शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

भारतीय धर्म शास्रों में चमार- राजपूतों के समकक्ष एक योद्धा जनजाति- (एक संक्षिप्त संस्करण)

"चमार शब्द है जाति अथवा व्यवसाय परक विशेषण -👇____________________________________

चमार कौन थे ? इतिहास का एक बिखरा हुआ अध्याय)"


 चर्म्म तन्निर्म्मितं पादुकादि करोति( कृ+अण् )-उपर्ग समास।

 ★-पादुकादिकारके= पादुका आदि का निर्माण करने वाला “पराशरधर्म शास्त्र में वर्णन है कि   

 १-"चाण्डाल्यां तीवराज्जातश्चर्म्मकार तीवर पुरुष से चाण्डाली में उत्पन्न चर्मकार है ।

२- सङ्कीर्ण्णजातिभेदे पुंस्त्री स्त्रियां जातित्वात् ङीष् चर्मकारी। “चर्म्मकारस्य द्वौ पुत्रौ गणकोवाद्यपूरकः” ।

 ३-"मनुना तु वैदेह्यां निषादाज्जातस्य कारावराख्यचर्म्मकारसंज्ञोक्ता यथा “कारावरो निषादात्तु चर्म्मकारः प्रसूयते” उत्तरत्र वैदेह्यामेवेत्युक्तेः अत्रापि तस्यामेवेत्यन्वयः ।

 ४-उशनसा तु “सूताद्विप्रप्रसूतायां(ब्राह्मण कन्यां) सूतोवेणुक उच्यते । सूताद्नृपायामेव तस्यैव जातोयश्चर्म्मकारकः”

 इत्युक्तम् एवञ्च मुनित्रयप्रामाण्यात् त्रिविधैव चर्मकारजातिः । 

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“धिग्वर्ण्णानां चर्म्म कार्य्यम्” मनुना तेषां वृत्तिरुक्ता । चर्म्मकरोति क्विप् (चर्म्मकृदप्यत्र + ण्वुल् =चर्म्मकारक 

तीन  कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि तीन स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
'परन्तु कुछ सत्य अवश्य है जो सिद्ध करता है कि राजपूत क्षत्रिय या शुद्ध प्रतिमान है ।

कालान्तरण में राजपूत एक संघ बन गया 
जिसमें कुछ चारण' भाट तथा विदेशी जातियों का समावेश हो हुआ।
और रही बात आधुनिक समय में राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है।
इसी तरह चमार जो एक चर्म वत्ति से सम्बन्धित व्यवसाय परक विशेषण है । उनको भी जातीय रूप में राजपूतों से कहीं उच्चतम स्तर पर शास्त्रों में वर्णित किया तो कहीं उनसे निम्न स्तर पर इसी प्रकार गोप जो वस्तुत अहीरो अथवा यादव का गो पालन वृत्ति का विशेषण है  उसको भी असंगत रूप से वर्णसंकर रूप में वर्णन किया है 
औशनसीस्मृति से चारों की उत्पत्ति से सम्बद्ध कुछ सन्दर्भ हैं 

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नृपाद्ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।२।। जात: सूतोऽत्र निर्दिष्ट: प्रतिलोमविधिर्द्विज: वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।।३।

"नृप(क्षत्रिय) द्वारा ब्राह्मण की कन्या में विवाह सम्बन्ध होने पर जो पुत्र उत्पन्न होता है। वह सूत है ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण द्विज हैं ।ब्राह्मण शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य वर्ण के पुरुष जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार है । 

मनु स्मृति के अनुसार यज्ञोपवीत मनुष्य का दूसरा जन्म माना गया है।
अत: सूत तो शास्त्रीय आधार पर क्षत्रिय ही है वह भी सात्विक क्षत्रिय क्योंकि जिसकी ब्राह्मणी माता है।
 ययाति की पत्नी देवयानी भी ब्राह्मणी थी परन्तु उनकी सन्ताने तो वर्णसंकर अथवा प्रतिलोम नहीं थी केवल ययाति के शाप के कारण ही उन्हें तत्कालीन पुरोहितों ने हीन रूप में वर्णन किया अन्यथा वे क्षत्रिय ही थे ।
सूत में ब्राह्मण भाव के कारण शास्त्रो का वक्ता का गुण विद्यमान हुआ और क्षत्रिय भाव के कारण योद्धा का मार्गदर्शक अथवा उसके रथ को हाँ करने वाला होने का गुण विद्यमान हुआ अत: सूत श्रेष्ठ  अथवा सात्विक क्षत्रिय है जो रजोगुणी क्षत्रिय से श्रेष्ठ है; ।

क्योंकि क्षत्रिय वर्ण के माता-पिता की सन्तान राजसिक क्षत्रिय होती है और सतोगुण रजोगुण की अपेक्षा उच्च है ।
और सूत के द्वारा क्षत्रिय की कन्या में उत्पन्न संतान चर्म्मकार(चमार)है ।  
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अत: चमार क्षत्रिय ही हैं प्रवृति और वृत्ति और वंश तीनों आधारों पर सिद्ध है सैना में पदाति सैनिकों की श्रेणि में प्राय: समायोजित किया जाता था।

यह ब्राह्मण शास्त्रों से प्रमाणित ही है नीचे शुक्राचार्य अथवा उशना की 'औशनसीस्मृति' से सन्दर्भ हैं । 

अत: राजपूत लोग चमारों को गाली न दें 
 ब्रह्म वैवर्त पुराण में निम्न सन्दर्भों में 

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एकजातिर्द्विजातिन्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यः प्रथमो हि सः ।। २२७.७३ ।।

नामजातिगृहं तेषामभद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयो मयः सङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः। २२७.७४ ।।
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धर्मोपदेशं शूद्रस्तु द्विजानामभिकुर्वतः।
तप्तमासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः। २२७.७५ ।

श्रुतिं देशञ्च जातिञ्च कर्म शारीरमेव च।
वितथञ्च ब्रुवन् दण्ड्यो राजा द्विगुणसाहसम् ।। २२७.७६ ।।

(ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय दशम्)
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सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति ।।
बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः ।। ९९ ।।
अर्थात क्षत्रिय पुरुष और राजपूत की कन्या से तीवर की उत्पत्ति होती है ।
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तीवरस्य तु बीजेन तैलकारस्य योषिति।।
बभूव पतितो दस्युर्लेटश्च परिकीर्तितः ।। 1.10.१००।

लेटस्तीवरकन्यायां जनयामास षट् सुतान् ।
माल्लं मन्त्रं मातरं च भण्डं कोलं कलन्दरम् । १०१।।
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ब्राह्मण्यां शूद्रवीर्य्येण पतितो जारदोषतः।।
सद्यो बभूव चण्डालः सर्वस्मादधमोऽशुचिः।। ।। १०२ ।।
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तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।।
चर्मकार्य्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह। १०३।।
अर्थात तीवर  पुरुष द्वारा चाण्डाल कन्या में चर्म कार उत्पन्न होता है।

मांसच्छेद्यां तीवरेण कोञ्चश्च परिकीर्तितः।
कोञ्चस्त्रियां तु कैवर्त्तात्कर्त्तारः परिकीर्तितः। १०४।।

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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणाद् (आगर)इति प्रकीर्तितः ।। 1.10.११० ।।
(नमक बनानेवाला पुरुष आगर कहलाते  )
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क्षत्रवीर्य्येण वैश्यायां कैवर्त्तः परिकीर्तितः ।।
कलौ तीवरसंसर्गाद्धीवरः पतितो भुवि । १११।।

कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः।
स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वपुरुषः स्मृतः।१३४
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पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः।
पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसमुद्भवः।१३९ ।
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वैश्यायां सूतवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह ।।
स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः।१३६।

एवं ते कथितः किंचित्पृथिव्यां जातिनिर्णय ।।
वर्णसङ्करदोषेण बह्व्योऽन्याःसन्ति जातयः।१३७।।

सबन्धो येषु येषां यः सर्वजातिषु सर्वतः।
तत्त्वं ब्रवीमि वेदोक्तं ब्रह्मणा कथितं पुरा।१३८।

1.10.१३८ ।।

शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्यद्विजन्मनोः ।। १८ ।।
विश्वकर्मा च शूद्रायां वीर्य्याधानं चकार सः ।।
ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ।। १९ ।।
मालाकारः शङ्खकारः कर्मकारः कुविन्दकः ।।
कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः ।। 1.10.२० ।।
सूत्रकारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च ।।
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तीन ऋषियों पराशर" मनु" और उशना-( शुक्राचार्य) ने तीन प्रकार से चर्मकार की उत्पत्ति बतायी। परन्तु इसमें उशना( शुक्राचार्य) की प्राचीन है क्योंकि महाभारत में इसका उल्लेख मिलता है।

👇.                        "इतिहास  के अँधेरों में ग़ु़म  एक महान जाति ।

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रुढ़िवादी वर्ण-व्यवस्था के पोषक पुरोहित वर्ग विशेष ध्यान रखना कि सभी पुरोहित या ब्राह्मण नकारात्मक नहीं थे। जैसे कि भार्गव ब्राह्मण शुक्राचार्य ।

 पुष्यमित्र के काल में कुछ स्मृति कारों के द्वारा चमार को व्यवसाय परक विशेषण से जातिपरक नाम देकर शास्त्रों में उन पर शासन करने के विधान पारित अथव  आरोपित कर दिए गये।

और चमार शब्द को संस्कृत भाषा के चर्मकार शब्द से व्युत्पन्न कर दिया गया ; और समाज द्वारा यही इसकी व्युत्पत्ति- सिद्ध मान भी ली गयी ।

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यद्यपि अवान्तर काल में चमड़े का काम करने वाली(कौलितरीय- द्रविड वर्ग) की इस जन-जाति के लिए चमार शब्द व्यवसाय परक विशेषण के रूप में भी रूढ़ हो गया था। परन्तु  इनके लिए वस्त्र निर्माण हेतु भी चर्म से जुड़ना एक संयोग ही था। 

_____________________________________चमार प्राचीन काल में क्षत्रिय ही थे परन्तु सिद्धान्त हीन तथ्यों को अस्वीकार करने के कारण इन्हें तत्कालीन पुरोहित समाज के कुछ उत्साही व्यक्तियों ने वर्ण सकर शूद्र सिद्ब करने के लिए धर्म शास्त्रों में अनेक विधान शूद्र दमन हेतु बनाये गये जो मानवीयता की हद से परे थे।

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★-इसी प्रकार राजपूतों के विषय में भी उन्हें वर्णसंकर बनाकर शूद्र रूप में वर्णित किया गया।

"क्षत्रिय पुरुष से ब्राह्मण स्त्री में उत्पन्न संतान सूत जाति का होता है।

और सूत जाति के पुरुष से क्षत्रिय स्त्री के गर्भ से चर्मकार उत्पन्न होता हैं।

मनुस्मृति अध्याय 10 में व्रात्य (वर्णसंकर) क्षत्रिय से  करण  जाति की उत्पत्ति होती है।

और क्षत्रिय से करण जाति की कन्या से राजपुत्र (राजपूत) उत्पन्न हुए.

विशेष—ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जाति "वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न सन्तान है और जो वंशावलि लिखने का काम करते थे । तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं  लेखन कार्य के कारण ही कुछ करण जाति के लोग कायस्थों में समाविष्ट हो गये अत:करण कायस्थ का एक अवांतर भेद है । यह आसाम, बरमा और स्याम की एक जंगली जाति भी है।।

इसलिए चमारों को राजपूतो के समकक्ष रखने के लिए ही कुछ बुद्धि जीवियों कदाचित् जाटव महासभा बनाई गई।

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पुष्य-मित्र सुंग ई०पू० (148) के निर्देशन में जब ब्राह्मण वर्चस्व को पुन:स्थापित करने के लिए योजना बद्ध तरीके से बौद्धमत के विरोध की प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गये अनेक ग्रन्थों  -जैसे मनु-स्मृति" पाराशर स्मृति आदि में 'चमार' जाति की उत्पत्ति (चाण्डाल स्त्री और निषाद पुरुष )से बतलाकर नि:सन्देह इनको हीन व हेय बनाने का प्रयास  की गया। 

परिणामस्वरूप चमार जाति आँख बन्द करके समस्त सनातन संस्कृति और आध्यात्मिकता के खिलाफ भी खड़े हो गये ।

और ईश्वर के अस्तित्व को नकारने के लिए नास्तिकता का अवलम्बन करने लगे।

कालांतर में प्राचीन ऋषियों ते आधार पर कुछ स्मृति कारों ने वर्णसंकर जातियों का निर्धारण किया। जसमें चमार भी हैं। 

★–जैसे कहीं कहीं  (वैदेह स्त्री और निषाद पुरुष) से  भी चर्मकार की उत्पत्ति वर्णित है।

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"कारावरो निषादात्तु चर्मकारः प्रसूयते । वैदेहिकादन्ध्रमेदौ बहिर्ग्रामप्रतिश्रयौ ।।36।

 (मनु-स्मृति- 10.36), 

"कारावरो निषाद्यां तु चर्मकार: प्रसूयते।चाण्डालात्पाण्डुसौपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान्।।२६।।

महाभारत अनुशासन पर्व बम्बई संस्करण (आध्याय 83 का 26वीँ श्लोक ।

" ब्रह्मवैवरत पुराण (दशमोऽध्याय श्लोक संख्या-103 पर तीव्र से चाण्डाल कन्या में चर्म कर) की व्युत्पत्ति बतायी जो प्रक्षिप्त ही है ।

तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह ।।
चर्मकार्य्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह। १०३।। (ब्रह्मवैवर्त पुराण)
अर्थात तीवर  पुरुष द्वारा चाण्डाल कन्या में चर्मकार उत्पन्न होता है।
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वर्द्धकी नापितो गोप : आशाप : कुंभकारक |
वाणिक्कित कायस्थ मालाकार कुटुंबिन ||
वरहो मेद चंडाल : दासी स्वपच कोलका |
एषां सम्भाषणात्स्नानं दर्शनादार्क वीक्षणम ||
( व्यास स्मृति:– 1/11-12)

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जबकि इनसे पूर्व की स्मृति जो शुक्राचार्य अथवा उशना के नाम पर रची गयी उस स्मृति में चर्मकार को सूत पिता और क्षत्राणी माता से उत्पन्न माना है। 

और यह तथ्य संगत भी है कि चर्मकार ढालधारी सैनिक होते थे।

यद्यपि सूत को भी प्रतिलोम क्षत्रिय माना गया है ; परन्तु प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न ।

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प्रतिलोम वह विवाह जिसमें पुरुष निम्न वर्ण का और स्त्री उच्चा वर्ण की हो।

प्रतिलोम शब्द का अर्थ ब्राह्मण के द्वारा ही अपने को उच्च मानकर निर्धारित किया गया है ।

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"शुक्रस्मृति में चर्मकार जाति का जन्म" 

नृपाद्ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।२।। जात: सूतोऽत्र निर्दिष्ट: प्रतिलोमविधिर्द्विज: वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।।३।

"अर्थ–★

"नृप(क्षत्रिय) द्वारा ब्राह्मण की कन्या में विवाह सम्बन्ध होने पर जो पुत्र उत्पन्न होता है। वह सूत है ; और ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण द्विज हैं । ब्राह्मण शास्त्रों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य वर्ण के पुरुष जिनको शास्त्रानुसार यज्ञोपवीत धारण अथवा (उपनयन) करने का अधिकार है वे द्विज ही हैं । 

मनुस्मृति के अनुसार यज्ञोपवीत मनुष्य का दूसरा जन्म माना गया है अत: सूत तो शास्त्रीय आधार पर क्षत्रिय ही है ; वह भी सात्विक क्षत्रिय क्योंकि जिसकी ब्राह्मणी माता है ।

ययाति की पत्नी देवयानी भी ब्राह्मणी थी; परन्तु उनकी सन्ताने तो वर्णसंकर अथवा प्रतिलोम नहीं थीं। केवल ययाति के शाप के कारण ही उन्हें तत्कालीन पुरोहितों ने हीन रूप में वर्णन किया अन्यथा वे क्षत्रिय ही थे।


★–सूत में हैं ब्राह्मण और क्षत्रिय के गुण-

 सूत में ब्राह्मण भाव के कारण  शास्त्रों का वक्ता होने का गुण विद्यमान हुआ । और क्षत्रिय भाव के कारण योद्धा का मार्गदर्शक अथवा उसके रथ को हाँकरने वाला होने का गुण विद्यमान हुआ।

 अत: सूत श्रेष्ठ  अथवा सात्विक क्षत्रिय है; जो रजोगुणी क्षत्रिय से श्रेष्ठ है; क्योंकि क्षत्रिय वर्ण के माता-पिता की सन्तान राजसिक क्षत्रिय होती है और सतोगुण- रजोगुण की अपेक्षा श्रेष्ठ व उच्च गुण है।  और सूत के द्वारा क्षत्रिय की कन्या में उत्पन्न संतान चर्म्मकार(चमार)है अत: चर्मकार श्रेष्ठ क्षत्रिय है ।  

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★–परन्तु सत्य को छिपा कर और अनुवाद गलत करके इन महान जातियों को हीन और पतित सिद्ध किया गया।

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और हीनता से ग्रस्त जनजातियांँ कब स्वाभिमान पर जीवन व्यतीत कर पाती हैं यह तो सर्वविदित ही है।

देखें---काशी के ब्राह्मणों द्वारा रचित पाराशर- स्मृति में ये श्लोकबद्ध वर्णन कल्पित व मनगढ़न्त है जिसमें अनेक सम्पन्न जातियों को भी शूद्र रूप में परिगणित किया गया है।

जो श्लोक पाराशर स्मृति में वर्णित है वह असंगत है क्योंकि इसमें सिद्धान्त हीन होकर अनेक जनजातियों को शूद्र वर्ण में वर्णन कर दिया है । ..

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"वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारको वणिक्। किरात: कायस्थो मालाकार: कुटुम्बिन ऐते चान्ये बहव: शूद्रा भिन्न स्वकर्मभिर्चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नटो वरटो मेद चाण्डादास श्वपचकोलका:।११।

एतेन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषांसम्भाषणाद्स्नानंदर्शनार्क वीक्षणम्।१२। 

अर्थ-

"वर्द्धकी (बढ़ई) ,नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 

चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।

और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन  करना चाहिए तब शुद्धि  होती है।

★–(यहाँ  कुछ बातें विचारणीय हैं कि वणिक् ( बनिया) और कायस्थ जो भारतीय समाज आज तक (सम्प्रति) में आर्थिकता और शैक्षिकता के उच्च पायदान पर प्रतिष्ठित हैं उन्हें स्मृतिकार द्वार शूद्र वर्ण में समायोजित करना इन ग्रन्थों के प्रक्षेपीकरण को सूचित करता है।

यहाँ कुछ बातें विचारणीय कि वणिक् और कायस्थ जो भारतीय समाज में आर्थिक और शैक्षिकता के उच्चपायदान पर आज भी प्रतिष्ठित हैं । उन्हे अन्य ग्रन्थों में एक पृथक वर्ण के रूप में  निर्धारित किया गया ।        जैसे कायस्थ का सम्बन्ध करण क्षत्रिय जाति से है।    और वणिक वैश्य वर्ण के अन्तर्गत पहले से ही समायोजित है तो यह मूर्खता पूर्ण लेखन इनके प्रक्षेप को प्रकाशित ही करता है। 

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भारतीय ग्रन्थों में अन्तर्विरोध और विरोधाभासी प्रकरण बहुतायत से हैं ;जो ग्रन्थों की प्रमाणिकता और प्राचीनता को संदिग्ध ही करते हैं ।

_________________________द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थम् न क्व चिद् भवेत् रत्यर्थम् त तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता।।(२६/५ विष्णु स्मृति)


द्विजस्य भार्या शूद्रा तु धर्मार्थे न भवेत् क्वचित्।५
रत्यर्थेमेव सा तस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिका।६
विष्णु स्मृति (२६)

"नृपाद् ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।२‌।

जात: सूतोऽत्र निर्दिष्ट: प्रति  लोमविधिर्द्विज: वेदानर्हस्तथा चैषां धर्माणां बोधक:।३।

अर्थ-क्षत्रिय से ब्राह्मण कन्या में विवाह होने पर जो पुत्र उत्पन्न होता है। वह सूत जाति का कहलाता है। यह प्रतिलोम विधि का द्विज क्षत्रिय है । यह वेदों के योग्य तथा धर्म का अनुबोधक होता है ।२-३।

"सूतात्विप्रप्रसूतायां सुतो वेणुक उच्यते। नृपायाम् तस्येैव जातो य: चर्मकारक:।।४।

सूत से ब्राह्मण की कन्या में उत्पन्न पुत्र वेणुक कहलाता है  और क्षत्रीय की कन्या में सूत से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह चर्मकार(चमार ) है। ।४।
सन्दर्भ सूत्र-
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"ब्राह्मण्यांक्षत्रियात्। चौर्याद्रथकार: प्रजायते।        वृत्तं च शूद्रवत्त सम द्विजत्वं प्रतिषिध्यते ।।५।            यानानां ये च वोढारस्तेषां च परिचारका:शूद्रवृत्या तु जीवति न क्षात्रं धर्माचरेत्।।६।  _______________________औशनसीस्मृतिप्रथमअध्याय-


वोढृ-(वहतीति  (वह् + तृच्) “ सूत रथवाहक-                  (मेदिनी कोश)
 
 
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"नृपाद् ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।।          जात:सूतोऽत्र निर्दिष्ट प्रतिलोमविधिर्द्विज:।        वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।        (औशनसीस्मृति-     प्रथमोऽध्याय)

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अर्थान्वय- 
राजा (क्षत्रिय) से ब्राह्मण कन्या में विवाह सम्बन्ध होने से उत्पन्न सन्तान सूत है । अत: बीज प्रधान होने से सूत प्रतिलोम क्षत्रिय ही हैै।
 यह निर्देशित है ये प्रतिलोम( विपरीत) विधि का द्विज क्षत्रिय है ।                                    वेदों के योग्य और इन वेदों के धर्म का अनुबोधक ( व्याख्याता) होते हैं ।
उपर्युक्त श्लोक में यह कहीं नहीं लिखा है कि सूत को वेदों का अधिकार नहीं है ।
वस्तुत: सूत मैं ब्राह्मण और क्षत्रिय के समन्वित गुण होते हैं ।


अत: चर्मकार ( चमार )क्षत्रिय है।परन्तु इसे वर्ण संकर कहने का कारण क्या है ? 

चर्म्म चर्म्मनिर्म्मितद्रव्यादिकं करोतीति  इति चर्म्मकार उच्यते ।  (कृ + “कर्म्मण्यण्” )।  ३। २ । १।  इति अण् )  वर्णसङ्करजातिविशेषः ।  चामार इति मुचि इति च भाषा ।।  

"स तु चाण्डाल्यां तीवराज्जात: इति पाराशरपद्धति:" 

तत्पर्य्यायः  १-पादूकृत् इत्यमरः । २। १। ७।।  पादुकृत् २ चर्म्मारः ३ । इति तट्टीका ।।  चर्म्मकृत् ४ पादुकाकारः । इति हलायुधः ।।  चर्म्मरुः ५ कुरटः      । इति त्रिकाण्डशेषः ।।  

चर्म्म तन्निर्म्मितं पादुकादि करोति कृ--अण् उप० स० । १ पादुकादिकारके “चाण्डाल्यां तीव- राज्जातश्चर्म्मकार इति स्मृतः” पराशरोक्ते, २ सङ्कीर्ण्ण- जातिभेदे पुंस्त्री स्त्रियां जातित्वात् ङीष् । “चर्म्मकारस्य द्वौ पुत्रौ गणकोवाद्यपूरकः” । “मनुना तु वैदेह्यां निषादाज्जातस्य कारावराख्यचर्म्मकारसंज्ञोक्ता यथा “कारावरो निषादात्तु चर्म्मकारः प्रसूयते” उत्तरत्र वैदेह्यामेवेत्युक्तेः अत्रापि तस्यामेवेत्यन्वयः । उशनसा तु “सूताद्विप्रप्रसूतायां सूतोवेणुक उच्यते  नृपायामेव तस्यैव जातोयश्चर्म्मकारकः” इत्युक्तम् । एवञ्च मुनित्रयप्रामाण्यात् त्रिविधैव चर्मकारजातिः “धिग्वर्ण्णानां चर्म्म कार्य्यम्” मनुना तेषां वृत्तिरुक्ता  चर्म्मकरोति क्विप् चर्म्मकृदप्यत्र । ण्वुल् चर्म्मकारक तत्रार्थे

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परन्तु ये व्युत्पत्तियाँ शूद्र शब्द के समान ही आनुमानिक व मन गड़न्त और परस्पर विकल्प सूचक हैं जो सत्य की द्योतक नहीं हैं ।

क्योंकि सभी ग्रन्थों में एक समान नहीं हैं  किसी में कुछ लिखा तो किसी में कुछ ।
और विकल्प सत्य का द्योतक नहीं है ।
यह सब मिथ्या व झूँठ है ; 

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झूँठ बहुरूपिया व कायर होता है ।
जो टिक नहीं सकता अधिक देर तक ; परन्तु सत्य का कोई विकल्प नहीं होता है ।
ये निर्भीक व स्थिर होता है ।
प्रमाणित तथ्यों के आधार पर चमार शब्द की व्युत्पत्ति- शम्बर शब्द से हुई है ,जो कालान्तरण में चम्बर शब्द के रूप में आया , चम्बर ही चम्मारों का आदि पुरुष था।

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क्योंकि भारोपीय वर्ग की भाषाओं में यह प्रवृत्तियाँ पायी जाती हैं ।
कि "श" तालव्य उष्म वर्ण अपने वर्ग के " च" वर्ण मे परिवर्तित प्राय: हो जाता है ।

शम्बर का  (Chamber) यूरोपीय भाषा परिवार में रूप है । जिसे फ्रेंच भाषा के प्रभाव से  शम्बर उच्चारण करेंगे 
तथा ग्रीक भाषा के प्रभाव से कम्बर उच्चारण करेंगे ।
लैटिन---जर्मन प्रभाव से चम्बर उच्चारण करेंगे ...
जैसे चाचा को काका अंग्रेज़ी(जर्मन- लैटिन ) प्रभाव से कहा गया .....
नि:सन्देह चोर और चम्बर (चम्वर) शब्दों का मूल अर्थ "आच्छादित करने वाला " ही है ।

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-👇सर्वे चौरकुले जाताश्चोरयानाः परस्परम् ।स्वल्पेनाख्या भविष्यन्ति यत्किंचित्प्राप्य दुर्गताः।।१९।

अर्थ-

सभी बौद्ध चौर( चौल-कोल) कुल में उत्पन्न होकर चोरी करते हुए आपस में लूटेगें अल्प धन से ही ख्यात हो जायेंगे और फिर दुर्गति को प्राप्त होंगें।

न ते धर्मं करिष्यन्ति मानवा निर्गते युगे । ऊषार्कबहुला भूमिःपन्थानस्तस्करावृताः।२०

 अर्थ-

न वे लोग धर्म करेंगे युग की समाप्ति पर भूमि ऊषर और अकोआ से व्याप्त हो जाएगी।

हरिवंशपुराण भविष्य्य पर्व-3.3.२० ।।

(हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अध्याय तृतीय)

"चोल " शब्द "कोल" का परवर्ती दक्षि़णीय रूप है ;और कोल जन जाति के लोग परम्परागत रूप से  हिमालय पर चम्बर गाय के वालों से ऊनी वस्त्रों का निर्माण करते थे ।

चीन की सीमा-क्षेत्रों पर ये लोग रहते थे ।
कोरिया देश प्रमाणत: कोलों का देश है ।
कोरियन लोग बौद्ध मत के अनुगामी हैं ।
चीन का सांस्कृतिक नाम ड्रेगन (Dragan)
है जो द्रविड का नमान्तरण है।

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कालान्तरण में ड्रेगन का अर्थ केवल सर्प तक रूढं कर लिया लैटिन शब्द ड्रेकॉ (Draco) से सम्बद्ध  यह शब्द भारोपीय वर्ग की भाषाओं में है। 

"द्रविडों की एक प्रधान शाखा थी कोल जिनका तादात्म्य प्राचीन फ्रॉन्स के गॉल जन-जाति से प्रस्तावित है। जिनके पुरोहित ड्रयूड (Druids) थे ।शम्बर कोल जन जाति से सम्बद्ध था।

लोक-वार्ताओं के अनुसार आज भी चमार-कोरिया शब्द साथ-साथ हैं।

चम्बर को कालान्तरण में एक पुरुष सत्ता के रूप में मिथकीय रूप भी दिया गया ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के तृतीय सूक्त के छठे .श्लोकाँश (ऋचा) में यही तथ्य पूर्ण- रूपेण प्रतिध्वनित है ।

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साबर लोग ( शबर और साओरा ) मुंडा जातीय समूह जनजाति के आदिवासी में से एक हैं जो मुख्य रूप से झारखंड , छत्तीसगढ़ , मध्य प्रदेश , उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में रहते हैं । 

शम्बर से सम्बद्ध होने से ये जन-जाति शाबर कहलाती है ।

एक दैत्य जो वेद के अनुसार दिवोदास का बड़ा शत्रु था। दिवोदास की रक्षा के लिये इंद्र ने इसे पहाड़ पर से नीचे गिराकर मार डाला था।

एक दैत्य जो रामायण और महाभारत में कामदेव का शत्रु कहा गया है। 

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जून 2008 में, साबर को अपने कई पश्चिम बंगाल गांवों में गंभीर बाढ़ का सामना करना पड़ा, और फिर कैथोलिक मिशनरियों से बड़ी मात्रा में सहायता प्राप्त हुई।

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महासावेता देवी द्वारा हंटर की पुस्तक , सागाड़ी और मंडीरा सेनगुप्ता, 2002 के सीगल द्वारा अनुवादित। आईएसबीएन 81-7046-204-5 ।
12 अक्टूबर, 2007 को महास्वेता देवी , तेहेल्का ने नफरत, अपमानित, कुचला।

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वस्तुत: विद्रोही बागी असुर और दस्यु जैसे शब्द समानार्थी ही थे 

दस्यु का अर्थ यद्यपि ईरानी भाषा में दह्यु के रूप पराक्रमी ,नायक आदि है ।
चौर की मर्यादाऐं भले ही नहों परन्तु 
दस्युयों में भी मर्यादाऐं होती हैं ।

 क्यों दस्यु वस्तुत वे विद्रोही थे जिन्होनें शुंग कालीन ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था और सामाजिक मान्यताओं को स्वीकार नहीं किया और अपने अधिकारों के लिए विद्रोह का पथ अधिग्रहीत किया।
(महाभारत के शान्ति पर्व के अन्तर्गत आपद्धर्म 
एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय ) 
दस्युयों की नैतिकता और मर्यादाओं का वर्णन करते हुए उनकी प्रशंसा की है।
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यथा सद्भि: परादानमहिंसा दस्युभि: कृता ।
अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु।।15।
दस्यु में भी मर्यादा होती है जैसे अच्छे डाकू दूसरों का धन तो लूटते हैं परंतु हिंसा नहीं करते किसी की इज्जत नहीं लूटते हैं ।
जो मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं उन लुटेरों में बहुत से प्राणी नैतिकता का पालन तथा स्नेह भी करते हैं क्योंकि उनके द्वारा बहुतों की रक्षा भी होती है।15

अयुद्ध्यमानस्य वधो दारामर्ष: कृतघ्ना।
ब्रह्मवित्तस्य चादानं नि:शेषकरणं  तथा ।16।

स्त्रिया मोष: पतिस्थानं दस्युष्वेतद् विगर्हितम्।
संश्लेषं च परस्त्रीभिर्दस्युरेतानि वर्जयेत्।17।

युद्ध ना करने वालों को मारना, पराई स्त्री का बलात्कार करना, कृतघ्नता, ब्राह्मण के धन का अपरण, किसी का सर्वस्व छीन लेना ,कुमारी कन्या का अपहरण करना, तथा किसी ग्राम आदि पर आक्रमण करके स्वयं उसका स्वामी बन बैठना – यह सब बातें डाकुओं में भी निन्दित मानी गई हैं।16-17।

अभिसंदधते ये च विश्वासायास्य मानवा: ।
अशेषमेवोपलभ्य कुर्वन्तीति विनिश्चय:।18।

जिनका सर्वस लूट लिया जाता है वह मनुष्य और डाकुओं के साथ मेलजोल और विश्वास बढ़ाने की चेष्टा करते हैं और उनके स्थान आज का पता लगाकर फिर उनका सर्वस्व नष्ट कर देते हैं यह निश्चित बात है।18।

तस्मात् सशेषं कर्तव्यं  स्वाधीनमपि दस्युभि:।
न बलस्थो८हमस्मीति नृशंसानि समाचरेत् ।19।

इसलिए दस्युयों को उचित है कि वह दूसरों के धन को अपने अधिकार में पाकर भी कुछ से छोड़ दें सारा का सारा न लूट ले "मैं बलवान हूं ऐसा समझकर क्रूरता पूर्वक बर्ताव न करें।19

स शेषकारिणस्तत्र शेषं पश्यन्ति सर्वश:।
नि:शेषकारिणो नित्यं नि:शेषकरणाद् भयम्।20।

जो डाकू दूसरों के धन को शेष छोड़ देते हैं वह सब ओर से अपने धन का भी अवशेष देख पाते हैं तथा जो दूसरों के धन से कुछ अवशेष नहीं छोड़ते उन्हें सदा अपने धन के भी अवशेष न रह जाने का भय बना रहता है।20।

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"उत दासं कौलितरं बृहत:पर्वतात् अधि।      आवहन इन्द्र शम्बरम्।।

(ऋगवेद मण्डल चतुर्थ  सूक्त ३०

पद-पाठ-

उत । दासम् । कौलिऽतरम् । बृहतः । पर्वतात् । अधि ।अव । अहन् । इन्द्र । शम्बरम् ॥१४।

(सायणभाष्यार्थ-)

“उत =अपि च हे "इन्द्र त्वं "दासम् =उपक्षपयितारं "कौलितरं =कुलितरनाम्नोऽपत्यं “शम्बरम्= असुरं "बृहतः= महतः पर्वतात् =अद्रेः "अधि= उपरि "अव =अवाचीनं कृत्वा "अहन्= हतवानसि ॥  

(कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्”)

  "इस सूक्त की  लगभग सभी  ऋचाओं में (उत दासं) पद  हैं । सायण ने भी कहीं दास पद का अर्थ (उपक्षयितार).  

"दसु=दस्=उपक्षये(विनाशे) 

दस्=धातु के धातु पाठ में अन्य अर्थ भी हैं । परन्तु सायण ने रूढिवाद से प्रेरित पूर्वाग्रह पूर्वक दस् धातु का अर्थ प्रकरण अनुरूप नाशकरना( उपक्षयकरना ही किया है । अन्यथा धातुपाठ में तो ये निम्न अर्थ भी हैं ।


 - दस्यति अदसत् दस्त्वा, दसित्वा वा दान्तशान्त (7227) इति दस्तः, दसितः रक् (द्र0 उ0 213) दस्रो अश्विनौ यजिमनिशुन्धि (उ0 320) इति युच्-दस्युः 101अर्थ


शंबर (कौलितर) n.  एक असुर, जो इंद्र का शत्रु था [ऋ. १.५१.६, ५४.४] । ‘कुलितर’ का पुत्र होने के कारण, इसे ‘कौलितर’ पैतृक नाम प्राप्त हुआ था [ऋ. ४.३०.१४] । सायण के अनुसार, आकाश में स्थित मेघ को ही वैदिक साहित्य में ‘शंबर’ कहा गया है । इस संबंध में यह ‘वृत्र’ से साम्य रखता है (वृत्र देखिये) ।
शंबर (कौलितर) n.  इस ग्रंथ में शुष्ण, पिप्रु, वर्चिन्, आदि असुरों के साथ इसका निर्देश प्राप्त है [ऋ. १.१०१, १०३, २.१९.६] । यह एक दास था, एवं यह पर्वत पर रहता था [ऋ. २.१२] । वृत्र के समान इसके भी आकाश में अनेकानेक दुर्ग (शंबराणि) थे, जिनकी संख्या ऋग्वेद में नब्बे [ऋ. १.१३०]; निन्यान्वे [ऋ. २.१९]; अथवा एक सौ [ऋ. २.१४] बतायी गयी है ।
शंबर (कौलितर) n.  यह स्वयं को देवता समझने लगा, जिस कारण इंद्र ने इसे काट कर पर्वत से नीचे गिरा दिया, एवं इसके सारे दुर्ग ध्वस्त किये [ऋ. ७.१८, १.५४, १३०] । इसका प्रमुख शत्रु दिवोदास अतिथिग्व था, जिसके कहने पर इंद्र ने इसका वध किया [ऋ. १.५१] । इसका वध करने के लिए, मरुतों ने एवं अश्विनों ने इंद्र की यहायता की थी [ऋ. ३.४७, १. ११२.१४] । ऋग्वेद में अन्यत्र, बृहस्पति के द्वारा इसके दुर्ग ध्वस्त किये जाने का निर्देश प्राप्त है [ऋग्वेद. २.२४] ।
शंबर (कौलितर) n.  इन ग्रन्थों में इसे कश्यप एवं दनु का पुत्र कहा गया है [भागवत. ६.१०.१९] । यह वृत्रासुर का अनुयायी था, जिस कारण इंद्र-वृत्र युद्ध में इंद्र ने इसका वध किया [महाभारत. सौ. ११.२२] । अपनी मृत्यु के पूर्व इंद्र को इसने ब्राह्मण-महात्म्य समझाया था [महाभारत. अनुशासन. ३६.४-११] । धर्म ने अपने समर्थन के लिये, इसके अनेकानेक उद्धरणों का उपयोग किया था [महा. उद्योग. ७२.२२] । इससे प्रतीत होता है कि, यह स्वयं एक राजनीतिज्ञ, एवं ग्रन्थकार भी था । योगवसिष्ठ में इसकी कथा ‘ब्राह्मत्वभाव’ के तत्त्व का प्रतिपादन करने के लिए दी गयी है [योग. वाशिष्ठ. ४.२५] ।
शंबर (कौलितर) II. n.  कंस का अनुयायी एक दानव, जो कश्यप एवं दनु का पुत्र था । इसकी पत्‍नी का नाम मायावती था । कृष्णपुत्र प्रद्युम्न के द्वारा अपना वध होने की वार्ता एक बार इसे आकाशवाणी से ज्ञात हुई जिस कारण, इसने उसका अर्भकवस्था में वध करना चाहा। किंतु इसकी पत्‍नी मायावती ने प्रद्युम्न की जान बचायी। आगे चल कर प्रद्युम्न ने ‘महामाया विद्या’ की सहायता से इसका, पुत्र अमात्य, एवं सेनापतियों के साथ वध किया [महाभारत. अनु. १४.२८];[ विष्णुपुराण. २७];[ भागवत. १०.३६.३६]; प्रद्युम्न एवं मायावती देखिये । पुराणों में इसके सौ पुत्रों का निर्देश प्राप्त है, किंतु इसकी पत्‍नी मायावती संतानरहित होने का भी निर्देश प्राप्त है । इससे प्रतीत होता है कि, इसकी मायावती के अतिरिक्त कई अन्या पत्‍नीयाँ भी थी।
शंबर (कौलितर) III. n.  एक दानव राजा, जो हिरण्याक्ष का पुत्र था [भागवत. ७.२.४] । बलि वैरोचन के साथ, वामन ने इसे भी पाताललोक में ढकेल दिया [ब्रह्मांडपुराण. ३.४.६] ।
शंबर (कौलितर) IV. n.  त्रिपुर नगरी का एक असुर, जिसने इंद्रबलि-युद्ध में बलि के पक्ष में भाग लिया था [भागवत. ८.६.३१] ।
शंबर (कौलितर) V. n.  कीकट देश का एक अंत्यज, जो शालिग्राम तीर्थ में स्नान करने के कारण मुक्त हुआ [पद्मपुराण. पाताल खण्ड. २०] ।

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उत दासं कौलितरं बृहतःपर्वतादधि ।
अवाहन्निन्द्र शम्बरम् ॥१४॥

उत दासस्य वर्चिनः सहस्राणि शतावधीः ।
अधि पञ्च प्रधीँरिव ॥१५॥

उत त्यं पुत्रमग्रुवः परावृक्तं शतक्रतुः ।
उक्थेष्विन्द्र आभजत् ॥१६॥

उत त्या तुर्वशायदू अस्नातारा शचीपतिः ।
इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ॥१७॥

उत त्या सद्य आर्या सरयोरिन्द्र पारतः ।
अर्णाचित्ररथावधीः ॥१८॥

अनु द्वा जहिता नयोऽन्धं श्रोणं च वृत्रहन् ।
न तत्ते सुम्नमष्टवे ॥१९॥

शतमश्मन्मयीनां पुरामिन्द्रो व्यास्यत् ।
दिवोदासाय दाशुषे ॥२०॥

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अर्थात् शम्बर के पिता कोलों के राजा थे ।
इसी शम्बर का युद्ध देव संस्कृति के अनुयायी भारत में आगत देवों से हुआ था ;जो इन्द्र के अनुुुयायी थे ।
इस सूक्त के अंश में कहा गया है " कि शम्बर नामक दास जो कोलों का मुखिया है; पर्वतों से नीचे इन्द्र ने युद्ध में गिरा दिया "
ऐसा ऋग्वेद में वर्णन है ।
भारोपीयमूल से सम्बद्ध भाषा फ्रेंच में भी यह शब्द है ।

भारतीय पुराणों में निम्नलिखित जनजातियां जो देव संस्कृति के सदैव से विरुद्ध रहीं हैं ।

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त्वं कुत्सं शुष्णहत्येष्वाविथारन्धयोऽतिथिग्वाय शम्बरम् ।
महान्तं चिदर्बुदं नि क्रमीः पदा सनादेव दस्युहत्याय जज्ञिषे ॥६॥ (ऋग्वेद १/५१/६)

पदपाठ-

त्वम् । कुत्सम् । शुष्णऽहत्येषु । आविथ । अरन्धयः । अतिथिऽग्वाय । शम्बरम् ।महान्तम् । चित् । अर्बुदम् । नि । क्रमीः । पदा । सनात् । एव । दस्युऽहत्याय । जज्ञिषे ॥६।

सायण-भाष्य-

हे इन्द्र “त्वं “कुत्सं =कुत्ससंज्ञकमृषिं “शुष्णहत्येषु । शुष्णः= शोषयिता- एतन्नाम्नोऽसुरस्य हननयुक्तेषु= संग्रामेषु “आविथ =ररक्षिथ । तथा “अतिथिग्वाय ={अतिथिभिर्गन्तव्याय दिवोदासाय “शम्बरम्= एतन्नामानमसुरम् "अरन्धयः= हिंसां प्रापयः । तथा “महान्तं “चित् अतिप्रवृद्धमपि “अर्बुदम् एतत्संज्ञकमसुरं "पदा =पादेन “नि “क्रमीः =नितरामाक्रमिताभूः । यस्मादेवं तस्मात् "सनादेव चिरकालादेवारभ्य “दस्युहत्याय =उपक्षपयितॄणां हननाय }“जज्ञिषे । सर्वदा त्वं दस्युहननशीलो भवसीत्यर्थः॥ अरन्धयः । ‘रध हिंसासंराद्ध्योः'। “रधिजभोरचि' ( पा. सू. ७. १. ६१) इति धातोः नुम् । अतिथिग्वाय । गमेः औणादिको ड्वप्रत्ययः । क्रमीः । ‘ क्रमु पादविक्षेपे'। हम्यन्तक्षण ' ( पा. सू. ७. २. ५) इति वृद्धिप्रतिषेधः। ‘ बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि ' इति अडभावः । पदा । सावेकाचः° ' इति वा ‘ उडिदंपदादि° ' इति वा विभक्तेरुदात्तत्वम् । जज्ञिषे । ‘जनी= प्रादुर्भावे'। लिटि • गमहन इत्यादिना उपधालोपः ॥

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कोल जाति को पतित क्षत्रिय के रूप वर्णन पुराण और स्मृतियों में हुआ है ।

"शका यवनकाम्बोजाः पारदाश्च विशाम्पते ।
कोलिसर्पाः समहिषा दार्द्याश्चोलाः सकेरलाः।१८।

हरिवंशपुराणम् पर्व १ (हरिवंशपर्व)/अध्यायः १४-

एक प्रदेश या राज्य का प्राचीन नाम विशेष—हरिवंश में कोल राज्य का नाम दक्षिण के पांडय और केरल के साथ आया है । 

पर बौद्ध ग्रंथों में कोल राज्य कपिलवस्तु के पूर्व रोहिणी नदी के उस पार बतलाया गया है । शु्द्धौदन और सिद्धार्थ दोनों का विवाह इसी वंश में हुआ था । 

इस कोल वंश के विषय में बौद्धों मे ऐसा प्रसिद्ध कि इक्ष्वाकुवंश के चार पुरुष अपनी कोढ़िन बहन को हिमालय के अंचल में ले गए और उसे एक गुफा में बंद कर आए ।

कुछ दिनों के उपरांत काशी का एक कोढ़ी राजा भी उसी स्थान पर पहुँचा और काली मिर्च (कौल) खाकर अच्छा हो गया ।

 राजा ने एक दिन देखा कि एक सिंह उस गुफा के द्वार पर रखे हुए पत्थर को हटाना चाहता है । राजा ने सिंह को मारा और गुहा से उसे कन्या का उद्धार करके उसका कुष्ट रोग छुड़ा दिया ।

उन्ही दोनों के संयोग से कौल वंश की उत्पत्ति हुई। स्कंद पुराण के हिमवत् खंड लिखा में है कि कोल एक राजबंस जाति

पद्मपुराण में लिखा है कि जब यवन, पल्लव, कोलि, सर्प आदि सगर के भय से वशिष्ठ की शरण में आए, तब उन्होंने उनका सिर आदि मुँड़ाकर उन्हें केवल संस्कारभ्रष्ट कर दिया । आजकल जो कोल नाम की एक जंगली जाति है, वह आर्यों से स्वतत्र एक आदिम जाति जान पड़ती है, और छोटा नागपुर से लेकर मिरजापुर के जंगलों तक फैली हुई है । 

प्राचीन जातीयों मिथकीय रूप दिया गया जो परस्पर विरोधान्वित हैं। शम्बर शब्द भारोपीय वर्ग की भाषाओं में भी है।

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(Chamber) तथा( Chamber )अथवा (Camera )
के रूप में वर्णित है।
"सिमरी " या  "वेल्स"..अथवा वराह लोगों का विशेषण था यह चम्बर शब्द ...
जिनका सम्बन्ध फ्राँस के मूल निवासी गॉलों से था ।
यह हम ऊपर संकेत कर चुके हैं ।
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सिमरी (Cymri)
जर्मनिक जन-जातियाँ  से सम्बद्ध नहीं थे नहीं थे 
वह तो गॉलों से सम्बद्ध थे।                          ग्रीक पुरातन कथाओं में भी भारतीय आर्यों के समान शम्बर का वर्णन"चिमेरा"(Chimaera )के रूप में है -- जो अग्नि को अपने मुख से नि:सृत करता है ।
भारतीय वेदों में इसे ही शम्बर कहा है

प्राचीन काल में आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से दलित और अस्पृश्य जाति के रूप में यह चम्बर के वंशज हिंदू वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्ण में मान्य होकर शताब्दियों से हीन स्तर पर स्थित रहे ।

इसका कारण भी यही था कि ये लोग कोलों से सम्बद्ध थे!
कुली अथवा  दास बनाकर जिनसे दीर्घ काल तक भार-वाहक के रूप में दासता कर बायी गयी ।
और ये कोल लोग बाद मे आगत देव- संस्कृति के उपासक पुरुष सत्ता प्रधान  देवों उपासकों के सांस्कृतिक विरोधी तो थे ही  ।
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देव संस्कृति के अनुयायी पुरोहितों ने इन कोलों  को सर्व-प्रथम शूद्र कहा ..
कोल :--काली अथवा दुर्गा के उपासक मातृ सत्ता-प्रधान समाज के अनुमोदक थे।                ये लोग परम्परागत रूप से वस्त्रों का निर्माण करते हीे थे ,

भारतीय ब्राह्मणो के सांस्कृतिक ग्रन्थों में --
इनके स्वरूप पर व्यंग्य किया है । 
------------------------------------------------------------भविष्य पुराण मेें शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति अनुमानित रूप में इस प्रकार है ।

शोचन्तश्व द्रवन्तश्च परिचर्यासु ये नराः ।
निस्तेजसोऽल्पवीर्याश्च शूद्रांस्तानब्रवीत्तु सः शूूू्द्रोच्यते।।२३।

 भविष्यपुराण  प्रथम ब्रह्मखण्ड अध्याय (44) श्लोक (23)

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शूद्र शब्द भी यही अर्थ है -----"वस्त्रों का निर्माण करने वाला "।
इस शब्द का तादात्म्य यूरोपीय भाषा परिवार में आगत शूद्र शुट्र (Shouter) शब्द से है जो लैटिन में (Sutor) 
प्राचीन नॉर्स में सुटारी -(Sutari) एग्लो- सैक्शन -(Sutere)
तथा गॉथिक भाषा में -(Sooter) 
के रूप में है ।
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अन्त: शाक्ता बहिश्शैवा सभा मध्ये च वैष्णवा 
नाना रूप धरा कौला विचरन्तीह महितले ||
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अर्थात् भीतर से ये शक्ति यानि दुर्गा आदि के उपासक शाक्त हैं ।
बाह्य रूप से शिव के उपासक ,सभा के मध्य में वैष्णव हैं 
अनेक रूपों में ये द्रविड लोग इस पृथ्वी पर विचरण करते हैं ।
बुद्ध की माता और पत्नी दौनों कोल समाज से थी 
शाक्य शब्द का अर्थ शक्ति का उपासक कोल समुदाय ही है ।......
कदाचित वाल्मीकि-रामायण कार ने ...
इसी भाव से भी प्रेरित होकर ....
अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में "चोर:"
कहा है ।
क्योंकि बुद्ध से पूर्व चोर: शब्द चोल अथवा कोल  जन जाति का विशेषण था । 
क्योंकि वे आच्छादित करने वाले अथवा वस्त्रों का निर्माण करने वाले थे ।
कोल शब्द ही जुलाहा के रूप में लोक में प्रसिद्ध हो गया ..
ईरानी आर्यों ने शाक्तों को सीथियन (Scythian) कहा 
जो शक लोग ही थे ।,
सत्य पूछा जाय तो शक भी शाक्यों या कोलों की ही एक शाखा थी ।
सुमेरियन संस्कृति में ये लोग केल्डियनों के अथवा द्रुजों के रूप में बाइबिल में वर्णित हैं .....

तथा बाल्टिक सागर अथवा स्केण्डिनेवियन संस्कृति में ये  कैल्ट तथा ड्रयूडों के रूप में  विद्यमान थे ।.
दक्षिण भारत में द्रविड लोग.. चेल चेट चेर तथा कोल कोड गौड़ तथा कोर के रूप में भी हैं ...
इसी चोल  से चोर शब्द का विकास हुआ है 
यह भाषा वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित हो गया है ।
जिसका मूल अर्थ होता है ---"आच्छादक या छुपाने वाला " परन्तु शरीर को को शीत वर्षा आदि से आच्छादन हेतु वस्त्रों का निर्माण करने वाला।

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परन्तु कालान्तरण में ब्राह्मण समाज के लेखकों ने चोर शब्द का अर्थ द्वेष वश तस्कर के रूप में विकृत कर दिया ।
प्रथम प्रयोग...
वाल्मीकि - रामायण में बुद्ध से लिए "चोर" शब्द का हुआ ,
वाल्मीकि-रामायण में राम के द्वारा जावालि ऋष से सम्वाद करते हुए ...
राम के द्वारा बुद्ध को चोर और नास्तिक कहलवाया गया है ..
बुद्ध को चोर तथा नास्तिक राम के द्वारा कहलवाया 
देखें--- 
यथा ही चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं 
नास्तिकमत्र विद्धि ।।
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वाल्मीकि-रामायण :---अयोध्या काण्ड १०९ वें सर्ग का ३४ वाँ श्लोक प्रमाण के रूप में वर्णित किया गया है ।......
इसी प्रकार और शब्दों की भी दुर्दशा हुई .........

जैसे- बुद्ध आदि शब्दों को बुद्धू कर दिया
जिसका अर्थ है :----- मूर्ख...
कहीं अरब़ी/फ़ारसी भाषा में "बुत" 
मूर्ति का वाचक हो गया...
विश्व इतिहास में इन द्रविडों का बहुत ऊँचा स्थान है ।
यूरोपीय पुरातन कथाओं में ड्रयूड (Druids) के रूप में..
भारतीय धरातल पर शूद्र जन-जाति द्रविड परिवार की एक शाखा के रूप में वर्णित है ।

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शुक्लदन्ताऽञ्जिताक्षाश्च मुण्डाः काषायवासस:।शूद्रा धर्मं चरिष्यन्ति शाक्यबुद्धोपजीविनः।१५।।

भारतीय पुराणों में भी और यूरोपीय पुरातन कथाओं में भी....
भारत में रहने वाले शूद्र ...
क्योंकि अहीरों के सानिध्य में रहने वाले ये शूद्र लोग बिलोचिस्तान में ब्राहुई भाषा बोलते थे ।
जो द्रविड परिवार की एक शाखा थी ।

परन्तु अहीर जनजाति में ही यदुवंश का प्रादुर्भाव हुआ। 
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द्रविड प्राचीन काल में अध्यात्म विद्या के प्रथम प्रवर्तक थे ।
सृष्टि के मूल-पदार्थ (द्रव) के विद--अर्थात् वेत्ता होने से इनकी द्रविड संज्ञा सार्थक हुई ।......
योग की क्रिया-विधि इनके लिए आत्म-अनुसन्धान की एक माध्यमिकता थी ।

आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म और कर्म वाद के सम्बन्ध में इनकी ज्ञान-प्राप्ति सैद्धान्तिक थी।  
भारतीय आर्यों के सांस्कृतिक ग्रन्थों में वर्णित(ऊँ)प्रणवाक्षर नाद-ब्रह्म के सूचक ओ३म् शब्द...
तथा धर्म जैसे शब्द भी मौलिक रूप से द्रविड परिवार के थे "

ये ओ३म् का उच्चारण यहूदीयों के "यहोवा "की तरह एक विशेष अक्षर विन्यास से युक्त होकर करते थे :--
जैसे ऑग्मा (Ogma)अथवा  आ-ओमा (Awoma)  तथा  धर्म को druma. कहते थे ...
जो वन संस्कृति से सम्बद्ध है ... संस्कृत शब्द द्रुम: में यह भाव ध्वनित है
परन्तु देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से आगत भारतीय आर्यों ने इन्हीं के इन सांस्कृतिक शब्दों को 
इन्हीं के लिए प्रतिबन्धित कर दिया :---
वैदिक विधानों का निर्माण करते. 
"स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम "

मनु-स्मृति में वर्णित है 
:- धर्मोपदेश विप्राणाम् अस्य कुवर्त: ।
तप्तम् आसेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिव:।।

तप्तमासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।७५। (मत्स्य पुराण अध्याय 227का  75वाँ श्लोक)

मत्स्य पुराण में भी शूद्रों के प्रति दण्ड का यही विधान वर्णन है ।

एकजातिर्द्विजातिन्तु वाचा दारुणया क्षिपन्।
जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यः प्रथमो हि सः ।। २२७.७३ ।।

नामजातिगृहं तेषामभद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयो मयः सङ्कुर्ज्वलन्नास्ये दशाङ्गुलः ।। २२७.७४ ।।

धर्मोपदेशं शूद्रस्तु द्विजानामभिकुर्वतः।
तप्तमासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थिवः ।। २२७.७५ ।।

श्रुतिं देशञ्च जातिञ्च कर्म शारीरमेव च।
वितथञ्च ब्रुवन् दण्ड्यो राजा द्विगुणसाहसम् ।। २२७.७६ ।।

मत्स्य पुराण अध्याय– (२२७)
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अर्थात् शूद्रों को केवल ब्राह्मण समुदाय का आदेश सुनकर उसे शिरोधार्य करने का कर्तव्य नियत था ,
उन्हें धर्म संगत करने का भी अधिकार नहीं था ,यदि वे ऐसा कर भी लेते आत्म-कल्याण की भावना से तो,  वैदिक विधान पारित कर , शूद्र जन-जाति की
ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया.
और इसका दण्ड भी बड़ा ही यातना-पूर्ण था ।
उनके मुख और कानों में तप्त तैल डाल दिया जाता था ।

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सभी वर्णों का अपराध कुछ आर्थिक दण्ड के रूप में निस्तारित हो जाता था , परन्तु शूद्रों के लिए केवल मृत्यु का ही विधान था ...
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देखें ---शतं ब्राह्मण माक्रश्य क्षत्रियो दण्डं अर्हति।
वैश्योप्यर्ध शतं द्वेवा शूद्रस्तु वधम् अर्हसि ।।।
                     मनु-स्मृति-- ८/२६७/
मनु-स्मृति में वर्णित है ,कि ब्राह्मण बुरे कर्म करे तब भी पूज्य है ।
क्योंकि ये भू- मण्डल का परम देवता है ।
देखें--- 
राम चरित मानस के अरण्यकाण्ड मे तुलसी दास लिखते हैं ।
पूजयें विप्र सकल गुण हीना ।
शूद्र ना पूजिये ज्ञान प्रवीणा ।।

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अर्थात् ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ,
परन्तु शूद्र विद्वान होने पर भी पूज्य नहीं है "
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दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न तु शूद्रो जितेन्द्रियः।                                             कःपरित्यज्य गां दुष्टांगा दुहेच्छीलवतीं खरीं।८.२५। (पराशरस्मृति अष्टमोऽध्याय)

"दुराचारी ब्राह्मण भी पूजनीय है। परन्तु शूद्र जितेन्द्रीय भी पूजनीय नहीं है कौन दूषित अंगों वाली गाय को छोड़कर शीलवती गधईया को दुहे"
मनु स्मृति में भी कुछ ऐसा ही लिखा है ।
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एवं यद्यपि अनिष्टेषु वर्तन्ते सर्व कर्मसु ।
सर्वथा ब्राह्मणा पूज्या: परमं दैवतं हितत् ।।
    --------------------------------                               (मनु-स्मृति-९/३१९ )
निश्चित रूप से तुलसी दास जी ने मनु-स्मृति का अनुशरण किया है ।

गायत्रीरहितो विप्रः शूद्रादप्यशुचिर्भवेत् ।
गायत्रीब्रह्मतत्त्वज्ञाः संपूज्यन्ते जनैर्द्विजाः।८.२४।(पराशरस्मृति अध्यायआठ)

"गायत्री मन्त्र से रहित ब्राह्मण शूद्र से श्रेष्ठ है ,"
मनु के नाम पर निर्मित मनु-स्मृति में 
पुष्य-मित्र सुंग के निर्देशन में....
ब्राह्मणों ने विधान पारित कर दिया :--- कि शूद्र  ब्राह्मण तथा अन्य क्षत्रिय वर्णों  का झूँठन ही खायें , तथा उनकी वमन (उल्टी)भी  चाटे ..
  देखें--- 
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उच्छिष्टं अन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च ।
पुलकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदा:।।
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-अर्थात् उस शूद्र या सेवक को उच्छिष्ट झूँठन 
बचा हुआ भोजन दें ।
फटे पुराने कपड़े , तथा खराब अनाज दें...

एकजातिर्द्विजातींस्तु वाचा दारुणया क्षिपन् ।जिह्वायाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः ।।(8/270 मनुस्मृति)

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क्या खाद्य(खाने योग्य) है ? क्या अखाद्य है ?     
इसका निर्धारण भी तत्कालीन ब्राह्मण समाज के निहित स्वार्थ को ध्वनित करता है।यहाँ ब्राह्मण समाज की कुत्सित मानसिकता व कपट भावना मुखर हो गयी है ।
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अर्थात् ब्राह्मण माँस भक्षण करे , तो भी यह धर्म युक्त है
ब्राह्मण हिंसा (शर्मण) करे  , तब यह मेध है ।
जैसा कि कहा
मनु-स्मृति में-------
"वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"
मनु-स्मृति- में देखें--- ब्राह्मण को माँस खाने का
विधान पारित हुआ है ।
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                  ★- विधान.......
यज्ञार्थ ब्राह्मणैर्वध्या: प्रशस्ता मृगपक्षिण:
प्रोक्षितं भक्षयन् मासं ब्राह्मणानां च काम्यया।।
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अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें ...

चमार केवल मृत पशु ओं के शरीर से चर्म उतारते थे , क्योंकि वे बुद्ध का अनुयायी होने से हिंसा नहीं करते थे।

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चम्मारों का कार्य वस्त्रों का निर्माण करना भी था युद्ध में ये लोग ही ढाल-धारी सैनिक थे..

 तब ये चर्मार: कहलाते थे .....
क्योंकि चर्मम् संस्कृत भाषा में ढाल को कहते हैं ।
यूरोपीय भाषा परिवार में सॉल्ज़र अथवा सॉडियर )Soudier ) अथवा Soldier 
भी यही थे ।
सॉल्ज़र शब्द की व्युत्पत्ति- यद्यपि रोमन 
शब्द Solidus -(एक स्वर्ण सिक्का )
के आधार पर निर्धारित की है ।
परन्तु ये पृक्त या पिक्ट लोग थे जो स्कॉटलेण्ड में शुट्र नामक गॉलों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
जो भारत में कोल कहलाते थे ।
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कारण संभवत: उनका वही उद्यम है, जिसमें चमड़े के जूते बनाना, मृत पशुओं की खाल उधेड़ना और चमड़े तथा उससे बनी वस्तुओं का व्यापार करना आदि आदि था। 
संस्कृत के चर्मार, चर्म्मरु: चर्मकृत, चर्मक आदि चर्मकार के पर्याय वाची रूप हैं।
संस्कृत के चर्मार, चर्मकृत, चर्मक आदि चर्मकार के पर्यायवाची शब्द इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं।
आज सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से चमड़े का उद्योग एक अधम व्यवसाय बन गया है ।

परन्तु यूरोप की शीत प्रधान जल-वायु में चर्म कार्य हीन नहीं था न आज भी है ।
बड़ा ही श्लाघनीय था ।
यह केवल भारत में हुआ .
इसी से चर्मकार हीन समझे जाने लगे।.......

कालान्तरण में उद्यम के आधार पर जब जाति की उच्चता अथवा हीनता का प्रश्न उपस्थित हुआ ,
तब विचारकों का ध्यान इस ओर गया , और उन्होंने वर्णव्यवस्था के विपरीत मत प्रकट किए। 
वर्णव्यवस्था के समर्थकों और विरोधियों के बीच यह समस्या दीर्घकाल तक उपस्थित रही। 
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14 वीं शताब्दी के आसपास इस ढंग के संशोधनवादी और सुधारवादी दर्शन के कई व्यख्याता हुए ,जिन्होंने जातिगत रूढ़ियों और संस्कारों के विरुद्ध संगठित आंदोलन किए।
परन्तु कामयावी नहीं मिली .
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सत्रह करोड़ चमार क्या चमड़े का ही कार्य करते हैं ?
यह एक प्रश्नवाचक है तथ्य है ?
परन्तु फिर भी केवल चर्म कार्य करने वाले अर्थ में ही  चमार शब्द रूढ़ कर दिया गया है ।
जाटवों को चमार ही कहा गया है , तो यह एक द्वेष पूर्ण षड्यन्त्र ही था ।

"जाटव और चमार यद्यपि पृथक जाति के सूचक थे परन्तु कालानतरण में दौनों परसपर विलय होगये जाटव शब्द का उदय महाराष्ट्र से हुआ जादव शब्द से जिसे सन १९२२ ईस्वी सन् में कुछ जातीय अन्वेषक इतिहास कारों ने "जटिया चमारों से सम्बद्ध कर दिया यद्यपि जाटव मराठी जादव शब्द का पंजाबी करण रूप है। और  और जादव का मूल यादव शब्द है यद्यपि यादवों का चर्मव्यवसाय से दूर तक भी सम्बन्ध नहीं है परन्तु आधुनिक चमार "जाटव-(जादव) और महार का समायोजित रूप हैं । 


जाटव महासभा १९१७ में बनाई गई जिसके लीडर साहब माणिक चंद जाटव और स्वामी अछूनानंद आर्य समाजी थे।
१९१० के दशक में चमारों के लिए 'जाटव' उपनाम को अपनाने के लिए अभियान चलाया गया।
१९३१ की जनगणना में, उन्होंने चमारों को क्षत्रिय समूह में शामिल करने और उन्हें चमार से 'जाटव' के रूप में नामित करने की अपनी मांग के लिए एक आक्रामक भूमिका निभाई।  वे सफल हुए और भारत की नई जनगणना में चमारों को 'जाटव' कहा गया।_______________________________________

अखिल भारतीय जाटव महासभा– की स्थापना 1917 में राव साहब माणिक चंद जाटव और स्वामी अच्युतानंद के नेतृत्व में हुई थी । 

इसका गठन क्षत्रिय वर्ण में सामाजिक उत्थान के लिए चमारों के हितों को बढ़ावा देने के लिए किया गया था ।

अखिल भारतीय जाटव महासभा
संक्षेपाक्षर ★एबीजेएम
गठन★19 अक्टूबर 1917 (103 साल पहले)
संस्थापक★माणिक चंद जाटव-वीर
प्रकार★जाटव और चमार सामुदायिक संगठन
मुख्यालय★आगरा , उत्तर प्रदेश
क्षेत्र★भारत
मुख्य लोग★खेमचंद बोहरे (अध्यक्ष)
जुड़ाव★चमार , रविदासिया

नींव-

1910 के दशक में माणिक चंद जाटव, रामनारायण यादवेंदु और अन्य एक दूसरे के संपर्क में आए। उन्होंने चमारों के उत्थान और जाति को इस अपमानजनक नाम से मुक्त करने के लिए काम किया । उन्होंने ' जाटव ' उपनाम को अपनाने के लिए अभियान चलाया, जो उन नामों के साथ बदल गया जो निम्न पदानुक्रम को दर्शाता है। [1]

'जाटव' नाम पंडित सुंदरलाल सागर की पुस्तक 'जाटव जीवन' और रामनारायण यादवेंदु की 'का इतिहास' से आया है जो अपनी समान विरासत और ब्रज क्षेत्र के जाटों पर आधारित थे । उन्होंने क्षत्रियों की स्थिति की मांग की और आर्थिक समृद्धि ने कई चमारों को इन मध्यम जातियों के बराबर बना दिया। [२] [३] ब्रिटिश सरकार। आगरा, दिल्ली, मेरठ, कानपुर और अन्य प्रमुख शहरों में छावनी की स्थापना की, जिसने चमारों को खुद को साबित करने का अवसर दिया, उन्हें ब्रिटिश भारतीय सेना के लिए चमड़े के उत्पाद बनाने के लिए निविदाएं मिलीं , और कई जाटव सेना में भी शामिल हो गए। इस परिवर्तन ने स्थानीय चमारों पर प्रभाव डाला और वे एक छतरी के नीचे संगठित होने लगे। [४]

1931 की जनगणना में, उन्होंने चमारों को क्षत्रिय समूह में शामिल करने और उन्हें चमार से 'जाटव' नाम देने की अपनी मांग के लिए एक आक्रामक भूमिका निभाई । वे सफल हुए और भारत की नई जनगणना में चमारों को 'जाटव' कहा गया। [५]

गतिविधियां–

जाटवों ने मांसाहारी और जीवन शैली को उच्च जातियों के रूप में छोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया और उनमें से कुछ ने 'पवित्र धागा' अपनाया जो पहले आर्य समाज के प्रभाव में थे । [6]

उन्होंने कई स्कूलों की स्थापना की, संस्कृत को बढ़ावा दिया , व्यापार में निवेश और महिला सशक्तिकरण किया।

मुख्य लोग -

संदर्भ- 

  1. ^ पाई, सुधा (30 अगस्त 2002)। दलित अभिकथन और अधूरी लोकतांत्रिक क्रांति: उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी । सेज प्रकाशन भारत। आईएसबीएन 978-81-321-1991-3.
  2. ^ गायक, मिल्टन बी.; कोहन, बर्नार्ड एस (1970)। भारतीय समाज में संरचना और परिवर्तन । लेन-देन प्रकाशक। आईएसबीएन 978-0-202-36933-4.
  3. ^ जैफ्रेलॉट, क्रिस्टोफ़ (2003)। भारत की मूक क्रांति: उत्तर भारत में निचली जातियों का उदय । हर्स्ट। आईएसबीएन 978-1-85065-670-8.
  4. ^ रावत, रामनारायण एस। (2011)। अस्पृश्यता पर पुनर्विचार: उत्तर भारत में चमार और दलित इतिहास । ब्लूमिंगटन: इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 978-0-253-35558-4ओसीएलसी  526083948 ।
  5. ^ रावत, रामनारायण एस। (2011)। अस्पृश्यता पर पुनर्विचार: उत्तर भारत में चमार और दलित इतिहास । इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 978-0-253-22262-6.
  6. ^ रावत, रामनारायण एस। (2011)। अस्पृश्यता पर पुनर्विचार: उत्तर भारत में चमार और दलित इतिहास । इंडियाना यूनिवर्सिटी प्रेस। आईएसबीएन 978-0-253-22262-6.
  7. ^ पासवान, संजय; जयदेव, प्रमांशी (२००२)। भारत में दलितों का विश्वकोश: नेता । ज्ञान पब्लिशिंग हाउस। आईएसबीएन 978-81-7835-033-2.
  8. ^ क्षीरसागर, रामचंद्र (1994)। भारत में दलित आंदोलन और उसके नेता, १८५७-१९५६ । एमडी प्रकाशन प्रा। लिमिटेड आईएसबीएन 978-81-85880-43-3.
  9. ^ आहूजा, अमित (26 जुलाई 2019)। हाशिये पर पड़े लोगों को संगठित करना: जातीय आंदोलनों के बिना जातीय दल । ऑक्सफोर्ड यूनिवरसिटि प्रेस। आईएसबीएन 978-0-19-091642-8.
  10. ^ "सदस्य बायोप्रोफाइल" । loksabhaph.nic.in । 7 जून 2020 को लिया गया ।
  11. ^ क्षीरसागर, रामचंद्र (1994)। भारत में दलित आंदोलन और उसके नेता, १८५७-१९५६ । एमडी प्रकाशन प्रा। लिमिटेड आईएसबीएन 978-81-85880-43-3.
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यद्यपि जाटव शब्द महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के पौत्र तथा शम्भु जी महाराज के पुत्र शाहु जी महाराज की उपाधि (title)जादव /जाधव से विकसित हुआ। 

जिनका सम्बन्ध व्रज- क्षेत्र की महर गोप जाति से था ।
जिन्हें समाज मे उचित सम्मान न मिला ..
महाराष्ट्र के मूल में भी महार शब्द ही है ।

"जाति भास्कर ग्रंथ में ज्वाला प्रसाद मिश्र ने महारों का उदय ब्रज के गोपों से बता डाला हैं ।  महारों के सहयोग से शिवाजी महाराज ने मराठी साम्राज्य की स्थापना की ...
मराठी बोली का विकास भी व्रज-क्षेत्र की शौरसेनी प्राकृत से  हुआ है । ............
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तत्कालीन ब्राह्मण समाज - व्यवस्था में ये महार और इन्हीं के सहवर्ती लोग शूद्रों के रूप में वर्णित हुए है । 
पेशवा ब्राह्मण थे जो शाहु जी महाराज की उदारता का चालाकी से अनुचित लाभ लेकर ..
शाहु जी के प्रति विद्रोही स्वर में बगावत कर बैठे।


और उनके वंश को शूद्र घोषित कर दिया...
महाराष्ट्र में जाधव/जादव आज भी शूद्र हैं ...
और सामाजिक रूप से महारों से सम्बद्ध  हैं ।
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सत्य पूछा जाय तो यह जादव शब्द यादव शब्द का ही व्रज-क्षेत्रीय अथवा राजस्थानी रूप है ।
क्योंकि शिवाजी महाराज स्वयं यादव वंशी थे ।सन् १९२२ के समकक्ष इतिहास कारों विशेषत: देवीदास ने प्रबल प्रमाणों के आधार पर दिल्ली के एक एैतिसिक -सम्मेलन में प्रथम बार जटिया चमारों के लिए जाटव उपाधि से नवाज़ा था ।
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अत: अब वह जादव ही जाटव हो गया है ।
जादव से जाटव बनने में पञ्जाबी प्रभाव है ।
रामानंद के प्रसिद्ध शिष्य रैदास इन्हीं में से थे, जिन्हें चमार जाति के लोग अपना पूर्वपुरुष मानते हैं। 

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"यद्यपि चमार यादवों से मूलत: पृथक जाति थी परन्तु सहवर्ती अवश्य थे । और दोनों ही ब्राह्मण वाद के विरुद्ध एकजुट थे ;चमार बौद्ध अनुयायी थे ;तो अहीर अथवा यादव भागवत धर्म के प्रवर्तक तथा अनुयायी थे ।

यहाँ तक कि रैदास शब्द आगे चलकर चमारों की सम्मानित उपाधि बन गया।......
निर्गुनियाँ संतों ने एक स्वर से जातिगत संकीर्णता का खुला विरोध किया। 
किन्तु इतना होते हुए भी चमार जाति में वांछित परिवर्तन न हुआ।
आधुनिक युग में परिगणित, पिछड़ी तथा अछूत जाति के अंतर्गत चमारों को सामाजिक-राजनीतिक अधिकार प्रदान करने के निमित्त कानून बने और सुधारान्दोलन भी किए गए।
इस जाति के मुख्य निवासस्थान बिहार और उत्तर प्रदेश हैं।......
किन्तु अब ये भारत के अन्य भागों - बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में बस गए हैं।
दक्षिण भारत के द्रविडमूल जातियों में भी इनका अस्तित्व है।
वर्तमान समय में यह जाति अनेक धंधे करती है ,जिनमें कृषि तथा चर्म उद्योग मुख्य हैं।
अब ये लोग शिक्षा के क्षेत्र में सभी दलित जन-जातियों से आगे हैं ।
प्राय: इनका स्वरूप श्रमजीवी, खेतिहर मजदूर जाति का है।
इसकी अनेक उपजातियाँ हैं।
उनमें जैसवार, धुसिया, जटुआ, हराले आदि मुख्य हैं। मद्रास और राजस्थान में इन्हें क्रमश: 'चमूर' और 'बोलस' कहा जाता है।
इसकी सभी उपजातियों में सामाजिक तथा वैवाहिक संबंध बहुत घनिष्ट हैं।
बहुविवाह की प्रथा अब समाप्त हो रही है। 
इनकी जातीय पंचायतें आपसी विवादों को तय करती तथा सामाजिक और धार्मिक कार्यो का संचालन करती हैं। 

.........
इनमें विधवा -विवाह की व्यापक मान्यता है।
यह पृथा यहूदीयों में थी ....
अर्थात् यादवों में 
रोमन संस्कृति में लैविरेट( levitate)
वैदिक विधानों मे" द्वित्तीयो वर: इति देवर:"
-----यास्क निरुक्त में यह व्युत्पत्ति- 
प्रतिबिम्ब है उस परम्परा का ...
आर्यों ने नियोग पृथा का निर्माण भी विधवा विवाह के समाधान हेतु किया ...
पुरानी प्रथा के अनुसार वधूमूल्य भी प्रचलित है ।
लेकिन इन सभी स्थितियों में अब तेजी से परिवर्तन हो रहा हैै।
यह असुर अथवा असीरियन पृथाओं के अवशेष मात्र हैं।

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इस जाति में अज्ञान और ब्राह्मणों के प्रभाव से अनेक अंधविश्वास व्याप्त हैं। 
भूत प्रेत, जादू टोना, देवी भवानी की सामान्य रूप से सभी ओर गहरी मान्यता है।
क्योंकि ये लोग शाक्तों का ही रूप थे ...
शम्बर को परवर्ती पुराण साहित्य में चम्बर भी कहा है .
चमार समाज में ..
अनेक अहिंदू देवता भी पूजे जाते हैं , जिन्हें विविध चढ़ावे चढ़ते हैं।
बलि की प्रथा प्राय: सभी प्रांतों के चमारों में प्रचलित है। 

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"यद्यपि आज के शिक्षित जाटव( चमार) बौद्ध मत से प्रभावित होकर ब्राह्मण देवी देवताओं के विरोध में अग्रसर हैं । और इस आवेशी कदम- चाल में यादवों के आराध्य और यादव वंश से सम्बन्धित कृष्ण के चरित्र पर भी ब्राह्मण वाद की दूषित लाञ्छानाऐं प्रस्तुत कर यादव अथवा अहीर समाज के विरोध में चल पड़े हैं। क्यों कि कृष्ण के चरित्र को धूमिल करने लिए इन्द्रोपासक वर्णव्यवस्था वादी पुरोहितों ने तो अनेक काल्पनिक प्रसंग जोड़ ही दिए हैं और ये लोग उनके आधार बनाकर कृष्ण को कभी मदिरा पान करते हुए तो कभी स्त्रीयों के वस्त्र चुराते हुए कहकर यादव समाज के विरोध में ही हैं।  आज आवश्यकता हैं कि ये कृष्ण के समतावादी अहिंसावादी देववादी व्यवस्था के विरोधक व्यक्तित्व को भी जाने  इन्द्र पूजा का विधान समाप्त करने वाले प्रथम महा मा वन कृष्ण ही थे ! 

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चमारों में रैदासी, कबीरपंथी, शिवनारायनी बहुतायत से पाए जाते हैं।                           कुछ चमारों ने सिख, ईसाई और मुस्लिम धर्म भी स्वीकार कर लिया है।

क्योंकि ब्राह्मण समाज के धर्म-अध्यक्षों ने 
इन्हें हीन तथा हेय बनाया 
अशिक्षा और संस्कार हीनता के कारण इनमें अनेक अनैतिकताओं का समावेश हो गया।

वस्तुत: ये शिक्षा और धर्म-संस्कार के अधिकार इन से ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक छीन लिए गये थे ।

मन्दिरों में प्रवेश करना इनके लिए जघन्य पाप कर्म घोषित कर दिया था ।........
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फिर ऐसी जहालत भरी हालातों मे इनका बौद्धिक विकास न हो सका ..
परन्तु इनके रक्त में महान पूर्वजों का गुण था ।
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इस लिए ये जन-जातीयाँ विना साधन के भी बहुत आगे बढ़ी चली गयीं ...
और अपने प्रतिद्वन्द्वी ब्राह्मण समाज से मुकाबला करने वाला  यही प्रथम समाज था ...
और आज भी है ।

निम्न सन्दर्भों में चमार जनजाति का बौद्धों के रूप में पुराणों में वर्णन किया गया है ।

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 हरिवंशपुराणम् पर्व (३) (भविष्यपर्व) अध्यायः (३) _________    

शुक्लदन्ताऽञ्जिताक्षाश्च मुण्डाःकाषायवासस:।        शूद्रा धर्मं चरिष्यन्ति शाक्यबुद्धोपजीविनः।१५।

शूद्र लोग शाक्यवंशी बुद्ध के मत का आश्रय लेकर शूद्र धर्म का आचरण करेंगे वे दाँत श्वेत किए रहेंगे और आँखों में अञ्चन और मुड़ मुड़ाकर गैर नए वस्त्र धारण करेंगे।

(हरिवंशपुराण भविष्य पर्व तृतीय अध्याय)


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उत । त्या । तुर्वशायदू इति । अस्नातारा । शचीऽपतिः ।इन्द्रः । विद्वान् । अपारयत् ॥१७।

भाष्यार्थ÷ 

{उत =अपि च} "{अस्नातारा= अस्नातारौ = न डूबने वाले द्विवचन  } "{त्या= त्यौ} {तौ =प्रसिद्धौ }“तुर्वशायदू= तुर्वशनामानं यदुनामकं च राजानौ। {शचिपति=कर्मणापालक:यद्वा शचीन्द्रस्य भार्या  } । तस्याः पतिर्भर्ता "विद्वान् =सकलमपि जानन् “इन्द्रः "अपारयत् = लङ् लकार का प्रथम पुरुष एकवचन रूप (पार कर दिया, दूरकर दिया।

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उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा ।
यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

{पदपाठ}-÷

उत ।दासा।परिऽविषे।स्मद्दिष्टी इति स्मत्ऽदिष्टी। गोऽपरीणसा।यदुः। तुर्वः।च । ममहे ॥१०।

सायणभाष्यार्थ

{“उत= अपि च} "{स्मद्दिष्टी =कल्याणादेशिनौ }“गोपरीणसा =(गोपरीणसौ –गोभिः परिवृतौ) बहुगवादियुक्तौ {“दासा =दासवत् प्रेष्यवत् } स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी {“परिविषे= अस्य सावर्णेर्मनोर्भोजनाय }"मामहे =पशून्प्रयच्छतः । प्रत्येकमन्वयादेकवचनम् ॥

[उपर्युक्त ऋचा में सायण ने "दासा" द्विवचन 'प्रथमाविभक्ति' का वैदिक रूप है जिसका अर्थ= प्रेष्यवत् सेेेवक  –किया है जोकि वैदिक अर्थ को अनुरूप नहीं हैं । 

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जब शास्त्रों में वर्णन व्यवस्था का निर्धारण जन्मजात गुण स्वभाव और प्रवृत्ति के आधार पर किया गया तो फिर जाति ( जन्म) के आधार पर समाज में क्यों प्रचलित है ?

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ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परस्परम् ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।२४।

१-शमस्तपो दमः शौचं क्षांतिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म (ब्राह्मण) स्वभावजम् ।२५।

२-शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म (क्षत्रिय)  स्वभावजम् ।२६।

३-कृषिगोरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म (वैश्य) स्वभावजम् ।
४-परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि ( शूद्र:) स्वभावजम् ।२७।

(भविष्य पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय ४४)

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योगस्तपो दया दानं सत्यं धर्मश्रुतिर्घृणा ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यमेतद्ब्राह्मणलक्षणम् ।२८।

शिखा ज्ञानमयी यस्य पवित्रं च तपोमयम् ।
ब्राह्मण्यं पुष्कलं तस्य मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्।२९।

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यत्र वा तत्र वा वर्णे उत्तमाधममध्यमाः ।
निवृत्तः पापकर्मेभ्यो ब्राह्मणः स विधीयते । । 1.44.३० 

(भविष्य पुराण ब्रह्म खण्ड अध्याय ४४)

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शूद्रोऽपि शीलसम्पन्नो ब्राह्मणादधिको भवेत् ।
ब्राह्मणो विगताचारः शूद्राद्धीनतरो भवेत् ।३१।

न सुरां सन्धयेद्यस्तु आपणेषु गृहेषु च ।
न विक्रीणाति च तथा सच्छूद्रो हि स उच्यते । । ।३२।

यद्येका स्फुटमेव जातिरपरा कृत्यात्परं भेदिनी ।
यद्वा व्याहृतिरेकतामधिगता यच्चान्यधर्मं ययौ । ।
एकैकाखिलभावभेदनिधनोत्पत्तिस्थितिव्यापिनी ।
किं नासौ प्रतिपत्तिगोचरपथं यायाद्विभक्त्या नृणाम् ।३३।

इति श्री भविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि षष्ठीकल्पे वर्णविभागविवेकवर्णनं नाम चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ( ४४ )

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ब्राह्मणः सर्ववर्णानां ज्येष्ठः श्रेष्ठस्तथोत्तमः ।
एवमस्मिन्पुराणे तु संस्कारान्ब्राह्मणस्य तु ।१७१।

शृणोति यश्च जानाति यश्चापि पठते सदा।
ऋद्धिं वृद्धिं तथा कीर्तिं प्राप्येह श्रियमुत्तमाम् ।१७२।
धनं धान्यं यशश्चापि पुत्रान्बन्धून्सुरूपताम् ।
सावित्रं लोकमासाद्य ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् ।१७३।

इति श्रीभविष्य महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वणि द्वितीयोऽध्यायः । २।

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पुराणों में परस्पर अन्तर्विरोध और विरोधाभास पदे पदे परिलक्षित है ।  

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निम्न श्लोकों में चारों वर्णों को जातिगत रूप में निर्धारित करते हुए उनके नाम के साथ विशेषण लगाने का विधान भी निश्चित किया गया ।

जैसे धन संयुक्त पद वैश्य के साथ घृणा संयुक्त पद शूद्र के साथ और शर्मवद् ब्राह्मण के साथ तथा रक्षा समन्वित विशेषण पद क्षत्रिय के साथ निश्चित किया गया है ।

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वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य च जुगुप्सितम् ।धनवर्धनेति वैश्यस्य सर्वदासेति हीनजे । ९।

मनुना च तथा प्रोक्तं नाम्नो लक्षणमुत्तमम् ।शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्।1.3.१०

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ।      स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थमनोरमम् । । ११

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मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्।द्वादशेऽहनि राजेन्द्र शिशोर्निष्कमणं गृहात्। १२

चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं तथान्येषां मतं विभो ।षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यथेष्टं मङ्गलं कुले । १३

चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामनुपूर्वशः।    प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं कुरुनन्दन ।१४।

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मनु के नाम पर बनायी गयी मनुस्मृति में अनेक ब्राह्मण व्यवस्था को स्वीकार न करने वाली जन जातियों को शूद्र और वर्णसंकर बनाकर उनके दमन के विधान बनाये गये है मनु स्मृति का दशम अध्याय विचारणीय है ।

             

मनुस्मृति के दंड विधान पर एक दृष्टि डालिए तो निश्चित ही सभी विधान असामाजिक व अमानवीय ही हैं कुछ उदाहरण निम्न सन्दर्भों में वर्णित हैं।
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कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो त्रान्यः प्रकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा।।
(मनुस्मृति-, 8/335)
भावार्थ - साधारण प्रजा को जिस अपराध के लिए एक पैसा दंड दिया जाता है, उसी अपराध में लिप्त होने पर राजा पर हजार पैसा दंड लगाया जाना चाहिए।
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अष्टापद्यं तु शुद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षौडशैस्तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च।।
(मनुस्मृति 8-236)
भावार्थ- यदि चोरी शुद्र, वैश्य या क्षत्रिय करता है तो उन्हें पाप का क्रमशः आठ, सोलह और बत्तीस गुना भागीदार बनना पड़ता है।
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ब्राह्मणस्य चतुःषष्टि पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा च चतुःषष्टिस्तद्दोषगुण विद्धि सः।

(मनुस्मृति, 8-337)
भावार्थ - इसी प्रकार चूंकि ब्राह्मण को चोरी के गुण-दोष का सर्वाधिक ज्ञान होता है, अतः वह चोरी करता है तो उसे पाप का चौंसठ गुना भागीदार बनना पड़ता है।

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उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह।
विलुप्तौ शुद्रवद्दण्ड्यौ दग्ध्व्यौ वा कटाग्निना।।
(मनुस्मृति, 8-376)
भावार्थ - यदि रक्षिण ब्राह्मणी से वैश्य या क्षत्रिय शारीरिक संबंध स्थापित करे तो उन्हें शुद्र के समान दंड देते हुए आग में जलाकर मार देना चाहिए।

सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्योगुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन्।
शतानि पत्र्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सड्.गतः।।

(मनुस्मृति, 8-377)
भावार्थ - रक्षित ब्राह्मणी से यदि ब्राह्मण बलात मैथुन करता है तो उस पर दो हजार पैसा दंड लगाना चाहिए। यदि ब्राह्मणी की सहमति से ऐसा करता है तो उसे पांच सौ पैसा दंड देना चाहिए।
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मौण्ड्यं प्राणान्तिकोदण्डोब्राह्मणस्य विधीन्यते।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत्।।

(मनुस्मृति 8-378)
भावार्थ - ब्राह्मण के सिर मुंडवाने का अर्थ ही उसको मृत्युदंड देना है, जबकि अन्य वर्णवालों को मृत्युदंड मिलने पर उनका सचमुच वध किया जाना चाहिए।
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न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम्।।

(मनुस्मृति, 8-379)
भावार्थ- भले ही ब्राह्मण ने अनेक महापाप किए हों, किंतु उसका वध करना निषिद्ध है। उसे देश निकाले की सजा दी जा सकती है, ऐसी स्थिति में उसका धन उसे दे देना उचित है।

न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मा विद्यते भुवि।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।

(मनुस्मति, 8-380)
भावार्थ- ब्राह्मण के वध से बढ़कर और कोई पाप नहीं। ब्राह्मण का वध करने की तो राजा को कल्पना भी नहीं करना चाहिए।
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शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति।
वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शुद्रस्तुवधमर्हति।।

(मनुस्मृति, 8-266)
भावार्थ- ब्राह्मण को यदि क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र द्वारा अपशब्द या कठोर वचन कहा जाए तो उन्हें क्रमशः सौ पैसा, डेड़ सौ पैसा तथा वध का दंड देना चाहिए।

पत्र्चाशद् ब्राह्मणो दण्डः क्षत्रियस्याभिशंसने।
वैश्ये स्यादर्धपत्र्चाशच्छूद्रे द्वादशको दम्ः।।

(मनुस्मृति, 8-267)
भावार्थ- यदि ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र को अपशब्द कहा जाए तो उसे क्रमशः पचास, पच्चीस और बारह पैसा आर्थिक दंड देना चाहिए।

एकाजातिद्र्विजातीस्तु वाचा दारूण या क्षिपन्।
जिह्नयाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः।।

(मनुस्मृति, 8-269)
भावार्थ - शुद्र द्वारा द्विजातियों को अपशब्द कहा जाए तो उसकी जिह्ना काट लेनी चाहिए, ऐसे अधम के लिए यही दंड उचित है।
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नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयोमयः ‘ांकुज्र्वलन्नास्ये दशांगुलः ।।

(मनुस्मृति, 8-270)
भावार्थ - यदि शुद्र प्रभाव के अहंकार में द्विजातियों के नाम व जाति का उपहास करता है तो आग में तप्त दस उंगली शलाका (लोहे की छड़) उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।

धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः।
तप्तमासेचयेत्तैलं वक्तृ श्रोत्रे च पार्थिवः ।।

(मनुस्मृति, 8-271)
भावार्थ- यादि शुद्र दर्प में आकर द्विजातियों को धर्मोपदेश देने की धृष्टता करे तो राजा उसके मुंह व कान में खौलता तेल डलवा दे मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों में दंड विधान को बदल दिया गया है।

ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन👇
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इसी करणी कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।

जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ज्वाला प्रसाद मिश्र ( मुरादावादी) 'ने अपने ग्रन्थ "जातिभास्कर" में पृष्ठ संख्या 197 पर राजपूतों की उत्पत्ति का हबाला देते हुए उद्धृत किया  ब्रह्मवैवर्तपुराणम् का सन्दर्भ देकर -

ब्रह्मवैवर्तपुराणम्‎ प्रथम -(ब्रह्मखण्डः) अध्यायः१० 
श्लोक संख्या (१११)
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क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।। 
1/10/111
 ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।

तथा स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26 में राजपूत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए कहा
" कि क्षत्रिय से शूद्र जाति की स्त्री में राजपूत उत्पन्न होता है यह भयानक, निर्दय , शस्त्रविद्या और रण में चतुर तथा शूद्र धर्म वाला होता है ;और शस्त्र वृत्ति से ही अपनी जीविका चलाता है 👇

( स्कन्द पुराण सह्याद्रि खण्ड अध्याय 26)
और ब्रह्मवैवर्तपुराणम् में भी राजपूत की उत्पत्ति 
क्षत्रिय से करण (चारण) कन्या में राजपूत उत्पन्न हुआ और राजपुतानी में करण पुरुष से आगरी उत्पन्न हुआ ।
आगरी संज्ञा पुं० [हिं० आगा] नमक बनानेवाला पुरुष ।
 लोनिया
ये बंजारे हैं ।
प्राचीन क्षत्रिय पर्याय वाची शब्दों में राजपूत ( राजपुत्र) शब्द नहीं है ।

विशेष:- उपर्युक्त राजपूत की उत्पत्ति से सम्बन्धित पौराणिक उद्धरणों में करणी (चारण) और शूद्रा
दो कन्याओं में क्षत्रिय के द्वारा राजपूत उत्पन्न होने में सत्यता नहीं क्योंकि दो स्त्रियों में एक पुरुष से सन्तान कब से उत्पन्न होने लगीं 
और रही बात राजपूतों की तो राजपूत एक संघ है।

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ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇

( ब्रह्मवैवर्तपुराण प्रथम  ब्रह्मखण्डः)
अध्यायः१० श्लोक संख्या १११
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह।। 
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः। 
1/10/111

"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय पुरुष के द्वारा करण कन्या में उत्पन्न होना  बताई है ।"
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है ।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
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तज्जातिश्चव्रात्यात् क्षत्रियात् सवर्णायामुत्पन्नः जाति- भेदः “झल्लोमल्लश्च राजन्यात् व्रात्यान्निच्छिविरेव च । 
नटश्च करणश्चैव खसो द्रविड़ एव च” मनुः । करणरूपवर्णसङ्क- रस्यैव कायस्थनामता तस्या कर्भविशेषपरिपाकेण तज्जा- तिप्राप्तिस्तस्य वृत्तिभेदश्च ब्रह्मवै० पु० जन्मखण्डे ८५ उक्ते यथा  “तैलचौरस्तैलकीटो मूर्द्ध्निकीटस्त्रिजन्मकम् । ततो भवेत् स्वर्णकारो जन्मैकं दुष्टमानसः । तमःकु- ण्डे वर्षशतं स्थित्वा स्वर्णबणिग् भवेत् । जन्मैकञ्च दुसाचारो जन्मैकं करणो भवेत् । विश्वैकलिपिकर्त्ता च भक्ष्यदातुर्धनं हरेत् । कायस्थेनोदरस्थेन मातुर्मांस म नखादितम् । मत्र नास्ति कृपा तस्यदन्ताभावेक केवलम् । स्वर्णकारः स्वर्ण्णबणिक् कायस्थश्च व्रजेश्वरः! । मरेषु मध्ये ते धूर्त्ताः कृपाहीना महीतले । हृदयं क्षु- रधाराभं तेषाञ्च नास्ति सादरम् । शतेषु सज्जनः कोऽपि कायस्थो नेतरौ च तौ । सुबुद्धिः शिवभक्तश्च शास्त्रज्ञो धर्ममानसः” । 
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और करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
ऐसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।

तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है  ।

करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की  जंगली जन-जाति है ।

क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।

वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।

और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।

वैसे भी राजा का  वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं । 
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
विदित हो कि शास्त्रों में क्षत्रिय एक वर्ण है जबकि राजपूत्र( राजपूत ) वर्णसंकर जाति इसी बात कि पुष्टि स्कन्द पुराण के सह्याद्रि खण्ड में अध्याय २६ में से होती है जिसमें वर्णित है ।

"शूद्रायां क्षत्रियादुग्र: क्रूरकर्मा: प्रजायते।
शस्त्रविद्यासु कुशल: संग्राम कुशलो भवेत्।47।

"तया वृत्या: सजीवेद्य: शूद्र धर्मा प्रजायते ।
राजपूत इति ख्यातो युद्ध कर्म्म विशारद:।।48।
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कि राजपूत क्षत्रिय द्वारा शूद्र कन्याओं में उत्पन्न सन्तान है। 
जो क्रूरकर्मा और शस्त्र -वृत्ति से सम्बद्ध युद्ध में कुशल होते हैं । ये युद्ध कर्म के जानकार और शूद्र धर्म वाले होते हैं। यह आश्चर्य ही है कि गुण और प्रवृत्ति युद्ध की होने पर भी रूढ़िवादी पुरोहित समाज ने इन्हें क्षत्रिय प्रमाण पत्र शास्त्रीय आधार पर नहीं दिया है ।

ज्वाला प्रसाद मिश्र' मुरादावादी'ने "जातिभास्कर ग्रन्थ" में पृष्ठ संख्या -(१९७) पर राजपूतों की उत्पत्ति का ऐसा ही वर्णन किया है ।
स्मृति ग्रन्थों में राजपूतों की उत्पत्ति का वर्णन है👇
 राजपुत्र ( राजपूत)वर्णसङ्करभेदे (रजपुत) “वैश्यादम्बष्ठकन्यायां राजपुत्रस्य सम्भवः” 
इति( पराशरःपद्धति )
अब यहाँ वैश्य पुरुष से अम्बष्ठ कन्या में राजपूत की उत्पत्ति दर्शायी अर्थात पाराशर पद्धति के अनुसार-
वैश्य पुरुष के द्वारा अम्बष्ठ कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है।
जबकि स्कन्द पुराण सह्याद्री खण्ड में क्षत्रिय से शूद्र कन्या में राजपूत उत्पन्न होता है दर्शाया है ।
और ब्रह्मवैवर्त पुराण में क्षत्रिय के द्वारा करणी कन्या में राजपूत की उत्पत्ति दर्शायी है ।

भले ही इन शास्त्रों में राजपूतों की उत्पत्ति अनके मतान्तरणों में दर्शायी हो फिर राजपूत शुद्ध क्षत्रिय नहीं थे ।
इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
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राजपूत बारहवीं सदी के पश्चात कृत्रिम रूप से निर्मित हुआ ।
क्षत्रिय पुरुष और चारण कन्या से इनकी उत्पत्ति के अधिक प्रमाण हैं । चारण भले ही वर्णसंकर हों परन्तु चारणों का वृषलत्व( शूद्र तत् )कम ही है । 
इनका व्यवसाय राजाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना रहा  है ।

चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं;  कालान्तरण में एक कन्या को देवी रूप में स्वीकार कर उसे करणी माता नाम दे दिया  करण या चारण का अर्थ मूलत: भ्रमणकारी भी होता है ।

चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं । करणी ही उनकी कुल देवी बन गयी 
आज करणी चारणों की कुल देवी है ।
जिसके नाम से इन्होंने अपने को राजपूत के रूप में संगठित किया है ।
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सोलहवीं सदी के, फ़ारसी भाषा में "तारीख़-ए-फ़िरिश्ता  नाम से भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकार, "मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता ने राजपूतों की उत्पत्ति के बारे में लिखा है कि जब राजा, अपनी विवाहित पत्नियों से संतुष्ट नहीं होते थे, तो अक्सर वे अपनी महिला दासियो द्वारा बच्चे पैदा करते थे, जो सिंहासन के लिए वैध रूप से जायज़ उत्तराधिकारी तो नहीं होते थे, लेकिन राजपूत या राजाओं के पुत्र कहलाते थे।
👇
सन्दर्भ देखें:- मोहम्मद क़ासिम फ़िरिश्ता की इतिहास सूची का ...

(१-) "History of the rise of the Mahomedan power in India, till the year A.D. 1612: to which is added an account of the conquest, by the kings of Hydrabad, of those parts of the Madras provinces denominated the Ceded districts and northern Circars : with copious notes, Volume 1". Spottiswoode, 1829. पृ॰ xiv. अभिगमन तिथि 29 Sep 2009
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[२] Mahomed Kasim Ferishta (2013). History of the Rise of the Mahomedan Power in India, Till the Year AD 1612. Briggs, John द्वारा अनूदित. Cambridge University Press. पपृ॰ 64–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-108-05554-3.

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चमार रूप में परिवर्तित शम्बर. के वंशज कोल वंश से तो सम्बन्धित थे।।

 कुली अथवा दास बनाकर जिनसे दीर्घ काल तक भार-वाहक के रूप में दासता कर बायी गयी । 

और ये कोल लोग बाद मे आगत देव- संस्कृति के उपासक पुरुष सत्ता प्रधान पुरोहित वर्ग के सांस्कृतिक विरोधी थे ।

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देव संस्कृति के अनुयायीयों  ने इन कोलों  को सर्व-प्रथम शूद्र कहा कोल :-- जो काली अथवा दुर्गा के उपासक मातृ सत्ता-प्रधान समाज के अनुमोदक थे ।

ये लोग परम्परागत रूप से वस्त्रों का निर्माण करते हीे थे ,भारतीय आर्यों के सांस्कृतिक ग्रन्थों में --

इनके स्वरूप पर व्यंग्य किया है । देवी के रूप स्त्री पूजा  कोलों में प्रचलित थी।

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द्रविड प्राचीन काल में अध्यात्म विद्या के प्रथम प्रवर्तक थे ; सृष्टि के मूल-पदार्थ (द्रव) के विद--अर्थात् वेत्ता होने से इनकी द्रविड संज्ञा सार्थक हुई ।......
योग की क्रिया-विधि इनके लिए आत्म-अनुसन्धान की एक माध्यमिकता थी ।
आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म और कर्म वाद के सम्बन्ध में इनकी ज्ञान-प्राप्ति सैद्धान्तिक थी ।
भारतीय आर्यों के सांस्कृतिक ग्रन्थों में वर्णित    (ऊँ ) प्रणवाक्षर नाद-ब्रह्म के सूचक ओ३म् शब्द...
तथा धर्म जैसे शब्द भी मौलिक रूप से द्रविड परिवार के थे "
ये ओ३म् का उच्चारण यहूदीयों के "यहोवा "की तरह एक विशेष अक्षर विन्यास से युक्त होकर करते थे :--
जैसे ऑग्मा (Ogma)अथवा  आ-ओमा (Awoma)  तथा  धर्म को druma. कहते थे ...
जो वन संस्कृति से सम्बद्ध है। ... संस्कृत शब्द द्रुम: शब्द में यह भाव ध्वनित है।
परन्तु देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से आगत भारतीय आर्यों ने इन्हीं के इन सांस्कृतिक शब्दों को 
इन्हीं के लिए प्रतिबन्धित कर दिया :---
वैदिक विधानों का निर्माण करते हुए शूद्रों के लिए ज्ञान के द्वार भी ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था में निर्धारित हुआ ; 

"स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम " अर्थात् स्त्री और शूद्र ज्ञान प्राप्त न करें  सायद ब्राह्मणों को ज्ञात था कि ज्ञान ही जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है । और ---जो व्यक्ति शक्ति सम्पन्न है , वह किसी की दासता स्वीकार नहीं करेगा ।

मनु-स्मृति में वर्णित विधान शूद्रों के दमन हेतु निर्धारित किये गये थे ।

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अर्थात् - ब्राह्मण पशु ,पक्षीयों का  ,
यज्ञ के लिए अत्यधिक वध करें ।
तथा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण उनके मांस को धोकर खायें ...

चमार केवल मृत पशु ओं के शरीर से चर्म उतारते थे , क्योंकि वे बुद्ध का अनुयायी होने से हिंसा नहीं करते थे । 

चम्मारों का कार्य वस्त्रों का निर्माण करना भी था 
युद्ध में ये लोग ही ढाल-धारी सैनिक थे..
तब ये चर्मार: कहलाते थे .....
क्योंकि चर्मम् संस्कृत भाषा में ढाल को कहते हैं ।
यूरोपीय भाषा परिवार में सॉल्ज़र अथवा सॉडियर Soudier ) अथवा Soldier 
भी यही थे।
सॉल्ज़र शब्द की व्युत्पत्ति- यद्यपि रोमन 
शब्द Solidus -(एक स्वर्ण सिक्का )
के आधार पर निर्धारित की है ।
परन्तु ये पृक्त या पिक्ट लोग थे जो स्कॉटलेण्ड में शुट्र नामक गॉलों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
जो भारत में कोल कहलाते थे ।
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कालान्तरण में उद्यम के आधार पर जब जाति की उच्चता अथवा हीनता का प्रश्न उपस्थित हुआ ,
तब विचारकों का ध्यान इस ओर गया , 
और उन्होंने वर्णव्यवस्था के विपरीत मत प्रकट किए। 
वर्णव्यवस्था के समर्थकों और विरोधियों के बीच यह समस्या दीर्घकाल तक उपस्थित रही। 
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14 वीं शताब्दी के आसपास इस ढंग के संशोधनवादी और सुधारवादी दर्शन के कई व्यख्याता हुए ,जिन्होंने जातिगत रूढ़ियों और संस्कारों के विरुद्ध संगठित आंदोलन किए।
परन्तु कामयावी नहीं मिली .
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जिनका सम्बन्ध व्रज- क्षेत्र की महार गोप जाति से था ।
प्राचीन व्रज के कवियों ने -जैसे लल्लूलाल कृत प्रेमसागर में राधा को वृषभानु महार की बेटी को कहा गया है।
महार गोपों का सम्माननीय विशेषण रहा है परन्तु रुढ़ि वादी ब्राह्मण समाज ने गोपों अथवा महारों को शूद्र वर्ण में वर्णित किया। 
जिन्हें समाज मे उचित सम्मान न मिला ..
महाराष्ट्र के मूल में भी महार शब्द ही है ।
महारों के सहयोग से शिवाजी महाराज ने मराठी साम्राज्य की स्थापना की ...
मराठी बोली का विकास भी व्रज-क्षेत्र की शौरसेनी प्राकृत से  हुआ है । ............
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सत्य पूछा जाय तो यह जादव शब्द यादव शब्द का ही व्रज-क्षेत्रीय अथवा राजस्थानी रूप है।
क्योंकि शिवाजी महाराज स्वयं यादव वंशी थे।
होयशल अथवा भोसले इनका कबीलायी नाम था। 
सन् १९२२ के समकक्ष इतिहास कारों विशेषत: देवीदास ने प्रबल प्रमाणों के आधार पर दिल्ली के एक एैतिहासिक -सम्मेलन में प्रथम बार जटिया चमारों के लिए जाटव उपाधि से नवाज़ा था ।
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फिर ऐसी जहालत (अज्ञानता) भरी हालातों मे इनका बौद्धिक विकास न हो सका ..
और ये लोग सदीयों तक हीनता और दीनता की जीवन जाते रहे ।
 परन्तु इनके रक्त में महान पूर्वजों का गुण था ।
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इस लिए ये जन-जातीयाँ बिना साधन के भी  शीघ्र ही बहुत आगे बढ़ी चली गयीं ...
और अपने प्रतिद्वन्द्वी ब्राह्मण समाज से मुकाबला करने वाला  यही प्रथम समाज था ...
और आज भी है।
                        
इतिहास की कुछ परतें गहरायी में प्रतिष्ठित होती हैं ।

जिसे उत्पाटित करने में युगों की साधनाऐं समर्पित हो जाती हैं । निश्पक्षता की कुदाल से ही यह सम्भव है । दुर्भाग्य से भारतीय इतिहास इसका अपवाद ही है। नि:सन्देह भारतीय इतिहास का सूत्रपात बुद्ध के काल से  कुछ प्रमाणित है ।

अन्यथा भारतीय इतिहास  विशेष वर्ग के लोगों द्वारा पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित होकर  अपने  हितों को ध्यान में रखकर लिखा गया ।

जिसमें पदे पदे  मतान्तर व विभिन्नता स्वाभाविक थी । क्योंकि सत्य शाश्वत् व विकल्प रहित अवस्था है और असत्य बहुरूप धारण करने वाला बहुरूपिया ।
  ---जो कुुछ काल तक ही दृष्टि -गोचर होता है ।
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"प्रस्तुति करण: – यादव योगेश कुमार "रोहि 8077160219 "    


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