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पुरुवंशवर्णनं, तत्र दुष्यंतभरतयोश्चरितम् -
श्रीशुक उवाच ।
पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ।
यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥ १ ॥
जनमेजयो ह्यभूत् पूरोः प्रचिन्वांस्तत् सुतस्ततः ।
प्रवीरोऽथ मनुस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत् ॥ २ ॥
तस्य सुद्युरभूत् पुत्रः तस्माद् बहुगवस्ततः ।
संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥ ३ ॥
ऋतेयुस्तस्य कक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः ।
जलेयुः सन्नतेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः ॥ ४ ॥
दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।
घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः ॥ ५ ॥
ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत् त्रयस्तस्यात्मजा नृप ।
सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः ॥ ६ ॥
तस्य मेधातिथिः तस्मात् प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः ।
पुत्रोऽभूत् सुमते रेभ्यो दुष्यन्तः तत्सुतो मतः ॥ ७ ॥
दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।
तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥ ८ ॥
विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम् ।
बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः ॥ ९ ॥
तद्दर्शनप्रमुदितः संनिवृत्तपरिश्रमः ।
पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसन् श्लक्ष्णया गिरा ॥ १० ॥
का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयंगमे ।
किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने ॥ ११ ॥
व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्म्यहं त्वां सुमध्यमे ।
न हि चेतः पौरवाणां अधर्मे रमते क्वचित् ॥ १२ ॥
श्रीशकुन्तलोवाच ।
विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।
वेदैतद् भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते ॥ १३ ॥
आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतां अर्हणं च नः ।
भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥ १४ ॥
दुष्यन्त उवाच ।
उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये ।
स्वयं हि वृणुते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम् ॥ १५ ॥
ओमित्युक्ते यथाधर्मं उपयेमे शकुन्तलाम् ।
गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित् ॥ १६ ॥
अमोघवीर्यो राजर्षिः महिष्यां वीर्यमादधे ।
श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ॥ १७ ॥
कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः ।
बद्ध्वा मृगेन्द्रान् तरसा क्रीडति स्म स बालकः ॥ १८ ॥
तं दुरत्ययविक्रान्तं आदाय प्रमदोत्तमा ।
हरेः अंशांशसंभूतं भर्तुरन्तिकमागमत् ॥ १९ ॥
यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ ।
श्रृण्वतां सर्वभूतानां खे वाग् आह अशरीरिणी ॥ २० ॥
माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।
भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥ २१ ॥
रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।
त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥ २२ ॥
पितरि उपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः ।
महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि ॥ २३ ॥
चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः ।
ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड् विभुः ॥ २४ ॥
पञ्चपञ्चाशता मेध्यैः गंगायामनु वाजिभिः ।
मामतेयं पुरोधाय यमुनामनु च प्रभुः ॥ २५ ॥
अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद् वसु ।
भरतस्य हि दौष्यन्तेः अग्निः साचीगुणे चितः ।
सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे ॥ २६ ॥
त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्ध्वा विस्मापयन् नृपान् ।
दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ ॥ २७ ॥
मृगान् शुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान् ।
अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश ॥ २८ ॥
भरतस्य महत् कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः ।
नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा ॥ २९ ॥
किरातहूणान् यवनान् अंध्रान् कंकान् खगान् शकान् ।
अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन् म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान् ॥ ३० ॥
जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे ।
देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत् ॥ ३१ ॥
सर्वान् कामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी ।
समास्त्रिणवसाहस्रीः दिक्षु चक्रमवर्तयत् ॥ ३२ ॥
स सम्राड् लोकपालाख्यं ऐश्वर्यं अधिराट् श्रियम् ।
चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृन्मृषेत्युपरराम ह ॥ ३३ ॥
तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्न्यस्तिस्रः सुसम्मताः ।
जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते ॥ ३४ ॥
तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम् ।
मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः ॥ ३५ ॥
अन्तर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः ।
प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमुपासृजत् ॥ ३६ ॥
तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तुत्यागविशंकिताम् ।
नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः ॥ ३७ ॥
मूढे भर द्वाजं इमं भर द्वाजं बृहस्पते ।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् ॥ ३८ ॥
चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् ।
व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये ॥ ३९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
नवम स्कन्ध: विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद पूरु के वंश, राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अब मैं राजा पूरु के वंश का वर्णन करूँगा। इसी वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंश के वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रह्मर्षि भी हुए हैं। पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान, प्रचिन्वान का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद। चारुपद से सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ। परीक्षित! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भ से रौद्राश्व के दस पुत्र हुए- ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु। परीक्षित! उनमें से ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभार के तीन पुत्र हुए- सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के पुत्र का नाम था कण्व। कण्व का पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथि से प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमति का पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था। एक बार दुष्यन्त वन में अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुँचे। उस आश्रम पर देवमाया के समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मी के समान अंगकान्ति से वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरी को देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे। उसको देखने से उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मन में काम वासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करने के बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणी से मुसकराते हुए उससे पूछा- ‘कमलदल के समान सुन्दर नेत्रों वाली देवि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने वाली सुन्दरी! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता’। शकुन्तला ने कहा- ‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्र जी की पुत्री हूँ। मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करने वाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे! मैं आपकी क्या सेवा करूँ? कमलनयन! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रम में कुछ नीवार (तिन्नी का भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये’। दुष्यन्त ने कहा- ‘सुन्दरी! तुम कुशिक वंश में उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकार का आतिथ्य सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पति को वरण कर लिया करती हैं। शकुन्तला की स्वीकृति मिल जाने पर देश, काल और शास्त्र की आज्ञा को जानने वाले राजा दुष्यन्त ने गान्धर्व-विधि से धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया। राजर्षि दुष्यन्त का वीर्य अमोघ था। रात्रि में वहाँ रहकर दुष्यन्त ने शकुन्तला का सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानी में चले गये। समय आने पर शकुन्तला को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। महर्षि कण्व ने वन में ही राजकुमार के जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपन में ही इतना बलवान था कि बड़े-बड़े सिंहों को बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता।
नवम स्कन्ध: विंशोऽध्याय: अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद वह बालक भगवान का अंशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पति के पास गयी। जब राजा दुष्यन्त ने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्र को स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगों ने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई- ‘पुत्र उत्पन्न करने में माता तो केवल धौंकनी के समान है। वास्तव में पुत्र पिता का ही है। क्योंकि पिता ही पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त! तुम शकुन्तला का तिरस्कार न करो, अपने पुत्र का भरण-पोषण करो। राजन्! वंश की वृद्धि करने वाला पुत्र अपने पिता को नरक से उबार लेता है। शकुन्तला का कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भ को धारण कराने वाले तुम्हीं हो’। परीक्षित! पिता दुष्यन्त की मृत्यु हो जाने के बाद वह परमयशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट हुआ। उसका जन्म भगवान् के अंश से हुआ था। आज भी पृथ्वी पर उसकी महिमा का गान किया जाता है। उसके दाहिने हाथ में चक्र का चिह्न था और पैरों में कमलकोष का। महाभिषेक की विधि से राजाधिराज के पद पर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था। भरत ने ममता के पुत्र दीर्घतमा मुनि को पुरोहित बनाकर गंगा तट पर गंगासागर से लेकर गंगोत्री-पर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये और इसी प्रकार यमुना तट पर भी प्रयाग से लेकर यमुनोत्री तक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञों में उन्होंने धनराशि का दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरत का यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुण वाले स्थान में किया गया था। उस स्थान में भरत ने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणों में प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक बद्व (13084) गौएँ मिली थीं। इस प्रकार राजा भरत ने उन यज्ञों में एक सौ तैतीस (55+78) घोड़े बाँधकर (133 यज्ञ करके) समस्त नरपतियों को असीम आश्चर्य में डाल दिया। इन यज्ञों के द्वारा इस लोक में तो राजा भरत को परम यश मिला ही, अन्त में उन्होंने माया पर भी विजय प्राप्त की और देवताओं के परमगुरु भगवान् श्रीहरि को प्राप्त कर लिया। यज्ञ में एक कर्म होता है ‘मष्णार’। उसमें भरत ने सुवर्ण से विभूषित, श्वेत दाँतों वाले तथा काले रंग के चौदह लाख हाथी दान किये। भरत ने जो महान कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथ से स्वर्ग को छू सकता है? भरत ने दिग्विजय के समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कंक, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओं को मार डाला। पहले युग में बलवान् असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातल में रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवांगनाओं को रसातल में ले गये थे। राजा भरत ने फिर से उन्हें छुड़ा दिया। उसके राज्य में पृथ्वी और आकाश प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरत ने सत्ताईस हजार वर्ष तक समस्त दिशाओं का एकछत्र शासन किया। अन्त में सार्वभौम सम्राट् भरत ने यही निश्चय किया कि लोकपालों को भी चकित कर देने वाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसार से उदासीन हो गये।
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।सूत उवाच ।
(अनुष्टुप्)
एवं निशम्य भगवान् देवर्षेर्जन्म कर्म च ।
भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन् व्यासः सत्यवतीसुतः।१॥
।व्यास उवाच।
भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिस्तव ।
वर्तमानो वयस्याद्ये ततः किमकरोद्भवान् ॥२॥
स्वायंभुव कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः।
कथं चेदमुदस्राक्षीः काले प्राप्ते कलेवरम् ॥३॥
प्राक्कल्पविषयामेतां स्मृतिं ते सुरसत्तम।
न ह्येष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृतिः ॥४॥
।नारद उवाच ।
भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिर्मम ।
वर्तमानो वयस्याद्ये तत एतदकारषम् ॥५ ॥
एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किङ्करी ।
मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबंधनम् ॥६ ॥
सास्वतंत्रा न कल्पासीद् योगक्षेमं ममेच्छती।
ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥७॥
अहं च तद्ब्रह्मकुले ऊषिवांस्तदपेक्षया ।
दिग्देशकालाव्युत्पन्नो बालकः पञ्चहायनः ॥८॥
एकदा निर्गतां गेहाद् दुहन्तीं निशि गां पथि।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टः कृपणां कालचोदितः॥९॥
तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्सतः ।
अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ॥ १०॥
स्फीताञ्जनपदांस्तत्र पुरग्रामव्रजाकरान् ।
खेटखर्वटवाटीश्च वनान्युपवनानि च ॥११॥
चित्रधातुविचित्राद्रीन् इभभग्नभुजद्रुमान् ।
जलाशयान् शिवजलान् नलिनीःसुरसेविताः।१२॥
चित्रस्वनैः पत्ररथैः विभ्रमद् भ्रमरश्रियः ।
नलवेणुशरस्तम्ब कुशकीचकगह्वरम् ॥ १३ ॥
एक एवातियातोऽहं अद्राक्षं विपिनं महत् ।
घोरं प्रतिभयाकारं व्यालोलूकशिवाजिरम् ॥१४॥
परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षितः ।
स्नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः ॥१५॥
तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आश्रितः ।
आत्मनात्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥१६ ॥
ध्यायतश्चरणांभोजं भावनिर्जितचेतसा ।
औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः॥१७॥
प्रेमातिभरनिर्भिन्न पुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः ।
आनंदसंप्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥१८॥
रूपं भगवतो यत्तन् मनःकान्तं शुचापहम् ।
अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद् दुर्मना इव ॥१९॥
दिदृक्षुस्तदहं भूयः प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोऽपि नापश्यं अवितृप्त इवातुरः ॥२०॥
एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गंभीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव ॥ २१ ॥
हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥२२॥
सकृद् यद् दर्शितं रूपं एतत्कामाय तेऽनघ ।
मत्कामःशनकैः साधु सर्वान् मुञ्चति हृच्छयान्॥२३॥
सत्सेवयाऽदीर्घया ते जाता मयि दृढा मतिः ।
हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥२४॥
मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥ २५ ॥
(इंद्रवंशा)
एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्
भूतं नभोलिङ्गमलिङ्गमीश्वरम् ।
अहं च तस्मै महतां महीयसे
शीर्ष्णावनामं विदधेऽनुकंपितः ॥ २६ ॥
नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठन्
गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।
गां पर्यटन् तुष्टमना गतस्पृहः
कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सरः ॥२७॥
(अनुष्टुप्)
एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन् असक्तस्यामलात्मनः ।
कालः प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥२८॥
प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् ।
आरब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत् पांचभौतिकः ॥२९॥
कल्पान्त इदमादाय शयानेऽम्भस्युदन्वतः ।
शिशयिषोरनुप्राणं विविशेऽन्तरहं विभोः ॥३०॥
सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षतः ।
मरीचिमिश्रा ऋषयः प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे ॥३१ ॥
अंतर्बहिश्च लोकान् त्रीन् पर्येम्यस्कन्दितव्रतः ।
अनुग्रहात् महाविष्णोः अविघातगतिः क्वचित्॥ ३२॥
देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥ ३३ ॥
प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः ।
आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ॥ ३४ ॥
एतद्ध्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया मुहुः ।
भवसिन्धुप्लवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ॥ ३५ ॥
यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुंदसेवया यद्वत् तथात्माद्धा न शाम्यति ॥३६॥
सर्वं तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
जन्मकर्मरहस्यं मे भवतश्चात्मतोषणम् ॥ ३७ ॥
।सूत उवाच ।
एवं संभाष्य भगवान् नारदो वासवीसुतम् ।
आमंत्र्य वीणां रणयन् ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥ ३८ ॥
अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।
गायन्माद्यन्निदं तंत्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥ ३९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः ॥६ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-16 प्रथम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धःषष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
नारदजी के पूर्व चरित्र का शेष भाग श्रीसूत जी कहते हैं- शौनक जी ! देवर्षि नारद के जन्म और साधना की बात सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान श्रीव्यास जी ने उनसे फिर यह प्रश्न किया।
श्रीव्यास जी ने पूछा- नारद जी! जब आपको ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी।
स्वायम्भु! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधि से अपने शरीर का परित्याग किया? देवर्षे! काल तो सभी वस्तुओं को नष्ट कर देता है, उसने आपकी पूर्व कल्प की स्मृति का कैसे नाश नहीं किया? श्रीनारद जी ने कहा- मुझे ज्ञानोपदेश करने वाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार जीवन व्यतीत किया- यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी।
मैं अपनी माँ का एकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूढ़ और तीसरे दासी थी।
मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को मेरे स्नेहपाश से जकड़ रखा था। वह मेरे योगक्षेम की चिन्ता तो बहुत करती थी, परन्तु पराधीन होने के कारण कुछ कर नहीं पाती थी।
जैसे कठपुतली नचाने वाले की इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वर के अधीन है। मैं भी अपनी माँ के स्नेहबन्धन में बँधकर उस ब्राह्मण-बस्ती में ही रहा।
मेरी अवस्था केवल पाँच वर्ष की थी; मुझे दिशा, देश और काल के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था। एक दिन की बात है, मेरी माँ गौ दुहने के लिये रात के समय घर से बाहर निकली। रास्ते में उसके पैर से साँप छू गया, उसने उस बेचारी को डस लिया। उस साँप का क्या दोष, काल की ऐसी ही प्रेरणा थी। मैंने समझा, भक्तों का मंगल चाहने वाले भगवान का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा।
उस ओर मार्ग में मुझे अनेकों धन-धान्य से सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरों की चलती-फिरती बस्तियाँ, खानें, खेड़े, नदी और पर्वतों के तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओं से युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियों ने तोड़ डाली थीं।
शीतल जल से भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओं के काम में आने वाले कमल थे; उन पर पक्षी तरह-तरह की बोली बोल रहे थे और भौंरे मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था।
इतना लम्बा मार्ग तै करने पर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा।
उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे।
उसकी लम्बाई-चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवों का घर हो रहा था। देखने में बड़ा भयावना लगता था। चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोर की प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली।
उसके कुण्ड में मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी। उस विजन वन में एक पीपल के नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओं से जैसा मैंने सुना था, हृदय में रहने वाले परमात्मा के उसी स्वरूप का मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा।
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