उदित उदयगिरि मंच पर, रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग ॥
शब्दार्थ-
[ उदयगिरि = उदयाचल पर्वत। बालपतंग = बाल सूर्य, प्रात:कालीन सूर्य। सरोज = कमल। लोचन = नेत्र। भृंग = भंवरे ]
"सन्दर्भ-★-प्रस्तुत काव्य-पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ के ‘धनुष-भंग’ कविता शीर्षक संग्रहीत हैं। यह अंश हमारी पाठ्य-पुस्तक में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बाल-काण्ड से संकलित है।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में धनुष-भंग के लिए बने हुए मंच पर रामचन्द्र जी के चढ़ने का वर्णन । रूपक अलंकार के माध्यम से किया गया है।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि उदयाचल पर्वत के रूप मे दृश्यमान हुए विशाल मंच पर श्रीरामचन्द्र जी के रूप में बाल सूर्य के उदित होते ही सभी सन्त रूपी कमल खिल उठे और उनके नेत्ररूपी भंवरे हर्षित हो उठे। आशय यह है कि श्रीराम के मंच पर चढ़ते ही सभा में उपस्थित सभी सज्जन पुरुष अत्यधिक प्रसन्न हो गये।
1.यहाँ पर मंच की विशालता और श्रीरामचन्द्र जी के सौन्दर्य का वर्णन रूपक अलंकार में किया गया है।
2.भाषा ( बोली)–अवधी।
3.शैली–प्रबन्ध और चित्रात्मक।
4.रस-अद्भुत।
5.छन्द-दोहा।।
6.अलंकार- रूपक और अनुप्रास अलंकार का सुन्दर प्रयोग।
7.गुण-माधुर्य।
8.भावसाम्य–कविवर बिहारी ने भी श्रीकृष्ण के सौन्दर्य का चित्रण करते हुए लिखा है-
उपर्युक्त पंक्तियों में उत्प्रेक्षा अलंकार है। उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में श्रीकृष्ण के सुन्दर श्याम शरीर में नीलमणि पर्वत की और उनके शरीर पर शोभायमान पीताम्बर में प्रभात( सुबह) की धूप की मनोरम सम्भावना अथवा कल्पना की गई है।
उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा है कि – जहां उपमेय में उपमान की संभावना अथवा कल्पना कर ली गई हो, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसके बोधक(वाचक) शब्द हैं– मनो, मानो, मनु, मनहु, जानो, जनु, जनहु, ज्यों आदि।
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मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥
"गुर पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु माँगा॥
सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी ॥
चलत राम सब पुर नर नारी । पुलक पूरि तन भए सुखारी ॥
बंदि पितर- सुर सुकृत सँभारे ।जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे ॥
तौं सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं ॥
शब्दार्थ ----
[ निसि = रात्रि। नखत = नक्षत्र, तारों का समूह। अवली = पंक्ति, । केरि = का,की के सम्बन्ध कारक सूचक शब्द । मानी = अभिमानी।.
लुकाने = छिपना। कोक = चकवा । सन = प्रत्यय [सं० सुन्तो या सङ्ग] अवधी में करणकारक का चिह्न। से/ साथ। सन= लाभ। प्राप्ति (को०
आयसु – आज्ञा। प्रभु अनुराग माँगि आयसु पुरजन सब काज सँवारे ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३५९।
बर = श्रेष्ठ। कुंजर = हाथी। पुलक = रोमांच। पितर = पूर्वज। मृनाल = कमल की नाल।]
प्रसंग—प्रस्तुत पद्य में सभा में उपस्थित कतिपय राजाओं की स्थिति, राम की ओजस्विता तथा सम्पूर्ण नगरवासियों की मनोवृत्ति का स्वाभाविक। वर्णन किया गया है।
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी के मंच पर चढ़ते ही सभा में उपस्थित अन्य राजाओं (की) आशारूपी रात्रि नष्ट हो गयी और उनके वचनरूपी तारों के समूह( नक्षत्र) का चमकना बन्द हो गया, अर्थात् वे अब मौन हो गये।
अभिमानी राजारूपी कुमुद संकुचित (सिकुड़ते हुए ) हो गये और कपटी राजारूपी उल्लू सूर्य को देखकर छिप गये।
मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित अर्थात् प्रसन्न हो गये।
वे फूलों की वर्षा करके अपनी सेवा-अनुग्रह प्रकट करने लगे।
इसके पश्चात् श्रीरामचन्द्र जी ने अत्यधिक स्नेह के साथ अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की वन्दना करने के बाद वहाँ उपस्थित अन्य मुनियों (से) भी आज्ञा माँगी।
पुनः गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि समस्त जगत के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी सुन्दर, मतवाले और श्रेष्ठ हाथी की चाल से चले जो कि उनकी स्वाभाविक चाल थी।
श्रीरामचन्द्र जी के चलते ही सभा में उपस्थित नगर के सभी स्त्री-पुरुष प्रसन्न हो गये और उनके शरीर रोमांच से पुलकित हो गये।
समस्त स्त्री-पुरुषों ने अपने पूर्वजों (पितरों) की वन्दना की और अपने पुण्य कर्मों का स्मरण करते हुए कहा कि हे गणेश जी !
यदि हमारे किये हुए पुण्य कर्मों का किंचित् भी फल मिलता हो तो श्रीरामचन्द्र जी शिवजी के इस प्रचण्ड धनुष को कमल की नाल (दण्ड) के समान तोड़ डालें।
आशय यह है कि सभा में उपस्थित कुटिल और अभिमानी राजाओं के अतिरिक्त सभी व्यक्ति यह चाहते थे कि श्रीराम इस धनुष को तोड़ दें।
1.प्रस्तुत पद्यांश में इस बात का स्पष्ट वर्णन किया गया है कि नगर के समस्त नर-नारी चाहते थे कि सीता को वर रूप में राम ही प्राप्त हों।
2.भाषा-अवधी।
3.शैली–प्रबन्ध और वर्णनात्मक।
4.रस-भक्ति।
5.छन्द–दोहा।
6.अलंकार-रूपक और अनुप्रास अलंकार का मनमोहक प्रयोग।
7.गुण–प्रसाद।
8.शब्दशक्ति-अभिधा और व्यंजना।
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उल्लू एक ऐसा पक्षी है जिसे दिन कि अपेक्षा रात में अधिक स्पष्ट दिखाई देता है।
ये अपनी गर्दन पुरी घुमा सकता है । इसके कान बेहद संवेदनशील होते हैं।
कपटी राजाओं को उल्लू रूप में वर्णन किया गया है।
रात में जब इसका कोई शिकार (जानवर) थोड़ी सी भी हरकत करता है तो इसे पता चल जाता है और यह उसे दबोच लेता हैl
इसके पैरों में टेढ़े नाखूनों-वाली चार-चार अंगुलियां होती हैं जिससे इसे शिकार को दबोचने में विशेष सुविधा मिलती हैl
चूहे इसका विशेष भोजन हैंl
उल्लू लगभग संसार के सभी भागों में पाया जाता हैl
जिन पक्षियों को रात में अधिक दिखाई देता है, उन्हें रात का पक्षी (Nocturnal Birds) कहते हैं।
हालांकि ऐसा जरूरी नहीं है पर ऐसा विश्वास है। यह विश्वास इस कारण है, क्योंकि कुछ देशों में प्रचलित पौराणिक कहानियों में उल्लू को बुद्धिमान माना गया है। प्राचीन यूनानियों में बुद्धि की देवी, एथेन के बारे में कहा जाता है कि वह उल्लू का रूप धारकर पृथ्वी पर आई हैं।
भारतीय पौराणिक कहानियों में भी यह उल्लेख मिलता है कि उल्लू धन की देवी लक्ष्मी का वाहन है और इसलिए वह मूर्ख नहीं हो सकता है। हिन्दू संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है।
उल्लू दिन में देख तो लेता है परन्तु यह दिन की अपेक्षा रात में सही देखता है, इसका कारण है उल्लू की आँखेंं, जो उसके शरीर का 5% होती हैंं, मतलब बहुत बड़ी होती है।
आँखों में (rodes) और (cones) होते हैं, जिसमें रॉड्स जो हमारे देखने की क्षमता को रखता है यह रात में देखने में सहायक होता है तथा कॉन्स जो रंग पहचानते हैं यह दिन में देखने में सहायक होते हैं। उल्लू की आँखों में रॉड्स अधिक होते हैं तथा कॉन्स कम होते हैं, जिससे यह रंगों को समझ नहीं पाता।
आँखें बड़ी होने के कारण यह( light) को अधिक (capture) कर पाता है, और ज्यादा प्रकाश से इसकी आँखों में चकाचौंध हो जाता हैं, इसलिए यह दिन में कम निकलता है।
उल्लू के आँखों की पुतलियाँ भी हमारी आँखों की अपेक्षा बड़ी होती हैं, जो रात में कम से कम प्रकाश को भी पर्दे तक पहुँचा देती है, जिससे पर्दे पर साफ और बड़ा प्रतिबिम्ब बनता है और उल्लू रात में भी देख पाता है।
उल्लू दिन में देख तो सकता है, पर आँखें बड़ी होने के कारण और light के अधिक capture के कारण इसकी आँखें चौंधिया जाती हैं, इसलिए इसे दिन में (अधिक प्रकाश में) देखने में कठिनाई होती है। अत: सूर्य के समक्ष उल्लू छिप जाता है ।
जैसे राम को देखकर उल्लू रूपी राजा जो घमण्डी थे छिप गये।
- ↑ Willott J.F. (2001) Handbook of Mouse Auditory Research CRC Press ISBN 1420038737.
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रामहि प्रेम समेत लखि, सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस, बचन कहइ बिलखाइ ।
[ लखि = देखकर। बस = वशीभूत होकर। बिलखाइ = विलाप करते हुए!]
प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में सीताजी की माता का श्रीरामचन्द्र जी के प्रनि अन्दिय स्नेह व्यक्त हुआ है।
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मंच पर उपस्थित हुए श्रीरामचन्द्र जी को अत्यधिक वात्सल्य भाव के साथ देखकर जनकनन्दिनी सीताजी की माता (सुननया) ने अपनी सभी सखियों-सहेलियों को अपने समीप बुला लिया और स्नेहवश विलाप करते हुए के सदृश उनसे कहने लगीं।
1.प्रस्तुत पद्य में सीताजी की माता का राम के प्रति वात्सल्य भाव का वर्णन हुआ है।
2.भाषा-अवधी
3.शैली–प्रबन्ध।
4.रसवात्सल्य।
5.छन्द-दोहा।
6.अलंकार– अनुप्रास।
7.गुण–प्रसाद।।
सखि सब कौतुकु देखनिहारे । जेउ कहावत हितू हमारे ॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं।ए बालक असि हठभलिनाहीं॥
रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा ॥
सो धनु राजकुर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं
भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी ॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवंत लघु गनिअ न रानी ॥
कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा। उदय तासु तिभुवन तम भागा
[ कौतुकु = तमाशा। हितू = हित की चिन्ता करने वाले। गुर = गुरु। भलि = अच्छा। चापा = धनुष। दापा = घमण्ड। कर = हाथ। मराल = हंस। मंदर = मन्दराचल पर्वत। सिरानी = समाप्त हो जाना ठण्डा पड़ना। बिधि = भाग्य। तेजवंत = तेज से युक्त। कुंभज = कुम्भ से उत्पन्न, अगस्त्य ऋषि। सुजसु = सुयश। ]
प्रसंग-प्रस्तुत पद्य में सीताजी की माता का राम के प्रति चिन्ता तथा उनकी सखी के द्वारा उन्हें समझाये जाने का वर्णन किया गया है। |
व्याख्या–गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता अपनी सखी से कह रही हैं कि हे सखी! ये जो हमारे हित की चिन्ता करने वाले लोग हैं, वे सब भी तमाशा ही देखने वाले हैं। कोई भी इनके गुरु (विश्वामित्र) को समझाकर यह नहीं कहता है कि ये श्रीराम बालक हैं और इनके लिए ऐसा हठ करना उचित नहीं है।
रावण और बाण जैसे असुरों ने भी जिस धनुष को छुआ तक नहीं और यहाँ उपस्थित सभी राजा घमण्ड करके पराजित हो गये, वही धनुष इस सुकुमार रामचन्द्र के हाथ में दे रहे हैं।
कोई इन्हें यह क्यों नहीं समझाता कि हंस के बच्चे भी कहीं मन्दराचल पर्वत को उठा सकते हैं ! आशय यह है कि महादेव के जिस धनुष को रावण और बाण जैसे जगद्विजयी वीरों ने छुआ तक नहीं और दूर से ही प्रणाम करके चल दिये, उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र का श्रीराम को आज्ञा देना और उनका उसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ना उनका बालक का-हठ जान पड़ा।
इसीलिए वे कहती हैं कि गुरु विश्वामित्र को कोई समझाता क्यों नहीं है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी की माता कहती हैं कि दूसरों की क्या कही जाये, राजा जनक तो स्वयं बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु विश्वामित्र को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उनका भी समस्त ज्ञान और सयानापन समाप्त हो गया है।
हे सखी ! क्या करूँ।, विधाता (ब्रह्मा) की गति; अर्थात् वे क्या चाहते हैं; कुछ समझ में नहीं आ रही है।
इतना कहकर जब वे चुप हो जाती हैं।
तब उनकी एक चतुर; अर्थात् श्रीरामचन्द्र जी के महत्त्व को जानने वाली; सखी कोमल वाणी में उनसे कहती है कि “हे रानी !
देखने में छोटा होने पर भी तेज से युक्त मनुष्य को छोटा नहीं मानना चाहिए।
कहाँ कुम्भज अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने वाले छोटे से मुनि अगस्त्य और कहाँ विशाल समुद्र।
लेकिन उन्होंने उस समुद्र को पी लिया था।
इस कारण से उनका सुयश सम्पूर्ण संसार में छाया हुआ है। पुनः सूर्यमण्डल भी देखने में कितना छोटा लगता है, लेकिन उसके उदय होते ही तीनों लोकों (भूलोक, भुव और स्वर्ग लोक) का अन्धकार भाग जाता है।
1. किसी को आकार में या आयु में छोटा जानकर उसकी योग्यता और शक्ति पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिए, इसकी कवि ने सीता की माता की सहेली के द्वारा तर्कयुक्त अभिव्यक्ति की है।
2.भाषा-अवधी
3.शैली-प्रबन्ध और विवेचनात्मक।
4.रस-वात्सल्य।
5.छन्द-चौपाई।
6.अलंकार-अनुप्रास।
7.गुण–प्रसाद।।
मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब ।
महामत्त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।।
[ बस = वशीभूत। बिधि = ब्रह्मा। हरि = विष्णु। हर = शंकर। सुर = देवता। अंकुस = अंकुश। खर्ब = छोटा।]
प्रसंग—प्रस्तुत पद्य में मन्त्र और अंकुश के द्वारा सभी देवताओं और हाथी को नियन्त्रित किये जाने का वर्णन है। |
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि धनुष-भंग के समय जब सीताजी की माता श्रीराम को छोटा समझकर, धनुष तोड़ने में असमर्थ मानकर अपनी सखी से शंका प्रकट करती हैं, तब उनकी सखी विभिन्न उदाहरणों के द्वारा उनको समझाती हुई कहती हैं कि, “जिस मन्त्र के वश में सभी देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि भी रहने को विवश होते हैं, वह मन्त्र भी अत्यधिक छोटा ही होता है।”
अत्यधिक विशाल और मदमत्त गजराज को भी महावत छोटे से अंकुश के द्वारा अपने वश में कर लेता है। |
1.भाषा-अवधी।
2.शैली–प्रबन्ध और उद्धरण।
3.छन्द-दोहा।
4.अलंकार-अनुप्रास'व दृष्टान्त।
5.शब्द-शक्ति-अभिधा और लक्षणा।।
काम कुसुम धनु सायक लीन्हे । सकल भुवन अपने बस कीन्हे ॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भंजब धनुषु राम सुनु रानी ॥
सखी बचन सुनि भै परतीती । मिटा बिषादु बढी अति प्रीती ॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही । सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही ॥
मनहीं मन मनाव अकुलानी । होहु प्रसन्न महेस भवानी ॥
करहु सफल आपनि सेवकाई । करि हितु हरहु चाप गरुआई ॥
गननायक बरदायक देवा । आजु लगें कीन्हिउँ तुझे सेवा ॥
बार बार बिनती सुनि मोरी । करहु चाप गुरुता अति थोरी ॥
[ कुसुम = पुष्प। चाप = धनुष।सायक = बाण। संसउ = संशय। भंजब = भंग करेंगे/तोड़ेंगे। विषादु = उदासी । बिलोकि = देखकर। जेहि तेही = जिस किसी की। अकुलानी = व्याकुल होकर। सेवकाई = सेवा। हरहु = हरण कर लीजिए। गरुआई = गुरुता, भारीपन।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीताजी की माताजी का राम की क्षमता के सम्बन्ध में विश्वास और सीता द्वारा विभिन्न देवताओं की प्रार्थना किये जाने का वर्णन किया गया है। |
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि पुनः सीताजी की माताजी की सहेली उनको समझाती हुई कहती है कि कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वशीभूत कर रखा है।
इस बात को अच्छी तरह से समझकर आप अपने सन्देह का त्याग कर दीजिए। हे रानी !
आप सुनिए, श्रीरामचन्द्र जी धनुष को अवश्य ही तोड़ देंगे।
सखी के मुख से इस प्रकार के सान्त्वनादायक वचनों को सुनकर जनक-भामिनी को श्रीरामचन्द्र जी की सामर्थ्य के सम्बन्ध में विश्वास हो गया, उनकी उदासी समाप्त हो गयी और श्रीराम के प्रति उनके मन में स्नेह और भी अधिक बढ़ गया।
इसी समय श्रीरामजी को देखकर; अर्थात् उनके सुकोमल बाह्य व्यक्तित्व का अवलोकन कर; सीताजी जो भी देवता उनके ध्यान में आया, उससे रामजी की सहायता हेतु विनती करने लगीं।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जनकनन्दिनी सीताजी व्याकुल-चित्त
होकर मन-ही-मन में प्रार्थना कर रही हैं कि
“हे भगवान् शंकर ! हे माता पार्वती !
मुझ पर प्रसन्न हो जाइए और मैंने आपकी जो कुछ भी सेवा-आराधना की है उसका सुफल प्रदान करते हुए और मुझ पर कृपा करके धनुष की गुरुता अर्थात् भारीपन को बहुत ही कम कर दीजिए।”
पुन: गणेश जी की प्रार्थना करती हुई कहती हैं कि “हे गणों के नायक और मन-वांछित वर देने वाले गणेश जी !
मैंने आज ही के दिन के लिए; अर्थात् श्रीराम जैसे पुरुष को पति-रूप में प्राप्त करने की इच्छा से; आपकी पूजा-अर्चना की थी।
आप बार-बार की जा रही मेरी विनती को सुनिए और धनुष के भारीपन को बहुत ही कम कर दीजिए।
1.मनवांछित प्राप्ति के लिए विभिन्न देवताओं की प्रार्थना करने की भारतीय परम्परा को स्पष्ट किया गया है।
2.भाषा-अवधी।
3.शैली-प्रबन्ध और वर्णनात्मक।
4.रस-भक्ति।
5.छन्द-चौपाई।
6.अलंकार-अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश।
7.गुण–प्रसाद।
8.शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा।
देखि देखि रघुबीर तन, सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली सरीर ॥
[रघुबीर = रामचन्द्र। सुर = देवता। धीर = धैर्य। बिलोचन = नेत्र। पुलकावली = प्रेम और हर्ष से उत्पन्न रोमांच।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीताजी की श्रीराम के प्रति प्रेमानुरक्ति का वर्णन हुआ है।
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी बार-बार श्रीरामचन्द्र जी की ओर देख रही हैं और धैर्य धारण करके देवताओं को मनोवांछित वर प्रदान करने के लिए मनाती जा रही हैं; अर्थात् अनुनय-विनय कर रही हैं। उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू भरे हुए हैं और शरीर में रोमांच हो रहा है।
1.सीताजी का श्रीराम के प्रति प्रेम का सजीव चित्रण हुआ है।
2.भाषाअवधी।
3.शैली–प्रबन्ध और वर्णनात्मक।.
4.रस-श्रृंगार।
5.छन्द-दोहा
6.अलंकारपुनरुक्तिप्रकाश, रूपक और अनुप्रास।
7.गुण-माधुर्य।।
नीके निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा ॥१
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी ॥२
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई ॥३
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा । कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा ।।४
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा ॥५
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥६
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी । होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥७
अति परिताप सीय मन माहीं । लव निमेष जुग सय सम जाहीं।।८
[ नीके = अच्छी तरह। निरखि = देखकर। प्रन := प्रण। छोभा = क्षोभ, दु:ख। दारुनि = कठोर। कुलिसहु = हीरे के समान। उर = हृदय। सिरस = शिरीष। भोरी = भ्रम में पड़ना। जड़ता = कठोरता, मूर्खता। परिताप = सन्ताप, दु:ख। निमेष = पलक झपकने में लगने वाला समय।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में श्रीराम के प्रति सीताजी की अनुरक्ति का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया गया है।
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी की शोभा-सौन्दर्य को जी भरकर देख लेने के पश्चात् और पिताश्री के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन दु:खी हो जाता है। वे मन-ही मन विचार करने लगती हैं; अर्थात् स्वयं से ही कहने लगती हैं कि “ओह !
पिताजी ने बहुत ही कठोर हठ ठान ली है और वे इसको कुछ भी लाभ-हानि समझ नहीं पा रहे हैं। भयभीत होने के कारण (राजपद से) कोई भी मन्त्री उन्हें उचित सलाह नहीं दे रहा है।
वस्तुतः विद्वानों की सभा में यह बड़ा ही अनुचित कार्य हो रहा है।
यह धनुष तो वज्र से भी अधिक कठोर है, जिसके समक्ष ये कोमल शरीर वाले श्याम वर्ण किशोर की क्या तुलना; अर्थात् कोई समानता ही नहीं है। | गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि, जनकनन्दिनी सीताजी ब्रह्मा से कहती हैं कि “भाग्य को लिखने वाले हे विधाता !
मैं अपने हृदय में किस तरह से धैर्य धारण करू, अर्थात् मैं धैर्य भी धारण नहीं कर सकती, क्योंकि सारी सभा की बुद्धि ही फिर गयी है।
वे यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कहीं शिरीष के फूल के कण से हीरे को छेदा जा सकता है। अत: सब ओर से निराश होकर हे शिवजी के धनुष !
अब मुझे केवल तुम्हारा ही सहारा है।
अब तुम अपनी कठोरता लोगों पर डाल दो और श्रीरामचन्द्र जी के सुकुमार शरीर को देखकर उतने ही हल्के हो जाओ।
इस प्रकार विचार करते-करते सीताजी के मन में इतना सन्ताप हो रहा है कि पलक झपकने में लगने वाले समय (निमेष) का एक अंश भी सौ युगों (समये-मापन का अत्यधिक दीर्घ परिमाण) के समान व्यतीत हो रहा है।
1.राम के शरीर की कोमलता का अनुभव कर ईश्वर से उन पर अनुग्रह करने की प्रार्थना की गयी है।
2.भाषा-अवधी
3.शैली–प्रबन्ध।
4.रस-शृंगार और भक्ति।
5.छन्द– दोहा।
6.अलंकार-अनुप्रास और उपमा।
7.गुण–माधुर्य और प्रसाद।।
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि, राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग, जनु बिधु मंडल डोल
[ चितइ व चितव = देखकर। महि = पृथ्वी। राजत = सुशोभित। लोचन = नेत्र। मनसिज = कामदेव। मीन = मछली। बिधु = चन्द्रमा। ]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीता जी के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी सीता जी की वाणी की असमर्थता को व्यक्त करते हुए आलंकारिक रूप में कह रहे हैं कि( पहले प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की ओर देखकर और तत्पश्चात् लज्जा से पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चंचल नेत्र इस प्रकार सुशोभित हो रहे हैं मानो चन्द्रमण्डल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ क्रीड़ा कर रही हों।-
1.नेत्रों की चंचलता की तुलना मछलियों से की गयी है।
2.भाषा-अवधी।
3.शैली-प्रबन्ध और वर्णनात्मक।
4. संयोग श्रृँगार रस ।
5.छन्द- दोहा
6.अलंकार-उत्प्रेक्षा और अनुप्रसि।
7.गुण-माधुर्य।.
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी ॥९।
लोचन जल रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना ॥१०।
सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रीतिति उर आनी ॥११।
तन मन बचन मोर पनु साचा । रघुपति पद सरोज चितु राचा ॥१२।
तौ भगवानु सकल उर बासी । करिहि मोहि रघुबर कै दासी ॥१३
जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू । सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू ॥१४
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सब जाना॥१५।
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसे । चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसे ॥ १६
[ गिरा = वाणी। अलिनि = भ्रमर का स्त्रीलिंग। कृपन = कंजूस। साचा = सच्चा। राचा = अनुरक्त। तकेउ = देखकर। गरुरु = गरुड़ पक्षी। ब्यालहिं = सर्प।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीताजी की राम के प्रति प्रगाढ़ प्रेमानुरक्ति का अत्यधिक सजीव वर्णन किया गया है। |
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी सीताजी की वाणी की असमर्थता को व्यक्त करते हुए आलंकारिक रूप में कह रहे हैं कि सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। आशय यह है कि उनके मुख से आवाज ही नहीं निकल पा रही है।
लज्जा रूपी रात्रि को सम्मुख देखकर भी वह प्रकट नहीं हो पा रही है।
नेत्रों का जल नेत्रों के कोने में उसी प्रकार रुक गया है जैसे अत्यधिक कंजूस का गड़ा हुआ सोना गड़ा ही रह जाता है।
आशय यह है कि सीता जी अपनी असमर्थता को आँसुओं के द्वारा प्रकट करने में भी अक्षम हैं। अपनी इस बढ़ी हुई व्याकुलता को समझकर सीताजी प्रीतिपूर्वक संकोच करने लगीं।
तत्पश्चात् उन्होंने हृदय में धैर्य धारण करके मन में विश्वास किया कि यदि तन, मन और वन से मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरामचन्द्र जी के चरण-कमलों में मेरा हृदय वास्तव में अनुरक्त है तो सभी के हृदय में निवास करने वाले ईश्वर मुझे उन रघुकुल श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी की दासी अवश्य ही बनाएँगे; क्योंकि जिस किसी पर भी जिस किसी का सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की ओर देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा अपने प्रेम का निश्चय कर लिया; अर्थात् इस बात का निश्चय कर लिया कि अब यह शरीर या तो इन्हीं (श्रीराम) का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं। उनके इस निश्चय को कृपानिधान श्रीरामचन्द्र जी तुरन्त जान गये।
इसके पश्चात् उन्होंने सीताजी की ओर देखकर धनुष की ओर इस प्रकार देखा जैसे गरुड़ छोटे से सर्प की ओर देखता है। |
1.राम के प्रति सीता की अनुरक्ति का आलंकारिक वर्णन है।
2.भाषाअवधी
3.शैली–प्रबन्ध और चित्रात्मक।
4.रस-शृंगार व भक्ति।
5.छन्द-दोहा।
6.अलंकार-सर्वत्र अनुप्रास, रूपक व उपमा का मंजुल प्रयोग।
7.गुण-माधुर्य और प्रसाद।
8.शब्द-शक्ति-अभिधा और लक्षणा।।
लखन लखेउ रघुबंसमनि, ताकेउ हर कोदंडु। पुलकि गात बोले बचन, चरने चापि ब्रह्मांडु॥]
[ लखेउ = देखा। ताकेउ = देखा। कोदंडु = धनुष।रघुबंसमनि= रघुवंश की मणि राम।
गात = शरीर। चरन = चरण, पैर। चापि = दबाकर। ब्रह्मांडु = ब्रह्माण्ड।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में लक्ष्मण का श्रीराम के प्रति स्नेह और उनकी स्वयं की बलवत्ता का वर्णन किया गया है। |
व्याख्या–गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जब लक्ष्मण जी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्र जी ने शिवजी के धनुष की ओर देखा है। तो उनका शरीर अत्यधिक पुलकित हो उठा और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने दोनों चरणों से दबाकर वे इस प्रकार बोले।
1.लक्ष्मण की सामर्थ्य का वर्णन किया गया है।
2.भाषा-अवधी।
3.शैली-प्रबन्ध।
4.रस-वीर।
5.छन्द-दोहा।
6.अलंकार-अनुप्रास का मोहक प्रयोग और अतिशयोक्ति।
7.गुण-ओज।।
दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला ॥१७
राम चहहिं संकर धनु तोरा । होहु सजग सुनि आयसु मोरा ॥१८
चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥१९
सब कर संसउ अरु अग्यानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू ॥२०
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ॥२१
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिह कर दारुन दुख दावा ॥२२
संभुचाप बड़ बोहितु पाई। चढे जाइ सब संगु बनाई ॥२३
राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥२४
[ दिसिकुंजरहु = दिशाओं के रक्षक हाथी। कमठ = कच्छप। अहि = सर्प यहाँ शेषनाग। कोला = वाराह, सूअर। सजग = सचेत। आयसु = आदेश। चाप = धनुष। सुकृत = पुण्य कर्म। भृगुपति = परशुराम। कदराई = कायरता। कड़हारू = केवट।].
कडिहार- [सं० कर्णधार, प्रा० कण्हार] कर्णधार ।केवट । पार लगानेवाला । उ०—(क) कौन नाम हँसन कहै, कौन देउँ कडिहार । कौन नाम नारिन कहँ, जाते होई उवार ।—कबीर श०, पृ० ४५४ ।
बोहित=संज्ञा पुं० [सं० बहित्रम् प्रा० बोहित्थ] नाव। जहाज। पोत उ०—(क) बोहित भरी चला लै रानी। दान माँग सत देखी दानी।—जायसी (शब्द०)। (ख) बंदी चारिउ बेद भव बारिघि बोहित सरिस।—तुलसी (शब्द०)।
प्रसंग-प्रस्तुत पद में लक्ष्मण की सामर्थ्य और राम के ईश्वरत्व गुणों से युक्त होने का वर्णन किया गया है। |
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कह रहे हैं कि लक्ष्मण जी ने कहा-हे दिग्गजो !
हे कच्छप ! हे शेषनाग ! हे वाराह ! धैर्य धारण करके इस पृथ्वी को इस प्रकार पकड़े रखो, जिससे यह हिलने न पाये। श्रीरामचन्द्र जी शंकर जी के धनुष को तोड़ना चाहते हैं, इसलिए आप सभी लोग मेरी इस आज्ञा को सुनकर सावधान हो जाइए। श्रीरामचन्द्र जी जब शंकर जी के धनुष के समीप आये तब सभी उपस्थित स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और अपने पुण्यों को मनाया; अर्थात् उनका स्मरण किया। सभी का सन्देह और अज्ञान, मामूली ।
अर्थात् तुच्छ राजाओं का अभिमान, परशुराम के गर्व की गुरुता, देवताओं और श्रेष्ठ मुनियों का भय( कातरता), सीता जी का विचार, जनक का पश्चात्ताप और समस्त रानियों के दारुण दु:ख का दावानल; ये सभी शिवजी के धनुष रूपी बड़े जहाज को प्राप्त करके समूह बनाकर उसके ऊपर चढ़कर और श्रीरामचन्द्र जी की भुजाओं के बल रूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं, लेकिन उनके साथ कोई नाविक नहीं है। |
1.राम-लक्ष्मण देवत्व के गुणों से युक्त थे, इसका आभास कराया गया है।
2.भाषा-अवधी।
3.शैली–प्रबन्ध।
4.रस-वीर और शान्त।
5.छन्द-चौपाई।
6.अलंकारअनुप्रास।
7.शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा।
8.गुण-ओज और प्रसाद।.
राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि।।
चितई सीय कृपायतन, जानी बिकल बिसेषि
[ बिलोके = देखे। चित्र लिखे = चित्र के समान, मूर्तिवत्। सीय = सीता। बिकल= व्याकुल। बिसेषि = विशेष।]
प्रसंग–प्रस्तुत पद में समस्त सभा के साथ-साथ सीताजी की स्थिति का वर्णन किया गया है।
व्याख्या-गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने सभा में उपस्थित सभी लोगों की ओर देखा। ये सभी लोग उन्हें चित्र में लिखे हुए के समान अर्थात् मूर्तिवत दिखाई पड़े। इसके पश्चात् कृपानिधान श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी की ओर देखा और उनको इन सबसे अधिक अर्थात् विशेष रूप से व्याकुल अनुभव किया।
काव्यगत सौन्दर्य-
1.भाषा-अवधी।
2.शैली–प्रबन्ध व चित्रात्मक।
3.रस—शान्त और श्रृंगार।
4.छन्द-दोहा।
5.अलंकार-उपमा' रूपक और अनुप्रास।
6.शब्दशक्ति–अभिधा और लक्षणा।
7.गुण–प्रसाद और माधुर्य।
देखी बिपुल बिकल बैदेही । निमिष बिहात कलप सम तेही ॥
तृषित बारि बिन जो तनु त्यागा। मुएँ करइ को सुधा तड़ागा ॥
का बरषा जब कृषी सुखाने ।
समय चुके पुनि का पछिताने ॥
असे जियें जानि जानकी देखी ।
प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी ।।
गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा।
अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ ।
लेत चढ़ावत बँचत गाढे।
काहुँ न लखा देख सबु ठाढे ॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा।
भरे भुवन धुनि घोर कठोरा ॥
[ निमिष = पलक झपकने का समय। तृषित = प्यासा। तड़ागा = तालाब। जिय = हृदय में। लखि = देखकर। लाघव = शीघ्रता से। दामिनि = बिजली। ठाढ़े = खड़े हुए। भुवन = संसार। धुनि = ध्वनि।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीता जी का राम के प्रति प्रेम और शिव-धनुष के टूटने का वर्णन किया गया है।
व्याख्या—गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी को बहुत ही व्याकुल देखा। उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक-एक क्षण एक-एक कल्प के समान व्यतीत हो रहा था।( यदि प्यासा व्यक्ति पानी न मिलने पर अपना शरीर छोड़ दे, तो उसके चले जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा, सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की, समय के बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ। आशय यह है कि समय के व्यतीत होने पर सब कुछ व्यर्थ हो जाता है।
अपने हृदय में ऐसा विचार करके श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी की ओर देखा और उनका अपने प्रति विशेष प्रेम देखकर वे हर्ष से विह्वल हो उठे। मन-ही-मन उन्होंने गुरु विश्वामित्र को प्रणाम किया और अत्यधिक स्फूर्ति के साथ धनुष को उठा लिया। जैसे ही उन्होंने धनुष को अपने हाथ में उठाया, वह उनके हाथ में बिजली की तरह चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी श्रीरामचन्द्र जी को धनुष उठाते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए नहीं देखा; अर्थात् ये तीनों ही काम इतनी शीघ्रता से हुए कि इसका किसी को पता ही नहीं लगा। सभी ने श्रीरामचन्द्र जी को मात्र खड़े देखा और उसी क्षण उन्होंने धनुष को बीच से तोड़ डाला। धनुष के टूटने की ध्वनि इतनी भयंकर हुई कि वह तीनों लोकों में व्याप्त हो गयी। |
1.राम-सीता के पारस्परिक प्रेम की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है।
2.भाषा-अवधी।
3.शैली–प्रबन्ध और सूक्तिपरक।
4.रस-शृंगार और अद्भुत।
5.छन्द-दोहा।
6.अलंकार-अनुप्रास और उत्प्रेक्षा।
7.गुण-माधुर्य।
8.शब्दशक्ति–अभिधा और लक्षणा।
भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
[ रव = ध्वनि। बाजि = घोड़ा। महि = पृथ्वी। अहि = शेषनाग, सर्प। कोल = वाराह। कूरुम = कच्छप। कोदंड = धनुष। खंडेउ = तोड़ दिया।]
्
प्रसंग-प्रस्तुत पदे में तुलसीदास जी ने धनुष टूटने के बाद उत्पन्न हुई स्थिति का अत्यधिक आलंकारिक वर्णन किया है। |
व्याख्या—गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि धनुष टूटने का घोर-कठोर शब्द त्रैलोक्य में व्याप्त हो गया जिससे सूर्य के घोड़े अपना नियत मार्ग छोड़कर चलने लगे, आठों दिशाओं में स्थित आठ दिग्गज अर्थात् दिशाओं की रक्षा करने वाले आठ हाथी चिंघाड़ने लगे, सम्पूर्ण पृथ्वी डोलने लगी; शेषनाग, वाराह और कछुआ भी बेचैन हो उठे; देवता, राक्षसगण और मुनिजन कानों पर हाथ रखकर (जिससे कि ध्वनि सुनाई न पड़े) व्याकुल होकर विचार करने लगे कि यह क्या हो रहा हैै ? अन्तत: जब सभी को इस बात का निश्चय हो गया कि श्रीरामचन्द्र जी ने शंकर जी के धनुष को तोड़ दिया है तब सब उनकी जय-जयकार करने लगे।
1.धनुष टूटने के बाद की स्थिति का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है।
2.भाषा-अवधी
3.शैली–प्रबन्ध व चित्रात्मक।
4.रसे-अद्भुत।
5.छन्द-सवैया।
6.अलंकार-अनुप्रास और अतिशयोक्ति।
7.गुण-ओज।
8.शब्दशक्ति-अभिधा और लक्षणा।।
प्रश्न 1.
पुर ते निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दये मर्ग में डग है ।
झलक भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गये मधुराधर वै ॥
फिरि बूझति हैं-”चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित है?”
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखिया अति चारु चलीं जल च्वै॥
उतर
[ पुर = शृंगवेरपुर। रघुबीर-बधू = सीता जी। धरि धीर = धैर्य धारण करके। मग = रास्ता। द्वै = दोनों। मधुराधर = सुन्दर होंठ। केतिक = कितना। पर्णकुटी = पत्तों से निर्मित झोंपड़ी। तिय = पत्नी। चारु = सुन्दर। च्वै = चूने लगा। ]
सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘कवितावली’ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘वन-पथ पर’ शीर्षक कविता से अवतरित है।
[ विशेष—इस शीर्षक के शेष सभी पद्यांशों के लिए भी यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग-कवि ने इन पंक्तियों में अयोध्या से पैदल ही वन को जाती हुई सीताजी की थकावट का मार्मिक वर्णन किया है।
व्याख्या-राम, लक्ष्मण और सीता बड़े धीरज के साथ श्रृंगवेरपुर से आगे दो कदम ही चले थे कि सीताजी के माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगीं और उनके सुन्दर होंठ थकान के कारण सूख गये। तब सीताजी ने अपने प्रियतम राम से पूछा–अभी हमें कितनी दूर और चलना पड़ेगा? कितनी दूरी पर पत्तों की कुटिया बनाकर रहेंगे? अन्तर्यामी श्रीराम, सीताजी की व्याकुलता का कारण तुरन्त समझ गये कि वे बहुत थक चुकी हैं और विश्राम करना चाहती हैं। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर श्रीराम के सुन्दर नेत्रों से आँसू टपकने लगे।
काव्यगत सौन्दर्य-
1.प्रस्तुत पद में सीताजी की सुकुमारता का मार्मिक वर्णन किया गया है।
2.ता के प्रति राम के प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
3.भाषा–सरस एवं मधुर ब्रज। ‘दये मग में डग द्वै’ मुहावरे का उत्कृष्ट प्रयोग है। इसी के कारण अत्युक्ति अलंकार भी है।
4.शैली-चित्रात्मक और मुक्तक।
5.छन्द-सवैया।
6.लंकार-माथे पर पसीने की बूंदों के आने, होंठों के सूख जाने में स्वभावोक्ति तथा ‘केतिक पर्णकुटी करिहौ कित’ में अनुप्रास।
7.शब्दशक्ति–लक्षण एवं व्यंजना।
8.रस-शृंगार।
9.गुण–प्रसाद एवं माधुर्य।
प्रश्न 2.
“जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ, पिय ! छाँह घरीक है ठाढ़े।
पछि पसेउ बयारि करौं, अरु पार्दै पखरिहौं भूभुरि डाढ़े ॥
तुलसी रघुबीर प्रिया स्रम जानि कै बैठि बिलंब ल कंटक काढ़े ।
जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढे
उतर
[ परिखौ = प्रतीक्षा करो। घरीक = एक घड़ी के लिए। ठाढ़े = खड़े होकर। पसेउ = पसीना। बयारि = हवा। भूभुरि = रेत (धूल)। डाढ़े = तपे हुए। बिलंब लौं = देर तक। काढ़े = निकाले। नाह = नाथ, स्वामी। पुलको तनु = शरीर रोमांचित हो गया। बिलोचन := नेत्र।
प्रसंग-इन पंक्तियों में गोस्वामी जी ने सीताजी की सुकुमारता और उनके प्रति राम के असीम प्रेम का सहज चित्रण किया है।
व्याख्या–सीताजी श्रृंगवेरपुर से आगे चलने पर थक जाती हैं। वे विश्राम करने की इच्छा करती हैं। वे श्रीराम से कहती हैं कि लक्ष्मण पानी लेने गये हैं, इसलिए घड़ी भर किसी पेड़ की छाया में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए। इतनी देर मैं आपका पसीना पोंछकर हवा कर देंगी तथा गर्म रेत पर चलने से आपके पाँव जल गये होंगे, उन्हें मैं धो देंगी। श्री रामचन्द्र जी यह सुनकर समझ गये कि सीताजी थक चुकी हैं। और स्वयं विश्राम करने के लिए कहने में सकुची रही हैं। इसलिए वे बैठ गये और बड़ी देर तक (सीताजी को अधिक समय विश्राम देने के उद्देश्य से) बैठकर उनके पैरों में चुभे हुए काँटे निकालते रहे। अपने प्रति पति का ऐसा प्रेम देखकर सीताजी पुलकित हो गयीं और उनकी आँखों से प्रेम के आँसू टपकने लगे। |
काव्यगत सौन्दर्य–
1.तुलसीदास जी ने विपत्ति के समय श्रीराम और सीता के एक-दूसरे के प्रति प्रेम और समर्पित भाव का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है, जो कि दाम्पत्य जीवन का एक आदर्श उपस्थित करता है।
2.गोस्वामी जी ने सीताजी और श्रीराम की भावनाओं का पारस्परिक आदान-प्रदान बहुत दक्षता से प्रस्तुत किया है।
3.भाषा-ब्रज।
4.शैली-मुक्तक।
5.छन्द-सवैया।
6.रस-शृंगार।
7.अलंकार-अनुप्रास।
8. गुण-माधुर्य।
9.शब्दशक्ति–लक्षणा एवं व्यंजना।
प्रश्न 3.
रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है ।
राजहु काज अकाज न जान्यो, कह्यो तिय को जिन कान कियो है।
ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है ?
आँखिन में, सखि ! राखिबे जोग, इन्हें किमि कै बनबास दियो है ?
उतर
[ अजानी = अज्ञानी। पबि = वज्र। पाहन = पत्थर। हियो = हृदय। काज अकाज = कार्य-अकार्य या उचित-अनुचित कार्य। तिय = स्त्री। कान कियो है = मान लिया है। प्रीतम = स्नेह करने वाले। जोग = योग्य। किमि = क्यों।]
प्रसंग-इन पंक्तियों में कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के द्वारा कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर व्यक्त प्रतिक्रिया को चित्रित किया है।
व्याख्या-वन-गमन के समय रास्ते में स्थित एक गाँव की स्त्रियाँ राम, लक्ष्मण और सीता के सौन्दर्य तथा कोमलता को देखकर रानी कैकेयी को अज्ञानी और वज्र तथा पत्थर से भी कठोर हृदय वाली नारी बताती हैं; क्योंकि उसे सुकुमार राजकुमारों को वनवास देते समय तनिक भी दया न आयी। वे राजा दशरथ को भी विवेकहीन समझकर पत्नी के कहे अनुसार कार्य करने वाला ही समझती हैं और राजा में उचित-अनुचित के ज्ञान की कमी मानती हैं। उन्हें आश्चर्य है कि इन सुन्दर मूर्तियों से बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे ? हे सखी! ये तीनों तो आँखों में बसाने योग्य हैं, तब इन्हें किस कारण वनवास दिया गया है ?
काव्यगत सौन्दर्य-
1.यहाँ कवि ने ग्रामीण बालाओं की श्रीराम के प्रति सहृदयता का सुन्दर चित्रण किया है।
2.भाषा-ब्रज।
3.‘कान भरना’ और ‘आँखों में रखना’ जैसे मुहावरों का समावेश।
4.शैली-मुक्तक।
5.छन्द-सवैया।
6.रस–करुण एवं श्रृंगार।
7.अलंकार-‘जानी अजानी महा’ में अनुप्रास,काज अकोज’ में सभंगपद यमक।
8.गुण-माधुर्य।
9.शब्दशक्ति-अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।।
प्रश्न 4.
सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं।
तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं ॥
सादर बारहिं बार सुभाय चितै, तुम त्यों हमरो मन मोहैं ।
पूछति ग्राम बधूसिय सों’कहौ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?’ ॥
[ बिलोचन = नेत्र। तून = तरकस। सरासन = धनुष। सुठि = सुन्दर। सुभाय = स्वाभाविक रूप से। तुम त्यों = तुम्हारी ओर। रावरे = तुम्हारे।]
रावर= राउ + कर (विभक्ति)] [वि० स्त्री० राउरी, रावरी] आपका। भवदीय।
उदाहरण—टूट्यो सो न जुरैगो सरासन महेस जू को रावरी पिनाक में सरीकता कहा रही।—तुलसी।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में ग्रामवधुएँ सीता जी को घेरकर एक ओर बैठे हुए श्रीराम के विषय में विनोद करती हुई उनसे प्रश्न पूछ रही हैं।
व्याख्या-ग्रामवधुएँ सीताजी से पूछ रही हैं कि जो सिर पर जटा धारण किये हुए हैं, जिनके वक्षस्थल और भुजाएँ विशाल हैं, नेत्र लाल हैं तथा भौंहें तिरछी-सी हैं। जो तरकस, धनुष और बाण धारण किये हुए इस वन-मार्ग में बहुत शोभायमान हो रहे हैं, जो सहज-स्वाभाविक रूप में बड़े सम्मान के साथ बार-बार तुम्हारी ओर देखते हुए हमारी मन भी आकर्षित कर रहे हैं। हे सखी! तुम हमें यह बताओ कि ये ” सुन्दर साँवले रूप वाले (राम) तुम्हारे कौन लगते हैं?
काव्यगत सौन्दर्य-
1.ग्रामवधुओं ने सीताजी से बहुत सात्विक विनोद से परिपूर्ण स्वाभाविक प्रश्न किया है। ग्राम-वधूटियों का वाक्-चातुर्य दर्शनीय है। स्त्रियों की बातों में जो स्वाभाविक व्यंजना होती है, उसका बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण है।
2.यहाँ श्रीराम के रूप और मुद्रा का सुन्दर वर्णन हुआ है।
3.भाषा-सुकोमल ब्रज।
4.शैली-मुक्तक।
5.छन्द-सवैया।
6.रस-शृंगार।
7.अलंकार– सर्वत्र अनुप्रास।
8.गुण-माधुर्य।
9.शब्दशक्ति-व्यंजना।
प्रश्न 5.
सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली।
तिरछे करि नैन दै सैन तिन्हें, समुझाइ कछू मुसकाइ चली ॥
तुलसी तेहि औसर सोहै सबै, अवलोकति लोचन-लाहु अली।
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंज-कली ॥
उतर
[ बैन = शब्द। सुधारस-साने = अमृत-रस में सने हुए। सयानी = चतुर। भली = अच्छी तरह से। सैन = संकेत। अवलोकति = देखती है। लाहु = लाभ। अली = भँवरा । अनुराग-तड़ाग = प्रेम रूपी सरोवर। बिगसीं = खिल रही हैं। मंजुल = सुन्दर। कंज = कमल।]
प्रसंग-इन पंक्तियों में ग्रामवधुओं के प्रश्न का उत्तर देती हुई सीताजी अपने हाव-भावों से ही राम के विषय में सब कुछ बता देती हैं।
व्याख्या-ग्रामवधुओं ने राम के विषय में सीताजी से पूछा कि ये साँवले और सुन्दर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं?’ ग्रामवधुओं के अमृत जैसे मधुर वचनों को सुनकर चतुर सीताजी उनके मनोभाव को समझ गयीं। सीताजी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया, उन्हें मुख से कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उन्होंने स्त्रियोचित लज्जा के कारण केवल संकेत से ही राम के विषय में यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी के संकेत को समझकर सभी सखियाँ राम के सौन्दर्य को एकटक देखती हुई अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य का उदय हो गया हो और ग्रामवधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गयी हों।
काव्यगत सौन्दर्य
1.सीता जी का संकेतपूर्ण उत्तर भारतीय नारी की मर्यादा तथा ‘लब्धः नेत्र . निर्वाण:’ की भावना के अनुरूप है।
2.प्रस्तुत पद में ‘नाटकीयता और काव्य’ का सुन्दर योग है।
3.भाषा-सुललित ब्रज।
4.शैली—चित्रात्मक व मुक्तक।
5.छन्द-सवैया।
6.रस-श्रृंगार।
7.अलंकार–‘सुनि सुन्दर बैन सुधारस साने, सयानी हैं जानकी जानी भली में अनुप्रास, ‘अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंज कली’ में रूपक, उत्प्रेक्षा और अनुप्रास की छटा है।
8.गुण-माधुर्य।
9.शब्दशक्ति–व्यंजना।।
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प्रस्तुतिकरण-
यादव योगेश कुमार रोहि
सम्पर्क सूत्र 8077160219
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