रविवार, 19 सितंबर 2021

कृष्ण एक वैदिक विवेचन-(अरनेष्ट मैके) और (तन्त्रभागवत) के आधार पर -

पुरातत्तवेत्ता (अरनेष्ट मैके ) के प्रमाणों के अनुसार  कृष्ण का समय ई०पू० (900) कुछ वर्ष पूर्व सिद्ध होता  है।

सिन्धु घाटी की सभ्यता के उत्खनन के सन्दर्भ कृष्ण की यमलार्जुन  वृक्षो में समन्वित उलूखल दमोदर मूर्ति की प्राप्त हुयी है  जिसकी कार्बन क्षरण डेटिंग ईसा पूर्व नवम सदी के कुछ पूर्व  है  -👇

___________________________________और देव संस्कृति के अनुयायीयों का आगमन ई०पू०
1200 से 1000 में मैसोपोटामिया के क्षेत्रों से होते हुए ईरान -ईराक मार्ग से हुआ ...
विदित हो कि ईसा पूर्व अष्टम सदी ईरानी अहुरमज्दा असुर महत्) के उपासकों का देव संस्स्कृति के अनुयायीयों से सांस्कृतिक युद्ध हुआ।
ईरानीयों ने देव शब्द का अर्थ "दएव" के रूप में दुष्ट और व्यभिचारी किया तो देव-संस्कृति के अनुयायीयों असुर ता अर्थ ही विकृत कर दिया 
ऋग्वेद में असुर का अर्थ प्रतिभावान् और बलवान है ।
स्वयं वैदिक शब्द कोश निघण्टु में असुर शब्द के पूर्ववर्ती अर्थ  है ⬇
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असुर:= सोमे वरुणे च मेघा: ६२
असुर -दात्रारिव्याप्त्याम् ७४६
असुर:= बले ४२२
असुर :=प्रज्ञायाम् 
असुर :=ऋत्विजि 
परवर्ती अर्थायां दैत्ये 
(माधवीय पदानुक्रमणिका  वैदिक निघण्टु )
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वैदिक सन्दर्भ में कृष्ण ते लिए यद्यपि असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने अपने भाष्य में असुर का आरोपण कृष्ण को ऊपर किया है परन्तु उन्होंने कोई निश्चित सन्दर्भ उद्धृत नहीं किया है है कि कृष्ण को असुर कहाँ कहा गया है ।
मूल ऋचा
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना  युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥

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पदपाठ-विच्छेदन 
। द्रप्स: । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः । विशः । अदेवीः । अभि । आऽचरन्तीः । बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५
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भाष्य-

कृष्णेन ।अधारयद्। यमुनया: ।जलस्य। अधौ । दैदीप्यमानम् ।स्वतन्वम् । यमुनया: ।उत्संगे तदा। इन्द्र:। गोपाञ्च ।अपश्यत् । लोभीभूत्वा गोपै: सह। गाव: ।आचरन्ती। तस्मिन् काले ।देवान् न पूजयितान् गोपान् बृहस्पतिना सह इन्द्र: ससाह।

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अर्थ-
कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया अर्थात् जल में स्थित हो गये ( यमुना के जल नें स्थित हो गये ) तब इन्द्र ने  गोपों - विशों(गोपालन आदि करने वाले 
वैश्यवृत्ति सम्पन्न) को  देखा जो वहाँ गाय चलाते हैं तब इन्द्र ने देवों की पूजा न करने वाले अदेवी: उन गोपों को बृहस्पति के साथ मिलकर चारो ओर से अपनी शक्ति में करना चाहा अथवा शक्ति में किया।

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१-“अध अथ अधो वा 
२-“द्रप्सः द्रव्य पूर्ण जल: 
३-“अंशुमत्याः यमुनाया: नद्याः“
४-(उपस्थे=उत्संगे क्रोडेवा “
५-(त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे तित्विषाणः= दीप्यमानः)
६-( सन् =भवन् ) 
७-“(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “
८-(अधारयत्  = लौकिक रूप. अधरत –आत्मनेपदीय लङ्लकार अन्यपुरुष एकवचन रूप धारण किया)। 
तत्र “इन्द्रो  गत्वा =वहाँ इन्द्र ने जाकर।
“बृहस्पतिना एतन्नामकेन बृहद् देवेन=बृहस्पति इस नाम के बृहद् देव के साथ।
९- “युजा =सहायेन तृतीया विभक्ति एक वचन करण कारकरूप जुडने के द्वारा ।
१०-“अदेवीः = ये देवसत्ता न स्वीकारं कुर्वन्ति इति अदेवी:। जो देवों की सत्ता न स्वीकार करने वाली इस प्रकार से अदेवी: 
कृष्णेनसह अनुचरा: इत्यर्थः कृष्ण के साथ उनके अनुचरों के अर्थ में अदेवी: शब्द है  । 
११- “आचरन्तीः = ग्रासं खादयन्ति  
१२-“विशः= वैश्य अथवा गोपालका:"अभि 
१३-"ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे  -चारो और से सख्ती की वंश में किया ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह 
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देव सस्कृति
 के अनुयायियों का आगमन पहले पंजाब और सिन्धु नदी के समीपवर्ती क्षेत्रों में हुआ  । 
सिन्धु के सहवर्ती छ: नदीयाँ और थी अत: सप्त सिन्धव नाम ऋग्वेद में है .


पाणिनीय कालीन पुष्य-मित्र सुंग ई०पू० 184 में वैदिक भाषा को परिमार्जित शुद्धीकरण किया गया" व्याकरण के निश्चित नियम बनाए गये ...

अतः वैदिक भाषा से लौकिक संस्कृत का विकास हुआ ।
ईसा पूर्व  अष्टम सदी से पञ्चम सदी तक वैदिक भाषा के दो समानान्तरणरूप विकसित हुए ...

एक (पल्लि)- ग्रामीण अथवा पालों की भाषा पालि और दूसरी नगरी या नागरिक भाषा संस्कृत जो वैदिक भाषा के यथावत रूप को कुछ नियमों के निश्चित क्रम के साथ संस्कारित करके प्रस्तुत करती है ।
तभी से इस परिनिष्ठित भाषा का संस्कृत नाम करण हुआ ..

कृष्ण और समस्त यादवों का भारत में प्रथम पढाब यमुना का एक समीप वर्ती मधुपुरा: (मथुरा)खण्ड था जिसे गायों के चरने के लिए उपयुक्त माना गया परिणाम स्वरूप व्रज मण्डल नामकरण गायों के बाड़े के रूप में रूढ़ हो गया क्यों कि व्रज का अर्थ होता है (गायों का बाड़ा) ।
 
यद्यपि काशी नगरी में भी यादवों की कुछ शाखाओं आगमन हुआ ; परन्तु कृष्ण और देव संस्कृति के नायक इन्द्र का युद्ध यमुना की तल हटी में ही हुआ ऋग्वेद में इसके सन्दर्भ हैं। क्यों की ऋग्वेद का लेखन तो ईसा • पूर्व• सप्तम सदी तक हुआ है  ।

यह संस्कृत केवल मगध तथा उत्तर-भारत की नगरीय भाषा थी ।और वैदिक भाषा के 90℅शब्द यूरोपीय भाषाओं से साम्य रखते हैं ।
तीन हजार शब्द तो हमने ही आज तक शोध किए हैं ।

ऋग्वेद ई०पू० 1500 से ई०पू० 500 तक लिखा जाता रहा है ।
अतः ऋग्वेद में कुछ ऋचाओं का समय प्राचीनत्तम है ।
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में कृष्ण का वर्णन भी है।
छान्दोग्योपनिषद में भी कृष्ण का वर्णन है 
कौषीतकी ब्राह्मण में कृष्ण का वर्णन है ...
पौराणिक काल में भी कृष्ण और इन्द्र का युद्ध सर्व विदित है ही  ...


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कृष्ण के  शास्त्रीय सन्दर्भ 

 छान्दोग्य उपनिषद [छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-3, खण्ड-17, श्लोक 6 पर देवकी पुत्र कृष्ण का वर्णन।
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 छान्दोग्य उपनिषद (3,17,6)

छन्दोग्य उपनिषद वेदों में में वर्णित कृष्ण और अर्जुन ।

आंगिरस ऋषि ने देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण को तत्त्वदर्शन का उपदेश दिया था ।उससे वे सभी तरह की पिपासाओं से मुक्त हो गये थे। साधक को मृत्युकाल में तीन मन्त्रों का स्मरण करना चाहिए-


"त्वे धर्माण आसते जुहूभिः सिञ्चतीरिव कृष्णा रूपाण्यर्जुना वि वो मदे विश्वा अधि श्रियो धिषे विवक्षसे ॥३॥

ऋग्वेद दशम् मण्डल) सूक्त -२३ ऋचा -३


त्वे इति । धर्माणः । आसते । जुहूभिः । सिञ्चतीःऽइव ।कृष्णा । रूपाणि । अर्जुना । वि । वः । मदे । विश्वाः । अधि । श्रियः । धिषे । विवक्षसे ॥३

१-“धर्माणः= यज्ञस्य धारयितार ऋत्विजः २-“जुहूभिः =संपूर्णाहुतिभिर्होमपात्रैः                  ३- “त्वे= त्वामेव                                   ४“आसते =उपासते सेवन्ते । तत्र दृष्टान्तः । ५“सिञ्चतीरिव = वृष्टिलक्षणाः पृथिवीं सिञ्चन्त्य आपोऽग्निं यथा स्वपितृत्वेन सेवन्ते तद्वत् । अग्नेरापः' (तै. आ. ८.१ ) इति श्रुतेस्तस्यापां पितृत्वम् । यद्वा । जुहूभिः सिञ्चतीरिव सिच्यमाना आहुतय इव धर्माणस्त्वया धार्यमाणा रश्मयस्त्वे त्वय्यासते निवसन्ति । हे अग्ने त्वं “कृष्णा कृष्णरूपाणि “अर्जुना अर्जुनरूपाणि   “विश्वाः सर्वाः “श्रियः शोभाः “अधि “धिषे अधिकं यथा भवति तथा धारयसि । किमर्थम् । “वः युष्माकं सर्वेषां देवानां “विमदे विविधसोमपानजन्यमदार्थम् । यत एवमतः “विवक्षसे त्वं महान् भवसि ॥


तथा
अहस्ता यदपदी वर्धत क्षाः शचीभिर्वेद्यानाम् ।
शुष्णं परि प्रदक्षिणिद्विश्वायवे नि शिश्नथः ॥१४॥
ऋग्वेद १०/२३/१४




 महाभारत, उद्योगपर्व, 130-131, द्रोणपर्व 79
 महाभारत, सभापर्व, अध्याय 38
 हरिवंश पुराण, विष्णुपर्व 8-9
 श्रीमद् भागवत 3।3।-,10।28।-,10।44।
 कुछ को विशेष प्रसिद्धि नहीं प्राप्त हुई, वे यहाँ उल्लिखित हैं।

 श्रीमद् भागवत 10।56, 57, 58
 श्रीमद् भागवत 10।82-84)
 श्रीमद् भागवत ।10।86।13
 श्रीमद् भागवत 11।13।15-42/- 11।30/-
 भागवत, 4।20-25
 भागवत, 8/3
 शिव पुराण, 44 ।7। 26

 ऋग्वेद 8।85।1-9
 ऋग्वेद 1।116।7,23
 ऋग्वेद 8।86।1-5

 ऋग्वेद 1।101।1
 छान्दोग्य उपनिषद 3।17।4-6)

 कौशीतकी ब्राह्मण 30।9
 आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट

 1926-27, 1905-6 तथा 1928-29 ई.
 बुद्धिचरित (1-5)

 'गाहासत्तसई' 1।29, 5।47, 2।12, 2।14


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परवर्ती काल में इन्द्रोपासक पुरोहित वर्ग नें कृष्ण का देव सस्कृति
 के अनुरूप चरित्र- चित्रण करने की चेष्टा की और उन्हे सुरा सुन्दरी का आस्वादन करते हुए वर्णन कर दिया।
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"
तस्मिन्स रमते देवः स्त्रीभिः परिवृतस्तदा ।
हारनूपुरकेयूररशनाद्यैर्विभूषणैः।1.73.२०।

भूषितानां वरस्त्रीणां चार्वङ्गीनां विशेषतः।
हिन्दी अनुवाद-
उसमें ( सरोवर में )  स्त्रियों ये घिरा हुआ  वह देव उनके साथ रमण करता है उस समय हार' पैंजनी अथवा घुँघुरू तथा बाजूबन्द' करधनी आदि आभूषणों से विभूषित उन श्रेष्ठ सुन्दर अंगोंं वाली स्त्रीयों के द्वारा विशेष रूप से उन सभी  शुभ सुगन्ध से युक्त जल को सम्यक् रूप से पान किया जाता है।



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विदित हो कि कृष्ण ने अपने जीवन काल में कभी भी मदिरा का पान नहीं किया ।

सुर संस्कृति से प्रभावित  कुछ तत्कालीन यादव सुरा पान अवश्य करते थे । 

कृष्ण का द्वारिका में प्रवास महाभारत के युद्ध के पश्चात ही हुआ था ।

और कृष्ण ने ही अर्जुन को आध्यात्मिक ज्ञानोपदेश के सन्दर्भ में काम ( भोग-विलास) की निन्दा करते हुए उसे ही समस्त पापों का उत्पादक बताया है ।
और कामवासना को पतन का कारण बताने वाला व्यक्ति काम वासना में लिप्त रहकर जीवन यापन करेगा परस्पर विरोधाभासी व्यक्तित्व ही है 
इसी प्रकार का आक्षेपण कुछ लोग ये भी करते हैं।
कि महाभारत के उद्योग पर्व ते उनसठ वें अध्याय में कृष्ण और अर्जुन दोनों मदिरा पान करके उन्मत हो जाते हैं।
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महाराज वे दौनो सुन्दर वस्त्र और मनोहर पुष्पमाला धारण करके दिव्य आभूषणों से विभूषित थे-


उभौ=दोनों । मधु+आसव+ = पुष्प रस का आसव ।
क्षीव= आनन्दित।(  क्षीवौ- द्विवचन= दोनों  सुखद अनुभूति में थे ।
उभौ=दौनों।
रूषितौ=  दोनों सुवासित ।
स्रग्वत्{ स्रक् =माल्यमस्त्यस्य +मतुप् मस्य वः कुत्वम् । माल्यवति
वरवस्त्रौ तो = वह दोनों सुन्दर वस्त्रों से युक्त थे।
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महाभारत उद्योग पर्व ५९वाँ अध्याय 
श्रीकृष्ण के दोनों चरण अर्जुन की गोद में थे ।

और महात्मा अर्जुन का एक पैर द्रौपदी की तथा दूसरा सत्यभामा की गोद में था।
( क्योंकि ये दोनों अर्जुन का एक एक पैर दबा रही थीं ।
और अर्जुन अपने गुरु कृष्ण को पैर दबा रहे थे ।
यह कृमिक कर्तव्य पालन का आचरण था ।

और जब अर्जुन ने सुभद्रा को अपनी पत्नी बना लिया था तो सुभद्रा तो सत्य भामा की ननद ही थी अत: सत्य भामा की अर्जुन के प्रति श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि थी ।
इसी कारण स्वयं सत्य भामा ने अर्जुन का पैर दबाने का उपक्रम किया 
जैसा कि निम्न श्लोक में वर्णन है ।
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अर्जुनौत्संगौ पादौ केशवस्योपलक्षये।        अर्जुनस्य च कृष्णायां सत्यायां च महात्मनः।।
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श्री भगवान् ने कहा- भरी सभा में दुःशासन ने अबला, रजस्वला, एकवस्त्रा द्रौपदी का चीर खींचना आरंभ किया। उसने मुझे पुकारा- 
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( महाभारत-उद्योगपर्व (59/5)


हाँ यादव अथवा गोप संस्कृति में लोक- सांस्कृतिक परम्पराओं के रूप में उत्सवों के अवसर पर हल्लीशम्( मण्डलाकार नृत्य) अवश्य होता था।
 राजा भोज ने (सरस्वती कण्ठाभरण) ग्रन्थ में गोपों के हल्लीशम् नृत्य ता वर्णन किया है  

महाराज भोजराज का समय ईसवी सन् 1010-1055 तक इतिहासकारों द्वारा स्वीकृत किया गया है। अतएव सरस्वतीकंठाभरण का रचनाकाल ईसवी ग्यारहवीं शताब्दी का मध्य माना जा सकता है।
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सरस्वतीकण्ठाभरणम्  –परिच्छेदः (२)
सरस्वतीकण्ठाभरणम्
परिच्छेदः( २ )
               (भोजराजःकृत)

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यदाङ्गिकैकनिर्वर्त्यमुज्झितं वाचिकादिभिः ।
नर्तकैरभिधीयेत प्रेक्षणाक्ष्वेडिकादि तत्।२.१४२।

तल्लास्यं ताण्डवं चैव छलिकं संपया सह ।
हल्लीसकं च रासं च षट्‌प्रकारं प्रचक्षते ।२.१४३।

अनुवाद-
लास्य' ताण्डव' छलिक' सम्पा' हल्लीसक' और रास ये छ: प्रकार नाट्य रूपकों के कहे गये है। 
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अर्थ-
मण्डल ( घेरा) में जो गोपस्त्रीयों का नृत्य होता है वह हल्लीसक  कह लाता है ।
उसमें एक गोप सभी गोप- स्त्रीयों का नेतृत्व करने वाला होता है जैसे भगवान कृष्ण होते हैं ।
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अङ्गवाक्सत्वजाहार्यः सामान्यश्चित्र इत्यमी ।
षट् चित्राभिनयास्तद्वदभिनेयं वचो विदुः ।। २.१५७ ।। (२.१४५)

चतस्त्रो विंशतिश्चैताः शब्दालङ्कारजातयः ।
शब्दसन्दर्भमात्रेण हृदयं हर्तुमीशते ।। २.१५८ ।। (२.१४६)
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इति श्रीराजाधिराज भोजदेवेन विरचिते सरस्वतीकण्ठाभरण नाम्नि अलङ्कारशास्त्रेऽलङ्कार  निरूपणं नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।
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नाट्यशास्त्र में भी वर्णित अठारह उपरूपकों में से एक के सन्दर्भ में हल्लीसक नृत्य या विवेचन है। 
 विशेष—इसमें एक ही अंक होता है और नृत्य की प्रधानता रहती है। 

इसमें एक पुरुष पात्र और सात, आठ या दस स्त्रियाँ पात्री होती हैं। 
यह गोप संस्कृति का प्राचीन नृत्य है जो उत्सव विशेष पर किया जाता था।

मंडल बाँधकर होनेवाला एक प्रकार का नाच जिसमें एक पुरुष के आदेश पर कई स्त्रियाँ नाचती हैं।
इसी को नामान्तरण से लास्य: तो कहीं रास्य या रास भी कहा जाने लगा। परन्तु लास्य और रास को भी साहित्य कारों नें पृथक रूपक का भेद स्वीकार किया है ।
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महिलाओं के नृत्य की प्रधानता होने के कारण ही उसे (लास्य) नाम भी दिया गया ।
लास्य शब्द संस्कृत की 'लस्' धातु में ण्यत्(य) लगने से लास्य शब्द बनता है । लास्य महिलाओं का नृत्य होता था।
यह नृत्य के दो भेदों में स एक वह नृत्य जो भाव और ताल आदि के सहित हो, कोमल अंगों के द्वारा हो और जिसके द्वारा शृंगार आदि कोमल रसों का उद्दीपन होता हो। 
विशेष—साधरणतः स्त्रियों का नृत्य ही लास्य कहलाता है। कहते है, शिव और पर्वती ने पहले पहल मिलकर नृत्य किया था। 
शिव का नृत्य तांडव कहलाया और पार्वती का 'लास्य' कहलाया।
लस्= क्रीडनश्लेषणशिल्पयोगेषु( क्रीडाकरना' श्लेषण-( आलिंगन करना)  तथा शिल्पयोग करना)

यह लास्य दो प्रकार का कहा गया है—छुरित और यौवत।

साहित्यदर्पण में इसके दस अंग बतलाए गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं—१-गेयपद, २-स्थितपाठ, ३-आसीन, ४-पुष्पगंडिका, ५-प्रच्छेदक, ६-त्रिगूढ़, ७-सैंधबाख्य, ८-द्विगूढ़क, ९-उत्तमीत्तमक और १०-युक्तप्रयुक्त। 
"स्त्रीनृत्यं लास्यमुच्यते” स्त्रियों का नृत्य ही लास्य है । 
इसी का अन्य रूप "रास" हो गया 
रास के नाम पर अति श्रृँगारिकता और फिर अतिकामुकता व्यभिचार के रूप में परवर्ती कवियों और पुराण कारों ने राधा और कृष्ण को आधार बना कर समाज के समक्ष परोसी गयी परिणाम यह हुआ कि मञ्च पर भागवत कहने वाला कथा वाचक ही सामने कथा श्रवण करती हुई कन्याओं को कामुकता पूर्ण और श्रृँगारिक उपाख्यानों से आकर्षित करने लगा है और अवसर को अनुरूप उन्हें अपनी वासना का भाजन भी बनाने लगा है । 
_______________"
और महाभारत काल में कृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में जीवन दर्शन की जो आध्यात्मिक विधा का उपदेश किया उसमें काम वासना को ही पाप का कारक बताया ।

अत: जो व्यक्ति भोग-विलास की इस प्रकार निन्दा करता हो और सदाचरण को ही मन: शुद्धि का कारक ममता हो भला वह अपने जीवन नें फिर क्यों 
मदिरापान करते हुए भोग विलास का जीवन व्यतीत करेगा।
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स्त्रियों के साथ उन्मत्त होकर दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।

कृष्ण जो देव संस्कृति के विरोधी और इन्द्र की महत्ता ( महिमा) को नहीं स्वीकार करने वाले थे 
इसी कारण ये इन्द्रोपासक पुरोहितों ने कृष्ण की  तत्कालीन सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने लिए ही रासलीला के नाम पर उन्हें उन्मत्त कामुक पुरुष बनाकर व्यभिचार करते हुए वर्णन किया 
और यह लाँछन ही किसी भी महान व्यक्तित्व को पतित करने का सबसे बड़ा कारक है।

कृष्ण ने अपने जीवन दर्शन को श्रीमद्भगवद्गीता में उकेरा है । 
भले ही पञ्चम सदी ईस्वी में इस गीता में  कुछ वर्ण- व्यवस्था पोषक पुरोहितों के द्वारा कुछ जोड़ा और तोड़ा गया हो परन्तु फिर भी कृष्ण द्वारा उद्घोषित आध्यात्मिक तथ्य यथावत् ही रहे हैं कृष्ण अर्जुन  को काम( भोग-वासना) द्वारा  उत्पन्‍न होने वाले पाप के विषय में अवगत कराते हैं 

                   (अर्जुन उवाच)
 
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
_______
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी बलात्‌ लगाए हुए की भाँति किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है॥36॥

               श्रीभगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
_____
भावार्थ : श्री भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध का कारक है। यह काम बहुत खाने वाला अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है। इसको ही तू इस विषय में वैरी जान यही पाप का कारक है ॥37॥
____
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥38।

भावार्थ : जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥
_______
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
______

भावार्थ : और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूपी ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥
________

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥
_____
भावार्थ : इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। 
यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता (हुआ पाप के प्रति प्रेरित करता) है। ॥40॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥
_____
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू पहले मन की  नियमन द्वारा इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥
____________
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
श्रीमद्भगवद्गीता के षष्ठम् अध्याय के ३४वें श्लोक में मन की चंचलता का वर्णन है ।
अनुवाद
हे कृष्ण! चूँकि मन चंचल (अस्थिर), उच्छृंखल, हठीला तथा अत्यन्त बलवान है, अतः मुझे इसे वश में करना वायु को वश में करने से भी अधिक कठिन लगता है |

तात्पर्य : मन इतना बलवान् तथा दुराग्रही है कि कभी-कभी यह बुद्धि का उल्लंघन कर देता है, यद्यपि उसे बुद्धि के अधीन माना जाता है | इस व्यवहार-जगत् में जहाँ मनुष्य को अनेक विरोधी तत्त्वों से संघर्ष करना होता है उसके लिए मन को वश में कर पाना अत्यन्त कठिन हो जाता है| कृत्रिम रूप में मनुष्य अपने मित्र तथा शत्रु दोनों के प्रति मानसिक संतुलन स्थापित कर सकता है, किन्तु अंतिम रूप में कोई भी संसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता, क्योंकि ऐसा कर पाना वेगवान वायु को वश में करने से भी कठिन है| 
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“प्रत्येक आत्मा इस भौतिक शरीर रूपी रथ पर आरूढ है और बुद्धि इसका सारथी है | मन लगाम है और इन्द्रियाँ घोड़े हैं | 
इस प्रकार मन तथा इन्द्रियों की संगती से यह आत्मा सुख तथा दुख का भोक्ता है |
ऐसा बड़े-बड़े चिन्तकों का कहना है |” 

यद्यपि बुद्धि को मन का नियन्त्रण करना चाहिए, किन्तु मन इतना प्रबल तथा हठी है कि इसे अपनी बुद्धि से भी जीत पाना कठिन हो जाता है जिस प्रकार कि अच्छी से अच्छी दवा द्वारा कभी-कभी रोग वश में नहीं हो पाता | 

ऐसे प्रबल मन को योगाभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है, किन्तु ऐसा अभ्यास कर पाना अर्जुन जैसे संसारी व्यक्ति के लिए कभी भी व्यावहारिक नहीं होता | 
 
तो फिर आधुनिक मनुष्य के सम्बन्ध में क्या कहा जाय ? यहाँ पर प्रयुक्त उपमा अत्यन्त उपयुक्त है – झंझावात को रोक पाना कठिन होता है और उच्छृंखल मन को रोक पाना तो और भी कठिन है  मन को वश में रखने का सरलतम उपाय, जिसे भगवान् चैतन्य ने सुझाया है, यह है कि समस्त दैन्यता के साथ मोक्ष ले लिए “हरे कृष्ण” महामन्त्र का कीर्तन किया जाय | 
विधि यह है –" स वै मनः कृष्ण पदारविन्दयोः– मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन को पूर्णतया कृष्ण के पदकमलों में लगाए | 
तभी मन को विचलित करने के लिए अन्य व्यस्तताएँ शेष नहीं रह जाएँगी 
मन की चंचलता का कारण मन में समाहित वासनाऐं ही हैं ।
और वासनाऐं पाप का कारक हैं अत: भक्ति के द्वारा जब मन का शुद्धि करण होता है तब ही ईश्वरीय ज्ञान का प्रादुर्भाव बुद्धि में होता है ।
और यही बुद्धि फिर मन को वश में करती है ।
_______

 (कठोपनिषद् १.३.३-४) में मन की स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है –
_____

"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च |
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ||
भावार्थ : इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं। इन इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है वह आत्मा है॥42॥


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भावार्थ : इस प्रकार बुद्धि से पर अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥
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पैङ्गलोपनिषद्चतुर्थोऽध्यायः का तृतीय छन्द भी इसी प्रकार का वर्णन करता है ।
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आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव च। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥

अपनी आत्मा को रथी, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथि तथा मन को ही लगाम जानना चाहिए ॥
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे 
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥
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जैसा कि वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में  सुर की परिभाषा व अर्थ बताया गया है । जो सुरा पान करे वह सुर है ।


वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )

(वाल्मीकि रामायण  बालकाण्ड सर्ग 45 के श्लोक 38)
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सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l” 
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"परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर शब्द का वर्ण-विन्यास (असु-र) पूर्व बलाघातीय उच्चारण पर आधारित है । 
जबकि लौकिक संस्कृत में पुराण आदि में असुर शब्द का वर्ण-विन्यास('अ-सुर' )उत्तर बलाघातीय उच्चारण पर आधारित है ।

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बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,में एक ( समुद्र मंथन.) से सम्बन्धित प्रसंं ग में विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं। ....
"असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)

"
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को  ग्रहण करने से देव लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....

उपर्युक्त श्‍लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है.।
 चूंकि देव लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे
इस कारण देवोपासक पुरोहितों  के कथित देव (देवता) सुर कहलाये और सुरा का पान नहीं करने वाले  असुर (जिन्हें इन्द्रोपासक देवपूजकों  द्वारा अदेव कहा गया) असुर कहलाये. ।
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वरुण (प्रचेता) वैदिक  परम्पराओं में वरुण एक प्रमुख देवता हैं। वरुण को ही सभी देवताओं का राजा कहा गया है।
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इन्द्रस्य । वृष्णः । वरुणस्य । राज्ञः । आदित्यानाम् । मरुताम् । शर्धः । उग्रम् ।

महाऽमनसाम् । भुवनऽच्यवानाम् । घोषः । देवानाम् । जयताम् । उत् । अस्थात् ॥९।

सायण-भाष्य-

“वृष्णः वर्षकस्य “इन्द्रस्य “राज्ञः “वरुणस्य “आदित्यानां “मरुतां च "उग्रम् उद्गूर्णं “शर्धः बलमस्माकं भवत्विति शेषः। किंच “महामनसाम् उदारमनसां “भुवनच्यवानां भुवनानां च्यावयितॄणां देवानां “घोषः जयशब्दः “उदस्थात् उत्तिष्ठति । अनूर्ध्वकर्मत्वादात्मनेपदाभावः। ( पा. सू. १. ३. २४ ) ॥
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अन्य वेदों में भी ये ऋचाऐं हैं।

इन्द्रस्य वृष्णो (वरुणस्य राज्ञ )आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम् ।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्॥१०॥

अथर्ववेदः/काण्डं १९/सूक्तम् १३

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इन्द्रस्य । वृष्णः । (वरुणस्य । राज्ञः) । आदित्यानाम् । मरुताम् । शर्धः । उग्रम् ।

महाऽमनसाम् । भुवनऽच्यवानाम् । घोषः । देवानाम् । जयताम् । उत् । अस्थात् ॥९।

(ऋग्वेदः सूक्तं १०/१०३/९)

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इन्द्रस्य वृष्णो (वरुणस्य राज्ञ) आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रं ।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥१८५७ ॥

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मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्तां ।
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥ १८७० ॥


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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड़ के अनुसार महर्षि वरुण कश्यप और उनकी पत्नी आदिति के पुत्र हैं और जल के देवता हैं । 
प्राचीन वैदिक धर्म में उनका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण था पर वेदों में उसका रूप इतना अमूर्त हैं कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है।

माना जाता है कि वरुण की स्थिति अन्य वैदिक देवताओं की अपेक्षा प्राचीन है, इसीलिए वैदिक युग में वरुण किसी प्राकृतिक उपादान का वाचक नहीं हैं। 
अग्नि व इंद्र की अपेक्षा वरुण को संबोधित सूक्तों की मात्रा बहुत कम है फिर भी उनका महत्व कम नहीं है। 
इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है, वह ऋत (सत्य) का पोषक हैं। अधिकतर सूक्तों में वस्र्ण के प्रति उदात्त भक्ति की भावना दिखाई देती है। 

ऋग्वेद के अधिकतर सूक्तों में वरुण से किए गए पापों के लिए क्षमा प्रार्थना की गई हैं। 
वरुण को अन्य देवताओं जैसे इंद्र आदि के साथ भी वर्णित किया गया है।
 
वरुण से संबंधित प्रार्थनाओं में भक्ति भावना की पराकाष्ठा दिखाई देती है।
 उदाहरण के लिए ऋग्वेद के सातवें मंडल में वरुण के लिए सुंदर प्रार्थना  मिलती हैं।

 उनको इतिहासकार मानते हैं कि वरुण ही पारसी पंंथ में "अहुरा मज़्दा" कहलाए। बाद की पौराणिक कथाओं में वरुण को मामूली जल-देव बना दिया गया।

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यद्यपि असुर शब्द के साथ आर्य शब्द का सम्प्रसारित रूप वीर ऋग्वेद में अनेक वार आया है । 
ऋग्वेद मण्डप ७ ते ९९वें सूक्त के ५वीं ऋचा में देखें-

इन्द्राविष्णू इति । दृंहिताः । शम्बरस्य । नव । पुरः । नवतिम् । च । श्नथिष्टम् ।शतम् । वर्चिनः । सहस्रम् । च । साकम् । हथः । अप्रति । असुरस्य । वीरान् ॥५।

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हे “इन्द्राविष्णू “दृंहिताः दृढीकृताः “नव “नवतिं “च नवोत्तरनवतिसंख्याकाः “पुरः पुराणि “शम्बरस्य स्वभूतानि “श्नथिष्टम् अहिंसिष्टम्। 'श्नथ हिंसायाम्। अपि च “शतं “सहस्रं “च “वर्चिनः (“असुरस्य “वीरान् “)अप्रति प्रतिद्वन्द्विनो यथा न भवन्ति तथा “साकं सह संघश एव “हथः अहिंसिष्टम् । 'यो वर्चिनः शतमिन्द्रः सहस्रम् '। (ऋ. सं. २. १४. ६) इति हि निगमान्तरम्

परन्तु वैदिक सन्दर्भ में असुर का प्रारम्भिक अर्थ प्रज्ञा तथा प्राणों से युक्त मानवेतर प्राणियों को कहा गया है ।

इसी कारण सायण आचार्य ने कृष्ण को अपने 
 ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं के भाष्य में अदेवी: पद के आधार पर  (13,14,15,) में  कृष्ण को असुर अथवा अदेव  कहकर कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
परन्तु वेदों की व्याख्या करने वाले देवोपासक पुरोहितों ने द्वेष वश कृष्ण को भी सुरापायी बनाने के लिए द्वि-अर्थक पदों से कृष्ण चरित्र का वर्णन करने की चेष्टा की है ।
परन्तु फिर भी ये लोग पूर्ण त: कृष्ण की आध्यात्मिक छवि खराब करने में सफल नहीं हो पाये हैं ।

राजनिर्घण्टः ॥ शुभम्-(उदकम् । इति निघण्टुः । १ । १२।

सम्पीङ् - सम्यक्पाने आत्मनेपदीय अन्य पुरुष एक वचन रूप सम्पीयते (  सम्यक् रूप से पीता है - पी जाती है ।

भविष्य पुराण के ब्रह्म खण्ड में कृष्ण के इस प्रकार के विलासी चरित्र दर्शाने के लिए काल्पनिक वर्णन किया गया है ।

स्त्रियों के साथ उन्मत्त होकर दिन में रमण ( संभोग) करना और मदिरापान करना कृष्ण सदृश श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद् के वक्ता के द्वारा असम्भव ही है ।
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कृष्ण ने कभी भी देवसंस्कृति की मूढ़ मान्यताओं का अनुमोदन नहीं किया जैसे निर्दोष पशुओं की यज्ञ में बलि के रूप में हिंसा करना ।
और करोड़ो देवों की पूजा सबका विरोध किया।
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"
अर्थ-
उस कृष्ण को नमस्कार है  जो बहु प्रकार से व्यापक है  । और जिसने देवो के लिए विहित  दूषित हिंसा बाहुल्य यज्ञो को समाप्त कर दिया  उस पशुहिंसा की निवृत्ति करने वाले कृष्ण को नमस्कार है।
देवीभागवत पुराण में उद्धृत इस श्लोक को बहुत से लोग बुद्ध के विषय में जोड़ते हैं परन्तु  सिद्धान्त के अनुसार  यह तैरहवाँ श्लोक कृष्ण के अहिंसा वादी सिद्धान्त को भी प्रकाशित करना 
स्वयं श्रीमद्भागवत में भी कृष्ण ने हिंसा परक यज्ञ का निषेध किया है 
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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादप्तसाहस्र्यां संहितायां दशमस्कन्धे श्रीविष्णुना देवेभ्यो वरप्रदानं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
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श्रीभगवद्गीता अध्याय(15) श्लोक (15)

"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो
मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15/15।।
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शब्दार्थ-
सर्वस्य= सबके- सर्व सर्वनाम पद का षष्ठी विभक्ति एकवचन का सम्बन्ध वाचक रूप।
 च=और । अहम्=मैं। ह्रदि= हृदय में -सप्तमी एक वचन अधिकरण कारक। 
सन्निविष्ट:=
सम + नि + विश--आधारे घञ् । सन्निवेश+ क्त=  सन्निविष्ट= सम्यक्स्थित पूर्ण रूप से स्थित । मत्त:= मुझसे -पञ्चमी एकवचन अपादान कारक।स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं= स्मृति ज्ञान ।
अपोहनं=अप-+ऊह+ ल्युट्। अपरकृततर्कनिर सनेन तर्कणीय अर्थात् ,एक तर्क के खण्डन के लिये प्रस्तुत किया गया अन्य दूसरा तर्क । वेदै:= वेदों के द्वारा- वेद का तृतीया विभक्ति करण कारक बहुवचन रूप ।सर्वै:= सबके द्वारा ।
अहम् एव = मैं ही ।वेद्य:= जानने योग्य ।
वेदान्त कृत =वेदान्त( वेद का अन्तिम आध्यात्मिक भाग)का करने वाला( कृत) च=और।वेदविद एव= वेद को जानने वाला भी।
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हिन्दी अनुवाद -मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में पूर्ण रूप से स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति? ज्ञान और अपोहन.(एक तर्क के खण्डन के लिये प्रस्तुत किया गया अन्य दूसरा तर्क ) जिससे संशय आदि दोषोंका नाश होता है। सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा मैं ही जाननेयोग्य हूँ। और वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला और वेदोंको जाननेवाला भी मैं ही हूँ।
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हिंदी टीका - स्वामी रामसुख दास जी
व्याख्या करते हुए कहते हैं । 
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः -पीछेके श्लोकोंमें अपनी विभूतियोंका वर्णन करनेके बाद अब भगवान् यह रहस्य प्रकट करते हैं कि मैं स्वयं सब प्राणियोंके हृदयमें विद्यमान हूँ। 

यद्यपि शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि सभी स्थानोंमें भगवान् विद्यमान हैं? तथापि हृदयमें वे विशेषरूप से विद्यमान हैं।
 हृदय शरीरका प्रधान अङ्ग है। 

यद्यपि हृदय से प्रस्फुटित आत्मा का प्रभाव अथवा प्रकाश मस्तिष्क के ब्रह्म रन्ध्र पर नि:सात होता है । इसीलिए थियोलॉजी में पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन( Sheat of Soul) कहा गया है ।

परन्तु  हृदय और मस्तिष्क दौनों ही जीवन के सम्पूरक अवयव व जीवन केन्द्र हैं ।
मस्तिष्क विचारों का शुष्क केन्द्र है तो हृदय भावों का सरस सरोवर परन्तु कोई किसी से स्वतन्त्र कभी नहीं है । 

दया' करुणा' घृणा और प्रेम मस्तिष्क के विचारों से प्रेरित हृदय के ही भाव हैं।
सब प्रकार के भाव हृदयमें ही होते हैं। और समस्त कर्मोंमें भाव ही प्रधान होता है। भावकी शुद्धि से समस्त पदार्थ ?
क्रिया आदि की शुद्धि हो जाती है। अतः महत्त्व भावका ही है? 

वस्तु? व्यक्ति? कर्म आदिका नहीं। वह भाव हृदयमें होनेसे हृदय की बहुत महत्ता है। हृदय सत्त्वगुणका कार्य है?
 इसलिये भी भगवान् हृदयमें विशेषरूपसे रहते हैं।

कर्म या मूल भाव और भाव से विचार अथवा विचार से भाव ही अन्त में कर्म रूप में परिणति होते हैं ।
 सारा संसार कर्म या परिणाम ही है । देवता भी भाव स्वरूप ही हैं ।

परन्तु इन भावों का केन्द्र हृदय और परमात्मा हृदय में ही केन्द्रित है ।
 इसी लिए हृदय शुद्धि और निर्मल बुद्धि ( मन) ही सत्य ये साक्षात्कार अथवा ईश्वर दर्शन का माध्यम है।
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जैसा कि श्रीमद्भगवद्गीता के नवम अध्याय में कृष्ण ने अर्जुन से कहा -

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्
||9/23||

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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय नवम का २३ वाँ श्लोक

अर्थ: – हे अर्जुन! जो भक्त दूसरे देवताओं को श्रद्धापूर्वक पूजते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, लेकिन उनकी यह पूजा विना विधि पूर्वक ही होती है।

कृष्ण का तो एक ही उद्घोष( एलान) था कि सभी देवताओं से सम्बन्धित सम्प्रदाय ( धर्मों) को छोड़कर मेरी शरण आ जा मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

 श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय अठारह का  मूल श्लोकः देखें निम्न रूपों में
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।। 

सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।

ऋग्वेद की ऋचाओं का  यद्यपि अनेक मनीषीयों ने भाष्य किया परन्तु सभी ने अपने अपने पूर्वदुराग्रहों से प्रेरित होकर ही यह सब किया । 
और दयानन्द सरस्वती ने तो केवल नवीन कल्पित योगज( धातुज) अर्थ को आत्मसात् करते हुए सायण के ही भाष्य का अनुगमन किया है ।
सायण ने भी अनेक शब्दों का अर्थ देव संस्कृति का मण्डन करते हुए अनेक रूपों में दिखाया है ।
जैसे ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के 96 वें सूक्त की 13 वीं ऋचा में इन्द्र के शचि पद का अर्थ तृतीयाविभक्ति में शच्या कर्मणा प्रज्ञानेन वा)=कर्म अथवा प्रज्ञा के द्वारा किया है ।

शच्या का अर्थ (शच्या –कर्मणा प्रज्ञानेन वा)=कर्म अथवा प्रज्ञा के द्वारा ।
यह सर्वविदित है कि शची इन्द्र की पत्नी थी तो फिर फिर ये अर्थ क्यों नहीं किया कि इन्द्र अपनी पत्नी के साथ थे ।
इसी प्रकार उपस्थ का अर्थ कहीं पास (समीप) तो कहीं उत्संग( गोद) कर दिया है ।
प्रकरण के अनुसार अर्थ परिवर्तन तो किया जा सकता है परन्तु जब प्रकरण या प्रसंग अर्थ के अनुरूप हो तो अर्थ की अनावश्यक खींचतान सिद्धान्त के सर्वथा विरुद्ध ही है ।

और सायण स्वयं अपने द्वारा किए गये भाष्य के प्रति आश्वस्त नहीं दिखते हैं क्योंकि वे वा अभाव किंवा पदों द्वारा दो सम्भावित विकल्प सूचित करते हैं।

कभी भी उन्होंने ने एक निश्चित अर्थ नहीं किया है और सर्वविदित ही है कि विकल्प कभी भी सत्य का प्रतिमान नहीं है ‌।
प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना।                                    अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥१॥

अर्थ-
अच्छी प्रकार से  इन्द्र और उसके सखा राजा   ऋजिश्वन् की  स्तुति करने वाले के लिए यह निर्देश है कि वे उनकी अन्न से पूरित हवि आदि से अर्चना करते हुए  ऐसे वचनों से कहें कि वे इन्द्र मरुतगण जिनके सखा है और जिन इन्द्र ने दाहिने हाथ में वज्र धारण करते हुए कृष्ण के द्वारा गर्भिताओं का वध कर दिया था ;रक्षा के इच्छुक हम सब उन शक्ति शाली इन्द्र का ही आह्वान करते हैं । 

विशेष-
असुर शब्द का प्रयोग तो कृष्ण के लिए सायण ने अपने भाष्य में ही किया है । अन्यथा मूल ऋचा में असुर पद नहीं है ।

पदपाठ-
प्र । मन्दिने । पितुऽमत् । अर्चत । वचः । यः । कृष्णऽगर्भाः । निःऽअहन् । ऋजिश्वना । अवस्यवः । वृषणम् । वज्रऽदक्षिणम् । मरुत्वन्तम् । सख्याय । हवामहे ॥१।

शब्दार्थ-
१-पितु = अन्न। पा--रक्षणे तुन् पृषो० । अन्ने निघण्टुः । पातेवां पिबतेः पायतेर्वा” निरु० ९ । २४
पितुमन्त्=. अन्न से भरपूर, पौष्टिक।   
२-अर्चता=अर्चना करता हुओं के द्वारा।             ३-वच:=वचन से।
४-ऋजिश्वन्=  राजभेदे “अपमृष्यमृजिश्वने दात्रं दाशुषे” ऋ० ६, २०, ७ । ऋजिश्वने एतन्नामकाय राज्ञे”= इस नाम ते राजा के लिए ।

५-अवस्यु का बहुवचन रूप अवस्यवः = अवोरक्षणम् इच्छति--क्यच्--उन् । रक्षणेच्छा युक्त। 
अवसं=अव + असिच् भावे।) रक्षणं । वैदिक शब्दोऽयं ( यह वैदिक शब्द है)

{सायण-भास्य}
हे ऋत्विजः "मन्दिने= स्तुतिमते =स्तुति करने वाले के लिए।स्तोतव्यायेन्द्राय “पितुमत् = अन्न से परिपूर्ण। हविर्लक्षणेनान्नेनोपेतं हवि लक्षण अन्न से युक्त के द्वारा । "वचः= स्तुतिलक्षणं वचनं “प्र “अर्चत= प्रकर्षेणोच्चारयत ( अच्छी तरह से उच्चारण करता हुआ । "यः इन्द्रः “ऋजिश्वना एतत्संज्ञकेन राज्ञा सख्या =इस नाम का राजा जो सखा रूप में था उसके द्वारा सभी पदों में तृत्तीया विभक्ति एक वचन का प्रयोग है ।
 सहितः सन् "कृष्णगर्भाः ।{ कृष्णो नाम कश्चिदसुरः} । (तेन निषिक्तगर्भास्तदीयाः =भार्याः) कृष्ण नाम के किसी असुर के द्वारा निषिक्त( सिञ्चित गर्भ हैं।

 जिनके वे अर्थात् कृष्ण की भार्यायें बहुव्रीहि समास "निरहन्= अवधीत् (वध कर दिया ) । कृष्णमसुरं हत्वा पुत्राणाम् अपि अनुत्पत्त्यर्थं कृष्ण असुर और उनके पुत्रों को भी मारकर  । गर्भिणीस्तस्य भार्याः अप्यवधीदित्यर्थः } गर्भिणी जिसकी भार्याऐं थी इस अर्थ में। "अवस्यवः= रक्षणेच्छवो वयं “वृषणं =कामानां वर्षितारं ( कामनाओं की वर्षा करने वाले को "वज्रदक्षिणं वज्रयुक्तेन दक्षिणहस्तेनोपेतं तं "मरुत्वन्तम् इन्द्रं "सख्याय सख्युः कर्मणे "हवामहे= आह्वयामहे हम सब आह्वान करते हैं  ॥ मन्दिने =मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' । औणादिकः इनिप्रत्ययः । तदुक्तं यास्केन-’ मन्दी मन्दतेः स्तुतिकर्मणः ' (निरु. ४. २४ ) इति । पितुमत् । ‘ ह्रस्वनुड्भ्यां मतुप् ' इति मतुप उदात्तत्वम् । {कृष्णगर्भाः =कृष्णेन निषिक्ताः गर्भाः यासु यद् सप्तमीबहुवचने ( कृष्ण के द्वारा गर्भ सिञ्चित किया गया जिन स्त्रियों में )। तास्तथोक्ताः} तत् सर्वनाम पद का  प्रथमा बहुवचन ता:(वे सब स्त्रीयाँ)। ‘ परादिश्छन्दसि बहुलम् ' इति पूर्वपदान्तोदात्तत्वम् । अवस्यवः । अवेरौणादिको भावेऽसुन्। अवः इच्छति=} अवस्यति । सुप आत्मनः क्यच् ' । ‘क्याच्छन्दसि ' इति उप्रत्ययः । वृषणम् । वा षपूर्वस्य निगमे ' इति विकल्पनादुपधादीर्घाभावः । सख्याय । सख्युः कर्म सख्यम् ।' सख्युर्यः' इति यप्रत्ययः । हवामहे । ह्वेञो लटि ‘ बहुलं छन्दसि ' इति संप्रसारणम् ॥
ऋग्वेद मण्डल / सूक्त/ ऋचा 
ऋग्वेदः सूक्तं १/१०१/१
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ऋग्वेद के अष्टम मण्डल के सूक्त 96 की ऋचा संख्या १३-१४- और १५ का अर्थ 
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पदान्वय-अव । द्रप्सः । अंशुऽमतीम् । अतिष्ठत् । इयानः । कृष्णः । दशऽभिः । सहस्रैः ।आवत् । तम् । इन्द्रः । शच्या । धमन्तम् । अप । स्नेहितीः । नृऽमनाः । अधत्त ॥१३।

शब्दार्थ व व्याकरणिक विश्लेषण-                १-अव= तुम रक्षा करो -लोट्लकर  मध्यम पुरुष एकवचन।
 २-द्रप्स:= जल से द्रप्स् का पञ्चमी एकवचन यहाँ करण कारक के रूप में  ।
३- अंशुमतीम् = यमुनाम्  –यमुना को अथवा यमुना के पास द्वितीया यहाँ करण कारक के रूप में ।
 ४-अवतिष्ठत् =  अव उपसर्ग पूर्वक (स्था धातु का तिष्ठ आदेश  लङ्लकार रूप)  स्थित हुए।
५- इन्द्र: शच्या -स्वपत्न्या= इन्द्र: पद में प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ता करक  तथा शच्या में शचि के तृत्तीया विभक्ति करणकारक का रूप शचि इन्द्र: की पत्नी का नाम है।।
 ६-धमन्तं= अग्निसंयोगम् कुर्वन्तं  कोलाहलकुर्वन्तंवा। चमकते हुए को अथवा हल्ला करते हुए को।  (ध्मा धातु का धन आदेश तथा +शतृ(अत्) प्रत्यय कर्मणि द्वित्तीया का रूप  एक वचन धमन्तं कृष्ण का विशेषण है  ।
७-अप स्नेहिती: = जल में भीगते हुए का।
८-नृमणां( धनानां) 
९-अधत्त= उपहार या धन दिया ।(डुधाञ् (धा)=दानधारणयोर्लङ्लकारे आत्मनेपदीय अन्यपुरुषएकवचने) 
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विशेषटिप्पणी-
१०-अव्=१- रक्षण २-गति ३-कान्ति ४-प्रीति ५-तृप्ति ६-अवगम ७-प्रवेश ८-श्रवण ९- स्वाम्यर्थ १०-याचन ११-क्रिया। १२ -इच्छा १३- दीप्ति १४-अवाप्ति १५-आलिङ्गन १६-हिंसा १७-दान  १८-वृद्धिषु।                
११-अव् – एक परस्मैपदीय धातु है और धातुपाठ में इसके अनेक अर्थ हैं । प्रकरण के अनुरूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए ।
प्रथम पुरुष एक वचन का लङ् लकार( अनद्यतन भूूूतकाल का रूप।
आवत् =प्राप्त किया । 
हिन्दी अर्थ- हे कृष्ण आप यमुना के तट पर स्थित इस जल के रक्षा करने वाले हैं आप इसकी रक्षा करो ! कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं। इन्द्र ने अपनी पत्नी शचि के साथ अग्नि से संयोजित होते हुए अर्थात् दैदीप्यमान उस कृष्ण को प्राप्त किया अथवा उनके पास गमन किया  और जल में भीगे हुए कृष्ण को भेंट स्वरूप  धन दिया।


हिन्दी अनुवाद- कृष्ण दश हजार गोपों से घिरे हुए हैं अंशुमती अथवा यमुना के तट पर स्थित कृष्ण नाम से प्रसिद्ध उस गोप को इन्द्र ने यमुना नदी के जल में स्थित देखा।
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मूल ऋचा-
द्रप्समपश्यं विषुणे चरन्तमुपह्वरे नद्यो अंशुमत्याः ।
नभो न कृष्णमवतस्थिवांसमिष्यामि वो वृषणो युध्यताजौ ॥१४॥

पदान्वय-द्र॒प्सम् । अ॒प॒श्य॒म् । विषु॑णे । चर॑न्तम् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । न॒द्यः॑ । अं॒शु॒ऽमत्याः॑ ।
नभः॑ । न । कृ॒ष्णम् । अ॒व॒त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । इष्या॑मि । वः॒ । वृ॒ष॒णः॒ । युध्य॑त । आ॒जौ ॥१४।।
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भाष्य-
इन्द्र : कथयति अहमपश्म् बहुरूपेषु यमुनाया: जलानि तत्रेवच अँशुमत्या: नद्या:  निर्जनेदेशे चरन्तम् बृषणं षण्ढं वा चैव अपश्त। चायम् इन्द्र अब्रवीत् एतम् वृषणं संग्रामे युध्यत् अहमिष्यामि तस्मिन् स्थले जलं नासेत्।
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हिन्दी अर्थ-
इन्द्र कहता है कि विभिन्न रूपों में मैंने यमुना के जल को देखा और वहीं अंशुमती नदी के निर्जन प्रदेश में चरते हुए बैल अथवा साँड़ को भी देखा  और इस साँड को युद्ध में लड़ते हुए मैं चाहूँगा ।अर्थात यह साँड अडिग खडे़ अपने स्थान पर   कृष्ण को संग्राम में युद्ध करे ऐसा होते हुए मैं चाहूँगा। जहाँ जल( नभ) बादल भी न हो 
(अर्थात कृष्ण की शक्ति मापन के लिए इन्द्र यह इच्छा करता है )
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शब्दार्थ व्याकरणिक विश्लेषण-
१-द्र॒प्सम्= जल को कर्मकारक द्वित्तीया।अपश्यम्=अदर्शम्  दृश् धातु का लङ्लकार  (सामान्य भूतकाल ) क्रिया पदरूप  - मैंने देखा ।__________________
२- वि + सवन(‌सुन) रूप विषुण -(विभिन्न रूप)।   षु (सु)= प्रसवऐश्वर्ययोः - परस्समैपदीय सवति सोता [ कर्मणि- ]                                    सुषुवे सुतः सवनः सवः अदादौ (234) सौति स्वादौ षुञ् अभिषवे (51) सुनोति (911) सूनुः, पुं, (सूयते इति । सू + “सुवः कित् ।” उणादिसूत्र्र ३।३५। इति (न:) स:च कित् )

पुत्त्रः । (यथा, रघुः । १ । ९५ ।
“सूनुः =सुनृतवाक् स्रष्टुः विससर्ज्जोदितश्रियम् ) अनुजः । सूर्य्यः । इति मेदिनी ॥ अर्कवृक्षः । इत्यमरः कोश ॥
षत्व विधान सन्धि :- "विसइक्कु हयण्सि षत्व" :- इक् स्वरमयी प्रत्याहार के बाद
 'कु(कखगघड•)'ह तथा यण्प्रत्याहार ( य'व'र'ल) के वर्ण हो और फिर उनके बाद 'स'आए तो वहाँ पर 'स'का'ष'हो जाता है:- यदि 'अ' 'आ' से भिन्न  कोई  स्वर जैैैसे इ उ आदि हो अथवा 'कवर्ग' ह् य् व् र् ल्'  के बाद तवर्गीय 'स' उष्म वर्ण आए तो 'स' का टवर्गीय मूर्धन्य 'ष' ऊष्म वर्ण हो जाता है ।
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शर्त यह कि यह "स" आदेश या प्रत्यय का ही होना चाहिए जैसे :- दिक् +सु = दिक्षु । चतुर् + सु = चतुर्षु।हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु । मातृ + सु = मातृषु ।परन्तु अ आ स्वरों के बाद स आने के कारण  ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 

परन्तु अ' आ 'स्वरों के बाद स आने के कारण ही गंगासु ,लतासु ,और अस्मासु आदि में परिवर्तन नहीं आता है 'हरि+ सु = हरिषु ।भानु+ सु = भानुषु । बालके + सु = बालकेषु ।मातृ + सु = मातृषु । वि+सम=विषम । वि+सुन =विषुण अथवा विष्+ उणप्रत्यय=विषुण।
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विषुण-विभिन्न रूपी।
३-वृ॒ष॒णश्चर॑न्तम्=  चरते हुए साँड  को।
४-आजौ =  संग्रामे  युद्ध में।
५-अ॒व॒ = उपसर्ग
६- त॒स्थि॒ऽवांस॑म्= तस्थिवस् शब्द का द्वितीया विभक्ति एकवचन का रूप तस्थिवांसम् है । तस्थिवस्=  स्था--क्वसु  स्थितवति (स्थिर) अडिग अथवा जो एक ही स्थान पर खड़ा होते हुए में।
७-व:= युष्मान् - तुम सबको ।  युष्मभ्यम् ।  युष्माकम् । यष्मच्छब्दस्य द्बितीया चतुर्थी षष्ठी बहुवचनान्तरूपोऽयम् इति व्याकरणम् ॥
८-उपह्वरे= निर्जन देशे।
९-वृ॒ष॒णः॒ = साँड ने 'बैल ने  ।
१०-युध्य॑त= युद्ध करते हुए।
११-आजौ= युद्ध में ।
१२-इष्या॑मि= मैं इच्छा करुँगा।
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मूल ऋचा
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना  युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥

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पदपाठ-विच्छेदन 
। द्रप्स: । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः । विशः । अदेवीः । अभि । आऽचरन्तीः । बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५
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भाष्य-

कृष्णेन ।अधारयद्। यमुनया: ।जलस्य। अधौ । दैदीप्यमानम् ।स्वतन्वम् । यमुनया: ।उत्संगे तदा। इन्द्र:। गोपाञ्च ।अपश्यत् । लोभीभूत्वा गोपै: सह। गाव: ।आचरन्ती। तस्मिन् काले ।देवान् न पूजयितान् गोपान् बृहस्पतिना सह इन्द्र: ससाह।

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अर्थ-
कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया अर्थात् जल में स्थित हो गये ( यमुना के जल नें स्थित हो गये ) तब इन्द्र ने  गोपों - विशों(गोपालन आदि करने वाले 
वैश्यवृत्ति सम्पन्न) को  देखा जो वहाँ गाय चलाते हैं तब इन्द्र ने देवों की पूजा न करने वाले अदेवी: उन गोपों को बृहस्पति के साथ मिलकर चारो ओर से अपनी शक्ति में करना चाहा अथवा शक्ति में किया।

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१-“अध अथ अधो वा 
२-“द्रप्सः द्रव्य पूर्ण जल: 
३-“अंशुमत्याः यमुनाया: नद्याः“
४-(उपस्थे=उत्संगे क्रोडेवा “
५-(त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे तित्विषाणः= दीप्यमानः)
६-( सन् =भवन् ) 
७-“(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “
८-(अधारयत्  = लौकिक रूप. अधरत –आत्मनेपदीय लङ्लकार अन्यपुरुष एकवचन रूप धारण किया)। 
तत्र “इन्द्रो  गत्वा =वहाँ इन्द्र ने जाकर।
“बृहस्पतिना एतन्नामकेन बृहद् देवेन=बृहस्पति इस नाम के बृहद् देव के साथ।
९- “युजा =सहायेन तृतीया विभक्ति एक वचन करण कारकरूप जुडने के द्वारा ।
१०-“अदेवीः = ये देवसत्ता न स्वीकारं कुर्वन्ति इति अदेवी:। जो देवों की सत्ता न स्वीकार करने वाली इस प्रकार से अदेवी: 
कृष्णेनसह अनुचरा: इत्यर्थः कृष्ण के साथ उनके अनुचरों के अर्थ में अदेवी: शब्द है  । 
११- “आचरन्तीः = ग्रासं खादयन्ति  
१२-“विशः= वैश्य अथवा गोपालका:"अभि 
१३-"ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे  -चारो और से सख्ती की वंश में किया ।
 सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह 
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ऋग्वेद २/१४/७ में भी सायण ने उपस्थ का अर्थ उत्संग( गोद) ही किया है ।जैसे कि निम्न ऋचा को देखें-
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान् ।
कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै ॥७॥ देखें 
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ऋग्वेद में अन्यत्र अष्टम मण्डल ३२ वें सूक्त की १२-१३-और १४वीं ऋचाओं में भी शचि ( शची) पद इन्द्र तथा शक्र पद के साथ सम्पूरक रूप में आया है । इन्द्र और शचि से सम्बन्धित निम्न ऋचाऐं देखें

अथर्ववेदः काण्डं (१३) सूक्तम् (०८)
सूक्तं १३.८(१३.४)
ब्रह्मा सूक्तं १३.०९ →
दे. अध्यात्मम् । (षट्पर्यायेषु पञ्चमं पर्यायसूक्तम्)- -
13.८(१३.४)

भूयान् इन्द्रो नमुराद्भूयान् इन्द्रासि मृत्युभ्यः ॥४६॥
भूयान् अरात्याः शच्याः पतिस्त्वमिन्द्रासि विभूः प्रभूरिति त्वोपास्महे वयम् ॥४७॥
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स नः शक्रश्चिदा शकद्दानवाँ अन्तराभरः ।
इन्द्रो विश्वाभिरूतिभिः ॥१२॥
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यो रायोऽवनिर्महान्सुपारः सुन्वतः सखा ।
तमिन्द्रमभि (तम् +इन्द्रम्+अभि) गायत ॥१३॥

आयन्तारं महि स्थिरं पृतनासु श्रवोजितम् ।
भूरेरीशानमोजसा ॥१४॥
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नकिरस्य शचीनां नियन्ता सूनृतानाम् ।
नकिर्वक्ता न दादिति ॥१५॥
पदपाठ-

नकिः । अस्य । शचीनाम् । निऽयन्ता । सूनृतानाम् ।नकिः । वक्ता । न । दात् । इति ॥१५।

“अस्य इन्द्रस्य “शचीनां शचि एनाम् वैदिक रूप इनाम् शचि+इनाम् दीर्घ स्वर सन्धि। । ‘ “नकिः= न कश्चित् “नियन्ता =नियामकः । अयमिन्द्रः “न “दादिति= न प्रयच्छतीति  “नकिर्वक्ता न कश्चिद्वदति ।

न किम् च चादिपाठात् अव्ययत्वं नशब्देन समासः वर्जनार्थे मनोरमा । एवं पृषो० नकिम् न किर् नकीम् एतेऽपि वर्जने मनोरमा
शच्= व्यक्तायां_वाचि
 ( शचते शेचे शचितेत्यादि शची(वाणी)
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कृष्ण और इन्द्र पौराणिक प्रतिद्वंद्वी पात्र भी  हैं क्योंकि पुराण भी वेदों की ही लौकिक व्याख्या है ।बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग
समुद्र मंथन.)
विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को  ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....

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भागवत पुराण दशम स्कन्ध के २४वें अध्याय में कृष्ण और इन्द्र का युद्ध गोवर्धन पर्वत के प्रकरण के अन्तर्गत है ।
जिसमें कृष्ण नन्द आदि गोप समुदाय से इन्द्र न करने को कहते हैं ।
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                  इन्द्रमखभङ्ग -
                 श्रीशुक उवाच -
                   ( अनुष्टुप् )
भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः।
 अपश्यत् निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ।१।
 तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।
 प्रश्रयावनतोऽपृच्छत् वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥२॥

 कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः ।
 किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः॥३॥

 एतद्‍ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः ।
 न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥४॥

 अस्त्यस्व-परदृष्टीनां अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।
 उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥५॥

 ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।
 विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषो भवेत्॥६॥

 तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः ।
 अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम्।७।

                   श्रीनन्द उवाच -
पर्जन्यो भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।
 तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥८॥

 तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।
 द्रव्यैस्तद् रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥९॥

 तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।
 पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥१०॥

 य एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः ।
 कामाल्लोभात् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥११॥

                    श्रीशुक उवाच -
वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।
 इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥१२॥
                    श्रीभगवानुवाच -
कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते ।
 सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३

 अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् 
 कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः।१४॥
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 किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।
 अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ।१५॥

 स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।
 स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ १६ ॥

 देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा ।
 शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥ १७ ॥

 तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।
 अन्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥१८॥

 आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।
 न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा॥१९॥

 वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।
 वैश्यस्तु वार्तया जीवेत् शूद्रस्तु द्विजसेवया ॥२०॥
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 कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।
 वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥ २१॥
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 सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
 रजसोत्पद्यते विश्वं अन्योन्यं विविधं जगत् ।२२॥

 रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।
 प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति।२३॥

 न नः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम् ।
 नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः ॥
 तस्माद्‍गवां ब्राह्मणानां अद्रेश्चारभ्यतां मखः ।
 य इंद्रयागसंभाराः तैरयं साध्यतां मखः ॥ २५ ॥

 पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।
 संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥ २६ ॥

 हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः।
 अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः ॥ २७॥

 अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डाल पतितेभ्यो यथार्हतः।
 यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः ॥२८॥

 स्वलङ्‌कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः ।
 प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान् ॥ २९ ॥

 एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।
 अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः॥३०॥

                    श्रीशुक उवाच -
कालात्मना भगवता शक्रदर्पं जिघांसता ।
 प्रोक्तं निशम्य नन्दाद्याः साध्वगृह्णन्त तद्वचः॥३१॥

 तथा च व्यदधुः सर्वं यथाऽऽह मधुसूदनः।
 वाचयित्वा स्वस्त्ययनं तद् द्रव्येण गिरिद्विजान्॥३२॥

 उपहृत्य बलीन् सम्यग् सर्वान् आदृता यवसं गवाम् ।
 गोधनानि पुरस्कृत्य गिरिं चक्रुः प्रदक्षिणम्॥३३॥

 अनांस्यनडुद्युक्तानि ते चारुह्य स्वलङ्‌कृताः ।
 गोप्यश्च कृष्णवीर्याणि गायन्त्यः सद्विजाशिषः।३४॥

 कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गतः ।
 शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपुः ॥३५॥

 तस्मै नमो व्रजजनैः सह चक्रेऽऽत्मनाऽऽत्मने ।
 अहो पश्यत शैलोऽसौ रूपी नोऽनुग्रहं व्यधात्॥ ३६ ॥

 एषोऽवजानतो मर्त्यान् कामरूपी वनौकसः ।
 हन्ति ह्यस्मै नमस्यामः शर्मणे आत्मनो गवाम्।३७।

 इत्यद्रिगोद्विजमखं वासुदेवप्रचोदिताः ।
 यथा विधाय ते गोपा सहकृष्णा व्रजं ययुः ॥३८ ॥
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इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
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श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे।

 उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं।
 भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। 
फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने पूछा - ‘पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है ?

इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं ?
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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
 
श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित ! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा कृष्ण ने  बंद करा दी  है, तब वह इन्द्र नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए।

परन्तु उनके क्रोध करने से होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं श्रीकृष्ण थे। इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था,।
 वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ।

उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करने वाले मेघों के सांवर्तक नामक गण को व्रज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और कहा - 
‘ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड है ! सचमुच यह धन का ही नशा है। 
भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला।

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद

वे मन-ही-मन कहने लगे - ‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा। देवता लोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ।

 इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है।

इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।

इसके बाद भगवान ने गोपों ने कहा - ‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ। देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है।' जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया - ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्धन के गड्ढ़े में आ घुसे।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए। श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया।

जब गोवर्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा - ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।' भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये। सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया।


आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः ।
महत्तद्वृष्णो असुरस्य नामा विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ ॥४॥

पद-पाठ-

आऽतिष्ठन्तम् । परि । विश्वे । अभूषन् । श्रियः । वसानः । चरति । स्वऽरोचिः ।

महत् । तत् । वृष्णः । असुरस्य । नाम । आ । विश्वऽरूपः । अमृतानि । तस्थौ ॥४।

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सायण-भाष्य-

“विश्वे =सर्वे कवयो रथम् “आतिष्ठन्तम् इन्द्रं “परि “अभूषन् । परितोऽलमकुर्वन् । “स्वरोचिः । स्वमेव रोचिर्यस्यासौ स्वरोचिः । स्वप्रभयैव दीप्यमान इत्यर्थः । अत एव “श्रियः= दीप्तीः "वसानः= आच्छादयन् सोऽयमिन्द्रः “चरति सर्वत्र वर्तते । “वृष्णः= कामानां वर्षितुः "(असुरस्य =। अस्यति प्रेरयति सर्वानन्तर्यामितयेत्यसुरः )

 तस्येन्द्रस्य “तत् तादृशमनुभूतपूर्वं “नाम । नमयति सर्वान् अनेन शत्रूनिति नाम कर्म । यद्वा नम्यते सर्वैर्नमस्क्रियते इति नाम इन्द्रस्य शरीरं कर्म वा। “महत् आश्चर्योपेतं वर्तते । तथा “विश्वरूपः नानाविधरूपतां भजमानः स इन्द्रो वरुणात्मना “अमृतानि =जलानि “आ “तस्थौ =अधितिष्ठति ॥ विश्वे । जसः शी। अभूषन् । ‘ भूष =अलंकारे' ' इत्यस्य लङि रूपम् । वसानः । वस आच्छादने ' इत्यस्य शानचि रूपम्। तस्य लसार्वधातुकस्वरे थातुस्वरः। नाम। ‘ णमु प्रह्वत्वे 'इत्यस्मात् 'नामन्सीमन” ' इत्यादिना मनिन्प्रत्ययान्तत्वेन निपातनादाद्युदात्तः । विश्वरूप इति तस्य संज्ञा । ‘ बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम्' इति पूर्वपदान्तोदात्तत्वम् । अमृतानि । ‘ कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' इति द्वितीया । (तस्थौ = तिष्ठतेर्लिटि णलि रूपम् )।।

ऋग्वेद मण्डल तृतीय सूक्त अड़तीस ऋचा चतुर्थ ऋग्वेद ३/३८/४

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इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो (असुरस्य वीराः) ।
विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्र तिरन्त आयुः ॥७॥ (ऋग्वेद ३/५३/७/)

पदपाठ-

इमे । भोजाः । अङ्गिरसः । विऽरूपाः । दिवः । पुत्रासः ।( असुरस्य । वीराः )। विश्वामित्राय । ददतः । मघानि । सहस्रऽसावे । प्र । तिरन्ते । आयुः ॥७।

सायण-भाष्य-

हे इन्द्र “इमे यागं कुर्वाणाः “भोजाः सौदासाः क्षत्रियास्तेषां याजकाः '“विरूपाः नानारूपाः मेधातिथिप्रभृतयः "अङ्गिरसः च "दिवः "असुरस्य देवेभ्योऽपि बलवतो रुद्रस्य “पुत्रासः पुत्राः "वीराः बलवन्तो मरुतः ते सर्वे विश्वामित्राय मह्यं “सहस्रसावे । सहस्रं सूयतेऽत्रेति सहस्रसावोऽश्वमेधः । तस्मिन्नश्वमेधे "मघानि मंहनीयानि धनानि “ददतः प्रयच्छन्तः सन्तः “आयुः जीवनमन्नं वा “प्र “तिरन्ते प्रकर्षेण वर्धयन्ति ॥ दिवस्पुत्रास इति संहितायां ' षष्ठ्याः पतिपुत्र° ' इति विसर्जनीयस्य सत्वम् । ददतः । ‘ डुदाञ् दाने ' इत्यस्य शतरि रूपम् । ‘ अभ्यस्तानामादिः' इत्याद्युदात्तत्वम् । तिरन्ते । तरतेर्व्यत्ययेन शः ॥

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उषसः पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद्वि जज्ञे अक्षरं पदे गोः ।
व्रता देवानामुप नु प्रभूषन्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१॥
मो षू णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः ।
पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२॥
वि मे पुरुत्रा पतयन्ति कामाः शम्यच्छा दीद्ये पूर्व्याणि ।
समिद्धे अग्नावृतमिद्वदेम महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥३॥
समानो राजा विभृतः पुरुत्रा शये शयासु प्रयुतो वनानु ।
अन्या वत्सं भरति क्षेति माता महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥४॥
आक्षित्पूर्वास्वपरा अनूरुत्सद्यो जातासु तरुणीष्वन्तः ।
अन्तर्वतीः सुवते अप्रवीता महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥५॥
शयुः परस्तादध नु द्विमाताबन्धनश्चरति वत्स एकः ।
मित्रस्य ता वरुणस्य व्रतानि महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥६॥
द्विमाता होता विदथेषु सम्राळन्वग्रं चरति क्षेति बुध्नः ।
प्र रण्यानि रण्यवाचो भरन्ते महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥७॥
शूरस्येव युध्यतो अन्तमस्य प्रतीचीनं ददृशे विश्वमायत् ।
अन्तर्मतिश्चरति निष्षिधं गोर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥८॥
नि वेवेति पलितो दूत आस्वन्तर्महाँश्चरति रोचनेन ।
वपूंषि बिभ्रदभि नो वि चष्टे महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥९॥
विष्णुर्गोपाः परमं पाति पाथः प्रिया धामान्यमृता दधानः ।
अग्निष्टा विश्वा भुवनानि वेद महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१०॥
नाना चक्राते यम्या वपूंषि तयोरन्यद्रोचते कृष्णमन्यत् ।
श्यावी च यदरुषी च स्वसारौ महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥११॥
माता च यत्र दुहिता च धेनू सबर्दुघे धापयेते समीची ।
ऋतस्य ते सदसीळे अन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१२॥
अन्यस्या वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरूधः ।
ऋतस्य सा पयसापिन्वतेळा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१३॥
पद्या वस्ते पुरुरूपा वपूंष्यूर्ध्वा तस्थौ त्र्यविं रेरिहाणा ।
ऋतस्य सद्म वि चरामि विद्वान्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१४॥
पदे इव निहिते दस्मे अन्तस्तयोरन्यद्गुह्यमाविरन्यत् ।
सध्रीचीना पथ्या सा विषूची महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१५॥
आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः ।
नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१६॥
यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथे नि दधाति रेतः ।
स हि क्षपावान्स भगः स राजा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१७॥
वीरस्य नु स्वश्व्यं जनासः प्र नु वोचाम विदुरस्य देवाः ।
षोळ्हा युक्ताः पञ्चपञ्चा वहन्ति महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१८॥
देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः पुपोष प्रजाः पुरुधा जजान ।
इमा च विश्वा भुवनान्यस्य महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१९॥
मही समैरच्चम्वा समीची उभे ते अस्य वसुना न्यृष्टे ।
शृण्वे वीरो विन्दमानो वसूनि महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२०॥
इमां च नः पृथिवीं विश्वधाया उप क्षेति हितमित्रो न राजा ।
पुरःसदः शर्मसदो न वीरा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२१॥
निष्षिध्वरीस्त ओषधीरुतापो रयिं त इन्द्र पृथिवी बिभर्ति ।
सखायस्ते वामभाजः स्याम महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२२॥

ऋग्वेद मण्डल तृतीय सूक्त पचपन की ऋचाऐं जिनमें प्रत्येक ऋचा के उत्तरार्ध में  "असुरत्वं " पद असुर होने की श्रेष्ठता का उदघोष कर रहा है ।

उषसः । पूर्वाः । अध । यत् । विऽऊषुः । महत् । वि । जज्ञे । अक्षरम् । पदे । गोः ।

व्रता । देवानाम् । उप । नु । प्रऽभूषन् । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१।

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“पूर्वाः उदयकालात् प्राचीनाः “उषसः “यत् यदा “व्यूषुः व्युच्छन्ति "अध तदानीम् “अक्षरम् । न क्षरतीत्यक्षरम् । अविनाश्यादित्याख्यं “महत् प्रभूतं ज्योतिः “गोः उदकस्य “पदे स्थाने समुद्रे नभसि वा “वि “जज्ञे उत्पद्यते । अथोदिते सूर्ये “प्रभूषन् अग्निहोत्रादिकर्मसु प्रभवितुमिच्छन् यजमानः “व्रता कर्माणि "देवानां “नु क्षिप्रम् “उप समीपं नेष्यति । योग्यक्रियाध्याहारः । तदिदं “देवानाम् “एकं मुख्यम् “असुरत्वम्। अस्यति क्षिपति सर्वानित्यसुरः प्रबलः । तस्य भावोऽसुरत्वं प्राबल्यम् । महदैश्वर्यम् ॥ व्यूषुः । 'उष प्लुष दाहे' इत्यस्य विपूर्वस्य लिट्युसि रूपम् । 'सह' इति योगविभागात् समासः । यद्वृत्तयोगादनिघातः । प्रभूषन् । भवतेः सनि द्विर्वचनस्य छन्दसि विकल्पितत्वात् अत्र द्विर्वचनाभावः । तदन्ताच्छतरि रूपम् । प्रादिसमासः । शतुर्लसार्वधातुकस्वरे धातुस्वरः ॥

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मो इति । सु । नः । अत्र । जुहुरन्त । देवाः । मा । दे॒वाना॑म्पूर्वे । अग्ने । पितरः । पदऽज्ञाः ।

पुराण्योः । सद्मनोः । केतुः । अन्तः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२।

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हे “अग्ने “अत्र अस्मिन् काले “देवाः “नः अस्मान् "सु सुष्ठु “मो “जुहुरन्त मा हिंस्युः । तथा “पदज्ञाः कर्माण्यनुष्ठाय देवपदमनुभवन्तः “पूर्वे पुरातनाः “पितरः “मा हिंसिषुः । यस्मात् “केतुः यज्ञानां प्रज्ञापकः सूर्यः “पुराण्योः पुरातनयोः “सद्मनोः । सीदन्त्यनयोर्देवमनुष्या इति सद्मनी रोदसी । तयोः “अन्तः मध्ये उदेति । तस्मादत्र मा हिंसन्त्वित्यर्थः । “महद्देवानाम् इत्यादि पूर्ववत् ॥ जुहुरन्त । ‘हृ प्रसह्यकरणे' । लुङि जुहोत्यादित्वात् श्लुः । व्यत्ययेनात्मनेपदम् । 'बहुलं छन्दसि ' इत्युत्वम् । संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाददादेशाभावेऽन्तादेशः ।।


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वि । मे । पुरुऽत्रा । पतयन्ति । कामाः । शमि । अच्छ । दीद्ये । पूर्व्याणि ।

सम्ऽइद्धे । अग्नौ । ऋतम् । इत् । वदेम । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥३।

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हे अग्ने “मे मम “पुरुत्रा बहवः “कामाः अभिलाषाः “वि “पतयन्ति विविधं गच्छन्ति । “शमि अग्निष्टोमादिलक्षणं कर्म “अच्छ अभिलक्ष्याहं “पूर्व्याणि पुरातनानि स्तोत्राणि तदर्थं “दीद्ये दीपयामि। पश्चात् यज्ञार्थम् “अग्नौ “समिद्धे दीप्यमाने सति “ऋतमित् सत्यमेव “वदेम । अनृतवचने हि यज्ञे वैगुण्यं स्यादिति ॥ पुरुत्रा । देवमनुष्यपुरुष°' इत्यादिना त्राप्रत्ययः । पतयन्ति । पत्लृ गतौ '। स्वार्थिको णिच् ॥


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समानः । राजा । विऽभृतः । पुरुऽत्रा । शये । शयासु । प्रऽयुतः । वना । अनु ।

अन्या । वत्सम् । भरति । क्षेति । माता । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥४

“समानः साधारणः सर्वेषाम् । यद्वा एक एव । राजा दीप्यमानोऽग्निः “पुरुत्रा बहुषु देशेषु “विभृतः अग्निहोत्रार्थं विहृतो भवति । यद्वा । राजा अभिषुतः सोमः सर्वेषु देशेषु यज्ञार्थं विहृतो भवति । स चाग्निः सोमो वा “शयासु वेदिषु । शेरते हविरादयः पदार्था अत्रेति शया वेद्यः । तासु “शये शेते निवसति । “वनानु अनुवनं वनेश्वरणिरूपेषु काष्ठेषु “प्रयुतः विभक्तोऽग्निर्वर्तते । सोमश्चेत् वनेषु चमसेषु विभक्तो वर्तते । तस्य द्वे मातरौ द्यावापृथिव्यौ। तयोः “अन्या द्यौः अस्याः भूमेः जायमानतया “वत्सं वत्सभूतमग्निं सोमं वा “भरति वृष्ट्यादिरूपेण भरति पोषयति । "माता वसुधा “क्षेति केवलं निवासयति ॥ विभृतः । ‘ हृञ् हरणे ' । कर्मणि क्तः । ‘ गतिरनन्तरः' इति गतेः प्रकृतिस्वरत्वम् । पुरुत्रा। अधिकरणे त्राप्रत्ययः । शये । ‘शीङ् स्वप्ने । लोपस्तः' इति तकारलोपः । ‘शीङः सार्वधातुके गुणः । शयासु । ‘शीङ् स्वप्ने । “एरच् ' इत्यधिकरणेऽच् । भरति । भृञ् भरणे । भूवादिः । ‘ एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम्' इति पूर्वस्य न निघातः । क्षेति । क्षि निवासगत्योः' इत्यस्य लटि ‘ बहुलं छन्दसि ' इति विकरणस्य लुक् ।।


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आऽक्षित् । पूर्वासु । अपराः । अनूरुत् । सद्यः । जातासु । तरुणीषु । अन्तरिति ।

अन्तःऽवतीः । सुवते । अप्रऽवीताः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥५

“पूर्वासु जीर्णास्वोषधीषु “आक्षित् आवर्तमानः तथा “अपराः नव्या ओषधीः "अनूरुत् अनुरुन्धन् उत्पत्त्यानुगुण्येनानुतिष्ठन्नग्निः सूर्यो वा “सद्यो “जातासु तदानीमुत्पन्नासु “तरुणीषु पल्लवितास्वोपधीषु “अन्तः वर्तते । ता ओषधयः “अप्रवीताः केनापि पुरुषेणानिषिक्तरेतस्काः अनभ्यक्ता वा “अन्तर्वतीः अग्निना गर्भवत्यो भूत्वा “सुवते फलं पुष्पं चोत्पादयन्ति । तदिदं देवानामैश्वर्यम् ॥ आक्षित् । ‘क्षि निवासगत्योः' । क्विप् । अनूरुत् । ‘ अनो रुध कामे ' । अस्मात् क्विप् । अन्येषामपि दृश्यते ' इति दीर्घः। कृत्स्वरः। तरुणीषु ।' नञ्स्नञीकक्ख्युंस्तरणतलुनानामुपसंख्यानम् ' ( पा. म. ४.१:१५.६ ) इति डीप् । अन्तर्वतीः। ‘ झयः' इति मतुपो वत्वम् । सुवते । ‘ षूङ् प्राणिगर्भविमोचने ' इत्यस्य लटि रूपम् । निघातः ॥ ॥ २८॥


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शयुः । परस्तात् । अध । नु । द्विऽमाता । अबन्धनः । चरति । वत्सः । एकः ।

मित्रस्य । ता । वरुणस्य । व्रतानि । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥६

“द्विमाता । द्वे द्यावापृथिव्यौ मातरौ यस्य स द्विमाता । यद्वा द्वयोर्लोकयोर्निर्माता । सूर्यः “परस्तात् पश्चिमायां दिशि अस्तवेलायां “शयुः शयानोऽव्याप्रियमाणो भवति । “अध “नु अथोदयवेलायाम् “एकः द्यावापृथिव्योः साधारणः तयो रसादानात् “वत्सः पुत्रः “अबन्धनः अप्रतिबद्धगतिः अनालम्बनः एकः सन् “चरति नभसि गच्छति । “ता तानीमानि "मित्रस्य “वरुणस्य मित्रावरुणयोः "व्रतानि कर्माणि ॥ शयुः । ‘शीङ् स्वप्ने '। भृमृशीतॄचरि' इत्यादिना उप्रत्ययः । द्विमाता । ‘नद्यृतश्च ' इति प्राप्तस्य कपः ‘ ऋतश्छन्दसि' इति प्रतिषेधः ॥


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द्विऽमाता । होता । विदथेषु । सम्ऽराट् । अनु । अग्रम् । चरति । क्षेति । बुध्नः ।

प्र । रण्यानि । रण्यऽवाचः । भरन्ते । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥७

“द्विमाता द्वयोर्लोकयोर्निर्माता “विदथेषु यज्ञेषु “होता देवानामाह्वाता “सम्राट् यज्ञेषु सम्यक् राजमानोऽग्निः “अन्वग्रम् अग्रे दिवि “चरति सूर्यभूतस्तत्र वर्तते । “बुध्नः सर्वस्य कर्मणो मूलभूतः सन् “क्षेति भूमौ वसति । यद्वा । अग्रं मुख्यं भागं चरति भक्षयति। क्षेति यज्वनां गृहेषु निवसति । यद्वा । बुध्नः प्रतिष्ठा अन्तेभागी स्विष्टकृद्रूपेण । ‘ प्रतिष्ठा वै स्विष्टकृत्' इति श्रुतेः । किंच “रण्यवाचः रमणीयवाचः स्तोतारः “रण्यानि रमणीयानि स्तोत्राणि “प्र “भरन्ते प्रकर्षेण कुर्वन्ति । तदिदं देवानामैश्वर्यम् ॥ चरति । 'वादिलोपे° ' इति न निघातः ॥


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शूरस्यऽइव । युध्यतः । अन्तमस्य । प्रतीचीनम् । ददृशे । विश्वम् । आऽयत् ।

अन्तः । मतिः । चरति । निःऽसिधम् । गोः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥८।

“अन्तमस्य समीपे वर्तमानस्य दावाग्नेः "आयत् अभिमुखमागच्छत् “विश्वं भूतजातं "प्रतीचीनं पराङ्मुखं “ददृशे दृश्यते । तत्र दृष्टान्तः । “शूरस्येव । यथा “युध्यतः युद्धं कुर्वाणस्य शूरस्य समर्थस्य राज्ञः अभिमुखमागच्छत् परबलं पराङ्मुखं दृश्यते तद्वत् । “मतिः सर्वैर्ज्ञायमानः सोऽग्निः “गोः उदकस्य “निष्षिधं हिंसिकां दीप्तिम् “अन्तः “चरति अन्तर्धारयति ॥ युध्यतः । ‘ युध संप्रहारे'। दिवादिः । तस्य शतरि रूपम् । अन्तमस्य । अन्तशब्दात् ‘ अत इनिठनौ ' इति ठन् । अतिशयेनान्तिकः इत्यर्थें तमप् । ‘ तमे तादेश्च' इति तादिलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तः । प्रतीचीनम् । प्रतिपूर्वस्याञ्चतेः क्विन् । तस्मात् “ विभाषाञ्चेरदिक्स्त्रियाम्' इति खः । ईनादेशः । प्रत्ययस्वरः । आयत् । “या प्रापणे ' इत्यस्याङ्पूर्वस्य शतरि रूपम् ; आङ्पूर्वस्य • अय पय गतौ ' इत्यस्य शतरि रूपं वेति व्युत्पत्त्यनवधारणादनवग्रहः ॥


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नि । वेवेति । पलितः । दूतः । आसु । अन्तः । महान् । चरति । रोचनेन ।

वपूंषि । बिभ्रत् । अभि । नः । वि । चष्टे । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥९।

“पलितः पालयिता पूर्णो वा देवानां “दूतः अग्निः “आसु ओषधीषु “नि “वेवेति नितरां व्याप्य वर्तते । 'महान् सोऽग्निः “रोंचनेन सूर्येण सह “अन्तः रोदस्योर्मध्ये “चरति । “वपूंषि नानाविधानि रूपाणि "बिभ्रत् सोऽग्निः “नः अस्मान् यष्टॄन् “अभि “वि “चष्टे विशेषेणानुग्रहदृष्ट्या पश्यति ॥ वेवेति । वी गत्यादिषु । यङ्लुकि ईडभावे रूपम् । रोचनेन । सहार्थे तृतीया । बिभ्रत् ।। डुभृञ् धारणपोषणयोः' इत्यस्य शतरि रूपम् । अभ्यस्तस्वरः ॥


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विष्णुः । गोपाः । परमम् । पाति । पाथः । प्रिया । धामानि । अमृता । दधानः ।

अग्निः । ता । विश्वा । भुवनानि । वेद । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१०

“विष्णुः व्याप्तः “गोपाः सर्वस्य गोपायिता “प्रिया प्रियतमानि “अमृता क्षयरहितानि “धामानि तेजांसि “दधानः सोऽग्निः “परमं “पाथः स्थानं “पाति रक्षति । यद्वा । धामानि लोकधारकाणि अमृता उदकानि दधानः सन् परमं पाथः उदकस्य स्थानमन्तरिक्षं पाति । सः “अग्निः “ता तानि “विश्वा सर्वाणि “भुवनानि भूतजातानि “वेद जानाति ॥ गोपाः । गोपायतेः क्विपि अतोलोपयलोपौ । अग्निष्टा इत्यत्र सहितायां ‘ युष्मत्तत्ततक्षुःष्वन्तःपादम्' इति षत्वम् ॥ ॥ २९ ॥


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नाना । चक्राते इति । यम्या । वपूंषि । तयोः । अन्यत् । रोचते । कृष्णम् । अन्यत् ।

श्यावी । च । यत् । अरुषी । च । स्वसारौ । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥११

"यम्या यमरूपे मिथुनभूते अहश्च रात्रिश्चेत्येते “नाना नानाविधानि "वपूंषि शुक्लकृष्णादीनि रूपाणि "चक्राते कुरुतः । “श्यावी कृष्णवर्णा “अरुषी शुक्लतया आरोचमाना “यत् ये परस्परं “स्वसारौ भवतः “तयोः मध्ये “अन्यत् अर्जुनमहः “रोचते किरणसंबन्धाद्दीप्यते । “अन्यत् रात्रिलक्षणं “कृष्णं तमःसंबन्धात् कृष्णवर्णमाभाति ॥ यम्या । सुपो डादेशः । रोचते । ‘ एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम्' इति न निघातः ॥

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माता । च । यत्र । दुहिता । च । धेनू इति । सबर्दुघे इति सबःऽदुघे । धापयेते इति । समीची इति सम्ऽईची ।

ऋतस्य । ते इति । सदसि । ईळे । अन्तः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१२

"माता सर्वेषां निर्मातृत्वान्माता पृथिवी “च “दुहिता दूरे निहिता द्यौः च । 'दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा ' (निरु. ३. ४ ) इति यास्कः । एते "सबर्दुघे सबरः स्वीयस्य क्षीररूपरसस्य दोग्ध्र्यौ अत एव “धेनू जगतः प्रीणयित्र्यौ ते द्यावापृथिव्यौ “यत्र अन्तरिक्षे “समीची परस्परं संगते सत्यौ “धापयेते स्वकीयं रसमन्योन्यं पाययेते “ऋतस्य उदकस्य “सदसि स्थानभूते तस्मिन्नन्तरिक्षे “अन्तः स्थिते द्यावापृथिव्यौ “ईळे अहं स्तौमि । यद्वा । वृष्टिलक्षणं रसं द्यौः पृथिवीं धापयते आहुतिलक्षणं रसं द्यां पृथिवीति एवमन्योन्यं माता च दुहिता च भवतः । ऋतस्य सदसि स्थाने यज्ञसदने स्थितोऽहं ते उभे स्तौमि ॥ सबर्दुघे । “ सबःशब्दः क्षीरवाची' इति संप्रदायविद आहुः । तस्मिन्नुपपदे ‘ दुह प्रपूरणे' इत्यस्माद्धातोः ‘ दुहः कब्घश्च ' इति कप्प्रत्ययो घश्चान्तादेशः । प्रत्ययस्य पित्त्वादनुदात्तत्वे धातुस्वरः । धापयेते । धेट् पाने ' इत्यस्य ण्यन्तस्य लटि निगरणचलनार्थेभ्यश्च' इति परस्मैपदे प्राप्ते ‘पादिषु धेट उपसंख्यानम् ' इत्यात्मनेपदम् । यद्वृत्तयोगादनिघातः ॥ ।


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अन्यस्याः । वत्सम् । रिहती । मिमाय । कया । भुवा । नि । दधे । धेनुः । ऊधः ।

ऋतस्य । सा । पयसा । अपिन्वत । इळा । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१३

“अन्यस्याः पृथिव्याः “वत्सम् अग्निं “रिहती उदकधारारूपया जिह्वया लिहती द्यौः “मिमाय मेघद्वारा ध्वनिं करोति । “धेनुः प्रीणयित्री सा द्यौः "कया जलवर्जितया “भुवा तत्रत्यं जलमादाय स्वकीयम् “ऊधः मेघरूपं “नि “दधे उदकेन निहितमकरोत् । “सा जलवर्जिता “इळा पृथिवी “ऋतस्य सत्यभूतस्यादिस्यस्य “पयसा उदकेन "अपिन्वत वर्षकाले सिक्ता भवति । आदित्याज्जायते वृष्टिः' (मनु. ३.७६ ) इति स्मृतेः ॥ रिहती । ‘ लिह आस्वादने' इत्यस्य शतरि रूपम् । ‘शतुरनुमः' इति ङीप उदात्तत्वम् । अपिन्वत । ' पिवि सेचने' । मुचादिरात्मनेपदी । निघातः ॥


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पद्या । वस्ते । पुरुऽरूपा । वपूंषि । ऊर्ध्वा । तस्थौ । त्रिऽअविम् । रेरिहाणा ।

ऋतस्य । सद्म । वि । चरामि । विद्वान् । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१४

"पद्या । जगत्स्रष्टुः परमेश्वरस्य पद्भ्यां जातत्वात् पद्या भूमिः । तथा च मन्त्रवर्णः -- ‘पद्यांया भूमिः' (ऋ. सं. १०.९०.१४) इति । यद्वा पादसंचारे साधुः पद्या भूमिः “पुरुरूपा नानाविधस्वरूपाणि “वपूंषि स्थावरजङ्गमात्मकानि रूपाणि "वस्ते आच्छादयति । सैषा भूमिः “ऊर्ध्वा उत्तरवेद्यात्मनोन्नता सती स्वसारभूतेन हविषा “त्र्यविम् । सार्धसंवत्सरवयस्को वत्सस्त्र्यविरित्युच्यते । तस्प्रमाणमादित्यम्। त्रीन् लोकान् अवति स्वतेजसा व्याप्नोतीति त्र्यविरिति वा । “रेरिहाणा लिहती “तस्थौ । “ऋतस्य सत्यभूतस्यादित्यस्य "सद्म स्थानं “विद्वान् जानानोऽहं “वि “चरामि हविर्भिः तमादित्यं परिचरामि ॥ पद्या । पादशब्दात् ' भवे छन्दसि' इति यत् । “पद्यत्यतदर्थे ' ( पा. सू. ६.३.५३ ) इति पादस्य पद्भावः । यद्वा । तत्र साधुः' इति यत् । यतोऽनावः' इति


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पदे इवेति पदेऽइव । निहिते इति निऽहिते । दस्मे । अन्तरिति । तयोः । अन्यत् । गुह्यम् । आविः । अन्यत् ।

सध्रीचीना । पथ्या । सा । विषूची । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१५

“पदेइव । पद्येते ज्ञायेते तत्तदसाधारणलिङ्गेनेति पदे । अहश्च रात्रिश्चेत्येते "दस्मे सर्वैर्दर्शनीये ते उभे “अन्तः नभसि मध्ये “निहिते स्थापिते इव वर्तेते । “तयोः अहोरात्रयोः “अन्यत् रात्रिलक्षणं “गुह्यम् अप्रकाशमानतया गूढमिवास्ते । “अन्यत् अहः “आविः सूर्यप्रकाशेन प्रकटं भवति । “सधीचीना अहोरात्रयोः परस्परमेलनरूपा “पथ्या मार्गः । काल इत्यर्थः। “सा “विषूची । पुण्यकृतोऽपुण्यकृतश्च प्राप्नोतीति विषूची भवति । सर्वे जना अहोरात्रयोर्वर्तन्ते । यद्वा । पदेइव देवमनुष्यादीनां स्थानभूते द्यावापृथिव्यौ अन्तरन्तरिक्षे निहिते वर्तेते । तयोरन्यत् अन्या द्यौः गुह्यमस्माभिः अदृश्यमानतया गूढा वर्तते । अन्या पृथिवी आविः सर्वैः दृश्यमानत्वेन प्रकटा भवति। सध्रीचीनेति पूर्ववत् ॥ सध्रीचीना । सहपूर्वादञ्चतेः क्विन् । 'सहस्य सध्रिः' इति सध्र्यादेशः । ‘विभाषाञ्चेरदिक्स्त्रियाम्' इति स्वः(स्वरः) ॥ ॥ ३० ॥


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आ । धेनवः । धुनयन्ताम् । अशिश्वीः । सबःऽदुघाः । शशयाः । अप्रऽदुग्धाः ।

नव्याःऽनव्याः । युवतयः । भवन्तीः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१६

“धेनवः वृष्टिद्वारा सर्वस्य जगतः प्रीणयित्र्यः “अशिश्वीः शिशुरहिताः । यद्वा शिशवो न भवन्तीत्यशिश्वीः । “शशयाः नभसि शयाना वर्तमानाः केनापि "अप्रदुग्धाः अक्षीणरसाः "सबर्दुघाः उदकलक्षणस्य क्षीरस्य दोग्ध्र्यः “युवतयः परस्परमिश्रणोपेताः “नव्यानव्याः अतिशयेन नूतनाः “भवन्तीः दिशो मेघा वा “आ “धुनयन्ताम् आदुहन्तु । मेघपक्षे अशिश्वीर्भवन्तीरित्यत्र लिङ्गव्यत्ययः ॥


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यत् । अन्यासु । वृषभः । रोरवीति । सः । अन्यस्मिन् । यूथे । नि । दधाति । रेतः ।

सः । हि । क्षपाऽवान् । सः । भगः । सः । राजा । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१७

“वृषभः अपां वर्षकः “यत् यः पर्जन्यात्मेन्द्रः “अन्यासु दिक्षु “रोरवीति मेघद्वारा भृशं शब्दं करोति “सः पर्जन्य इन्द्रः "अन्यस्मिन् “यूथे दिशां वृन्दे “रेतः उदकं “नि “दधाति तत्र वर्षति । लोके' हि वृषभः कासुचिद्गोषु रेतःसेकार्थं रवं करोत्यन्यस्मिन् गोयूथे रेतः सिञ्चति तद्वत् । “सः इन्द्रः “क्षपावान् । क्षिपति शत्रूनुदकं वेति क्षेपणवान् । यद्वा । क्षपा रात्रिः ।' तथा रात्रिपर्याययागानां स्तोत्राणां भागभूता या रात्रिः सोच्यते । तद्वान् । “सः “भगः सर्वैर्भजनीयः । “सः "राजा “हि तत्तत्कर्मानुरूपफलप्रदानेन सर्वेषां राजा खलु ॥ रोरवीति । ‘रु शब्दे' इत्यस्य यङ्लुगन्तस्य लटि रूपम् । एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम्' इति प्रथमस्य न निघातः । यूथे । ‘यु मिश्रणे'। ‘ तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः' ( उ. सू. २. १६९ ) इति थक्प्रत्ययान्तत्वेन निपातनाद्दीर्घः । रेतः । ‘रीङ् क्षरणे' इत्यस्मात् ‘स्रुरीभ्यां तुट् च' इत्यसुन्प्रत्ययस्तुडागमश्च । नित्त्वादाद्युदात्तः ॥


वी॒रस्य॒ नु स्वश्व्यं॑ जनास॒ः प्र नु वो॑चाम वि॒दुर॑स्य दे॒वाः ।

षो॒ळ्हा यु॒क्ताः पञ्च॑प॒ञ्चा व॑हन्ति म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥१८

वी॒रस्य॑ । नु । सु॒ऽअश्व्य॑म् । ज॒ना॒सः॒ । प्र । नु । वो॒चा॒म॒ । वि॒दुः । अ॒स्य॒ । दे॒वाः ।

षो॒ळ्हा । यु॒क्ताः । पञ्च॑ऽपञ्च । आ । व॒ह॒न्ति॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥१८

वीरस्य । नु । सुऽअश्व्यम् । जनासः । प्र । नु । वोचाम । विदुः । अस्य । देवाः ।

षोळ्हा । युक्ताः । पञ्चऽपञ्च । आ । वहन्ति । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१८

हे “जनासः जनाः “वीरस्य शूरस्येन्द्रस्य “स्वश्व्यं शोभनाश्वोपेतत्वं “नु क्षिप्रं “प्र “वोचाम प्रकर्षेण वदाम । तथा “देवाः अपि “अस्य इन्द्रस्य स्वश्वत्वं “नु क्षिप्रं “विदुः जानन्ति । किं तत्स्वश्वत्वम् । तदुच्यते । 

“षोळ्हा मासाना द्वन्द्वयोगकाले षोढा दृश्यमाना ऋतवोऽश्वा निरूप्यन्ते । ते च षट्संख्याका ऋतवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन “पञ्चपञ्च “युक्ताः सन्तः कालात्मकमिन्द्रम् “आ “वहन्ति । तदिदम् इन्द्रस्य स्वश्वत्वं यदृतुभिरूढत्वम् ॥ षोळ्हा । षष्शब्दात् ‘संख्याया विधार्थे धा ' इति धाप्रत्ययः । षष उत्वं दतृदशधासूत्तरपदादेः ष्टुत्वं च' (पा.सू. ६.३. १०९. ३-४) इत्युत्वं ष्टुत्वं च । प्रत्ययस्वरः ॥


त्वष्ट्रे पशौ हविषोऽनुवाक्या देवस्त्वष्टा ' इत्येषा । सूत्रितं च- देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपो देव त्वष्टर्यद्ध चारुत्वमानट् ' ( आश्व. श्रौ. ३.८) इति ॥

दे॒वस्त्वष्टा॑ सवि॒ता वि॒श्वरू॑पः पु॒पोष॑ प्र॒जाः पु॑रु॒धा ज॑जान ।

इ॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नान्यस्य म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥१९

दे॒वः । त्वष्टा॑ । स॒वि॒ता । वि॒श्वऽरू॑पः । पु॒पोष॑ । प्र॒ऽजाः । पु॒रु॒धा । ज॒जा॒न॒ ।

इ॒मा । च॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । अ॒स्य॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥१९

देवः । त्वष्टा । सविता । विश्वऽरूपः । पुपोष । प्रऽजाः । पुरुधा । जजान ।

इमा । च । विश्वा । भुवनानि । अस्य । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१९

“सविता अन्तर्यामितया सर्वस्य प्रेरकः “विश्वरूपः नानाविधरूपः “त्वष्टा त्वष्टृनामकः “देवः “प्रजाः “पुरुधा बहुधा “जजान जनयति । ताश्च “पुपोष पोषयति । “इमा इमानि “विश्वा विश्वानि सर्वाणि “भुवनानि भूतजातानि “च "अस्य त्वष्टुः संबन्धीनि ॥ विश्वरूपः । ‘ बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम्' इति पूर्वपदान्तोदात्तत्वम् ॥


म॒ही समै॑रच्च॒म्वा॑ समी॒ची उ॒भे ते अ॑स्य॒            वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्टे ।

शृ॒ण्वे वी॒रो वि॒न्दमा॑नो॒ वसू॑नि म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥२०।

म॒ही इति॑ । सम् । ऐ॒र॒त् । च॒म्वा॑ । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । उ॒भे इति॑ । ते इति॑ । अ॒स्य॒ । वसु॑ना । न्यृ॑ष्टे॒ इति॒ निऽऋ॑ष्टे ।

शृ॒ण्वे । वी॒रः । वि॒न्दमा॑नः । वसू॑नि । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥२०

मही इति । सम् । ऐरत् । चम्वा । समीची इति सम्ऽईची । उभे इति । ते इति । अस्य । वसुना । न्यृष्टे इति निऽऋष्टे ।

शृण्वे । वीरः । विन्दमानः । वसूनि । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२०

“मही महत्यौ "समीची परस्परं संगते “चम्वा । चमन्त्यदन्त्यनयोः देवमनुष्याः इति चम्वौ। यद्वा । चम्येते अद्येते भूतजातैरिति चम्वौ द्यावापृथिव्यौ । “समैरत् इन्द्रः प्रजापश्वादिभिः सम्यगयोजयत् । “ते “उभे द्यावापृथिव्यौ “अस्य इन्द्रस्य “वसुना तेजसा धनेन वा “न्यृष्टे नितरां व्याप्ते भवतः । “वीरः समर्थः स इन्द्रः “वसूनि शत्रूनभिभूय तदीयानि धनानि "विन्दमानः लभमानः सन् “शृण्वे सर्वैः श्रूयते । 

‘तवेदिदमभितश्चेकिते वसु' (ऋ. सं. १.५३.३ ) इत्यादिषु दृष्टत्वात् ॥ ऐरत् । ‘ ईर गतौ ' इत्यस्य लङि रूपम् । न्यृष्टे । 'ऋषी गतौ ' । कर्मणि क्तः । ‘ गतिरनन्तरः' इति गतेः स्वरः । शृण्वे । ‘ श्रु श्रवणे' इत्यस्य व्यत्ययेन कर्मणि श्नुः । ‘ लोपस्त आत्मनेपदेषु ' इति तलोपः । विन्दमानः । ' विद्लृ लाभे ' इत्यस्य लटि शानचि रूपम् । तस्य लसार्वधातुकस्वरे धातुस्वरः ॥

_________

इमाम् । च । नः । पृथिवीम् । विश्वऽधायाः । उप । क्षेति । हितऽमित्रः । न । राजा ।

पुरःऽसदः । शर्मऽसदः । न । वीराः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२१

“विश्वधायाः विश्वस्य धाता सर्वान्नो वा “नः अस्माकं “राजा इन्द्रः “इमां “पृथिवीम् अन्तरिक्षं “च “उप तयोः समीपे “क्षेति निवसति । तत्र दृष्टान्तः । “हितमित्रो “न । यथा कस्यचित् हितोपदेष्टा सुहृत् समीपे निवसति तद्वत् । “वीराः समर्था युद्धसहाया मरुतः “पुरःसदः युद्धार्थं पुरतो निश्चयेन गन्तार इन्द्रस्य “शर्मसदो “न । नश्चार्थे । शर्मणि गृहे सीदन्तश्च भवन्ति । यत्र यत्रासौ तत्र तत्र संनिधिं कुर्वाणा इत्यर्थः ॥ क्षेति। ‘ क्षि निवासगत्योः' इत्यस्य लटि ‘ बहुलं छन्दसि ' इति विकरणस्य लुक् । निघातः ॥

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निःऽसिध्वरीः । ते । ओषधीः । उत । आपः । रयिम् । ते । इन्द्र । पृथिवी । बिभर्ति ।

सखायः । ते । वामऽभाजः । स्याम । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२२

हे पर्जन्यात्मक “इन्द्र “ओषधीः ओषधयः “ते “निष्षिध्वरीः निष्षिध्वर्यो नितरां त्वत्कर्तृकसिद्धिमत्यः । "उत अपि च “आपः त्वत्तो निःसृताः । “पृथिवी “ते तव भोगयोग्यं “रयिं धनं “बिभर्ति । पुरू वसूनि पृथिवी बिभर्ति' (ऋ. सं. ३.५१.५) इति हि निगमः । ततः “ते तव “सखायः हविष्प्रदानेनोपकारकाः स्तोतारः वयं “वामभाजः "स्याम सर्वे वननीयधनभागिनो भवेम । तदेतद्देवानां महदैश्वर्यम् ॥ निष्षिध्वरीः । ‘          षिधु संराद्धौ । संपदादिलक्षणो भावे क्विप् । तदस्यास्ति इत्यर्थे 'छन्दसीवनिपौ° '                  इति वनिप् । वनो र च' इति ङीप् रेफश्च । निसा सह समासः । निसः सकारं छान्दसत्वादनादृत्य • उपसर्गात्सुनोति' इत्यादिना षत्वम् । डीपः पित्त्वादनुदात्तत्वे धातुस्वरः । बिभर्ति । ‘ डुभृञ् धारणपोषणयोः' इत्यस्य लटि ‘ भृञामित्' इत्यभ्यासस्येत्वम् । निघातः । वामभाजः । ‘ भज सेवायाम् ' । ‘ भजो ण्विः ' ( पा. सू. ३:२:६२ ) इति ण्विः । कृदुत्तरपदस्वरः ॥ ॥ ३१ ॥


वेदार्थस्य प्रकाशेन तमो हार्दं निवारयन् ।पुमर्थांश्चतुरो देयाद्विद्यातीर्थमहेश्वरः ॥

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इति श्रीमद्राजाधिराजपरमेश्वरवैदिकमार्गप्रवर्तकश्रीवीरबुक्कभूपालसाम्राज्यधुरंधरेण सायणाचार्येण विरचिते माधवीये वेदार्थप्रकाशे ऋक्संहिताभाष्ये तृतीयाष्टके तृतीयोऽध्यायः समाप्तः ॥


तद्देवस्य सवितुर्वार्यं महद्वृणीमहे असुरस्य प्रचेतसः।
छर्दिर्येन दाशुषे यच्छति त्मना तन्नो महाँ उदयान्देवो अक्तुभिः ॥१॥

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वेदों में असुर का अर्थ -

आदिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छियो वसानश्चरति स्वरोचि:।
महत् तद् वृष्णो असुरस्य८८विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ।।४।ऋ०३/३८/४
सभी मेधावी जनों ने रथ में विराजमान इन्द्र को सजाया।अपने वतेज से ही तेजवान इन्द्र प्रकाशित हुए सुस्थित है । 

कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र विचित्र कीर्ति वाले । ये विश्व रूप को धारण करते हैं तथा अमृत से व्याप्त हैं ।


इमे भोज अंगिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा:
विश्वमित्राय ददतो मघानि सहस्र सावे प्र तिरन्त आयु:। ७।।.   (ऋग्वेद ३/५३/७ ।)
हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।

उषसा पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद वि जज्ञे अक्षरं पदे गो:
व्रता देवानामुप नु प्रभूषन् महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।ऋ० ३/५५/१
तथा मोषुणो अन्न जुहुरन्त देवा मा पूर्वज अग्ने पितर :पदज्ञा ।
पुराण्यो: सझ्ननो : केतुरन्तर्महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।२।ऋ० ३/५५/२/
हे अग्ने देव गण हमारा विनाश न करें देवत्व प्राप्त पितर गण  हमको न मारे । यज्ञ की प्रेरणा देने वाले सूर्य आकाश पृथ्वी के मध्य उदित होते हैं । वे हमारी हिंसा न करें ।उन सब महान देवताओं का बल एक ही है ।
तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: 

(ऋग्वेद - ४/५३/१)
हम उस प्रचेतस असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है । उसका ही वरण करते हैं ।
अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने ! तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञान वान -बल वान तथा ऐश्वर्य वान हो ।
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तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।

 महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले  महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर  देवों को पीड़ित करने लगे ।

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न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत्सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति ।
महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन् ॥२॥

ऋग्वेद मण्डल दशम का दशवाँ सूक्त (ऋग्वेद)-१०/१०/ २)

पद-पाठ--न । ते । सखा । सख्यम् । वष्टि । एतत् । सऽलक्ष्मा । यत् । विषुऽरूपा । भवाति ।

महः । पुत्रासः । असुरस्य । वीराः । दिवः । धर्तारः । उर्विया । परि । ख्यन् ॥२

यम =आत्मानं परोक्षीकृत्य यमीं प्रत्युवाच । हे यमि “ते तव “सखा गर्भवासलक्षणेन सखीभूतो यमः “एतत् ईदृशं त्वयोक्तं स्त्रीपुरुषलक्षणं "सख्यं “न “वष्टि =न कामयते । “यत् यस्मात् =कारणात् यमी “सलक्ष्मा समानयोनित्वलक्षणा “विषुरूपा भगिनीत्वाद्विषमरूपा “भवाति भवति । तस्मान्न वष्टीत्यर्थः । इदानीं 'तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान्' इत्यस्य प्रतिवचनमुच्यते । 

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(“महः =महतः “असुरस्य =प्राणवतः प्रज्ञावतो वा प्रजापतेः )

“पुत्रासः पुत्रभूताः “वीराः । ‘वीरो वीरयत्यमित्रान् वेतेर्वा स्याद्गतिकर्मणो वीरयतेर्वा' (निरु. १. ७) इति निरुक्तम् । शत्रूणां विविधमीरयितारः “धर्तारः= धारयितारः “दिवः द्युलोकस्य । प्रदर्शनमेतत् । द्युप्रभृतीनां लोकानामित्यर्थः॥



ऑल्डेन बर्ग  गोल्डनर तथा ग्रिफिथ जैसे पाश्चात्य वैदिक साहित्य के अध्येता हो अथवा डॉ ब्रजेश्वर वर्मा तथा डॉ पुसालकर जैसे भारतीय विश्लेषक भी कृृष्ण के विषय में भ्रान्तचित और किंकर्तव्य विमूढ़ ही हैं । डॉ पुसालकर  अपनी पुस्तक " स्टडीज इन दि एपिक्स ऐण्ड पुराणस्" पदटिप्पणी पृष्ठ ९० पर लिखते हैं कि "  ऋग्वैदिक कृष्ण और पौराणिक कृष्ण की एक रूपता पौराणिक परम्परा से प्रमाणित नहीं है। इसका कारण बताते हुए वह कहते हैं कि पुराणों में अथवा अन्यत्र लौकिक महाकाव्यों में कृष्ण को कहीं मन्त्रदृष्टा नहीं कहा गया और कृष्ण का सम्बन्ध आंगिरस् से भी नहीं हैं"। 

वास्तव में पुलासकर के उपर्युक्त कथन उनकी अल्प जानकारी के ही द्योतक हैं ।


तमिमं गुणसम्पन्नमार्यं च पितर गुरुम्।






संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आर्त्विजी] यज्ञ करनेवाला । वह जिसका यज्ञ में वरण किया जाय । विशेष—ऋत्विजों की संख्या १६ होती है जिसमें चार मुख्य हैं—(क) होता (ऋग्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ख) अध्वर्यु (यजुर्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ग) उद्गाता (सामवेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (घ) ब्रह्मा (चार वेदों का जाननेवाला और पूरे कर्म का निरीक्षण करनेवाला । इनके अतिरिक्त बारह और ऋत्विजों के नाम ये हैं— मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणच्छंसी, प्रस्तोता, अच्छावाक्, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रतिहर्त्ता, ग्रवस्तुत्, उन्नेता, पोता और सुब्रह्मण्य ।



वेदव्यासः सभापर्व-41अध्याय

शिशुपालं सान्त्वयन्तं युधिष्ठिरं निवार्य भीष्मेण श्रीकृष्णमाहात्म्यकथनम् ।। 1।।





वैशम्पायन उवाच। 2-41-

ततो युधिष्ठिरो राजा शिशुपालमुपाद्रवत्।

उवाच चैनं मधुरं सान्त्वपूर्वमिदं वचः।। 2-41-1a

2-41-1b

नेदं युक्तं महीपाल यादृशं वै त्वमुक्तवान्।

अधर्मश्च परो राजन्पारुष्यं च निरर्थकम्।। 2-41-2a

2-41-2b

न हि धर्मं परं जातु नावबुध्येत पार्थिवः।

भीष्मः शान्तनवस्त्वेनं मावमंस्थास्त्वमन्यथा।। 2-41-3a

2-41-3b

पश्य चैतान्महीपालांस्त्वत्तो वृद्धतरान्बहून्।

मृष्यन्ते चार्हणां कृष्णे तद्वत्वं क्षन्तुमर्हसि।। 2-41-4a

2-41-4b

वेद तत्त्वेन कृष्णं हि भीष्णश्चेदिपते भृशम्।

न ह्येनं त्वं तथा यथैनं वेद कौरवः।। 2-41-5a

2-41-5b

भीष्म उवाच। 2-41-6x

नास्मै देयो ह्यनुनयो नायमर्हति सान्त्वनम्।

लोकवृद्धतमे कृष्णे योऽर्हणां नाभिमन्यते।। 2-41-6a

2-41-6b

क्षत्रियः क्षत्रियं जित्वा रणे रणकृतां वरः।

यो मुञ्चति वशे कृत्वा गुरुर्भवति तस्य सः।। 2-41-7a

2-41-7b

अस्यां हि समितौ राज्ञामेकमप्यजितं युधि।

न पश्यामि महीपालं सात्वतीपुत्रतेजसा।। 2-41-8a

2-41-8b

न हि केवलमस्माकमयमर्च्यतमोऽच्युतः।

त्रयाणामपि लोकानामर्चनीयो महाभुजः।। 2-41-9a

2-41-9b

कृष्णेन हि जिता युद्धे बहवः क्षत्रियर्षभाः।

जगत्सर्वं च वार्ष्णेये निखिलेन प्रतिष्ठितम्।। 2-41-10a

2-41-10b

तस्मात्सत्स्वपि वृद्धेषु कृष्णमर्चाम नेतरान्।

एवं वक्तुं न चार्हस्त्वं मा तेऽभूद्बुद्धिरीदृशी।। 2-41-11a

2-41-11b

ज्ञानवृद्धा मया राजन्बहवः पर्युपासिताः।

`यस्य राजन्प्रभावज्ञाः पुरा सर्वे च रक्षिताः'।

तेषां कथयतां शौरेरहं गुणवतो गुणान्।। 2-41-12a

2-41-12b

2-41-12c

समागतानामश्रौषं बहून्बहुमतान्सताम्।

कर्माण्यपि च यान्यस्य जन्मप्रभृति धीमतः।। 2-41-13a

2-41-13b

बहृशः कथ्यमानानि नरैर्भूयः श्रुतानि मे।

न केवलं वयं कामाच्चेदिगज जनार्दनम्।। 2-41-14a

2-41-14b

न सम्बन्धं पुरस्कृत्य कृतार्थं वा कथञ्चन।

अर्चामहेऽर्चितं सद्भिर्भुवि भूतसुखावहम्।। 2-41-15a

2-41-15b

यशः शौर्यं जयं चास्य विज्ञायार्चां प्रयुञ्ज्महे

न च कश्चिदिहास्माभिः सुवालोप्यपरीक्षितः।। 2-41-16a

2-41-16b

गुणैर्वृद्धानतिक्रम्य हरिरर्च्यतमो मतः।

ज्ञानवृद्धो द्विजातीनां क्षत्रियाणां बलाधिकः।। 2-41-17a

2-41-17b

वैश्यानां धान्यधनवाञ्शूद्राणामेव जन्मतः।

पूज्यतायां च गोविन्दे हेतू द्वावपि संस्थितौ।। 2-41-18a

2-41-18b

वेदवेदाङ्गविज्ञानं बलं चाभ्यधिकं तथा।

नृणां लोके हि कोऽन्योस्ति विशिष्टः केशवादृते।। 2-41-19a

2-41-19b

दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं ह्रीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमा।

संनतिः श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताऽच्युते।। 2-41-20a

2-41-20b

तमिमं लोकसम्पन्नमाचार्यं पितरं गुरुम्।

अर्घ्यमर्चितमर्चामः सर्वे सङ्क्षन्तुमर्हथ।। 2-41-21a

2-41-21b

ऋत्विग्गुरुर्विवाह्यश्च स्नातको नृपतिः प्रियः।

सर्वमेतद्धृषीकेशस्तस्मादभ्यर्चितोऽच्युतः।। 2-41-22a

2-41-22b

कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः।

कृष्णस्य हि कृते विश्वमिदं भूतं चराचरम्।। 2-41-23a

2-41-23b

एष प्रकृतिरव्यक्ता कर्ता चैव सनातनः।

परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्मात्पूज्यतमोऽच्युतः।। 2-41-24a

2-41-24b

द्धिर्मनो महद्वायुस्तेजोऽभः खं मही च या।

चतुर्विधं च यद्भूतं सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम्।। 2-41-25a

2-41-25b

आदित्यश्चन्द्रमाश्चैव नक्षत्राणि ग्रहाश्च ये।

दिशश्च विदिशश्चैव सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम्।। 2-41-26a

2-41-26b

` एष रुद्रश्च सर्वात्मा ब्रह्मा चैव सनातनः।

अक्षरं क्षररूपेण मानुषत्वमुपागतः'।। 2-41-27a

2-41-27b

अग्निहोत्रमुखा वेदा गायत्री च्छन्दसां मुखम्।

राजा मुखं मनुष्याणां नदीनां सागरो मुखम्।। 2-41-28a

2-41-28b

नक्षत्राणां मुखं चन्द्र आदित्यस्तेजसां मुखम्।

पर्वतानां मुखं मेरुर्गरुडः पततां मुखम्।। 2-41-29a

2-41-29b

ऊर्ध्वं तिर्यगधश्चैव यावती जगतो गतिः।

सदेवकेषु लोकेषु भगवान्केशवो मुखम्।। 2-41-30a

2-41-30b

अयं तु पुरुषो बालः शिशुपालो न बुध्यते।

सर्वत्र सर्वदा कृष्णं तस्मादेवं प्रभाषते।। 2-41-31a

2-41-31b

यो हि धर्मं विचिनुयादुत्कृष्टं मतिमान्नरः।

स वै पश्येद्यथा धर्मं न तथा चेदिराडयम्।। 2-41-32a

2-41-32b

सवृद्धबालेष्वथवा पार्थिवेषु महात्मसु।

को नार्हं मन्यते कृष्णं को वाप्येनं न पूजयेत्।। 2-41-33a

2-41-33b

अथैनां दुष्कृतां पूजां शिशुपालो व्यवस्यति।

दुष्कृतायां यथान्यायं तथाऽयं कर्तुमर्हति।। 2-41-34a

2-41-34b

।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि

अर्घाहरणपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।।

टिप्पणी





ऋग्वेद में एक मंत्रदृष्टा ऋषि कृष्ण का उल्लेख हुआ है।


सायण भाष्य में इन्हें अंगिरस कृष्ण कहा गया है -कृष्णो नामांगिरस ऋषिः।


 ऋग्वेद में कृष्ण के विश्वक नामक पुत्र का उल्लेख हुआ है, जो ऋषि कृष्ण के साथ मंत्रदृष्टा ऋषि हैं -ऋग्वेद -8 /86 /3 ,

यह भी उल्लेख आता है कि अश्वनी कुमारों ने विश्वक के नष्ट पुत्र विष्णाप्व की रक्षा की थी और उसके पिता से मिलवाया था। 

ऋग्वेद -1 /117 /7 

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तथा 1 /116 /23 । कौषीतकि ब्राह्मण में घोर अंगिरस के साथ ही अंगिरस कृष्ण का भी उल्लेख किया गया है।


 -कृष्णो ह तदङ्गिरसो ब्राह्मणान छन्दसिय तृतीयं सवनं ददर्श। 

ऐतरेय आरण्यक में कृष्णहरित नामक उपदेशक का उल्लेख मिलता है।

छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित है की घोर अंगिरस नामक ऋषि ने देवकी पुत्र कृष्ण को दक्षिणा प्रधान यज्ञ की अपेक्षा अहिंसा प्रधान यज्ञ का प्रतिपादन किया है।

 दान ,तप और सत्य को इसकी दक्षिणा कहा गया है -छान्दोग्य उपनिषद 3 /17 /4 । श्रीमद्भगवद्गीता  में भी ज्ञानमय यज्ञ को उत्तम कहा गया है गीता  -4 /33 ।

श्रीमदभगवद्गीता और छान्दोग्य उपनिषद की तथ्य-साम्यता से यह सिद्ध होता है कि छान्दोग्य उपनिषद के देवकी पुत्र और गीता के प्रवचनकर्ता योगिराज कृष्ण एक ही हैं।

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ऋग्वेद के मन्त्र 6 /9 /1 

में कृष्ण के साथ अर्जुन का उल्लेख हुआ है -अहश्च कृष्णमहरर्जुनम च वि वर्तेते रजसि विद्याभिः

ऋग्वेद के मन्त्र 1 /10 /7 

में गायों के साथ व्रज का उल्लेख है –गवामपव्रजम वृधि।

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ऋग्वेद की ऋचा 5 /52 /17 में यमुना के साथ गौ और राधा का उल्लेख है –

यमुनायामधि श्रुतमुद राधो गव्यं सृजे नि राधो आष्वयं सृजे।

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जैमिनीयं ब्राह्मणम्/काण्डम् ३/३८१-३८६

स त्रिवृता स्तोमेन गायत्रीम् अभ्यक्रन्दत्।           ततो वसून् असृजताग्निमुखान्। 

पञ्चदशेन स्तोमेन त्रिष्टुभम् अभ्यक्रन्दत्।             ततो रुद्रान् असृजतेन्द्रमुखान्। 

सप्तदशेन स्तोमेन जगतीम् अभ्यक्रन्दत्।            तत आदित्यान् असृजत वरुणमुखान्।          

 एकविंशेन स्तोमेनानुष्टुभम् अभ्यक्रन्दत्।           ततो विश्वान् देवान् असृजत विष्णुमुखान्।

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 त्रिणवेन स्तोमेन पंक्तिम् अभ्यक्रन्दत्। ततो मरुतो ऽसृजतेशानमुखान्। त्रयस्त्रिंशेन स्तोमेनातिछन्दसम् अभ्यक्रन्दत्। ततस् साध्यांश् चाप्त्यांश् चासृजत सवितृमुखान्। पञ्चविंशेन स्तोमेन बृहतीम् अभ्यक्रन्दत्। ततो गन्धर्वान् असृजत मित्रमुखान्। विराजम् अभ्यक्रन्दत्। ततो ऽप्सरसो ऽसृजत त्वष्टृमुखाः। ककुभम् अभ्यक्रन्दत्।

 ततस् सर्पान् असृजताङ्गिरसोमुखान्। उष्णिहम् अभ्यक्रन्दत् । ततो ऽङ्गिरसो ऽसृजताथर्वमुखान्। अक्षरपंक्तिम् अभ्यक्रन्दत्। ततो ऽसुरान् असृजतासितमुखान्।

 विष्टारपंक्तिम् अभ्यक्रन्दत्। ततः पितॄन् असृजत यममुखान्। द्विपदाम् अभ्यक्रन्दत्। ततो मनुष्यान् असृजत मृत्युमुखान्। एकपदाम् अभ्यक्रन्दत्। ततो वयांस्य् असृजत मृत्युमुखान्य् उ एव। अमितच्छन्दो ऽभ्यक्रन्दत्। ततः पशून् असृजत धातृमुखान्। स इदं सर्वं सृष्ट्वोर्ध्वं उदक्रामत्। सो ऽगच्छद् यत्रैनम् एतद् उपरि वेदयन्ते॥3.381॥

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तम् अस्यां प्राच्यां दिशि वसवो ऽन्वैच्छन्न् अग्निमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् अर्चिषो रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्यां दक्षिणायां दिशि रुद्रा अन्वैच्छन्न् इन्द्रमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् आदित्यस्य रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्यां प्रतीच्यां दिश्य् आदित्या अन्वैच्छन् वरुणमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यच् चन्द्रमसो रूपं तत्। तद् एवास्य ते उपासते। तम् अस्याम् उदीच्यां दिशि विश्वे देवा अन्वैच्छन् विष्णुमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् विद्युतो रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्याम् ऊर्ध्वायां दिशि मरुतो ऽन्वैच्छन्न् ईशानमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् श्वेतं रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् एतस्मिन् परे लोके साध्याश् चाप्त्याश् चान्वैच्छन् सवितृमुखाः।

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 ते ऽन्विन्दन् यत् कृष्णं रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्मिन्न् एवान्तरदेशे गन्धर्वा अन्वैच्छन् मित्रमुखाः ते ऽन्वविन्दन् यत् सुवर्णस्य हिरण्यस्य रूपं तत्।

 तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्मिन्न् एवान्तरदेशे ऽप्सरसो ऽन्वैच्छंस् त्वष्टृमुखाः। ता अन्वविन्दन् यद् रजतस्य हिरण्यस्य रूपं तत्। तद् एवास्य ता उपासते। तं सर्पा अन्वैच्छन्न् अङ्गिरोमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यन् मधुनो रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अङ्गिरसो ऽन्वैच्छन्न् अथर्वमुखाः। ते ऽन्विन्दन् यद् धुतस्य रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् असुरा अन्वैच्छन्न् असितमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् सुरायै रूपं तत्। तद् एवास्य ते उपासते॥3.382॥


तस्मात् ते पराभूताः। ते ह्य् अस्य पापिष्ठम् उपासते। तं पितरः पितृलोके ऽन्वैच्छन् यममुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् अपां रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तं मनुष्या अन्वैच्छन् मृत्युमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् क्षीरोदनस्य रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तद् एतद् ध वा एतद् अग्रे ऽन्नस्य रूपम् आस यत् क्षीरौदनः। तस्येयं विकृतिर् यद् इदं मनुष्या उपासते। तं वयांस्य् अन्वैच्छन् मृत्युमुखान्य् उ एव । तान्य् अन्विन्दन् हिरण्यपक्षश् शकुन इति। तत् तद् एवास्य तान्य् उपासते। तं पशवो ऽन्वैच्छन् धातृमुखाः।

 ते ऽन्वविन्दन् हिरण्यशृङ्गो हिरण्यशफः कृष्ण ऋषभ इति। तत् तद् एवास्य त उपासते। तद् एतद् ध वा एतस्यै देवतायै सात्ययज्ञयो रूपम् उपासते हिरण्यशृङ्गो हिरण्यशफः कृष्ण ऋषभ इति। 

स य एतद् एवं वेद ऋषभ एव स्वानां भवति। अथो यो ऽयं तपति - ॥3.383॥


- सो ऽस्याम् ऊर्ध्वायां दिश्य् अन्वैच्छत्। तम् एतैस् सर्वै रूपैस् सहासीनम् अन्वविन्दत्। तान्य् एतस्मा एव सर्वाणि रूपाणि प्रायच्छत्। तद् यद् इदम् इह कल्याणं रूपम् आजायते। यद् एवैष प्रयच्छति तद् इदम् इहाजायते। स यद् भूर् भुव स्वर् इति व्याहरत् त एवेमे त्रयो लोका अभवन्न् उपोदक ऋतधामा ऽपराजितः। अथ यत् करज् जनद् वृधत् इति व्याहरत् त एवैते ऽपरे लोका अभवन्न् अधिदिवः प्रदिवो रोचनः। 

विष्टप एव सप्तमो ब्रह्मलोको यस्मिन्न् एतत् सत्यं भाति। तम् एषा देवता सत्यं भूत्वानुप्राविशत्। तत् सद् वै प्राणस् सत्याः प्रजाः। तेनास्य सत्येनेदं सर्वं संगृहीतं भवति। यदि च ह सत्यं वदति यदि च नाथ हास्य सत्यम् एवोदितं भवति। अथो ह विद्यात् सत्यम् एवाहं वदामि नानृतं, यत् सत्यं वदतो लोकस् स मे लोक इति। तस्य ह स एव लोको भवति। तद् यथेदं वयं मीमांसामह इदं ब्रह्मेदं ब्रह्मेत्य् एवम् एवैषा देवतैतद्विदांसं(विद्वांस) मीमांसते न हैष चन तद् वेद। मा सो देवता प्रविष्टेति य एव तद् वेद स एव तद् वेद। एतं सा देवता प्रविष्टेति। न ह वा एवंविदः किं चनाविदितं भवति न का चन देवता॥3.384॥

तस्यैष श्लोकः -
इतः परस्तात् पर उ परस्मात् परस् तृतीयाद् उत वा चतुर्थात्।
सहस्रस्थूणे विमिते दृढ उग्रे यत्र देवानाम् अधिदेव आस्ते॥
इति। एष ह वाव स देवानाम् अधिदेवो य एष तपति। तस्यैतत् सहस्रस्थूणं विमितं दृढं उग्रं यत् संवत्सर ऋतवो मासा अर्धमासा अहोरात्राण्य् उषसः। स य एवम् एतत् सर्वं द्वादशाहम् आत्मानम् अभि संपद्यमानं वेद सर्व एनं कामा अभि संपद्यन्ते। द्वादशाहे वै सर्वे स्तोमा सर्वाणि पृष्ठानि सर्वाणि छन्दांसि सर्वाणि सवनानि सर्वे पशवस् सर्वे देवास् सर्वे लोकास् सर्वे कामा , द्वादशाहम् अन्वायत्ता। द्वादशाहम् अन्वाभक्ता, द्वादशाहम् अनुसंतृप्यन्ति, द्वादशाहे संपन्ना, द्वादशाहे प्रतिष्ठिताः। तद् आहुर् यद् एतानि दशैवाहान्य् अथ कस्माद् द्वादशाह इत्य् आख्यायत इति। स ब्रूयाद् यद् एवैते द्वादशाग्निष्टोमा संपद्यन्ते तेनेति॥3.385॥


तद् आहुर् यत् त्रयोदश मासास् संवत्सरस् संवत्सरश् च चतुर्दशो, ऽथ केन त्रयोदशं च मासम् उपाप्नुवन्ति संवत्सरं च चतुर्दशम् इति। अतिरात्राभ्याम् इति ब्रूयात्। प्रायणीयेनातिरात्रेण त्रयोदशं मासम् उपाप्नुवन्त्य्, उदयनीयेन संवत्सरं चतुर्दशम्। तद् आहुस् स वाद्य द्वादशाहं विद्यात्, स वा वेदेति मन्येत, य एनं सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितं विद्याद् इति। मासा वै द्वादशाहस्याहानि, त एव लोका, एत एव देवलोकाः। फाल्गुनो वै मासो द्वादशाहस्य प्रथमम् अहश्, चैत्रो द्वितीयं, वैशाखस् तृतीयम्, आषाढापौर्णमासश् चतुर्थं, श्रोणाश्रविष्ठः पञ्चमं, शातभिषजष् षष्ठं, प्रोष्ठपदः सप्तमम्, आश्वयुजो ऽष्टमं, कार्तिको नवमम्, मार्गशीर्षो दशमं, तैष एकादशं, माघो द्वादशं, प्रायणीय एवातिरात्रस् त्रयोदशो मास, उदयनीयस् संवत्सरश् चतुर्दशः। स एष द्वादशाहस् सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितः। स य एवम् एतं द्वादशाहं सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितं वेद सर्वेषु लोकेषु प्रतितिष्ठति। स एष वाव द्वादशाहो य एष तपत्य्, एष इन्द्र, एष प्रजापतिर्, एष एवेदं सर्वम् इत्य् उपासितव्यम्। एष एवेदं सर्वम् इत्य् उपासितव्यम्॥3.386॥
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प्रस्तुति करण:-

यादव योगेश कुमार "रोहि" 

सम्पर्क सूत्र-8077160219


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