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बनारस अगर एक जीवन शैली है तो इसकी नींव हैं अहीर
आयुर्वेद में घी को उत्तम रसायन माना जाता है. रसायन यानि जो शरीर में रस भर दे.
पौरुष में वृद्धि कर दे. घी का स्रोत दूध है और दूध का कारोबार इनका है.
यानि घी जो मनुष्य के पौरुष का मुख्य कारक है, उसके अधिपति अहीर हैं.
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हेमंत शर्मा
Publish Date - 4:16 pm, Sat, 21 August 21Edited By:
संयम श्रीवास्तव .

वीरता में भी अहीर कभी राजपूतों से कम नहीं रहे. लेकिन इतिहास लेखन में उसकी अनदेखी हुई.
( रेखांकन : माधव जोशी
बनारसी मतलब घनीभूत मस्ती.
यानि भीतर तक खुशी के उत्सव में डूब जाना, खो जाना, विलीन हो जाना.
खुद को उत्सव में एकाकार कर लेना.
पर बनारस में मस्तमौला का पर्याय है अहीर. बनारस का अहीर धर्मभीरू है,
रामलीला का नेमी है. भरत मिलाप का रथ उसके कंधे पर चलता है. काशी विश्वनाथ का भक्त है.
गंगा का प्रहरी है, गोपालक है.
मलाई रबड़ी चांपता है. जोड़ी नाल फेरता है. उसकी अपनी बोली और गाली है.
बहरी अलंग की सैर करता है. निछद्दम में निपटता है. लंगोट कसकर दंड पेलता है.
बिरहा गाता है.
नगाड़े की आवाज़ सुनते ही उसके पांव थिरकने लगते हैं.
उसे दीन दुनिया की परवाह नहीं है. सरोतर छानता है.
शब्दकोश के मुताबिक अहीर आभीर का समानार्थी है जिसका मतलब है दूधवाला और निर्भीक.
यह द्वापर के पहले सतयुग और त्रेता से चला रहा है.।
जीवन में कुछ भी अकारण नही होता.
बनारस और अहीर के इस वर्णन के पीछे भी एक कारण है. इस वर्णन की धारा कल्लू सरदार के अहाते से फूटती है.
कल्लू सरदार में अहीरत्व के ये सारे गुण थे. वे मेरे मुहल्ले के हीरो थे.
बनारस के नाल उठाने में नंबर एक. जोड़ी फेरने में अव्वल. कल्लू का दूध कारोबार था.
मेरे घर के सामने ही रहते थे.
दिन भर कबूतर बाज़ी और रात में दारू उनका शग़ल (कामधन्धा) था. क़द साढ़े छ: फुट, चौड़ाई खली की तरह.
रंग भुजंग जैसा, लंबा मुंह, टूटा कान (पहलवानों के ऐसे ही होते हैं) अन्दर की तरफ़ घुसे गाल, बारहों महीने आंखों में काजल, कानों में सोने की बाली, गले में सिकडी, कमर में गमछा, कंधे पर बूटी वाला गमछा, बाक़ी शरीर नंगा, आवाज़ में खनक. कल्लू सरकारी नल पर हमेशा लटकती लांग वाले लंगोट के साथ नहाते मिल जाते.
दिनभर छत पर कबूतर उड़ाते हुए टंगे रहते. कबूतर के उड़नशास्त्र की नाना ध्वनि वह अपने मुंह से निकालते.
वे अक्सर अपने कबूतरों के झुंड में दस बारह दूसरे कबूतरों को फ़ांस लाते. शाम को वो बिकते तो यह उनकी ऊपरी आमदनी होती. जब रात में कल्लू दारू पी लेते तो अपनी पत्नी को अपने ससुर की मां कह कर पुकारते. यह था कल्लू सरदार का निजी और सार्वजनिक ब्यौरा.
कल्लू सरदार के बारे में कुछ और बताने से पहले उनके व्यक्तित्व का परिचय देना बहुत जरूरी होगा. वे गाय भैंस पालते थे, दूध का कारोबार करते थे.
शायद इसलिए गाय की तरह सीधे, बैल की तरह मेहनती और भैंस की तरह मूढ़ थे. यानि एकदम सादगी पसंद और बनावट से कोसों दूर. शहर में वे कल्लू पहलवान के नाम से जाने जाते थे.
जिस औघड़नाथ की तकिया में कबीर को ब्रह्म ज्ञान हुआ था, कल्लू उसी अखाड़े के पहलवान थे. दो मन की नाल उठा लेते. जोड़ी के भी वे मास्टर थे. मैंने कभी उन्हें कुर्ता धोती पहने नहीं देखा. गमछा और लुंगी में वे समूचा शहर नाप लेते. बताते हैं कल्लू जवानी में गुंडा थे. प्रसाद जी की कहानी गुंडा के नायक.
बनारस के अहीराने की पहचान
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कल्लू पहलवान बनारस के अहीराने की पहचान थे. बनारस और अहीर. यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इस शहर से अगर ब्राह्मण और अहीर को हटा दिया जाए तो इसका रस तत्व ही गायब हो जाएगा. इसे यूं समझिए कि जहां धर्म, संस्कृति, खानपान, दूध, मलाई, पहलवानी, अखाड़ा, गुंडई, रंगदारी, घालमेल हो वहां अहीर… आयुर्वेद में घी को उत्तम रसायन माना जाता है. रसायन यानि जो शरीर में रस भर दे.
पौरुष में वृद्धि कर दे. घी का स्रोत दूध है और दूध का कारोबार इनका है.
यानि घी जो मनुष्य के पौरुष का मुख्य कारक है, उसके अधिपति अहीर हैं.
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आप जानते हैं कि सनातन धर्म की रक्षा के लिए आचार्य शंकर ने तेरह अखाड़े बनाए थे पर जब यह आध्यात्मिक अखाड़े जनता के बीच गए तो पहलवानी, जोड़ी, गदा, नाल के अखाड़े हुए और अहीरों ने ही इसका जिम्मा संभाला. बनारस में अखाड़े की स्थापना किसने की इसका।
सिलसिला नहीं मिलता.
मुगलकाल में समर्थ गुरु रामदास के शिष्यों ने यहां कुछ अखाड़े बनवाए.
तुलसीदास ने भी तुलसी अखाड़ा बनाया. पर सभी अखाड़ों पर जलवा इन्ही का था.
यही वजह है कि धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए आज भी काशी में अहीर ही सबसे आगे रहते हैं.
बनारसीपन का का केन्द्र अहीर हैं.
बनारस के हर मुहल्ले में अहीराना इसका प्रमाण है. अहीराना यानी अहीरो का टोला. जहां दूध का कारोबार हो, जो गोबर की गंध से निरंतर सुवासित हो. गाय, भैंस, सांड जहां के स्थायी निवासी हो. गंदगी से बजबजाती अंधेरी सीलनयुक्त गलियां हो, जहां मैनहोल प्राय: उफनते हों. यह है अहिराने की चौहद्दी. रिश्तों की मेरी समझ ऐसे ही अहीराने में ही पैदा हुई. मैं पैदा हुआ मध्यमेश्वर (दारानगर) में और बड़ा हुआ पियरी पर. बनारस में ये दोनो ही मुहल्ले अहीर संस्कृति के ‘ब्रह्मकेन्द्र’ हैं .
दुनियादारी में जब मेरी आंख खुली और जेहन जब रिश्तों की समझ से रोशन हुआ तो मेरे चाचा, चाची, ताऊ, काका, काकी, अहीर ही थे. दारानगर के रामधन सरदार की चाय की दुकान पर अखबार बांचकर मेरे पिता जी ने अपनी साहित्यिक समझ विकसित की तो पियरी के बुधराम सरदार की कोयले की टाल पर अखबार पढ़कर मैंने अपनी राजनीतिक समझ बढ़ाई. मेरे संस्कार अहीरों के मोहल्ले के हैं इसीलिए मेरे भीतर कुछ प्रतिशत अहिरत्व आपको मिलेगा. शायद तभी मेरी पत्नी अक्सर मुझे कहा करती हैं कि तुम्हारी बोली भाषा अहीरों वाली है. लेकिन मेरे लिए यह अपमानजनक नहीं है.
काशी का हर वीर अहीर है
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बनारस में अहीर के लिए सरदार सम्मान सूचक शब्द है. सरदार संबोधित कर आप उन्हें गाली भी दे सकते हैं, उनकी सरलता और सहजता इस बात का बुरा नहीं मानती है.
इस शहर का कोई भी धार्मिक आयोजन अहीरों के बिना पूरा नहीं होता है. नाटी इमली के भरत मिलाप का रथ सिर पर लाल गमछे का मुरैठा बांधकर वही खींचते हैं.
जेठ की दुपहरी में बरसात की कामना के लिए काशी विश्वनाथ का जलाभिषेक अहीर ही करते है ,गंगा से विश्वनाथ मंदिर तक मानव श्रृंखला बनाकर. मुंडकट्टा बाबा के सालाना श्रृंगार पर गांजे की चिलम भी वही चढ़ाते हैं. राम नगर की रामलीला का दर्शक और पात्र अहीर ही होता है. काशी का हर वीर अहीर है. लहुराबीर, भोजूबीर, बोलियावीर,
बेचूबीर इन सभी वीरों को शांत रखने का काम इसी बिरादरी का है.
कबीर को कबीरत्व न प्राप्त होता, अगर कबीरचौरा के अहीरों ने उन्हें गांजा और सुल्फा न उपलब्ध कराया होता.
औघड़नाथ की तकिया में कबीर को तत्व ज्ञान हुआ था. यह तकिया आज भी अहीरों का अखाड़ा है.
श्वेत क्रांति के लिए देश भले ही कुरियन साहब को जानता हो पर बनारस में श्वेत क्रांति के संवाहक अहीर लोग हैं.
एक बार करूणानिधि से मिलकर मद्रास से लखनऊ लौटते वक्त सरकारी जहाज़ में मुलायम सिंह यादव ने मुझे बताया था कि कुरियन भी केरल के अहीर हैं.
यह मुलायम सिंह यादव की आस्था थी, या सच्चाई मेरे लिए अब तक रहस्य है. पर श्वेत क्रान्ति के लिए उनका जातीय गौरव ज़रूर था. दुनिया में हर चीज पकड़ी जा सकती है.
उपग्रह किसी भी गतिविधि का चित्र ले सकता है. पेगासस कुछ भी सुन और देख सकता है लेकिन ऐसा कोई यंत्र आज तक नहीं बना जो दूध में पानी मिलाने के अहीरों के विविध तरीकों को खोज सके .
मेरा बचपन बीत गया, पर मैं कल्लू सरदार की वह ट्रिक न समझ सका जिसमें दूध में पानी कब और कैसे मिल जाता था.
सुबह सवेरे उनके उठने से पहले ही मैं दूध लेने पहुंच जाता था ताकि मैं उनकी कारीगरी पकड़ सकूं. पर वे क्या गजब के सिद्धहस्त थे!
नाना विधि से वे गोरस का गोरख धंधा करते थे. मैं उनकी ओर टकटकी लगाए देखता रहता था. दुहने से पहले बाल्टी देखता था.
उनकी हर अदा पर मैं बाज की नजर रखता था. ताकि वे पहले से रखी बाल्टी के पानी में दूध न मिला दें, मगर कल्लू सरदार अपनी तिकड़म में हमेशा कामयाब रहते.
और मैं उनके सामने बकलोल.
अनंत काल से ही गाय इनकी माता रही है
उनका गौ प्रेम अद्धुत था.धर्म सम्राट करपात्री जी ने बीसवीं सदी के पांचवें दशक में नारा दिया था कि गाय हमारी माता है, देश धर्म का नाता है. पर बनारस के अहीर तो अनंत काल से ही गाय को अपनी माता मानते रहे हैं.
खैर, लौटते हैं बनारस के अहीरत्व पर तो नगाड़ा अहीरों का राष्ट्रीय वाद्य है.
गमछा उनकी राष्ट्रीय पोशाक. गमछे के नीचे लटकती लाल लंगोट की लांग उनकी पहचान है. सेंगरी, लोहबंद, गड़ासा उनके रक्षक उपकरण. जिस वक्त कल्लू सरदार अपनी भैंसों को लेकर सड़क पर निकलते थे, वे काशी नरेश को भी कुछ नही समझते थे. मैं यह आज तक नहीं समझ पाया कि दारू, मारपीट और मलाई से क्या संबंध है?
कल्लू सरदार रोज पीते थे. पीते ही घर आकर पत्नी की पिटाई करते थे.
फिर सड़क पर जाकर मलाई लाते और पत्नी को खिलाते. मार के बाद मलाई! यह फार्मूला आज तक मैं नहीं समझ सका.
बनारस में अहीरों का इतिहास वीरता का है. विदेशी हमला हो या दंगा, बनारस की शान और जनता की रक्षा यही करते थे.
राजपूतों का वीरता में नाम ज़्यादा चला पर वीरता में ये समाज भी राजपूतों से कभी कम नहीं रहा. लेकिन इतिहास लेखन में उसकी अनदेखी हुई.
16 अगस्त 1781 को जब काशी राज्य के जमींदार चेत सिंह जो कम्पनी शासन से बग़ावत कर शिवाले के क़िले में जा छुपे थे,
तो उन्हें वॉरेन हेस्टिंग्स की कम्पनी फ़ौज ने घेर लिया. ऐसे में बनारस के अहीरो ने ही मोर्चा सम्भाला. अपनी भैंसों को खोलकर उनकी तरफ़ दौड़ा दिया. सेंगरा,लोहबंद,और गड़ासे से कई अंग्रेज सैनिक निपट गए.
ट
इस लड़ाई से घबराकर वॉरेन हेस्टिंग्स पीछे हटा और भाग गया. तब लोक में यह गीत प्रचलित हुआ.
घोड़े पर हौदा , हाथी पर जीन
काशी से भागा, वॉरेन हेस्टिंग्स.
अहीरों ने की तुलसीदास के रामचरित मानस की मार्केटिंग
कल्लू सरदार के बहाने मैं बनारस के अहीरों के गौरवशाली इतिहास का बखान कर रहा हूं. इस इतिहास से तुलसीबाबा भी जुड़े हैं. तुलसी दास ने यहां रह कर रामचरितमानस तो लिख दी मगर अब उसकी मार्केटिंग कैसे हो, वह जन जन के बीच तक कैसे पहुंचे, यह बड़ा सवाल था?
छापा खाना था नहीं.
सोशल मीडिया का जमाना नहीं था सो तुलसी के समकालीन मेधा भगत ने संवत 1610 के आसपास बनारस में रामलीला शुरू की.
इसी में रामचरितमानस मानस गाया जाता था.
चित्रकूट रामलीला समिति भी इन्ही मेधाभगत ने बनाई जिसकी एक लीला, नाटी इमली का भरत मिलाप आज भी लक्खी मेला है.
रामचरित मानस, रामलीला के साथ ही लोक प्रिय होने लगा. प्रयोग सफल रहा. तुलसी का रामचरितमानस रामलीलाओं के ज़रिए लोक तक पहुंच गया. रामलीला का इंतज़ाम अहीर लोग ही करते थे. आज भी नाटी इमली के भरत मिलाप के चालीस मन का रथ अहीरों के कंधे पर ही चलता है. सफ़ेद गंजी और धोती बांध सिर पर गमछे का मुरेठा कस यही बिरादरी यह रथ उठाती हैं . कल्लू सरदार भी हर साल रथ उठाने जाते थे. वे साफ़ा पानी दे, आंखें में काजल लगा, घुटनों तक धोती पहन,जांघ तक खलीतेदार बंडी पहने हुए इसका हिस्सा होते थे. बिना पनही के वे भरत मिलाप में जाते .लौट कर हम सबको रेवड़ी और चूड़े का प्रसाद देते.
कल्लू सरदार गजब के शौकीन थे.
शौक़ीनी में तो कल्लू को राजा बनारस भी नहीं पाते. कल्लू ने बहरी अलंग जाने के लिए एक एक्का रखा था. चांदी की मुठिया, और चारों तरफ़ चांदी के जंगले वाले इस एक्के में लाइट भी लगी होती. यह एक्का बहुत ख़ूबसूरत था. घोड़ा भी उतना ही हसीन. सुबह से घोड़े के पैर में खरहरा दिया जाता. कल्लू के साथ साथ घोड़ा भी संध्या वंदन करता था. कल्लू रामनगर की रामलीला के नेमी थे. बिना नागा पूरे नियम धर्म से जो लीला देखने जाते है,
उन्हे नेमी कहते हैं. कल्लू पूरे नियम से 31 दिन लीला देखने अपने एक्के से जाते.
इस एक महीने शराब पर पाबंदी रहती. हां रामनगर के तालाब पर साफ़ा पानी के बाद भांग ज़रूर जमती. अक्सर यहां ठंडाई भी बनती शरीफा, कसेरू, केला, तरबूज़, खस,
गुलाब, चंदन की ठंडई छनती थी. आंवले के पेड़ के नीचे. लिट्टी- बाटी लगती, पोतनी मिट्टी की भी ठंडई बनती.
जिसमें पांच तरह के मगज तरबूज़, ख़रबूज़, ककड़ी, लौकी और कोहडे़ का बीज पीसा जाता फिर सौंफ काली मिर्च से उसका संस्कार होता. फिर अंतर फुलेल लगा लोग वापस लौटते.
बिरहा, इनका राष्ट्रीय गीत
कल्लू पहलवान को नागपंचमी के उत्सव का खास इंतजार रहता. बनारस में पहलवानों का ओलम्पिक नागपंचमी को ही होता था.
सारे अखाड़े रंग पुत कर संवरते.
कुश्ती, जोड़ी, गदा, नाल की प्रतियोगिता होती. यह काम भी अहीर लोग ही करते. कल्लू इस प्रतियोगिता में कई अखाड़ों के कम्पटीशन में शामिल होते और नाल जोड़ी के नीरज चोपड़ा घोषित होते. कल्लू बिरहा प्रेमी थे, बिरहा को बनारसी अहीरों का राष्ट्रीय गीत कहा जा सकता है. कजरी बनारस की प्रसिद्ध थी. इसे किन्ही बिहारी सरदार ने कुछ बदलाव कर नई लयकारी में गाना शुरू किया. उन्होंने सुर के लिए लोहे के दो ठोस टुकड़ों से करताल नाम का एक वाद्ययंत्र भी बनाया. बनारस की लोक संगीत परम्परा में बिहारी सरदार का यह गायन उनके नाम पर बिरहा कहा जाने लगा. प्राय: पौराणिक, सांस्कृतिक,
ऐतिहासिक सन्दर्भ बिरहा के विषय होते पर शहर की कोई सनसनीख़ेज़ घटना पर भी बिरहा बन जाता था.
कल्लू सरदार सबै भूमि गोपाल की परम्परा के संवाहक थे.
इस विचारधारा का भी अपना एक जमीनी समीकरण था. पहले मुरव्वौत में सरकारी या किसी दूसरे की ज़मीन पर गाय भैंस के लिए खूंटा गाड़ना. फिर उस पर ट्रजमेंट्री राइट के तहत दावा करना. इसे वो अपना अधिकार समझते थे.
कल्लू कहते लोहिया जी कहले हऊअन कि राजनीति में आना है तो ज़मीन से जुड़ना होगा.
अहीरत्व की चेतना उत्सवबोध की चेतना है
अहीर बनारस की शान हैं. उनका महात्म्य समझने के लिए आपको अहीरत्व की चेतना से दो चार होना पड़ेगा.
अहीरत्व की चेतना उत्सवबोध की चेतना है. यह चेतना बनारस के वजूद में घुली हुई है. अब जब अहीरों पर लेखन का विस्तृत पन्ना खुल ही गया है तो उनकी उत्पत्ति पर भी विचार कर लेते हैं. सवाल है कि अहीर आए कहां से? इसके संकेत संस्कृत भाषा में छिपे हैं.
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अहीर शब्द संस्कृत का “अहिः” है. अहिः का अर्थ है- सर्प. “अहिः से ही “अहीर” रूपांतरण हुआ होगा. इसका एक मतलब अहीर लोग नाग-वंशी थे.
परंतु (Ahirs of Khandesh and their language) के लेखक प्रो. के.पी. कुलकर्णी का मत इससे अलग है.
वे मानते हैं कि अहीर शब्द आभीर का ही अपभ्रंश है. इसके प्रमाण में वे महाभारत और पुराणों के साक्ष्य देते हुए लिखते हैं कि महाभारत या पुराणों में आभीर शब्द का ही प्रयोग हुआ है,
अहीर का नहीं. ज़्यादातर विद्वान मानते हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के ‘आभीर’ शब्द का तद्भव रूप है जिसका अर्थ है- दूधवाला निर्भीक अभीरु जो भीर( कायर) न हो.
दुग्धोत्पादन आभीरों या अहीरों का पैतृक व्यवसाय रहा है.।
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहीर व आभीर समानार्थी शब्द हैं.
हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते हैं. ‘आभीर’ शब्द संस्कृत से परंपरागत रूप में हिंदी में आया है.
वामन शिवराम आप्टे ने संस्कृत हिंदी कोश में ‘आभीर शब्द के संदर्भ में लिखा है-
अभिमुखीकृत्य ईरयति गा इति अभीर:।
जो चारों तरफ गाये चराता है ।
अभीर, वामनयनाहृतमानसाय, दत्तं मनो यदुपते त्वरितं गृहाण.. (भट्टिकाव्य)
स्वयं कृष्ण के समय में गोकुल और उसके आसपास के निवासियों का मुख्य व्यवसाय गोपालन और दुग्धोत्पादन ही था.
इस संदर्भ में एक तर्क यह भी है कि अहीर शब्द- “महीर” शब्द का रूपांतरण है. “मही” का अर्थ दही होता है।
अत: मही यानी दही बेचने वाले महीर के नाम से जाने गए और महीर शब्द बिगड़ते -बिगड़ते बाद में अहीर बन गया.
आभीर गण का वर्णन महाभारत काल में मिलता है. स्वभाव और गुण की दृष्टि से यह जाति गोपालक और युद्धप्रिय रही है.
इतिहास में अहीरों का वर्णन
ये अलग बात है कि आभीरों या अहीरों का प्रामाणिक संकलित इतिहास कहीं नहीं मिलता. इंडियन एंटीक्वैरी, खानदेश डिस्ट्रिक्ट गजेटियर, भांडारकर कृत दक्षिण का इतिहास,
एंथोवेन लिखित” ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बाम्बे और डॉ. ग्रियर्सन के भारतीय भाषा सर्वेक्षण, इन ग्रंथों में आभीरों के संन्दर्भ मिलते है.
“भारतीय संस्कृति-कोश” में टॉलेमी और प्रो.जयचंद्र विद्यालंकार जैसे इतिहासकारों का हवाला देते हुए लिखा गया है-
“आभीरों का मूल निवास मध्य-रशिया में कहीं रहा होगा.” टॉलेमी का तर्क है कि आभीर आइबेरिया के मूल निवासी थे.
ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में आभीरों का प्रदेश बैट्रियन ग्रीकों ने जीत लिया और वहां अपना राज्य प्रतिष्ठित किया.
टॉलेमी ने इस प्रदेश को इण्डोसिथिया नाम दिया है. प्रो. जयचंद विद्यालंकार मानते हैं कि भारत में आभीरों का आगमन सन् 181 के आसपास हुआ होगा. इसके लिए वे क्षत्रपों के सेनापति वृत्रभूति आभीर द्वारा 181 ई. में लिखे एक अभिलेख का प्रमाण देते हैं.
इसी तरह एन्थोवेन ने ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बाम्बे में ईसा की तीसरी शताब्दी के अंत में काठियावाड़ में आभीरों के अधिपत्य को प्रमाणित करते है. वे नासिक अभिलेख (300 ई.)
के आभीर-राजा ईश्वरसेन की ओर ध्यान खींच यह सिद्ध करते है कि खानदेश ही आभीरों का स्थायी निवास था.
इधर मध्य-भारत में मिर्जापुर जिले का “अहिरौरा” तथा हरियाणा का “अहिछत्र” भी आभीरों के नाम से जाना जाता है. नैसफिल्ड, के.एम. मुन्शी तथा राजबली पांडेय का कथन है कि मनु की पुत्री इला और बुध से पुरुरवा का जन्म हुआ और इससे चंद्रवंश चला.
चंद्रवंशी ही यादवों के वंशज हैं.
प्राचीन धर्मग्रंथों के मुताबिक़ बुध से पुरुरवा और पुरुरवा से आयु हुए.
आयु से नहुष और नहुष से ययाति थे. ययाति राजा की दो पत्नियां थी, देवयानी और शर्मिष्ठा. देवयानी से यदु और तुर्वसु पैदा हुए.
यदु के वंशज यादव कहलाए. द्वापर के अंत में यदुवंश के प्रतापी राजा शूरसेन हुए जिनके पुत्र वासुदेव थे.
वासुदेव श्रीकृष्ण के पिता थे.
शूरसेन प्रदेश से निकल कर आभीर यादव भारत के विभिन्न प्रदेशों में फैलते गए.
आज यादव देश के अलग अलग भागों में विविध नामों से पुकारे जाते हैं.
‘हिन्दी भाषी क्षेत्र’ के ‘अहीर’ और ‘यादव’, महाराष्ट्र के ‘गवली’,आंध्र प्रदेश व कर्नाटक के ‘गोल्ला’, तथा तमिलनाडु के ‘कोनार’ तथा केरल के ‘मनियार’ हैं .
मार्कंडेय पुराण में आभीरों को दक्षिण देश का निवासी कहा गया है.
इन आभीरों की एक शाखा जलमार्ग से दक्षिण की ओर गई और वहां वे पुण्ड्रक, केरल, पुलिन्द, आंध्र नामों से पहचाने जाने लगे.
मत्स्यपुराण में दस आभीर राजाओं का ज़िक्र आता है यथा –
दशाभीरास्तथा नृपाः
मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियों की. ये दोनों ही यदुवंश की शाखाएं थीं. यदुवंश में अंधक, वृष्णि, माधव, यादव आदि वंश चले. श्रीकृष्ण वृष्णि वंश से थे.
वृष्णि ही ‘वार्ष्णेय’ कहलाए, जो बाद में वैष्णव हो गए. श्रीकृष्ण के पूर्वज महाराजा यदु थे. यदु के पिता का नाम ययाति था.
ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे. ययाति के प्रमुख 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुहु. इन्हें वेदों में पंचनद कहा गया है.।
पुराणों में ज़िक्र है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गए थे और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को कभी राजपद नहीं मिलेगा. ययाति सबसे छोटे बेटे पुरु को बहुत अधिक चाहते थे और उसी को उन्होंने राज्य देने का विचार किया, लेकिन राजा के सभासदों ने बडे़ पुत्र के रहते हुए इस प्रस्ताव का विरोध किया.
यदु ने पुरु का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया.
इस पर पुरु को राजा घोषित किया गया. उसके वंशज पौरव कहलाए.
अज्ञात कारणों के चलते जब यह नगरी उजाड़ हो गई तो सैकड़ों वर्षों तक इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया. बाद में जरासंध के आक्रमण से त्रस्त होकर श्रीकृष्ण ने मथुरा से अपने 18 कुल के हजारों लोगों के साथ पलायन किया तो वे कुशस्थली आ गए और यहीं उन्होंने नई नगरी बसाई और जिसका नाम
द्वारका रखा. इसमें सैकड़ों द्वार थे इसीलिए इसे द्वारका या द्वारिका कहा गया.
इस शहर को श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा और मयासुर की सहायता से बनवाया था.
श्रीकृष्ण के अहीरों से रिश्ते के बारे में ऐतिहासिक मीमांसाएं भी हैं. इतिहासकार डीडी कौशाम्बी ने अपनी किताब ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ में लिखा है-‘ऋग्वेद में कृष्ण को दानव और इंद्र का शत्रु बताया गया है.
कृष्ण शाश्वत भी हैं और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल में पाला गया था.
इस स्थानांतरण ने उसे उन अहीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे.
कृष्ण गोरक्षक थे,
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जिन यज्ञों में पशुबलि दी जाती थी, उनमें कृष्ण का कभी आह्वान नहीं हुआ है, जबकि इंद्र, वरुण तथा अन्य वैदिक देवताओं का सदैव आह्वान हुआ है.
कौशाम्बी लिखते हैं कि कृष्ण आर्यों की पशु बलि के सख्त विरोधी थे यानि गोरक्षक थे.
आदि से लेकर अब तक अहीरों का इतिहास पराक्रम और पसीने से सना हुआ है.
वे इतिहास में पूज्य हैं, वर्तमान में प्रासंगिक हैं
और भविष्य की संभावनाओं का द्वार हैं.
धर्म, समाज, राजनीति, साहित्य, युद्ध सरीखे जीवन के अलग अलग क्षेत्रों में वे शीर्ष पर रहे हैं. बनारस के अहीरों ने मुझे अहीराने की इस महान परंपरा से वाकिफ कराया.
कल्लू सरदार के जीवन ने मेरे भीतर इस महान विरासत के प्रति श्रद्धा और आस्था की बुनियाद रखी. बनारस अगर एक जीवन शैली है तो अहीर इस जीवन शैली की नींव के पत्थर हैं.
बिना नींव के कंगूरे की कभी कल्पना भी नही की जा सकती.
अहीराने की इस महान विरासत को प्रणाम.
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सौजन्य से श्रृद्धेय गुरुदेव
श्री सुमन्त कुमार यादव "जौरा".
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