गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

अहीर रेजीमेण्ट बनना देश की सुरक्षा और अहीरों के लिए कर्तव्य सच्चा है ।

अहीरों का ऐैतिहासिक परिचय "पश्चिमीय एशिया की प्राचीन  संस्कृतियों में मार्शल आर्ट के सूत्रधारकों के रूप में अहीरों का वर्णन अबीर रूप में है ।–
और अहीर -रेजीमेण्ट इस मार्शल आर्ट प्रायोजकों के लिए एक प्रायौगिक संस्था बन देश की सुरक्षात्मक गतिविधियों को सुदृढ़ता प्रदान करेगी।
एेसा मेरा विश्वास है ।
इस लिए अहीर रेजीमेण्ट बननी ही चाहिए-
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यदि प्रश्न किया जाए कि अहीर रेजीमेण्ट का निर्माण
केवल जातीय आधार पर है ?
तो इस प्रश्न का कोई औचित्य नहीं है ! क्यों कि भारतीय सेना में पहले से ही  "राजपूत-रेजीमेण्ट" "जाट-रेजीमेण्ट" महार-रेजीमेण्ट , सिक्ख-रेजीमेण्ट गोरखा-रेजीमेण्ट आदि हैं  --जो जाति विशेष पर ही आधारित  हैं ।
फिर ! अहीर रेजीमेण्ट में क्या अापत्ति ?
"सैनिक कर्तव्य का निर्धारण व्यक्ति की यौद्धिक प्रवृत्तियों को दृष्टि गत करके ही करना चाहिए ।
  अहीरों का परम्परागत व्यवसाय पशुपालन और कृषि रहा है।
और ये दौनों व्यवसाय किसी यौद्धिक क्रिया से कम नहीं हैं।
और इस अर्थ में किसान सबसे बड़ा यौद्धा है।
--जो किसान जीवन की विषम परिस्थितियों से ही आजीवन युद्ध करते हुए जीवन व्यतीत कर देता है ।उससे बड़ा कोई शक्ति शाली यौद्धा नहीं
जिसको न सर्दी का भय, न तपन का भय,
और --जो वर्षा -बाड़ से भी भयभीत नहीं होता ।
उसकी औलादें भी इसी साँचें में ढलकर लोहे से फोलाद बन जाती हैं
न कि बनिये या सेठ महाजन --जो केवल बैठकर खाते हैं ।
जिनकी बीमारी के कारण तोंदें निकल आती हैं ।
वो कभी भी युद्ध नहीं लड़ सकते और युद्ध करना बामनों (ब्राह्मण) के बस की बात नहीं !
अहीरों के लिए रेजीमेण्ट सामयिक  अनिवार्यता है ।
अहीरों का स्वभाव लडा़कू और खूनख्वार होता है ।
फिर ऐसी बहादुर व खूनख्वार जन-जाति को दुश्मनों से लड़ने का अवसर अवश्य मिलना चाहिए !
गुर्ज्जरः अहीर और जाट ये जन-जातियाँ विश्व-इतिहास के पृष्ठों में सबसे बड़ी घुमक्कड़ तो हैं ही ।
युद्ध-प्रिय भी सबसे अधिक कही गयीं हैं ।

इनके ख़ून में यौद्धिक प्रवृत्तियों का प्रवाह आज भी उमड़ता है ।
इनका जैनेटिक सिष्टम भी साहसी , स्वाभिमानी व
उत्साह पूर्ण है ।
भारत में अनेक जन-जातियाँ इसी प्रकार की हैं।
जो अधिकतर राजपूतों के अन्तर्गत होकर "राजपूत- रेजीमेण्ट" में भर्ती हो जाती हैं।
परन्तु --जो इस दायरे से बाहर हैं वे  जन-जातियाँ
भी हकदार हैं रेजीमेण्ट की !

जैसे भारतीय सेना  में "जाटव रेजीमेण्ट" भी होनी चाहिए
क्यों कि ये भी यौद्धिक प्रवृत्तियों से ओत-प्रोत तो ही हैं क्यों कि इनके पूर्वजों ने ब्राह्मण वाद के रूप वर्ण व्यवस्था
में अनेक दुर्दान्त यातनाऐं सहकर भी
''अपनी जिजीविषा को उद्दीप्त बनाए रखा ।
और अपने प्रतिद्वन्द्वीयों से निरन्तर मुकाबला किया ।
--जो केवल एक यौद्धा ही कर सकता है ।
दलितों के मसीहा डॉ० अम्बेडकर महार थे ।
महार रेजीमेण्ट यद्यपि महारों के लिए आरक्षित है ।
महार भी ब्राहमणों की व्यवस्थाओं में दलित/ शूद्र अवश्य हैं ।
परन्तु उस महार रेजीमेण्ट में जाटवों का समावेश नहीं हैं ।
अत: जाटव रेजीमेण्ट पृथक ही बननी चाहिए।
किसी के क्षत्रिय या वीर अथवा यौद्धा होने का निर्धारण
कोई रूढ़िवादी ब्राह्मण कैसे करसकता है ?
क्यों कि --जो जन-जाति सदीयों से भिक्षा और धर्म के नाम पर सुविधा भोगी और एशो-आराम का जीवन व्यतीत करते हो !
'वह किसी वीर या यौद्धा के गुणों की क्या परख कर सकती है ।
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परन्तु दुर्भाग्य से अथवा कहें दुराग्रहों से प्रेरित होकर
शासन सत्ता पर आसीन हुकुमरान इस बात से सहमत नहीं हैं।
क्यों कि उनपर -परोक्षत: ब्राह्मण-धर्म की छाया है

उनकी सोच केवल अन्धकार के गर्त में पोषित सदीयों से चली आ रही रूढ़िवादी परम्पराओं की अनुपालक है
परन्तु यही स्थितियाँ देश को दुर्भाग्य की कारण बनी देश को लिए गुलामी की जिम्मेदार  यही परिस्थितियाँ रहीं।
अहीरों का रेजीमेण्ट भी आज के युग की एक आवश्यकता है ।
जब भारत की सीमाऐं दुश्मनों से सुरक्षित नहीं हैं।
तब तो ऐसी बहादुर व खूनख्वार जन-जाति को दुश्मनों से लड़ने लिए मौका देना निहायत जरूरी है ।

तमाम ब्राह्मणों के धर्म के ग्रन्थों में अहीरों को शूद्र , दस्यु तथा निम्न जन-जाति का कहकर वर्णित किया गया है।
उन्हें हीन बनाने के लिए इन लोगों ने अनेक मनगड़न्त कथाऐं सृजित कीं परन्तु जिनके खून में सरफरोशी की भावना हो --जो खूनख्वार हों ।
उनकी प्रवृत्ति कोई नहीं बदला जा सकता ।
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यद्यपि ये ब्राह्मणों के ग्रन्थ केवल पूर्व-दुराग्रहों और द्वेष भाव से -प्रेरित होकर लिखे गये ।
और इन्हें सत्य इतिहास कहना केवल श्रृद्धा प्रवणता है ।

किसी को शूद्र कहकर ब्राह्मण व्यवस्था शिक्षा और संस्कारों से वञ्चित रहने का विधान तो पारित कर सकती है ।
परन्तु उनकी प्रवृत्ति को नहीं बदल सकती !
प्रवृत्तियाँ सी.पी. यू. के सिष्टम -सॉफ्टवेयर की तरह जैनेटिक होती हैं ।
जबकि स्वभाव एप्लीकेशन -सॉफ्टवेयर के समान परिवर्तनीय होता है ।
वर्ण-व्यवस्था का स्वरूप भले ही अपने प्रारम्भिक रूप में यह रहा हो , परन्तु कालान्तरण में उसकी परिणति जन्म गत-व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो गयी ।
ब्राह्मण जिसे चाहें शूद्र बनाकर ज्ञान और शिक्षा से वञ्चित रहने का विधान पारित कर देते थे ।
परिष्कार दर्पण नामक एक वैदिक विवेचिका पुस्तक में
लेखक :–व्याकरण सिरोमणि पण्डित वेनिमाधव शुक्ल ने वैदिक विधानों के परचय में यह उद्धृत किया कि 👇
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अत्रेदमुसन्धेयम्, निषादस्य संकरजातिविशेषस्य शूद्रान्तर्गततया "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्" इत्यनेन निषिद्धत्त्वाद् वेदसामान्यानधिकारेsपि
यहाँं यह अनुसन्धान करने योग्य है कि निषाद 'संकर' जाति है ।अत: वे शूद्रों के अन्तर्गत होने से ज्ञान और वैदिक शिक्षा के लिए निषिद्ध (मना) हैं ।
क्यों कि "स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम" वेद वाक्य से स्त्रीयों और शूद्रों को ज्ञान नहीं देना चाहिए"
परन्तु व़निषादों का मालिक यज्ञ करे !👇

"निषादस्थपतिं याजयेत्" इति विशेषश्रुतियाजनान्यथानुपपत्त्यैव यागमात्रोपयुक्तमध्ययनं निषादस्य कल्पयते
वस्तुत इस प्रकार शिक्षा और संस्कारों से वञ्चित रहने का विधान बनाकर व्यक्ति को अशिक्षित व  संस्कार हीन बनाकर फिर गुलाम बनाना बहुत आसान है ।
और  शक्ति हीन होकर केवल गुलाम की जिन्द़गी ही बसर करता है व्यक्ति !
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परन्तु अहीर और गुज्जर सदीयों से इतिहास कारों की दृष्टि में भय और आतंक का पर्याय रहे हैं तो
इन्हें रेजीमेण्ट के माध्यम से दुश्मनों के विरुद्ध लड़ने का मौका दिया जाए ।

यद्यपि अहीर और गुज्जर का भेदीकरण 16 वीं सदी के बाद से अधिक हुआ अन्यथा भारत के संस्कृत लेखकों ने तथा 'ब्रजभाषा के कवियों ने  दोनों को समानार्थक रूप में वर्णित किया ,
अर्थात्‌ गुज्जरों को अहीर या अहीरों को गुज्जर कहा ।

आज गुज्जर और अहीर अलग अलग जन-जाति बन गयीं हैं ।
गुज्जरों की प्रवृत्ति,  स्वभाव अहीरों के ही समान है
क्यों ये एक वृक्ष की दो शाखाएें हैं ।
अत: गुज्जर और अहीर रेजीमेण्ट आज के समय की महती आवश्यकता  है ।

भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु दुनियाँ का इतिहास
प्रत्येक काल में  पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर लिखा गया ।
भारतीय सन्दर्भों में विचार करें तो
आधुनिक इतिहास हो या प्राचीन इतिहास या पौराणिक आख्यानकों में अहीरों का एक (Criminal tribe ) अापराधिक जन-जाति  तथा दुर्दान्त हत्यारे और लूटेरों के रूप में उल्लेख किया गया है।

इसका कारण भी रूढ़िवादी परम्पराओं के अनुरूप है।
कि वेदों में अहीरों के आदिम पुरुष "यदु" को  ब्राहमणों की व्यवस्था का पालन करने वाला नहीं माना ।
परन्तु इसका कारण अज्ञात  ही है।

वेदों में यदु का वर्णन दास अथवा असुर रूप किया गया है ।
फिर वेद जिस बात का विधान करेगें तो उसके अनुयायी उसे ही सत्य मानकर उसकी अनुपालन परम्परागत रूप से करेंगे ही ।
यही इनका कोड है यही इनका संविधान भी ।

हम आपको यदु के कुछ वैदिक प्रमाण भी प्रस्तुत करते है ।👇

दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ देव संस्कृति के अनुयायीयों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।
न कि नौकर या गुलाम से ।
दास ईरानीयों की भाषा में दाहे के रूप में उत्तरी अर्थों को ध्वनित करता है।
इस विषय में एक बात स्पष्ट कर देना उचित है
कि दास ,असुर राक्षस -जैसे शब्द क्या हमेशा से इसी अर्थ में रहे हैं ।
तो इसका उत्तर "नहीं" के रूप में ही है ।

ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
वह भी गोपों को रूप में 👇
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।

गो-पालक ही गोप होते हैं
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में हुआ है ।
👇
प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)

ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।

और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)

हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।

शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं ।

भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि ।
(ऋग्वेद ८/४६/२
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।

जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।

उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६

अब ये प्राचीनत्तम जन-जाति आज अहीर, गुज्जर और जाटों के रूप में ब्राहमणों की वर्ण व्यवस्था में शूद्र मान्य हैं।

इतना ही नहीं दास शब्द से ही दस्यु शब्द विकसित हुआ
दस्यु का अर्थ विद्रोही है ।

दस्यु में चोर की प्रवृति कभी नहीं होती है दस्यु बागी़ होता है
जिन्हें आज डकैत कह सकते हैं ।
डकैत स्वेच्छा से नहीं अपितु व्यवस्थाओं से बगावत करने वाले बनते हैं ।
ये चोर नहीं होते हैं ।
परन्तु अहीरों को रूढ़िवादीयों द्वारा चोर कहकर प्रचारित किया जाता है ।

और जन साधारण ही नहीं ब्राह्मण इतिहास कारों ने भी अहीरों को चोर कह दिया है ।

पता नहीं इतिहासकारों की कौन सी भैंस अहीरों ने चुरा ली थी  ।
इतिहास कार भी विशेष समुदाय वर्ग के ही थे ।
अहीरों के विषय में ऐसा ऐैतिहासिक विवरण पढ़कर इसे ही सही मानने वाले भी गधों से अधिक कुछ नहीं हैं।
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अहीर क्रिमिनल ट्राइब कदापि  नही हैं अपितु विद्रोही ट्राइब अवश्य रही है ;

वो भी अत्याचारी शासन व्यवस्थाओं  के खिलाफ ,
क्योंकि इतिहास भी शासन के प्रभाव में ही लिखा जाता था।

और कोई शासक विद्रोहियों को सन्त तो कहेगा नहीं
क्यों कि शत्रुओं की अच्छाई भी बुराई रूप में दिखाई देती है।
बस इतिहास भी इसी भावना से प्रेरित होकर लिखा गया है।

परन्तु जनता क्यूँ सच मान लेती है ये सारी काल्पनिक बाते यही समझ  में नहीं आता  ?
ऐसी ऊटपटांग बातें आजादी के बाद यादवों के बारे में वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदकों ने ही पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होकर पुन: लिखीं ।

परन्तु यथार्थोन्मुख सत्य तो ये है कि यादवों ने ना कभी कोई  अापराधिक कार्य अपने स्वार्थ या अनुचित माँगों को मनवाने के लिए किया हो ! सायद सम्भव नहीं

कोई तोड़ फोड़ कभी  की हो ! और ना ही -गरीबों की -बहिन बेटीयों  को सताया हो ।
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केवल कुकर्मीयों , व्यभिचारीयों के खिलाफ विद्रोह अवश्य किया, वो भी हथियार बन्ध होकर ,
इस लिए रूढ़िवादीयों ने इन्हें डकैत कहा ।

यादवों का विद्रोह शासन और उस  शासक के खिलाफ  हमेशा से रहा  जिसने समाज का शोषण किया ।
ना की आम लोगों के खिलाफ !
जनता को सोचना-समझना चाहिए !
न कि अन्ध-भक्तों की तरह  ब्राह्मणों के कहने पर विश्वास करना चाहिए ।

जिस प्रकार से आज समाज में अहीरों के खिलाफ सभी रूढ़ि वादी समुदाय एक जुट हो गये हैं।
तो इस प्रकार द्वेष-प्रेरित प्रतिशोध भावनाऐं हानिकारक हैं ।
सामाजिकता के लिए , लोक तन्त्र के लिए और राष्ट्र के लिए भी !
यह लोक तन्त्र के लिए तो संकट है ही
यह उन  चोर कहने वालों के लिए भी भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है ।
आपने सुना ! अखिलेश यादव को मिडिया द्वारा -परोक्षत: टोंटी चोर कहकर प्रचारित किया गया।
यह सब खोंटी करना ही है।

क्यों कि सर्प की खोंटी करके तो आदमी सलामत रहता नहीं ! फिर सर्प को भी पछाड़ने वाले अहीरों से पंगा लेकर सरासर दंगा को आमन्त्रित करना है।
अहीरों को संस्कृत भाषा में अभीरः कहा
जिसका अर्थ "निडर" है ।

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अहीरों को संस्कृत भाषा में अभीरः अथवा आभीरः संज्ञा से इस लिए अभिहित किया गया ।
क्यों कि ये जन्म-जात निर्भीक जन-जाति है ।👇

अभीर शब्द में "अण् प्रत्यय समूह अथवा सन्तति वाचक है।
इस तद्धित प्रत्यय के योग करने पर आभीर शब्द बनता है ।

परन्तु यह व्युत्पत्ति संस्कृत के विद्वानों ने ई०पू० द्वितीय सताब्दी में अहीरों की निर्भीकता की प्रवृत्ति को दृष्टि गत करके की थी ।
           संस्कृत अभीर:शब्द का मूल तो वीर शब्दः है ।
जो हिब्रू भाषा में अबीर शब्द के मूल के रूप में बीर/ बिर है ।
वैसे अभीर शब्द दागिस्थानी तथा अज़रबेजान की संस्कृतियों में "अवर" (Avar) स्पेन में "आयबरी"
मध्य-अफ्रीका में "अफर" हिब्रू संस्कृतियों में "अबीर"
तथा आद्यभारोपीय भाषाओं में "आर्य्य" तमिल "आयर"
स्कॉटलेण्ड "आयर" आदि रूपों में है ।
यह एक प्रवृत्ति-मूलक विशेषण है ।

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.. संस्कृत भाषा में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति केवल अहीरों की यौद्धिक प्रवृत्तियों को दृष्टि से अनेक प्रकार से की है : -
सबसे पहले अमरकोशः में अमरसिंह ने की  इसके जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे।
कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।
कुछ भी सही !
सत्य स्वीकार करना ही चाहिए !

संस्कृत में आभीरः, पुल्लिंग विशेषण शब्द है ।
(आ समन्तात् भियं राति इति आभीर  (गोप:) यादव।
इत्यमरःकोश ॥
आहिर इति प्राकृत भाषा ।

--जो सर्वत्र भय का वातारण उत्पन्न करता है ।

"अ नास्ति भयं यस्मिन् चित्तेषु इति अभीर: और सामूहिक रूप आभीर:
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यह शब्द "अभित: ईरयति गच्छति इति अभीरः" अर्थात् चारो तरफ घूमने वाली एशिया की निर्भीक जनजाति "  के रूप मे मिश्र के टैल अमरना में हबीरु भी है ।

अभि एक धातु ( क्रियामूल ) से पूर्व लगने बाला उपसर्ग (Prifix)है ।
तथा ईर् संस्कृत परस्मैपदीय धातु जिसका अर्थ "गमन करना" है ।
इस धातु में कर्तरिसंज्ञा भावे में अच् प्रत्यय के द्वारा निर्मित विशेषण शब्द अभीरः बनता है ।

अभीरः शब्द में श्लिष्ट अर्थ है जो पूर्णतः भाव सम्पूर्क है👇
(अ) निषेधात्मक उपसर्ग तथा भीरः/ भीरु तद्धित पद दौनों के संयोग से बनता है शब्दः अभीर = अर्थात् जो भीरः अथवा कायर न हो वह वीर पुरुष ।
रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने  1900 वीं सदी में
अपना इतिहास के
"अ पीप इन्टू द अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इण्डिया' इतिहास के ग्रन्थ में लिखा।
कि अहीरों का सम्बन्ध यहूदियों की अबीर शाखा से रूप में है ।
--जो विश्व में मार्शल आर्ट के जनक हैं ।
यहूदियों को ही उन्होनें इज़राएल के यादव कहा ।

यहूदीयो की भाषा हिब्रू में भी अबीर (Abeer )शब्द का अर्थ वीर तथा सामन्त है।

यद्यपि हिब्रू बाइबिल में तो परमेश्वर के पाँच नामों में से "अबीर" भी एक नाम है ।
परन्तु अबीर का मूल अर्थ "वीर" अथवा "यौद्धा" है ।

..तात्पर्य यह कि इजराईल के यहूदी वस्तुतः यदु की सन्तानें थीं जिन्हें अबीर भी कहा जाता था ।
यद्यपि आभीरः शब्द अभीरः शब्द का ही बहुवचन समूह वाचक रूप है ।

यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय  Genesis 49: 24 पर ---
अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है ।
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The name Abir is one of The titles of the living god  for some reason it,s usually translated(  for some reason all god,s
    in Isaiah 1:24  we find four names of
The lord in rapid  succession as Isaiah
Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir ---- Israel declares...
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Abir (अभीर )---The name  reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this  name  whith ----  Mighty One , it is probably best  translated whith ---
Protector --रक्षक ।
हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :----👇
(१)----अबीर (२)----अदॉन (३)---सबॉथ (४)--याह्व्ह्
तथा (५)----(इलॉही)
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हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है
इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल--
( एल का सामना करने वाला )को अबीर
    का विशेषण दिया था ।
इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है ।
ययाति यम का भी विशेषण है ।
  
परन्तु भारतीय पुराणों में यादवों को कभी भी कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय स्वीकार न करने का कारण
यही है, कि ब्राह्मण समाज ने प्राचीन काल में ही यदु को शुद्र या दास कहा क्यों की उन्होंने अपने पिता को अपना पौरूष ना दिया और शाप के कारण उन्होंने पृथक यदुवंश / यादव राज्य स्थापित किया |
यद्यपि पिता को पौरुष न देने की परिकल्पना विरोध  का  कारण निर्धारित करने से लिए की गयी।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में देखें---
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा  यदुस्तुर्वशुश्च मामहे।।
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ऋग्वेद-10/62/10
दास शब्द इस सूक्त में एक वचन रूप में है ।

और ६२वें सूक्त में द्विवचन रूप में है ।
वैदिक व्याकरण में "दासा "
लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" रूप में मान्य है ।
ईरानी आर्यों ने " दास " शब्द का उच्चारण "दाहे "
रूप में किया है -- ईरानी आर्यों की भाषा में दाहे का अर्थ --श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
अर्थात् दक्ष--
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अभीरः+ अण् = आभीरः हिब्रू बाईबिल में सृष्टिखण्ड (Genesis) ..में यहुदः तथा तुरबजू के रूप में यदुः तुर्वसू का ही वर्णन है ।
देव संस्कृतियों के प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में जैसा कि वर्णन है ।

वस्तुतः अभीरः शब्द से कालान्तरण में स्वतन्त्र रूप से एक " अभ्र् " नामधातु का विकास हुआ; जो संस्कृत धातु पाठ में परिगणित है जिसका अर्थ है:–चारौ ओर घूमना ..इतना ही नही मिश्र के "टैल ए अमर्ना "के शिला लेखों पर "हबीरु" शब्द का अर्थ भी घुमक्कड़ ही है ।
अंग्रेजी में आयात क्रिया शब्द (Aberrate) का अर्थ है = to Wander or deviate from the right path...
अर्थात् सही रास्ते से भटका हुआ या कहें घुमक्कड़ "आवारा"  संस्कृत रूप "अभीरयति" परस्मैपदीय रूप है।

... सत्य तो यह है कि सदीयों से आभीरः जनजाति के प्रति तथा कथित कुछ रूढ़िवादीयों के द्वारा द्वेष भाव का कपट पूर्ण नीति निर्वहन किया  जाता रहा ।

फारसी मूल का आवरा शब्द भी अहीर /आभीरः का तद्भव रुप है ..

आभीर एशिया की सबसे प्राचीन
व वृहद जन-जाति है |

ईसा मसीह (कृष्ट:) तथा कृष्ण: दौनों ही महा मानवों का प्रादुर्भाव इसी यदु अथवा यहुद: वंश में हुआ है ।
ऐसी पाश्चात्य इतिहास कारों की मान्यताऐं हैं ।

जैसा कि इजराईल के यहूदी अबीर (Abeer) जनजाति जो युद्ध और पराक्रम के लिए दुनिया मे विख्यात हैं |

मार्शल यौद्धा जन-जाति अहीर हैं ।--
पाश्चात्य इतिहास कारों के उद्धरण से संग्रहीत तथ्य 👇

"अबीर काशेथ और इसके कुलपति द्वारा इज़राइल की खोई जनजाति की जड़ें और सामन्त " नामक शीर्षक पुस्तक से उद्धृत तथ्य:–👇

लेखक का मत है  कि दो अलग-अलग संस्कृतियों के मध्य समानता की एक पूर्वरूपता है जो इंगित करती है कि उनका प्राचीन सम्बन्ध एक संयोग नहीं है अपितु एक यथार्थ है ।

एक दृढ़ सम्भावना है कि हम पारम्परिक एशियाई मार्शल आर्ट्स जिसे कहते हैं, उसकी उत्पत्ति न केवल सुदूर पूर्व, चीन, कोरिया, जापान में निहित है।
बल्कि प्राचीन हिब्रू मार्शल आर्ट, जिसे अबीर काशेथ कहा जाता है उससे है।

इसका प्रभाव या अनुकूलन अबीर जन-जाति से सम्बद्ध हो सकता है ।
सुमेर के प्राचीन मध्य-पूर्वी बेल्ट कुश्ती खेल को "सुमेरियन" (शूमोरनी) कहा जाता है जिसे एक डायपर (जिसे बेल्ट कहा जाता है) के बिना किया जाता है, दोनों खिलाड़ियों द्वारा पकड़ा जाता है, जो अपने लंबे बालों को अपने सिर के ऊपर एक बुन में बांधते हैं।
इसी तरह जापान में सुमो कुश्ती के साथ, सुमो एक जापानी अनुकूलन / सुमेर का अनुवाद है?

जापान इजरायल से 6,800 मील (11,000 किमी) से अधिक दूर है।
और फिर भी उनके बीच सूक्ष्म समानताएं मौजूद हैं। विदेशियों के लिए जापानी शब्द का उपयोग,
गाइजिन (外人) केवल उन लोगों तक ही सीमित नहीं है जो जापान में विदेशी हैं, लेकिन इसमें कोई भी व्यक्ति शामिल नहीं है जो जापानी नहीं है।
यहां तक ​​कि जब कोई व्यक्ति अपने घर देश में होता है, तब भी उन्हें देश के जापानी विदेशियों द्वारा गैजिन माना जाता है।
जो प्राचीन इस्राएलियों के समान दुनिया के समान है, कि जो कोई इज़राइली नहीं था उसे विदेशी माना जाता था, (गोइम गोइम बहुवचन) भले ही तकनीकी रूप से इजरायल दूसरे देश में विदेशी था।

जापान को फिर से खोजना, सैमुअल ली द्वारा ईसाई जगत को पुन: प्रस्तुत करना बताया जाता है कि इज़राइलियों ने इसे सिल्क रोड के माध्यम से जापान में कैसे बनाया, क्योंकि उन्हें 722 बीसी में अश्शूर (असुर) साम्राज्य द्वारा उनकी भूमि से निर्वासित किया गया था।
यद्यपि असीरियन और यहूदी सैमेटिक ही थे।

चीनी इतिहास कार "ली" भी इनके आकर्षक साक्ष्य प्रदान करते हैं कि पिछले 2000 वर्षों में ईसाई धर्म ने चार चरणों में जापान में प्रवेश किया था और पिछले 500 वर्षों में नहीं।

जापानी वंशावली के अनुसार, शिनसेन शोजी-रोकू (815 सीई) लोगों का एक समूह, लगभग 190,000 उन्नीसवीं लाख की संख्या में जापान में आ गया, महासागर पार कर, 4 वीं शताब्दी सीई में उन्हें हता (हित्ताइट) कबीले के रूप में कहा जाता है।

क्या हता इज़राइल की दस खोई गई जनजातियों में से एक था? जब मैंने येहोशुआ सोफर से पूछा कि क्या उसके विचार की मेरी लाइन का समर्थन करने के लिए उसके पास कोई संभावित विचार या परम्परा थी, तो उसने कहा, "हता" हित्तियों के लिए जापानी हो सकती है, जो कई विद्वानों का मानना ​​है कि अब इजरायल लोगों के लिए वैकल्पिक नाम होना चाहिए।

" हता के पौराणिक मन्दिरों, प्राचीन जापानी लोक गीतों की खोज, जैसे हां-रान इतनी दौड़ती है कि हिब्रू में गाया जा रहा है, तथ्य यह है कि कई जापानी शब्द अर्थ और ध्वनि में हिब्रू लोगों के समान हैं।
जैसे "निसा" (ले जाने के लिए) अता / Anata (आप) barer / bareru (स्पष्टीकरण), आदि के साथ ही प्राचीन जापानी और हिब्रू पात्र समान हैं,
सुझाव है कि यह संयोग नहीं है लेकिन एक पूर्व सम्बन्ध  है।

जापानी और हिब्रू / अरामाईक में लगभग 300 शब्द समान नहीं हैं यदि समान नहीं हैं।
सबूत जापानी संस्कृति में डूबे हुए हैं, इसलिए, इज़राइल से जापान के राजदूत एली कोहेन ने घोषणा की (अपने स्वयं के अवलोकनों और अकादमिक और धार्मिक विशेषज्ञों के निष्कर्षों के आधार पर) उनका मानना ​​है कि वाचा का सन्दूक छिपा हुआ है जापान में

जापानी राष्ट्रीय टेलीविजन पर प्रसारित राजदूत कोहेन का साक्षात्कार जापान की सबसे प्रसिद्ध त्यौहारों में से एक है (जैसा कि देखा गया है: इस आलेख का वीडियो अंत): भाषा के समानताएं, विशेष रूप से दिलचस्प, द गेयन फेस्टिवल (祇 園 祭 गेयन मत्सुरी) प्रभावों के बावजूद, वास्तविकता पर हमें इस बात पर सहमत होना चाहिए कि इतिहास की सच्चाई एक भव्य रहस्य है।

पारम्परिक एशियाई मार्शल आर्ट्स की जड़ों पर समझदारी से चर्चा करने के लिए हमारे द्वारा ऐतिहासिक सबूतों और सम्भावनाओं से इनकार  नहीं किया जा सकता है।
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जिसमें प्राचीन हिब्रू की मार्शल आर्ट अबीर काशेथ के महत्व को नजरअंदाज नहीं किया गया है।

हम हिब्रू लोगों को जानते हैं, हजारों वर्षों से "मौखिक तोराह (धर्म)" हखामनी रूप "दाराह" में रहते थे, जिसमें कानूनी और व्याख्यात्मक परम्पराएं शामिल थीं
ईरानी शासक दारा-प्रथम सेमिटिक भाषाओं में आरमेेनियन को राजभाषा के रूप में मान्यता देता है
--जो ईसा मसीह की मातृ भाषा थी ।
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ये सिनाई से मौखिक रूप से प्रसारित की गई थीं, और तोराह (ओल्ड टैस्टमैंट) में लिखी गई थीं।
परम्परावादी रब्बीनिक यहूदी धर्म के अनुसार ओरल तोराह, मौखिक कानून, या मौखिक परम्परा (हिब्रू: תורה שבעל פה, (तोराह वह-होल पेह) लिखित तोराह के साथ ईश्वर द्वारा मौखिक रूप से मूसा को दी गई थी ।
संस्कृत धर्म ईरानी दाराह सुमेरियन दुर्मा यूनानी तर्मा रोमन टर्मीनस् सभी शब्दों का विकास पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता मूलक है।

(हिब्रू: ת ורה שבכתב , तोराहे-द्वि-खट्टाव), जिसके बाद इसे उम्र के माध्यम से मौखिक रूप से प्रसाारित किया गया था।
ताल्लमुद युग के रब्बियों ने ओरल तोरा को पारम्परिक तरीके से पढ़ाया जो कि हमारी चर्चा के लिए  स्थानान्तरण की एक अखण्ड श्रृंखला के रूप में बहुत प्रासंगिक है।
इस रब्बीनिक परम्परा की विशेषता यह थी कि ओरल तोराह को "मुंह के शब्द और यादों से व्यक्त किया गया" जैसा कि प्राचीन इज़राइली लड़ाई शैली है।
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अबीर काशेथ ("अबीर"), एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक मौखिक रूप से पारित  हुई यौद्धिक क्रिया थी।
यह एक परम्परा है जो शुन्नारजिलसे (शमर, बेबेल या मेसोपोटामिया के नाम से भी जाना जाता है) में प्रचलित थी।
शेम के पुत्र शनी (नूह का पुत्र होने), बेनी शेम की लड़ाई प्रणाली के निर्माण के साथ अबीर मार्शल आर्ट शुरू हुई।

हिब्रू कुलपति अब्राहम(एकेए अब्राहम) के पिता तेराख राजा निम्रोद के योद्धा थे,
जिन्होंने पूरी ज्ञात दुनिया पर शासन किया था।

अबीर प्रणाली का उनका सबसे बड़ा प्रवक्ता उनका सबसे तम्बू निवास, शांतिप्रिय, दयालु पुत्र, ग्राहम था। उन्हें अपने घर के 318 वफादार सदस्यों के साथ छोड़ना था, जिन्हें ग्राहम ने चार दुष्ट राजाओं और उनकी विशाल सेनाओं के खिलाफ युद्ध करने के लिए भेजा था।
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  युद्ध में एवरहम और उनके अनुयायियों ने एक शक्तिशाली लड़ाई विधि अबीर कशेथ का उपयोग किया जिसे बाद में यित्झाक (इसहाक) (इक्ष्वाकु) और बाद में उनके बेटे याकोव (जैकब) (ययाति) ने पूर्ण किया और ठीक किया, जिन्होंने अपने 12 बेटों में से प्रत्येक के लिए अलग-अलग प्रणालियों का निर्माण किया इज़राइल के 12 जनजातियों के संस्थापक पिता शामिल हैं।

याकूब के पास एक पवित्र आत्मा थी जिसने उन्हें अपने 12 अलग-अलग पुत्रों को एक अद्वितीय लड़ाई प्रणाली देने में सक्षम बनाया जो उनके आध्यात्मिक और भौतिक गुणों के साथ-साथ कनान के हिस्से में इलाके में फिट बैठता था ।

जब वे इज़राइल बन गए थे तो डायस्पोरा के साथ, अबीर, अधिकांश भाग के लिए, सिल्क रोड के साथ माइग्रेट (प्रव्रजन ) करता है जहां सुदूर पूर्व की विभिन्न भूमियों में इसका समापन और पुनर्निर्मित किया जाता है।
भारतीय अहीरों के रूप में ..
जिसे जापान तक माना जाता है। हालांकि, यह यमन में ऐसा नहीं होगा जहां हिब्रू लोगों को उनकी पहचान बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित न किया गया हो ।
और प्रोत्साहित किया गया था, और बताते हैं कि इतिहास के लिए हमेशा के लिए पारम्परिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं को हमेशा के लिए खो दिया गया है,
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यमनवादी यहूदियों के बीच अच्छी तरह से पता चला हैआज के यमन के शबाब राज्य में हब्बन (हब्बन) की बनी अबीर या बेनी अबिर कबीले यहूदियों के योद्धाओं का एक भयंकर समुदाय था।

सदियों से इस क्षेत्र में कई यमेनी यहूदियों और मुसलमानों के बीच हब्बानी यहूदी युद्ध की लड़ाई को बताया गया था।
यह कारण था कि यह मामला होगा, क्योंकि हब्बानी यहूदी दक्षिणी अरब में ब्रिटिश शासन के समापन तक क्षेत्र के अमीरात, राजाओं, शेखों और उच्च रैंकिंग ब्रिटिश अधिकारियों और राजनयिकों के अंगरक्षक थे। यमन को दक्षिण में एक कम्युनिस्ट शासन के साथ दो राज्यों में विभाजित किया गया था, लेकिन अन्ततः इसे एकीकृत किया गया था।
हालांकि, अबीर में कुशल हब्बन के यहूदियों ने अपनी सेवाओं की मांग पर रोक लगा दी जिसके द्वारा अंग्रेजों के सामने इस क्षेत्र को अच्छी तरह से छोड़ दिया गया। हब्बानी यहूदी समुदाय की जागरूकता ने 19 40 के मध्य तक दुनिया को खुद को ज्ञात नहीं किया। एक समुदाय के रूप में जो हदरामॉट रेगिस्तान के मुंह पर एक एन्क्लेव में जीवित रहा, जो कि यमनेइट यहूदी के बाकी हिस्सों के पूर्व और पूर्व में पूर्व में यमन के यहूदी समुदाय के बीच आज के सबसे प्राचीन रीति-रिवाजों के साथ युग के लिए था।

मध्य अफ्रीकी अफर जन-जाति भी चरावाहों अथवा स्वतन्त्र आवारा घुमक्कड़ के रूप में जिनका सम्बन्ध यहूदियों से माना जाता है ।
तुर्की अवर जन-जाति --जो हूणों के समानान्तरण है भी यौद्धा जन-जाति थी"अहीर (भारतीय) के रूप में एकरूपता की जाती है।
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बनी अबीर को पश्चिमीय एशिया में एक भयंकर जनजाति, "दोहह" के रूप में जाना जाता है ।
ये लोग जो अलूफ अबीर, सोफर के पूर्वजों से सम्बद्ध हैं, जिन्हें उन्होंने गर्व से प्रतिनिधित्व किया था,ये प्राचीन काल से योद्धा थे।
भारतीय संस्कृतियों में अहीर ही इसका प्रतिरूप है ।

जिनके क्षेत्र में प्रवेश करने वाले इज़राइली सैन्य इकाई उनके भाई, राजा द्वारा भेजा गया था सुलैमान।
दाऊद के पुत्र सुलेमान के सैनिक गतिविधियों का सञचालन अबीर यौद्धा करते ।
वे मौखिक इतिहास के अनुसार हैं, राजा दाऊद के अपने घर के अवशेष, जिनमें सबसे कुशल यहूदी योद्धा शामिल हैं।
जो मूल रूप से दानियों, जुडिओं और बिन्यामिनी योद्धाओं का एक मिश्रण रूप था।

यह बताया जाता है कि मोहम्मद की मृत्यु के 100 साल बाद, 100 हब्बानी योद्धाओं ने 10,000 जवाहिरियों को हराया, जो आतातायीयों की एक जनजाति थी जिन्होंने इस क्षेत्र में पीड़ितों की एक विस्तृत श्रृंखला के साथ अत्याचार और गोलीबारी की थी।

हब्बन के यहूदी अब बहादुर और महान नायकों के रूप में पहचाने गए थे जो यहूदी और गैर-यहूदी द्वारा उच्चतम प्रशंसा के योग्य थे।

वास्तव में, हैड्रामौवेट 400 साल पहले एक हब्बानी यहूदी राजा था। मैं निश्चित रूप से कहूंगा कि यमन में ब्रिटिश जनादेश से बहुत पहले था।
यह प्रतिष्ठा हमारे साथ रही है। हम किंग डेविड (डेविड) के सदन से हैं।
उनके पुत्र राजा सुलैमान ने शेबा की बिल्किस रानी से शादी की।

शेबा का साम्राज्य एक सहयोगी बल था, जो यरूशलेम के अधीन था और हध्रामौत या हासर्मवेथ में एक विशाल स्वायत्त यहूदी साम्राज्य का समर्थन करता था।
क्योंकि यह तानाख के इव्रिथ में है। हमारे शाही जॉदेन की जड़ें प्राचीन नाज़ीरिम (नज़रियों) द्वारा पहने हुए बाल के पेरा या ताज की व्याख्या करती हैं।

जिन्होंने सैमुअल के पुस्तक मेपोबोथथ बेन यहेनाथन बेन शॉल के उल्लेख के रूप में अपने मूंछों को काट दिया, जिन्होंने अपने मूंछ को नहीं हटाया।

यह देखो जॉदेन जनजाति, शेर का प्रतीक दर्पण करता है " इतिहास और लोकगीत ने "रॉयल्स" और प्राचीन काल के उनके "विषयों" को स्वीकार किया है।

यहूदियों ने इस शैली को अपने जनजातीय प्रतीक-शेर को चित्रित करने के लिए रखा।
बेन्यामाइट्स ने इस शैली को अपने जनजाति को चित्रित करने के लिए साझा किया जिसका प्रतीक भेड़िया है।

यहूदियों और राजा सुलैमान के खिलाफ अल वाहिहिही अमीरात द्वारा एक युद्ध का आयोजन किया गया था, स्थानीय विद्रोह से लड़ने में मदद के लिए दो बटालियनों के रूप में मजबूती भेजी गई।

बटालियनों में मेरे पूर्वजों, रॉयल जो राजा थे, और राजा के लिए रक्षक थे, एक कोहेन, अनुष्ठान कार्यों (कोहेन = लेवी के जनजाति से पुजारी) करने के लिए भेजा गया था और इनमें से एक लेविम (लेवियों जो कोहनीम नहीं थे और जो यरूशलेम में महान मंदिर के दुष्ट संरक्षक के रूप में जाने जाते थे)।

इन दो बटालियनों, द लेविम और किंग के व्यक्तिगत अबीरिम, मातुफिम (सुरक्षात्मक ढाल नाइट्स, अपने भाइयों और करीबी परिवार) को जहां भी उन्हें सबसे ज्यादा आवश्यकता हो, मदद करने के लिए भेजा गया था।

इकाइयां कानाह के बंदरगाह पर पहुंचीं और बंदरगाह से उत्तर में साना तक "वी" गठन और दक्षिण में साबा (शेबा) दक्षिण में हध्रामौत में फैल गईं।

कोहेन की शुरुआत में मारे गए थे और तेमान में कोहानिम की कमी थी जब तक कि बावेल से ताल्लमिक विद्वानों ने यमन में जेमरह अध्ययनों की देखरेख की, कोहनीम को उनके क्षेत्र से "अरागिम" (इराकियों) नामक लाया।
कोहेन को आधुनिक समय में एक स्निपर द्वारा बुलाए जाने से दूर से मारा गया था।
लुईम के कमांडर ने मजबूती लाने के लिए मातुफ / अबीर इकाई को भेजा।

लेकिन जब तक वे युद्ध में लौट आए, तब तक लुईट इकाई नष्ट हो गई।
अबीरिम जल्द ही यमन के पांच प्रांतों, पानी के प्रमुख स्रोतों और अफ्रीका और अरब, एडन और लाल सागर के समुद्र की ओर जाने वाले बंदरगाहों के दृश्यों के बैठक बिंदु पर नियंत्रण रखेगा।

हजारों सालों के बाद, क्रूर स्थानीय जनजातियों के एक हिंसक पैक के भीतर अलग होकर, हब्बानी कुलपति यमनite आप्रवासियों की एक अद्वितीय जातीय उप-श्रेणी के रूप में पहुंचे, लगभग 450 लोगों के साथ जो वास्तव में उनके प्राचीन पूर्वजों ने कुछ हज़ारों के लिए कालातीत बुलबुले में किया था वर्षों।

हब्बानी समुदाय को सुरक्षित और बरकरार रखने के लिए इस प्रतिष्ठित बाइबिल के पूर्वजों को इस क्षेत्र में जाना जाता है।

मूल निवासियों को प्राचीन इस्राएली, अबीर(Abir) की योद्धा संस्कृति के लिए गहरा सम्मान है।
जिन्होंने सैकड़ों वर्षों तक जनजातियों और नेताओं को हजारों लोगों के लिए सुरक्षित रखा था।
इनके रखवाले कुलपति अब्राहम युद्ध की पुस्तक खोने के लिए से कई विद्वानों का मानना ​​है कि वहां कोई यहूदी समुदाय नहीं था जिसने तथाकथित पालेओ हिब्रू लिपि को बरकरार रखा था ।
जिसका संरक्षण समरिटान समुदाय को श्रेय दिया जाता है। यह मामला नहीं है और यदि हम यमेनाइट समुदाय की ओर देखते हैं तो उसने प्राचीन इजरायल की परम्पराओं, रीति-रिवाजों और कलाओं को जीवित रखा है।

यह अबीर कशेथ हिब्रू योद्धा कला को संदर्भित करता है क्योंकि यह ससार परिवार द्वारा संरक्षित जवाविल चर्मपत्र तैयार करने की प्रक्रियाओं के लिए  सन्दर्भित किया जाता है।
नहरि परिवार ने ज्योविल पर लिखने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली स्याही की प्रसंस्करण को संरक्षित किया, जिसे सुखाने के बाद ज्यविल को तोड़ने के लिए कभी भी जाना जाता है, चाहे कितने साल तक जाएं। यमेनाइट समुदायों ने सबसे प्राचीन कैंटोरियल संगीत, नृत्य कदम और शास्त्रीय प्राचीन हिब्रू का सबसे सटीक उच्चारण संरक्षित किया।

जबकि कई लोग यह कहना पसंद कर सकते हैं कि यह प्राचीन इराकी समुदाय का Bavli हिब्रू "सबसे सटीक" होगा, इराक को मिटा दिया जाएगा और समुदाय को फारस से यहूदियों के साथ बदल दिया गया था।

यह अलफ अबीर है, सोफर की स्थिति है कि येमेनाइट हिब्रू बावली और तिबेरियाई हिब्रू अपने सबसे मूल रूपों में है।
यमन के समुदायों में कई अलग-अलग उच्चारण हैं। पिछले अलुप अबीर, येहोशूआ के दादा ब्रीहिम बिन हसन मातुफ दोह 'एके नाहमान सोफर,आदि क्योंकि बनी अबिर को शेवर (जनजाति) सोफर भी कहा जाता था।

अबीर तलवार नृत्य अब भी कई सुखद अवसरों पर देखा जा सकता है ।
और अलुफ अबीर, सोफर और उनके चचेरे भाई यिसहाक ने अन्य परिवार के सदस्यों की तुलना में अधिक नृत्य बनाए रखा या याद किया।

इस दिन हब्बानी शादियों और उत्सवों में उनके युवा लंबे बालों के विंग और पारम्परिक कपड़े, ईमम्मा, हिज्मी, महाहेब, सिवर, मिस्बाट इत्यादि के साथ तैयार होते हैं, और ठीक अबीर चालों को नृत्य करते हैं।

युवा हब्बानी नर्तकियों का अधिकांश हिस्सा इस बात के बारे में अनजान रहता है कि उनकी चाल का महत्व तब तक नहीं है जब तक कि वे एक निश्चित मानदण्ड को पूरा न करें, तब अर्थ उन्हें ज्ञात किए जाते हैं।

कुछ इज़राइली पैदा हुए हब्बानी युवाओं ने अपनी विद्रोही अज्ञानता प्रदर्शित की और बहस करना शुरू कर दिया कि मैं अबीर के बारे में गलत हूं जब मैंने इसे चर्चा के लिए लाया है, इस पर बहस करते हुए कि ऐसी कोई लड़ाई तकनीक मौजूद नहीं है।

केवल उन्हें हिलाने के लिए, गार्ड को हटाकर, एपफेनी द्वारा उन्हें अंधेरे में रखा जाता है क्योंकि वे पुराने तरीकों को अस्वीकार करते हैं, जो उन लोगों को प्रभावित करते हैं जो बेहतर जानते हैं, उन्हें डांटते हैं।
इस मामले पर अब तक का अधिकार सोफर कबीले है, विशेष रूप से, जब वास्तविक नृत्य चाल से परे, हिब्रू वर्णमाला और जनजातीय शैलियों के रूपों के अनुसार वास्तविक मुकाबले के सिद्धान्तों और तकनीकों की बात आती है।
सबसे ज्यादा जानकार आलुफ अबीर, येहोशू सोफर। मुझे कहना होगा, हालांकि, उनके भाई योनाथन दाहिद यहेशूआ के वकील के रूप में अपने पिता के खिताब में कदम उठाते हैं।

वह अबीर परम्परा के सभी पहलुओं को ज्ञान और नम्रता के साथ देखता है, जो उनके शरीर में उनके द्वारा चुने गए गुण, जो अपने शरीर तक प्रशिक्षण दे रहे थे, सौ साल से अधिक उम्र के लोगों ने उनकी इच्छाओं का पालन नहीं किया।

स्वास्थ्य, आहार, दवा, सामरिक और सामरिक युद्ध और खुफिया विश्लेषण, पशुपालन, प्रजनन लाइनों, हर्बल उपायों, कृषि और गद्दे बनाने के ज्ञान, सामान्य चमड़े के काम और एक कौशल के रूप में उनके कौशल, अबीर में पढ़ाया जाता है, में उनकी विशेषज्ञता उसका महान तोराह ज्ञान, हेशम (भगवान) में अटूट विश्वास।

अतीत के रहस्यों को हल करने के लिए अबीर कशेथ की ओर देखकर हम नए रहस्योद्घाटनों को मार्शल कलाकारों के रूप में नहीं देख सकते हैं, बल्कि मनुष्य के रूप में भी स्वीकार करते हैं कि हममें से प्रत्येक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, आत्मा, मन और शरीर में; हम में से प्रत्येक हम एक दिव्य रजाई के कपड़े में बुना हुआ है, प्रत्येक पैच अपनी कहानी के साथ।

येहोशू सोफर वर्तमान में यरूशलेम में कक्षाएं आयोजित कर रहा है।👇
परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं  और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ।
और ईसाई भी  ।
भारत में अहीरों को
यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या राव साहब
ये सब यादवों के ही विशेषण हैं।
हरियाणा में राव शब्द यादवों का विशेषण है।
मध्यप्रदेश में "घोष" यद्यपि यादवों का प्राचीनत्तम विशेषण है । जो गोपालन की प्राचीन वृत्ति ( व्यवसाय) से सम्बद्ध है ।
पौराणिक काल में यह "घोष " बन गया जबकि वैदिक सन्दर्भों में यह गोष

गोषा -गां सनोति सेवयति सन् (षण् ) धातु के पश्चात् क्विप्- प्रत्ययः- गोषन्
अर्थात्‌ --जो गाय की सेवा करता है ।
गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सिद्धान्त कौमुदीय धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाःऋग्वेद ६ । ३३ । ५ ।
अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।

गोषन् (गोष: )गां सनोति सन्--विच् ।

“सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्बपदात् वा षत्वम् ।
गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।
गोष: शब्द गोपोंं का वाचक है ।
जो ऋग्वेद के चतुर्थ और षष्टम् मण्डल में वर्णित है।
शब्दों का शारीरिक परिवर्तन भी होता है ।
लौकिक भाषाओं में यह घोष: हो गया।
तब भी इसकी आत्मा (अर्थ) अपरिपर्वतित रहा ।
आज कुछ घोष लोग अपने को यादव भले ही न मानें परन्तु इतिहास कारों ने उन्हें यादवों की ही गोपालक जन-जाति स्वीकार किया है।
वैसे भी दमघोष से पहले भी घोष शब्द हैहय वंशी यादवों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण रहा है

पुराणों में वर्णित हैहय भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था।
जैसे-
यदु के चार पुत्र थे –
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा,
(III) नल और (IV) रिपु.
हैहय वंश यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था.
शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय. इसी हैहय के नाम पर हैहय वंश का उदय हुआ.
हैहय का पुत्र धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सहजित, सहजित का पुत्र महिष्मान हुआ,
जिसने महिष्मतिपुरी को बसाया ।

महिष्मान का पुत्र भद्रश्रेन्य हुआ. भद्रश्रेन्य के दुर्दम और दुर्दम का पुत्र धनक हुआ ।
धनक के चार पुत्र हुए – कृतवीर्य, कृताग्नी, कृतवर्मा और कृतौना. कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था।

अजुर्न ख्यातिप्रात एकछत्र सम्राट था।
उसे कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहते थे।

हरिवंश पुराण के अनुसार हैहय, सहस्राजित का पौत्र तथा यदु का प्रपौत्र था।
श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम स्कंध में इस वंश के अधिपति के रूप में एक कार्तवीर्य अर्जुन नामक राजा का उल्लेख किया गया है।👇

पुराणों में हैहय वंश का इतिहास सोम की तेईसवी पीढ़ी में उत्पन्न वीतिहोत्र के समय तक पाया जाता है।

सोम सैमेटिक संस्कृतियों से आदि प्रवर्तक साम का भारतीय रूपान्तरण है ।
जिसे बाद में सोम का अर्थ चन्द्रमा करके चन्द्र वंश कर दिया ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार ब्रह्मा की बारहवी पीढ़ी में हैहय का जन्म हुआ।
ब्रह्मा सुमेरियन माइथॉलॉजी में अब्राहम के रूप में है ।
--जो उर नगर में रहने वाले सभी राष्ट्रों के पितामह हैं ।

हरिवंश पुराण के अनुसार ग्यारहवी पीढ़ी में हैहय तीन भाई थे जिनमें हैहय सबसे छोटे भाई थे।
हैहय के शेष दो भाई-महाहय एवं वेणुहय थे जिन्होंने अपने-अपने नये वंशो की परम्परा स्थापित की।

त्रिपुरी के कलचुरी वंश को हैहय वंश भी कहा जाता है। गुजरात के सोलंकी अथवा चालुक्य वंश से इसका दीर्घ काल तक संघर्ष चलता रहा ।
महापद्म द्वारा उन्मूलित प्रमुख राजवंशों में 'हैहय', जिसकी राजधानी  (माहिष्मति) थी, का भी नाम है।
पौराणिक कथाओं में माहिष्मती को हैहयवंशीय कार्तवीर्य अर्जुन अथवा सहस्त्रबाहु की राजधानी बताया गया है।
सहस्त्रबाहु यादव यौद्धा था जिसका परशुराम से घोर युद्ध हुआ।
अत: हम्हें अपना वास्तविक इतिहास जानकर अपने स्वाभिमानी भावनाओं की रक्षा करना जीवन की अपेक्षित कर्तव्य है ।
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जय घोष!
सत्य का उद् घोष!!
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प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार "रोहि"
सम्पर्क सूत्र:–8077160219...

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