शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

संस्कृत भाषा में घोष शब्द का इतिहास व व्युत्पत्ति"

यद्यपि हम घोष हैं परन्तु लोग हम्हें अहीर अथवा गोप कहकर भी पुकारा जाता हैं ।

क्यों कि ये सभी विशेषण शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं घोष शब्द वैदिक काल से गोपों का विशेषण पर्याय वाची  है।

परन्तु गोष: शब्द के रूप में -
और यह किसी वंश की सूचक उपाधि कभी नहीं था।
और न है।

मिथकों( पुराणों) में कुछ बातें तो मिथ्या होती हैं
और कुछ श्रुत-परम्पराओं पर आधारित और --जो कालान्तरण में पूर्ण रूपेण परिवर्तित हो जाती हैं
केवल नाम मात्र भी मूल रूप में नहीं रहता ।
👇
उदाहरण के तौर पर एक बार एक व्यक्ति ने यूनानी विचारक सुकरात से पूछा जो अपने उद्यान अकाडमिया में जहाँ वे शिष्यों को उपदेश देते थे ।

(इनका शिष्यों प्लूटो ने भी यहाँं पढ़ाया।)
कुल्हाड़ी से उसके वृक्षों की टहनी छाँट रहे थे ।
तभी एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि आपकी यह कुल्हाड़ी कितनी पुरानी है ।

सुकरात ने जबाव दिया यह कुल्हाड़ी मेरे पूर्वजों से चली आ रही है।

तबसे कई वार इसका बैंट( मुट्ठा) बदल गया , कई वार इसकी फाली भी बदल गयी है ।

अर्थात्‌ इसका भौतिक रूप से सबकुछ बदल गया है
बस यह नाम ही पुराना हैं ।

अब आप समझों कि सुकरात की कुल्हाड़ी के समान
सब कुछ बदल गया ।

यहाँं तक कि नाम में भी कुछ परिवर्तन आ गया ।
हिन्दी में ही कुल्हाड़ी को शब्द को लेलो 👇
--जो अपने मूल-रूप में काष्ठार है जो कालान्तरण में कुठार हो गया और परिवर्तन जब और भी हुआ तो यही शब्द आज कुल्हाड़ी बन गया है ।

परन्तु हम्हें दु:ख होता है कि मेरे घोष समाज के लोग
इस परिवर्तन की क्रियाओं को स्वीकार ही नहीं कर रहे हैं ।

क्यों कि यहाँं भाषा-विज्ञान का ध्वनि परिवर्तन और अर्थ परिवर्तन सिद्धान्त जटिल प्रक्रिया जो है ।
वस्तुत घोष शब्द के मूल रूप गोष: (गोषन्) है ।
और दमघोष से पहले भी गोपों को घोष कहा गया है ।

क्यों कि हैहय वंशी यादव राजा दमघोष से पहले भी घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा।

इस विषय में वेद प्रमाण हैं; उसमे भी ऋग्वेद और उसमें भी इसके चतुर्थ और षष्ठम् मण्डल प्राचीनत्तम हैं।

मध्यप्रदेश में "घोष" यद्यपि यादवों का प्राचीनत्तम विशेषण है।

जो गोपालन की प्राचीन वृत्ति ( व्यवसाय) से सम्बद्ध रहे हैं।
पौराणिक काल में जब वैदिक शब्द गोष: "घोष: " बन गया तो लोगों ने इसके परिवर्तित रूप का विचार किए विना इसका यही मूल रूप समझ कर संस्कृत की ध्वन्यर्थक धातु घुष् से ही घोष शब्द व्युपन्न कर दिया ।
जबकि वैदिक सन्दर्भों में यह गोष: है।

घोष: शब्द के जिस रूप को लोगों ने सुना तो उन्होनें
(घुष् ध्वनौ धातु की कल्पना कर डाली )
और अर्थ कर दिया कि --जो  गायें को आवाज देकर बुलाता है।
'वह घोष है।

परन्तु मध्यप्रदेश में घोष समाज के बुज़र्गों ने घोष शब्द की व्युत्पत्ति राजा दमघोष की युद्ध-मूलक घोषणा करने के आधार पर कर डाली ।

इस प्रकार प्रकार की व्युत्पत्ति करने वाले स्वाभिमानी प्रवृत्ति के कुछ अल्प-शिक्षित वृद्ध जन थे।

वस्तुत भारतीय संस्कृति और पौराणिक कथाओं का आधार केवल वेद हैं  और इस आधार पर हमने वेदों को कुछ सीमा तक प्रमाणित माना है ।

अब देखते हैं कि वेदों में घोष शब्द किस रूप में है ।👇

ऋग्वेद में यह गोष: अथवा गोषन् का बहुवचन गोषा शब्द गोपालकों का ही वाचक है देखें--नीचे ऋग्वेद के उद्धरण👇
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नूनं न इन्द्रापराय च स्या
भवा मृळीक उत नो अभिष्टौ ।
इत्था गृणन्तो महिनस्य
शर्मन्दिवि ष्याम पार्ये गोषतमाः ।।
ऋग्वेद:– (6 । 33 । 5 )
हे इन्द्र ! तुम इस समय तथा अन्य समयों में हमारे आत्मीय होओ ! हमारी अवस्था के अनुसार हम्हें सुख दो इस प्रकार स्तोता गो सेवक बनकर तुम्हारे उज्जवल मख (यज्ञ) में रहें।। ऋग्वेद:– (6 । 33 । 5 )
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प्र ते बभ्रू विचक्षण शंसामि गोषणो नपात् ।
माभ्यां गा अनु शिश्रथः ॥22॥
ऋग्वेद 4 । 32। 22 ।👇
हे मेधावी इन्द्र  हम तुम्हारे लाल रंग वाले दौनों घोड़ों की स्तुति करते हैं ; तुम गोओं की सेवा करने वाले (गोषन्)
और स्तुति करने वालों का बध नहीं करते हो !
तुम अपने दौनों घोड़ों द्वारा हमारी गोओं को पीड़ित मत करना ।22।
सायण भाष्य:-प्र ते॑ ब॒भ्रू वि॑चक्षण॒ शंसा॑मि गोषणो नपात्

माभ्यां॒ गा अनु॑ शिश्रथः ॥२२

प्र । ते॒ । ब॒भ्रू इति॑ । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ । शंसा॑मि । गो॒ऽस॒नः॒ । न॒पा॒त् ।

मा । आ॒भ्या॒म् । गाः । अनु॑ । शि॒श्र॒थः॒ ॥२२

प्र । ते । बभ्रू इति । विऽचक्षण । शंसामि । गोऽसनः । नपात् ।

मा । आभ्याम् । गाः । अनु । शिश्रथः ॥२२

गोष: (गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु)
अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है ।

गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सिद्धान्त कौमुदीय धृता श्रुतिः 👇

हे “विचक्षण प्राज्ञेन्द्र “ते त्वदीयौ “बभ्रू बभ्रुवर्णावश्वौ
“प्र “शंसामि =प्रकर्षेण स्तौमि"
हे “गोषनः गवां सनितः हे “नपात् न पातयितः
हे गोषन्(गोष:)गायें की सेवा करने से ! हे नपात न पतन होने से ।
शंस् स्तोतॄनविनाशयितः।
( स्तुति और विनाश) दौनों में
किन्तु अत्र पालयितरित्यर्थः यद्यपि शंस् धातु के अर्थ स्तुति और विनाश करना भी है परन्तु यहाँं पालन करना है ।

हे इन्द्र त्वम् “आभ्यां त्वदीयाभ्यामश्वाभ्यां “गा “अनु अस्मदीया गा लक्षीकृत्य “मा “शिश्रथः विनष्टा मा कार्षीः । गावोऽश्वदर्शनात् विश्लिष्यन्ते । तन्मा भूदित्यर्थः ॥

उपर्युक्त ऋचा में गोष: शब्द गोपोंं का वाचक है ।
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जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में वर्णित है।

भाषा विज्ञान के अनुसार
शब्दों का शारीरिक परिवर्तन भी होता है ।
लौकिक भाषाओं में यह घोष: हो गया।
तब भी इसकी आत्मा (अर्थ) अपरिपर्वतित रहा।

आज कुछ घोष लोग अपने को यादव भले ही न मानें परन्तु इतिहास कारों ने उन्हें यादवों की ही गोपालक जन-जाति स्वीकार किया है।

वैसे भी दमघोष से पहले भी घोष शब्द हैहय वंशी यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है

पुराणों में वर्णित हैहय भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था जिसकी सीमाऐं चीन तक थीं ।
इनके पूर्वजों यदु का वर्णन हिब्रू तुर्की आरमेेनियन और फारसी पुरा-कथाओं में वर्णित है।

जिन्हें आगामी पोष्ट में शीघ्र ही प्रेषित किया जाएगा।
परन्तु हम यहाँं  राजा दमघोष से विषय में बताएेंगे
जैसे-👇
यदु के चार पुत्र थे –
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा(खोतान के आदि पूर्वज)
(III) नल और (IV) रिपु.
हैहय वंश  यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था.
शतजित के तीन पुत्र थे – 1-महाहय, 2-वेणुहय तथा 3-हैहय.
परन्तु कालान्तरण में
ब्राह्मण वाद की रूढ़िवादी परम्पराओं की विकट छायाओं आच्छादित होकर घोष लोग अपने वंश-इतिहास को ही भूल गये ।

और यादव की अपेक्षा स्वयं को ठाकुर कहने लगे
जैसे- ठाकुर उपाधि किसी वंश की सूचक हो !

इन्हें कोई पूछे कि "ठाकुर" उपाधि तुर्को और मुगलों की उतरन( Used clothes) है।

--जो तुर्की आरमेेनियन और फारसी भाषाओं में जमींदारों या सामन्तों की उपाधि थी।
फिर तुम ठाकुर कैसे हो गये ।

जमीदार होने से तुम ठाकुर हो तो चलो कोई एतराज़ नहीं परन्तु आज तो ठाकुर एक जातिगत विशेषण बनता जा कहा है ।

यादवों के खिलाफ एक कम्यूनिटी है ।

संस्कृत भाषा या किसी भारतीय धर्म-शास्त्र में तो ठाकुर शब्द है ही नहीं
यह एक हजार वीं सदी में हिन्दुस्तान की भाषाओं में प्रविष्ट हुआ !

जब पहला तुर्क गजनी को फतह करता हुआ सुबक्तगीन सुबुक तिगिन --जो फ़ारसी भाषा में इस प्रकार वर्णित है - ابو منصور سبکتگین, (अबु मंसूर सबक़तग़िन)यह  ख़ोरासान के गज़नवी साम्राज्य का पहला संस्थापक था और भारत पर अपने आक्रमणों के लिए प्रसिद्ध महमूद गज़नवी का पिता।

अल्प तिगिन, जोकि सामानी साम्राज्य का एक सूबेदार था जो ख़ोरासान (उत्तरी अफ़गानिस्तान, पूर्वोत्तर ईरान और सटा हुआ मध्य-एशिया) के शासक के रूप में राज्य करता था।

सामानी साम्राज्य मध्य एशिया तथा ख़ोरासान का एक मध्यकालीन (819-999) साम्राज्य था ।
जिसकी राजधानी "बुखारा" एक समय इस्लाम की राजधानी बग़दाद की बराबरी करता था।
इसके शासक सुन्नी मुसलमान थे जो जऱथोश्त के धर्म से परिवर्तित होकर मुस्लिम बने गये थे।

सुबुकतिगिन उसका गुलाम था।
जब अल्प तिगिन ने सामानी शासकों के खिलाफ विद्रोह किया जो उसने सुबुकतिगिन को ग़ज़नी का प्रभारी बना दिया और अपनी बेटी की शादी उससे कर दी। सुबुकतिगिन ने अलप्तिगिन के दो परवर्ती शासकों के अन्दर भी एक ग़ुलाम के रूप में शासन का कार्यभार देखा और सन् 977 में वह कूटनीति से  ग़ज़नी का सुल्तान बन बैठा ।

सन् 997 में उसकी मृत्यु के बाद सुबुकतिगिन का छोटा बेटा ईस्माईल शासक बना पर उसके बड़े भाई महमूद ने ईस्माइल के ख़िलाफ़ विद्रोह कर दिया और ख़ुद ग़ज़नी का सुल्तान बन बैठा।
--जो भारत पर 17 आक्रमण  करने वाला माना गया है।
यद्यपि इस समय भारत पर राजपूती शासन था
--जो आपस में स्त्रीयों के लिए तो कभी शौर्य प्रदरशन के लिए आपस में लड़ते रहते थे ।
वर्ण-व्यवस्था-जाति-व्यवस्था के रूप में बदल गयी
सर्वत्र ऊँच-नीच अपने चरम पर थी।

तब पहला मुस्लिम आक्रान्ता अरब़ का मोहम्मद विन काशिम 712 ईस्वी फिर तुर्की सुबक्तगीन और इसके बाद मंगोल भी भारत में आ धमके!
जिन राजपूतों ने तुर्को और मुगलों की अधीनता स्वीकार की वे उनके हरम में अपनी कन्यायों का विवाह करने लगे

मुग़ल-राजपूत वैवाहिक संबंधों पर एक नज़र!
– 1562- राजा भारमल की बेटी से अकबर की शादी (कछवाहा-अंबेर)
– 1570- राय कल्याण सिंह की भतीजी से अकबर की शादी (राठौर-बीकानेर)
– 1570- मालदेव की बेटी रुक्मावती का अकबर से विवाह (राठौर-जोधपुर)
– 1573 – नगरकोट के राजा जयचंद की बेटी से अकबर की शादी (नगरकोट)
– 1577- डूंगरपुर के रावल की बेटी से अकबर का विवाह (गहलोत-डूंगरपुर)
– 1581- केशवदास की बेटी की अकबर से शादी (राठौर-मोरता)
–  1584- भगवंत दास की बेटी से राजकुमार सलीम (जहांगीर) की शादी (कछवाहा-आंबेर)
– 1587- जोधपुर के मोटा राजा की बेटी से जहांगीर का विवाह (राठौर-जोधपुर)
– 1595- रायमल की बेटी से अकबर के बेटे दानियाल का विवाह (राठौर-जोधपुर)
–1608- राजा जगत सिंह की बेटी से जहांगीर की शादी (कछवाहा-आंबेर)
– 1609- रामचंद्र बुंदेला की बेटी से जहांगीर का विवाह (बुंदेला, ओरछा)
– 1624- राजा गजसिंह की बहन से जहांगीर के बेटे राजकुमार परवेज की शादी (राठौर-जोधपुर)
– 1654- राजा अमर सिंह की बेटी से दाराशिकोह के बेटे सुलेमान की शादी (राठौर-नागौर)
–  1661- किशनगढ़ के राजा रूपसिंह राठौर की बेटी से औरंगज़ेब के बेटे मो. मुअज़्ज़म की शादी (राठौर-किशनगढ़)
– 1678- राजा जयसिंह के बेटे कीरत सिंह की बेटी से औरंगज़ेब के बेटे मो. आज़म की शादी (कछवाहा-आंबेर)
–1681- अमरचंद की बेटी औरंगज़ेब के बेटे कामबख्श की शादी (शेखावत-मनोहरपुर)

कई राजपूत बच्चों ने पाई गद्दी
1587 में जहांगीर और मोटा राजा की बेटी जगत गोसांई की शादी हुई, जिससे 5 जनवरी 1592 को लाहौर में शाहजहां पैदा हुआ. अकबर ने जन्म के छठे दिन खुशी में उसका नाम खुर्रम (खुशी) रखा.
जहांगीर की पत्नी नूरजहां का काफ़ी ज़िक्र होता है पर शेर के हमले से उन्हें असल में उनकी राजपूत बीवी जगत गोसांईं ने ही बचाया था. तुज़ुक-ए-जहांगीरी के मुताबिक़ उन्होंने पिस्तौल भरकर शेर पर चलाई, जिसके बाद जहांगीर की जान बची. नूरजहां ने इसके बाद ख़ुद
शिकार करना सीखा.
यानी शाहजहां के बेटे औरंगज़ेब की दादी एक राजपूत थी.

‘मुग़लों को मुसलमान कहना ही ग़लत’
क्लीनिकल इम्यूनोलॉजिस्ट डॉ० स्कन्द शुक्ला कहते हैं कि मुग़ल बादशाहों और राजपूत रानियों से पैदा होने वाली संतानें दरअसल आधी राजपूत होंगी. उनका कहना है कि जेनेटिक्स के मुताबिक़ संतान में आधे गुण यानी 23 क्रोमोसोम पिता से और 23 क्रोमोसोम मां से आते हैं. चूंकि मुग़लों के परिवार पितृसत्तात्मक थे ।
और तुर्की और फारसी भाषाओं का हिन्दुस्तानी जनता में प्रभाव था ।
तक्वुर   हिन्दी भाषा के मध्य-काल में ठाकुर एक सम्मान सूचक उपाधि रही है ।
और जन-जाति गत रूप में परम्परागतगत रूप में राजपूतों का विशेषण है।
तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदिय हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे
ठक्कुर के रूप में लिखा गया है।
कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे ।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलता थी।
और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में  उल्लेख करते हैं।
कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे "
उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ई०सन् के समकक्ष रहा है ।
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उस्मान को शिया लोग ख़लीफा नहीं मानते थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान  (644-656  राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप  में निर्वाचित किया गया था।
उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा।
तुर्को को इस्लाम की दीक्षा उस्मान खलीफा ने दी थी
यह समय भी सातवीं सदी का पूर्वार्द्ध था ।
तुर्को कि विरासत मुगलों ने सम्हाली --जो तुर्को के रास्ते मंगोलिया से आये ।

ठाकुर उपाधि तुर्को और मुगलों की अधीनता स्वीकृति निशानी है ।
यह उनकी उतरन Used clothes है।

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आइए देखें--- ठाकुर शब्द के विशेष सन्दर्भों को तुर्की इतिहास के आयने में -----
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" Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace."
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Origin and meaning of thakur- (ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति- और अर्थ )
The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning
"Wearer of the Crown".  It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.  The top story was a vast throne room.  The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber".  It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and 1291.
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From Middle Armenian թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
Attested in Ibn Bibi's works......
(Classical Persian)  /tækˈwuɾ/
(Iranian Persian) /tækˈvoɾ/
تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण
ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-hâ)
alternative form of
Persian
in Dehkhoda Dictionary   
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tafur on the Anglo-Norman On-Line Hub
Old Portuguese ( पुर्तगाल की भाषा)
Alternative forms (क्रमिक रूप )
takful
Etymology (शब्द निर्वचन)-----
From Arabic تَكْفُور‏ (takfūr, “Armenian king”), from Middle Armenian թագւոր (tʿagwor, “king”), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), from Parthian. ( एक ईरानी भाषा का भेद)
Cognate with Old Spanish tafur (Modern tahúr).
Pronunciation
: /ta.ˈfuɾ/
संज्ञा -
tafurm
gambler
13th century, attributed to Alfonso X of Castile, Cantigas de Santa Maria, E codex, cantiga 154 (facsimile):
Como un tafur tirou con hũa baeſta hũa seeta cõtra o ceo con ſanna p̈ q̇ pdera. p̃ q̃ cuidaua q̇ firia a deos o.ſ.M̃.
How a gambler shot, with a crossbow, a bolt at the sky, wrathful because he had lost. Because he wanted it to wound God or Holy Mary.
Derived terms
tafuraria ( तफ़ुरिया )
Descendants
Galician: tafur
Portuguese: taful Alternative forms
թագվոր (tʿagvor) हिन्दी उच्चारण :- टेगुर. बाँग्ला टैंगॉर रूप...
թագուոր (tʿaguor)
Etymology( व्युत्पत्ति)
From Old Armenian թագաւոր (tʿagawor).
Noun
թագւոր • (tʿagwor), genitive singular թագւորի(tʿagwori)
king
bridegroom (because he carries a crown during the wedding)
Derived terms
թագուորանալ(tʿaguoranal)
թագւորական(tʿagworakan)
թագւորացեղ(tʿagworacʿeł)
թագվորորդի(tʿagvorordi)
Descendants
Armenian: թագվոր (tʿagvor)
References
Łazaryan, Ṙ. S.; Avetisyan, H. M. (2009), “թագւոր”, in Miǰin hayereni baṙaran [Dictionary of Middle Armenian] (in Armenian), 2nd edition, Yerevan: University Press !
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(ˈɡəʊʃən  )
noun
1.
a region of ancient Egypt, east of the Nile delta: granted to Jacob and his descendants by the king of Egypt and inhabited by them until the Exodus (Genesis 45:10)

a place of comfort and plenty

Word lists "place names in the Bible

Goshen in American
(ˈgoʊʃən  )
noun
Bible
the fertile land assigned to the Israelites in Egypt: Gen. 45:10

ब्रिटिश में गोशेन
(ˈꞬəʊʃən)

प्राचीन मिस्र का एक क्षेत्र, नील डेल्टा के पूर्व: मिस्र के राजा द्वारा याकूब और उसके वंशजों को दिया गया नाम और निर्गमन तक उनके द्वारा बसाया गया
(उत्पत्ति खण्ड 45:10)

आराम की जगह और बहुत कुछ

शब्द सूची "बाइबल में एक जगह के नाम गोशेन"

गोशेन

बाइबिल जैनेसिस खण्ड
मिस्र में इस्राएलियों को सौंपी गई उपजाऊ ज़मीन: 45:10

घोष यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा।
--जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में गोष: के रूप में है जिसका अर्थ है ।
गां सनोति सेवयति इति गोष: --जो गाय की सेवा करता है 'वह गोप !

अब कुछ हमारे घोष समाज के लोग कहने लगे है कि घोष और घोसी अलग होते हैं ।
परन्तु वे निहायत अशिक्षित माने जाऐंगे
जिन्हें भाषा-विज्ञान  ( linguistic) का ज्ञान नहीं
--जो केवल साक्षर मात्र हैं ।

प्रस्तुति-करण :–यादव योगेश कुमार "रोहि"
क्यों कि घोष शब्द ही प्राकृत भाषाओं में घोसी बन गया है
जबकि घोष भी वैदिक गोष: का लौकिक रूपान्तरण है
जिनका अर्थ गोसेवक अथवा गोप ही होता है.
वृष्णि वंशी यादव उद्धव को 'ब्रजभाषा के कवि सूरदास आदि ने घोष कहा ।
यादवों का एक विशेषण है घोष -👇
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आयो घोष बड़ो व्यापारी  लादि खेप
गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी ||
फाटक दैकर हाटक मांगत,
भोरै निपट सुधारी धुर ही तें खोटो खायो है,
लए फिरत सिर भारी ||

इनके कहे कौन डहकावै ,
ऐसी कौन अजानी ।
अपनों दूध छाँड़ि को पीवै,
खार कूप को पानी ||
ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ |
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ ||
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वह गोपियाँ  उद्धव नामक घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं ।
घोष शब्द यद्यपि गौश्चर: अथवा गोष: का परवर्ती तद्भव रूप है परन्तु इसे भी संस्कृत में मान्य कर दिया गया ।
और इसकी घुष् धातु से व्युत्पत्ति कर दी गयी ।
--जो पूर्ण रूपेण असंगत व अज्ञानता जनित व्याकरणिक और भाषा विज्ञान के नियम के विरुद्ध ही है ।👇
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घोष: (घोषति शब्दायते इति ।

घोषः, पुंल्लिङ्ग (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् ।
घुषिर् विशब्दने + “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१। इति घञ् )
आभीरपल्ली (अहीरों का गाँव)
अर्थात् जहाँ गायें रम्हाती या आवाज करती हैं 'वह स्थान घोष है ।
वस्तुत यह काल्पनिक व्युत्पत्ति मात्र है ।
(यथा, रघुःवंश महाकाव्य । १ । ४५ ।
हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् ।
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ”
द्वितीय व्युत्पत्ति गोप अथवा आभीर के रूप में है 👇
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घोषति शब्दायते इति । घुष् + कर्त्तरि अच् ।)
गोपालः । (घुष् + भावे घञ् ) ध्वनिकारक।

(यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः ।

कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।
(यथा, कुलदीपिकायाम् “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुज
महाकृती )
अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका ।
बंगाल में कायस्थों का एक समुदाय घोष कहलाता है ।
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'ब्रजभाषा के कवियों ने घोष या अहीर यादवों को ही कहा है ।👇
उदाहरण —प्रात समै हरि को जस गावत
उठि घर घर सब घोषकुमारी ।
(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
संज्ञा पुंल्लिङ्ग [संज्ञा] [ आभीर] १. अहीर । ग्वाल 

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रसखान ने  अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 👇
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या लकुटी अरु कामरिया पर,
      राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

  आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख,
           नन्द की धेनु चराय बिसारौं॥

रसखान कबौं इन आँखिन सों,
            ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिक हू कलधौत के धाम,
                करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस,
                   सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड,
                              अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे,
                          पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ,
                           छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
नीचे देखें---👇
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ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।

अर्थात् उस वृदावन में सभी गौएें गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
(उद्धृत अंश)👇
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय।
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ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ;
क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
और घोष भी गोपों का प्राचीन विशेषण है ।👇

द्रोण नन्दो८भवद् भूमौ, यशोदा साधरा स्मृता ।
कृष्ण ब्रह्म वच: कर्तु, प्राप्त घोषं पितु: पुरात् ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः। यथाह
(हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )

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यादव योगेश कुमार "रोहि"

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