर आ हो जाता है- आ + अ = आ। जैसे –
5. इ (ह्रस्व) के बाद इ (ह्रस्व) होने पर दोनों को मिलाकर दीर्घ ई हो जाता है- इ + इ = ई। जैसे –
6. इ (ह्रस्व) के परे ई (दीर्घ) होने पर दोनों के स्थान पर दीर्घ ई हो जाता है-इ + ई = ई। जैसे –
7. ई (दीर्घ) के परे इ (ह्रस्व) होने पर दोनों के स्थान में दीर्घ ई होता है-ई + इ = ई। जैसे –
8. ई (दीर्घ) के परे ई (दीर्घ) हो, तो भी दोनों के स्थान पर ई (दीर्घ) आदेश हो जाता है – ई + ई = ई। जैसे –
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9. उ (ह्रस्व) के परे उ (ह्रस्व) होने पर, दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) आदेश हो जाता है – उ + ऊ = ऊ। जैसे –
10. उ (ह्रस्व) के परे ऊ (दीर्घ) होने पर, दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) आदेश हो जाता है – 3 + ऊ = ऊ। जैसे –
11. ऊ (दीर्घ) के परे उ (ह्रस्व) होने पर, दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) आदेश हो जाता है – ऊ + उ = ऊ। जैसे –
12. ऊ (दीर्घ) के परे ऊ (दीर्घ) होने पर दोनों के स्थान पर ऊ (दीर्घ) हो जाता है – ऊ + ऊ = ऊ। जैसे –
भू +ऊर्ध्वम् = भूर्ध्वम् । चमू + ऊर्जः = चमूर्जः
13. ऋ, ऋ (ह्रस्व या दीर्घ) से परे ऋ, ऋ (ह्रस्व या दीर्घ) होने पर दोनों के स्थान पर दीर्घ ऋ हो जाता है – ऋ या ऋ + ऋ या ऋ = ऋ। जैसे –
मातृ + ऋणम् = मातृणम् । पितृ +ऋद्धिः = पितृद्धिः
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"विशेष – ऋ से परे यदि लृ हो तो वहाँ भी दोनों के स्थान में दीर्घ ऋ हो जाती है। जैसे-होतृ + लृकारः = होतृकारः , होतृलकारः भी रूप बनता है।)
परन्तु हस्व ऋ से परे ह्रस्व ऋ होने पर दोनों के स्थान पर दीर्घ "ऋ" विकल्प से होता है। जैसे –
पितृ + ऋणम् = पितॄणम्, पितृणम्। होतृ +ऋकारः = होतृकारः, होतृकारः।
दीर्घ-सन्धि अपवाद –
- कुलटा:– संस्कृत शब्द है। (कुलात् व्यभिचारार्थं कुलान्तरम् अटति इति अर्थात् व्यभिचार के लिए अपने कुल से दूसरे कुुुल के परपुरुष के पास जानेवाली स्त्री को कुलटा कहते हैं। पुंसो भर्त्तुः सकाशात् चलति पुरुषान्तरं गच्छति +अच् मौरा० ङीष् पुंसोन्त्यलोपे अम्परे खयिरुस्तस्य “संपुंकानाम् सः” बा० सः श्चुत्वम् । १ असत्यां स्त्रियाम् अमरःकोश।
- इसका समानार्थक शब्द--व्यभिचारिणी,भ्रष्टा,पुञ्श्चली,असती, स्वैरिणी आदि होता है।
- कुल(वंश)+अट् (गतौ=जाना अर्थ वाली क्रिया) +अच्।(शकन्ध्वादित्वात् अलोपः,शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम् ।वार्तिक)।अर्थात् कुलटा में कुल के ल् के अ एवं 'अटा' के अ के मेल से कुलाटा होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं होकर शकन्धु गण पठित शब्दों में पररूप सन्धि होती है। अर्थात् कुल के ल् में स्थित अ का टिसंज्ञा और टेर्लोपः अर्थात् टि(अ)का लोप होकर कुल्+अटा=कुलटा होता है।
- किन्तु हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से सामान्य रूप से कुलटा का सन्धि विच्छेद— कुल+अटा होता है एवं यह स्वर सन्धि के अन्तर्गत पररूप सन्धि है।
- कुछ विचारक( कु+ लटा)के रूप में इसकी व्युत्पत्ति करते हैं ।
कुलटा या कुल्टा
कु + लटा।
लटा = लट वाली स्त्री।
"कुछ स्त्री के मस्तक के एक या दोनो तरफ एक लट होती है जो सामान्य बाल से अलग होती है और आगे चेहरे पर लटकती रहती है ऐसी लट जिनके होती है वे अत्यन्त कामुक प्रवृति की स्वार्थी व चरित्रहीन होती है , यह कु = खराब+ लटा= लट वाली स्त्री को ही कुलटा कहते हैं।
सूत्र – ‘अचोऽन्त्यादि टि’ इसका अर्थ कि =स्वरों (अन्तिम अचों के आदि में ) जो स्वर( अच्)होता है वह और उसके साथ सभी व्यञ्जनों की "टि" संज्ञा होती है और टि संज्ञा होकर लोप हो जाता है। जैसे- राजन् शब्द में "अन्" की टि-संज्ञा है । राम शब्द में अन्तिम अन्तिम "अच" "अ" की "टि" संज्ञा है।"
१. 'राम' इत्यस्य शब्दस्य वर्णविभागः - 'र्, आ, म्, अ' इति । अस्मिन् वर्णविभागे यः अन्तिमः स्वरः, तस्मात् आरभ्य अन्तपर्यन्तम् यत् शब्दस्वरूपम्, तस्य टिसंज्ञा भवति । अत्र 'अ' इति अन्तिमः स्वरः, सः स्वयमेव शब्दस्य अन्ते विद्यते, अतः तस्यैव 'टि' इति संज्ञा भवति ।
२. 'रामम्' इत्यस्य शब्दस्य वर्णविभागः - 'र्, आ, म्, अ, म्' इति । अत्र 'अ' इति अन्तिमः स्वरः । तस्मात् आरभ्य अन्तपर्यन्तम् विद्यमानम् शब्दस्वरूपम् 'अम्' इति । अतः अत्र 'अम्' इत्यस्य टिसंज्ञा भवति ।
टिसंज्ञायाः प्रयोगं कृत्वा अष्टाध्याय्यां भिन्नाः विधयः उक्ताः सन्ति । यथा, डित्-प्रत्यये परे अङ्गस्य यः टिसंज्ञकः अंशः, तस्य टेः ६.४.१४३ इत्यनेन लोपः क्रियते । 'अन्य' शब्दस्य नपुंसकलिङ्गस्य प्रथमैकवचनस्य प्रक्रिया इयम् —
→ जनीँ (प्रादुर्भावे, ४.४४)
→ पङ्के + जन् + ड [सुबन्त-उपपदस्य उपस्थितौ जन्-धातोः भूते ड-प्रत्ययः]
→ पङ्के + जन् + अ [डकारस्य चुटू १.३.७ इति इत्संज्ञा, तस्य लोपः १.३.९ इति लोपः]
→ पङ्क + जन् + अ [उपपदमतिङ् २.२.१९ इति उपपदसमासः । कृत्तद्धितसमासाश्च १.२.४६ इति प्रातिपदिकसंज्ञा । सुपो धातुप्रातिपदिकयोः २.४.७१ इति ङि-प्रत्ययस्य लुक् ।]
→ पङ्क + ज् + अ [डित्-प्रत्यये परे अङ्गस्य टिसंज्ञकस्यटेः ६.४.१४३ इत्यनेन लोपः भवति । अत्र 'जन्' इत्यस्य अङ्गस्य टिसंज्ञकम् 'अन्' इति अंशः, अतः अयम् सम्पूर्णः अंशः अत्र लुप्यते ।
→ पङ्कज
अष्टाध्याय्यां टि-संज्ञायाः साक्षात् प्रयोगः अष्टसु सूत्रेषु कृतः अस्ति —
१. टित आत्मनेपदानां टेरे ३.४.७९
२. अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः ५.३.७१
३. विष्वग्देवयोश्च टेरद्र्यञ्चतावप्रत्यये ६.३.९२
४. टेः ६.४.१४३
५. टेः ६.४.१५५
६. भस्य टेर्लोपः ७.१.८८
७. वाक्यस्य टेः प्लुत उदात्तः ८.२.८२
८. प्रणवष्टेःप्रणवः टेः ८.२.८९
अनुवृत्तिरूपेण तु अन्येषु सूत्रेषु अपि अस्याः संज्ञायाः प्रयोगः भवितुम् अर्हति । The fragment of a word starting from its last अच् letter till the end is called टि.
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(ख) गुण सन्धि -
अ या आ के अनन्तर ह्रस्व या दीर्घ इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ तथा लृ आएँ तो दोनों के स्थान पर क्रमशः ए, ओ, अर्, अल्, आदेश हो जाते हैं (अ, ए, ओ, गुण स्वर कहलाते हैं इसलिए इस सन्धि को गुण सन्धि कहते हैं गुण का विपरीत यण् है)।
1. ह्रस्व अ के बाद ह्रस्व इ होने पर, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-अ + इ = ए। जैसे –
2. ह्रस्व अ के बाद दीर्घ ई होने पर, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-अ + ई = ए। जैसे –
3. दीर्घ आ के पश्चात् ह्रस्व इ होने पर, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है- आ + इ = ए। जैसे –
4. दीर्घ आ के परे दीर्घ ई होने पर भी, दोनों के स्थान पर ए (गुण) आदेश होता है-आ + ई = ए। जैसे –
5. ह्रस्व अ के परे ह्रस्व उ होने पर दोनों के स्थान पर ओ (गुण) आदेश हो जाता है-अ + उ = ओ। जैसे –
6. ह्रस्व अ के पश्चात् दीर्घ ऊ होने पर, दोनों के स्थान पर ओ (गुण) आदेश हो जाता है-अ + ऊ = ओ। जैसे –
7. दीर्घ आ के पश्चात् ह्रस्व उ होने पर, दोनों के स्थान पर ओ (गुण) आदेश हो जाता है-आ + उ = ओ। जैसे –
8. दीर्घ आ के पश्चात् दीर्घ ऊ होने पर भी दोनों के स्थान पर ओ (गुण) आदेश हो जाता है-आ + ऊ = ओ। जैसे –
9. ह्रस्व अ से परे ऋ होने पर दोनों के स्थान पर अर् आदेश हो जाता है-अ + ऋ = अर। जैसे –
10. दीर्घ आ के परे ऋ होने पर भी दोनों के स्थान पर अर् आदेश होता है-आ + ऋ = अर्। जैसे –
11. अ (ह्रस्व) के बाद ल होने पर दोनों के स्थान पर अल् आदेश होता है-अ + ल = अल। जैसे –
तव + लकारः = तवल्कारः मम + लृकारः = ममल्कारः
12. दीर्घ आ के बाद ल होने पर दोनों के स्थान पर अल् आदेश होता है-आ + ल = अंल। जैसे –
माला + लकारः = मालल्कारः शाला + लृकारः = शालल्कारः
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(ग) वृद्धि सन्धि (Vriddhi Sandhi )
सूत्र :-वृद्धिरेचि(आद: वृद्धि: एचि ।
*व्याख्या :-* अ या आ(आत्) के परे यदि ए या ऐ रहे तो ऐे" और ओ या औ रहे तो औ" हो जाता है। (एओऐऔ) की एच् संज्ञा है)
अ" अथवा आ" के अनन्तर यदि ए या ऐ हो तो दोनों के स्थान पर( ऐ )हो जाता है और यदि ओ या औ हो तो दोनों के स्थान पर (औ) हो जाता है। इस सन्धि को वृद्धि सन्धि कहते हैं। (ऐ तथा औ वृद्धि स्वर कहलाते हैं)।
1. अ + ए = ऐ
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(घ)यण् सन्धि(Change into Semi-Vowels)
ह्रस्व या दीर्घ इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल (इक्) के अनन्तर कोई असवर्ण स्वर (अच्) आए तो इ, उ, ऋ, ल के स्थान पर क्रमशः य, व, र, ल् (यण्) आदेश हो जाते हैं।
1. इ + असमान वर्ण (इ, ई से भिन्न स्वर) = य् + असमान वर्ण
2. ई + असमान वर्ण (इ, ई से भिन्न स्वर) = य् + असमान वर्ण
3. उ + असमान वर्ण (उ, ऊ से भिन्न स्वर) = व् + असमान वर्ण
4. ऊ + असमान वर्ण (उ, ऊ से भिन्न स्वर) = व् + असमान वर्ण
5. ऋ + असमान वर्ण (ऋ, ऋ से भिन्न स्वर) = र् + असमान वर्ण
6. ल + असमान वर्ण (ल से भिन्न स्वर) = ल् + असमान वर्ण
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(ङ) अयादि सन्धि (Change into अय् etc.)
ए, ओ, ऐ, औ (एच्) के अनन्तर कोई भी स्वर (अच्) हो तो ए, ओ, ऐ, औ (एच) के स्थान पर क्रमशः अय्, अव्, आय्, आव् (अयादि) हो जाते हैं।
1. ए + कोई स्वर = अय् + कोई स्वर
ने + अति = न् + अय् + अति = नयति
हरे + ए = हर् + अय् + ए = हरये
2. ओ + कोई स्वर = अव् + कोई स्वर
भो + अति = भ् + अव् + अति = भवति
पो + अनः = प् + अव् + अनः = पवनः
विष्णो + ए = विष्ण् + अव् + ए = विष्णवे
3. ऐ + कोई स्वर = आय् + कोई स्वर
नै + अकः = न् + आय् + अकः = नायकः
ग्लै + अति = ग्ल् + आय् + अति = ग्लायति
4. औ + कोई स्वर = आव् + कोई स्वर
प्रचोदितौ + अगायताम् = प्रचोदितावगायताम्।
क्षीरनिधौ + इव = क्षीरनिधाविव।
तौ + अग्राहयत = तावग्राहयत।
करौ + इव = कराविव
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(च)-पूर्वरूप सन्धि( preform treaty)
यह (अयादि) सन्धि का अपवाद है। इसके अनुसार पदान्त (पद के अन्त) में ए या ओ होने पर और उसके बाद ह्रस्व( अ )होने पर अयादि सन्धि का नियम लागू नहीं होता अपितु "अ" को पूर्वरूप हो जाता है।
पूर्वरूप होने पर वह "अ" पहले शब्द के अंतिम स्वर में मिल जाता है तथा उसकी सूचना मात्र के लिए
5 (अवग्रह) चिह्न लगा दिया जाता है। जैसे –विद्यते + अयनाय = विद्यतेऽयनाय।
हरे + अव = हरेऽव
को + अत्र = कोऽत्र
अरण्ये + अगच्छत् = अरण्येऽगच्छत्
राज्यतन्त्रे + अस्मिन् = राज्यतन्त्रेऽस्मिन्
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(छ)-पररूप सन्धि)
यदि अकारान्त उपसर्ग के बाद ऐसी धातु आए जिसके आदि में ए, ओ हो तो दोनों के स्थान पर क्रम से ए, ओ (पररूप) हो जाता है।
जैसे –
प्र + एषयति = प्रेषयति
अव + ओषति = अवोषति
प्र + एजते = प्रेजते
उप + ओजति = उपोजति
(ज)-प्रकृति भाव सन्धि-)
नियम – यदि कोई ऐसा पद हो जो द्विवचनान्त हो तथा उसके अन्त में (ईऊए)में से कोई एक स्वर हो तथा आगे कोई स्वर हो तो ई, ऊ, ए ज्यों-के-त्यों रहते हैं। जैसे –
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२-"व्यञ्जन (हल) सन्धि"
व्यञ्जन (हल) का किसी व्यञ्जन (हल) के साथ अथवा स्वर (अच्) के साथ मेल होने पर व्यञ्जन में जो परिवर्तन होता है–
उसे व्यञ्जन (हल) सन्धि कहते हैं।
जैसे-तत् + चित्रम् = तच्चित्रम्, तत् + टीकते = तट्टीकते। इन उदाहरणों में त् + च् मिलने से प्रथम अक्षर के स्थान पर च तथा त् + ट् मिलने से प्रथम अक्षर त् के स्थान पर ट् हो गया है।
व्यञ्जन सन्धि के अनेक भेद है।
जैसे-अनुस्वार श्चुत्व, ष्टुत्व, जश्त्व आदि।
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"अनुस्वार सन्धि"
मोऽनुस्वारः ८।३।२३॥
पदच्छेदः
- मः – म् + अः षष्ठी विभक्ति (म् का)
- अनुस्वारः – अनुस्वार होता है।
- म् का अनुस्वार होता है।
अनुवृत्तिः
- हलि (हलि सर्वेषाम्)
- हलि – हल् + इ सप्तमी (हल् परे होने पर)
अधिकारः
- पदस्य
- पद का
पद किसे कहते हैं?
- सुप्तिङन्तं पदम्।
- सुप् – विभक्ति
- तिङ् – लकार
- अन्तं – आखिरी जगह
- पद – पद कहते हैं।
जिस शब्द को विभक्ति अथवा लकार होता है वह पद कहलता है।
सम्पूर्ण सूत्र
(पदस्य) मः अनुस्वारः (हलि)
पदान्त म् का अनुस्वार होता है हल् परे रहने पर :-उदाहरण
रामम् + नमामि।
- म् + न् …. मोऽनुस्वारः
- न् – हल्
- ॱ + न्
- रामम् + नमामि।
- रामं नमामि।
हरिम् + वन्दे।
- हरिम् + वन्दे …. मोऽनुस्वारः
- हरिं + वन्दे।
- हरिं वन्दे।
(1. पदान्त न् परे यदि च् या छ् हो तो न् के स्थान पर अनुस्वार तथा "च अथवा "छ के पूर्व स्थान पर "श्" आगम हो जाता है। जैसे –)
2. इसी प्रकार पदान्त न् से परे ट् या ठ हो तो अनुस्वार और ष् आगम हो जाते है। जैसे –
3. इसी प्रकार पदान्त न् से परे यदि त् थ् हो तो न् के स्थान पर अनुस्वार के साथ ‘स्’ आगम हो जाता है। जैसे –
4. पद के अन्दर रहने वाले न् और म् से परे वर्णों से पहले वर्णों तथा श्, ष, स्, ह में से कोई वर्ण आ जाने पर न और म् को अनुस्वार हो जाता है। जैसे –
"परसवर्ण-सन्धि-
अपदान्त अनुस्वार के अनन्तर यय् (वर्गों के 1, 2, 3, 4 वर्ण और य, र, ल, व) वर्गों में से कोई एक हो तो अनुस्वार को आगे आने वाले वर्ग के वर्ण का पाँचवाँ अक्षर (परसवर्ण) हो जाता है। जैसे –
(क) अपदान्त अनुस्वार के बाद कवर्ग होने पर अनुस्वार के स्थान पर छु हो जाता है। जैसे –
(ख) अपदान्त अनुस्वार के बाद चवर्ग होने पर अनुस्वार के स्थान पर अनुनासिक (ञ्) हो जाता है। जैसे –
(ग) अपदान्त अनुस्वार के बाद टवर्ग होने पर अनुस्वार के स्थान पर (ण )हो जाता है। जैसे –
(घ) अपदान्त अनुस्वार के बाद तवर्ग होने पर अनुस्वार के स्थान पर( न )हो जाता है। जैसे –
(ड़) अपदान्त अनुस्वार के बाद पवर्ग होने पर अनुस्वार के स्थान में (म् ) हो जाता है। जैसे –
सं + भोजनम् = सम्भोजनम्
(च) पदान्त ‘म्’ से परे कोई भी व्यञ्जन हो तो म् को अनुस्वार हो जाता है। जैसे –
हरिम् + वन्दे = हरिं वन्दे
मधुरम् + हसति = मधुरं हसति
सत्वरम् + याति = सत्वरं यातिि"
स् और तवर्ग (त्, थ्, द्, ध्, न्) के साथ श् और चवर्ग (च्, छ्, ज्, झ्, ज्) में से कोई वर्ण आ रहा हो तो स् और तवर्ग (त्, थ्, द्, ध्, न्) के स्थान पर क्रमशः श् और चवर्ग (च्, छ्, ज्, झ्, ज्) हो जाते हैं। जैसे –
अपवाद – श् के परे तवर्ग को चवर्ग नहीं होता। जैसे-विश् + नः = विश्नः, प्रश् + नः = प्रश्नः आदि।
4. ष्टुत्व सन्धि-
स् और तवर्ग (त्, थ्, द्, ध्, न्) के साथ यदि (ष्) और टवर्ग (ट्, त्, ड्, द, ण) में से कोई हो तो (स् )और तवर्ग को क्रमशः (ष् )और टवर्ग आदेश हो जाते हैं। जैसे –
परन्तु कुछ अवस्थाओं में यह नियम लागू नहीं होता। जैसे, यदि पद के अन्त में टवर्ग हो और उसके पश्चात् न् के अतिरिक्त तवर्ग का वर्ण अथवा स् हो तो उसके स्थान पर टवर्ग नहीं होता। जैसे –
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षट् + सन्तः = षट् सन्तः (यहाँ स् का ष् नहीं होगा)
किन्तु न् को ण होने के उदाहरण मिलते हैं यथा
इसी प्रकार तवर्ग के किसी वर्ण के पश्चात् मूर्धन्य ष् हो तो तवर्ग के वर्ण के स्थान पर टवर्ग का वर्ण नही होता। जैसे –
सन् + षष्ठः = सन् षष्ठः।
5. जश्त्वसन्धि-
किसी शब्द में यदि झल् अर्थात् वर्णों के पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा वर्ण तथा श्, ए, स्, ह हों तथा उसके अनन्तर कोई भी अन्य वर्ण हो तो झलों को जश् (उसी वर्ग का तीसरा वर्ण अर्थात् ग, ज्, ड्, द्, ब्) हो जाता है। नियम व्यापक रहने पर भी भाषा में उदाहरण ऐसे ही मिले हैं जिनके अनुसार क्, च्, ट्, त्, प् पद के अन्त में होते हैं और अनन्तर कोई वर्ण होता है तो इनका क्रमशः ग्, ज, ड्, द्, ब् हो जाता है। जैसे –
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स् से पूर्व अ, आ से भिन्न कोई स्वर अन्तस्थ तथा कवर्ग होने पर (इण्को -आदेशप्रत्ययो:) सूत्र से सकार का षकार हो जाता है । अर्थात् स् के स्थान पर ष् हो जाता है, जैसे- मुनिषु, (मुनि + सु), साधुषु (साधु + सु), रामेषु (रामे + सु) आदि। लतासु में स् को ष् नहीं होगा, क्योंकि यहाँ स् से पूर्व ‘आ’ है।
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2 (ख) णत्व-विधानम्
अन्य शब्द – ऋणम्, परिणामः, रामचन्द्रेण, वर्णनम्, भीषणम्, पुरुषेण।
ऊपर के सब उदाहरणों में ‘ण’ दिखाई देता है। ध्यान से देखिए कि इन सब में ण् से पूर्व ऋ, ऋ, र्, ष् में से कोई एक वर्ण अवश्य आया है, इसीलिए न् के स्थान पर ण् हुआ है
कृपया बताएँ ण से पहले ऋ/ऋ//ष् में से इन उदाहरणों में कौन-सा वर्ण है? जैसे-रामेण में ण् से पूर्व र है।
(i) मातृणाम् में ण् से पूर्व……………है।
(ii) ऋषीणाम् में ण् से पूर्व……………है।
(iii) गृहाणि में ण् से पूर्व……………….है।
(iv) ऋणम् में ण से पूर्व………………..है।
(v) रामचन्द्रेण में ण् से पूर्व……………….है।
(vi) भीषणम् में ण् से पूर्व………………….है।
(vii) नराणाम् में ण् से पूर्व………………..है।
(viii) मनुष्याणाम् में ण् से पूर्व……………है।
(ix) प्रियाणि में ण् से पूर्व…………………है।
(x) परिणामः में ण् से पूर्व…………….है।
(xi) वर्णनम् में ण् से पूर्व… ………है।
(xii) पुरुषेण में ण् से पूर्व…………..है।
एक ही पद में न् से पहले ऋ/ऋ// में से कोई वर्ण न हो तो न् को ण नहीं होता।
उदाहरण – देवेन, देवानाम्, फलानि, वचनम्, अनामिका, दासेन, सदनम्, खगेन आदि। इन उदाहरणों में ‘न्’ से पूर्व कहीं भी ऋ/ऋ/ष् में से कोई वर्ण नहीं है अतः न् को ण् होने का कोई कारण नहीं है। पदान्त में न् → न्
किन्तु पदान्त में न् को ण् नहीं होता भले ही पदान्त न् से पूर्व ऋ/ऋार में से कोई वर्ण क्यों न हो। जैसे रामान्।ऋषीन्। मनुष्यान्। हरीन्। प्रियान्। नरान्। पितृन्। रक्षन्। कुर्वन्। स्पृशन्। आरोहन्।
नियम (2) पदान्त में न् को ण् नहीं होता।
रामान् में र पदान्त न से पूर्व है इसलिए न् को ण् नहीं हुआ।
ऋषीन् में ष् पदान्त न् से पूर्व है इसलिए न् को ण् नहीं हुआ।
निम्न वाक्यों को पूरा करें।
(i) मनुष्यान् में ष् पदान्त न् से पूर्व है ……………………………………।
(ii) हरीन् में र् पदान्त न् से पूर्व है ……………………………………….।
(iii) प्रियान में र् पदान्त न् से पूर्व है ……………………………………..।
(iv) नरान् में र् पदान्त न् से पूर्व है ……………………………………….।
(v) पितॄन् में ऋ पदान्त न् से पूर्व है ………………………………………।
(vi) रक्षन् में र् ……………………………………… इसलिए न् को ण् नहीं हुआ।
(vii) कुर्वन् में र् ……………………………………… इसलिए न् को ण् नहीं हुआ।
(viii) स्पृशन् में ऋ ………………………………………. इसलिए न् को ण नहीं हुआ।
(ix) आरोहन् में र् ………………………………………. इसलिए न् को ण नहीं हुआ।
अब ऐसे उदाहरण दिए जा रहे हैं जिन पदों में ऋ/ऋ//ष् के बाद न् को ण् नहीं हुआ और न् इनके अन्त में भी नहीं है। जैसे –
रचना। रत्नम्। रटनम्। प्रपञ्चेन। प्रवासेन। रत्नेन। रटन्तम्। आराधना। मारीचेन। रक्तेन। प्रलापेन। दर्शनानि। परिवर्तनम्। मूर्तीनाम्। गृहस्थेन। प्रधानम्। ईदृशेन। प्रतिमानम्।
अब यह सोचना पड़ेगा कि ऋ/// के बाद तथा न् से पहले कौन-से वर्ण हों तो न् को ण् होगा तथा कौन-से वर्ण नहीं हों तो न् को ण् नहीं होगा।
सह्याव्यवधान – ऋ/ऋ//ष् के बाद न् को ण् होने में जो वर्ण कोई व्यवधान या रुकावट नहीं डालते उन वर्णों को सह्य व्यवधान कहते हैं।
असह्यव्यवधान – ऋ/ऋ//ष् के बाद नं को ण् होने में जो वर्ण व्यवधान या रुकावट पैदा करते हैं उन वर्णों को असह्य व्यवधान कहते हैं।
सह्यव्यवधान-तालिका
इनके बीच में होने पर न् का ण होता है।
न् → ण् (सह्य वर्गों के उदाहरण)
प्राणाः – सह्य वर्ण (आ)
पुरुषेण – सह्य वर्ण (उ, ए)
कृपणः – सह्य वर्ण (प्, अ)
प्रियाणि – सह्य वर्ण (इ, य्, आ)
लक्ष्मणः – सह्य वर्ण (म्, अ)
उपर्युक्त सब उदाहरणों में सह्य वर्ण सह्यव्यवधान तालिका में से हैं।
असाव्यवधान – तालिका (वाधकवर्णतालिका)
इनके बीच में होने पर न् का ण होता है।
रचना – असह्यवर्ण [८]
रत्नम् – असह्यवर्ण [त्]
(i) प्रपञ्चेन – असह्यवर्ण [………………….].
(ii) रत्नेन – असह्यवर्ण [………………..]
(iii) आराधना – असह्यवर्ण [………………]
(iv) रक्तेन – असह्यवर्ण [………………]
(v) दर्शनानि – असह्यवर्ण [……………
(vi) मूर्तीनाम् – असह्यवर्ण [……………….
(vii) प्रधानम् – असह्यवर्ण [………………..
(viii) प्रतिमानम् – असह्यवर्ण [………………]
(ix) रटनम् – असह्यवर्ण […………….]
(x) प्रवासेन — असह्यवर्ण [………………]
(xi) रटन्तम् – असह्यवर्ण [……………….]
(xii) मारीचेन – असह्यवर्ण [………………..]
(xiii) प्रलापेन – असह्यवर्ण [……………]
(xiv) परिवर्तनम् – असह्यवर्ण [………….]
(xv) गृहस्थेन – असह्यवर्ण [……………]
(xvi) ईदृशेन – असह्यवर्ण […………..]
___________________
_________________________________3. विसर्ग सन्धि (Visarga Sandhi)
विसर्ग से परे स्वर या व्यञ्जन के होने पर विसर्ग में होने वाले परिवर्तन को विसर्ग सन्धि कहते हैं। जैसे –
रामः + आगच्छति = ‘राम आगच्छति’ में रामः के विसर्ग का लोप हो गया है क्योंकि विसर्ग के बाद दीर्घ आ स्वर पड़ा है (लोप)।
देवः + गच्छति = देवो गच्छति। यहाँ गच्छति का ग् विसर्ग से परे है, अतः देवः के स्थान पर देवो रूप बन गया है तथा विसर्ग के स्थान पर हुआ ‘उ’ देव के आकार में मिलकर ‘ओ’ हो गया है (उत्व)।
विसर्ग सन्धि के भी अनेक भेद हैं। यहाँ कुछ प्रमुख भेदों का ही विचार किया जाएगा.
____________________________________
1. यदि पदान्त ‘र’ के परे वर्णों का पहला, दूसरा तथा श, ष, में से कोई वर्ण हो या अन्य का ‘स्’ हो तो उनके स्थान पर विसर्ग हो जाता है। जैसे –
पुनर् + पतितः = पुनः पतितः हरि + स् = हरिः राम + स् = रामः।
2. सत्व-विसर्ग से परे च्, छ् होने पर विसर्ग का श् हो जाता है, ट्, ठ् परे होन पर ष् हो जाता है तथा त्, थ् परे होने पर ‘स्’ हो जाता है। जैसे –
3. विसर्ग के बाद श्, ष, स् हों तो विसर्ग को श्, ष, स् विकल्प से होंगे। जैसे –
_______________
4. रुत्व- विसर्ग से पहले अ तथा आ को छोड़कर यदि कोई और स्वर हो और विसर्ग से परे कोई स्वर, वर्ग का तीसरा, चौथा और पाँचवाँ वर्ण या य, र, ल, व्, ह में से कोई वर्ण हो तो उस विसर्ग को र् हो जाता है। जैसे –
5. उत्व विधि- यदि विसर्ग से पूर्व ‘अ’ हो और परे भी ह्रस्व ‘अ’ ही हो तो विसर्ग को उ हो जाता है तथा विसर्ग पूर्व अ के साथ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है। परवर्ती अ का पूर्वरूप हो जाता है और उसके स्थान में (ऽ) प्रश्लेष का चिह्न लिख दिया जाता है। जैसे –
6. उत्व-यदि विसर्ग के पूर्व अ हो, किन्तु विसर्ग के अनन्तर किसी वर्ग का तीसरा, चौथा या पाँचवाँ वर्ण हो अथवा य, र, ल, व् तथा ह् में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग सहित अ को (ओ) हो जाता है। जैसे –
________________________________
"विसर्ग लोप का विधान"
जैसे
पुरुषः + एव = (पुरुष एव) धर्मः + एव = (धर्म एव )वृतः + उपाध्यायः = (वृतउपाध्यायःः)
_____
और विसर्ग का लोप होने पर यदि कोई सन्धि प्राप्त हो तो वह नहीं होती।
जैसे–प्राक्तनाः + इव =( प्राक्तना इव) पुरुषः + एव = (पुरुष एव) भवादृशाः + एव =( भवादृशा एव)
______________________
(iii) अ, इ, उ‘ के अनन्तर (विसर्गों के स् के रु का) र विद्यमान हो तथा उसके पश्चात् भी र् हो तो पहले (विसर्ग के) र का लोप हो जाता है। लोप होने पर अ, इ, उ को दीर्घ भी हो जाता है। जैसे –
(iv) सः और एषः के पश्चात् कोई व्यञ्जन हो तो इनके विसर्गों का लोप हो जाता है।
जैसे –
सः पठति = (स पठति) एषः विष्णु = (एष विष्णुः)
यदि सः, एषः के पश्चात् ह्रस्व (अ) को छोड़कर कोई अन्य स्वर हो तो विसर्ग का भी लोप हो जाता है।
जैसे सः एति = (स एति) एषः + गृहीतः =( एष गृहीतः)
किन्तु यदि सः, एषः के परे ह्रस्व अ हो तो विसर्ग सहित "अ" को "ओ" होकर पूर्व रूप सन्धि जाता है। जैसे –
सः + अस्ति = (सोऽस्ति )एषः + अपि = (एषोऽपि)
_______________________
"भो: भगो अघो के विसर्गों का लोप हो जाता है ।
यदि विसर्ग के वाद कोई स्वर अथवा वर्ग का तीसरा' चौथा पाँचवाँ तथा अन्तस्थ य"व"र"ल" अथवा महाप्राण " ह" में से कोई भी वर्ण हो इन पूर्वोक्त सभी वर्णों को अश् प्रत्याहार के अन्तर्गत समायोजित किया जाता है
शेष वर्ण वर्ग का प्रथम द्वित्तीय वर्ण तथा तीनों (श"ष"स") ही इसके पश्चात न हों तो विसर्ग का लोप हो जाता है। तो
8.नमः, पुरः, तिरः शब्दों के विसर्ग को (क प) के परे होने पर स् हो जाता है। जैसे
भोः + लक्ष्मी = भो लक्ष्मी । भगोः + नमस्ते = भगो नमस्ते। अघोः + याहि = अघो याहि।
अभ्यासः
1. अधोदत्तानां पदानां सहायतया प्रतिवाक्यम् स्थूलपदयोः सन्धिं चित्वा लिखत।
(नीचे दिए गए पदों की सहयता से प्रत्येक वाक्य के मोटे पदों की सन्धि चुनकर लिखिए।)
(Choose join the bold words in each sentence by given words.)
(i) देव! तव स्वागताय तत्परः + अस्मि।
(क) तत्परःस्मि
(ख) तत्परोऽस्मि
(ग) तत्परोस्मि
(घ) तत्परःअस्मि
(ii) कुत्रस्ति जगत् + ईशः।
(क) जगदीशः
(ख) जगतीशः
(ग) जगतीशाः
(घ) जगदिशः
(iii) यज्ञदत्तः वृक्षं वि + अलोकयत्।।
(क) व्यलोकयत्
(ख) विलोकयत्
(ग) विलोकस्य
(घ) विअलोकयत्
(iv) वनेषु गजैः + गम्यते।
(क) गजैगम्यते
(ख) गजैगम्यते
(ग) गजैस्गम्यते
(घ) गजैष्णम्यते
____________________
१. भोस्, भगोस्, अघोस् - एते त्रयः निपाताः सन्ति । चादयोऽसत्वे १.४.५७ इत्यनेन निर्दिष्टः यः चादिगणः, सः आकृतिगणः अस्ति, अतः यद्यपि एतेषां शब्दानाम् तत्र उल्लेखः नास्ति, तथापि एते शब्दाः पण्डितैः चादिगणे समाविश्यन्ते ।
२. 'अश्' इति कश्चन प्रत्याहारः । अस्मिन् प्रत्याहारे सर्वे स्वराः तथा मृदुव्यञ्जनानि समाविश्यन्ते ।
अतः अस्य सूत्रस्य अर्थः अयम् - भोस्, भगोस्, अघोस् एतेषां शब्दानाम् सकारस्य ससजुषोः रुँः ८.२.६६ इत्यनेन रुत्वे कृते तस्मात् अनन्तरमश्-वर्णः आगच्छति चेत् तस्य रुँ इत्यस्य यकारादेशः भवति । तथैव, पदान्त-अकारात् / पदान्त-आकारात् परस्य रुँ-इत्यस्य अपि अश्-वर्णे परे यकारादेशः भवति ।
उदाहरणानि -
१. 'भोस् देवाः' इति स्थिते -
→ भोरुँ देवाः [ससजुषोः रुँः ८.२.६६ इति पदान्तसकारस्य रुँत्वम् ]
→ भोय् देवाः [भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इति रुँ-इत्यस्य य्-आदेशः]
→ भो देवाः [ओतो गार्ग्यस्य ८.३.२० इति यकारलोपः]
२. 'भगोस् मनुष्याः' इति स्थिते -
→ भगोरुँ मनुष्याः [ससजुषोः रुँः ८.२.६६ इति पदान्तसकारस्य रुँत्वम् ]
→ भगोय् मनुष्याः [भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इति रुँ-इत्यस्य य्-आदेशः]
→ भगो मनुष्याः [ओतो गार्ग्यस्य ८.३.२० इति यकारलोपः]
३. 'अघोस् राक्षसाः' इति स्थिते -
→ अघोरुँ राक्षसाः [ससजुषोः रुँः ८.२.६६ इति पदान्तसकारस्य रुँत्वम् ]
→ अघोय् राक्षसाः [भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इति रुँ-इत्यस्य य्-आदेशः]
→ अघो राक्षसाः [ओतो गार्ग्यस्य ८.३.२० इति यकारलोपः]
४. 'देव + जस् + गच्छन्ति' इति स्थिते -
→ देवास् गच्छन्ति [प्रथमयोः पूर्वसवर्णः ६.१.१०२ इति पूर्वसवर्णदीर्घः आकारः]
→ देवारुँ गच्छन्ति [ससजुषोः रुँः ८.२.६६ इति पदान्तसकारस्य रुँत्वम् ]
→ देवाय् गच्छन्ति [भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इति रुँ-इत्यस्य य्-आदेशः]
→ देवा गच्छन्ति [लोपः शाकल्यस्य ८.३.१९ इति यकारलोपः]
५. 'राम + सुँ + आसीत्' इति स्थिते -
→ राम रुँ आसीत् [ससजुषोः रुँः ८.२.६६ इति पदान्तसकारस्य रुँत्वम् ]
→ रामय् आसीत् [भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इति रुँ-इत्यस्य य्-आदेशः]
→ राम आसीत् [लोपः शाकल्यस्य ८.३.१९ इति यकारलोपः]
ज्ञातव्यम् -
१. अनेन सूत्रेण उक्तः यकारादेशः रुँ-इत्यस्यैव भवति, केवलरेफस्य न । यथा - पुनर् + गच्छति = पुनर्गच्छति ।
२. उपरिनिर्दिष्टाभिः प्रक्रियाभिः प्रायः एतत् स्पष्टं भवेत् यत् यद्यपि अस्य सन्धेः नाम 'विसर्गलोप' इति सामान्यरूपेण दत्तमस्ति, तथाप्यत्र विसर्गस्य निर्माणमेव न भवति । विसर्गस्य निर्माणम् खरवसानयोर्विसर्जनीयः ८.३.१५ इत्यनेन खरि परे / अवसाने परे एव भवति । अत्र अग्रे अश्-वर्णः अस्ति, अतः अत्र रुँ-इत्यस्य यकारादेशः भवति, विसर्गः न ।
३. अतो रोरप्लुतादप्लुते ६.१.११३ इत्यनेन अकारात् परस्य रुँ-इत्यस्य अकारे परे उकारादेशः उच्यते । तथा च,
हशि च ६.१.११४ इत्यनेन अकारात् परस्य रुँ-वर्णस्य हश्-वर्णे परे अपि उकारादेशः उच्यते । एते द्वे सूत्रे यद्यपि सपादसप्ताध्याय्याम् स्तः, तथापि भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इत्यस्य अपवादरूपेण एते द्वे सूत्रे कार्यं कुरुतः इति दीक्षितः सिद्धान्तकौमुद्याम् वदति । भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ एतत् सूत्रम् एतयोः द्वयोः सूत्रयोः सिद्धमस्तीति आशयः ।
४. अस्मिन् सूत्रे दीक्षितः वदति - असन्धिः सौत्रः । अत्र 'भो, भगो, अघो' एते 'भोस्, भगोस्, अघोस्' एतेषाम् अनुकरणार्थ ं प्रयुक्ताः ओकारान्तशब्दाः सन्ति इति मत्त्वा समस्तपदे तेषां पदत्वं स्वीकृत्य एङः पदान्तादति ६.१.१०९ इत्यनेन पूर्वसवर्णादेशं कृत्वा 'भोभगोऽघोऽपूर्वस्य' इति भवेत्, परन्तु सौत्रत्वात् तादृशं कृतं नास्ति - इति दीक्षितस्य अभिप्रायः वर्तते । अयं पक्षः वस्तुतस्तु चिन्त्यः । भोस्, भगोस्, अघोस् इति एतेषां सकारान्तत्वं स्वीकृत्य तस्य रुत्वयकारलोपेषु कृतेषु तेषामसिद्धत्वात् एङः पदान्तादति ६.१.१०९ इत्यस्य नैव प्रसक्तिः भवति - इत्येव साधुतरः पक्षः अस्ति । प्रौढमनोरमायां स्वयं दीक्षितेन अपि अयमेव पक्षः अङ्गीकृतः दृश्यते ।
५. अस्मिन् सूत्रे अशि-ग्रहणम् स्थानिवद्भावेन विसर्गस्य यकारादेशः मा भूत् इति स्पष्टीकर्तुम् क्रियते । यथा -
देवा + जस् + सन्ति इत्यत्र -
→ देवास् + सन्ति [प्रथमयोः पूर्वसवर्णः ६.१.१०२ इति पूर्वसवर्णदीर्घः आकारः]
→ देवारुँ + सन्ति [ससजुषो रुँः ८.२.६६ इति पदान्तसकारस्य रुँत्वम् ]
→ देवाः सन्ति [खरवसानयोर्विसर्जनीयः ८.३.१५ इति विसर्गः]
इति स्थिते स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ १.१.५६ इत्यनेन विसर्गस्य स्थानिवद्वभावेन 'रुँ'त्वे प्राप्ते भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि ८.३.१७ इति यकारादेशः मा भूत्, एतत् स्पष्टीक्तुमत्र (खर्-प्रत्याहारस्य विरुद्धः) 'अश्' स्वीकृतः अस्ति ।
____________________________________
"पूर्वरूपसन्धि"का सूत्र -( एङ पदान्तादति पूर्वरूप: भवति)अर्थात् पदों के अन्त में (ए'ओ') स्वर हों और उसके बाद अत् (अ) स्वर की स्थिति हो तो पूर्वरूप सन्धि होती है। यह स्वर संधि के भागों में से एक है।
नियम-
नियम - पद( क्रियापद आख्यातिक) अथवा ।(संज्ञापद नामिकपद) के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं;वह लग जाता हैपूर्वरूप संधि के उदाहरण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
- ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोऽयम्
- ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेऽत्र
(यह सन्धि "अयादि" सन्धि का अपवाद भी होती है)।
"जबकि निम्न सन्धियों में अपद(धातु और प्रत्यय रूप होने से पूर्व रूप सन्धि नहीं हुई है।
धातु रूप -रौ + प्रत्यय रूप- अन् = रावण
धातु रूप - श्रौ + प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण
धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप- अक: = धावक:
धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप- अन् = पावन
यहाँ निम्न सन्धि में दोनों ही पद हैं ।
१-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।=तावागच्छताम् ______________________________
२-बालको + अवदत् -बालक बोला।
=बालकोऽवदत्
पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।
सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही प्रभाव है
पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--
पररूप संधि के नियम
नियम - यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से क्रिया के आदि में होता है।पररूप संधि के उदाहरण
- प्र + एजते = प्रेजते
- उप + एषते = उपेषते
- परा + ओहति = परोहति
- प्र + ओषति = प्रोषति
- उप + एहि = उपेहि
प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-
. प्रकृति भाव सन्धि –
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
- स्वर संधि - अच् संधि
- दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
- गुण संधि - आद्गुण:
- वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि
- यण् संधि - इकोऽयणचि
- अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
- पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
- पररूप संधि - एडि पररूपम्
- प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्
स्वर/अच् संधि
- अकः सवर्णे दीर्घः - दीर्घ संधि
- इकोयणचि - यण संधि
- आद्गुणः - गुण संधि
- वृद्धिरेचि - वृद्धि संधि
- एचोऽयवायावः - अयादि संधि
- एङ् पदान्तादति - पूर्वरूप स्वर संधि
- एङि् पररूपम् - पररूप स्वर संधि
व्यंजन/ हल् संधि
- स्तोः श्चुनाश्चुः - श्चुत्व संधि
- स्तोः ष्टुनाष्टुः - ष्टुत्व संधि
- झलां जशोअ्न्ते - जश संधि (पदांत)
- झलां जश् झशि - जश संधि (अपदांत)
- मोअ्नुस्वारः - अनुस्वार संधि
- खरि च - चर्त्व संधि
- तोर्लि - लत्व संधि
- यरोअ्नुनासिकेअ्नूनासिको - अनुनासिक संधि
- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः - परसवर्ण संधि
विसर्ग संधि
💐★वृत्ति- अनचि च 8|4|47
–अच् परस्य यरो द्वे वा स्तो- ( दोनों ) न त्वचि। इति धकारस्य द्वित्व।अचः परस्य यरः अनचि परे विकल्पेन द्वित्वं भवति । "अनच्" इत्युक्ते "न अच्" । स्वरात् परस्य यर्-वर्णस्य अग्रे स्वरः नास्ति चेत् विकल्पेन द्वित्वं भवति इत्यर्थः । यथा - ।
यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-
💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् /अच् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,/ए,ओ,ऐ,औ) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।
💐- कृष्णः" इत्यत्र अच्-प्रत्याहारे अन्तर्गते ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।
सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा 8|4|45 (अव्ययम्) , यरः 8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे 8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः 8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम् 8|2|1> संहितायाम् 8|2|108
सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम्
💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"
वृत्ति—
अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
👇
वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।
💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’)
★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’ ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
- शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)
- पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)
- मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)
- कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)
- सार + अंग = सारंग
- सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त
- हलस् + ईषा = हलीषा
- कुल + अटा = कुलटा
- _______________________
-★-अचोऽन्तयादि टि।। (1/1/64)
वृत्ति:- अचां मध्ये योऽन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।
जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच् पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है।यथा :-गौर+ यो इस विग्रह दशा में -गौर की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।💐↔
अयोगवाह-
अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...
वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क :ख :प :फ ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
व्यञ्जन-सन्धि का विधान
नियम-
नियम - पद( क्रिया पद आख्यातिक) अथवा नामिकपद के अन्त में अगर "ए" अथवा "ओ" हो और उसके परे 'अकार' हो तो उस अकार का लोप हो जाता है। लोप होने पर अकार का जो चिन्ह रहता है उसे ( ऽ ) 'लुप्ताकार' या 'अवग्रह' कहते हैं; वह लग जाता है ।पूर्वरूप संधि के उदाहरण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> कवे + अवेहि = कवेऽवेहि
- ए / ओ + अकार = ऽ --> प्रभो + अनुग्रहण = प्रभोऽनुग्रहण
- ए / ओ + अकार = ऽ --> लोको + अयम् = लोकोSयम्
- ए / ओ + अकार = ऽ --> हरे + अत्र = हरेSत्र
(यह सन्धि आयदि सन्धि का अपवाद भी होती है)।
धातु रूप -रौ + प्रत्यय रूप- अन् = रावण
धातु रूप - श्रौ + प्रत्यय रूप- अन् = श्रावण
धातु रूप - धौ + प्रत्यय रूप- अक: = धावक:
धातु रूप - पौ + प्रत्यय रूप- अन् = पावन
यहाँ दोनों पद हैं ।
१-तौ+आगच्छताम्=वे दोनों आयें।=तावागच्छताम् ______________________________
२-बालको + अवदत् -बालक बोला।
=बालकोऽवदत्
पूर्वरूप संधि के हरे+ ए=हरये(ए+ए) अ+इ=ए+ अ+इ वस्तुत: यहाँ गुण सन्धि का ही प्रभाव है ।
सौ+अन् =स्+अ+ (अ+व-ओ)+अन्= साव् +अन्-सावन यहाँ भी गुण सन्धि का ही प्रभाव है
पररूप सन्धि-एडि पररूपम्, संस्कृत व्याकरण--
पररूप संधि के नियम
नियम - यदि उपसर्ग के अन्त में"अ" अथवा "आ" हो और उसके परे 'एकार/ओकार' हो तो उस उपसर्ग के अ' आकार विलय निर्विकार रूप से क्रिया के आदि में होता है।पररूप संधि के उदाहरण
- प्र + एजते = प्रेजते
- उप + एषते = उपेषते
- परा + ओहति = परोहति
- प्र + ओषति = प्रोषति
- उप + एहि = उपेहि
प्रकृतिभाव-सन्धि-सूत्र –( ईदूदेेद् -द्विवचनम् प्रगृह्यम्)-
. प्रकृति भाव सन्धि –
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
सूत्र –( ईदूदेेद् द्विवचनम् प्रगृह्यम्)
ईकारान्त, ऊकारान्त, एकारान्त द्विवचन से परे कोई भी अच् हो तो वहां सन्धि नहीं होती।
- मुनी + इमौ = मुनीइमौ
- कवी + आगतौ = कवीआगतौ
- लते + इमे = लतेइमे
- विष्णू + इमौ = विष्णूइमौ
- अमू + अश्नीतः = अमूअश्नीतः
- कवी + आगच्छतः = कवीआगच्छतः
- नेत्रे + आमृशति = नेत्रेआमृशति
- वटू + उच्छलतः = वटूउच्छलतः
- स्वर संधि - अच् संधि
- दीर्घ संधि - अक: सवर्णे दीर्घ:
- गुण संधि - आद्गुण:
- वृद्धि संधि - वृद्धिरेचि
- यण् संधि - इकोऽयणचि
- अयादि संधि - एचोऽयवायाव:
- पूर्वरूप संधि - एडः पदान्तादति
- पररूप संधि - एडि पररूपम्
- प्रकृति भाव संधि - ईद्ऊद्ऐद द्विवचनम् प्रग्रह्यम्
💐★वृत्ति अनचि च 8|4|47
यर्(य,व,र,ञ्,म्,ङ्,ण्,न्,झ,भ,घ,ढ,ध,ज,ब,ग,ड,द,ख,फ,छ,ठ,थ,च,ट,त,क,प,श,ष,स) प्रत्याहार हो तो विकल्प से द्वित्व हो जाता है-
💐★-•परन्तु यदि यर् प्रत्याहार से परे अक् (अ,इ,उ,ऋ,लृ,) प्रत्याहार हो तो द्वित्व नहीं होता है।
💐- कृष्णः" इत्यत्र ऋकारात् परः यर्-वर्णः षकारः अस्ति । तस्मात् परः स्वरः नास्ति, अतः षकारस्य अनेन सूत्रेण विकल्पेन द्वित्वं भवितुं शक्यते । यथा - कृष्ष्णः ।
सूत्रच्छेदः—अनचि (सप्तम्येकवचनम्) , च (अव्ययम्)अनुवृत्तिःवा 8|4|45 (अव्ययम्) , यरः 8|4|45 (षष्ठ्येकवचनम्) , द्वे 8|4|46 (प्रथमाद्विवचनम्) , अचः 8|4|46 (पञ्चम्येकवचनम्)अधिकारःपूर्वत्रासिद्धम् 8|2|1> संहितायाम् 8|2|108
सम्पूर्णसूत्र-अचः यरः अनचि द्वे वा संहितायाम्
अत्र वार्त्तिकत्रयम् ज्ञातव्यम्
💐↔👇वान्तो यि प्रत्यय ।।6/1/79।। एचोऽयवायावो वान्तो यि प्रत्यय"
वृत्ति—
अर्थ:- यकार आदि प्रत्यय परेे होने पर (ओ' औ )के स्थान पर क्रमश: अव् और आव् आदेश हो जाता है।
जैसे गो+ यम् = गव्यम् । नौ+ यम् = नाव्यम्
👇
वृत्ति- अच: पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: ।गौर्य्यौ।
★-अर्थ-अच् ( स्वर) से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है-गौर्य्यौ।
💐↔टि-स(अपवाद)सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’)
★-•इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
सूत्र – (‘अचोऽन्त्यादि टि’ ) इसका अर्थ यह है कि पहले वर्ण समुदाय के अंत में जो अच् है, वह दूसरे वर्ण समुदाय की शुरुआत में होने पर उसका लोप (हटा दिया जाता है) हो जाता है।
- शक + अन्धु = शकन्धु (अ का लोप)
- पतत् + अञ्जलि = पतञ्जलि (अत् का लोप)
- मनस् + ईषा = मनीषा (अस् का लोप)
- कर्क + अन्धु = कर्कन्धु (अ का लोप)
- सार + अंग = सारंग
- सीमा + अन्त = सीमन्त / सीमान्त
- हलस् + ईषा = हलीषा
- कुल + अटा = कुलटा
- _______________________
-★-अचोऽन्तयादि टि।। (1/1/64)
वृत्ति:- अचां मध्ये योऽन्त्य: स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञं स्यात् ।
★•अर्थ :- अचों में जो अन्तिम अच् जिसके आदि में है उसकी टि संज्ञा होती है ।
जैसे - मनस् शब्द का नकार में संपृक्त अ है । यह यकार के पूर्व है अतएव अस् की टि संज्ञा प्रस्तुत सूत्र से होगी ।
अचो रहाभ्याम् द्वे ।।8/4/46 ।वृत्ति–अच् पराभ्यां रेफ हकाराभ्यां परस्य यस्य यरो द्वे वा स्त: । गौर्यौ ।आर्य्य ।।
👇↔ अच् ( स्वर)से परे जो रेफ या हकार हो उससे परे यर् को विकल्प से द्वित्व होता है।यथा :-गौर+ यो इस विग्रह दशा में -गौर की गौ में औ अच् है- तथा परे रेफ(र्) इससे परे यकार है- इसलिए यकार को विकल्प से द्वित्व होगा।द्वितीय पक्ष में गौर्+ य+र्यौ= गौर्य्यौ रूप बनेगा तथा द्वित्व के अभाव में गोर्यो रूप बनेगा।💐↔
अयोगवाह-
अक्षरसमाम्नायसूत्रेषु “अइउण्” इत्यादिषु चतुर्दशसु नास्ति योगः इति अयोग पाठादिरूपः संबन्धो येषां ते तथापि वाहयन्ति षत्वणत्वादिकार्य्यादिकं निष्पादयन्ति वाहेः अच् कर्म्मधारय अयोगवाहअनुस्वारो विसर्गश्च + कँपौ चैव पराश्रितौ । अयोगवाहाविज्ञेया” इति शिक्षाकृदुपदिष्टेषु अनुस्वारविसर्गादिषु ...
वह वर्ण जिनका पाठ अक्षरसमाम्नाय सूत्र में नहीं है । विशेषत:—ये किसी किसी के मत से अनुस्वार, विसर्ग जिह्वामूलीयस्य :क :ख :प :फ ये छै: वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
व्यञ्जन-सन्धि का विधान
व्यञ्जन सन्धि -
वर्ण हैं ।अनुस्वार विसर्ग के अतिरिक्त जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय भी अयोगवाह है ।
व्यञ्जन-सन्धि का विधान
व्यञ्जन सन्धि -
प्रतिपादन -💐↔👇
।शात् ८।४।४४ ।।
वृत्तिः-शात् परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्।।
विश्न: । प्रश्न।
व्याख्यायित :-शकार के परवर्ती तवर्ग के स्थान पर चवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह कि शकार (श् वर्ण) से परे तवर्ग ( त थ द ध न ) के स्थान पर स्तो: श्चुनाश्चु: से जो चवर्ग हो सकता है- वह इस सूत्र शात् के कारण नहीं होगा।
अत: यह सूत्र " श्चुत्वं विधि का अपवाद " है-।
__________________________________________
काशिका-वृत्तिः
शात् ८।४।४४
तोः इति वर्तते। शकारादुत्तरस्य तवर्गस्य यदुक्तं तन् न भवति। प्रश्नः। विश्नः।
न्यासः
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💐↔शात् ६३/ ८/४४३
"विश्नः, प्रश्नः" इति।
"विच्छ गतौ" (धा।पा।१४२३) "प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्()" (धा।पा।१४१३), पूर्ववन्नङ्(), "च्छ्वोः शूडनुनासिके च" ६।४।१९ इति च्छकारस्य शकारः। यद्यपि "प्रश्ने चासन्नकाले" ३।२।११७ इति निपतनादेव शात्परस्य तदर्गस्य चुत्वं न भवतीत्यैषोऽर्थो लभ्यते, तथापि मन्दधियां प्रतिपत्तिगौरवपरीहारार्थमिदमारभ्यते। अथ वा"अवाधकान्यपि निपातनानि भवन्ति"
(पु।प।वृ।१९) इत्युक्तम्()।
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यद्येतन्नारभ्यते, प्रश्ञः, विश्ञ इत्यपि रूपं सम्भाव्येत॥
यदि यह अपवाद नियम नहीं होता तो प्रश्न का रूप प्रश्ञः और विश्न का रूप विश्ञ होता
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लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
💐↔शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य चुत्वं न स्यात्। विश्नः। प्रश्नः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शात् ६३, ८।४।४३
शात्परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात् । विश्नः । प्रश्नः ।
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💐↔न पदान्ताट्टोरनाम् ।।8/4/42 ।।
वृत्ति:-पदान्ताट्टवर्गात्परस्या८नाम: स्तो: ष्टुर्न स्यात्।
पदान्त में टवर्ग होने पर भी ष्टुत्व सन्धि का विधान नहीं होता है ।👇
अर्थात् – पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
पदान्त का विपरीत धात्वान्त /मूल शब्दान्त है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम शब्द के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् "स" के स्थान पर "ष" और वर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा जैसे 👇
षट् सन्त: ।
षट् ते ।पदान्तात् किम् ईट्टे ।
टे: किम् ? सर्पिष्टम् ।
व्याख्या :- पद के अन्त में टवर्ग से नाम शब्द के नकार को छोड़कर अन्य सकार तथा तवर्ग को षकार तथा टवर्ग नहीं होता है ।
आशय यह है कि यदि पदान्त में टवर्ग आये तथा उसके परे नाम के नकार के अतिरिक्त सकार या तवर्ग आये तो उसके स्थान पर अर्थात् स के स्थान पर ष और तवर्ग के स्थान पर टवर्ग नहीं होगा ।
अर्थात् षट् नाम = "षण्णाम "तो हो जाएगा क्यों कि यह संज्ञा पद है।
प्रस्तुत सूत्र "ष्टुत्व सन्धि का अपवाद है " ।
यथा:-षट्+ सन्त: यहाँ पर पूर्व पदान्त में टवर्ग का "ट" है तथा इसके परे सकार होने से "ष्टुनाष्टु: सूत्र से ष्टुत्व प्राप्त था।
परन्तु प्रस्तुत सूत्र से उसे बाध कर ष्टुत्व कार्य निषेध कर दिया।
परिणाम स्वरूप "षट् सन्त:" रूप बना रहा।
अब यहाँ समस्या यह है कि वर्तमान सूत्र में पदान्त टवर्ग किस प्रयोजन से कहा ?
यदि टवर्ग मात्र कहते तो क्या प्रयोजन की सिद्धि नहीं थी।
इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि पदान्त न कहते तो (ईडते) ईट्टे :- मैं स्तुति करता हूँ। के प्रयोग में अशुद्धि हो जाती ।
ईड् + टे इस विग्रह अवस्था में ष्टुत्व का निषेध नहीं होता।और तकार को टकार होकर ईट्टे रूप बना यह क्रिया पद है।
एक अन्य तथ्य यह भी है कि इस सूत्र में तवर्ग का ग्रहण क्यों हुआ है
मात्रा न' पदान्तानाम् कहते तो क्या हानि थी? इसका समाधान यह है कि यदि टवर्ग का ग्रहण नहीं किया जाता तो पद के अन्त में षकार से परे भी स्तु को ष्ठु होने का निषेध हो जाता।
षट् षण्टरूप बन जाता ।
५:-अनाम्नवति नगरीणामिति वाच्यम्।।
वृत्ति -षष्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
काशिका-वृत्तिः
न पदान्ताट् टोरनाम् ८।४।४२
पदान्ताट् टवर्गादुत्तरस्य स्तोः ष्टुत्वं न भवति नाम् इत्येतद् वर्जयित्वा। श्वलिट् साये। मधुलिट् तरति। पदान्तातिति किम्? ईड स्तुतौ ईट्टे। टोः इति किम्? सर्पिष्टमम्। अनाम् इति किम्? षण्णाम्।
अत्यल्पम् इदम् उच्यते। अनाम्नवतिनगरीणाम् इति वक्तव्यम्। षण्णाम्। षण्णवतिः। षण्णगरी।
वृत्ति:-षष्णाम ।षष्णवति:।षण्णगर्य:।
व्याख्या:- पद के अन्त में तवर्ग से परे नाम ,नवति, और नगरी शब्दों के नकार को त्यागकर स ' तथा तवर्ग को षकार और टवर्ग हो ।
आशय यह कि पाणिनि मुनि ने 'न' पदान्ताट्टोरनाम् सूत्र में केवल नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से अलग किया गया था।
अत: नवति और नगरी शब्दों में ष्टुत्व निषेध प्राप्त होने से दोष पूर्ण सिद्धि होती थी ।
इस दोष का निवारण करने के लिए वार्तिक कार कात्यायन ने वार्तिक बनाया। कि नाम के नकार को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त नहीं करना चाहिए अपितु नवति और नगरी शब्दों को ही ष्टुत्व निषेध से मुक्त कर देना चाहिए अतएव नाम नवति और नगरी आदि शब्दों में तो ष्टुत्व विधि होनी चाहिए।
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(तो:षि- 8/4/53 )
तो: षि। 8/4/53 ।
वृत्ति:- तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ: यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है।इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा ।
"तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम् सन्,षष्ठ:
★-यह ष्टुत्व सन्धि विधायक सूत्र का बाधक है। इस लिए षण्षण्ठ नहीं होगा"
💐↔पूर्व सवर्ण सन्धि:- उद: परयो: स्थास्तम्भो: पूर्वस्य 8/4/61..
वृत्ति:- उद: परयो: स्थास्तम्भो पूर्वसवर्ण: ।
स्था और स्तम्भ को उद् उपसर्ग से परे हो जाने पर पूर्व- सवर्ण होता है।
उत् + स्थान = उत्थान ।
कपि + स्थ = कपित्थ ।
अश्व + स्थ =अश्वत्थ ।
तद् + स्थ = तत्थ ।
काशिका-वृत्तिः
उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ८।४।६१
सवर्णः इति वर्तते। उदः उत्तरयोः स्था स्तम्भ इत्येतयोः पूर्वसवर्णादेशो भवति। उत्थाता। उत्थातुम्। उत्थातव्यम्। स्तम्भेः खल्वपि उत्तम्भिता।
उत्तम्भितुम्। उत्तम्भितव्यम्। स्थास्तम्भोः इति किम्? उत्स्नाता।
उदः पूर्वसवर्नत्वे स्कन्देश् छन्दस्युपसङ्ख्यानम्।
अग्ने दूरम् उत्कन्दः।
रोगे च इति वक्तव्यम्। उत्कन्दको नाम रोगः। कन्दतेर् वा धात्वन्तरस्य एतद् रूपम्।
काशिका-वृत्तिः
काशिका-वृत्तिः
झयो हो ऽन्यतरस्याम् ८।४।६२
झयः उत्तरस्य पूर्वसवर्णादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाग्घसति, वाघसति। स्वलिड् ढसति, श्वलिड् हसति। अग्निचिद् धसत्। अग्निचिद् हसति। सोमसुद् धसति, सोमसुद् हसति। त्रिष्टुब् भसति, त्रिष्टुब् हसति। झयः इति किम्? प्राङ् हसति। भवान् हसति।
न्यासः
झयो होऽन्यतरस्याम्?। , ८।४।६१
"वाग्धसति" इत्यादावुदाहरणे हकारस्य महाप्राणस्यान्तरतम्यात्? तादृश एव घकारादयो वर्गचतुर्था भवन्ति। अन्यतरस्यांग्रहणं पूर्वविध्योर्नित्यत्वज्ञापनार्थम्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः। नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्गचतुर्थः। वाग्घरिः, वाघरिः॥
सिद्धान्त-कौमुदी
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
★-झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, ८।४।६१
झयः परस्य हस्य पूर्वसवर्णो वा स्यात् । घोषवति नादवतो महाप्राणस्य संवृतकण्ठस्य हस्य तादृशो वर्गचतुर्थं एवादेशः । वाग्घरिः । वाग्घरिः ।।
अर्थात् झयो होऽन्यतरस्याम् ७५, (८।४।६१)
वृत्ति:- झय: परस्य हस्य वा पूर्व सवर्ण:
नादस्य घोषस्य संवारस्य महाप्राणस्य तादृशो वर्ग चतुर्थ:
वाग्घरि : वाग्हरि:।
व्याख्या:- झय् (झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प् ) प्रत्याहार के वर्ण के पश्चात यदि 'ह' वर्ण आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण आदेश हो जाता है ।उसका आशय यह है कि यदि वर्ग का प्रथम , द्वितीय ,तृत्तीय , तथा चतुर्थ वर्ण के बाद 'ह'
आये तो उसके स्थान पर विकल्प से पूर्व सवर्ण हो जाता है । अर्थात् गुणकृत यत्नों के सादृश्य से समान आदेश होगा।
यह पूर्व सवर्ण विधायक सूत्र है यथा–वाक् +'हरि : इस दशा में 'झलांजशो८न्ते' सूत्र से ककार को गकार जश् हुआ तब वाग् + 'हरि रूप बनेगा। फिर झयो होऽन्यतरस्याम् सूत्र से वाघरि रूप बना।
काशिका-वृत्तिः
शश्छोऽटि ८।४।६३
झयः इति वर्तते, अन्यतरस्याम् इति च। झय उत्तरस्य शकारस्य अटि परतः छकरादेशो भवति अन्यतरस्याम्। वाक् छेते, वाक् शेते। अग्निचिच् छेते, अग्निचित् शेते। सोमसुच् छेते, सोमसुत् शेते। श्वलिट् छेते, श्वलिट् शेते। त्रिष्टुप् छेते, त्रिष्टुप् शेते। छत्वममि इति वक्तव्यन्। किं प्रयोजनम्? तच्छ्लोकेन, तच्छ्मश्रुणा इत्येवम् अर्थम्।
न्यासः
__________________________________________
↔💐↔शश्छोऽटि। , ८।४।६२( छत्व सन्धि )
वृत्ति:- झय: परस्य शस्य छो वा८टि।
तद् + शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य टकार :-
तच्छिव: तश्चिव:।
व्याख्या:-झय् ( झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् व् क् प ) के वर्ण से परे यदि शकार आये तथा उससे भी परे अट्( अ इ उ ऋ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र )
प्रत्याहार आये तो विकल्प से शकार को छकार हो जाता है अर्थात् शर्त यह है कि पदान्त झय् प्रत्याहार वर्ण से परे शकार आये तो उसे विकल्प से छकार हो जाएगा यदि अट् परेे होगा तब ।
प्रयोग:- यह सूत्र छत्व सन्धि का विधायक सूत्र है यथा तद् + शिव = तच्छिव तद् + शिव इस विग्रह अवस्था में सर्वप्रथम "स्तो: श्चुना श्चु:" सूत्र प्रवृत्त होता है – तज् +शिव:।तत्पश्चात "खरि च" सूत्र प्रवृत्त होता है तथा शकार से भी परे अट् "इ" है ।
अतएव प्रस्तुत सूत्र द्वारा विकल्प से शकार को छकार हो जाएगा। तद्+ शिव =तच्छिव ।विकल्प भाव में तच्शिव: रूप बनेगा।
इसी सन्दर्भों में कात्यायन ने एक वार्तिक पूरक के रूप में जोड़ा है
" छत्वममीति वाच्यम्( वार्तिक)"
वृत्ति:- तच्छलोकेन।
व्याख्या:-यह वार्तिक है इसका आशय है कि पदान्त झय् प्रत्याहार के वर्ण से परे शकार को छकार अट् प्रत्याहार परे होने की अपेक्षा अम् प्रत्याहार ( अ,इ,उ,ऋ,ऌ,ए,ओ,ऐ,औ,ह,य,व,र,ल,ञ् म् ड्• ण् न् ) परे होने पर छत्व होना चाहिए
पाणिनि मुनि द्वारा कथित "शश्छोऽटि" सूत्र से तच्छलोकेन आदि की सिद्धि नहीं हो कही थी अतएव इनकी सिद्धि के लिए कात्यायन ने यह वार्तिक बनाया।
प्रयोग:- यह सूत्र पूरक सूत्र है । इसके द्वारा पाणिनि द्वारा छूटे शब्दों की सिद्धि की जाती है ।
"छत्वममीति धक्तव्यण्()" इति। अमि परतश्छत्वं भवतीत्येतदर्थरूपं व्याख्येयमित्यर्थः। तत्रेदं व्याख्यानम्()--"शश्छः" इति योगविभागः क्रियते, तेनाट्प्रत्याहारेऽसन्निविष्टे लकारादावपि भविष्यति, अतोऽटीत्यतिप्रसङ्गनिरासार्थो द्वितीयो योगः--तेनाट()एव परभूते, नान्यनेति। योगवभागकरणसामथ्र्याच्चाम्प्रत्याहारान्तर्गतेऽनट()दि क्वचिद्भवत्येव। अन्यथा योगविभागकरणमनर्थकं स्यात्()। अमीति नोक्तम्(), वैचित्र्यार्थम्()। अत्र "वा पदान्तस्य" ८।४।५८ इत्यतः पदान्तग्रहणमनुवत्र्तते, झयो विशेषणार्थम्()। तेन "शि तुक्()" ८।३।३१ इत्यत्र तुकः पूर्वान्तकरणं छत्वार्थमुपपन्नं भवति; "डः सि धुट्()" (८।३।२९) इत्यतो धुङ्ग्रहणानुवृत्तेः परस्या सिद्धत्वात्? पूर्वान्तकरणमनर्थकं स्यात्()॥
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी-
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
झयः परस्य शस्य छो वाटि। तद् शिव इत्यत्र दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते खरि चेति जकारस्य चकारः। तच्छिवः, तच्शिवः। (छत्वममीति वाच्यम्) तच्छ्लोकेन॥
सिद्धान्त-कौमुदी
शश्छोऽटि ७६, ८।४।६२
पदान्ताज्झयः परस्य शस्य छो वा स्यादटि । दस्य श्चुत्वेन जकारे कृते--।
बाल-मनोरमा
शश्छोऽटि १२१, ८।४।६२
शश्छोऽटि। "झय" इति पञ्चम्यन्तमनुवर्तते। "श" इति षष्ठ()एकवचनम्। तदाह--झयः परस्येति। "तद्-शिव" इति स्थिते दकारस्य चुत्वेन जकारे कृते जकारस्य चकार इत्यन्वयः।
तत्त्व-बोधिनी
शाश्छोऽटि ९६, ८।४।६२
शाश्छोऽटि। इह पदान्तादित्यनुवत्र्य "पदान्ताज्झय" इति व्याख्येयम्, तेनेह न, "मध्वश्चोतन्त्यभितो विरप्शम्"। विपूर्वाद्रपेरौणादिकः शः।
छत्वममीति। "शश्छोऽटी"ति सूत्रं "शश्छोऽमी"ति पठनीयमित्यर्थः। तच्छ्लोकेनेति। "तच्छ्मश्रुणे"त्याद्यप्युदाहर्तव्यम्॥
काशिका-वृत्तिः
__________________________________
★-मो राजि समः क्वौ ८।३।२५।
मो राजि समः क्वौ ८।३।२५
वृत्ति:- क्विवन्ते राजतौ परे समो मस्य म एव स्यात् ।
राज+ क्विप् = राज् ।
सम् के मकार को मकार ही होता है यदि क्विप् प्रत्ययान्त राज् परे होता है ।आशय यह कि अनुस्वारः नहीं होता ।
प्रयोग:- यह अनुस्वार का निषेध करता है- अतएव अपवाद सूत्र है ।यथा सम्+ राट् = यहाँ सम के मकार को को क्विप् प्रत्ययान्त राज् धातु का राट् है अतएव अनुस्वार नहीं होगा तथा सम्राट् रूप बनेगा ।
वस्तुत राज् का राड् तथा राट् रूप राज् के "र" वर्ण का संक्रमण रूप है ।
समो मकारस्य मकारः आदेशो भवति राजतौ क्विप्प्रत्ययान्ते परतः। सम्राट्। साम्राज्यम्। मकारस्य मकारवचनम् अनुस्वारनिवृत्त्यर्थम्। राजि इति किम्? संयत्। समः इति किम्? किंराट्। क्वौ इति किम्? संराजिता। संराजितुम्। संराजितव्यम्।
खरवसानयोर्विसर्जनीय: 8/3/15
वृत्ति:-खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या :- पद के अन्त में "र" वर्ण ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों "र" हो तथा उससे परे "खर" प्रत्याहार का वर्ण हो अथवा "र" ही पदान्त हो तो दौनों स्थितियों में "र" वर्ण को विसर्ग हो जाता है;यथा संर + स्कर्त्ता =सं : स्कर्त्ता : ।
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💐↔षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) 'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न कोई। स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है
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परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है
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💐↔षत्व विधान सन्धिइक्कु हयण्सि षत्व :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद ' कु( कखगघड•) ह तथा यण्प्रत्याहार के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न किसी स्वर 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्' के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
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शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।
'हरि+ सु = हरिषु । भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु ।
:- परन्तु आ स्वरों के बाद 'स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है ।
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💐↔णत्व विधान सन्धि
:- रषऋनि नस्य णत्वम भवति। अर्थात् मूर्धन्य टवर्गीय रषऋ से परे 'न' वर्ण हो तो 'न'वर्ण का 'ण वर्ण हो जाता है।
यदि र ष और ऋ तथा न के बीच में स्वर कवर्ग पवर्ग य् व् र् ल् और ह् और अनुस्वार भी आ जाए तो भी 'न ' को 'ण'' हो जाता है । जैसे रामे + न = रामेण । मृगे+ न = मृगेण ।
परन्तु पद के अन्त वाले 'न'को ण नहीं होता है ।जैसे रिपून् ।रामान्। गुरून्। इत्यादि ।
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💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
💐↔विसर्ग सन्धि के विधान :-
यदि विसर्ग के बाद "क" "ख" "प" "फ" वर्ण आऐं
तो विसर्गों (:) के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है ।
अर्थात् विसर्ग यथावत् ही रहते हैं । क्यों कि इन वर्गो के सकार नहीं होते हैं -
परन्तु इण्को: सूत्र कुछ सन्धियों में षकार हो जाता है ।
जैसे-
कवि: + खादति = कवि: खादति ।
बालक: + पतति = बालक: पतति ।
गुरु : + पाठयति = गुरु: पाठयति ।
वृक्ष: + फलति = वृक्ष: फलति । मन:+ कामना=मन: कामना।
यदि विसर्ग से पहले "अ " स्वर हो और विसर्ग के बाद भी "अ" स्वर वर्ण हो । विसर्ग के स्थान पर 'ओ' हो जाता है।यह पूर्वरूप सन्धि विधायक सूत्र है
इसमें "अ" स्वर वर्ण के स्थान पर प्रश्लेष(ऽं अथवा ८ ) का चिह्न लगाते हैं ।।
बाल: + अस्ति = __ ।
मूर्ख: + अपि = मूर्खो८पि।
शिव: + अर्च्य: =शिवो८र्च्य: ।
क: +अपि = को८पि ।
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खरवसानयोर्विसर्जनीय: ।।08/03/15।।
खरि अवसाने च पदान्तस्य रेफस्य विसर्ग: ।
व्याख्या -
पदस्य अन्तिम 'र्'कारस्य अनन्तरं खर् (वर्गणां 1, 2, श, ष, स) वर्णा: भवन्तु अथवा अवसानं (किमपि न) भवतु चेत् 'र्'कारस्य विसर्ग: (:) भवति ।
वार्तिकम् - संपुकानां सो वक्तव्य: ।।
व्याख्या - सम्, पुम्, कान् च शब्दानां विसर्गस्य स्थाने 'स्'कार: भवति ।
उदाहरणम् -
सम् + स्कर्ता = संस्स्कर्ता (सँस्स्कर्ता) ।।
हिन्दी -
सम्, पुम् और कान् शब्दों के विसर्ग के स्थान पर 'स्'कार होता है ।
इति
💐↔
विसर्गस्यलोप -💐↔विसर्ग का लोप ।
-विसर्गस्यलोप - परन्तु यदि विसर्ग से पहले "अ" स्वर वर्ण हो और विसर्ग के बाद "अ" स्वर वर्ण के अतिरिक्त कोई भी अन्य स्वर ( आ, इ,ई,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ,) हो तो विसर्गों का सन्धि करने पर लोप हो जाता है ।
जैसे-•
सूर्य: + आगच्छति = सूर्य आगच्छति।
बालक: + आयाति = बालक आयाति।
चन्द्र: + उदेति = चन्द्र उदेति।
💐↔यदि विसर्गों के पूर्व "अ" हो और बाद में किसी वर्ग का तीसरा ,चौथा व पाँचवाँ वर्ण अथवा अन्त:स्थ वर्ण ( य,र,ल,व) अथवा 'ह' वर्ण हो तो पूर्व वर्ती "अ" और विसर्ग से मिलकर 'ओ' बन जाता है। जैसे 👇
बाल:+ गच्छति = बालोगच्छति।
श्याम:+ गच्छति। = श्यामोगच्छति।
मूर्ख: + याति = मूर्खो याति।
धूर्त: + हसति = धूर्तो हसति।
कृष्ण: + नमति =कृष्णो नमति।
लोक: + रुदति= लोको रुदति।
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💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व 'आ' और बाद में कोई स्वर वर्ण.(अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )अथवा वर्ग का तीसरा, चौथा व पाँचवाँ वर्ण और कोई अन्त:स्थ (य,र,ल,व)अथवा'ह'वर्ण हो तो विसर्गों का लोप हो जाता है।
जैसे- 👇
पुरुषा: +आयान्ति = पुरुषा आयान्ति।
बालका: + गच्छन्ति = बालका गच्छन्ति।
नरा: + नमन्ति =नरा नमन्ति।
विशेष:-देवा:+अवन्ति= देवा अवन्ति फिर पूर्वरूप देवा८वन्ति रूप-
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💐↔परन्तु यदि विसर्गों से पूर्व ( 'इ' 'ई ' उ ' ऊ 'ऋ 'ऋृ 'ए ' ऐ 'ओ 'औ ')आदि में से कोई स्वर हो और विसर्ग के बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा व पाँचवाँ अथवा कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ (य,र,ल,व ) अथवा 'ह' महाप्राण वर्ण हो तो विसर्ग का ( र् ) वर्ण बन जाता है।
यदि "अ"तथा "आ" स्वरों को छोड़कर कोई अन्य स्वर -(इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ऋृ,ऌ,ए,ऐ,ओ,औ )के पश्चात् विसर्ग(:)हो तथा विसर्ग के पश्चात कोई भी स्वर(अ,आ,इ,ई,उ,ऋ,ऋृ,ऌ,ऊ,ए,ऐओ,औ) अथवा कोई वर्ग का तीसरा,चौथा,-(झ-भ-घ-ढ-ध) पाँचवाँ वर्ण-(ञ-म-ङ-ण-न) अथवा कोई अन्त:स्थ-(य-र-ल-व) और "ह" वर्ण हो तो विसर्ग का रेफ(र्) हो जाता है । और सजुष् शब्द के ष् वर्ण का र् (रेफ)वर्ण हो जाता है। यह नियम "ससजुषोरु:" सूत्र का विधायक है ।
'हरि: + आगच्छति = हरिरागच्छति। (हरिष्+)
कवि: + गच्छति = कविर्गच्छति। (कविष्+)
गुरो: + आदेश: = गुरोरादेश: । (गुरोष्+)
गौष्+इयम्=गौरियम्। (गौर्+)
हरे:+ दर्शनम्।=हरेर्दर्शनम्। (हरेष्+)
पितुष्+आज्ञया=पितुराज्ञया।(पितु:+)
दुष्+लभ्।=दुर्लभ। (दु:+)
नि:+जन:=निर्जन: ।( निष्+जन:)
निष् +दय:=निर्दय:।(नि:)
दुष्+आराध्य:=दुराराध्य:।
निष्+आश्रित:=निराश्रित:।
कविष्+हसति=कविर्हसति।
मुनिष्+आगत:=मुनिरागत:।
मुनिष्+इव=मुनिरिव।
प्रभोष्+आज्ञा=प्रभोराज्ञा।
विधेष्+आज्ञा=विधेराज्ञा।
रवेष्+दर्शनम्=रवेर्दर्शनम्।
इन्दोष्+उदय:=इन्दोरुदय।
तयोष्+आज्ञा=तयोराज्ञा।
धेनुष्+एषा =धेनुरेषा।
हरिष् +याति=हरिर्याति।
कविष्+अयम् =कविरयम्।
मन:+ कामना= मनस्कामना।
पुर:+ कार= पुरस्कार ।
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विशेष-इण् -
(इण्= | इ , उ, ऋ , लृ , ए , ओ , ऐ , औ,ह्, य्,व, र्, ल्) |
कु(क,ख,ग,घ,ङ्,)से परे "सकार" का "षकार" आदेश हो जाता है इण्को:आदेशप्रत्ययो:८/३५७/५९) इण्को (८-३-५७)-आदेशप्रत्ययो: (८-३-५९) । तस्मात् इण्को परस्य (१) अपदान्तस्य आदेशस्य (२) प्रत्यय अवयवश्च "स: स्थाने मूर्धन्य " आदेश: भवति।(सिद्धान्त कौमुदी)
इण्को: ।५७। वि०-इण्को:५।१। स० इण् च कुश्च एतयो: समाहार:-इण्कु तस्मात् -इण्को: (समाहारद्वन्द्व:)।
संस्कृत-अर्थ-इण्कोरित्यधिकारो८यम् आपादपरिसमाप्ते:।इतो८ग्रे यद् वक्ष्यति इण: कवर्गाच्च परं तद् भवतीति वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति आदेशप्रत्ययो: ८/३/५९/इति उदाहरण :- सिषेव ।सुष्वाप। अग्निषु। वायुषु। कर्तृषु ।गीर्षु ।धूर्षु ।वाक्षु ।त्वक्षु ।
हिन्दी अर्थ:- इण्को: इण् कु- (क'ख'ग'घ'ड॒॰)तृतीय पाद की समाप्ति पर्यन्त पाणिनि मुनि इससे आगे और परे जो कहेंगे वह इण् और कवर्ग से परे होता है ऐसा जानें जैसाकि आचार्य पाणिनि कहेंगे आदेशप्रत्ययो:८/३/५९/ इण् और कवर्ग से परे आदेश और प्रत्यय के सकार का मूर्धन्य षकार हो जाता है ।
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पूर्वम्: ८।२।६५अनन्तरम्: ८।२।६७
प्रथमावृत्तिः
सूत्रम्॥ ससजुषो रुः॥ ८।२।६६
पदच्छेदः॥ स-सजुषोः ६।२ रुः १।१ पदस्य ६।१ ८।१।१६
समासः॥
सश्च सजुष च स-सजुषौ तयोः ॰ इतरेतरद्वन्द्वः
अर्थः॥
स-कारान्तस्य पदस्य सजुष् इत्येतस्य च रुः भवति
उदाहरणम्॥
सकारान्तस्य - अग्निरत्र, वायुरत्र। सजुषः - सजूरृषिभिः, सजूर्देवेभिः।
काशिका-वृत्तिः
ससजुषो रुः ८।२।६६
सकारान्तस्य पदस्य सजुषित्येतस्य च रुः भवति। सकारान्तस्य अग्निरत्र। वायुरत्र।
सजुषः सजूरृतुभिः। सजूर्देवेभिः। जुषेः क्विपि सपूर्वस्य रुपम् एतत्।
लघु-सिद्धान्त-कौमुदी
समजुषो रुः १०५, ८।२।६६
पदान्तस्य सस्य सजुषश्च रुः स्यात्॥
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः।
न्यासः
ससजुषो रुः। , ८।२।६६
"सजूः" इति। "जुषी प्रीतिसेवनयोः" (धा।पा।१२८८), सह जषत इति क्विप्(), उपपदसमासः, "सहस्य सः संज्ञायाम्()" ६।३।७७ इति सभावः।
रुत्वे कृते "र्वोरुपधायाः" ८।२।७६ इति दीर्घः। सजुवो ग्रहणमसकारान्तार्थम्()। योगश्चायं जश्त्वापवादः॥
बाल-मनोरमा
ससजुषो रुः १६१, ८।२।६६
ससजुषो रुः। ससजुषो रु रिति छेदः। "रो रि"इति रेफलोपः।
सश्च सजूश्च ससजुषौ, तयोरिति विग्रहः। रुविधौ उकार इत्।
तत्फलं त्वनुपदमेव वक्ष्यते। "स" इति सकारो विविक्षितः।
अकार उच्चारणार्थः। पदस्येत्यधिकृतं सकारेण सजुष्शह्देन च विशेष्यते। ततस्त दन्तविधिः।
सकारान्तं सजुष्()शब्दान्तं च यत् पदं तस्य रुः स्यादित्यर्थः।
सच "अलोऽन्त्ये"त्यन्त्यस्य भवति।
तत्फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति।
सजुष्()शब्दस्य चेति। सजुष्शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य । ततश्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्()शब्दान्तं यत् पदं तदन्तस्य षकारस्येत्यर्थः। ततस्च सजुषौ सजुष इत्यत्र षकारस्य न रुत्वम्, पदान्तत्वाभावात्। "सजुष्शब्दान्तं यत्पद"मिति तदन्तविधिना परमसजूरित्यत्र नाव्याप्तिः।
न च सजूरित्यत्राव्याप्तिः शङ्क्या, व्यपदेशिवद्भावेन तदन्तत्वात्।
व्यपदेशिवद्भावो।ञप्रातिपदिकेन" इति "ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिर्न" इति च पारिभाषाद्वयं "प्रत्ययग्रहणे यस्मा"दितिविषयं, नतु येन विधिरितिविषयमिति "असमासे निष्कादिभ्यः" इति सूत्रे भाष्ये स्पष्टम्। ननु शिवसिति सकारस्य "झलाञ्जशोन्ते" इति जश्त्वेन दकारः स्यात्, जश्त्वं प्रति रुत्वस्य परत्वेऽपि असिद्धत्वादित्यत आह--जश्त्वापवाद इति। तथा च रुत्वस्य निरवकाशत्वान्नासिदधत्वमिति भावः। तदुक्तं भाष्ये "पूर्वत्रासिद्धे नास्ति विप्रतिषेधोऽभावादुत्तरस्ये"ति , "अपवादो वचनप्रामाण्यादि"ति च।
तत्त्व-वोधिनी
ससजुषो रुः १३२, ८।२।६६
ससजुषो रुः। "पदस्ये"त्यनुवृतं ससजूभ्र्यां विशेष्यते, विशेषणेन तदन्तविधिः। न च सजूःशब्दांशे "ग्रहणवता प्रतिपदिकेन तदन्तविधिर्ने"ति निषेधः शङ्क्यः, तस्य प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। सान्तं सजुष्शब्दान्तं च यत्पदं तस्य रुः स्यात्स चाऽलोन्त्यस्य। एवं स्थिते फलितमाह-पदान्तस्य सस्येति। सजुष्शब्दस्येति।
तदन्तस्य पदस्येत्यर्थः। तेन "सुजुषौ" "सजुष" इत्यत्रापि नातिव्याप्तिः। नच "सजू"रित्यत्राऽव्याप्तिः, "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिदिकेने"ति निषेधादिति वाच्यं, तस्यापि प्रत्ययविधिविषयकत्वात्। अतएव "व्यपदेशिवद्भावोऽप्रातिपदिकेने"ति "ग्रहणवते"ति च परिभाषाद्वयमपि प्रत्ययविधिविषयकमिति "दिव उ"त्सूत्रे हरदत्तेनोक्तम्। कैयटहरदत्ताभ्यामिति तु मनोरमायां स्थितम्। तत्र कैयटेनानुक्तत्वात्कैयटग्रहणं प्रमादपतिततमिति नव्याः। केचित्तु "दिव उ"त्सूत्रं यस्मिन्निति बहुव्रीहिरयं, सूत्रसमुदायश्चान्यपदार्थः। तथाच "दिव उ"त्सूत्रशब्देन "द्वन्द्वे चे"ति सूत्रस्यापि क्रोटीकारात्तत्र च कैयटेनोक्तत्वान्नोक्तदोष इति कुकविकृतिवत्क्लेशेन मनोरमां समर्थयन्ते।
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अधुना अपवादत्रयं वक्तव्यम्—
१. रेफान्तानि अव्ययानि
प्रातः इच्छति → प्रात इच्छति = दोषः
“प्रात इच्छति" तु अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम् अनुसृत्य भवति स्म, परन्तु अत्र दोषः |
प्रातः इच्छति → प्रातरिच्छति = साधु
अत्र नियमः यत् यत्र रेफान्तानि अव्ययानि सन्ति, तत्र केवलं भाट्टसूत्रेषु प्रथमसूत्रं कार्यं करोति |
अन्यत्र सर्वत्र रेफः एव आदिष्टः |
अतः रेफान्त-अव्ययानां कृते सूत्राणि २ -५ इत्येषां स्थाने रेफः एव भवति |
प्रातः तिष्ठति → प्रातस्तिष्ठति = साधु
इदं उदाहरणं प्रथमसूत्रेण (विसर्जनीयस्य सः खरि कखपफे तु विसर्गः इत्यनेन) प्रवर्तते; अन्यत्र सर्वत्र रेफः |
अव्ययस्य अन्ते विसर्गः अस्ति चेत्, तस्य अव्ययस्य प्रातिपदिकं ज्ञेयम् | रेफान्तं प्रातिपदिकम् अस्ति चेत्, तर्हि तद् अव्ययम् अपवादभूतम् अस्ति इति धेयम् |
यथा प्रातः इत्यस्य प्रातिपदिकं प्रातर्; पुनः इत्यस्य प्रातिपदिकं पुनर्; अन्तः इत्यस्य प्रातिपदिकम् अन्तर् | इमानि अव्ययानि रेफान्तानि अतः अपवादभूतानि | परन्तु प्रातिपदिकं रेफान्तं नास्ति चेत्, तर्हि सामान्यैः सूत्रैः क्रमः प्रवर्तते | यथा "अतः" रेफान्तं नास्ति |
अतः इच्छति → "अतरिच्छति" = दोषः
अतः इच्छति → अत इच्छति = साधु (अतः परस्य विसर्जनीयस्य आचि लोपः इति सूत्रम्)
____________________
२- एषः सः
सः तिष्ठति → सस्तिष्ठति = दोष:
एषः सः इति द्वि पदे विशेषे | तयोः कृते चतुर्थसूत्रेण अति उत्वं भवति | अन्यत्र सर्वत्र लोप एव |
सः तिष्ठति → स तिष्ठति = साधु
अतः पञ्चमे सोपाने यथा बालः इत्यादयः लघु-अकारान्तशब्दाः, एषः-सः इति द्वयोरपि अत्र विसर्गलोपः
एषः इच्छति → एष इच्छति*
एषः आगच्छति → एष आगच्छति*
*यथा पञ्चमे सोपाने, अत्रापि अन्यः विकल्पः अस्ति 'एषयिच्छति', 'एषयागच्छति' |
भोभगोअघोअपूर्वस्य योशि (८.३.१७), लोपः शाकल्यस्य (८.३.१९) इति सूत्राभ्याम् | अयं विकल्पः विरलतया उपयुज्यते |
धेयं यत् एषः सः इति द्वयोः पदयोः कृते अतः परस्य विसर्जनीयस्य अति हशि च उत्वम् इति सूत्रेण अति उत्वं भवति, परन्तु हशि उत्वं न भवति अपि तु लोप एव |
सः गच्छति → सो गच्छति = दोषः
सः गच्छति → स गच्छति = साधु
अत् परे अस्ति चेत्, तर्हि अति उत्वं भवति—
सः अपि → सोऽपि = साधु
'सः एषः' इति यथा, तथा 'यः' नास्ति | 'यः' इति शब्दस्य यथासामान्यं भाट्टसूत्रेषु सूत्र-१,४,५ इत्येषां साधारणरूपाणि | यस्तिष्ठति | यो गच्छति | य इच्छति |
____________________
३. रेफः + रेफः = पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च
हरिः रमते → हरिर्रमते = दोषः
रेफस्य रेफे परे पूर्वदीर्घत्वं रेफलोपः च | उदाहरणे, पूर्वं यः इकारः अस्ति, तस्य दीर्घत्वं भवति | इ → ई इति |
हरिः रमते → इचः परस्य विसर्जनीयस्य रेफः अखरि इत्यनेन → हरिर् + रमते → रेफस्य लोपः, पूर्वदीर्घत्वम् → हरी + रमते → हरीरमते |
तथैव पुनः रमते → रेफान्तम् अव्ययम् अतः विसर्गसन्धौ रेफादेशः → पुनर् + रमते → पुना + रमते → पुनारमते |
पुनः रेफान्तम् अव्ययम् अतः अत्रापि रेफः आयाति; रेफस्य रेफे परे रेफलोपः पूर्वदीर्घत्वं च इति धेयम् |
इति विसर्गसन्धेः समग्रं चिन्तनम् समाप्तम् | इदं च लौकिकं चिन्तनं, व्यावहारिकं चिन्तन्तम् | सम्प्रति यावत् परिशीलितं व्यवहारे, तत् शास्त्रीयरीत्या कथं सिध्यति इति जानीयाम |
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ आए तथा बाद में भिन्न स्वर या कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग का लोप (हट जाना) हो जाता है।
- रामः + इच्छति = रामिच्छन्ति
- सुतः + एव = सुतेव
- सूर्यः + उदयति = सूर्युदयति
- अर्जुनः + उवाच्च = अर्जुनुवाच्च
- नराः + ददन्ति = नराददन्ति
- देवाः + अत् = देवात्
- ____________________
सूत्र – ससजुषोरूः
यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ अथवा ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर हो वह बाद में कोई स्वर या घोष वर्ण हो तो विसर्ग ‘र’ में परिवर्तित हो जाता है।
- मुनिः + अत्र = मुनिरत्र
- रविः + उदेति = रविरुदेति
- निः + बलः = निर्बलः
- कविः + याति = कविर्याति
- धेनुः + गच्छति = धेनुर्गच्छति
- नौरियम् = नौः + इयम्
- गौरयम् = गौ + अयम्
- श्रीरेषा = श्रीः + ऐसा
4. सूत्र – रोरि
यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो स्वर हो वह दीर्घ स्वर में परिवर्तित हो जाता है।
- निर् + रसः = नीरसः
- निर् + रवः = नीरवः
- निर् + रजः = नीरजः
- प्रातारमते = प्रातर् + रमते
- गिरीरम्य = गिरिर् + रम्य
- अंताराष्ट्रीय = अंतर् + राष्ट्रीय
- शिशूरोदिति = शिशुर् + रोदिति
- हरीरक्षति = हरिर् + रक्षति
- ____________________
5. सूत्र- ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः
रेफाकार अथाव ढ़कार से परे यदि ढ़कार और रेफाकार हो तो पूर्व ढ़कार से पहले वाला अण्-(अइउ) स्वर दीर्घ हो जाता है तथा पूर्व ‘ढ़्’ का लोप हो जाता है।
- लिढ़् + ढः = लीढ़ः
- लिढ़् + ढ़ाम् = लीढ़ाम्
- अलिढ़् + ढ़ः = अलीढ़ः
- लिढ़् + ढ़ेः = लीढ़ेः
6. सूत्र- विसर्जनीयस्य स
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर हो तथा बाद में
- च या छ हो तो विसर्ग ‘श’ में परिवर्तित हो जाता है।
- त या थ हो तो विसर्ग ‘स’ में परिवर्तित हो जाता है।
- ट या ठ हो तो विसर्ग ‘ष’ में परिवर्तित हो जाता है।
- कः + चौरः = कश्चौरः
- बालकः + चलति = बालकश्चलति
- कः + छात्रः = कश्छात्रः
- रामः + टीकते = रामष्टीकते
- धनुः + टंकारः = धनुष्टंकारः
- मनः + तापः = मनस्तापः
- नमः + ते = नमस्ते
- रामः + तरति = रामस्तरति
- पदार्थाः + सप्त = पदार्थास्सप्त
7. सूत्र- वाशरि
यदि विसर्ग से पहले कोई स्वर है और बाद में शर् हो तो विकल्प से विसर्ग, विसर्ग ही रहता है।
- दुः + शासन = दुःशासन/ दुश्शासन
- बालः + शेते = बालःशेते/ बालश्शेते
- देवः + षष्ठः = देवःषष्ठः/ देवष्षष्ठः
- प्रथर्मः + सर्गः = प्रथर्मःसर्ग/ प्रथर्मस्सर्गः
- निः + सन्देह = निःसंदेह/ निस्सन्दह
____________________________________
एष: और स: के विसर्ग का नियम-💐↔
एष: और स: के विसर्ग का नियम – एष: और स: के विसर्गों का लोप हो जाता है यदि इन विसर्गों के बाद कोई व्यञ्जन वर्ण जैसेेे. :-
स: + कथयति = स कथयति।
एष: + क:= एष क:।
_______________
नियम-र्(अथवा) विसर्ग (:) के स्थान पर र् के पश्चात यदि र् आता है तो प्रथम र् का लोप होकर उस र् से पूर्व आने वाले स्वर - (अइउ) की दीर्घ हो जाता है।
है |
💐↔"रोरि" सन्धि–,ढ्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽण:"
: – अर्थ:- "र से र' वर्ण परे होने पर पूर्व 'र लोप होकर(अ,इ,उ) स्वरों का दीर्घ स्वर हो जाता है।
यदि विसर्ग के बाद र् आता है तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग का लोप हो जाने के कारण उससे पहले आने वाले ( अ , इ, उ, का दीर्घ रूप आ,ई,ऊ हो जाता है।
जैसे-
अन्त:+राष्ट्रीय=अन्ताराष्ट्रीय।अन्तर्+
पुनः + रमते = पुनारमते । पुनर्+
कवि: + राजते =कवीराजते ।कविर्+
'हरि+रम्य= हरी रम्य।हरिर्+
शम्भु: + राजते = शम्भूराजते । शम्भुष्+। शम्भुर्+
👇जश्त्व सन्धि विधान :-
"पदान्त जश्त्व सन्धि"💐↔झलां जशो८न्ते।
जब पद ( क्रियापद) या (संज्ञा पद) अन्त में वर्गो के पहले, दूसरे,तीसरे,और चौथे वर्ण के बाद कोई भी स्वर या वर्ग का वर्ण हो जाता है तब "पदान्त जश्त्व सन्धि" होती है ।
अर्थात् पद के अन्त में वर्गो का पहला , दूसरा, तीसरा , और चौथे वर्ण आये अथवा कोई भी स्वर , अथवा कोई अन्त:स्थ आये परन्तु केवल ऊष्म वर्ण न आयें तो वर्ग का तीसरा वर्ण (जश्= जबगडदश्) हो जाता है।
उदाहरण (Example):-
जगत् + ईश = जगदीश: ।
वाक् + दानम्= वाग्दानम्।
वाक् + ईश : = वागीश ।
अच्+ अन्त = अजन्त ।
एतत् + दानम्= एतद् दानम् ।
तत्+एवम् =तदेवम् । जगत् +नाथ=जगद्+नाथ=जगन्नाथ ।
💐↔अपादान्त जश्त्व सन्धि - जब अपादान्त में। अर्थात् (धात्वान्त) अथवा मूूूूल शब्दान्त में वर्गो के पहले दूसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण अथवा अन्त:स्थ ( य,र,ल,व ) में से कोई वर्ण हो तो पहले वर्ण को उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है ।
उदाहरण( Example )
लभ् + ध : = लब्ध: । (धातुु रूप)
उत् + योग = उद्योग :। (उपसर्ग रूप)
पृथक् +भूमि = पृथग् भूमि: । (मूलशब्द)
महत् + जीवन = महज्जीवनम्।(मूलशब्द)
सम्यक् + लाभ = सम्यग् लाभ :।(मूलशब्द)
क्रुध् + ध: = क्रुद्ध:।(धातुु रूप)
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प्रत्यय लगे हुए वाक्य में प्रयुक्त शब्द अथवा क्रिया रूप पद कहलाते हैं ।
ये क्रिया पद और संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि आठ प्रकार के होते हैं ।
- संज्ञा
- सर्वनाम
- विशेषण और
- क्रिया।
2. अविकारी-जो शब्द प्रयोगानुसार परिवर्तित नहीं होते, वे शब्द ‘अविकारी शब्द’ कहलाते हैं। धीरे-धीरे, तथा, अथवा, और, किंतु, वाह !, अच्छा ! ये सभी अविकारी शब्द हैं। इनके भी मुख्य रूप से चार भेद हैं :
- क्रियाविशेषण
- समुच्चयबोधक
- संबंधबोधक और
- विस्मयादिबोधक।
(विभक्त्यन्तशब्दभेदे “सुप्तिङन्तं पदम्” ) ।
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चर्त्व सन्धि विधान-( खरि च)
"झय् का चय् हो जाता है झय् से परे खर् होने पर "।
परिभाषा:- जब वर्ग के पहले, दूसरे , तीसरे और चौथे वर्ण के बाद वर्ग का पहला दूसरा वर्ण अथवा ऊष्म वर्ण श् ष् स् हो तो पहले वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का पहला वर्ण जाता है तब "चर्त्व सन्धि होती" है ।
लभ् + स्यते = लप्स्यते ।
उद् + स्थानम् = उत्थानम् ।
उद् + पन्न:=उत्पन्न:।
युयुध्+ सा = युयुत्सा ।
एतत् + कृतम् = एतत् कृतम्।
तत् + पर: =तत्पर: ।
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'छत्व सन्धि' विधान:- सूत्र-।शश्छोऽटि।
छत्व सन्धि विधान :-
अर्थ-•यदि पूर्व पद के अन्त में पाँचों वर्गों के प्रथम, द्वितीय तृतीय और चतुर्थ) का कोई वर्ण हो और उत्तर पद के पूर्व (आदि) में "शकार" '(श) और इस श' के पश्चात कोई स्वर अथवा अन्त:स्थ ल" को छोड़कर महाप्राण 'ह'-(य'व'र' ह)हो तो श वर्ण का छ वर्ण भी हो जाता है ।
वैसे भी तवर्ग का चवर्ग श्चुत्व सन्धि रूप में (स्तो: श्चुना श्चु:) सूत्र हो जाता है ।
परिभाषा:- यदि त् अथवा न् वर्ण के बाद "श" वर्ण आए और "श" के बाद कोई स्वर अथवा कोई अन्त:स्थ (य, र , व , ह )वर्ण हो तो
'श' वर्ण को विकल्प से छकार (छ) हो जाता है और स्तो: श्चुना श्चु: - सूत्र के नियम से 'त्' को 'च्' और 'न्' को 'ञ्' हो जाता है जैसे :-
सत् +शास्त्र = सच्छास्त्र ।
धावन् + शशक: = धावञ्छशक: ।
श्रीमत्+शंकर=श्रीमच्छङ्कर।
१- तत्+शिव= त् के बाद श् तथा श के बाद 'इ स्वर आने पर श' के स्थान पर 'छ्' वर्ण हो जाता है । रूप होगा सन्धि का तत्छिव (तत् + छिव) तत्पश्चात ्( श्चुत्व सन्धि) करने पर बनेगा रूप तच्+ छिव (तत्छिव).
२-एतत्+शान्तम्= त् के बाद श् और श् के बाद 'आ' स्वर आने से श्' के स्थान पर छ्' वर्ण हो जाता है। रूप बनेगा एतत् +छान्तम्- तत्पश्चात श्चुत्व सन्धि से आगामी रूप होगा (एतच्छान्तम्)
३-तत् +श्व: पूर्व पद के अन्त में त् और उसके पश्चात उत्तर पद के प्रारम्भ में श्' और उसके बाद अन्त:स्थ 'व' आने पर श्' के स्थान पर छ' (श्चुत्व सन्धि) से हो जाता है । तत् + छ्व: + तत्छव: फिर श्चुत्व सन्धि) से तच्छ्व: रूप होगा।
(- प्रत्याहार-)
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........माहेश्वर सूत्र कुल १४ हैं, इन सूत्रों से कुल ४१ प्रत्याहार बनते हैं। एक प्रत्याहार उणादि सूत्र ( १.१.१४ ) "ञमन्ताड्डः" से ञम् प्रत्याहार और एक वार्तिक से "चयोः द्वितीयः शरि पौष्करसादेः" ( ८.४.४७ ) से बनता है । इस प्रकार कुल ४३ प्रत्याहार हो जाते हैं।
प्रश्न : ----- "प्रत्याहार" किसे कहते हैं ?
उत्तर : ----- "प्रत्याहार" संक्षेप करने को कहते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के ७१ वें सूत्र " आदिरन्त्येन सहेता " ( १-१-७१ ) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि मुनिने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता ( १-१-७१ ) :- ( आदिः + अन्त्येन इता + सह )
........आदि वर्ण अन्तिम इत् वर्ण के साथ मिलकर “ प्रत्याहार ” बनाता है । जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए सभी वर्णों का समष्टि रूप में बोध कराता है।
........जैसे "अण्" कहने से अ, इ, उ तीन वर्णों का ग्रहण होता है, "अच्" कहने से "अ" से "च्" तक सभी स्वरों का ग्रहण होता है। "हल्" कहने से सारे व्यञ्जनों का ग्रहण होता है।
इन सूत्रों से सैंकडों प्रत्याहार बन सकते हैं, किन्तु पाणिनि मुनि ने अपने उपयोग के लिए ४१ प्रत्याहारों का ही ग्रहण किया है। प्रत्याहार दो तरह से दिखाए जा सकते हैं --
(०१) अन्तिम अक्षरों के अनुसार और (०२) आदि अक्षरों के अनुसार।
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(निपात और उनके कार्य – Collapse and it's Functions)
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शाब्दिकों के मत से वह शब्द जिसके बनने के नियम का पता न चले अर्थात् जो व्याकरण में दिए गए सामान्य नियमों के अनुसार निष्पन्न न होकर अव्युत्पन्न बना हो।
यास्क के अनुसार ‘निपात’ शब्द के अनेक अर्थ है,
अचानक उच्च अथवा निम्न अर्थों के बीच में आ पड़ने (गिरने) के कारण ये निपात कहे जाते हैं-
"उच्चावच्चेषु अर्थेषु निपतन्तीति इति निपाताः कथ्यन्ते।
यह पाद का पूरण करनेवाला भी होता है-
‘निपाताः पादपूरणाः ।
कभी-कभी अर्थ के अनुसार प्रयुक्त होने से अनर्थक निपातों से अन्य सार्थक निपात भी होते हैं।
निपात का कोई लिंग, वचन नहीं होता।
मूलतः इसका प्रयोग अव्ययों के लिए होता है।
💐 :-जैसे अव्ययों में आकारगत अपरिवर्त्तनीयता होती है, वैसे ही निपातों में भी।
निपातों का प्रयोग निश्चित शब्द, शब्द-समूह या पूरे वाक्य को अन्य (अतिरिक्त) भावार्थ प्रदान करने के लिए होता है।
"निपात सहायक शब्द होते हुए भी वाक्य के अंग नही होते।
पर वाक्य में इनके प्रयोग से उस वाक्य का समग्र अर्थ प्रभावित होता है।"
निपात के भेद :-
यास्क ने निपात के तीन भेद माने है-
(1) उपमार्थक निपात : यथा- इव, न, चित्, नुः
(2) कर्मोपसंग्रहार्थक निपात : यथा- न, आ, वा, ह;
(3) पदपूरणार्थक निपात : यथा- नूनम्, खलु, हि, अथ।
यद्यपि निपातों में सार्थकता नहीं होती, तथापि उन्हें सर्वथा निरर्थक भी नहीं कहा जा सकता।
💐:-निपात शुद्ध अव्यय नहीं है; क्योंकि संज्ञाओं, विशेषणों, सर्वनामों आदि में जब अव्ययों का प्रयोग होता है, तब उनका अपना अर्थ होता है, पर निपातों में ऐसा नहीं होता।
निपातों का प्रयोग निश्चित शब्द, शब्द-समुदाय या पूरे वाक्य को अन्य भावार्थ प्रदान करने के लिए होता है।
इसके अतिरिक्त, निपात सहायक शब्द होते हुए भी वाक्य के अंग नहीं हैं।
पर वाक्य में इनके प्रयोग से उस वाक्य का समग्र अर्थ व्यक्त होता है।
साधारणतः निपात अव्यय ही है।
हिन्दी में अधिकतर निपात उन शब्दसमूहों के बाद आते हैं, जिनको वे बल प्रदान करते हैं।
निपात के कार्य :-
निपात के निम्नलिखित कार्य होते हैं-
(1) प्रश्न:- जैसे : क्या वह जा रहा है ?
(2) अस्वीकृति- जैसे : मेरा छोटा भाई आज वहाँ नहीं जायेगा।
(3) विस्मयादिबोधक- जैसे : क्या अच्छी पुस्तक है !
(4) वाक्य में किसी शब्द पर बल देना- बच्चा भी जानता है।
निपात के प्रकार -: निपात के नौ प्रकार या वर्ग हैं-
(1) स्वीकार्य निपात- जैसे : हाँ, जी, जी हाँ।
(2) नकरार्थक निपात- जैसे : नहीं, जी नहीं।
(3) निषेधात्मक निपात- जैसे : मत।
(4) प्रश्रबोधक- जैसे : क्या ? न।
(5) विस्मयादिबोधक निपात- जैसे : क्या, काश, काश कि।
(6) बलदायक या सीमाबोधक निपात- जैसे : तो, ही, तक, पर ,सिर्फ, केवल।
(7) तुलनबोधक निपात- जैसे : सा।
(8) अवधारणबोधक निपात- जैसे : ठीक, लगभग, करीब, तकरीबन।
(9) आदरबोधक निपात- जैसे जी ।
(Indeclinable words) ( अविकारी शब्द ) क्रियाविशेषण ,संबंधबोधक ,समुच्चयबोधक , तथा विस्मयादिबोधक आदि के स्वरूप में किसी भी कारण से परिवर्तन नहीं होता, उन्हें अविकारी शब्द कहते हैं !
अविकारी शब्दों को अव्यय भी कहा जाता है ।
अव्यय - अव्यय वे शब्द हैं जिनमें लिंग ,पुरुष ,काल आदि की दृष्टि से कोई परिवर्तन नहीं होता, जैसे - यहाँ ,कब, और आदि !
अव्यय शब्द पांच प्रकार के होते हैं -
1 - क्रियाविशेषण - धीरे -धीरे , बहुत
2 - संबंधबोधक - के साथ , तक
3 - समुच्चयबोधक - तथा , एवं ,और
4 - विस्मयादिबोधक - अरे ,हे
5 - निपात - ही ,भी
1 - क्रियाविशेषण अव्यय - जो अव्यय किसी क्रिया की विशेषता बताते हैं ,वे क्रिया विशेषण कहलाते हैं ,
जैसे - मैं बहुत थक गया हूँ ।
क्रियाविशेषण के चार भेद हैं -
1 - कालवाचक क्रियाविशेषण- जिन शब्दों से कालसंबंधी क्रिया की विशेषता का बोध हो , जैसे - कल ,आज ,परसों ,जब ,तब सायं आदि ।
( मदन कल जाएगा । )
2 - स्थानवाचक क्रियाविशेषण- जो क्रियाविशेषण क्रिया के होने या न होने के स्थान का बोध कराएँ ,
जैसे - यहाँ ,इधर ,उधर ,बाहर ,आगे ,पीछे ,आमने ,सामने ,दाएँ ,बाएँ आदि ( उधर मत जाओ । )
3 - परिमाणवाचक क्रियाविशेषण- जहाँ क्रिया के परिमाण / मात्रा की विशेषता का बोध हो , जैसे - जरा ,थोड़ा , कुछ ,अधिक ,कितना ,केवल आदि ! ( कम खाओ )
4 - रीतिवाचक क्रिया विशेषण- इसमें क्रिया के होने के ढंग का पता चलता है , जैसे - जोर से, धीरे -धीरे ,भली -भाँति ,ऐसे ,सहसा ,सच ,तेज ,नहीं ,कैसे ,वैसे ,ज्यों ,त्यों आदि ! ( वह पैदल चलता है । )
2 - संबंधबोधक अव्यय - जो अविकारी शब्द संज्ञा अथवा सर्वनाम शब्दों के साथ जुड़कर दूसरे शब्दों से उनका संबंध बताते हैं ,संबंधबोधक अव्यय कहलाते हैं , जैसे - के बाद , से पहले ,के ऊपर ,के कारण ,से लेकर ,तक ,के अनुसार ,के भीतर ,की खातिर ,के लिए, के बिना , आदि ।
( विद्या के बिना मनुष्य पशु है । )
3 - समुच्चयबोधक अव्यय - दो शब्दों ,वाक्यांशों या वाक्यों को जोड़ने वाले शब्दों को समुच्चयबोधक अव्यय कहते हैं !
जैसे - कि ,मानों ,आदि ,और ,अथवा ,यानि ,इसलिए , किन्तु ,तथापि ,क्योंकि ,मगर ,बल्कि आदि ! (मोहन पढ़ता है और सोहन लिखता है ।
4 - विस्मयादिबोधक अव्यय - जो अविकारी शब्द हमारे मन के हर्ष ,शोक ,घृणा ,प्रशंसा , विस्मय आदि भावों को व्यक्त करते हैं , उन्हें विस्मयादिबोधक अव्यय कहते हैं !
जैसे - अरे ,ओह ,हाय ,ओफ ,हे आदि !
( इन शब्दों के साथ संबोधन का चिन्ह ( ! )
भी लगाया जाता हैं !
जैसे - हाय राम ! यह क्या हो गया । )
5 - निपात - जो अविकारी शब्द किसी शब्द या पद के बाद जुड़कर उसके अर्थ में विशेष प्रकार का बल भर देते हैं उन्हें निपात कहते हैं ।
जैसे - ही ,भी ,तो ,तक ,भर ,केवल/ मात्र , आदि ! ( राम ही लिख रहा है । )
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निपात का प्रयोग किसी शब्द पर बल देने के लिए किया जाता है ।
यह वाक्य में नया और गहन अर्थ भर देते हैं
जैसे :-अमित ने ही मुझे मारा था ।
अमित ने मुझे ही मारा था ।
पवन ने भी मुझे बुलाया है ।
पवन ने मुझे भी बुलाया है।
यहाँ "ही" तथा "भी" निपात हैं तथा इनका स्थान बदलने से अर्थ भी बदल गया है।
(यू स्त्र्याख्यौ नदी सूत्र-)
१) 'यू' इति वस्तुतः सन्धि-निर्मितः शब्दः । ई + ऊ = यू । इको यणचि ६.१.७७ इत्यनेन यणादेशं कृत्वा अयं शब्दः सिद्ध्यति । अतः 'यू' इत्यस्य अर्थः ईकारान्त/उकारान्तशब्दः ।
२) स्त्री यस्य आख्या सः स्त्र्याख्यः । आख्या इत्युक्ते प्रकारः (अस्मिन् सन्दर्भे 'लिङ्गम्') । इत्युक्ते, यः शब्दः स्त नित्यस्त्रीलिङ्गे एव अस्ति सः शब्दः ।
अतः अनेन सूत्रेण तादृशानाम् दीर्घ-ईकारान्तानाम् दीर्घ-ऊकारान्तानाम् शब्दानाम् नदी-संज्ञा भवति, ये नित्यस्त्रीलिङ्गवाचिनः सन्ति ।
यथा - नदी, कुमारी, लक्ष्मी, वधू चञ्चू, श्वश्रू - आदयः ।
ज्ञातव्यम् -
१. अस्मिन् सूत्रे 'दीर्घ-ईकारान्ताः/दीर्घ-ऊकारान्ताः' इति उक्तमस्ति, अतः माला, मति, धेनु, मातृ, आदयः शब्दाः नदीसंज्ञकाः न भवन्ति ।
२. अस्मिन् सूत्रे 'स्त्रीलिङ्गवाचिनः' इति उक्तमस्ति, अतः सेनानी, खलपू आदीनां पुंलिङ्गशब्दानां, तथा च सुधी, सुलू आदीनां नपुंसकलिङ्गशब्दानां नदीसंज्ञा न भवति ।
३. अस्मिन् सूत्रे 'नित्यस्त्रीलिङ्गाः' इति उक्तमस्ति, अतः स्वयम्भू, ग्रामणी एतादृशाः शब्दाः ये पुंलिङ्गेऽपि सन्ति ते (स्त्रीलिङ्गप्रयोेगे अपि) नदीसंज्ञकाः न भवन्ति ।
अत्र एकम् वार्त्तिकम् ज्ञातव्यम् - प्रथमलिङ्गग्रहणं च । अस्य अर्थः अयम् - यदि कश्चन नदीसंज्ञकशब्दः समासे उपसर्जनरूपेण आगच्छति, तर्हि तस्य समस्तपदस्य अपि नदीसंज्ञा भवति । यथा - 'श्रेयसी' अयं नदीसंज्ञकः शब्दः 'बहुश्रेयसी' अस्मिन् समस्तपदे उपसर्जनरूपेण उपस्थितः अस्ति । अतः यद्यपि 'बहुश्रेयसी' अयं शब्दः पुँल्लिगे अस्ति, तथापि अस्य समस्तपदस्य अपि नदीसंज्ञा भवति । 'पूर्वं स्त्र्याख्यस्य उपसर्जने अपि नदीत्वं वक्तव्यम्' इति अस्य वार्तिकस्य विषये कौमुद्यामुक्तमस्ति ।
'नदी'संज्ञायाः प्रयोगः - ह्रस्वनद्यापो नुट् ७.१.५४, आण्नद्याः ७.३.११२, ङेराम्नद्याम्नीभ्यः ७.३.११६ एतेषु सू्त्रेषु दृश्यते ।
विशेषः - नदीसंज्ञायाः विषये तथा नदीसंज्ञकानाम् शब्दानाम् प्रक्रियायाः विषये अस्मिन् लेखे विस्तारेण प्रोक्तमस्ति, तत् दृश्यताम् ।
1-4-6 ङिति ह्रस्वश्च
प्रथमावृत्तिः
ङिति 7/1, ह्रस्वः 1/1, च (-)। अनु. - वा, नेयङुवङ्स्थानावस्त्री, यू स्त्राख्यौ नदी॥
हिन्दी – [ह्रस्व:] ह्रस्व इकारान्त उकारान्त जो स्त्रीलिङ्ग के वाचक शब्द, तथा इयङ् उवङ् स्थानी जो ईकारान्त ऊकारान्त स्त्री की आख्यावाले शब्द, उनकी [च] भी [ङिति] ङित् प्रत्यय परे रहते विकल्प से नदी संज्ञा होती है। ह्रस्व इकारान्त उकारान्त शब्दों की नदी संज्ञा किसी सूत्र से प्राप्त नहीं थी, सो ङित् प्रत्यय परे रहते विकल्प से विधान कर दिया। तथा इयङ् उवङ् स्थानी ईकारान्त ऊकारान्त शब्दों की भी नित्य नदी संज्ञा का प्रतिषेध किया था, सो उनकी भी विकल्प से नदी संज्ञा का विधान इस सूत्र में करते हैं॥
काशिका
दीर्घस्य नदीसंज्ञा विहिता, ह्रस्वस्य न प्राप्नोति, इयङुवङ्स्थानयोश्च प्रतिषिद्धा। तस्मान् ङिति वा विधीयते। ङिति परतो ह्रस्वश्च य्वोः सम्बन्धी यः स्त्र्याख्यः, स्त्र्याख्यौ इयङुवङ्स्थानौ च यू वा नदी संज्ञौ भवतः। कृत्यै, कृतये। धेन्वै, धेनवे। श्रियै, श्रिये। भ्रुवै, भ्रुवे। अस्त्री इत्येव, स्त्रियै। स्त्र्याख्यौ इत्येव, अग्नये। वायवे। भानवे।।
Ashtadhyayi -
When a case-affix having an indicatory ङ् (ङित्) follows, then feminine words ending in short इ and उ are optionally termed नदी, as well as feminine nouns in long ई and ऊ which admit of इयङ् and उवङ्; but not so the word स्त्री, which is always नदी.
लघु
223 इयङुवङ्स्थानौ स्त्रीशब्दभिन्नौ नित्यस्त्रीलिङ्गावीदूतौ, ह्रस्वौ च इवर्णोवर्णौ, स्त्रियां वा नदीसंज्ञौ स्तो ङिति। मत्यै, मतये। मत्याः 2. मतेः 2॥
बालमनोरमा
294 इदन्तत्वाद्यूस्त्र्याख्याविति नदीत्वेऽप्राप्ते ङित्सु तद्विकल्पं दर्शयितुमाह–ङिति ह्यस्वश्च। अत्र चकाराद्वाक्यद्वयं, तथा हि `यूस्त्र्याख्यौ नदी'त्यनुवर्तते। ईश्च ऊश्च यू। `दीर्घाज्जसि चे'ति पूर्वसवर्णदीर्घनिषेधाऽभावश्छान्दसः। स्त्रियमेवाचक्षाते स्त्र्याख्यौ। नित्यस्त्रीलिङ्गाविति यावत्। `नेयङ्वङ्स्थानावस्त्री'ति सूत्रं नञ्वर्जमनुवर्तते। इयङुवङोः स्थानं स्थितिर्ययोस्ताविति विग्रहः। इयङुवङ्प्राप्तियोग्यावित्यर्थः। `वामी'त्यतो `वे'त्यनुवर्तते। ततश्च `इयङुवङ्स्थानौ स्त्रीशब्दभिन्नौ नित्यस्त्रीलिङ्गावीदूतौ नदीसंज्ञौ वा स्तो ङिति परे' इति वाक्यमेकं संपद्यते। पुनरपि `यू' इत्यनुवर्तते। इश्च उश्च यू। `ह्यस्व' इति तत्र प्रत्येकमन्वेति। स्त्र्याख्याविति चानुवर्तते। तस्य च स्त्रीलिङ्गावित्येतावदेव विवक्षितं, नतु नित्यस्त्रीलिङ्गवीदूतौ नदीसंज्ञौ वा स्तो ङिति परे' इति वाक्यमेकं संपद्यते। पुनरपि `यू' इत्यनुवर्तते। इश्च उश्च यू। `ह्यस्व' इति तत्र प्रत्येकमन्वेति। स्त्र्याख्याविति चानुवर्तते। तस्य च स्त्रीलिङ्गावित्येतावदेव विवक्षितं, नतु नित्यस्त्रीलिङ्गाविति , व्याख्यानात्। `वामी'त्यतो वेति चानुवर्तते। ततश्च `स्त्रीलिङ्गौह्यस्वौ चेवर्णोवर्णौ नदीसंज्ञौ वा स्तो ङिति परे' इति वाक्यमेकं संपद्यते।तदाह–इयङुवङ्स्थानाविति। द्वितीयवाक्येऽपि स्त्रीलिङ्गे नित्यत्वविशेषणे तु इष्वशन्यरणिप्रभृतीनामुभयलिङ्गानां, पटुमृदुप्रभृतीना त्रिलिङ्गानां च ङिति नदीत्वविकल्पो न स्यादिति बोध्यम्। तत्र ह्यस्वयोकप्राप्ते दीर्घयोस्तु `नेयङुवङ्स्थाना'विति निषेधादप्राप्ते नदीत्वे विभाषेयम्। नदीत्वपक्षे आह– आण्नद्या इति। मति-ए इति स्थिते आटि वृद्धौ यणि च सिद्धं रूपमाह–मत्यै इति। मतये इति। नदीत्वाऽभावपक्षे `शेषो घ्यसखी'ति घित्वाद्धेर्ङितीति गुणेऽयादेशे हरिशब्दवद्रूपम्। नदीत्वपक्षे ङसिङसोरटि वृद्धिराकारः, यण्। मत्याः। नदीत्वाऽभावे- मतेः। आमि नदीत्वाभावेऽपि हस्वान्तत्वान्नुटि दीर्घः। मतीनाम्। ङौ विशेषमाह– नदीत्वपक्षे इति। नदीत्वपक्षे घित्वाऽभावात् `अच्च घेः' इत्यत्वसंनियोगशिष्टमौत्वं न भवति। किंतु ङेरामिति प्राप्तं, तद्बाधित्वा औदिति केवलमौत्वे परत्वात्प्राप्ते सतीत्यर्थः।
तत्त्वबोधिनी
256 ङिति ह्यस्वश्च। `वामी'ति सूत्राद्वेत्यनुवर्तते। अप्राप्तविभेषेयं। ह्यस्वयोरप्राप्तावितरयोस्तु `नेयङुवाङ्स्थाना'विति निषेधप्राप्तावारम्भात्। इहे`इयङुवङ्स्थानौ'`स्त्रीशब्दभिन्नौ'`नित्यस्त्रीलिङ्गा'विति त्रीणि ईदुतोर्विशेषणानि, ह्यस्वयोस्तु `स्त्रिया'मित्येव विशेषणं, नत्तु नित्यस्त्रीत्वपर्यन्तम्, अन्यथा इष्वशनिप्रभ-तीनामुभयलिङ्गानां पटुमृदुप्रभृतीनां सर्वलिङ्गानां च स्त्रीत्वेऽपि नदीत्वं न स्यात्। कैयटमते हि तेषां नित्यस्त्रीत्वाऽभावात्, ह्यस्वांशे नित्यग्रहमव्यावर्त्त्याऽलाभाच्च। अतएवाऽऽख्याग्रहणं विहाय स्त्रीशब्दमात्रं निष्कृष्य संबध्यते, तदेतदाह—-ह्यस्वौ च इउवर्णो स्त्रियामिति।
सूत्र-सूचिः
124) ङिति ह्रस्वश्च 1-4-6
वृत्ति: इयँङुवँङ्स्थानौ स्त्रीशब्दभिन्नौ नित्यस्त्रीलिङ्गावीदूतौ ह्रस्वौ च इवर्णोवर्णौ स्त्रियां वा नदीसञ्ज्ञौ स्तो ङिति । The vowels long “ई” and long “ऊ” that are always feminine and which can take “इयँङ्” and “उवँङ्” replacements, except for the word “स्त्री”, and the short “इ” and short “उ” ending words in feminine, get the “नदी” designation optionally when followed by a “ङित्” affix.
उदाहरणम् – मति + ङे – मति-शब्दः gets नदी सञ्ज्ञा optionally by 1-4-6 . Example continued under 7-3-112
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