रविवार, 12 सितंबर 2021

नारी आजतक -वृषाकपि और इन्द्राणी


"नारी जीवन की प्रवञ्चनाऐं"

जिस समाज में नारी को देवी देवी के रूप में मानकर फिर उसके साथ दमन और शोषण की दीर्घ वीथिका दृष्टिगोचर हो वह केवल एक आडम्बर और दम्भ की ही अभिव्यक्ति है ।

 इस बात को स्वीकार करने लिए हमारे पास दृढ़ साक्ष्य अथवा आधार भी नहीं कि प्राचीन काल में स्त्री पुरुषों के आधिपत्य से मुक्त थी ।

 जा नारी एक करुणा और मातृत्व का भाव धारण कर आजीवन बच्चों ही नही अपितु पुरूषों, और बुर्जुगों का  भी पालन-पोषण करती रही हो। 

उसी नारी की अस्मिता का दोहन करना पुरुष ने अपना पौरुष मान लिया और उसपर क्रूरता से अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। 

अपनी सत्ता छीन जाने के बाद नारी के इतिहास में तरह-तरह के उतार-चढ़ाव देखने को मिलते हैं।


पूर्व वैदिक काल में ‘‘महिलाओं की स्थिति समाज में काफी ऊंची थी और उन्हें अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी।

महिला शब्द सूचित करता है कि नारी कभी समाज में पूज्या और श्रद्धा की मात्रा थी।

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"महिला=मह् पूजायाम्"+ इलच्+ टाप्"

महिला=  मह पूजायाम् + इलच् टाप् - उणादि सूत्र ।  १ । ५५ । इति  )

कुछ शोधकों का मत है कि वैदिक काल में विधवा पुर्नविवाह प्रचलित नहीं था ।

परन्तु कुछ विद्वान ऋग्वेद की ऋचाओ में विधवा विवाह के भी दर्शन करते हैं ।


 भारतीय इतिहास का वास्तविक काल वैदिक सभ्यता से जुड़ा हुआ है। चारों वेदों में ऋग्वेद को सबसे अधिक प्राचीन वेद माना है। इसके बाद यजुर्वेद, समार्वेद और अर्थर्ववेद को माना जाता है। 

परन्तु अधिकातर ऋचाऐं सभी वेदों में ऋ’’ ऋग्र्वेद में ब्रम्हज्ञानी पुरूषों के साथ-साथ ब्रम्हवादिनी महिलाओं का भी नाम आता है। इनमें विश्ववारा लोप, मुद्रा, घोषा, इन्द्राणी, देवयानी आदि प्रमुख महिलाएं हैं।

 ‘‘एक तरफ जहां भारतीय संस्कृति में नारी को सदा ऊंचा स्थान मिला है।

 नारी को मर्यादा के क्षेत्र में  परबद्धा कर के उसके मानसिक विकास के द्वा ही बन्द कर दिये गये ।

 

नारी के ऊपर तरह-तरह की बंदिसें जैसे-पर्दे में रहना, पुरुषों की आज्ञा का पालन करना, प्रति उत्तर न देना, घर में ही कैद रहना। 

इन सब बंदिसों ने नारी को नारी से भोग्या के रूप में परिवर्तित कर दिया, तब नारी मात्र संतान पैदा करने के उपकरण के रूप में प्रयोग की जाने लगी।  


 11वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी के समकक्ष मध्यकाल में भारतीय नारी का दुर्भाग्य कहें या कुछ और कि उसे एक तरफ देवी बनाकर पूजा जाता है, तो दूसरी ओर सेविका बनाकर शोषण किया जाता है।

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आज भी दक्षिण भारत में कन्याओ  का विवाह पहले मंदिरों में देवों से किया जाता है तथा  फिर देव को पण्डों में आरोपित कर उन पण्डों द्वारा  उन कन्याओं का प्रथम योनि शील का भेदन किया जाता था । यही देव दासी पृथा पुजारियों की वासना तृप्ति का साधन थी ।और मन्दिर उनके आराम गाह और आमन्दनी मात्र के श्रोत।


एक भयानक सच यह भी है कि हमारे सभ्रांत समाज में आज भी बेटियों को टेंटुआ दबाकर मार दिया जाता है। बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में बेटी का जन्म होते ही, उसे पैदा करवाने वाली दाई कुछ अतिरिक्त पैसा लेकर नवजात का गला दबाकर, उसे आक का दूध पिलाकर, धान की भूसी मुंह में डालकर या सुतली गले में लपेटकर, उसे मरोड़कर अथवा सर्दी के दिनों में गीला कपड़ा लपेटकर बच्ची की जान ले ली जाती हैं।’’ 

इसका एक मात्र कारण दहेज तथा विदेशी अथवा दबंगो द्वारा गरीब और निम्न जाति की कन्या को वासना तृप्ति हेतु अपहरण करना आदि 



वर्तमान परिवेश में तो नारी पर दहेज के नाम पर, बलात्कार का शिकार बनाकर, मारपीट करके अपना गुलाम बनाना आम बात हो चुकी है। बहुत बार तो ‘‘परिवारों में महिला को निकटतम् संबंधियों की वासना  का शिकार होना पड़ता है।’’ जिनपे वो विश्वास करती और उम्मीद करती हैं  अपनी सुरक्षा की, वो ही ईज्जत का तार-तार करते रहते हैं। 


वैदिक काल में सर्वत्र पत्नी को सम्मान प्राप्त नहीं था। वेदों में ऐसे अनेक प्रसंग आए हैं, जिनसे पति की पत्नी के प्रति हेय दृष्टि का आभास मिलता है। स्त्रियों के विषय में ऋग्वेद में जो विवरण आए हैं।

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इस सन्दर्भ में इन्द्राणी और कृषाकपि का प्रसंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

इन्द्र की अनुपस्थिति में वृक्षाकपि ने इन्द्राणी का शील भंग करने का प्रयास किया, जिसे इन्द्राणी में प्रयत्नपूर्वक असफल कर दिया। 

इन्द्र के आने पर इन्द्राणी ने इन्द्र से वृक्षाकपि की शिकायत की, तो इन्द्र ने वृषाकपि पर क्रोध नहीं करते हुए अपितु यह कहकर वे इन्द्राणी को शान्त कर देते हैं, कि वृषाकपि मेरा घनिष्ठ मित्र है। स्वयं इन्द्र भी इसी कामुक प्रवृति का देव है । जो सुरा और सनुन्दरीयों ही जीवन का आनन्द खोजता है 

 इन्द्र शचि से कहता है  कि वृषाकपि के बिना मुझे सुख नहीं प्राप्त हो सकता-

"नाहमिन्द्राणि शरण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते।‘‘

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 ब्याज पर उधार में दिए जाने वाली वस्तुओं में स्वर्ण, अन्न और गायों के साथ स्त्रियों का भी उल्लेख आता है। 


सम्भवतः इसी कारण पी0वी0 काणे जी लिखते हैं, ‘‘ऋग्वेद (1.109.12) गलत सन्दर्भ), मैत्रायाणी संहिता (1.10.1), निरूक्त (6.9,1.3) तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.7,10) आदि के अवलोकन से यह विदित होता है कि प्राचीन काल में विवाह के लिए लड़कियों का क्रय-विक्रय होता था।‘‘ 


1.7.10.0
दे॒वैरित्या॑ह स॒त्यस॑वङ्करोति त्रि॒ष्टुभ॑मे॒वैतेना॑भि॒
व्याह॑रति सत्यानृ॒ते ए॒वाव॑रुन्धे करोति 
श॒तेन्द्रि॑य॒ष्षट् च॑।।10 ।।
1.7.10.1
मि॒त्रो॑ऽसि॒ वरु॑णो॒ऽसीत्या॑ह । मै॒त्रव्वाँ अहः॑ ।
 वा॒रु॒णी रात्रिः॑ । अ॒हो॒रा॒त्राभ्या॑मे॒वैन॑मु॒पाव॑हरति । 
मि॒त्रो॑ऽसि॒ वरु॑णो॒ऽसीत्या॑ह । मै॒त्रो वै दक्षि॑णः । 
वा॒रु॒णस्स॒व्यः । वै॒श्व॒दे॒व्या॑मिक्षा ।
 स्वमे॒वैनौ॑ भाग॒धेय॑मु॒पाव॑हरति । 
सम॒हव्विँश्वैर्दे॒वैरित्या॑ह ।। 59 ।।
1.7.10.2
वै॒श्व॒दे॒व्यो॑ वै प्र॒जाः । ता ए॒वाद्या कुरुते ।
 ख्ष॒त्त्रस्य॒ नाभि॑रसि ख्ष॒त्त्रस्य॒ 
योनि॑र॒सीत्य॑धीवा॒समास्तृ॑णाति सयोनि॒त्वाय॑ । 
स्यो॒नामा सी॑द सु॒षदा॒मा सी॒देत्या॑ह ।
 य॒था॒य॒जुरे॒वैतत् । मा त्वा॑ हिसी॒न्मा मा॑ 
हिसी॒दित्या॒हाहि॑सायै । निष॑साद धृ॒तव्र॑तो॒ वरु॑ण
 प॒स्त्यास्वा साम्राज्याय सु॒क्रतु॒रित्या॑ह ।
 साम्राज्यमे॒वैन॑ सु॒क्रतु॑ङ्करोति । 
ब्रह्मा(३)न्त्व रा॑जन्ब्र॒ह्माऽसि॑ सवि॒ताऽसि॑ स॒त्यस॑व॒ 
इत्या॑ह । स॒वि॒तार॑मे॒वैन॑ स॒त्यस॑वङ्करोति ।। 60 ।।
1.7.10.3
ब्रह्मा(३)न्त्व रा॑जन्ब्र॒ह्माऽसीन्द्रो॑ऽसि स॒त्यौजा॒ इत्या॑ह ।
 इन्द्र॑मे॒वैन॑ स॒त्यौज॑सङ्करोति । ब्रह्मा(३)न्त्व
 रा॑जन्ब्र॒ह्माऽसि॑ मि॒त्रो॑ऽसि सु॒शेव॒ इत्या॑ह । मि॒त्रमे॒वैन॑ 
सु॒शेव॑ङ्करोति । ब्रह्मा(३)न्त्व रा॑जन्ब्र॒ह्मासि॒ वरु॑णोऽसि
 स॒त्यध॒र्मेत्या॑ह । वरु॑णमे॒वैन॑ स॒त्यध॑र्माणङ्करोति । 
स॒वि॒ताऽसि॑ स॒त्यस॑व॒ इत्या॑ह । गा॒य॒त्रीमे॒वैतेना॑भि॒ व्याह॑रति । इन्द्रो॑ऽसि स॒त्यौजा॒ इत्या॑ह । त्रि॒ष्टुभ॑मे॒वैतेना॑भि॒ व्याह॑रति ।। 61 ।।
1.7.10.4
मि॒त्रो॑ऽसि सु॒शेव॒ इत्या॑ह । जग॑तीमे॒वैतेना॑भि॒ व्याह॑रति ।
 स॒त्यमे॒ता दे॒वताः । स॒त्यमे॒तानि॒ छन्दा॑सि । 
स॒त्यमे॒वाव॑रुन्धे । वरु॑णोऽसि स॒त्यध॒र्मेत्या॑ह ।
 अ॒नु॒ष्टुभ॑मे॒वैतेना॑भि॒ व्याह॑रति । स॒त्या॒नृ॒ते वा 
अ॑नु॒ष्टुप् । स॒त्या॒नृ॒ते वरु॑णः ।स॒त्या॒नृ॒ते ए॒वाव॑रुन्धे ।।62।।
1.7.10.5
नैन॑ सत्यानृ॒ते उ॑दि॒ते हि॑स्तः । य ए॒वव्वेँद॑ । इन्द्र॑स्य॒
 वज्रो॑ऽसि॒ वार्त्र॑घ्न॒ इति॒ स्फ्यं प्रय॑च्छति ।वज्रो॒ वै स्फ्यः। 
वज्रे॑णै॒वास्मा॑ अवरप॒र र॑न्धयति । ए॒व हि तच्छ्रेयः॑ ।
 यद॑स्मा ए॒ते रध्ये॑युः । दिशो॒ऽभ्य॑य राजा॑ऽभू॒दिति॒ 
पञ्चा॒क्षान्प्रय॑च्छति । ए॒ते वै सर्वेऽयाः । 
अप॑राजायिनमे॒वैन॑ङ्करोति ।। 63 ।।
1.7.10.6


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उनका निष्कर्ष है कि वैदिक काल में स्त्रियां बहुत नीची दृष्टि से देखी जाती थीं। उन्हें सम्पत्ति में कोई भाग नहीं मिलता था तथा वे आश्रित थीं।

यदि वैदिक काल की असुर स्त्रियों का अवलोकन करें, तो हम पाते हैं कि उनकी दशा तो और भी अधिक सोचनीय थी। वास्तव में  असुर स्त्रियों के साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता था। जैसा कि इन्द्र असुर स्त्रीयों के गर्भस्थ शिशुओं का नास कर देती है ।

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वशिष्ठ स्मृति में वर्णन मिलती है । कि काले वर्णों वाली शूद्र नारी केवल वासना तृप्ति के लिए ही हैं   पत्नी बनाकर धार्मिक कृत्यों के लिए नहीं ।

"द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थम् न क्व चिद् भवेत् रत्यर्थम् एता तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता।।(२६/५ विष्णु स्मृति)

द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थे न भवेत् क्वचित्।५

रत्यर्थेमेव सा तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिका।६

विष्णु स्मृति (२६)

ऐसी ही बातें 

गोभिल स्मृति याज्ञवल्कय स्मृति  एवं व्यास स्मृति में भी कही गयी हैं। 

सन्दर्भ संकेत :1. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0 982. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0 973. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ, पृ0 97-984. ऋग्वेद, 10.86 सूक्त: 1.134.35. ऋग्वेद 10.86.12 तथा डॉ0 कमला, ऋग्वेद में नारी, पृ0 126.6. जोसेफ गापिया, भारत में बालिका, पृ0 28-29.7. महाभारत 9.1.46.8. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ पृ0 789. त्रिपाठी, रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ पृ0 78 से उद्धृत। 10. पाणिनि, अष्टाध्यायी 4.1.33.11. त्रिपाठी रमेश कुमार, समकालीन हिन्दी पत्रकारिता में नारी सन्दर्भ पृ0 79। 12. वशिष्ठ, वशिष्ठ धर्म सूत्र 18.1813. गोमिल स्मृति 9.103, 9.10414. याज्ञवल्क्य स्मृति 1.88। 15. व्यास स्मृति 2.12।

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अथर्ववेदः/काण्डं २०/सूक्तम् १२६


अथर्ववेदः - काण्डं २०
सूक्तं २०.१२६
वृषाकपिरिन्द्राणी च।

दे. इन्द्रः। छ. पङ्क्तिः
वृषाकपिसूक्तम्


              ( अथर्ववेद  20/126)
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥


परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥


किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥


यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥


प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥


न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥


उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्गं भविष्यति ।
भसन् मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥


किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥


अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥


संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥


इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥

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नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेर्ऋते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥


वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥


उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंसतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥


वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत्।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥


न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥


न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥


अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत्।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥


अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन् दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥


धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहामुप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥


पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥


यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगं जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥


पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥


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ऋग्वेदः सूक्तं १०.८६


वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत ।
यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१॥

परा हीन्द्र धावसि वृषाकपेरति व्यथिः ।
नो अह प्र विन्दस्यन्यत्र सोमपीतये विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२॥

किमयं त्वां वृषाकपिश्चकार हरितो मृगः ।
यस्मा इरस्यसीदु न्वर्यो वा पुष्टिमद्वसु विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥३॥

यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि ।
श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥४॥

प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत् ।
शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥५॥

न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत् ।
न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥६॥

उवे अम्ब सुलाभिके यथेवाङ्ग भविष्यति ।
भसन्मे अम्ब सक्थि मे शिरो मे वीव हृष्यति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥७॥

किं सुबाहो स्वङ्गुरे पृथुष्टो पृथुजाघने ।
किं शूरपत्नि नस्त्वमभ्यमीषि वृषाकपिं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥८॥


अवीरामिव मामयं शरारुरभि मन्यते ।
उताहमस्मि वीरिणीन्द्रपत्नी मरुत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥९॥


संहोत्रं स्म पुरा नारी समनं वाव गच्छति ।
वेधा ऋतस्य वीरिणीन्द्रपत्नी महीयते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१०॥


इन्द्राणीमासु नारिषु सुभगामहमश्रवम् ।
नह्यस्या अपरं चन जरसा मरते पतिर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥११॥


नाहमिन्द्राणि रारण सख्युर्वृषाकपेरृते ।
यस्येदमप्यं हविः प्रियं देवेषु गच्छति विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१२॥


वृषाकपायि रेवति सुपुत्र आदु सुस्नुषे ।
घसत्त इन्द्र उक्षणः प्रियं काचित्करं हविर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१३॥

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उक्ष्णो हि मे पञ्चदश साकं पचन्ति विंशतिम् ।
उताहमद्मि पीव इदुभा कुक्षी पृणन्ति मे विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१४॥


वृषभो न तिग्मशृङ्गोऽन्तर्यूथेषु रोरुवत् ।
मन्थस्त इन्द्र शं हृदे यं ते सुनोति भावयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१५॥


न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत् ।
सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१६॥


न सेशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते ।
सेदीशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१७॥


अयमिन्द्र वृषाकपिः परस्वन्तं हतं विदत् ।
असिं सूनां नवं चरुमादेधस्यान आचितं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१८॥़


अयमेमि विचाकशद्विचिन्वन्दासमार्यम् ।
पिबामि पाकसुत्वनोऽभि धीरमचाकशं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥१९॥


धन्व च यत्कृन्तत्रं च कति स्वित्ता वि योजना ।
नेदीयसो वृषाकपेऽस्तमेहि गृहाँ उप विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२०॥


पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै ।
य एष स्वप्ननंशनोऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२१॥


यदुदञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगन्तन ।
क्व स्य पुल्वघो मृगः कमगञ्जनयोपनो विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२२॥


पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम् ।
भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥२३॥


          सायणभाष्यम्

               ॥श्रीगणेशाय नमः॥

यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् ।निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥

अष्टमाष्टकस्य चतुर्थोऽध्याय आरभ्यते ।              तत्र ‘वि हि ' इति त्रयोविंशत्यृचं द्वितीयं सूक्तम् । वृषाकपिर्नामेन्द्रस्य पुत्रः । स चेन्द्राणीन्द्रश्चैते त्रयः संहताः संविवादं कृतवन्तः । तत्र ‘वि हि सोतोरसृक्षत ' : किं सुबाहो स्वङ्गुरे ' ‘ इन्द्राणीमासु नारिषु ' इति द्वे ‘ उक्ष्णो हि मे ' ' अयमेमि' इति चतस्र इत्येता नवर्च इन्द्रवाक्यानि । अतस्तासामिन्द्र ऋषिः । ‘ परा हीन्द्र ' इति पञ्च ‘ अवीराम् ' इति द्वे ' वृषभो न तिग्मशृङ्गः' इत्याद्याश्चतस्र इत्येकादशर्चं इन्द्राण्या वाक्यानि । अतस्तासामिन्द्राण्यृषिः । ‘ उवे अम्ब ' ‘ वृषाकपायि रेवति ' • पशुर्ह नाम ' इति तिस्रो वृषाकपेर्वाक्यानि । अतस्तासां वृषाकपिर्ऋषिः । सर्वं सूक्तमैन्द्रं पञ्चपदापङ्क्तिच्छन्दस्कम् । तथा चानुक्रान्तं -- वि हि त्र्यधिकैन्द्रो वृषाकपिरिन्द्राणीन्द्रश्च समूदिरे पान्तुम्। ' इति । षष्ठेऽहनि ब्राह्मणाच्छंसिन उक्थ्यशस्त्र एतत्सूक्तम् । सूत्रितं च ---- ‘ अथ वृषाकपिं शंसेद्यथा होताज्याद्यां चतुर्थे ' ( आश्व. श्रौ. ८. ३) इति । यदि षष्ठे:हन्युक्थ्यस्तोत्राणि द्विपदासु न स्तुवीरन् सामगा यदि वेदमहरग्निष्टोमः स्यात्तदानीं ब्राह्मणाच्छंसी माध्यंदिने सवन आरम्भणीयाभ्यः ऊर्ध्वमेतत्सूक्तं शंसेद्विश्वजित्यपि । तथा च सूत्रितं -- सुकीर्तिं ब्राह्मणाच्छंसी वृषाकपिं च पङ्क्तिशंसम् ' (आश्व. श्रौ. ८. ४) इति ।।


वि । हि । सोतोः । असृक्षत । न । इन्द्रम् । देवम् । अमंसत ।यत्र । अमदत् । वृषाकपिः । अर्यः । पुष्टेषु । मत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१।

"सोतोः सोमाभिषवं कर्तुं "वि "असृक्षत । यागं प्रति मया विसृष्टा अनुज्ञाताः स्तोतारो वृषाकपेर्यष्टारः । “हि इति पूरणः । तत्र "देवं द्योतमानम् "इन्द्रं मां “न “अमंसत । मया प्रेरिताः सन्तोऽपि ते स्तोतारो न स्तुतवन्तः । किंतु मम पुत्रं वृषाकपिमेव स्तुतवन्तः । "यत्र येषु “पुष्टेषु सोमेन प्रवृद्धेषु यागेषु "अर्यः स्वामी “वृषाकपिः मम पुत्रः मत्सखा मम सखिभूतः सन् “अमदत् सोमपानेन हृष्टोऽभूत् । यद्यप्येवं तथापि “इन्द्रः अहं "विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगतः "उत्तरः उत्कृष्टतरः। माधवभट्टास्तु वि हि सोतोरित्येषर्गिन्द्राण्या वाक्यमिति मन्यन्ते। तथा च तद्वचनम् । इन्द्राण्यै कल्पितं हविः कश्चिन्मृगोऽदूदुषदिन्द्रपुत्रस्य वृषाकपेर्विषये वर्तमानः । तत्रेन्द्रमिन्द्राणी वदति । तस्मिन्पक्षे त्वस्या ऋचोऽयमर्थः । सोतोः सोमाभिषवं कर्तुं वि ह्यसृक्षत। उपरतसोमाभिषवा आसन् यजमाना इत्यर्थः । किंच मम पतिमिन्द्रं देवं नामंसत स्तोतारो न स्तुवन्ति । कुत्रेति अत्राह । यत्र यस्मिन् जनपदे पुष्टेषु प्रवृद्धेषु धनेष्वर्यः स्वामी वृषाकपिरमदत् । मत्सखा मत्प्रियश्चेन्द्रो विश्वस्मात् सर्वस्माज्जगत उत्तरः उत्कृष्टतरः ।।



परा । हि । इन्द्र । धावसि । वृषाकपेः । अति । व्यथिः ।नो इति । अह । प्र । विन्दसि । अन्यत्र । सोमऽपीतये । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥२

हे “इन्द्र त्वम् "अति अत्यन्तं “व्यथिः चलितः "वृषाकपेः वृषाकपिं “परा “धावसि प्रतिगच्छसि । "अन्यत्र "सोमपीतये सोमपानाय “नो "अह नैव च “प्र “विन्दसि प्रगच्छसीत्यर्थः । सोऽयम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ।



किम् । अयम् । त्वाम् । वृषाकपिः । चकार । हरितः । मृगः ।यस्मै । इरस्यसि । इत् । ऊं इति । नु । अर्यः । वा । पुष्टिऽमत् । वसु । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥३

हे इन्द्र “त्वां प्रति "हरितः हरितवर्णः "मृगः मृगभूतः "अयं वृषाकपिः। मृगजातिर्हि वृषाकपिः । "किं प्रियं "चकार अकार्षीत् । "यस्मै वृषाकपये "पुष्टिमत् पोषयुक्तं "वसु धनम् "अर्यो “वा उदार इव स त्वं "नु क्षिप्रम् “इरस्यसीत् प्रयच्छस्येव । यः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥



यम् । इमम् । त्वम् । वृषाकपिम् । प्रियम् । इन्द्र । अभिऽरक्षसि ।श्वा । नु । अस्य । जम्भिषत् । अपि । कर्णे । वराहऽयुः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥४

हे “इन्द्र “त्वं "प्रियम् इष्टं पुत्रं "यमिमं "वृषाकपिम् "अभिरक्षसि परिपालयसि “अस्य एनं वृषाकपिम् । द्वितीयार्थे षष्ठी। "वराहयुः वराहमिच्छन् “श्वा "नु क्षिप्रं "जम्भिषत् भक्षयतु । "अपि च “कर्णे गृह्णात्विति शेषः । श्वानो हि वराहमिच्छन्ति । सिद्धमन्यत् ॥



प्रिया । तष्टानि । मे । कपिः । विऽअक्ता । वि । अदूदुषत् ।शिरः । नु । अस्य । राविषम् । न । सुऽगम् । दुःऽकृते । भुवम् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥५।

“मे मह्यमिन्द्राण्यै “तष्टानि यजमानैः कल्पितानि “प्रिया प्रियाणि “व्यक्ता व्यक्तान्याज्यैर्विशेषेणाक्तानि हवींषि कश्चित् वृषाकपेर्विषये वर्तमानः "कपिः “व्यदूदुषत् दूषयामास । ततोऽहम् “अस्य तत्कपिस्वामिनो वृषाकपेः “शिरो “नु क्षिप्रं "राविषं लुनीयाम् । "दुष्कृते दुष्टस्य कर्मणः कर्त्रे वृषाकपयेऽस्मै "सुगं सुखं न "भुवम् अहं न भवेयम् । अस्मै सुखप्रदात्री न भवामीत्यर्थः । अस्या मम पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ १ ॥



न । मत् । स्त्री । सुभसत्ऽतरा । न । सुयाशुऽतरा । भुवत् ।न । मत् । प्रतिऽच्यवीयसी । न । सक्थि । उत्ऽयमीयसी । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥६

“मत् मत्तोऽन्या "स्त्री नारी "सुभसत्तरा अतिशयेन सुभगा "न "भुवत् न भवति । नास्तीत्यर्थः । किंच मत्तोऽन्या स्त्री "सुयाशुतरा अतिशयेन सुसुखातिशयेन सुपुत्रा वा "न भवति । तथा च मन्त्रान्तरं -- ददाति मह्यं यादुरी याशूनां भोज्या शता' (ऋ. सं. १. १२६. ६) इति । किंच “मत् मत्तोऽन्या “प्रतिच्यवीयसी पुमांसं प्रति शरीरस्यात्यन्तं च्यावयित्री “न अस्ति । किंच मत्तोऽन्या स्त्री “सक्थ्युद्यमीयसी संभोगेऽत्यन्तमुत्क्षेप्त्री “न अस्ति । न मत्तोऽन्या काचिदपि नारी मैथुनेऽनुगुणं सक्थ्युद्यच्छतीत्यर्थः । मम पतिः "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टः ॥



उवे । अम्ब । सुलाभिके । यथाऽइव । अङ्ग । भविष्यति ।भसत् । मे । अम्ब । सक्थि । मे । शिरः । मे । विऽइव । हृष्यति । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥७

एवमिन्द्राण्या शप्तो वृषाकपिर्ब्रवीति । “उवे इति संबोधनार्थो निपातः । हे "अम्ब मातः “सुलाभिके शोभनलाभे त्वया "यथैव येन प्रकारेणैवोक्तं तथैव तत् "अङ्ग क्षिप्रं "भविष्यति भवतु । किमनेन त्वदनुप्रीतिकारिणा ग्रहेण मम प्रयोजनम् । किंच "मे मम पितुः त्वदीयो “भसत् भग उपयुज्यताम्। किंच मम पितुस्त्वदीयं "सक्थि चोपयुज्यताम् । किंच "मे मम पितरमिन्द्रं त्वदीयं "शिरः च प्रियालापेन “वीव यथा कोकिलादिः पक्षी तद्वत् “हृष्यति हर्षयतु । मम पिता “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः ॥



किम् । सुबाहो इति सुऽबाहो । सुऽअङ्गुरे । पृथुस्तो इति पृथुऽस्तो । पृथुऽजघने ।किम् । शूरऽपत्नि । नः । त्वम् । अभि । अमीषि । वृषाकपिम् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥८

क्रुद्धामिन्द्र उपशमयति । हे “सुबाहो हे शोभनबाहो "स्वङ्गुरे शोभनाङ्गुलिके “पृथुष्टो पृथुकेशसंघाते “पृथुजघने विस्तीर्णजघने "शूरपत्नि वीरभार्ये हे इन्द्राणि “त्वं "नः अस्मदीयं “वृषाकपिं “किं किमर्थम् "अभ्यमीषि अभिक्रुध्यसि । एकः किंशब्दः पूरणः । यस्य पिता “इन्द्रः अहं “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥



अवीराम्ऽइव । माम् । अयम् । शरारुः । अभि । मन्यते ।उत । अहम् । अस्मि । वीरिणी । इन्द्रऽपत्नी । मरुत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥९

पुनरिन्द्रमिन्द्राणी ब्रवीति । “शरारुः घातुको मृगः “अयं वृषाकपिः “माम् इन्द्राणीम् “अवीरामिव "अभि "मन्यते विजानाति । "उत अपि च “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्या "अहम् इन्द्राणी “वीरिणी पुत्रवती "मरुत्सखा मरुद्भिर्युक्ता च "अस्मि भवामि । यस्या मम पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥



सम्ऽहोत्रम् । स्म । पुरा । नारी । समनम् । वा । अव । गच्छति ।वेधाः । ऋतस्य । वीरिणी । इन्द्रऽपत्नी । महीयते । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१०

“नारी स्त्री “ऋतस्य सत्यस्य "वेधाः विधात्री “वीरिणी पुत्रवती “इन्द्रपत्नी इन्द्रस्य भार्येन्द्राणी “संहोत्रं स्म समीचीनं यज्ञं खलु “समनं संग्रामं “वा। समितिः समनम्' इति संग्रामनामसु पाठात् । "अव प्रति “पुरा “गच्छति । “महीयते स्तोतृभिः स्तूयते च । तस्या मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ २ ॥



इन्द्राणीम् । आसु । नारिषु । सुऽभगाम् । अहम् । अश्रवम् ।नहि । अस्याः । अपरम् । चन । जरसा । मरते । पतिः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥११

अथेन्द्राणीमिन्द्रः स्तौति । "आसु सौभाग्यवत्तया प्रसिद्धासु "नारिषु स्त्रीषु स्त्रीणां मध्ये “इन्द्राणीं “सुभगां सौभाग्यवतीम् "अहम् इन्द्रः “अश्रवम् अश्रौषम्। किंच “अस्याः इन्द्राण्याः “पतिः पालकः "विश्वस्मात् "उत्तरः उत्कृष्टतरः "इन्द्रः “अपरं “चन अन्यद्भूतजातमिव "जरसा वयोहान्या "नहि "मरते न खलु म्रियते । यद्वा । इदं वृषाकपेर्वाक्यम् । तस्मिन् पक्षे त्वहमिति शब्दो वृषाकपिपरतया योज्यः । अन्यत्समानम् ॥

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न । अहम् । इन्द्राणि । ररण । सख्युः । वृषाकपेः । ऋते ।यस्य । इदम् । अप्यम् । हविः । प्रियम् । देवेषु । गच्छति । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१२

हे “इन्द्राणि "अहम् इन्द्रः “सख्युः मम सखिभूतात् "वृषाकपेर्ऋते प्रियं वृषाकपिं विना “न "ररण= न रमे । "अप्यम्= अप्सु भवमद्भिर्वा संस्कृतं "प्रियं प्रीतिकरम् "इदम् उपस्थितं "हविः "देवेषु देवानां मध्ये “यस्य ममेन्द्रस्य सकाशं "गच्छति । यश्चाहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा । अयमर्थः । हे इन्द्राणि वृषाकपेः सख्युरिन्द्रादृतेऽहं वृषाकपिर्न रारण न रमे। अन्यत्समानम् ॥

वृषाकपायि । रेवति । सुऽपुत्रे । आत् । ऊं इति । सुऽस्नुषे ।घसत् । ते । इन्द्रः । उक्षणः । प्रियम् । काचित्ऽकरम् । हविः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१३।

हे वृषाकपायि । कामानां वर्षकत्वादभीष्टदेशगमनाच्चेन्द्रो वृषाकपिः । तस्य पत्नि । यद्वा । वृषाकपेर्मम मातरित्यर्थः । “रेवति धनवति "सुपुत्रे शोभनपुत्रे "सुस्नुषे शोभनस्नुषे हे इन्द्राणि "ते तवायम् "इन्द्रः "उक्षणः सेचनसमर्थान् “आदु अनन्तरमेव । शीघ्रमेवेत्यर्थः । पशून् “घसत् प्राश्नातु । किंच “काचित्करम् । कं सुखम् । तस्याचित् संघः । तस्करं हविः "प्रियम् इष्टं कुर्विति शेषः । किंच ते पतिः “इन्द्रः “विश्वस्मात् “उतरः । तथा च यास्कः - ‘ वृषाकपायि रेवति सुपुत्रे मध्यमेन सुस्नुषे माध्यमिकया वाचा । स्नुषा साधुसादिनीति वा साधुसानिनीति वा । प्रियं कुरुष्व सुखाचयकरं हविः सर्वस्माद्य इन्द्र उत्तरः' (निरु. १२, ९) इति ॥


उक्ष्णः । हि । मे । पञ्चऽदश । साकम् । पचन्ति । विंशतिम् ।उत । अहम् । अद्मि । पीवः । इत् । उभा । कुक्षी इति । पृणन्ति । मे । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१४

अथेन्द्रो ब्रवीति । “मे मदर्थं “पञ्चदश पञ्चदशसंख्याकान् “विंशतिं विंशतिसंख्याकांश्च “उक्ष्णः वृषभान् "साकं सह मम भार्ययेन्द्राण्या प्रेरिता यष्टारः "पचन्ति । “उत अपि च अहमग्नि तान् भक्षयामि । जग्ध्वा चाहं "पीव “इत स्थूल एव भवामीति शेषः । किंच "मे मम “उभा उभौ “कुक्षी “पृणन्ति सोमेन पूरयन्ति यष्टारः । सोऽहम् "इन्द्रः "सर्वस्मात् "उत्तरः ॥


वृषभः । न । तिग्मऽशृङ्गः । अन्तः । यूथेषु । रोरुवत् ।मन्थः । ते । इन्द्र । शम् । हृदे । यम् । ते । सुनोति । भावयुः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१५

अथेन्द्राणी ब्रवीति । "तिग्मशृङ्गः तीक्ष्णशृङ्गः "वृषभो "न यथा वृषभः "यूथेषु गोसंघेषु “अन्तः मध्ये “रोरुवत् शब्दं कुर्वन् गा अभिरमयति तथा हे इन्द्र त्वं मामभिरमयेति शेषः । किंच “हे इन्द्र "ते तव "हृदे हृदयाय "मन्थः दध्नो मथनवेलायां शब्दं कुर्वन् “शं शंकरो भवत्विति शेषः । किंच "ते तुभ्यं "यं सोमं “भावयुः भावमिच्छन्तीन्द्राणी “सुनीति अभिषुणोति सोऽपि शंकरो भववित्यर्थः । मम पतिः “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ३ ॥


न । सः । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् ।सः । इत् । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुषः । विऽजृम्भते । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१६

हे इन्द्र "सः जनः “न “ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे न शक्नोति "यस्य जनस्य “कपृत् शेपः “सक्थ्या सक्थिनी “अन्तरा "रम्बते लम्बते । "सेत् स एव स्त्रीजने “ईशे मैथुनं कर्तुं शक्नोति “यस्य जनस्य “निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं "विज़म्भते विवृतं भवति । यस्य च पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् “उत्तरः ॥


न । सः । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुषः । विऽजृम्भते ।सः । इत् । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१७

“सः जनः “न "ईशे मैथुनं कर्तुं नेष्टे "यस्य जनस्य "निषेदुषः शयानस्य "रोमशम् उपस्थं “विजृम्भते विवृतं भवति । "सेत् स एव जनः “ईशे ईष्टे मैथुनं कर्तुं शक्नोति "यस्य जनस्य "कपृत् प्रजननं "सक्थ्या सक्थिनी “अन्तरा “रम्बते लम्बते । सिद्धमन्यत् । पूर्वोक्तव्यतिरेकोऽत्र द्रष्टव्यः । पूर्वस्यामृचि यियप्सुरिन्द्राणीन्द्रं वदति । अत्र त्वयियप्सुरिन्द्र इन्द्राणीं वदतीत्यविरोधः ॥


अयम् । इन्द्र । वृषाकपिः । परस्वन्तम् । हतम् । विदत् ।असिम् । सूनाम् । नवम् । चरुम् । आत् । एधस्य । अनः । आऽचितम् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १८

हे “इन्द्र "अयं “वृषाकपिः "परस्वन्तं परस्वमात्मनो विषयेऽवर्तमानं "हतं हिंसितं “विदत् विन्दतु । तथा हतस्य विशसनाय “असिं शस्त्रं "सूनाम् उद्धानं पाकार्थं "नवं प्रत्यग्रं "चरुं भाण्डम् “आत् अनन्तरम् “एधस्य काष्ठस्य “आचितं पूर्णम् "अनः शकटं च विन्दतु । मस पतिः "इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥


अयम् । एमि । विऽचाकशत् । विऽचिन्वन् । दासम् । आर्यम् ।पिबामि । पाकऽसुत्वनः । अभि । धीरम् । अचाकशम् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥१९

अथेन्द्रो ब्रवीति । "विचाकशत् पश्यन् यजमानान् “दासम् उपक्षपयितारमसुरम् "आर्यम् अपि च "विचिन्वन् पृथक्कुर्वन् "अयम् अहमिन्द्रः “एमि यज्ञं प्रति गच्छामि। यज्ञं गत्वा च “पाकसुत्वनः । पचतीति पाकः । सुनोतीति सुत्वा । हविषां पक्तुः सोमस्याभिषोतुर्यजमानस्य पाकेन विपक्वेन मनसा सोमस्याभिषोतुर्वा यजमानस्य संबन्धिनं सोमं "पिबामि । तथा “धीरं धीमन्तं यजमानम् "अभि "अचाकशम् अभिपश्यामि । योऽहम् "इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः ॥


धन्व । च । यत् । कृन्तत्रम् । च । कति । स्वित् । ता । वि । योजना ।नेदीयसः । वृषाकपे । अस्तम् । आ । इहि । गृहान् । उप । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥२०

“धन्व निरुदकोऽरण्यरहितो देशः । "कृन्तत्रं कर्तनीयमरण्यम् । "यत् यत् "च “धन्व "च कृन्तत्रं च भवति । मृगोद्वासमरण्यमेवंविधं भवति न त्वत्यन्तविपिनम् । तस्य शत्रुनिलयस्यास्मदीयगृहस्य च मध्ये "कति "स्वित् “ता तानि “योजना योजनानि स्थितानि । नात्यन्तदूरे तद्भवतीत्यर्थः । अतः "नेदीयसः अतिशयेन समीपस्थाच्छत्रुनिलयात् हे "वृषाकपे त्वम् "अस्तम् अस्माकं गृहं “वि “एहि विशेषेणागच्छ । आगत्य च "गृहान् यज्ञगृहान् "उप गच्छ । यतोऽहम् "इन्द्रः सर्वस्मादुत्कृष्टः ॥


पुनः । आ । इहि । वृषाकपे । सुविता । कल्पयावहै ।यः । एषः । स्वप्नऽनंशनः । अस्तम् । एषि । पथा । पुनः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥२१

आगत्य प्रतिगतं वृषाकपिमिन्द्रो ब्रवीति । हे "वृषाकपे त्वं "पुनरेहि अस्मान् प्रत्यागच्छ । आगते च त्वयि "सुविता सुवितानि कल्याणानि त्वच्चित्तप्रीतिकराणि कर्माणि "कल्पयावहै इन्द्राण्यहं च आवामुभौ पर्यालोच्य कुर्याव । किंच “यः स्वप्ननंशनः उदयेन सर्वस्य प्राणिनः स्वप्नानां नाशयिता आदित्यः सः “एषः त्वं “पथा मार्गेण “अस्तम् आत्मीयमावासं "पुनः “एषि गच्छसि । यतोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् “उत्तरः। तथा च यास्कः - ‘ सुप्रसूतानि वः कर्माणि कल्पयावहै य एष स्वप्ननंशनः स्वप्नान्नाशयस्यादित्य उदयेन सोऽस्तमेषि पथा पुनः' (निरु. १२.२८) इति ॥


यत् । उदञ्चः । वृषाकपे । गृहम् । इन्द्र । अजगन्तन ।क्व । स्यः । पुल्वघः । मृगः । कम् । अगन् । जनऽयोपनः । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥२२

गत्वा पुनरागतं वृषाकपिमिन्द्रः पृच्छति । हे “इन्द्र परमैश्वर्यवन् हे "वृषाकपे यूयम् "उदञ्चः उद्गामिनः सन्तो मद्गृहम् "अजगन्तन आगच्छ । एकस्यापि बहुवचनं पूजार्थम् । तत्र भवतः संबन्धी “पुल्वघः बहूनां भौमरसानामत्ता “स्यः सः "मृगः "क्व अभूत् "जनयोपनः जनानां मोदयिता मृगः "कं वा देशम् "अगन् अगच्छत् । सोऽहम् “इन्द्रः "विश्वस्मात् "उत्तरः । यद्वा इन्द्राणीवाक्यमिदम् । अत्र यास्कः---- ‘ यदुदुञ्चो वृषाकपे गृहमिन्द्राजगमत क्व स्य पुल्वघो मृगः क्व स बह्वादी मृगः । मृगो मार्ष्टेर्गतिकर्मणः । कमगमद्देशं जनयोपनः ' (निरु. १३. ३ ) इति ॥



पर्शुः । ह । नाम । मानवी । साकम् । ससूव । विंशतिम् ।भद्रम् । भल । त्यस्यै । अभूत् । यस्याः । उदरम् । आमयत् । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥२३

इन्द्रविसृज्यमानमनेन' मन्त्रेण वृषाकपिराशास्ते । हे "भल इन्द्रेण विसृज्यमान शर । भलतिर्भेदनकर्मा । "पर्शुः "नाम मृगी । “ह इति पूरणः । "मानवी मनोर्दुहितेयं "विंशतिं विंशतिसंख्याकान् पुत्रान् "साकं सह "ससूव अजीजनत् । "त्यस्यै तस्यै “भद्रं भजनीयं कल्याणम् "अभूत् भवतु । लोडर्थे लुङ। "यस्या "उदरमामयत् गर्भस्थैर्विंशतिभिः पुत्रैः पुष्टमासीत् । मम पिता “इन्द्रः “विश्वस्मात् "उत्तरः ॥ ॥ ४ ॥

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वृषाकपि----
                  वृषाकपि सूक्त -ऋग्वेद १०/४६... में इंद्र-इंद्राणी संवाद में ....इंद्र का कथन है....  स्तोताओं से मैंने सोम अभिषुत को कहा था |  वृषाकपि की स्तुति की गयी  –‘ सोम से प्रवृद्ध होकर इस यज्ञ में वृषाकपि जैसे वीर सखा होकर, सोमपान कर हष्ट-पुष्ट हुए, मैं इंद्र सर्वश्रेष्ठ हूँ |’  इंद्राणी का कथन है---
     ‘हे इंद्र! तुम अत्यंतगमनशील होकर वृषाकपि के पास जाते हो, सोम के लिए नहीं |’ 
      कुछ स्थानों पर वृषाकपि इंद्र का अनुचर व पुत्र भी कहा गया है 

     ऋग्वेद १०/८६/१८ में कथन है -अयमिन्द्र वृषाकपि परस्वंव विदत|
                         असि सूनांनवं चरुमादेधस्यान आचितं| विश्वमादिन्द्र उत्तरः|| 
          -----अर्थात हे इंद्र! वृषाकपि को मारा गया पशु, असि, नया बनाया गया चरू और ईंधन से भरी हुई गाडी प्राप्त होगई है | इंद्र सबसे ऊपर है |

                            
  विष्णु सहस्रनाम में विष्णु का एक नाम वृषाकपि है, शायद परवर्ती वैदिक काल में विष्णु, इंद्र से प्रभावशाली देवता होते जा रहे थे, कहीं कहीं उनको इंद्र का छोटा भ्राता भी कहा गया है | 


                    अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि:-अच्युतः ।
                     वृषाकपि:-अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।।                    
                     वसु:-वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः ।
                     अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।।                      
                      वृषाही वृषभो विष्णु:-वृषपर्वा वृषोदरः ।
                      वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।।                     
                      शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
                      गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।।   



-----३३ कोटि देवताओं में  जो 11 रूद्र बताये गए हैं ... :....उनमें में एक रूद्र ..वृषाकपि हैं |  ( ये ११ रूद्र  हैं....हरबहुरूपत्र्यम्बकअपराजिता, वृषाकपिशम्भूकपर्दीरेवतम्रग्व्यधशर्व तथा कपाली)
 
         ---यह शायद ऋग्वेद के किसी विशेष घटना-सूत्र की अप्राप्य कड़ी लगती है | वृषाकपि –विष्णु के किसी.. नृसिंह (मानव-सिंह ), हनुमान ( वृष-बानर मानव- ...वृष = महा बलिष्ठ +वानर = हनुमान का वैदिक रूप  ) या नंदी ( वृषभ मानव ) या स्वयं पशुपति शिव के साथी-सहयोगी-सैनिक का रूप लगता है जो कोई आदिम मानव, आर्य अथवा आर्येतर स्थानीय लोक-देवता भी था जो ‘आर्य-देव मंडल’ में सहयोगी की भूमिका में था | उसके साथ इंद्र की मैत्री, अति प्रारम्भिक  ...सामाजिक –व्यवहारिक-राजनैतिक व नैतिक सहयोग एवं शक्ति-संतुलन के तथ्यों-घटनाओं के व्यवहारिक पक्ष की और इंगित करती है| 






कन्या । वाः । अवऽयती । सोमम् । अपि । स्रुता । अविदत् ।अस्तम् । भरन्ती । अब्रवीत् । इन्द्राय । सुनवै । त्वा । शक्राय । सुनवै । त्वा ॥१।

( ऋग्वेद ८/९१/१)

“वाः उदकं प्रति “अवायती स्नानार्थमभ्यवगच्छन्ती “कन्या अपाला नाम स्त्री “स्रुता स्रुतौ मार्गे “सोममपि “अविदत् अलभत । ‘ विद्लृ लाभे' । लतारूपं तं सोमम् “अस्तं गृहं प्रति “भरन्ती आहरन्ती सा सोमम् "अब्रवीत् । हे सोम “त्वा त्वाम् “इन्द्राय "सुनवै मम दन्तैरेवाभिषुणवै । पुनर्हे सोम “त्वा त्वां “शक्राय समर्थायेन्द्राय “सुनवै इदानीमेवाभिषवं करवै । सोमभक्षणकाले दन्तध्वनिं ग्रावध्वनिमिति मत्वेन्द्रस्तामगमत् । एषोऽर्थः शाट्यायनब्राह्मणे स्पष्टमभिहितः ‘ सा तीर्थमभ्यवयन्ती सोमांशुमविन्दत्तं समखादत्तस्यै ह ग्रावाण इव दन्ता ऊदुः। स इन्द्र आद्रवत् ग्रावाणो वै वदन्तीति । सा तमभिव्याजहार कन्या वारवायती सोममपि स्रुताविददित्यस्यै त इदं ग्रावाण इव दन्ता वदन्तीति विदित्वेन्द्रः पराङावर्तत । तमब्रवीदसौ य एषि वीरक इत्यादिना' इति ।।

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