व्यक्ति की जाति कभी पूजनीय नहीं अपितु सदाचरण ही पूजनीय होता है ।
और ब्राह्मण वही है जो ब्रह्म को जानता है और जो मन्त्र सिद्ध है । अन्यथा जन्म अथवा जाति के आधार पर वह एक भिक्षुक समुदाय मात्र अथवा पुरोहिताई समुदाय मात्र से सम्बद्ध ही है।
वर्ण या जाति के मौलिक आधार व्यवसाय या वृत्ति ही था ।
और आज भी किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके व्यवसाय या कर्म गुण से ही निर्धारित होगा।
जो अब केवल जो जाति या जन्म से ब्राह्मण मात्र है और सभी व्यवसाय भी करते हैं ।
तो ये प्राचीन अर्थों में ब्राह्मण नहीं हैं जिन्हें अनावश्यक रूप से दक्षिणा देकर उनकी पूजा की जाय !
क्यों पूजा गुणानुरूप व्यक्तित्व की ही होती है ।
ब्राह्मण जो नाम और जातिमात्र का ही है कर्म या गुण के अनुरूप नहीं उसकी पूजा करना मूर्खता पूर्ण और अन्धरूढ़ि है ।
जो देश और समाज का पतन करने वाली है ।
कोई मनोज यादव है।
हमसे कहता है ।
हमसे कि हम एक तरफ तो ब्राह्मणों के ग्रन्थों का हबाला अपने बात की पुष्टिकरण में देते हैं दूसरी तरफ ब्राह्मण ग्रन्थों का खण्डन भी करते हैं ।
सुन बेटा मनोज तेरी संवाद शैली से तेरी भावनाऐं
प्रतिबिम्बित हो गयी हैं ।
जो अहंकार का लपेटा लेकर घूम रहा है ।
उसे उतार कर किसी ज्ञानी के चरणों में रख दे ।
ब्राह्मणों के ग्रन्थों में पूर्व काल में सब सत्य था जब ब्राह्मण ब्रह्म ज्ञानी , संयमी और परोपकार रत था 'परन्तु काल के प्रवाह में वे ब्राह्मण पहले जैसे 'न रहे यद्यपि पहले जैसा तो कुछ 'न रहा 'परन्तु धाक पहले जैसा जमाने के लिए कर्तव्य विहीन लोग भी भी अधिकारों की बात करने लगे
इन सभी प्रयोजनों को सिद्ध करने के लिए सत्य के स्थान पर असत्य को प्रतिष्ठित किया गया ।
और -जो कालान्तरण में मिलाबट हुई तो वही असत्य है ।
क्योंकि जो तथ्य पूर्व कल में सत्य थे ।
वे यथावत ही नहीं बने रहे उनमें कितनी जोड़-तोड़ हुई ये वक्त के खण्डरों में दफन है ।
जैसा कोई कपड़ा अपनी प्रारम्भिक क्रियाओं में नवीन और अन्तिम क्रियाओं में जीर्ण और शीर्ण हो जाता है ।
इसी प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलाबट के बावजूद भी
बहुत सी बाते सत्य हैं ।
जैसे फूलो से रस को मधुमक्खीयाँ सहजता से निकालती हैं ।
महाभारत वन-पर्व! १८,२५,२६
नहुष {सर्प -युधिष्ठिर संवाद}
शुद्रे तु यद् भवेल्क्षम द्विजे तत्च न विद्यते!
न वै शुद्र भवेत् शुद्रे ब्राह्मणो न च ब्राह्मण:!!
यत्रेतल्लक्ष्येता सर्प वृतं स: ब्राह्मण: समृत:!
यत्रतन्न भवेत सर्प तो शुद्रमिति निर्देशेत!!
भाष्य ----जो शुद्र होकर भी आचरण से श्रेष्ठ है उस शुद्र को शुद्र नहीं मानना चाहिए!
जो ब्राह्मण होकर भी ब्राह्मणोचित -कर्म ज्ञान-भक्ति हीन है उसे ब्राह्मण नहीं मानना चाहिए!
जैसे कुम्हार घड़ा बनाने के लिए खेतों से मिट्टी लाकर उसे थुर -थार कर पानी के सहारे लात से सानता हैं! फिर उसे चाक पर पटक -पटक कर घड़ा का रूप प्रदान करता है फिर उसे कड़ी धूप में सुखाता हैं!
तब वह मिट्टी साधारण मिट्टी से घड़ा का आकृति प्राप्त करता हैं!
अभी वह आकृति मात्र से घड़ा कहलाता हैं वस्तुतः वह सच्चे अर्थों में घड़ा नहीं हैं! अभी वह पानी के संगत से फिर से वह साधारण मिट्टी बन सकता हैं! उसे कुम्हार आग की भठ्ठी में पकाता हैं! फिर कहीं जाकर वह पका घड़ा का रूप धारण कर अपने भीतर जल -धारण करने की क्षमता प्राप्त करता हैं!
जन्म - आकृति मात्र से नहीं वह घड़ा कहला सकता हैं! ठीक उसी प्रकार कोई भी मात्र ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण नहीं हो जाता हैं! उसे भी यम -नियम तप -त्याग की भठ्ठी में महान गुरू के संरक्षण में तपना -पकना पड़ता हैं! नहीं तो वह भी विषय -विकार तथा काम क्रोध लोभदि षट्विकार के सामने तुच्छ साधरण मानव बनकर रह जाता हैं!
केवल जन्म मात्र से कोई बड़ा पुजनीय नहीं हो सकता हैं!
अर्थववेद , अभय - सूक्त में प्रत्यक्ष प्रमाण हैं!
ओउम् यथा ब्राह्मणं च क्षत्रियं न विभेति न रिष्यत: !
ऐवाम् माम प्राणं मा विभो:!!
ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते! भागवत महापुराण ११,१७,४२
भाव यह की जिन ब्राह्मणों का खान-पान आचरण सर्वथा भ्रष्ट है उन पतित ब्राह्मणों को वचन मात्र से भी आदर नही करना चाहिए!
ऐसा ही स्मृति में आया हैं!
न शुद्रा भगवान भक्ता विप्रा भागवता: स्मृता:!
सर्वे वर्णेषु ते शुद्रा ये शुद्रा ये हृऽभक्ता जनार्दने!!
मांस आहारी बाभना सो पापी प्रकटे बहीं जाऊँ!
धरणी शुद्र बैष्णवा ताहीं चरण सीर नाऊॅं!!
बाबा धरणीधरदासजी महाराज मांझी स्टेट (पुर्व दिवान)
उपसंहार---भगवान का भक्त चाहे किसी भी नीची जाति में का क्यों न हो वह भक्ति -हीन हज़ारों विद्वान -ब्राह्मणों से भी श्रेष्ठ हैं!
महाभागवत -महापुराण से संभार
3,33,7
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