गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी कुल गुरु थे।

यादवों के गर्गाचार्य के अतिरिक्त भी अनेक कुल पुरोहित थे - विशेषत: जो भृगु  कश्यप और अंगिरा वंश के ऋषि थे  -
ये यादवों के  पुरोहित रहे हैं !  कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु  घोर आंगिरस भी अंगिरा वंश के थे।और यादवों पुरोहित कुछ भृगु वंश को भी थे। भृगु - एक प्रसिद्ध मुनि जो शिव के पुत्र माने जाते हैं।
विशेष—प्रसिद्ध है कि इन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी। 
इन्हीं के वंश में परशुराम जी हुए थे। कहते हैं, इन्हीं 'भृगु' और 'अगिरा' तथा 'कश्यप' से सारे संसार के मनुष्यों की सृष्टि हुई है। 
ये सप्तर्षियों में से एक मान जाते हैं। इनकी उत्पत्ति के विषय में महाभारत में लिखा है कि एक बार रुद्र ने एक बड़ा यज्ञ किया था, जिसे देखने के लिये बहुत से देवता, उनकी कन्याएँ तथा स्त्रियाँ आदि वहाँ आई थीं। 
जब ब्रह्मा उस यज्ञ में आहुति देने लगे, तब देवकन्या आदि को देखकर ब्रह्मा का वीर्य स्खलित हो गया।  

सूर्य ने अपनी किरणों से वह वीर्य खींचकर अग्नि में डाल दिया। 
उसी वीर्य से अग्निशिखा में से भृगु की उत्पत्ति हुई थी।
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परशुराम जन्म इसी भृगु वंश में हुआ। यद्यपि ये कथानक काव्य और कल्पना के  गुणों से समन्वित हैं । परन्तु इस नाम के व्यक्तियों का अस्तित्व तो रहा ही हुएथे।  
अंगिरा-अङ्गिरस्]-एक प्राचीन ऋषि जो दस प्रजापतियों में गिने जाति हैं। 
विशेष—ये अथर्ववेद के प्रादुर्भावकर्ता कहे जाते हैं। इसी से इनका नाम अथर्वा भी है।

इनकी उत्पत्ति के विषय में कई कथाएँ है। 
कहीं इनके पिता को उरु और माता को आग्नेयी लिखा है । और कहीं इनको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बतलाया गया है। 
स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा इनकी स्त्रियाँ थीं जिनसे ऋचस् नाम की कन्या और मानस् नामक पुत्र हुए ।
वृहस्पति  के पुत्र गौतम के शतानन्द भी कोष्टाकुल के यादव भीष्मक के कुलगुरु थे।

सान्दीपन ऋषि भी यादवो के पुरोहित थे और ये कश्यप गोत्रीय  ऋषि थे जिनका जन्म काशी में हुआ। और जो कालान्तर में ये उज्जैन चले गये थे।
सान्दीपनि-(सन्दीपनस्यापत्यम् +इञ्)= सान्दीपन  रामकृष्णयोराचार्य्ये अवन्तिपुरवासिनि मुनिभेदे । 

विदिताखिलविज्ञानौ सर्व्वज्ञानमयावपि।
शिष्याचार्य्यक्रमं वीरौ ख्यापयन्तौ यदूत्तमौ। ५-२१-१८। 
ततः सान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् ।
अस्त्रर्थं जग्मतुर्वीरौ बलदेव-जनार्द्दनौ ।५-२१-१९ ।
तस्य शिष्यत्त्वमभ्येत्य गुरुवृत्तपरौ हि तौ।
दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने।५-२१-२० ।
उग्रसेन का पुन: राज्याभिषेक भी सान्दीपन ऋषि ने  किया । अत: उग्रसेन के कुल परोहित सान्दीपन मुनि थे।
 (विष्णु पुराण पञ्चमाँश अध्याय 21 वाँ)

सबसे पहले ये जानना आवश्यक है कि वसुदेव गोप ही थे। और  नन्द तो गोप थे ही यह सब जानते ही हैं।
वसुदेव को गोप जीवन के विषय में पुराणों लिखा है।
"वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। 
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ 
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१। 

शास्त्रों मैं  वसुदेव का गोप रूप में भी  वर्णन है।-
क्या परवर्ती पुरोहितों की दृष्टि में यदु म्लेच्छ या शूद्र भी थे ? जैसा कि भागवत आदि पुराणों मैं कालान्तर में जोड़ दिया गया।

इतना ही नहीं  एक  समाज विशेष के कुछ लोग स्वयं को गोप अथवा गोपालक न मानकर भी  परम्परागत रूप से कहा करते हैं  कि कृष्ण का पालन नन्द गोपों के घर  और जन्म वसुदेव आदि क्षत्रिय  के घर हुआ।

और गोपों को यादवों से पृथक दर्शाने के लिए परवर्ती पुरोहितों ने भागवत पुराण विष्णु पुराण  में अनेक प्रक्षिप्त श्लोक जोड़ दिए भी। 

परन्तु अन्य प्राचीन ग्रन्थों में द्वेष वादियों की मान्यता को खण्डित ही कर दिया।
इस लिए कालान्तर में ग्रन्थों को सम्पादन और प्रकाशन काल में जोड़ तोड़ तो होता ही रहा है।
अत: तर्क बुद्धि द्वारा निर्णय करना आवश्यक है ।
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देखें- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।

विशेषत: जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में तथा विष्णु पुराण पञ्चम अंश को 21वें श्लोक में  वर्णित है ही और ये ही निम्न श्लोक भी विरोधाभासी होने से प्रक्षिप्त ही है देखें निम्न रूप में  जिनका खण्डन है
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यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।।

अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । 
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है।७।

यद्यपि यही श्लोक गर्गसंहिता में भी यथावत् है । जो कालान्तर नें संलग्न किया गया है ।
परन्तु ये श्लोक शास्त्रीय सिद्धान्त को विपरीत होने से प्रक्षिप्त ही हैं।

ययातिशापाद् वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नुपैः ।।    विष्णु पुराण पञ्चमांश अध्याय इक्कीश का बारहंवाँ श्लोक-(५-२१-१२)

जबकि गर्ग केवल शूरसेन के पुरोहित थे वह भी बहुत बाद के समय में जब एक बार शूरसेन की। सभा लगी थी तभी ये घूमते हुए कहीं से आये  और सभासदों ने इनका परिचय एक ज्योतिषी के रूप में दिया था। 

निराकरण-👇★
विदित हो कि  गर्ग आचार्य  शूरसेन के युवावस्था काल में एक बार भ्रमण करते हुए दरवार में आये तो उसी समय अन्य सभासद लोगों की सलाह पर शूरसेन ने इन्हे अपना पुरोहित नियुक्त किया था। उससे पहले तो घोर आंगिरस कुल के पुरोहित थे।
यादवों में क्रोष्टा कुल में उग्रसेन यादव भी थे जिनके पुरोहित महर्षि काश्य नाम थे जो मूलत; काशी के रहने वाले थे सन्दीपन ही थे । और उसी समय सूरसेन को पुरोहित गर्गाचार्य थे ।

यादवों की अन्य शाखा के राजा भीष्मक भी थे जिनके कुल पुरोहित गौतम पुत्र (शतानन्द) थे। ये अंगिरा को वंशज थे। 
गोतमपुत्र जो  अहल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए और जो जनकराज के पुरोहितः भरद्वाज गोत्र के ही थे।
और सूरसेन के सौतेले  भाई  पर्जन्य के पुत्र नन्द के पुरोहित साण्डिल्य थे। ये शण्डिल ऋषि के पुत्र थे।
अत: यादवों के गुरु गर्ग आचार्य को ही बताना मूर्खता पूर्ण है। यादवों कई पुरोहित थे।
परन्तु भागवत पुराण में अन्यत्र नंद और वसुदेव को भाई और सजातीय कहा है और अन्य पुराणों में वसुदेव को भी गोपालक या गोप ही बताया गया है ।
अभी उपरोक्त रूप में हम (देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध से वसुदेव को वैश्य वृत्ति धारण करने वाला) वर्णन कर चुके हैं ।
और स्वयं भागवत पुराण का निम्न श्लोक भी दौंनो के सजातीय और बान्धव होने का वर्णन करता है ।____________________________________

परन्तु ब्रह्म पुराण में (१८४वें) अध्याय में  इस प्रकार का वर्णन है ।

गर्गश्च गोकुले तत्र वसुदेवप्रचोदितः।
प्रच्छन्न एव गोपानां संस्कारमकरोत्तयोः।१८४.२९।

वसुदेव ने गर्गाचार्य को
गोकुल में दोनों गोपों केे संस्कार के लिए भेेेजा
परन्तु गर्गजी केवल शूरसेन के समय से शूरसेन के पुरोहित थे जो कभी कभी नन्द जी के भी धार्मिक अनुष्ठान भी  करते रहते थे  निम्न श्लोकों में यह भी स्पष्ट तथ्य है 

गिरिराजखण्ड - द्वितीयोऽध्यायःगिरिराजमहोत्सववर्णनम् -श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा वचो नन्दसुतस्य साक्षाच्छ्रीनन्दसन्नन्दवरा व्रजेशाः ।
सुविस्मिताः पूर्वकृतं विहायप्रचक्रिरे श्रीगिरिराजपूजाम् ॥ १ ॥
नीत्वा बलीन्मैथिल नन्दराजःसुतौ समानीय च रामकृष्णौ ।
यशोदया श्रीगिरिपूजनार्थंसमुत्सको गर्गयुतःप्रसन्नः  ।२।

श्रीनारदजी कहते हैं– साक्षात ! श्रीनन्‍दनन्‍दन की यह बात सुनकर श्रीनन्‍द और सन्नन्‍द आदि व्रजेश्वरगण बड़े विस्मित हुए। फिर उन्‍होनें पहले का निश्‍चय त्‍यागकर श्रीगिरिराज पूजन का आयोजन किया। 
मिथिलेश्‍वर ! नन्‍दराज अपने दोनों पुत्र- बलराम और श्रीकृष्‍ण को तथा भेंट पूजा की सामग्री को लेकर यशोदाजी के साथ गिरिराज-पूजन के लिये उत्‍कण्ठित हो प्रसन्‍नातापूर्वक गये। उनके साथ गर्गजी भी थे।
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            ( भागवत पुराण में वर्णन है कि )

गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत।नन्द:कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भार नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ;
तब वे नन्द ठहरे हुए थे वहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।

देवीभागवत गर्गसंहिता और महाभारत के
अनुसार कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।।५८।।    ___________________________________

शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥____________________________________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥_________                                                   वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।       उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥६१॥             
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा  के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९। 

अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।                                        

अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले  हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे !  
वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।

"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा।      शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।।६२।।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से  शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।

कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने‌ वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥ २०॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।

गोप लोग  कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। 

पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है ।
न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं 
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न  ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर  दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? 

आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है;  ये आर्य अथवा पशुपालक  गोपालक चरावाहों के  रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं।

शाण्डिल्य- सा पौराणिक परिचय-
महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।

कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। और बज्रनाभ के भी पुरोहित ये ही बनते देखे हैं।
 इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।

कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र ही शांडिल्य नाम से प्रसिद्ध थे। ये रघुवंशीय नरपति दिलीप के पुरोहित थे। इनकी एक संहिता भी प्रसिद्ध है। कहीं-कहीं यदु वंशी नंदगोप के पुरोहित के रूप में भी इनका वर्णन आता है। 

सतानिक के पुत्रेष्टि यज्ञ में यह प्रधान ऋित्विक थे। किसी-किसी पुराण में इनके ब्रह्मा के सारथी होने का भी वर्णन आता है।

शांडिल्य ऋषि की तपस्या करना
इन्होंने प्रभासक्षेत्र में शिवलिंग स्थापित करके दिव्य सौ वर्षों तक घोर तपस्या और प्रेमपूर्ण आराधना की थी। 

फलस्वरुप भगवान शिव प्रसन्न हुए और इनके सामने प्रकट होकर इन्हें तत्वज्ञान भगवदभक्ति एवं अष्ट सिद्धियों का वरदान दिया। विश्वामित्र मुनि जब राजा त्रिशंकु से यज्ञ करा रहे थे। तब यह होता के रूप में वहां विद्यमान थे। 

भीष्म की सर-सैया के अवसर पर भी इनकी उपस्थिति का उल्लेख मिलता है। शंख और लिखित, जिन्होंने पृथक पृथक धर्म स्मृतियों का निर्माण किया है, इन्हीं के पुत्र थे। 
शांडिल्य ऋषि की भक्ति सूत्र संहिता
एक छोटे से किंतु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ भक्ति सूत्र का प्रणयन किया है।

कश्यप ऋषि के एक पुत्र असित थे। असित के पुत्र देवल हुए, जिनके द्वारा किये गये यज्ञ के यज्ञकुण्ड से ऋषि शाण्डिल्य का जन्म हुआ।

इन्होने अनेकों सूत्रग्रंथों की रचना की है। वेदों में भी इनका नाम आया है।

रघुवंशी राजा दिलीप के समय भी इनका उल्लेख मिलता है। ये राजा जनक को पुरोहित थे।

"आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।

अनुवाद:-

महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम  प्रतापी यादव राजा थे यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।

उग्रसेनो महापत्यो विख्यातः कुकुरोद्भवः।कुकुराणामिमं वंशं धारयन्नमितौजसाम्।आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावांश्च भवेन्नरः।३४.१३४।

कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले। ३४.२५५।

यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।

३४.२५६।

विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।

इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।

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"भीष्मक के कुल परोहित शताननद-गौतम और अहिल्या के पुत्र" 

"गोतमस्य शतानन्दो वेदवेदाङ्गपारगः। आप्तः प्रवक्ता विज्ञश्च धर्मी कुलपुरोहितः। पृथिव्यां सर्वतत्त्वज्ञो निष्णातः सर्वकर्मसु ।१८
अनुवाद:-
गौतम के पुत्र शतानंद  वेदों के अच्छे जानकार थे। वह कुल का एक धर्मी वाक्पटु और ज्ञानी पुरोहित थे
वह पृथ्वी के सभी सत्यों को जानता थे और सभी प्रकार की गतिविधियों में भी निपुण थे ।18। 

        "शतानन्द भीष्मक प्रति उवाच"
राजेन्द्र त्वं च धर्मज्ञो धर्मशास्त्रविशारदः। पूर्वाख्यानं च वेदोक्तं कथयामि निशामय ।१९।
         शतानंद ने भीष्मक से  कहा:
हे राजाओं में श्रेष्ठ, आप धार्मिक सिद्धांतों के ज्ञाता और धार्मिक सिद्धांतों के शास्त्रों के भी विशेषज्ञ हैं।
मेरी बात सुनो मैं तुम्हें वेदों में वर्णित पूर्व आख्यान को सुनाता हूँ ।19।

भुवो भारावतरणे स्वयं नारायणो भुवि । वसुदेवसुतः श्रीमान्परिपूर्णतमः प्रभुः।२०।
भगवान नारायण स्वयं पृथ्वी के भार उतारने के लिए  पृथ्वी पर प्रकट हुए।
वे वासुदेव के पुत्र रूप में इस पृथ्वी पर सबसे समृद्ध और सबसे शक्तिशाली हैं।20।

वह ही निर्देशक और निर्माता हैं और शेष तथा भगवान ब्रह्मा द्वारा उनकी पूजा की जाती है।
वह प्रकाश के सर्वोच्च रूप हैं और अपने भक्तों की कृपा के लिए अवतरित हैं।21।


परमात्मा सभी जीवों की प्रकृति से परे है
वह निष्कलंक और निष्पाप हैं और समस्त कर्मों का साक्षी हैं ।22।

हे राजाओं में श्रेष्ठ, उसने उसे और उसकी पुत्री को सब से उत्तम वर  दिया।
उसे देकर तुम अपने सैकड़ों पूर्वजों के साथ गौलोक में जाओगे। 23।।

अपनी पुत्री को देकर और परलोक में समानता और मुक्ति प्राप्त करें।
विश्वगुरु के गुरु बनो और यहाँ सबके द्वारा पूजे जाओ।24।

सन्दर्भ-:-
इति श्रीब्रह्मवैवर्त श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध  रुक्मिण्युद्वाहे
पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।१०५।

आसीन्महिष्मतः पुत्रो भद्रश्रेण्यः प्रतापवान्। वाराणस्यधिपो राजा कथितः पूर्व एव हि ।३२.६।

अनुवाद:-
महिष्मत के पुत्र भद्रसेन ही काशी के प्रथम  प्रतापी यादव राजा थे ! यह पूर्व ही कहा गया है। इसी परम्परा में कार्तवीर्य अर्जुन भी हुए।

वायुपुराण-उत्तरार्धम् -अध्यायः (३२)   

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उग्रसेनो महापत्यो विख्यातः कुकुरोद्भवः।कुकुराणामिमं वंशं धारयन्नमितौजसाम्।आत्मनो विपुलं वंशं प्रजावांश्च भवेन्नरः।३४.१३४।

कुलानि शत् चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले। ३४.२५५।

यादवों के एक सौ एक कुल हैं वह सब विष्णु के कुल में समाहित हैं विष्णु सबमें विद्यमान हैं।२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः ।३४.२५६।

विष्णु उन सबके प्रमाण में और प्रभुत्व में व्यवस्थित हैं। विष्णु के निर्देशन में सभी यादव मनुष्य प्रतिबद्ध हैं।२५६।

इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः। ३४।

___________________________________     मूलगोत्राणि चत्वारि समुत्पन्नानि पार्थिव।   अङ्गिराः कश्यपश्चैव वसिष्ठो भृगुरेव च॥१७॥

कर्मतोऽन्यानि गोत्राणि समुत्पन्नानि पार्थिव।
नामधेयानि तपसा तानि च ग्रहणं सताम्॥१८॥
~महाभारत शान्ति पर्व(मोक्षधर्म पर्व) अध्याय २९६

पृथ्‍वीनाथ ! पहले अंगिरा, कश्‍यप, वसिष्ठ और भृगु -ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्‍य गोत्र कर्म के अनुसार पीछे उत्‍पन्‍न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियों की तपस्‍या से ही साधू-समाज में सुविख्‍यात एवं सम्‍मानित हुए हैं।

विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल में गुरु के नाम से ही गोत्र का नाम होता था
जैसे पुराणों में राहु केतु का गोत्र पैठिनस  पैठिनस ऋषि थे । लेकिन जैमिनी ऋषि के शिष्यत्व में केतु का गोत्र जैमिनी हो गया।

कुछ इतिहासकार मानते हैं गुरु,कुल गुरु या पुरोहित के नाम से ही गोत्र का नाम पड़ जाता था जैसा कि राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी उदयपुर राज्य का इतिहास भाग-१ के क्षत्रियों के गोत्र नामक तृतीय अध्याय की परिशिष्ट संख्या ४ में लिखते हैं कि प्राचीन काल में राजाओं का गोत्र वही माना जाता था जो उनका पुरोहित का होता था.

यादवों कुल अनेक थे । जैसा कि शास्त्रों में वर्णित है। इसी आधार पर उनके कुल पुरोहित भी अनेक गोत्रों से सम्बन्धित थे।             
कुलानि दश चैकञ्च यादवानां महात्मनाम्।
सर्व्वमककुलं यद्वद्वर्त्तते वैष्णवे कुले ।। ३४.२५५।

विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बद्ध्यन्ते सर्वमानुषाः।। ३४.२५६।।

इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः।
कीर्त्तिता कीर्त्तनाच्चैव कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सिताम् ।। ३४.२५७ ।।

इति श्रीमहावायुपुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः । ३४ ।
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तिस्रः कोट्यस्तु पौत्राणां यादवानां महात्मनाम् ।
सर्वमेव कुलं यच्च वर्त्तन्ते चैव ये कुले ॥ २,७१.२६१ ॥
विष्णुस्तेषां प्रमाणे च प्रभुत्वे च व्यवस्थितः ।
निदेशस्थायिभिस्तस्य बध्यन्ते सुरमानुषाः ॥ २,७१.२६२ ॥
देवासुराहवहता असुरा ये महाबलाः ।
इहोत्पन्ना मनुष्येषु बाधन्ते ते तु मानवान् ॥ २,७१.२६३ ॥
तेषामुत्सादनार्थाय उत्पन्ना यादवे कुले ।
समुत्पन्नं कुलशतं यादवानां महात्मनाम् ॥ २,७१.२६४ ॥
इति प्रसूतिर्वृष्णीनां समासव्यासयोगतः ।
कीर्त्तिता कीर्त्तनीया स कीर्त्तिसिद्धिमभीप्सता ॥ २,७१.२६५ ॥
इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१॥
 

1 टिप्पणी:

  1. आप द्वारा दी गई पौराणिक जानकारियों के लिये बहुत-बहुत साधुवाद।
    मेरी एक जिज्ञासा है कि यादवकुल गुरु महर्षि गर्ग की पत्नी का नाम क्या है तथा वह किसकी पुत्री थी?
    कृपया जानकारी देने की कृतज्ञता करें।
    धन्यवाद।
    जय श्री कृष्णा

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