गुरुवार, 27 मई 2021

शिव पुराण रूद्र संहिता युद्ध खण्ड अध्याय (२८) के श्लोक संख्या (२८-२९) मे ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के जनम मरण जातक सूचक विधानों के दिवस संख्या-

वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते॥
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥१७॥
(मैत्रेय्युपनिषत्)

भावार्थ:-वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं; लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।।
【सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज】
कृष्ण वर्णव्यवस्था का विधान नहीं करते हैं ।

____________________      

 शिव पुराण रूद्र संहिता युद्ध खण्ड अध्याय (२८) के श्लोक संख्या (२८-२९) मे  ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के जनम मरण जातक सूचक विधानों के दिवस संख्या-        
                       ।। तुलस्युवाच ।।

त्वयाहमधुना  सत्त्वविचारेण पराजिता।।
स धन्यः पुरुषो लोके न स्त्रिया यः पराजितः ।।२६।।

तुम्हारे द्वारा आज मुझे सात्विक विचार से पराजित कर दिया गया है ।
संसार में वह पुरुष धन्य है जिसे स्त्री पराजित न कर सके ।२६।

सत्क्रियोप्यशुचिर्नित्यं स पुमान्यः स्त्रिया जितः ।।
निन्दंति पितरो देवा मानवास्सकलाश्च तम् ।।२७।।

 जिस मनुष्य को स्त्रियाँ जीत लेती हैं  सत्कर्मी होने पर भी वह अशुचि ही हमेशा बना रहता है  और पितर देवता और मानव भी उसकी निन्दा करते रहते हैं ।२७।

शुध्येद्विप्रो दशाहेन जातके मृतसूतके ।।
क्षत्रियो द्वादशाहेन वैश्यः पञ्चदशाहतः ।।२८।।

शूद्रो मासेन शुध्येत्तु हीति वेदानुशासनम् ।।
न शुचिःस्त्रीजितःक्वापि चितादाहं विना पुमान्।२९ ।

-जन्म की शुद्धि और मरण सूचक में ब्राह्मण दश दिन  क्षत्रिय बारह दिनों और वैश्य पन्द्रह दिनों तक और शूद्र एर महीने में शुद्ध होता है ।
                  ऐसा वैदिक विधान है।
परन्तु स्त्रियों के द्वारा जीता हुआ व्यक्ति तो चिता की अग्नि में जले विना कभी शुद्ध नहीं होता है -२८-२९
______________


न गृह्णतीच्छया तस्मात्पितरः पिण्डतर्पणम् ।।
न गृह्णन्ति सुरास्तेन दत्तं पुष्पफलादिकम् ।।2.5.28.३०।।
________________________
शिव पुराण रूद्र संहिता युद्ध खण्ड अध्याय (२८) के श्लोक संख्या (२८-२९)


_यद्यन्नं अत्ति तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति ।अनदन्नन्नं अह्नैव न चेत्तस्मिन्गृहे वसेत् ।।5/102 मनुस्मृति_*

_______________   

पराशरस्मृतिः/तृतीयोध्यायः

← द्वितीयोध्यायःपराशरस्मृतिः
तृतीयोध्यायः
पराशरः
चतुर्थोध्यायः →

अतः शुद्धिं प्रवक्ष्यामि जनने मरणे तथा ।
दिनत्रयेण शुध्यन्ति ब्राह्मणाः प्रेतसूतके ।। ३.१ ।।

क्षत्रियो द्वादशाहेन वैश्यः पञ्चदशाहकैः ।
शूद्रः शुध्यति मासेन पराशरवचो यथा ।। ३.२ ।।

उपासने तु विप्राणां अङ्गशुद्धिश्च जायते ।
ब्राह्मणानां प्रसूतौ तु देहस्पर्शो विधीयते ।। ३.३ ।।

जातौ विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति ।। ३.४ ।।

एकाहाच्छुध्यते विप्रो योऽग्निवेदसमन्वितः ।
त्र्यहात्केवलवेदस्तु द्विहीनो दशभिर्दिनैः ।। ३.५ ।।

जन्मकर्मपरिभ्रष्टः संध्योपासनवर्जितः ।
नामधारकविप्रस्तु दशाहं सूतकी भवेत् ।। ३.६ ।।

एकपिण्डास्तु दायादाः पृथग्दारनिकेतनाः ।
जन्मन्यपि विपत्तौ च तेषां तत्सूतकं भवेत् ।। ३.७ ।।

तावत्तत्सूतकं गोत्रे चतुर्थपुरुषेण तु ।
दायाद्विच्छेदं आप्नोति पञ्चमो वात्मवंशजः ।। ३.८ ।।

चतुर्थे दशरात्रं स्यात्षण्णिशाः पुंसि पञ्चमे ।
षष्ठे चतुरहाच्छुद्धिः सप्तमे तु दिनत्रयात् ।। ३.९ ।।

भृग्वग्निमरणे चैव देशान्तरमृते तथा ।
बाले प्रेते च संन्यस्ते सद्यः शौचं विधीयते ।। ३.१० ।।

देशान्तरमृतः कश्चित्सगोत्रः श्रूयते यदि ।
न त्रिरात्रं अहोरात्रं सद्यः स्नात्वा शुचिर्भवेत् ।। ३.११ ।।

देशान्तरगतो विप्रः प्रयासात्कालकारितात् ।
देहनाशं अनुप्राप्तस्तिथिर्न ज्ञायते यदि ।। ३.१२ ।।

कृष्णाष्टमी त्वमावास्या कृष्णा चैकादशी च या ।
उदकं पिण्डदानं च तत्र श्राद्धं च कारयेत् ।। ३.१३ ।।

अजातदन्ता ये बाला ये च गर्भाद्विनिःसृताः ।
न तेषां अग्निसंस्कारो नाशौचं नोदकक्रिया ।। ३.१४ ।।

यदि गर्भो विपद्येत स्रवते वापि योषितः ।
यावन्मासं स्थितो गर्भो दिनं तावत्तु सूतकम् ।। ३.१५ ।।

आ चतुर्थाद्भवेत्स्रावः पातः पञ्चमषष्ठयोः ।
अत ऊर्ध्वं प्रसूतिः स्याद्दशाहं सूतकं भवेत् ।। ३.१६ ।।

दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते ।
अग्निसंस्करणे तेषां त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् ।। ३.१६ ।१ ।।

आ दन्तजन्मनः सद्य आ चूडान्नैषिकी स्मृता ।
त्रिरात्रं आ व्रतादेशाद्दशरात्रं अतः परं ।। ३.१७ ।।

ब्रह्मचारी गृहे येषां हूयते च हुताशनः ।
संपर्कं न च कुर्वन्ति न तेषां सूतकं भवेत् ।। ३.१८ ।।

संपर्काद्दुष्यते विप्रो जनने मरणे तथा ।
संपर्काच्च निवृत्तस्य न प्रेतं नैव सूतकं ।। ३.१९ ।।

शिल्पिनः कारुका वैद्या दासीदासाश्च नापिताः ।
राजानः श्रोत्रियाश्चैव सद्यः शौचाः प्रकीर्तिताः ।। ३.२० ।।

सव्रतः सत्रपूतश्च आहिताग्निश्च यो द्विजः ।
राज्ञश्च सूतकं नास्ति यस्य चेच्छति पार्थिवः ।। ३.२१ ।।

उद्यतो निधने दाने आर्तो विप्रो निमन्त्रितः ।
तदैव ऋषिभिर्दृष्टं यथा कालेन शुध्यति ।। ३.२२ ।।

प्रसवे गृहमेधी तु न कुर्यात्संकरं यदि ।
दशाहाच्छुध्यते माता त्ववगाह्य पिता शुचिः ।। ३.२३ ।।

सर्वेषां शावं आशौचं माता पित्रोस्तु सूतकम् ।
सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः ।। ३.२४ ।।

यदि पत्न्यां प्रसूतायां संपर्कं कुरुते द्विजः ।
सूतकं तु भवेत्तस्य यदि विप्रः षडङ्गवित् ।। ३.२५ ।।

संपर्काज्जायते दोषो नान्यो दोषोऽस्ति वै द्विजे ।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन संपर्कं वर्जयेद्बुधः ।। ३.२६ ।।

विवाहोत्सवयज्ञेषु त्वन्तरा मृतसूतके ।
पूर्वसंकल्पितं द्रव्यं दीयमानं न दुष्यति ।। ३.२७ ।।

अन्तरा दशाहस्य पुनर्मरणजन्मनी ।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशं ।। ३.२८ ।।

ब्राह्मणार्थे विपन्नानां बन्दिगोग्रहणे तथा ।
आहवेषु विपन्नानां एकरात्रं अशौचकं ।। ३.२९ ।।

द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड्योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ।। ३.३० ।।

यत्र यत्र हतः शूरः शत्रुभिः परिवेष्टितः ।
अक्षयांल्लभते लोकान्यदि क्लीबं न भाषते ।। ३.३१ ।।

संन्यस्तं ब्राह्मणं दृष्ट्वा स्थानाच्चलति भास्करः ।
एष मे मण्डलं भित्त्वा परं स्थानं प्रयास्यति ।। ३.३२ ।।

यस्तु भग्नेषु सैन्येषु विद्रवत्सु समन्ततः ।
परित्राता यदा गच्छेत्स च क्रतुफलं लभेत् ।। ३.३३ ।।

यस्य च्छेदक्षतं गात्रं शरमुद्गरयष्टिभिः ।
देवकन्यास्तु तं वीरं हरन्ति रमयन्ति च ।। ३.३४ ।।

देवाङ्गनासहस्राणि शूरं आयोधने हतम् ।
त्वरमाणाः प्रधावन्ति मम भर्ता ममेति च ।। ३.३५ ।।

यं यज्ञसंघैस्तपसा च विप्राः स्वर्गैषिणो वात्र यथा यान्ति ।
क्षणेन यान्त्येव हि तत्र वीराः प्राणान्सुयुद्धेन परित्यजन्तः ।। ३.३६ ।।

जितेन लभ्यते लक्ष्मीर्मृतेनापि सुराङ्गनाः ।
क्षणध्वंसिनि कायेऽस्मिन्का चिन्ता मरणे रणे ।। ३.३७ ।।

ललाटदेशे रुधिरं स्रवच्च यस्याहवे तु प्रविशेच्च वक्त्रम् ।
तत्सोमपानेन किलास्य तुल्यं संग्रामयज्ञे विधिवच्च दृष्टम् ।। ३.३८ ।।

अनाथं ब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः ।
पदे पदे यज्ञफलं आनुपूर्व्यांल्लभन्ति ते ।। ३.३९ ।।

न तेषां अशुभं किंचित्पापं वा शुभकर्मणाम् ।
जलावगाहनात्तेषां सद्यःशौचं विधीयते ।। ३.४० ।।

असगोत्रं अबन्धुं च प्रेतीभूतं द्विजोत्तमम् ।
वहित्वा च दहित्वा च प्राणायामेन शुध्यति ।। ३.४१ ।।

अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिं अज्ञातिं एव वा ।
स्नात्वा सचैलं स्पृष्ट्वाग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति ।। ३.४२ ।।

क्षत्रियं मृतं अज्ञानाद्ब्राह्मणो योऽनुगच्छति ।
एकाहं अशुचिर्भूत्वा पञ्चगव्येन शुध्यति ।। ३.४३ ।।

शवं च वैश्यं अज्ञानाद्ब्राह्मणो योऽनुगच्छति ।
कृत्वाशौचं द्विरात्रं च प्राणायामान्षडाचरेत् ।। ३.४४ ।।

प्रेतीभूतं तु यः शूद्रं ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः ।
अनुगच्छेन्नीयमानं त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् ।। ३.४५ ।।

त्रिरात्रे तु ततः पूर्णे नदीं गत्वा समुद्रगाम् ।
प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुध्यति ।। ३.४६ ।।

विनिर्वर्त्य यदा शूद्रा उदकान्तं उपस्थिताः ।
द्विजैस्तदानुगन्तव्या एष धर्मः सनातनः ।। ३.४७ ।।


जिस प्रकार आज एक संक्रामक रोग के कारण बहुत से व्यक्तियों को एकांतवास (क्वारंटाइन) या पृथकता (आइसोलेशन) में रहना पड़ रहा है, क्योंकि संक्रामक रोग उनसे किसी अन्य व्यक्ति या संपूर्ण समाज में फैल सकता है, ठीक उसी प्रकार हमारे सनातन धर्म में भी इस प्रकार के संभावित संक्रमण को रोकने के लिए जिस व्यवस्था का अनुपालन किया जाना आवश्यक होता था उसे 'सूतक' कहा जाता है। आइए जानते हैं कि 'सूतक' अर्थात् पृथकता को लेकर हमारे शास्त्रों में क्या निर्देश है? 
 
जब परिवार या कुटुंब में भी किसी का जन्म या मृत्यु होती है तब उसके पारिवारिक सदस्यों को 'सूतक' (पृथकता) का अनुपालन करना आवश्यक होता है। शास्त्रों में 'सूतक' (पृथकता) के अनुपालन का निर्देश हैं। किंतु अक्सर 'सूतक' की अवधि को लेकर लोगों के मन में दुविधा रहती है कि 'सूतक' की अवधि कितनी हो अर्थात् 'सूतक' का पालन कितने दिनों तक किया जाए?

शास्त्रानुसार शौच दो प्रकार का माना गया है।
 
1. जनन शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी का जन्म होता है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘जनन शौच’ लगता है।
 
2. मरण शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी की मृत्यु होती है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘मरण शौच’ लगता है।
 
शास्त्रों के अनुसार उपर्युक्त दोनों ही शौच में 'सूतक' का पालन करना अनिवार्य है। शास्त्रों में 'सूतक' की अवधि को लेकर भी स्पष्ट उल्लेख है।
 
'जाते विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।
वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥' 
-(पाराशर स्मृति)
 
जैसा कि उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। अत: इन चतुर्वर्णों को क्रमश: दस, बारह, पंद्रह व एक माह तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए।

जो ब्राह्मण वेदपाठी हो, त्रिकाल संध्या करता हो एवं नित्य अग्निहोत्र करता हो ऐसा ब्राह्मण क्रमश: तीन दिन व एक दिन में शुद्ध होता है। शास्त्रानुसार वेदपाठी विप्र तीन दिन में शुद्ध होता है। अत: वेदपाठी ब्राह्मण को तीन दिनों तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए।



शास्त्रानुसार शौच दो प्रकार का माना गया है।
 
1. जनन शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी का जन्म होता है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘जनन शौच’ लगता है।
 
2. मरण शौच- जब परिवार या कुटुंब में किसी की मृत्यु होती है तो पारिवारिक सदस्यों को ‘मरण शौच’ लगता है।
 
शास्त्रों के अनुसार उपर्युक्त दोनों ही शौच में 'सूतक' का पालन करना अनिवार्य है। शास्त्रों में 'सूतक' की अवधि को लेकर भी स्पष्ट उल्लेख है।
 
'जाते विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिप:।
वैश्य: पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति॥' 
-(पाराशर स्मृति)
 
जैसा कि उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है कि ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। अत: इन चतुर्वर्णों को क्रमश: दस, बारह, पंद्रह व एक माह तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए।

जो ब्राह्मण वेदपाठी हो, त्रिकाल संध्या करता हो एवं नित्य अग्निहोत्र करता हो ऐसा ब्राह्मण क्रमश: तीन दिन व एक दिन में शुद्ध होता है। शास्त्रानुसार वेदपाठी विप्र तीन दिन में शुद्ध होता है। अत: वेदपाठी ब्राह्मण को तीन दिनों तक 'सूतक' का पालन करना चाहिए।

ये ५।५८-१०४ तक के श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ५।५७ श्लोक में कहा है कि ‘प्रेतशुद्धि प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धि तथैव च’ । अर्थात् इसके आगे प्रेत - मृत शरीर के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को दूर करने का उपाय कहा जायेगा । और ५।१०५ - १०६ श्लोकों में शुद्धि करने वाले पदार्थों का परिगणन किया । तत्पश्चात् ५।१०९ श्लोक में मृतक के सम्पर्क से होने वाली शारीरिक अशुद्धि का उपाय, मृत्यु के वियोग से दुःखी मानसिक शुद्धि का उपाय बताये गये । इस प्रकार ५।५७ श्लोक की संगति ५।१०५ से ११० तक श्लोकों से ठीक लग जाती है । परन्तु ५।५८ - १०४ तक के श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है और इनमें मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को एक धार्मिक कृत्य के रूप में मनाने की एक ऐसी व्यवस्था लिखी है कि जिससे पूर्वापर का क्रम त्रुटित हो गया है । अन्यथा आवश्यक तो यह था कि अशुद्धि के उपाय बताने के लिये प्रथम शुद्धिकारक पदार्थों का परिगणन करके फिर यह लिखना चाहिये था कि किससे किसकी शुद्धि होती है । और शुद्धि के विषय में कार्यकारण सम्बन्ध का भी ध्यान रखना चाहिये था । अतः ये श्लोक एक भिन्न व्यवस्था के प्रतिपादक हैं और प्रसंग को भंग कर रहे हैं ।
(ख) मनु जी ने प्रेत शुद्धि की बात ५।५७ में कही है और उसकी परिसमाप्ति ५।११० श्लोक में ‘एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः’ कहकर की है । अतः इन के बीच में शारीरिक - शुद्धि के उपाय न बताकर ‘आशौच’ को एक धार्मिक कृत्य मानकर उसके मानने की अवधियों का निर्धारण किया गया है, जो कि प्रतिज्ञात तथा समाप्ति सूचक वचन से सर्वथा असंगत ही हैं ।
(ग) और मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होती है, उसमें सपिण्ड, असपिण्ड का भेद क्यों ? जो भी मृतक से सम्पर्क में आया है, वह अशुद्धि से पृथक् नहीं हो सकता, चाहे वह सपिण्ड हो अथवा असपिण्ड । इनकी अशुद्धियों में अन्तर बताना निष्कारण ही है । और यह कैसी निरर्थक बात है कि जो मृतक के सम्पर्क में आया ही नहीं है और बहुत दूर किसी दूसरे स्थान में रहता है, वह भी अपनी जाति वालों की दश दिन बाद भी (५।७७ में) मृत्यु की बात सुनकर अशुद्ध हो जाता है । यदि इस प्रकार मृतक की बात सुनने से ही अशुद्धि हो सकती है, तो इसमें सपिण्ड या असपिण्ड का क्या सम्बन्ध है ? फिर तो जो भी किसी की मृत्यु का समाचार सुने, वह ही अशुद्ध होना चाहिये । यदि यहां यह कहे कि मृत्यु के वियोग का दुःख तो सपिण्ड को ही होगा, दूसरों को नहीं, तो हमारा उनसे यह प्रश्न है कि मानसिक दुःख से मन की शुद्धि ही बतानी चाहिये, शारीरिक नहीं । अतः शरीर की अशुद्धि की अवधि बताना निरर्थक ही है । और ५।७६ श्लोक में कहा है कि एक वर्ष के पश्चात् भी मृतक का समाचार सुनकर जलस्पर्श करने से शुद्धि हो जाती है । क्या इस भौतिक जल से मानसिक शुद्धि हो सकती है ? जब कि स्वयं मनु ने ५।१०९ वें श्लोक में जल से केवल शरीर की शुद्धि मानी है । इसलिये दूरस्थ व्यक्ति की मृतक - समाचार सुनने से ही शारीरिक - अशुद्धि बताना निष्कारण ही है ।
(घ) और ५।५७ में प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके प्रेत - शुद्धि ही कहनी चाहिये थी, परन्तु ५।७७ में पुत्र - जन्म से होने वाली अशुद्धि का कथन करना नितान्त असंगत ही है । इसी प्रकार ५।६१, ५।६२ श्लोकों में जन्म सम्बन्धी अशुद्धि कही है । (५।६३) में गर्भाधान से होने वाली अशुद्धि का कथन, ५।६६ में गर्भपातज अशुद्धि और रजस्बला स्त्री की अशुद्धि की बात असंगत ही है । और प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके ५।६८ - ७० श्लोकों में किसको जलाना चाहिये, किसको नहीं, यह एक भिन्न प्रसंग ही कहा गया है । और ५।७२ में अविवाहित स्त्रियों के मरने पर एक विशेष अवधि का कथन युक्तियुक्त नहीं है । मृतक कोई भी हो, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित उसमें भेद करना निरर्थक ही है ।
(ड) और चारों वर्णों के शरीरों में परमात्मा ने कोई अन्तर नहीं रक्खा है । चाहे ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, सबके शरीर पंच्चभौतिक ही हैं । अतः मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होगी, उसमें वर्णों के भेद से (५।८३) अन्तर मानकर १० दिन, १२ दिन, १५ दिन तथा एक मास में शुद्धि बताना निष्कारण ही है । यह किसी जन्म - परक वर्णव्यवस्था को मानने वाले की दुराग्रह - कल्पना ही है । क्यों कि मनु ने तो कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को मानी है ।
(च) और इसी प्रकार ५।८० -८२ तक श्लोकों में आचार्य, आचार्य - पुत्र, आचार्य की पत्नी, वेदपाठी, मामा, शिष्य, ऋत्विक् तथा बन्धवों की मृत्यु पर भिन्न - भिन्न आशौच की अवधियों का निर्धारण भी निष्कारण ही है । क्यों कि जब इनके पंच्चभौतिक शरीरों में कोई अन्तर नहीं, तो इनके सम्पर्क से होने वाली अशुद्धियों में अन्तर क्यों ?
(छ) घर में मृतक पड़ा हो और कोई व्यक्ति किसी व्रत विशेष को कर रहा हो, तो उसके लिये ५।८८ में यह व्यवस्था देना कि व्रत - समाप्ति तक प्रेतोदकक्रिया न करे, व्रत -समाप्ति पर करे, निरर्थक एवं अव्यावहारिक ही हैं । यदि उदक क्रिया का कोई महत्त्व है, तो उसे समस्त कार्य छोड़कर तत्काल ही करना चाहिये । इसी प्रकार ५।८९, ५९० में वर्णसंकर, संन्यासी, आत्महत्यारा, पाखण्डी, स्वैरिणी, गर्भपाती, पतिघाती, शराबी स्त्रियों की उदक क्रिया के निषेध में भी कोई कारण नहीं है । यथार्थ में प्रेत - शुद्धि प्रकरण में यह उदक - क्रिया की बात ही निरर्थक है ।
(ज) और ५।९२ में कहा है कि चारों वर्णों के मृतकों को नगर के भिन्न - भिन्न द्वारों से ले जायें । यह कथन भी निराधार तथा पक्षपातपूर्ण है । यह जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानने वाले ने निरर्थक कल्पना की है । क्यों कि मृतकों को ले जाने में दिशा - विशेष का कोई महत्त्व नहीं है । और यह कथन अव्यावहारिक भी है ! आज कल बड़े - बड़े महानगरों में प्रथम तो द्वार ही नहीं हैं, और दिशा के आधार पर ले जाने में अत्यधिक व्यर्थ परेशानी ही होगी ।
(झ) और ५।९३ में मृतक - अशुद्धि से राजा, व्रती तथा यज्ञ करने वाले को मुक्त ही कर दिया है । यह भी निष्कारण ही है, क्या इनके शरीर पंच्चभूतों के नहीं हैं, जो अशुद्ध (मृतक सम्पर्क से) नहीं होते ? और ५।९५ में युद्ध में मृतक, विद्युत् से मरे, गो ब्राह्मण के लिये मरे, और जिसको राजा चाहे, उसका आशौच तुरन्त बताना भी निराधार ही है । और ५।९९ में फिर जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानकर कहा है कि ब्राह्मण जल को छूकर, क्षत्रिय सवारी व शस्त्र को छूकर, वैश्य रास को छूकर और शूद्र छड़ी को छूकर ही शुद्ध हो जाता है । मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि का रथ, शस्त्र, छड़ी रासादि से क्या सम्बन्ध है, जो ये स्पर्शमात्र से ही शुद्ध कर देते हैं ? इसे आपद्धर्म भी नहीं कहा जा सकता, क्यों कि मनु जी ने आपद्धर्मों का एक पृथक् अध्याय में वर्णन किया है ।
(ञ) और ५।९६, ९७ श्लोकों में चन्द्रादि आठ लोकपालों का कथन भी मिथ्या ही किया है । क्यों कि इन्द्र, कुबेरादि लोकपालों की कल्पना निरर्थक ही है यथार्थ नहीं । इत्यादि शब्दों से सूर्यादि भौतिक शक्तियों के ग्रहण से यदि अभिप्राय माना जाये, तो भी ठीक नहीं । क्यों कि इन लोक पालों की कल्पना करने वाले इन के स्थान - विशेष मानकर शरीरधारी देवविशेष मानते हैं । यथार्थ में भौतिक देव तो जड़ हैं, वे ईश्वर की व्यवस्था से कार्य कर रहे हैं, उनकी शुद्धि व अशुद्धि से मुक्ति नहीं माना जा सकता है । और इनके आश्रय से राजा को अशुद्धि का प्रश्न ही नहीं होता । क्यों कि राजा का शरीर भी दूसरे मनुष्यों की भांति ही है, अतः राजा भी मृतक के सम्पर्क से अशुद्धि से नहीं बच सकता । इस प्रकार इन श्लोकों की शैली अयुक्तियुक्त, पक्षपातपूर्ण, निराधार तथा असंगत है, अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।


ये ५।५८-१०४ तक के श्लोक निम्नकारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) ये सभी श्लोक प्रसंग - विरूद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं । ५।५७ श्लोक में कहा है कि ‘प्रेतशुद्धि प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धि तथैव च’ । अर्थात् इसके आगे प्रेत - मृत शरीर के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को दूर करने का उपाय कहा जायेगा । और ५।१०५ - १०६ श्लोकों में शुद्धि करने वाले पदार्थों का परिगणन किया । तत्पश्चात् ५।१०९ श्लोक में मृतक के सम्पर्क से होने वाली शारीरिक अशुद्धि का उपाय, मृत्यु के वियोग से दुःखी मानसिक शुद्धि का उपाय बताये गये । इस प्रकार ५।५७ श्लोक की संगति ५।१०५ से ११० तक श्लोकों से ठीक लग जाती है । परन्तु ५।५८ - १०४ तक के श्लोकों ने उस क्रम को भंग कर दिया है और इनमें मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि को एक धार्मिक कृत्य के रूप में मनाने की एक ऐसी व्यवस्था लिखी है कि जिससे पूर्वापर का क्रम त्रुटित हो गया है । अन्यथा आवश्यक तो यह था कि अशुद्धि के उपाय बताने के लिये प्रथम शुद्धिकारक पदार्थों का परिगणन करके फिर यह लिखना चाहिये था कि किससे किसकी शुद्धि होती है । और शुद्धि के विषय में कार्यकारण सम्बन्ध का भी ध्यान रखना चाहिये था । अतः ये श्लोक एक भिन्न व्यवस्था के प्रतिपादक हैं और प्रसंग को भंग कर रहे हैं ।
(ख) मनु जी ने प्रेत शुद्धि की बात ५।५७ में कही है और उसकी परिसमाप्ति ५।११० श्लोक में ‘एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः’ कहकर की है । अतः इन के बीच में शारीरिक - शुद्धि के उपाय न बताकर ‘आशौच’ को एक धार्मिक कृत्य मानकर उसके मानने की अवधियों का निर्धारण किया गया है, जो कि प्रतिज्ञात तथा समाप्ति सूचक वचन से सर्वथा असंगत ही हैं ।
(ग) और मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होती है, उसमें सपिण्ड, असपिण्ड का भेद क्यों ? जो भी मृतक से सम्पर्क में आया है, वह अशुद्धि से पृथक् नहीं हो सकता, चाहे वह सपिण्ड हो अथवा असपिण्ड । इनकी अशुद्धियों में अन्तर बताना निष्कारण ही है । और यह कैसी निरर्थक बात है कि जो मृतक के सम्पर्क में आया ही नहीं है और बहुत दूर किसी दूसरे स्थान में रहता है, वह भी अपनी जाति वालों की दश दिन बाद भी (५।७७ में) मृत्यु की बात सुनकर अशुद्ध हो जाता है । यदि इस प्रकार मृतक की बात सुनने से ही अशुद्धि हो सकती है, तो इसमें सपिण्ड या असपिण्ड का क्या सम्बन्ध है ? फिर तो जो भी किसी की मृत्यु का समाचार सुने, वह ही अशुद्ध होना चाहिये । यदि यहां यह कहे कि मृत्यु के वियोग का दुःख तो सपिण्ड को ही होगा, दूसरों को नहीं, तो हमारा उनसे यह प्रश्न है कि मानसिक दुःख से मन की शुद्धि ही बतानी चाहिये, शारीरिक नहीं । अतः शरीर की अशुद्धि की अवधि बताना निरर्थक ही है । और ५।७६ श्लोक में कहा है कि एक वर्ष के पश्चात् भी मृतक का समाचार सुनकर जलस्पर्श करने से शुद्धि हो जाती है । क्या इस भौतिक जल से मानसिक शुद्धि हो सकती है ? जब कि स्वयं मनु ने ५।१०९ वें श्लोक में जल से केवल शरीर की शुद्धि मानी है । इसलिये दूरस्थ व्यक्ति की मृतक - समाचार सुनने से ही शारीरिक - अशुद्धि बताना निष्कारण ही है ।
(घ) और ५।५७ में प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके प्रेत - शुद्धि ही कहनी चाहिये थी, परन्तु ५।७७ में पुत्र - जन्म से होने वाली अशुद्धि का कथन करना नितान्त असंगत ही है । इसी प्रकार ५।६१, ५।६२ श्लोकों में जन्म सम्बन्धी अशुद्धि कही है । (५।६३) में गर्भाधान से होने वाली अशुद्धि का कथन, ५।६६ में गर्भपातज अशुद्धि और रजस्बला स्त्री की अशुद्धि की बात असंगत ही है । और प्रेत शुद्धि की प्रतिज्ञा करके ५।६८ - ७० श्लोकों में किसको जलाना चाहिये, किसको नहीं, यह एक भिन्न प्रसंग ही कहा गया है । और ५।७२ में अविवाहित स्त्रियों के मरने पर एक विशेष अवधि का कथन युक्तियुक्त नहीं है । मृतक कोई भी हो, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित उसमें भेद करना निरर्थक ही है ।
(ड) और चारों वर्णों के शरीरों में परमात्मा ने कोई अन्तर नहीं रक्खा है । चाहे ब्राह्मण हो अथवा शूद्र, सबके शरीर पंच्चभौतिक ही हैं । अतः मृतक के सम्पर्क से जो अशुद्धि होगी, उसमें वर्णों के भेद से (५।८३) अन्तर मानकर १० दिन, १२ दिन, १५ दिन तथा एक मास में शुद्धि बताना निष्कारण ही है । यह किसी जन्म - परक वर्णव्यवस्था को मानने वाले की दुराग्रह - कल्पना ही है । क्यों कि मनु ने तो कर्मानुसार वर्णव्यवस्था को मानी है ।
(च) और इसी प्रकार ५।८० -८२ तक श्लोकों में आचार्य, आचार्य - पुत्र, आचार्य की पत्नी, वेदपाठी, मामा, शिष्य, ऋत्विक् तथा बन्धवों की मृत्यु पर भिन्न - भिन्न आशौच की अवधियों का निर्धारण भी निष्कारण ही है । क्यों कि जब इनके पंच्चभौतिक शरीरों में कोई अन्तर नहीं, तो इनके सम्पर्क से होने वाली अशुद्धियों में अन्तर क्यों ?
(छ) घर में मृतक पड़ा हो और कोई व्यक्ति किसी व्रत विशेष को कर रहा हो, तो उसके लिये ५।८८ में यह व्यवस्था देना कि व्रत - समाप्ति तक प्रेतोदकक्रिया न करे, व्रत -समाप्ति पर करे, निरर्थक एवं अव्यावहारिक ही हैं । यदि उदक क्रिया का कोई महत्त्व है, तो उसे समस्त कार्य छोड़कर तत्काल ही करना चाहिये । इसी प्रकार ५।८९, ५९० में वर्णसंकर, संन्यासी, आत्महत्यारा, पाखण्डी, स्वैरिणी, गर्भपाती, पतिघाती, शराबी स्त्रियों की उदक क्रिया के निषेध में भी कोई कारण नहीं है । यथार्थ में प्रेत - शुद्धि प्रकरण में यह उदक - क्रिया की बात ही निरर्थक है ।
(ज) और ५।९२ में कहा है कि चारों वर्णों के मृतकों को नगर के भिन्न - भिन्न द्वारों से ले जायें । यह कथन भी निराधार तथा पक्षपातपूर्ण है । यह जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानने वाले ने निरर्थक कल्पना की है । क्यों कि मृतकों को ले जाने में दिशा - विशेष का कोई महत्त्व नहीं है । और यह कथन अव्यावहारिक भी है ! आज कल बड़े - बड़े महानगरों में प्रथम तो द्वार ही नहीं हैं, और दिशा के आधार पर ले जाने में अत्यधिक व्यर्थ परेशानी ही होगी ।
(झ) और ५।९३ में मृतक - अशुद्धि से राजा, व्रती तथा यज्ञ करने वाले को मुक्त ही कर दिया है । यह भी निष्कारण ही है, क्या इनके शरीर पंच्चभूतों के नहीं हैं, जो अशुद्ध (मृतक सम्पर्क से) नहीं होते ? और ५।९५ में युद्ध में मृतक, विद्युत् से मरे, गो ब्राह्मण के लिये मरे, और जिसको राजा चाहे, उसका आशौच तुरन्त बताना भी निराधार ही है । और ५।९९ में फिर जन्म - मूलकवर्णव्यवस्था को मानकर कहा है कि ब्राह्मण जल को छूकर, क्षत्रिय सवारी व शस्त्र को छूकर, वैश्य रास को छूकर और शूद्र छड़ी को छूकर ही शुद्ध हो जाता है । मृतक के सम्पर्क से होने वाली अशुद्धि का रथ, शस्त्र, छड़ी रासादि से क्या सम्बन्ध है, जो ये स्पर्शमात्र से ही शुद्ध कर देते हैं ? इसे आपद्धर्म भी नहीं कहा जा सकता, क्यों कि मनु जी ने आपद्धर्मों का एक पृथक् अध्याय में वर्णन किया है ।
(ञ) और ५।९६, ९७ श्लोकों में चन्द्रादि आठ लोकपालों का कथन भी मिथ्या ही किया है । क्यों कि इन्द्र, कुबेरादि लोकपालों की कल्पना निरर्थक ही है यथार्थ नहीं । इत्यादि शब्दों से सूर्यादि भौतिक शक्तियों के ग्रहण से यदि अभिप्राय माना जाये, तो भी ठीक नहीं । क्यों कि इन लोक पालों की कल्पना करने वाले इन के स्थान - विशेष मानकर शरीरधारी देवविशेष मानते हैं । यथार्थ में भौतिक देव तो जड़ हैं, वे ईश्वर की व्यवस्था से कार्य कर रहे हैं, उनकी शुद्धि व अशुद्धि से मुक्ति नहीं माना जा सकता है । और इनके आश्रय से राजा को अशुद्धि का प्रश्न ही नहीं होता । क्यों कि राजा का शरीर भी दूसरे मनुष्यों की भांति ही है, अतः राजा भी मृतक के सम्पर्क से अशुद्धि से नहीं बच सकता । इस प्रकार इन श्लोकों की शैली अयुक्तियुक्त, पक्षपातपूर्ण, निराधार तथा असंगत है, अतः ये सभी श्लोक प्रक्षिप्त हैं ।






मनुस्मृतिः/पञ्चमोध्यायः

← चतुर्थोध्यायःमनुस्मृतिः
पञ्चमोध्यायः
मनुः
षष्ठोध्यायः →
मनुस्मृतेः अध्यायाः
  1. प्रथमोध्यायः
  2. द्वितीयोध्यायः
  3. तृतीयोध्यायः
  4. चतुर्थोध्यायः
  5. पञ्चमोध्यायः
  6. षष्ठोध्यायः
  7. सप्तमोध्यायः
  8. अष्टमोध्यायः
  9. नवमोध्यायः
  10. दशमोध्यायः
  11. एकादशोध्यायः
  12. द्वादशोध्यायः

श्रुत्वैतानृषयो धर्मान्स्नातकस्य यथोदितान् ।
इदं ऊचुर्महात्मानं अनलप्रभवं भृगुम् । । ५.१ । ।

एवं यथोक्तं विप्राणां स्वधर्मं अनुतिष्ठताम् ।
कथं मृत्युः प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो । । ५.२ । ।

स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः ।
श्रूयतां येन दोषेण मृत्युर्विप्रान्जिघांसति । । ५.३ । ।

अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात् ।
आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ् जिघांसति । । ५.४ । ।

लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च ।
अभक्ष्याणि द्विजातीनां अमेध्यप्रभवानि च । । ५.५ । ।

लोहितान्वृक्षनिर्यासान्वृश्चनप्रभवांस्तथा ।
शेलुं गव्यं च पेयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत् । । ५.६ । ।

वृथा कृसरसंयावं पायसापूपं एव च ।
अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि हवींषि च । । ५.७ । ।

अनिर्दशाया गोः क्षीरं औष्ट्रं ऐकशफं तथा ।
आविकं संधिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः । । ५.८ । ।

आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना ।
स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि । । ५.९ । ।

दधि भक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम् ।
यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः । । ५.१० । ।

क्रव्यादाञ् शकुनान्सर्वांस्तथा ग्रामनिवासिनः ।
अनिर्दिष्टांश्चैकशफांष्टिट्टिभं च विवर्जयेत् । । ५.११ । ।

कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम् ।
सारसं रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके । । ५.१२ । ।

प्रतुदाञ् जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान् ।
निमज्जतश्च मत्स्यादान्सौनं वल्लूरं एव च । । ५.१३ । ।

बकं चैव बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम् ।
मत्स्यादान्विड्वराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः । । ५.१४ । ।

यो यस्य मांसं अश्नाति स तन्मांसाद उच्यते ।
मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्मान्मत्स्यान्विवर्जयेत् । । ५.१५ । ।

पाठीनरोहितावाद्यौ नियुक्तौ हव्यकव्ययोः ।
राजीवान्सिंहतुण्डाश्च सशल्काश्चैव सर्वशः । । ५.१६ । ।

न भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान् ।
भक्ष्येष्वपि समुद्दिष्टान्सर्वान्पञ्चनखांस्तथा । । ५.१७ । ।

श्वाविधं शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा ।
भक्ष्यान्पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतह् । । ५.१८ । ।

छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम् ।
पलाण्डुं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद्द्विजः । । ५.१९ । ।

अमत्यैतानि षड्जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत् ।
यतिचान्द्रायाणं वापि शेषेषूपवसेदहः । । ५.२० । ।

संवत्सरस्यैकं अपि चरेत्कृच्छ्रं द्विजोत्तमः ।
अज्ञातभुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विषेशतः । । ५.२१ । ।

यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।
भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थं अगस्त्यो ह्याचरत्पुरा । । ५.२२ । ।

बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् ।
पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च । । ५.२३ । ।

यत्किं चित्स्नेहसंयुक्तं भक्ष्यं भोज्यं अगर्हितम् ।
तत्पर्युषितं अप्याद्यं हविःशेषं च यद्भवेत् । । ५.२४ । ।

चिरस्थितं अपि त्वाद्यं अस्नेहाक्तं द्विजातिभिः ।
यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया । । ५.२५ । ।

एतदुक्तं द्विजातीनां भक्ष्याभक्ष्यं अशेषतः ।
मांसस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने । । ५.२६ । ।

प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया ।
यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानां एव चात्यये । । ५.२७ । ।

प्राणस्यान्नं इदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् ।
स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् । । ५.२८ । ।

चराणां अन्नं अचरा दंष्ट्रिणां अप्यदंष्ट्रिणः ।
अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः । । ५.२९ । ।

नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि ।
धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च । । ५.३० । ।

यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।
अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते । । ५.३१ । ।

क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतं एव वा ।
देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति । । ५.३२ । ।

नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः ।
जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेतस्तैरद्यतेऽवशः । । ५.३३ । ।

न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः ।
यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः । । ५.३४ । ।

नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः ।
स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् । । ५.३५ । ।

असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदा चन ।
मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिं आस्थितः । । ५.३६ । ।

कुर्याद्घृतपशुं सङ्गे कुर्यात्पिष्टपशुं तथा ।
न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुं इच्छेत्कदा चन । । ५.३७ । ।

यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् ।
वृथापशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि । । ५.३८ । ।

यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा ।
यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः । । ५.३९ । ।

ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः । । ५.४० । ।

मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि ।
अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः । । ५.४१ । ।

एष्वर्थेषु पशून्हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः ।
आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमं गतिम् । । ५.४२ । ।

गृहे गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः ।
नावेदविहितां हिंसां आपद्यपि समाचरेत् । । ५.४३ । ।

या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।
अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ । । ५.४४ । ।

योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया ।
स जीवांश्च मृतश्चैव न क्व चित्सुखं एधते । । ५.४५ । ।

यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति ।
स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखं अत्यन्तं अश्नुते । । ५.४६ । ।

यद्ध्यायति यत्कुरुते रतिं बध्नाति यत्र च ।
तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किं चन । । ५.४७ । ।

नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसं उत्पद्यते क्व चित् ।
न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् । । ५.४८ । ।

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।
प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् । । ५.४९ । ।

न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् ।
न लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते । । ५.५० । ।

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः । । ५.५१ । ।

स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुं इच्छति ।
अनभ्यर्च्य पितॄन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत् । । ५.५२ । ।

वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः ।
मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् । । ५.५३ । ।

फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः ।
न तत्फलं अवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् । । ५.५४ । ।

मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः । । ५.५५ । ।

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।
प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला । । ५.५६ । ।

प्रेतशुद्धिं प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च ।
चतुर्णां अपि वर्णानां यथावदनुपूर्वशः । । ५.५७ । ।

दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते ।
अशुद्धा बान्धवाः सर्वे सूतके च तथोच्यते । । ५.५८ ःः

दशाहं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।
अर्वाक्संचयनादस्थ्नां त्र्यहं एकाहं एव वा । । ५.५९ । ।

सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते ।
समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने । । ५.६० । ।

यथेदं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।
जननेऽप्येवं एव स्यान्निपुणं शुद्धिं इच्छताम् । । ५.६१ । ।

सर्वेषां शावं आशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम् ।
सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः । । ५.६२[६१ं] । ।

निरस्य तु पुमाञ् शुक्रं उपस्पृस्यैव शुध्यति ।
बैजिकादभिसंबन्धादनुरुन्ध्यादघं त्र्यहम् । । ५.६३[६२ं] । ।

अह्ना चैकेन रात्र्या च त्रिरात्रैरेव च त्रिभिः ।
शवस्पृशो विशुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः । । ५.६४[६३ं] । ।

गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् ।
प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति । । ५.६५[६४ं] । ।

रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशुध्यति ।
रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला । । ५.६६[६५ं] । ।

नृणां अकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता ।
निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते । । ५.६७[६६ं] । ।

ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः ।
अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयनादृते । । ५.६८[६७ं] । ।

नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्योदकक्रिया ।
अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहं एव तु । । ५.६९[६८ं] । ।

नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया ।
जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापि कृते सति । । ५.७०[६९ं] । ।

सब्रह्मचारिण्येकाहं अतीते क्षपणं स्मृतम् ।
जन्मन्येकोदकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते । । ५.७१[७०ं] । ।

स्त्रीणां असंस्कृतानां तु त्र्यहाच्छुध्यन्ति बान्धवाः ।
यथोक्तेनैव कल्पेन शुध्यन्ति तु सनाभयः । । ५.७२[७१ं] । ।

अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम् ।
मांसाशनं च नाश्नीयुः शयीरंश्च पृथक्क्षितौ । । ५.७३[७२ं] । ।

संनिधावेष वै कल्पः शावाशौचस्य कीर्तितः ।
असंनिधावयं ज्ञेयो विधिः संबन्धिबान्धवैः । । ५.७४[७३ं] । ।

विगतं तु विदेशस्थं शृणुयाद्यो ह्यनिर्दशम् ।
यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत् । । ५.७५[७४ं] । ।

अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् ।
संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति । । ५.७६[७५ं] । ।

निर्दशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च ।
सवासा जलं आप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः । । ५.७७[७६ं] । ।

बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते ।
सवासा जलं आप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति । । ५.७८[७७ं] । ।

अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी ।
तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम् । । ५.७९[७८ं] । ।

त्रिरात्रं आहुराशौचं आचार्ये संस्थिते सति ।
तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रं इति स्थितिः । । ५.८०[७९ं] । ।

श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् ।
मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च । । ५.८१[८०ं] । ।

प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः ।
अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नं अनूचाने तथा गुरौ । । ५.८२[८१ं] 

____________________________________

शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः ।
वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति । । ५.८३[८२ं] । ।

न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः ।
न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत् । । ५.८४[८३ं] । ।

दिवाकीर्तिं उदक्यां च पतितं सूतिकां तथा ।
शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति । । ५.८५[८४ं] । ।

आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने ।
सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः । । ५.८६[८५ं] । ।

नारं स्पृष्ट्वास्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति ।
आचम्यैव तु निःस्नेहं गां आलभ्यार्कं ईक्ष्य वा । । ५.८७[८६ं] । ।

आदिष्टी नोदकं कुर्यादा व्रतस्य समापनात् ।
समाप्ते तूदकं कृत्वा त्रिरात्रेणैव शुध्यति । । ५.८८[८७ं] । ।

वृथासंकरजातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम् ।
आत्मनस्त्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया । । ५.८९[८८ं] । ।

पाषण्डं आश्रितानां च चरन्तीनां च कामतः ।
गर्भभर्तृद्रुहां चैव सुरापीनां च योषिताम् । । ५.९०[८९ं] । ।

आचार्यं स्वं उपाध्यायं पितरं मातरं गुरुम् ।
निर्हृत्य तु व्रती प्रेतान्न व्रतेन वियुज्यते । । ५.९१[९०ं] । ।

दक्षिणेन मृतं शूद्रं पुरद्वारेण निर्हरेत् ।
पश्चिमोत्तरपूर्वैस्तु यथायोगं द्विजन्मनः । । ५.९२[९१ं] । ।

न राज्ञां अघदोषोऽस्ति व्रतिनां न च सत्त्रिणाम् ।
ऐन्द्रं स्थानं उपासीना ब्रह्मभूता हि ते सदा । । ५.९३[९२ं] । ।

राज्ञो महात्मिके स्थाने सद्यःशौचं विधीयते ।
प्रजानां परिरक्षार्थं आसनं चात्र कारणम् । । ५.९४[९३ं] । ।

डिम्भाहवहतानां च विद्युता पार्थिवेन च ।
गोब्राह्मणस्य चैवार्थे यस्य चेच्छति पार्थिवः । । ५.९५[९४ं] । ।

सोमाग्न्यर्कानिलेन्द्राणां वित्ताप्पत्योर्यमस्य च ।
अष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः । । ५.९६[९५ं] । ।

लोकेशाधिष्ठितो राजा नास्याशौचं विधीयते ।
शौचाशौचं हि मर्त्यानां लोकेभ्यः प्रभवाप्ययौ । । ५.९७[९६ं] । ।

उद्यतैराहवे शस्त्रैः क्षत्रधर्महतस्य च ।
सद्यः संतिष्ठते यज्ञस्तथाशौचं इति स्थितिः । । ५.९८[९७ं] । ।

विप्रः शुध्यत्यपः स्पृष्ट्वा क्षत्रियो वाहनायुधम् ।
वैश्यः प्रतोदं रश्मीन्वा यष्टिं शूद्रः कृतक्रियः । । ५.९९[९८ं] । ।

एतद्वोऽभिहितं शौचं सपिण्डेषु द्विजोत्तमाः ।
असपिण्डेषु सर्वेषु प्रेतशुद्धिं निबोधत । । ५.१००[९९ं] । ।

असपिण्डं द्विजं प्रेतं विप्रो निर्हृत्य बन्धुवत् ।
विशुध्यति त्रिरात्रेण मातुराप्तांश्च बान्धवान् । । ५.१०१[१००ं] । ।

यद्यन्नं अत्ति तेषां तु दशाहेनैव शुध्यति ।
अनदन्नन्नं अह्नैव न चेत्तस्मिन्गृहे वसेत् । । ५.१०२[१०१ं] । ।

अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिं अज्ञातिं एव च ।
स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्वाग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति । । ५.१०३[१०२ं] । ।

न विप्रं स्वेषु तिष्ठत्सु मृतं शूद्रेण नाययेत् ।
अस्वर्ग्या ह्याहुतिः सा स्याच्छूद्रसंस्पर्शदूषिता । । ५.१०४[१०३ं] । ।

ज्ञानं तपोऽग्निराहारो मृन्मनो वार्युपाञ्जनम् ।
वायुः कर्मार्ककालौ च शुद्धेः कर्तॄणि देहिनाम् । । ५.१०५[१०४ं] । ।

सर्वेषां एव शौचानां अर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः । । ५.१०६[१०५ं] । ।

क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः ।
प्रच्छन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः । । ५.१०७[१०६ं] । ।

मृत्तोयैः शुध्यते शोध्यं नदी वेगेन शुध्यति ।
रजसा स्त्री मनोदुष्टा संन्यासेन द्विजोत्तमाः । । ५.१०८[१०७ं] । ।

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति ।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति । । ५.१०९[१०८ं] । ।

एष शौचस्य वः प्रोक्तः शरीरस्य विनिर्णयः ।
नानाविधानां द्रव्याणां शुद्धेः शृणुत निर्णयम् । । ५.११०[१०९ं] । ।

तैजसानां मणीनां च सर्वस्याश्ममयस्य च ।
भस्मनाद्भिर्मृदा चैव शुद्धिरुक्ता मनीषिभिः । । ५.१११[११०ं] । ।

निर्लेपं काञ्चनं भाण्डं अद्भिरेव विशुध्यति ।
अब्जं अश्ममयं चैव राजतं चानुपस्कृतम् । । ५.११२[१११ं] । ।

अपां अग्नेश्च संयोगाद्धैमं रौप्यं च निर्बभौ ।
तस्मात्तयोः स्वयोन्यैव निर्णेको गुणवत्तरः । । ५.११३[११२ं] । ।

ताम्रायःकांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च ।
शौचं यथार्हं कर्तव्यं क्षाराम्लोदकवारिभिः । । ५.११४[११३ं] । ।

द्रवाणां चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम् ।
प्रोक्षणं संहतानां च दारवाणां च तक्षणम् । । ५.११५[११४ं] । ।

मार्जनं यज्ञपात्राणां पाणिना यज्ञकर्मणि ।
चमसानां ग्रहाणां च शुद्धिः प्रक्षालनेन तु । । ५.११६[११५ं] । ।

चरूणां स्रुक्स्रुवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिणा ।
स्फ्यशूर्पशकटानां च मुसलोलूखलस्य च । । ५.११७[११६ं] । ।

अद्भिस्तु प्रोक्षणं शौचं बहूनां धान्यवाससाम् ।
प्रक्षालनेन त्वल्पानां अद्भिः शौचं विधीयते । । ५.११८[११७ं] । ।

चैलवच्चर्मणां शुद्धिर्वैदलानां तथैव च ।
शाकमूलफलानां च धान्यवच्छुद्धिरिष्यते । । ५.११९[११८ं] । ।

कौशेयाविकयोरूषैः कुतपानां अरिष्टकैः ।
श्रीफलैरंशुपट्टानां क्षौमाणां गौरसर्षपैः । । ५.१२०[११९ं] । ।

क्षौमवच्छङ्खशृङ्गाणां अस्थिदन्तमयस्य च ।
शुद्धिर्विजानता कार्या गोमूत्रेणोदकेन वा । । ५.१२१[१२०ं] । ।

प्रोक्षणात्तृणकाष्ठं च पलालं चैव शुध्यति ।
मार्जनोपाञ्जनैर्वेश्म पुनःपाकेन मृन्मयम् । । ५.१२२[१२१ं] । ।

मद्यैर्मूत्रैः पुरीषैर्वा ष्ठीवनैह्पूयशोणितैः ।
संस्पृष्टं नैव शुद्ध्येत पुनःपाकेन मृन्मयम् । । ५.१२३ । ।

संमार्जनोपाञ्जनेन सेकेनोल्लेखनेन च ।
गवां च परिवासेन भूमिः शुध्यति पञ्चभिः । । ५.१२४[१२२ं] । ।

पक्षिजग्धं गवा घ्रातं अवधूतं अवक्षुतम् ।
दूषितं केशकीटैश्च मृत्प्रक्षेपेण शुध्यति । । ५.१२५[१२३ं] । ।

यावन्नापैत्यमेध्याक्ताद्गन्धो लेपश्च तत्कृतः ।
तावन्मृद्वारि चादेयं सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु । । ५.१२६[१२४ं] । ।

त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानां अकल्पयन् ।
अदृष्टं अद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते । । ५.१२७[१२५ं] । ।

आपः शुद्धा भूमिगता वैतृष्ण्यं यासु गोर्भवेत् ।
अव्याप्ताश्चेदमेध्येन गन्धवर्णरसान्विताः । । ५.१२८[१२६ं] । ।

नित्यं शुद्धः कारुहस्तः पण्ये यच्च प्रसारितम् ।
ब्रह्मचारिगतं भैक्ष्यं नित्यं मेध्यं इति स्थितिः । । ५.१२९[१२७ं] । ।

नित्यं आस्यं शुचि स्त्रीणां शकुनिः फलपातने ।
प्रस्रवे च शुचिर्वत्सः श्वा मृगग्रहणे शुचिः । । ५.१३०[१२८ं] । ।

श्वभिर्हतस्य यन्मांसं शुचि तन्मनुरब्रवीत् ।
क्रव्याद्भिश्च हतस्यान्यैश्चण्डालाद्यैश्च दस्युभिः । । ५.१३१[१२९ं] । ।

ऊर्ध्वं नाभेर्यानि खानि तानि मेध्यानि सर्वशः ।
यान्यधस्तान्यमेध्यानि देहाच्चैव मलाश्च्युताः । । ५.१३२[१३०ं] । ।

मक्षिका विप्रुषश्छाया गौरश्वः सूर्यरश्मयः ।
रजो भूर्वायुरग्निश्च स्पर्शे मेध्यानि निर्दिशेत् । । ५.१३३[१३१ं] । ।

विण्मूत्रोत्सर्गशुद्ध्यर्थं मृद्वार्यादेयं अर्थवत् ।
दैहिकानां मलानां च शुद्धिषु द्वादशस्वपि । । ५.१३४[१३२ं] । ।

वसा शुक्रं असृङ्मज्जा मूत्रविट्घ्राणकर्णविट् ।
श्लेश्म अश्रु दूषिका स्वेदो द्वादशैते नृणां मलाः । । ५.१३५[१३३ं] । ।

एका लिङ्गे गुदे तिस्रस्तथैकत्र करे दश ।
उभयोः सप्त दातव्या मृदः शुद्धिं अभीप्सता । । ५.१३६[१३४ं] । ।

एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् ।
त्रिगुणं स्याद्वनस्थानां यतीनां तु चतुर्गुणम् । । ५.१३७[१३५ं] । ।

कृत्वा मूत्रं पुरीषं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत् ।
वेदं अध्येष्यमाणश्च अन्नं अश्नंश्च सर्वदा । । ५.१३८[१३६ं] । ।

त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम् ।
शरीरं शौचं इच्छन्हि स्त्री शूद्रस्तु सकृत्सकृत् । । ५.१३९[१३७ं] । ।

शूद्राणां मासिकं कार्यं वपनं न्यायवर्तिनाम् ।
वैश्यवच्छौचकल्पश्च द्विजोच्छिष्टं च भोजनम् । । ५.१४०[१३८ं] । ।

नोच्छिष्टं कुर्वते मुख्या विप्रुषोऽङ्गं न यान्ति याः ।
न श्मश्रूणि गतान्यास्यं न दन्तान्तरधिष्ठितम् । । ५.१४१[१३९ं] । ।

स्पृशन्ति बिन्दवः पादौ य आचामयतः परान् ।
भौमिकैस्ते समा ज्ञेया न तैराप्रयतो भवेत् । । ५.१४२[१४०ं] । ।

उच्छिष्टेन तु संस्पृष्टो द्रव्यहस्तः कथं चन ।
अनिधायैव तद्द्रव्यं आचान्तः शुचितां इयात् । । ५.१४३[१४१ं] । ।

वान्तो विरिक्तः स्नात्वा तु घृतप्राशनं आचरेत् ।
आचामेदेव भुक्त्वान्नं स्नानं मैथुनिनः स्मृतम् । । ५.१४४[१४२ं] । ।

सुप्त्वा क्षुत्वा च भुक्त्वा च निष्ठीव्योक्त्वानृतानि च ।
पीत्वापोऽध्येष्यमाणश्च आचामेत्प्रयतोऽपि सन् । । ५.१४५[१४३ं] । ।

एषां शौचविधिः कृत्स्नो द्रव्यशुद्धिस्तथैव च ।
उक्तो वः सर्ववर्णानां स्त्रीणां धर्मान्निबोधत । । ५.१४६[१४४ं] । ।

बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि योषिता ।
न स्वातन्त्र्येण कर्तव्यं किं चिद्कार्यं गृहेष्वपि । । ५.१४७[१४५ं] । ।

बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पाणिग्राहस्य यौवने ।
पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत्स्त्री स्वतन्त्रताम् । । ५.१४८[१४६ं] । ।

पित्रा भर्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद्विरहं आत्मनः ।
एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले । । ५.१४९[१४७ं] । ।

सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्ये च दक्षया ।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया । । ५.१५०[१४८ं] । ।

यस्मै दद्यात्पिता त्वेनां भ्राता वानुमते पितुः ।
तं शुश्रूषेत जीवन्तं संस्थितं च न लङ्घयेत् । । ५.१५१[१४९ं] । ।

मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः ।
प्रयुज्यते विवाहे तु प्रदानं स्वाम्यकारणम् । । ५.१५२[१५०ं] । ।

अनृतावृतुकाले च मन्त्रसंस्कारकृत्पतिः ।
सुखस्य नित्यं दातेह परलोके च योषितः । । ५.१५३[१५१ं] । ।

विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः ।
उपचार्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पतिः । । ५.१५४[१५२ं] । ।

नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् ।
पतिं शुश्रूषते येन तेन स्वर्गे महीयते । । ५.१५५[१५३ं] । ।

पाणिग्राहस्य साध्वी स्त्री जीवतो वा मृतस्य वा ।
पतिलोकं अभीप्सन्ती नाचरेत्किं चिदप्रियम् । । ५.१५६[१५४ं] । ।

कामं तु क्सपयेद्देहं पुष्पमूलफलैः शुभैः ।
न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु । । ५.१५७[१५५ं] । ।

आसीता मरणात्क्सान्ता नियता ब्रह्मचारिणी ।
यो धर्म एकपत्नीनां काङ्क्षन्ती तं अनुत्तमम् । । ५.१५८[१५६ं] । ।

अनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि विप्राणां अकृत्वा कुलसंततिम् । । ५.१५९[१५७ं] । ।

मृते भर्तरि साढ्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता ।
स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिणः । । ५.१६०[१५८ं] । ।

अपत्यलोभाद्या तु स्त्री भर्तारं अतिवर्तते ।
सेह निन्दां अवाप्नोति परलोकाच्च हीयते । । ५.१६१[१५९ं] । ।

नान्योत्पन्ना प्रजास्तीह न चाप्यन्यपरिग्रहे ।
न द्वितीयश्च साध्वीनां क्व चिद्भर्तोपदिश्यते । । ५.१६२[१६०ं] । ।

पतिं हित्वापकृष्टं स्वं उत्कृष्टं या निषेवते ।
निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते । । ५.१६३[१६१ं] । ।

व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति निन्द्यताम् ।
शृगालयोनिं प्राप्नोति पापरोगैश्च पीड्यते । । ५.१६४[१६२ं] । ।

पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयुता ।
सा भर्तृलोकं आप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते । । ५.१६५[१६३ं] । ।

अनेन नारी वृत्तेन मनोवाग्देहसंयता ।
इहाग्र्यां कीर्तिं आप्नोति पतिलोकं परत्र च । । ५.१६६[१६४ं] । ।

एवं वृत्तां सवर्णां स्त्रीं द्विजातिः पूर्वमारिणीम् ।
दाहयेदग्निहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित् । । ५.१६७[१६५ं] । ।

भार्यायै पूर्वमारिण्यै दत्त्वाग्नीनन्त्यकर्मणि ।
पुनर्दारक्रियां कुर्यात्पुनराधानं एव च । । ५.१६८[१६६ं] । ।

अनेन विधिना नित्यं पञ्चयज्ञान्न हापयेत् ।
द्वितीयं आयुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत् । । ५.१६९[१६७ं] । ।






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें