स्मृतियों के पक्षपात पूर्ण विधान- स्मृतियों का उद्देश्य मनुष्यों का अचार व्यवहार एवं व्यवस्था की शिक्षा देना था ।
महाभारत में वर्णन है कि ब्राह्मण विद्या हीन होने पर भी देवता के समान और परम पवित्र पात्र माना गया है। फिर जो विद्वान है उसके लिए तो कहना ही क्या वह महान देवता के समान है और भरे हुए महासागर के समान सदगुण संपन्न है👇
(महाभारत अनुशासनपर्व के दानधर्मपर्व) पृष्ठ संख्या -6056..
अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत्।
प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् ।21।
परन्तु इसमें जातिगत विधानों की नियमावली कैसे बन गयी ? अन्य शब्दों में कहें तो स्मृतियों में " व्यवहार- कुशल पुरोहितों ने ने वैदिक सिद्धान्तों को क्रियात्मक एवं व्यवहारिक रूप तो दिया परन्तु द्वेष और अहंवाद के विधानों पर खड़े होकर यदि मनुष्य ब्रह्म -ज्ञान अध्यात्म और दर्शन के उच्च सिद्धान्तों को जान जाए ,अर्थ व्याख्या करने में समर्थ हो जाए ! तो मानवता में कैसा जाति भेद ? परन्तु स्मृतियों में बहुतायत से स्त्रीयों और शूद्रों को लक्ष्य करके उन्हें मर्यादित रहने लिए बनाए गये । --जो काल्पनिक पृष्ठ -भूमि पर स्थित हैं । परन्तु उस आध्यात्मिक विचारों के अनुकूल आचरण न करें तो या उन्हें कर्म रूप में परिणित करके ना दिखाएं तो उनका ज्ञान और विज्ञान सीखना निरर्थक है। मिथ्या है । एक ढ़कोसला स्मृतियों में विधान तो आचार, व्यवहारऔर प्रायश्चित/ 'दण्ड' को विषयगत होना चाहिए। स्मृति शास्त्रों को धर्म के ज्ञाता या धर्म के निर्धारक रढि़वादीयों ने स्मृतियों के विधानों को तीन भागों में विभाजित किया । व्यवहार और प्रायश्चित अथवा दंड यह तीनों विषय ऐसे हैं जिनके बिना व्यक्ति अथवा समाज का विकास हो नहीं सकता है! यदि मानव जन्म का लक्ष्य खाना-पीना भोग और प्रजनन ही समझ लिया जाए तो उसकी स्थिति अन्य पशुओं से कुछ ही भिन्न हो सकती है ! अधिक नहीं ! उस अवस्था में यदि वह अपने मस्तिष्कीय शक्ति का प्रयोग करके वैज्ञानिक विषयों की उन्नति रक्षा और उपभोग के साधनों की वृद्धि करके शारीरिक सुख का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ होता है । तो भी उसकी स्थिति को विशेष उत्थान ! इस पर भी नहीं कहा जा सकता उसको प्रदान सभ्यता को हम सब बता सकते हैं क्योंकि जब तक मनुष्यों की मानसिक वृत्तियों का सुधार ना हो ,आध्यात्मिक गुणों का विकास ना हो। केवल भौतिक भोग विकृतियां उत्पन्न होते हैं और उनसे मनुष्य की आत्म और चरित्र गत पतन होता है । पतन की ओर अग्रसर होता है इस तथ्य को सत्य का अनुभव करके भारतवर्ष के प्राचीन मनीषियों ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान के स्मरण निष्कर्षों को स्मृति शास्त्र के रूप में मानव समाज के नैतिकता के अर्थ प्रकट किया । जिससे विवाद की आखिरी या मिली धारा में लगाकर आत्म कल्याण का सर्वप्रथम ध्यान रखें आचार मनुष्य का आध्यात्मिक विकास तभी संभव है जब वह आरंभिक अवस्था में अपना आचरण शुद्ध रखें और संयम नियम का पालन करता रहे इसके लिए स्मृति का रोने सोलह संस्कारों का विधान बनाया मर्लिन ताहिर की जननी है और वह मनुष्य के भावों को नष्ट करके उसे पाप कर्मों की तरफ प्रेरित करती है। वास्तव में स्मृतियों का जो दूसरा विषय है वह व्यवहार अब व्यवहार और आचरण में भी अन्तर होता है । आचरण तो स्वयं व्यक्ति करता है स्वयं के ऊपर जो घटित क्रिया होती हैं वही चरित्र आचरण या स्वकर्म । जो कर्म होते हैं वह आचरण है और दूसरों के प्रति जो कर्म या क्रियाएं की जाती है वह व्यवहार है। तो स्मृतियों का दूसरा विषय व्यवहार हैं समाज में रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति को नित्य प्रति अन्य मनुष्यों के संपर्क में आना पड़ता है उसे आवश्यकता के अनुसार दूसरों से नंदन क्रय-विक्रय जमीन जा जात वाद-विवाद घंटा नाद इसी प्रकार के व्यवहार करने पड़ते हैं । ऐसे व्यवहारों की क्षमता होनी चाहिए इसके लिए हमारे समाज के जो निर्धारण करने वाले जो लोग थे । उन्होंने कुछ विधान बनाएं प्रायश्चित के अंतर्गत उन्होंने क्या किया विभिन्न प्रकार के कांच को 10 अध्यापकों का स्वरूप और उनका प्रसिद्ध बताया निस्तारण तथा अन्य व्यक्तियों के साथ किए गए अपराधों के लिए तो राजधानी और जाति दंड की व्यवस्था की जा सकती है पर सभ्यता की आरंभिक युग में भी आई है । जिन शारीरिक और मानसिक पापों को अन्य लोगों की जानकारी में किया जाना है उनका स्वयं ही प्रायश्चित के द्वारा विस्तारित करने का विधान स्मृतियों की एक बहुत बड़ी विशेषता है । कि स्मृति ग्रंथों की निर्माण यद्यपि लिखित रूप से महात्मा बुद्ध के बाद हुआ परन्तु ये विचारधाराएं थी सदियों पुरानी है । प्राचीन काल से चली आ रही है वह सभी मनुष्यों का नियम और विधियों का उल्लंघन करने पर किसी प्रकार के दंड की व्यवस्था की गई समाज के निर्धारक तत्वों द्रवारा कैसा जमाना आया कि हम स्मृति कालों के काल को भूल गए वर्णाश्रम संबंधी आचार विचार को बलपूर्वक लागू करने का किया गया अधिकांश राज्यों में स्मृतियों के अनुसार ही शासन या न्याय व्यवस्था की जाती थी उस समय प्रधान स्मृतियों के अतिरिक्त स्थानीय और तत्कालीन विशेष परिस्थितियों की दृष्टि में रखकर भी अनेक स्मृतियों की रचना की गई मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करते हुए विभिन्न नियमों और नियमों में प्रकार का अंतर पाया जाता है । जिसमें अधिकांश में प्राचीन ऋषि-मुनियों और आदेशों के आधार पर ही लोगों के द्वारा रची गई और उनमें कुछ अपनी तरफ से भी बातें समायोजित है । जो उनके स्वार्थ के अनुकूल थीें उन्हीं के नाम से यह ने प्रसिद्ध कर दिया गया है प्राचीन और विशेष रूप से माननीय धर्मशास्त्र प्रेरकों की संख्या 20 बताई है । याद रखना । कुछ तथ्यों को जान बूझ कर निम्न व हे अर्थों में। जैसे- जिस गाय के लिए भारतीय संस्कृति का मूल और प्रधान स्तम्भ मान करके उसे माता का दर्जा दिया गया उसे देवताओं की माता को पालने वाला व्यक्ति शूद्र कैसे हो सकता है ? परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोपाल और गोप जैसे शब्द शूद्रता को ग्रहण करते हैं यह बड़े दुर्भाग्य का विषय है आइए विचार करते हैं इस विषय पर👇 शूद्रेषु दास गोपाल कुल मित्रार्द्ध सीरिण:। भोज्यान्न नापितस्यश्चैव यश्चात्मानं निवेदयेत्।16। (याज्ञवल्क्य -स्मृति) गर्भ -दास , गायों का पालन करने वाला गोप कुल का मित्र, खेती में सामी, नई और जो मन वाणी तथा शरीर द्वारा अपने आपको निवेदन कर चुका हो! शूद्र होते हुए भी इन छ: का अन्न खाने योग्य होता है।16। व्यास-स्मृति में वर्णन हा कि 👇 ब्राह्मण्यां शूद्र जनितश्चचाण्डालस्त्रिविधि: स्मृत:। वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक:।10। वणिक् किरातकायस्थमालाकार कुटुम्बिन:। एते चान्ये च बहव शूद्रा भिन्न: स्वकर्मभि:। चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: । वरटोमेदचण्डालदास(श)स्वपचकोलका:।11 एते८न्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना 12। (व्यास-स्मृति) बड़ाई ,नाई ,गोप अाशाप , कुम्भकारक वणिक, किरात कायस्थ और माली कुटुम्बिन यह सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र होते हैं:- चमार ,भट्ट ,भील, धोबी पुष्कर नॉट वर्क विद चांडाल दास स्वच्छ और कुल यह सब अंतेज कहे जाते हैं ! और जो गोमांस भक्षक हैं वह भी अन्त्यज होते हैं इनके साथ सम्भाषण करने से स्नान करना चाहिए। और उनके दर्शन करके सूर्य को देखना चाहिए तब शुद्धि होती है।👇 अभोज्यान्ना: स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:। नापितान्वयपित्रार्द्धसीरिणो दासगोपका:।49। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वा८न्न नैव दुष्यति। (व्यास-स्मृति) नापित वंश परंपरा व मित्र अर्धसीरि,दास और गोप यह सब शूद्र हैं तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर भी दूषित नहीं होते हैं।49। अब शूद्रों के प्रति घृणा का चरम यहाँं देखो - कि किस प्रकार किसी को शूद्र घोषित करके उसको नाम को ही घृणा से युक्त कर दिया जाए! 👇 माङ्गल्यं ब्राह्मणस्य बलवत् क्षत्रियस्य धनोपेतं वैश्यस्य। जुगुप्सितं शूद्रस्य ( विष्णु -स्मृति) 👇 ब्राह्मण का नाम मांगलिक अर्थ का सूचक होना चाहिए और क्षत्रिय का बल वत्ता सूचक वैश्य का धनयुक्तता सूचक और शूद्र का घृणा सूचक होना चाहिए! _________________________________________ ब्राह्मण को कभी भी सोदरा स्त्री को धर्मार्थ में संलग्न नहीं रखना चाहिए वह तो केवल का कामान्ध ब्राह्मण को रति प्रदान करने के लिए होती है👇 द्विजस्य भार्या शूद्रा धर्म्मार्थे न भवेत् क्वचित् रत्यर्थ नैव सा यस्य रागान्धस्य प्रकीर्तिता। ( विष्णु-स्मृति) बाल्ययौवनबार्द्धकेष्वपि पितृभर्तृपुत्राधीना । मृते भर्त्तरिब्रह्मचर्य्य तदन्वाअग्नीरोहणं वा। (विष्णु-स्मृति) बालावस्था ,युवावस्था तथा वृद्धावस्था में भी क्रमश पिता, भर्ता और पुत्रों की अधीनता मैं रहना स्त्रियों का धर्म है । अपने स्वामी के मर जाने पर ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन अथवा उसके साथ चिता पर अारोहण करना स्त्री का परम धर्म है। ______________________________________ अथ ब्राह्मणसं वर्णानुक्रमेण चतस्रो भार्य्या भवन्ति तिस्रा क्षत्रियस्य द्वे वैश्यस्य । (विष्णु-स्मृति) ब्राह्मण की वर्णों के अनुक्रम से चार स्त्रियां होती हैं यानी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र तथा क्षेत्रीय की तीन स्त्रियां होती हैं स्वयं क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र और वैश्य की दो वैश्य और शूद्रा । तथा शूद्र की एक ही पत्नी होती है केवल शूद्र। तिस्त्रो ब्राह्मणस्य भार्य्या वर्णानुपूर्व्येण। द्वे राजन्यस्य एकैका वैश्यशूद्रयो:24। (वशिष्ठ -स्मृति) ब्राह्मण की वर्णानुपूर्वी रूप से तीन पत्नियां होती हैं। क्षत्रिय की दो पत्नियां होती हैं अर्थात ब्राह्मण की पत्नियां हुईं क्षत्रिय और वैश्य कन्या से ब्राह्मण विवाह कर सकता है और क्षत्रिय स्वयं क्षत्रिय तथा वैश्य की कन्या से और वैश्य और शूद्र की एक एक ही पत्नियां होती है यही वैश्य और शूद्र की एक एक बार होती है कुछ पुरोहितों के मतानुसार वैश्य कि एक शुद्र वर्ण की भार्या होती है किन्तु मन्त्र वर्जित। अधिकतर स्मृतियों की रचना पुराणों के पश्चात् हुई शान्तातप -स्मृति की रचना हरिवंश पुराण के बाद हुई। वासुदेव जगन्नाथसर्वभूताशयस्थित: । पातकार्णवमग्नं मां तारय प्रणतार्तिहृत्।55। हे वासुदेव हे जगत के स्वामी हे प्रणतों को पीड़ा का नाश करने वाले ,समस्त प्राणियों के अंतःकरण में विराजमान पापों की सागर में निमग्न मेरा उद्धार करो। ब्राह्मणोद्वाहनञ्चैव कर्तव्यं तेन शुद्धये श्रवणं हरिवंशस्य कर्तव्यञ्च यथाविधि।।61। इस पाप से छुटकारा पाने के लिए किसी ब्राह्मण का उद् वाहन करना चाहिए और विधि पूर्वक "हरिवंश पुराण" का श्रवण करना चाहिए।61। आपस्तम्बः -स्मृति द्वितीय अध्याय। कारूहस्तगतं पुण्यं यच्च प्रामाद्विनि: स्तनम । स्त्रीबालवृद्धाचरितं प्रत्यक्षाद्दृष्ममेव च ।1। शिल्पी के हाथ गई हुई वस्तु पवित्र मानी जाती है और जो पात्र व्यायाम से निकली हुई हो वह भी पवित्र है इस्त्री वाला कोई व्यक्ति के द्वारा जो कुछ किया जावे और पवित्र हैं जो प्रत्यक्ष में अपनी आंखों से नहीं देखी जाए वह भी पवित्र मानी जाती है। न दुष्येत् सन्तता धारा वाताद्धृताश्च रैणव:। स्त्रीयो वृद्धाश्च बालाश्च न दुष्यति कदाचन।3। निरंतर बहने वाली धारा दूषित नहीं होती है और वायु द्वारा उठाए गए रेणुका भी दूषित नहीं माने जाते स्त्री बालक वृद्ध कभी भी दूषित नहीं होते हैं।3। आपने सही अपना वस्त्र ,जाया ,संतति और अखंड अन्न यह सब अपनी तो शुद्ध होते हैं और यह दूसरों के अशुद्ध कहीं गए हैं।
_________________________________________ प्रस्तुति-करण:- यादव योगेश कुमार रोहि yogeshrohi पर 5:41 am शेयर करें कोई टिप्पणी नहीं: एक टिप्पणी भेजें
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