रविवार, 14 अप्रैल 2019

अहीरों को हीन सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों ने अपनी अवैध सन्तान के रूप में वर्णित कर दिया!

अपने यथार्थ इतिहास को जानकर ही अपने स्वाभिमानी भावनाओं को पुष्ट किया जा सकता है।
और जबतक व्यक्ति में स्वाभिमान जाग्रत नहीं होगा 'वह स्वयं को हीन मी महशूस करता रहेगा !
और हीन दुनियाँ का सबसे दीन व्यक्ति है ।
अत: यादवों का वह इतिहास जिसको पन्ने बिखर गये
उन्हें खोज लिया गया है ।
अहीरों से यदि राजपूत - जादौं , जड़ेजा , सौलंकी, भाटी, चौहान आदि यदि द्वेष करते हैं तो इसमें
उनका बड़ा गोष नहीं हैं ।
उन्हें तो उनके पुरोहितों ने ही यह बात बताई ।
अहीर यदुवंशी नहीं शूद्र हैं ।
परन्तु इसका धूर्तों की काल्पनिक मनगड़न्त कथाओं का पर्दाफास हो गया है ।
वास्तव में अहीर ही वास्तविक यदुवंशी हैं ।
और , जाट, गुर्ज्जरः आदि
दूर क रिश्ते केे सजातिय हैं-
और फिर इतिहास से ही प्रेरणा लेकर भविष्य को उज्जवल बनाया जा सकता है ।

और अपना वास्तविक इतिहास जानना भी सामाजिक गतिविधियों के अन्तर्गत है।
क्यों कि !
समाज शास्त्र इतिहास की कशेरुका या रीढ़ है ।
और शरीर में रूढ़ का क्या महत्व है
इसे समझने की आवश्यकता नहीं है ।

आप स्वयं को ठाकुर उपाधि से विभूषित करते हो
और आप स्वयं को घोष भी कहते हो परन्तु आपको पता है क्या ?
कि ठाकुर उपाधि तुर्को की सामन्तीय उपाधि थी यह शब्द ही तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में ही है तेक्वुर (tekvur) है ।
परन्तु आपको यह ज्ञान कराना कि ठाकुर शब्द किसी संस्कृत के शास्त्र में नहीं है।
क्या यह सामाजिक गतिविधियों में शुमार नहीं है ।

और दूसरी बात  "घोष" शब्द यादवों का सनातन गो- पालन वृत्ति (व्यवसाय) को सूचित करने वाला विशेषण रहा है ।
ऋग्वेद में गोषन् -गां सेवयति सनोति इतिहास गोष:
है । --जो बाद में घोष हो गया।
घोष यादवों को राजा दमघोष से पहले भी कहते थे ।
भारतीय इतिहास में ही नहीं अपितु विश्व इतिहास में सबसे पुराना ग्रन्थ ऋग्वेद घोष का मूल रूप गोष: या गोषन् उद्धृत करता है ।
जिसका अर्थ भी गोपाल या गोप है ।
यह शब्द राजा दमघोष से पहले का है ।

यह सारे तथ्य हम पूर्व में ही उद्धृत कर चुके हैं।
'वह भी वेदों और पुराणों से !

मध्यप्रदेश के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के फ़र्रूख़ाबाद ,एटा,इटावा ,मैनपुरी, हाथरस , मथुरा, आगरा, फिरोजाबाद आदि इन जिलों में  घोष लोग अहीर तथा यादव विशेषण से ही इतिहास में दर्ज हैं ।

हम स्वयं घोष हैं जन्म भूमि फिरोजाबाद है और हमारे पूर्वज मथुरा के वसईं क्षेत्र से आये थे ।
अब अलीगढ़--- ननिहालें में रहते हैं
ध्यान रखना कि ....
आप यादवों से या अहीरों से पृथक रहकर सीमित दायरे में ही सिकुड़ जाओगे !
क्यों कि इतिहास में भी अहीरों को घोष या गोप ही कहा है
--जो वंश से यदु की सन्तानें होने से यादव और गाय का परम्परागत रूप से पालन-पोषण करने से गोप या घोष कह गये।

आपको पता होना चाहिए बंगाल में घोष समुदाय को ब्राह्मणों ने कायस्थ बनाकर यादवों अलग तो कर दिया जबकि कायस्थ कोई वर्ण( जाति) नहीं था ।
उसे ब्राह्मणों ने ब्रह्मा की काया से उत्पन्न कर दिया ।
घोष से निकला रूप घोषाल ब्राह्मण बना दिया ।
और आप को ठाकुर बनाकर भी अंग्रेजों से सिफारिश कर पिछड़े वर्ग में ही रखा।
क्यों कि आप अशिक्षित व कृषक या चरावाहों का जीवन व्यतीत करते ।
आपको पता होना चाहिए कि 'ब्रजभाषा के कवि सूरदास आदि ने उद्धव को घोष ही कहा है।
परन्तु वे तो दम घोष के वंशज नहीं थे ।

आपको यह भी पता होना चाहिए कि चन्देल शब्द का विकास चाण्डाल से ही है क्यों कि महात्मा गाँधी द्वारा नामकृत हरिजन या वाल्मीकि लोग भी स्वयं को अठारहवीं सदी से पहले से आज तक उत्तर प्रदेश में चन्देल लिख रहे हैं ।

फिर आप कहते हो कि इस ग्रुप में केवल यादव या अहीर शब्द ही गूँजता है ।
अहीर किसी वंश का नाम नहीं यह विशेषण यादवों की उस निर्भीकता को सूचित करता है ।
-जब उनके पूर्वज यदु को ब्राह्मणों ने हीन दृष्टि से अपने पौरोहित्व व यजमानी से परे रखा ।
ये लोग एशिया में विकट परिस्थितियाँ मे सामना करते हुए भटकते रहे ।
गायें पालन की परम्परा जिन्हें अपने पूर्वज यदु से ही प्राप्त हुई ये लोग दुनियाँ के सबसे बड़े चरावाहे, सबसे बड़े घुमक्कड़ और सवसे बड़े यौद्धा माने गये ।

जैसी कि हमने व्युत्पत्ति विज्ञान के सिद्धान्तों से पुष्टिकरण किया कि संस्कृत का आभीर अथवा अभीर शब्द ई०पू० द्वितीय सदी में आभीर रूप में संस्कृत विद्वानों ने स्वीकार किया ।
और इसकी व्युत्पत्ति अहीरों की यौद्धिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर की
परन्तु इसका शब्द का इससे पहले का रूप पश्चिमीय एशिया की भाषाओं विशेषत: फारसी भाषाओं और हिब्रू भाषा में "अबीर" है ।
और हिब्रू में अबीर ईश्वर वाची हैं ।
जिसका मूल बीर या बर शब्द है ।
जिसका अर्थ भी मजबूत या शक्ति शाली होता है ।

बीर शब्द अपने मूल रूप में वीर है ।
और यह वीर ही सम्प्रसारण क्रिया से आर्य होता है
यद्यपि यद्यपि सैमेटिक भाषाओं में वल (उल)हो गया है
कहीं कहीं (वर उर वीर- आर्य्य) होकर विकसित हुए हैं
फिर ब्राह्मणों ने द्वेष-प्रेरित होकर अहीरों को निम्घोषित करने के लिए इनकी काल्पनिक उत्पत्तीयाँ स्मृतियों में कर डालीं ।

इस महान योद्धा समूह को हीन सिद्ध करने के लिए

इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे।
परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया ।

यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी।
ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं
वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं ।

क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे ? ये तो केवल आर्यों के चारण अथवा भाट होते थे ।

शोध के अनुसार ये केवल आर्यो के कबिलों के भाट थे ।जो अपने मालिकों का गुणगान करते थे ।
और उनकी वंशावली का इतिहास लिखते थे ।
उनसे ही इनकी जीविका चलती थी ।

वस्तुत: ये इनका धन्धा था , व्यवसाय था आज भी वही है बस !
धन्धे को इन्होंने धर्म बता दिया है ।

आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे !
उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था
जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।
वास्तव में ये सब गोलमाल है ।
कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है ।
न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ...

अहीर ही असली आर्य्य( आयर) शब्द का तद्भव रूप है

क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है।
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ब्राह्मणो८स्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: !
उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो८जायत !!
(ऋग्वेद 10/90/12)
इससे पहले की ऋचा
"कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।।
(ऋग्वेद 9/112//3)
अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है ।
उपर्युक्त ऋचा में सामज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है ।
इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी ।

ब्राह्मण ने स्वयं को ब्रह्म के मुख से उत्पन्न माना और
जिन्हें हीन सिद्ध करना था उन्हें गाय के गोबर (मल) मित्र से उत्पन्न दर्शा दिया।
शूद्रों को तो पैरों से उत्पन्न करके ब्राह्मण के पैरों पढ़ रहो
यह धर्म भी उनका निर्धारित कर दिया ।
गोपों को कहीं शूद्र तो कहीं कृष्ण के रोम रूप से उत्पन्न कर दिया। नीचे सुञ पुराणों और स्मृतियों से उद्धृत श्लोकों का विवरण है ।
गाय के गोबर से ब्राह्मणों की काल्पनिक व्युत्पत्तियाँ👇
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कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41।
                             (ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय 5)
कृष्ण के लोम- रूपों से  गोपों की उत्पत्ति हुई , --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।

ब्रह्म-वैवर्त पुराण कार लिखता है कि "
                    प्रभु-उवाच
"हे वैश्येन्द्र सति कलौ न नश्यति वसुन्धरा "
                                ( ब्रह्म-वैवर्त पुराण 128/33)
हे वैश्येन्द्र ! कलि युग प्रारम्भ होने से  कलिधर्म प्रचलित होगें पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी ।

योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णे चकार स: ।।
                               (ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
भगवान् जब गोलोेक को गये तो अपने साथ गोप - गोपियाँ को ले जाने लगे तब अमृत दृष्टि द्वारा दूसरे गोपों से गोकुल पूर्ण किया ।।

जाति-भाष्कर का ब्राह्मण लेखक ज्वालाप्रसाद मिश्र
स्मृतियों के हबाले से आभीर जनजाति की उत्पत्ति वर्णन करते हैं ।👇

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महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् ।।
आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् ।।128।।

तेषां संघो वसेद् घोषे बहुशस्यजलाशये।।
आविकं गोमहिष्यादि पोषयेत् तृण वारिणा ।।129।

दुग्धं दधि घृतं  तक्रं विक्रयीत धनाय च ।
विशूद्रेभ्यो न्यूनतो धर्मे तस्य सर्वस्य विश्रुता ।।130।

अनुवादित रूप:- महिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो उत्पन्न होता है 'वह अाभीर है ।
और ब्राह्मण द्वारा आभीर की स्त्री में आभीर ही उत्पन्न होता है ।
इनका समूह घोष( गो -आवास) में
रहता है । 
जहाँ 'बहुत सी घास तृण हो  तथा समीप में जल हो वहाँ निवास होता है भेड़ ,बकरी , गो ,भैंस आदि को चराना इनका काम है।
तथा दूध, दही मट्ठा ये धन के लिए बैचें यह धर्म में शूद्रों से कुछ हीन हैं ।

मनु-स्मृति कार इसके विपरीत लिखता है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से आभीर की उत्पत्ति मानते हैं ।👇

ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15

शैलीगत-आधार द्वारा प्रमाण -👇

मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक होनी चाहिए!  परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है विधानात्मक नहीं।
इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—

कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।

वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)

द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)

अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक बन गयी ।

गोप , आभीर,(अाहीर) गोपाल,पाल ,वल्लव , गोधुक्,  ये यादवों के ही विशेषण हैं
जो उनके विभन्न गुणों और व्यवसायों को सूचित करते करते आज उनके जातिय मूलक विशेषण बन गये हैं ।
जैसे- यादवों की वीरता और शत्रु के लिए भय प्रद स्थिति सूचित करने वाला विशेषण आभीर (अभीर का समूह वाचक रूप ) है ।
यादव स्वयं वंश मूलक विशेषण है ।
(यदोर्८पत्यम ) यदु+ अण्= यादव है
गोप गोपलन वृत्ति (व्यवसाय)मूलक है ।
ब्राह्मण समाज ने स्वयं को केवल जातिय मूलक विशेषणों से सम्बोधित किया ।
जबकि अन्य जीतियों को केवल व्यवसाय और प्रवृत्ति (tendency)मूलक विशेषणों से पुकारा जैसे- धोबी - कपड़ धोने वाला , लुहार - लोहे का काम करने वाला । मनिहार - मणियों का काम करने वाला ।

परन्तु चतुर्वेदी , द्विवेदी, द्विवेदी, वेदी तथा पाठक वे भी हैं जिन्होंने ने कभी वेद की शक्ल तक न देखी होगी।वेदों का पाठ करना तो दूर है ।

जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक हैं ।
पहली बात मनुस्मृति मनु की रचना है ही नहीं
ध्यान रखना चाहिए कि मनु भारत में तो कभी हुए ही नहीं ।
मनुःस्मृति का यह अवान्तरविरोध- ही इनके प्रक्षिप्त होने को प्रमाणित करता है 👇

(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे हैं ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है तो
33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।

किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है

(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।

(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है ।

यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।

अतः दौनों परस्पर विरोधाभासी होने से काल्पनिक व मनगड़न्त हैं''

7 टिप्‍पणियां:

  1. तो फिर अहिर को कहाँ पर और किसने अपनी पुस्तक मे श्रेष्ठ बताया है

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  2. *अज्ञानता पूर्ण लेख* बङ्गाल के सभी घोष अपने आप को कायस्थ ही मानते हैं। आप अपनी एक अलग ही ढ़पली बजाने में लगे हुए हैं।

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    1. Jake pta kr lo acha se..kayastha ka nikash south k yadav se Hain..ur Bengal gazetiyar m likha hai ki Jo golla (yadav) business krne lge..wo kayastha bn Gaye.. kayastha koi cast nhi hoti thi ..

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    2. Hum apne ap no kyastha nei Yadav mante hai aur isme garv karte hai

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  3. धर्म शास्त्र और मनुस्मृति में कहा गया है कि कर्म के आधार पर व्यक्ति को वर्ण व्यवस्था में बांटा गया था ना किजाती से।

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  4. वेदों की रचना भगवान ने की है किसी ब्राह्मण ने नहीं मूर्खता की परिभाषा की है इस लेख में

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