भरद्वाजः शब्द की व्युत्पत्ति भागवतपुराण आदि ग्रन्थों में ...
एक बार बृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता से मैथुन करना चाहा।
उस समय ममता के गर्भ में जो बालक था ,उसने बृहस्पति से मना किया। किन्तु बृहस्पति ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया क्यों कि बृहस्पति कामोत्तेजित हो गये थे।
और बृहस्पति ने उस बालक से कहा:- तू अन्धा हो जा ऐसा शाप सुनकर बालक गर्भ से निकल भागा !
तब बृहस्पति ने बलपूर्वक ममता का गर्भाधान कर दिया। उतथ्य की पत्नी ममता इस बात से डर गई कि कही मेरा पति मेरा त्याग न कर दे।
बृहस्पति द्वारा ममता से ( अर्थात भाई की पत्नी) के जबरन बलात्कार के परिमाण स्वरूप जो सन्तान जन्म हुई 'वह भरद्वाज कहलायी और माता - पिता द्वारा त्याग देने से इस वर्णसंकर (द्वाज) सन्तान का भरण( लालन पालन) मरुद्गणों ने किया तथा और देवताओं ने इसका द्वाज नाम रखा। अर्थात् उतथ्य और बृहस्पति दोनों का पुत्र द्वाज है। और बृहस्पति और ममता दोनों उसको छोड़कर चले गए। इसका लालन पालन मरुदगणों ने किया अतः नाम भरद्वाज रखा गया ।
और आज --जो स्वयं को भारद्वाज कहते हैं वे ब्राह्मण इन्हीं भरद्वाज की सन्तानें हैं ।
__________________________________________
भरद्वाजः शब्द की व्युत्पत्ति भागवतपुराण आदि ग्रन्थों में इस प्रकार दर्शायी गयी है !👇
भरद्वाभ्यां जायते इति भरद्वाज: कथ्यते
भरद्वाजः-( भर द्वाभ्यां जायते इति भरद्वाज: कथ्यते
अर्थात् दो पुरुषों अर्थात् बृहस्पति और उनके छोटे भाई उतथ्य की पत्नी ममता से उत्पन्न सन्तान= द्वाज । और आकाशवाणी द्वारा यह कहने पर कि "भर द्वाभ्यां जायते इति भरद्वाज: ततः पृषोदरादित्वात् द्वाजः सङ्करः।
अब ये कथाऐं शास्त्रों में उस समय समायोजित हुईं जब समाज में अवैध यौनाचार भी स्वीकृत हो गया था।
यद्यपि लिखने वालों ने अपने मनोवृत्तियों का ही प्रकाशन शास्त्रीय सम्मति से करना चाहा।
भरद्वाज के जन्म की यह कथा एक पुराण में नही अपितु अनेक पुराणों में इसी प्रकार है
जैसे - वायुपुराण () विष्णु पुराण () हरिवंश पुराण() महाभारत ()भागवतपुराण() देवीभागवतपुराण() आदि
यद्यपि यह कथा कई कारणों से सैद्धान्तिक नहीं है। क्यों चोरी और सीना जोरी जैसी बात तो यही है कि बृहस्पति पहले तो ममता के साथ बलात्कार करता है परन्तु उसके मना करने पर उसे शाप देने की धमकी भी देता है। और गर्भस्थ शिशु के मना करने पर भी बृहस्पति उसे अन्ना होने की शाप देते हैं।
निस्संदेह इस प्रकार की शास्त्रीय आख्यानों ने भारतीय समाज में धर्म की आढ़ मे व्यभिचार को पनपने को बढ़ावा ही दिया है।
_______________________________
भागवतपुराण 9/20/36, में भरद्वाज की उत्पत्ति का प्रसंग इस प्रकार है ।
एक वार बृहस्पति ने अपने छोटे भाई उतथ्य की पत्नी ममता के साथ उसको पहले से भी गर्भवती होने पर बलात्कार करना चाहा उस समय गर्भस्थ शिशु ने मना किया परन्तु बृहस्पति नहीं माने काम वेग ने उन्हें बलात्कार करने के लिए विवश कर दिया ।
गर्भस्थ शिशु ने मना करने पर
बृहस्पति नें बालक को शाप दे दिया की तू दीर्घ काल तक अन्धा (तमा) हो जाय । भागवतपुराण स उद्धृत मूल संस्कृत पाठ निम्न है ! 👇
________________________________________
बृहस्पतेरग्रजस्योतथ्यस्य ममताख्या पत्नी गर्भिण्यासीत् तस्यां बृहस्पतिः कामाभिभूतो वीर्य्यं व्यसृजत् ।
तच्च गर्भं प्रविशद्गर्भस्थेन स्थानसङ्कोचभयात् पार्ष्णिप्रहारेणापास्तं बहिः पतितमपि अमोघ वीर्य्यतया बृहस्पतेर्भरद्वाजनामपुत्त्रोऽभूत् ।
गर्भस्थश्च बृहस्पतिना तस्मादेवापराधादन्धो भवेति शप्तो दीर्घतमा नामाभवत् !
यह सुनकर बालक तो निकल भागा परन्तु बृहस्पति ने ममता के साथ बलात्कार करके उसे पुन: गर्भ वती कर दिया तब वह बालक उत्थ्य और बृहस्पति दौनों की सन्तान होने से
भरद्वाज कहलाया ।
शाप के कारण 'वह बालक दीर्घतमा कहलाया -
फिर बृहस्पति बोले ममता से !
हे मूढे ममते द्बाजं द्वाभ्यामावाभ्यां जातमिमं पुत्त्रं त्वं भर रक्ष ।
अर्थात् हे ममता मुझ बृहस्पति और उतथ्य द्वारा उत्पन्न इस पुत्र का तू पालन कर !
एवं बृहस्पतिनोक्तेव ममता तमाह हे बृहस्पते !
द्वाजं द्बाभ्यां जातमिममेकाकिनी किमित्यहं भरिष्यामि । त्वमिमं भरेति परस्परमुक्त्वा तं पुत्त्रं त्यक्त्वा यस्मात् पितरौ ममताबृहस्पती ततो यातौ
ततो भरद्वाजाख्योऽयम् ।
पाठान्तरे एवं विवदमानौ ।
यद्दुःखात् यन्निमित्ताद् दुःखात् पितरौ यातावित्यर्थः । तदेवं ताभ्यां त्यक्तो मरुद्भिर्भृतः ।
मरुत्सोमाख्येन च यागेनाराधितैर्मरुद्भिस्तस्य वितथे पुत्त्र- जन्मनि सति दत्तत्वाद्बितथसंज्ञाञ्चावाप ।
इति विष्णुपुराण ४ अंशे १९ अध्यायः।
(द्वादशद्बापरेऽसावेव व्यासः ।
यथा, देवीभागवते । १ । ३ । २९ ।
“एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततःपरम् ।
त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्म्मश्चापि चतुर्द्दशे ॥
यथा च भावप्रकाशस्य पर्व्वूर्खण्डे प्रथमे भागे ।
“रोगाः कार्श्यकरा वलक्षयकरा देहस्य चेष्टाहराः दृष्टा इन्द्रियशक्तिसंक्षयकराः सर्व्वाङ्गपीडाकराः । धर्म्मार्थाखिलकाममुक्तिषु महाविघ्नस्वरूपा बलात् प्राणानाशु हरन्ति सन्ति यदि ते क्षेमं कुतः प्राणिनाम् ॥ तत्तेषां प्रशमाय कश्चन विधिश्चिन्त्यो भवद्भिर्बुधै- र्योग्यैरित्यभिधाय संसदि भरद्वाजं मुनिं तेऽब्रुवन् ।
त्वं योग्यो भगवन् !
ज्येष्ठस्य भ्रातुरुतथ्यस्य पत्न्यां ममतायां वृहस्पतिना जनिते मुनिभेदे । तदुत्पत्तिकथा विष्णु पु० ४ अं० १९ अ० । भाग० ९ । २० अ० ।
द्वाजशब्दे ३७९५ पृ० तन्निरुक्ति- रुक्ता । भा० अनु० ९३ अ० अन्यथा निर्वचनमुक्तं यथा “भरेऽसुतान् भरेऽशिष्यान् भरे देवान् भरे द्विजान्
भरे भार्य्या भरद्वाजं भरद्वाजोऽस्वि शोभने!” । “प्रजा वै वाजस्ता एष विभर्त्ति यद्बिभर्त्ति तस्याद्भरद्वाज इति श्रुत्यनुसारेण खनामाह ।
अर्थात् बड़े भाई उतथ्य की पत्नी ममता से बृहस्पति द्वारा बलात्कार से उत्पन्न सन्तान भरद्वाज।
(जन् + डः)
ततः पृषोदरादित्वात् द्वाजः =सङ्करः ।
भ्रियते मरुद्भिरिति ।
भृ + अप् = भरः । भरश्चासौ द्बाजश्चेति कर्म्मधारयः) मुनिविशेषः ।
श्लोक 9.20.34 |
तस्यासन् नृप वैदर्भ्य: पत्न्यस्तिस्र: सुसम्मता: जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते॥ ३४ ॥ |
शब्दार्थ |
तस्य—उसकी (भरत की); आसन्—थीं; नृप—हे राजा परीक्षित ! वैदर्भ्य:—विदर्भ की कन्याएँ; पत्न्य:—पत्नियाँ; तिस्र:—तीन; सु-सम्मता:—अत्यन्त मनोहर तथा उपयुक्त; जघ्नु:—मार डाला; त्याग-भयात्—त्यागे जाने के भय से; पुत्रान्—अपने पुत्रों को; न अनुरूपा:—अपने पिता की तरह न होने से; इति—इस तरह; ईरिते—विचार करते हुए पर ।. |
अनुवाद |
हे राजा परीक्षित, महाराज भरत की तीन मनोहर पत्नियाँ थीं जो विदर्भ के राजा की पुत्रियाँ थीं। जब तीनों के सन्तानें हुईं तो वे राजा के समान नहीं निकलीं, अतएव इन पत्नियों ने यह सोचकर कि राजा उन्हें कृतघ्न रानियाँ समझकर त्याग देंगे, उन्होंने अपने अपने पुत्रों को मार डाला। |
श्लोक 9.20.35
|
तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजत: सुतम् । मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददु: ॥ ३५ ॥ |
शब्दार्थ |
तस्य—उसके; एवम्—इस प्रकार; वितथे—परेशान होकर; वंशे—सन्तान उत्पन्न करने में; तत्-अर्थम्—पुत्र प्राप्ति के लिए; यजत:— यज्ञ सम्पन्न करते हुए; सुतम्—एक पुत्र को मरुत्-स्तोमेन—मरुत्स्तोम यज्ञ करने से; मरुत:—मरुत्गण देवता; भरद्वाजम्—भरद्वाज को; उपाददु:—भेंट कर दिया ।. |
अनुवाद |
सन्तान के लिए जब राजा का प्रयास इस तरह विफल हो गया तो उसने पुत्रप्राप्ति के लिए मरुत्स्तोम नामक यज्ञ किया। सारे मरुत्गण उससे पूर्णतया सन्तुष्ट हो गये तो उन्होंने उसे भरद्वाज नामक पुत्र उपहार में दिया।
|
श्लोक 9.20.36
|
अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पति: । प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमुपासृजत् ॥ ३६ ॥ |
शब्दार्थ:- |
अन्त:-वत्न्याम्—गर्भवती; भ्रातृ-पत्न्याम्—भाई की पत्नी से; मैथुनाय—संभोग की इच्छा से; बृहस्पति:—बृहस्पति नामक देवता; प्रवृत्त:—प्रवृत्त; वारित:—मना किया गया; गर्भम्—गर्भ के भीतर के पुत्र को; शप्त्वा—शाप देकर; वीर्यम्—वीर्य; उपासृजत्— स्खलित किया ।. |
___________________________________ |
अनुवाद |
बृहस्पति देव ने अपने भाई की पत्नी ममता पर मोहित होने पर उसके गर्भवती होते हुए भी उसके साथ संभोग करना चाहा। उसके गर्भ के भीतर के पुत्र ने मना किया लेकिन बृहस्पति ने उसे शाप दे दिया और बलात् ममता के गर्भ में वीर्य स्थापित कर दिया। ____ "क्या अपराधी निरपराध को शाप देने की सामर्थ्य रखता है। |
तात्पर्य |
इस संसार में संभोग की इच्छा इतनी प्रबल होती है कि देवताओं के गुरु तथा अत्यन्त पंडित बृहस्पति ने भी अपने भाई की गर्भवती पत्नी के साथ संभोग करना चाहा। जब उच्चतर देवताओं के समाज में ऐसा हो सकता है तो मानव समाज के विषय में क्या कहा जाये ? संभोग की इच्छा इतनी प्रबल है कि बृहस्पति जैसा विद्वान व्यक्ति भी विचलित हो सकता है।
श्लोक 9.20.37
| तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तुस्त्यागविशङ्किताम् । नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगु:॥ ३७॥ | | शब्दार्थ | तम्—नवजात शिशु को; त्यक्तु-कामाम्—त्यागने की इच्छा से; ममताम्—ममता को; भर्तु: त्याग-विशङ्किताम्—अवैध पुत्र उत्पन्न करने के कारण अपने पति द्वारा छोड़े जाने से अत्यन्त भयभीत; नाम-निर्वाचनम्—नामकरण संस्कार; तस्य—उस बालक का; श्लोकम्—श्लोक; एनम्—इस; सुरा:—देवतागण ने; जगु:—घोषित किया | | अनुवाद | | ममता अत्यन्त भयभीत थी कि अवैध पुत्र उत्पन्न करने के कारण उसका पति उसे छोड़ सकता है अतएव उसने बालक को त्याग देने का विचार किया। लेकिन तब देवताओं ने उस बालक का नामकरण करके सारी समस्या हल कर दी। | | तात्पर्य | वैदिक शास्त्र के अनुसार जब भी बालक उत्पन्न होता है तो जातकर्म तथा नामकरण संस्कार किये जाते हैं जिनमें विद्वान ब्राह्मण ज्योतिषगणना के अनुसार कुण्डली बनाते हैं। किन्तु ममता ने जिस पुत्र को जन्म दिया था वह बृहस्पति द्वारा उत्पन्न अवैध पुत्र था क्योंकि ममता तो उतथ्य की पत्नी थी, किन्तु बृहस्पति ने बलपूर्वक उसे गर्भवती बना दिया था। अतएव बृहस्पति को भर्ता बनना पड़ा। वैदिक संस्कृति के अनुसार पत्नी पति की सम्पत्ति होती है और अवैध मैथुन द्वारा उत्पन्न पुत्र द्वाज कहलाता है। हिन्दू समाज में ऐसे पुत्र को दोगला कहा जाता है। ऐसी स्थिति में बालक को उचित संस्कार द्वारा नाम दे पाना कठिन होता है। इसीलिए ममता चिन्तित थी, किन्तु देवताओं ने बालक को एक उपयुक्त नाम भरद्वाज प्रदान किया जिसका अर्थ था कि यह बालक अवैध रूप से उत्पन्न है और इसका पालन ममता तथा बृहस्पति दोनों को करना चाहिए। _______________
श्लोक 9.20.38 | मूढे भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पते । यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् ॥ ३८॥ | | शब्दार्थ | मूढे—हे मूर्ख स्त्री; भर—पालन करो; द्वाजम्—दोनों के बीच अवैध सम्बन्ध से उत्पन्न; इमम्—इस बालक को; भर—पालो; द्वाजम्—अवैध जन्म लेने के कारण; बृहस्पते—हे बृहस्पति; यातौ—छोडक़र चले गये; यत्—क्योंकि; उक्त्वा—कहकर; पितरौ— माता पिता दोनों; भरद्वाज:—भरद्वाज नामक; तत:—तत्पश्चात्; तु—निस्सन्देह; अयम्—यह बालक ।. | | अनुवाद | बृहस्पति ने ममता से कहा, “अरी मूर्ख! यद्यपि यह बालक अन्य पुरुष की पत्नी और किसी दूसरे पुरुष के वीर्य से उत्पन्न हुआ है, किन्तु तुम इसका पालन करो।” यह सुनकर ममता ने उत्तर दिया, “अरे बृहस्पति, तुम इसको पालो।” ऐसा कहकर बृहस्पति तथा ममता उसे छोडक़र चले गये। इस तरह बालक का नाम भरद्वाज पड़ा। |
___________________________________
श्लोक 9.20.39
| चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् । व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये ॥ ३९ ॥ | | शब्दार्थ | चोद्यमाना—प्रोत्साहित किये जानेपर (कि बालक को पालो); सुरै:—देवताओं द्वारा; एवम्—इस प्रकार; मत्वा—मानकर; वितथम्—निष्प्रयोजन; आत्मजम्—अपने पुत्र को; व्यसृजत्—त्याग दिया; मरुत:—मरुत्गण ने; अबिभ्रन्—बच्चे का पालन किया; दत्त:—दिया गया; अयम्—यह; वितथे—निराश; अन्वये—महाराज भरत का वंश में ।. | | अनुवाद | यद्यपि देवताओं ने बालक को पालने के लिए प्रोत्साहित किया था, किन्तु ममता ने अवैध जन्म के कारण उस बालक को व्यर्थ समझ कर उसे छोड़ दिया। फलस्वरूप, मरुत्गण देवताओं ने बालक का पालन किया और जब महाराज भरत सन्तान के अभाव से निराश हो गए तो उन्हें यही बालक पुत्र-रूप में भेंट किया गया। | | | इस प्रकार श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध के अन्तर्गत “पूरु का वंश” नामक बीसवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए। | ________________________________ |
|
भागवतपुराण 9,20,36, में भरद्वाज की उत्पत्ति का प्रसंग इस प्रकार है । एक वार बृहस्पति ने अपने छोटे भाई उतथ्य की पत्नी ममता के साथ उसको पहले से भी गर्भवती होने पर बलात्कार करना चाहा उस समय गर्भस्थ शिशु ने मना किया परन्तु बृहस्पति नहीं माने काम वेग ने उन्हें विवश कर दिया ।
बृहस्पति नें बालक को शाप दे दिया की तू दीर्घ काल तक अन्धा (तमा) हो जाय ।
यह सुनकर बालक तो निकल भागा परन्तु बृहस्पति ने ममता के साथ बलात्कार करके उसे पुन: गर्भवती कर दिया तब वह बालक उतथ्य और बृहस्पति दौनों की सन्तान होने से
भरद्वाज कहलाया ।
___________________________
माता भस्त्र पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भरस्व पुत्रं दुष्यंतमावमंस्थाश्शकुंतलाम् ।१२ ।
रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुंतला ।१३ ।
भरतस्य पत्नित्रये नव पुत्रा बभूवुः ।१४ ।
नैते ममानुरूपा इत्यभिहितास्तन्मातरः परित्यागभयात्तत्पुत्राञ्जघ्नुः ।१५ ।
ततोस्य वितथे पुत्रजन्मनि पुत्रार्थिनो मरुत्सोमयाजिनो दीर्घतमसः पार्ष्ण्यपास्तद्बृहस्पतिवीर्यादुतथ्यपत्न्यां ममतायां समुत्पन्नो भरद्वाजाख्यः पुत्रो मरुद्भिर्दत्तः ।१६ ।
तस्यापि नामनिर्वचनश्लोकः पठ्यते ।१७ ।
मूढे भर द्वाजमिमं भरद्वाजं बृहस्पते।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् इति ।।।१८ ।
भरद्वाजस्स तस्य वितथे पुत्रजन्मनि मरुद्भिर्दत्तः ततो वितथसंज्ञामवाप ।१९ ।
वितथस्यापि मन्युः पुत्रोऽभवत् ।२० ।
बृहत्क्षत्रमहावीर्यनगरगर्गा अभवन्मन्युपुत्राः ।२१ ।
नगरस्य संकृतिस्संकृतेर्गुरुप्रीतिरंतिदेवौ ।२२ ।
गर्गाच्छिनिः ततश्च गार्ग्याश्शैन्याः क्षत्रोपेता द्विजातयो बभूवु ।२३ । इति विष्णुपुराणे ४ अंशे १९ अध्यायः।
__________
देवीभागवतरुराणे-।१। ३ । २९ ।
“एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततःपरम् ।
त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्म्मश्चापि चतुर्द्दशे ॥
।
“शाण्डिल्यः काश्यपश्चैव वात्स्यः सावर्णकस्तथा । भरद्वाजो गौतमश्च सौकालीनस्तथापरः ॥
इत्यादि गोत्रशब्दे द्रष्टव्यम् ॥
भृ + शतृ । भरत् + वाजः । संभ्रियमाणहविर्लक्षणान्नेयज- मानादौ, त्रि ।
यथा, ऋग्वेदे । १ । ११६ । १८ ।
“यदयातं दिवोदासाय वर्त्तिर्भरद्वाजायाश्विना हयन्ता ॥” “भरद्वाजाय संभ्रियमाणहविर्लक्षणान्नाय यज- मानाय ।” इति तद्भाष्ये सायनाचार्य्यः )
__________________________________________
मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)
( पुरुवंश प्रकरण अध्याय 49) -
_______________________
दौष्यन्तिं प्रति राजानं वागूचे चाशरीरिणी।
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः।। ४९.१२ ।।
भर स्वपुत्रं दुष्यन्त! मावमंस्थाः शकुन्तलाम्।
रेतोधां नयते पुत्रः परेतं यमसादनात्।।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला।। ४९.१३ ।
भरतस्य विनष्टेषु तनयेषु पुरा किल।
पुत्राणां मातृकात् कोपात् सुमहान् संक्षयः कृतः।। ४९.१४ ।
ततो मरुद्भिरानीय पुत्रः स तु बृहस्पतेः।
संक्रामितो भरद्वाजो मरुद्बिर्भरतस्य तु।४९.१५।
ऋषय ऊचुः।
भरतस्य भरद्वाजः पुत्रार्थं मारुतैः कथम्।
संक्रामितो महातेजास्तन्नो ब्रूहि यथातथम्।। ४९.१६ ।।
सूत उवाच।
पत्न्यामापन्नसत्वायामुशिजः सः स्थितो भुवि।
भ्रातुर्भार्य्यां सद्रृष्ट्वा तु बृहस्पतिरुवाच ह।। ४९.१७ ।
उपतिष्ठ स्वलङ्कृत्य मैथुनाय च मां शुभे!।
एव मुक्ताऽब्रवीदेनं स्वयमेव बृहस्पतिम्।४९.१८।
गर्भः परिणतश्चायं ब्रह्म व्याहरते गिरा।
अमोघरेतास्त्वञ्चापि धर्मञ्चैवं विगर्हितम्।। ४९.१९ ।
एवमुक्तोऽब्रवीदेनां स्वयमेव बृहस्पतिः।
नोपदेष्टव्यो विनयस्त्वया मे वरवर्णिनि!। ४९.२०।
धर्षमाणः प्रसह्यैनां मैथुनायोपचक्रमे।
ततो बृहस्पतिं गर्भो धर्षमाणमुवाच ह।४९.२१।
सन्निविष्टो ह्यहं पूर्वमिह नाम बृहस्पते!।
अमोघरेताश्च भवान् नावकाश इह द्वयोः।४९.२२।
एवमुक्तः स गर्भेण कुपितः प्रत्युवाच ह।
यस्मात्त्वमीद्रृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति।।
अभिषेधसि तस्मात्त्वं तमो दीर्घं प्रवेक्ष्यसि।। ४९.२३।
ततः कामं सन्निवर्त्य तस्यानन्दाद् बृहस्पतेः।
तद्रेतस्त्वपतद् भूमौ निवृत्तं शिशुकोऽभवत्।। ४९.२४ ।।
सद्यो जातं कुमारं तु द्रृष्ट्वा तं ममताऽब्रवीत्।
गमिष्यामि गृहं स्वं वै भरस्वैनं बृहस्पते।। ४९.२५।
एवमुक्त्वागता सा तु गतायां सोऽपि तं त्यजन्।
मातापितृभ्यां त्यक्तन्तु द्रृष्ट्वा तं मारुतः शिशुम्
जगृहुस्तं भरद्वाजं मरुतः कृपया स्थिताः।। ४९.२६।
तस्मिन् काले तु भरतो बहुभिः ऋतुभि र्विभुः।
पुत्रनैमित्तिकैर्यज्ञैरयजत् पुत्रलिप्सया।४९.२७।
यदा स यजमानस्तु पुत्रं नासादयत् प्रभुः।
ततः क्रतुं मरुत्सोमं पुत्रार्थे समुपाहरत्।४९.२८।
तेन ते मरुतस्तस्य मरुत्सोमेन तुष्टुवुः।
उपनिन्युर्भरद्वाजं पुत्रार्थं भरताय वै।४९.२९।
दायादोऽङ्गिरसः सूनो रौरसस्तु बृहस्पतेः।
संक्रामितो भरद्वाजो मरुद्भिर्मरुतं प्रति।४९.३०।
_______
भरतस्तु भरद्वाजं पुत्रं प्राप्य विभुरब्रवीत्।
आदावात्महितायः त्वं कृतार्थोऽहं त्वया विभो।। ४९.३१।
पूर्वं तु वितथो तस्मिन् कृते वै पुत्रजन्मनि।
ततस्तु वितथो नाम भरद्वाजो नृपोऽभवत्।। ४९.३२।
तस्मादपि भरद्वाजाद् ब्राह्मणाः क्षत्रिया भुवि।
द्व्यामुष्यायणकौलीनाः स्मृतास्ते द्विविधेन च। ४९.३३।
ततो जाते हि वितथे भरतश्च दिवं ययौ।
भरद्वाजो दिवं यातो ह्यभिषिच्यसुतं ऋषिः। ४९.३४।
_____
दायादो वितथस्यासीद् भुवमन्युर्महायशाः।
महाभूतोपमाः पुत्रा श्चत्वारो भुवमन्यवः।। ४९.३५।
बृहत् क्षेत्रो महावीर्यः नरो गर्गश्च वीर्य्यवान्।
नरस्य संकृतिः पुत्रस्तस्य पुत्रो महायशाः।। ४९.३६।
गुरुधीरन्तिदेवश्च सत्कृत्यान्तावुभौ स्मृतौ।
गर्गस्य चैव दायादः शिबिर्विद्वानजायत।। ४९.३७।
स्मृताः शैव्यास्ततो गर्गाः क्षत्रोपेता द्विजातयः।
आहार्यतनयश्चैव धीमानासीदुरुक्षवः।। ४९.३८ ।।
तस्य भार्या विशाला तु सुषुवे पुत्रकत्रयम्।
त्र्युषणं पुष्करिं चैव कविं चैव महायशाः।। ४९.३९।
उरुक्षवाः स्मृता ह्येते सर्वे ब्राह्मणताङ्गताः।
काव्यानान्तु वरा ह्येते त्रयः प्रोक्ता महर्षयः।। ४९.४० ।।
गर्गाः संकृतयः काव्याः क्षत्रोपेताद्विजातयः।
संभृताङ्गिरसो दक्षाः बृहत् क्षत्रस्य च क्षितिः।। ४९.४१।
बृहत्क्षत्रस्य दायादो हस्ति नामा बभूव ह।
तेनेदं निर्मितं पूर्वं पुरन्तु गजसाह्वयम्।। ४९.४२ ।।
________________________
अनुवाद:-
इसी दुष्यन्त-पुत्र भरतके विषयमें आकाशवाणी ने राजा दुष्यन्त से कहा था- 'दुष्यन्त ! माता का गर्भाशय तो एक चमड़े के थैले के समान है, उसमें गर्भाधान करने के कारण पुत्र पिताका ही होता है; अतः जो जिससे पैदा होता है, वह उसका आत्मस्वरूप ही होता है। इसलिये तुम अपने पुत्रका भरण-पोषण करो और शकुन्तला का अपमान मत करो।
पुत्र अपने मरे हुए पिताको यमपुरी के कष्टों से छुटकारा दिलाता है। इस गर्भका आधान करनेवाले तुम्हीं हो, शकुन्तला ने यह बिलकुल सच बात कही है। पूर्वकालमें भरत के सभी पुत्रोंका विनाश हो गया था। माता के कोप के कारण उनके पुत्रों का यह पुत्र का महासंहार हुआ था। यह देखकर मरुद्गणों ने बृहस्पतिके पुत्र भरद्वाजको लाकर भरत के हाथों में समर्पित किया था। बृहस्पति अपने इस पुत्र को वन में छोड़कर चले गये थे ।। 12-256॥
इस प्रकार माता-पिता द्वारा त्यागे गये उस शिशुको | देखकर मरुद्गणों का हृदय द्रवित हो गया, तब उन्होंने उस भरद्वाज नामक शिशु को उठा लिया। उसी समय राजा भरत पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा से अनेकों ऋतुकाल के अवसरों पर पुत्रनिमित्तक यज्ञों का अनुष्ठान करते आ रहे थे, परंतु जब उन सामर्थ्यशाली नरेश को उन यज्ञों के करने से भी पुत्रकी प्राप्ति नहीं हुई, तब उन्होंने पुत्र प्राप्तिके निमित्त 'मरुत्स्तोम' नामक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ किया। राजा भरत के उस मरुत्स्तोम यज्ञ से सभी मरुद्गण प्रसन्न हो गये। तब वे उस भरद्वाज नामक शिशु को साथ लेकर भरत को पुत्ररूप में प्रदान करने के लिये उस यज्ञ में उपस्थित हुए वहाँ उन्होंने अङ्गिरा पुत्र बृहस्पति के औरस पुत्र भरद्वाज को भरत के हाथों में समर्पित कर दिया।
तब राजा भरत भरद्वाज को पुत्ररूप में पाकर इस प्रकार बोले-'विभो। पहले तो आप (इस शिशुको लेकर) आत्महित की ही बात सोच रहे थे, परंतु अब इसे पाकर मैं आपकी कृपा से कृतार्थ हो गया हूँ।' पुत्र जन्मके हेतु किये गये पहलेके सभी यह वितथ (निष्फल) हो गये थे, इसलिये वह भरद्वाज राजा वितथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस भरद्वाज से भी भूतलपर ब्राह्मण और क्षत्रिय- दोनों प्रकार के पुत्र उत्पन्न हुए, जो द्वयामुष्यायण और कौलीन नामसे विख्यात हुए ll 26-33 ॥
_______________
तदनन्तर वितथ के पुत्ररूप में प्राप्त हो जाने पर राजा भरत (उसे राज्याभिषिक्त करके) स्वर्गलोकको चले गये।
राजर्षि भरद्वाज भी यथासमय अपने पुत्रको राज्यपर अभिषिक्त करके स्वर्गलोक सिधारे।
________
महायशस्वी भुवमन्यु वितधका पुत्र था। भुवमन्यु के बृहत्क्षत्र, महावीर्य, नर और वीर्यशाली गर्ग नामक चार पुत्र थे।
जो वायु आदि चार महातत्त्वोंके समान थे। नर का पुत्र संकृति हुआ। संकृति के दो पुत्र महायशस्वी गुरुधी और रन्तिदेव हुए।
वे दोनों सत्कृति के गर्भसे उत्पन्न हुए बतलाये जाते हैं।
_____
गर्गके पुत्ररूपमें विद्वान् शिवि उत्पन्न हुआ।
उसके वंशधर जो क्षत्रियांशसे युक्त द्विज थे,
शैव्य और गर्ग के नामसे विख्यात हुए। शिविके आहार्य तनय और बुद्धिमान् उरुक्षव नामक दो पुत्र थे । उरुक्षवकी पत्नी विशाला ने त्र्यरुण, पुष्करि - और महायशस्वी कवि- इन तीन पुत्रोंको जन्म दिया।
ये सभी उरुक्षव कहलाते हैं और अन्तमें ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो गये थे।
काव्यके वंशधरों (भार्गव गोत्र-प्रवरों) में ये तीनों महर्षि कहे गये हैं। इस प्रकार गर्ग, संकृति और कवि के वंशमें उत्पन्न हुए लोग क्षत्रियांशसे युक्त ब्राह्मण थे।
अङ्गिरागोत्रीय बृहत्थाम ने भी इस समृद्धिशालिनी पृथ्वीका शासन किया था। बृहत्क्षत्र का हस्ति नामक पुत्र हुआ।
उसी ने पूर्वकालमें इस हस्तिनापुर नामक नगरको बसाया था।
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते अनुषङ्गपादो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।। ३७।। इत्यनुषङ्गपादः ।।
भरद्वाज की उत्पत्ति-
_____________________
शकुन्तलायां भरतो यस्य नाम्ना तु भारतम्।
दुष्यन्तं प्रति राजानं वागुवाचाशरीरिणी ।। ३७.१३० ।।
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्तं सत्यमाह शकुन्तला ।। ३७.१३१।।
रेतोधाः पुत्रं नयति नरदेव यमक्षयात्।
त्वञ्चास्य धाता गर्भस्य मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ।। ३७.१३२ ।।
भरतस्त्रिसृषु स्त्रीषु नव पुत्रानजीजनत्।
नाभ्यनन्दच्च तान् राजा नानुरूपान्ममेत्युत ।। ३७.१३३ ।।
ततस्ता मातरः क्रुद्धाः पुत्रान्निन्युर्यमक्षयम्।
ततस्तस्य नरेन्द्रस्य विततं पुत्रजन्म तत् ।। ३७.१३४।
ततो मरुद्भिरानीय पुत्रस्तु स बृहस्पतेः।
सङ्क्रामितो भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिर्विभुः ।। ३७.१३५ ।।
________
तत्रैवोदारहन्तीदं भरद्वाजस्य धीमतः।
जन्मसङ्क्रमणञ्चैव मरुद्भिर्भरताय वै ।। ३७.१३६ ।।
पत्न्यामासन्नगर्भायामशिजः संस्थितः किलः।
भ्रातुर्भार्यां स दृष्ट्वाथ बृहस्पतिरुवाच ह।
अलंकृत्य तनुं स्वान्तु मैथुनं देहि मे शुभे ।। ३७.१३७।।
_________________
एवमुक्ताऽब्रवीदेन मन्तर्वत्नी ह्यहं विभो।
गर्भः परिणतश्चायं ब्रह्म व्याहरते गिरा ।३७.१३८।
अमोघरेतास्त्वञ्चापि धर्मश्चैव विगर्हितः।
एवमुक्तोऽब्रवीदेनां स्मयमानो बृहस्पतिः । ३७.१३९ ।
विनयो नोपदेष्टव्यस्त्वया मम कथञ्चन।
हर्षमाणः प्रसह्यैनां मैथुनायोपचक्रमे ।। ३७.१४०।
ततो बृहस्पतिं गर्भो हर्षमाणमुवाच ह।
सन्निविष्टो ह्यहं पूर्वमिह तात बृहस्पते ।३७.१४१।
अमोघरेताश्च भवान्नावकाशोऽस्ति च द्वयोः।
एवमुक्तः स गर्भेण कुपितः प्रत्युवाच ह ।। ३७.१४२ ।।
यस्मान्मामीदृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति।
प्रतिषेधसितत्तस्मात् तमो दीर्घं प्रवेक्ष्यसि ।३७.१४३।
पादाभ्यान्तेन तच्छन्नं मातुर्द्वारं बृहस्पतेः।
तद्रेतस्तु तयोर्मध्ये निवार्यः शिशुकोऽभवत् ।। ३७.१४४ ।।
सद्यो जातं कुमारन्तं दृष्ट्वाऽथ ममताऽब्रवीत्।
गमिष्यामि गृहं स्वं वै भरद्वाजं बृहस्पते ।। ३७.१४५ ।
एवमुक्त्वा गतायां स पुत्रन्त्यजति तत्क्षणात्।
भरस्व बाढमित्युक्तो भरद्वाजस्ततोऽभवत् ।। ३७.१४६ ।।
मातापितृभ्यां संत्यक्तं दृष्ट्वाथ मरुतः शिशुम्।
गृहीत्वैनं भरद्वाजं जग्मुस्ते कृपया ततः ।। ३७.१४७ ।।
तस्मिन् काले तु भरतो मरुद्भिः क्रतुभिः क्रमात्।
काम्यनैमित्तिकैर्यज्ञैर्यजते पुत्रलिप्सया ।३७.१४८ ।
यदा स यजमानो वै पुत्रान्नासादयत् प्रभुः ।
यज्ञं ततो मरुत्सोमं पुत्रार्थे पुनराहरत् ।। ३७.१४९।
तेन ते मरुतस्तस्य मरुत्सोमेन तोषिताः।
भरद्वाजं ततः पुत्रं बार्हस्पत्यं मनीषिणम् ।। ३७.१५० ।।
भरतस्तु भरद्वाजं पुत्रं प्राप्य तदाब्रवीत्।
प्रजायां संहृतायां वै कृतार्थोऽहं त्वया विभो ।। ३७.१५१ ।।
पूर्वन्तु वितथं तस्य कृतं वै पुत्रजन्म हि।
ततः स वितथो नाम भरद्वाजस्तथाऽभवत् ।। ३७.१५२ ।।
तस्माद्दिव्यो भरद्वाजो ब्राह्मण्यात् क्षत्रियोऽभवत्।
द्विमुख्यायननामा स स्मृतो द्विपितृकस्तु वै ।३७.१५३।
__________________
ततोऽथ वितथे जाते भरतः स दिवं ययौ।
वितथस्य तु दायादो भुवमन्युर्बभूव ह ।। ३७.१५४।
महाभूतोपमाश्चासंश्चत्वारो भुवमन्युजाः।
बृहत्क्षत्रो महावीर्यो नरो गाग्रश्च वीर्यवान् ।। ३७.१५५ ।।
नरस्य सांकृतिः पुत्रस्तस्य पुत्रौ महौजसौ।
गुरुवीर्यस्त्रिदेवश्च सांकृत्याववरौ स्मृतौ ।। ३७.१५६ ।।
दायादाश्चापि गाग्रस्य शिनिबद्धात् बभूव ह।
स्मृताश्चैते ततो गाग्र्याः क्षात्रोपेता द्विजातयः ।। ३७.१५७ ।।
महावीर्यसुतश्चापि भीमस्तस्मादुभक्षयः।
तस्य भार्या विशाला तु सुषुवे वै सुतांस्त्रयः ।। ३७.१५८ ।।
त्रय्यारुणिं पुष्करिणं तृतीयं सुषुवे कपिम्।
कपेः क्षत्रवरा ह्येते तयोः प्रोक्ता महर्षयः ।३७.१५९।
गाग्राः सांकृतयो वीर्याः क्षात्रोपेता द्विजातयः।
संश्रिताङ्गिरसं पक्षं बृहत्क्षत्रस्य वक्ष्यति ।। ३७.१६० ।।
बृहत्क्षत्रस्य दायादः सुहोत्रो नाम धार्मिकः।
सुहोत्रस्यापि दायादो हस्ती नाम बभूव ह।
तेनेदं निर्मितं पूर्वं नाम्ना वै हास्तिनं पुरम् ।। ३७.१६१।
हस्तिनश्चापि दायादास्त्रयः परमधार्मिकाः।
अजमीढो द्विमीढश्च पुरुमीढस्तथैव च ।। ३७.१६२।
_
अजमीढस्य पुत्रास्तु शभाः शुभकुलोद्वहाः।
तपसोऽन्ते सुमहतो राज्ञो वृद्धस्य धार्मिकाः ।। ३७.१६३ ।।
भरद्वाजप्रसादेन श्रृणुध्वं तस्य विस्तरम्।
अजमीढस्य केशिन्यां कण्ठः समभवत्किल ।। ३७.१६४ ।।
मेधातिथिः सुतस्तस्य तस्मात् कण्ठायना द्विजाः।
अजमीढस्य धूमिन्यां जज्ञे बृहद्वसुर्नृपः ।। ३७.१६५ ।।
__________________
इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते अनुषङ्गपादो नाम सप्तत्रिंशोऽध्यायः ।। ३७।। इत्यनुषङ्गपादः ।।
दुष्यन्तं प्रति राजानं वागुवाचाशरीरिणी ।
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।। ११ ।।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ।
रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात् ।। १२ ।।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ।
भरतस्य विनष्टेषु तनयेषु महीपतेः ।। १३ ।।
मातॄणां तात कोपेन मया ते कथितं पुरा ।
बृहस्पतेराङ्गिरसः पुत्रो राजन् महामुनिः ।
संक्रामितो भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिर्विभुः ।।१४ ।।
अत्रैवोदाहरन्तीमं भरद्वाजस्य धीमतः ।
धर्मसंक्रमणं चापि मरुद्भिर्भरताय वै ।। १५ ।।
अयाजयद् भरद्वाजो मरुद्भिः क्रतुभिर्हि तम् ।
पूर्वं तु वितथे तस्य कृते वै पुत्रजन्मनि ।। १६ ।।
ततोऽथ वितथो नाम भरद्वाजसुतोऽभवत् ।
ततोऽथ वितथे जाते भरतस्तु दिवं ययौ ।। १७ ।।
वितथं चाभिषिच्याथ भरद्वाजो वनं ययौ ।
स राजा वितथः पुत्राञ्जनयामास पञ्च वै ।। १८ ।।
सुहोत्रं च सुहोतारं गयं गर्गं तथैव च ।
कपिलं च महात्मानं सुहोत्रस्य सुतद्वयम् ।। १९ ।।
काशिकश्च महासत्त्वस्तथा गृत्समतिर्नृपः ।
तथा गृत्समतेः पुत्रा ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः ।। 1.32.२० ।।
______________________________
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पूरुवंशानुकीर्तने द्वात्रिंशोऽध्यायः ।। ३२ ।।
प्रस्तुति यादव योगेश कुमार रोहि-
दूरभाष:- 8077160219
आदरणीय, आपके सभी लेख ऐतिहासिक,पौराणिक जानकारियों से संबंधित अत्यंत ज्ञानवर्धक है,जिन्हें पढ़कर मेरी रुचि ओर जाग्रत हो गई है, जिसके लिये आपको कोटि कोटि साधुवाद।
जवाब देंहटाएंलेकिन मेरी एक ओर जिज्ञासा है,कि यादव वंश के कुल पुरोहित महर्षि गर्ग की पत्नी कौन थी तथा उसका नाम क्या था?
कृपया महर्षि गर्ग की पत्नी का नाम बताने की कृतज्ञता करें।
जय श्रीकृष्णा