गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

जी हमारे अनुवादों आधार भाषा विज्ञान और सांस्कृतिक एक रूपता मूलक विशेषण है । यदि ये दौनों तथ्य इतिहास में नहीं होंगे इतिहास चारण या भाटों की चाटुकारिता पूर्ण अतिरञ्जना होगी अत: संस्कृतियों का मिलान और अपेक्षा कृत प्राचीनता अति आवश्यक है । आपके इस उत्साह वर्धन ने हम्हें सत्य के प्रति और भी आग्रही बना दिया है । परन्तु आपको पुन: पुन: नमन 🙏

योगेश रोही जी, आप के सम्मान करते हुए यह कहना चाहता हूं कि आप ने जो कुछ जानकारी दी उससे बहुत सी शंकाएं मीट गईं। आप वास्तव में प्रकांड विद्वान हैं। मेरी आप से निवेदन है कि यदि संभव है तो सभी संस्कृत के कथित महान ग्रंथों का हिंदी भाषा में अनुवाद अथवा व्याख्याएं उपलब्ध कराएं आथवा स्वयं लिखें। यह परे आप भारतवासियों के लिए बहुत हितकर होगा। आज के युग में संस्कृत में लिखे श्लोंक 99.99% लोगों को नहीं आती है। आप जैसे वीर और शीर्ष विद्वान पुरुष ही ऐसे श्रमसाध्या कार्यों को संपन्न कर सकते हैं।  आप के लेख और टिप्पणियों से हजारों लोगों को प्राचीन व्यवस्था और वर्तमान दशा को समझने में दृष्टि मिलती है। जैसे मेरे मन यह प्रश्न था कि मुलायम, मायावती और लालू को सवर्ण हमेंशा गाली क्यों देते हैं, जब कि पिछड़े यहां तक की यादव (अहीर) भी सवर्णों से नफरत नहीं करते हैं। किंतु जब समझने की कोशिश किया तो पाया सवर्ण सभी कथित कमजोर जातियों से वास्तव में आंतरिक रूप से नफरत करते हैं और उन्हें अपना नौकर समझते है।

Amit Singh जी वेदों का निर्धारण सुमेरियन पुरा-कथाएें से तादात्म्य-(एकरूपता) स्थापित करता है ।
यहाँं बाते केवल काल्पनिक उड़ाने नहीं हैं
विष्णु ब्रह्मा मनुु यम, अरि,पूषा इन्द्र वरुण अनिल सुर बरम (ब्राह्मण) असुर ये पात्र सुमेरियन पुरा-कथाएें( मेसोपोटामिया वर्तमान (इराक-ईरान) प्राचीनत्तम संस्कृतियों में हैं ।
हमने मनु एक ऐैतिहासिक परिचय- नामक थेसिस में सप्रमाण इन तथ्यों का उल्लेख भी किया है ।
आप हम्हें एड करें और हमारी पोष्ट पढ़ें ! उसके तत्पश्चात् विचार विमर्श करें ।
Santosh Govan जी हमारे अनुवादों आधार भाषा विज्ञान और सांस्कृतिक एक रूपता मूलक विशेषण है ।
यदि ये दौनों तथ्य इतिहास में नहीं होंगे इतिहास चारण या भाटों की चाटुकारिता पूर्ण  अतिरञ्जना होगी
अत: संस्कृतियों का मिलान और अपेक्षा कृत प्राचीनता अति आवश्यक है ।

आपके इस उत्साह वर्धन ने हम्हें सत्य के प्रति और भी आग्रही बना दिया है ।
परन्तु
आपको पुन: पुन: नमन 🙏

V Kumar Yadav जी विश्व की प्राचीन पुरा-कथाओं की भिन्नता तो सहज है परन्तु उनका किसी बिन्दु पर मिलान उनकी पूर्व कालिक एक मूल को अभिव्यक्त करता है।
अत: हम्हें समानताओं के आधार पर अन्वेषण का मार्ग-निश्चित करना चाहिए !
मिथकों में भिन्नता तो इसलिए हुईं क्यों कि कालान्तरण में -जब सजातिय बन्धु बान्धव दूर देशों मे विकीर्ण होगये धीरे धीरे लोग अपने मूल स्वरूप को भूलने लगे
और इतने भूल गये कि साम से सॉम और फिर सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया गया ।
यम हेम था --जो विवस्वान् विवस्वत् ( जिसे ईरानीयों ने वैवनघत) कर दिया ये लोग सूर्य के उपासक थे तो कालान्तरण में इन्हें सूर्य वंशी कर दिया ।
अब आप बताऐं कि सूर्य और चन्द्रमा का तो कोई मिलान और समानता ही नहीं
फिर वे तारा और उपग्रह चन्द्रमा पृथ्वी का ही 1/4 भाग जबकि सूर्य साढ़े तेरह लाख गुना बड़ा
परन्तु लोग जो स्वयं को शिक्षित कहते हैं चन्द्र वंशी और सूर्य वंशी लिख रहे हैं ।
इतना ही नहीं चौहान परिमार सोलंकी ये अग्नि वंशी कर दिए --
क्या ये इतिहास है ?

कुछ इतिहासकारों के अनुसार आभीर जाति आर्यों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा आर्यों की संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्री-स्वातंत्र्य आर्यों की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, वैदिक युग से ही मध्यदेश ( गंगा- यमुना का क्षेत्र ) भारतीय संस्कृति का हृदय रहा है और तपोवन संस्कृति का केंद्र होने से ब्रजक्षेत्र की अपनी स्थिति रही है। यद्यपि वेदों में ब्रज शब्द गायों के चारागाह के अर्थ में प्रयुक्त है, वह तब इस विशेष प्रदेश का बोध नहीं कराता था। इस प्रदेश को प्राचीन वांगमय में "मथुरा मंडल' और बाद में "शूरसेन जनपद' कहा गया है,जिसकी राजधानी मथुरा थी,जिसे "मधु' ने बसाया था। मधु के समय जब मथुरा नगरी बसी, तब इसके चारों ओर आभीरों की बस्ती थी और वे वैदिक संस्कृति से प्रतिद्वेंद्विता रखते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के वनों से आकर्षित होकर यहाँ आभीर अपने पशुधन के साथ भारी संख्या में आ बसे थे और उनके वैदिक ॠषियों से मधुर संबंध नही थे आभीर गोपालक,अत्यंत वीर, श्रृंगारप्रिय थे और इनके समाज में स्री- स्वतंत्रता आर्यों से कहीं अधिक थी।
श्रीकृष्ण स्वयं वैदिक संस्कृति के समर्थक न थे। हरिवंश में वह कहते हैं --
वनंवनचरा गोपा: सदा गोधन जीवितः

गावोsस्माद्दुैवतं विद्धि,गिरयश्च वनानि च।

कर्षकाजां कृषिर्वृयेत्ति, पण्यं विपणि जीविनाम्।

गावोsअस्माकं परावृत्ति रेतत्वेविद्यामृच्यते।।

-- विष्णु पर्व, अ. 7 इस प्रकार श्री कृष्ण ने यज्ञ- संस्कृति के विरोध में ब्रज में जिस गोपाल- संस्कृति की स्थापना की उसमें वैदिक इंद्र को नहीं, वरन वनों व पर्वतों को उन्होंने अपना देवता स्वीकार किया। इंद्र की पूजा बंद करना वैदिक संस्कृति की ही अवमानना थी। एक स्थान पर यज्ञ- संस्कृति से स्पष्ट रुप से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कृष्ण कहते हैं -- मंत्रयज्ञ परा विप्रा: सीतायज्ञ कर्षका:। गिरीयज्ञास्तथा गोपा इजयोsस्माकिनर्गिरिवने।।

-- हरिवंश पुराण, अ. 9 इस प्रकार पौराणिक काल में जहाँ श्री कृष्ण ने यहाँ यज्ञ- संस्कृति की उपेक्षा करके गोपाल- संस्कृति की प्रतिष्ठा की वहाँ बलराम ने हल- मूसल लेकर कृषि- संस्कृति को अपनाया जो एक- दूसरे की पूरक थीं। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो हमारी दृष्टि में महाभारत का युद्ध भी आर्य- संस्कृति के अभिमानी राज- नेताओं के संहार का ही श्रीकृष्ण द्वारा आयोजित एक उपक्रम था। जिसके द्वारा वह एक भेदभाव विहीन सामान्य भारतीय संस्कृति का उदय देखना चाहते थे, जिसमें आर्य- अनार्य सभी उस रक्तस्नान के उपरांत एक हो गए। यही कारण है कि श्रीकृष्ण आज भी 16 कलापूर्ण अवतार के रुप में प्रत्येक वर्ग के आराध्य देव हैं। महाभारत काल या कृष्ण काल में ब्रज में असुर- संस्कृति, नाग- संस्कृति तथा शाक्त- संस्कृति का भी विकास हुआ। अहीर या अभीर -

अहीर, ग्वाला, गोप आदि यादव के पर्यायवाची है| पाणिनी, कौटिल्य एवं पंतजलि के अनुसार अहीर जाति के लोग भागवत संप्रदाय के अनुयायी हैं|

गंगाराम गर्ग के अनुसार अहीर प्राचीन अभीर समुदाय के वंशज हैं, जिनका वर्णन महाभारत तथा टोलेमी के यात्रा वृतान्त में भी किया गया है| उनके अनुसार अहीर संस्कृत शब्द अभीर का प्राकृत रूप है| अभीर का शाब्दिक अर्थ होता है- निर्भय या निडर| वे बताते हैं की बर्तमान समय में भी बंगाली एवं मराठी भाषा में अहीर को अभीर ही कहा जाता है| सर्वप्रथम पतंजलि के महाभाष्य में अभीरों का उल्लेख मिलता है। जो ई० पू० 5 वीं शताब्दी है

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