सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

कृष्ण राधा और भागवत की रासलीला-

वृद्धों की सभा में तर्कसंगत बात प्रस्तुत करने का तो एक बालक को भी अधिकार है। यदि श्रीमद्भागवत पुराण में राधा की बात का न होने का जिक्र तो इससे राधा के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। वैसे भी भागवत पुराण शुद्ध और प्रमाणित कृष्ण चरित्र का दस्तावेज है नहीं इसके भी  कई प्रसंगों में विरोधाभास और प्रक्षेप हैं यदि राधा काल्पनिक है तो कृष्ण को भी काल्पनिक कहने में क्या परेशानी है ?

जिस समय भागवत पुराण में अथवा अन्य पुराणों कृष्ण चरित्र का लेखन हुआ है उस समय भारतीय समाज के राजा महाराजा भोग विलास और वासना तृप्ति के लिए कामसूत्र के नये नये प्रयोग कर रहे थे । प्रत्येक साहित्य तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का दर्पण होते हैं।
 जिस समय कृष्ण के रासलीला मूलक चरित्र का लेखन हुआ है उस समय राजा महाराजा कामुक और भोगविलासी ही थे । 
और उस समय को लोकाचारों के अनुरूप ही कृष्ण चरित्र में कामसूत्र का समायोजन कर दिया। 
और इन व्यभिचार मूलक प्रसंगों को धर्मशास्त्र में जोड़ने का उद्देश्य भी समाज में कामुकता का प्रचार-प्रसार करना ही था।
इस लिए कृष्ण का इस व्यभिचार मूलक रासलीला से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके लेखन का समय 11-12 वीं ईस्वी सदी है। 
मध्यप्रदेश में चन्देल राजाओं द्वारा निर्मित मन्दिर भी कामसूत्र मूलक वास्तुशैली में निर्मित हैं। 
वृद्धों की सभा में तर्कसंगत बात प्रस्तुत करने का तो एक बालक को भी अधिकार है। मान्यवर और असंगत व तर्कहीन बात तो किसी वयोवृद्ध की भी मानने योग्य नहीं है।

 यदि श्रीमद्भागवत पुराण में राधा जी  की बात का न होने का जिक्र है।  तो इससे राधा के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। वैसे भी भागवत पुराण कृष्ण चरित्र का शुद्ध और प्रमाणित  दस्तावेज नहीं है । इस पुराण में भी कई प्रसंगों में परस्पर विरोधाभास और प्रक्षेप हैं । यदि राधा काल्पनिक पात्र  है तो कृष्ण को भी काल्पनिक कहने में क्या परेशानी है ? मान्यवर!

जिस समय भागवत पुराण में अथवा अन्य पुराणों कृष्ण चरित्र का लेखन हुआ है उस समय भारतीय समाज के राजा- महाराजा रनिवास में भोग विलास और वासना तृप्ति के लिए कामसूत्र के नये नये प्रयोग कर रहे थे।
और उनके आश्रित संस्कृत भाषा के कवि  भी राजपुरुषों की चित्तवृत्ति के अनुरूप धर्मग्रन्थों के रूप में कामवृत्ति के प्रसारण और प्रचारण के लिए आलम्बन और  उद्दीपन विभाव ढूंढ रहे थे।
 प्रत्येक साहित्य तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का दर्पण होते हैं। 
कृष्ण को आधार बनाकर भी  उन्होंने अपने कामसूत्र मूलक काव्य को कृष्ण के चरित्र पर आरोपित कर दिया ।

 जिस समय कृष्ण के रासलीला मूलक चरित्र का लेखन हुआ है उस समय राजा महाराजा कामुक और भोगविलासी ही थे। 
और उस समय को लोकाचारों के अनुरूप ही कृष्ण चरित्र में कामसूत्र का समायोजन कर दिया। 
और इन व्यभिचार मूलक प्रसंगों को धर्मशास्त्र में जोड़ने का उद्देश्य भी समाज में कामुकता का प्रचार-प्रसार करना ही था।
इस लिए कृष्ण का इस व्यभिचार मूलक रासलीला से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके लेखन का समय भी  11-12 वीं ईस्वी सदी का अन्तराल  है। 
मध्यप्रदेश में चन्देल राजाओं द्वारा निर्मित मन्दिर भी कामसूत्र मूलक वास्तुशैली में निर्मित तत्कालीन दिग्दर्शन   हैं।
 
आश्चर्य तो तब होता है जब कवि  कृष्ण के पावन योगेश्वर चरित्र पर काम और रति लीला के दृश्य आरोपित करता है जैसे कि वह उनके साथ  रह कर उनकी रतिलीला मूलक रासलीला को पास से देख देख कर अपने काव्य छन्दों की रचना कर रहा हो। इस व्यभिचार मूलक काव्यात्मक रूपकों को आध्यात्म में गुम्फन करके मन्दिर और धर्म की आड़ में व्यभिचार को सम्मति देने चाहता था ।
यहाँ भागवत से कुछ चुनिंदा श्लोक प्रस्तुत हैं ।

                    श्रीपरीक्षिदुवाच
संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च।
अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वर:॥२६।

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥२७।
 
शब्दार्थ:-श्री-परीक्षित् उवाच—श्री परीक्षित  ने कहा; संस्थापनाय—स्थापना करने के लिए; धर्मस्य—धर्म की; प्रशमाय—दमन करने के लिए; इतरस्य— दूसरे विरोधियों का; च—तथा; अवतीर्ण:— अवतरित हुए; हि—निस्सन्देह; भगवान्— भगवान्; अंशेन—अपने स्वांश  (बलराम) सहित; जगत्—सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के; ईश्वर:—स्वामी; स:—वह; कथम्—किस तरह; धर्म-सेतूनाम्—आचार संहिता के; वक्ता—आदि व्याख्याता; कर्ता—करने वाले; अभिरक्षिता—रक्षक; प्रतीपम्— विरुद्ध; आचरत्—आचरण किया; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण, शुकदेव गोस्वामी; पर—अन्यों की; दार—पत्नियों का; अभिमर्शनम्— स्पर्श को ।
 
अनुवाद:-परीक्षित  ने कहा, “हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने स्वांश सहित इस धरा में अधर्म का नाश करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु अवतरित हुए हैं। दरअसल वे आदि वक्ता तथा नैतिक नियमों के पालनकर्ता एवं संरक्षक हैं। तो भला वे अन्य पुरुषों की स्त्रियों का स्पर्श करके उन नियमों का अतिक्रमण कैसे कर सकते थे ?
 
आप्तकामो यदुपति: कृतवान्वै जुगुप्सितम् 
किमभिप्राय एतन्न: शंशयं छिन्धि सुव्रत ॥२८॥ 
शब्दार्थ:-आप्त-काम:—आत्मतुष्ट, पूर्णकाम; यदु-पति:—यदुकुल के स्वामी ने; कृतवान्—सम्पन्न किया है; वै—निश्चय ही; जुगुप्सितम्—निन्दनीय; किम्-अभिप्राय:—किस उद्देश्य से; एतत्—यह; न:—हमारा; शंशयम्—सन्देह; छिन्धि—काट दीजिये; सु-व्रत—हे  सुन्दर-व्रतधारी।.
अनुवाद:-हे श्रद्धावान व्रतधारी, कृपा करके हमें यह बतलाकर हमारा संशय दूर कीजिये कि पूर्णकाम यदुपति के मन में वह कौन सा अभिप्राय था जिससे उन्होंने इतने निन्दनीय ढंग से आचरण किया?
जो लोग प्रबुद्ध हैं उन्हें पता है कि ऐसे संदेह उन लोगों के मन तथा हृदय में उठेंगे जो भगवान् की दिव्य लीलाओं से परिचित नहीं हैं। इसलिए अनन्त काल से बड़े बड़े मुनि तथा परीक्षित महाराज जैसे प्रबुद्ध राजा आगे आने वाली पीढ़ी के लिए प्रामाणिक उत्तर देने के लिए ऐसे प्रश्न उठाते रहे हैं।

भागवत पुराण के निम्न श्लोक कृष्ण चरित्र का घोर पतन करने के निमित्त लिखे गये।
______________
नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।
जुष्टं तत्तरलानन्दिकुमुदामोदवायुना॥ ४५।
बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु-
नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै: ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणा-
मुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयां चकार ॥४६॥
शब्दार्थ:-नद्या:—नदी के; पुलिनम्—तट को ; आविश्य—प्रवेश करके; गोपीभि:—गोपियों के साथ; हिम—शीतल; वालुकम्—बालू को ; जुष्टम्—सेवा की; तत्—उसका; तरल—लहरों से; आनन्दि—आनन्दित बनाया; कुमुद—कमलों की; आमोद— सुगन्ध लिये हुए; वायुना—वायु के द्वारा; बाहु—अपनी भुजाओं का; प्रसार—फैलाना; परिरम्भ—आलिंगन कर ; कर—उनके हाथों के; अलक—बाल; ऊरु—जाँघें; नीवी—अंगवस्त्र का धागा ( नारा); स्तन—तथा स्तन; आलभन—स्पर्श से; नर्म—खेल में; नख—अँगुलियों के नाखूनों की; अग्र-पातै:—चिऊँटी से; क्ष्वेल्या—विनोद, खेलवाड़ से भरी बातचीत; अवलोक—चितवन; हसितै:—तथा हँसी से; व्रज-सुन्दरीणाम्—व्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्—उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्—कामदेव को; रमयाम् चकार—आनन्दित किया ।.
 
 व्रज-सुन्दरीणाम्—व्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्—उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्—कामदेव को; रमयाम् चकार—आनन्दित किया.
                   श्रीपरीक्षिदुवाच
संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च।
अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वर:॥२६।
स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता ।
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम् ॥२७।
 
शब्दार्थ:-श्री-परीक्षित् उवाच—श्री परीक्षित  ने कहा; संस्थापनाय—स्थापना करने के लिए; धर्मस्य—धर्म की; प्रशमाय—दमन करने के लिए; इतरस्य— दूसरे विरोधियों का; च—तथा; अवतीर्ण:— अवतरित हुए; हि—निस्सन्देह; भगवान्— भगवान्; अंशेन—अपने स्वांश  (बलराम) सहित; जगत्—सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के; ईश्वर:—स्वामी; स:—वह; कथम्—किस तरह; धर्म-सेतूनाम्—आचार संहिता के; वक्ता—आदि व्याख्याता; कर्ता—करने वाले; अभिरक्षिता—रक्षक; प्रतीपम्— विरुद्ध; आचरत्—आचरण किया; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण, शुकदेव गोस्वामी; पर—अन्यों की; दार—पत्नियों का; अभिमर्शनम्— स्पर्श को ।
 
अनुवाद:-परीक्षित  ने कहा, “हे ब्राह्मण, ब्रह्माण्ड के स्वामी पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अपने स्वांश सहित इस धरा में अधर्म का नाश करने तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने हेतु अवतरित हुए हैं। दरअसल वे आदि वक्ता तथा नैतिक नियमों के पालनकर्ता एवं संरक्षक हैं। तो भला वे अन्य पुरुषों की स्त्रियों का स्पर्श करके उन नियमों का अतिक्रमण कैसे कर सकते थे ?
 
आप्तकामो यदुपति: कृतवान्वै जुगुप्सितम् 
किमभिप्राय एतन्न: शंशयं छिन्धि सुव्रत ॥ २८ ॥ 
शब्दार्थ:-आप्त-काम:—आत्मतुष्ट, पूर्णकाम; यदु-पति:—यदुकुल के स्वामी ने; कृतवान्—सम्पन्न किया है; वै—निश्चय ही; जुगुप्सितम्—निन्दनीय; किम्-अभिप्राय:—किस उद्देश्य से; एतत्—यह; न:—हमारा; शंशयम्—सन्देह; छिन्धि—काट दीजिये; सु-व्रत—हे व्रतधारी।.
अनुवाद:-हे श्रद्धावान व्रतधारी, कृपा करके हमें यह बतलाकर हमारा संशय दूर कीजिये कि पूर्णकाम यदुपति के मन में वह कौन सा अभिप्राय था जिससे उन्होंने इतने निन्दनीय ढंग से आचरण किया?
जो लोग प्रबुद्ध हैं उन्हें पता है कि ऐसे संदेह उन लोगों के मन तथा हृदय में उठेंगे जो भगवान् की दिव्य लीलाओं से परिचित नहीं हैं। इसलिए अनन्त काल से बड़े बड़े मुनि तथा परीक्षित महाराज जैसे प्रबुद्ध राजा आगे आने वाली पीढ़ी के लिए प्रामाणिक उत्तर देने के लिए ऐसे प्रश्न उठाते रहे हैं।
______________
नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम् ।
जुष्टं तत्तरलानन्दिकुमुदामोदवायुना॥ ४५।
बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु-
नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातै: ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रजसुन्दरीणा-
मुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयां चकार ॥४६॥
शब्दार्थ
नद्या:—नदी के; पुलिनम्—तट पर; आविश्य—प्रवेश करके; गोपीभि:—गोपियों के साथ; हिम—शीतल; वालुकम्—बालू के द्वारा; जुष्टम्—सेवा की; तत्—उसका; तरल—लहरों से; आनन्दि—आनन्दित बनाया; कुमुद—कमलों की; आमोद— सुगन्ध लिये हुए; वायुना—वायु के द्वारा; बाहु—अपनी भुजाओं का; प्रसार—फैलाना; परिरम्भ—आलिंगन समेत; कर—उनके हाथों के; अलक—बाल; ऊरु—जाँघें; नीवी—नाभि; स्तन—तथा स्तन; आलभन—स्पर्श से; नर्म—खेल में; नख—अँगुलियों के नाखूनों की; अग्र-पातै:—चिऊँटी से; क्ष्वेल्या—विनोद, खेलवाड़ से भरी बातचीत; अवलोक—चितवन; हसितै:—तथा हँसी से; व्रज-सुन्दरीणाम्—व्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्—उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्—कामदेव को; रमयाम् चकार—आनन्द मनाया ।.
 
अनुवाद:-श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी की तरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी। वहाँ कृष्ण ने गोपियों को अपनी बाँहों में समेट लिया और उनका आलिंगन किया। उन्होंने लावण्यमयी व्रज-बालाओं के हाथ, बाल, जाँघें, नाभि एवं स्तन—तथा स्तन; आलभन—स्पर्श से; नर्म—खेल में; नख—अँगुलियों के नाखूनों की; अग्र-पातै:—चिऊँटी से; क्ष्वेल्या—विनोद, खेलवाड़ से भरी बातचीत; अवलोक—चितवन; हसितै:—तथा हँसी से; व्रज-सुन्दरीणाम्—व्रज की सुन्दरियों की; उत्तम्भयन्—उत्तेजित करते हुए; रति-पतिम्—कामदेव को; रमयाम् चकार—आनन्दित किया ।.
 
अनुवाद:-श्रीकृष्ण गोपियों समेत यमुना के किनारे गये जहाँ बालू ठंडी पड़ रही थी और नदी की तरंगों के स्पर्श से वायु में कमलों की महक थी। वहाँ कृष्ण ने गोपियों को अपनी बाँहों में समेट लिया और उनका आलिंगन किया। 
उन्होंने लावण्यमयी व्रज-बालाओं के हाथ, बाल, जाँघें, नाभि एवं स्तन छू छू कर तथा खेल खेल में अपने नाखूनों से चिकोटते हुए उनके साथ विनोद करते, उन्हें तिरछी नजर से देखते और उनके साथ हँसते हुए उनमें कामदेव जागृत कर दिया। इस तरह भगवान् ने अपनी लीलाओं का आनन्द लूटा

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