बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः



चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।4.13।

गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचा गया है। यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, तथापि तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी जानो।4.13। 
चत्वार एव वर्णाः= चातुर्वर्ण्यं मया= ईश्वरेण सृष्टम्= उत्पादितम्

" ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् इत्यादिश्रुतेः।गुणकर्मविभागशःगुणविभागशः कर्मविभागशश्च। गुणाः सत्त्वरजस्तमांसि।
 तत्र सात्त्विकस्य सत्त्वप्रधानस्य ब्राह्मणस्य शमो दमस्तपः इत्यादीनि कर्माणि सत्त्वोपसर्जनरजः प्रधानस्य क्षत्रियस्य शौर्यतेजःप्रभृतीनि कर्माणि तम उपसर्जनरजःप्रधानस्य वैश्यस्य कृष्यादीनि कर्माणि रज उपसर्जनतमःप्रधानस्य शूद्रस्य शुश्रूषैव कर्म इत्येवं गुणकर्मविभागशः चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टम् इत्यर्थः।
 तच्च इदं चातुर्वर्ण्यं न अन्येषु लोकेषु अतः मानुषे लोके इति विशेषणम्।
 हन्त तर्हि चातुर्वर्ण्यस्य सर्गादेः कर्मणः कर्तृत्वात् तत्फलेन युज्यसे अतः न त्वं नित्यमुक्तः नित्येश्वरश्च इति उच्यते यद्यपि मायासंव्यवहारेण तस्य कर्मणः कर्तारमपि सन्तं मां परमार्थतः विद्धि अकर्तारम्। अत एव अव्ययम् असंसारिणं च मां विद्धि।।येषां तु कर्मणां कर्तारं मां मन्यसे परमार्थतः तेषाम् अकर्ता एवाहम् यतः


योगशास्त्र में प्रकृति के तीन गुणों सत्त्व रज और तम को तीन रंगों से सूचित किया जाता है। जैसाकि पहले बता चुके हैं इन तीन गुणों का अर्थ है मनुष्य के विभिन्न प्रकार के स्वभाव। 

सत्त्व रज और तम का संकेत क्रमश श्वेत रक्त और कृष्ण वर्णों ( रंगों)से किया जाता है।

मनुष्य अपने मन में उठने वाले विचारों के अनुरूप ही होता है।  क्यों कि व्यवहार ही विचारों की व्याख्या और वाणी भाष्य है।

दो व्यक्तियों के विचारों में कुछ साम्य होने पर भी दोनों के स्वभाव में सूक्ष्म अन्तर देखा जा सकता है। इन स्वभावों की भिन्नता के आधार पर अध्यात्म की दृष्टि से अध्ययन करने के लिए मनुष्यों का चार भागों में वर्गीकरण किया जाता है। स्वभाव (शील) व्यक्ति के प्राकृतिक गुणों( सत- रज - तम ) का प्रतिनिधि है। स्वभाव का ही अति परिपक्व रूप प्रवृत्ति है जो प्राणी जाति( योनि का निर्धारण करती हैं जैसे कुत्ता कौआ बिल्ली चूहा आदि की प्रवृत्ति उनकी जाति के अनुरूप होती है।

परन्तु सभी मनुष्यों की प्रवृति समान होने से भी मानव एक जाति है यद्यपि सभी मनुष्यों के स्वभाव भिन्न भिन्न होते हैं। परन्तु प्रवृत्ति लगभग समान होती हैं । 

जैसे कम्प्यूटर में उसका सिस्तम सॉफ्टवेयर प्रवृति है और स्वभाव एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर के समान - स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्मगत संस्कारों या समुच्चय है। ये संस्कार कर्म के तीन रूपांतरण हैं।

संचित प्रारब्ध और क्रियमाण  मनुष्य की इच्छाऐं उसके कर्म का कारण हैं।

इच्छाओं का आधार संकल्प और संकल्प मनुष्य के अहं या स्फोटन है। यही कर्म संसार के विस्तार का कारण है। मनुष्य का जन्म किस परिवेश किस स्थान मैं होता है और उसके माता पिता किस प्रकार के व्यक्तित्व के होते हैं यह प्रारब्ध पर आश्रित है। अब ये मत कहो कि कौन सी जाति श्रेष्ठ है ।  इसका निर्धारण मनुष्य के कर्म करते हैं।

प्रवृत्तियाँ सभी पर समान रूप से लागू हैं यह मनुष्य की स्वाभाविकता की धारा है।   परन्तु कोई इस स्वाभाविकता की धारा में बह जाता है कोई तैर कर पार उतर जाता है। यह आवश्यक नहीं कि ब्राह्मण जाति में जन्म लेने वाले सभी मनुष्य श्रेष्ठ होते हैं अथवा शूद्र वर्ण (जाति) में जन्म लेने वाले सभी निकृष्ट ही होते हैं। 

व्यवसाय की दृष्टि से लोगों का वर्गीकरण किया गया था। वही वर्गीकरण कालांतर में जातिगत रूप से रूढ़  कर दिया गया। यह  वर्गीकरण विचार और व्यवहार भेद से किया गया है।

व्यक्ति अपने स्वभाव ( शील -गुण) के प्रभाव से कर्म में रत होता है।

जन्म से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता। शुभ संकल्पों एवं श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया जा सकता है।

केवल शरीर पर तिलक चन्दन आदि लगाने से अथवा कुछ धार्मिक विधियों के पालन मात्र से हम ब्राह्मण होने का दावा नहीं कर सकते। परिभाषा के अनुसार उसके विचारों एवं कर्मों का सात्त्विक होना अनिवार्य है। 

रजोगुणप्रधान विचारों तथा कर्मों का व्यक्ति क्षत्रिय कहलाता है। जिसके केवल विचार ही तामसिक नहीं बल्कि जो अत्यन्त निम्न स्तर का जीवन शारीरिक सुखों के लिये ही जीता है उस पुरुष को शूद्र समझना चाहिये।

गुण और कर्म के आधार पर किये गये इस वर्गीकरण से इस परिभाषा की वैज्ञानिकता सिद्ध होती है। सत्त्व (ज्ञान) रज (क्रिया) और तम (जड़त्व) इन तीन गुणों से युक्त है।

 जड़ प्रकृति अथवा माया। चैतन्य स्वरूप आत्मा के इसमें व्यक्त होने पर ही सृष्टि उत्पन्न होकर उसमें ज्ञान क्रिया रूप व्यवहार सम्भव होता है। उसके बिना जगत् व्यवहार संभव ही नहीं हो सकता।

इस चैतन्य स्वरूप के साथ तादात्म्य करके श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे चातुर्र्वण्यादि के कर्ता हैं क्योंकि उसके बिना जगत् का कोई अस्तित्व नहीं है और न कोई क्रिया संभव है।

 

गुण एक प्राणी अथवा अप्राणी का भाव है  जिसके कारण एक वस्तु दूसरी से अलग मानी जाती है; अथवा किसी वस्तु में पाई जाने वाला वह भाव जिसके द्वारा वह दूसरी वस्तु से  अलग पहचाना जाय । वह भाव जो किसी वस्तु के साथ लगा हुआ हो । धर्म। सिफत आदि ।

विशेष—सांख्याकार तीन गुण मानते हैं । सत्व, रज और तम; और इन्हीं की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं जिससे सृष्टि का विकास होता है । सत्वगुण हलका और प्रकाश करनेवाला, रजोगुण चंचल और प्रवृत्त करनेवाला और तमोगुण भारी और अवरोध करनेवाला माना गया है । तीनों गुणों का स्वभाव है कि वे एक दूसरे के आश्रय से रहते तथा एक दूसरे को उत्पन्न करते हैं इससे सिद्ध होता है कि सांख्य में गुण भी एक प्रकार का द्रव्य ही है।

जिसके अनेक धर्म हैं और जिससे सब पदार्थ उत्पन्न होते हैं । विज्ञानभिक्षु का मत है कि जिससे आत्मा के बंधन के लिये महत्तत्व आदि रज्जु तैयार होती है उसी को सांख्यकार ने गुण कहा है

 

कर्म परिवर्तन का व्यवस्थित रूप है और परिवर्तन समय का सतत् प्रवाह कर्म ही  संयोग वियोग के विभाग का कारण होता है, जबकि  गुण उसके स्वरूप भेद का कारण होता है। 


शास्त्र में कालांतर में अनेक प्रक्षेप संलग्न कर दिए जो शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुरूप नहीं हैं। जैसे ___________________

 दु:शीलोऽपि द्विज: पूजयेत् . न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् ।।

पाराशर-स्मृति (१९२) अर्थात्‌ ब्राह्मण यदि व्यभिचारी भी हो तो भी 'वह पूजने योग्य है । जबकि शूद्र जितेन्द्रीय और विद्वान होने पर भी पूजनीय नहीं । क्यों कोई शील वती गधईया से बुरे शरीर वाली गाय भली ... अब बताऐं कि ये धर्म त्यागना चाहिए या नहीं !


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणःपरधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।    स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥ 35 ।।

भावार्थ : अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥ 

व्याख्या : तृतीयोध्याय कर्मयोग में श्री भगवान ने गुण, स्वभाव और अपने धर्म की चर्चा की है। आपका जो गुण, स्वभाव और धर्म है उसी में जीना और मरना श्रेष्ठ है, दूसरे के धर्म में मरना भयावह है। जो व्यक्ति अपना धर्म छोड़कर दूसरे का धर्म अपनाता है, वह अपने कुलधर्म का नाश कर देता है।

कुलधर्म के नाश से आने वाली पीढ़ियों का आध्यात्मिक पतन हो जाता है।

इससे उसके समाज का भी पतन हो जाता है। सामाजिक पतन से राष्ट्र का पतन हो जाता है।

ऐसा करना इसलिए भयावह नहीं है बल्कि इसलिए भी कि ऐसे व्यक्ति और उसकी पीढ़ियों को मौत के बाद तब तक सद्गति नहीं मिलती जब तक कि उसके कुल को तारने वाला कोई न हो।

इस श्लोक को बड़ी चतुराई से वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने कृष्ण के सिद्धान्तों के नाम पर समायोजित किया है। 

अब विचारणीय तथ्य यह है कि  यह बौद्ध कालीन स्थितियों को इंगित करता है ।

 यद्यपि धर्म शब्द यूनानी तथा रोमन संस्कृतियों में क्रमश तर्म और तरमिनस् (Term ) (Terminus ) के रूप में विद्यमान है । टर्मीनस् रोमन संस्कृतियों में मर्यादा का अधिष्ठात्री देवता है 

जबकि इसके विपरीत यह श्लोक भी श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

व्याख्या --   सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज -- भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय ? छोड़कर  केवल एक मेरी ही शरणमें आजा। मैं तुझे सभी पापों से मुक्त कर दुँगा।

दोनों ही श्लोक विरोधी हैं।

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यादव योगेश कुमार रोहि-

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