मंगलवार, 14 सितंबर 2021

यज्ञ में ब्राह्मण द्वारा माँस पक्ष अनिवार्य तथा शूद्रों के विधान और नारीयों के उपभोग सूत्र-


शूद्र द्विजातीनभिसन्धायाभिहत्य च वाग्दण्डपारुष्याभ्यामंगं मोच्यो।


पितरों का श्राद्ध के अवसर पर माँस केेे तर्पण शूद्र स्त्री केेेे ‌।केवल भोग 
लिए होती है ।
विधवा अपने रिश्तेदारों देवर आदि से सन्तान हेतु नियोग करे परन्तु पुनर्विवाह न करे!




स्मृति ग्रन्थों में ब्राह्मणों के लिए माँस भक्षण के विधान-








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पति की गुलाम होना ही पत्नी धर्म है ।
ब्राह्मण होने की पात्रता -
अनुलोम  और प्रतिलोम विवाह-
ब्राह्मण से असभ्य बोलने पर दण्ड का विधान-
क्षत्रिय १२ दिन वैश्य १५ दिन और ब्राह्मण ८ दिन और शूद्र एक मास में पवित्र होकर सूचक से मुक्त होता है ।

ब्राह्मण की तीन पत्नी य से उत्पन्न सन्तान ब्राह्मण ही है ।

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जो ब्राह्मण वृथा माँस खाता है अथवा जो विना विधान को माँस भक्षण करता है वह अनन्त काल तक नरक में निवास करता है। जबतक कि जब तक चन्द्रमा और तारागण आकाश में स्थित रहते हैं । द्विजो जग्ध्वा वृथामांसं हत्वाप्यविधिना पशून्। निरयेष्वक्षयं वासामाप्नोत्याचन्द्रतारकम्।।५७। (वशिष्ठ स्मृति)

ब्राह्मण यज्ञ का माँस अवश्य खाये यह शास्त्रीय विधान तब अनिवार्य था जब पितरों का श्राद्ध तर्पण होता था। माँस खाने की परम्परा प्राचीन थी परन्तु परम्पराओं को जीवन्त रखते हुए पुरोहितों ने केवल यज्ञ के अवसर पर  माँस भक्षण अनिवार्य कर दिया था। कदाचित् अत्यधिक जीव हिंसा की भर्त्सना( निन्दा) होने के कारण ही शास्त्रीय विधान बनाये गये कि अनावश्यक जीव हिंसा पाप है ।______________________________________
 

ब्राह्मण का श्राद्ध में माँस खाना और गोप को शूद्र बताना !

"वैश्यायां विधिना विप्राज्जातो हि अम्बष्ठ उच्यते कृष्याजीवी भवेत्तस्य तथैव आग्नेयवृत्तिक:।३१। ध्वजिनीजीविका वापि अम्बष्ठा: शस्त्रजीविन:।। वैश्यां विप्रतश्चौर्यात् कुम्भकार: स उच्यते।३२।
(औशनसीस्मृति)

विधि-विधान पूर्वक ब्राह्मण के साथ विवाही हुई वैश्यकन्या से जो ब्राह्मण उत्पन्न होता है।उसे अम्बष्ठ कहते हैं। कृषि अथवा आग्नेय वृत्ति ( गोला बारूद बम आदि )बनाना इसकी वृत्ति हैं अम्बष्ठ की जीविका सेना अथवा शस्त्र की है ।
और गुप्त रूप से ब्राह्मण के द्वारा वैश्य कन्या में कुम्भकार उत्पन्न होता है। बस दोनों के वैध और अवैध होने में ही अन्तर है ।

नापित ( नाई) शब्द की काल्पनिक व्युत्पत्ति भी हास्यास्पद है ।
        नापिता वा भवन्त्यत:सूतके।                        प्रेतके वापि दीक्षाकालेऽथ वापनम्।३३।              नाभेरुर्ध्वै तु वपनं तस्माद्नापित उच्यते।। कायस्थ इति जीवेत्तु विचरेच्च इतस्तत:।।३४।

 इसी विधि से नापित भी उत्पन्न होता है। जन्मसूतक मरणसूतक अथवा दीक्षा काल में ये केशों का छेदन करते हैं।३३।
 नाभि से ऊपर के केशों को काटने से ही इन्हें नाई कहते हैं ।और यह कायस्थ नाम से इधर उधर विचरण करता हुआ जीविका करता हुआ ।३४।
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शूद्रायां क्षत्रियात् जाते - सङ्कीर्णजातिभेदे पट्टिकार्य्यां कुवेरिणो जाते -“आर्द्धिकं कुलमित्रं च गोपालो दासनापितौ।                                   एते शूद्रेषु भोज्यान्ना यश्चात्मानं निवेदयेत्” मनुस्मृति । “सच्छूद्रौ गोपनापितौ” “नराणां नापितो धूर्त्तः” ।
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अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्।
ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।।४५।

।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि षट्‌पञ्चाशोऽध्यायः।। 56।।

मा० उ० ३२ अ० । “नटी कापालिनी वेश्या कुलटा नापिताङ्गना” कुल नायिकोक्तौ तन्त्रम् । तस्य वृत्तिः क्षुरकर्म । “उपोषितस्य व्रतिनः कॢप्तकेशस्य नापितैः । श्रीस्तावत्तिष्ठति गृहे यावत् तैलं न संस्पृशेत्” स्मृतिः । शिल्पित्वात् अपत्ये फिञ् । नापितायनि तदपत्ये पुंस्त्री० पक्षे ष्यञ् नापित्य तत्रार्थे पुंस्त्री० ।
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और हद तो तब हो गयी जब नापित शब्द की व्युत्पत्ति कोशकारों ने (न आप्नोति सरलतामिति । न +  आप् + “नञ्याप इट् च ।” उणादि सूत्र। ३ । ८७ ।  इति तन् इट् च ।) 
 "जो सरलता से प्राप्त नहीं होता"। परन्तु ये सब काल्पनिक व्युत्पत्ति कोशकारों और ग्रन्थकारों के मन की उपज ही हैं।
स्थापित= शब्द से ही नापित शब्द का विकास युक्ति संगत है। जो राजा महाराजाओं को स्नान कराने वाला उनका वरन करने वाला ही नापित होती था।
वर्णसङ्करजातिविशेषः । स तु पट्टिकार्य्यां कुवेरिणो जातः । इति पराशरपद्धतिः ॥ शूद्रायां क्षत्त्रियाज्जातः । इति विवादार्णवसेतुः ॥ तस्य क्षौरं कर्म्म । तत्पर्य्यायः । क्षुरी २ मुण्डी ३ दिवाकीर्त्तिः ४ अन्तावसायी ५ । इत्यमरः । २ । १० । १० ॥ छत्री ६  वात्सीसुतः ७ नखकुट्टः ८ ग्रामणीः ९ । इति शब्दरत्नावली ॥ चन्द्रिलः १० मुण्डः ११ भाण्डपुटः १२ । इति जटाधरः ॥ (यथा  पञ्चतन्त्रे । ३ । ७३ । “नराणां नापितो धूर्त्तः पक्षिणाञ्चैव वायसः । दंष्ट्रिणाञ्च शृगालस्तु श्वेतभिक्षुस्तपस्विनाम् ॥”)





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नृपयां विप्रतश्चौर्य्यात्सञ्जातो यो भिषक्स्मृत:।
अभिषिक्तनृपस्याज्ञां परिपाल्येत्तु वैद्यकम्।।२६। आयुर्वेदमथष्टांग तन्त्रोक्तं धर्ममाचरेत्।। ज्योतिषं गणित वापि कायिकीं वृद्धिमाचरेत्।।२७।
(औशनसीस्मृति)

भिषज्(भिषक्)= विभेत्यस्मात् रोगः ( जिससे कोग डरता है ) “भियः सुक् ह्रस्वश्च” उणादि सूत्र अजि कण्ड्वा० भिषज्--क्विप् वा । १ चिकित्सके । २ विष्णौ पुराण-  तस्य संसाररोगहारित्वात् “भीषा स्यात् वातः पवते” इत्यादि श्रुत्या सर्वेषां भीतिजनकत्वाद्वा तथात्वम्  ततः अपत्ये गर्गा० यञ् भैषज्य वैद्यपुत्रे स्त्रियां ङीप् यलोपः भैषजी । भिषजो भावः अण् “भेकजाश्च” पा० निर्देशात् गुणः न वृद्धिः । भेषज चिकित्सायाम् न० । ततः स्वार्थेञ्य । भैषज्य न० तत्रार्थे ।
।क्षत्रिय की कन्या में गुप्त रूप से जो ब्राह्मण उत्पन्न होता है । वह भिषक् कहलाता है वह राजा की आज्ञा से वैद्यक करता है 
वैद्यक वह शास्त्र जिसमें रोगों के निदान और चिकित्सा आदि का विवेचन हो (चिकित्साशास्त्र) आयुर्वेद। विशेष दे० 'आयुर्वेद'।


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_"ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्चौर्याद्रथकार: प्रजायते।
वृत्तं च शूद्र वक्त सम द्विजत्वं प्रतिषिध्यते ।।५।यानानां ये च वोढारस्तेषां च परिचारका:    शूद्रवृत्या तु जीवति न क्षात्रं धर्माचरेत्।६।(औशीनसी स्मृति प्रथम अध्याय)

वोढृ-(वहतीति  (वह् + तृच्) “ सूत रथवाहक-                  (मेदिनी कोश)
 

नृपाद् ब्राह्मणकन्यां विवाहेषु समन्वयात्।।
जात:सूतोऽत्र निर्दिष्ट प्रतिलोमविधिर्द्विज: वेदान् अर्हस्तथा चैषां धर्माणामनुबोधक:।        औशीनसी स्मृति अध्याय (१)
अर्थान्वय- 
राजा ( क्षत्रिय) से ब्राह्मण कन्या में विवाह सम्बन्ध होने से उत्पन्न सन्तान सूत है । यह निर्देशित है ये प्रतिलोम( विपरीत) विधि का द्विज है । वेदों के योग्य और इन वेदों के धर्म का अनु बोधक ( व्याख्याता) होते हैं ।
उपर्युक्त श्लोक में यह कहीं नहीं लिखा है कि सूत को वेदों का अधिकार नहीं है ।


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