महाभारत के लेखक गणेश देवता "भाग चतुर्थ"
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महाभारत बौद्ध कालीन संस्कृतियों का प्रकाशन करने वाला अधिक है ।
-जैसे चाण्यक नीति से प्रभावित निम्न श्लोक देखे:-👇
सतां साप्तपदं मैत्रं स सखा मे८सि पण्डित:।
सांवास्यकं करिष्यामि नास्ति ते भयमद्य वै।56।
( महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत आपद्धर्म पर्व एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय)
साधु पुरुषों में तो सात पग साथ साथ चलने से ही मित्रता हो जाती हैं ; हम और तुम तो यहां सदा से ही साथ रहते हैं अतः तुम मेरे विद्वान मित्र हो मैं इतने दिन साथ रहने का अपना मित्रोचित कर्म अवश्य आऊंगा इसलिए अब तुम्हें कोई भय नहीं है।
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वास्तव में यह नैतिक सिद्धान्त भी मौर्य कालीन है
कि समय परिस्थितियाँ और देश स्थानान्तरण के अनुसार हम्हें अपने व्यवहारिक सिद्धान्तों को परिवर्तित कर सेना चाहिए ।
जैसा कि महाभारत में
सत्य और यथार्थ को पृथक पृथक प्रतिपादिय किया है ।
महाभारत शान्ति पर्व आपद्धर्म पर्व 165 वाँ अध्याय👇
न नर्मयुक्तमनृतं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले।
न गुर्वर्थं नात्मनो जीवितार्थे
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ।।30।
राजन् ! परिहास में ,स्त्री के पास, विवाह के अवसर पर गुरु के हित के लिए अथवा अपने प्राण बचाने के उद्देश्य बोला गया असत्य हानिकारक नहीं होता ।
इन पाँच अफसरों पर असत्य बोलना पाप नहीं बताया गया है ।30।
श्रद्दधान: शुभां हीनादपि समाप्नुयात् ।
सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन् ।।31।
नीच वर्ण के पुरुष के पास भी उत्तम विद्या हो तो उसे श्रद्धा पूर्वक ग्रहण करना चाहिए; और "सोना" गन्दे स्थान में भी पड़ा हो तो उसे बिना हिचकिचाहट के उठा लेना जाएगी ।31।
स्त्रीरत्नं दुष्कुलाच्चापि विषादप्यमृतं पिबेत्।
अदूष्या हि स्त्रीयो रत्नमाप इत्येव धर्मत:।32।
(शान्ति पर्व आपद्धर्म पर्व के अन्तर्गत 165 वाँ अध्याय)
नीच कुल से स्त्री को ग्रहण कर ले , विष के स्थान से भी अमृत मिले तो उसे पी ले; क्यों कि स्त्रीयाँ, रत्न और जल – ये धर्मत: दूषित नहीं होते हैं ।32।
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परन्तु महाभारत में भी कुछ बातें असैद्धान्तिक व व्यवहार विरुद्ध हैं। जैसे निम्न प्रस्ताव 👇
शान्ति पर्व आपद्धर्म पर्व 134 वाँ अध्याय
यह बात औचित्य पूर्ण पूर्ण नहीं कि 👇
भीष्म उवाच-
तत्र न व्यवधातव्यं परोक्षा धर्मयापना ।
अधर्मो धर्म इत्येतद् यथा वृकपदं यथा ।2।
धर्म और अधर्म की समस्या रखकर किसी के कर्तव्य में व्यवधान नहीं डालना चाहिए! क्योंकि धर्म का फल प्रत्यक्ष नहीं है जैसे भेड़िए का पद -चिन्ह देखकर किसी को यह निश्चय नहीं होता कि यह बाघ का पद-चिन्ह है या कुत्ते का उसी प्रकार धर्म और अधर्म के विषय में निर्णय करना कठिन है।2।
महाभारत में हितोपदेश की कथा के माध्यम से प्रतिपादित किया है कि
" एक चूहा और लोमश का कल्पित संवाद है।👇
बुद्धिमान लोमश ! बोला जो तुम आज जाल के बन्धन में छूटने के बाद ही कृतज्ञतावश मुझे अपने शत्रु को सुख पहुंचाने का असंदिग्ध उपाय ढूंढने लगे हो इसका क्या कारण है ?
जहां तक उपकार का बदला चुकाने का प्रश्न है वहां तक तो हमारी तुम्हारी समान स्थिति है ;यदि मैंने तुम्हें संकट से छुड़ाया है तो तुमने भी तो मुझे वैसे ही विपत्ति से बचाया है फिर मैं तो कुछ करता नहीं तुम ही क्यों उपकार का बदला लेने के लिए उतावले होते हो ।147।
अस्मिन् निलय एव त्वं न्यग्रोधादवातरित:।148।
पूर्वं निविष्टमुन्माथं चपलत्वात्र बद्धवान्।।
तुम इसी स्थान पर बरगद से उतरे थे! और पहले से ही यहां जाल बिछा हुआ था ।
परन्तु तुमने चपलता(चंचलता)के कारण उधर ध्यान नहीं दिया और जाल में फंस गये ।148।
आत्मनश्चपलो नास्ति कुतो८न्येषां भविष्यति।149।
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि चपलो हन्त्यसंशयम्।
चपल (चञ्चल)प्राणी जब अपने ही लिए कल्याणकारी नहीं होता तो वह दूसरों की भलाई क्या करेगा ? इसलिए यह निश्चित है कि चपल पुरुष सब काम चौपट कर देता है।149।
अब उपर्युक्त बात तो आधुनिक व्यवहार में भी सही है ।
दैवं पुरुष कारश्च स्थितावन्योन्यसंश्रयात्।
परिणाममविज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम्।82।
(शान्ति पर्व आपद्धर्म 139वाँ अध्याय)
दैव और पुरुषार्थ दोनों एक दूसरे के सहारे रहते हैं ; परन्तु उदार विचार वाले पुरुष सर्वदा शुभ कर्म करते हैं और नपुंसक दैेव के भरोसे पर पड़े रहते हैं।82।
उपर्युक्त बात भी चाणक्य के सूत्र से समर्थित है ।
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शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व भृगु-भरद्वाज संवाद विषयक 192वाँ अध्याय)👇
भारतीय पुरोहितों का यह पूर्वाग्रह रहा है कि
स्वर्ग उत्तर में है ।👇
उत्तरे हिमवत्पार्श्वे पुण्ये सर्वगुणान्विते।
पुण्य: क्षेमम्यश्च काम्यश्च स परोलोक उच्यते।8।
उत्तर पृथिवीभाग: सर्वपुण्यमय:शुभ:।
इहस्थास्तत्र जायन्ते ये वै पुण्यकृतो जना: ।21।
भृगु जी ने कहा मुने ! उत्तर दिशा में हिमालय के पारश्ववर्ती भाग में जो सर्वगुण संपन्न एवं पुण्य मय प्रदेश है वहां के भूभाग पर श्रेष्ठ लोक बताया जाता है वह पवित्र कल्याणकारी और कमनीय लोक है।8।
(यह स्वीडन की ओर यमप्रदेश का संकेत है )
(प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन
को स्वेरिग कहा गया है )
पृथ्वी का उत्तर भाग सबसे अधिक पवित्र और मंगलमय है इस लोक में जो पुण्य आत्मा मनुष्य हैं वही मृत्यु के पश्चात उस भूभाग में जन्म लेते हैं।21।
इसी के सापेक्षिक नरक वर्णन भी विचारणीय है।👇
असत्कर्माणि कुर्वन्तस्तिर्यग्योनिषु चापरे।
क्षीणायुषस्तथा चान्ये नश्यन्ति पृथिवीतले।22।
(शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व भृगु-भरद्वाज संवाद विषयक 192वाँ अध्याय)👇
दूसरे लोग जो यहां पाप कर्म करते हैं वे पशु पक्षियों की योनि में जन्म ग्रहण करते हैं और दूसरे कितने ही आयु-क्षय होने पर नष्ट हो जाते हैं और
पाताल में चले जाते हैं।22।
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शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व में
मनुरुवाच👇
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जे रसो८प्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।16।
(गीता से मिलता श्लोक)
इन्द्रिय द्वारा विषयों को ग्रहण न करने से पुरुष के वे विषय तो निवृत हो जाते हैं परन्तु उनमें उनकी आसक्ति बनी रहती है परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने पर पुरुष की वाह आसक्ति भी दूर हो जाती है।16।
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शान्तिपर्व मोक्षधर्मपर्व श्रीकृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति विषयक 207वाँ अध्याय)
दक्षिणापथजन्मान: सर्वे नरवरान्ध्रका:।
गुहा: पुलिन्दा: शबराश्चूचुका मद्रकै: सह।42।
उत्तरापथजन्मान: कीर्तयिष्यामि तानपि ।
यौनकाम्बोजागान्धारा: किराता बर्बरै: सह।43।
एते पापकृतस्तात् चरन्ति पृथिवीमिमाम्।
नरेश्वर दक्षिण भारत में जन्म लेने वाले सभी आन्ध्र ,गुह चूचूक और मद्रक, यह सब के सब म्लेच्छ हैं।42।
तात! अब उत्तर भारत में जन्म लेने वाले म्लेच्छों का वर्णन करूंगा यौन, कांबोज ,गांधार, किरात और बर्बर यह सब के सब पापाचारी होकर इस सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं।43।
जबकि एक स्थान पर इनकी उत्पत्ति नन्दनी गाय की यौनि आदि अंगों से दर्शायी है ।
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महाभारत में भी कहीं कहीं दार्शनिक विमूढ़ता प्रतिबिम्बित हुई है ।👇
स्वप्नयोगे यथैवात्मा पञ्चेन्द्रियसमायुत:।
देहमुत्सृज्य वै याति तथैवात्मोपलभ्यते ।44।
(शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व 210 वाँ अध्याय। पृष्ठ संख्या 4964
-जैसे स्वप्न में ज्ञानेन्द्रियों सहित जीवात्मा इस स्थूल-शरीर
को छोड़कर अन्यत्र चला जाता है ।
वैसे ही मृत्यु के बाद भी 'वह इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण कर लेता है।44।
यद्यपि स्वप्न तीन प्रकार से प्रकट होते हैं ।
दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति , प्रारब्ध भावी घटना की अभिव्यक्ति, --जो प्राय: रात्रि के अन्तिम प्रहर में आते हैं परन्तु शरीर से जीवात्मा का निकला असम्भव है ।
मन स्वयं ही स्वप्न की सृष्टि करता है।
सही व्याख्या -परन्तु बात ये नहीं बात तो ये है कि जब जीवात्मा स्वप्न काल में निकल जाती है तो वह स्वप्न दृश्य असल में होते ही नहीं क्यों की कभी कभी हम दससाल पुरानी उस हवेली को देखते हैं --जो पिछले पाँच साल में तोड़ कर ईंटैं निकाल ली गयीं हो
स्वप्न की सृष्टि स्वयं मन करता है
कुछ स्वप्न दमित इच्छाओं का स्फुरण होते हैं कुछ भावी घटित होने वाली घटना के --जो रात्रि के अन्तिम प्रहर में आते है ।
और कुछ जन्मजन्मानतरण के संस्कारों का स्फुरण होते हैं।
मन का अवचेतन स्तर ही स्वप्न का कारण है ।
महाभारत में एक उपमा बड़ी सार्थक है ।
एवमेता : शिरा नद्यो रसोदा देहसागरम्।
तर्पयन्ति यथाकालमापगा इव सागरम् ।18।
मध्ये च हृदस्यैका शिरा तत्र मनोवहा ।
शुक्रं संकल्पजं नृॄणासर्वगातैर्विमुञ्चति।।19।
जैसे-नदियाँ अपने जलसे यथासमय समुद्र को तृप्त करती रहती हैं।उसी प्रकार रस को लगाने वाला ये नाड़ी रूपी नदियाँ इस देह सागर को तृप्त करती रहती हैं ।18।
हृदय के मध्य भाग में मनोवहा नाम की नाड़ी है --जो पुरुष के काम-विषयक संकल्प के द्वारा सारे शरीर से वीर्य को खींचकर बाहर निकाल देती है ।19।
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महाभारत में शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व 121वें अध्याय में में वर्णन है कि👇
इतरेष्वागमाद् धर्म: पादश्त्ववरोप्यते।
चौर्यकानृतमायाभिरधर्मश्चोपचीयते ।।24।
अन्य युगों में शास्त्रोक्त धर्म का क्रमशः एक-एक चरण क्षीण होता है और चोरी , असत्य,तथा छल कपट आदि के द्वारा अधर्म की वृद्धि होने लगती है।24।
अरोगा: सर्वसिद्धार्थश्चतुर्वर्षशतायुष:।
कृते त्रेतायुगे त्वेषां पादशो ह्रसते वय:।25।
"सतयुग में मनुष्य निरोग होते हैं उनकी संपूर्ण कामनाएं सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ(400)वर्षों की आयु वाले होते हैं ।
त्रेता युग आने पर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ (300) वर्षों की रह जाती है। इस प्रकार द्वापर में दो सौ (200) और कलयुग में (100 )वर्षों की आयु होती है।
अब आश्रम व्यवस्था का विधान केवल 100 वर्ष के
लिए है ।
उपनिषदों तथा वेदों मे ध्वनित शतंसमा भी सौवर्ष की निर्धारक है ।
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे
(ईशावास्योपनिषद)
अर्थात् मनुष्यों को कर्म करते हुए 100वर्ष जीना चाहिए!
यहाँं 200 या 300 वर्षो की तो बात ही नहीं है ।
अब बात यह है कि "शतं समा" ( सौ वर्ष) जाने की बात वेद में होती है तो 'वह किस युग की है ।
कल युग की
यदि हम सब मानते हैं कि वेदों का प्रादुर्भाव सतयुग में हुआ ।
और सतयुग में समान्य व्यक्ति चार सौ वर्ष जीवन व्यतीत करता था ।
तो वेदों के केवल जीवन सौ वर्ष क्यों माने गये हैं
जैसे-
पश्येम शरदः शतम् ।।१।।
जीवेम शरदः शतम् ।।२।।
बुध्येम शरदः शतम् ।।३।।
रोहेम शरदः शतम् ।।४।।
पूषेम शरदः शतम् ।।५।।
भवेम शरदः शतम् ।।६।।
भूयेम शरदः शतम् ।।७।।
भूयसीः शरदः शतात् ।।८।।
(अथर्ववेद, काण्ड १९, सूक्त ६७)
हम सौ शरदों तक देखें (१)।
सौ वर्षों तक हम जीवित रहें (२)।
सौ वर्षों तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे(३);
सौ वर्षों तक हम वृद्धि करते रहें, हमारी उन्नति होती रहे (४); सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें(५);
हम सौ वर्षों तक बने रहें (६);
सौ वर्षों तक हम पवित्र बने रहें (७);
सौ वर्षों से भी आगे ये सब कल्याणमय बातें होती रहें (८)।
उपर्युक्त ऋचाओं में केवल सौ वर्ष की ही कामना की है -जैसे या तीन सौ वर्ष की नहीं।
अब आप बताओ कि महाभारत प्राचीनत्तम या वेद ?
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महाभारत शान्ति पर्व मोक्षधर्मपर्व 298 वें अध्याय में वर्णन है कि पणि / वणिक समुद्रीय पोत द्वारा व्यापार करते थे।👇
वणिग् यथा समुद्राद् वै यथार्थं लभते धनम्।
तथा मर्त्यार्णवे जन्तो: कर्मविज्ञानतो गति: ।28।
जैसे वणिक समुद्र मार्ग से व्यापार करने के लिए जा कर अपने मूलधन के अनुसार द्रव्य कमा कर लाता है; उसी प्रकार संसार सागर में व्यापार करने वाला जीव अपने कर्म एवं विज्ञान के अनुरूप गति पाता है।28।
वास्तव में ये फॉनिशियन जन-जाति के लोग --जो लेबनान में कहते थे।
सारे बनिये इन्हीं के वंशज वैदिक सन्दर्भों में ये पणि कहलाए।
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प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार "रोहि"
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