पुरातत्तवेत्ता (अरनेष्ट मैके ) के प्रमाणों के अनुसार कृष्ण का समय ई०पू० (900) कुछ वर्ष पूर्व सिद्ध होता है।
सिन्धु घाटी की सभ्यता के उत्खनन के सन्दर्भ कृष्ण की यमलार्जुन वृक्षो में समन्वित उलूखल दमोदर मूर्ति की प्राप्त हुयी है जिसकी कार्बन क्षरण डेटिंग ईसा पूर्व नवम सदी के कुछ पूर्व है -👇
असुर:= सोमे वरुणे च मेघा: ६२असुर -दात्रारिव्याप्त्याम् ७४६असुर:= बले ४२२असुर :=प्रज्ञायाम् असुर :=ऋत्विजि परवर्ती अर्थायां दैत्ये (माधवीय पदानुक्रमणिका वैदिक निघण्टु )__________________वैदिक सन्दर्भ में कृष्ण ते लिए यद्यपि असुर शब्द नहीं है परन्तु सायण ने अपने भाष्य में असुर का आरोपण कृष्ण को ऊपर किया है परन्तु उन्होंने कोई निश्चित सन्दर्भ उद्धृत नहीं किया है है कि कृष्ण को असुर कहाँ कहा गया है ।मूल ऋचाअध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थेऽधारयत्तन्वं तित्विषाणः ।
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
____________________________________पदपाठ-विच्छेदन । द्रप्स: । अंशुऽमत्याः । उपऽस्थे । अधारयत् । तन्वम् । तित्विषाणः । विशः । अदेवीः । अभि । आऽचरन्तीः । बृहस्पतिना । युजा । इन्द्रः । ससहे ॥१५_____________________________________भाष्य-
कृष्णेन ।अधारयद्। यमुनया: ।जलस्य। अधौ । दैदीप्यमानम् ।स्वतन्वम् । यमुनया: ।उत्संगे तदा। इन्द्र:। गोपाञ्च ।अपश्यत् । लोभीभूत्वा गोपै: सह। गाव: ।आचरन्ती। तस्मिन् काले ।देवान् न पूजयितान् गोपान् बृहस्पतिना सह इन्द्र: ससाह।
____________________________________
अर्थ-कृष्ण ने अंशुमती के जल के नीचे अपने दैदीप्यमान शरीर को अशुमती की गोद में धारण किया अर्थात् जल में स्थित हो गये ( यमुना के जल नें स्थित हो गये ) तब इन्द्र ने गोपों - विशों(गोपालन आदि करने वाले वैश्यवृत्ति सम्पन्न) को देखा जो वहाँ गाय चलाते हैं तब इन्द्र ने देवों की पूजा न करने वाले अदेवी: उन गोपों को बृहस्पति के साथ मिलकर चारो ओर से अपनी शक्ति में करना चाहा अथवा शक्ति में किया।
______________________१-“अध अथ अधो वा २-“द्रप्सः द्रव्य पूर्ण जल: ३-“अंशुमत्याः यमुनाया: नद्याः“४-(उपस्थे=उत्संगे क्रोडेवा “५-(त्विष धातु =दीप्तौ अर्थे तित्विषाणः= दीप्यमानः)६-( सन् =भवन् ) ७-“(तन्वम् द्वितीया कर्मणि वैदिके रूपे = शरीरम्) “८-(अधारयत् = लौकिक रूप. अधरत –आत्मनेपदीय लङ्लकार अन्यपुरुष एकवचन रूप धारण किया)। तत्र “इन्द्रो गत्वा =वहाँ इन्द्र ने जाकर।“बृहस्पतिना एतन्नामकेन बृहद् देवेन=बृहस्पति इस नाम के बृहद् देव के साथ।९- “युजा =सहायेन तृतीया विभक्ति एक वचन करण कारकरूप जुडने के द्वारा ।१०-“अदेवीः = ये देवसत्ता न स्वीकारं कुर्वन्ति इति अदेवी:। जो देवों की सत्ता न स्वीकार करने वाली इस प्रकार से अदेवी: कृष्णेनसह अनुचरा: इत्यर्थः कृष्ण के साथ उनके अनुचरों के अर्थ में अदेवी: शब्द है । ११- “आचरन्तीः = ग्रासं खादयन्ति १२-“विशः= वैश्य अथवा गोपालका:"अभि १३-"ससहे षह्(सह्) लिट्लकार ( अनद्यतन परोक्ष भूतकाल) ।।शक्यार्थे -चारो और से सख्ती की वंश में किया । सह्- सह्यति विषह्यति ससाह सेहतुः सिसाहयिषति सुह्यति सुषोह _________________
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
छन्दोग्य उपनिषद वेदों में में वर्णित कृष्ण और अर्जुन ।
आंगिरस ऋषि ने देवकी-पुत्र श्रीकृष्ण को तत्त्वदर्शन का उपदेश दिया था ।उससे वे सभी तरह की पिपासाओं से मुक्त हो गये थे। साधक को मृत्युकाल में तीन मन्त्रों का स्मरण करना चाहिए-
( ऋग्वेद दशम् मण्डल) सूक्त -२३ ऋचा -३।
त्वे इति । धर्माणः । आसते । जुहूभिः । सिञ्चतीःऽइव ।कृष्णा । रूपाणि । अर्जुना । वि । वः । मदे । विश्वाः । अधि । श्रियः । धिषे । विवक्षसे ॥३
१-“धर्माणः= यज्ञस्य धारयितार ऋत्विजः २-“जुहूभिः =संपूर्णाहुतिभिर्होमपात्रैः ३- “त्वे= त्वामेव ४“आसते =उपासते सेवन्ते । तत्र दृष्टान्तः । ५“सिञ्चतीरिव = वृष्टिलक्षणाः पृथिवीं सिञ्चन्त्य आपोऽग्निं यथा स्वपितृत्वेन सेवन्ते तद्वत् । अग्नेरापः' (तै. आ. ८.१ ) इति श्रुतेस्तस्यापां पितृत्वम् । यद्वा । जुहूभिः सिञ्चतीरिव सिच्यमाना आहुतय इव धर्माणस्त्वया धार्यमाणा रश्मयस्त्वे त्वय्यासते निवसन्ति । हे अग्ने त्वं “कृष्णा कृष्णरूपाणि “अर्जुना अर्जुनरूपाणि “विश्वाः सर्वाः “श्रियः शोभाः “अधि “धिषे अधिकं यथा भवति तथा धारयसि । किमर्थम् । “वः युष्माकं सर्वेषां देवानां “विमदे विविधसोमपानजन्यमदार्थम् । यत एवमतः “विवक्षसे त्वं महान् भवसि ॥
तथा
अहस्ता यदपदी वर्धत क्षाः शचीभिर्वेद्यानाम् ।
शुष्णं परि प्रदक्षिणिद्विश्वायवे नि शिश्नथः ॥१४॥
ऋग्वेद १०/२३/१४
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
"
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को ग्रहण करने से देव लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....
अथर्ववेदःकाण्डं (१९)सूक्तम् (१३)में यह नौवीं ऋचा है।इन्द्रस्य वृष्णो (वरुणस्य राज्ञ) आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम् ।
इन्द्रस्य वृष्णो (वरुणस्य राज्ञ )आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रम् ।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात्॥१०॥
अथर्ववेदः/काण्डं १९/सूक्तम् १३
______
इन्द्रस्य । वृष्णः । (वरुणस्य । राज्ञः) । आदित्यानाम् । मरुताम् । शर्धः । उग्रम् ।
महाऽमनसाम् । भुवनऽच्यवानाम् । घोषः । देवानाम् । जयताम् । उत् । अस्थात् ॥९।
(ऋग्वेदः सूक्तं १०/१०३/९)
_________________
इन्द्रस्य वृष्णो (वरुणस्य राज्ञ) आदित्यानां मरुतां शर्ध उग्रं ।
महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥१८५७ ॥
_________
मर्माणि ते वर्मणा च्छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्तां ।
उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥ १८७० ॥
इन्द्राविष्णू इति । दृंहिताः । शम्बरस्य । नव । पुरः । नवतिम् । च । श्नथिष्टम् ।शतम् । वर्चिनः । सहस्रम् । च । साकम् । हथः । अप्रति । असुरस्य । वीरान् ॥५।
_____________
हे “इन्द्राविष्णू “दृंहिताः दृढीकृताः “नव “नवतिं “च नवोत्तरनवतिसंख्याकाः “पुरः पुराणि “शम्बरस्य स्वभूतानि “श्नथिष्टम् अहिंसिष्टम्। 'श्नथ हिंसायाम्। अपि च “शतं “सहस्रं “च “वर्चिनः (“असुरस्य “वीरान् “)अप्रति प्रतिद्वन्द्विनो यथा न भवन्ति तथा “साकं सह संघश एव “हथः अहिंसिष्टम् । 'यो वर्चिनः शतमिन्द्रः सहस्रम् '। (ऋ. सं. २. १४. ६) इति हि निगमान्तरम्
विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युजेन्द्रः ससाहे ॥१५॥
इन्द्रो विश्वाभिरूतिभिः ॥१२॥
यो रायोऽवनिर्महान्सुपारः सुन्वतः सखा ।
तमिन्द्रमभि (तम् +इन्द्रम्+अभि) गायत ॥१३॥
आयन्तारं महि स्थिरं पृतनासु श्रवोजितम् ।
भूरेरीशानमोजसा ॥१४॥
नकिरस्य शचीनां नियन्ता सूनृतानाम् ।
नकिर्वक्ता न दादिति ॥१५॥
नकिः । अस्य । शचीनाम् । निऽयन्ता । सूनृतानाम् ।नकिः । वक्ता । न । दात् । इति ॥१५।
“अस्य इन्द्रस्य “शचीनां शचि एनाम् वैदिक रूप इनाम् शचि+इनाम् दीर्घ स्वर सन्धि। । ‘ “नकिः= न कश्चित् “नियन्ता =नियामकः । अयमिन्द्रः “न “दादिति= न प्रयच्छतीति “नकिर्वक्ता न कश्चिद्वदति ।
विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....
वे मन-ही-मन कहने लगे - ‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा। देवता लोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ।
इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है।
इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।
इसके बाद भगवान ने गोपों ने कहा - ‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ। देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है।' जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया - ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्धन के गड्ढ़े में आ घुसे।
जब गोवर्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा - ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।' भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये। सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया।
आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः ।
महत्तद्वृष्णो असुरस्य नामा विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ ॥४॥
पद-पाठ-
आऽतिष्ठन्तम् । परि । विश्वे । अभूषन् । श्रियः । वसानः । चरति । स्वऽरोचिः ।
महत् । तत् । वृष्णः । असुरस्य । नाम । आ । विश्वऽरूपः । अमृतानि । तस्थौ ॥४।
_____________
सायण-भाष्य-
“विश्वे =सर्वे कवयो रथम् “आतिष्ठन्तम् इन्द्रं “परि “अभूषन् । परितोऽलमकुर्वन् । “स्वरोचिः । स्वमेव रोचिर्यस्यासौ स्वरोचिः । स्वप्रभयैव दीप्यमान इत्यर्थः । अत एव “श्रियः= दीप्तीः "वसानः= आच्छादयन् सोऽयमिन्द्रः “चरति सर्वत्र वर्तते । “वृष्णः= कामानां वर्षितुः "(असुरस्य =। अस्यति प्रेरयति सर्वानन्तर्यामितयेत्यसुरः )
तस्येन्द्रस्य “तत् तादृशमनुभूतपूर्वं “नाम । नमयति सर्वान् अनेन शत्रूनिति नाम कर्म । यद्वा नम्यते सर्वैर्नमस्क्रियते इति नाम इन्द्रस्य शरीरं कर्म वा। “महत् आश्चर्योपेतं वर्तते । तथा “विश्वरूपः नानाविधरूपतां भजमानः स इन्द्रो वरुणात्मना “अमृतानि =जलानि “आ “तस्थौ =अधितिष्ठति ॥ विश्वे । जसः शी। अभूषन् । ‘ भूष =अलंकारे' ' इत्यस्य लङि रूपम् । वसानः । वस आच्छादने ' इत्यस्य शानचि रूपम्। तस्य लसार्वधातुकस्वरे थातुस्वरः। नाम। ‘ णमु प्रह्वत्वे 'इत्यस्मात् 'नामन्सीमन” ' इत्यादिना मनिन्प्रत्ययान्तत्वेन निपातनादाद्युदात्तः । विश्वरूप इति तस्य संज्ञा । ‘ बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम्' इति पूर्वपदान्तोदात्तत्वम् । अमृतानि । ‘ कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे' इति द्वितीया । (तस्थौ = तिष्ठतेर्लिटि णलि रूपम् )।।
ऋग्वेद मण्डल तृतीय सूक्त अड़तीस ऋचा चतुर्थ ऋग्वेद ३/३८/४
__________
इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो (असुरस्य वीराः) ।
विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्र तिरन्त आयुः ॥७॥ (ऋग्वेद ३/५३/७/)
पदपाठ-
इमे । भोजाः । अङ्गिरसः । विऽरूपाः । दिवः । पुत्रासः ।( असुरस्य । वीराः )। विश्वामित्राय । ददतः । मघानि । सहस्रऽसावे । प्र । तिरन्ते । आयुः ॥७।
सायण-भाष्य-
हे इन्द्र “इमे यागं कुर्वाणाः “भोजाः सौदासाः क्षत्रियास्तेषां याजकाः '“विरूपाः नानारूपाः मेधातिथिप्रभृतयः "अङ्गिरसः च "दिवः "असुरस्य देवेभ्योऽपि बलवतो रुद्रस्य “पुत्रासः पुत्राः "वीराः बलवन्तो मरुतः ते सर्वे विश्वामित्राय मह्यं “सहस्रसावे । सहस्रं सूयतेऽत्रेति सहस्रसावोऽश्वमेधः । तस्मिन्नश्वमेधे "मघानि मंहनीयानि धनानि “ददतः प्रयच्छन्तः सन्तः “आयुः जीवनमन्नं वा “प्र “तिरन्ते प्रकर्षेण वर्धयन्ति ॥ दिवस्पुत्रास इति संहितायां ' षष्ठ्याः पतिपुत्र° ' इति विसर्जनीयस्य सत्वम् । ददतः । ‘ डुदाञ् दाने ' इत्यस्य शतरि रूपम् । ‘ अभ्यस्तानामादिः' इत्याद्युदात्तत्वम् । तिरन्ते । तरतेर्व्यत्ययेन शः ॥
____________
उषसः पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद्वि जज्ञे अक्षरं पदे गोः ।
व्रता देवानामुप नु प्रभूषन्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१॥
मो षू णो अत्र जुहुरन्त देवा मा पूर्वे अग्ने पितरः पदज्ञाः ।
पुराण्योः सद्मनोः केतुरन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२॥
वि मे पुरुत्रा पतयन्ति कामाः शम्यच्छा दीद्ये पूर्व्याणि ।
समिद्धे अग्नावृतमिद्वदेम महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥३॥
समानो राजा विभृतः पुरुत्रा शये शयासु प्रयुतो वनानु ।
अन्या वत्सं भरति क्षेति माता महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥४॥
आक्षित्पूर्वास्वपरा अनूरुत्सद्यो जातासु तरुणीष्वन्तः ।
अन्तर्वतीः सुवते अप्रवीता महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥५॥
शयुः परस्तादध नु द्विमाताबन्धनश्चरति वत्स एकः ।
मित्रस्य ता वरुणस्य व्रतानि महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥६॥
द्विमाता होता विदथेषु सम्राळन्वग्रं चरति क्षेति बुध्नः ।
प्र रण्यानि रण्यवाचो भरन्ते महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥७॥
शूरस्येव युध्यतो अन्तमस्य प्रतीचीनं ददृशे विश्वमायत् ।
अन्तर्मतिश्चरति निष्षिधं गोर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥८॥
नि वेवेति पलितो दूत आस्वन्तर्महाँश्चरति रोचनेन ।
वपूंषि बिभ्रदभि नो वि चष्टे महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥९॥
विष्णुर्गोपाः परमं पाति पाथः प्रिया धामान्यमृता दधानः ।
अग्निष्टा विश्वा भुवनानि वेद महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१०॥
नाना चक्राते यम्या वपूंषि तयोरन्यद्रोचते कृष्णमन्यत् ।
श्यावी च यदरुषी च स्वसारौ महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥११॥
माता च यत्र दुहिता च धेनू सबर्दुघे धापयेते समीची ।
ऋतस्य ते सदसीळे अन्तर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१२॥
अन्यस्या वत्सं रिहती मिमाय कया भुवा नि दधे धेनुरूधः ।
ऋतस्य सा पयसापिन्वतेळा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१३॥
पद्या वस्ते पुरुरूपा वपूंष्यूर्ध्वा तस्थौ त्र्यविं रेरिहाणा ।
ऋतस्य सद्म वि चरामि विद्वान्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१४॥
पदे इव निहिते दस्मे अन्तस्तयोरन्यद्गुह्यमाविरन्यत् ।
सध्रीचीना पथ्या सा विषूची महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१५॥
आ धेनवो धुनयन्तामशिश्वीः सबर्दुघाः शशया अप्रदुग्धाः ।
नव्यानव्या युवतयो भवन्तीर्महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१६॥
यदन्यासु वृषभो रोरवीति सो अन्यस्मिन्यूथे नि दधाति रेतः ।
स हि क्षपावान्स भगः स राजा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१७॥
वीरस्य नु स्वश्व्यं जनासः प्र नु वोचाम विदुरस्य देवाः ।
षोळ्हा युक्ताः पञ्चपञ्चा वहन्ति महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१८॥
देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपः पुपोष प्रजाः पुरुधा जजान ।
इमा च विश्वा भुवनान्यस्य महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥१९॥
मही समैरच्चम्वा समीची उभे ते अस्य वसुना न्यृष्टे ।
शृण्वे वीरो विन्दमानो वसूनि महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२०॥
इमां च नः पृथिवीं विश्वधाया उप क्षेति हितमित्रो न राजा ।
पुरःसदः शर्मसदो न वीरा महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२१॥
निष्षिध्वरीस्त ओषधीरुतापो रयिं त इन्द्र पृथिवी बिभर्ति ।
सखायस्ते वामभाजः स्याम महद्देवानामसुरत्वमेकम् ॥२२॥
ऋग्वेद मण्डल तृतीय सूक्त पचपन की ऋचाऐं जिनमें प्रत्येक ऋचा के उत्तरार्ध में "असुरत्वं " पद असुर होने की श्रेष्ठता का उदघोष कर रहा है ।
उषसः । पूर्वाः । अध । यत् । विऽऊषुः । महत् । वि । जज्ञे । अक्षरम् । पदे । गोः ।
व्रता । देवानाम् । उप । नु । प्रऽभूषन् । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१।
________________
“पूर्वाः उदयकालात् प्राचीनाः “उषसः “यत् यदा “व्यूषुः व्युच्छन्ति "अध तदानीम् “अक्षरम् । न क्षरतीत्यक्षरम् । अविनाश्यादित्याख्यं “महत् प्रभूतं ज्योतिः “गोः उदकस्य “पदे स्थाने समुद्रे नभसि वा “वि “जज्ञे उत्पद्यते । अथोदिते सूर्ये “प्रभूषन् अग्निहोत्रादिकर्मसु प्रभवितुमिच्छन् यजमानः “व्रता कर्माणि "देवानां “नु क्षिप्रम् “उप समीपं नेष्यति । योग्यक्रियाध्याहारः । तदिदं “देवानाम् “एकं मुख्यम् “असुरत्वम्। अस्यति क्षिपति सर्वानित्यसुरः प्रबलः । तस्य भावोऽसुरत्वं प्राबल्यम् । महदैश्वर्यम् ॥ व्यूषुः । 'उष प्लुष दाहे' इत्यस्य विपूर्वस्य लिट्युसि रूपम् । 'सह' इति योगविभागात् समासः । यद्वृत्तयोगादनिघातः । प्रभूषन् । भवतेः सनि द्विर्वचनस्य छन्दसि विकल्पितत्वात् अत्र द्विर्वचनाभावः । तदन्ताच्छतरि रूपम् । प्रादिसमासः । शतुर्लसार्वधातुकस्वरे धातुस्वरः ॥
____
मो इति । सु । नः । अत्र । जुहुरन्त । देवाः । मा । दे॒वाना॑म्पूर्वे । अग्ने । पितरः । पदऽज्ञाः ।
पुराण्योः । सद्मनोः । केतुः । अन्तः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२।
_______
हे “अग्ने “अत्र अस्मिन् काले “देवाः “नः अस्मान् "सु सुष्ठु “मो “जुहुरन्त मा हिंस्युः । तथा “पदज्ञाः कर्माण्यनुष्ठाय देवपदमनुभवन्तः “पूर्वे पुरातनाः “पितरः “मा हिंसिषुः । यस्मात् “केतुः यज्ञानां प्रज्ञापकः सूर्यः “पुराण्योः पुरातनयोः “सद्मनोः । सीदन्त्यनयोर्देवमनुष्या इति सद्मनी रोदसी । तयोः “अन्तः मध्ये उदेति । तस्मादत्र मा हिंसन्त्वित्यर्थः । “महद्देवानाम् इत्यादि पूर्ववत् ॥ जुहुरन्त । ‘हृ प्रसह्यकरणे' । लुङि जुहोत्यादित्वात् श्लुः । व्यत्ययेनात्मनेपदम् । 'बहुलं छन्दसि ' इत्युत्वम् । संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाददादेशाभावेऽन्तादेशः ।।
______________
वि । मे । पुरुऽत्रा । पतयन्ति । कामाः । शमि । अच्छ । दीद्ये । पूर्व्याणि ।
सम्ऽइद्धे । अग्नौ । ऋतम् । इत् । वदेम । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥३।
____________
हे अग्ने “मे मम “पुरुत्रा बहवः “कामाः अभिलाषाः “वि “पतयन्ति विविधं गच्छन्ति । “शमि अग्निष्टोमादिलक्षणं कर्म “अच्छ अभिलक्ष्याहं “पूर्व्याणि पुरातनानि स्तोत्राणि तदर्थं “दीद्ये दीपयामि। पश्चात् यज्ञार्थम् “अग्नौ “समिद्धे दीप्यमाने सति “ऋतमित् सत्यमेव “वदेम । अनृतवचने हि यज्ञे वैगुण्यं स्यादिति ॥ पुरुत्रा । देवमनुष्यपुरुष°' इत्यादिना त्राप्रत्ययः । पतयन्ति । पत्लृ गतौ '। स्वार्थिको णिच् ॥
_____________
समानः । राजा । विऽभृतः । पुरुऽत्रा । शये । शयासु । प्रऽयुतः । वना । अनु ।
अन्या । वत्सम् । भरति । क्षेति । माता । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥४
“समानः साधारणः सर्वेषाम् । यद्वा एक एव । राजा दीप्यमानोऽग्निः “पुरुत्रा बहुषु देशेषु “विभृतः अग्निहोत्रार्थं विहृतो भवति । यद्वा । राजा अभिषुतः सोमः सर्वेषु देशेषु यज्ञार्थं विहृतो भवति । स चाग्निः सोमो वा “शयासु वेदिषु । शेरते हविरादयः पदार्था अत्रेति शया वेद्यः । तासु “शये शेते निवसति । “वनानु अनुवनं वनेश्वरणिरूपेषु काष्ठेषु “प्रयुतः विभक्तोऽग्निर्वर्तते । सोमश्चेत् वनेषु चमसेषु विभक्तो वर्तते । तस्य द्वे मातरौ द्यावापृथिव्यौ। तयोः “अन्या द्यौः अस्याः भूमेः जायमानतया “वत्सं वत्सभूतमग्निं सोमं वा “भरति वृष्ट्यादिरूपेण भरति पोषयति । "माता वसुधा “क्षेति केवलं निवासयति ॥ विभृतः । ‘ हृञ् हरणे ' । कर्मणि क्तः । ‘ गतिरनन्तरः' इति गतेः प्रकृतिस्वरत्वम् । पुरुत्रा। अधिकरणे त्राप्रत्ययः । शये । ‘शीङ् स्वप्ने । लोपस्तः' इति तकारलोपः । ‘शीङः सार्वधातुके गुणः । शयासु । ‘शीङ् स्वप्ने । “एरच् ' इत्यधिकरणेऽच् । भरति । भृञ् भरणे । भूवादिः । ‘ एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम्' इति पूर्वस्य न निघातः । क्षेति । क्षि निवासगत्योः' इत्यस्य लटि ‘ बहुलं छन्दसि ' इति विकरणस्य लुक् ।।
______________
आऽक्षित् । पूर्वासु । अपराः । अनूरुत् । सद्यः । जातासु । तरुणीषु । अन्तरिति ।
अन्तःऽवतीः । सुवते । अप्रऽवीताः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥५
“पूर्वासु जीर्णास्वोषधीषु “आक्षित् आवर्तमानः तथा “अपराः नव्या ओषधीः "अनूरुत् अनुरुन्धन् उत्पत्त्यानुगुण्येनानुतिष्ठन्नग्निः सूर्यो वा “सद्यो “जातासु तदानीमुत्पन्नासु “तरुणीषु पल्लवितास्वोपधीषु “अन्तः वर्तते । ता ओषधयः “अप्रवीताः केनापि पुरुषेणानिषिक्तरेतस्काः अनभ्यक्ता वा “अन्तर्वतीः अग्निना गर्भवत्यो भूत्वा “सुवते फलं पुष्पं चोत्पादयन्ति । तदिदं देवानामैश्वर्यम् ॥ आक्षित् । ‘क्षि निवासगत्योः' । क्विप् । अनूरुत् । ‘ अनो रुध कामे ' । अस्मात् क्विप् । अन्येषामपि दृश्यते ' इति दीर्घः। कृत्स्वरः। तरुणीषु ।' नञ्स्नञीकक्ख्युंस्तरणतलुनानामुपसंख्यानम् ' ( पा. म. ४.१:१५.६ ) इति डीप् । अन्तर्वतीः। ‘ झयः' इति मतुपो वत्वम् । सुवते । ‘ षूङ् प्राणिगर्भविमोचने ' इत्यस्य लटि रूपम् । निघातः ॥ ॥ २८॥
________________
शयुः । परस्तात् । अध । नु । द्विऽमाता । अबन्धनः । चरति । वत्सः । एकः ।
मित्रस्य । ता । वरुणस्य । व्रतानि । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥६
“द्विमाता । द्वे द्यावापृथिव्यौ मातरौ यस्य स द्विमाता । यद्वा द्वयोर्लोकयोर्निर्माता । सूर्यः “परस्तात् पश्चिमायां दिशि अस्तवेलायां “शयुः शयानोऽव्याप्रियमाणो भवति । “अध “नु अथोदयवेलायाम् “एकः द्यावापृथिव्योः साधारणः तयो रसादानात् “वत्सः पुत्रः “अबन्धनः अप्रतिबद्धगतिः अनालम्बनः एकः सन् “चरति नभसि गच्छति । “ता तानीमानि "मित्रस्य “वरुणस्य मित्रावरुणयोः "व्रतानि कर्माणि ॥ शयुः । ‘शीङ् स्वप्ने '। भृमृशीतॄचरि' इत्यादिना उप्रत्ययः । द्विमाता । ‘नद्यृतश्च ' इति प्राप्तस्य कपः ‘ ऋतश्छन्दसि' इति प्रतिषेधः ॥
____________
द्विऽमाता । होता । विदथेषु । सम्ऽराट् । अनु । अग्रम् । चरति । क्षेति । बुध्नः ।
प्र । रण्यानि । रण्यऽवाचः । भरन्ते । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥७
“द्विमाता द्वयोर्लोकयोर्निर्माता “विदथेषु यज्ञेषु “होता देवानामाह्वाता “सम्राट् यज्ञेषु सम्यक् राजमानोऽग्निः “अन्वग्रम् अग्रे दिवि “चरति सूर्यभूतस्तत्र वर्तते । “बुध्नः सर्वस्य कर्मणो मूलभूतः सन् “क्षेति भूमौ वसति । यद्वा । अग्रं मुख्यं भागं चरति भक्षयति। क्षेति यज्वनां गृहेषु निवसति । यद्वा । बुध्नः प्रतिष्ठा अन्तेभागी स्विष्टकृद्रूपेण । ‘ प्रतिष्ठा वै स्विष्टकृत्' इति श्रुतेः । किंच “रण्यवाचः रमणीयवाचः स्तोतारः “रण्यानि रमणीयानि स्तोत्राणि “प्र “भरन्ते प्रकर्षेण कुर्वन्ति । तदिदं देवानामैश्वर्यम् ॥ चरति । 'वादिलोपे° ' इति न निघातः ॥
____________
शूरस्यऽइव । युध्यतः । अन्तमस्य । प्रतीचीनम् । ददृशे । विश्वम् । आऽयत् ।
अन्तः । मतिः । चरति । निःऽसिधम् । गोः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥८।
“अन्तमस्य समीपे वर्तमानस्य दावाग्नेः "आयत् अभिमुखमागच्छत् “विश्वं भूतजातं "प्रतीचीनं पराङ्मुखं “ददृशे दृश्यते । तत्र दृष्टान्तः । “शूरस्येव । यथा “युध्यतः युद्धं कुर्वाणस्य शूरस्य समर्थस्य राज्ञः अभिमुखमागच्छत् परबलं पराङ्मुखं दृश्यते तद्वत् । “मतिः सर्वैर्ज्ञायमानः सोऽग्निः “गोः उदकस्य “निष्षिधं हिंसिकां दीप्तिम् “अन्तः “चरति अन्तर्धारयति ॥ युध्यतः । ‘ युध संप्रहारे'। दिवादिः । तस्य शतरि रूपम् । अन्तमस्य । अन्तशब्दात् ‘ अत इनिठनौ ' इति ठन् । अतिशयेनान्तिकः इत्यर्थें तमप् । ‘ तमे तादेश्च' इति तादिलोपः । नित्त्वादाद्युदात्तः । प्रतीचीनम् । प्रतिपूर्वस्याञ्चतेः क्विन् । तस्मात् “ विभाषाञ्चेरदिक्स्त्रियाम्' इति खः । ईनादेशः । प्रत्ययस्वरः । आयत् । “या प्रापणे ' इत्यस्याङ्पूर्वस्य शतरि रूपम् ; आङ्पूर्वस्य • अय पय गतौ ' इत्यस्य शतरि रूपं वेति व्युत्पत्त्यनवधारणादनवग्रहः ॥
____________
नि । वेवेति । पलितः । दूतः । आसु । अन्तः । महान् । चरति । रोचनेन ।
वपूंषि । बिभ्रत् । अभि । नः । वि । चष्टे । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥९।
“पलितः पालयिता पूर्णो वा देवानां “दूतः अग्निः “आसु ओषधीषु “नि “वेवेति नितरां व्याप्य वर्तते । 'महान् सोऽग्निः “रोंचनेन सूर्येण सह “अन्तः रोदस्योर्मध्ये “चरति । “वपूंषि नानाविधानि रूपाणि "बिभ्रत् सोऽग्निः “नः अस्मान् यष्टॄन् “अभि “वि “चष्टे विशेषेणानुग्रहदृष्ट्या पश्यति ॥ वेवेति । वी गत्यादिषु । यङ्लुकि ईडभावे रूपम् । रोचनेन । सहार्थे तृतीया । बिभ्रत् ।। डुभृञ् धारणपोषणयोः' इत्यस्य शतरि रूपम् । अभ्यस्तस्वरः ॥
_________________
विष्णुः । गोपाः । परमम् । पाति । पाथः । प्रिया । धामानि । अमृता । दधानः ।
अग्निः । ता । विश्वा । भुवनानि । वेद । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१०
“विष्णुः व्याप्तः “गोपाः सर्वस्य गोपायिता “प्रिया प्रियतमानि “अमृता क्षयरहितानि “धामानि तेजांसि “दधानः सोऽग्निः “परमं “पाथः स्थानं “पाति रक्षति । यद्वा । धामानि लोकधारकाणि अमृता उदकानि दधानः सन् परमं पाथः उदकस्य स्थानमन्तरिक्षं पाति । सः “अग्निः “ता तानि “विश्वा सर्वाणि “भुवनानि भूतजातानि “वेद जानाति ॥ गोपाः । गोपायतेः क्विपि अतोलोपयलोपौ । अग्निष्टा इत्यत्र सहितायां ‘ युष्मत्तत्ततक्षुःष्वन्तःपादम्' इति षत्वम् ॥ ॥ २९ ॥
____________
नाना । चक्राते इति । यम्या । वपूंषि । तयोः । अन्यत् । रोचते । कृष्णम् । अन्यत् ।
श्यावी । च । यत् । अरुषी । च । स्वसारौ । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥११
"यम्या यमरूपे मिथुनभूते अहश्च रात्रिश्चेत्येते “नाना नानाविधानि "वपूंषि शुक्लकृष्णादीनि रूपाणि "चक्राते कुरुतः । “श्यावी कृष्णवर्णा “अरुषी शुक्लतया आरोचमाना “यत् ये परस्परं “स्वसारौ भवतः “तयोः मध्ये “अन्यत् अर्जुनमहः “रोचते किरणसंबन्धाद्दीप्यते । “अन्यत् रात्रिलक्षणं “कृष्णं तमःसंबन्धात् कृष्णवर्णमाभाति ॥ यम्या । सुपो डादेशः । रोचते । ‘ एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम्' इति न निघातः ॥
___________
माता । च । यत्र । दुहिता । च । धेनू इति । सबर्दुघे इति सबःऽदुघे । धापयेते इति । समीची इति सम्ऽईची ।
ऋतस्य । ते इति । सदसि । ईळे । अन्तः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१२
"माता सर्वेषां निर्मातृत्वान्माता पृथिवी “च “दुहिता दूरे निहिता द्यौः च । 'दुहिता दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा ' (निरु. ३. ४ ) इति यास्कः । एते "सबर्दुघे सबरः स्वीयस्य क्षीररूपरसस्य दोग्ध्र्यौ अत एव “धेनू जगतः प्रीणयित्र्यौ ते द्यावापृथिव्यौ “यत्र अन्तरिक्षे “समीची परस्परं संगते सत्यौ “धापयेते स्वकीयं रसमन्योन्यं पाययेते “ऋतस्य उदकस्य “सदसि स्थानभूते तस्मिन्नन्तरिक्षे “अन्तः स्थिते द्यावापृथिव्यौ “ईळे अहं स्तौमि । यद्वा । वृष्टिलक्षणं रसं द्यौः पृथिवीं धापयते आहुतिलक्षणं रसं द्यां पृथिवीति एवमन्योन्यं माता च दुहिता च भवतः । ऋतस्य सदसि स्थाने यज्ञसदने स्थितोऽहं ते उभे स्तौमि ॥ सबर्दुघे । “ सबःशब्दः क्षीरवाची' इति संप्रदायविद आहुः । तस्मिन्नुपपदे ‘ दुह प्रपूरणे' इत्यस्माद्धातोः ‘ दुहः कब्घश्च ' इति कप्प्रत्ययो घश्चान्तादेशः । प्रत्ययस्य पित्त्वादनुदात्तत्वे धातुस्वरः । धापयेते । धेट् पाने ' इत्यस्य ण्यन्तस्य लटि निगरणचलनार्थेभ्यश्च' इति परस्मैपदे प्राप्ते ‘पादिषु धेट उपसंख्यानम् ' इत्यात्मनेपदम् । यद्वृत्तयोगादनिघातः ॥ ।
___________________
अन्यस्याः । वत्सम् । रिहती । मिमाय । कया । भुवा । नि । दधे । धेनुः । ऊधः ।
ऋतस्य । सा । पयसा । अपिन्वत । इळा । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१३
“अन्यस्याः पृथिव्याः “वत्सम् अग्निं “रिहती उदकधारारूपया जिह्वया लिहती द्यौः “मिमाय मेघद्वारा ध्वनिं करोति । “धेनुः प्रीणयित्री सा द्यौः "कया जलवर्जितया “भुवा तत्रत्यं जलमादाय स्वकीयम् “ऊधः मेघरूपं “नि “दधे उदकेन निहितमकरोत् । “सा जलवर्जिता “इळा पृथिवी “ऋतस्य सत्यभूतस्यादिस्यस्य “पयसा उदकेन "अपिन्वत वर्षकाले सिक्ता भवति । आदित्याज्जायते वृष्टिः' (मनु. ३.७६ ) इति स्मृतेः ॥ रिहती । ‘ लिह आस्वादने' इत्यस्य शतरि रूपम् । ‘शतुरनुमः' इति ङीप उदात्तत्वम् । अपिन्वत । ' पिवि सेचने' । मुचादिरात्मनेपदी । निघातः ॥
________________
पद्या । वस्ते । पुरुऽरूपा । वपूंषि । ऊर्ध्वा । तस्थौ । त्रिऽअविम् । रेरिहाणा ।
ऋतस्य । सद्म । वि । चरामि । विद्वान् । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१४
"पद्या । जगत्स्रष्टुः परमेश्वरस्य पद्भ्यां जातत्वात् पद्या भूमिः । तथा च मन्त्रवर्णः -- ‘पद्यांया भूमिः' (ऋ. सं. १०.९०.१४) इति । यद्वा पादसंचारे साधुः पद्या भूमिः “पुरुरूपा नानाविधस्वरूपाणि “वपूंषि स्थावरजङ्गमात्मकानि रूपाणि "वस्ते आच्छादयति । सैषा भूमिः “ऊर्ध्वा उत्तरवेद्यात्मनोन्नता सती स्वसारभूतेन हविषा “त्र्यविम् । सार्धसंवत्सरवयस्को वत्सस्त्र्यविरित्युच्यते । तस्प्रमाणमादित्यम्। त्रीन् लोकान् अवति स्वतेजसा व्याप्नोतीति त्र्यविरिति वा । “रेरिहाणा लिहती “तस्थौ । “ऋतस्य सत्यभूतस्यादित्यस्य "सद्म स्थानं “विद्वान् जानानोऽहं “वि “चरामि हविर्भिः तमादित्यं परिचरामि ॥ पद्या । पादशब्दात् ' भवे छन्दसि' इति यत् । “पद्यत्यतदर्थे ' ( पा. सू. ६.३.५३ ) इति पादस्य पद्भावः । यद्वा । तत्र साधुः' इति यत् । यतोऽनावः' इति
_______________
पदे इवेति पदेऽइव । निहिते इति निऽहिते । दस्मे । अन्तरिति । तयोः । अन्यत् । गुह्यम् । आविः । अन्यत् ।
सध्रीचीना । पथ्या । सा । विषूची । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१५
“पदेइव । पद्येते ज्ञायेते तत्तदसाधारणलिङ्गेनेति पदे । अहश्च रात्रिश्चेत्येते "दस्मे सर्वैर्दर्शनीये ते उभे “अन्तः नभसि मध्ये “निहिते स्थापिते इव वर्तेते । “तयोः अहोरात्रयोः “अन्यत् रात्रिलक्षणं “गुह्यम् अप्रकाशमानतया गूढमिवास्ते । “अन्यत् अहः “आविः सूर्यप्रकाशेन प्रकटं भवति । “सधीचीना अहोरात्रयोः परस्परमेलनरूपा “पथ्या मार्गः । काल इत्यर्थः। “सा “विषूची । पुण्यकृतोऽपुण्यकृतश्च प्राप्नोतीति विषूची भवति । सर्वे जना अहोरात्रयोर्वर्तन्ते । यद्वा । पदेइव देवमनुष्यादीनां स्थानभूते द्यावापृथिव्यौ अन्तरन्तरिक्षे निहिते वर्तेते । तयोरन्यत् अन्या द्यौः गुह्यमस्माभिः अदृश्यमानतया गूढा वर्तते । अन्या पृथिवी आविः सर्वैः दृश्यमानत्वेन प्रकटा भवति। सध्रीचीनेति पूर्ववत् ॥ सध्रीचीना । सहपूर्वादञ्चतेः क्विन् । 'सहस्य सध्रिः' इति सध्र्यादेशः । ‘विभाषाञ्चेरदिक्स्त्रियाम्' इति स्वः(स्वरः) ॥ ॥ ३० ॥
__________
आ । धेनवः । धुनयन्ताम् । अशिश्वीः । सबःऽदुघाः । शशयाः । अप्रऽदुग्धाः ।
नव्याःऽनव्याः । युवतयः । भवन्तीः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१६
“धेनवः वृष्टिद्वारा सर्वस्य जगतः प्रीणयित्र्यः “अशिश्वीः शिशुरहिताः । यद्वा शिशवो न भवन्तीत्यशिश्वीः । “शशयाः नभसि शयाना वर्तमानाः केनापि "अप्रदुग्धाः अक्षीणरसाः "सबर्दुघाः उदकलक्षणस्य क्षीरस्य दोग्ध्र्यः “युवतयः परस्परमिश्रणोपेताः “नव्यानव्याः अतिशयेन नूतनाः “भवन्तीः दिशो मेघा वा “आ “धुनयन्ताम् आदुहन्तु । मेघपक्षे अशिश्वीर्भवन्तीरित्यत्र लिङ्गव्यत्ययः ॥
यत् । अन्यासु । वृषभः । रोरवीति । सः । अन्यस्मिन् । यूथे । नि । दधाति । रेतः ।
सः । हि । क्षपाऽवान् । सः । भगः । सः । राजा । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१७
“वृषभः अपां वर्षकः “यत् यः पर्जन्यात्मेन्द्रः “अन्यासु दिक्षु “रोरवीति मेघद्वारा भृशं शब्दं करोति “सः पर्जन्य इन्द्रः "अन्यस्मिन् “यूथे दिशां वृन्दे “रेतः उदकं “नि “दधाति तत्र वर्षति । लोके' हि वृषभः कासुचिद्गोषु रेतःसेकार्थं रवं करोत्यन्यस्मिन् गोयूथे रेतः सिञ्चति तद्वत् । “सः इन्द्रः “क्षपावान् । क्षिपति शत्रूनुदकं वेति क्षेपणवान् । यद्वा । क्षपा रात्रिः ।' तथा रात्रिपर्याययागानां स्तोत्राणां भागभूता या रात्रिः सोच्यते । तद्वान् । “सः “भगः सर्वैर्भजनीयः । “सः "राजा “हि तत्तत्कर्मानुरूपफलप्रदानेन सर्वेषां राजा खलु ॥ रोरवीति । ‘रु शब्दे' इत्यस्य यङ्लुगन्तस्य लटि रूपम् । एकान्याभ्यां समर्थाभ्याम्' इति प्रथमस्य न निघातः । यूथे । ‘यु मिश्रणे'। ‘ तिथपृष्ठगूथयूथप्रोथाः' ( उ. सू. २. १६९ ) इति थक्प्रत्ययान्तत्वेन निपातनाद्दीर्घः । रेतः । ‘रीङ् क्षरणे' इत्यस्मात् ‘स्रुरीभ्यां तुट् च' इत्यसुन्प्रत्ययस्तुडागमश्च । नित्त्वादाद्युदात्तः ॥
वी॒रस्य॒ नु स्वश्व्यं॑ जनास॒ः प्र नु वो॑चाम वि॒दुर॑स्य दे॒वाः ।
षो॒ळ्हा यु॒क्ताः पञ्च॑प॒ञ्चा व॑हन्ति म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥१८
वी॒रस्य॑ । नु । सु॒ऽअश्व्य॑म् । ज॒ना॒सः॒ । प्र । नु । वो॒चा॒म॒ । वि॒दुः । अ॒स्य॒ । दे॒वाः ।
षो॒ळ्हा । यु॒क्ताः । पञ्च॑ऽपञ्च । आ । व॒ह॒न्ति॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥१८
वीरस्य । नु । सुऽअश्व्यम् । जनासः । प्र । नु । वोचाम । विदुः । अस्य । देवाः ।
षोळ्हा । युक्ताः । पञ्चऽपञ्च । आ । वहन्ति । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१८
हे “जनासः जनाः “वीरस्य शूरस्येन्द्रस्य “स्वश्व्यं शोभनाश्वोपेतत्वं “नु क्षिप्रं “प्र “वोचाम प्रकर्षेण वदाम । तथा “देवाः अपि “अस्य इन्द्रस्य स्वश्वत्वं “नु क्षिप्रं “विदुः जानन्ति । किं तत्स्वश्वत्वम् । तदुच्यते ।
“षोळ्हा मासाना द्वन्द्वयोगकाले षोढा दृश्यमाना ऋतवोऽश्वा निरूप्यन्ते । ते च षट्संख्याका ऋतवो हेमन्तशिशिरयोः समासेन “पञ्चपञ्च “युक्ताः सन्तः कालात्मकमिन्द्रम् “आ “वहन्ति । तदिदम् इन्द्रस्य स्वश्वत्वं यदृतुभिरूढत्वम् ॥ षोळ्हा । षष्शब्दात् ‘संख्याया विधार्थे धा ' इति धाप्रत्ययः । षष उत्वं दतृदशधासूत्तरपदादेः ष्टुत्वं च' (पा.सू. ६.३. १०९. ३-४) इत्युत्वं ष्टुत्वं च । प्रत्ययस्वरः ॥
त्वष्ट्रे पशौ हविषोऽनुवाक्या देवस्त्वष्टा ' इत्येषा । सूत्रितं च- देवस्त्वष्टा सविता विश्वरूपो देव त्वष्टर्यद्ध चारुत्वमानट् ' ( आश्व. श्रौ. ३.८) इति ॥
दे॒वस्त्वष्टा॑ सवि॒ता वि॒श्वरू॑पः पु॒पोष॑ प्र॒जाः पु॑रु॒धा ज॑जान ।
इ॒मा च॒ विश्वा॒ भुव॑नान्यस्य म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥१९
दे॒वः । त्वष्टा॑ । स॒वि॒ता । वि॒श्वऽरू॑पः । पु॒पोष॑ । प्र॒ऽजाः । पु॒रु॒धा । ज॒जा॒न॒ ।
इ॒मा । च॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । अ॒स्य॒ । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥१९
देवः । त्वष्टा । सविता । विश्वऽरूपः । पुपोष । प्रऽजाः । पुरुधा । जजान ।
इमा । च । विश्वा । भुवनानि । अस्य । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥१९
“सविता अन्तर्यामितया सर्वस्य प्रेरकः “विश्वरूपः नानाविधरूपः “त्वष्टा त्वष्टृनामकः “देवः “प्रजाः “पुरुधा बहुधा “जजान जनयति । ताश्च “पुपोष पोषयति । “इमा इमानि “विश्वा विश्वानि सर्वाणि “भुवनानि भूतजातानि “च "अस्य त्वष्टुः संबन्धीनि ॥ विश्वरूपः । ‘ बहुव्रीहौ विश्वं संज्ञायाम्' इति पूर्वपदान्तोदात्तत्वम् ॥
म॒ही समै॑रच्च॒म्वा॑ समी॒ची उ॒भे ते अ॑स्य॒ वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्टे ।
शृ॒ण्वे वी॒रो वि॒न्दमा॑नो॒ वसू॑नि म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म् ॥२०।
म॒ही इति॑ । सम् । ऐ॒र॒त् । च॒म्वा॑ । स॒मी॒ची इति॑ स॒म्ऽई॒ची । उ॒भे इति॑ । ते इति॑ । अ॒स्य॒ । वसु॑ना । न्यृ॑ष्टे॒ इति॒ निऽऋ॑ष्टे ।
शृ॒ण्वे । वी॒रः । वि॒न्दमा॑नः । वसू॑नि । म॒हत् । दे॒वाना॑म् । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् । एक॑म् ॥२०
मही इति । सम् । ऐरत् । चम्वा । समीची इति सम्ऽईची । उभे इति । ते इति । अस्य । वसुना । न्यृष्टे इति निऽऋष्टे ।
शृण्वे । वीरः । विन्दमानः । वसूनि । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२०
“मही महत्यौ "समीची परस्परं संगते “चम्वा । चमन्त्यदन्त्यनयोः देवमनुष्याः इति चम्वौ। यद्वा । चम्येते अद्येते भूतजातैरिति चम्वौ द्यावापृथिव्यौ । “समैरत् इन्द्रः प्रजापश्वादिभिः सम्यगयोजयत् । “ते “उभे द्यावापृथिव्यौ “अस्य इन्द्रस्य “वसुना तेजसा धनेन वा “न्यृष्टे नितरां व्याप्ते भवतः । “वीरः समर्थः स इन्द्रः “वसूनि शत्रूनभिभूय तदीयानि धनानि "विन्दमानः लभमानः सन् “शृण्वे सर्वैः श्रूयते ।
‘तवेदिदमभितश्चेकिते वसु' (ऋ. सं. १.५३.३ ) इत्यादिषु दृष्टत्वात् ॥ ऐरत् । ‘ ईर गतौ ' इत्यस्य लङि रूपम् । न्यृष्टे । 'ऋषी गतौ ' । कर्मणि क्तः । ‘ गतिरनन्तरः' इति गतेः स्वरः । शृण्वे । ‘ श्रु श्रवणे' इत्यस्य व्यत्ययेन कर्मणि श्नुः । ‘ लोपस्त आत्मनेपदेषु ' इति तलोपः । विन्दमानः । ' विद्लृ लाभे ' इत्यस्य लटि शानचि रूपम् । तस्य लसार्वधातुकस्वरे धातुस्वरः ॥
_________
इमाम् । च । नः । पृथिवीम् । विश्वऽधायाः । उप । क्षेति । हितऽमित्रः । न । राजा ।
पुरःऽसदः । शर्मऽसदः । न । वीराः । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२१
“विश्वधायाः विश्वस्य धाता सर्वान्नो वा “नः अस्माकं “राजा इन्द्रः “इमां “पृथिवीम् अन्तरिक्षं “च “उप तयोः समीपे “क्षेति निवसति । तत्र दृष्टान्तः । “हितमित्रो “न । यथा कस्यचित् हितोपदेष्टा सुहृत् समीपे निवसति तद्वत् । “वीराः समर्था युद्धसहाया मरुतः “पुरःसदः युद्धार्थं पुरतो निश्चयेन गन्तार इन्द्रस्य “शर्मसदो “न । नश्चार्थे । शर्मणि गृहे सीदन्तश्च भवन्ति । यत्र यत्रासौ तत्र तत्र संनिधिं कुर्वाणा इत्यर्थः ॥ क्षेति। ‘ क्षि निवासगत्योः' इत्यस्य लटि ‘ बहुलं छन्दसि ' इति विकरणस्य लुक् । निघातः ॥
________
निःऽसिध्वरीः । ते । ओषधीः । उत । आपः । रयिम् । ते । इन्द्र । पृथिवी । बिभर्ति ।
सखायः । ते । वामऽभाजः । स्याम । महत् । देवानाम् । असुरऽत्वम् । एकम् ॥२२
हे पर्जन्यात्मक “इन्द्र “ओषधीः ओषधयः “ते “निष्षिध्वरीः निष्षिध्वर्यो नितरां त्वत्कर्तृकसिद्धिमत्यः । "उत अपि च “आपः त्वत्तो निःसृताः । “पृथिवी “ते तव भोगयोग्यं “रयिं धनं “बिभर्ति । पुरू वसूनि पृथिवी बिभर्ति' (ऋ. सं. ३.५१.५) इति हि निगमः । ततः “ते तव “सखायः हविष्प्रदानेनोपकारकाः स्तोतारः वयं “वामभाजः "स्याम सर्वे वननीयधनभागिनो भवेम । तदेतद्देवानां महदैश्वर्यम् ॥ निष्षिध्वरीः । ‘ षिधु संराद्धौ । संपदादिलक्षणो भावे क्विप् । तदस्यास्ति इत्यर्थे 'छन्दसीवनिपौ° ' इति वनिप् । वनो र च' इति ङीप् रेफश्च । निसा सह समासः । निसः सकारं छान्दसत्वादनादृत्य • उपसर्गात्सुनोति' इत्यादिना षत्वम् । डीपः पित्त्वादनुदात्तत्वे धातुस्वरः । बिभर्ति । ‘ डुभृञ् धारणपोषणयोः' इत्यस्य लटि ‘ भृञामित्' इत्यभ्यासस्येत्वम् । निघातः । वामभाजः । ‘ भज सेवायाम् ' । ‘ भजो ण्विः ' ( पा. सू. ३:२:६२ ) इति ण्विः । कृदुत्तरपदस्वरः ॥ ॥ ३१ ॥
वेदार्थस्य प्रकाशेन तमो हार्दं निवारयन् ।पुमर्थांश्चतुरो देयाद्विद्यातीर्थमहेश्वरः ॥
________________
इति श्रीमद्राजाधिराजपरमेश्वरवैदिकमार्गप्रवर्तकश्रीवीरबुक्कभूपालसाम्राज्यधुरंधरेण सायणाचार्येण विरचिते माधवीये वेदार्थप्रकाशे ऋक्संहिताभाष्ये तृतीयाष्टके तृतीयोऽध्यायः समाप्तः ॥
तद्देवस्य सवितुर्वार्यं महद्वृणीमहे असुरस्य प्रचेतसः।
छर्दिर्येन दाशुषे यच्छति त्मना तन्नो महाँ उदयान्देवो अक्तुभिः ॥१॥
____________
वेदों में असुर का अर्थ -
आदिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छियो वसानश्चरति स्वरोचि:।
महत् तद् वृष्णो असुरस्य८८विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ।।४।ऋ०३/३८/४
सभी मेधावी जनों ने रथ में विराजमान इन्द्र को सजाया।अपने वतेज से ही तेजवान इन्द्र प्रकाशित हुए सुस्थित है ।
कामनाओं की वर्षा करने वाले इन्द्र विचित्र कीर्ति वाले । ये विश्व रूप को धारण करते हैं तथा अमृत से व्याप्त हैं ।
इमे भोज अंगिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीरा:
विश्वमित्राय ददतो मघानि सहस्र सावे प्र तिरन्त आयु:। ७।।. (ऋग्वेद ३/५३/७ ।)
हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।
उषसा पूर्वा अध यद्व्यूषुर्महद वि जज्ञे अक्षरं पदे गो:
व्रता देवानामुप नु प्रभूषन् महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।ऋ० ३/५५/१
तथा मोषुणो अन्न जुहुरन्त देवा मा पूर्वज अग्ने पितर :पदज्ञा ।
पुराण्यो: सझ्ननो : केतुरन्तर्महद् देवानाम् असुरत्वम् एकम् ।।२।ऋ० ३/५५/२/
हे अग्ने देव गण हमारा विनाश न करें देवत्व प्राप्त पितर गण हमको न मारे । यज्ञ की प्रेरणा देने वाले सूर्य आकाश पृथ्वी के मध्य उदित होते हैं । वे हमारी हिंसा न करें ।उन सब महान देवताओं का बल एक ही है ।
तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस:
(ऋग्वेद - ४/५३/१)
हम उस प्रचेतस असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है । उसका ही वरण करते हैं ।
अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने ! तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञान वान -बल वान तथा ऐश्वर्य वान हो ।
____________
तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।
महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर देवों को पीड़ित करने लगे ।
_________
न ते सखा सख्यं वष्ट्येतत्सलक्ष्मा यद्विषुरूपा भवाति ।
महस्पुत्रासो असुरस्य वीरा दिवो धर्तार उर्विया परि ख्यन् ॥२॥
ऋग्वेद मण्डल दशम का दशवाँ सूक्त (ऋग्वेद)-१०/१०/ २)
पद-पाठ--न । ते । सखा । सख्यम् । वष्टि । एतत् । सऽलक्ष्मा । यत् । विषुऽरूपा । भवाति ।
महः । पुत्रासः । असुरस्य । वीराः । दिवः । धर्तारः । उर्विया । परि । ख्यन् ॥२
यम =आत्मानं परोक्षीकृत्य यमीं प्रत्युवाच । हे यमि “ते तव “सखा गर्भवासलक्षणेन सखीभूतो यमः “एतत् ईदृशं त्वयोक्तं स्त्रीपुरुषलक्षणं "सख्यं “न “वष्टि =न कामयते । “यत् यस्मात् =कारणात् यमी “सलक्ष्मा समानयोनित्वलक्षणा “विषुरूपा भगिनीत्वाद्विषमरूपा “भवाति भवति । तस्मान्न वष्टीत्यर्थः । इदानीं 'तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान्' इत्यस्य प्रतिवचनमुच्यते ।
______________
(“महः =महतः “असुरस्य =प्राणवतः प्रज्ञावतो वा प्रजापतेः )
“पुत्रासः पुत्रभूताः “वीराः । ‘वीरो वीरयत्यमित्रान् वेतेर्वा स्याद्गतिकर्मणो वीरयतेर्वा' (निरु. १. ७) इति निरुक्तम् । शत्रूणां विविधमीरयितारः “धर्तारः= धारयितारः “दिवः द्युलोकस्य । प्रदर्शनमेतत् । द्युप्रभृतीनां लोकानामित्यर्थः॥
ऑल्डेन बर्ग गोल्डनर तथा ग्रिफिथ जैसे पाश्चात्य वैदिक साहित्य के अध्येता हो अथवा डॉ ब्रजेश्वर वर्मा तथा डॉ पुसालकर जैसे भारतीय विश्लेषक भी कृृष्ण के विषय में भ्रान्तचित और किंकर्तव्य विमूढ़ ही हैं । डॉ पुसालकर अपनी पुस्तक " स्टडीज इन दि एपिक्स ऐण्ड पुराणस्" पदटिप्पणी पृष्ठ ९० पर लिखते हैं कि " ऋग्वैदिक कृष्ण और पौराणिक कृष्ण की एक रूपता पौराणिक परम्परा से प्रमाणित नहीं है। इसका कारण बताते हुए वह कहते हैं कि पुराणों में अथवा अन्यत्र लौकिक महाकाव्यों में कृष्ण को कहीं मन्त्रदृष्टा नहीं कहा गया और कृष्ण का सम्बन्ध आंगिरस् से भी नहीं हैं"।
वास्तव में पुलासकर के उपर्युक्त कथन उनकी अल्प जानकारी के ही द्योतक हैं ।
तमिमं गुणसम्पन्नमार्यं च पितर गुरुम्।
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आर्त्विजी] यज्ञ करनेवाला । वह जिसका यज्ञ में वरण किया जाय । विशेष—ऋत्विजों की संख्या १६ होती है जिसमें चार मुख्य हैं—(क) होता (ऋग्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ख) अध्वर्यु (यजुर्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ग) उद्गाता (सामवेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (घ) ब्रह्मा (चार वेदों का जाननेवाला और पूरे कर्म का निरीक्षण करनेवाला । इनके अतिरिक्त बारह और ऋत्विजों के नाम ये हैं— मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणच्छंसी, प्रस्तोता, अच्छावाक्, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रतिहर्त्ता, ग्रवस्तुत्, उन्नेता, पोता और सुब्रह्मण्य ।
वेदव्यासः सभापर्व-41अध्याय
शिशुपालं सान्त्वयन्तं युधिष्ठिरं निवार्य भीष्मेण श्रीकृष्णमाहात्म्यकथनम् ।। 1।।
वैशम्पायन उवाच। 2-41-
ततो युधिष्ठिरो राजा शिशुपालमुपाद्रवत्।
उवाच चैनं मधुरं सान्त्वपूर्वमिदं वचः।। 2-41-1a
2-41-1b
नेदं युक्तं महीपाल यादृशं वै त्वमुक्तवान्।
अधर्मश्च परो राजन्पारुष्यं च निरर्थकम्।। 2-41-2a
2-41-2b
न हि धर्मं परं जातु नावबुध्येत पार्थिवः।
भीष्मः शान्तनवस्त्वेनं मावमंस्थास्त्वमन्यथा।। 2-41-3a
2-41-3b
पश्य चैतान्महीपालांस्त्वत्तो वृद्धतरान्बहून्।
मृष्यन्ते चार्हणां कृष्णे तद्वत्वं क्षन्तुमर्हसि।। 2-41-4a
2-41-4b
वेद तत्त्वेन कृष्णं हि भीष्णश्चेदिपते भृशम्।
न ह्येनं त्वं तथा यथैनं वेद कौरवः।। 2-41-5a
2-41-5b
भीष्म उवाच। 2-41-6x
नास्मै देयो ह्यनुनयो नायमर्हति सान्त्वनम्।
लोकवृद्धतमे कृष्णे योऽर्हणां नाभिमन्यते।। 2-41-6a
2-41-6b
क्षत्रियः क्षत्रियं जित्वा रणे रणकृतां वरः।
यो मुञ्चति वशे कृत्वा गुरुर्भवति तस्य सः।। 2-41-7a
2-41-7b
अस्यां हि समितौ राज्ञामेकमप्यजितं युधि।
न पश्यामि महीपालं सात्वतीपुत्रतेजसा।। 2-41-8a
2-41-8b
न हि केवलमस्माकमयमर्च्यतमोऽच्युतः।
त्रयाणामपि लोकानामर्चनीयो महाभुजः।। 2-41-9a
2-41-9b
कृष्णेन हि जिता युद्धे बहवः क्षत्रियर्षभाः।
जगत्सर्वं च वार्ष्णेये निखिलेन प्रतिष्ठितम्।। 2-41-10a
2-41-10b
तस्मात्सत्स्वपि वृद्धेषु कृष्णमर्चाम नेतरान्।
एवं वक्तुं न चार्हस्त्वं मा तेऽभूद्बुद्धिरीदृशी।। 2-41-11a
2-41-11b
ज्ञानवृद्धा मया राजन्बहवः पर्युपासिताः।
`यस्य राजन्प्रभावज्ञाः पुरा सर्वे च रक्षिताः'।
तेषां कथयतां शौरेरहं गुणवतो गुणान्।। 2-41-12a
2-41-12b
2-41-12c
समागतानामश्रौषं बहून्बहुमतान्सताम्।
कर्माण्यपि च यान्यस्य जन्मप्रभृति धीमतः।। 2-41-13a
2-41-13b
बहृशः कथ्यमानानि नरैर्भूयः श्रुतानि मे।
न केवलं वयं कामाच्चेदिगज जनार्दनम्।। 2-41-14a
2-41-14b
न सम्बन्धं पुरस्कृत्य कृतार्थं वा कथञ्चन।
अर्चामहेऽर्चितं सद्भिर्भुवि भूतसुखावहम्।। 2-41-15a
2-41-15b
यशः शौर्यं जयं चास्य विज्ञायार्चां प्रयुञ्ज्महे
न च कश्चिदिहास्माभिः सुवालोप्यपरीक्षितः।। 2-41-16a
2-41-16b
गुणैर्वृद्धानतिक्रम्य हरिरर्च्यतमो मतः।
ज्ञानवृद्धो द्विजातीनां क्षत्रियाणां बलाधिकः।। 2-41-17a
2-41-17b
वैश्यानां धान्यधनवाञ्शूद्राणामेव जन्मतः।
पूज्यतायां च गोविन्दे हेतू द्वावपि संस्थितौ।। 2-41-18a
2-41-18b
वेदवेदाङ्गविज्ञानं बलं चाभ्यधिकं तथा।
नृणां लोके हि कोऽन्योस्ति विशिष्टः केशवादृते।। 2-41-19a
2-41-19b
दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्यं ह्रीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमा।
संनतिः श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताऽच्युते।। 2-41-20a
2-41-20b
तमिमं लोकसम्पन्नमाचार्यं पितरं गुरुम्।
अर्घ्यमर्चितमर्चामः सर्वे सङ्क्षन्तुमर्हथ।। 2-41-21a
2-41-21b
ऋत्विग्गुरुर्विवाह्यश्च स्नातको नृपतिः प्रियः।
सर्वमेतद्धृषीकेशस्तस्मादभ्यर्चितोऽच्युतः।। 2-41-22a
2-41-22b
कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः।
कृष्णस्य हि कृते विश्वमिदं भूतं चराचरम्।। 2-41-23a
2-41-23b
एष प्रकृतिरव्यक्ता कर्ता चैव सनातनः।
परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्मात्पूज्यतमोऽच्युतः।। 2-41-24a
2-41-24b
द्धिर्मनो महद्वायुस्तेजोऽभः खं मही च या।
चतुर्विधं च यद्भूतं सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम्।। 2-41-25a
2-41-25b
आदित्यश्चन्द्रमाश्चैव नक्षत्राणि ग्रहाश्च ये।
दिशश्च विदिशश्चैव सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम्।। 2-41-26a
2-41-26b
` एष रुद्रश्च सर्वात्मा ब्रह्मा चैव सनातनः।
अक्षरं क्षररूपेण मानुषत्वमुपागतः'।। 2-41-27a
2-41-27b
अग्निहोत्रमुखा वेदा गायत्री च्छन्दसां मुखम्।
राजा मुखं मनुष्याणां नदीनां सागरो मुखम्।। 2-41-28a
2-41-28b
नक्षत्राणां मुखं चन्द्र आदित्यस्तेजसां मुखम्।
पर्वतानां मुखं मेरुर्गरुडः पततां मुखम्।। 2-41-29a
2-41-29b
ऊर्ध्वं तिर्यगधश्चैव यावती जगतो गतिः।
सदेवकेषु लोकेषु भगवान्केशवो मुखम्।। 2-41-30a
2-41-30b
अयं तु पुरुषो बालः शिशुपालो न बुध्यते।
सर्वत्र सर्वदा कृष्णं तस्मादेवं प्रभाषते।। 2-41-31a
2-41-31b
यो हि धर्मं विचिनुयादुत्कृष्टं मतिमान्नरः।
स वै पश्येद्यथा धर्मं न तथा चेदिराडयम्।। 2-41-32a
2-41-32b
सवृद्धबालेष्वथवा पार्थिवेषु महात्मसु।
को नार्हं मन्यते कृष्णं को वाप्येनं न पूजयेत्।। 2-41-33a
2-41-33b
अथैनां दुष्कृतां पूजां शिशुपालो व्यवस्यति।
दुष्कृतायां यथान्यायं तथाऽयं कर्तुमर्हति।। 2-41-34a
2-41-34b
।। इति श्रीमन्महाभारते सभापर्वणि
अर्घाहरणपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।।
टिप्पणी
ऋग्वेद में एक मंत्रदृष्टा ऋषि कृष्ण का उल्लेख हुआ है।
सायण भाष्य में इन्हें अंगिरस कृष्ण कहा गया है -कृष्णो नामांगिरस ऋषिः।
ऋग्वेद में कृष्ण के विश्वक नामक पुत्र का उल्लेख हुआ है, जो ऋषि कृष्ण के साथ मंत्रदृष्टा ऋषि हैं -ऋग्वेद -8 /86 /3 ,
यह भी उल्लेख आता है कि अश्वनी कुमारों ने विश्वक के नष्ट पुत्र विष्णाप्व की रक्षा की थी और उसके पिता से मिलवाया था।
ऋग्वेद -1 /117 /7
___________________
तथा 1 /116 /23 । कौषीतकि ब्राह्मण में घोर अंगिरस के साथ ही अंगिरस कृष्ण का भी उल्लेख किया गया है।
-कृष्णो ह तदङ्गिरसो ब्राह्मणान छन्दसिय तृतीयं सवनं ददर्श।
ऐतरेय आरण्यक में कृष्णहरित नामक उपदेशक का उल्लेख मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद् में वर्णित है की घोर अंगिरस नामक ऋषि ने देवकी पुत्र कृष्ण को दक्षिणा प्रधान यज्ञ की अपेक्षा अहिंसा प्रधान यज्ञ का प्रतिपादन किया है।
दान ,तप और सत्य को इसकी दक्षिणा कहा गया है -छान्दोग्य उपनिषद 3 /17 /4 । श्रीमद्भगवद्गीता में भी ज्ञानमय यज्ञ को उत्तम कहा गया है गीता -4 /33 ।
श्रीमदभगवद्गीता और छान्दोग्य उपनिषद की तथ्य-साम्यता से यह सिद्ध होता है कि छान्दोग्य उपनिषद के देवकी पुत्र और गीता के प्रवचनकर्ता योगिराज कृष्ण एक ही हैं।
_________________
ऋग्वेद के मन्त्र 6 /9 /1
में कृष्ण के साथ अर्जुन का उल्लेख हुआ है -अहश्च कृष्णमहरर्जुनम च वि वर्तेते रजसि विद्याभिः
ऋग्वेद के मन्त्र 1 /10 /7
में गायों के साथ व्रज का उल्लेख है –गवामपव्रजम वृधि।
_____________________
ऋग्वेद की ऋचा 5 /52 /17 में यमुना के साथ गौ और राधा का उल्लेख है –
यमुनायामधि श्रुतमुद राधो गव्यं सृजे नि राधो आष्वयं सृजे।
______________________________________________
जैमिनीयं ब्राह्मणम्/काण्डम् ३/३८१-३८६
स त्रिवृता स्तोमेन गायत्रीम् अभ्यक्रन्दत्। ततो वसून् असृजताग्निमुखान्।
पञ्चदशेन स्तोमेन त्रिष्टुभम् अभ्यक्रन्दत्। ततो रुद्रान् असृजतेन्द्रमुखान्।
सप्तदशेन स्तोमेन जगतीम् अभ्यक्रन्दत्। तत आदित्यान् असृजत वरुणमुखान्।
एकविंशेन स्तोमेनानुष्टुभम् अभ्यक्रन्दत्। ततो विश्वान् देवान् असृजत विष्णुमुखान्।
___________________
त्रिणवेन स्तोमेन पंक्तिम् अभ्यक्रन्दत्। ततो मरुतो ऽसृजतेशानमुखान्। त्रयस्त्रिंशेन स्तोमेनातिछन्दसम् अभ्यक्रन्दत्। ततस् साध्यांश् चाप्त्यांश् चासृजत सवितृमुखान्। पञ्चविंशेन स्तोमेन बृहतीम् अभ्यक्रन्दत्। ततो गन्धर्वान् असृजत मित्रमुखान्। विराजम् अभ्यक्रन्दत्। ततो ऽप्सरसो ऽसृजत त्वष्टृमुखाः। ककुभम् अभ्यक्रन्दत्।
ततस् सर्पान् असृजताङ्गिरसोमुखान्। उष्णिहम् अभ्यक्रन्दत् । ततो ऽङ्गिरसो ऽसृजताथर्वमुखान्। अक्षरपंक्तिम् अभ्यक्रन्दत्। ततो ऽसुरान् असृजतासितमुखान्।
विष्टारपंक्तिम् अभ्यक्रन्दत्। ततः पितॄन् असृजत यममुखान्। द्विपदाम् अभ्यक्रन्दत्। ततो मनुष्यान् असृजत मृत्युमुखान्। एकपदाम् अभ्यक्रन्दत्। ततो वयांस्य् असृजत मृत्युमुखान्य् उ एव। अमितच्छन्दो ऽभ्यक्रन्दत्। ततः पशून् असृजत धातृमुखान्। स इदं सर्वं सृष्ट्वोर्ध्वं उदक्रामत्। सो ऽगच्छद् यत्रैनम् एतद् उपरि वेदयन्ते॥3.381॥
_______________________________________
तम् अस्यां प्राच्यां दिशि वसवो ऽन्वैच्छन्न् अग्निमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् अर्चिषो रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्यां दक्षिणायां दिशि रुद्रा अन्वैच्छन्न् इन्द्रमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् आदित्यस्य रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्यां प्रतीच्यां दिश्य् आदित्या अन्वैच्छन् वरुणमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यच् चन्द्रमसो रूपं तत्। तद् एवास्य ते उपासते। तम् अस्याम् उदीच्यां दिशि विश्वे देवा अन्वैच्छन् विष्णुमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् विद्युतो रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्याम् ऊर्ध्वायां दिशि मरुतो ऽन्वैच्छन्न् ईशानमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् श्वेतं रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् एतस्मिन् परे लोके साध्याश् चाप्त्याश् चान्वैच्छन् सवितृमुखाः।
__________________________________
ते ऽन्विन्दन् यत् कृष्णं रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्मिन्न् एवान्तरदेशे गन्धर्वा अन्वैच्छन् मित्रमुखाः ते ऽन्वविन्दन् यत् सुवर्णस्य हिरण्यस्य रूपं तत्।
तद् एवास्य त उपासते। तम् अस्मिन्न् एवान्तरदेशे ऽप्सरसो ऽन्वैच्छंस् त्वष्टृमुखाः। ता अन्वविन्दन् यद् रजतस्य हिरण्यस्य रूपं तत्। तद् एवास्य ता उपासते। तं सर्पा अन्वैच्छन्न् अङ्गिरोमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यन् मधुनो रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् अङ्गिरसो ऽन्वैच्छन्न् अथर्वमुखाः। ते ऽन्विन्दन् यद् धुतस्य रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तम् असुरा अन्वैच्छन्न् असितमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् सुरायै रूपं तत्। तद् एवास्य ते उपासते॥3.382॥
तस्मात् ते पराभूताः। ते ह्य् अस्य पापिष्ठम् उपासते। तं पितरः पितृलोके ऽन्वैच्छन् यममुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यद् अपां रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तं मनुष्या अन्वैच्छन् मृत्युमुखाः। ते ऽन्वविन्दन् यत् क्षीरोदनस्य रूपं तत्। तद् एवास्य त उपासते। तद् एतद् ध वा एतद् अग्रे ऽन्नस्य रूपम् आस यत् क्षीरौदनः। तस्येयं विकृतिर् यद् इदं मनुष्या उपासते। तं वयांस्य् अन्वैच्छन् मृत्युमुखान्य् उ एव । तान्य् अन्विन्दन् हिरण्यपक्षश् शकुन इति। तत् तद् एवास्य तान्य् उपासते। तं पशवो ऽन्वैच्छन् धातृमुखाः।
ते ऽन्वविन्दन् हिरण्यशृङ्गो हिरण्यशफः कृष्ण ऋषभ इति। तत् तद् एवास्य त उपासते। तद् एतद् ध वा एतस्यै देवतायै सात्ययज्ञयो रूपम् उपासते हिरण्यशृङ्गो हिरण्यशफः कृष्ण ऋषभ इति।
स य एतद् एवं वेद ऋषभ एव स्वानां भवति। अथो यो ऽयं तपति - ॥3.383॥
- सो ऽस्याम् ऊर्ध्वायां दिश्य् अन्वैच्छत्। तम् एतैस् सर्वै रूपैस् सहासीनम् अन्वविन्दत्। तान्य् एतस्मा एव सर्वाणि रूपाणि प्रायच्छत्। तद् यद् इदम् इह कल्याणं रूपम् आजायते। यद् एवैष प्रयच्छति तद् इदम् इहाजायते। स यद् भूर् भुव स्वर् इति व्याहरत् त एवेमे त्रयो लोका अभवन्न् उपोदक ऋतधामा ऽपराजितः। अथ यत् करज् जनद् वृधत् इति व्याहरत् त एवैते ऽपरे लोका अभवन्न् अधिदिवः प्रदिवो रोचनः।
विष्टप एव सप्तमो ब्रह्मलोको यस्मिन्न् एतत् सत्यं भाति। तम् एषा देवता सत्यं भूत्वानुप्राविशत्। तत् सद् वै प्राणस् सत्याः प्रजाः। तेनास्य सत्येनेदं सर्वं संगृहीतं भवति। यदि च ह सत्यं वदति यदि च नाथ हास्य सत्यम् एवोदितं भवति। अथो ह विद्यात् सत्यम् एवाहं वदामि नानृतं, यत् सत्यं वदतो लोकस् स मे लोक इति। तस्य ह स एव लोको भवति। तद् यथेदं वयं मीमांसामह इदं ब्रह्मेदं ब्रह्मेत्य् एवम् एवैषा देवतैतद्विदांसं(विद्वांस) मीमांसते न हैष चन तद् वेद। मा सो देवता प्रविष्टेति य एव तद् वेद स एव तद् वेद। एतं सा देवता प्रविष्टेति। न ह वा एवंविदः किं चनाविदितं भवति न का चन देवता॥3.384॥
तस्यैष श्लोकः -
इतः परस्तात् पर उ परस्मात् परस् तृतीयाद् उत वा चतुर्थात्।
सहस्रस्थूणे विमिते दृढ उग्रे यत्र देवानाम् अधिदेव आस्ते॥
इति। एष ह वाव स देवानाम् अधिदेवो य एष तपति। तस्यैतत् सहस्रस्थूणं विमितं दृढं उग्रं यत् संवत्सर ऋतवो मासा अर्धमासा अहोरात्राण्य् उषसः। स य एवम् एतत् सर्वं द्वादशाहम् आत्मानम् अभि संपद्यमानं वेद सर्व एनं कामा अभि संपद्यन्ते। द्वादशाहे वै सर्वे स्तोमा सर्वाणि पृष्ठानि सर्वाणि छन्दांसि सर्वाणि सवनानि सर्वे पशवस् सर्वे देवास् सर्वे लोकास् सर्वे कामा , द्वादशाहम् अन्वायत्ता। द्वादशाहम् अन्वाभक्ता, द्वादशाहम् अनुसंतृप्यन्ति, द्वादशाहे संपन्ना, द्वादशाहे प्रतिष्ठिताः। तद् आहुर् यद् एतानि दशैवाहान्य् अथ कस्माद् द्वादशाह इत्य् आख्यायत इति। स ब्रूयाद् यद् एवैते द्वादशाग्निष्टोमा संपद्यन्ते तेनेति॥3.385॥
तद् आहुर् यत् त्रयोदश मासास् संवत्सरस् संवत्सरश् च चतुर्दशो, ऽथ केन त्रयोदशं च मासम् उपाप्नुवन्ति संवत्सरं च चतुर्दशम् इति। अतिरात्राभ्याम् इति ब्रूयात्। प्रायणीयेनातिरात्रेण त्रयोदशं मासम् उपाप्नुवन्त्य्, उदयनीयेन संवत्सरं चतुर्दशम्। तद् आहुस् स वाद्य द्वादशाहं विद्यात्, स वा वेदेति मन्येत, य एनं सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितं विद्याद् इति। मासा वै द्वादशाहस्याहानि, त एव लोका, एत एव देवलोकाः। फाल्गुनो वै मासो द्वादशाहस्य प्रथमम् अहश्, चैत्रो द्वितीयं, वैशाखस् तृतीयम्, आषाढापौर्णमासश् चतुर्थं, श्रोणाश्रविष्ठः पञ्चमं, शातभिषजष् षष्ठं, प्रोष्ठपदः सप्तमम्, आश्वयुजो ऽष्टमं, कार्तिको नवमम्, मार्गशीर्षो दशमं, तैष एकादशं, माघो द्वादशं, प्रायणीय एवातिरात्रस् त्रयोदशो मास, उदयनीयस् संवत्सरश् चतुर्दशः। स एष द्वादशाहस् सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितः। स य एवम् एतं द्वादशाहं सर्वेषु लोकेषु प्रतिष्ठितं वेद सर्वेषु लोकेषु प्रतितिष्ठति। स एष वाव द्वादशाहो य एष तपत्य्, एष इन्द्र, एष प्रजापतिर्, एष एवेदं सर्वम् इत्य् उपासितव्यम्। एष एवेदं सर्वम् इत्य् उपासितव्यम्॥3.386॥
------------------------------------------------------_________
प्रस्तुति करण:-
यादव योगेश कुमार "रोहि"
सम्पर्क सूत्र-8077160219
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें