मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

गोतमस्य शतानन्दो वेदवेदाङ्गपारगः । आप्तः प्रवक्ता विज्ञश्च धर्मी यादवस्य भीष्मकस्य कुलपुरोहितः।

विदर्भ वंश -
क्रोष्टा के वंशजों  में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुई। ज्यामघ के पुत्र विदर्भ ने दक्षिण भारत में विदर्भ राज्य की स्थापना की।
शैव्या के गर्भ से विदर्भ के तीन पुत्र हुए – कुश, क्रथ और रोमपाद।
महाभारत काल में विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक बड़े यशस्वी यादव राजा थे।
उनके रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मवाहु, रुक्मेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र थे और रुक्मणि नामक एक पुत्री भी थी । महाराज भीष्मक के घर नारद आदि महात्माजनों का नित्य  आना - जाना रहता था | महात्माजन प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के रूप-रंग, पराक्रम, गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी वैभव आदि की प्रशंसा किया करते थे। 
राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण से हुआ था।

यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। 
ये अंगिरा के वंशज थे। 

गोतमपुत्र जो अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे।
"भीष्मक के कुल परोहित शताननद-गौतम और अहिल्या के पुत्र" 
"
  ब्रह्मवैवर्तपुराण - खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)
अध्यायः १०५

अथ-पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः
नारायण उवाच
अथ वैदर्भराजेन्द्रो महाबलपराक्रम् ।
विदर्भदेशे पुण्याश्च सत्यशीलश्च भीष्मकः।१ ।

राजा नारायणांशश्च दाता च सर्वसंपदाम् ।
धर्मिष्ठस्च गरीयांश्च वरिष्ठश्टापि पूजितः।२।

तस्य कन्या महालक्ष्मी रुक्मिणी योषितां वरा ।
अतीव सुन्दरी रम्या रमा रामासु पूजिता ।।३।।

नवयौवनसंपन्ना रत्नाभरणभूषिता।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा तेजसोज्ज्वलिता सती।४।।

शुद्धसत्त्वस्वरूपा सा सत्यशीला पतिव्रता ।
शान्ता दान्ता नितान्ता चाप्यनन्तगुणशालिनी।५।

इन्द्राणी वरुणानी च चन्द्रनारी च रोहिणी ।
कुबेरपत्नी सूर्यस्त्री स्वाहा शान्ता कलावती ।६।

अन्यासु रमणीयासु श्रेष्ठा च सुमनोहरा ।
रुक्मिण्या भीष्मकन्यायाः कलां नार्हति षोडशीम् ।७।

तां दृष्ट्वा राजराजेन्द्रो वालक्रीडारतां पराम् ।
बालां सुशोभां कुर्वन्तीं यथाऽभ्रेषु विधोः कलाम् । ८।

शरत्पूर्णेन्दुशोभाढ्यां शरत्कमललोचनाम् ।
विवाहयोग्यां युवतीं लज्जानम्राननां शुभम् ।९।

सहसा चिन्तितो धर्मो धर्मशीलश्च सुव्रतः ।
सुतां पप्रच्छ पुत्रांश्च ब्राह्मणांश्च पुरोहितान्।१०।

कं वृणोमि सुतार्ध च वराहं प्रवरं वरम् ।
मुनिपुत्रं देवपुत्रं राजेन्द्रसुतमीप्सितम् ।११।

विवाहयोग्या कन्या मे वर्धमाना मनोहरा ।
शीघ्रं पश्य वरं याग्यं नवयौवनसंस्थितम् ।१२।

धर्मशीलं सत्यसंधं नारायणपरायणम् ।
महाकुलप्रसूतं च सर्वत्रैव प्रतिष्ठितम् ।१४।

करोषि राजपुत्रं चेद्रणशास्त्रविशारदम् ।
महारथं प्रतापार्हं रणमूर्ध्नि च सुस्थिरम् ।। १५ ।।

करोषि देवपुत्रं चेद्देवं गुणयुतं तथा ।
करोषि मुनिपुत्रं चेच्चतुर्वेदविशारदम् ।१६।

वावदूकं विचारज्ञं सिद्धान्तेषु नितान्तकम् ।
नृपेन्द्रवचनं श्रुत्वा तमुवाच मुनेः सुतः ।। १७ ।।
________________
गोतमस्य शतानन्दो वेदवेदाङ्गपारगः ।
आप्तः प्रवक्ता विज्ञश्च धर्मी कुलपुरोहितः ।।

पृथिव्यां सर्वतत्त्वज्ञो निष्णातः सर्वकर्मसु ।१८।

शतानन्द उवाच
राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः ।
पृर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।

भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि ।
वसुदेवसुतः श्रीमान्परिबूर्णतमः प्रभुः। २०।

विधातुश्च विधाता च ब्रह्मेशशेषवन्दितः।
ज्योतिःस्वरूपः परमो भक्तानुग्रहविग्रहः।२१।

परमात्मा च सर्वेषां प्राणिनां प्रकृतेः परः।
निर्लिप्तश्च निरीहप्तश्च साक्षी च सर्वकर्मणाम्।२२।

राजेन्द्र तस्मै कन्यां च परिपूर्णतमाय च ।
दत्त्वा यास्यसि गोलोकं पितॄणां शतकैः सह ।२३।

लभ सारूप्यमुक्तिं च कन्या दत्त्वां परत्र च ।
इहैव सर्वपूज्यश्च भव विश्वगुरोर्गुरुः ।२४।

सर्वस्वं दक्षिणां दत्त्वा महालक्ष्मीं च रुक्मिणीम् ।
समर्पणं कुरुविभो कुरुष्व जन्मखण्डनम् ।२५ ।

हिन्दी अनुवाद:-
_____________________
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 105

भीष्मक द्वारा रुक्मिणी के विवाह का प्रस्ताव, शतानन्द का उन्हें श्रीकृष्ण के साथ विवाह करने की सम्मति देना , 
रुक्मी द्वारा उसका विरोध और शिशुपाल के साथ विवाह करने का अनुरोध, भीष्मक का श्रीकृष्ण तथा अन्यान्य राजाओं को निमंत्रित करना
____
श्रीनारायण कहते हैं- नारद ! विदर्भ देश में भीष्मक नाम के एक राजा राज्य करते थे, जो नारायण के अंश से उत्पन्न हुए थे।

वे विदर्भदेशीय नरेशों के सम्राट, महान बल-पराक्रम से संपन्न, पुण्यात्मा, सत्यवादी, समस्त संपत्तियों के दाता, धर्मिष्ठ, अत्यंत महिमाशाली, सर्वश्रेष्ठ और समादृत थे।
उनके एक कन्या थी, जिसका नाम रुक्मिणी था। वह महालक्ष्मी के अंश से उत्पन्न थी तथा नारियों में श्रेष्ठ, अत्यंत सौंदर्यशालिनी, मनोहारिणी और सुंदरी स्त्रियों में पूजनीया थी।
उसमें नयी यौवन की उमंग विद्मान थी। वह रत्ननिर्मित आभूषणों से विभूषित थी।

उसके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति उद्दीप्त थी। वह अपने तेज से प्रकाशित हो रही थी तथा शुद्धसत्त्वस्वरूपा, सत्यशीला, पतिव्रता, शान्त दमपरायणा और अनन्त गुणों की भण्डार थी। वह शरत्पूर्णिमा के चंद्रमा के सदृश शोभाशालिनी थी। उसके नेत्र शरत्कालीन कमल के से थे और उसका मुख लज्जा से अवनत रहता था।
अपनी उस सुंदरी युवती कन्या को सहसा विवाह के योग्य देखकर उत्तम व्रत का पालन करने वाले, धर्मस्वरूप एवं धर्मात्मा राजा भीष्मक चिन्तित हो उठे। तब वे अपने पुत्रों, ब्राह्मणों तथा पुरोहितों से विचार-विमर्श करने लगे।

भीष्मक बोले- सभासदो ! मेरी यह सुंदरी कन्या बढ़कर विवाह के योग्य हो गयी हैं; अतः मैं इसके लिए मुनिपुत्र, देवपुत्र अथवा राजपुत्र- इनमें से किसी अभीष्ट उत्तम वर का वरण करना चाहता हूँ। अतः आपलोग किसी ऐसे योग्य वर की तलाश करो, जो नवयुवक, धर्मात्मा, सत्यसंध, नारायणपरायण, वेद-वेदांग का विशेषज्ञ, पण्डित, सुंदर, शुभाचारी, शान्त, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, गुणी, दीर्घायु, महान कुल में उत्पन्न और सर्वत्र प्रतिष्ठित हो।

राजाधिराज भीष्म की बात सुनकर महर्षि गौतम के पुत्र शतानन्द, जो वेद-वेदांग के पारगामी विद्वान, यथार्थज्ञानी, प्रवचनकुशल, विद्वान, धर्मात्मा, और भीषमक के भीकुलपुरोहित भी थे।, वे भूतल पर संपूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता और समस्त कर्मों में निष्णात थे, राजा से बोले।

शतानन्द ने कहा- राजेंद्र! तुम तो स्वयं ही धर्म के ज्ञाता तथा धर्मशास्त्र में निपुण हो; तथापि मैं वेदोक्त प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ, सुनो। जो परिपूर्णतम परमेश्वर ब्रह्मा के भी विधाता हैं; ब्रह्मा, शिव और शेष द्वारा वन्दित, परमज्योतिः स्वरूप, भक्तानुग्रहमूर्ति, समस्त प्राणियों के परमात्मा, प्रकृति से परे, निर्लिप्त, इच्छारहित और सबके कर्मों के साक्षी हैं; वे स्वयं श्रीमान नारायण पृथ्वी का भार उतारने के लिए भूतल पर वसुदेव पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए हैं। राजेंद्र! उन परिपूर्णतम प्रभु को कन्या-दान करके तुम अपनी सौ पीढ़ियों के साथ गोलोक में जाओगे। अतः उन्हें कन्या देकर परलोक में सारूप्य-मुक्ति प्राप्त कर लो और इस लोक में सर्वपूज्य तथा विश्व के गुरु के गुरु हो जाओ।
विभो! सर्वस्व दक्षिणा में देकर महालक्ष्मी-स्वरूपा रुक्मिणी को उन्हें समर्पित कर दो और अपने जन्म-मरण के चक्कर को नष्ट कर डालो।

सन्दर्भ-:-
इति श्रीब्रह्मवैवर्त श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध  रुक्मिण्युद्वाहे
पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।१०५।

प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें