नन्दगोपकुलमपि यदुकुलमेव तथाहि – सर्वश्रुतिपुराणादि कृतप्रशंसस्य यदुकुलस्यावतंस: श्रीदेवमीढ़नामा परमगुणधामा मथुरामध्यासामास । तस्यभार्याद्वयमासीत्। "अर्थ-( नन्दगोपकुल भी यदुकुल ही है वैसे ही सभी वेदों पुराणों आदि में यदुकुल की प्रशंसा है यदुकुल शिरोमणि (अवतंस) श्रीदेवमीढ जो मधु रा नगरी के मध्य प्रतिष्ठित थे ।उनकी दो पत्नीयाँ थीं।
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प्रथमा द्वितीयावर्णा द्वितीया तृतीयावर्णेति तयोश्च पुत्रद्वयं प्रथमम् बभूव शूर: पर्जन्य इति च। तत्र शूरस्य वसुदेवादय: अत एवोक्तं श्रीमुनिना " वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं" इति श्री पर्जन्यस्तु मातृवद्वर्णसंकर"– इति न्यायेन प्रायेण हि जना: सर्वे यान्ति मातामहीम् तनुम्"इति न्यायेन वैश्यतामेवाविश्य गोवृत्तिपूर्वकं वृहद्वनं एवासांचकार ।
"अर्थ –
पहली पत्नी दूसरे वर्ण की, और दूसरी पत्नी तीसरे वर्ण की थी। देवमीढ के दो पुत्र थे; पहली पत्नी से शूर और दूसरी से पर्जन्य । वहाँ शूर के वसुदेव आदि हुए । इसी लिए मुनि द्वारा कहा गया- (वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतं)" " वसुदेव यह सुनकर की भाई नन्द आये हुए हैं"। इस प्रकार पर्जन्य के पुत्र नन्द आदि मातामही (दादी) के वर्ण को प्राप्त हैं। और ब्राह्मण न्याय के द्वारा वे वर्णसंकर हुए । और सभी भाई को मातामही के शरीर का प्राप्त होने से इस ब्राह्मण न्याय से भी वे वैश्यता को प्राप्त होकर गोवृत्ति पालन से "वृहदवनं" में रहने लगे।
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अर्थ-
और वह बालकपन से ही ब्राह्मणों का दर्शन के द्वारा सम्मान करते थे । और सभी याचको का मनोरथ पूरा करते थे। वैष्णव जनों और वेदों को स्नेह करते थे । और जीवन पर्यन्त हरि की अर्चना करते थे। और माता के पक्ष का व्यवसाय करने से उनकी ख्याति सभी दिशाओं हो गयी । ( गोप वेश में वे प्रसिद्ध हो गये पद्मपुराण सृष्टि खण्ड भी उनके इस व्यवसाय की पुष्टि या स्पष्टी करण करता है ।
कि इनकी पत्नी भी वैश्य वर्ण की थी। जिनका नाम "वरीयसी" था और उससे उत्पन्न इनके नन्द आदि पाँच पुत्र थे। मध्यम पुत्र इनको अधिक प्रिय था और सभी की सहमति से उनका विवाह "सुमुख नामके किसी मुख्य गोप की पुत्री यशोदा से कर दिया। जो परम धन्या और सुन्दर कन्या थी।
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ततश्च तयोर्दोपत्येन सर्वेषामपि सुखसम्पत्तिरजायत् किमुत् पित्रादीनाम् तदेवमानन्दितसर्वजन: पर्जन्यस्वमपि
किमुत"(
सुखमनुभूय श्रीगोविन्दपदारविन्दभजनमात्रान्वितां देहयात्रामभीष्टां मन्यमान: सर्वज्यायसे सुताय स्वकुलतिलकतां दातुं ।श्रीवसुदेवादिनरदेव गर्गादिभूदेवकृत प्रभायां सभायां स्वजनाहूतवान्।
अर्थ –
( जो निश्चय ही अपने गुणों से स्वजनों को वश में करने वाली और यश देने वाली थीं। सुनने वालों के द्वारा देखने वालों के द्वारा और भक्ति करने वालों द्वारा उसकी क्या कहने ! आदि शब्दों से प्रशंसा सी जाती थी)( तब पर्जन्य की सभी सन्तानों( अपत्यों) में ही सुख सम्पदा उत्पन्न हुई थी और पिता के लिए क्या चाहिए! तब सब लोग आनन्दित थे और पर्जन्य भी सुख का अनुभव करके प्रभु के चरण-कमलों ध्यान लगाने वाले थे और पर्जन्य ने जीवन यात्रा के अन्तिम पढाव को जानकर अपने सबसे बड़े पुत्र को राजतिलक करने के उद्देश्य से वसुदेव आदि राजाओं और गर्गादि मुनियों को सभा में आमन्त्रित किया )(और वहाँ सभा में बड़ों के द्वारा मझले अपने से छोटे भाई जिनका नन्द नाम था उनको पिता की आज्ञा लेकर गोकुल का अधिपति सभा में नियुक्त कर दिया संकुचित नन्द को देखकर सभी आश्चर्य से युक्त हो गये । स्नेह और सद् गुणों की खान नन्द ही हमारे राजा हैं तभी उस सभा में देवों और सभी सदस्यो ने उनके ऊपर पुष्प वर्षा की और तत्पश्चात पर्जन्य भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए सभा को सम्पन्न कर वृन्दावन में प्रवेश कर गये।
अध्याय एक दशम स्कन्ध पूर्वार्द्धे " श्रीमद्भागवत वंशीधरी" टीका पृष्ठ-संख्या (१६२४)
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