शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

हिन्दी भाषा का विकास-


अवहट्ट भाषा:-
भाषा सतत् परिवर्तनशील होती है। कोई भी भाषा जब साहित्यालम्ब होकर प्रतिष्ठित होती है तो वह व्याकरण के नियमों में श्रृंखला बद्ध होने लगती है और धीरे-धीरे जनभाषा से उसका अलगाव होने लगता है।

 अपभ्रंश के ही उत्तरकालीन या परवर्ती रूप को 'अवहट्ट' नाम दिया गया है यह।शब्द संस्कृत के अपभ्रष्ट का तद्भव है ।
 ग्यारहवीं से लेकर चौदहवीं शती के अपभ्रंश रचनाकारों ने अपनी भाषा को अवहट्ट कहा। 

'अवहट्ट' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग "ज्योतिरीश्वर ठाकुर" ने अपने 'वर्ण रत्नाकर' ग्रन्थ में किया है ।

प्राकृत पैंगलम के टीकाकार वंशीधर ने अवहट्ट नाम स्वीकार माना। संदेश राशक, मैथिल कोहिल कृत कीर्तिलता की भाषा को, अद्दहमान और विद्यापति ने अवहट्ट माना। 

पुरातन प्रबंध संग्रह की कतिपय अनु-श्रुतियों, नाथ और सिद्ध साहित्य, नेमिनाथ चौपाई, बाहुबलि रास, थूलिमद्द फाग आदि के अलावा संत ज्ञानेश्वर की 'ज्ञानेश्वरी' और रोडाकृत- "राउलबेल" की भाषा को भी अवहट्ट माना गया। खड़ी बोली हिंदी के भाषिक और साहित्यिक विकास में जिन भाषाओँ और बोलियों का विशेष योगदान रहा है उनमें अपभ्रंश और अवहट्ट भाषाएँ भी है।

हिंदी को अपभ्रंश और अवहट्ट से जो कुछ भी मिला उसका पूरा लेखा जोखा इन तीनों की भाषिक और साहित्यिक संपत्ति का तुलनात्मक विवेचन करने से प्राप्त होता है।
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अपभ्रंश और अवहट्ट का व्याकरणिक रूप

अपभ्रंश कुछ -कुछ और अवहट्ट बहुत कुछ वियोगात्मक भाषा बन रही थी, अर्थात् विकारी शब्दों (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण,और क्रिया) का रूपांतरण संस्कृत की विभक्तियों से मुक्त होकर स्वतंत्र शब्दों या शब्द-खण्डों के रूप मेें परिणति होने लगा था।

इससे भाषा के सरलीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई। अपभ्रंश और अवहट्ट का सबसे बड़ा योगदान परसर्गों के विकास में है।

सर्वनामों में हम और तुम काफ़ी पुराने हैं। शेष सर्वनामों के रूप भी अपभ्रंश और अवहट्ट में संपन्न हो गए थे। 

अपभ्रंश मइं से अवहट्ट में मैं हो गया था। तुहुँ से तू प्राप्त हो गया था।

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बहुत से अपभ्रंश और अवहट्ट के सर्वनाम पूर्वी और पश्चिमी बोलियों को मिले। सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान क्रिया की रचना में क्रिदंतीय रूपों का विकास था जो अपभ्रंश और अवहट्ट में हुआ। भविष्यत् काल के रूप इतर बोलियों को मिले; अवहट्ट में, भले ही छिटपुट, ग-रूप आने लगा था। इसी से खड़ी बोली को गा गे गी प्राप्त हुए। अपभ्रंश और अवहट्ट में संयुक्त क्रियाओं का प्रयोग भी ध्यातव्य है।

 इसी के आगे हिंदी में सकना, चुभना, आना, लाना, जाना, लेना, देना, उठाना, बैठना का अंतर क्रियाओं से योग करने पर संयुक्त क्रियाओं का विकास हुआ और उनमें नई अर्थवत्ता विकसित हुई।

 अपभ्रंश काल से तत्सम शब्दों का पुन:जीवन, विदेशी शब्दावली का ग्रहण, देशी शब्दों का गठन द्रुत गति से बढ़ चला। 

प्राकृत तो संस्कृत की अनुगामिनी थी - तद्भव प्रधान। अपभ्रंश और अवहट्ट की उदारता ने हिंदी को अपना शब्द भंडार भरने में भारी सहायता दी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1.  अपभ्रंश, अवहट्ट एवं आरंभिक हिंदी का व्याकरणिक और प्रायोगिक रूप (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) बसंत कुमार चौधरी (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 11 फ़रवरी, 2013।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में लगभग आठवीं शताब्दी  के पूर्वार्द्ध -769 ईस्वी सन् से लेकर चौदहवीं के पूर्वाद्ध अथवा मध्य तक के काल को हिन्दी भाषा के विकास में पद्य के विकास का आदि काल माना जाता है।

इस युग का यह नामकरण डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया है। और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे'वीरगाथा काल' कहा   इस काल की समय के आधार पर साहित्य का इतिहास लिखने वाले मिश्र बंधुओं ने इसका नाम आरंभिक काल किया और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बीजवपन काल। 

डॉ॰ रामकुमार वर्मा ने इस काल की प्रमुख  चारण प्रवृत्तियों के आधार पर इसको चारण-काल कहा है और राहुल सांकृत्यायन ने सिद्ध-सामन्त काल कहा है ।

राहुल सांकृत्यायन का मत समीचीन और सत्य को करीब है ।

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इस समय का साहित्य मुख्यतः चार रूपों में मिलता है :

"सिद्ध और नाथ साहित्य"

यह साहित्य उस समय लिखा गया जब हिंदी भाषा अपभ्रंश अथवा अपभ्रष्ट भाषा से आधुनिक हिंदी की ओर विकसित हो रही थी।

 बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी उस समय सिद्ध कहलाते थे। इनकी संख्या चौरासी मानी गई है। और सरहपा (सरोजपाद अथवा सरोजभद्र)अथवा राहुल भद्र सन् -769 ईस्वी के प्रथम सिद्ध माने गए हैं। 

इसके अतिरिक्त शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा आदि सिद्ध सहित्य के प्रमुख कवि है।

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ये कवि अपनी वाणी का प्रचार जनसाधारण की भाषा में करते थे। उनकी यह साहित्यिक प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को केंद्र में रखकर निर्धारित हुई थी। 

"इस प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय का उदय हुआ नाथ संयमवादी तो सिद्ध स्वछन्दतावादी थे। 

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नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं।

 नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरंगीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। 

इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है।

परवर्ती संत-साहित्य पर सिद्धों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है।

"सिद्धों और नाथों में अन्तर"  


 पौराणिक सन्दर्भों में सिद्ध एक प्रकार के देवता। एक देवयोनि। 
विशेष—सिद्धों का निवास स्थान भुवलोक कहा गया है। वायु- पुराण के अनुसार उनकी संख्या अठासी हजार है और वे सूर्य के उत्तर और सप्तर्षि के दक्षिण अंतरिक्ष में वास करते हैं। 
वे अमर कहे गए हैं पर केवल एक कल्प भर तक के लिये। कहीं कहीं सिद्धों का निवास गंधर्व, किन्नर आदि के समान हिमालय पर्वत भी कहा गया है। परन्तु यहाँ सिद्ध से तात्पर्य बौद्ध साधकों से है ।

सिद्धों का सम्बन्ध बौद्ध धर्म की वज्रयानी शाखा से है। ये भारत के पूर्वी भाग में सक्रिय थे। इनकी संख्या 84 मानी जाती है जिनमें सरहप्पाशबरप्पालुइप्पाडोम्भिप्पा,     कुक्कुरिप्पा (कणहपा)आदि मुख्य हैं।

 सरहप्पा प्रथम सिद्ध कवि थे। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हेंं ही हिन्दी का प्रथम कवि माना तथा सर्वसम्मती से इन्हें हिन्दी का प्रथम कवि स्वीकार भी किया गया हैै । इन्होंने जातिवाद और बाह्याचारों पर प्रहार किया।

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देहवाद का महिमा मण्डन किया और सहज साधना पर बल दिया। ये महासुखवाद द्वारा ईश्वरत्व की प्राप्ति पर बल देते हैं। इन सब में लुइपा का स्थान सबसे उच्च है।


सिद्ध साहित्य

सिद्ध साहित्य के इतिहास में चौरासी सिद्धों का
उल्लेख मिलता है। सिद्धों ने बौद्ध धर्म
वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिये,
 जो साहित्य जनभाषा मेें लिखा,
वह हिन्दी के सिद्ध साहित्य की सीमा मे आता है

 

"सिद्ध सरहपा"–


सिद्ध सरहपा (सरहपाद, सरोजवज्र -राहुल भ्रद्र)
से सिद्ध सम्प्रदाय की शुरुआत मानी जाती है।
यह पहले सिद्ध योगी थे।
जाति से यह ब्राह्मण थे।
राहुल सांकृत्यायन ने इनका जन्मकाल सन्  -769 ई.
का माना।
जिससे सभी विद्वान सहमत हैं।
इनके द्वारा रचित बत्तीस ग्रंथ बताए जाते हैं ।
जिनमे से ‘दोहाकोश’
हिन्दी की रचनाओं मे प्रसिद्ध है।
ये  ही हिन्दी पद्य के प्रथम कवि है ।
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इन्होने पाखण्ड और आडम्बर का विरोध किया 
तथा गुरू सेवा को महत्व दिया।
 
इनके बाद इनकी परम्परा को आगे
बढ़ाने वाले प्रमुख सिद्ध हुए हैं क्रमश:
इस प्रकार हैं :-
 
शबरपा : –इनका जन्म 780 ई. में हुआ।
यह क्षत्रिय थे। सरहपा से इन्होंने ज्ञान प्राप्त किया।
 ‘चर्यापद’ इनकी प्रसिद्ध पुस्तक है।
इनकी कविता का उदाहरण देखिये-
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 हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे समतुला
                            
षुकड़ये सेरे कपासु फ़ुटिला।
                               
तइला वाड़िर पासेर जोहणा वाड़ि ताएला
                               
फ़िटेली अंधारि रे आकासु फ़ुलिआ॥
 
लुइपा : ये राजा धर्मपाल के राज्यकाल में कायस्थ
 परिवार में जन्मे थे। शबरपा ने इन्हें अपना
 शिष्य माना था।
 चौरासी सिद्धों में इनका सबसे ऊँचा
स्थान माना जाता है।
उड़ीसा के तत्कालीन राजा और मंत्री इनके
 शिष्य हो गए थे।
 
डोम्भिया : मगध के क्षत्रिय वंश में जन्मे
डोम्भिया ने विरूपा से दीक्षा ग्रहण की थी।
इनका जन्मकाल 840 ईस्वी रहा।
इनके द्वारा इक्कीस ग्रंथों की रचना की गई,
जिनमें ‘डोम्बि-गीतिका’,  ‘योगाचर्या’  और
 ‘अक्षरद्विकोपदेश’  प्रमुख हैं।
 
कण्हपा : इनका जन्म ब्राह्मण वंश में 820 ई.
में हुआ था। यह कर्नाटक के थे,
 लेकिन बिहार के सोमपुरी स्थान पर रहते थे।
 जालंधरपा को इन्होंने अपना गुरु बनाया था।
इनके लिखे चौहत्तर ग्रंथ बताए जाते हैं।
यह पौराणिक रूढि़यों और उनमें फैले
भ्रमों के खिलाफ थे।
 
कुक्कुरिपा : कपिलवस्तु के ब्राह्मण कुल मेंं
इनका जन्म हुआ। चर्पटीया इनके गुरु थे।
इनके द्वारा रचित 16 ग्रंथ माने गए हैं।

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बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य देश भाषा (जनभाषा) में लिखा गया वही सिद्ध साहित्य कहलाता है। यह साहित्य बिहार से लेकर असम तक फैला था। राहुल संकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है जिनमें सिद्ध 'सरहपा' से यह साहित्य आरम्भ होता है।

 बिहार के नालन्दा विद्यापीठ इनके मुख्य अड्डे माने जाते हैं। बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर इन्हें भारी नुकसान पहुचाया बाद में यह 'भोट' देश चले गए।

 इनकी रचनाओं का एक संग्रह महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने बांग्ला भाषा में 'बौद्धगान-ओ-दोहा' के नाम से निकाला। 

सिद्धों की भाषा में 'उलटबासी' शैली का पूर्व रुप देखने को मिलता है।

 इनकी भाषा को संध्या भाषा कहा गया है, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, "जो जनता तात्कालिक नरेशों की स्वेच्छाचारिता, पराजय त्रस्त होकर निराशा के गर्त में गिरी हुई थी, उनके लिए इन सिद्धों की वाणी ने संजीवनी का कार्य किया। 

साधना अवस्था से निकली सिद्धों की वाणी 'चरिया गीत / चर्यागीत' कहलाती है।

सिद्ध साहित्य को मुख्यतः निम्न तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:-

  • (१) नीति या आचार संबंधित साहित्य
  • (२) उपदेश परक साहित्य
  • (३) साधना सम्बन्धी या रहस्यवादी साहित्य

वामा का अर्थ स्त्री  और आचार का अर्थ आचरण करना अर्थात स्त्रीयों के साथ यौनाचरण करना ही वामाचार है ।

वामा–मनोहारिणी स्त्री। भ्रूविलासवती सुंदरी रमणी

वामाचार-तांत्रिक मत का एक भेद जिसमें पंच- मकार अर्थात्(१- मद्य, २-मांस, ३-मत्स्य, ४-मुद्रा और ५मैथुन द्वारा उपास्य देव की पूजा की जाती है। 

इस मत को माननेवाले स्वमतावलंबी को वीर, साधक आदि और विरोधी को कण्टक कहते हैं। शब्द कल्पद्रुम में वामाचार का अर्थ- निम्न प्रकार से है।

वामः वेदादिविरुद्धः आचारः इति वामाचार। तन्त्रोक्ते मद्यमांसादिसेवनरूपे आचरणे । कुलाचारशब्दे दृश्यम्।

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(वामो विपरीतो वेदविरुद्धो वा आचारः । )  आचारविशेषः ।  यथा   -“ पञ्चतत्त्वं खपुष्पञ्च पूजयेत् कुलयोषितम् । वामाचारो भवेत्तत्र वामा भूत्वा यजेत् पराम् ॥ “ इत्याचारभेदतन्त्रम् ॥ तदाचारवतां नरकगमनं यथा -“ स्वधर्म्मरहिता विप्रा वेदान्यसेविनः सदा । भ्रष्टाचाराश्च वामाञ्च ते यान्ति नरकं ध्रुवम् ॥ 

( इति ब्रह्मवैव्रर्त्ते प्रकृतिखण्डे २४ अध्यायः)

 जिस समय सिद्धों द्वारा मकारों का आचरण किया जाता था उस समय बिहार व बंगाल में सास व ननंद द्वारा नई दुल्हन को सिद्धों के आकर्षण से सावधान रहने की शिक्षा दी जाती थी इनके साहित्य को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सांप्रदायिक शिक्षा मात्र कहा जिनका बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने खंडन किया।।

सिद्ध साहित्य की प्रमुख विशेषताएं -

  • इस साहित्य में तंत्र साधना पर अधिक बल दिया गया।

  • साधना पद्धति में शिव-शक्ति के युगल रूप की उपासना की जाती है।

  • इसमें जाति प्रथा एवं वर्णभेद व्यवस्था का विरोध किया गया।

  • इस साहित्य में ब्राह्मण धर्म का खंडन किया गया है।
  • सिद्धों में पंच मकार (मांस, मछली, मदिरा, मुद्रा, मैथुन) की दुष्प्रवृति देखने को मिलती है।

  •  हालांकि तंत्रशास्त्र में इसका अर्थ भिन्न बताया गया है।

प्रमुख सिद्ध कवि व उनकी रचनाएँ ।

  • १-सरहपा (769 ई.)- दोहाकोष

  • २-लुइपा (773 ई. लगभग) -- लुइपादगीतिका
  • ३-शबरपा (780 ई.) -- चर्यापद , महामुद्रावज्रगीति , वज्रयोगिनीसाधना
  • ४-कण्हपा (820 ई. लगभग)-- चर्याचर्यविनिश्चय। कण्हपादगीतिका
  • ५-डोंभिपा (840 ई. लगभग)-- डोंबिगीतिका, योगचर्या, अक्षरद्विकोपदेश
  • ६-भूसुकपा-- बोधिचर्यावतार
  • ७-आर्यदेवपा -- कावेरीगीतिका
  • ८-कंवणपा -- चर्यागीतिका
  • ९-कंबलपा -- असंबंध-सर्ग दृष्टि
  • १०-गुंडरीपा -- चर्यागीति
  • ११-जयनन्दीपा -- तर्क मुदँगर कारिका
  • १२-जालंधरपा -- वियुक्त मंजरी गीति, हुँकार चित्त , भावना क्रम
  • १३-दारिकपा -- महागुह्य तत्त्वोपदेश
  • १४-धामपा -- सुगत दृष्टिगीतिकाचर्या
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"नाथ साहित्य का उदय ★

-सिद्धों के महासुखवाद के विरोध में नाथ पंथ का उदय हुआ। 

नाथों की संख्या नौ है। इनका क्षेत्र-

 भारत का पश्चिमोत्तर भाग है। इन्होंने सिद्धों द्वारा अपनाये गये पंचमकारों का नकार दिया। नारी भोग का विरोध किया। इन्होंने बाह्याडंबरों तथा वर्णाश्रम का विरोध किया और योगमार्ग तथा कृच्छ साधना का अनुसरण किया। ये ईश्वर को घट-घट वासी मानते हैं।

ये गुरु को ईश्वर मानते हैं। नाथ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गोरखनाथ हैं। इनकी रचना गोरखबाणी नाम से प्रकाशित है।"

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नाथों का उल्लेख ।

नाथ सम्प्रदाय का उल्लेख विभिन्न क्षेत्र के ग्रंथों में है -जैसे- योग (हठयोग), तंत्र (अवधूत मत या सिद्ध मत), आयुर्वेद (रसायन चिकित्सा), बौद्ध अध्ययन (सहजयान तिब्बती परम्परा 84 सिद्धों में), हिन्दी (आदिकाल के कवियों के रूप) में चर्चा मिलती हैं।

यौगिक ग्रंथों में नाथ सिद्ध : हठप्रदीपिका के लेखक स्वात्माराम और इस ग्रंथ के प्रथम टीकाकार ब्रह्मानंद ने हठ प्रदीपिका ज्योत्स्ना के प्रथम उपदेश में 5 से 9 वे श्लोक में 33 सिद्ध नाथ योगियों की चर्चा की है। 

ये नाथसिद्ध कालजयी होकर ब्रह्माण्ड में विचरण करते है। इन नाथ योगियों में प्रथम नाथ आदिनाथ को माना गया है जो स्वयं शिव हैं जिन्होंने हठयोग की विद्या प्रदान की जो राजयोग की प्राप्ति में सीढ़ी के समान है।

आयुर्वेद ग्रंथों में नाथ सिद्धों की चर्चा : रसायन चिकित्सा के उत्पत्तिकर्ता के रूप प्राप्त होता है जिन्होंने इस शरीर रूपी साधन को जो मोक्ष में माध्यम है इस शरीर को रसायन चिकित्सा पारद और अभ्रक आदि रसायानों की उपयोगिता सिद्ध किया। 

पारदादि धातु घटित चिकित्सा का विशेष प्रवर्तन किया था तथा विभिन्न रसायन ग्रंथों की रचना की उपरोक्त कथन सुप्रसिद्ध विद्वान और चिकित्सक महामहोपाध्याय गणनाथ सेन ने लिखा है।

तंत्र गंथों में नाथ सम्प्रदाय: नाथ सम्प्रदाय के आदिनाथ शिव है, मूलतः समग्र नाथ सम्प्रदाय शैव है।

 शाबर तंत्र में कपालिको के 12 आचार्यों की चर्चा है- आदिनाथ, अनादि, काल, वीरनाथ, महाकाल आदि जो नाथ मार्ग के प्रधान आचार्य माने जाते है।

नाथों ने ही तंत्र गंथों की रचना की है। षोड्श नित्यातंत्र में शिव ने कहा है कि - नव नाथों- जडभरत मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, , सत्यनाथ, चर्पटनाथ, जालंधरनाथ नागार्जुन आदि ने ही तंत्रों का प्रचार किया है।

बौद्ध अध्ययन में नाथ सिद्ध 84 सिद्धों में आते है। राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में बौद्ध तिब्बती परम्परा के 84 सहजयानी सिद्धों की चर्चा की है । जिसमें से अधिकांश सिद्ध नाथसिद्ध योगी हैं जिनमें लुइपाद मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षपा गोरक्षनाथ, चैरंगीपा चैरंगीनाथ, शबरपा शबर आदि की चर्चा है जिन्हें सहजयानीसिद्धों के नाम से जाना जाता है।

हिन्दी में नाथसिद्ध : हिन्दी साहित्य में आदिकाल के कवियों में नाथ सिद्धों की चर्चा मिलती हैै

अपभ्रंशअवहट्ट भाषाओं की रचनाऐं मिलती है जो हिन्दी की प्रारंभिक काल की है। इनकी रचनाओं में पाखंड़ों आडंबरो आदि का विरोध है तथा चित्त, मन, आत्मा, योग, धैर्य, मोक्ष आदि का समावेश मिलता है जो साहित्य के जागृति काल की महत्वपूर्ण रचनाऐं मानी जाती है। जो जनमानस को योग की शिक्षा, जनकल्याण तथा जागरूकता प्रदान करने के लिए था।

नाथ साहित्य -

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"भगवान शिव के उपासक नाथों के द्वारा जो साहित्य रचा गया, वही नाथ साहित्य कहलाता है। 

राहुल संकृत्यायन ने नाथपंथ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप मानाा  है। 


 हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाथपन्थ या नाथ सम्प्रदाय को 'सिद्ध मत', 'सिद्ध मार्ग', 'योग मार्ग', 'योग संप्रदाय', 'अवधूत मत' एवं 'अवधूत संप्रदाय' के नाम से पुकारा है।

नाथ साहित्य की विशेषताएँ-

  • इसमें ज्ञान निष्ठा को पर्याप्त महत्व प्रदान किया गया है,
  • इसमें मनोविकारों की निंदा की गई है,
  • इस साहित्य में नारी निन्दा का सर्वाधिक उल्लेख प्राप्त होता है,
  • इसमें सिद्ध साहित्य के भोग-विलास की भर्त्सना की गई है,
  • इस साहित्य में गुरु को विशेष महत्व प्रदान किया गया है,
  • इस साहित्य में हठयोग का उपदेश प्राप्त होता है,
  • इसका रूखापन और गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव इस साहित्य की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जाती है,
  • मन, प्राण, शुक्र, वाक्, और कुण्डलिनी- इन पांचों के संयमन के तरीकों को राजयोग, हठयोग, व

वज्रयान, जपयोग या कुंडलीयोग कहा जाता है।इसमे भगवान शिव की उपासना उदात्तता के साथ मिलती है। नाथ साहित्य में साधनात्मक शब्दावली का प्रयोग भी बहुलता से मिलता है।

"जैन साहित्य"-

अपभ्रंश की जैन-साहित्य परम्परा हिंदी भाषा में भी विकसित हुई है। जैन कवियो ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु जो साहित्य लिखा वह जैन साहित्य कहलाता है। बड़े-बड़े प्रबंधकाव्यों के उपरान्त लघु खंड-काव्य तथा मुक्तक रचनाएं भी जैन-साहित्य के अंतर्गत आती हैं।

स्वयंभू का "पउम-चरिउ" वास्तव में इसमे राम-कथा ही है।

 स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल आदि उस समय के प्रख्यात कवि हैं। 

गुजरात के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र भी लगभग इसी समय के हैं।

 जैनों का संबंध राजस्थान तथा गुजरात से विशेष रहा है, इसीलिए अनेक जैन कवियों की भाषा प्राचीन राजस्थानी रही है, जिससे अर्वाचीन राजस्थानी एवं गुजराती का विकास हुआ है। सूरियों के लिखे राम-ग्रंथ भी इसी भाषा में उपलब्ध हैं।

रासो साहित्य-

इस काल में रासो साहित्य की तीन प्रवृतियाँ देखने को मिलती है

  1. वीरगाथात्मक - पृथ्वीराज रासो , हम्मीर रासोपरमाल रासो
  2. धार्मिकता - भारतेश्वर बाहुबली रास
  3. श्रृँगारिकता - संदेश रासक

चारण-साहित्य- 

इसके अंतर्गत चारण के अलावा ब्रह्मभट्ट और अन्य बन्दीजन कवि भी आते हैं। सौराष्ट्र,  गुजरात  और पश्चिमी राजस्थान"  में चारणों का, तथा ब्रज-प्रदेश, दिल्ली तथा पूर्वी राजस्थान में भट्टों (भाटों) का प्राधान्य रहा था।

"चारणों की भाषा साधारणतः राजस्थानी बोली रही है और भाट्टों की ब्रज की बोली रही है।

 इन भाषाओं को डिंगल और पिंगल नाम भी मिले हैं। ये कवि प्रायः राजाओं के दरबारों में रहकर उनकी प्रशस्ति किया करते थे। अपने आश्रयदाता राजाओं की अतिरंजित प्रशंसा करते थे। श्रृंगार और वीर उनके मुख्य रस थे। 

इस समय की प्रख्यात रचनाओं में चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासोदलपति कृत खुमाण-रासोनरपति-नाल्ह कृत बीसलदेव रासोजगनिक कृत आल्ह खंड आदि मुख्य हैंं

इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण पृथ्वीराज रासो है। 

इन सब ग्रंथों के बारे में आज यह सिद्ध हुआ है कि उनके कई अंश क्षेपक हैं।

राजस्थान के चारण कवियों ने अपने गीतों के लिये जिस साहित्यिक शैली का प्रयोग किया है, उसे डिंगल कहा जाता है। वैसे चारण कवियों के अतिरिक्त पृथ्वीराज राठौड़ जैसे अन्य कवियों ने भी डिंगल शैली में रचना की है। वास्तव में डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं। डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है, इसका अधिकतर साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है और इसका अधिकतर साहित्य भाट जाति की कवियों द्वारा लिखित है।

कुछ विद्वान् "डिंगल" और "राजस्थानी" को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं, किन्तु यह मत भाषाशास्त्रीय दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है। इस तरह दलपति विजयनरपति नाल्ह, चंदरबरदाई और नल्लसिंह भाट की रचनाओं को भी "डिंगल" साहित्य में मान लेना अवैज्ञानिकता है। इनमें नाल्ह की रचना "कथा" राजस्थानी की है, कृत्रिम डिंगल शैली में निबद्ध नहीं और शेष तीन रचनाएँ निश्चित रूप से पिंगल शैली में हैं। वस्तुतः "डिंगल" के सर्वप्रथम कवि ढाढी कवि बादर हैं। इस कृत्रिम साहित्यिक शैली में पर्याप्त रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें अधिकांश फुटकर दोहे तथा राजप्रशस्तिपरक गीत हैं। "डिंगल" के प्रमुख कवियों में बादर, प्रिथीराज, ईसरदास जी, दुरसा जी आढा, करणीदान कविया, मंछाराम सेवक, बाँकीदास आशिया, किशन जी आढा, मिश्रण कवि सूर्यमल्ल और महाराजा चतुरसिंह जी हैं। अंतिम कवि की रचनाएँ वस्तुत: कृत्रिम डिंगल शैली में न होकर कश्म मेवाड़ी बोली में है।

साहित्यिक भाषाशैली के लिये "डींगल" शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बाँकीदास ने कुकवि बतीसी (1871 वि0 सं0) में किया है : 'डींगलियाँ मिलियाँ करै, पिंगल तणो प्रकास'।

शब्द व्युत्पत्ति-

इस शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थवत्ता के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं।

1. "डिंगल" शब्द का अर्थ अनियमित अथवा गँवा डिग्री है। साहित्यशास्त्र एंव व्याकरण के नियमों का अनुसरण न करने के कारण यह शैली "डिंगल" कही जाती है (तेस्सितोरी)।

2. पहले मरुदेश की भाषा को "डगल" कहा जाता था, बाद में "पिंगल" के वजन पर इसे "डिंगल" कहा जाने लगा (हरप्रसाद शास्त्री)।

3. 'ड' वर्णबहुला होने के कारण इसे "डिंगल" कहा जाता है (गजराज ओझा)।

4. डम डिग्री की ध्वनि के सादृश्य पर ओजोगुणप्रचुर वीररसात्मक पद्यों की इस भाषाशैली को "डिंगल" (डिमोगल) कहा जाता है (पुरुषोत्तमदास स्वामी)।

5. मेनारिया इन सभी मतों से असहमत हैं। उनके मतानुसार "डींगल" शब्द, जो इसका वास्तविक रूप है, डींगे शब्द के साथ स्वार्थे प्रत्यय "ल" के योग से बना है।

 इसका वास्तविक अर्थ एक ओर डींग से युक्त (अतिरंजनापूर्ण) और दूसरी ओर अनगढ़ या अव्यवस्थित है।

डिंगल की ध्वनिसंघटना तथा व्याकरण मारवाड़ी या पश्चिमी राजस्थानी के ही अनुरूप है, किन्तु इसका शब्दकोश अनेक ऐसे तद्भव, अर्धतत्सम तथा देशज शब्दों से भरा पड़ा है, जो उसी रूप में व्यवहृत नहीं पाए जाते।

 मिश्रण कवि सूर्यमल्ल के पुत्र मुरारिदान ने एक डिंगलकोष की रचना की है जिसमें डिंगल में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ दिए हैं।

"भाट-जाति-का परिचय:-विशेष— इस जाति के लोग राजाओ के यश का वर्णन और कविता करते हैं। यह लोग ब्राह्मण के अंतर्गत माने और दसौंधी आदि के नाम से पुकारे जाते हैं। 

इस जाति की अनेक शाखाएँ उत्तरीय भारत में बंगाल से पंजाब तक फैली हुई हैं।



अर्थात भट्टी /भट्टाचार्य ब्राह्मण हैं जो सूत का ही संस्कारित रूप है और भाट "वैश्यायां शूद्रवीर्य्येण पुमानेको बभूव ह । स भट्टो वावदूकश्च सर्व्वेषां स्तुतिपाठकः ॥” इति ब्रह्मवैवर्त्ते ब्रह्मखण्डे १० अध्यायः ॥  वैश्य वर्ण की स्त्री में शूद्र के वीर्य से जो सन्तान हुई वह भाट है कुल मिलाकर भाट और भट्ट वर्ण संकर जाति है । 

राव"-

- ये ब्राह्मण वर्ण से संबंधित है। इस राव जाति का कार्य महाराजाओं के समय में दरबारी कवि के रूप में था ।

जिनमें छोछु राव प्रमुख हुए जो गुर्जर सम्राट सवाई भोज के दरबार में थे।

 ये भाट  जाति शस्त्र और शास्त्र की धनी है। जो राजस्थान के कई हिस्सों में राणा बारोट राव रावल अन्य नामो से जानी जाती है। 

इस जाति का प्रमुख कार्य अपने यजमान( जिनका वो संरक्षण करते है) उनका यशोगाण करना होता है। ये जाति ब्राह्मण पिता और क्षत्राणी माता कि संतान मानती है। सूत जाति की यही प्रवृत्ति है ।

जो अपने क्षत्रियता के रूप में पूर्ण ढलाऊ है। समय समय पर इनको जागीरे मिलती रही इसलिए इस जाति को कुछ हिस्सों मे जागीरदार राव के रूप में भी जाना जाता है ये राजपूतों के रूप में अब जाने जाते हैं।।

विशेष— राजपूतों की एक जाति जो ईस्वी सन् १४ में गजनी से आई और पंजाब में बसी तथा वहाँ से हटकर राजपूताना में बसी पाकिस्तान की भुट्टो जाति भी इन्हीं राजपूतों की शाखा है।

"२-बही भाट-

2. बही भाट- इनका कार्य वंश लेखन है और यह अलग अलग समुदायों के अलग अलग होते हैं। अलग अलग जातियों के बही लेखक अलग अलग बिरादरी के होते हैं, यह एक व्यवसाय है जिसे यह लोग पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं, राजस्थान मे कई प्रकार के बही भाट पाये जाते हैं।

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३-बन्जारा-भाट"

 भाट :- यह मुख्यतः राजस्थान में पाये जाते हैं मध्यकाल में यह यदुवंशी अहीरों पाल राजाओं के यहां भाट गाने आते थे वर्तमान में भाटी राजपूत से जाने जाते हैं जहां इसे खानाबदोश का दर्जा प्राप्त है।

विशेष— सह्याद्रिखंड में लिखा है कि जिस प्रकार वैतालिकों की उत्पत्ति वैश्य और शूद्रा से है, उसी प्रकार चारणों की भी है; पर चारणों का वृषलत्व कम है । इनका व्यवसाय राचाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है । चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं ।


पिंगलएक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पिंगल (बहुविकल्पी)

पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था। इस भाषा में चारण परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।

उद्भव

डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी। डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया। उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं। पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।

'पिंगल' शब्द

'पिंगल' शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है। सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा। यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया। गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में भाषा पिंगल दी कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।


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"डिंगल और पिंगल में क्या अंतर है ? डिंगल और पिंगल भाषा क्या है ? 


प्रश्न:– डिंगल किसे कहते है?

"उत्तर: – पश्चिमी राजस्थानी भाषा का वह साहित्यिक रूप जो गुजराती से साम्यता रखता है एवं जिसे चारणों द्वारा साहित्यिक लेखन में प्रयोग लिया गया, उसे डिंगल के रूप में जाना जाता है। इसे मरु भाषा भी कहते हैं।


प्रश्न: पिंगल किस भाषा का रूप है ?

 "उत्तर: पूर्वी राजस्थानी भाषा का वह साहित्यिक रूप जो ब्रज भाषा से प्रभावित है तथा जो भाटों द्वारा साहित्य लेखन में प्रयोग किया गया, वह पिंगल के रूप में मानी जाता है।

प्रश्न: राजस्थान के प्रमुख लोक गीतों के प्रकार एवं विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: किसी विशिष्ट क्षेत्र के जनमानस के स्वाभाविक उद्गारों का प्रस्फुटन जिसमें उल्लास, प्रेम, करुणा, आदि की अभिव्यक्ति होती है वे लोक गीत कहे जाते हैं।
विशिष्टताएं
लोक गीतों में भाषा की अपेक्षा भाव का अधिक महत्त्व  होता है।

 रचयिता के बारे में पता न होना तथा मौखिक होने पर भी लयबद्ध होना प्रमुख विशेषताएं हैं। लोक गीतों में लोक संस्कृति रहन – सहन तथा मानवीय भावनाओं का सजीव वर्णन होता है। इनका जीवन के विभिन्न पहलुओं से सम्बन्ध होता है।

 ये संस्कृति को साकार करते हैं तथा परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाये रखते हैं।
लोकगीतों के प्रकार
राजस्थान में लोकगीतों की धारा सदियों  से तीन कोटियो में प्रवाहमान रही है।
प्रथम कोटि में जनसाधारण के गीत रखे जा सकते हैं जिनमें सर्वाधिक संख्या संस्कारों. त्यौहारों व पर्वो से सम्बन्धित गीतों का समायोजन है। इनमें वैवाहिक आयोजन में बधावा, रातिजगा, जला, त्यौहारों में गणगौर, होली, तीज तथा लोक देवताओं से सम्बन्धित गीत सभी जगह गाये जाते हैं। दूसरी कोटि में व्यावसायिक जातियों के गीतों में मॉड, देस, सोरट, मारू, परज. कालिगडा आदि है जिन्हें ढोली, मिरासी, लंगा, ढाढी, कलावन्त, सरगडा आदि गाते हैं ये अपनी गायन शैली, स्वर माधर्य का विशिष्टता के कारण पृथक पहचान रखते हैं। 

तृतीय कोटि में क्षेत्रीय रंग प्रधान गीत आते हैं जिनमें मरूप्रदेशीय गीत अधिक आकर्षक व मधुर होते हैं। 

उन्मुक्त क्षेत्र के कारण यहाँ के लोक गीत ऊंचे स्वरों व लम्बी धुन वाले होते हैं।

 कुरजा, पीपली, रतन राणों, मूमल, घूघरी, केवडा आदि यहाँ के प्रसिद्ध लोक गीत हैं। 

पर्वतीय क्षेत्रों के गीतों में बीछियों, पटेल्यों, लालर आदि लोकगीत वहाँ की जनजातियों द्वारा गाये जाते हैं। मैदानी क्षेत्र के गीता में लांगुरिया, चिरमी, बिच्छू आदि जो राज्य के पूर्वांचल में गाये जाते हैं इनमें स्वरों का उतार-चढ़ाव अधिक मिलता है। यहाँ भक्ति व श्रृंगार रसों के गीतों का आधिक्य हैं जो सामूहिक रूप से गाये जाते हैं।

इस प्रकार लोक गीतों की दृष्टि से राजस्थान देश का सम्पन्न क्षेत्र है।

लोक गीतों में हमारी संस्कृति का साकार रूप समाया हुआ है और ये हमारे जीवन के विविध पहलुओं सहित हमारे वास्तविक इतिहास को अक्षुण्ण रखे हुए हैं। 

हमारे साहित्य को समृद्ध करने में विशेष भूमिका लोक गीतों की रही है। जनजातियों, आदिवासियों, घुमन्तु जातियों, पशुपालकों एवं चरवाहों की समृद्ध संस्कृति का ज्ञान हमें लोक गीतों से ही होता है। 

"महात्मा गांधी के शब्दों में लोक गीत ही जनता की भाषा है लोक गीत ही हमारी संस्कृति के पहरेदार हैं।


प्रश्न: राजस्थान के प्रमुख लोक नृत्यों एवं उनकी विशिष्टताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर: किसी क्षेत्र विशेष में लोगों द्वारा सामूहिक रूप में लोक गीतों को लोकवाद्यों की संगति से लयबद्ध रूप से गीतों के भावों को आनंद व उमंग भरकर हमन  की क्रिया से  लोक नृत्य का विकास हुआ।


प्रकार/वर्गीकरण
राजस्थान के लोक नृत्यों को शैली एवं उसकी विशिष्टता के आधार पर निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है-
1. क्षेत्रीय लोक नृत्य
राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे लोकनृत्य विकसित हुए जो उस क्षेत्र की पहचान बन गए अथवा उन नृत्यों से क्षेत्र विशेष को पहचाना जाता है। 

ऐसे क्षेत्रीय लोक नृत्यों में मेवाड़-बाड़मेर का गैर नृत्य बड़ा प्रसिद्ध है जो लकड़ी की छड़ियां लेकर गोल घेरो में बांकियां, ढोल व थाली वाद्य यंत्रों के साथ पुरुष सामूहिक रूप से करते हैं। 

इसी प्रकार शेखावाटी के कच्छी घोड़ी, चंग नृत्य व गीदड़ नृत्य, मारवाड़ का डांडिया, जालौर का ढोल नृत्य जसनाथियों का अग्नि नृत्य, अलवर – भरतपुर का बम नृत्य आदि बड़े प्रसिद्ध हैं।


2. लोक नृत्यों को तीन उपवर्गों में बांट सकते हैं 
आदिवासियों के लोकनृत्य – इनमें भीलों का गवरी नृत्य नाट्य अपनी रोचकता के लिए प्रसिद्ध है तथा इनके अतिरिक्त घूमर, घेर, युद्ध नृत्य भी है। गिरासियों का ‘वालर‘ नृत्य जो स्त्री-पुरुषों द्वारा सामूहिक रूप से बिना वाद्य यंत्र के किया जाता है बड़ा प्रसिद्ध नृत्य है। इनके कूद नृत्य, घूमर नृत्य, मांदन नृत्य आदि अन्य प्रसिद्ध नृत्य हैं।
घूमन्तु जातियों में कंजरों का चकरी, कालबेलियों का इण्डोणी, पणिहारी, शंकरिया, बणजारों, सांसियों एवं गाडीवान लुहारों के गीत भी बड़े मनमोहक होते हैं इनके 

 "गूजरों का चरी नृत्य, मीणों का ढोल तथा अहीरों का बम नृत्य प्रसिद्ध है।

व्यावसायिक लोक नृत्य – लोक कला का प्रदर्शन जब जीविका कमाने का साधन बनाया गया तो वह व्यावसायिक (पेशेवर) नृत्य कहलाया। इस श्रृंखला में भवाई, तेरहताली, कच्छीघोड़ी नृत्य राजस्थान के प्रसिद्ध व प्रचलित व्यावसायिक लोकनृत्यों में आते हैं। 
विशेषताएं/महत्व
लोक नृत्य किसी नियत से बन्धे नहीं होते और न ही निर्धारित मुद्राएं तथा अंगों का निश्चित परिचालन होता है। 

फिर भी इनमें लय, ताल, गीत, सुर आदि का सुन्दर एवं संतुलित सामंजस्य मिलता है। जनसाधारण व आदिवासियों के लिए इनका महत्व मनोरंजन तथा जीवन के अस्तित्व के लिए है। इनसे यहाँ के विभिन्न वर्गों, समुदायों के रीति-रिवाजों, मान्यताओं, परम्पराओं आदि का ज्ञान होता है और वे न केवल जीवित है बल्कि सुरक्षित भी है इन लोक नृत्यों में संघर्षों का प्रस्तुतिकरण प्रायः मिलता है जिनसे यहाँ के लोगों का जुझारूपन दिखाई देता है। राजस्थान लोक नृत्यों में काफी समृद्ध है और साथ ही हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं व सामाजिक जुड़ाव तथा संस्कारों को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।

राजस्थानी साहित्य की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ एवं राजस्थान की बोलियाँ
अतिलघूत्तरात्मक प्रश्नोत्तर
राजस्थान की बोलियां
प्रश्न: मारवाडी से तात्पर्य ?
उत्तर: पश्चिमी राजस्थानी भाषा की प्रधान बोली मारवाड़ी है जो प्रचार-प्रसार की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बोली है। मेवाड़ी, शेखावाटी, बागड़ी आदि इसकी प्रमुख उप बोलियाँ हैं। मारवाड़ी साहित्य अत्यन्त समृद्ध है।


प्रश्न: मेवाड़ी से तात्पर्य ?
उत्तर: उदयपुर व उसके आसपास का क्षेत्र मेवाड़ एवं वहाँ प्रयुक्त बोली मेवाड़ी कहलाती है जो मारवाड़ी की उप बोली है।

 विशुद्ध मेवाड़ी वहाँ के लोक साहित्य में मिलती है।
प्रश्न: बागड़ी से तात्पर्य ?
उत्तर: डूंगरपुर व बाँसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र ‘बागड‘ एवं यहाँ प्रयुक्त बोली बागड़ी है जो मारवाड़ी की उप बोली है इस पर गुजराती का अधिक प्रभाव है। ग्रियर्सन इसे ‘भीली‘ कहते हैं।


प्रश्न: मेवाती से तात्पर्य ?

उत्तर: अलवर, भरतपुर व गुडगाँव क्षेत्र को मेवात एवं यहाँ प्रयुक्त बोली को मेवाती कहते हैं जो पूर्वी राजस्थान की प्रधान बोली है। राठी, मेहण, काठोर आदि इसकी उप बोलियाँ हैं। राजपूताने का एक प्रांत जिसकी प्राचीन राजधानी चितौर थी और आजकल उदयपुर है।

मेव शब्द संस्कृत के मेज शब्द का रूपान्तरण है । अंत्यज जाति जिसकी उत्पत्ति मनुस्मृति में वैदेहिक पुरुष और निषाद स्त्री से कही गई है।



मेवाड़ क्षेत्र राजपूताने के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से एक जाना जाता है। राज्य की राजधानी उदयपुर हो जाने के कारण लोग इसे उदयपुर राज्य के रुप में भी जानते हैं।

संस्कृत में उपलब्ध शिलालेखों तथा पुस्तकों में इस राज्य के लिए मेदपाट शब्द का उल्लेख मिलता है। संभवतः पहला उल्लेख बी.एस. १००० के टूटे हुए एक अभिलेखों में है, जो आहाड़ के आदिवराह के मंदिर से संबद्ध है और इसके बाद भी कई अन्य अभिलेखों एवं पाण्डूलिपियों में इसकी पुनरावृत्ति होती रही। इससे यह प्रमाणित होता है कि मेवाड़ शब्द की व्युत्पत्ति मूल शब्द मेदपाट से हुई।

मेवाड़ राज्य पर पहले मेद अर्थात मेव या मेर जाति का वर्च होने के कारण ही संभवतः इसका नाम मेदपाट पड़ा। मेवाड़ का एक हिस्सा अब तक मेवल कहलाता है, जो मेवों के राज्य का स्मरण दिलाता है। मेवाड़ के देवगढ़ की तरफ के इलाके में तथा अजमेर- मेरवाड़े के मेरवाड़ा प्रदेश में, जिसका अधिकतर अंश मेवाड़ राज्य का ही हिस्सा हुआ करता था, अब तक मेरों की आबादी अधिक है।

कुछ विद्वानों मेर लोगों की गणना हूणों में करते हैं, परंतु मेर लोग अपनी उत्पति ईरान की तरफ के शाकद्वीप (शकस्तान) से बनलाते हैं। अतः एक संभावना यह भी है कि वे पश्चिमी क्षत्रपों के अनुयायी या वंशज हों।

चित्तौड़ के किले से ७ मील उत्तर में मध्यमिका नाम की प्राचीन नगरी से खंडहर हैं, जो इस समय नगरी के नाम से ही जाना जाता है। वहाँ से मिलने वाले कई तांबे के सिक्कों पर वि. सं. के पूर्व की तीसरी शताब्दी के आसपास की ब्राह्मी लिपि में मझिमिकाय शिविजनपदस (शिविदेश की मध्यमिका का सिक्का) लिखा है। इससे पता चलता है कि उन दिनों मेवाड़ (या उसका चित्तौड़ के आसपास का क्षेत्र) शिवि के नाम से जाना जाता था। बाद में वही देश मेदपाट (मेवाड़) कहलाने लगा। लोग उसका प्राचीन नाम भूल गये।

करनबेल (जबलपुर के निकट) के एक शिलालेख में प्रसंगवश मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल वैरिसिंह और विजयसिंह का वर्णन आया है, जिसमें उनको ""प्राग्वाट'' के राजा कहा गया है। अतएव प्राग्वाट मेवाड़ का ही दूसरा नाम होना चाहिए। संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में "'पोरनाड़'' महाजनों के लिए प्राग्वाट नाम का प्रयोग मिलता है और वे लोग अपनी उत्पत्ति मेवाड़ के पुर कस्बे से बतलाते हैं, जिससे संभव है कि प्राग्वाट देश के नाम से वे अपने को प्राग्वाटवंशी कहते रहे हों।



प्रश्न: राँगड़ी से तात्पर्य है ?

पर मालवा क्षेत्र में राजपूतों में प्रचलित मारवाड़ी और मेवाती के सम्मिश्रण से उत्पन्न बोली के विशिष्ट रूप को संगती वा जाता है। यह थोडी कर्कश है।

वाचन और गायन-

डींगल गीतों का वाचन और गायन बहुत सरल नहीं है। इसमें विकटबंध गीत और भी कठिन माना जाता है। 

डॉक्टर कविया एक विकटबंध गीत की मिसाल देते हैं जिसमें पहली पंक्ति में 54 मात्राएँ थीं, फिर 14-14 मात्राओं की 4-4 पंक्तियाँ एक जैसा वर्ण और अनुप्राश! इसे एक स्वर और साँस में बोलना पड़ता था और कवि गीतकार इसके लिए अभ्यास करते थे।

वर्तमान स्थिति-

राजस्थान में भक्ति, शौर्य और शृंगार रस की भाषा रही डींगल अब चलन से बाहर होती जा रही है। अब हालत ये है कि डींगल भाषा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राचीन ग्रंथों को पढ़ने की योग्यता रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं।

कभी डींगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में रणबाँकुरों में उत्साह भरा करते थे लेकिन वक़्त ने ऐसा पलटा खाया कि राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कुछ भागों में सदियों से बहती रही डींगल की काव्यधारा अब ओझल होती जा रही है। प्रसिद्ध साहित्यकार डॉक्टर लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत चिंता के स्वर में कहती हैं कि यही हाल रहा तो डींगल का वजूद ही ख़तरे में पड़ जाएगा।

साहित्यकार पूनमचंद बिश्नोई कहते हैं कि पहले डींगल को सरकारी सहारा मिलता था और यह रोज़गार से जुड़ी हुई थी पर अब ऐसा नहीं है।

अनेक जैन मुनियों ने बी डींगल में रचनाएं की हैं। थार मरुस्थल में आज भी अनपढ़ लोग डींगल की कविता करते मिल जाएंगे।

प्रकीर्णक साहित्य-

खड़ी बोली के आदि-कवि अमीर खुसरो इसी समय हुए है। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां प्रख्यात हैं। मैथिल-कोकिल विद्यापति भी इसी समय के अंतर्गत हुए हैं। विद्यापति के मधुर पदों के कारण इन्हें 'अभिनव जयदेव' भी कहा जाता है। मैथिली और अवहट्ट में भी इनकी रचनाएं मिलती हैं। इनकी पदावली का मुख्य रस श्रृंगार माना गया है। अब्दुल रहमान कृत 'संदेश रासक' भी इसी समय की एक सुंदर रचना है। इस छोटे से प्रेम-संदेश-काव्य की भाषा अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित होने से कुछ विद्वान इसको हिंदी की रचना न मानकर अपभ्रंश की रचना मानते हैं।

आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशंसाएं, युद्धों का सुन्दर वर्णन, श्रृंगार-मिश्रित वीररस का आलेखन वगैरह इस साहित्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। इस्लाम का भारत में प्रवेश हो चुका था। देशी रजवाड़े परस्पर कलह में व्यस्त थे। सब एक साथ मिलकर मुसलमानों के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग सबको हराकर मुसलमान यहीं स्थिर हो गए। दिल्ली की गद्दी उन्होंने प्राप्त कर ली और क्रमशः उनके राज्य का विस्तार बढ़ने लगा। तत्कालीन कविता पर इस स्थिति का प्रभाव देखा जा सकता है।

हिन्दी का सर्वप्रथम कवि

हिन्दी का प्रथम कवि कौन है, इस पर एकमत नहीं है। विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार हिंदी का पहला कवि निम्नलिखित हैं-

इन्हें भी देखें-

बाहरी कड़ियाँ

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