सती नरसिंहानन्द आर्य समाजी हैं और इनकी थ्योरी अपने स्वार्थ के अनुकूल है ।
स्वयं जब दयानन्द जी सम्पूर्ण भागवत का ही खण्डन करते हैं तो भागवत में राधा नहीं है यह कैसे प्रमाणित हो गया ?
भागवत पुराण दशम स्कन्ध तीस वाँ अध्याय के निम्न श्लोकों में राधा का वर्णन है ।
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कस्याः पदानि चैतानि याताया नन्दसूनुना ।
अंसन्यस्तप्रकोष्ठायाः करेणोः करिणा यथा ॥ 10.30.027 ॥
अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ 10.30.028 ॥
धन्या अहो अमी आल्यो गोविन्दाङ्घ्र्यब्जरेणवः ।
यान् ब्रह्मेशौ रमा देवी दधुर्मूर्ध्न्यघनुत्तये ॥ 10.30.029 ॥
तस्या अमूनि नः क्षोभं कुर्वन्त्युच्चैः पदानि यत्यैकापहृत्य गोपीनां रहो भुन्क्तेऽच्युताधरम् ।
न लक्ष्यन्ते पदान्यत्र तस्या नूनं तृणाङ्कुरैः खिद्यत्सुजाताङ्घ्रितलामुन्निन्ये प्रेयसीं प्रियः ॥ 10.30.030 ॥
अनयाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥ 10.30.028 ॥
अर्थ-
जिसके द्वारा हरीश्वर भगवान कृष्ण की आराधना की गयी अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की वह ‘आराधिका’ होगी।
इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं।
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परीक्षित! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर भी श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं।
इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान के चरणचिह्न देखे। वे आपस में कहने लगीं -
अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज, अंकुश और जौ आदि के चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं।'
उन चरणचिह्नों के द्वारा व्रजवल्लभ भगवान को ढूँढती हुई गोपियाँ आगे बढ़ी, तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी व्रजयुवती के भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपस में कहने लगीं -
‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलने वाली किस बड़भागिनी के ये चरणचिह्न हैं?
अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं।
प्यारी सखियों ! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, व धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं!
क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिये उस रज को अपने सिरपर धारण करते हैं।
‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो - यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधा का रस पी रही है, इस गोपी के उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं।'
यहाँ उस गोपी के पैर नहीं दिखायी देते।
मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरणकमलों में घास की नोंक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया होगा।
राधा का अन्य नाम आराधिका भी है ।जो भागवत पुराण में है ।
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दशम स्कन्ध: त्रिंश अध्याय (पूर्वार्ध) श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:त्रिंश अध्याय श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद-
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एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथों से मुँह ढ़ककर भय की नक़ल करने लगी। परीक्षित ! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर भी श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं।
इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान के चरणचिह्न देखे।
वे आपस में कहने लगीं - अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज, अंकुश और जौ आदि के चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं।'
उन चरणचिह्नों के द्वारा व्रजवल्लभ भगवान को ढूँढती हुई गोपियाँ आगे बढ़ी, तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी व्रजयुवती के भी चरणचिह्न दीख पड़े। उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपस में कहने लगीं -
‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलने वाली किस बड़भागिनी के ये चरणचिह्न हैं?
अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ‘आराधिका’ होगी।
इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं। प्यारी सखियों! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, व धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिये उस रज को अपने सिरपर धारण करते हैं।’
‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो - यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधा का रस पी रही है, इस गोपी के उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं।'
यहाँ उस गोपी के पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरणकमलों में घास की नोंक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया होगा।
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अब कुछ आर्यसमीजी जो भागवत पुराण और महाभारत आदि में राधा के नहीं होने का कुतर्क देते हैं उसे निम्न सन्दर्भों में वर्णित किया जाता है । उसे भी देखें पढ़े !
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आज पौराणिक श्रीकृष्ण के साथ राधा का नाम अवश्य जोड़ते हैं। 'राधा' के बिना 'कृष्ण' का नाम आधा ही समझा जाता है। यदि श्रीकृष्ण जी योगीराज थे और 'राधा' उनकी धर्मपत्नी नहीं थी तो ऐसा पौराणिक क्यों करते हैं? मेरे विचार से पौराणिकों की यह भयंकर भूल है।
'श्रीमद् भागवत महापुराण' वैष्णवों का एक प्रामाणिक पुराण माना जाता है जिसमें श्रीकृष्ण जी के चरित्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इस महापुराण के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि इसमें 'राधा' की कहीं भी चर्चा नहीं है।
राधा तो श्री रायाण गोप की पत्नी थी।
कतिपय पौराणिक 'श्रीमद् भागवत महापुराण' में भी 'राधा' का नाम प्रदर्शित करने की कल्पना करते हैं। यथा-
१. पं० दीनानाथ शास्त्री सारस्वत की कल्पना-
(आपने 'भागवत' में राधा का नाम खोजा है।) आप लिखते हैं- जिस गोपी को श्रीकृष्ण अन्य गोपियों को छोड़ कर ले गए थे, वही तो 'राधा' थी जिसका संकेत भागवत पुराण में हैं ।
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अनया राधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः ।
यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः ॥(भागवत पुराण-10.30.28)
'अनया राधितो नूनं (भागवत १०/३०/२८) 'राधितं' शब्द से आया है।...
२. साहित्याचार्य पं० बलदेव उपाध्याय, एम०ए० की कल्पना-"...
अनया राधितो नूनं"...... (भागवत १०/३०/२८) इस रमणी के द्वारा अवश्य ही भगवान् ईश्वर कृष्ण आराधित हुए हैं। धन्या गोपी की प्रशंसा में उच्चरित इस गद्य में राधा का नाम झीने चादर से ढके हुए किसी गूढ़ बहुमूल्य रत्न की तरह स्पष्ट झलकता है।
इस श्लोक की टीका में गौडीयवैष्णव गोस्वामियों ने स्पष्ट ही 'राधा' का गूढ़ संकेत खोज निकाला है।"
३. श्री पं० कालूराम शास्त्री का कुतर्क-
"...जिस समय भगवान् ने लीलावतार श्रीकृष्ण का रूप धारण किया उस समय इनकी उपासना करने के लिए सोलह हज़ार एक सौ सात श्रुतियों की अधिष्ठाता देवताओं ने स्त्री रूप धारण करके श्रीकृष्ण से पाणिग्रहण किया।
इसी प्रकार (१६१०७) सोलह हज़ार एक सौ सात स्त्रियों तो हुईं और एक भगवती रुक्मिणी रूप धारण करके लक्ष्मी अवतरित हुई। इस कारण से भगवान् श्रीकृष्ण की १६१०८ स्त्रियां हुईं।...
समीक्षा-
• श्री कालूराम शास्त्री का १६१०७ श्रुतियों को स्त्री बतलाना भी कोरा गप्प ही है। इसी कुतर्क पर वे पुराणों की मिथ्या, अश्लील गप्पों को सत्य सिद्ध करने के लिए 'पुराण वर्म' जैसी ऊटपटांग पुस्तक लिखी है।
• पं० बलदेव उपाध्याय का भागवत भागवत १०/३०/२८ में 'अनया राधितो नूनं' प्रमाण लिखना अशुद्ध है। बिना मूल ग्रन्थ को देखे हुए उन्होंने किसी की पुस्तक से प्रतिलिपि कर ली है।
• पं० दीनानाथ शास्त्री का प्रमाण वर्तमान भागवत स्कन्ध दस, अध्याय तीस, श्लोक २८ में है।
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'अराधितो' यहां किया है और सारस्वत जी व उपाध्याय जी दोनों ही 'राधा' अर्थ करके अनर्थ करते हैं।
• पौराणिक पं० रामतेज पाण्डेय साहित्य शास्त्री ने इसका सही अर्थ इस प्रकार किया है-
"अवश्य ही इसने भगवान् कृष्ण की आराधना की होगी।"
• साहित्य भूषण, काव्य मनीषी, पं० गोविन्द दास व्यास 'विनीत' अर्थ करते हैं- "परमेश्वर भगवान् का सच्चा आराधन तो इसने किया है।"
अनेक विद्वान् 'श्री भागवत महापुराण' में 'राधा' की चर्चा नहीं मानते हैं-
• श्री विन्टर नीट्ज लिखते हैं- "पर राधा का नाम नहीं है। इससे (Naidya) यह सही निष्कर्ष निकालते हैं कि इस पुराण की रचना 'गीत गोविन्द' के पहले हुई।"
• पौराणिक संन्यासी स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती लिखते हैं- "भगवान् व्यास अथवा श्री शुक्रदेव जी महाराज अनन्त ज्ञान सम्पन्न हैं। ऐसी स्थिति में उन्होंने किस अभिप्राय से श्री राधा जी और गोपियों का नामोल्लेख नहीं किया, इस प्रश्न का उत्तर या तो उनकी कृपा से ही प्राप्त हो सकता है अथवा केवल अपने या दूसरे के अनुमान पर सन्तोष कर लेने से।"
• विद्यावारिधि पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र, मुरादाबाद लिखते हैं- "विष्णु भागवत में गोपी और कृष्ण का चरित्र विस्तृत होने पर भी 'राधा' का नाम नहीं है, होता तो राधा महात्म्य अवश्य होता।"
• श्री पूर्णेन्दु नारायण सिंह, एम०ए०, बी०एल० 'राधा' का अस्तित्व नहीं मानते हैं। वे लिखते हैं- "But I shall not touch in front of her is a study of the Bhagavata Purana."
अर्थात्- "भागवत पुराण के अध्ययन में मैं उसके (राधा) ऊपर स्पर्श नहीं करूंगा।"
• पं० राम प्रताप त्रिपाठी शास्त्री लिखते हैं- "श्रीमद् भागवत में 'राधा' का नामोल्लेख भी नहीं है, जो परवर्ती कृष्ण काव्य की आधार भूमि है।"
• साहित्याचार्य पं० विश्वेश्वर नाथ रेउ अपने "पुराणों पर एक दृष्टि" शीर्षक लेख १० में लिखते हैं- "यद्यपि श्रीमद् भागवत में कहीं भी 'राधा' का उल्लेख नहीं हुआ है ।
तथापि 'देवीभागवत' में उसके चरित्र को स्थान दिया गया है।"
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