सोमवार, 17 मई 2021

यहूदीयों में कभी गौ और बैल की पूजा थी ।

"गाय या भैस खाने की परम्परा तो आज कुछ यहूदियों में ही है जो बहुत बाद की है ।

ये गाय भैंस तो भारतीय पुरोहित और राजा , महाराजा भी  खाते और मांस भक्षण करते थे ।

 स्कन्द पुराण प्रभास खण्ड  7.1.223.११ ॥  में तथा अन्य पुराणों में वर्णन है कि 

गोघ्नः सुरापो दुर्मेधा ब्रह्महा गुरुतल्पगः ॥
तत्र स्नात्वा नरः सद्यो विपापः संप्रपद्यते ॥ ११ ॥
अर्थ:-
गो हनन  करने वाला सुरा पान करने वाला दुर्बुद्धि ब्रह्म हत्यारा और गुरु पत्नी के साथ मैथुन करने वाला उस प्रभास तीर्थ में स्नान करके नर शीघ्र ही पापों से रहित हो जाते हैं ।।११।



विश्वासघातको यस्तु ब्रह्महा स्त्रीवधे रतः ॥
गोघ्नो गुरुघ्रः पितृहा स प्रेतो जायते नरः॥५३॥
अर्थ:- विश्वासघाती ब्रह्म हत्यारा स्त्रियों का वध करने में लगा हुआ गो हनन करने वाला गुरु हनन करने वाला पिता का हत्यारा नर प्रेत बनता है ।५३।।
 ( स्कन्द पुराण प्रभास खण्ड  प्रभास महात्यम्य  ) 7.1.223.५३ ॥

ऋग्वेद में गोघ्न शब्द का वर्णन है पुरुष घ्न शब्द के साथ

आरे ते गोऽघ्नम् उत पुरुषऽघ्नम् क्षयत्ऽवीर सुम्नम् । अस्मे इति ते अस्तु ।                                        

मृळ च  नः अधि  च ब्रूहि  देव अध  च नः शर्म । यच्छ  द्विऽबर्हाः ।। ऋग्वेद-१/११४ ॥१०।।

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 सायण भाष्य:-

 हे “क्षयद्वीर क्षपितसर्वशत्रुजन रुद्र “ते त्वदीयं गोघ्नं= यद् गोहननं यद्वा गोहनन साधनम आयुधम् “उत अपि च “पुरुषघ्नं पुरुषहननं तत्साधनमायुधं वा तदुभयम् 

 (जिसके द्वारा गो हनन किया जाये पुरूष घ्न जिसके द्वारा पुरुष हनन किया जाये )

"आरे दूरे अस्मत्तो विप्रकृष्टदेशे भवतु ।

 “अस्मे अस्मासु “ते त्वदीयं “सुम्नं सुखम् “अस्तु भवतु । अपि च “नः अस्माकं “मृळ सुखसिद्ध्यर्थं प्रसन्नो भव । 

हे “देव द्योतमान रुद्र “नः अस्मान् “अधि “ब्रूहि “च । अधिवचनं पक्षपातेन वचनं ‘ ब्राह्मणायाधि ब्रूयात् '( तैतीरीय. संहिता. २. ५. ११. ९) 

इति यथा । “अध “च अथ अनन्तरं च “द्विबर्हाः द्वयोः स्थानयोः पृथिव्यामन्तरिक्षे च परिवृढः ।

 यद्वा । द्वयोर्दक्षिणोत्तरमार्गयोः ज्ञानकर्मणोर्वा परिवृढ़: स्वामी । स त्वं “नः अस्मभ्यं “शर्म सुखं “यच्छ देहि ।। (गोघ्नम्। 'हन हिंसागत्योः'  )अस्मात् ‘ घञर्थे कविधानम् ' इति भावे करणे वा कप्रत्ययः । 

‘ गमहन° ' इत्युपधालोपः । हो हन्तेः । इति कुत्वम् । द्विबर्हाः । ‘ बृह बृहि वृद्धौ' । द्वयोः स्थानयोः बर्हते प्रवर्धते इति द्विबर्हाः । असुन्। कृदुत्तरपदप्रकृतिस्वरत्वम् । 

 गोघ्न का अर्थ अतिथि है जिसके लिए कभी गाय का हनन किया जाता था "गाम् हन्ति तस्मै इत गोघ्न"

और इसी लिए भारती पुराणों में अनेक सम्प्रदायों का विरोधी विवरण मिलता है । 
कुछ पुरोहितों ने गो हनन की परम्परा को हिंसा मूलक मानकर त्याज्य समझा । तो रूढ़ि गत होकर इसका समर्थन करते रहे । इसी लिए परस्पर विरोधी सम्प्रदायों का उदय हुआ।

शाक्त  , कौल , पाञ्चरात्र भागवत  शैव और स्मार्त आदि 
सभी सम्प्रदायों में अनेक स्तरों पर वैचारिक भेद था 
जब पुष्यमित्र सुँग के शासन काल में यज्ञों में पशुबलि वैदिक विधान मानकर दी जाती थी तब जैन और बौद्ध जैसे अहिंसा वादी सम्प्रदाय और वैदिक वर्ण -व्यवस्था के विरुद्ध  भक्ति मूलक भागवत अथवा सात्वत संप्रदाय का उदय कृष्ण की विचार धारा को आत्मसात करते हुए नवीन रूप में गुप्त काल में आभीर जाति के द्वारा प्रचारित हुआ  अवतार वाद अहीरों की मौलिक भगवत अवधारणा थी जिसका श्रोत यहूदियों का नवीवाद है जो जैनियों का तीर्थकर वाद हुआ।
  ईसाई और इस्लामी मजहबों का विकास भी यहूदियों की विचार धारा से हुआ ।



मांस, मदिरा पितर और राम के चरित्र का यथार्थ -
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"_
(देवी भागवत पुराण के सप्तमस्कन्ध के नवम अध्याय में इक्ष्वाकु पुत्र विकुक्षि का एक आख्यान वर्णित है 
 जिसमें वे श्राद्ध के लिए निश्चित मांस में से खरगोश का मांस खा लेते है। )

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देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः ०७/अध्यायः ०९

               मान्धातोत्पत्तिवर्णनम्

                   -व्यास उवाच -
कदाचिदष्टकाश्राद्धे विकुक्षिं पृथिवीपतिः ।
आज्ञापयदसंमूढो मांसमानय सत्वरम् ॥ १॥

व्यास जी ने कहा हे महाराज किसी समय इक्ष्वाकु राजा के पुत्र विकुक्षि राजा हुए एक दिन महाराज इक्ष्वाकु ने अष्टक श्राद्ध ( पार्षण) में मांस लाने के लिए विकुक्षि से कहा हे पुत्र तुम वन में जाकर  श्राद्ध -यज्ञ के निमित्त शीघ्र ही कोई उत्तम मांस लाओ ।

उपर्युक्त श्लोक में इक्ष्वाकु के पुत्र विकुक्षि को राजा मांस लाने की शीघ्र आज्ञा देता है ।

मेध्यं श्राद्धार्थमधुना वने गत्वा सूतादरात् ।
उत्युक्तोऽसौ तथेत्याशु जगाम वनमस्त्रभृत् ॥ २॥

ऐसी आज्ञा पाते ही वे अस्त्र धारण करके  तत्काल जंगल में शिकार की खोज में चले गये १-२

तब  विकुक्षि श्राद्ध के लिए पशु लाने वन में शस्त्र धारण कर जाते है ।

गत्वा जघान बाणैः स वराहान्सूकरान्मृगान् ।
शशांश्चापि परिश्रान्तो बभूवाथ बुभूक्षितः ॥३॥

विस्मृता चाष्टका तस्य शशं चाददसौ वने ।
शेषं निवेदयामास पित्रे मांसमनुत्तमम् ॥४॥

विकुक्षि ने वन में जाकर वाणों से अनेक सूअर खरगोश और मृग मारे उस समय वह शिकार करते करते विकुक्षि थक गया उसे भूख भी लग गयी जिसमें उसने एक खरगोश पकाकर वहीं खा लिया शेष मांस ले जाकर उसने अपने पिता को दे दिया ३-४ 

अर्थात जाकर वालों से विकुक्षि  वराह मृग सूअर खरगोश आदि का बध करते थक जाता है तब उसे भूख लगती है । और वह भूल जाता है कि अष्टक श्राद्ध में मांस की आवश्यकता है भूख से व्याकुल वह खरगोश को खा लेता है ।और शेष जन्तुओं का मास पिता को समर्पित कर देता है 


प्रोक्षणाय समानीतं मांसं दृष्ट्वा गुरुस्तदा ।
अनर्हमिति तज्ज्ञात्वा चुकोप मुनिसत्तमः ॥५॥

भुक्तशेषं तु न श्राद्धे प्रोक्षणीयमिति स्थितिः ।
राज्ञे निवेदयामास वसिष्ठः पाकदूषणम् ॥६॥

जब श्राद्ध युक्त सामिग्री के प्रोक्षण ( पोंछने धोने)उनके गुरु वशिष्ठ जी आये तो देखा कि वह सामिग्री अशुद्ध हो गयी है क्योंकि उसमें से कुछ मांस खा लिया गया है । ऐसा जानकर वशिष्ठ मुनि अत्यन्त क्रोधित हुए क्योंकि उच्छिष्ट ( खाकर बचा हुआ) पदार्थ  श्राद्ध के योग्य नहीं होता है । यही शास्त्रीय विधान है ।५-६

पुत्रस्य कर्म तज्ज्ञात्वा भूपतिर्गुरुणोदितम् ।
चुकोप विधिलोपात्तं देशान्निःसारयत्ततः ॥७॥

शशाप इति विख्यातो नाम्ना जातो नृपात्मजः ।
गतो वने शशादस्तु पितृकोपादसम्भ्रमः ॥८॥

कि श्राद्ध में झूँठा पदार्थ सर्वथा त्याज्य है । अत: वशिष्ठ मुनि ने अपने योग बल से जान लिया कि इस मांस मैं से कुछ मांस विकुक्षि ने भूल से खा लिया है ।

यह बात वशिष्ठ ने इक्ष्वाकु को बता दी वशिष्ठ के कथनानुसार अपने पुत्र विकुक्षि का वह कुकृत्य जानकर श्राद्ध भंग होने कम कारण अपने पुत्र विकुक्षि को उसी समय राज्य से निकाल दिया ।७।

 तभी शश ( खरगोश का अदन ( भोजन करने के कारण विकुक्षि का नाम संसार में "शशाद" हुआ इस प्रकार वे पिता से अभिशप्त राज्य से निर्वासित हो कर वन में घूमते रहे ।।८


वन्येन वर्तयन्कालं नीतवान् धर्मतत्परः ।
पितर्युपरते राज्यं प्राप्तं तेन महात्मना ॥९॥

कालान्तर में वन में ही बहुत समय तक नीति और धर्म मैं तत्पर रहते हुए पिता के स्वर्ग वासी होने पर राज्य को प्राप्त किया ।

शशादस्त्वकरोद्‌राज्यमयोध्यायाः पतिः स्वयम् ।
यज्ञाननेकशः पूर्णांश्चकार सरयूतटे ॥१०॥

शशाद ने अयोध्या में राज्य किया और इस अयोध्या- पति ने अनेक यज्ञ सरयू नदी के तट पर पूर्ण किये ।

शशादस्याभवत्पुत्रः ककुत्स्थ इति विश्रुतः ।
तस्यैव नामभेदाद्वै इन्द्रवाहः पुरञ्जयः ॥११॥

शशाद के पुत्र ककुत्स्थ हुए उनके ही  अन्य दो  नाम इन्द्र वह  और पुरुञ्जय भी थे । 


                 -जनमेजय उवाच -
नामभेदः कथं जातो राजपुत्रस्य चानघ ।
कारणं ब्रूहि मे सर्वं कर्मणा येन चाभवत् ॥१२॥

जनमेजय बोले राजा उस पुत्र को नाम भेद कैसे हुआ निष्पाप: ! यह कारण मुझसे कहिए जो उनके क्रमानुसार हुए ।
                     -व्यास उवाच -
शशादे स्वर्गते राजा ककुत्स्थ इति चाभवत् ।
[राज्यं चकार धर्मज्ञः पितृपैतामहं बलात् ।]

शशाद के स्वर्ग चले जाने पर ककुत्स्थ राजा हुए उन्होंने धर्मज्ञ राजा ने शक्ति से पुश्तनी राज्य कि पालन किया।

एतस्मिन्नन्तरे देवा दैत्यैः सर्वे पराजिताः ॥ १३॥

इसी अन्तराल में देव और दैत्य सभी इनसे पराजित हो गये थे ।

जग्मुस्त्रिलोकाधिपतिं विष्णुं शरणमव्ययम् ।
तान्प्रोवाच महाविष्णुस्तदा देवान्सनातनः ॥ १४॥
                      -विष्णुरुवाच -
पार्ष्णिग्राहं महीपालं प्रार्थयन्तु शशादजम् ।
स हनिष्यति वै दैत्यान्संग्रामे सुरसत्तमाः ॥१५॥

आगमिष्यति धर्मात्मा साहाय्यार्थं धनुर्धरः ।
पराशक्तेः प्रसादेन सामर्थ्यं तस्य चातुलम् ॥१६॥


हरेः सुवचनाद्देवा ययुः सर्वे सवासवाः।
अयोध्यायां महाराज शशादतनयं प्रति ॥१७॥

तानागतान् सुरान् राजा पूजयामास धर्मतः ।
पप्रच्छागमने राजा प्रयोजनमतन्द्रितः ॥१८॥
                     -राजोवाच -
धन्योऽहं पावितश्चास्मि जीवितं सफलं मम ।
यदागत्य गृहे देवा ददुश्च दर्शनं महत् ॥ १९॥

ब्रुवन्तु कृत्यं देवेशा दुःसाध्यमपि मानवैः ।
करिष्यामि महत्कार्यं सर्वथा भवतां महत् ॥२०॥
                     देवा ऊचुः -
साहाय्यं कुरु राजेन्द्र सखा भव शचीपतेः ।
संग्रामे जय दैत्येन्द्रान्दुर्जयांस्त्रिदशैरपि ॥ २१ ॥

पराशक्तिप्रसादेन दुर्लभं नास्ति ते क्वचित् ।
विष्णुना प्रेरिताश्चैवमागतास्तव सन्निधौ ॥ २२ ॥
                        -राजोवाच -
पार्ष्णिग्राहो भवाम्यद्य देवानां सुरसत्तमाः ।
इन्द्रो मे वाहनं तत्र भवेद्यदि सुराधिपः ॥२३॥

संग्रामं तु करिष्यामि दैत्यैर्देवकृतेऽधुना ।
आरुह्येन्द्रं गमिष्यामि सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥२४॥

तदोचुर्वासवं देवाः कर्तव्यं कार्यमद्‌भुतम् ।
पत्रं भव नरेन्द्रस्य त्यक्त्वा लज्जां शचीपते ॥ २५॥

लज्जमानस्तदा शक्रः प्रेरितो हरिणा भृशम् ।
बभूव वृषभस्तूर्णं रुद्रस्येवापरो महान् ॥ २६॥

तमारुरोह राजासौ संग्रामगमनाय वै ।
स्थितः ककुदि येनास्य ककुत्स्थस्तेन चाभवत् ॥२७॥

इन्द्रो वाहः कृतो येन तेन नाम्नेन्द्रवाहकः ।
पुरं जितं तु दैत्यानां तेनाभूच्च पुरञ्जयः ॥२८॥

जित्वा दैत्यान्महाबाहुर्धनं तेषां प्रदत्तवान् ।
पप्रच्छ चैवं राजर्षेरिति सख्यं बभूव ह ॥२९॥

ककुत्स्थश्चातिविख्यातो नृपतिस्तस्य वंशजाः ।
काकुत्स्था भुवि राजानो बभूवुर्बहुविश्रुताः ॥३०॥

ककुत्स्थस्याभवत्पुत्रो धर्मपत्‍न्यां महाबलः ।
अनेना विश्रुतस्तस्य पृथुः पुत्रश्च वीर्यवान् ॥३१॥

विष्णोरंशः स्मृतः साक्षात्पराशक्तिपदार्चकः ।
विश्वरन्धिस्तु विज्ञेयः पृथोः पुत्रो नराधिपः ॥३२॥

चन्द्रस्तस्य सुतः श्रीमान् राजा वंशकरः स्मृतः ।
तत्सुतो युवनाश्वस्तु तेजस्वी बलवत्तरः ॥३३॥

शावन्तो युवनाश्वस्य जज्ञे परमधार्मिकः ।
शावन्ती निर्मिता तेन पुरी शक्रपुरीसमा ॥३४॥

बृहदश्वस्तु पुत्रोऽभूच्छावन्तस्य महात्मनः ।
कुवलयाश्वः सुतस्तस्य बभूव पृथिवीपतिः ॥३५॥

धुन्धुर्नामा हतो दैत्यस्तेनासौ पृथिवीतले ।
धुन्धुमारेति विख्यातं नाम प्रापातिविश्रुतम् ॥३६॥

पुत्रस्तस्य दृढाश्वस्तु पालयामास मेदिनीम् ।
दृढाश्वस्य सुतः श्रीमान्हर्यश्व इति कीर्तितः ॥३७॥

निकुम्भस्तत्सुतः प्रोक्तो बभूव पृथिवीपतिः ।
बर्हणाश्वो निकुम्भस्य कुशाश्वस्तस्य वै सुतः ॥ ३८॥

प्रसेनजित्कृशाश्वस्य बलवान्सत्यविक्रमः ।
तस्य पुत्रो महाभागो यौवनाश्वेति विश्रुतः ॥ ३९॥

यौवनाश्वसुतः श्रीमान्मान्धातेति महीपतिः ।
अष्टोत्तरसहस्रं तु प्रासादा येन निर्मिताः ॥४०॥

भगवत्यास्तु तुष्ट्यर्थं महातीर्थेषु मानद ।
मातृगर्भे न जातोऽसावुत्पन्नो जनकोदरे ॥४१॥

निःसारितस्ततः पुत्रः कुक्षिं भित्त्वा पितुः पुनः ।
                     -राजोवाच -
न श्रुतं न च दृष्टं वा भवता तदुदाहृतम् ॥ ४२ ॥

असंभाव्यं महाभाग तस्य जन्म यथोदितम् ।
विस्तरेण वदस्वाद्य मान्धातुर्जन्मकारणम् ॥ ४३ ॥
राजोदरे यथोत्पन्नः पुत्रः सर्वाङ्गसुन्दरः ।
                     -व्यास उवाच -
यौवनाश्वोऽनपत्योऽभूद्‌राजा परमधार्मिकः ॥ ४४ ॥

भार्याणां च शतं तस्य बभूव नृपतेर्नृप ।
राजा चिन्तापरः प्रायश्चिन्तयामास नित्यशः ॥ ४५॥

अपत्यार्थे यौवनाश्वो दुःखितस्तु वनं गतः ।
ऋषीणामाश्रमे पुण्ये निर्विण्णः स च पार्थिवः ॥ ४६॥

मुमोच दुःखितः श्वासांस्तापसानां च पश्यताम् ।
दृष्ट्वा तु दुःखितं विप्रा बभूवुश्च कृपालवः ॥ ४७॥

तमूचुर्ब्राह्मणा राजन्कस्माच्छोचसि पार्थिव ।
किं ते दुःखं महाराज ब्रूहि सत्यं मनोगतम् ॥ ४८॥

प्रतीकारं करिष्यामो दुःखस्य तव सर्वथा ।
                  -यौवनाश्व उवाच -
राज्यं धनं सदश्वाश्च वर्तन्ते मुनयो मम ॥ ४९ ॥

भार्याणां च शतं शुद्धं वर्तते विशदप्रभम् ।
नारातिस्त्रिषु लोकेषु कोऽप्यस्ति बलवान्मम ॥ ५०॥

आज्ञाकरास्तु सामन्ता वर्तन्ते मन्त्रिणस्तथा ।
एकं सन्तानजं दुःखं नान्यत्पश्यामि तापसाः ॥ ५१॥

अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।
तस्माच्छोचामि विप्रेन्द्राः सन्तानार्थं भृशं ततः ॥ ५२॥

वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञास्तापसाश्च कृतश्रमाः ।
इष्टिं सन्तानकामस्य युक्तां ज्ञात्वा दिशन्तु मे ॥ ५३ ॥
कुर्वन्तु मम कार्यं वै कृपा चेदस्ति तापसाः ।
                  -व्यास उवाच -
तच्छ्रुत्वा वचनं राज्ञः कृपया पूर्णमानसाः ॥ ५४ ॥

कारयामासुरव्यग्रास्तस्येष्टिमिन्द्रदेवताम् ।
कलशः स्थापितस्तत्र जलपूर्णस्तु वाडवैः ॥ ५५ ॥

मन्त्रितो वेदमन्त्रैश्च पुत्रार्थं तस्य भूपतेः ।
राजा तद्यज्ञसदनं प्रविष्टस्तृषितो निशि ॥ ५६ ॥

विप्रान्दृष्ट्वा शयानान्स पपौ मन्त्रजलं स्वयम् ।
भार्यार्थं संस्कृतं विप्रैर्मन्त्रितं विधिनोद्‌धृतम् ॥ ५७ ॥

पीतं राज्ञा तृषार्तेन तदज्ञानान्नृपोत्तम ।
व्युदकं कलशं दृष्ट्वा तदा विप्रा विशङ्‌किताः ॥ ५८ ॥

पप्रच्छुस्ते नृपं केन पीतं जलमिति द्विजाः ।
राज्ञा पीतं विदित्वा ते ज्ञात्वा दैवबलं महत् ॥ ५९ ॥

इष्टिं समापयामासुर्गतास्ते मुनयो गृहान् ।
गर्भं दधार नृपतिस्ततो मन्त्रबलादथ ॥ ६० ॥

ततः काले स उत्पन्नः कुक्षिं भित्त्वाऽस्य दक्षिणाम् ।
पुत्रं निष्कासमायासुर्मन्त्रिणस्तस्य भूपतेः ॥ ६१ ॥

देवानां कृपया तत्र न ममार महीपतिः ।
कं धास्यति कुमारोऽयं मन्त्रिणश्चुक्रुशुर्भृशम् ॥ ६२ ॥

तदेन्द्रो देशिनीं प्रादान्मां धातेत्यवदद्वचः ।
सोऽभवद्‌बलवान् राजा मान्धाता पृथिवीपतिः ।
तदुत्पत्तिस्तु भूपाल कथिता तव विस्तरात् ॥ ६३ ॥

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इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे मान्धातोत्पत्तिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

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श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे हनुमच्चरित्रं नाम एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।। ७९ ।।

धनुर्विभज्य समिति लब्धवान्मानिनोऽस्य च ।।
ततो मार्गे भृगुपतेर्दर्प्पमूढं चिरं स्मयन् ।। ७९-१३ ।।

व्यषनीयागमं पश्चादयोध्यां स्वपितुः पुरीम् ।।
ततो राज्ञाहमाज्ञाय प्रजाशीलनमानसः ।। ७९-१४ ।।

यौवराज्ये स्वयं प्रीत्या सम्मंत्र्यात्पैर्विकल्पितः ।।
तच्छुत्वा सुप्रिया भार्या कैकैयी भूपतिं मुने ।। ७९-१५ ।।

देवकार्यविधानार्थं विदूषितमतिर्जगौ ।।
पुत्रो मे भरतो नाम यौवराज्येऽभिषिच्यताम् ।। ७९-१६ ।।

रामश्चतुर्दशसमा दंडकान्प्रविवास्यताम् ।।
तदाकर्ण्या हमुद्युक्तोऽरण्यं भार्यानुजान्वितः ।। ७९-१७ ।।
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गंतुं नृपतिनानुक्तोऽप्यगमं चित्रकूटकम् ।।
तत्र नित्यं वन्यफलैर्मांसैश्चावर्तितक्रियः ।। ७९-१८ ।।

निवसन्नेव राज्ञस्तु निधनं चाप्यवागमम् ।।
ततो भरतशत्रुघ्नौ भ्रातरौ मम मानदौ ।। ७९-१९ ।।

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धनुर्विभज्य ..............भार्यानुजान्वितः

मैंने वहाँ धनुष को भंग करके सीता से विवाह किया मैनें मार्ग में परशुराम का घमण्ड चूर्ण किया तदनंतर मैं अपने पिता की पुरी अयोध्या पहुँचा उस समय राजा दशरथ ने मन्त्रीयों से मन्त्रणा की तथा प्रजा को मुझमें रत जानकर यौवराज पद देना चाहा हे मुने !

यह सुन कर राजा की प्रिया भार्या कैकेयी ने जिनकी बुद्धि देवगण ने देव कार्यार्थ विकृत किया था उन्होंने राजा से कहा मेरे पुत्र भरत को आप युवराज पद प्रदान करें राम को चौदह वर्ष दण्डकारण्य में रहने का आदेश दीजिये यह सुनकर पिता की सहमति न होने पर भी मैं पत्नी सीता और अनुज के साथ चित्रकूट चला आया वहाँ हम तीनों  जंगली फल तथा मांसाहार  द्वारा जीवन व्यतीत करने लगे १३-१८

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राम का चरित्र प्रागैतिहासिक है कई देशों की संस्कृतियों में राम के मिथक विद्यमान हैं । लोगों ने अपनी समाज की तत्कालीन मान्यताओं का राम के चरित्र पर आरोपण करते हुए उन्हें वर्णित किया जैसे शाक्य परम्परा में राम और सीता को भाई बहिन के रूप में जैसे दशरथ जातक में वर्णन है । तो मिश्र वालों ने भी रेमेसिस और सीतामुन के रूप में भाई बहिन के रूप में दाम्पत्य जीवन निर्वहन करने वाला वर्णन किया और प्राचीन ईरान और ईराक की संस्कृति में रामसिन सितासिन के रूप में तथा अक्काडियन मिथकों में भी अक्कड अवध का रूपांतरण है ।

राम मांस खाते थे अथवा नहीं - यह विषय अत्यन्त विवादास्पद है ।  
कुछ लोगों की धारणा है कि वे क्षत्रिय वे अत: मांस खाते थे, परन्तु हमारे विचार में यह धारणा अशुद्ध है ।
यहां हम रामायण के कुछ स्थलों पर विचार करेंगे । वास्तव में वाल्मीकि रामायण पुष्यमित्र सुँग के काल की रचना है।  जब समाज में पशुओं की बलि और मदिरा पान दैविक कृत्य समझे जाते  थे जैसा कि स्वयं वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में सुरापान करना दैविक कार्य और संस्कृति मूलक परम्परा है  ।
उन्होंने राम के चरित्र पर भी उसी काल के समाज की मान्यताओं का और परम्पराओं का आरोपण कर दिया।
 जब श्रीराम को वन-गमन की आज्ञा हुई तब वे अपनी माता कौसल्या से आज्ञा लेने के लिए राजप्रासाद में आये माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन और खाने के लिए कुछ वस्तुएँ दीं, उस समय श्रीराम ने कहा -माते !
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चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने ।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवद्- आमिषम् ॥२९।
मैं मुनि की भाँति मांस युक्त भोजन त्याग करके कन्दमूल फलों से जीवन निर्वाह करता हुआ चौदह वर्षों तक निर्जन वन में निवास करुँगा।।
-सन्दर्भ:- अयोध्या काण्ड- २० वें सर्ग का २९ वाँ श्लोक
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अर्थात्- माता अब तो मुझे चौदह वर्ष तक घोर वन में निवास करना पड़ेगा । अत: मैं आमिष भोजन को छोड़कर मुनिजन-कथित कन्द-मूल, फल आदि खाकर ही अपना जीवन-निर्वाह करूँगा ।

इस श्लोक में 'आामिष' शब्द को देखकर मांस-भक्षण की भावना करने वाले कहते हैं कि श्रीराम मांस-भक्षण करते थे तभी तो उन्होंने कहा - "मैं आमिष को छोड़कर कन्दमूल-फलों से निर्वाह करूंगा।" परन्तु ये मान्यताएं पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की हैं 

पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की एक और वानिगी निम्न श्लोक में प्रतिबिंबित है । राम सीता जैसे प्रागैतिहासिक पात्रों के ऊपर पुष्यमित्र सुँग कालीन पुरोहितों ने  राम और सीता को काम शास्त्रीय पद्धति में निरूपित किया है ।राम जब अशोक वन में प्रवेश करते तब वहाँ का विलास नयी वातावरण और आवास देखकर राम तो सीता के साथ काम क्रीड़ा करते हुए वर्णन किया जाता है।  वह भी राम के द्वारा स्वयं मैरेयक नामक सुरा का पान करते हुए और सीता को अपने हाथ से पान कराते हुए वह  भी शचि और इन्द्र के समान ।

देखें वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड से निम्न श्लोक 

यदि आप रामायण को वाल्मीकि की रचना मानते हो और वाल्मीकि रामायण की प्रत्येक बात सत्य मानते हो तो नीचे राम और सीता के विषय में वर्णित तथ्य को क्या मानोगे सभ्य भाषा में प्रमाण संगत प्रतिक्रिया अवश्य दें 

उत्तर काण्ड का बयालीसवां सर्ग में राम और सीता के विलासिता का दृश्य देखा जा सकता है। 

वहाँ राम स्वयं सीता को मैरेयक नामक मदिरा पिला रहे हैं  ताकि सैक्स की उत्तेजना में वृद्धि हो सके  जैसे यह दृश्य उसी प्रकार है जैसे शची को इन्द्र अपने हाथ से सुरा पिलाया करते हैं- सैक्स करने से पूर्व 

जब अशोक वन में राम और सीता जी का विहार और गर्भिणी सीता का तपोवन देखने की इच्छा करना होता है तब राम  उन्हें स्वीकृति देते हैं।

वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड के इस श्लोक में यही वर्णित है ।

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सीतामादाय हस्तेन मधु मैरेयकं शुचि।।            पाययामास ककुस्त्थ: शचीमिव पुरंदर:।।१८।।

सीताम्=सीता को । आदाय= लाकर ।हस्तेन=हाथ के द्वारा। मधु= मदिरा । मैरेयक= कामोत्पादक। शुचि= शृङ्गाररस अमरःकोश। पाययामास= पिलाई। ककुस्त्थ:=राम । शचीम् इव पुरन्दर= शचि को जैसे इन्द्र पिलाता है ।

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अर्थ:- जैसे पुरन्दर इन्द्र अपनी पत्नी शचि को  मैरेयक  नामक मधु (सुरा ) का पान कराते हैं उसी प्रकार ककुत्स्थकुलभूषण श्रीराम ने अपने हाथ से लाकर काम अथवा श्रृँगाररस उत्पन्न करने हेतु सीता को  मैरेयक नामक मधु (सुरा) का पान कराया।१८।

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विशेष:-

 मैरेयकं-(मारं कामं जनयतीति इति मैरेयकं (मार +ढक् ) निपातनात् साधुः ) सेक्स उत्पन्न करने वाली  मद्यविशेषः ही मैरेयक है  । देखें  अमरःकोश । २। १० । ४२ ॥ 

मैरेयक की परिभाषा संस्कृत के प्राचीन कोश ग्रन्थों में  जैसे अमर कोश शब्द कल्प द्रुम वाचस्पत्यम् आदि में  काम -उत्पन्न करने वाली मदिरा ही  है।

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मैरेयम्, नपुंसकलिंग (मारं कामं जनयतीति । मार + ढक् । निपातनात् साधुः ।) 
मद्यविशेषः । इत्यमरः कोश। २ । १० । ४२ ॥
“यद्यपि । ‘सीधुरिक्षुरसैः पक्वैरपक्वैरासवो भवेत् । मैरेयं धातकीपुष्पगुडधानाम्लसंहितम् ॥’ इति माधवेन भेदः कृतः ।
तथापि सूक्ष्ममनादृत्येदमुक्तम् । मारं कामं जनयति मैरेयं ष्णेयः । निपातनादात् ऐत्वम् ।” 
इति भरतः ॥ (यथा, “मद्यन्तु सीधुर्मैरयमिरा च मदिरा सुरा । कादम्बरी वारुणी च हालापि बलवल्लभा ॥” इति भावप्रकाशस्य पूर्वखण्डे द्वितीये भागे ॥

अर्थ की खींचतान करना और शास्त्रों की प्रक्षिप्त व असंगत बात को भी सही सिद्ध करना अन्ध भक्ति का ही मौलिक गुण है । जो हमारी निर्णय शक्ति को कुण्ठित और प्रकाश हीन करती है। यदि तुम बादाम और दूध को ही मैरेयक मानती हो तो मांस का भक्षण भी आगामी श्लोक में राम और सीता को करते हुए वर्णित किया गया है इसपर क्या तर्क है आपका ?

समय ते अन्तराल में धर्म मैं अनेक विकृतियाँ आ जाती हैं । जब धर्म केवल पुरोहित या किसी विशेष वर्ग के स्वार्थ पूर्ण मान्यताओं का पोषक बन जाता है । अपनी अनुचित बात के समर्थन के लिए पुराने आदर्श पात्रों के चरित्र को भी गलत तरीके से जब पुरोहित वर्ग चित्रित करता है अथावा उनको उस रूप में आरोपित करता है । जनसाधारण जनता पुरोहित वर्ग के इन षड्यंत्र मूलक कारनामों को अन्धभक्ति में रहने कारण कभी नहीं जान पाता  उसे पात्र और कुपात्र का भी वो ही हो पाता 

यही कारण था कि यज्ञ में पशुबलि मानव बलि और पितरों के श्राद्ध के नाम पर मांस मदिरा भक्षण और मन्दिर में देवदासीयों से रति अनुदान धर्म के अंग बन जाते हैं ।

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निम्न श्लोक में पुष्यमित्र सुँग कालीन समाज की एक झलक है ।

प्रमत्तान् अप्रमत्तान् वा नरा मांस- अशिनो भृशम् ।
विध्यन्ति विमुखाम् च अपि न च दोषो अत्र विद्यते ॥४-१८-३९॥

अर्थ-मांसाहारी क्षत्रिय मनुष्य सावधान, असावधान अथवा विमुख होकर भागने वाले पशुओं को भी वेधन करते ही हैं परन्तु उनके लिए मृगया दोष नहीं होता।।

यान्ति राजर्षयः च अत्र मृगयाम् धर्म कोविदाः ।
तस्मात् त्वम् निहतो युद्धे मया बाणेन वानर ।
अयुध्यन् प्रतियुध्यन् वा यस्मात् शाखा मृगो हि असि ॥४-१८-४०॥

अर्थ- हे वानर ! धर्मज्ञ राजा लोग भी इस संसार में शिकार के लिए जाते हैं और विविध जीवों का वध करते हैं इसी लिए तुमको भी मैंने युद्ध में अपना लक्ष्य बनाया तुम मुझसे युद्ध करते या नहीं करते तुम्हारी बध्यता में कोई अन्तर नहीं आता क्याें की तुम भी मृग हो परन्तु शाखा के और मृगया करने का क्षत्रिय को यह धर्म विधान है।

विशेष-
किस प्रकार अधर्म और अन्याय को भी धर्म का लबादा पहनाकर स्वार्थी लोग राम जैसे प्रागैतिहासिक पात्रों का आधार लेकर अपने ही अनुकूल मनोवृत्ति का चरित्र चित्रण करते  हैं ये बाते उपर्युक्त श्लोक में देखी जा सकती हैं।

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दुर्लभस्य च धर्मस्य जीवितस्य शुभस्य च ।
राजानो वानरश्रेष्ठ प्रदातारो न सम्शयः ॥४-१८-४१॥

वानर-श्रेष्ठ राजा लोग दुर्लभ धर्म  जीवन और लौकिक अभ्युदय को देने वाले होते हैं इसमें संशय नहीं ।

( क्या देखे से घायल किये गये सुग्रीव को राम ये बाते अच्छी लग रही होंगी ?)

तान् न हिंस्यात् न च आक्रोशेन् न आक्षिपेन् न अप्रियम् वदेत् ।
देवा मानुष रूपेण चरन्ति एते मही तले ॥४-१८-४२॥

 राम की यह बात भी संगत नहीं कि राजा लोगों की हिंसा न करें और नहीं उनकी निन्दा करें उनके प्रति आक्षेप भी न करें और न उनसे अप्रिय वचन बोलें  क्यों वे राजा वास्तव में देवता हैं  जो मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर विचरण करते हैं ।

त्वम् तु धर्मम् अविज्ञाय केवलम् रोषम् आस्थितः ।
विदूषयसि माम् धर्मे पितृ पैतामहे स्थितम् ॥४-१८-४३॥

( जब राम वालि को विना किसी कारण के छुपकर वाण मारकर घायल करते हैं । और वालि से ये कहते हैं कि तुम धर्म के स्वरूप को न समझकर केवल रोष के वशीभूत हो गये हो इस लिए पिता और पितामह के धर्म पर चलने वाले मेरी निन्दा कर रहे हो ।

 ( क्या राम की वालि प्रति ये बातें स्वाभाविक थीं ? ।

एवम् उक्तः तु रामेण वाली प्रव्यथितो भृशम् ।
न दोषम् राघवे दध्यौ धर्मे अधिगत निश्चयः ॥४-१८-४४॥

श्री राम के ऐसा कहने पर वाली को बड़ी मन व्यथा हुई उसे धर्म के तत्व का निश्चय हो गया उसने राम के दोष का चिन्तन त्याग दिया।

वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड अष्टादश: सर्ग 

आर्येण मम मान्धात्रा व्यसनम् घोरम् ईप्सितम् ।
श्रमणेन कृते पापे यथा पापम् कृतम् त्वया ॥४-१८-३३॥ (किष्किन्धाकाण्ड अष्टादश अध्याय)


अर्थ- हे वालि तुमने जैसा पाप किया है वैसा ही पाप प्राचीन काल में एक श्रमण ने किया था। उसे मेरे पूर्वज मान्धाता ने बड़ा कठोर दण्ड दिया ।जो शास्त्र के अनुसार अभीष्ट था ।
वाल्मीकि रामायण पुष्यमित्र सुँग के काल की रचना है जिसमें बौद्ध भिक्षु श्रमणो का वर्णन प्राचीनता का पुट देते हुए कर दिया गया है ।

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यदि आप वाल्मीकि रामायण को पूर्ण सत्य और वाल्मीकि की रचना मानते हो तो राम का उपर्युक्त चरित्र आदर्शोंन्मुख नहीं हो सकता है ।

अन्यथा कृष्ण चरित्र को भी धूर्तों ने काम शास्त्रीय पद्धति में निरूपित करके उनके गीता वर्णित आध्यात्मिक सिद्धान्त और विधानों की गरिमा को खण्डित किया ही है। 

साहित्य समाज का तत्कालीन दर्पण है और जिस समाज की जैसी पारम्परिक मान्यताएं और रिवाज होते हैं वे उन्ही के अनुरूप महापुरुषों के चरित्रों का चित्रण करते हैं। 

यही कारण है  आज कुछ उग्र प्रवृति के व्यक्ति जय श्री राम के उद्घोष में आतंक उत्पन्न भी करने लगे हैं । यही इस्लामिक संस्कृतियों में हजरत मुहम्मद साहब के अनुयायी बनकर लोग करते हैं ।

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पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्।।
( 3/68 मनुस्मृति)
धर्म शास्त्रों के एक तरफ ये विधान की गृहस्थ के घर में पाँच कत्ल के स्थान -

(पंच सूना गृहस्थस्य) गृहस्थ पुरुष के पाँच हिंसा के स्थान हैं। (चुल्ली) चूल्हा, (पेषणी) चक्की, (उपस्कर) झाड़ू, (कण्डनी) ओखली, (च) और (उदकुम्भः च) घड़ोंची (घड़ा) (बध्यते याः तु वाहयन्) इनका प्रयोग करने से मनुष्य को हिंसा दोष लगने की संभावना है।

अर्थात् प्रत्येक गृहस्थ चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली और घड़ा का प्रयोग करने में किसी न किसी प्राणी की हिंसा कर देता है।
परन्तु दूसरी तरफ हिंसा को धर्म के नाम पर खुला समर्थन नि:सन्देह दो गले विधान का ही रूप है ।
इन्हीं विरोधाभासी तथ्यों पर हम कुछ शास्त्रीय आधार पर विवेचन करेंगे- 
प्रथम रूप से तो मांस शब्द की ही व्युत्पत्ति पुष्यमित्र सुँग कालीन है जो केवल काल्पनिक है महाभारत और मनुस्मृति में मांस शब्द की व्युत्पत्ति समान है ।
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"मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् । 
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।।5/55

शब्दार्थ- माम्=मुझको स=वह  भक्षयिता=भक्षण करेगा । लुटलकार अन्य परुष
 एक वचन । यस्य = जिसका । इह = इस संसार से  ।
एतन् मासस्य  = इस मास का । प्रवदन्ति मनीषिण:= ऐसा मनीषी कहते हैं ।
महाभारत में भी यही व्युत्पत्ति मांस शब्द की है।
विद्वजन मांस के यह लक्षण कहते हैं कि जिसके मांस को मैं इस जन्म में खाता हूँ वह आगामी जन्म में मेरे मांस का भक्षण करेगा ।

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 इसी प्रकार मैथुन - व्यभिचार का विधान करना भी मनुस्मृति मेें विरूद्ध है ।  जैसे - ५।५२ में विधिपूर्वक मांस भक्षण का विधान है, और ५।५६ में सब प्रकार के मांस भक्षण का । २. ५।५३ - ५४ श्लोकों में मांस - भक्षण का खण्डन किया है और ५।५६ में मांस का विधान किया है।

क्या ऐसा परस्पर विरोधी कथन कोई विद्वान् कर सकता है ?
 (ग) ५।५२ में मृतकश्राद्ध का कथन है ।  ५।५५ में यह मान्यता भी निराधार है कि इस शरीर में जिसका जो मांस खाता है, अगले जन्म में उसका मांस वह (जिसका मांस खाया है) खायेगा ।
 अगला जन्म कर्मानुसार ईश्वर की व्यवस्था से मिलता है, पता नहीं कौन कहाँ और किस योनि में जन्म लेगा ? फिर कौन किसका मांस कैसे खा सकेगा, यह सिद्धांत निर्धारण करना असम्भव ही है ।
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जिस प्राणी का मांस मैं इस जन्म में खाता हूं, वह प्राणी परजन्म में मुझे खावेगा, बुद्धिमान् लोग यह मांस का लक्षण बतलाते हैं (मां सः=मांसः)। इसलिए मांस भक्षण कभी न करना चाहिये। -
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•पशुश्चेनिन्हत: स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति,
•स्वपिता यज्ञमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते।

अर्थात् यदि यज्ञ में मारा गया प्राणी स्वर्ग को जाता है,यदि तुमलोग उसको अच्छी जगह पहुँचाते हो तो यज्ञ में अपने पिता को क्यों नहीं मार देते हे आर्य ब्राह्मण ,जिस से वह बेचारा स्वर्ग के आनन्दो का उपभोग कर सके।

पुरोहित वैदिक ब्राह्मणों ने इस आक्षेप का स्वाभाविक उतर देते हुए कहा:-
•कस्मान्न हिंस्यते? तादृश-मंत्र-विनियोगाभावात्,
•यदि संप्राप्येत् तदा पितुरात्मनो वा संज्ञपने न कापि हानि:,

अर्थात् तुम पूछते हो कि पिता को यज्ञ में क्यों नहीं मार देते, इसका उतर है कि शास्त्रों में पिता को मारने का आदेश ही नहीं है,यदि होता तो उस को मारने में कोई हानि नहीं थी।


आद्य शंकराचार्य  अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में लिखते हैं:-

•शाश्त्रहेतुत्वाद् धर्माधर्म विज्ञानस्य शास्त्राच्च हिंसानुग्रहात्मको ज्योतिष्टोमो धर्म इत्यवधारित: तस्माद्विशुद्दं कर्म वैदिकं शिष्टैरनुष्ठीयमानत्वात् अनींद्यमानत्वाच्च। 
ब्रह्मसूत्र3/1/15,शांकरभाष्य

अर्थात् धर्म अधर्म का निर्णय शास्त्रों से होता है,शास्त्रों में हिंसामय ज्योतिष्टोम आदि वैदिक यज्ञों का विधान है,अतः वह हिंसा धर्म ही है।

इसी ब्रह्मसूत्र की व्याख्या में वैष्णव भक्ति मार्ग के बहुत बड़े ऊंचे आचार्य रामानुजाचार्य महाभाग जी अपना तर्क प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं:-

•पशोहिर्संज्ञपननिमित्तां  स्वर्गलोकप्राप्तिम् वदन्तं शब्दमामनन्ति.हिरण्यशरीर ऊर्ध्वं स्वर्गं लोकमेति इत्यादिकम्.अतिशयाभ्युदयसाधनभूतो व्यापार अल्प दुःखदोऽपि न हिंसा, प्रत्युत रक्षणमेव।

अर्थात् शास्त्रों में कहा गया है कि जिस प्राणी की यज्ञहेतु हत्या की जाती है,वह सुवर्ण का देह धारण कर के स्वर्ग को जाता है,इस तरह यज्ञ में मारा जाने वाला थोड़ा कष्ट सह कर बहुत लाभ प्राप्त करता है,अतः यह उस के भले की ही बात है।

श्री रामानुजाचार्य महाभाग कहते हैं:-

‘हिंसनीयं प्रति अननुग्राहकत्व विशिष्ट प्राणवियोगानुकूल व्यापारत्वं हिंसात्वम्।
अतिशयिताभ्युदय साधनभूतो व्यापारोडल्पदुःखदो पि न हिंसा प्रत्युत रक्षणमेव।’

अर्थात् वही हिंसा है जो हिंसनीय का अननुग्राहक प्राण वियोगानुकूल व्यापार है। तात्पर्य कि हिंसनीय का अनुग्रह रहित प्राण-वियोग व्यापार ही हिंसा है। यज्ञादि में हिंसनीयननुग्राहक प्राण-वियोगानुकूल व्यापार नहीं है अतः वहाँ हिंसा नहीं अपितु रक्षा ही होती है ‘हिरण्यशरीरः ऊर्ध्वा स्वर्ग लोकमेति’ विधि-पूर्वक जिस पशु का आलम्भन होता है वह पशु हिरण्य-शरीर होकर ज्योतिर्मय शरीर धारण कर लेता है भगवत् कथामृत से सम्पूर्ण कल्मषों का हनन एवं दिव्य धर्म का आर्जन होता है।

इसी स्वर को भगवान मनु जी और भी ज्यादा मुखरित करते हुए उपदेश करते हैं।:-


यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा ।यज्ञो ऽ स्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।।5/39
यज्ञ के लिए पशुओं की सृष्टि स्वयं ही ब्रह्मा ने की यज्ञ में पशुओं का वध वध नहीं है ।
ये (५।२६ - ४२) सतरह श्लोक निम्न कारणों से प्रक्षिप्त हैं -
(क) जिस मांस के विषय में मनु ने बहुत ही स्पष्ट लिखा है -
(१) यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।। (११।९५)
२. नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित् ।
न च प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। (५।४८) 
 अर्थात् मांस राक्षसों का भोजन है । यह प्राणियों की हिंसा के बिना नहीं प्राप्त होता । और प्राणियों की हिंसा से सुख नहीं मिल सकता, इसलिये मांस - भक्षण कभी न करें । और ५।५१ में मांस खाने वाले को घातक - आठ पापियों में गिना है । क्या वही विद्वान् - मनु मांस भक्षण का विधान कर सकता है ? इसलिये ५।२६-३८ तक के मांस भक्षण के प्रतिपादक श्लोक मनु की मान्यता से सर्वथा विरूद्ध हैं । क्यों कि मनु ने अहिंसा को परम धर्म माना है, फिर वह हिंसा का विधान कैसे कर सकता है ।
(ख) और यज में पशुबलि का विधान ५।३९ - ४२ में मनु की मान्यता के विरूद्ध है । जिस यज्ञ का एक ‘अध्वर - हिंसारहित’ सार्थक नाम शास्त्रों में बताया है और जिसे ‘यज्ञों वै श्रेष्ठतम कर्म’ कहकर सबसे उत्तम कर्म माना है, क्या उसमें प्राणियों की बलि करना कदापि संगत हो सकता है ? और यज्ञ का उद्देश्य है - वायु, जलादि की शुद्धि करना । इसलिये उसमें रोग नाशक, कीटाणु- नाशक, पौष्टिक, सुगन्धित द्रव्यों की आहुति दी जाती है । यदि मांस की आहुति से यज्ञ के उद्देश्य, की पूर्ति होती हो तो मनुष्य को अन्त्येष्टि के समय सुगन्धित घृत, सामग्री चन्दनादि के प्रक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है । क्यों कि उनके मत से तो मांस से ही उद्देश्य पूर्ति हो जायेगी । किन्तु यह प्रत्यक्षविरूद्ध है । अग्नि में मांस डालने से दुर्गन्ध ही फैलती है, सुगन्ध नहीं । और जिस मनु ने गृहस्थी के लिये पंच्चमहायज्ञों का इसलिये विधान किया है कि (३।६८-६९) घर में चूल्हा, चक्की, बुहारी, ऊखल तथा जल - कलशादि के द्वारा अनजाने में भी जो हिंसा हो जाती है, उनके प्रायश्चित के लिये दैनिक महायज्ञों द्वारा परिहार हो । क्या वह मनु जान बूझकर यज्ञों में पशुओं के वध का विधान कर सकता है ? और उस पशु - वध का कोई प्रायश्चित भी नहीं लिखा ।
और मनु जी ने वेद को परम प्रमाण माना है । ‘धर्म जिज्ञासमाननां प्रमाणं परमं श्रुतिः’ यह मनु जी का निश्चित सिद्धान्त है । जब वेदों में पशुओं की हिंसा के निषेध का स्पष्ट विधान किया गया है, तो मनु वेद - विरूद्ध पशुवध को कैसे कह सकते हैं ? वास्तव में ऐसी मिथ्या मान्यतायें वाम मार्गी लोगों की हैं, जिन्होंने मनु स्मृति जैसी प्रामाणिक स्मृति में भी अपनी मान्यता की पुष्टि में प्रक्षेप किया है । क्यों कि उनकी मान्यता है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा तथा मैथुन ये पांच्चमकार मोक्ष देने वाले हैं ।
(ग) ५।४२ में ‘अब्रवीन्मनुः’ वाक्य से भी इन श्लोकों की प्रक्षिप्तता स्पष्ट हो रही है कि इन श्लोकों का रचयिता मनु से भिन्न ही है । क्यों कि मनु की यह शैली नहीं है कि वह अपना नाम लेकर स्वयं प्रवचन करें ।
(घ) ५।४२ में यज्ञ से भिन्न मधुपर्क तथा श्राद्ध में भी पशुओं की हिंसा लिखी है, यह भी मनु की मान्यता के विरूद्ध है । मधुपर्क, जिसमें मधु - शहद, घृत अथवा दही का ही मिश्रण होता है, उसमें भी मांस की बात कहना मधुपर्क को ही नहीं समझना है । और जिस श्राद्ध के लिये (३।८२ में) मनु ने अन्न, दूध फल, मूल, जलादि से विधान किया है, क्या वह अपने वचन के ही विरूद्ध श्राद्ध में मांस का विधान कर सकते हैं ? यथार्थ में यह मृतकश्राद्ध की कल्पना करने वालों का अयुक्तियुक्त प्रक्षेप है ।
(ड) इन श्लोकों में अवान्तर विरोध भी कम नहीं है, जिससे स्पष्ट है कि इनके बनाने वाले भिन्न - भिन्न व्यक्ति थे । क्यों कि एक व्यक्ति के लेख में ऐसे सामान्य विरोध नहीं हो सकते । जैसे - १. ५।३१ श्लोक में यज्ञ के लिये मांस का खाना देवों की विधि बताई है और यज्ञ से अन्यत्र शरीर - पुष्टि के लिये मांस खाना राक्षसों का कार्य माना है । यदि मांस खाने में दोष है, तो चाहे यज्ञ के निमित्त से खाये अथवा अन्य निमित्त से, दोष कैसे हटाया जा सकता है ? और देवता व राक्षस का इससे क्या भेद हुआ ? मांस तो दोनों ही खा रहे हैं ।
२. और ५।१४-१५ में मछलियों के खाने का सर्वथा निषेध किया हे और ५।१६ में हव्य - कव्य में मछलियों के खाने का विधान किया है । 
३. ५।२२ में कहा है कि सेवकों की आजीविका के लिये पशु - पक्षियों का वध करना चाहिये और ५।३८ में कहा है कि यज्ञ से अन्यत्र पशुओं का वध करने वाला जितने पशुओं को मारता है, उतने जन्मों तक वह बदले में मारा जाता है । ४. और ५।११-१९वें श्लाकों में कुछ पशुओं को भक्ष्य और कुछ को अभक्ष्य कहा है और ५।३० में कहा है कि ब्रह्मा ने सारे पशुओं व पक्षियों को खाने के लिये बनाया है । अतः इस प्रकार के परस्पर - विरोधी वचन किसी विद्वान् व्यक्ति के भी नहीं हो सकते, मनु के कहना तो अनर्गल प्रलाप ही है ।
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अर्थात् यज्ञ में किया गया वध, वध नहीं होता।वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति।

या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे ।अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ ।।5/44
 (अस्मिन् चराचरे) इस लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म निकला है।

सत्य को स्वीकार करना कभी भी तथ्य हीन बहस नहीं है। गलतियाँ अगर हैं तो स्वीकार करो उन्हें छिपाने या सही साबित करने से तो अपनी जहालत ही जाहिर होती है । परन्तु दुर्भाग्य इस बात का है कि आज भी लोगों की बुद्धि कुण्ठित और प्रकाश हीन है उसमें सही और गलत की निर्णय शक्ति नहीं है ।
 धर्म किसी स्वार्थ का समर्थन नहीं करता जैसा कि पुरोहित वर्ग ने धर्म के नाम पर अपने लिए सभी भौतिक सुविधाओं का विधान बनाकर अन्य लोगों को गुलामी के विधान बनाए हैं।।








यहूदियों के पुराने नियमों में यज्ञ और हवन जैसे धार्मिक विधान भी थे जो यहुद: अथवा यदु की यज्ञ प्रणालियों से प्रचारित थे ।

परन्तु हम इन विकृतियों का समर्थन नहीं करते हैं 

ये मूल यहूदी परम्परा नहीं अन्यथा मूसा के समय तक यहूदी गाय और बैल की पूजा करते थे ।


प्राचीन विश्व के दौरान पवित्र बैल की पूजा पश्चिमी विश्व की स्वर्ण बछड़े की प्रतिमा से सम्बंधित बाइबिल के प्रसंग में सर्वाधिक समानता रखती है, यह प्रतिमा पर्वत की चोटी के भ्रमण के दौरान यहूदी संत मोसेज़ द्वारा पीछे छोड़ दिए गए लोगों द्वारा बनायी गयी थी और सिनाइ (एक्सोडस) के निर्जन प्रदेश में यहूदियों द्वारा इसकी पूजा की जाती थी। 

मर्दुक "उटू का बैल" कहा जाता है। 
भगवान शिव की सवारी नंदी, भी एक बैल है। वृषभ राशि का प्रतीक भी पवित्र बैल है। बैल मेसोपोटामिया और मिस्र के समान चन्द्र संबंधी हो या भारत के समान सूर्य संबंधी हो, अन्य अनेकों धार्मिक और सांस्कृतिक अवतारों का आधार होता है और साथ ही साथ नवयुग की संस्कृति में आधुनिक लोगो की चर्चा में होता है।

शिव को मृडीक भी कहा गया है ।



और गाय खाने की परम्परा तो भारतीय ग्रन्थ मनुस्मृति के पञ्चम और षष्ठ अध्याय में है । तथा पुराणों में भी पितरों को और अतिथि को गो मांस खिलाने सन्दर्भ अब तक पुराण में हैं ।

यह विकृति कालान्तर में किसी भी प्रत्येक धर्म नें हुई है । इस लिए यहूदियों की केवल कमियाँ मत देखो उनकी अच्छाईयाँ भी देखो दुनियाँ में एक अकेला इजरायल देश यहूदीयों का है यहूदी दुनिया के सबसे बुद्धिमान और कर्तव्य निष्ठा हैं ऋग्वेद में यदु और तुर्वसु को भी देव संस्कृतियों के विरोध का सामना किया वेदों इसके सैकड़ो सन्दर्भ हैं ।

प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार "रोहि"

अभीर और आभीर संस्कृत भाषा में तो वैदिक भाषा में अभीरु शब्द है । 
कालीदास के समकालीन अमर सिंह ने आभीर शब्द की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को देखते हुए की 

आभीरः, पुल्लिंग (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः )   अर्थात जो सर्वत्र विरोधीयों में भय का कारण बनता है । 
गोपालन करने से ये गोप  कहलाए 
 अमरः कोश ॥ आहिर इति प्राकृत भाषा में । 

हिब्रू भाषा में ये अबीर के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक और शक्तिशाली का वाचक है ।

यद्यपि मार्शल आर्ट के जनक यहूदियों के एक मूल कबीले को भी अबीर कहते हैं शक्तिशाली होने के कारण 
जूडो कराटे जैसी मार्शल आर्ट की कलाओ
 इन्हीं अहीरों ने दुनियाँ को दी बौद्ध भिक्षु श्रमण भी जूडो कराटे इन्ही अहीरों से परम्परागत रूप में प्राप्त करते हैं ।

बीर या अबीर — हिब्रू भाषा में प्राप्त शब्द है ।
हिब्रू से लिप्यंतरण : אביר (अबीर)
 जिसका अर्थ: है  "शक्तिशाली"

अहीर
 मूलतः (Scythian origin) की आर्यन नस्ल हैं जो (Middle East)( तुर्की, इरान, इजरायल, इराक, कज़ाख़िस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, बलूचिस्तान, सिंध) के निवासी माने जाते हैं।

परन्तु ये धारणा भी एकांकी है क्यों अहीर ट्राइब अफ्रिका से लेकर एशिया और यूरोप के द्वार यूनान तक आबाद रही है ।
यह सबसे प्राचीनतम मानव जातियों में सुमार है 
गायत्री जो वेदों की अधिष्ठात्री देवी वह भी एक आभीर कन्या थीं ब्रह्मा ने जिसे अपनी अर्धांगनी स्वीकार कर ज्ञान और वेदों की अधिष्ठात्री देवी आभीर गोप अथवा यादव कन्या थी यह पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय १५-१६-१७ में विस्तार से वर्णित है । 

हमारा भारतखंड बहुत विशाल हुआ करता था जो यूनान रोम से लेकर जंबुद्वीप(India) तक फैला था
हमारे महान आर्य सभ्यता के महाग्रंथों और वेदों की रचना भी भारतवर्ष के Middle East हिस्से में हुई जो यदुवंशी अभीरों का निवास स्थान माना जाता है।
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अहीर शब्द की उत्पत्ति अजरबैैैजानियन शब्द अवर (Avar) से हुई।
'अवर' से संस्कृत का शब्द बना "अभीर"।
 और अभीर का सामूहिक रूप आभीर है ।

अभीर कुल में यदु का जन्म होन से अभीर आगे चल यदुवंशी/यादव कहलाए।
सैमेटिक मिथकों में अबीर याकूव अथवा ययाति का एक नाम है।
अहीर एक प्राचीन नस्ल है जिसे इतिहासकार आर्य चरावाहे के रूप में वर्णित करते हैं ।

यदु के छोटे भाई तुर्वसु ने तुर्कीस्तान बसाया । हिब्रू बाइबिल मेें तुुुरबजू के रूप में  तुरवसु का वर्णन है । 

इसके अतिरिक्त अहीरों ने तुर्की, तथा  Israel में भी साम्राज्य स्थापित किए थे।


एक नज़र यहूदी ग्रंरंथों में वर्णित सनातनी अभीरों का इतिहास।
यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय Genesis 49: 24 पर --- अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है ।

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The name Abhir is one of The titles of the living god for some reason it,s usually translated( for some reason all god,s
in Isaiah 1:24 we find four names of
The lord in rapid succession as Isaiah
Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir ----  Israel declares...
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Abir (अभीर )---The name reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this name with ---- Mighty One , it is probably best translated whith --- Protector --रक्षक ।
हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्
तथा (५)----(इलॉही)
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हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है
इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला ) को अभीर
का विशेषण दिया था ।

इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।

जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है ।
ययाति यम का भी विशेषण है ।
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"ईरान" शब्द की उत्पत्ति भी अहीर शब्द से ही मानी जाती है
सैंट्रल युरोप (Greece, Ukraine, Germany) में आज भी अहीरों द्वारा स्थापित "Avar khagnate" नामक प्रांत है जो प्रमाणित करता है अहीरों के युरोप में शासन और मौजुदगी को।

इतना सिद्ध हो चुका है कि हमारा हिंदू धर्म इस संसार का सबसे पवित्र और सबसे पुराना धर्म है।

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ऋग्वेद । ३ ।  १ ।  १२ ।  में यह्व अग्नि रूप में ईश्वर का वाचक है जो यहूदियों का देवता यहोवा ही है ।
उदुस्रिया जनिता यो जजानापां गर्भो नृतमो यह्वो अग्निः । यह्वो महान् । “

ऋग्वेद सप्तम मण्डल का अष्टम सूक्त की दूसरी ऋचा

अयम् । ऊं इति । स्यः । सुऽमहान् । अवेदि । होता । मन्द्रः । मनुषः । यह्वः । अग्निः ।

वि । भाः । अकरित्यकः । ससृजानः । पृथिव्याम् । कृष्णऽपविः । ओषधीभिः । ववक्षे ॥२।।

“स्यः सः "अयं "होता देवानामाह्वाता "मन्द्रः मदयिता "यह्वः महान् "अग्निः "मनुषः मनुष्यस्य "सुमहान् “अवेदि सुमहत्त्वेन प्रज्ञायते । 

अपि च सोऽयं "भाः दीप्तीः “वि “अकः विकरोत्यन्तरिक्षे । किंच सोऽयं "कृष्णपविः कृष्णमार्गोऽग्निः "पृथिव्यां "ससृजानः सृज्यमानः सन् “ओषधीभिर्ववक्षे वर्धते ॥

यहोवा  यहूदियों का ईश्वर  जिसे वेदों में यह्व: के रूप में वर्णित किया ।

मूसा को सिनाई पर्वत पर जलती पहाड़ी के पीछे इसका दिव्य दर्शन हुआ जिसने धर्म के दश सूत्र मूसा को दिये जो दुनियाँ के धर्मों की आधारशिला बने भारतीय पुराणों में इन्हें ही धर्म के दश लक्षण कहा है ।

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। 

(मनुस्‍मृति ६.९२)


तो याज्ञवल्क्य स्मृति ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं:

अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।। 

(याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)


(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)


श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :


सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।

अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।

संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।

नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।

अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।

तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।

सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।

नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।

त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )

महात्मा विदुर 

महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं -


इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ।

उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है। नीचे ऋग्वेद में यहोवा के रूपांतरण यह्व: का वर्णन है।

ऋग्वेद में ३ / १ / १२ 

अक्रः  न बभ्रिः संऽइथे। महीनां दिदृक्षेयः  सूनवे । भाःऽऋजीकः ।

उत्उस्रियाः  जनिता यःजजान अपां गर्भः नृऽतमः यह्वः अग्निः ॥१२॥

 सायण भाष्य:-जनिता सर्वस्य लोकस्य जनयिता अपामुदकानां गर्भो गर्भरूपो नृतमो नेतृतमोऽतिशयेन मनुष्याणां रक्षिता यह्वो महान् योऽग्निरक्रः परेषामाक्रमिता परैरनाक्रमणीयो वा ॥

 नेति पादपूरणः ॥ समिथे संग्रामे महीनां महतीनां स्वसेनानां बभ्रिर्भर्ता दिदृक्षेयः सर्वैर्दर्शनीयो भाऋजीकः स्वदीप्त्या प्रकाशमानः सोऽग्निः सूनवे हविषां प्रदात्रे यजमानाय तदर्थमुस्रिया अप उज्जजान । उदजनयत् ॥ सूनवे । षू प्रेरण इत्यस्माद्धातोरौणादिको नुप्रत्ययः ॥


अव॑र्धयन्सु॒भगं॑ स॒प्त य॒ह्वीः श्वे॒तं ज॑ज्ञा॒नम॑रु॒षं म॑हि॒त्वा ।शिशुं॒ न जा॒तम॒भ्या॑रु॒रश्वा॑ दे॒वासो॑ अ॒ग्निं जनि॑मन्वपुष्यन् ॥४।।

  सायण भाष्य:- सप्त सर्पणशीला यह्वीर्यह्व्यो महत्यो नद्यः सुभगं शोभनधनं श्वेतं शुभं जज्ञानं जातं महित्वा महत्त्वेनारुषमारोचमानमप्सु स्थितमग्निमवर्धयन् । स्वकार्यभूताभिरोषधीभिर्वृद्धिं प्रापितवत्यः । 

यद्वा दिव्यमग्निमापो वर्धयंत्यबिंधनत्वात्तस्य । किंच शिशुं न जातं यथा जातं शिशुमश्वा वडवा अभ्यारुः अभिगच्छंति । तथा नद्य उत्पन्नमग्निमभ्यारुः । अभिजग्मुः । अपि च देवासो देवा अग्निं जनिमन् जन्मन्युदके वा वपुष्यन् । वपुर्दीप्तिमकुर्वन् ।


शु॒क्रेभि॒रङ्गै॒ रज॑ आतत॒न्वान्क्रतुं॑ पुना॒नः क॒विभिः॑ प॒वित्रैः॑ ।शो॒चिर्वसा॑न॒ः पर्यायु॑र॒पां श्रियो॑ मिमीते बृह॒तीरनू॑नाः ॥५।।


  सायण-भाष्य:- अग्निः शुक्रेभिः शुक्रैरंगैस्तेजोभी रजोंऽतरिक्षमाततन्वान् आतन्वन् व्याप्नुवन् क्रतुं कर्मणां कर्तारं यजमानं कविभिः क्रांतप्रज्ञैः स्तोतव्यैर्वा पवित्रैः शोधकैस्तेजोभिः पुनानः शोधयन् शोचिर्दीप्तिं वस्त्रस्थानीयं परि परितो वसान आच्छादयन् अपामपस्यतां कर्मवतामायुरन्नं बृहतीः प्रभूता अनूनाः संपूर्णाः श्रियः संपदश्च मिमीते । करोति ॥ ॥१३॥


व॒व्राजा॑ सी॒मन॑दती॒रद॑ब्धा दि॒वो य॒ह्वीरव॑साना॒ अन॑ग्नाः ।सना॒ अत्र॑ युव॒तय॒ः सयो॑नी॒रेकं॒ गर्भं॑ दधिरे स॒प्त वाणीः॑ ॥६।।

 सायण-भाष्य:- अनदतीरभक्षयंतीरदब्धा अहिंसिता मातृभूता अपोऽग्निः सीं सर्वतो वव्राज। 

व्रजति । अग्निरपां शोषकः तं चापः शमयंति तदुभयमिह नास्तीत्युक्तं भवति । कीदृश्यस्ताः ।

 दिवो यह्वीः । अंतरिक्षस्यापत्यभूताः । अवसानाः । वस्त्रमनाच्छादयंत्यः । वस्त्रस्थानीयस्य जलस्य विद्यमानत्वात् । अत एवानग्नाः । किंच ता अपि सनाः सनातन्यो युवतयो नित्यतरुण्यः । नित्यवृद्धा इत्यर्थः । सयोनीः समानमंतरिक्षं स्थानं यासां ताः सप्त वाणीर्नद्य एकमग्निं गर्भं गर्भस्थं दधिरे । दधते ॥

(ऋग्वेद तृतीय मण्डल के प्रथम सूक्त)



यहूदी धर्म या यूदावाद (Judaism) विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से है, तथा दुनिया का प्रथम एकेश्वरवादी धर्म माना जाता है। यह सिर्फ एक धर्म ही नहीं बल्कि पूरी जीवन-पद्धति है जो कि इस्राइल और हिब्रू भाषियों का राजधर्म है। इस धर्म में ईश्वर और उसके नबी यानि पैग़म्बर की मान्यता प्रधान है। इनके धार्मिक ग्रन्थों में तनख़तालमुद तथा मिद्रश प्रमुख हैं। यहूदी मानते हैं कि यह सृष्टि की रचना से ही विद्यमान है। यहूदियों के धार्मिक स्थल को मन्दिर व प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। ईसाई धर्म व इस्लाम का आधार यही परम्परा और विचारधारा है। इसलिए इसे इब्राहिमी धर्म भी कहा जाता है।

यहूदी धर्म
יַהֲדוּת Yahadut


बाबिल
 (बेबीलोन) के निर्वासन से लौटकर इज़रायली जाति मुख्य रूप से येरूसलेम तथा उसके आसपास के 'यूदा' (Judah) नामक प्रदेश में बस गया था, इस कारण इज़रायलियों के इस समय के धार्मिक एवं सामाजिक संगठन को यूदावाद (यूदाइज़्म/Judaism) कहते हैं।

उस समय येरूसलेम का मंदिर यहूदी धर्म का केन्द्र बना और यहूदियों को मसीह के आगमन की आशा बनी रहती थी। निर्वासन के पूर्व से ही तथा निर्वासन के समय में भी यशयाह, जेरैमिया, यहेजकेल और दानिएल नामक नबी इस यूदावाद की नींव डाल रहे थे। वे यहूदियों को याहवे के विशुद्ध एकेश्वरवादी धर्म का उपदेश दिया करते थे और सिखलाते थे कि निर्वासन के बाद जो यहूदी फिलिस्तीन लौटेंगे वे नए जोश से ईश्वर के नियमों पर चलेंगे और मसीह का राज्य तैयार करेंगे।

निर्वासन के बाद एज्रा, नैहेमिया, आगे, जाकारिया और मलाकिया इस धार्मिक नवजागरण के नेता बने। 537 ई॰पू॰ में बाबिल से जा पहला काफ़िला येरूसलेम लौटा, उसमें यूदावंश के 40,000 लोग थे, उन्होंने मन्दिर तथा प्राचीर का जीर्णोंद्धार किया। बाद में और काफिले लौटै। यूदा के वे इजरायली अपने को ईश्वर की प्रजा समझने लगे। बहुत से यहूदी, जो बाबिल में धनी बन गए थे, वहीं रह गए किन्तु बाबिल तथा अन्य देशों के प्रवासी यहूदियों का वास्तविक केन्द्र येरूसलेम ही बना और यदा के यहूदी अपनी जाति के नेता माने जाने लगे।

किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा का तीव्र विरोध तथा अन्य धर्मों के साथ समन्वय से घृणा यूदावाद की मुख्य विशेषता है। उस समय यहूदियों का कोई राजा नहीं था और प्रधान याजक धार्मिक समुदाय पर शासन करते थे। वास्तव में याह्वे (ईश्वर) यहूदियों का राजा था और बाइबिल में संगृहीत मूसा संहिता समस्त जाति के धार्मिक एवं नागरिक जीवन का संविधान बन गई। गैर यहूदी इस शर्त पर इस समुदाय के सदस्य बन सकते थे। कि वे याह्वे का पन्थ तथा मूसा की संहिता स्वीकार करें। ऐसा माना जाता था कि मसीह के आने पर समस्त मानव जाति उनके राज्य में संमिलित हो जायगी, किन्तु यूदावाद स्वयं संकीर्ण ही रहा।

यूदावाद अंतियोकुस चतुर्थ (175-164 ई0पू0) तक शान्तिपूर्वक बना रहा किन्तु इस राजा ने उसपर यूनानी संस्कृति लादने का प्रयत्न किया जिसके फलस्वरूप मक्काबियों के नेतृत्व में यहूदियों ने उनका विरोध किया था।

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सीनाई पर्वत (अंग्रेज़ी: Mount Sinai, माउण्ट सायनाय; इब्रानी: הר סיני, हार सीनाई), जिसे अरबी में तूर सीना (طور سيناء) या जबल मूसा (جبل موسى, अर्थ: मूसा का पर्वत) कहते हैं,।

 मिस्र के सीनाई प्रायद्वीप में संत कैथरीन के पास स्थित एक पर्वत का नाम है। बदूईन लोग इसे होरेब पर्वत के नाम से भी बुलाते हैं।

 सीनाई पर्वत का कुरान में कई बार उल्लेख किया गया है;. उदाहरण के लिए 'अंजीर' (सूरा अत-तीन) अध्याय में 'तूर सीनीन' के रूप में.

 बाइबल में मुख्यतः पलायन की पुस्तक में इसका उल्लेख किया गया है।

 यहूदी, ईसाई और इस्लामी परंपरा के अनुसार, सीनाई पर्वत ही वह स्थान है जहां मूसा दस हुक्मनामे प्राप्त करते हैं, हालांकि सभी पक्ष इस प़र सहमत नहीं हैं कि बाइबिल में इस पहाड़ विशेष का उल्लेख किया गया है।

पहाड़ के शिखर प़र एक मस्जिद, जिसमे मुसलमानों द्वारा अभी भी प्रार्थना की जाती है और एक ग्रीक रूढ़िवादी पूजास्थल (जिसका निर्माण 1934 में एक 16वीं सदी के चर्च के खंडहरों प़र किया गया था) स्थित है, जिसे जनता के लिए खोला नहीं गया है। माना जाता है कि पूजास्थल में वह चट्टान स्थित है जिससे ईश्वर ने नियमों की पट्टिकाएं बनाई थीं।

शिखर प़र "मूसा की गुफा" भी स्थित है जहां मूसा ने दस हुक्मनामों को पाने के लिए प्रतीक्षा की थी।



दस धर्मादेश या दस फ़रमानइस्लाम धर्म,यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के वह दस नियम हैं जिनके बारे में उन धार्मिक परम्पराओं में यह माना जाता है कि वे धार्मिक नेता मूसा को ईश्वर ने स्वयं दिए थे। इन धर्मों के अनुयायिओं की मान्यता है कि यह मूसा को सीनाई पर्वत के ऊपर दिए गए थे।[1] पश्चिमी संस्कृति में अक्सर इन दस धर्मादेशों का ज़िक्र किया जाता है या इनके सन्दर्भ में बात की जाती है।[2]

दस फ़रमानों के साथ मूसा - सन् १६५९ में रेमब्रांट द्वारा बनाई गई तस्वीर

दस धर्म आदेश-

ईसाई धर्मपुस्तक बाइबिल और इस्लाम की धर्मपुस्तक कुरान के अनुसार यह दस आदेश इस प्रकार थे:[3]

अंग्रेज़ीहिन्दी अनुवाद

1. Thou shalt have no other Gods before me
2. Thou shalt not make unto thee any graven image
3. Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain
4. Remember the Sabbath day, to keep it holy
5. Honor thy father and thy mother
6. Thou shalt not kill
7. Thou shalt not commit adultery
8. Thou shalt not steal
9. Thou shalt not bear false witness
10. Thou shalt not covet

१. तुम मेरे अलावा किसी अन्य देवता को नहीं मानोगे
२. तुम मेरी किसी तस्वीर या मूर्ती को नहीं पूजोगे
३. तुम प्रभु, अपने ईश्वर का नाम अकारण नहीं लोगे
४. सैबथ का दिन याद रखना, उसे पवित्र रखना
५. अपने माता और पिता का आदर करो
६. तुम हत्या नहीं करोगे
७. तुम किसी से नाजायज़ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रखोगे
८. तुम चोरी नहीं करोगे
९. तुम झूठी गवाही नहीं दोगे
१०. तुम दूसरे की चीज़ें ईर्ष्या से नहीं देखोगे

टिपण्णी १ - हफ़्ते के सातवे दिन को सैबथ कहा जाता था जो यहूदी मान्यता में आधुनिक सप्ताह का शनिवार का दिन है।


यहूदी धर्म विश्व के प्राचीनतम धर्मों में से है,
 तथा दुनिया का प्रथम एकेश्वरवादी धर्म माना जाता है। 
यह सिर्फ एक धर्म ही नहीं बल्कि पूरी जीवन पद्धति है।
 जो कि इस्राइल और हिब्रू भाषियों का राजधर्म है। 
इस धर्म में ईश्वर और उसके नबी यानि 
पैग़म्बर की मान्यता प्रधान है। 
इनके धार्मिक ग्रन्थों में तनख़, 
तालमुद तथा मिद्रश प्रमुख हैं। 
यहूदी मानते हैं कि यह सृष्टि की
 रचना से ही विद्यमान है,यहूदियों के धार्मिक स्थल को 
मन्दिर व प्रार्थना स्थल को सिनेगॉग कहते हैं। 
ईसाई धर्म व इस्लाम का आधार
 यही परंपरा और विचारधारा है। 
इसलिए इसे इब्राहिमी धर्म भी कहा जाता है।

यहूदी धर्म के लिए इमेज नतीजे


यहूदी धर्म (JUDAISM): मान्यता, इतिहास और तथ्य

यहूदियों के जीवन की हर अवस्था, 
हर हफ़्ता, हर दिन और दिन की हर गतिविधि, 
अर्थ से भरी हुई होती है. 
वह अर्थ यहूदी धर्म की व्यावहारिक शिक्षाओं से मिला है 
जिन्हें हलाख़ा कहते हैं, जिसका अर्थ “मार्ग” होता है.

यहूदियों का एकेश्वरवादी धर्म है,
 जो यह मानता है कि ईश्वर की उपस्थिति का अनुभव
 मानव गतिविधियों और इतिहास द्वारा होता है. 
यह उपस्थिति कुछ मान्यताओं और मूल्यों की अभिव्यक्ति है,
 जो कर्म,सामाजिक व्यवस्था औरसंस्कृति में दृष्टिगोचर होती है.

यहूदी धर्म की मान्यता

यहूदी धर्म का मानना है 
कि यहूदी समुदाय का दिव्य के साथ प्रत्यक्ष सामना होता है
 और स्थापित होने वाला यह संबंध, बेरित, अटूट है
 और यह समूची मानवता के लिए महत्त्वपूर्ण है.
 ईश्वर को ‘तोरा प्रदायक’,
 यानी दिव्य प्रदायक के रूप में देखा जाता है.

अपने पारंपरिक व्यापक रूप में ‘
हिब्रू ग्रंथ’ और यहूदी मौखिक परंपराएं, 
धार्मिक मान्यताएँ रीति-रिवाज और अनुष्ठान,
 ऐतिहासिक पुनर्संकलन और इसके आधिकारिक ग्रंथों की
 विवेचना है.
 ईश्वर ने दिव्य आशीष के लिए यहूदियों का चुनाव
 करके उन्हें मानवता तक इसे पहुँचाने का माध्यम भी बनाया
 और उनसे तोरा के नियमों के पालन
 और विश्व के अन्य लोगों के 
गवाह के रूप में काम करने की अपेक्षा की.
 यहूदी धर्म के अन्य तत्त्व मोजेज़ के साथ उभरे. 
इनमें यह मूल मान्यता भी शामिल है 
कि नैतिक चयन की कुशलता ही मानव जाति 
को परिभाषित करती है. 
इसीलिए सभी व्यक्ति ईश्वर के साथ एक प्रतिज्ञा द्वारा जुड़े हैं
. यह एक ऐसा संबंध है, 
जिसे यहूदी उदाहरण और प्रमाण द्वारा सामने रखते हैं.
 मनुष्य के पास ईश्वर के क़ानून के 
आज्ञापालन (अच्छाई) और आज्ञा का उल्लंघन (बुराई),
 दो विकल्प हैं और इसी संदर्भ में वह किसी एक का 
नैतिक चुनाव करता है.

पाप को क़ानून या तोरा का जान-बूझकर किया गया 
उल्लंघन माना जाता है और तोरा की 
ओर पुनः वापस जाना एक विमर्शित चयन कहा जाता है.
 यही नहीं, मनुष्य की नैतिक प्रवृत्ति न्यायपूर्ण 
समाज की स्थापना तक विस्तृत और उससे गुंथी है.
 कानान पर विजय को ‘पलायन’ हेतु ईश्वर के हस्तक्षेप 
और सहायता के एक अंग के रूप में देखा जाता है.
 तब फ़िलीस्तीन जैसे नए शत्रु सामने आए और ‘
न्यायाधीशों की पुस्तक’ में उल्लिखित परिवर्तन 
के दौर की शुरुआत हुई.
 इज़राइल की 12 बिखरी हुई जनजातियों को 
बुजुर्गों या मत के दृढ़ समर्थकों के नेतृत्व में एकजुट होने का
 अवसर मिला.
 जॉर्डन नदी के दोनों ओर बहुत से पूजा स्थल और 
वेदियाँ स्थापित की गईं और प्रतिज्ञापत्र की मंजूष, 
जिसे अक्सर शिलो में ही रखा जाता था,
 चल वस्तु मानी गई थी.

क्या है यहूदी धर्म का इतिहास

ऐसा माना जाता है कि यहूदी धर्म के संस्थापक
 इब्राहीम 20वीं शताब्दी ई. पू. के मध्य में
 उत्तरी मेसोपोटामिया से कानान चले गए थे. 
वहाँ से इब्राहीम के अर्द्ध ख़ानाबदोश वंशज और 
उनके पुत्र इसाक और जेकब, 
जो तब तक 12 यहूदी परिवार बन चुके थे,
 मिस्र चले गए, जहाँ उन्हें कई पीढ़ियों तक
 ग़ुलाम बनाकर रखा गया और ई.पू 13वीं शताब्दी में 
वे वहाँ पलायन करके इज़राइली कानान लौटे.
 यहूदी धर्म की तरह धर्माध्यक्षों का धर्म भी युगों-युगों 
तक विविध विदेशी विचारो के संपर्क में आया,
 इनमें मारी, उगारित, बेबिलोनिया, 
मेसोपोटामिया और मिस्र के प्रभाव सम्मिलित हैं.
 इज़राइली ईश्वर को विश्व का सृजनहार माना जाता है,
 जिसकी खोज इब्राहीम ने नहीं की थी, 
परंतु वह ईश्वर के साथ प्रतिज्ञाबद्ध हुए थे.
 ईश्वर ने इब्राहीम के साथ अपने वायदे मोजेज़ के 
माध्यम से पूरे किए, जिन्होंने पलायन का नेतृत्व किया
 और माउंट सिनाई में इज़राइल पर और प्रतिज्ञाओं का 
दायित्व रखा और अपने साथियों को कानान ले आए.
 धर्माध्यक्षों की कहानियों के अनुसार,
 कानान में बसना ईश्वर द्वारा प्रतिज्ञा पालन का अभिन्न अंग है
. मिस्र में ग़ुलाम बने रहने के अनुभव से केवल
 उक्त मान्यता की नहीं, 
इसकी भी पुष्टि हुई कि इज़राइली ईश्वर क्षेत्रीय सीमाओं से 
परे समूची पृथ्वी का ईश्वर है.

यहूदी और यहूदत का अर्थ

प्राचीन मेसोपोटामिया में सामी मूल की विभिन्न 
भाषाएँ बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, 
आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश 
कबीले रहा करते थे. 
इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था.
 वे यहोवा को अपना ईश्वर और अब्राहम को 
आदि-पितामह मानते थे. 
उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके
 वंशजों के रहने के लिए इस्त्राइल प्रदेश नियत किया है. 
प्रारम्भ में गोशन के मिस्त्रियों के साथ हिब्रुओं 
के सम्बंध अच्छे थे,
 परन्तु बाद में दोनों में तनाव उत्पन्न हो गया.
 अत: मिस्त्री फराओं के अत्याचारों से परेशान 
होकर हिब्रू लोग मूसा के नेतृत्व में इस्त्राइल की ओर चल पड़े
. इस यात्रा को यहूदी इतिहास में ‘निष्क्रमण’ कहा जाता है
. इस्त्राइल के मार्ग में सिनाई पर्वत पर मूसा 
को ईश्वर का संदेश मिला कि यहोवा ही एकमात्र ईश्वर है,
 अत: उसकी आज्ञा का पालन करें, उसके प्रति श्रद्धा रखें
 और 10 धर्मसूत्रों का पालन करें. 
मूसा ने यह संदेश हिब्रू कबीले के लोगों को सुनाया.
 तत्पश्चात् अन्य सभी देवी-देवताओं को हटाकर सिर्फ़ 
यहोवा की आराधना की जाने लगी. 
इस प्रकार यहोवा की आराधना करने वाले ‘यहूदी’ 
और उनका धर्म ‘यहूदत’ कहलाया.

यहूदियों के पैगम्बर

यहूदी धर्म की मानता है कि ईश्वर अपना संदेश पैगम्बरों के माध्यम से प्रेषित करता है. यहूदी लोग अब्राहम, ईसाक और जेकब को अपना पितामह पैगम्बर, मूसा को मुख्य पैगम्बर तथा एलिजा, आयोस, होसिया, इजिया, हजकिया, इजकील, जरेमिया आदि को अन्य पैगम्बर मानते हैं.

यहूदी धर्म एकेश्वरवाद पर आधारित है. 
उनका ईश्वर ‘यहोवा’ अमूर्त, निर्गुण, सर्वव्यापी,
 न्यायप्रिय, कृपालु और कठोर अनुशासनप्रिय है.
 अपनी आज्ञाओं के उल्लंघन होने पर वह दंड भी देता है.
 इतना ही नहीं,
 यहूदी लोग यहोवा की आज्ञाओं में सैन्य कृत्यों का भी 
संदेश पाते हैं.
 यहोवा उनको धर्म रक्षा के लिए सैन्य संघर्ष का भी 
आदेश देता है.

क्या है दस धर्म सूत्र

यहूदी धर्म में 10 धर्माचरणों का विशेष महत्त्व है,
 जिनका पालन करने पर यहोवा की 
अनुपम कृपा प्राप्त होती है.
 ये दस धर्म सूत्र निम्न हैं-

मैं स्वामी हूँ तेरा ईश्वर, 
तुझे मिस्त्र की दासता से मुक्त कराने वाला.
मेरे सिवा तू किसी दूसरे देवता को नहीं मानेगा.
तू अपने स्वामी और अपने प्रभु का नाम व्यर्थ ही न लेगा.
सबाथ (अवकाश) का दिन सदैव याद रखना और 
उसे पवित्र रखना.छ: दिन तू काम करेगा,
 अपने सब काम, किन्तु सातवाँ दिन सबाथ का दिन है.
 याद रखना कि छ: दिन तक तेरे प्रभु ने आकाश,
 पृथ्वी और सागर तथा उन सबमें
 विद्यमान सभी कुछ की रचना की, 
फिर सातवें दिन विश्राम किया था. 
अत: यह प्रभु के विश्राम का दिन है. 
इस दिन तू कोई भी काम नहीं कर सकता.
अपने माता-पिता का सम्मान कर,
 उन्हें आदर दे ताकि प्रभु प्रदत्त इस भूमि पर तू 
दीर्घायु हो सके.
तू हत्या नहीं करेगा.
तू परस्त्री, परपुरुष गमन नहीं करेगा.
तू चोरी नहीं करेगा.
तू अपने पड़ोसी के ख़िलाफ़ झूठी गवाही नहीं देगा.
तू अपने पड़ोसी के मकान, पड़ोसी की पत्नी,
 पड़ोसी के नौकर या नौकरानी, उसके बैल, उसके गधे पर
 बुरी नज़र नहीं रखेगा.

यहूदियों के धर्मग्रंथ

यहूदियों के बीच अनेक धर्मग्रंथ प्रचलित हैं, 
जिसमें कुछ प्रमुख हैं…

तोरा,जो बाइबिल के प्रथम पाँच ग्रंथों का सामूहिक नाम है
 और यहूदी लोग इसे सीधे ईश्वर द्वारा मूसा को प्रदान की गई
 थी.
तालमुड, जो यहूदियों के मौखिक आचार 
व दैनिक व्यहार संबंधी नियमों, टीकाओं तथा 
व्याख्याओं का संकलन है.
इलाका, जो तालमुड का विधि संग्रह है.
अगाडा,जिसमें धर्मकार्य, धर्मकथाएं, किस्से आदि संग्रहीत हैं.
तनाका, जो बाइबिल का हिब्रू नाम है, आदि.
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याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं:

अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌।। (याज्ञवल्क्य स्मृति १.१२२)

(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)

श्रीमद्भागवत

श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं :

सत्यं दया तप: शौचं तितिक्षेक्षा शमो दम:।
अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्याग: स्वाध्याय आर्जवम्।।

संतोष: समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरम: शनै:।
नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनमात्मविमर्शनम्।।

अन्नाद्यादे संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषात्मदेवताबुद्धि: सुतरां नृषु पाण्डव।।

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गते:।
सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्मसमर्पणम्।।

नृणामयं परो धर्म: सर्वेषां समुदाहृत:।
त्रिशल्लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति।। (७-११-८ से १२ )
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युधिष्ठिर उवाच - 

(अनुष्टुप्) 

भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् । 

वर्णाश्रमाचारयुतं यत् पुमान् विन्दते परम् ॥ २ ॥ 

भवान् प्रजापतेः साक्षात् आत्मजः परमेष्ठिनः । 

सुतानां सम्मतो ब्रह्मन् तपोयोगसमाधिभिः ॥ ३ ॥ 

नारायणपरा विप्रा धर्मं गुह्यं परं विदुः । 

करुणाः साधवः शान्ताः त्वद्विधा न तथापरे ॥ ४ ॥ 

नारद उवाच - 

नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्महेतवे । 

वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ ५ ॥ 

योऽवतीर्यात्मनोंऽशेन दाक्षायण्यां तु धर्मतः । 

लोकानां स्वस्तयेऽध्यास्ते तपो बदरिकाश्रमे ॥ ६ ॥ 

धर्ममूलं हि भगवान् सर्ववेदमयो हरिः । 

स्मृतं च तद्विदां राजन् येन चात्मा प्रसीदति ॥ ७ ॥ 

सत्यं दया तपः शौचं तितिक्षेक्षा शमो दमः । 

अहिंसा ब्रह्मचर्यं च त्यागः स्वाध्याय आर्जवम् ॥ ८ ॥ 

सन्तोषः समदृक् सेवा ग्राम्येहोपरमः शनैः । 

नृणां विपर्ययेहेक्षा मौनं आत्मविमर्शनम् ॥ ९ ॥ 

अन्नाद्यादेः संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हतः । 

तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥ १० ॥ 

श्रवणं कीर्तनं चास्य स्मरणं महतां गतेः । 

सेवेज्यावनतिर्दास्यं सख्यमात्म समर्पणम् ॥ ११ ॥ 

नृणामयं परो धर्मः सर्वेषां समुदाहृतः । 

त्रिंशत् लक्षणवान् राजन् सर्वात्मा येन तुष्यति ॥ १२ ॥ 

संस्कारा यदविच्छिन्नाः स द्विजोऽजो जगाद यम् । 

इज्याध्ययनदानानि विहितानि द्विजन्मनाम् । 

जन्मकर्मावदातानां क्रियाश्चाश्रमचोदिताः ॥ १३ ॥ 

विप्रस्याध्ययनादीनि षडन्यस्याप्रतिग्रहः । 

राज्ञो वृत्तिः प्रजागोप्तुः अविप्राद् वा करादिभिः ॥ १४ ॥ 

वैश्यस्तु वार्तावृत्तिश्च नित्यं ब्रह्मकुलानुगः । 

शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा वृत्तिश्च स्वामिनो भवेत् ॥ १५ ॥ 

वार्ता विचित्रा शालीन यायावरशिलोञ्छनम् । 

विप्रवृत्तिश्चतुर्धेयं श्रेयसी चोत्तरोत्तरा ॥ १६ ॥ 

जघन्यो नोत्तमां वृत्तिं अनापदि भजेन्नरः । 

ऋते राजन्यमापत्सु सर्वेषामपि सर्वशः ॥ १७ ॥ 

ऋतां ऋताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा । 

सत्यानृताभ्यां जीवेत न श्ववृत्त्या कदाचन ॥ १८ ॥ 

ऋतमुञ्छशिलं प्रोक्तं अमृतं यद् अयाचितम् । 

मृतं तु नित्ययांच्या स्यात् प्रमृतं कर्षणं स्मृतम् ॥ १९ ॥ 

सत्यानृतं च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् । 

वर्जयेत्तां सदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् । 

सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो नृपः ॥ २० ॥ 

शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम् । 

ज्ञानं दयाच्युतात्मत्वं सत्यं च ब्रह्मलक्षणम् ॥ २१ ॥ 

शौर्यं वीर्यं धृतिस्तेजः त्याग आत्मजयः क्षमा । 

ब्रह्मण्यता प्रसादश्च सत्यं च क्षत्रलक्षणम् ॥ २२ ॥ 

देवगुर्वच्युते भक्तिः त्रिवर्गपरिपोषणम् । 

आस्तिक्यं उद्यमो नित्यं नैपुण्यं वैश्यलक्षणम् ॥ २३ ॥ 

शूद्रस्य सन्नतिः शौचं सेवा स्वामिन्यमायया । 

अमन्त्रयज्ञो ह्यस्तेयं सत्यं गोविप्र रक्षणम् ॥ २४ ॥ 

स्त्रीणां च पतिदेवानां तत् शुश्रूषानुकूलता । 

तद्‍बन्धुष्वनुवृत्तिश्च नित्यं तद्व्रतधारणम् ॥ २५ ॥ 

सम्मार्जनोपलेपाभ्यां गृहमण्डनवर्तनैः । 

स्वयं च मण्डिता नित्यं परिमृष्टपरिच्छदा ॥ २६ ॥ 

कामैरुच्चावचैः साध्वी प्रश्रयेण दमेन च । 

वाक्यैः सत्यैः प्रियैः प्रेम्णा काले काले भजेत्पतिम् ॥ २७ ॥ 

सन्तुष्टालोलुपा दक्षा धर्मज्ञा प्रियसत्यवाक् । 

अप्रमत्ता शुचिः स्निग्धा पतिं त्वपतितं भजेत् ॥ २८ ॥ 

या पतिं हरिभावेन भजेत् श्रीरिव तत्परा । 

हर्यात्मना हरेर्लोके पत्या श्रीरिव मोदते ॥ २९ ॥ 

वृत्तिः सङ्‌करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत् । 

अचौराणां अपापानां अन्त्यजान्तेऽवसायिनाम् ॥ ३० ॥ 

प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे । 

वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत् ॥ ३१ ॥ 

वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत् । 

हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात् ॥ ३२ ॥ 

उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात् । 

न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति ॥ ३३ ॥ 

एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया । 

विरज्येत यथा राजन् अग्निवत् कामबिन्दुभिः ॥ ३४ ॥ 

यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम् । 

यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत् ॥ ३५ ॥ 

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां 

सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ 


श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद :-


मानव धर्म, वर्ण धर्म और स्त्री धर्म का निरूपण श्रीशुकदेव जी कहते हैं- भगवन्मय प्रह्लाद जी के साधु समाज में सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिर को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारद जी से और भी पूछा।

 युधिष्ठिर जी ने कहा- भगवन्! अब मैं वर्ण और आश्रमों के सदाचार के साथ मनुष्यों के सनातन धर्म का श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्म से ही मनुष्य को ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परमपुरुष भगवान् की प्राप्ति होती है। आप स्वयं प्रजापति ब्रह्मा जी के पुत्र हैं और नारद जी! आपकी तपस्या, योग एवं समाधि के कारण वे अपने दूसरे पुत्रों की अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं।

 आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्म के गुप्त-से-गुप्त रहस्य को जैसा यथार्थरूप से जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते। नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। 

वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याण के लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान् को नमस्कार करके उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। 

युधिष्ठिर! सर्वदेवस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व जानने वाले महर्षियों की स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसाद की उपलब्धि हो, वह कर्म धर्म के मूल हैं। युधिष्ठिर! धर्म के ये तीस लक्षण शास्त्रों में कहे गये हैं- सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित-अनुचित का विचार, मन का संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओं की सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगों की चेष्टा से निवृत्ति, मनुष्य के अभिमानपूर्ण प्रयत्नों का फल उलटा ही होता है- ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियों को अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेव का भाव, संतों के परमआश्रय भगवान् श्रीकृष्ण के नाम- गुण-लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्मसमर्पण- यह तीस प्रकार का आचरण सभी मनुष्यों का परम धर्म है। इसके पालन से सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं। 

धर्मराज! जिनके वंश में अखण्ड रूप से संस्कार होते आये हैं और जिन्हें ब्रह्मा जी ने संस्कार के योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्म से शुद्ध द्विजों के लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के विशेष कर्मों का विधान है। अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना- ये छः कर्म ब्राह्मण के हैं। क्षत्रिय को दान नहीं लेना चाहिये। प्रजा की रक्षा करने वाले क्षत्रिय का जीवन-निर्वाह ब्राह्मण के सिवा और सबसे यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदि के द्वारा होता है। वैश्य को सर्वदा ब्राह्मण वंश का अनुयायी रहकर गो रक्षा, कृषि एवं व्यापार के द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्र का धर्म है द्विजातियों की सेवा। उसकी जीवका का निर्वाह उसका स्वामी करता है।

 ब्राह्मण के जीवन-निर्वाह के साधन चार प्रकार के हैं- वार्ता[1] शालीन[2] यायावर[3] और शिलोञ्छन[4] 

इसमें से पीछे-पीछे की वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं। 

निम्न वर्ण का पुरुष बिना आपत्ति काल के उत्तम वर्ण की वृत्तियों का अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मण की शेष पाँचों वृत्तियों का अवलम्बन ले सकता है। आपत्ति काल में सभी सब वृत्तियों को स्वीकार कर सकते हैं।

सप्तम स्कन्ध: अथैकादशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 18-35 का हिन्दी अनुवाद ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत-इनमें से किसी भी वृत्ति का आश्रय ले, परन्तु श्वान वृत्ति का अवलम्बन कभी न करे। 

बाजार में पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतों में पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर ‘शिलोञ्छ’ वृत्ति से जीविका-निर्वाह करना ‘ऋत’ है। बिना माँगे जो कुछ मिल जाये, उसी अयाचित (शालीन) वृत्ति के द्वारा जीवन-निर्वाह करना ‘अमृत’ है।

 नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘यायावर’ वृत्ति के द्वारा जीवन-यापन करना ‘मृत’ है।

 कृषि आदि के द्वारा ‘वार्ता’ वृत्ति से जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है। वाणिज्य ‘सत्यानृत’ है और निम्नवर्ण की सेवा करना ‘श्वानवृत्ति’ है।

 ब्राह्मण और क्षत्रिय को इस अन्तिम निन्दित वृत्ति का कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। 

क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है। 

शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया, भगवत्परायण और सत्य-ये ब्राह्मण के लक्षण हैं। युद्ध में उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय, क्षमा, ब्राह्मणों के प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजा की रक्षा करना-ये क्षत्रिय के लक्षण हैं।

 देवता, गुरु और भगवान् के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम-इन तीनों पुरुषार्थों की रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता-ये वैश्य के लक्षण हैं।

 उच्च वर्णों के सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामी की निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रों से रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ, ब्राह्मणों की रक्षा करना-ये शूद्र के लक्षण हैं।

 पति की सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पति के सम्बन्धियों को प्रसन्न रखना और सर्वदा पति के नियमों की रक्षा करना-ये पति को ही ईश्वर मानने वाली पतिव्रता स्त्रियों के धर्म हैं। साध्वी स्त्री को चाहिये कि झाड़ने-बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदि से घर को और मनोहर वस्त्राभूषणों से अपने शरीर को अलंकृत रखे। सामग्रियों को साफ-सुथरी रखे। 

अपने पतिदेव की छोटी-बड़ी इच्छाओं को समय के अनुसार पूर्ण करे। विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनों से प्रेमपूर्वक पतिदेव की सेवा करे। जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तु के लिये ललचावे नहीं। सभी कार्यों में चतुर एवं धर्मज्ञ हो।

 सत्य और प्रिय बोले। अपने कर्तव्य में सावधान रहे। पतिव्रता और प्रेम से परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे। जो लक्ष्मी जी के समान पतिपरायणा होकर अपने पति की उसे साक्षात् भगवान् का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोक में भगवत्सारूप्य को प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मी जी के समान उनके साथ आनन्दित होती है। 

युधिष्ठिर! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते-उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसंकर जातियों की वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परा से उनके यहाँ चली आयी हैं। वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्रायः मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्म की व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है। 

जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है। महाराज! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अंकुर उगना बंद हो जाता है, यहाँ तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है-उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओं का खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करने से स्वयं ही ऊब जाता है।

 परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाये तो वह बुझ जाती है। जिस पुरुष के वर्ण को बतलाने वाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्ण वाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये।

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             -महात्मा विदुर -

महाभारत के महान यशस्वी पात्र विदुर ने धर्म के आठ अंग बताए हैं -

इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ

उनका कहना है कि इनमें से प्रथम चार इज्या आदि अंगों का आचरण मात्र दिखावे के लिए भी हो सकता है, किन्तु अन्तिम चार सत्य आदि अंगों का आचरण करने वाला महान बन जाता है।

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति ६.९२)

अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना )।

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। (पद्मपुराण, सृष्टि खण्ड 19/357-358)

स ब्रह्मलोकमाप्नोति तस्मान्न च्यवते पुनः
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैतत्प्रधार्यताम्।३३५।

वह ब्रह्मलोक  को प्राप्त करता है और पुन: वहाँ से पतित नहीं होता धर्म का सर्वस्व  सुनें  और सुनकर इसका आचरण पूर्वक धारण करें। 

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्
मातृवत्परदारांश्च परद्रव्याणि लोष्ठवत्।३३६।

जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये। दूर स

 की स्त्री को माता के समान और दूसरे के धन को मिट्टी के ढ़ेले के समान मानकर आचरण करें।


आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति
पचनं वैश्वदेवार्थे परार्थे यच्च जीवितम्।३३७।

अपनी आत्मा के समान जो सभी प्राणियों में देखता है और जो वैश्वदैव के लिए ही भोजन पकाय है और जो दूसरों के कल्याण के लिए जीवित रहता है वह धार्मिक है 

पद्मपुराण, सृष्टि खण्ड अध्याय १९ के श्लोक संख्या ३३५-३३६-३३७- तक देखें




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