गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

भारतीय संस्कृति में व्यास परम्परा-

वेदव्यास/व्यास केवल एक ऋषि नहीं एक संस्था भी है। 🛑
(एक अनुसंधान)



(इसे सिद्धांत न माना जाए। मेने अपने विवेक से अनुसंधान कर तथ्य रखे है। त्रुटि को सुधार के लिए निवेदित हूं)

ज्यादातर सनातन धर्मी यह मानते है की वेदव्यास एक ऋषि हुए, और उन्ही को व्यास कहा जाता है। उपरांत व्यासपीठ भी उन्ही के नाम से प्रस्तुत एक पीठ है जहां धर्म शास्त्र आदि प्रवचन कार्य होते है। 

लेकिन कम लोग जानते है की वेदव्यास या व्यास एक ऋषि नहीं है एक संस्था है। कुल २८ व्यास होने की बात शास्त्रों में कही गई है। पुराणों को प्रमाण मानने वाले भी कभी कभी इस बात को क्यों स्वीकार नहीं करते वो मेरी समझ से बाहर है।

उदाहरणार्थ - विष्णु पुराण के ३/३/१० श्लोक में और अन्य जगहों पर भी यह बात कही गई है।
वेदव्यासा व्यतीता ये ह्यष्टाविंशति सत्तम।
चतुर्धा यैः कृतो वेदो द्वापरेषु पुनः पुनः।।

अट्ठाइस व्यास इस प्रकार है।
१. स्वयंभू (ब्रह्मा)
२. प्रजापति
३. शुक्राचार्य
४. बृहस्पति
५. सविता
६. मृत्यु
७. इंद्र
८. वशिष्ठ
९. सारस्वत
१०. त्रिधामा
११. त्रि शिख
१२. भारद्वाज
१३. अंतरिक्ष
१४. वर्णी
१५. त्रय्यारूण
१६. धनंजय
१७. क्रतुंजय
१८. जय
१९. भरद्वाज
२०. गौतम
२१. हरयात्मा
२२. वाजश्रवा
२३. तृण विंदू
२४. ऋक्ष
२५. शक्ति
२६. पराशर
२७. जातुकर्ण
२८. कृष्ण द्वैपायन। 

इस प्रकार २८ परंपरागत व्यास का नाम शास्त्र में है। अंतिम व्यास कृष्ण द्वैपायन हुए।

स्वयं पाराशर कहते है, की यह परंपरा आगे भी चलती रहेगी।

"तस्मादस्मत्पिता शक्तिर्व्यासस्तस्मादहं मुने ॥१८॥"

"जातुकर्णोऽभवन्मतः कृष्णद्वैपायनस्ततः।
अष्टाविशंतिरित्येते वेदव्यासा: पुरातना: ॥१९॥"

"एकोवेदश्चतुर्धा तु तै: कृतो द्वापरादिषु ॥२०॥"

"भविष्ये द्वापरे चापि द्रौणिर्व्यासो भविष्यति।
व्यतिते मम् पुत्रेऽस्मिन् कृष्णद्वैपायने मुने ॥२१॥"

अर्थात - तदनन्तर हमारे पिता शक्ति (वेदव्यास) हुए और फिर मैं (वेदव्यास)हुआ । मेरे अनन्तर जातुकर्ण व्यास हुए  और फिर कृष्णद्वैपायन - इस प्रकार ये अट्ठाईस व्यास प्राचीन हैं। इन्होंने द्वापरादि युगों में एक ही वेद के चार-चार विभाग किये हैं। हे मुने(मैत्रेय)! मेरे  पुत्र कृष्णद्वैपायन के अनन्तर आगामी द्वापर युग में द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होंगे।

और इसी प्रकार बादरायण (ब्रह्मसूत्र रचयिता) आदि भी व्यास हुए। और हुआ यह की यह परंपरा अब तक चली आई। आज भी व्यासपीठ पर कथा करने वाले को व्यास ही कहते है यह लोकोक्ति प्रचलित है।

यह बात इस लिए महत्व रखती है की कई सारी रचनाएं/ग्रंथ और पुराण जो व्यास के नाम से प्रचलित है वह आवश्यक नहीं की २८ व्यास में से किसी ने लिखी हो। बहुत अधिक संभावना है की कलयुग के या १००-२००, ५०० वर्ष पूर्व के किसी व्यास ने लिखा हो और हमने उसे मूल व्यास से जोड़ दिया। यह पता लगा पाना काफी मुश्किल है की किस व्यास की कोन सी रचना है क्युकी तब पुस्तके नहीं हुआ करती थी। गुरु शिष्य परंपरा मैं कहा गया और सुना गया पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता था। आज जब प्रिंटेड पुस्तके है तब भी भिन्न भिन्न प्रकाशनों में श्लोक और अर्थ के विषय में भिन्नता देखने मिल जाती है, उस समय किसी अन्य व्यास के द्वारा कहा गया मूल व्यास से जोड़ देना मुश्किल नहीं था। मुगल काल में यह सब से अधिक हुआ। उसी का परिणाम भविष्य पुराण, अल्लाह उपनिषद आदि ग्रंथ है। जो मूल व्यास की रचना नही हो सकती।

श्री दास गुप्ता, और उदय वीर शास्त्री जी ने इस पर काफी अनुसंधान किया है। (इंडियन फिलोसॉफी का हिंदी रूपांतरण भाग -१, पृष्ठ ४२६) पढ़ना चाहिए।

उपरांत स्वयं आद्य शंकराचार्य ब्रह्मसूत्र १/४/७ में यह स्पष्ट करते है की भगवदगीता (१३/४) में उल्लेखित ब्रह्मसूत्र शब्द से वेदव्यास कृत सूत्र का अर्थ नहीं करना चाहिए। जिससे स्पष्ट होता है की ब्रह्मसूत्र भी कृष्ण द्वैपायन व्यास के बाद के किसी व्यास जिनका नाम बादरायण था उनके द्वारा रचित है। जैमिनी ने भी पूर्व मीमांसा में बादरायण शब्द का ही उपयोग किया है।
बादरायण के बाद यह परंपरा बड़ी लंबी चली। और अनेक व्यासो ने अपना अपना योगदान दिया।

कई विद्वान पाणिनी व्याकरण ग्रंथ में वर्णित भिक्षु सूत्र को ही  ब्रह्म सूत्र मानते है। यद्यपि यह बात अधिक विद्वानों द्वारा मान्य नही।

किंतु मूल भावना यह है की व्यास एक नही अनेक हुए है। और हर व्यास ने अपनी परंपरा में शास्त्र के संवर्धन में योगदान दिया है। लेकिन हर व्यास इतना महान और विद्वान (पूर्व व्यास जितना) हो संभव नहीं। जिस प्रकार वर्तमान शंकराचार्य पूर्व आचार्य के समकक्ष हो वह आवश्यक नही है। और जिस प्रकार शंकराचार्य एक परंपरा है उसी प्रकार व्यास एक परंपरा ही थी। जो युग और काल अनुकूल वेद के विभाग और शास्त्र रचना करते थे।और इसी परंपरा के अंतर्गत अनेक संस्था हुई। प्रभावी व्यक्ति अथवा ऋषि/राजा के नाम से यह परंपराएं चली। उदाहरणार्थ दशरथ ने हजारों वर्ष शासन किया इसका अर्थ यह नहीं की मूल एक दशरथ उसका अर्थ यह की दशरथ के बाद होने वाले हर राजा जो उस राज्य को संभालते और मूल पद्धति से शासन करते उनको दशरथ ही कहा गया। इसी प्रकार बलि, राम और अन्य राजाओं को देखना चाहिए। इस परंपरा में त्रुटी और स्वयं के व्यक्तिगत मत भी प्रगट हो सकते है। अतः कई पुराणों को और मूल ग्रंथो को मूल व्यास की रचना मानना बुद्धिमान्य और तथ्य से समर्थित नहीं है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें