गोपो की उत्पत्ति के विषय में ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा है ।👇
कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:
आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अर्थात कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण के समान थे ।
और जब भगवान की नंद राय से बात हुई है तब उन्होनें नन्द से कहा !
"हे वैश्येन्द्र सति कलौ न नश्यति वसुन्धरा "
ब्रह्म-पुराण 128/33
है वैश्यों के मुखिया कलि का आरम्भ होने से कलि धर्म प्रचलित होंगेे ।
पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी ।
इसमें नन्द जी का वैश्य होना पाया जाता है ।
परन्तु हरिवंश पुराण में तो 👇
और यह श्रेणि पुरोहितों ने गो-पालन वृत्ति के कारण दी तो ध्यान रखना चरावाहे ही किसान हुए।
तो क्या किसान क्षत्रिय न होकर वैश्य हुए।
क्यों कि गाय-भैंस सभी किसान पालते हैं ।
क्या वे वैश्य हो गये ?
धूर्त पुरोहितों ने द्वेष वश यादवों का इतिहास विकृत किया अन्यथा विरोधाभास और भिन्नता सत्य के रूप निर्धारण में स्थाना हि कहाँ ?
परन्तु कृष्ण जी जब नंद राय के घर थे तब उनके संस्कार को नंद जी के पुरोहित ना आए गर्ग जी को वसु देव जी ने भेजा यह बड़े आश्चर्य की बात है !
नन्द के पुरोहित साण्डिल्य भी गर्ग के शिष्य थे।
यही कृष्ण के प्रपौत्र वज्र के पुरोहित थे।
तो इसमें भेद निरूपण नहीं होता ।
परन्तु उसी पुराण में लिखा है कि जब श्रीकृष्ण गोलोक को गए तब सब गोपोंं को साथ लेते गए और अमृत दृष्टि से दूसरे गोपो से गोकुल को पूर्ण किया जता है।
वस्तुत यहाँं सब विकृत पूर्ण कल्पना मात्र है ।
योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि:।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णं चकार स:।।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
क्यों कि यदि गोप वैश्य ही होते तो कृष्ण की नारायणी सेना के यौद्धा कैसे बन गये।
जिन्होनें ने अजुर्न -जैसे यौद्धा को परास्त कर दिया।
अब सत्य तो यह है कि जब धूर्त पुरोहितों ने किसी जन-जाति से द्वेष किया तो
उनके इतिहास को निम्न व विकृत करने के लिए
कुछ काल्पनिक उनकी उत्पत्ति कथाऐं ग्रन्थों में लिखा दीं ।
क्यों कि जिनका वंश व उत्पत्ति का ज्ञान होने पर
ब्राह्मणों से उनकी गुप्त या अवैध उत्पत्ति कर डाली ।
-जैसे यूनानीयों की उत्पत्ति
क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्री ( गौतम-स्मृति)
पोलेण्ड वासी (पुलिन्द) वैश्य पुरुष क्षत्रिय कन्या।(वृहत्पाराशर -स्मृति)
आभीर:- ब्राह्मण पुरुष-अम्बष्ठ कन्या।
आभीरो८म्बष्ठकन्यायाम् मनुःस्मृति 10/15
अब दूसरी -स्मृति में वर्णन है कि
महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् आभीर ! तथैव च आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् (128-130)
माहिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो पैदा हो वह आभीर है।
तथा ब्राह्मण द्वारा अाभीर पत्नी में भी अाभीर ही उत्पन्न होता है ।
अब कल्पना भी मिथकों का आधार है
सत्य सदैव सम और स्थिर होता है जबकि असत्य बहुरूपिया और विषम होता है ।
अत: एक -स्मृति कहती है की ब्राह्मण द्वारा माहिष्य स्त्री में आभीर उत्पन्न होता है।
और दूसरी -स्मृति कहती है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न आभीर है ।
अब देखिए माहिष्य और अम्बष्ठ अलग अलग जातियाँ हैं ।
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ब्राह्मणाद्वैश्यकन्यायामम्बष्ठोनाम जायते मनुःस्मृति “
( ब्राह्मण द्वारा वैश्य कन्या में उत्पन्न अम्बष्ठ है ।
क्षत्रेण वैश्यायामुत्पादितेमाहिष्य:
( क्षत्रिय पुरुष और वैश्य कन्या में उत्पन्न माहिष्य है वैश्यात्ब्राह्मणीभ्यामुत्पन्नःमाहिष कथ्यते।
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ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
आर्य्य समाजी विद्वान मनुःस्मृति के इस श्लोक को प्रक्षिप्ति मानते हैं ।
जबकि हम मनुःस्मृति को ही प्रक्षिप्त मानते हैं ।
क्यों बहुतायत से मनुःस्मृति में प्रक्षिप्त रूप ही है ।
क्यों कि मनुःस्मृति पुष्य-मित्र सुंग के परवर्ती काल खण्ड में जन्मे सुमित भार्गव की रचना है ।
यदि मनुःस्मृति मनु की रचना होती तो इसकी भाषा शैली केवल उपदेश मूलक विधानात्मक होता
परन्तु इसमें ऐैतिहासिक शैली का प्रयोग सिद्ध करता है कि यह तत्कालीन उच्च और वीर यौद्धा जन-जातियों को निम्न व हीन बनाने के लिए 'मनु के नाम पर लिखी गयी।
परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है ।
'वह भी कल्पना प्रसूत
आर्य्य समाजी के कुछ बुद्धिजीवी इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देते हैं 👇
—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।।
(10/34) मनुःस्मृति
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ।।
(10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)मनुःस्मृति
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)
अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का सृजन वर्ण व्यवस्था के जातिगत बनाने के लिए किया गया।
अवान्तरविरोध होने से से निम्न सम्पूर्ण श्लोक प्रक्षिप्त हैं
(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिख दिया है ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है । 33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।
किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिख दी गयी है ।
(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।
(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें श्लोक में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है ।
यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुःस्मृति मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकती ।
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अब झूँठ तो यही है कि कभी तो ब्राह्मण अम्बष्ठ कन्या से अहीरों को उत्पन्न कर देता है।
तो कभी माहिष्य कन्या से अहीरों को उत्पन्न कर देता है।
परन्तु यहाँं तो सिद्धान्त ही प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है-
कि चाहें भूड़ खेत में आम अपना बीज डालता है तब भी बबूल पैंदा होता है और चाहें पुलिन खेत में आम अपना बीज डालता है तब भी बबूल पैंदा होता है।
नि: सन्देह जिस जन-जाति को पतित और हीन
बनाना हे तो उसका उच्च इतिहास मिटा कर निम्न और हीनता पूर्ण तरीके से और नया लिख दो ।
परन्तु महान पूर्वजों के खून का जुनून ( आवेश)
उस असत्य का पर्दा फास कर ही देता है ।
और वास्तव में गुर्ज्जरः जाट और अहीर ही पश्चिमीय एशिया के इतिहास में भी महान यौद्धा हैं ।
किसी व्यभिचारी रूढ़िवादी पुरोहित के शूद्र कहने से ये शूद्र नहीं हो जाते !
अहीर चरावाहे रहे यह सत्य है
इनका समूह घोष में रहता है जहां बहुत सी घास तृण हो तथा समीप में जल हो।
वहां निवास होता है भेड़ बकरी गो भैंस आदि को तृण जल से पुष्ट करना इनका काम है ।
दूध दही घी मट्ठा धन की प्राप्ति के लिए बेचते हैं ।
स्मृतियों में फिर भी इन अहीरों को धर्म में शूद्र जाति से भी कुछ हीन माना गया हैं ।
धिक् धिक्कार है ऐसे मिथ्या अहं-तुष्टिकरण वादी धर्म को
सही अर्थ में हिन्दु धर्म ब्राह्मण धर्म का भावानुवाद है ।
इन पुरोहितों ने आध्यात्मिक साधना-पद्धति मूलक विचार और आत्मा की अमरता के सिद्धान्त द्रविड़ो (Druid) लोगों से हाइजेक किए ।
और आर्य्य विशेषण आभीरों का-
नहीं बहुत से लोगों का मत है कि आभीर शब्द से बिगड़कर कर अहीर बन गया है जाति में अनेकों विवाद हैं इस समय कोई अपने को क्षत्रिय वंश में कहते हैं कोई उनको वैश्य वर्ण में कहते हैं स्मृति कारों ने अहीरों की उत्पत्ति दो तरह से बतायी है।
मनुःस्मृति कार अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से अाभीर की उत्पत्ति करता है ।
एक -स्मृति क्षत्रिय से माहिष्य स्त्री में आभीर उत्पन्न कर देता है।
अब कोई कहते हैं कि यह बाबा नंद के वंशज हैं उनके 64 गोत्र हैं जैसे एक कहावत है
64 गोत्र के अहीर के धुर गोकुल के निकास।
बेटे बाबा नंद के यह केलि करें कैलास।
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